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मंगलवार, 23 सितंबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--017

विरोधों में एकता और शून्य में प्रतिष्ठा—(प्रवचन—सतहरवां)


अध्याय 5 : सूत्र 2

स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का आकाश कैसा धौंकनी की तरह है!
इसे रिक्त कर दो, फिर भी इसकी शक्ति अखंडित रहती है;
इसे जितना ही चलाओ, उतनी ही हवा निकलती है।
शब्द-बाहुल्य से बुद्धि निःशेष होती है।
इसलिए अपने केंद्र में स्थापित होना ही श्रेयस्कर है।

जीवन बहुत से विरोधी आधारों पर निर्मित होता है। जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा ही नहीं; दिखाई पड़ने वाले तत्वों के पीछे न दिखाई पड़ने वाले तत्व होते हैं, जो बिलकुल ही विपरीत होते हैं।
विपरीत का हमें स्मरण भी नहीं आता। यदि हम जन्म देखते हैं, तो मृत्यु की हमें कोई सूचना नहीं मिलती। और अगर जन्म के क्षण में कोई मृत्यु का खयाल करे, तो हम उसे पागल कहेंगे। लेकिन जन्म के पीछे मृत्यु छिपी रहती है।
और जो जानता है, वह जन्म में मृत्यु को तत्क्षण देख लेता है। ऐसा ही जब कोई मर रहा हो, तो उसकी मरणशय्या के पास खड़े होकर हमें उसके जन्म का कोई भी खयाल नहीं आता।

लेकिन हर मृत्यु के पीछे जन्म की यात्रा शुरू हो जाती है। और जब कोई सुंदर होता है, तो हमने कभी नहीं सोचा कि कुरूप हो जाएगा। और जब कोई युवा होता है, तो हमने युवा के सौंदर्य में वार्धक्य के पदचाप नहीं सुने। और जब कोई सफल होता है, तो असफलता निकट है, यह हमारे स्मरण में नहीं आता। और जब कोई राज-सिंहासनों पर प्रतिष्ठित होता है, तो पृथ्वी पर गिर जाने की और धूल-धूसरित हो जाने की घड़ी बहुत निकट है, इसका हमें कोई स्मरण नहीं होता है।
जीवन विपरीत को अपने में छिपाए हुए है। इसलिए ज्ञानी वह है जो प्रतिपल विपरीत को भी देखने में समर्थ है। जो जीवन में मृत्यु को देख लेता है और अंधकार में प्रकाश को और सफलता में असफलता को और सौंदर्य में कुरूप को और जो प्रेम में घृणा के बीज देख लेता है और जो प्रशंसा में निंदा की यात्रा देख लेता है, वही ज्ञानी है।
लाओत्से इस सूत्र में इस विरोध की तरफ सबसे गहरी खबर देता है। इस विरोध का सबसे गहरा तल क्या है? कभी आपने लुहार की दुकान पर धौंकनी देखी है? लाओत्से उसका उदाहरण लेता है। वह कहता है, जब धौंकनी बिलकुल खाली हो जाती है, रिक्त, तब ऐसा मत समझना कि वह शक्तिहीन हो गई। सच तो यह है कि खाली धौंकनी में ही शक्ति होती है, भरी धौंकनी में शक्ति नहीं होती। लुहार धौंकनी को खाली इसीलिए करता है, ताकि वह शक्तिशाली हो जाए। फिर उसी शक्ति, उस खालीपन की शक्ति से, पावर ऑफ एम्पटीनेस से और हवा भीतर खींची जाती है। भरी हुई धौंकनी हवा को भीतर नहीं खींच सकती। भरी हुई धौंकनी इतनी भरी हुई है कि अब उसमें और कुछ भरा नहीं जा सकता। भरी हुई धौंकनी भरे होने की आखिरी सीमा पर है। उसमें अब और शक्ति नहीं बचती। वह निर्वीर्य हो गई, वह निःशक्त हो गई। अब उससे कुछ काम नहीं लिया जा सकता। लेकिन जब लुहार की धौंकनी खाली होती है, तब शक्तिशाली होती है। अब उसे फिर भरा जा सकता है।
मृत्यु के क्षण में आदमी की धौंकनी दब गई, खाली हो गई। अब फिर जीवन प्रकट हो सकता है। मृत्यु के क्षण में, जो हवा थी आपके भीतर, निकल गई। अब आप फिर जीवन की हवाओं को भीतर भर सकेंगे। कभी आपने सोचा कि जब आपकी श्वास बाहर जाती है, तभी आप जीवन को भीतर अपशोषित करने में समर्थ हो पाते हैं! जब श्वास आपके बाहर होती है, तब आप शक्तिशाली होते हैं, खाली नहीं। श्वास से खाली होते हैं, लेकिन जीवन को खींचने की क्षमता आपकी प्रगाढ़ हो जाती है।
लाओत्से कहता है कि धौंकनी जब खाली हो लुहार की, तो ऐसा मत समझना कि शक्तिहीन हो गई। खींचेगी वायु को भीतर, फेंकेगी वायु को बाहर। वह जो खालीपन है, वह भरे होने की तरफ एक कदम है। लेकिन हमें खालीपन में सिर्फ खालीपन दिखाई पड़ता है, और भरेपन में सिर्फ भरापन दिखाई पड़ता है।
लाओत्से कहता है, खालीपन भरेपन की तरफ एक कदम है और भरापन खाली होने की पुनः तैयारी है। और जीवन के ये दाएं और बाएं पैर हैं। एक पैर से जीवन नहीं चलता। श्वास भीतर आती है, वह भी जीवन का एक पैर है। और श्वास बाहर जाती है, वह भी जीवन का एक पैर है। अगर दो श्वास को देखें, तो खयाल में आ जाएगा कि बाहर जाती श्वास मौत जैसी है, भीतर आती श्वास जन्म जैसी है। जो लोग श्वास के विज्ञान को गहराई से जानते हैं, वे कहते हैं, हर श्वास पर हम मरते हैं और पुनर्जीवित होते हैं।
लेकिन मृत्यु का अर्थ शक्तिहीन हो जाना नहीं है। मृत्यु का अर्थ केवल इतना ही है कि हम पुनः शक्तिशाली होने के लिए तैयार हो गए; हमने पुराने को फेंक दिया और नए को भरने की हमारी क्षमता फिर स्पष्ट हो गई है।
लाओत्से कहता है कि स्वर्ग और पृथ्वी के बीच भी अस्तित्व धौंकनी की भांति चलता है। स्वर्ग और पृथ्वी के बीच भी अस्तित्व धौंकनी की भांति चलता है। पूरे जगत को हम जाती और आती हुई श्वास की व्यवस्था में समझ सकते हैं--पूरे जगत को! अगर सुबह सूरज का निकलना भरती हुई श्वास है, तो सांझ सूरज का डूब जाना फिर रिक्त होती श्वास है। पूरा जगत श्वास से स्पंदित है--धौंकनी की भांति।
और अभी--लाओत्से को तो खयाल में भी नहीं हो सकता था--अभी आइंस्टीन और उसके साथियों की सतत खोज का जो परिणाम है, वह यह है कि एक नवीनतम खयाल फिजिक्स ने जगत को दिया। और वह है एक्सपैंडिंग यूनिवर्स का। अब तक हम सोचते थे कि जगत थिर है। लेकिन अब वैज्ञानिक कहते हैं, जगत एक्सपैंडिंग है, विस्तार होता हुआ है। जैसे कि कोई बच्चा अपने रबर के गुब्बारे में हवा भर रहा हो और गुब्बारा बड़ा होता जाए, ऐसा जगत रोज बड़ा हो रहा है। जितनी देर हम यहां बोलेंगे, उस बीच जगत बहुत बड़ा हो चुका होगा। प्रति सेकेंड लाखों मील की रफ्तार से जगत बड़ा हो रहा है। उसकी जो बाहरी परिधि है, वह आगे फैलती जा रही है। तारे एक-दूसरे से दूर होते जा रहे हैं। जैसे कि एक छोटा रबर का फुग्गा है। उसको हम फुलाएंगे, तो उसकी परिधि पर दो बिंदु अगर बने हों, तो जैसे-जैसे फुग्गा फूलता जाएगा, दोनों बिंदु दूर होते जाएंगे। फुग्गा बड़ा होता जाएगा, बिंदु दूर होते जाएंगे। सब तारे एक-दूसरे से दूर होते जा रहे हैं; केंद्र से परिधि दूर होती जा रही है।
लेकिन एक बड़ी कठिनाई में आइंस्टीन ने पश्चिम के विज्ञान को डाल दिया। और वह यह कि इसका अंत क्या होगा? और यह कहां होगा समाप्त? यह एक्सपैंशन कहां जाकर बंद होगा? और बंद होगा, तो इसके बंद होने के कारण क्या होंगे? अभी तक पश्चिम के पास दूसरी बात का खयाल नहीं है। लाओत्से से मिल सकता है, उपनिषदों से मिल सकता है। वह दूसरा खयाल यह है कि यह जगत का फैलाव भरती हुई श्वास है। लेकिन जो चीज फैलती है, फिर वह सिकुड़ती है। फिर लौटती हुई श्वास भी होगी। पश्चिम का विज्ञान अभी फैलती हुई श्वास के खयाल पर पहुंच गया है; अभी लौटती हुई श्वास का खयाल और आना जरूरी है।
