स्त्रैण-चित्त
के अन्य आयाम:
श्रद्धा, स्वीकार
और समर्पण—(प्रवचन—उन्नीसवां)
प्रश्न-सार
अस्तित्व
के स्त्रैण
रहस्य पर कुछ
और विस्तार से
प्रकाश डालने
की कृपा करें।
प्रश्न:
भगवान श्री, कल
आपने
अस्तित्व के
स्त्रैण
रहस्य पर
चर्चा की है।
इस विषय में
कुछ और विस्तार
से प्रकाश
डालने की कृपा
करें।
अस्तित्व
के सभी आयाम
स्त्रैण और
पुरुष में बांटे
जा सकते हैं।
स्त्री
और पुरुष का
विभाजन केवल
यौन-विभाजन, सेक्स
डिवीजन नहीं
है। लाओत्से
के हिसाब से स्त्री
और पुरुष का
विभाजन जीवन
की डाइलेक्टिक्स
है, जीवन
का जो
द्वंद्वात्मक
विकास है, जो
डाइलेक्टिकल
एवोल्यूशन
है, उसका
अनिवार्य
हिस्सा है।
शरीर
के तल पर ही
नहीं, स्त्री
और पुरुष मन
के तल पर भी
भिन्न हैं। अस्तित्व
जिन-जिन
अभिव्यक्तियों
में प्रकट होता
है, वहां-वहां
स्त्री और
पुरुष का भेद
होगा। लेकिन
जो बात ध्यान
रखने जैसी है
लाओत्से को
समझते समय, वह यह है कि
पुरुष
अस्तित्व का
क्षणिक रूप है
और स्त्री
अस्तित्व का
शाश्वत रूप
है। जैसे सागर
में लहर उठती
है। लहर का
उठना क्षणिक
है। लहर नहीं
थी, तब भी
सागर था; और
लहर नहीं होगी,
तब भी सागर
होगा।
स्त्रैणता
अस्तित्व का
सागर है।
पुरुष का
अस्तित्व
क्षणिक है।
इसलिए
यहूदी
परंपराओं ने
जो मनुष्य के
विकास की कथा
लिखी है, वह
लाओत्से के
हिसाब से
बिलकुल ही गलत
है। यहूदी
धारणा है कि
परमात्मा ने
पुरुष को पहले
बनाया और फिर
पुरुष की ही
हड्डी को
निकाल कर स्त्री
का निर्माण
किया।
लाओत्से इससे
बिलकुल ही उलटा
सोचता है।
लाओत्से
मानता है, स्त्रैण
अस्तित्व
प्राथमिक है।
पुरुष उससे जन्मता
है और उसी में
खो जाता है।
और लाओत्से की
बात में गहराई
मालूम पड़ती
है।
पहली
बात,
स्त्री
बिना पुरुष के
संभव है। उसकी
बेचैनी पुरुष
के लिए इतनी प्रगाढ़
नहीं है।
इसलिए कोई
स्त्री चाहे
तो जीवन भर
कुंवारी रह
सकती है; कुंवारापन भारी नहीं
पड़ेगा। लेकिन
पुरुष को
कुंवारा रखना
करीब-करीब
असंभव जैसा
है। और पुरुष
को कुंवारा
रखना बहुत
आयोजना से हो
सकता है। सरल
बात नहीं है, सुगम बात
नहीं है।
इधर
मैं देख कर
हैरान हुआ
हूं। साधु
मुझे मिलते
हैं,
तो साधुओं
की आंतरिक
परेशानी
कामवासना है;
लेकिन साध्वियां
मुझे मिलती
हैं, तो
उनकी आंतरिक
परेशानी
कामवासना
नहीं है। सैकड़ों
साध्वियों से
मिल कर मुझे
हैरानी का
खयाल हुआ कि
जो स्त्रियां
साधना के जगत
में प्रवेश
करती हैं, उनकी
परेशानी
कामवासना
नहीं है; लेकिन
जो पुरुष
साधना के जगत
में प्रवेश
करते हैं, उनकी
परेशानी
कामवासना है।
असल में, पुरुष
की कामवासना
इतनी सक्रिय,
इतनी
क्षणिक है कि
प्रतिपल उसे
पीड़ित करती है
और परेशान
करती है।
स्त्री की
कामवासना
इतनी क्षणिक
नहीं है, बहुत
थिर और बहुत
स्थायी है।
यह जान
कर आपको
आश्चर्य होगा
कि सारे पशुओं
की कामवासना पीरियाडिकल
है,
वर्ष के
किन्हीं
महीनों में
पशुओं को
कामवासना
परेशान करती
है; बाकी
समय में पशु
कामवासना को
भूल जाते हैं,
जैसे वह थी
ही नहीं।
सिर्फ मनुष्य
अकेला प्राणी
है, जिसकी
कामवासना
चौबीस घंटे और
वर्ष भर मौजूद
होती है। उसका
कोई पीरियड
नहीं होता।
लेकिन अगर
मनुष्य में भी
हम स्त्री और
पुरुष का खयाल
करें, तो
बहुत हैरानी
होती है।
स्त्री की
वासना, मनुष्य
में भी, पीरियाडिकल होती है।
महीने के सभी
दिनों में
उसमें कामवासना
नहीं होती।
लेकिन पुरुष
को सभी दिनों
में होती है।
अगर स्त्री पर
हम छोड़ दें, तो स्त्री
फिर भी पीरियाडिकल
है। एक क्षण
है, तब
उसके मन में
कामवासना
होती है; बाकी
उसके मन में
कामवासना
नहीं होती। और
उस क्षण में
भी, मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, अगर
पुरुष स्त्री
की कामवासना
को न जगाए, तो
स्त्री बिना
कामवासना के
जी सकती है।
उसका अस्तित्व
ज्यादा थिर
है। पुरुष का
अस्तित्व
ज्यादा बेचैन है।
और
इसलिए पुरुष, किसी
गहरे अर्थ में,
स्त्री के
आस-पास ही
घूमता रहता
है। चाहे वह कितने
ही प्रयास करे
यह दिखलाने के
कि स्त्री उसके
आस-पास घूम
रही है, पुरुष
ही स्त्री के
आस-पास घूमता
रहता है। वह चाहे
बचपन में अपनी
मां के पास
भटक रहा हो और
चाहे
युवावस्था में
अपनी पत्नी के
आस-पास भटक
रहा हो; उसका
भटकाव स्त्री
के आस-पास है।
स्त्री के बिना
पुरुष एकदम
अधूरा है।
स्त्री में एक
तरह की
पूर्णता है।
यह मैं उदाहरण
के लिए कह रहा
हूं, ताकि
स्त्रैण
अस्तित्व को
समझा जा सके।
स्त्रैण
अस्तित्व
बहुत पूर्ण है,
सुडौल है।
वर्तुल पूरा
है।
लाओत्से
कहता है, जितनी
ज्यादा
पूर्णता हो, उतनी स्थायी
होती है। और
जितनी ज्यादा
अपूर्णता हो,
उतनी
अस्थायी होती
है। इसलिए वह
कहता है कि हम
जीवन के परम
रहस्य को
स्त्रैण
रहस्य का नाम
देते हैं।
मन के
संबंध में भी, जैसे
शरीर के संबंध
में स्त्री और
पुरुष के बुनियादी
भेद हैं, वैसे
ही मन के
संबंध में भी
हैं। पुरुष के
चिंतन का ढंग
तर्क है। इसे
ठीक से समझ
लेना जरूरी होगा,
क्योंकि
लाओत्से के
सारे विचार का
आधार इस पर है।
पुरुष के
सोचने का ढंग
तर्क है, उसका
मेथड
तर्क है।
स्त्री के
सोचने का ढंग
तर्क नहीं है।
उसके सोचने का
ढंग बहुत इल्लॉजिकल
है, बहुत
अतार्किक है।
उसे हम
अंतर्दृष्टि
कहें, इंटयूशन कहें, कोई
और नाम दें, लेकिन
स्त्री के
सोचने के ढंग
को तर्क नहीं
कहा जा सकता।
तर्क की अपनी
व्यवस्था है।
इसलिए जहां भी
पुरुष सोचेगा,
वहां गणित,
तर्क और
नियम होगा। और
जहां भी
स्त्री
सोचेगी, वहां
न गणित होगा, न तर्क होगा;
सीधे
निष्कर्ष
होंगे, कनक्लूजंस होंगे।
इसलिए स्त्री
और पुरुष के
बीच बातचीत नहीं
हो पाती।
और सभी
पुरुषों को यह
अनुभव होता है
कि स्त्री से
बातचीत करनी
मुश्किल है, क्योंकि
वह इल्लॉजिकल
है। जब वह
तर्क देता है,
तब वह सीधे
निष्कर्ष
देती है। अभी
वह तर्क भी नहीं
दे पाया होता
है और वह कनक्लूजंस
पर पहुंच जाती
है।
स्त्री-पुरुष
के बीच कम्युनिकेशन
नहीं हो पाता,
संवाद नहीं
हो पाता। हर
पति को यह
खयाल है कि स्त्री
से बात करनी
बेकार है; क्योंकि
आखिरी निर्णय
उसके ही हाथ
में हो जाने
को है। और वह
कितने ही तर्क
दे, इससे
बहुत फर्क
नहीं पड़ता; क्योंकि
स्त्री तर्क
सुनती ही
नहीं। इसलिए कई
बार पुरुष को
बहुत परेशानी
भी होती है कि
वह बात ठीक कह
रहा है, तर्कयुक्त
कह रहा है, फिर
भी स्त्री
उसकी सुनने को
राजी नहीं है।
उसे क्रोध भी
आता है। लेकिन
स्त्री के
सोचने का ढंग
ही तर्क नहीं
है। इसमें
स्त्री का कोई
कसूर नहीं है।
दो तरह
से सोची जाती
है;
जगत में कोई
भी बात दो ढंग
से सोची जा
सकती है। या
तो हम एक-एक
कदम
विधिपूर्वक
सोचें और फिर
विधि के
माध्यम से
निष्कर्ष को
निकालें। और
या हम एकदम से
छलांग लें और
निष्कर्ष पर
पहुंच जाएं; कोई बीच की सीढ़ियां न
हों।
अंतर्दृष्टि,
इंटयूशन का ढंग सीधी
छलांग लेने का
है।
हम सब
में भी
किन्हीं
क्षणों में
अंतर्दृष्टि
होती है। एक
आदमी आपको
