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बुधवार, 17 सितंबर 2014

तंत्र--सूत्र (भाग--1) प्रवचन--06

स्‍वप्‍न का अतिक्रमण कैसे हो—प्रवचन—छठवां

प्रश्‍नसार:
1—स्‍वप्‍न देखते हुए बोधपूर्ण कैसे हुआ जाए?

2—प्रयत्‍न क्‍यों करें अगर नाटक के पात्र भर है?


एक मित्र ने पूछा है :

क्या समझाने की कृप्‍या करेंगे की स्वप्न देखते हुए बोधयूर्ण होने के अन्य उपाय क्या हैं?

ह प्रश्न उन सबके लिए महत्वपूर्ण है जो ध्यान में उत्सुक हैं। क्योंकि सचाई यह है कि स्‍वप्‍न देखने की प्रक्रिया का अतिक्रमण ही ध्यान है।
तुम सतत सपना देखते हो। रात में ही नहीं, पूरा दिन भी सपना देखते रहते हो। यह समझने की पहली बात है कि जागते हुए भी तुम सपना देखते हो। दिन के किसी समय आंखें  बंद करो, शरीर को थोड़ा शिथिल करो, और पाओगे कि सपना चल रहा है।
वह कभी बंद ही नहीं होता, हमारे दैनंदिन कामकाज के चलते वह सिर्फ दबा रहता है। यह दिन के तारों जैसा है। रात में तुम तारों को देखते हो, दिन में उन्हें नहीं देखते, लेकिन तारे सदा होते हैं। 1इदन में सूर्य की रोशनी में बस छिप जाते हैं।

तुम एक गहरे कुएं में उतर जाओ तो वहा से तुम्हें दिन में भी आकाश के तारे दिखाई देंगे। तारों को देखने के लिए थोड़ा अंधकार जरूरी है। इसलिए एक गहरे कुएं में प्रवेश करो और उसकी पेंदी से ऊपर देखो, तुम्हें दिन में भी तारे दिखाई देंगे। तारे वहा हैं। ऐसा नहीं है कि रात में वे वहां होते हैं और दिन में नहीं होते। रात में तुम उन्हें आसानी से देख लेते हो, दिन में नहीं देख पाते, क्योंकि सूर्य का प्रकाश बाधा बन जाता है।
वही बात स्‍वप्‍न के साथ सही है। ऐसा नहीं है कि तुम नींद में ही सपना देखते हो। नींद में स्वप्न आसानी से अनुभव में आता है, क्योंकि उस समय दिन का कार्यकलाप बंद रहता है। इसलिए स्वप्न का भीतरी कार्यकलाप देखा और महसूस किया जाता है। जब सुबह तुम जागते हो तो भी स्‍वप्‍न चलता ही रहता है, सिर्फ तुम बाहर के कामों में व्यस्त हो जाते हो। दैनंदिन कामकाज का सिलसिला स्‍वप्‍न को दबा देता है। लेकिन भीतर स्वप्न जारी रहता है।
एक आरामकुर्सी में बैठकर शरीर को शिथिल करो, आंखें  बंद करो, और अचानक तुम देखोगे कि स्‍वप्‍न के तारे मौजूद हैं, वे कहीं गए नहीं हैं। स्वप्न सदा चलता रहता है, वह एक सतत प्रक्रिया है।
दूसरी बात, अगर सपना जारी है तो सच में तुम जागे हुए नहीं हो, तुम सोए हुए हो। सई फर्क इतना ही है कि रात में अधिक सोए रहते हो और दिन में थोड़ा कम। यह फर्क सापेक्ष है। तो अगर सपना जारी है तो तुम जागे हुए नहीं कहे जा सकते। सपना चेतना पर एक पर्त डाल देता है, और यह पर्त धुएं की भांति तुम्हें घेर लेती है। इसलिए जब तक तुम सपना देखते हो तुम जागे हुए नहीं हों—चाहे दिन हो या रात हो।
इसलिए दूसरी बात यह कि जब सपना बिलकुल ही नहीं है तो ही तुम जागे हुए कहे जा सकते हो। हम बुद्ध को जाग्रत पुरुष कहते हैं। यह जागरण क्या है? यह जागरण वस्तुत: आंतरिक स्वप्न—प्रक्रिया का विसर्जन है। भीतर कोई सपना नहीं है। तुम जाते हो, तो वहा कोई सपना नहीं मिलता। मानो आकाश में तारे नहीं रहे, शुद्ध आकाश ही है। जब स्वप्न नहीं रहा तो तुम शुद्ध आकाश हो। यह शुद्धता, यह निर्दोषता, यह स्वप्नरहित चैतन्य ही बुद्धत्व या जागरण कहलाता है।
सदियों से सारे संसार का अध्यात्म—चाहे वह पूर्व का हो या पश्चिम का—कहता आया है कि मनुष्य सोया हुआ है। जीसस कहते हैं, बुद्ध कहते हैं, उपनिषद कहते हैं कि मनुष्य सोया हुआ है। इसलिए तुलनात्मक रूप से रात में तुम ज्यादा सोए हो और दिन में कुछ कम। लेकिन अध्यात्म कहता है कि आदमी नींद में है।
इस बात को ठीक से समझना होगा। इसका क्या अर्थ हुआ? इस सदी में गुरजिएफ ने इस तथ्य पर सर्वाधिक जोर दिया कि आदमी नींद में है। उसने तो यहां तक कहां कि आदमी एक तरह की नींद ही है। प्रत्येक आदमी गहरी नींद में है। ऐसा कहने का कारण क्या है?
तुम नहीं जानते, तुम्हें स्मरण नहीं है कि तुम कौन हो। क्या जानते हो कि तुम कौन हो? अगर रास्ते में तुम किसी व्यक्ति को मिलो और उससे पूछो कि तुम कौन हो और वह उत्तर न दे सके तो तुम क्या सोचोगे? तुम सोचोगे कि वह या तो पागल है या नशे में है या सोया हुआ है। अगर वह नहीं बता सके कि वह कौन है तो तुम उसके संबंध में क्या सोचोगे?
धर्म के मार्ग पर सबका यही हाल है। तुम नहीं बता सकते कि तुम कौन हो। जब गुरजिएफ या जीसस या कोई भी कहता है कि आदमी सोया है तो उसका पहला अर्थ यह है. तुम स्वयं के संबंध में जागरूक नहीं हो। तुम स्वयं को नहीं जानते हो, तुम स्वयं से कभी नहीं मिले हो। विषयगत संसार में तो तुम बहुत जानते हो, लेकिन स्वयं विषयी को नहीं जानते।
तुम्हारे मन का हाल यह है कि मानो तुम फिल्म देखने गए हो। पर्दे पर फिल्म चल रही है और तुम उसे देखने में ऐसे तल्लीन हो कि तुम्हें फिल्म और कहानी के अतिरहक्त सब भूल जाता है। उस समय अगर कोई पूछ दे कि तुम कौन हो तो तुम कुछ न कह सकोगे।
स्‍वप्‍न भी फिल्म जैसा है —ठीक फिल्म जैसा। मन संसार को प्रतिबिंबित करता है, मन के दर्पण में संसार प्रतिबिंबित होता है। वही स्वप्न है। और तुम उसमें इस कदर डूबे हो, उसके साथ इस हद तक एकात्म हो गए हो कि बिलकुल भूल गए हो कि मैं कौन हूं। सोए होने का यही अर्थ है कि स्‍वप्‍न देखने वाला स्वप्न में खो जाए। स्वयं को छोड़कर तुम सब कुछ देखते हो, स्वयं को छोड़कर सब कुछ महसूस करते हो, स्वयं को छोड़कर सब कुछ जानते हो। यह आत्म—अज्ञान ही नींद है। और जब तक यह स्‍वप्‍न—क्रिया पूरी तरह खतम नहीं होती, तुम स्वयं के प्रति नहीं जाग सकते।
'तुमने देखा होगा कि तीन घंटों तक फिल्म देखते रहने के बाद जब अचानक उसका अंत आता है तो तुम भी स्वयं में वापस आ जाते हो। तब तुम्हें याद आता है कि तीन घंटे गुजर गए, तब याद आता है कि यह तो फिल्म थी। फिर तुम्हें पता चलता है कि तुम रो रहे थे, रूप का क्योंकि फिल्म दुखांत थी; या हंस रहे थे, या कुछ और कर रहे थे। और तब तुम्हें अपनी बेवकूफी पर हंसी आती है कि मात्र फिल्म थी, कहानी थी, कि परदे पर कुछ नहीं था सिर्फ प्रकाश और छाया का खेल था, बिजली का खेल था। अब तुम हंसते हो। अब तुम स्वयं में लौट आए हो। लेकिन तीन घंटे तक कहां थे? तुम अपने केंद्र पर नहीं थे। तुम बिलकुल परिधि पर पहुंच गए थे। तब तुम वहां थे जहां फिल्म चल रही थी। तुम अपने केंद्र पर नहीं थे, तुम स्वयं के साथ नहीं थे; तुम कहीं और थे।