पूरब के मनीषी कहते रहे हैं कि उस फैलते हुए एक्सपैंशन को हम कहते हैं सृष्टि, और जब सिकुड़ती है सृष्टि, श्वास जब बाहर जाने लगती है, तो हम उसे कहते हैं प्रलय। जब जगत पूरा फैल जाता है, तो अनिवार्यतया वापस लौटना शुरू हो जाता है। जैसे आपने श्वास भर ली और आपके फेफड़े फैल गए; और फिर श्वास निकलनी शुरू होगी और फेफड़े सिकुड़ जाएंगे।
भारत ने तो बहुत अदभुत बात कही है। उसने तो एक सृष्टि के काल को ब्रह्मा की एक श्वास कहा है। उसे हम यूं कह सकते हैं, अस्तित्व की एक श्वास। जब ब्रह्मा श्वास लेता है, तो जगत खिल जाता है, फैल जाता है। और जब ब्रह्मा श्वास छोड़ता है, तो सब सिकुड़ कर अपने बीज में चला जाता है।
लाओत्से कहता है, पृथ्वी और स्वर्ग के बीच में ऐसी ही धौंकनी के श्वास का खेल है। और पृथ्वी और स्वर्ग के बीच में जितनी वस्तुएं हैं, सभी इस द्वंद्व से घिरी रहती हैं--फैलना, सिकुड़ना
लाओत्से यह क्यों कहना चाहता होगा? लाओत्से इसलिए कहना चाहता है कि अगर आप फैलने के लिए बहुत आतुर हैं, तो सिकुड़ने की तैयारी रखना। अगर आप जीवन को पाने के लिए बहुत उत्सुक हैं, तो मरने की तैयारी रखना। अगर सुंदर होने की बहुत चाह है, तो कुरूप होने के आप बीज बो रहे हैं। अगर सफल आप होना चाहते हैं, तो असफलता की सीढ़ियां आप निर्मित कर रहे हैं।
लाओत्से से किसी ने कहा है जाकर एक दिन सुबह कि लाओत्से, तुमने कभी दुख जाना? तो लाओत्से हंसने लगा। उसने कहा, नहीं जाना; क्योंकि मैंने सुख को जानने की कभी कामना नहीं की।
दुख तो हम भी चाहते हैं कि न जानें। लेकिन हम इसीलिए चाहते हैं कि दुख न जानें, ताकि सुख को जानते रहें। हम भी चाहते हैं, दुख न हो; लेकिन इसीलिए ताकि सुख बना रहे। लाओत्से कहता है, मैंने दुख नहीं जाना, क्योंकि मैंने सुख को जानने की कोई आकांक्षा नहीं की।
हम दुख जानते ही रहेंगे, क्योंकि सुख को बोते समय ही दुख के बीज बो दिए जाते हैं। सुख की चाह से ही दुख का जन्म होता है। भीतर आती श्वास ही बाहर जाती श्वास बन जाती है। फैलाव ही सिकुड़ने का रास्ता है। और प्रकाश ही अंधेरे का द्वार बन जाता है। वह विपरीत हमारे खयाल में नहीं है। और पूरे समय लुहार की धौंकनी की तरह जीवन अपने विपरीत के बीच डोलता रहता है।
लाओत्से को हराया नहीं जा सकता, क्योंकि लाओत्से कहता है, मैंने कभी जीतना नहीं चाहा। और लाओत्से कहता था कि मेरा कभी अपमान कोई नहीं कर पाया, क्योंकि मैंने कभी कोई सम्मान की व्यवस्था नहीं की। और जब मैं कभी सभाओं में गया, तो मैं वहां बैठा जहां लोग जूते उतारते थे, क्योंकि वहां से और पीछे हटाए जाने का कोई उपाय न था। लाओत्से कहता था, मैं सदा नंबर एक रहा, क्योंकि नंबर दो मुझे कोई भी नहीं रख सकता। क्योंकि मैं आखिरी नंबर पर ही खड़ा रहा हूं। मैं कतार में सबसे पीछे ही खड़ा था। उससे पीछे करने का कोई उपाय न था। इसलिए मुझे कभी कोई पीछे करने में समर्थ नहीं हो सका।
यह बड़ी उलटी बात लगती है। लेकिन ठीक यही है। जो पीछे ही खड़ा है, उसे पीछे करने का कोई उपाय नहीं हो सकता। लेकिन जो आगे खड़ा है, उसके आगे खड़े होने में ही उसने वह सब व्यवस्था कर रखी है, जो उसे पीछे कर देगी। असल में, आगे खड़े होने के लिए जिन सीढ़ियों का उसने उपयोग किया है, उन्हीं सीढ़ियों का उपयोग उसे पीछे करने के लिए कोई और करेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन सुबह एक नदी के किनारे मछलियां पकड़ रहा है। उसने कुछ केंकड़े भी पकड़ लिए हैं। एक छोटी सी बालटी में उसने चार-छह केंकड़े भी डाल दिए हैं। गांव के तीन-चार बड़े राजनीतिज्ञ सुबह-सुबह घूमने निकले हैं। उन्होंने नसरुद्दीन को मछलियां पकड़ते बैठे देखा और उसकी टोकरी में, बालटी में केकड़ों को चलते देखा। तो उनमें से एक ने कहा, मुल्ला, अपनी बालटी को ढांक दो तो अच्छा; अन्यथा ये केंकड़े निकल भागेंगेनसरुद्दीन ने कहा, ढांकने की कोई जरूरत न पड़ेगी। दीज क्रैब्स आर बॉर्न पोलिटीशियंस। ये जो केंकड़े हैं, जन्मजात राजनीतिज्ञ हैं। एक चढ़ता है, तो दूसरे उसे खींच कर नीचे गिरा लेते हैं; ये भाग नहीं सकते। चढ़ जाते हैं, भाग नहीं पाते। क्योंकि वे तीन इनके पीछे पड़े हैं पूरे समय। जब उन तीन में से कोई चढ़ता है, तो बाकी तीन हमेशा खींचने को पीछे हैं। मुल्ला ने कहा, पहले मैं भी टोकरी को ढांकता था। लेकिन फिर मैंने पाया, बेकार है। ये तो जन्मजात राजनीतिज्ञ हैं; इन्हें ढांकने की कोई भी जरूरत नहीं है।
असल में, जब भी आप चढ़ने लगते हैं ऊपर, तब आप न मालूम कितने लोगों को आपको पीछे खींच लेने के लिए उत्सुक कर देते हैं। आपके चढ़ने में ही वह कीमिया छिपा है। असल में, चढ़ने का मजा ही तब है, जब कोई आपको खींचने को उत्सुक हो जाए। इसे थोड़ा समझ लें। अगर कोई खींचने को उत्सुक न हो, तो आपको चढ़ने में कोई मजा न आए। या आए? आप एक सिंहासन पर बैठ जाएं और कोई आपको नीचे उतारने को उत्सुक न हो, तो सिंहासन बेकार हो जाए।
सिंहासन का मूल्य यही है कि जब उस पर कोई चढ़ेगा, तो लाखों लोग उतारने को, धकाने को, उसकी जगह बैठने को आतुर हो जाएंगे। नहीं तो उसे कौन सिंहासन कहेगा? जिस पर बैठे हुए आदमी को कोई उतारने को उत्सुक नहीं है। आप बैठते ही इसलिए हैं कि वह जगह ऐसी है, जहां न मालूम कितने लोग बैठना चाहते हैं। आपके बैठने में जो रस है, वही रस दूसरों को आपको नीचे उतार लेने का रस है। वह साथ-साथ, संयुक्त है।
और लाओत्से कहता है, तुम हमें नीचे न उतार पाओगे, क्योंकि हम वहां बैठे हैं, जिसके नीचे और कोई जगह ही नहीं होती। हमारा सिंहासन सुरक्षित है।
यह लाओत्से उलटी बात को जानता है। और उलटी बात को जान लेना इस जगत में परम ज्ञान का सूत्र है। अगर हम प्रथम होना चाहते हैं, तो हम प्रथम ही होना चाहते हैं। यह उलटी बात का हमें कोई पता नहीं कि अंतिम ही प्रथम हो सकता है। और अगर हम भरना चाहते हैं, तो हम भरना ही चाहते हैं। हमें उलटी बात का कोई भी पता नहीं कि जो शून्य है, खाली है, वही केवल भरा जाता है। अगर हम सम्मान पाना चाहते हैं, तो हम सीधे ही सम्मान पाने चल पड़ते हैं। हमें पता ही नहीं है कि यह अपमान को पाने का इंतजाम है। लेकिन विपरीत को देख लेना तो बड़ी कुशलता की बात है, विपरीत हमें दिखाई नहीं पड़ता।
मुल्ला नसरुद्दीन से मिलने कोई आया है उसके घर। जैसे ही भीतर आया, नसरुद्दीन ने उससे कहा, बैठें! कुर्सी ले लें! लेकिन वह आदमी नाराज हो गया, क्योंकि वह कोई साधारण आदमी न था। वह बहुत बड़ा धनपति था। और ऐसे साधारण भाव से कहा जाना कि बैठें, कुर्सी ले लें, उसे पीड़ादायी हुआ। उसने कहा, नसरुद्दीन, तुम जानते हो, मैं कौन हूं? हम सभी बताने को उत्सुक हैं कि मैं कौन हूं! नसरुद्दीन ने कहा, बड़ी कृपा होगी, बताएं। उस आदमी ने कहा कि तुम्हें पता है कि इस नगर में मुझसे बड़ा धनशाली कोई भी नहीं? नसरुद्दीन ने कहा, क्षमा करें, मुझे पता नहीं था; देन यू कैन टेक टू चेयर्स। तब आप दो कुर्सियों पर बैठ जाएं। और मैं क्या कर सकता हूं!
