श्रीमद्भगवद्गीता
अथ सप्तमोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः
पार्थ योगं
युग्जन्मदाश्रयः।
असंशयं समग्रं
मां यथा ज्ञास्यसि
तच्छृणु।।
1।।
श्रीकृष्ण
भगवान बोले, हे
पार्थ, तू
मेरे में
अनन्य प्रेम
से आसक्त हुए
मन वाला और
अनन्य भाव से
मेरे परायण
योग में लगा हुआ
मुझको
संपूर्ण
विभूति, बल,
ऐश्वर्यादि गुणों से
युक्त सबका आत्मरूप
जिस प्रकार
संशयरहित
जानेगा, उसको
सुन।
धर्म
मौलिक रूप से
जीवन के प्रति
एक प्रेमपूर्ण
निष्ठा का नाम
है।
जीवन
के प्रति दो
दृष्टियां हो
सकती हैं।
एक--नकार की, इनकार
की, अस्वीकार
की।
दूसरी--स्वीकार
की, निष्ठा
की, प्रीति
की। जितना
अहंकार होगा
भीतर, उतना
जीवन के प्रति
अस्वीकार और
विरोध होता है।
जितनी
विनम्रता
होगी, उतना
स्वीकार।
जैसा है जीवन,
उसके प्रति
एक भरोसा और
ट्रस्ट। और
जीवन जहां ले
जाए, उसका
हाथ पकड़कर
जाने की
संशयहीन
अवस्था होती
है।
कृष्ण
इस सूत्र में
अर्जुन से कह
रहे हैं कि जो
अनन्य भाव से
मेरे प्रति
प्रेम और
श्रद्धा से
भरा है!
अनन्य
भाव को ठीक से
समझ लेना
जरूरी है।
प्रेम
दो तरह के हो
सकते हैं। एक
प्रेम वैसा, जिसमें
अन्य का भाव
मौजूद रहता है,
दूसरा
दूसरा ही रहता
है, और हम
प्रेम करते
हैं। पिता
बेटे को प्रेम
करता है, वह
अनन्य नहीं
होता। बेटा
बेटा ही होता
है, पिता
पिता ही होता
है। प्रेम में
ऐसा नहीं होता
कि पिता बेटा
हो जाए, बेटा
पिता हो जाए।
भेद कायम रहता
है। अलगाव मौजूद
रहता है।
दोनों के बीच
दीवाल बनी ही
रहती है।
कितनी ही
पारदर्शी हो,
कितनी ही
ट्रांसपैरेंट
हो, पर
दीवाल बनी ही
रहती है। पति
पत्नी को
प्रेम करता है,
या मित्र
मित्र को
प्रेम करता है,
तो भी अन्य
भाव मौजूद
रहता है। दि
अदर, वह जो
दूसरा है, कितना
ही अपना मालूम
पड़े, फिर
भी दूसरा ही
होता है। कितने
ही निकट हो, फिर भी एक
नहीं हो जाता।
कृष्ण
कहते हैं, अनन्य
भाव से जो
मुझे प्रेम
करता! जो इस
भांति प्रेम
करता है कि एक
ही बचे, दो
न रह जाएं।
प्रार्थना
और प्रेम का
यही फर्क है।
जहां दो कायम
रहते हैं, वहां
प्रेम; और
जहां दो विलीन
हो जाते हैं, वहां प्रार्थना।
यह
प्रार्थना का
सूत्र है।
अनन्य भाव की
दशा केवल
परमात्मा के
प्रति हो सकती
है,
किसी
व्यक्ति के
प्रति नहीं हो
सकती है। किसी
व्यक्ति के
प्रति इसलिए
नहीं हो सकती
कि जब भी
दूसरा
व्यक्ति होता
है, तब
उसकी सीमाएं
हैं। और जब हम
भी उसके पास
व्यक्ति की
भांति जाते
हैं, तो
अपनी सीमाओं
को साथ लेकर
जाते हैं।
दोनों की
सीमाएं ही
दीवाल बन जाती
हैं, और
दोनों की
सीमाएं ही
दोनों को दूर
करती हैं।
मनुष्य
के प्रेम में
हम कितने ही
निकट आ जाएं, निकट
आकर भी दूरी
कायम रहती है।
बल्कि सच तो यह
है, जितने
निकट आते हैं,
उतनी ही दूरी
का एहसास गहन,
स्पष्ट
होता है।
प्रेमी जितने
निकट आते हैं,
उतना ही
प्रतीत होता
है कि दोनों
के बीच एक बड़ा
फासला है, जो
पार नहीं किया
जा सकता; अनब्रिजेबल;
कुछ है, जिस
पर कोई सेतु
नहीं बन सकता।
वही तो
प्रेम की पीड़ा
है और कष्ट
है। प्रेमी दूर
हो,
तो इतनी
पीड़ा नहीं
मालूम पड़ती, क्योंकि
लगता है, पास
आ सकते हैं।
लेकिन जब
प्रेमी
बिलकुल ही पास
आ जाए, और
पास आने का
उपाय न रह जाए,
तब पीड़ा सघन
हो जाती है।
क्योंकि अब
पास आने का
कोई उपाय भी न
रहा। जितने
पास आ सकते थे,
उतने पास आ
गए। लेकिन फिर
भी दूरी कायम
है। वह दूरी
सिर्फ
प्रार्थना
में ही टूटती
है। और वह
दूरी उसके साथ
ही टूट सकती
है, जिसकी
कोई सीमा न
हो। जिसकी भी
सीमा है, उसके
साथ वह दूरी
नहीं टूट सकती
है।
सिर्फ
परमात्मा की
तरफ ऐसा प्रेम
हो सकता है जो
अनन्य हो जाए, जिसमें
दूसरा मौजूद न
रहे, जिसमें
दूसरा मिट ही
जाए। बड़े मजे
की बात है
लेकिन यह, क्योंकि
जब दूसरा
मिटता है, तो
मैं भी मिट
जाता हूं। मैं
भी तभी तक हो
सकता हूं, जब
तक दूसरा है।
जब तक तू है, तभी तक मैं
भी हो सकता
हूं। मैं और
तू एक ही चीज के
दो पहलू हैं।
एक को फेंक
देंगे, दूसरा
भी खो जाएगा।
ऐसा नहीं हो
सकता कि मैं एक
को बचा लूं और
दूसरे को छोड़
दूं।
इसलिए
वेदांत बहुत
अदभुत शब्द का
उपयोग करता है, वह
शब्द है, अद्वैत।
वेदांत कहता
है कि उस परम
स्थिति में ऐसा
नहीं कहते हम
कि एक बचेगा; हम इतना ही
कहते हैं कि
दो न बचेंगे।
वेदांत ऐसा भी
कह सकता था कि
उस परम स्थिति
में एक ही बचेगा,
लेकिन एक तो
बच नहीं सकता
बिना दूसरे के
बचे। दूसरा
रहेगा, तो
ही एक हो सकता
है। इसलिए
वेदांत बड़े
उलटे ढंग से
इस बात को
कहता है। वह
कहता है, दो
न बचेंगे, अद्वैत
होगा। यह नहीं
कहते कि एक
बचेगा; इतना
ही कहते हैं
कि दो न
बचेंगे।
अनेक
लोग सोचते हैं
कि जब दो न बचेंगे, तो
एक बच जाएगा।
वहां भूल होती
है। उस भूल को
मैं आपको साफ
करना चाहता
हूं।
अगर दो
न बचेंगे और
एक ही बच
जाएगा, तो
फिर वेदांत को
यही कहना था
कि एक बचेगा।
अद्वैत की बात
करनी व्यर्थ
थी। कहनी थी
एकत्व की बात,
एक बचेगा।
इसमें भी
कृष्ण यह कहते
हैं कि दूसरा नहीं
बचेगा, दि
अदर विल नाट
बी, अनन्य।
लेकिन
अगर आप सोचते
हों कि दूसरा
न बचेगा, तो
मैं बच जाऊंगा,
तो आप गलत
सोचते हैं। दो
बचें, तो
ही आप बच सकते
हैं। अगर
दूसरा न बचा, तो आप भी खो
जाएंगे। आपको
बचने की भी
कोई जगह न बचेगी।
अनन्य
प्रेम का अर्थ
है,
प्रेम ही बचेगा।
न तो प्रेमी
बचेगा, और
न प्रेयसी
बचेगी। न तो
प्रेमी बचेगा,
न
प्रेमपात्र
बचेगा; प्रेम
ही बच जाएगा।
सिर्फ प्रेम
ही रह जाएगा। दोनों
के बीच में जो
है, वही
बचेगा, और
दोनों खो
जाएंगे।
ऐसे
अनन्य भाव को
जो उपलब्ध हो, उस
व्यक्ति को ही
कृष्ण कहते
हैं, वही
योगी है, वही
भक्त है। उसे
हम जो भी नाम
देना चाहें।
लेकिन जहां
दोनों मिट
जाएं, जहां
एक भी न बचे।
डर
लगता है कि
अगर दोनों मिट
जाएंगे, तो
फिर तो कुछ भी
न बचेगा। और
मजे की बात यह
है कि जब
दोनों मिटते
हैं, तभी
उसका पता चलता
है, जो सब
कुछ है। और जब
तक दोनों रहते
हैं, तब तक
हमें कुछ भी
पता नहीं चलता
उसका, जो
है। तब तक
केवल दो
बर्तनों के
टकराने की आवाज
सुनाई पड़ती
है। इसलिए सभी
हमारे प्रेम
कलह बन जाते
हैं। ऐसा
प्रेम हमारे
जीवन में
खोजना कठिन है,
जो कलह और कांफ्लिक्ट
न बन जाए। कलह
बन ही जाएगी।
दो
व्यक्ति
प्रेम में पड़े
कि जानना
चाहिए कि वे
कलह की तैयारी
में पड़ रहे हैं।
शीघ्र ही कलह
प्रतीक्षा
करेगी। बस, दो
बर्तन आवाज
करेंगे, संघर्ष
करेंगे, टकराएंगे। क्योंकि
जहां भी मैं
मौजूद हूं और
दूसरा मौजूद
है, वहां डामिनेशन
की कोशिश जारी
रहेगी, वहां
मालकियत की
कोशिश जारी
रहेगी। अगर एक
कमरे में हम
दो आदमियों को
बंद कर दें, तो वे न भी
बोलें, चुप
भी बैठें,
आंख भी बंद
रखें, तो
भी उनकी दोनों
की कोशिश
एक-दूसरे के
मालिक बनने की
शुरू हो
जाएगी। जहां
दूसरा मौजूद
हुआ कि
मालकियत शुरू
हो गई, हिंसा
शुरू हो गई।
दूसरे के ऊपर
हावी होने की कोशिश
शुरू हो गई।
अनन्य
भाव का अर्थ
है,
जहां कोई
मालकियत का
सवाल नहीं है;
जहां कोई
ऊपर नहीं, कोई
नीचे नहीं; जहां दूसरा
ही नहीं। अगर
दूसरा मौजूद
है, तो वह
हमारा ही
तथाकथित
प्रेम है, उसे
चाहे हम भक्ति
कहें। लेकिन
अगर दूसरा मालूम
पड़ता है कि
दूसरा है, तो
वह भक्ति नहीं
है, हमारे
सांसारिक
प्रेम का ही
थोड़ा-सा सब्लिमेटेड,
थोड़ा-सा
शुद्ध हुआ रूप
है। और उस
शुद्ध हुए रूप
में सारी
बीमारियां
शुद्ध होकर
मौजूद रहेंगी।
और बीमारियां
जब शुद्ध हो
जाती हैं, तो
और भी खतरनाक
हो जाती हैं।
जब बीमारी
पूरी शुद्ध
होती है, तो
उसका डोज होमियोपैथिक
हो जाता है, बहुत
सूक्ष्म हो
जाता है, बहुत
प्राणों तक
छेदता है।
सुना
है मैंने कि
एक बौद्ध
भिक्षुणी
अपने साथ बुद्ध
की एक
स्वर्ण-प्रतिमा
रखती थी छोटी।
पर बुद्ध के
प्रति प्रेम
वैसा ही था, जैसा
कि लोगों का
लोगों के
प्रति होता
है। अगर कोई
राम का नाम ले
देता, तो उसे
पीड़ा होती।
अगर कोई कृष्ण
का नाम ले
देता, तो
उसे चोट
पहुंचती। अगर
कोई जीसस का
नाम ले देता, तो वह बेचैन
होती। यह कोई
अनन्य भाव न
था। इसमें
बुद्ध भी एक
दूसरे
व्यक्ति थे, वह भी स्वयं
और थी। और अभीर्
ईष्या कायम
थी। बुद्ध का
प्रेम कृष्ण
के प्रति
प्रेम में बाधा
बनता।
लेकिन
यह तो समझ में
आ सकता है कि
बुद्ध और कृष्ण
और महावीर के
बीच उसेर्
ईष्या मालूम
पड़े। लेकिन एक
बार वह चीन के
एक मंदिर में
ठहरी, जो
मंदिर सहस्र
बुद्धों का
मंदिर कहलाता
है। उसमें एक
सहस्र बुद्ध
की प्रतिमाएं
हैं। बड़ी-बड़ी
प्रतिमाएं, विशालकाय।
जब सुबह वह
अपने बुद्ध
की--अपने
बुद्ध
की--पूजा करने
बैठी, तो
उसके मन में
हुआ कि मैं
धूप जलाऊंगी,
लेकिन धुआं
तो ये जो
बड़े-बड़े
बुद्धों की
मूर्तियां
खड़ी हैं, ये
ले जाएंगी।
मैं फूल चढ़ाऊंगी,
लेकिन
सुगंध तो इन
बड़े-बड़े
बुद्धों की
मूर्तियों तक
पहुंच जाएगी।
उसके पास तो
छोटे-से बुद्ध
थे। और हमारे
पास बड़ी चीज
हो भी नहीं
सकती। हम इतने
छोटे हैं कि
हमारा भगवान
भी उतना ही
छोटा हो सकता
है। हमसे बड़ी
चीज हमारे पास
नहीं हो सकती।
उसे हम सम्हालेंगे
कैसे?