यही स्वप्न में घटता है। और यही हमारी जिंदगी है। फिल्म की घटना तो सिर्फ तीन घंटे की है, लेकिन स्वप्न—क्रिया जन्मों—जन्मों चलती है। और अचानक यदि सपना बंद भी हो जाए तो भी तुम नहीं पहचान पाओगे कि तुम कौन हो। अचानक तुम धुंधला— धुंधला अनुभव करोगे और भयभीत भी। तुम फिर फिल्म में लौट जाना चाहोगे, क्योंकि वह परिचित है। तुम उससे भलीभांति परिचित हो, तुम उसके साथ समायोजित हो।
क्योंकि जब स्‍वप्‍न तिरोहित होता है तो एक मार्ग खुलता है, खासकर झेन में जिसे त्वरित मार्ग, त्वरित बुद्धत्व का मार्ग कहते हैं। इन एक सौ बारह विधियों में कई ऐसी विधियां हैं जो त्वरित बुद्धत्व को प्राप्त करा सकती हैं। लेकिन वह तुम्हारे लिए अति हो जा सकती है। और हो सकता है कि तुम उसे झेल न पाओ। इस विस्फोट में तुम मर भी सकते हो। क्योंकि सपनों के साथ तुम इतने समय से जी रहे हो कि उनके हटने पर तुम्हें याद ही नहीं रहेगा कि तुम कौन हो।
अगर यह सारा संसार अचानक समाप्त हो जाए और तुम बिलकुल अकेले रह जाओ तो यह इतना बडा आघात होगा कि तुम मर जाओगे। ठीक वही बात होगी अगर सारी स्वप्न—क्रिया अचानक तुम्हारी चेतना में लुप्त हो जाए। तुम्हारा संसार ही समाप्त हो जाएगा, क्योंकि सपना ही तुम्हारा संसार है। हम सच में संसार में नहीं हैं। हमारा संसार बाहरी चीजों से नहीं, वरन हमारे सपनों से बना होता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वप्न—लोक में रहता है।
याद रहे, हम जिस संसार की बात कर रहे हैं वह एक नहीं है। भौगोलिक तल पर तो वह एक है, लेकिन मनोवैज्ञानिक तल पर उतने ही संसार हैं जितने मन हैं। हरेक मन अपना अलग संसार है। और अगर तुम्हारा सपना समाप्त होता है तो तुम्हारा संसार ही समाप्त होता है। सपनों के बिना तुम्हारे लिए जीना कठिन होगा। यही कारण है कि त्वरित उपाय साधारणत: काम में नहीं लाए जाते। केवल क्रमिक उपाय काम में लाए जाते हैं।
इस बात को खयाल में रख लेना अच्छा होगा। क्रमिक उपाय इसलिए काम में लाए जाते हैं कि वे जरूरी हैं। तुम अचानक इसी क्षण आत्मबोध में, बुद्धत्व में छलांग लगा सकते हो। उसमें कोई बाधा नहीं है। कभी कोई बाधा थी भी नहीं। तुम अभी भी वही हो, इसी क्षण बुद्धत्व में प्रवेश कर सकते हो। लेकिन वह छलांग खतरनाक हो सकती है, घातक भी। हो सकता है, तुम उसे बर्दाश्त न कर सके, तुम्हारे लिए वह अति हो जाए।
तुम झूठे सपनों में जीने के आदी हो। सत्य का सामना, सत्य का साक्षात्कार तुम नहीं कर सकते। तुम तापगृह में लगाए गए पौधे जैसे हो। तुम सपनों में ही जी सकते हो। वे अनेक तरह से तुम्हारे काम आते हैं। तुम्हारे लिए वे सपने नहीं हैं, यथार्थ हैं।
इसलिए क्रमिक उपाय उपयोगी हैं। वे इसलिए उपयोगी नहीं हैं कि स्वयं को उपलब्ध होने के लिए समय की जरूरत है। बुद्धत्व के लिए समय की जरूरत नहीं है। बुद्धत्व के लिए कतई समय की जरूरत नहीं है। यह उपलब्धि भविष्य में नहीं होती है। लेकिन क्रमिक उपायों के साथ चलकर तुम भविष्य में उसे उपलब्ध कर लेते हो। क्रमिक उपाय वस्तुत: क्या करते हैं? वे बुद्धत्व नहीं देते, वे तुम्हें बुद्धत्व झेलने के योग्य भर बनाते हैं। वे तुम्हें क्षमता और बल देते हैं कि तुम बुद्धत्व को झेल सको।
ऐसे सात उपाय हैं जिनसे तुम त्वरित बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकते हो। लेकिन तुम उसे झेल न सकोगे। तुम अंधे हो जा सकते हो, अतिशय प्रकाश है वह। या अचानक मृत्यु भी घटित हो सकती है; अतिशय आनंद है वह।
हमारे सपने का, हमारी गहरी नींद का अतिक्रमण कैसे हो सकता है? अतिक्रमण के संबंध में यह प्रश्न अर्थपूर्ण है, 'क्या समझाने की कृपा करेंगे कि स्वप्न देखते हुए बोधपूर्ण होने के अन्य उपाय क्या हैं?'
मैं यहां और दो उपायों की चर्चा करूंगा। एक उपाय की चर्चा की थी, आज अन्य दो की करूंगा जो और भी आसान हैं।
एक तो यह कि तुम यह मानकर अपना कामकाज, अपना व्यवहार शुरू करो कि सारा संसार स्वप्‍नवत है। तुम जो भी करो, यह याद रखो कि यह सपना है। जब जागे हुए हो तो निरंतर याद रखो कि सब कुछ सपना है।
संसार को स्वप्न या माया कहने का यही कारण है। यह कोई दार्शनिक तर्क नहीं है। दुर्भाग्य से जब शंकर की कृतियां पश्चिम की भाषाओं में—अंग्रेजी, जर्मन और फ्रेंच में—अनूदित हुईं तो शंकर को महज एक दार्शनिक समझा गया। इससे बहुत नासमझी पैदा हुई। पश्चिम में दार्शनिक हैं—उदाहरण के लिए बर्कले—जो कहते हैं कि यह संसार मात्र स्वप्न है, मन का प्रक्षेपण है। लेकिन यह तो दार्शनिक सिद्धांत हुआ। बर्कले ने इसे एक परिकल्पना के रूप में प्रस्तावित किया था। लेकिन जब शंकर कहते हैं कि यह संसार माया है तो यह दार्शनिक सिद्धांत नहीं है, परिकल्पना नहीं है। शंकर किसी खास ध्यान के लिए उसे एक मदद के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
और ध्यान यह है—अगर तुम स्वप्न देखते हुए स्मरण रखना चाहते हो कि यह स्वप्न है तो तुम्हें जागते हुए ही उसका आरंभ करना होगा। अभी तो ऐसा है कि स्वप्न देखते हुए तुम नहीं याद रख सकते कि यह स्‍वप्‍न है। तुम तो सोचते हो कि यह यथार्थ ही है।
क्यों तुम सोचते हो कि यह यथार्थ है न: क्योंकि दिनभर तो तुम यही समझते हो कि सब कुछ यथार्थ है। वह तुम्हारी दृष्टि बन गई है —बंधी—बधाई दृष्टि। जागते हुए तुमने स्थान किया, वह यथार्थ था। जागते हुए तुम भोजन कर रहे थे, वह यथार्थ था। जागते हुए तुम बातचीत क्र रहे थे, वह भी यथार्थ था। पूरे दिन और इसी तरह पूरी जिंदगी, तुम जो भी सोचते हो, करते हो, उस पर तुम्हारी दृष्टि उसके यथार्थ होने की रहती है। यह दृष्टि फिक्स हो जाती है, यह मन की बंधी—बधाई धारणा बन जाती है। फिर रात में जब तुम स्‍वप्‍न देखते हो तो वही दृष्टि काम करती है कि यह यथार्थ है।
इसलिए पहले तो हम विश्लेषण करें। स्‍वप्‍न और यथार्थ के बीच कुछ समानता होनी चाहिए, अन्यथा यह दृष्टि बननी कठिन होगी। मैं तुम्हें देख रहा हूं। फिर मैं आंख मूंदता हूं रूप का और स्‍वप्‍न देखने लगता हूं और स्‍वप्‍न में तुम्हें देखता हूं। इन दोनों देखने में फर्क नहीं है। जब मैं तुम्हें सचमुच देखता हूं तो क्या करता हूं? मैं तुम्हें नहीं देखता हूं तुम्हारा चित्र मेरी आंखौं मैं प्रतिबिंबित होता है। पहले तुम्हारा चित्र प्रतिबिंबित होता है और तब वह चित्र किसी रहस्यपूर्ण