दो कुर्सियों पर तो बैठा भी नहीं जा सकता, चाहे आप कितने ही बड़े आदमी हों। लेकिन दो कुर्सी पर बैठने का मन होता है। तब एक तरकीब है। कुर्सी के ऊपर कुर्सी रख कर बैठा जा सकता है।
उस आदमी ने कहा, तुम पागल तो नहीं हो नसरुद्दीन! दो कुर्सी पर मैं कैसे बैठूंगा? नसरुद्दीन ने कहा, मैं तरकीब भी बताता हूं। आप एक कुर्सी के ऊपर दूसरी कुर्सी रख लें, उस पर चढ़ कर बैठ जाएं।
सिंहासन कई कुर्सियां हैं एक के ऊपर एक। बहुत कुर्सियों पर बैठना हो, इस हॉल में जितनी कुर्सियां हैं, सब पर बैठना हो, तो बहुत मुश्किल है। फिर एक के ऊपर एक कुर्सी रखी जा सकती हैं--वर्टिकल। सिंहासन का मतलब है, हजारों कुर्सियां जिसके नीचे हैं, लाखों कुर्सियां जिसके नीचे हैं।
लेकिन जितने लोग उन कुर्सियों पर दब जाएंगे, वे आपकी ऊपर की कुर्सी को फेंकने की कोशिश में लगे ही रहेंगे। खाली कुर्सियों पर बैठने में कोई भी मजा नहीं है। आदमी, असल में, आदमी के ऊपर बैठना चाहता है। खाली कुर्सी पर बैठने से क्या फायदा होगा! आदमी आदमी के ऊपर बैठना चाहता है।
लेकिन जितनी आपकी कुर्सी ऊपर होती जाती है, उतने आप खतरे में पड़ते जाते हैं। क्योंकि उतने ही लोग आपके नीचे दबते चले जाते हैं। वे आपको फेंक कर रहेंगे। इसलिए दुनिया में पहली कुर्सी सुरक्षित नहीं है, सबसे ज्यादा असुरक्षित जगह है।
लाओत्से कहता है, लेकिन हमारा सबका मन चीजों को सीधे पाने का होता है, क्योंकि हमें विपरीत का कोई भी पता नहीं है। अगर विपरीत का पता हो, तो हम उस महान कला को जान जाते हैं, जिसका नाम धर्म है।
धर्म कहता है, अगर तुम परम जीवन पाना चाहते हो, तो तुम परम मृत्यु के लिए राजी हो जाओ। डाई दिस वेरी मोमेंट, इसी क्षण मर जाओ, और परम जीवन तुम्हारा है! और धर्म कहता है, अगर तुम्हें ऐसा धन पाना है जिसे चोर न चुरा सकें, तो तुम बिलकुल निर्धन होने को ही अपना धन मान लो। और अगर तुम्हें ऐसी प्रतिष्ठा चाहिए जिसके विपरीत कोई उपाय नहीं है, तो तुम अपने ही हाथ से अप्रतिष्ठित हो जाओ।
जापान में एक फकीर हुआ है, लिंची। जब वह मरा, तब वर्षों बाद लोगों को पता चला कि उसने अपने ही बाबत बहुत सी गलत खबरें जाहिर कर रखी थीं। लोगों को उसने राजी कर रखा था कि उसके संबंध में गलत खबरें उड़ाते रहें। लिंची बिलकुल अप्रतिष्ठित मरा। मरते वक्त जो मित्र उसके पास थे, उनसे उसने कहा कि तुम्हारी कृपा कि तुमने मेरे संबंध में बहुत सी खबरें उड़ा दीं; मैं भीड़-भाड़ के पागलपन से बच गया। मैं निश्चिंत मर रहा हूं। मैं इतना अप्रतिष्ठित हो गया कि मेरी प्रतिष्ठा को हिलाने के लिए भी कोई नहीं आता।
अप्रतिष्ठित को कौन हिलाने आता है? लेकिन प्रतिष्ठित को लोग हिलाने पहुंच जाते हैं। उसकी प्रतिष्ठा ही आकर्षण बन जाती है कि हिलाने को आओ।
लाओत्से कहता है, इस अस्तित्व में विरोधी श्वास चल रही है, जैसे धौंकनी चलती हो लुहार की। इसमें वह एक बात पर जोर देता है कि जब धौंकनी खाली हो--इसे रिक्त कर दो, फिर भी इसकी शक्ति अखंडित रहती है--जब धौंकनी बिलकुल रिक्त होती है, तब यह मत समझना कि उसकी शक्ति टूट गई; उसकी शक्ति अखंडित होती है, पूर्ण होती है। शून्य के पास पूर्ण की शक्ति होती है।
शून्य के पास पूर्ण की शक्ति?
फिजिक्स कहती है कि हम जब एटम को तोड़ते हैं, तब कुछ भी नहीं बचता, शून्य रह जाता है। लेकिन इस जगत में शक्ति का सब से बड़ा स्रोत अणु के विस्फोट से होता है। हिमालय उतना बड़ा शक्तिशाली नहीं है, जितना एक छोटा सा--इतना छोटा कि आंख से दिखाई न पड़े! अगर हम एक लाख अणुओं को एक के ऊपर एक रखें, तो आदमी के बाल की मोटाई के बराबर होते हैं। एक लाख अणुओं को एक के ऊपर एक राशि लगा दें, तब एक बाल की मोटाई होती है। बाल का लाखवां हिस्सा अगर हम कर सकें, बारीक, तो अणु होगा। बाल की खाल निकालने की बात हमने सुनी है; लेकिन इसको तो बाल की खाल की खाल की, ऐसा कई बार कहना पड़े, तब खाल आएगी।
मुझे एक घटना याद आती है। नसरुद्दीन का एक मित्र गांव से आया है, देहात से। और एक बतख भेंट कर गया है। बतख आई घर में, तो नसरुद्दीन ने उसका शोरबा बनाया, मित्र को खिलाया। फिर पंद्रह दिन बाद एक आदमी आया, नसरुद्दीन ने उसे बिठाया। और उसने कहा कि मैं उस मित्र का मित्र हूं जो बतख लाया था। नसरुद्दीन ने उसे भी शोरबा पिलाया।
मगर मेहमान आते ही चले गए। फिर मित्र का मित्र का मित्र आया, फिर मित्र का मित्र का मित्र का मित्र आया; ऐसी कतार बढ़ती चली गई। छह महीने में नसरुद्दीन घबड़ा गया। और जो भी आया, उसने कहा कि मैं उस आदमी के मित्र का मित्र का मित्र का मित्र का मित्र हूं जो बतख लाया था। नसरुद्दीन के भी सामर्थ्य की सीमा आ गई। वह गरम पानी भीतर से लाया और उसने कहा, शोरबा पीएं। उस आदमी ने कहा कि यह शोरबा है? गरम पानी है!
नसरुद्दीन ने कहा कि वह जो बतख लाया था, उस बतख के शोरबे के शोरबे का शोरबा का शोरबा है। छह महीने हो गए बतख आए हुए; अब तुम अगर बतख का शोरबा चाहते हो, तो बड़ी गलती बात है। जितनी यात्रा मित्र से तुम्हारी हो गई, उतनी ही बतख से इस शोरबे की हो गई है। अगली बार आओगे, ठंडा पानी मिलेगा, गरम भी नहीं रह जाएगा; क्योंकि यात्रा लंबी होती जा रही है।
अगर हम अणु को सोचें, तो वह बाल की खाल भी नहीं है। बहुत लंबी यात्रा है। एक लाख बार हम बाल को छीलते चले जाएं, तब जो बचेगा! बचेगा कुछ? अब तक अणु को देखा नहीं जा सका है। नहीं, खाली आंख से ही नहीं, यंत्र की आंख से भी अणु को देखा नहीं जा सका है। और वैज्ञानिक कहते हैं कि अणु के संबंध में हम जो कुछ कहते हैं, वह ठीक वैसा ही है, जैसा पुराने धार्मिक लोग ईश्वर के संबंध में कहते थे। हमने देखा नहीं है, लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं, जो कि अणु को मानने से हल हो जाती हैं। इसलिए हम मानते हैं।
ऐसा ही धार्मिक लोग कहते थे। ईश्वर को देखा नहीं है, लेकिन उसके बिना बहुत सी बातों के सवाल मिलने मुश्किल हो जाते हैं। उसको मान लेते हैं, तो सवाल मिल जाते हैं। एजम्शन है। या ऐसा कह सकते हैं कि ईश्वर तो दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन उसके परिणाम दिखाई पड़ते हैं।
ऐसा ही वैज्ञानिक कहते हैं कि अणु तो हमने नहीं देखा, लेकिन विस्फोट दिखाई पड़ता है। हिरोशिमा राख हो जाता है; एक लाख आदमी राख हो जाते हैं। यह परिणाम है। इस परिणाम को झुठलाया नहीं जा सकता, यह सत्य है। यह दिखाई पड़ता है। लेकिन जिसके भीतर से यह परिणाम होता है, वह बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता। हम सिर्फ कल्पना करते हैं कि कोई चीज टूट गई है, जिसके परिणाम में इतनी ऊर्जा का जन्म हुआ है। उस कल्पित चीज का नाम अणु है। लेकिन अणु जैसी कल्पित और छोटी चीज, अति सूक्ष्म, अति विराट की जन्मदात्री है!