दिखाई पड़ता है, और
अचानक आपके मन
में निष्कर्ष आ
जाता है कि इस
आदमी से बच कर
रहना ही ठीक
है। आपके पास
कोई तर्क नहीं
होता। आपके
पास कोई कारण
नहीं होता।
अभी इस आदमी
से आपका परिचय
भी नहीं हुआ
है। लेकिन इस
आदमी को देखते
ही आपकी चेतना
एक निष्कर्ष
लेती है। यह
निष्कर्ष
बिलकुल सडन
फ्लैश लाइट, जैसे बिजली
कौंध गई हो, ऐसा है।
और अगर
अब ठीक से
खयाल करेंगे, तो
अक्सर सौ में
निन्यानबे
मौके पर यह जो
बिना विचारा,
सीधा
निष्कर्ष
आपमें कौंध
जाता है, सही
होता है। जो
लोग
अंतर्दृष्टि
पर काम करते हैं,
वे कहते हैं
कि अगर
अंतर्दृष्टि
शुद्ध हो, तो
सदा ही सही
होती है। तर्क
गलत भी हो
सकता है; अंतर्दृष्टि
गलत नहीं
होती।
इसलिए
पुरुष की और
परेशानी होती
है। क्योंकि वह
तर्क भी देता
है,
ठीक बात भी
कहता है, लेकिन
फिर भी वह
अचानक पाता है
कि स्त्री
बिना तर्क के
जो कह रही है, वह भी ठीक
है। इससे
क्रोध और भारी
हो जाता है। जिन
लोगों ने भी
स्त्री के
संबंध में
चिंतन किया है
और लिखा है, उन सब को एक
भारी क्रोध
है। और वह
क्रोध यह है कि
वह न तर्क
देती, न वह
व्यवस्था से
विचार करना
जानती; फिर
भी वह जो
निष्कर्ष
लेती है, वे
अक्सर सही
होते हैं।
उसके
निष्कर्ष इंटयूटिव
हैं,
उसके पूरे
अस्तित्व से
निकलते हैं। पुरुष
के जो
निष्कर्ष हैं,
वे उसकी
बुद्धि से
निकलते हैं, पूरे
अस्तित्व से
नहीं निकलते।
पुरुष सोच कर बोलता
है। जो सोच कर
बोला जाता है,
वह गलत भी
हो सकता है। इंटयूशन
को थोड़ा समझ
लेंगे, तो
खयाल में आ
जाएगा।
जापान
में एक साधारण
सी चिड़िया
होती है, घरों
के बाहर, आम
गांव में।
भूकंप आता है,
तो चौबीस
घंटे पहले वह
चिड़िया गांव
को खाली कर
देती है। अभी
तक
वैज्ञानिकों
ने भूकंप को पकड़ने के
लिए जो यंत्र
तैयार किए हैं,
वे भी छह
मिनट से पहले
भूकंप की खबर
नहीं देते। और
छह मिनट पहले
मिली हुई खबर
का कोई उपयोग
नहीं हो सकता।
लेकिन जापान
की वह साधारण
सी चिड़िया
चौबीस घंटे
पहले किसी न
किसी तरह जान
लेती है कि
भूकंप आ रहा है।
जापान में
हजारों साल से
उस चिड़िया पर
ही अंदाज रखा
जाता है। जब
वह चिड़िया
गांव में नहीं
दिखाई
पड़ती--और बहुत कामन है, बहुत ज्यादा
संख्या में
है--जैसे ही
गांव में चिड़िया
दिखाई नहीं
पड़ती, गांव
को लोग खाली
करना शुरू कर
देते हैं।
क्योंकि
चौबीस घंटे के
भीतर भूकंप
अनिवार्य है।
लेकिन
उस चिड़िया को
भूकंप का पता
कैसे चलता है? क्योंकि
उसके पास कोई
तर्क की
व्यवस्था
नहीं हो सकती।
उसके पास कोई
गणित नहीं है।
और कोई अरिस्टोटल
और कोई प्लेटो
उसे पढ़ाने
के लिए नहीं
हैं। कोई
विश्वविद्यालय
नहीं है, जहां
वह
तर्कशास्त्र
को पढ़ पाए।
लेकिन उसे कुछ
प्रतीति तो
होती है। उस
प्रतीति के
आधार पर वह
व्यवहार करती
है। सारे जगत
में पशु इंटयूटिव
हैं। पशु बहुत
से काम करते
हैं, जो
बिलकुल ही इंटयूशन
से चलते हैं, अंतर्दृष्टि
से चलते हैं, जिसमें कोई
तर्क नहीं
होता। लेकिन
सारा पशु-जगत
अंतर्दृष्टि
से काम करता
है और ठीक काम
करता है। यह
अंतर्दृष्टि
क्या है? अस्तित्व
से हमारा जुड़ा
होना। अगर वह
चिड़िया अपने
आस-पास के
सारे वातावरण
से एक है, तो
उस वातावरण
में आते हुए
सूक्ष्मतम
कंपन भी उसको
एहसास होंगे।
वह प्रतीति बौद्धिक
नहीं है। उसका
पूरा
अस्तित्व ही
उन कंपनों को
अनुभव करता
है।
जब
पुरुष किसी
स्त्री को
प्रेम करता है, तो
उसका प्रेम भी
बौद्धिक होता
है। वह उसे भी सोचता-विचारता
है। उसके
प्रेम में भी
गणित होता है।
स्त्री जब किसी
को प्रेम करती
है, तो वह
प्रेम बिलकुल
अंधा होता है।
उसमें गणित बिलकुल
नहीं होता।
इसलिए स्त्री
और पुरुष के प्रेम
में फर्क पाया
जाता है।
पुरुष का
प्रेम आज होगा,
कल खो सकता
है। स्त्री का
प्रेम खोना
बहुत मुश्किल
है।
और
इसलिए
स्त्री-पुरुष
के बीच कभी
तालमेल नहीं
बैठ पाता।
क्योंकि आज
लगता है प्रेम
करने जैसा, कल
बुद्धि को लग
सकता है न
करने जैसा। और
आज जो कारण थे,
कल नहीं रह
जाएंगे। कारण
रोज बदल
जाएंगे। आज जो
स्त्री सुंदर
मालूम पड़ती थी,
इसलिए
प्रेम मालूम
पड़ता था; कल
निरंतर परिचय
के बाद वह
सुंदर नहीं
मालूम पड़ेगी।
क्योंकि सभी
तरह का परिचय
सौंदर्य को कम
कर देता है।
अपरिचित में
एक आकर्षण है।
लेकिन स्त्री
कल भी इतना ही
प्रेम करेगी,
क्योंकि
उसके प्रेम
में कोई कारण
न था। वह उसके
पूरे
अस्तित्व की
पुकार थी।
इसलिए स्त्री
बहुत फिक्र
नहीं करती कि
पुरुष सुंदर
है या नहीं।
इसलिए पुरुष
सौंदर्य की
चिंता नहीं
करता।
यह जान
कर आप हैरान
होंगे। हम
सबको खयाल में
आता है कि
स्त्रियां
इतना सौंदर्य
की क्यों चिंता
करती है? इतने
वस्त्रों की,
इतनी फैशन
की, इतने
गहने, इतने
जवाहरातों की?
तो शायद आप
सोचते होंगे,
यह कोई
स्त्री-चित्त
में कोई बात
है। बात उलटी
है। उलटी बात
है; उलटी
ऐसी है कि
स्त्री-चित्त
यह सारा
इंतजाम इसीलिए
करता है, क्योंकि
पुरुष इससे ही
प्रभावित
होता है। पुरुष
का कोई और
अस्तित्वगत
आकर्षण नहीं
है। इसलिए
स्त्री को
पूरे वक्त
इंतजाम करना
पड़ता है। और
पुरुष एक से
ही कपड़े
जिंदगी भर
पहनता रहता
है। उसे चिंता
नहीं आती, क्योंकि
स्त्री कपड़ों
के कारण प्रेम
नहीं करती। और
पुरुष
हीरे-जवाहरात
न पहने, तो
कोई अंतर नहीं
पड़ता है।
स्त्री
हीरे-जवाहरात
देखती ही
नहीं। पुरुष
सुंदर है या
नहीं, इसकी
भी स्त्री
फिक्र नहीं
करती। उसका
प्रेम है, तो
सब है। और
उसका प्रेम
नहीं है, तो
कुछ भी नहीं
है। फिर बाकी
चीजें बिलकुल
मूल्य की नहीं
हैं।
लेकिन
पुरुष के लिए
बाकी चीजें
बहुत मूल्य की
हैं। सच तो यह
है कि जिस
स्त्री को
पुरुष प्रेम
करता है, अगर
उसका सब आवरण
और सब सजावट
अलग कर ली जाए,
तो नब्बे
प्रतिशत
स्त्री तो
विदा हो
जाएगी। और
इसलिए अपनी
पत्नी को
प्रेम करना
रोज-रोज कठिन
होता चला जाता
है, क्योंकि
अपनी पत्नी
बिना सजावट के
दिखाई पड़ने
लगती है।
नब्बे
प्रतिशत तो
मेकअप है, वह
विदा हो जाता
है, जैसे
ही हम परिचित
होना शुरू
होते हैं।
स्त्री
ने कोई मांग
नहीं की है
पुरुष से।
उसका पुरुष होना
पर्याप्त है।
और स्त्री का
प्रेम है, तो
यह काफी कारण
है। उसका
प्रेम भी इंटयूटिव
है; इंटलेक्चुअल नहीं है, बौद्धिक
नहीं है।
और
दूसरी बात, उसके
प्रेम के इंटयूटिव
होने के
साथ-साथ उसका
प्रेम पूरा
है। पूरे का अर्थ
है, उसके
पूरे शरीर से
उसका प्रेम
जन्मता है। पुरुष
के पूरे शरीर
से प्रेम नहीं
जन्मता; उसका
प्रेम बहुत
कुछ जेनिटल
है। इसलिए
जैसे ही पुरुष
किसी स्त्री
को प्रेम करता
है, प्रेम
बहुत जल्दी
कामवासना की
मांग शुरू कर
देता है।
स्त्री
वर्षों प्रेम
कर सकती है
बिना कामवासना
की मांग किए।
सच तो यह है कि
जब स्त्री बहुत
गहरा प्रेम
करती है, तो
उस बीच पुरुष
की कामवासना
की मांग उसको
धक्का ही देती
है, शॉक ही पहुंचाती
है। उसे एकदम
खयाल भी नहीं
आता कि इतने
गहरे प्रेम
में और
कामवासना की
मांग की जा
सकती है!