प्रक्रिया के द्वारा—विज्ञान अभी उस प्रक्रिया को नहीं जान सका है—रासायनिक रूप में रूपांतरित होता है और मस्तिष्क के भीतर कहीं पहुंचा दिया जाता है। विज्ञान को अभी यह भी पता नहीं है कि यह बात ठीक किस स्थान पर घटित होती है। आंख में यह नहीं घटित होती है, आंख तो सिर्फ द्वार है। मैं तुम्हें सीधे आंख से नहीं देखता हूं आंख के माध्यम से देखता हूं।
आंख में तुम प्रतिबिंबित होते हो। तुम मात्र एक चित्र हो सकते हो, तुम यथार्थ हो सकते हो, तुम स्वप्न हो सकते हो। याद रखो, स्वप्न तीन— आयामी होता है। मैं एक चित्र को पहचान पाता हूं क्योंकि चित्र दो— आयामी होता है। स्वप्न तीन—आयामी होता है, इसलिए वह ठीक तुम्हारे जैसा दिखता है। और आंख नहीं कह सकती कि जो देखा गया है यह यथार्थ है या नहीं। निर्णय लेने का कोई उपाय नहीं है, आंख निर्णायक नहीं है।
फिर चित्र रासायनिक तरंगों में रूपांतरित होता है, वे वैद्युतिक तरंगें हैं जो कहीं मस्तिष्क में पहुंचती हैं। यह अभी भी अज्ञात ही है कि वह बिंदु कहां है जहां आंखें  दर्शन के धरातल से संपर्क करती हैं। सिर्फ तरंगें मेरे पास पहुंचती हैं और फिर उनका कोड खोला जाता है, छिपा अर्थ निकाला जाता है। फिर मैं उनके अर्थ निकालता हूं कि क्या हो रहा है।
मैं सदा भीतर हूं और तुम सदा बाहर हो, और दोनों का मिलन नहीं होता। इसलिए यह समस्या ही है कि तुम यथार्थ हो कि स्वप्न। ठीक इस क्षण भी निर्णय लेने का उपाय नहीं है कि मैं स्‍वप्‍न देख रहा हूं या तुम सचमुच यहां हो। और मुझे सुनते हुए तुम कैसे कह सकते हो कि तुम मुझे सच में सुन रहे हो या कि तुम स्‍वप्‍न देख रहे हो? कोई उपाय नहीं है। यही कारण है कि जो तुम्हारी दृष्टि दिनभर बनी रहती है, वही रात में भी, नींद में भी प्रवेश कर जाती है। तुम स्‍वप्‍न को सच मानते हो।
विपरीत का प्रयोग करो। माया से शंकर का यही प्रयोजन है। जब वे कहते हैं कि सारा संसार माया है तो वे यह कहते हैं कि सारा संसार स्वप्न देखने जैसा है—यह खयाल में रखो। लेकिन हम मूढ़ लोग हैं। अगर शंकर कहते हैं कि यह स्वप्न है, तो हम कहते हैं, फिर कुछ करने की क्या जरूरत? अगर यह स्‍वप्‍न ही है तो फिर खाने की क्या जरूरत? क्यों खाते जाओ और सोचते जाओ कि यह स्‍वप्‍न है? खाओ ही मत।
लेकिन तब यह भी याद रखना चाहिए कि जब भूख लगती है, तो वह भी तो स्‍वप्‍न ही है। या जब तुम समझते हो कि तुमने बहुत खा लिया तो वह भी सपना ही है।
याद रखो, शंकर तुम्हें स्वप्न को बदलने को नहीं कह रहे हैं। क्योंकि स्वप्न को बदलने का प्रयत्न फिर इस झूठे विश्वास पर खड़ा होगा कि यह यथार्थ है। अन्यथा कुछ बदलने की क्या जरूरत? शंकर सिर्फ यह कह रहे हैं कि जो भी है वह सपना है। इसे याद रखो, उसे बदलने की कोशिश मत करो।
सतत यह तीन सप्ताह याद रखो कि जो भी तुम करते हो वह सपना है। शुरू में यह बहुत कठिन होगा। तुम बार—बार मन के पुराने ढांचे में पड़ोगे, तुम सोचने लगोगे कि यह यथार्थ है। तुम्हें निरंतर अपने को सजग करना होगा और याद दिलाना होगा कि यह स्वप्न है। अगर सप्ताह तक लगातार तुमने इस दृष्टि को कायम रखा थे या पांचवें सप्ताह में किसी रात स्वप्न देखते हुए तुम अचानक यह भी जान लोगे कि यह स्‍वप्‍न है।
स्वप्न में चेतना को, होश को प्रविष्ट कराने का यह एक उपाय है। रात स्वप्‍न देखते हुए यदि याद रख सको कि यह स्वप्न है तो फिर दिन में याद रखने की जरूरत नहीं रहेगी कि यह स्वप्न है। तब तुम जान जाओगे।
आरंभ में जब इसका अभ्यास करोगे तो यह एक आरोपित धारणा ही रहेगी। तुम चेष्टापूर्वक विश्वास करना शुरू करोगे कि यह स्‍वप्‍न है। लेकिन जब स्वप्न में भी यह स्मरण रहने लगेगा कि यह स्‍वप्‍न है तो यह यथार्थ बन जाएगा। तब दिन में जब तुम उठोगे तो यह नहीं अनुभव करोगे कि तुम नींद से उठ रहे हो; तुम्हें महज यह लगेगा कि मैं एक स्‍वप्‍न से दूसरे स्वप्न में सरक रहा हूं। तब दिन के कामकाज को स्‍वप्‍न की तरह देखना यथार्थ रूप लेगा।
और अगर चौबीस घंटे ही स्वप्न हो जाएं, और तुम्हें उसका अनुभव और स्मरण होता रहे, तो तुम अपने केंद्र पर पहुंच जाओगे। तब तुम्हारी चेतना का तीर दो फल वाला तीर हो जाएगा। और तुम जब स्वप्न समझने लगोगे तो तुम स्‍वप्‍न देखने वाले को, विषयी को भी समझने लगोगे। अगर तुम स्‍वप्‍न को ही सच मानते हो तो तुम स्वप्न—द्रष्टा को नहीं अनुभव कर सकते। जब फिल्म यथार्थ हो गई तो तुम अपने को भूल जाते हो। जब फिल्म बंद होती है और तुम फिर समझने लगते हो कि यह यथार्थ नहीं थी तब तुम्हारा स्वयं का यथार्थ आविर्भूत होता है, प्रकट होता है। तुम स्वयं को अनुभव कर सकते हो—यह एक तरीका हुआ।
यह भारत का एक सबसे पुराना तरीका रहा है। यही कारण है कि हमने इस बात पर जोर दिया है कि संसार मिथ्या है। यह बात हम किसी दार्शनिक अर्थ में नहीं कहते हैं। हम यह नहीं कहते कि यह घर मिथ्या है और यह कि तुम इसकी दीवार से निकल सकते हो। उस अर्थ में नहीं। जब हम कहते हैं कि यह घर मिथ्या है, तो यह एक युक्ति है। यह घर के खिलाफ कोई दलील नहीं है।
तो बर्कले ने कहां कि यह पूरा संसार मात्र सपना है। एक सुबह वह अपने मित्र डाक्टर जानसन के साथ घूम रहा था। डाक्टर जानसन कठोर यथार्थवादी थे, तो बर्कले ने उनसे कहां, तुमने मेरे सिद्धांत के बारे में सुना होगा। मैं समझता हूं कि समूचा संसार मिथ्या है। कोई नहीं सिद्ध कर सकता कि यह यथार्थ है। और यह सिद्ध करने का भार उन पर है जो इसे सच बताते हैं। और मैं कहता हूं कि यह स्‍वप्‍न की तरह असत्य है।
जानसन दार्शनिक नहीं था, लेकिन उसका दिमाग गहन रूप से तर्कनिष्ठ था। वे दोनों यों ही एक सुनसान गली से गुजर रहे थे। जानसन ने एक पत्थर का टुकड़ा उठाया और बर्कले के पैर पर दे मारा। खून निकल आया और बर्कले चीख उठा। जानसन ने पूछा, चीखते क्यों हो अगर पत्थर एक सपना है? तुम कहो कुछ भी, लेकिन तुम पत्थर के यथार्थ को मानते हो। तुम कहते कुछ हो और तुम्हारा व्यवहार कुछ और है, ठीक उसके विपरीत। अगर तुम्हारा घर मात्र सपना है तो कहां वापस जा रहे हो? सुबह की सैर के बाद कहां लौट रहे हो? और अगर तुम्हारी पत्नी भी स्वप्न ही है तो उससे फिर मिलना क्या?