धर्म निरंतर यह कहता रहा है कि अगर विराट को पाना है, तो सूक्ष्म को पाना पड़ेगा। धर्म सदा उलटी बात बोलता रहा है। अब विज्ञान ने भी थोड़ी समझ शुरू की है। धर्म कहता है, विराट को पाना है, तो सूक्ष्म पाना पड़ेगा। परमात्मा को पाना है, तो भीतर जो आत्मा का अणु छिपा है, उसे पाना पड़ेगा। जो आदमी परमात्मा को सीधे खोजने जाएगा, वह कभी नहीं खोज पाएगा। अपने को खो दे भला, परमात्मा को कभी नहीं खोज पाएगा। जिस आदमी को परमात्मा को खोजना है, उसे परमात्मा को तो भूल ही जाना चाहिए; स्वयं के भीतर वह जो छोटा सा अणु छिपा है जीवन का, उसे खोज लेना चाहिए। उसे खोजते ही परमात्मा मिल जाता है। अणु को पकड़ लेना विराट को पकड़ लेना है।
लेकिन उलटा हमें दिखाई नहीं पड़ता। और अणु तो बिलकुल शून्य है; कहें, न के बराबर है। उस शून्य में इतनी ऊर्जा! लेकिन वह भी पूर्ण शून्य नहीं है। लाओत्से जिस शून्य की बात कर रहा है, वह पूर्ण शून्य है। अगर अणु, जो कि पूर्ण शून्य नहीं है, उससे इतनी ऊर्जा पैदा होती है, तो पूर्ण शून्य में कितनी ऊर्जा होगी?
ऋषि सदा कहते रहे हैं, इस जगत का जन्म शून्य से हुआ है। तभी इतने विराट का फैलाव हो सकता है! इतने चांदत्तारे, अरबों-अरबों चांदत्तारे शून्य से ही पैदा हो सकते हैं।
हमारा गणित उलटा है। हम सोचते हैं, कोई भी चीज पैदा होगी तो वहीं से पैदा होगी, जहां पहले से मौजूद हो। हम सोचते हैं, भरी हुई स्थिति से ही कुछ निकल सकता है। शून्य से क्या निकलेगा? क्योंकि हमें विरोधी गणित का कोई अंदाज नहीं है। लाओत्से उसी विरोधी गणित का जगत में सबसे बड़ा प्रस्तोता है। वह कहता है, वह शून्य की जो स्थिति है, अखंड शक्ति उसमें छिपी है।
यह वह क्यों कहने को उत्सुक है? वह इसलिए कहने को उत्सुक है कि अगर तुम्हें भी अखंड शक्ति के मालिक हो जाना है, तो शून्य हो जाना पड़ेगा--उस धौंकनी की भांति, जिसमें हवा बिलकुल नहीं रह गई, जिसमें भीतर कुछ भी न बचा, वैक्यूम हो गया। जैसे ही भीतर वैक्यूम हो जाता है, शून्य हो जाता है, धौंकनी बिलकुल खाली हो जाती है, परम जीवन का आविर्भाव हो जाता है। उसी शून्य में परम अखंडित शक्ति के दर्शन शुरू हो जाते हैं।
लेकिन हम अपने को भरने की कोशिश करते हैं। जैसे कोई पागल लुहार अपनी धौंकनी में चीजें भर ले, फिर धौंकनी काम न आए, ऐसे हम सब पागल लुहार हैं। हम अपने जीवन की धौंकनी को भर लेते हैं। उसकी रिक्तता को भर देते हैं--क्षुद्र चीजों से, व्यर्थ की चीजों से। कभी धन से, कभी पद से, कभी मकान से, कभी फर्नीचर से, कभी मित्रों से, पत्नी से, पति से, बच्चों से, भर देते हैं। शून्य भीतर का भर जाता है। फिर हम एक कबाड़ी की दुकान की तरह हो जाते हैं। हिलना-डुलना भी भीतर मुश्किल होता है। जरा हिले कि फर्नीचर से टकरा जाते हैं। फिर अपने को सम्हाल कर किसी तरह जी लेते हैं। अखंड ऊर्जा हमारे पास नहीं होती।
महावीर कहते हैं, जो व्यक्ति शून्य हो जाए, वह अनंत ऊर्जा का मालिक हो जाता है। अनंत, इनफिनिट इनर्जी का मालिक हो जाता है!
लेकिन यह शून्य कैसे हम हो सकें, इसे लाओत्से आगे कहेगा। अभी वह इतना ही कहता है कि शून्य की महिमा को समझ लेना जरूरी है; भरने के पागलपन को समझ लेना जरूरी है। शून्य की महिमा को समझ लेना जरूरी है। जगत में जितनी भी गहरी प्रक्रियाएं पैदा हुई हैं--चाहे उन्हें कोई योग कहे, चाहे ध्यान कहे, चाहे तंत्र कहे, चाहे प्रार्थना कहे, पूजा कहे--वे सभी पद्धतियां आदमी को रिक्त करने की पद्धतियां हैं। आदमी खाली कैसे हो जाए! और आदमी बहुत छोटी चीजों से भर जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन की सम्राट से दोस्ती थी अपने देश के। नसरुद्दीन की ज्ञानियों में गिनती थी। सुलतान ने उससे एक दिन पूछा, मुल्ला, तुम जब प्रार्थना करते हो, तो मन शून्य हो पाता है या नहीं? मुल्ला ने कहा, बिलकुल हो जाता है। सम्राट को भरोसा न आया। उसने कहा, सच! तो इस शुक्रवार तुम नमाज करके सीधे मस्जिद से मेरे पास आ जाना। और तुम्हारे ईमान का भरोसा करूंगा। सच-सच मुझे बता देना। अगर तुमने सच-सच बता दिया, तो तुम्हें--वह अपने गधे पर बैठ कर आया था--तुम्हें फिर आगे से गधे की सवारी न करनी पड़ेगी। मेरे अस्तबल का जो सबसे शानदार जानवर है, सबसे शानदार घोड़ा है, वह मैं तुम्हें भेंट कर दूंगा।
नसरुद्दीन ने कहा, जरा देख सकते हैं उस घोड़े को? नसरुद्दीन ने घोड़े को देखा। तबीयत उसकी लार-लार हो गई। उसने कहा कि बड़ी मुश्किल में डाल दिया। खैर, शुक्रवार हाजिर हो जाऊंगा
प्रार्थना करके नसरुद्दीन आया। दरवाजे पर सम्राट ने घोड़ा बांध रखा था। और नसरुद्दीन से कहा, ईमानदारी से कहो, प्रार्थना में कोई विचार तो नहीं आए? खाली थे तुम? नसरुद्दीन ने कहा, बिलकुल खाली था। आखिर-आखिर में जरा एक झंझट आई। सम्राट ने पूछा, वह झंझट क्या थी?
नसरुद्दीन ने कहा, वह यह थी कि घोड़ा तो दोगे सही, कोड़ा भी दोगे कि नहीं? साथ में कोड़ा भी दोगे कि नहीं? बस इस कोड़े ने मुझे परेशान कर दिया। लाख उपाय किया अल्लाह को याद करने का, लेकिन कोड़े के सिवाय कुछ याद न आया। बस एक ही बात पकड़े रही कि घोड़ा तो दे दोगे, लेकिन घर तक जाने के लिए कोड़े की भी जरूरत पड़ेगी, वह दोगे कि नहीं?