मैं सैकड़ों
स्त्रियों को, उनके
निकट, उनकी
आंतरिक
परेशानियों
से परिचित हूं।
अब तक मैंने
एक स्त्री ऐसी
नहीं पाई, जिसकी
परेशानी यह न
हो कि पुरुष
उससे निरंतर कामवासना
की मांग किए
चले जाते हैं।
और हर स्त्री
परेशान हो
जाती है।
क्योंकि जहां
उसे प्रेम का
आकर्षण होता
है, वहां
पुरुष को
सिर्फ काम का
आकर्षण होता
है। और पुरुष
की जैसे ही काम
की तृप्ति हुई,
पुरुष
स्त्री को भूल
जाता है। और
स्त्री को निरंतर
यह अनुभव होता
है कि उसका
उपयोग किया
गया है--शी हैज बीन यूज्ड।
प्रेम नहीं
किया गया, उसका
उपयोग किया
गया है। पुरुष
को कुछ उत्तेजना
अपनी फेंक
देनी है। उसके
लिए स्त्री का
एक बर्तन की
तरह उपयोग
किया गया है।
और उपयोग के
बाद ही स्त्री
व्यर्थ मालूम
होती है।
लेकिन स्त्री
का प्रेम गहन है,
वह पूरे
शरीर से है, रोएं-रोएं
से है। वह जेनिटल
नहीं है, वह
टोटल है।
कोई भी
चीज पूर्ण तभी
होती है, जब वह
बौद्धिक न हो।
क्योंकि
बुद्धि सिर्फ
एक खंड है
मनुष्य के
व्यक्तित्व
का, पूरा
नहीं है वह।
इसलिए स्त्री
असल में अपने
बेटे को जिस
भांति प्रेम
कर पाती है, उस भांति
प्रेम का
अनुभव उसे पति
के साथ कभी नहीं
हो पाता।
पुराने
ऋषियों ने तो
एक बहुत हैरानी
की बात कही
है। उपनिषद के
ऋषियों ने
आशीर्वाद
दिया है
नवविवाहित वधुओं को
और कहा है कि
तुम अपने पति
को इतना प्रेम
करना, इतना
प्रेम करना, कि अंत में
दस तुम्हारे
पुत्र हों और
ग्यारहवां
पुत्र
तुम्हारा पति
हो जाए।
उपनिषद
के ऋषि यह
कहते हैं कि
स्त्री का
पूरा प्रेम
उसी दिन होता
है,
जब वह अपने
पति को भी
अपने पुत्र की
तरह अनुभव करने
लगती है। असल
में, स्त्री
अपने पुत्र को
पूरा प्रेम कर
पाती है; उसमें
कोई फिर
बौद्धिकता
नहीं होती। और
अपने बेटे के
पूरे शरीर को
प्रेम कर पाती
है; उसमें
कोई चुनाव
नहीं होता। और
अपने बेटे से
उसे कामवासना
का कोई रूप
नहीं दिखाई
पड़ता, इसलिए
प्रेम उसका
परम शुद्ध हो
पाता है। जब
तक पति भी
बेटे की तरह न
दिखाई पड़ने
लगे, तब तक
स्त्री पूर्ण
तृप्त नहीं हो
पाती है।
लेकिन
पुरुष की
स्थिति उलटी
है। अगर पत्नी
उसे मां की
तरह दिखाई
पड़ने लगे, तो
वह दूसरी
पत्नी की तलाश
पर निकल
जाएगा। पुरुष
मां नहीं
चाहता, पत्नी
चाहता है। और
भी ठीक से समझें,
तो पत्नी भी
नहीं चाहता, प्रेयसी
चाहता है।
क्योंकि
पत्नी भी
स्थायी हो
जाती है।
प्रेयसी में
एक
अस्थायित्व
है और बदलने
की सुविधा है।
पत्नी में वह
सुविधा भी खो
जाती है।
स्त्री
का चित्त
समग्र है, इंटिग्रेटेड
है।
स्त्रियों का
नहीं कह रहा हूं।
जब भी मैं
स्त्री शब्द
का उपयोग कर
रहा हूं, तो
स्त्रैण
अस्तित्व की
बात कर रहा
हूं, लाओत्से
जिसे स्त्रैण
रहस्य कह रहा
है। स्त्रियां
ऐसी हैं, यह
मैं नहीं कह
रहा हूं।
स्त्रियां
ऐसी हों, तो
ही स्त्रियां
हो पाती हैं।
पुरुष भी ऐसा
हो जाए, तो
जीवन की परम
गहराइयों से
उसके संबंध स्थापित
हो जाते हैं।
अब तक
इस जगत में
जितने परम
ज्ञान की
बातों का जन्म
हुआ है, वे
कोई भी बातें
तर्क से पैदा
नहीं हुईं; वे सभी
बातें
अंतर्दृष्टि
से पैदा हुई
हैं। चाहे आर्किमिडीज
अपने टब में
बैठ कर स्नान
कर रहा हो; और
अचानक, बिना
किसी कारण के,
उसको खयाल आ
गया उस बात का,
जो वह खोज
रहा था! वह
इतना आंदोलित
हो उठा खुशी से
कि अपने टब से
नग्न ही दौड़ता
हुआ सड़क पर आ
गया और
चिल्लाने लगा:
यूरेका! यूरेका!
मिल गया!
लोगों
ने उसे पकड़ा
और कहा कि
पागल हो गए हो!
वह भागा
राजमहल की तरफ
नग्न ही, क्योंकि
राजा ने उसे
एक सवाल दिया था
हल करने को।
वह हल नहीं कर
पा रहा था।
उसने सारी
गणित की कोशिश
कर ली थी, वह
हल नहीं होता
था। लेकिन टब
में बैठा हुआ
था, विश्राम
कर रहा था, तब
सोच भी नहीं
रहा था; अचानक
इंटयूटिव,
जैसे बिजली
कौंध गई, सवाल
हल हो गया। आर्किमिडीज
ने वह सवाल हल
नहीं किया। वह
सवाल जैसे
भीतर से हल
होकर उसके
सामने आ गया।
उसमें कोई
तर्क की विधि
उपयोग में
नहीं लाई गई
थी, सोच-विचार
नहीं था; सीधे
अस्तित्व में
ही साक्षात
हुआ था।
अब तक
विज्ञान की
विगत दो हजार
वर्षों में जो
भी खोज-बीन है, बड़े
से बड़े
वैज्ञानिक का
कहना यही है
कि जब मैं
शिथिल होता
हूं, रिलैक्स्ड होता हूं, तब न मालूम
कैसे
निष्कर्ष आ
जाते हैं।
कभी-कभी आपको
भी अनुभव होता
है। कोई नाम
खो गया, स्मरण
नहीं आता है।
बहुत कोशिश
करते हैं, नहीं
आता है। फिर
छोड़ देते हैं,
कुर्सी पर
लेट जाते हैं,
सिगरेट
पीने लगते हैं,
अखबार पढ़ने
लगते हैं, या
रेडियो खोल
लेते हैं, या
बगीचे
में निकल कर
जमीन खोदने
लगते हैं। और
अचानक जैसे
भीतर से वह
नाम, जो
इतनी परेशानी
से खोजते थे
और याद नहीं
आता था, भीतर
से आ जाता है।
यह बुद्धि का
काम नहीं है। बुद्धि
ने कोशिश कर
ली थी; यह
नहीं आ सका
था।
अमरीका
में एक आदमी
था,
कायसी। वह
बेहोश हो जाता
था। और किसी
भी मरीज को उसके
पास बिठा दिया
जाए, तो वह
बेहोशी में
उसकी बीमारी
का निदान कर
देता था। न तो
वह चिकित्सक
था, न उसने
कोई मेडिकल
अध्ययन किया
था। और होश
में वह किसी
तरह की बात
नहीं कर सकता
था दवा या इलाज
के बाबत।
लेकिन उसने
अपने जीवन में
चालीस हजार
मरीजों का
निदान किया, डायग्नोसिस की। बस वह
आंख बंद करके
ध्यानस्थ हो
जाता था। मरीज
को बिठा दें, फिर वह
बोलना शुरू कर
देता था कि
इसे क्या बीमारी
है। और न केवल
यह, वह
बोलना शुरू
करता था, कौन
सी दवा से यह
आदमी ठीक
होगा। उन
दवाओं का उसे
होश में पता
भी नहीं था।
और उसका निदान
सदा ही सही निकला।
होश में आने
पर वह खुद भी
कहता था कि मैं
नहीं जानता कि
इस दवा से
फायदा होगा कि
नहीं; मैंने
इस दवा का नाम
कभी सुना
नहीं।
कई बार
तो ऐसा हुआ
कि...एक बार तो
उसने एक दवा
का नाम एक
मरीज के लिए
कहा। वह पूरे
अमरीका में
खोजी गई, वह
दवा नहीं
मिली। एक वर्ष
बाद वह दवा
मिल सकी, क्योंकि
तब दवा
कारखाने में
बनाई जा रही
थी, अभी
बाजार में आई
ही नहीं थी।
और उसका नाम
भी अभी तक तय
नहीं हुआ था।
और कायसी ने
उसका नाम पहले
ले दिया
था--साल भर
पहले। साल भर
बाद वह दवा मिली
और तभी वह मरीज
ठीक हो सका।
एक दवा
के लिए सारी
दुनिया में
खोज की गई, वह
कहीं भी नहीं
मिल सकी। तब
सारे दुनिया
के अखबारों
में विज्ञापन
दिए गए कि इस
नाम की दवा दुनिया
के किसी भी
कोने में
उपलब्ध हो, तो एक मरीज
बिलकुल
मरणासन्न है
और कायसी कहता
है, इसी
दवा से ठीक हो
सकेगा। स्वीडन
से एक आदमी ने
पत्र लिखा कि
ऐसी दवा मौजूद
नहीं है, लेकिन
मेरे पिता ने
छब्बीस साल
पहले इस तरह
की दवा पेटेंट
कराई थी।
यद्यपि कभी
बनाई नहीं और
बाजार में वह
कभी गई नहीं; लेकिन
फार्मूला
मेरे पास है।
वह फार्मूला
मैं भेज सकता
हूं, आप
चाहें तो बना
लें। वह दवा
बनाई गई और वह
मरीज ठीक हुआ।
कायसी
को जो प्रतीति
होती थी, वह इंटयूटिव
है; यह
स्त्रैण-चित्त
का लक्षण है।
सोच-विचार से
नहीं, निर्विचार
में निष्कर्ष
का प्रकट हो
जाना! समस्त
ध्यान की
प्रक्रियाएं
इसी दिशा में
ले जाती हैं।
लाओत्से
कहता है, सोचोगे
तो भटक जाओगे।
मत सोचो, और
निष्कर्ष आ
जाएगा। सोचना
छोड़ दो और
प्रतीक्षा
करो, और
निष्कर्ष आ
जाएगा। तुम
सिर्फ
प्रतीक्षा करो;
प्रश्न
तुम्हारे
भीतर हो और
तुम
प्रतीक्षा करो;
उत्तर मिल
जाएगा। सोचो
मत। क्योंकि
जब तुम सोचोगे,
तुम क्या पा
सकोगे? तुम्हारी
सामर्थ्य
कितनी है? जैसे
कोई एक लहर
सोचने लगे जगत
की समस्याओं
को, क्या
सोच पाएगी? अच्छा है कि
सागर पर छोड़
दे और
प्रतीक्षा
करे कि सागर
ही उत्तर दे
दे।
स्त्रैण-चित्त
का लाओत्से से
प्रयोजन है, छोड़
दो तुम और
अस्तित्व को
ही उत्तर देने
दो। तुम अपने
को बीच में मत
लाओ। क्योंकि
तुम जो भी लाओगे,
उसके गलत
होने की
संभावना है।
अस्तित्व जो
देगा, वह
गलत नहीं
होगा।
लुकमान
के संबंध में
कहा जाता है
कि वह--जैसा मैंने
कहा कायसी के
बाबत कि वह
मरीज के पास
बेहोश हो जाता
था और दवा बता
देता
था--लुकमान
पौधों के पास
जाकर ध्यान
लगा कर बैठ
जाता था और कह
देता था पौधों
से कि तुम किस
काम में, किस
बीमारी के काम
में आ सकते हो,
वह तुम मुझे
बता दो!