यथार्थवादियों ने सदा इसी तरह का तर्क दिया है। लेकिन वे शंकर के साथ इस तर्क को नहीं चला सकते, क्योंकि शंकर का कोई दार्शनिक मत नहीं है। वे यहां सत्य के संबंध में कुछ नहीं कह रहे हैं, वे यहां जगत के बारे में भी नहीं कह रहे हैं। यह तो तुम्हारे मन को
बदलने की उनकी एक युक्ति है, तुम्हारी बंधी दृष्टि को बदलने का उनका एक उपाय है; ताकि तुम संसार को सर्वथा भिन्न ढंग से देख सको। है।
भारतीय चिंतन के लिए यह स्था ही एक समस्या रही है। क्योंकि उसके लिए सब कुछ ध्यान की युक्ति है। यह सत्य है या नहीं, इसमें हमें रस नहीं है। हम तो मनुष्य को बदलने के लिए उसकी उपयोगिता की फिक्र करते हैं। और पश्चिमी चित्त के लिए यह चीज बिलकुल भिन्न है। जब पश्चिम के लोग कोई सिद्धांत प्रस्तावित करते हैं तो वे इस बात की चिंता करते हैं कि यह सच है अथवा नहीं, इसे तर्क से सिद्ध किया जा सकता है या नहीं। लेकिन जब हम कोई चीज प्रस्तावित करते हैं तो हम उसके सत्य की नहीं, उसकी उपयोगिता की चिंता करते हैं। हम देखते हैं कि मनुष्य के मन को बदलने की उसकी क्षमता क्या है। वह सच है या झूठ, हम इसकी चिंता ही नहीं करते। वस्तुत: तो वह दोनों नहीं है। वह एक युक्ति भर है।
मैंने बाहर फूल देखे हैं। सुबह सूरज उगता है और सब चीज सौंदर्य से भर जाती है। लेकिन तुम कभी घर से बाहर नहीं गए हो, तुमने कभी फूल नहीं देखे हैं और तुमने सुबह का सूरज नहीं देखा है। तुमने कभी खुला आकाश भी नहीं देखा है। और तुम नहीं जानते हो कि सौंदर्य क्या है। तुम सदा एक कारागृह में बंद रहे हो। और मैं तुम्हें बाहर ले चलना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि तुम भी खुले आसमान के नीचे आ जाओ और फूलों से मिलो।
यह मैं कैसे करूं? तुम फूलों को नहीं जानते हो। यदि मैं फूलों की बात करूं तो तुम कहोगे कि आप पागल हो गए हैं, फूल वगैरह नहीं हैं। अगर मैं सुबह के सूरज की बात करूं तो तुम कहोगे कि आप कल्पना कर रहे हैं, स्वप्न देख रहे हैं, आप कवि हैं। अगर मैं खुले आकाश की बात करूं तो तुम हंसोगे और पूछोगे कि आकाश कहां है, यहां तो दीवार ही दीवार है। फिर मैं क्या करूं?
मुझे कोई ऐसी युक्ति निकालनी होगी जो तुम्हारी समझ में आए और जिससे तुम बाहर निकल सको। इसलिए मैं कहता हूं कि घर में आग लगी है और मैं खुद भागने लगता हूं। यह बात संक्रामक हो जाती है, और तुम भी मेरे पीछे भागते हो और बाहर निकल जाते हो। और तभी तुम जानोगे कि जो मैं कह रहा था वह न सही था और न गलत। तब तुम फूलों को जानोगे और मुझे क्षमा कर दोगे।
बुद्ध ने वही किया था, महावीर ने वही किया था, शिव ने और शंकर ने वही किया था। इसलिए बाद में हम उन्हें क्षमा कर देते हैं। क्योंकि एक बार बाहर निकलने पर हमें पता चल जाता है कि वे क्या कर रहे थे। और तब हम समझते हैं कि उनके साथ बहस करना व्यर्थ था, क्योंकि यह बात ही बहस की नहीं थी। आग कहीं नहीं थी, लेकिन हम आग की भाषा समझ सकते थे। फूल थे, लेकिन हम फूलों की भाषा नहीं समझ सकते थे। हमारे लिए वे प्रतीक अर्थहीन थे।
तो यह एक तरीका है। फिर दूसरा तरीका है जो दूसरे ध्रुव पर है। एक ही चीज का एक ध्रुव पहला तरीका है और उसका दूसरा ध्रुव दूसरा तरीका है। पहला तो यह है कि संसार की हर चीज को स्वप्न की तरह समझा जाए, याद किया जाए। दूसरे में संसार के विषय में कुछ नहीं सोचना है, केवल यह याद रखना है कि मैं हूं।
गुरूजिएफ दूसरे उपाय को प्रयोग में लाए थे। यह उपाय सूफी परंपरा का है, इस्लाम का है। उन्होंने इस विधि पर गहराई से प्रयोग किए। तुम जो भी करो उस में सदा याद रखो कि मैं हूं। तुम पानी पीते हो, तुम भोजन करते हो; सब में सदा याद रखो कि मैं हूं। खाए जाओ और याद रखो कि मैं हूं। इसे भूलो मत।
यह स्मरण कठिन होगा। तुम सोचते हो कि मैं तो जानता ही हूं कि मैं हूं इसे याद रखने की क्या जरूरत है? लेकिन सच यह है कि तुम्हें नहीं याद है कि तुम हो।
यह विधि बहुत संभावना से भरी है। जब चल रहे हो तो याद रखो कि मैं हूं। चलना जारी रहे, चलते रहो; लेकिन निरंतर इस आत्म—स्मरण से जुड़े रहो कि मैं हूं? मैं हूं। इसे भूलो मत। तुम अभी मुझे सुन रहे हो, यहीं प्रयोग भी करो। तुम मुझे सुनते हो; उसमें बहुत डूबो मत, उससे तादात्म्य मत करो। जो भी मैं कहता हूं, उसे सुनने के साथ—साथ अपने को याद रखो, भूलो मत। सुनना रहे, शब्द रहें, कोई बोल रहा है और तुम हो—यानी यह स्मरण कि मैं हूं मैं हूं मैं हूं। इस 'मैं हूं को बोध का स्थाई अंग बन जाने दो।
यह बहुत कठिन है। पूरे एक मिनट के लिए भी तुम यह लगातार स्मरण नहीं रख सकते। एक प्रयोग करो। अपने सामने घड़ी रख लो और सेकेंड की सुई को देखना शुरू करो। एक सेकेंड, दो सेकेंड, तीन सेकेंड—उसे देखते जाओ। दो काम एक साथ करो—सेकेंड बताने वाली सुई को देखो और निरंतर स्मरण करो, मैं हूं मैं हूं। प्रत्येक सेकेंड के साथ स्मरण रखो कि मैं हूं। पांच या छह सेकेंड के अंदर तुम देखोगे कि तुम भूल बैठे। अचानक तुम्हें याद आएगा कि कई सेकेंड गुजर गए और नहीं स्मरण किया कि मैं हूं।
पूरे एक मिनट भी स्मरण रखना चमत्कार है। और अगर तुम एक मिनट तक याद रख सके तो यह विधि तुम्हारी है। तब इसका प्रयोग करो। इसके द्वारा तुम सपनों का अतिक्रमण कर जाओगे और जानोगे कि सपने सपने हैं।
यह कैसे काम करती है? अगर तुम पूरे दिन याद रख सको कि मैं हूं तो यह स्मरण तुम्हारी नींद में भी प्रवेश कर जाएगा और तब तुम सपने में भी निरंतर याद रखोगे कि मैं हूं। और अगर सपने में याद रख सके कि मैं हूं तो सपना सपना ही हो जाएगा। तब सपना तुम्हें धोखा नहीं दे सकता है। तब स्वप्न यथार्थ की तरह नहीं प्रतीत हो सकता। यह इसकी तरकीब है, स्वप्न यथार्थ मालूम पड़ता है, क्योंकि तुम्हें आत्म—स्मरण नहीं रहा, तुम भूल गए कि मैं हूं। अपना स्मरण न रहने पर स्वप्न यथार्थ बन जाता है। और अगर अपना स्मरण रहे तो यथार्थ, तथाकथित यथार्थ महज स्वप्न बन जाता है।
स्वप्न और यथार्थ में यही भेद है। ध्यानपूर्ण मन के लिए या ध्यान के विज्ञान के लिए मात्र यही भेद है। यदि तुम हो तो समूचा यथार्थ स्‍वप्‍न मात्र है। और यदि तुम नहीं हो तो स्वप्न ही यथार्थ बन जाता है।