एक छोटा सा कोड़ा भीतर परमात्मा को हटा सकता है। कोड़ा कोई बहुत बड़ी चीज नहीं है। लेकिन एक छोटे से कोड़े का खयाल परमात्मा को भीतर से हटा सकता है। यह कुछ ऐसा है कि एक छोटा सा तिनका आंख में पड़ जाए, तो सारी दुनिया अंधेरी हो जाती है। और अगर हिमालय दिखाई पड़ता था, तो एक छोटे से तिनके के आंख में पड़ जाने से हिमालय फिर दिखाई नहीं पड़ता। एक छोटे से तिनके की आड़ में पूरा पर्वत छिप जाता है। छोटा सा विचार भीतर से शून्य को खाली कर देता है। शून्य को भरने के लिए क्षुद्रतम चीज भी काफी है।
और हम सब भीतर भरे हुए हैं। वह हमारा भीतर भरा होना ही हमारे दरिद्र और भिखारी होने का कारण है। भीतर जो शून्य हो जाता है, वह सम्राट हो जाता है। सम्राट होने का एक ही उपाय है कि भीतर हम शून्य हो जाएं, खाली, रिक्त आकाश की तरह स्पेस रह जाए। और जितना बड़ा भीतर आकाश होता है, उतनी ही महान ऊर्जा का जन्म होता है। इस जगत में जो भी महान घटनाएं घटती हैं, वे शून्य से घटती हैं।
मैडम क्यूरी को कोई पूछता था कि तुमने--वह पहली महिला थी जिसने नोबल प्राइज पाई--तुम्हें नोबल प्राइज मिल सकी, तुमने इसके लिए क्या किया? तो क्यूरी ने कहा, जब तक मैंने कुछ किया, तब तक नोबल प्राइज तो दूर, मुझे कुछ भी नहीं मिल पाया। और जो नोबल प्राइज मुझे मिली है, वह मेरे करने से नहीं मिली; मेरे भीतर शून्य में से कुछ हुआ। मैडम क्यूरी को जिस गणित के आधार पर नोबल प्राइज मिली, वह उसने रात आधी नींद में उठ कर कागज पर लिखा था। वह वर्षों से मेहनत कर रही थी और सफल नहीं हो पाई थी। थक गई थी; उस सांझ उसने तय किया कि अब यह बात ही छोड़ देनी चाहिए। और आधी रात उसकी नींद टूट गई, वह नींद में उठी, उसने टेबल पर कुछ लिखा, वापस सो गई। सुबह उसे याद भी नहीं था कि वह रात कब उठी! उसने क्या लिखा! लेकिन सुबह जब टेबल पर उसने सवाल का हल पाया, तो चकित रह गई। वह नहीं कह पाई जीवन में कि यह मेरे द्वारा किया गया है। यह भीतर के शून्य से आया है।
आइंस्टीन ने मरने के पहले अपने वक्तव्यों में बार-बार कहा है कि जो भी मैंने जाना, वह जब तक मैंने जानने की कोशिश की, मैं नहीं जान पाया। जब मैंने कोशिश छोड़ दी, तो पता नहीं, भीतर के स्पेस से, भीतर के आकाश में वह आविर्भूत हुआ।
जिस व्यक्ति ने नोबल प्राइज पाई अणुओं की शृंखला के ऊपर, वह शृंखला उसे रात सपने में प्रकट हुई। उसे भरोसा भी नहीं आया कि सपने में अणुओं की शृंखला की कड़ी दिखाई पड़ सकती है। वह उसे सपने में ही दिखाई पड़ी। इस जगत में आज तक जो भी श्रेष्ठतम घटित हुआ है, वह शून्य से घटित हुआ है--चाहे बुद्ध में, चाहे महावीर में, चाहे लाओत्से में, या चाहे आइंस्टीन में।
निजिंस्की कहा करता था कि जब मैं नाचता हूं, जब तक मैं नाचता हूं, तब तक नाचना साधारण होता है, और जब मेरे भीतर का शून्य नृत्य को पकड़ लेता है, तब नाचना असाधारण हो जाता है। एक दिन घर लौट कर उसकी पत्नी ने निजिंस्की को कहा कि आज तुम ऐसे नाचे हो कि मैं रो रही हूं अपने मन में कि तुम ही एक अभागे आदमी हो कि तुमने भर निजिंस्की का नाच नहीं देखा! आज तुम ऐसे नाचे हो कि तुम अकेले अभागे आदमी हो।
निजिंस्की ने कहा, तू गलती में है। मैंने भी देखा।
उसकी पत्नी ने कहा, मैं कैसे मानूं, तुम कैसे देख सकोगे?
निजिंस्की ने कहा कि जब तक मैं नाचता हूं, शुरू के थोड़े क्षणों में, तब तक मैं नहीं देख पाता। लेकिन फिर भीतर का शून्य नृत्य को पकड़ लेता है, तब तो मैं दूर खड़े होकर आब्जर्वर हो जाता हूं; फिर तो मैं देख पाता हूं।
निजिंस्की दुनिया का अकेला नर्तक था, जिसको--ऐसा लोगों का खयाल है--ग्रेविटेशन का असर नहीं पड़ता था। जब वह नाचता था, तो अनेक बार हवा में उछल जाता था। और वह अकेला नर्तक था जो जमीन तक लौटने में बड़े आहिस्ते आता था, जैसे कोई पंख गिर रहा हो, कोई पक्षी का पंख गिर रहा हो। आदमी की तरह नहीं गिरता था, पक्षी के पंख की तरह! चकित थे लोग और निजिंस्की से पूछते थे कि यह असंभव है बात, क्योंकि शरीर पर तो ग्रेविटेशन काम करता है। शरीर तो किसी का हो, जमीन खींचेगी
निजिंस्की कहता था, जब तक मैं होता हूं, तब तक काम करता है। लेकिन जब शून्य पकड़ लेता है, तब ग्रेविटेशन का मुझे पता नहीं चलता। मैं जमीन पर ऐसे उतरने लगता हूं, जैसे हलका हो गया हूं, वेटलेस
भीतर एक शून्य है। जब भी कोई महान नृत्य पैदा हुआ है, तो उससे; कोई महान काव्य पैदा हुआ है, तो उससे; कोई महान अंतर्दृष्टि उपलब्ध हुई है, तो उससे। विज्ञान जन्मता है उस शून्य से, धर्म जन्मता है उस शून्य से, कला पैदा होती है उस शून्य से।
लेकिन हम अहंकार से भरे लोग उस महान के निकट कभी भी नहीं पहुंच पाते, किसी भी द्वार से नहीं। क्योंकि हम कभी शून्य ही नहीं हो पाते। हम कभी आकाश में उड़ नहीं पाते, क्योंकि हम इतने पत्थर से भरे हैं अपने ही भीतर कि वह पत्थरों का वजन हमें जमीन पर कसे रखता है।
लाओत्से कहता है, शून्य अखंड ऊर्जा है।
लाओत्से निरंतर एक कहानी कहा करता था। वह कहा करता था कि मैंने उस संगीतज्ञ का नाम सुना, जिसने वर्षों से कोई गीत नहीं गाया। तो मैं उस संगीतज्ञ की खोज में गया, क्योंकि ऐसे आदमी को लोग संगीतज्ञ क्यों कहते हैं जिसने वर्षों से कोई गीत नहीं गाया! और जब मैं उस संगीतज्ञ के पास पहुंचा, तो न तो उसके पास कोई साज था, न कोई सामान था। वह एक वृक्ष के नीचे बैठा था। और मैंने उस संगीतज्ञ से पूछा, सुना है मैंने कि तुम बहुत बड़े संगीतज्ञ हो, लेकिन कोई साज-सामान नहीं दिखाई पड़ता?
उस संगीतज्ञ ने कहा, साज-सामान की तभी तक जरूरत थी, जब तक संगीत खुद पैदा न होता था और मुझे पैदा करना पड़ता था। अब संगीत खुद ही पैदा होता है। गाता था तब तक, जब तक गीत स्वयं न आते थे। अब गीत स्वयं आ जाते हैं। लाओत्से ने कहा, लेकिन मुझे सुनाई नहीं पड़ता! संगीतज्ञ ने कहा, रुकना पड़ेगा। मेरे पास रुको, धीरे-धीरे सुनाई पड़ने लगेगा।
और लाओत्से संगीतज्ञ के पास रुका। और संगीत सुन कर लौटा। जब उसके शिष्यों ने पूछा कि सुना संगीत? कैसा था संगीत? लाओत्से ने कहा, वह संगीत शून्य का था। वहां शब्द नहीं थे। वहां शून्य का सन्नाटा था। और आज मैं तुमसे कहता हूं कि जिस संगीत में शब्द होते हैं, वह संगीत नहीं, केवल शोरगुल है; संगीत तो वह है जहां शब्द शून्य हो जाते हैं, मौन सन्नाटा ही रह जाता है। शोरगुल है जहां, शब्द है वहां।
पर आपको खयाल में न होगा। संगीत...अभी आप सितार सुनते थे। अगर आप समझते हों कि जब सितार पर एक ध्वनि उठती है, तब संगीत होता है, तो आप गलती में हैं। जब सितार पर एक ध्वनि उठती है और दूसरी ध्वनि उठती है, और तीसरी ध्वनि उठती है, उनके बीच जो गैप होते हैं, संगीत वहीं है। वे जो खाली जगह होती हैं। इसलिए जो ध्वनियों को सुनता है, वह संगीत नहीं सुनता; वह केवल स्वर सुन रहा है। जो दो स्वरों के बीच में खाली जगह को सुनता है, वह संगीत को सुनता है। जितना महान संगीत होता है, उतना खाली जगह पर निर्भर होता है।
सुबर्ट के संबंध में मैंने सुना है कि वह अपना वायलिन बजा रहा था। सुबर्ट जब भी बजाता था, तो बीच में लंबे इंटरवल होते थे। एक संगीत का शिक्षक--शिक्षक जैसे दयनीय होते हैं, वैसा ही। शिक्षकों को सब कुछ पता होता है, जो बेकार है वह। नियम उन्हें पूरे पता होते हैं; नियम के बाहर जो सार्थक है, उसका उन्हें कोई पता नहीं होता। शिक्षक सामने ही बैठा था। सुबर्ट ने बजाना शुरू किया। फिर सुबर्ट रुक गया। हाथ उसके ठहर गए और तार मौन हो गए। क्षण, दो क्षण, तीन क्षण! उस शिक्षक को लगा कि शायद यह आदमी भूल गया, अटक गया। उसने कहा, जो आता हो, वह बजाओ। शिक्षक ने कहा, जो आता हो, वह बजाओछोड़ो जो न आता हो।
सुबर्ट ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि पहली दफे मुझे पता चला कि मैं किन लोगों के सामने बजा रहा हूं। क्योंकि जो मैं बजा रहा था, वह तो केवल द्वार था। जब मैं रुक गया था, तब संगीत था। लेकिन वह शिक्षक बोला, अगर न आती हो यह--यह गीत, यह लय न आती हो--तो दूसरा शुरू करो। कहते हैं, सुबर्ट ने उस दिन वहीं अपना साज पटक दिया और घर लौट गया। और दुबारा उसने साज हाथ में नहीं लिया। लाखों लोगों ने प्रार्थना की। उसने कहा कि नहीं, किनके सामने बजाता हूं! इन्हें संगीत का कोई पता ही नहीं है। ये समझते हैं स्वरों के शोरगुल को संगीत। वह तो केवल प्रारंभ है। वह तो केवल आपको जगाने के लिए है कि आप सो न जाएं। फिर जब आप जाग गए, तब वह चुप हो जाना चाहिए, फिर मौन में सरक जाना चाहिए।
बुद्ध कहते थे कि जो मैं कह सकता था, वह मैंने कहा; लेकिन वह असली बात नहीं है। जो मैं नहीं कह सकता था, वह मैंने नहीं कहा है; वही असली बात है। इसलिए जो मेरे कहने को सुनते रहे हैं, वे मुझे नहीं समझ पाएंगे; जिन्होंने मेरे न कहने को भी सुना है, वही मुझे समझ सकते हैं।
न कहने को जिन्होंने सुना है! न कहना भी सुना जा सकता है?