जितना
छोटा उसका मन
था,
उससे भी
छोटे उसके
भगवान थे। रखी
उसने मूर्ति,
लेकिन उसे
बड़ी पीड़ा हुई
कि यह मैं जलाऊंगी
तो धूप अपने
बुद्ध के लिए,
पहुंच
जाएगी न मालूम
किन के
बुद्धों के
लिए! तो उसने
एक बांस की
पोंगरी बनाई।
धूप जलाई और बांस
की पोंगरी से
धूप के धुएं
को अपने बुद्ध
की नाक तक
पहुंचाया।
स्वभावतः
जो होना था, वह
हो गया। बुद्ध
का मुंह काला
हो गया! सभी
भक्त अपने
भगवानों का
मुंह काला करवा
देते हैं!
बुद्ध का मुंह
काला हो गया।
बहुत बेचैन
हुई, बहुत
घबड़ाई। भीड़
इकट्ठी हो गई।
रोने लगी। लोगों
ने कहा, पागल
तूने यह क्या
किया है? उसने
कहा, यह
सोचकर कि मेरे
जलाए हुए
धूप की सुगंध
मेरे बुद्ध तक
ही पहुंचे। उस
भीड़ में खड़ा
था एक भिक्षु,
वह हंसने
लगा। उसने कहा
कि तब, जहां
भी अहंकार है,
वहां यह
होगा ही।
यह
भक्ति नहीं है, यह
वही राग है।
वही राग जो हम
जिंदगी में
बसाते हैं और
एक-दूसरे का
मुंह काला कर
देते हैं। कलह
औरर्
ईष्या और
हिंसा और दुख
और पीड़ा, वही
पूरा नर्क वहां
भी मौजूद हो
गया।
अनन्य
भाव का अर्थ
है,
न भक्त बचे,
न भगवान बचे,
भक्ति ही बच
जाए। न प्रेमी
बचे, न
प्रेमपात्र
बचे, प्रेम
ही बच जाए।
और जिस
दिन ऐसी घटना
घटती है--और
घटती है, और
किसी के भी
जीवन में कभी
भी घट सकती है,
सिर्फ अपने
को मिटाने की
तैयारी
चाहिए--तो जिस
दिन ऐसी घटना
घटती है, उस
दिन फिर ऐसा
नहीं होता कि
यह रहा भगवान।
उस दिन फिर
ऐसा होता है
कि ऐसी कोई
जगह नहीं, जहां
भगवान नहीं।
फिर ऐसा कोई
चेहरा नहीं, जो भगवान का
चेहरा नहीं।
फिर ऐसा कोई
पत्थर नहीं, जो उसकी
प्रतिमा
नहीं। और ऐसा
कोई फूल नहीं,
जो उसका नैवेद्य
नहीं। फिर सभी
कुछ उसका है।
फिर उसके अलावा
कोई और नहीं
है।
कृष्ण
कहते हैं, अनन्य
भाव से जो
मुझे प्रेम
करे।
और जब
भी कृष्ण इस
पूरी चर्चा
में प्रयोग
करेंगे मुझे, तब
आप थोड़ा ठीक
से समझ लेना।
क्योंकि
कृष्ण जब भी
कहते हैं मुझे,
तो कृष्ण के
पास ईगो जैसी,
अहंकार
जैसी कोई चीज
बची नहीं है।
इसलिए कृष्ण
का मैं अहंकार
का सूचक नहीं
है। कृष्ण के
भीतर मैं को रिफर करने
वाली वैसी कोई
चीज नहीं बची
है, जैसी
हमारे भीतर
है।
जब हम
कहते हैं मैं, तो
हमारी एक सीमा
है मैं की। और
जब कृष्ण कहते
हैं मैं, तो
मैं असीम है।
फिर यह जो
विराट आकाश है,
यह भी उस
मैं में समाया
हुआ है। और ये
जो फूल खिलते
हैं वृक्षों
के, ये भी
उसी मैं में
खिलते हैं। और
ये जो पक्षी उड़ते
हैं आकाश में,
ये भी उसी
मैं में उड़ते
हैं। यह मैं
विराट है। यह
मैं किसी
व्यक्ति का
मैं नहीं है।
यह मैं कृष्ण
का मैं नहीं
है। कृष्ण का
प्रयोग किया
जा रहा है, केवल
एक वीहिकल,
एक साधन की
भांति। और जब
भी कृष्ण
बोलते हैं, तो परमात्मा
बोलता है।
इसलिए
बहुत बार भूल
हो जाती है।
कृष्ण की गीता
पढ़ते वक्त
बहुत लोगों को
ऐसी कठिनाई
होती है कि
कृष्ण भी कैसे
अहंकारी आदमी
रहे होंगे!
अर्जुन से कहते
हैं,
जो मुझे
अनन्य भाव से
प्रेम करेगा।
मुझे! अर्जुन
से कहते हैं, जो सब छोड़कर
मेरी शरण में
आ जाएगा। मेरी
शरण में! कहते
हैं अर्जुन से,
मुझ
वासुदेव को जो
सब भांति
समर्पित है।
मुझ वासुदेव
को!
जो भी
पढ़ते हैं, दो
तरह की भूलें
होती हैं। अगर
वे कृष्ण के
प्रति रागयुक्त
हैं, तो वे
समझते हैं कि
कृष्ण, वासुदेव
नाम के जो
व्यक्ति हैं,
उनके प्रति
समर्पण करना
है। यह भी भूल
है, राग की
भूल है। जो
कृष्ण के
प्रति रागयुक्त
नहीं हैं, उन्हें
लगता है, कृष्ण
भी कैसे
अहंकारी हैं;
कहते हैं, मेरी शरण
में आ जाओ! पर
दोनों की भूल
एक ही है।
दोनों मान
लेते हैं कि
कृष्ण का मैं
अहंकार का
सूचक और
प्रतीक है।
जिसने
भी कृष्ण के
मैं को ठीक से
न समझा, वह
पूरी गीता को
ही समझने में
असफल हो
जाएगा। इस एक
छोटे-से शब्द
पर गीता का
पूरा सार, पूरी
कुंजी निर्भर
करती है। अगर
आप कृष्ण के मैं
को न समझ पाए, तो पूरी
गीता को ही आप
न समझ पाएंगे।
क्योंकि गीता
कृष्ण के
द्वारा कही गई
है, कृष्ण
से नहीं कही
गई है। गीता
कृष्ण से
प्रकट हुई है,
कृष्ण गीता
के रचयिता
नहीं हैं।
गीता कृष्ण से
बही है, लेकिन
कृष्ण गीता के
स्रोत नहीं
हैं; स्रोत
तो परम ऊर्जा
है, परम
शक्ति है। स्रोत
तो भगवान है।
इसलिए
कृष्ण को अगर गीताकार
बार-बार कहता
है,
भगवानुवाच,
भगवान ने
ऐसा कहा, तो
थोड़ा सोचकर, समझकर कहा
है। यह भगवान
कहना कृष्ण को,
सिर्फ इसी
अर्थ में है
कि कृष्ण ने
नहीं कहा, भगवान
ने कहा; कृष्ण
से कहा है, कृष्ण
के द्वारा कहा
है।
भगवान
को भी चलना हो, तो
हमारे पैरों
के अतिरिक्त
उसके पास अपने
कोई पैर नहीं।
और भगवान को
भी बोलना हो, तो हमारी
वाणी के
अतिरिक्त
उसके पास अपनी
कोई वाणी
नहीं। और
भगवान को भी
देखना हो, तो
हमारी आंखों
के अतिरिक्त
उसके पास
देखने की कोई
आंख नहीं।
लेकिन
जब किसी आंख
से भगवान देखता
है,
तो वह आंख
आदमी की नहीं
रह जाती। हां,
जो नहीं
जानते, उनके
लिए तो फिर भी
वह आंख वही
रहेगी, जो
आदमी की थी।
कृष्ण को जो
आंख मिली है, वह तो
मां-बाप से
मिली है।
लेकिन आंख के
पीछे से जो
देख रहा है, वह परमात्मा
है। अगर आप
आंख पर रुक गए,
तो समझेंगे
कि मां-बाप से
मिली हुई आंख
है। कृष्ण को
जो गला मिला है,
वह तो
मां-बाप से
मिला है।
लेकिन जो वाणी
है, वह
परमात्मा की
है। अगर आप
गले पर रुक गए,
तो वाणी को
न पहचान
पाएंगे।
इसलिए
कृष्ण जिस सहज
मन से कहते
हैं कि मेरी शरण
आ; ध्यान रखें,
कोई
अहंकारी इतने
सहज भाव से
नहीं कह सकता
कि मेरी शरण
आ।
अगर
अहंकारी को
आपको अपनी शरण
बुलाना है, तो
बड़ी तरकीबों
से बुलाएगा।
अहंकार कभी भी
इतना सीधा-साफ
नहीं होता।
अहंकार बहुत
चालाक है।
अहंकारी कभी न
कहेगा कि मेरी
शरण आ, क्योंकि
अहंकारी
भलीभांति
जानता है कि
अगर किसी से
यह कहा कि
मेरी शरण आ, तो उस आदमी
के अहंकार को
चोट लगेगी और
वह शरण न आ
सकेगा। बल्कि
वह आदमी आपको
अपनी शरण में
लाने की कोशिश
करेगा।
इसलिए
अहंकारी आदमी
दूसरे के
अहंकार को जरा
भी चोट नहीं
पहुंचाता; परसुएड
करता है, फुसलाता
है, राजी
करता है, खुशामद
करता है। उसके
अहंकार को इस
तरह राजी करता
है कि वह शरण
में भी आ जाए
और अहंकार को
चोट भी न लगे।
लेकिन
कृष्ण जितनी
सरलता से और
सहजता से कहते
हैं,
अगर ऐसा
कहें तो पैराडाक्सिकल
मालूम पड़ेगा,
उलटबांसी मालूम
पड़ेगी कि
कृष्ण जितनी
विनम्रता से
घोषणा करते
हैं कि मेरी
शरण आ, वह
खबर दे रही है
कि पीछे कोई
अहंकार नहीं
है।
अहंकार
कभी भी इतना
सरल नहीं
होता। अहंकार
हमेशा
दांव-पेंच
करता है, जटिल
होता है।
तिरछे
रास्तों से
यात्रा करता है;
सीधा
रास्ता
अहंकार नहीं
लेता।
क्योंकि अहंकार
को अनुभव है
कि सीधे