नागार्जुन कहते हैं, ' अब मैं हूं क्योंकि संसार नहीं है। जब मैं नहीं था, संसार था। एक ही रह सकता है।उसका यह अर्थ नहीं है कि संसार का लोप हो जाता है। नागार्जुन इस संसार के लिए नहीं कह रहे है, वे स्वप्न के संसार के लिए कह रहे हैं। या तो तुम हो या सपने हैं दोनों नहीं हो सकते।
इसलिए पहले चरण में सतत स्मरण रखो कि मैं हूं। राम मत कहो, श्याम मत कहो; रूप का कोई नाम मत लो। क्योंकि तुम नाम नहीं हो। केवल कहो, मैं हूं। किसी भी क्रिया में इसका
प्रयोग करो और तब अनुभव करो। अपने भीतर तुम जितने यथार्थ होते जाओगे, तुम्‍हारे चारों ओर का संसार उतना ही यथार्थहीन होता जाएगा। मैं वास्तविक होता जाएगा और संसार अवास्तविक होता जाएगा। या तो संसार वास्तविक है या मैं वास्तविक है—दोनों वास्तविक नहीं हो सकते। अभी तुम स्वप्‍नवत हो, तो संसार वास्तविक हो गया है। इस स्थिति को बदल दो। स्वयं वास्तविक हो जाओ, संसार स्वप्न हो जाता है।
गुरजिएफ इस विधि पर सतत काम करते रहे। उनके मुख्य शिष्य पी डी. ऑसपेंस्की ने उल्लेख किया है कि जब गुरजिएफ मेरे साथ इस विधि पर काम कर रहे थे और मैं तीन महीनों तक निरंतर 'मैं हूं' के स्मरण का अभ्यास कर रहा था तो तीन महीनों के बाद अचानक सब कुछ ठहर गया, विचार, सपने, सब कुछ बंद हो गए। मेरे भीतर केवल एक धुन शाश्वत संगीत की तरह बजती रही—मैं हूं, मैं हूं मैं हूं। और तब यह प्रयत्नपूर्ण कर्म नहीं था; मैं हूं का स्मरण एक सहज कर्म हो गया था।
तीन महीने तक ऑसपेंस्की को एक घर के अंदर रखा गया था, और उसे बाहर जाने की इजाजत नहीं थी। फिर एक दिन गुरजिएफ ने उसे बाहर बुलाया और कहां, मेरे साथ आओ। उस समय वे लोग रूसी नगर तिफलिस में रहते थे। गुरजिएफ ने उसको अपने साथ लिया और दोनों सड़क पर आ गए। ऑसपेंस्की अपनी डायरी में लिखता है, 'पहली बार मैंने समझा कि उनका क्या अभिप्राय था जब जीसस ने कहां कि मनुष्य सोया हुआ है। मुझे लगा कि समूचा नगर ही सोया हुआ है। लोग नींद में ही चल रहे थे, दुकानदार नींद में ही सामान बेच रहे थे, खरीददार भी नींद में ही खरीद रहे थे। पूरा नगर सोया था। फिर मैंने गुरजिएफ की तरफ देखा, केवल वे ही जागे हुए थे। सारा नगर नींद में था। नींद में ही लोग क्रोध कर रहे थे, लड़ रहे थे, प्रेम कर रहे थे, खरीद—फरोख्त कर रहे थे; सब कुछ नींद में कर रहे थे।
फिर ऑसपेंस्की लिखता है, 'अब मैं उनकी आंखों को, उनके चेहरों को देखता था; वे बिलकुल बेखबर थे। वे वहा नहीं थे। उनका आंतरिक केंद्र खो गया था, वह वहां नहीं था।ऑसपेंस्की ने गुरजिएफ से कहां, मैं और आगे नहीं जाना चाहता हूं। इस नगर को क्या हो गया है? हर कोई नींद में, नशे में मालूम पड़ता है।
गुरजिएफ ने कहां, नगर को कुछ नहीं हुआ है, तुमको अवश्य कुछ हुआ है। तुम नशे से बाहर आ गए हो। नगर तो वही का वही है। यह वही जगह है जहां तीन महीने पहले तुम घूमते थे, लेकिन तब तुम नहीं देख सकते थे कि लोग सोए हैं, क्योंकि तुम भी सोए थे। अब तुम देख सकते हो, क्योंकि अब बोध का कुछ गुण तुममें आया हुआ है। तीन महीने तक लगातार 'मैं हूं का अभ्यास करने से तुम थोड़ी मात्रा में जागरूक हो गए हो, तुम बोधपूर्ण हो गए हो। तुम्हारी चेतना का एक अंश स्वप्न के परे चला गया है। यही कारण है कि तुम्हें अब हर कोई नींद में, मृतवत चलता दिखाई पड़ता है, नशे में, सम्मोहन में मालूम पड़ता है।
ऑसपेंस्की लिखता है, मैं उस दृश्य को बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि सब नींद में हों। वे जो भी कर रहे थे, उसके लिए वे जवाबदेह नहीं थे। बिलकुल नहीं। वे कैसे जवाबदेह हो सकते हैं? वह लौटकर आया और गुरजिएफ से उसने कहां, यह क्या है? क्या मैं धोखे में तो नहीं पड़ा हूं? क्या आपने कुछ किया है कि मुझे सारा नगर नींद में दिखाई पड़ता है? मुझे अपनी आंखों पर ही विश्‍वास नहीं होता है।
लेकिन यह किसी को भी घट सकता है। अगर तुम स्वयं को स्मरण रख सके तो तुम जानोगे कि कैसे लोग अपने को याद नहीं रखते और कैसे वे विस्मरण में, नींद में ही सब गति करते हैं। सारा संसार ही सोया है।
लेकिन जब जागे हुए हो तब शुरू करना। जिस क्षण याद आए उसी क्षण स्मरण का धागा पकड़ लेना कि मैं हूं। मैं नहीं कहता कि इन शब्दों को, 'मैं हूं, को दोहराओ। नहीं, उसका भाव करो। नहाते हुए अनुभव करो कि मैं हूं। ठंडे पानी का स्पर्श होने दो और उसके पीछे तुम स्वयं खड़े रहकर उसकी अनुभूइत करो और स्मरण करो कि मैं हूं। याद भर रखना है। यह मैं नहीं कहता कि तुम मैं हूं का जाप करो। जाप कर सकते हो, लेकिन उससे बोध की उपलब्धि नहीं होगी। उलटे जाप से नींद ही बढ़ सकती है।
अनेक लोग हैं जो अनेक चीजों का जाप कर रहे हैं। वे राम—राम कहे जाते हैं। अगर वे बोध के बिना महज जप करते हैं तो यह राम—राम भी एक नशा बन जाता है। इसके जरिए वे ठीक से सो सकते हैं। यही कारण है कि पश्चिम में महेश योगी का इतना प्रभाव है। वे मंत्र जपने को देते हैं। और पश्चिम में नींद गंभीर समस्या का रूप ले रही है। वहां नींद की बहुत कमी हो गई है। स्वाभाविक नींद तो गायब ही हो गई है। तुम केवल ट्रैंक्येलाइजर की मदद से सो पाते हो, अन्यथा सोना असंभव हो गया है। महेश योगी के प्रभाव का यही कारण है। अगर तुम किसी भी शब्द को दोहराते रहो तो नींद गहरा जाएगी, बस।
इसलिए तथाकथित टी. एम., भावातीत ध्यान एक मानसिक ट्रैंक्येलाइजर है, और कुछ भी नहीं है। उससे मदद मिलती है। लेकिन वह सोने के लिए तो काम की चीज है, ध्यान के बिलकुल काम की नहीं है। उससे तुम अच्छी तरह सो सकते हो। तुम्हारी नींद गहरी होगी। अच्छा है, लेकिन वह ध्यान कतई नहीं है।
अगर तुम एक शब्द को निरंतर दोहराते रहो तो उससे ऊब पैदा होती है। और ऊब नींद लाने में कारगर है। इसलिए ऊब पैदा करने वाली कोई भी चीज नींद में सहायक है। मां के गर्भ में पड़ा बच्चा लगातार नौ महीने सोया रहता है, और उसका कारण तुम शायद नहीं जानते हो। उसका कारण मात्र मां के हृदय की धड़कन है। यह धड़कन निरंतर जारी है। वह संसार की एक अत्यंत उबाने वाली चीज है। सतत चालू रहने वाली इस आवाज के नीचे बच्चा सोया रहता है।
यही कारण है कि जन्म के बाद भी जब बच्चा बहुत रोता—चीखता है तो मां अपनी छाती के पास उसके सिर को ले जाती है और बच्चा फिर अचानक शांत होकर सो जाता है। फिर धड़कन काम कर गई। बच्चा मानो गर्भ का अंश बन गया। और यही कारण है कि तुम्हारे बड़े होने पर भी जब तुम्हारी पत्नी या प्रेमिका तुम्हारे सिर को अपनी छाती पर रख लेती है तो तुम नींद में उतरने लगते हो। यहां भी वही धड़कन काम करती है।