निश्चित सुना जा सकता है। असल में, कहने की सार्थकता यही है कि दोनों तरफ कहने का किनारा बन जाए और बीच में न कहने की नदी बह सके। स्वर का उपयोग यही है कि दोनों तरफ तट बन जाएं और बीच में संगीत की गंगा बह सके। वह तट बनाने के लिए है। लेकिन तट को जिसने गंगा समझा, वह गंगा को नहीं समझ पाएगा। वह गंगा तक कभी पहुंच भी नहीं पाएगा।
लाओत्से कहता है, पृथ्वी और स्वर्ग के बीच धौंकनी की तरह शून्य आकाश है, और वही अखंड ऊर्जा है। इसे जितना ही चलाओ, इस शून्य को जितना ही चलाओ, उतनी ही ऊर्जा पैदा होती है। शून्य को चलाओ जितना ही, उतना ही प्राण जन्मता है। लेकिन हम शून्य को चलाना नहीं जानते। हम शून्य होना भी नहीं जानते।
इस शून्य को होना और शून्य को चलाने का उपाय लाओत्से कहता है, "शब्द-बाहुल्य से बुद्धि निःशेष होती है।'
जितने ज्यादा शब्द भीतर, उतनी बुद्धि क्षीण हो जाती है। उतनी बुद्धि पर जंग लग जाती है।
लेकिन शब्द ही तो हमारी बुद्धि है। शब्द का जोड़ ही तो हमारी संपत्ति है। पश्चिम में तो हर चीज स्टैटिस्टिक्स हो गई है। तो पश्चिम के अंकविद कहते हैं कि जितना बड़ा सफल आदमी है, उसके पास उतनी ही शब्द की संपदा होती है। वे कहते हैं कि आदमी के पास कितनी शब्द की संपदा है, उससे हम पता लगा सकते हैं कि जीवन में उसने सफलता के कितने सोपान पार किए होंगे। वह कितनी पायरियां सफलता की चढ़ गया होगा, उसके शब्द की सामर्थ्य पर तय होता है।
वे ठीक कहते हैं एक लिहाज से। राजनीतिज्ञ की सामर्थ्य क्या है? राजनीतिज्ञ की सामर्थ्य है कि वह कुछ शब्दों से खेल सकता है। धर्मगुरु की सामर्थ्य क्या है? कि वह कुछ और शब्दों से खेल सकता है। साहित्यकार की सामर्थ्य क्या है? कि वह कुछ और शब्दों से खेल सकता है। हम जिन्हें सफल कहते हैं, वे कौन लोग हैं? राजनीतिज्ञ हैं, धर्मगुरु हैं, साहित्यकार हैं। कौन लोग हैं? शब्द! शब्द पर जो जितना ज्यादा बाहुल्य, शक्ति रखता है, वह हमारी दुनिया में उतना सफल हो जाता है। इसलिए हम शब्द को सिखाने के लिए पागल होते हैं। और हमारी सारी शिक्षा शब्द को सिखाने की शिक्षा है। जितना ज्यादा शब्द आ जाए आदमी को, उतनी आशा है कि वह सफलता पा लेगा।
लेकिन लाओत्से कहता है, शब्द-बाहुल्य बुद्धि को क्षीण करता है। जितने शब्द भीतर बढ़ जाते हैं, उतनी ज्यादा बुद्धि कमजोर हो जाती है।
उलटी बात कहता है। हमारी सारी चेष्टा यही होती है कि शब्द कैसे बढ़ जाएं। एक भाषा आदमी जानता हो, तो दूसरी सीखता है, तीसरी सीखता है, चौथी सीखता है। हम बड़ी प्रशंसा में कहते हैं कि फलां आदमी दस भाषाएं जानता है। एक आदमी पंडित है, हम कहते हैं, उसे वेद कंठस्थ हैं, उपनिषद मुखाग्र हैं, गीता पूरी दोहरा सकता है। क्यों? शब्द की संपत्ति है उसके पास।
लेकिन शब्द का कोई मूल्य है बड़ा? शब्द का कोई अर्थ है बड़ा? शब्द में कुछ सब्सटेंस है, शब्द में कुछ सार है? इतना ही सार है, जैसे प्यास लगी हो और शब्द पानी से कोई प्यास को बुझाने की कोशिश करे। इतना ही सार है कि भूख लगी हो और शब्द भोजन से कोई पेट को भरने की कोशिश करे। इतना सार है। थोड़ी-बहुत देर अपने को भुलावा लेकिन दिया जा सकता है। अगर आपको प्यास लगी है और मैं इतना भी कहूं कि बैठिए पानी आता है, तो थोड़ी सी प्यास को राहत मिलती है। ऐसा नहीं कि नहीं मिलती। पानी का भरोसा भी काफी राहत लाता है। भूख लगी है। मकान के भीतर किचन में बर्तनों की आवाज आने लगती है, तो भी पेट को कुछ सहारा मिलता है। रात सपने में भूख लगी है, तो सपने में भोजन कर लेता है आदमी तो कम से कम नींद नहीं टूटती। सुबह तक गुजर जाता है समय।
शब्द सहारे देते हैं। धोखा भी देते हैं। अगर यहां जोर से अभी कोई आवाज लगा दे कि आग लग गई, तो हम पर परिणाम वही होगा, जो आग लगने पर होता है। शब्द! जल नहीं सकेंगे; भाग सकेंगे, दौड़ सकेंगे। गिर सकते हैं, चोट खा सकते हैं। आग लग गई है, इस शब्द का वही परिणाम होगा, जो आग लग गई होती तो होता--भागने, दौड़ने, चिल्लाने-चीखने में। जल नहीं सकेंगे, क्योंकि शब्द आग आग नहीं है। लेकिन एक बात तय है कि आदमी पर शब्द का प्रभाव भारी है। और अगर दस-पांच दफे इस तरह चिल्लाया जाए कि आग लग गई, आग लग गई, और फिर आग लग जाए और कोई चिल्लाए आग लग गई, तो हम पर फिर असर नहीं होगा।
एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक बहुत धन कमा लिया, तो सोचा उसने कि अब विश्राम करें। तो एक छोटे गांव में उसने जमीन ले ली--शौकिया। खेती-बाड़ी करके कुछ कमाने का सवाल न था। कमाई पूरी हो चुकी थी। जरूरत से ज्यादा हो चुकी थी। इस समय सबसे बड़ी कमाई उनकी ही हो सकती है, जो लोगों के पागलपन को राहत देते हैं। क्योंकि जमीन पर आज सर्वाधिक पागल लोग हैं। इस वक्त सबसे बड़ी कमाई की जो संभावना है, वह हीरे की खदानों में नहीं है, आदमी की खोपड़ी में है। आदमी पागल हुआ जा रहा है। और मनोवैज्ञानिक कुछ पागलों को ठीक कर पाते हों, ऐसा प्रमाण अब तक मिला नहीं। हां, इतना हो पाता है कि पागल को आश्वस्त कर पाते हैं। अगर दो साल किसी साइकियाट्रिस्ट के पास कोई पागल जाए, तो ऐसा नहीं कि दो साल बाद वह ठीक हो जाता है, बल्कि ऐसा कि दो साल बाद वह कहने लगता है, यह पागलपन स्वाभाविक है।
काफी धन कमा लिया था। अब कमाने की कोई जरूरत न थी। फसल बोने का मौका आ गया था। जमीन लेकर उसने फसल बोनी शुरू की। खड़े होकर जमीन पर उसने जमीन खुदवा डाली, बक्खर चलवा दिए, दाने फेंके। लेकिन सारे गांव के कौवे आकर उसके खेत के दाने चुनने लगे। एक दिन दाने फेंके, कौवे चुन गए। दूसरे दिन दाने फेंके, कौवे चुन गए। तीसरे दिन दाने फेंके...। फिर उस मनोवैज्ञानिक को संकोच भी लगा, किसी से पूछे; संकोच भी लगा, साधारण बुद्धिहीन किसान, उनसे पूछे कि क्या है राज! कोई उपाय न देख कर पड़ोस के एक किसान से, जो रोज उसको देखता था और हंसता था, उसने पूछा कि बात क्या है?