रास्ते से
दूसरे के अहंकार
को कभी भी
झुकाया नहीं
जा सकता।
लेकिन
कृष्ण बड़ी
सरलता से कहते
हैं कि मुझे
जो अनन्य भाव
से समर्पित है
अर्जुन, वही
योग को उपलब्ध
होता है।
जिसकी निष्ठा
मुझमें पूरी
है, असंशय,
वह
असंदिग्ध
ज्ञान को
उपलब्ध होता
है।
असंशय
निष्ठा को भी
थोड़ा-सा खयाल
में ले लेना चाहिए।
निष्ठा
भी दो तरह की
हो सकती है।
ससंशय निष्ठा
होती है।
जिसको
विज्ञान में हाइपोथीसिस
कहते हैं, वह
ससंशय निष्ठा
है। एक
वैज्ञानिक
प्रयोग करता
है एक हाइपोथेटिकल
भरोसे, एक
विश्वास के
साथ। जब
प्रयोग करता
है, तो एक
विश्वास को
लेकर प्रयोग
करता है, लेकिन
पूरे संशय के
साथ। संशय
रखता है कायम
अपने भीतर, ताकि जांच
कर सके कि बात
सही निकली या
नहीं निकली।
अपने को खो
नहीं देता; अपने को
कायम रखता है।
संशय को भी
कायम रखता है।
डाउट को
मौजूद रखता
है। और फिर भी
प्रयोग करता
है। प्रयोग
करेगा, तो
निष्ठा जरूरी
है। प्रयोग तो
बिना निष्ठा
के न हो
सकेगा। एक कदम
भी बिना
निष्ठा के नहीं
उठाया जा
सकता।
अगर आप
यहां से घर
वापस लौटेंगे, तो
आप इस निष्ठा
से ही लौट रहे
हैं कि घर उसी
जगह होगा, जहां
आप छोड़ आए थे।
पता आपको हो
या न हो, लेकिन
यह निष्ठा
अंदर खड़ी है
कि घर वहीं
मिलेगा, जहां
छोड़ आए थे। यह
निष्ठा पीछे
काम कर रही
है। कल सुबह
जब आप उठेंगे,
तो इसी
निष्ठा से कि
सूरज निकल आया
होगा, जैसा
कि कल निकला
था।
जरूरी
नहीं है। किसी
दिन तो ऐसा
होगा कि सूरज नहीं
निकलेगा। एक
दिन तो ऐसा
जरूर होगा कि
सूरज नहीं
निकलेगा।
वैज्ञानिक
कहते हैं, कोई
चार हजार साल
में ठंडा हो
जाएगा। चार
हजार साल बाद
किसी शरीर में
आप जरूर होंगे
कहीं, और
किसी दिन सुबह
उठेंगे और
सूरज नहीं
निकलेगा।
वैज्ञानिक
निष्ठा तो
रखता है कि
सूरज निकलेगा, लेकिन
ससंशय। संशय
कायम रखता है
कि हो सकता है
कि वह दिन आज
ही हो, कि न
निकले। वह दिन
कभी भी हो
सकता है।
प्रयोगशाला
में प्रवेश
करता है, तो
निष्ठा तो
रखता है कि
प्रकृति अपने
पुराने नियम
से ही चलती
होगी। कल भी
आग ने जलाया
था, आज भी
जलाएगी।
लेकिन जरूरी
नहीं है।
क्योंकि कोई
पक्का कैसे हो
सकता है कि कल
आग ने जलाया था,
तो आज भी
जलाएगी! तो
वैज्ञानिक एक हाइपोथेटिकल
बिलीफ, एक ससंशय
निष्ठा के साथ
प्रयोगशाला
में प्रवेश
करता है।
विज्ञान
में प्रवेश
करना हो, तो
ससंशय निष्ठा
ही मार्ग है।
लेकिन धर्म
में अगर
प्रवेश करना
हो, तो
निःसंशय
निष्ठा मार्ग
है। निःसंशय
निष्ठा बड़ी और
बात है। उसे
थोड़ा समझ लेना
जरूरी है।
निःसंशय
निष्ठा का
अर्थ यह है कि
अगर विपरीत भी
हो,
अगर आज सूरज
न भी निकले, तो भी जो
निष्ठावान, जिसकी कृष्ण
बात कर रहे
हैं, वैसा
निष्ठावान
व्यक्ति
समझेगा कि
मेरी आंख में
कोई खराबी है;
सूरज तो
निकला ही
होगा। आप फर्क
समझ लेना। अगर
कल सुबह ऐसा
हो कि सूरज न
निकले, तो
निष्ठावान व्यक्ति
कहेगा, मेरी
आंख में कोई
खराबी है, सूरज
तो निकला ही
होगा। अगर
निष्ठावान
व्यक्ति घर
वापस पहुंचे
और पाए कि
उसका घर वहां
से हट गया है, तो
निष्ठावान
व्यक्ति
कहेगा, घर
तो वहीं होगा,
मैं ही भटक
गया हूं।
फर्क
यह है, संशय
वाला व्यक्ति
हमेशा संशय
बाहर आरोपित करेगा
और निःसंशय
व्यक्ति संशय
को सदा अपने
पर आरोपित
करेगा। संशयवान
व्यक्ति सदा
भूल कहीं और
खोजेगा; निःसंशय
व्यक्ति सदा
भूल अपने में
खोजेगा।
निष्ठावान, संशयहीन
निष्ठावान
व्यक्ति अपने
अतिरिक्त जगत
में कहीं भूल
नहीं देखेगा।
अगर भूल होगी
कहीं, तो
मुझमें होगी;
और कहीं
नहीं। जीवन
में जो भी
घटेगा, चाहे
सुख, चाहे
दुख, उससे
उसकी निष्ठा
में कोई
डांवाडोल
स्थिति, कोई
कंपन पैदा
नहीं होगा।
अगर जीवन पूरा
दुख भी बन जाए,
तो भी वैसा
व्यक्ति
जानेगा कि
कहीं उसकी ही
भूल है; परमात्मा
की कृपा में
कोई अंतर नहीं
है। कहीं मैं
ही चूक रहा
हूं; उसका
प्रसाद तो बरस
रहा है। कहीं
मेरा ही बर्तन
उलटा रखा होगा;
उसकी वर्षा
तो जारी है।
संशयवान
व्यक्ति का
बर्तन भी उलटा
रखा हो, वर्षा
भी हो रही हो, तो भी वह यही
कहेगा कि
मुझमें पानी
नहीं भर रहा
है, इससे
साफ जाहिर है
कि वर्षा नहीं
हो रही।
इस भेद
को ठीक से समझ
लेना, क्योंकि
यह भेद धर्म
में प्रवेश
में अंतर लाएगा।
क्योंकि धर्म
का मौलिक आधार
व्यक्ति का रूपांतरण
है। विज्ञान
का मौलिक आधार
वस्तु का रूपांतरण
है। विज्ञान
की खोज वस्तु
की खोज है, धर्म
की खोज
व्यक्ति की खोज
है। इसलिए
उचित है कि
विज्ञान
वस्तु के भीतर
भूल-चूक देखे
और उचित है कि
धर्म व्यक्ति
के भीतर
भूल-चूक देखे।
अगर
आपका डाउट
अदर ओरिएंटेड
है,
दूसरे पर
ठहरा हुआ है, तो आपका
चित्त वस्तु
के संबंध में
बहुत-सी बातें
खोज लेगा, लेकिन
स्वयं के
संबंध में कुछ
भी न खोज पाएगा।
इसलिए धर्म और
विज्ञान के
आयाम, डायमेंशन
अलग हैं।
कृष्ण
कहते हैं, जो
निःसंशय होकर
मुझमें
निष्ठा रखता
है!
बड़ी
कठिन है यह
बात। निःसंशय
होकर निष्ठा
कैसे रखी जा
सकती है! अगर
निःसंशय होकर
हम निष्ठा रखेंगे--यह
संभव ही कहां
मालूम पड़ता
है! आज किसी भी
व्यक्ति से
कृष्ण यह
कहेंगे, तो वह
कहेंगे कि आप
असंभव की
आकांक्षा
करते हैं। यह
नहीं हो
सकेगा। मैं
कैसे सब छोड़
दूं?
लेकिन
जब कृष्ण ने
अर्जुन से यह
कहा था, तो
अर्जुन ने ऐसा
सवाल नहीं
उठाया। यह
थोड़ा विचारणीय
है। अर्जुन उस
जमाने के सुशिक्षिततम
लोगों में से
एक था। सभ्यतम,
कुलीनतम,
उस समाज में
जो श्रेष्ठतम
जन थे, उन श्रेष्ठियों
में, उन
आर्यों में एक
था। कृष्ण ने
बहुत बार यह
कहा है कि तू
सब शंकाएं
छोड़कर मुझ पर
निष्ठा कर ले।
अर्जुन जरूर
यह कहता है कि
मन बड़ा चंचल
है, मन
ठहरता नहीं।
लेकिन कहीं भी
अर्जुन यह
नहीं कहता--यह
बड़ी आश्चर्य
की बात है--कि
मैं कैसे आप
पर निष्ठा कर लूं?
निष्ठा
कैसे संभव है?
अर्जुन
यह जरूर कहता
है कि मेरी कमजोरियां
हैं। आप जो
कहते हैं, ठीक
कहते हैं; ठीक
ही कहते
होंगे। मेरी कमजोरियां
हैं। मैं न कर पाऊं।
शायद न कर पाऊं।
लेकिन अर्जुन
एक भी बार यह
सवाल नहीं उठाता,
जो कि बहुत
जरूरी है।
हमारे मन में
उठेगा। और अर्जुन
तो उस समय का
श्रेष्ठतम
व्यक्ति था। आज
अगर हम छोटे
बच्चे से भी
पूछेंगे, तो
उसके मन में
भी उठेगा कि
भरोसा! यह तो
ब्लाइंड फेथ
हो जाएगा, यह
तो अंधा
विश्वास हो
जाएगा! यह तो
कृष्ण अंधेपन
की शिक्षा दे
रहे हैं।
हमारे मन में
यह उठता है।
अर्जुन के मन
में नहीं
उठता। कुछ
कारण होंगे।
कुछ कारण हैं।
सबसे
बड़ा कारण यह
नहीं है कि
आदमी बदल गया।
सबसे बड़ा कारण
यह है कि आदमी
की कंडीशनिंग, संस्कार
बदल गए। आदमी
तो वही है। जब
आपके मन में
यह सवाल उठता
है कि यह तो
अंधेपन की शिक्षा
है। हम भरोसा
कर लें आंख
बंद करके!