मनस्विद कहते हैं कि जब तुम न सो सको तो दीवार—घड़ी पर मन को लगाओ, उस घड़ी की टिक—टिक आवाज पर मन को एकाग्र करो। वह आवाज भी हृदय की धड़कन जैसी ही है, उससे तुम्हें नींद लग जाएगी। कुछ भी दोहराने से काम चल जाएगा।
इसलिए यह मैं हूं या मैं हूं का स्मरण कोई मंत्र नहीं है, उसका शाब्दिक उच्चार नहीं करना है। उसका बस भाव करो, उसे अनुभव करो, अपने अस्तित्व के प्रति संवेदनशील होओ। जब तुम किसी का हाथ स्पर्श करो तो उसका हाथ ही मत छुओ, उसके साथ अपने छूने
को भी अनुभव करो। और इस अनुभव को, इस संवेदनशीलता को अपने मन में गहरे से गहरा उतरने दो, प्रवेश करने दो। हो
एक दिन तुम अचानक अपने केंद्र पर जाग जाओगे, और पहली बार केंद्र से संचालित होने लगोगे। और तब सारा संसार एक स्वप्न बन जाएगा। और तब तुम जानोगे कि स्‍वप्‍न देखना सच ही स्‍वप्‍न देखना था। और जब जानोगे कि सपना देखना सपना देखना था, तब सपना समाप्त हो जाएगा। वह तो तभी तक जारी रहता है जब तक हम उसे यथार्थ मानते हैं। उसे अयथार्थ जानते ही वह समाप्त हो जाता है।
और एक बार सपना गया कि तुम दूसरे आदमी हो गए। पुराना आदमी मर गया, सोया आदमी चल बसा। जो आदमी तुम पहले थे, अब वही न रहे। पहली बार तुम बोधपूर्ण हुए, सजग हुए। पहली बार इस नींद से भरी दुनिया में तुम जाग्रत हुए। तुम बुद्ध हुए।
और इस जागरण के साथ दुख समाप्त हो जाता है। इस बोध के बाद मृत्यु विदा हो जाती है। इस जागरण के द्वारा भय जाता रहता है। तुम पहली बार सब से—दुख, भय और मृत्यु से मुक्त हो जाते हो। तुम स्वतंत्रता को उपलब्ध हुए। घृणा, क्रोध, लोभ सब विदा हो जाते हैं। तुम प्रेम ही हो जाते हो, प्रेमपूर्ण नहीं, प्रेम ही हो जाते हो।

 एक और प्रश्न है, और वह पहले प्रश्न जैसा ही है। प्रश्न है :

अगर हम सब किसी ऐसे नाटक के पात्र हैं जो पहले ही लिखा जा चुका है तो ध्यान हमें कैसे बदल सकेगा जब तक कि उस नाटक में ही हमें निश्चित समय पर बदलने का अध्याय भी न जुड़ा हो? और अगर ऐसा अध्याय उसमें जुड़ा ही है जो कि ठीक समय पर अपने को प्रकट करने का इंतजार कर रहा है तो फिर हम ध्यान ही क्यों करें? किसी तरह का प्रयत्न ही हम क्यों करें?

 ह वही बात है, इसमें वही भांति है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सब कुछ नियत है। सृष्टि की व्याख्या के लिए मैं इसे एक सिद्धांत के रूप में नहीं पेश कर रहा हूं। यह उपाय है।
भारत सदा से भाग्य के इस उपाय को काम में लाता रहा है। इसका यह मतलब नहीं है कि सब कुछ पूर्व—नियत है। यह मतलब बिलकुल नहीं है। ऐसा कहने का एक ही कारण है कि अगर तुम मानते हो कि सब कुछ निश्चित है तो सब कुछ स्वप्न हो जाता है। अगर तुम चीजों को इस रूप में लो, अगर तुम इस तरह मानो कि सब कुछ पूर्व —निश्चित है—उदाहरण के लिए कि तुम एक निश्चित दिन मर जाओगे—तो सब कुछ स्‍वप्‍नवत हो जाता है।
यह निश्चित नहीं है, यह तय नहीं है। कोई तुममें उतना उत्सुक भी नहीं —है। अस्तित्व को तुम्हारा पता भी नहीं है। उसे क्या पता कि तुम कब मरोगे? यह बात ही इतनी व्यर्थ है। अस्तित्व के लिए तुम्हारी मृत्यु अप्रासंगिक है। अपने को इतना महत्वपूर्ण मत समझो कि सारी सृष्टि तुम्हारे मरने का दिन, समय, मिनट और क्षण तय करने में व्यस्त है। नहीं, तुम केंद्र नहीं हो। सृष्टि को क्या फर्क पड़ता है कि तुम हो या नहीं हो!
लेकिन यह भ्रांति मनुष्य के मन में बनी ही रहती है। तुम्हारे बचपन में ही यह भ्रांति
जन्म लेती है और अचेतन का हिस्‍सा बन जाती है।
एक बच्चा पैदा होता है। वह संसार को कुछ दे तो नहीं सकता, पर उसे संसार से बहुत कुछ लेना होता है। वह बदले में कुछ भी नहीं दे सकता, कोई कीमत नहीं चुका सकता। वह इतना कमजोर है, असहाय है। उसे भोजन चाहिए, उसे प्रेम चाहिए, उसे सुरक्षा चाहिए—उसे हर चीज चाहिए।
बच्चा जब पैदा होता है तो बिलकुल असहाय होता है—खासकर मनुष्य का बच्चा। कोई पशु इतना असहाय नहीं होता है। यही कारण है कि पशु का परिवार नहीं होता, उसकी जरूरत नहीं होती। लेकिन मनुष्य का शिशु इतना असहाय होता है कि वह मां—बाप के, कुटुंब के, समाज के सहारे के बिना जी ही नहीं सकता। वह अकेला नहीं जी सकता है, वह तुरंत मर जाएगा। वह इतना पर—निर्भर है। उसे प्रेम चाहिए, उसे भोजन चाहिए, उसे सब कुछ चाहिए। और वह सब की मांग करेगा। और मां—बाप और पूरा परिवार उसकी मांगें पूरी करते रहते हैं। और बच्चा तब सोचने लगता है कि मैं पूरे संसार का केंद्र हूं। उसे बस मल करनी है और उसकी सब मांग पूरी होती है। बस मांगना काफी है—उसे कुछ और प्रयत्न नहीं करना है।
इस तरह बच्चा समझने लगता है कि वह केंद्र है और सब कुछ उसके लिए और उसके ही चारों तरफ गति करता है। उसे लगता है कि समूचा अस्तित्व उसके लिए बना है। मानो सब अस्तित्व उसके लिए ही इंतजाम कर रहा था कि आओ और मांगो, और सब मांगें पूरी की जाएंगी।
और यह एक जरूरत है कि उसकी मांगें पूरी की जाएं, अन्यथा वह मर जाएगा। लेकिन यही जरूरत आगे चलकर खतरनाक सिद्ध होती है। बच्चा इस भाव के साथ बड़ा होता है कि मैं केंद्र हूं। धीरे— धीरे उसकी मांगें बढ़ती जाएंगी। बच्चे की मांगें तो मामूली थीं, वे पूरी की जा सकती थीं। लेकिन जैसे—जैसे वह बड़ा होगा, उसकी मागें जटिल होती जाएंगी। कभी—कभी उन्हें पूरी करना संभव नहीं होगा, कभी बिलकुल असंभव हो जाएगा। वह चांद या कुछ भी मांग सकता है।
जैसे—जैसे वह बड़ा होगा, उसकी मांगें जटिल और असंभव होती जाएंगी। और तब निराशा शुरू होती है। बच्चा समझता है कि मैं ठगा जा रहा हूं। वह तो समझे बैठा था कि वह सारे संसार का केंद्र है। अब समस्याएं खड़ी होंगी, और वह धीरे— धीरे सिंहासन से उतार दिया जाएगा। वह अपदस्थ हो जाएगा, जब वह सयाना होगा तब बिलकुल अपदस्थ हो जाएगा। तब उसे पता चलेगा कि वह केंद्र नहीं है। लेकिन गहरे में उसका अचेतन माने ही जाएगा कि वह केंद्र है।
लोग आकर मुझे पूछते हैं कि क्या हमारे भाग्य नियत हैं? वे असल में यह कह रहे हैं कि हम इस जगत के लिए इतने महत्वपूर्ण हैं कि हमारा भाग्य पहले से नियत होना ही चाहिए। वे पूछते हैं, हमारा उद्देश्य क्या है? हम क्यों पैदा हुए? ये सारे प्रश्न बचपन की इसी मूढ़ता से पैदा हो रहे हैं कि हम जगत के केंद्र हैं। हम किसलिए बनाए गए?