वह किसान आया। उसने दाने फेंकने का इशारा किया। जैसे दाने फेंके, ऐसे उसने हाथ घुमाए; लेकिन फेंका कुछ नहीं। कौवे आए, बड़े नाराज हुए। चीखे-चिल्लाए, वापस उड़ गए। दूसरे दिन उसने फिर मुद्रा की दाने फेंकने की। कौवे फिर आए, आज थोड़े कम आए। नाराज हुए, आज थोड़े कम नाराज हुए। चले गए। तीसरे दिन उसने फिर वही किया। चौथे दिन उसने दाने फेंके। कौवे नहीं आए। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, अदभुत! राज क्या है? उस किसान ने कहा, जस्ट प्लेन साइकोलॉजीएवर हर्ड? छोटा सा मनोविज्ञान। कभी सुना है नाम मनोविज्ञान का? खाली हाथ तीन दिन, कौवे भी समझ गए कि खाली हाथ है।
लेकिन आदमी बहुत अदभुत है। जन्म-जन्म तक शब्दों में जीता है। जस्ट प्लेन साइकोलॉजी, कि शब्द खाली हैं, समझ में नहीं आता। शब्द के भीतर कुछ भी नहीं है, समझ में नहीं आता। कोई आपसे कह देता है, नमस्कार! मन मान लेता है कि श्रद्धा मिली है।
श्रद्धा इतनी आसान चीज नहीं है, नमस्कारों से मिल जाए। अक्सर तो यह होता है कि श्रद्धा को छिपाने का ढंग है नमस्कार। कहीं चेहरे का असली भाव पता न चल जाए, आदमी हाथ जोड़ कर नमस्कार कर लेता है। या हाथ जोड़ने में वह दूसरा आदमी चूक जाता है असली आदमी को देखने से कि असली आदमी क्या सोच रहा था। मन में सोच रहा था, इस दुष्ट की शक्ल सुबह-सुबह कहां दिखाई पड़ गई! नमस्कार करने में उस आदमी को धोखा हो जाता है, नमस्कार देख कर अपने रास्ते पर चला जाता है।
आप रास्ते पर रोज निकलते हैं और एक आदमी आपको प्रीतिकर लगता है। जब भी आप कहते हैं हलो, वह भी जोर से हलो करके जवाब देता है। आज सुबह उसने जवाब नहीं दिया। पता है, आपको क्या होगा? आपका सब रुख बदल जाएगा। आपने कहा हलो, उस आदमी ने कोई जवाब नहीं दिया; वह चला गया। आप उस आदमी का इतिहास फिर से लिखेंगे अपने भीतर कि अच्छा, तो एक मकान खरीद लिया तो अकड़ आ गई! यह मकान बहुत पहले खरीद चुका है। इसका आपको कभी खयाल न आया था। गाड़ी खरीद ली, तो पर लग गए! मरते वक्त कीड़ियों को पर आ जाते हैं। अब इस आदमी को आप, फिर से इसका जीवन-चरित्र आप निर्मित करेंगे। आपको उसका पुराना जीवन-चरित्र हटाना पड़ेगा। वह एक हलो कह देता, तो पुराना जीवन-चरित्र चलता, काम देता। एक छोटा सा हलो इतना फर्क लाता है! शब्द इतना मूल्यवान है आदमी को!
हम शब्द से ही जीते हैं, शब्द ही खाते हैं, शब्द में ही सोते हैं। इसको पश्चिम में लोग समझ गए हैं। तो वे कहते हैं कि चाहे उचित हो या न उचित हो, आदमी कुछ करे या न करे, तुम थैंक यू तो उसे कह ही देना। यह कोई सवाल नहीं है। हम अपने मुल्क में अभी शब्द के बाबत इतने समझदार नहीं हैं। अगर पत्नी पति के लिए चाय ले आती है, तो पति धन्यवाद या शुक्रिया नहीं करता। करना चाहिए। क्योंकि सब इतिहास बदल जाता है भीतर शुक्रिया से। बिलकुल करना चाहिए। बिना शक्कर की चाय मीठी मालूम पड़ती है शुक्रिया से। कड़वी हो जाती है, शक्कर कितनी ही पड़ी हो, शुक्रिया पीछे न हुआ एकदम कड़वी हो जाती है। सब बात ही बदल जाती है।
आप सोचते होंगे, पत्नी तीस साल से मेरे साथ है, इसे भी क्या शुक्रिया की जरूरत है? आप गलती में हैं, इसे ज्यादा जरूरत है। यह तीस साल में आपको इतना जान चुकी है कि इसे ज्यादा जरूरत है, हालांकि यह कहेगी कि क्या जरूरत है! नहीं, मत कहिए, शुक्रिया की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन आप इस पर भरोसा मत कर लेना। यह सिर्फ इसीलिए कहा जा रहा है कि आप दुबारा भी कहो। यह सुखद है, यह सुखद है।
शब्द हमारा जीवन बन गया है। वही कोई कह देता है, बहुत प्रेम करता हूं आपको। सब कुछ बदल जाता है भीतर! अंधेरी रात एकदम पूर्णमासी हो जाती है। किसी ने कह दिया, बहुत प्रेम करता हूं आपको! और हो सकता है, वे किसी फिल्म का डायलाग ही दोहराते हों!
क्या, शब्द के साथ हमारा इतना अंतर्संबंध क्यों है? हमारा अंतर्संबंध इसीलिए है कि हमारे पास शब्द के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हमारे पास सत्व जैसा कुछ भी नहीं है। हम बिलकुल खाली हैं। खाली लाओत्से के अर्थों में नहीं, शून्य के अर्थों में नहीं, खाली दरिद्र और दीन के अर्थों में। खाली उस अखंड शक्ति के अर्थों में नहीं, खाली उस अर्थों में, जिनके हाथ में कुछ भी नहीं है, शून्य भी जिनके हाथ में नहीं है। इस तरह हम खाली हैं, शब्द से ही जीते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक सड़क पर गिर पड़ा है। धूप है तेज। भीड़ इकट्ठी हो गई। नसरुद्दीन दम साधे पड़ा है। किसी ने कहा कि भागो, दौड़ो, एक प्याली अगर शराब मिल जाए तो काम हो जाए। नसरुद्दीन ने एक आंख खोली और कहा, एक प्याली! कम से कम दो प्याली तो कर दो। पर लोगों ने कहा, मत जाओ, कोई जरूरत नहीं, नसरुद्दीन होश में आ गया है। शराब शब्द ने ही काम कर दिया है, शराब नहीं लानी पड़ी।
नसरुद्दीन को अनुभव था यह। फर्स्ट एड की ट्रेनिंग ले रहा था। तो जब ट्रेनिंग उसकी पूरी हो गई तो उसके शिक्षक ने पूछा कि अगर रास्ते पर कोई अचानक गिर जाए तो तुम क्या करोगे? तो उसने कहा, एक प्याली शराब बुलाऊंगा। लेकिन उस अधिकारी ने पूछा कि अगर शराब न मिल सके, तो तुम क्या करोगे? तो उसने कहा, मैं कान में, आई विल प्रामिस, उसके कान में प्रामिस करूंगा कि पीछे पिलाऊंगा, फिलहाल उठ आ। क्योंकि ऐसा एक दफे मेरे साथ हो चुका है। सिर्फ शब्द सुन कर मुझे होश आ गया था।
शब्द से हम जी रहे हैं। इन शब्दों को कहता है लाओत्से कि केवल हमारी बुद्धि क्षीण होती है। यद्यपि लाओत्से को भी कहना पड़ता है, तो शब्दों से ही कहना पड़ता है। लाओत्से भी बोलता है, तो शब्द से ही बोलता है। इससे एक बड़ी भ्रांति होती है। वह भ्रांति यह होती है कि लाओत्से भी तो शब्द से ही बोलता है और शब्द के खिलाफ बोलता है।
निश्चित ही, अगर हमें दूसरे से कुछ कहना है, तो शब्द का उपयोग है। लेकिन हम इतने पागल हो गए हैं कि हमें अपने से भी कुछ कहना है, तो भी हम शब्द का ही उपयोग करते हैं। अपने से कहने के लिए तो शब्द की कोई भी जरूरत नहीं है। हम भीतर अपने से ही बोलते रहते हैं। चौबीस घंटे आदमी बोल रहा है। जब दूसरे से बोल रहा है, तब तो बोल ही रहा है; जब किसी से नहीं बोल रहा है, तो अपने से ही बोल रहा है। अपने को ही बांट कर बोलता रहता है। यह चौबीस घंटे बोलना भीतर जंग पैदा कर देता है। और चौबीस घंटे बोलते-बोलते, बोलते-बोलते शब्द इतने इकट्ठे हो जाते हैं कि शब्दों के बीच में वह जो आत्मा में छिपा हुआ शून्य है, उसकी हमें कोई खबर नहीं रह जाती। शब्द की इस ऊपरी पर्त को हटाना पड़े, तो ही हम भीतर के शून्य से परिचित होते हैं।
लाओत्से कहता है, "शब्द-बाहुल्य से बुद्धि निःशेष होती है। इसलिए अपने केंद्र में स्थापित होना ही श्रेयस्कर है।'