शंका भी न
करें, संदेह
भी न करें! तब
तो हम मिटे।
असल
में आपको
मिटाने के लिए
ही सारा आयोजन
है। अगर धर्म
के जगत में
प्रवेश करना
है,
तो स्वयं को
मिटने की, मिटाने
की सामर्थ्य
चाहिए पड़ेगी।
अगर आप अपने
को बचाते हैं,
तो फिर भीतर
प्रवेश न हो
सकेगा।
इसलिए
द्वार पर ही
लिखा है कि जो
निःसंशय श्रद्धा
कर सके, वह
भीतर आ जाए।
जिसकी अभी
शंका मौजूद हो,
वह थोड़ा और
घूमे; मंदिर
के बाहर थोड़े
और चक्कर
लगाए। वह थोड़ा
और दौड़े। वह
और अपनी
शंकाओं को
थोड़ा थका ले।
और जब शंका से
कुछ न पाए...। और
आदमी ने शंका
से कुछ पाया
नहीं। हां, वस्तुएं
मिलेंगी। धन
मिलेगा, पद
मिलेगा।
लेकिन पाने
जैसा कुछ भी न
मिलेगा। जिस
दिन शंका थक
जाए और ऐसा
लगे कि शंका
से कुछ मिला
नहीं, उस
दिन भीतर
प्रवेश कर
आना। उस दिन
भीतर चले आना
उस मंदिर के, जहां शंका
को बाहर रख
आना पड़ता है।
आदमी
वही है, संस्कार
बदले हैं। आज
की पूरी
शिक्षा
विज्ञान की है,
इसलिए सवाल
उठता है। सवाल
आप नहीं उठा
रहे हैं; शिक्षा
उठा रही है।
क्योंकि सारी
शिक्षा डाउट
की है; सारी
शिक्षा संदेह
की है।
छोटे-से बच्चे
को हम संदेह
करना सिखा रहे
हैं। जरूरी है
विज्ञान की
शिक्षा के लिए,
अन्यथा
विज्ञान खड़ा
नहीं होगा।
इसीलिए
भारत में
विज्ञान खड़ा
नहीं हो सका।
क्योंकि जिस
देश ने गीता
में भरोसा
किया, वह देश
विज्ञान पैदा
नहीं कर
पाएगा। लेकिन
पश्चिम में
धर्म डूब गया।
क्योंकि जो
चिंतना संदेह
में भरोसा
करेगी, वह
धर्म से वंचित
रह जाएगी।
और अगर
लंबे हिसाब
में तौला जाए, तो
शायद हम
नुकसान में
नहीं हैं। और
शायद इस सदी
के पूरे
होते-होते
हमें पता
चलेगा कि हम
फायदे में
हैं। कभी-कभी
उलटा हो जाता
है। अभी तो हमें
लगता है कि हम
बड़े नुकसान
में पड़ गए
हैं। न
विज्ञान है, न टेक्नीक
है हमारे पास।
गरीबी ज्यादा
है, मुसीबत
ज्यादा है।
लेकिन कोई
नहीं कह सकता
कि इस सदी के
घूमते ही, इस
सदी के जाते
ही पश्चिम
भारी मुसीबत
में नहीं पड़
जाएगा। पड़
जाएगा, पड़
रहा है।
क्योंकि
संदेह न करके
हमने बाहर की
बहुत-सी चीजें
खोईं, लेकिन
श्रद्धा रखकर
हमने भीतर का
एक द्वार खुला
रखा। पश्चिम
ने संदेह करके
बाहर की बहुत
चीजें पाईं, लेकिन भीतर
जाने वाले
द्वार पर जंग
पड़ गई, और
वह बिलकुल बंद
हो गया। आज
कितना ही ठोंको,
पीटो, खटखटाओ,
वह खुलता
हुआ मालूम
नहीं पड़ता।
हालत ऐसी हो
गई कि भीतर
जाने वाला कोई
द्वार भी है, ऐसा भी
मालूम नहीं
पड़ता। द्वार
इतनी मजबूती
से बंद है, इतने
दिनों से बंद
है कि
करीब-करीब
दीवाल हो गया
है। कहीं कोई
द्वार नहीं
मालूम पड़ता।
याद
आता है मुझे
कि एक बार
पिछले
महायुद्ध के समय
चीन में ऐसा
हुआ। दो
भाइयों का
बंटवारा हुआ।
बाप मरणशय्या
पर था, तो बाप
ने बंटवारा कर
दिया। एक-एक
लाख रुपए दोनों
भाइयों के हाथ
में लगे। एक
भाई ने तो बहुत
मेहनत करनी
शुरू कर दी
रुपयों से।
एक-एक पैसा
बचाकर, जीवन
दांव पर लगाकर
कमाने में लग
गया। दूसरे भाई
ने तो लाख
रुपए की शराब
पी डाली।
सिर्फ शराब की
बोतलें भर
उसके पास
इकट्ठी हो
गईं।
स्वभावतः
जिसने शराब पी
थी,
सारे लोगों
ने कहा कि
बर्बाद हो गए,
मिट गए।
लेकिन वहां
कोई सुनने
वाला भी नहीं
था। वह तो
इतना पीए रहता
था कि कौन
बर्बाद हो
गया! कौन मिट
गया! किसके
संबंध में बात
कर रहे हो! कुछ
पता नहीं था।
पर बोतलें
जरूर इकट्ठी
होती चली गईं।
और
जिंदगी बड़े
मजाक करती है
कभी। और मजाक
हुआ। जिस भाई
ने लाख रुपया
धंधे में
लगाया था, उसका
तो लाख रुपया
डूब गया। और
युद्ध आया, और शराब की
बोतलों के दाम
बहुत बढ़ गए।
और उस आदमी ने
सब बोतलें बेच
लीं। और कहते
हैं कि लाख रुपए
उसको वापस मिल
गए। लाख रुपए
की बोतलें बेच
लीं उसने।
जिंदगी
कभी-कभी अनूठे
मजाक करती है।
करीब-करीब यह
सदी पूरी
होते-होते ऐसा
ही मजाक
जिंदगी में
घटित होने
वाला है।
यह
पूरब ने भीतर
का एक द्वार
तो खुला रखा, बाहर
का सब कुछ खो
दिया।
निश्चित ही, हम नासमझ
सिद्ध हुए।
हमारे पास कुछ
है नहीं। हमने
भी एक तरह की
शराब पी, जिसको
भीतरी शराब
कहें। और ऐसा
मैं कह रहा
हूं, ऐसा
नहीं। जो भी
जानने वाले
हैं, वे
यही कहते रहे
हैं कि एक
शराब है, एक
नशा है, एक
मदहोशी है
भीतर की, जहां
डूबकर
कोई वापस
लौटता नहीं।
उमर खय्याम
ने उसी के गीत
गाए हैं।
लेकिन लोग
समझे नहीं कि
उमर खय्याम
तो एक सूफी
फकीर था। लोग
समझे कि वह
इसी मधुशाला
की बात कर रहा
है,
जो बाजार
में खुली हुई
है। वह तो उस
मधुशाला की
बात कर रहा है,
जो भीतर
खुलती है। वह
तो उस पीने और
पिलाने की बात
कर रहा है, जो
परमात्मा का
नशा है।
भीतर
का यह द्वार
तो श्रद्धा से
खुलता है। श्रद्धा
का अर्थ है, असंशय
निष्ठा। लेकिन
शिक्षण पूरा
विज्ञान का है,
इसलिए
हमारा मन
संदेह के सवाल
उठाता है।
स्वाभाविक! उस
जमाने में
विज्ञान का
कोई शिक्षण न था,
शिक्षण
धर्म का था, इसलिए
अर्जुन ने कोई
सवाल नहीं
उठाया।
अभी
मैं एक
छोटे-से बच्चे
का जीवन पढ़
रहा हूं। उस
बच्चे ने बड़ी
हैरानी का
प्रयोग किया।
बारह साल का
लड़का घुमक्कड़ जिप्सियों
के साथ भाग
गया। उसके
पिता ने उसको
सहायता दी।
कहना चाहिए, पिता
ने उसे भगाया जिप्सियों
के साथ। यह
जानने के लिए
कि छः साल वह
बच्चा जिप्सियों
के साथ रहेगा,
तो जिप्सियों
की आंतरिक
जिंदगी के
रहस्य पता लगा
लाएगा। क्योंकि
जिप्सियों
के संबंध में
जो भी लिखा
गया है, वह
बाहर के लोगों
की लिखावट है।
और जब तक हम किसी
को भीतर से न
जानें, सच्चाइयों
का कोई पता
नहीं चलता।
तो उस
बच्चे को भगा
दिया जिप्सियों
के साथ। जिप्सियों
का एक कबीला
ठहरा है गांव
के बाहर। उसके
बच्चों से
दोस्ती करवा दी
बारह साल के
बच्चे की। और
उस बारह साल
के बच्चे को
मुसीबत की
दुनिया में
यात्रा पर भेज
दिया। वह
बच्चा भाग
गया। उस बच्चे
ने जो अपने संस्मरण
लिखे हैं, उसमें
से एक बात इस
संबंध में
आपसे कहना
चाहता हूं।
जिप्सियों के
पास कोई मकान
नहीं हैं।
घुमक्कड़ कौम
है,
खानाबदोश।
यह खानाबदोश
शब्द अच्छा
है। इसका मतलब
होता है, जिसका
मकान खुद के
कंधे पर
है--खानाबदोश।
दोश यानी
कंधा, खाना
यानी मकान। और
जिसके कंधे पर
ही अपना मकान
है, उसको
कहते हैं
खानाबदोश।
तो जिप्सियों
का तो कोई घर
नहीं है। आज
इस गांव में, कल
दूसरे गांव
में, परसों
तीसरे गांव
में। घुमक्कड़
कौम है।
निश्चित ही, प्राइवेसी की कोई
धारणा जिप्सियों
में नहीं है, एकांत की।
हो भी नहीं
सकती। रात
खुले आकाश के नीचे
सोते हैं सब।
एकांत का कोई
सवाल भी नहीं है।
प्रेम भी करना
हो, तो
खुले आकाश के
नीचे ही करना
पड़ेगा। कोई
उपाय नहीं है।
यह
बच्चा पहले ही
दो-चार-आठ
दिनों में जब जिप्सियों
के साथ रहा, तो
उसे जब भी
पेशाब करनी हो,
तो वह अकेले
में जाकर किसी
वृक्ष के नीचे
बैठ जाए।
जिप्सी
बच्चों ने उसे
बहुत बुरा
माना और कहा
कि तुम बहुत
गलत बात करते
हो! उसने कहा, इसमें
कौन-सी गलत
बात है? उन
बच्चों ने कहा,
यह बिलकुल
गलत बात है।
सब काम बांटकर
करने चाहिए।
उसने कहा, अजीब
पागलपन की बात
कर रहे हो!
इसको कैसे
बांटा जा सकता
है? उन्होंने
कहा, हम भी
साथ दे सकते
हैं, हम भी कोआपरेट
कर सकते हैं।
जब तुम जाते
हो, हमसे
भी कह सकते हो
कि तुम भी
चलो। लेकिन
तुम अकेले ही
चले जाते हो!
उस बच्चे ने
कहा, लेकिन
हमारे घर में
तो बाथरूम
होता है। और
हम अंदर जाकर
बंद करके ही
अपनी शंका का
निवारण करते
हैं। वे
जिप्सी बच्चे
बहुत हंसे। वे
बोले, कैसे
नासमझ हो तुम
सब! क्योंकि
कोई भी आदमी
उठकर बाथरूम
में जाएगा, तो सबको पता
है कि वह क्या
करने गया! जब
पता ही है, तो
छिपाने का
फायदा क्या
है!