तुम किसी उद्देश्य के लिए नहीं बनाए गए हो। और यह अच्छा है कि तुम किसी उद्देश्य के लिए नहीं बने हो, अन्यथा तुम एक यंत्र होते। यंत्र की रचना किसी उद्देश्य के लिए होती है।
मनुष्य किसी उद्देश्य के लिए नहीं बना है। नहीं, मनुष्य सृष्टि का प्रस्फुटन है, रचना की बाढ है। सब कुछ बस है, फूल है, नक्षत्र है, तुम हो। सब कुछ सृजन का अतिरेक है, अस्तित्व का उत्सव है, आनंद है। कोई उद्देश्य नहीं है।
लेकिन भाग्य का, पूर्व-नियति का यह सिद्धात समस्या पैदा करता है। यह इसीलिए कि हम इसे सिद्धात के रूप में लेते हैं। हम समझते हैं कि सब कुछ नियत है। लेकिन कुछ भी नियत नहीं है। लेकिन यह विधि भाग्य को एक उपाय के रूप में काम में लाती है। जब हम कहते हैं कि सब कुछ निश्चित है तो यह तुम्हें किसी सिद्धात के रूप में नहीं कहा जाता है। इसका उद्देश्य यह है कि अगर तुम जीवन को नाटक की तरह पूर्व-निश्चित समझते हो तो वह स्वप्न हो जाता है।
उदाहरण के लिए, अगर मैं जानता हूं कि आज, आज रात, मैं तुमसे बोलने वाला हूं और यह पूर्व-निश्चित है कि कौन से शब्द मैं बोलूंगा और वह ऐसा निश्चित है कि उसमें अदल-बदल नहीं किया जा सकता तो अचानक मैं इस पूरी प्रक्रिया से असंबद्ध हो जाता हूं? क्योंकि तब मैं कर्म का केंद्र नहीं रहा। अगर सब कुछ नियत है और अगर प्रत्येक शब्द अस्तित्व द्वारा या परमात्मा द्वारा या उसको जो भी नाम दो, बोला जाने वाला है तो मैं उसका स्रोत नहीं रहा, और तब मैं द्रष्टा बन सकता हूं, मात्र द्रष्टा।
अगर तुम जीवन को पूर्व-निश्चित मानो तो तुम उसे देख सकते हो, तब तुम उससे लिप्त नहीं हो। अगर तुम सफल हुए तो वह नियति थी, अगर विफल हुए तो वह भी नियति थी। अगर सफलता और विफलता दोनों पूर्व -नियत हैं तो दोनों समान मूल्य के हो जाते हैं, दोनों समानार्थी हो जाते हैं। तब कोई राम है कोई रावण है, और सब कुछ पूर्व-निश्चित है। रावण को अपराधी अनुभव करने की जरूरत नहीं है और न राम को अपने को श्रेष्ठ समझने की। सब पूर्व -निश्चित है, इसलिए तुम मात्र अभिनेता हो। तुम मंच पर किसी पात्र का अभिनय करते हो।
तो तुम्हें यह भाव देने के लिए कि तुम किसी का अभिनय करते हो, तुम्हें यह प्रतीति देने के लिए कि किसी पूर्व -निश्चित भूमिका, को तुम पूरा कर रहे हो, और ताकि तुम उसके पार जा सकी, यह एक उपाय भर है।
लेकिन इसे समझना कठिन है, क्योंकि हम भाग्य को एक सिद्धात के रूप में, उससे भी बढ़कर एक नियम के रूप में लेने के बड़े आदी हैं। हम इन विधियों को उपाय के रूप में लेने की दृष्टि को नहीं समझ पाते हैं। यह मैं एक उदाहरण से समझाने की कोशिश करूंगा। मैं एक नगर में था। एक व्यक्ति मेरे पास आया, वह मुसलमान था। लेकिन मैं नहीं जानता था कि वह मुसलमान है। फिर उसकी पोशाक ऐसी थी कि वह हिंदू जैसा दिखता था। वह न सिर्फ हिंदू जैसा दिखता था, वह मेरे साथ बातचीत भी हिंदू के ढंग से करता था। मुसलमानी ढंग उसमें नहीं था। उसने मुझसे एक प्रश्न पूछा। उसने कहा कि मुसलमान और ईसाई कहते हैं कि एक ही जीवन है, और हिंदू बौद्ध और जैन कहते हैं कि अनेक जीवन हैं, जन्मों का एक लंबा सिलसिला है। और वे मानते हैं कि जब तक कोई मुक्त नहीं होता। उसे बारंबार जन्म लेना होगा। इसके बारे में आप क्या कहते हैं?
अगर जीसस आत्मज्ञानी थे तो उन्हें अवश्य पता होता। अगर मोहम्मद या मूसा ज्ञानी रूप का अतिक्रमण कैसे हो थे तो उन्हें मालूम होना चाहिए कि नहीं, अनेक जीवन हैं। और अगर आप उन्हें सही बताते हैं तो महावीर, कृष्ण, बुद्ध शंकर के बारे में क्या कहेंगे? एक बात तय है कि वे सब के सब ज्ञानी नहीं थे। अगर ईसाइयत सही है तो बुद्ध, कृष्ण और महावीर गलत हैं। और अगर महावीर, कृष्ण और बुद्ध सही हैं तो मोहम्मद, जीसस और मूसा गलत हैं। मैं बहुत दुविधा में हूं मैं बहुत उलझन में हूं; मुझे बताइए। दोनों सही कैसे हो सकते हैं? या तो अनेक जीवन हैं या एक ही जीवन है। दोनों सही नहीं हो सकते।
वह आदमी बहुत बुद्धिमान था, उसने बहुत अध्ययन किया था। और उसने मुझसे कहां, आप यह कहकर नहीं बच सकते कि दोनों सही हैं। दोनों सही नहीं हो सकते। यह तर्कसंगत नहीं है। दोनों कैसे सही होंगे?