अपने केंद्र में! क्योंकि केंद्र शून्य है। शब्द केवल परिधि है। जैसे नदी की ऊपर सतह पर पत्ते छा गए हों और नदी ढंक गई हो, काई छा गई हो और नदी का पानी दिखाई न पड़ता हो, ऐसे ही हमारे ऊपर शब्दों का बाहुल्य है। भीतर शून्य छिप गया है। उस शून्य को लाओत्से केंद्र कहता है। वह कहता है, वही है हमारे प्राण का केंद्र। लेकिन हम परिधि पर भटकते रहते हैं। और परिधि हमें इतने जोर से पकड़ लेती है कि हम कभी भीतर पहुंच नहीं पाते। परिधि--एक शब्द दूसरे शब्द को पकड़ा देता है, दूसरा तीसरे को पकड़ा देता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हम एसोसिएशन से जीते हैं। अगर आपको हम एक शब्द दे दें, दे दें कुत्ता, और आपसे कह दें बस चल पड़िए, तो आप भीतर चल पड़ेंगे। कुत्ता स्टार्ट करवा देगा। भीतर आपकी बंदूक का घोड़ा खींच दिया गया। अब आप कुत्ते से यात्रा शुरू कर देंगे। भीतर शब्द आ जाएंगे। तत्काल कुत्ते के पीछे क्यू खड़ा हो जाएगा। कोई कुत्ता आपको पसंद है; कोई कुत्ता आपको नहीं पसंद है। किसी कुत्ते का क्या नाम है; किसी कुत्ते का क्या नाम नहीं है। यात्रा शुरू हो गई। किस मित्र के पास कुत्ता है; और अब आप बढ़ चले। और उस मित्र की पत्नी कैसी है। और पत्नी आपको देख कर प्रीतिकर लगती है, अप्रीतिकर लगती है। आप चल पड़े। एक कुत्ते ने सिर्फ यात्रा शुरू की, पता नहीं आप किस रोमांस में यात्रा का अंत करें। कुछ कहा नहीं जा सकता।
एक छोटा सा शब्द, और आपके भीतर तत्काल यात्रा शुरू हो जाती है। आप भीतर तैयार बैठे हैं। शब्द मिल जाए, और आप जुगाली करने लगेंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि आपको समझने की फुर्सत कभी न मिलेगी। शब्द मिला कि आप चल पड़ते हैं! समझ तो वह सकता है, जो शब्द के साथ शून्य होकर खड़ा हो जाता है।
मैंने कोई बात कही, आप तभी समझ पाएंगे, जब आपके सामने शून्य खड़ा हो। मैं एक बात कहूं और आपके भीतर शून्य उसका सामना करे, जैसे दर्पण के सामने मैं आ जाऊं, तो दर्पण मेरी तस्वीर को देख ले। अगर आपका हृदय शून्य हो, तो जो मैं कहूं, वह भी आपको सुनाई पड़ जाए; और जो मैंने नहीं कहा, वह भी सुनाई पड़ जाए। जो मैं दिखाई पड़ता हूं, वह भी दिखाई पड़ जाए; और जो मैं दिखाई नहीं पड़ता हूं, वह भी दिखाई पड़ जाए। लेकिन आपके भीतर इतने शब्द भरे हैं कि जब भी मैं कुछ कहूंगा, आप मुझे सुनने को नहीं रुकेंगे। आपने सुना भी नहीं कि आप जा चुके यात्रा पर। आपके भीतर शब्दों की कतारबंध यात्रा शुरू हो गई। आप सोचने लगे, गीता में भी यही कहा है, कुरान में भी यही कहा है। यह तो मेरे धर्म के खिलाफ हो गया; यह बात मैं नहीं मान सकता हूं।
एक दिन एक छोटी सभा में मैं बोल रहा था। एक ही आदमी मुसलमान था, वह मेरे सामने ही बैठा था। थोड़े ही लोग थे, कोई पचास लोग थे। मैं जो भी बोलता था, वे मुसलमान मित्र बिलकुल सिर हिलाते थे कि बिलकुल ठीक! वे मेरे सामने ही बैठे थे। बिलकुल ठीक! जो भी मैं बोलता था, वे सिर हिलाते, बिलकुल ठीक! मैंने कहा कि क्या ऐसी भी कोई बात कह सकता हूं, जिसमें कि इनका सिर न हिले। मैंने सिर्फ उनका सिर देखने के लिए कहा कि कुरान किताब तो अदभुत है, लेकिन बहुत ग्रामीण है, जैसे कि गांव के लोगों ने लिखी हो। उनका सिर बिलकुल हिलने लगा कि नहीं। वे बोल नहीं रहे, अपनी कुर्सी पर बैठे हैं। उनसे मेरा कोई लेना-देना नहीं। लेकिन मैं जो कहता हूं, हां और न वे उसमें करते जाते हैं। जैसे ही मैंने कहा कि ग्रामीण, उन्होंने कहा कि बिलकुल नहीं। और इसके बाद वे अकड़ गए। फिर कुर्सी पकड़ कर बैठे रहे। फिर उनसे मेरा संबंध टूट गया। वह एक शब्द ग्रामीण, मेरा संबंध उनसे टूट गया! फिर सारे लोग उस कमरे में थे, वे एक मित्र उस कमरे में नहीं रह गए। एक छोटा शब्द, ग्रामीण; उनके मन में, पता नहीं, उठा होगा गंवार या क्या! मैंने कहा ग्रामीण, उनके मन में आया होगा गंवार कह रहा हूं। उनके भीतर एक यात्रा शुरू हो गई। वे सख्त हो गए। बाद उनके दरवाजे बंद हो गए।
असल में, जब मैं कह रहा था, तब पूरे समय भीतर वे एक चर्चा चला रहे थे; हां और न कर रहे थे। हमारी बॉडी लैंग्वेज होती है। बहुत कुछ जो हम मुंह से नहीं कहते, अपने शरीर से कह देते हैं। अभी पश्चिम में एक नया विज्ञान खड़ा हो रहा है बॉडी लैंग्वेज पर कि आदमी के शरीर को समझा जाए कि वह क्या कहता है!
अगर आप किसी स्त्री से मिलते हैं और वह आपको पसंद नहीं करती, तो वह पीछे की तरफ गिरती हुई हालत में खड़ी रहती है। पूरे वक्त डरी है कि कहीं आप और आगे न बढ़ आएं। उसका जो एंगल है, वह पीछे की तरफ झुका रहता है। अगर एक क्लबघर में पचास जोड़े बात कर रहे हैं, तो बराबर बताया जा सकता है कि इनमें से कितने जोड़े एक-दूसरे के प्रेम में गिर जाएंगे--सिर्फ इनकी बॉडी लैंग्वेज को देख कर। और कितने जोड़े सिर्फ बचने की कोशिश कर रहे हैं, एक-दूसरे से भागने की कोशिश कर रहे हैं। अगर स्त्री आपको प्रेम करती है, तो आपके पास और ढंग से बैठेगी; अगर प्रेम नहीं करती है, तो और ढंग से बैठेगी।
अगर आप किसी को प्रेम करते हैं, तो उसके पास जब आप बैठते हैं तो आप रिलैक्स्ड बैठते हैं। उससे कोई खतरा नहीं है। अगर आप उससे प्रेम नहीं करते, तो आप सजग बैठते हैं; उससे खतरा है। स्ट्रैंजर, अजनबी आदमी है। अजनबी आदमी के पास आप और ढंग से बैठते हैं। अगर मेरी बात आपको ठीक लग रही है, तो आप और ढंग से बैठते हैं। अगर ठीक नहीं लग रही है, आपकी बॉडी लैंग्वेज फौरन बदल जाती है। अगर आपको मेरी बात में जिज्ञासा है, तो आपकी रीढ़ आगे झुक आती है। अगर आपको जिज्ञासा नहीं है, आप अपनी कुर्सी से टिक जाते हैं। कुर्सी से टिक कर आप यह कह रहे हैं कि ठीक, हम सो चुके, हमसे अब कुछ लेना-देना नहीं, बात समाप्त हो गई।
आदमी बाहर से भी अपने भीतर चलने वाले शब्दों की खबर देता रहता है। बाहर से भी! आपका चेहरा कहता है कि आप हां कह रहे हैं भीतर, कि न कह रहे हैं भीतर। दूकान पर सेल्समैन आपके चेहरे को देखता रहता है। अगर आप टाई खरीद रहे हैं, पच्चीस टाई आपके सामने खड़ी हैं, तो जो सेल्समैन समझदार है वह टाई नहीं देखता--टाई तो आपको देखने देता है--वह आपका चेहरा देखता है। किस टाई पर ज्यादा देर आपकी आंख रुकती है, उसकी कीमत बढ़ जाती है। बढ़ जानी चाहिए।
आपकी आंख हर जगह ज्यादा देर नहीं रुकती। आंख के रुकने की सीमाएं हैं। अगर आप किसी आदमी को जरा ही ज्यादा देर घूर कर देखें, तो झगड़ा शुरू हो जाएगा। क्योंकि इस आंख की सीमा है। जब आप सिर्फ देखते हैं, जस्ट लुकिंग, एक फिंकती हुई नजर, उसका कोई मतलब नहीं होता। लेकिन जब आप रुक कर देखते हैं, उसका मतलब होता है, पसंदगी शुरू हो गई। दूसरा आदमी बेचैन हो जाता है।
आप जब भीतर बोल रहे हैं, आपके भीतर जब यंत्र चल रहा है शब्दों का, तब बाहर भी आपके शरीर, आपकी आंख, सब तरफ से प्रकट होता रहता है। लेकिन जब आप भीतर शून्य हो जाते हैं, तो बाहर शरीर भी शून्य हो जाता है। बुद्ध की प्रतिमा देखी या महावीर की प्रतिमा देखी? यह प्रतिमा बाहर से बिलकुल शून्य है। यह बाहर से इसीलिए शून्य है कि भीतर सब शून्य हो गया है। इसमें कोई हलन-चलन नहीं है। सब ठहर गया है। जैसे पानी बिना तरंग के हो गया हो! जैसे हवा न चलती हो कमरे में और दीए की लौ ठहर जाए! ऐसे जब आप शून्य होते हैं, तब केंद्र पर पहुंचते हैं।
और लाओत्से कहता है, अपने केंद्र में स्थापित होना ही श्रेयस्कर है। शब्दों में भटकना नहीं, शून्य में ठहर जाना ही श्रेयस्कर है।

आज इतना ही। शेष हम कल। लेकिन अभी जाएंगे नहीं। एक पांच मिनट, कीर्तन शायद आपको शून्य में पहुंचा दे। शायद आपको परिधि से धका दे और अपने केंद्र पर पहुंचा दे।


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