लुकमान ने कोई
एक लाख पौधों
के संबंध में
वक्तव्य दिया
है। कोई बड़ी
प्रयोगशाला
नहीं थी, जिसमें
लुकमान
जांच-पड़ताल कर
सके।
आयुर्वेद
के ग्रंथों को
भी जब निर्माण
किए गए, तब भी
कोई बड़ी प्रयोगशालाएं
नहीं थीं कि
जिनके माध्यम
से इतने बड़े
निर्णय लिए जा
सकें। लेकिन
निर्णय आज भी
सही हैं। वे निर्णय
इंटयूटिव
हैं। वे
निर्णय किसी
व्यक्ति के
ध्यान में लिए
गए निर्णय
हैं। सर्पगंधा
आयुर्वेद की
एक पुरानी जड़ी
है। कोई पांच
हजार वर्षों
से आयुर्वेद
का साधक सर्पगंधा
का उपयोग करता
रहा है नींद
लाने के लिए।
अभी पश्चिम को
प्रयोगशालाओं
में सिद्ध हुआ
कि सर्पगंधा
से बेहतर नींद
लाने के लिए
कोई ट्रैंक्वेलाइजर
नहीं हो सकता
है। अब जो
पश्चिम में सर्पेन्टिना
नाम से चीज
उपलब्ध है, वह सर्पगंधा
का ही अर्क
है। लेकिन अब
तो हमारे पास
बहुत सूक्ष्म
साधन हैं, जिनसे
हम जान सकें।
लेकिन जिस दिन
सर्पगंधा
खोजी गई थी, इतने
सूक्ष्म साधन
नहीं मालूम
पड़ते हैं कि
थे। उसकी खोज
का रास्ता कुछ
और रहा होगा।
वह खोज
का रास्ता
स्त्रैण-चित्त
का ढंग था। और
अब जो हम
प्रयोगशाला
में खोज कर
रहे हैं, वह
पुरुष-चित्त
का ढंग है।
लाओत्से ने
कहा है कि
स्त्रैण-चित्त
का अलग
विज्ञान होता
है और पुरुष-चित्त
का अलग
विज्ञान होता
है। हमारा जो विज्ञान
है, आज
पश्चिम में जो
विज्ञान हमने
विकसित किया है,
वह
पुरुष-चित्त
की खोज है।
तर्क, काटना-पीटना,
डिसेक्शन,
तोड़ना-फोड़ना,
विश्लेषण, उसकी विधि
है। तोड़ो
चीजों को, काटो
चीजों को, तर्क
करो, विचार
करो, गणित
से हिसाब लगाओ
और निष्कर्ष
लो!
लेकिन
वे निष्कर्ष
रोज बदलने
पड़ते हैं।
विज्ञान का
कोई भी
निष्कर्ष छह
महीने भी टिक
जाए तो
सौभाग्य की
बात है।
क्योंकि छह
महीने में काटने-पीटने
के साधन और बढ़
गए होते हैं।
तर्क की नई
व्यवस्थाएं आ
गई होती हैं।
गणित में और
सूक्ष्म
उतरने के उपाय
मिल गए होते
हैं। पुराना
हिसाब गलत हो
जाता है। आज
पश्चिम में
वैज्ञानिक
कहते हैं कि कोई
बड़ी किताब
लिखनी कठिन हो
गई है।
क्योंकि बड़ी
किताब जब तक
लिखो, तब तक जो
तुम उसमें लिख
रहे हो, वह
गलत हो चुका
होता है। तो
विज्ञान पर
छोटी-छोटी
किताबें लिखी
जाती हैं!
किताब ही बंद
हुई जा रही
हैं, विज्ञान
पर पीरियाडिकल्स
होते हैं, मैगजीन्स होती हैं।
उनमें अपना
वक्तव्य दे दो;
तुम्हारा
वक्तव्य छप
जाए, इसके
पहले कि गलत
हो जाए!
क्योंकि छह महीने
प्रतीक्षा, साल भर
प्रतीक्षा
संभव नहीं है।
लेकिन इंटयूशन
से,
अंतर-अनुभूति
से जो
निष्कर्ष पाए
गए हैं, उन्हें
हजारों साल
में भी बदलने
की कोई जरूरत नहीं
पड़ी। उपनिषद
के सत्य आज भी
वैसे ही सत्य हैं।
और ऐसी कोई
संभावना नहीं
दिखाई पड़ती कि
कभी भी भविष्य
में ऐसा कोई
समय होगा, जिस
दिन उपनिषद के
सत्यों को
बदलने की
जरूरत पड़ेगी।
क्या बात है
आखिर? उपनिषद
के सत्य में
ऐसी क्या बात
है कि उसको बदलने
की कोई जरूरत
नहीं है?
लाओत्से
जो कह रहा है, यह
कितने ही दूरी
पर कल्पना की
जाए, तो भी
सही रहेगा।
इसमें भेद
पड़ने वाला
नहीं है। तो
लाओत्से के
पाने की
पद्धति जरूर
कुछ और रही
होगी।
क्योंकि हम तो
जो भी पाते
हैं, वह
दूसरे दिन गलत
हो जाता है।
पुरुष के
द्वारा जो भी
खोज की जाती
है, वह
चूंकि
तर्क-निर्भर
है; वह
साक्षात
प्रतीति नहीं
है, केवल
मन का अनुमान
है; इसलिए
अनुमान तो कल
बदलने पड़ेंगे,
क्योंकि
अनुमान सत्य
नहीं होते।
इसलिए विज्ञान
कहता है कि हम
जो भी कहते
हैं, वह एप्रॉक्सीमेटली
ट्रू, सत्य
के करीब-करीब
है; सत्य
बिलकुल नहीं
है।
अगर आप
उपनिषद पढ़ें, तो
बहुत और तरह
की दुनिया है
वहां।
लाओत्से को
पढ़ें, लाओत्से
कोई तर्क नहीं
देता। वह कहता
है, दि
वैली स्पिरिट डाइज नॉट, एवर
दि सेम। दिस इज़ ए मियर
स्टेटमेंट,
विदाउट एनी रीजनिंग।
वह यह नहीं कह
रहा है कि
क्यों घाटी की
आत्मा नहीं
मरती है! वह
कहता है, घाटी
की आत्मा नहीं
मरती है, वह
हमेशा वैसी ही
रहती है। यह
तो सीधा
वक्तव्य है।
इसमें कोई
तर्क नहीं है।
उसको बताना
चाहिए, क्यों
नहीं मरती? क्या कारण
है? पक्ष
में दलीलें दो,
गवाह
उपस्थित करो।
लेकिन
लाओत्से कहता
है, गवाह
केवल वे ही
उपस्थित करते
हैं, जिन्हें
अनुभूति नहीं
होती। गवाह की
जरूरत नहीं
है।
कहते
हैं,
मुल्ला नसरुद्दीन
पर एक मुकदमा
चला है। और
अदालत में नसरुद्दीन
ने कहा कि
मेरी पत्नी ने
कैंची उठा कर
मेरे चेहरे पर
हमला कर दिया
और मेरे चेहरे
को ऐसा काट डाला,
जैसे कोई
कपड़े के
टुकड़े-टुकड़े
कर दे।
मजिस्ट्रेट
बहुत हैरान
हुआ; क्योंकि
चेहरे पर कोई
निशान ही नहीं
मालूम पड़ते!