लेकिन मैंने उससे कहां कि यह जरूरी नहीं है। आपकी दिशा बिलकुल गलत एं। दोनों उपाय हैं। न कोई सही है, न कोई गलत, दोनों उपाय हैं। लेकिन उसके लिए यह समझना असंभव हो गया कि उपाय से मेरा क्या मतलब है।
मोहम्मद, जीसस और मूसा एक ढंग के मनों से बोल रहे थे और बुद्ध, महावीर और कृष्ण बहुत भिन्न ढंग के मनों से बोल रहे थे। दो ही स्रोत धर्म हैं—हिंदू और यहूदी। इसलिए भारत में, हिंदू धर्म से जन्मे सभी धर्म पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं और यहूदी चितना से जन्मे सभी धर्म, इस्लाम और ईसाइयत एक जीवन की धारणा में विश्वास करते हैं।
और ये दो उपाय हैं। इसे समझने की कोशिश करो। क्योंकि हमारे दिमाग बंधे हुए हैं, इसलिए हम चीजों को उपाय की तरह न लेकर सिद्धांत की तरह लेते हैं। इसलिए अनेक लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं, एक दिन आपने कहां कि यह सही है और दूसरे दिन कहां कि वह सही है, और दोनों सही नहीं हो सकते।
हौ, दोनों सही नहीं हो सकते और कोई नहीं कहता है कि दोनों सही हैं। मुझे इस बात की फिक्र नहीं है कि कौन सही है और कौन गलत है, मेरी उत्सुकता तो इसमें है कि कौन सा उपाय काम आता है।
भारत में वे बहुजन्म के उपाय को काम में लाते हैं। क्यों? इसमें कई बातें हैं। पश्चिम में, खासकर यहूदी चितना से जो धर्म निकले, वे सब गरीब लोगों के धर्म थे। उनके पैगंबर शिक्षित नहीं थे। जीसस शिक्षित नहीं थे, मोहम्मद शिक्षित नहीं थे। वे अशिक्षित थे, अपरिष्कृत थे, सरल थे। और जिस जनता से उन्हें बोलना था, वह तो बिलकुल अपरिष्कृत थी, दरिद्र थी। वे अमीर नहीं थे।
गरीब आदमी के लिए एक जीवन काफी है, काफी से ज्यादा है। वह भूखों मर रहा है। अगर तुम उससे कहो कि अनेक जन्म हैं कि तुम बार—बार जन्म लोगे कि तुम्हें हजारों जन्म के चक्र से गुजरना पड़ेगा, तो गरीब आदमी पूरी चीज से बहुत हताश हो उठेगा। तुम क्या कह रहे हो? वह पूछेगा। एक ही जीवन बहुत है, हजारों—लाखों की बात मत करो। यह बात ही मत करो। हमें इसी जीवन के बाद स्वर्ग दे दो। ईश्वर उस आदमी के लिए तभी यथार्थ हो सकता है जब वह इसी जीवन के बाद प्राप्त हो सके, तुरंत।
बुद्ध, महावीर, कृष्ण, वे लोग एक बहुत समृद्ध समाज से बात कर रहे थे। आज यह समझना कठिन हो गया है, क्योंकि चाक पूरा घूम चुका है। अब पश्चिम समृद्ध है और पूर्व दरिद्र, तब पश्चिम गरीब था और पूर्व अमीर। हिंदुओं के सभी अवतार, जैनों के सभी तीर्थंकर,
सभी बुद्ध राजपुत्र थे। वे राजबघरानों से आए थे। वे सभी सुसंस्कृत थे, सुशिक्षित थे, परिष्‍कृत थे। सभी तरह से परिमार्जित थे।
तुम बुद्ध को अधिक परिमार्जित नहीं कर सकते। वे पूरी तरह परिष्कृत, सुसंस्कृत और सुशिक्षित थे। उनमें कुछ जोडा नहीं जा सकता। यदि आज भी बुद्ध हमारे बीच आएं तो उनमें कुछ जोड़ा नहीं जा सकता। और वे जिस समाज से बोल रहे थे, वह भी समृद्ध था।
और याद रहे, समृद्ध समाज की समस्याएं भिन्न होती हैं। समृद्ध समाज के लिए सुख अर्थहीन है, स्वर्ग अर्थहीन है। गरीब समाज के लिए स्वर्ग बहुत अर्थपूर्ण होता है। मगर जो समाज स्वर्ग में ही हैं उनके लिए स्वर्ग व्यर्थ है। इसलिए तुम उन्हें स्वर्ग के नाम पर कुछ करने को प्रेरित नहीं कर सकते। वे स्वर्ग में ही हैं और ऊबे हुए हैं।
इसलिए बुद्ध, महावीर और कृष्ण स्वर्ग की बात नहीं करते हैं। वे मुक्ति की, मोक्ष की बात करते हैं। वे यहां के पार किसी सुखदायी जगत के होने की बात नहीं करते, वे एक ऐसे जगत की बात करते हैं जहां न दुख है और न सुख। जीसस का स्वर्ग उन्हें नहीं भाता, वे उसमें ही जीते थे।
और दूसरी बात कि धनी आदमी के लिए असली समस्या ऊब है। गरीब को तुम भविष्य में सुख का प्रलोभन दे सकते हो, गरीब आदमी के लिए दुख उसकी समस्या है। धनी आदमी के लिp दुख समस्या नहीं है, उसके लिए ऊब समस्या है। वह सब सुखों से ऊबा हुआ है। महावीर, बुद्ध और कृष्ण, सबने इस ऊब का उपयोग किया और कहां कि अगर तुम कुछ नहीं करते तो तुम्हें बार—बार जन्म लेना होगा। यह चक्र चलता रहेगा। याद रखना, वही जिंदगी बार—बार दुहरेगी। वही काम— भोग, वही अमीरी, वही भोजन, वही राजमहल बार—बार मिलेंगे, हजार बार तुम कोल्ह के बैल जैसा एक ही चक्कर में घूमते रहोगे।
एक अमीर आदमी के लिए, जिसने सब सुख जाने हैं, इसके अच्छे आसार नहीं हो सकते। पुनरुक्ति ही तो उसकी समस्या है, उसकी पीड़ा है। वह कुछ नया खोज रहा है। और महावीर और बुद्ध कहते हैं, कुछ नया नहीं है। यह संसार पुराना है। आसमान के नीचे कुछ भी नया नहीं है। सब कुछ पुराना—पुराना है। तुम पहले भी उनका स्वाद ले चुके हो, आगे भी उन्हें ही भोगना है। तुम गोल—गोल घूम रहे हो। उनके पार जाओ, इस घेरे के बाहर छलांग लो।
एक धनी आदमी ध्यान की तरफ तभी जाएगा, जब तुम उसकी ऊब को गहराने के उपाय करो। लेकिन गरीब आदमी के सामने ऊब की बातचीत व्यर्थ है। गरीब आदमी ऊब से कभी पीड़ित नहीं होता है, सिर्फ अमीर ऊबता है। गरीब आदमी क्या ऊबेगा, उसे तो सदा भविष्य की चिंता घेरे रहती है। कुछ होने जा रहा है, तब सब ठीक हो जाएगा। गरीब को आश्वासन की जरूरत है। लेकिन अगर वह आश्वासन दूर का है तो वह व्यर्थ हो जाता है। आश्वासन निकट का होना चाहिए।
कहते हैं कि जीसस ने अपने अनुयायियों को कहां कि मेरे जीवन—काल में, तुम्हारे जीते —जी, तुम प्रभु का राज्य देख लोगे। यह वक्तव्य बीस सदियों से ईसाइयत को हैरानी में डाले हुए है। जीसस ने कहां था, 'तुम तुम्हारे जीवन—काल में, बहुत जल्दी, प्रभु का राज्य देख ''लोगे', और वह प्रभु का राज्य अब तक नहीं आया है। उनका मतलब क्या था? और उन्होंने
कहां था, शीघ्र ही संसार समाप्त हो जाएगा, इसलिए वक्त मत गवांओ; वक्त बहुत कम है।
और उन्‍होंने कहां था, वक्त गवाना मूर्खता होगी। दुनिया जल्‍दी ही समाप्त हो जायेगी और तुम्‍हें जवाब देना पड़ेगा। और तब तुम पछताओगे।
एक जीवन की धारणा के जरिए जीसस शीघ्रता का खयाल पैदा करना चाहते थे। वे जानते थे, वैसे ही बुद्ध और महावीर भी जानते थे। लेकिन वह सब नहीं कहां गया है जो वे जानते थे। केवल वे उपाय हमें ज्ञात हैं जिन्हें वे काम में लाए। और यह एक उपाय था ताकि लोग इस भाव से भर सकें कि कुछ करना है, और जल्दी करना है।
भारत एक प्राचीन देश था और अमीर था। भविष्य के आश्वासन के द्वारा उसमें शीघ्रता का भाव पैदा करना व्यर्थ होता। उसे तो अधिक ऊब के उपाय से ही गतिमान किया जा सकता था। अगर एक भक्ति को पता चले कि उसे बार—बार जन्म लेना है, अनंत बार जन्म लेना है तो वह तुरंत आकर पूछेगा—इस चक्कर से मुक्त कैसे हुआ जाए? यह तो मुसीबत है। मैं इसमें और ज्यादा नहीं चल सकता, क्योंकि जो जानना था वह मैंने जान लिया। अगर इसी को दोहराना है तो वह दुःस्वप्न बन जाएगा। मैं इसे और दोहराना नहीं चाहता, मैं तो कुछ नया चाहता हूं।
इसलिए बुद्ध और महावीर कहते हैं, आसमान के नीचे कुछ भी नया नहीं है। सब कुछ पुराना है और पुनरुक्ति है। उसे ही तुम अनेक जन्मों से दोहरा रहे हो और अनेक जन्मों तक दोहराते रहोगे। इस पुनरुक्ति से सावधान होओ, ऊब से बचो, इसलिए छलांग लगा लो।
ये उपाय तो भिन्न हैं, लेकिन उद्देश्य वही है। उद्देश्य है कि चलो, बदलो, छलांग लगाओ, अपने को रूपांतरित करो। तुम जो भी हो, जहां भी हो, वहीं से अपने को रूपांतरित करो।
अगर हम धार्मिक वक्तव्यों को उपाय की तरह समझें तो कोई विरोध नहीं दिखाई देगा। तब जीसस और कृष्ण और मोहम्मद और महावीर एक ही काम कर रहे हैं। वे भिन्न—भिन्न लोगों के लिए भिन्न—भिन्न मार्ग निर्मित कर रहे हैं, भिन्न—भिन्न विधियां बता रहे हैं, अलग— अलग रुझान के लिए अलग— अलग आकर्षण पैदा कर रहे हैं। वे कोई सिद्धांत नहीं हैं जिनके गिर्द बहस और झगड़ा किया जाए। वे उपाय हैं जिनका उपयोग कराना है, अतिक्रमण करना है और फिर फेंक देना है।

आज इतना ही।



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