इस
बच्चे को बड़ी
कठिनाइयां
आईं,
क्योंकि
इसकी समझ में
ही न आए।
क्योंकि जिप्सियों
के सोचने का
ढंग और, उनके
संस्कार और।
ग्रुप माइंड! इंडिविजुअल
का कोई सवाल
नहीं है, व्यक्ति
का कोई सवाल
नहीं है, समूह
मन है। जो भी
आएगा, बांटकर खाएंगे। जो
भी मुसीबत
होगी, उसको
भी बांट
लेंगे। जो भी
सुख आएगा, उसको
भी बांट
लेंगे। साथ
जीएंगे। तो
खयाल ही नहीं
है कि कोई
आदमी
व्यक्तिगत
कोई काम भी कर
सकता है। तो
बच्चों को
सवाल उठा कि
तुम व्यक्तिगत
जाकर कोई काम
कैसे कर सकते
हो? यह
असंभव है।
हमारे
मन में वही
सवाल उठते हैं, जो
हमारा
संस्कार हो
जाता है।
जैसे जिप्सियों
के साथ रहकर
इस बच्चे को
पता चला कि
चोरी वे बुरा
नहीं मानते
हैं। हां, उस
चोरी को बुरा
मानते हैं, जिसको कोई
संग्रह करे।
जैसे कोई आदमी
चोरी कर लाए
और संग्रह कर
ले, चुपचाप
छिपा ले और सबको
न बांटे, तो
उसे बुरा
मानते हैं। या
कोई ऐसी चीज
चुरा लाए, जिसका
आज उपयोग न हो,
छः महीने
बाद उपयोग हो,
तो उसको भी
बुरा मानते
हैं। लेकिन
कोई आदमी जाकर
खेत से घास
तोड़ लाए, तो
जिप्सी उसे
बुरा नहीं
मानते।
और जब
पहली दफा इस
बच्चे के
सामने पुलिस
आई और जिप्सियों
को पकड़ा, क्योंकि
उन्होंने
अपने घोड़ों
के लिए किसी
खेत से घास
काट लिया था।
तो जिसने काटा
था, उसने
कहा कि इसमें
चोरी कहां है?
घास तुम तो
नहीं बढ़ाते; परमात्मा
बढ़ाता है।
जमीन
परमात्मा की,
आकाश
परमात्मा का,
सूरज
परमात्मा का,
घोड़े
परमात्मा के,
तुम
परमात्मा के,
हम
परमात्मा के।
तुमने कोई घास
तो बढ़ाया
नहीं! हां, अगर
हम घास इकट्ठा
कर रहे हों, घोड़ों को खिलाने
से ज्यादा
इकट्ठा कर रहे
हों, तो हम जुर्मी
हैं। लेकिन
इसमें चोरी
कैसी?
जिप्सी
को समझ में
नहीं आता कि
इसमें चोरी
कैसी।
क्योंकि
व्यक्तिगत
संपत्ति की
धारणा उसके मन
में नहीं है।
व्यक्तिगत
संपत्ति जैसी
कोई चीज ही
नहीं है।
धारणा भी कैसे
होगी? हमारे
मन में खयाल
उठता है, चोरी
हो गई, क्योंकि
हमारा
संस्कार है
एक।
आज हम
सारी दुनिया
में विज्ञान
का संस्कार दे
रहे हैं
बच्चों को। हम
सबके मन में
संदेह का संस्कार
है। संशय
हमारे द्वार
पर खड़ा है।
संशय के बिना
हम एक कदम
चलते नहीं।
लेकिन कृष्ण
ने जब यह
शिक्षा दी, तब
आदमी के द्वार
पर संशय की
जगह श्रद्धा
थी। पूरा
द्वार बदल गया,
आदमी वही
है।
इसलिए
आप जब गीता को
पढ़ते हैं, आपके
काम नहीं
पड़ेगी।
क्योंकि आपके
दरवाजे पर जो
पहरेदार खड़ा
है, वह बिलकुल
बदल गया है।
वह गीता को
भीतर प्रवेश
ही न करने
देगा। आप रट
भी लेंगे, कंठस्थ
भी कर लेंगे, दोहराने भी
लगेंगे, लेकिन
हृदय के भीतर
गीता का कोई
प्रवेश न होगा।
क्योंकि वह
प्रवेश तभी हो
सकता है, जब
कृष्ण की शर्त
पूरी हो। वे
कहते हैं, असंशय!
लेकिन असंशय
कैसे आएगा? क्या मैं
जबर्दस्ती
कोशिश कर लूं
कि संशय को छोड़
दूं?
नहीं; आज
इसका कोई उपाय
नहीं है कि हम
कोशिश करके संशय
को छोड़ दें।
आज कोशिश करके
संशय नहीं
छोड़ा जा सकता।
आज तो आप संशय
पूरी तरह से
कर लें, तो
ही संशय छूट
सकता है।
इतना
पूरी तरह से
संशय कर लें
कि थक जाएं, एक्झास्टेड;
ऊब जाएं, घबड़ा जाएं।
और संशय इतना
कर लें कि
कहीं न पहुंचें
सिवाय नर्क के,
दुख ही दुख
चारों तरफ खड़ा
हो जाए। इतना
संशय कर लें
कि कांटे ही
कांटे संशय के
सब तरफ से छिद जाएं
और भीतर
जिंदगी में
कोई सुख का
फूल न खिले।
संशय कर लें
पूरा, टोटल।
तो शायद; तो
शायद संशय से
ऊब जाएं और
पार हो जाएं।
तो शायद संशय
किसी क्षण में
गिर जाए और आप
बाहर हो जाएं।
और वह निःसंशय
स्थिति बन जाए,
जो कृष्ण
कहते हैं, पहली
शर्त है। और
इतना निःसंशय
हो जा अर्जुन,
तू फिर इतना
निःसंशय होकर
मुझे सुन।
बड़ी
मजे की बात
है। सुनने के
लिए इतनी
शर्त! कहते
हैं,
इतना
निःसंशय होकर,
इतना अनन्य
होकर फिर तू
मुझे सुन। अगर
सुनने के ऊपर
इतनी शर्त है,
तब तो हममें
से कोई भी
सुनने में
समर्थ नहीं है।
हम सब
सोचते हैं कि
हम सब सुनने
में समर्थ हैं, क्योंकि
कान हमारे पास
हैं। क्योंकि
ध्वनि हमारे
कान में पहुंच
जाती है, तो
हम समझते हैं,
हम सुनने
में समर्थ
हैं। हम सब
सुनने में
समर्थ नहीं
हैं। कान पर
आवाज पड़ती है
जरूर, ध्वनि
पैदा होती है
जरूर, लेकिन
सुनना और
आंतरिक घटना
है।
कृष्ण
कहते हैं, इतनी
शर्त तू पूरी
कर, अनन्य
भाव से भर जा; असंशय
निष्ठा हो
तेरी मुझमें,
तो तू मुझे
सुन पाएगा।
फिर सुन!
क्योंकि फिर
मैं तुझे राज
खोल सकता हूं
वे, जो
बुद्धि के लिए
नहीं खोले जा
सकते। फिर मैं
वे रहस्य खोल
सकता हूं तेरे
समक्ष, जो
केवल हृदय के
समक्ष खोले
जाते हैं, तर्क
के समक्ष नहीं
खोले जाते।
फिर मैं तुझसे
कह सकूंगा वह
आंतरिक बात, जो केवल
प्रेम में ही
कही जाती है, जो विवाद
में नहीं कही
जाती।
और
जिंदगी में
गहरे जो सत्य
हैं,
वे विवाद
में नहीं कहे
जाते। वे
प्रेम में ही कहे
जा सकते हैं।
एक सिम्पैथेटिक
एटीटयूड,
एक
सहानुभूति से
भरे हुए हृदय
से ही कहे जा
सकते हैं।
जीवन के जो भी
गहन सत्य हैं,
वे अनन्य भावदशा
में ही कहे जा
सकते हैं, क्योंकि
तभी कम्युनिकेशन,
तभी एक बात
दूसरे तक
पहुंचती है।
अन्यथा
हम,
जैसे युद्ध
के मैदान पर
सिपाही खड़े
होते हैं, ऐसे
बोलने और
सुनने वाले भी
खड़े हों। और
अक्सर ऐसे ही
खड़े होते हैं,
अपनी रक्षा
में तत्पर!
दोनों के
द्वार बंद।
आवाज गूंजती
है, संवाद
नहीं होता।
शब्द बिखर
जाते हैं, कोई
प्रतीति नहीं
आती। बहुत
सुना जाता है,
कुछ पल्ले
नहीं पड़ता; सब
खाली-खाली रह
जाता है।
यह
शर्त कीमती
है। और यह
शर्त इसलिए है
कि कृष्ण कुछ
ऐसी बात कहना
चाहते हैं
अर्जुन से, जो
तर्क और संशय
से भरे चित्त
को नहीं कही
जा सकती।
सिर्फ उसे ही
कही जा सकती
है, जो
बिलकुल खुलकर
बैठा है, ओपन।
जिसकी कोई क्लोजिंग
नहीं है।
जिसका कोई
डिफेंस, जिसकी
कोई सुरक्षा
नहीं है। जो
इतने भरोसे से
भरा है कि अगर
उसकी छाती में
छुरा भी भोंक
दो, तो वह
उस छुरे को भी
स्वीकार कर
लेगा। अनन्य
प्रेम, छाती
में छुरा भी
भोंक दो, तो
स्वीकार कर
लेगा। और
सोचेगा कि
मेरे हित में
होगा, इसीलिए।
जो अपनी छाती
में छुरा लेने
को तैयार है, उसी की छाती
में सत्य भी
प्रवेश करते
हैं।
कबीर
ने कहा है, जो
घर बारे आपना,
चले हमारे
संग। तैयारी
हो अगर अपने
घर को जला डालने
की, तो आओ
मेरे साथ।
कौन-सा
घर?
कबीर ने
किसी का घर
कभी जलवाया
नहीं। एक और
घर है हमारे
चारों तरफ
सुरक्षा का, जैसे कि
सिपाही अपने
चारों तरफ
जिरह-बख्तर बांधकर
युद्ध के
मैदान पर जाता
है। हम सब भी
एक बड़ा
जिरह-बख्तर
अपने चारों
तरफ बांधे हुए
तैयार रहते
हैं कि कहीं
कोई ऐसी बात
प्रवेश न कर
जाए कि हमारी
सुरक्षा खतरे
में पड़ जाए।
कहीं कोई ऐसा
सत्य भीतर न
चला जाए कि
हमारी जिंदगी
हमें बदलनी
पड़े। कहीं कोई
ऐसी प्रेरणा न
मिल जाए कि
हमें कुछ और
होना पड़े।
कहीं कोई
हमारा जो इस्टैब्लिश्ड,
हमारा जो
व्यवस्थित
जगत है, उसमें
कोई गड़बड़ न हो
जाए।
एक
मित्र परसों
मेरे पास आए
थे। उन्होंने
कहा कि मैं
आपकी बात
सुनने आना
चाहता हूं, लेकिन
जब से आपने
संन्यास की
बात की है, तब
से मन में भय
लगता है। क्या
भय की बात है? उन्होंने
कहा, भय
लगता है कि
कहीं किसी दिन
मुझे भी समझ
में आ जाए कि
संन्यास लेना
है, तो फिर
क्या होगा?
अब ये
आदमी अगर मुझे
सुनने आए
होंगे--जरूर
आए होंगे, सदा
आते हैं--तो
जिरह-बख्तर
बांधकर बैठे
होंगे कि कहीं
कोई बात भीतर
न चली जाए।
कैसा मजा है! बात
सुननी भी है
और भीतर नहीं
भी जाने देनी
है, तो
व्यर्थ मेहनत
क्यों करनी? मत सुनें, बेहतर है।
सुनें, तो
फिर भीतर
प्रवेश करने
दें।
तो
कृष्ण कहते
हैं,
यह पहली
शर्त है।
पुराने
समस्त गुरु
शर्तें पहले
लगा देते थे। कहते
थे,
पहले ये
शर्तें पूरी
कर दो, फिर
हम तुमसे
कहेंगे।
क्योंकि कहीं
ऐसा न हो कि
तुम बेकार
हमारा समय
जाया करो।
अगर
सूफी फकीर के
पास आप सीखने
जाएं, तो
कहेगा कि दो
साल घर में
झाडू-बुहारी
लगाते रहो। आप
कहेंगे, मैं
सत्य खोजने
आया हूं, झाडू-बुहारी
लगाने नहीं।
तो वह कहेगा, सत्य की खोज
का यह पहला
चरण हुआ। तुम
दो साल झाडू-बुहारी
लगाओ। बीच में
मुझसे पूछना
मत। लगाते
रहना। जब मैं
समझूंगा कि वह
वक्त आ गया, अब मैं
तुमसे कहूं, दि टाइम इज़
राइप, समय
पक गया, तब
मैं तुमसे कह
दूंगा। भाग
जाएंगे हम तो
तभी!