मजिस्ट्रेट
ने पूछा, यह
कब की बात है? नसरुद्दीन ने कहा, यह
कल ही रात की
बात है।
मजिस्ट्रेट
और अचंभे में
पड़ा। उसने कहा,
नसरुद्दीन,
कुछ सोच कर
कहो।
तुम्हारे
चेहरे पर जरा
सा भी निशान
नहीं है चोट
का और तुम
कहते हो, कैंची
से इसने
टुकड़े-टुकड़े
कर दिए
तुम्हारे चेहरे
की चमड़ी के! नसरुद्दीन
ने कहा कि
चेहरे पर निशान
की कोई जरूरत
नहीं है। मैं
बीस गवाह मौजूद
किए हुआ हूं।
चेहरे पर
निशान की कोई
जरूरत ही नहीं
है। आई हैव गॉट
दि विटनेसेस,
ये बीस आदमी
खड़े हैं। ये
कहते हैं कि
जो मैं कहता
हूं, ऐसा
हुआ है।
असल
में,
विटनेस को
हम खोजने तभी
जाते हैं, जब
स्वयं पर
भरोसा नहीं
होता। जब
स्वयं पर
भरोसा होता है,
तो तर्क को
भी विटनेस की
तरह खड़े करने
की कोई जरूरत
नहीं रह जाती।
उपनिषद
के ऋषि कहते
हैं,
ब्रह्म है।
वे यह नहीं
कहते, क्यों
है। वे यह
नहीं कहते कि
जो कहते हैं
नहीं है, वे
गलत कहते हैं।
उसके लिए भी
कोई दलील नहीं
देते। सीधे
वक्तव्य हैं
कि ब्रह्म है।
अगर उपनिषद के
ऋषि से आप पूछें
कि दलील क्या
है? तो वे
कहते हैं, कोई
दलील नहीं है,
हम जानते
हैं! और अगर
तुम जानना
चाहो, तो
हम रास्ता बता
सकते हैं; दलील
हम नहीं
बताते।
लाओत्से कहता
है कि हम रास्ता
बता सकते हैं
कि वह घाटी की
आत्मा अमर है,
इसका क्या
अर्थ है! वह
स्त्रैण
रहस्य क्या है,
हम तुम्हें
उसमें उतार
सकते हैं।
लेकिन हम कोई
दलील नहीं
देते; हम
कोई तर्क नहीं
देते।
क्योंकि हम
जानते ही हैं।
जिन
लोगों ने भी
तर्क दिए हैं
कि ईश्वर है, उन
लोगों को
ईश्वर के होने
का कोई पता
नहीं है।
इसलिए जिन
लोगों ने
ईश्वर के होने
के तर्क दिए
हैं, उन्होंने
केवल
नास्तिकों के
हाथ मजबूत किए
हैं। क्योंकि
तर्कों का
खंडन किया जा
सकता है। ऐसा
कोई भी तर्क
नहीं है, जिसका
खंडन न किया
जा सके। सभी
तर्कों का
खंडन किया जा
सकता है।
नसरुद्दीन
अपने बेटे को
कह रहा था कि
तू यूनिवर्सिटी
जा रहा है, तो
तर्कशास्त्र
जरूर पढ़ लेना।
पर उसके बेटे
ने कहा कि
जरूरत क्या है
तर्कशास्त्र
को पढ़ने की? तर्कशास्त्र
सिखा क्या
सकता है? नसरुद्दीन ने कहा, तर्कशास्त्र
में बड़ी खूबियां
हैं; वह
तुझे
आत्यंतिक रूप
से बेईमान बना
सकता है। और
अगर बेईमान
होना हो, तो
तर्क जानना
बिलकुल जरूरी
है। ईमानदारी
बिना तर्क के
हो सकती है; बेईमानी
बिना तर्क के
नहीं हो सकती
है।
उसके
बेटे ने कहा, मुझे
कुछ समझाएं; क्योंकि
मुझे तर्क का
कुछ भी पता
नहीं। तो नसरुद्दीन
ने कहा कि समझ,
एक मकान में
किचेन की
चिमनी से दो
आदमी बाहर
निकलते हैं। एक
आदमी के कपड़े
बिलकुल शुभ्र,
सफेद हैं।
उन पर जरा भी
दाग नहीं लगा
है। और दूसरा
आदमी बिलकुल
गंदा हो गया
है, काला
पड़ गया है।
सारे कपड़े और
चेहरे पर
चिमनी की
कालिख लग गई
है। मैं तुझसे
पूछता हूं कि
उन दोनों में
से कौन स्नान
करेगा?
स्वभावतः, उसके
बेटे ने कहा
कि जो गंदा और
काला हो गया, वह स्नान
करेगा। नसरुद्दीन
ने कहा, गलत।
यही तो तर्क
जानने की
जरूरत है।
क्योंकि जो
आदमी गंदा है,
उसे अपनी
गंदगी नहीं
दिखाई पड़ेगी,
उसे दूसरे
आदमी के सफेद
कपड़े पहले
दिखाई पड़ेंगे।
और जब वह
सोचेगा कि
दूसरे आदमी के
सफेद कपड़े हैं,
तो मेरे भी
सफेद होंगे।
लड़के ने कहा, मैं समझा
आपकी बात, मैं
समझ गया। जिस
आदमी के सफेद
कपड़े हैं, वह
स्नान पहले
करेगा।
क्योंकि वह
गंदे आदमी को
देखेगा; वह
सोचेगा, जब
यह इतना गंदा
हो गया, तो
मैं कितना
गंदा नहीं हो
गया होऊंगा।
एक ही चिमनी
से दोनों
निकले हैं।
मैं समझ गया। नसरुद्दीन
के बेटे ने
कहा, मैं
समझ गया, पिताजी,
आपकी बात!
पहले वह आदमी
स्नान करेगा,
जो बिलकुल
सफेद कपड़े
पहने हुए है। नसरुद्दीन
ने कहा, गलत!
उसके बेटे ने
कहा, हद हो
गई, दोनों
बातें गलत! नसरुद्दीन
ने कहा, गलत!
क्योंकि जो
तर्क जानता है,
वह यह कहेगा
कि जब एक ही
चिमनी से
दोनों निकले,
तो एक सफेद
और एक गंदा
कैसे निकल
सकता है? नसरुद्दीन ने कहा कि
अगर दुनिया
में सबको गलत
सिद्ध करना हो,
तो तर्क
जानना जरूरी
है।
हां, तर्क
से, क्या
सही है, यह
कभी सिद्ध
नहीं होता; लेकिन क्या
गलत है, यह
सिद्ध किया जा
सकता है। तर्क
से, क्या
गलत है, यह
सिद्ध किया जा
सकता है; लेकिन
तर्क से यह
कभी पता नहीं
चलता कि क्या
सही है। सही
का अनुभव करना
पड़ता है। और
जब सही का
तर्क से पता
ही नहीं चलता,
तो तर्क से
जिसे हम गलत
सिद्ध करते
हैं, वह भी
पूरी तरह गलत
सिद्ध हो नहीं
सकता है। क्योंकि
जब हमें सही
का पता ही
नहीं है, तो
वह सिर्फ
सिद्ध करने का
खेल है।
पश्चिम
में जो
विज्ञान
विकसित हुआ है, वह
लॉजिक, तर्क से
विकसित हुआ
है। अरस्तू
उसका पिता है।
और जहां तर्क
होता है, वहां
काट-पीट होती
है। क्योंकि
तर्क टुकड़ों
में तोड़ता
है। तर्क की
विधि एनालिसिस
है, तोड़ो-काटो।
इसीलिए
विज्ञान की
विधि एनालिसिस
है, एनालिटिकल है, विश्लेषण
करो। इसलिए वे
अणु पर पहुंच
गए तोड़तेत्तोड़ते,
आखिरी
टुकड़े पर
पहुंच गए।
स्त्रैण-चित्त
सिंथेटिकल
है। वह तोड़ता
नहीं, जोड़ता
है। वह कहता
है, जोड़ते जाओ! और जब जोड़ने को
कुछ न बचे तो
जो हाथ में आए,
वही सत्य
है। इसलिए
स्त्रैण-चित्त
ने जो निर्णय
लिए हैं, वे
विराट के हैं,
अणु के
नहीं। उसने
कहा, सारा
जगत एक ही
ब्रह्म है।
वैज्ञानिक
कहता है, सारा
जगत अणुओं का
एक ढेर है; और
प्रत्येक अणु
अलग है, दूसरे
अणु से उसका
कोई जोड़ नहीं
है। जुड़ भी नहीं
सकता, चाहे
तो भी नहीं
जुड़ सकता। दो
अणुओं के बीच
गहरी खाई है, कोई अणु जुड़
नहीं सकता।
सारा जगत, जैसे
रेत के टुकड़ों
का ढेर लगा हो,
ऐसा सारा
जगत अणुओं का
ढेर है।
जगत
अणुओं का ढेर
है?
या विज्ञान
की पद्धति ऐसी
है कि अणुओं
का ढेर मालूम
पड़ता है?
स्त्रैण-चित्त, अनुभूति
से चलने वाला व्यक्ति
कहता है, जगत
में दो ही
नहीं हैं।
अनेक की तो
बात ही अलग; दो भी नहीं
हैं, द्वैत
भी नहीं है।
जगत एक ही
विराट है। वह
जोड़ कर सोचता
है। जोड़ता चला
जाता है। जब जोड़ने को
कुछ नहीं बचता,
और सारा जगत
जुड़ जाता है।
स्त्री
जोड़ने की
भाषा में
सोचती है।
पुरुष तोड़ने की
भाषा में
सोचता है--यह
पुरुष-चित्त!
स्त्री-चित्त जोड़ने की
भाषा में
सोचता है। और
जहां जोड़ना है, वहां
नतीजे दूसरे
होंगे। और
जहां तोड़ना है,
वहां नतीजे
दूसरे होंगे।
ध्यान रहे, जहां तोड़ना
है, वहां
आक्रमण होगा।
इसलिए पश्चिम
के वैज्ञानिक
कहते हैं, वी
आर कांकरिंग
नेचर, हम
प्रकृति को
जीत रहे हैं।
लेकिन पूरब
में लाओत्से
जैसे लोग कभी
नहीं कहते कि
हम प्रकृति को
जीत रहे हैं।
क्योंकि वे
कहते हैं, हम
प्रकृति के
बेटे, हम
प्रकृति को
जीत कैसे
सकेंगे? यह
तो मां के ऊपर
बलात्कार है!
लाओत्से
कहता है, प्रकृति
को हम जीत
कैसे सकेंगे?
यह तो
पागलपन है। हम
केवल प्रकृति
के साथ सहयोगी
हो जाएं, हम
केवल प्रकृति
के कृपापात्र
हो जाएं, हमें
केवल प्रकृति
की ग्रेस
और प्रसाद मिल
सके, तो
पर्याप्त है।
प्रकृति का
वरदान हमारे
ऊपर हो तो
काफी है।
इसलिए
लाओत्से ने जो
बात कही है, उस
पर अभी पश्चिम
में फिर से
पुनर्विचार
शुरू हुआ है।
पश्चिम में अभी
एक अदभुत
किताब लिखी गई
है, वह
पहली किताब है
इस तरह की, दि
ताओ ऑफ साइंस।
और अभी पश्चिम
के कुछ वैज्ञानिकों
ने यह खबर दी
है, जोर से
चर्चा चलाई है
कि पश्चिम का
जो अरिस्टोटेलियन
विज्ञान है, अरस्तू के
आधार पर बना
जो विज्ञान है,
उसे हटा
देना चाहिए; और हमें
लाओत्से के
आधार पर नए
विज्ञान की
इमारत खड़ी
करनी चाहिए।
क्यों? क्योंकि
यह हारने और
जीतने की भाषा
हिंसा की भाषा
है। और
प्रकृति को
जीता नहीं जा
सकता। और प्रकृति
को जीतने की
कोशिश वैसा ही
पागलपन है, जैसा मेरे
हाथ की एक अंगुली
मेरे पूरे
शरीर को जीतने
की कोशिश करे।
वह कभी जीत
नहीं पाएगी।
हां, लड़ने
में और परेशान
होगी। जीत तो
कभी नहीं सकती
है। और आदमी
बहुत परेशान
हो गया है। और
जब आदमी
प्रकृति से
जीतने की भाषा
में सोचता है,
तो आदमी और
आदमी भी लड़ने
की भाषा में
सोचते हैं, लड़ना उनके
चिंतन का ढंग
हो जाता है।
लाओत्से
के हिसाब से
जब तक दुनिया
में स्त्रैण-चित्त
प्रभावी नहीं
होता, तब तक
दुनिया से
युद्ध समाप्त
नहीं किए जा
सकते हैं। और
यह बात थोड़ी
सच मालूम पड़ती
है। स्त्रियां
युद्ध में
बिलकुल भी
उत्सुक नहीं
हैं। कभी नहीं
रहीं। अगर
पुरुष ने
उन्हें
समझा-बुझा कर
भी युद्ध पर
जाते वक्त टीका
लगवाने को
राजी कर लिया,
तो उनकी जो
मुस्कुराहट
थी टीका लगाते
वक्त, वह
झूठी थी। और
उनकी
मुस्कुराहट
के पीछे सिवाय
आंसुओं के और
कुछ भी नहीं
था। और पुरुष
को विदा करके
सिवाय
स्त्रियों ने
रोने के और
कुछ भी नहीं
किया है।
क्योंकि
युद्ध में कोई
भी हारे और
कोई भी जीते, स्त्री तो
अनिवार्य रूप
से हारती ही
है। युद्ध में
कोई भी जीते, कोई भी हारे,
स्त्री तो
हारती ही है।
युद्ध में कोई
भी मरे और कोई
भी बचे, स्त्री
तो हारती ही
है। या उसका
बेटा मरता है,
या उसका पति
मरता है, या
उसका प्रेमी
मरता है, कोई
न कोई उसका
मरता है--इधर
या उधर, कहीं
भी स्त्री
अनिवार्य रूप
से हारती है।
युद्ध पुरुष
को भला कितनी
ही उत्तेजना
ले आता हो, लेकिन
स्त्री को
जीवन में घातक
संघात पहुंचा जाता
है।
स्त्रियां
सदा युद्ध के
विपरीत रही हैं।
लेकिन
स्त्रियों का
कोई प्रभाव
नहीं है; स्त्रैण-चित्त
का कोई प्रभाव
नहीं है। और
जब तक
पुरुष-चित्त
प्रभावी है, दुनिया से
युद्ध नहीं
मिटाए जा
सकते। पुरुष के
सोचने का ढंग
ऐसा है कि अगर
उसे युद्ध के
खिलाफ भी
आंदोलन चलाना
हो, तो भी
उसका ढंग
युद्ध का ही
होता है। अगर
वह शांति का
आंदोलन भी
चलाता है, तो
भी उसकी मुट्ठियां
भिंची
होती हैं और
डंडे उसके हाथ
में होते हैं।
वे कहते हैं, शांति लेकर
रहेंगे! शांति
स्थापित करके
रहेंगे! लेकिन
उसका जो ढंग
है, वह
शांति
स्थापित करने
भी जाए, जुझारू
ही बना रहता
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
पर एक और
मुकदमा है। दो
व्यक्तियों
में झगड़ा
हो गया और उन
दोनों ने
एक-दूसरे के
सिर तोड़ दिए हैं
कुर्सियों
से। नसरुद्दीन
वहां मौजूद
था। उसे गवाह
की तरह अदालत
में बुलाया
गया। और
मजिस्ट्रेट
ने उससे पूछा
कि नसरुद्दीन, तुम
खड़े देखते रहे,
तुम्हें
शर्म नहीं आई!
ये तुम्हारे
दोनों मित्र
हैं, तुमने
बचाव क्यों न
किया? नसरुद्दीन ने कहा, तीसरी
कुर्सी ही
वहां नहीं थी।
दो कुर्सियां
थीं, इन
दोनों ने ले
लीं। अगर
तीसरी कुर्सी
होती, तो
बचाव करके
दिखा देता।
लेकिन कोई
उपाय ही नहीं
था। मुझे खड़े
रहना पड़ा।
वह
जिसको बचाव
करना है बीच
में,
उसके हाथ
में भी बंदूक
तो चाहिए ही।
आदमी बिना
बंदूक के सोच
नहीं सकता। आप
चकित होंगे
जान कर, मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
आदमी ने जो भी
अस्त्र-शस्त्र
विकसित किए
हैं, वे
बहुत कुछ उसकी
जननेंद्रियों
का विकास हैं।
चाहे बंदूक हो,
चाहे तलवार
हो, चाहे
छुरी हो; वह
दूसरे में
भोंक देने का उपाय
है। वह सब फैलिक
है, वह
लैंगिक
है--मनुष्य के
सारे शस्त्र।
स्त्रियों
ने कोई शस्त्र
विकसित नहीं
किए हैं। लड़ने
का खयाल ही
स्त्री के लिए
बेमानी है। युद्ध
अर्थहीन है।
जीतने की बात
ही प्रयोजन की
नहीं है।
स्त्रैण-चित्त
असल में जीतने
की भाषा में
नहीं सोचता, समर्पण
की भाषा में
सोचता है। इसे
ठीक से समझ लें।
स्त्री के
चित्त का जो
केंद्र है, वह समर्पण, सरेंडर है। पुरुष
के चित्त का
जो केंद्र है,
वह संकल्प,
संघर्ष, विजय,
इस तरह की
बातें है। अगर
पुरुष ईश्वर
को भी पाने
जाता है, तो
वह ऐसे ही
जाता है जैसे
आक्रमण कर रहा
है। ईश्वर को
पाकर रहेगा!
उसका जो ढंग
होता है। वह
सत्य को खोजने
भी निकलता है,
तो ऐसे ही
जैसे दुश्मन
को खोजने
निकला है। खोज
कर ही रहेगा!
वह प्रार्थना
नहीं है मन
में वहां, वहां
कब्जे का सवाल
है।
आगे जब
हम लाओत्से को
समझेंगे, तब
हमारे खयाल
में आएगा कि
वह कहता है, जो समर्पण
कर सकता है, छोड़ सकता है,
सरेंडर कर सकता है, वही विराट
सत्य को पाने
के लिए अपने
भीतर जगह बना
सकता है। तर्क
पुरुष का
लक्षण है, संघर्ष
उसका लक्षण
है। समर्पण और
तर्कहीन आस्था,
या कहें
श्रद्धा, स्त्रैण-चित्त
का लक्षण है।
वह जो
अंतर्दृष्टि
है, इंटयूशन है, वह
श्रद्धा के
बीच पैदा होती
है; भरोसे
के, ट्रस्ट
के बीच पैदा
होती है। अगर
पुरुष को श्रद्धा
भी करनी पड़े, तो वह करनी
पड़ती है, वह
उसके लिए सहज
नहीं है। वह
कहता है कि
अच्छा, बिना
श्रद्धा के
नहीं हो सकेगा,
तो मैं
श्रद्धा किए
लेता हूं।
लेकिन की गई
श्रद्धा का
कोई मूल्य
नहीं है। और
जब कोई
श्रद्धा करता
है, तो
भीतर संदेह
बना ही रहता
है। की गई
श्रद्धा का
अर्थ ही यह
होता है कि
संदेह भीतर
मौजूद है।
गहरे में
संदेह होगा, ऊपर श्रद्धा
होगी।
नसरुद्दीन
अपने बेटे को
जीवन की
शिक्षा दे रहा
है। वह उससे
कहता है कि इस
ऊपर की सीढ़ी
पर चढ़ जा! वह
बेटा पूछता है, कारण?
क्या जरूरत
है? नसरुद्दीन कहता है, ज्यादा
बातचीत नहीं,
श्रद्धापूर्वक ऊपर चढ़! वह
लड़का बेचैनी
से ऊपर चढ़ता
है। ऊपर जब वह
पहुंच जाता है
सीढ़ी पर, तो
नसरुद्दीन
कहता है, ये
मेरी बांहें
फैली हैं, तू
कूद जा! वह
कहता है, लेकिन
मतलब, जरूरत?
नसरुद्दीन कहता है, श्रद्धा
रख, घबड़ा
मत! मैं तेरा
बाप हूं, हाथ
फैलाए खड़ा
हूं! कूद जा!
लड़का कूद जाता
है। नसरुद्दीन
जगह छोड़ कर
खड़ा हो जाता
है। लड़का जमीन
पर गिरता है; दोनों पैरों
में चोट लगती
है। वह रोता
है। नसरुद्दीन
कहता है, देख,
जिंदगी के
लिए तुझे एक
शिक्षा देता
हूं: किसी का
भरोसा मत करना।
अपने बाप का
भी मत करना।
अगर जिंदगी
में जीतना है,
भरोसा मत
करना। भरोसा
किया कि हारा।
पुरुष
की सारी
शिक्षा यही
है। न मालूम
कितने रूपों
से अपने चारों
तरफ वह जो
दुनिया बनाता
है,
वह
गैर-भरोसे की
दुनिया है।
उसमें संघर्ष
है। उसमें हर
एक दुश्मन है
और प्रतियोगी है।
स्त्रैण-चित्त
के लिए भरोसा
बहुत सहज है। लेकिन
स्त्री की भी
शिक्षा हम
पुरुष के
द्वारा
दिलवाते हैं।
और स्त्री को
भी जो सूत्र
सिखाए जाते
हैं, वे
पुरुषों की
पाठशाला में
सिखाए जाते
हैं। इसलिए
स्त्री को भी
पता नहीं कि
स्त्रैण-चित्त
क्या है।
और
इसलिए कई बार
जब स्त्री
पुरुष की
शिक्षा में
शिक्षित हो
जाती है, तो
पुरुष से भी
ज्यादा
संदेहशील हो
जाती है। नया
मुसलमान जैसा
मस्जिद की तरफ
ज्यादा जाता है,
वैसे ही
स्त्री जो
पुरुष की
शिक्षा में
दीक्षित हो
जाती है, वह
पुरुष से भी ज्यादा
संदेहशील हो
जाती है।
अन्यथा संदेह
स्त्री का
स्वभाव नहीं
है। सहज
स्वीकार उसका
स्वभाव है।
ऐसा उसे करना
नहीं पड़ता, ऐसी उसकी
प्रकृति है।
ऐसा भरोसे में
जीना उसका ढंग
ही है, उसके
जीवन का ढंग
ही है। दि वेरी
वे ऑफ लाइफ!