सुना
है मैंने कि
एक सूफी फकीर
के पास एक
आदमी आया और
उसने कहा कि
मैं सत्य की
खोज में आया
हूं। उस फकीर
ने कहा, यह
खोज बड़ी कठिन
है। तुम्हारी
तैयारी पूरी
है? उसने
कहा, मेरी
तैयारी पूरी
है। तो फकीर
ने कहा, अपना
नाम-पता लिखा
दो; अगर इस
खोज में तुम
मर जाओ, तो
तुम्हारे
अस्थिपंजर
मैं कहां भेजूं!
व्हेयर शुड
आई सेंड दि रिमेंस--जो
बच रहे पीछे, उसे मैं
कहां भेजूं!
उस आदमी ने
कहा कि अगर आप
बुरा न मानें,
तो मैं
अस्थिपंजर खुद
ही लिए जाता
हूं। और भाग
खड़ा हुआ! आपको
कष्ट होगा
भेजने का, मैं
खुद ही लिए
जाता हूं!
उसने
सोचा भी न था
कि सत्य की
खोज में
अस्थिपंजर भी
कभी भेजने की
जरूरत पड़ सकती
है। वह भी नहीं
समझा।
अस्थिपंजर से
उस फकीर का
मतलब बड़ा गहरा
रहा होगा।
वह जो
हम अपने चारों
तरफ बांधे हैं, जिसकी
वजह से हम सब
तरफ से कट
जाते हैं; एक
आईलैंड, एक
द्वीप की तरह
बन जाते हैं; सब तरफ से
टूटकर अलग खड़े
हो जाते हैं।
उसमें सत्य
प्रवेश नहीं
करेगा। सत्य
के लिए द्वार
चाहिए।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं,
इतनी
तैयारी हो
अर्जुन, तो
फिर सुन।
प्रश्न:
भगवान
श्री, एक
छोटा-सा
प्रश्न है।
अनन्य प्रेम
को यहां मूल
संस्कृत में
कहा गया है, आसक्तमना। मेरे में
आसक्त मन वाले
का कैसा
आध्यात्मिक अर्थ
होगा? इसे
स्पष्ट करें।
शब्द
तो वही रहते
हैं। रुख बदल
जाए,
तो सब बदल
जाता है।
परमात्मा
में आसक्त मन
वाला। और
परमात्मा में
आसक्त मन वाला
जब हम कहेंगे, तो
आसक्त शब्द का
वही अर्थ न रह
जाएगा, जो
धन में आसक्ति
वाला, यश
में आसक्ति
वाला।
शब्द
तो बदल जाते
हैं तत्काल, जैसे
ही उनका आयाम
बदलता है।
हमारे पास
शब्द तो थोड़े
हैं। और हमारे
सब शब्द जूठे
हैं। कृष्ण के
पास भी कोई
उपाय नहीं है
नए शब्दों के
बोलने का।
हमारे ही
शब्दों का
उपयोग करना
है। अगर
कहेंगे प्रेम,
तो हमारे मन
में जो खयाल
आता है, वह
हमारे ही
प्रेम का आता
है। अगर
कहेंगे आसक्त,
तो हमारे मन
में जो अर्थ
आता है, वह
हमारी ही
आसक्ति का आता
है। लेकिन जो
शर्त लगी है, परमात्मा
में आसक्त मन
वाला!
परमात्मा
में कौन होता
है आसक्त?
तो
कृष्ण ने पहले
बहुत
व्याख्या की
है उसकी, कि जो
सब भांति
अनासक्त हो
गया, वही
परमात्मा में
आसक्त होता
है। परमात्मा
में आसक्ति का
मतलब है, पूर्ण
अनासक्ति।
पूर्ण
अनासक्ति न हो,
तो
परमात्मा में
आसक्ति न
होगी। जरा-सी
भी आसक्ति
कहीं बची हो, तो परमात्मा
में आसक्ति न
होगी।
तो
चाहे हम कहें, आसक्ति।
आसक्ति का
अर्थ है, जिसमें
हम आकर्षित हो
रहे हैं; जिसमें
हम खींचे जा
रहे हैं; जिसमें
हम बुलाए जा
रहे हैं; जिसमें
हम पुकारे
जा रहे हैं; जिसके बिना
हम न जी
सकेंगे। तो
चाहे कहें आसक्ति,
चाहे कहें
प्रेम, चाहे
कहें अनन्य
राग, चाहे
कहें भक्ति; इससे कोई
अंतर नहीं
पड़ता। इतना ही
प्रयोजन है कि
जो परमात्मा
की तरफ खिंचा
जा रहा है; जिसके
आकर्षण का
बिंदु
परमात्मा हो
गया। और परमात्मा
का क्या अर्थ
होता है?
परमात्मा
का अर्थ है, सब
कुछ। जो इस सब
को घेरे हुए
है, जो इस
सब के भीतर
छिपा है, वह
निराकार और
अरूप जो सब
रूपों में
व्याप्त है, उसकी तरफ जो
आकर्षित हो
गया। जो अब
बूंद में आकर्षित
नहीं है, बूंद
में छिपे
महासागर में
आकर्षित है।
जो व्यक्ति
में आकर्षित
नहीं है, व्यक्ति
के भीतर छिपे
अव्यक्ति में
आकर्षित है।
जो अब अगर
अपनी पत्नी को
भी प्रेम कर
रहा है, तो
पत्नी को
प्रेम नहीं कर
रहा है, पत्नी
में छिपे
परमात्मा को
प्रेम कर रहा
है। अब जो सब
तरफ, उस
परमात्मा से
ही खींचा जा
रहा है और
बुलाया जा रहा
है। जो सब
भांति उसी की
तरफ दौड़ रहा
है, उसी
महासागर के
मिलन की तरफ।
तो मुझ
परमात्मा में
आसक्त मन
वाला। तो
प्रेम कहें, आसक्ति कहें,
इससे फर्क
नहीं पड़ता।
फर्क इससे
पड़ता है कि आप
उसका उपयोग
क्या कर रहे
हैं।
शब्द
अपने आप में
अर्थहीन हैं।
सब कुछ उपयोग
पर निर्भर
करता है।
शब्दों में
खुद कोई अर्थ
नहीं है। अर्थ
तो हम डालते हैं
और हम देते
हैं। और अर्थ
बदल जाता है
तत्काल, जैसे
ही शब्द का
आयाम बदलता है,
तब अर्थ बदल
जाता है।
यह
शर्त है कृष्ण
की कि
परमात्मा की
तरफ आ रहे मन
वाला अगर तू
है,
तो मुझे
सुन। क्योंकि
वे जो कहने जा
रहे हैं, वह
जो परमात्मा
की तरफ पीठ
करके चल रहा
है, वह न सुन
सकेगा; उसके
किसी काम का
नहीं है। वह
बहरे से बात
करनी हो
जाएगी। उसका
कोई अर्थ नहीं
है।
अभी
मैं एक झेन
फकीर का जीवन
पढ़ता था। एक
युवक आया है
उस फकीर के
पास और उस
युवक ने कहा
कि मैंने सुना
है,
बुद्ध ने
कहा है कि
मेरी बात सब
के उपयोग की
है। धर्म सब
के लिए है।
लेकिन, उस
युवक ने कहा, इसमें मुझे
बड़ी शंका होती
है। मुझे शंका
होती है कि
बुद्ध के वचन
अगर सब के
उपयोग के लिए
हैं, तो
बहरों का क्या
होगा? क्योंकि
बहरे तो सुन
ही न सकेंगे, तो उनके लिए
उपयोग कैसे
होगा? बुद्ध
खड़े भी रहें, अंधे तो देख
ही न सकेंगे, तो सत्संग कैसे
होगा?
उस
फकीर ने क्या
किया? उस फकीर
ने वही किया, जो फकीरों
को करना
चाहिए। पास
में पड़ा था एक
डंडा, उसने
जोर से उस
आदमी के पेट
में डंडे का
जोर से धक्का
दिया। उस आदमी
ने चीख मारी।
उसने कहा, आप
यह क्या करते
हैं? तो उस
फकीर ने कहा, अहा! मैं तो
समझता था कि तुम
गूंगे हो। तो
तुम गूंगे
नहीं हो, बोलते
हो! जरा मेरे
पास आओ। तो वह
आदमी डरता हुआ
पास आया। उसने
कहा, अहा!
मैं तो सोचता
था कि तुम
लंगड़े हो।
लेकिन तुम तो
चलते हो!
उस
आदमी ने कहा, इन
बातों से क्या
मतलब जो मैं
पूछने आया
हूं! तो उस
फकीर ने कहा
कि तुम इसकी
फिक्र छोड़ो,
दूसरे अंधे,
लूले और गूंगों
की। अगर तुम
गूंगे नहीं हो,
लूले नहीं
हो, अंधे
नहीं हो, तो
कम से कम तुम
लाभ ले लो। और
जब कोई अंधे
आएंगे, तब
उनसे मैं निपट
लूंगा। जब कोई
गूंगे आएंगे,
तब उनसे मैं
निपट लूंगा।
तुम फिक्र छोड़ो।
इतना तय है कि
तुम अंधे, लूले,
लंगड़े, गूंगे
नहीं हो।
तुमने क्या
लाभ लिया
बुद्ध के वचनों
का? उसने
कहा, अभी
तक तो कुछ
नहीं लिया! तो
उस फकीर ने
कहा कि पागल, तू फिक्र कर
रहा है उनकी, जो न ले
सकेंगे; और
तू अपनी फिक्र
कब करेगा, जो
ले सकता है!
तो उस
फकीर ने कहा
कि जो गूंगे
हैं,
वे तो गूंगे
हैं ही; और
जो बहरे हैं, वे तो बहरे
हैं ही; लेकिन
तेरे बहरेपन
को हम क्या
करें? तेरे
गूंगेपन
को हम क्या
करें?
कृष्ण, अर्जुन
का गूंगापन, बहरापन टूट
जाए, उसकी
पीठ मुड़ जाए, वह परमात्मा
की तरफ उन्मुख
हो
जाए--क्योंकि
अभी तक अर्जुन
की जो
उन्मुखता है,
वह युद्ध से
बचने की है।
किसी तरह
युद्ध से बच
जाए। यह हिंसा
न हो। बस, इससे
ज्यादा उसकी
उत्सुकता
नहीं है।
यह बड़े
मजे की बात है, अर्जुन
किसी
ब्रह्मज्ञान
को लेने कृष्ण
के पास गया
नहीं था। ये
कृष्ण
जबर्दस्ती
उसको ब्रह्मज्ञान
दिए देते हैं!
कारण है।
क्योंकि कृष्ण
के पास जो है, वही दे सकते
हैं। आप अगर
अमृत के सागर
के पास विष लेने
भी जाएं, तो
भी अमृत का
सागर क्या कर
सकता है? वह
आपको अमृत ही
दे देगा। भला
आप पीछे पछताएं
कि गलत जगह
पहुंच गए। फंस
गए!
अर्जुन
तो एक बहुत
छोटा-सा सवाल
लेकर गया था। उसने
सोचा भी न
होगा कि इतनी
बड़ी गीता उससे
पैदा होगी।
उसने सोचा भी
न होगा कि
कृष्ण ज्ञान
की इतनी
गहराइयों में
उसे ले
जाएंगे।
मगर
कृष्ण की भी
अपनी मजबूरी
है। कृष्ण के
पास जो है, वे
वही दे सकते
हैं। आगे वे
कुछ ऐसी गहन
बातें कहने
वाले हैं, जो
कि अर्जुन अगर
पूरी तरह
उन्मुख हो, तो ही समझ
पाएगा, इसलिए
यह शर्त लगाई
है।
ज्ञानं
तेऽहं सविज्ञानमिदं
वक्ष्याम्यशेषतः।
यज्ज्ञात्वा
नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।।
2।।
मैं
तेरे लिए इस रहस्यसहित
तत्वज्ञान को
संपूर्णता से
कहूंगा कि
जिसको जानकर
संसार में फिर
और कुछ भी
जानने योग्य
शेष नहीं रहता
है।
बहुत
कुछ है, जो
जान लिया जाए,
तब भी सब
कुछ जानने को
शेष रह जाता
है। बहुत कुछ
है, जो
पूरा का पूरा
जान लिया जाए,
तो भी जो
जानने जैसी
चीज है, वह
शेष ही रह
जाती है।
उपनिषद
में कथा है कि
श्वेतकेतु
वापस लौटा। तो
उसके पिता ने
देखा कि
श्वेतकेतु
वापस लौट रहा
है आश्रम से
अध्ययन करके।
स्वभावतः, अकड़
उसमें रही
होगी। जो भी
थोड़ा-बहुत
ज्ञान सीख ले,
अकड़ पैदा
होती है।
श्वेतकेतु
अकड़ता हुआ चला
आ रहा है!