उसके खून और
उसकी हड्डी और
मांस-मज्जा में
भरोसा है।
स्त्रैण
रहस्य में ये
बातें खयाल
रखनी जरूरी हैं
कि लाओत्से
जिस तरफ इशारा
कर रहा है, वह
श्रद्धा का
जगत है।
समर्पण का, संघर्षहीन,
प्रकृति के
साथ सहयोग का,
विरोध का
नहीं।
प्रकृति के
साथ बह जाने
का, प्रकृति
के साथ संघर्ष
का नहीं। नदी
में तैरने जैसा
नहीं, नदी
में बह जाने
जैसा है; कि
कोई आदमी ने
भरोसा कर लिया
हो नदी पर और
बह गया। तैरता
भी नहीं है; किसी किनारे
पर पहुंचने की
आकांक्षा भी
नहीं है। नदी
जहां पहुंचा
दे, वही
मंजिल है। ऐसे
भरोसे से भरा
हुआ बहा जाता है।
लाओत्से
कहता था, जब तक
मैंने सत्य को
खोजा, तब
तक पाया नहीं।
जब मैंने खोज
बंद कर दी और
बहना शुरू कर
दिया, उसी
दिन मैंने
पाया कि सत्य
सदा मेरे पास
था। मैं खोजने
में अटका था; इसलिए दिखाई
नहीं पड़ता था।
लाओत्से कहता
था, मैं एक
सूखे पत्ते की
तरह हो गया।
हवा जहां ले जाती,
वहीं जाने
लगा। बस उसी
दिन से मेरे
अहंकार को कोई
जगह न रही।
उसी दिन से
मैंने जान
लिया, परम
सत्य क्या है।
उस दिन के बाद
कोई अशांति नहीं
है। सब अशांति
खोजने की
अशांति है। सब
अशांति कहीं
पहुंचने की
अशांति है। सब
अशांति कुछ
होने की
अशांति है।
श्रद्धावान, जो है, उससे
राजी है; जहां
है, उससे राजी
है; जैसा
है, उससे
राजी है।
ऐसा
नहीं कि उसकी
यात्रा नहीं
होती, यात्रा
उसकी भी होती
है। लेकिन वह
यात्रा सारे
अस्तित्व के
साथ है, अस्तित्व
के विरोध में
नहीं है। नदी
में बहता हुआ
तिनका भी सागर
पहुंच जाता
है। जरूरी
नहीं है कि
नाव लेकर ही
नदी में सागर
की तरफ यात्रा
की जाए। वह
बहता हुआ
तिनका भी सागर
पहुंच जाता
है। लेकिन नदी
पहुंचाती
है उसे, वह
खुद नहीं
पहुंचता। और
पहुंचने की
व्यर्थ झंझट
से बच जाता
है।
लाओत्से
कहता है, यदि
हम छोड़ सकें
अपने को, जैसा
स्त्री छोड़
देती है प्रेम
में, ऐसा
ही अगर हम जगत
अस्तित्व के
प्रति, परमात्मा
के प्रति, ताओ
के प्रति अपने
को छोड़ दें, जैसे हम
उसके आलिंगन
में छूट गए
हों, तो हम
जीवन के सत्य
के निकट सरलता
से पहुंच जा सकते
हैं।
एक-दो
बातें और।
जैसा मैंने
कहा,
पुरुष की
बुद्धि और
स्त्री की
बुद्धि में
फर्क है; ऐसे
ही पुरुष के
जीने का जो
डायमेंशन है,
वह टाइम है,
समय है।
पुरुष समय में
जीता है। दो
डायमेंशन हैं
अस्तित्व के:
एक टाइम और एक
स्पेस; स्थान
और काल। पुरुष
काल में जीता
है। वह पीछे
का हिसाब रखता
है, आगे का
हिसाब रखता
है। समय में
उसकी दौड़ चलती
रहती है। घड़ी
के कांटे की
तरह जीता है।
जैसा मैंने
कहा कि पश्चिम
में विज्ञान
जिस दिन से
सफल हुआ, उसी
दिन से घड़ी
सफल हुई। पूरब
में घड़ी नहीं
बन सकी। नहीं
बनने का कारण
था; क्योंकि
पूरब ने कभी
पुरुष के
चित्त के ढंग
से सोचा नहीं।
पूरब ने कभी
समय का हिसाब
नहीं रखा।
हमारे
पास कोई तारीख
नहीं है, राम
कब पैदा हुए, कब मरे।
कृष्ण कब जनमे,
कब मरे, हमारे
पास कोई तारीख
नहीं है, कोई
हिसाब नहीं
है। लाओत्से
कब पैदा होता
है, कब
मरता है, कोई
हिसाब नहीं
है। यह भी
पक्का करना
मुश्किल होता
है कि कौन
पहले हुआ, कौन
पीछे हुआ।
हमने कोई टाइम
क्रॉनिकल
हिसाब नहीं
रखा कभी। असल
में, समय
का जो बोध है, टाइम
कांशसनेस है,
वह पूरब को
नहीं रही कभी।
कोई बोध ही
नहीं रहा समय
का। क्यों? क्योंकि समय
के बोध के लिए
पुरुष-चित्त
चाहिए। समय का
बोध बढ़ता है
तनाव के साथ।
जितना तनाव बढ़ता
है, समय का
बोध बढ़ता है।
तो जितनी एंग्जायटी
बढ़ती है, उतनी
टाइम
कांशसनेस
बढ़ती है।
पश्चिम
में आज टाइम
कांशसनेस
इतनी ज्यादा
है,
एक सेकेंड
का हिसाब है।
और वह हिसाब
कई दफे बिलकुल
पागलपन में ले
जाता है। एक
आदमी जाएगा भागा
हुआ हवाई जहाज
से इसलिए कि
घंटा भर बच
जाए। घंटा बच
जाएगा; लेकिन
उसने कभी यह
सोचा ही नहीं,
उस घंटे को
बचा कर करना
क्या है! उस
घंटे को वह
दूसरे घंटे
बचाने में उपयोग
में लाएगा। और
उन घंटों को
और घंटे बचाने
में उपयोग में
लाएगा। और
आखिर में मर
जाएगा बचाते-बचाते,
उपयोग उनका
कभी भी नहीं
कर पाएगा।
क्योंकि उपयोग
करने के लिए
तनाव नहीं
चाहिए। और समय
में तनाव है, तीव्र तनाव
है। कल बहुत
महत्वपूर्ण
है; आज
महत्वपूर्ण
नहीं है।
स्त्रियों
के लिए आज
बहुत
महत्वपूर्ण
है--अभी और
यहीं। इसलिए
बहुत मजे की
बात है कि
स्त्रियां उन
चीजों में
ज्यादा रस
लेती हैं जो
अभी और यहीं
घटित होती
हैं। आप जान
कर हैरान
होंगे कि
स्त्रियों को
कोई लंबी
फिक्र नहीं
होती। कोई
स्त्री इसकी
फिक्र नहीं
करती कि सन दो
हजार में क्या
होगा। कोई
फिक्र नहीं
करती। कोई
स्त्री चिंता
नहीं करती कि
तीसरा महायुद्ध
होगा कि नहीं
होगा, कि
वियतनाम में
क्या होगा, कि बंगाल
में क्या
होगा। इसकी
चिंता नहीं
करती। टाइम के
लिए उसके मन
में कोई जगह
नहीं है बहुत।
दूर की
भी चिंता नहीं
करती कि चीन
में क्या हो रहा
है,
और पेकिंग
में क्या हो
रहा है, और
वाशिंगटन में
क्या हो रहा
है। पड़ोसी के
घर में क्या
हो रहा है, यह
स्त्री के लिए
महत्वपूर्ण
है। वाशिंगटन
में क्या हो
रहा है, यह
बिलकुल बेकार
बात है। हो
रहा होगा!
लेकिन पड़ोसी
के घर में
क्या हो रहा
है, वह
दीवार में कान
लगा कर सुन
रही है। इमीजिएट
कांशसनेस है।
दूर से मतलब
नहीं है--अभी
और यहां!
क्षुद्र सी
कोई बात हो
रही होगी।
क्योंकि जो
वाशिंगटन में
हो रहा, वह
तो पड़ोसी के
घर में नहीं
हो रहा होगा।
वियतनाम में
जो हो रहा, वह
तो पड़ोसी के
घर में नहीं
हो रहा होगा।
पति-पत्नी की
कोई कलह हो
रही होगी, कुछ
मां बेटे को
डांट रही होगी,
कुछ हो रहा
होगा, क्षुद्र
होगा। लेकिन
वह निकट
है--अभी।
स्त्री के लिए
क्षुद्रतम
भी मूल्यवान
है, अगर वह
अभी है। और
पुरुष के लिए
बहुमूल्य से बहुमूल्य
भी मूल्यवान
नहीं है, अगर
वह अभी है। वह
दूर हो जितना,
उतना उसके
चित्त को
फैलाव का मौका
मिलता है। असल
में, जितना
दूर हो, उतना
ही चिंतन की
सुविधा है।
जितना निकट हो,
चिंतन की
कोई जरूरत
नहीं है।
जितना पास हो,
तो सोचना
क्या है? जितना
दूर हो, उतना
सोचने के लिए
उपाय है, तर्क
के लिए उपाय
है, योजनाएं
बनाने के लिए
उपाय है।
तो
पुरुष दूर में
बहुत उत्सुक
है,
दि डिस्टेंट।
स्त्री निकट
में बहुत
उत्सुक है। और
निकट में
उत्सुक होना,
सत्य की खोज
के लिए, दूर
में उत्सुक
होने से
ज्यादा
मूल्यवान है। यह
नहीं कह रहा
हूं कि पड़ोसी
के घर में
क्या हो रहा
है, इसमें
उत्सुक बने
रहें। निकट की
उत्सुकता मूल्यवान
है; क्योंकि
निकट ही है
जीवन। दूर तो
सिवाय सपनों के
और कल्पनाओं
के कुछ भी
नहीं है। निकट
ही है जीवन।
जितना निकट
अस्तित्व की
प्रतीति हो, उतनी ताजी
और जिंदा
होगी। दूर सब
बासा और पुराना
पड़ जाता है।
धूल रह जाती
है या भविष्य
की कल्पनाएं
और सपने रह
जाते हैं।
पुरुष
समय में जीता
है। स्त्री
स्थान में, स्पेस
में जीती है।
यह संयोग आपको
खयाल में शायद
न आया हो कि घर
पुरुष ने नहीं
बनाया, स्त्री
ने बनाया। अगर
पुरुष का वश
चले, तो घर
को कभी न बनने
दे। क्योंकि
घर के साथ
पुरुष सदा ही
बंधा हुआ
अनुभव करता है
निकट से। दूर
की यात्रा
कमजोर हो जाती
है। पुरुष
जन्मजात
खानाबदोश है,
आवारा है।
जितना दूर भटक
सके! इसलिए
पुरुष के मन
में भटकने की
बड़ी तीव्र
आकांक्षा है।
अब
स्त्रियों की
समझ में नहीं
आता कि चांद
पर जाकर क्या
करिएगा! न
वहां कोई
शॉपिंग सेंटर
है;
शॉपिंग भी
नहीं की जा
सकती, चांद
पर जा किसलिए
रहे हैं? क्या
आपको पता है
कि आज अमरीका
में जो एस्ट्रोनॉट्स
हैं, अंतरिक्ष
यात्री हैं, वे सर्वाधिक
प्रतिष्ठित
लोग हैं; लेकिन
आपको पता भी
नहीं होगा, खयाल में भी
नहीं आया होगा
कि एस्ट्रोनॉट्स
की पत्नियों
का डायवोर्स
रेट डबल है आम
नागरिक से
अमरीका में।
आम नागरिक
जितना डायवोर्स
करता है, उससे
दुगुना डायवोर्स
एस्ट्रोनॉट्स
की पत्नियां
कर रही हैं।
क्यों? क्योंकि
जो इतने दूर
में उत्सुक
हैं, वे
पत्नियों में
उत्सुक नहीं
रह जाते।
जिनकी उत्सुकता
चांद में है...।
पत्नी
को अखबार तक
से पीड़ा होती
है कि तुम अखबार
पढ़ रहे हो
उसकी मौजूदगी
में! दूर चले
गए। पत्नियां
किताबों की
दुश्मन हो
जाती हैं। पत्नियां
खेलों की
दुश्मन हो
जाती हैं कि
पति ने उठाया बल्ला
और चल पड़ा
मैदान की तरफ!