सुबह
सूरज निकला है
और पिता
श्वेतकेतु को
आता हुआ देखता
है। सब कुछ
जानकर लौट रहा
है। अठारह
शास्त्र, जो
उन दिनों
प्रचलित थे, उन सबका
ज्ञान लेकर
आया है। अब
अकड़ में और
कोई कमी नहीं
है। अब तो
पिता भी उसके
सामने कुछ नहीं
जानता। जैसा
कि सभी बच्चों
को लगता है, जब वे
थोड़ा-सा जान
लेते हैं। उस
दिन के भी
बच्चे ऐसे ही
थे, जैसे
आज के बच्चे
हैं।
श्वेतकेतु
अकड़ से घर में
प्रवेश किया।
पिता ने उससे
पूछा, तू सब
जानकर आ गया, ऐसा मालूम
पड़ता है। उसने
कहा कि
निश्चित ही। आप
पूछ देखें। सब
परीक्षाओं
में उत्तीर्ण
हुआ। सब
शास्त्र
कंठस्थ हैं।
गुरु ने जब
प्रमाणपत्र
दे दिया, तब
मैं आया हूं।
पर उसके पिता
ने पूछा कि
तूने अपने
गुरु से वह भी
जाना या नहीं,
जिसको जान
लेने से सब
जान लिया जाता
है?
उसने
कहा,
वह क्या चीज
है, जिसको
जान लेने से
सब जान लिया
जाता है! ऐसी
तो कोई चीज
गुरु ने मुझे
नहीं बताई, जिसको जान
लेने से सब
जान लिया जाता
है। मैं तो वे
ही चीजें
जानकर आ रहा
हूं, जिनको
जान लेने से
उन्हीं को
जाना जाता है।
सब का कोई
सवाल नहीं है!
तो
पिता ने कहा, तू
वापस जा। तू
बेकार ही श्रम
करके घर लौट
आया। तेरी अकड़
ने ही मुझे कह
दिया कि तू
अज्ञानी का
अज्ञानी ही
वापस आ रहा
है। क्योंकि
अकड़ अज्ञान का
सबूत है। तू
वापस जा। तू
शास्त्रों के
बोझ से तो दब
गया, लेकिन
ज्ञान की किरण
अभी तेरे जीवन
में नहीं
फूटी। उसे
जानकर आ, जिसे
जान लेने के
बाद कुछ जानने
को शेष नहीं रह
जाता।
वह
बेचारा वापस
लौटा, उदास।
सब व्यर्थ हो
गया, बरसों
की मेहनत।
गुरु से जाकर
उसने कहा कि
आपने भी क्या
सिखाया! पिता
ने कहा कि यह
तो कुछ भी नहीं
है। और मैं तो
यह मानकर लौटा
कि सब जान
लिया गया। और
उन्होंने कहा
है कि उसे
जानकर आ, जिसे
जान लेने से
सब जान लिया
जाता है। वह
क्या है जिसे
जान लेने से
सब जान लिया
जाता है?
उसके
गुरु ने कहा, वह
तू स्वयं है।
लेकिन तूने
कभी मुझसे
पूछा ही नहीं
कि मैं कौन
हूं! तूने
पूछा नहीं!
तूने जो पूछा,
वह मैंने
तुझे बताया।
तूने पूछा, आकाश में
बादल कैसे
बनते हैं, तो
मैंने बताया
होगा। तूने
पूछा, नदियां कैसे बहती
हैं, तो
मैंने बताया
होगा। तूने
पूछा कि अन्न
कैसे पचता है,
तो मैंने
बताया होगा।
तूने जो पूछा,
वह मैंने
तुझे बताया।
तूने कभी यह
पूछा ही नहीं
कि मैं कौन
हूं! और जब तक
कोई स्वयं को
न जान ले, तब
तक वह ज्ञान
नहीं मिलता, जिसे जानने
से सब जान
लिया जाता है।
या जिसे जान
लेने पर फिर
जानने को कुछ
शेष नहीं रह
जाता है।
तो
कृष्ण कहते
हैं,
अब मैं वह
रहस्य तुझसे
कहूंगा
अर्जुन, और
पूरा ही बता
दूंगा
तुझे--तीन-चार
बातें कहते
हैं--अब मैं वह
रहस्य तुझसे
कहूंगा अर्जुन।
रहस्य, मिस्ट्री। कह सकते थे
कि वह सत्य
मैं तुझसे
कहूंगा। लेकिन
कहते हैं, वह
रहस्य मैं
तुझसे
कहूंगा।
क्योंकि उस
रहस्य को कहने
के लिए सत्य
शब्द भी छोटा
है। और उसे सत्य
नहीं कहा
जानकर।
क्योंकि उसे
कितना ही जान
लो, तब भी
कभी दावा नहीं
कर सकते कि
जान लिया है।
इसलिए कहा, रहस्य।
रहस्य
का मतलब यह है, जानो,
तो खुद
मिटते हो। और
जानो, तो
और मिटते हो।
और जानो, तो
और। और एक दिन
आता है कि
जानना तो पूरा
हो जाता है, लेकिन खुद
बिलकुल नहीं रह
जाते।
दावेदार खतम
हो जाता है।
वह जो क्लेम
कर सकता था कि
मैंने जान
लिया, सत्य
मेरी मुट्ठी
में है, वह
बचता नहीं। न
मुट्ठी
बांधने वाला
बचता है, न
मुट्ठी बचती
है। फिर जो बच
रहता है, वह
एक मिस्ट्री
है, वह एक
रहस्य है।
इसलिए
भी रहस्य कहा
कि पूरी तरह
जानकर भी, पूरी
तरह परिचित
होकर भी, वह
ज्ञान तर्कबद्ध
नहीं होता है।
वह लाजिकल
नहीं है। वह
एक रहस्य की
भांति है; धुंधला
है। जैसे सुबह,
जब सूरज
नहीं निकला है,
चारों तरफ
कुहरा छाया
हुआ है। चीजें
रहस्यपूर्ण
लगती हैं। या
रात पूर्णिमा
की चांदनी में,
जब कि कहीं
वृक्षों के नीचे
अंधेरा है, और कहीं
धीमी चांदनी
है, और सब
रहस्यपूर्ण
हो जाता है।
एक मिस्ट, एक
धुंध घेरे
रहती है।
उस
रहस्य में जब
कोई पहुंचता
है,
तो एक गहन
चांदनी रात
में, जहां
सब चीजें
रहस्यपूर्ण
मालूम पड़ती
हैं; कोई
चीज अपने में
पूरी नहीं
मालूम पड़ती; प्रत्येक
चीज किसी और
चीज की तरफ
इशारा करती
है। गद्य की
भांति नहीं है
वह, पद्य
की भांति है; काव्य की
भांति है; जिसका
ओर-छोर नहीं
मिलता। जिसे
एक तरफ से
शुरू करें, तो दूसरा
अंत नहीं आता।
और जिसमें
जितने भीतर प्रवेश
करें, उतनी
ही पहेली बड़ी
होती चली जाती
है।
इसलिए
नहीं कहा कि तुझे
सत्य कहूंगा।
कहा कि तुझे
कहूंगा वह
रहस्य।
और
ध्यान रहे, संतों
ने कभी भी
सत्य का दावा
नहीं किया, रहस्य की
घोषणा की है।
दार्शनिकों
ने सत्य का दावा
किया और रहस्य
की हत्या की
है। और इसलिए दर्शन,
फिलासफी और धर्म में
एक बुनियादी
फर्क है।
धर्म
रहस्य की खोज
है और
दर्शनशास्त्र
सत्य की।
इसलिए
दार्शनिक गणित
बिठाने में
लगा रहता है, और
धार्मिक गणित उखाड़ने
में लगा रहता
है। दर्शनशास्त्री
तर्क, कनक्लूजन,
निष्पत्तियां निकालता
रहता है। और
संत, मिस्टिक,
सब निष्पत्तियां
तोड़कर, वह जो अनंत
अज्ञात है, उसमें कूद
जाता है।
इसलिए
कृष्ण ने कहा, रहस्य।
कृष्ण
कोई फिलासफर
नहीं हैं, कोई
दार्शनिक
नहीं हैं; उस
अर्थों में
जिसमें प्लेटो
या अरस्तू या
हीगल
दार्शनिक
हैं। उस अर्थ
में कृष्ण
दार्शनिक
नहीं हैं।
कृष्ण उस अर्थ
में रहस्यवादी
हैं, जैसे
जीसस या बुद्ध
या लाओत्से।
रहस्यवादी
का कहना यह है
कि तुम्हारे
ज्ञान की
घोषणा सिर्फ
तुम्हारे
अज्ञान का
सबूत है। काश, तुम
सच में ही जान
लो, तो तुम
जानने का दावा
छोड़ दो। काश, तुम्हें पता
चल जाए, तो
जो सत्य है, वह इतना बड़ा
है कि तुम
उसमें कहीं
पाओगे भी न कि
तुम कहां खड़े
हो। तुम उसमें
डूब तो सकते
हो, लेकिन उसको
मुट्ठी में
नहीं ले सकते
हो।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं,
रहस्य।
रहस्य
वह है, जिसमें
हम तो डूब
सकते हैं, लेकिन
जिसे हम अपनी
मुट्ठी में
बांधकर घर में
लाकर तिजोड़ी
में बंद नहीं
कर सकते। और
हम कितना ही
उसे जान लें, और कितना ही
उसे पहचान लें,
और कितना ही
उसके साथ एक
हो जाएं, फिर
भी हमारे मन
में अज्ञात का
भाव बना ही
रहेगा, दि
अननोन मौजूद
ही रहेगा।
जानें कितना
ही, पहचानें कितना ही, मिलन हो जाए
कितना ही, फिर
भी कुछ अज्ञात,
कुछ अननोन
शेष रहेगा।
वह
अज्ञात जो शेष
रह जाता है, सदा
शेष रह जाता
है, वही
कृष्ण को
रहस्य कहने के
लिए प्रेरित
करता है।
दूसरी
बात वे कहते
हैं,
सभी तुझसे
कह दूंगा।
इस पर
भी विचार कर
लेने जैसा है।
एक दिन
बुद्ध एक
वृक्ष के नीचे
से गुजर रहे
हैं। पतझड़
हो रही है। पतझड़
है। वृक्षों
से सूखे पत्ते
नीचे गिरते
हैं। हवाएं
पत्तों को उड़ाती
हैं। पत्तों
की आवाज और
ध्वनि जंगल
में गूंज रही
है। आनंद
बुद्ध से
पूछता है कि
प्रभु! आज
एकांत का क्षण
है,
एक बात पूछ
लूं। बहुत दिन
से पूछने का
मन करता है, लेकिन कोई न
कोई मौजूद
होता है; मैं
टाल जाता हूं।
आज यहां कोई
भी नहीं है, सिवाय इन
सूखे गिरते
पत्तों के।
मैं आपसे पूछ लूं
एक बात। आप जो
जानते हैं, वह सभी कह
दिया है, या
कुछ बचा भी
लिया है? आपने
जो जाना, वह
सभी कह दिया
है, या कुछ
बचा भी लिया
है?
तो
बुद्ध अपना
हाथ खोल देते
हैं उसके
सामने, और
कहते हैं, मैं
खुली हुई
मुट्ठी की तरह
हूं, बंद
मुट्ठी की तरह
नहीं। मैंने
तो सभी कह
दिया है, लेकिन
तुमने सभी सुन
लिया होगा, यह जरूरी
नहीं है।
मैंने तो सब
बता दिया है, लेकिन सब
तुमने पा लिया
होगा, यह
जरूरी नहीं
है। मैंने तो
कुछ भी नहीं
छिपाया है, लेकिन सब
प्रकट हो गया
होगा, यह
जरूरी नहीं
है। मैं तो एक
खुली किताब
हूं, खुली
मुट्ठी हूं।
सब मेरा खुला
है।
द्वार-दरवाजे
खुले हैं। तुम
कहीं से भी
प्रवेश करो।
तुम सब जान
लो। कुछ भी
छिपाया नहीं है।
कुछ छिपाने का
सवाल नहीं है।
लेकिन सब तुम्हें
प्रकट हो गया
होगा, यह
जरूरी नहीं
है।
कृष्ण
अर्जुन को
कहते हैं कि
सभी कुछ कह
दूंगा
तुझे--सभी। जो
कहा जा सकता
है,
वह भी कह
दूंगा; जो
नहीं कहा जा
सकता है, वह
भी कह दूंगा।
सभी में दोनों
आ जाते हैं।
जो कहा जा
सकता है, वह
भी कह दूंगा; जो नहीं कहा
जा सकता है, वह भी कह
दूंगा।
आप
पूछेंगे, जो
नहीं कहा जा
सकता है, उसको
कैसे कहिएगा?
शायद
जो नहीं कहा
जा सकता, उसको
कहने की बहुत
तरह की कोशिशें
दुनिया में की
गई हैं
अलग-अलग ढंग
से। लेकिन
कृष्ण ने जैसी
कोशिश की है, वैसी बहुत
मुश्किल से
शायद ही कभी
की गई है। इसलिए
कृष्ण जब
कह-कहकर थक गए,
तो फिर
उन्होंने
दिखाया। वह
कहा, जो
नहीं कहा जा
सकता है। फिर
अर्जुन को कहा
कि अब तेरी
समझ में नहीं
आता शब्दों से,
तो अब तू
देख ले। अब
मैं तुझे
दिव्य-दृष्टि
दे देता हूं
और तू देख ले
मेरे पूरे
विराट को। वह जो
नहीं कहा जा
सकता है, वह
दिखाया।
विट्गिंस्टीन का
बहुत
प्रसिद्ध वचन
है,
देयर आर थिंग्स,
व्हिच कैन
नाट बी सेड, बट कैन बी शोड।
विट्गिंस्टीन
पश्चिम के
आधुनिक मिस्टिक,
आधुनिक
रहस्यवादियों
में कीमती
आदमी था। कहता
है, ऐसी
चीजें हैं, जो नहीं कही
जा सकतीं, लेकिन
बताई जा सकती
हैं। और अगर
उसके वचन के लिए
कोई गवाही है,
तो वे कृष्ण
हैं। क्योंकि
जब नहीं कह
सके वे, तो
उन्होंने
बताया कि अब
तू देख ले।
लेकिन
कितना अभागा
है हमारा मन!
कि कृष्ण जब
शब्द का उपयोग
करते हैं, तब
अर्जुन समझ
नहीं पाता। और
जब स्थिति का
उपयोग करते
हैं, सिचुएशन
का, प्रकट
कर देते हैं
पूरा का पूरा,
तब वह कहता
है, बंद
करो! बंद करो!
रोको यह रूप।
मन बहुत घबड़ाता
है। मेरे
प्राण बहुत
कंपते हैं। इस
विराट को वापस
ले लो। यह
अपनी आंख वापस
लो! न सुनकर हम
समझ पाते हैं,
न देखकर हम
समझ पाते हैं।
इसलिए
कृष्ण जैसे
व्यक्ति की
करुणा
अपरिसीम है।
यह जानते हुए
कि हम सुनकर
भी नहीं समझ
पाएंगे, हम
देखकर भी नहीं
समझ पाएंगे, फिर भी एक
असंभव प्रयास
कृष्ण जैसे
लोग करते हैं।
उनकी वजह से जिंदगी
में थोड़ा नमक
है, उनकी
वजह से जिंदगी
में थोड़ी रौनक
है, जिन्होंने
असंभव प्रयास
किया।
कहते
हैं,
सब कह दूंगा
अर्जुन तुझे,
सब! पूरा का
पूरा कह
दूंगा। बस, तू सुनने को
राजी हो। और
वह बात बताना
चाहता हूं, जिसे जान
लेने से सब
जान लिया जाता
है।
इसको
भी थोड़ा-सा
खयाल में ले
लें। क्योंकि
इस भारत में
हमने सर्वाधिक
जिसकी खोज की
है,
वह इसी एक
छोटी-सी बात
की, जिसको
जान लेने से
सब जान लिया
जाता
है--मास्टर-की।
एक तो
ऐसी कुंजी
होती है कि एक
ताले में लगती
है। दूसरे
ताले के लिए
दूसरी कुंजी
की जरूरत होती
है। तीसरे
ताले के लिए
तीसरी कुंजी
की जरूरत होती
है। लेकिन एक
मास्टर-की है, जो
सब तालों में
लगती है। एक
कुंजी मिल गई,
तो फिर किसी
कुंजी की कोई
जरूरत नहीं
रहती। सब ताले
खुल जाते हैं।
इस
मुल्क ने
मास्टर-की
खोजने की
कोशिश की है। पश्चिम
भी कुंजियां
खोजता है, लेकिन
कुंजियां।
हमने कुंजी
खोजने की
कोशिश की है।
पश्चिम भी
खोजता है। वह
कहता है, यह
ताला कैसे
खुलेगा! तो फिजिक्स
का ताला किसी
और कुंजी से
खुलता है।
केमिस्ट्री
का किसी और
कुंजी से
खुलता है।
साइकोलाजी का
किसी और कुंजी
से खुलता है।
गणित का किसी
और से। हजार
कुंजियां खोज
लीं उन्होंने।
अब तो
हालत यह हो गई
है कि कौन-सी
कुंजी कौन-सी
है,
इसका हिसाब
रखना मुश्किल
हुआ जा रहा
है। फिर एक-एक
कुंजी को
खोजने के बाद
और हजार ताले
मिल जाते हैं,
तो फिर
उसमें और सब-ब्रांचेज
कुंजी की
खोजनी पड़ती
हैं। तो
केमिस्ट्री
कभी केमिस्ट्री
थी, अब
केमिस्ट्री
में
बायो-केमिस्ट्री
भी है, आर्गेनिक केमिस्ट्री
भी है। अब अलग
कुंजियां
हैं। और कितनी
देर तक आर्गेनिक
केमिस्ट्री आर्गेनिक
रहेगी; उसमें
और कुंजियां
निकली आती
हैं!
अभी
पश्चिम में एक
बहुत होशियार
बुद्धिमान आदमी
ने,
स्नो ने एक
किताब लिखी, जिसमें उसने
घोषणा की कि
पश्चिम अपने
ज्ञान के दबाव
में मर सकता
है। क्योंकि
ज्ञान इतना हो
गया, और
उसके बीच कोई
तालमेल नहीं
है। सब के पास
कुंजियां हैं,
सब के पास
ताले हैं। यह
पता ही नहीं
चलता कि कौन-सा
ताला खोलें, कौन-सा न
खोलें! कौन-सा
क्यों खोलें!
और सब तरफ से
ताले खुल रहे
हैं, और आदमी
है कि बिलकुल
बंद है, और
उसका कुछ
खुलता हुआ
मालूम नहीं
पड़ता। ज्ञान
बहुत; अज्ञान
अपनी जगह
कायम। ज्ञान
का भार भारी।
आज
जमीन पर जितना
ज्ञान है, पृथ्वी
पर कभी नहीं
था। और अगर
इसी मात्रा
में ज्ञान
बढ़ता है, तो
जो लोग
हिसाब-किताब
लगाते हैं, वे कहते हैं,
कुछ ही दिन
में पृथ्वी के
वजन से ज्यादा
पुस्तकें हमारे
पास हो
जाएंगी।
पृथ्वी क्या
करेगी उस वक्त,
यह अपने को
अभी पता नहीं
है। ऐसा होने
देगी, यह
भी पक्का पता
नहीं है।
लेकिन इसी
रफ्तार से
बढ़ता है।
क्योंकि
प्रति सप्ताह
दस हजार नए ग्रंथ
प्रकाशित हो
जाते हैं। यह
बोझ बढ़ता चला
जाता है।
इसलिए
अब सारी
दुनिया में
जहां बड़ी लाइब्रेरीज
हैं,
वे लोग
चिंतित हैं कि
इतनी बड़ी लाइब्रेरीज
को अब बचाया
नहीं जा सकता।
इनको कैसे
बचाएंगे? लोगों
के लिए रहने
की जगह नहीं
है; किताबों
के लिए कैसे
जगह होगी? तो
किताबों को माइक्रो
बुक्स, छोटी
किताबें करो।
तो जितनी एक
किताब की जगह
में कम से कम
एक लाख
किताबें बन
सकें, इतनी
छोटी करो। फिर
पर्दे पर उसको
बड़ा करके पढ़
लो। छोटी-छोटी
करो। क्योंकि
इतनी किताबें
अब नहीं रखी
जा सकतीं।
इतना
ज्ञान, और
आदमी के
अज्ञान का कोई
हिसाब नहीं
है! आदमी निपट
अज्ञानी है। मास्टर-की
की तलाश नहीं
हुई है।
कृष्ण
कहते हैं, मैं
तुझे
मास्टर-की
दूंगा। मैं
तुझे वह कुंजी
दूंगा, जिसे
पा लेने के
बाद किसी
कुंजी की कोई
जरूरत नहीं।
मैं तुझे वह
कुंजी दूंगा
कि ताले खोलने
नहीं पड़ते, कुंजी को
देखते हैं कि
खुल जाते हैं।
मैं तुझे वह
बता दूंगा, जिसे जान
लेने से सब
जान लिया जाता
है। वह एक तत्व
मैं तुझे कह
दूंगा। वह
अनिर्वचनीय, वह एक परम, अल्टिमेट,
वह आखिरी
सत्य, वह
बुनियाद का
सत्य, वह
अनादि, अनंत
मैं तुझे कह
दूंगा। उसे
जान लेने पर
फिर कुछ और
जानने को शेष
नहीं रह जाता।
शेष
हम कल बात
करेंगे।
लेकिन
अभी उठेंगे
नहीं। उस
मास्टर-की का
थोड़ा यहां प्रयोग
करना है, इसलिए
थोड़ा
बैठेंगे।
पांच मिनट कोई
भी नहीं जाएगा।
इतनी देर आप
अपने मन से
बैठे थे, पांच
मिनट मेरे मन
से।
कोई
उठेगा नहीं।
पांच मिनट
हमारे
संन्यासी कीर्तन
करेंगे। वह भी
एक मास्टर-की
है। और कोई अगर
उसमें भीतर
पूरा प्रवेश
कर जाए, तो
ताले बिना
चाबी लगाए
खुलते हैं। आप
भी बैठे-बैठे
थोड़ा खोलने की
कोशिश करें।
ताली
भी बजाएं।
गाएं भी। मस्त
भी हों।
आनंदित भी
हों। पड़ोसी की
फिक्र छोड़
दें। जिसको
पड़ोसी की
फिक्र है, उसको
परमात्मा की
फिक्र कभी
नहीं होती।
पड़ोसी की
फिक्र छोड़
दें।
परमात्मा की
थोड़ी फिक्र
करें।
संन्यासी
आनंदमग्न
होंगे। आप भी
पांच मिनट उनका
प्रसाद लें।
और फिर हम
विदा होंगे।
thank you guruji
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