भारी पीड़ा
होती है। निकट
पत्नी मौजूद
है और वह दूर।
लेकिन चांद पर
कोई चला जा
रहा है!
स्त्री उसमें
उत्सुक नहीं
रह जाएगी। और
लौट कर वह
आएगा भी, तो भी
वह स्त्री में
बहुत उत्सुक
नहीं दिखाई देगा।
इतने बड़ी दूर
की उसने
उत्सुकता
पैदा कर ली है
कि इतने निकट
उसकी
उत्सुकता
नहीं होगी।
पुरुष
सदा यात्रा पर
है। घर
स्त्रियों ने
बनाए। इसलिए घरवाली
वही कहलाती है, चाहे
पैसा आप खर्च
करते हों; उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। घर की
मालकिन वही है।
घर उसने बनाया;
खूंटी उसने
गाड़ी। आप
सिर्फ उसमें
बंधे हुए अनुभव
करते हैं।
मैं
अभी एक
व्यक्ति का
आत्म-चरित
पढ़ता हूं। उसने
लिखा है कि
मेरी बड़ी
मुसीबत है।
मैं तय नहीं
कर पाता था, विवाह
करूं या न
करूं।
क्योंकि
विवाह करूं, तो बंध जाता
हूं; फिर
वहां से हिल
नहीं सकता।
विवाह न करूं,
तो यात्रा
जारी रह सकती
है; लेकिन
फिर ठहरने का
कहीं उपाय
नहीं, फिर
कहीं विश्राम
की कोई सुविधा
नहीं।
पुरुष
का बस चले तो
भटकता रहे, भटकता
रहे। जो
खानाबदोश कौमें
होती हैं, उस
तरह भटकता
रहे। इसलिए
आपने कभी खयाल
किया कि
खानाबदोश
कौमों की जो
स्त्रियां
हैं, वे
करीब-करीब
पुरुषों से भी
ज्यादा पुरुष
हो जाती हैं। बलूची
स्त्रियों पर
आपने खयाल
किया? क्योंकि
उनको पुरुष के
साथ भटकना
पड़ता है। और
भटकने की जो
अनिवार्यता
है, उन पर
भी फलित हो
जाती है।
क्योंकि
स्त्री का स्वभाव
भटकना नहीं
है। अगर वह भटकेगी,
तो उसको
पुरुष जैसा
स्वभाव
निर्मित करना
पड़ेगा। इसलिए बलूची
स्त्री पुरुष
से भी ज्यादा
पुरुष हो जाती
है। वह छुरा
भोंक सकती है
आपकी छाती
में। उससे
छेड़छाड़ नहीं
कर सकते हैं
आप। वह आपका
हाथ पकड़ ले, तो छुड़ाना
मुश्किल हो
जाएगा।
अगर बलूची
की स्त्री
पुरुष जैसी हो
जाती है, तो
हमारा पुरुष
स्त्री जैसा
हो जाता है, यह खयाल
रखना।
क्योंकि घर
में बंधा-बंधा
उसको स्त्री
के गुण के साथ
जीना पड़ता है।
इसलिए
सर्वाधिक
क्रोध उसे
स्त्री पर आता
है, क्योंकि
वह उसकी जंजीर
बन गई मालूम
पड़ती है। यह
प्रणय-बंधन
में लोग बंधते
हैं, वह
शब्द बहुत
अच्छा है। लोग
निमंत्रण-पत्रिकाएं
छपवाते हैं कि
मेरे पुत्र और
पुत्री
विवाह-बंधन
में बंधने जा
रहे हैं।
बिलकुल ठीक जा
रहे हैं!
विवाह बंधन ही
है पुरुष के
लिए। वह वहां
बंध कर, जड़ें
जमा कर बैठ
जाता है। वहीं
से उसकी कुंठा
शुरू हो जाती
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
को सुबह-सुबह
घर के बाहर
निकलते ही
डाक्टर मिल
गया। और
डाक्टर ने
पूछा नसरुद्दीन
से कि नसरुद्दीन, पत्नी
की तबीयत अब
कैसी है? नींद
आई?
नसरुद्दीन ने
कहा,
क्या गजब की
दवा दी आपने!
बहुत अच्छी
नींद आई और
बड़ी तबीयत ठीक
है।
डाक्टर
ने पूछा, और
कुछ तो नहीं
पूछना?
नसरुद्दीन ने
कहा,
यही पूछना
है कि नींद कब
खुलेगी? क्योंकि
पांच दिन हो
गए हैं; बड़ी
शांति है, और
बड़ी
स्वतंत्रता
है, पत्नी
बिलकुल सो रही
है।
डाक्टर
ने कहा, पांच
दिन हो गए हैं!
पागल, तूने
खबर क्यों न
की? क्या
दवा ज्यादा दे
दी?
नसरुद्दीन ने
कहा,
ज्यादा
बिलकुल नहीं
दी। आपने कहा
था, चवन्नी
पर रख कर
देना। घर में
चवन्नी न थी, चार इकन्नियां
थीं; उन पर
रख कर दे दी।
बड़ी शांति है,
और बड़ी स्वतंत्रता
है। कहीं
आओ-जाओ, सब
सन्नाटा है।
विवाह के बाद
ऐसी शांति और
स्वतंत्रता
मैंने नहीं
जानी। पत्नी
सो रही है।
पुरुष
को लगता है
बंधा होना। और
वहां से भागे तो
अशांति पैदा
होती है, न
भागे तो बंधा
हुआ मालूम
पड़ता है।
पुरुष का चित्त
दूर में
उत्सुक है। और
ऐसा नहीं कि
वह वहां पहुंच
जाएगा तो फिर
और दूर में उत्सुक
नहीं होगा।
वहां पहुंच कर
तत्काल और दूर
में उत्सुक हो
जाएगा। चांद
पर हम उतरे भी
नहीं थे कि
हमारे
वैज्ञानिकों
ने मंगल पर
उतरने की
योजनाएं
बनानी शुरू कर
दीं। चांद
बेकार हो गया।
जैसे यह बात
पूरी हो गई कि
चांद पर उतर
गए, बात
समाप्त हो गई।
अब मंगल पर
उतरना जरूरी
है--बिना यह
पूछे कि क्यों?
लाओत्से
या उपनिषद के
लोग,
भारत में या
पूरब के
मुल्कों में,
बिलकुल ही
टाइम
कांशसनेस से
मुक्त थे।
उन्हें समय की
कोई धारणा न
थी। न दूर की
कोई धारणा थी।
लाओत्से ने
कहा है कि
मेरे गांव के
पार, सुना
है मैंने अपने
बुजुर्गों
से कि नदी के
उस तरफ गांव
था। कुत्तों
की आवाज सुनाई
पड़ती थी कभी
रात के
सन्नाटे में।
कभी सांझ को
उस गांव के
मकानों पर
उठता हुआ धुआं
भी हमें दिखाई
पड़ता था।
लेकिन हमारे
गांव में से कभी
कोई उत्सुक
नहीं हुआ जाकर
देखने को कि
उस तरफ कौन
रहता है।
एक
कैथोलिक
संन्यासी का
जीवन मैं पढ़ता
था। ट्रैपिस्ट, ईसाइयों
का एक
संप्रदाय है
संन्यासियों
का। शायद
दुनिया में
सबसे ज्यादा
कठोर संन्यास
की व्यवस्था ट्रैपिस्ट
संन्यासियों
की है। एक नया
संन्यासी
दीक्षित हुआ। ट्रैपिस्ट
मोनास्ट्री
में, उनके
आश्रम में
आदमी प्रवेश
करता है, तो
आमतौर से जीवन
भर बाहर नहीं
निकलता; जब
तक गुरु उसे
बाहर ही न
निकाल दे।
दरवाजा बंद
होता है, तो
अक्सर सदा के
लिए बंद हो
जाता है। और
आदमी मर जाता
है तभी बाहर
निकलता है।
एक नया
संन्यासी
दीक्षित हुआ।
गुरु ने उससे
कहा कि यह दरवाजा
सदा के लिए
बंद हो रहा
है। उसको
कोठरी दे दी
गई। और ट्रैपिस्ट
उस मोनास्ट्री
का नियम यह था
कि संन्यासी
सात साल में
एक ही बार बोल
सकते हैं।
इसको कोठरी दे
दी गई। इसको साधना
के नियम बता
दिए गए। फिर
सात साल तक
बात समाप्त हो
गई।
सात
साल बाद वह
संन्यासी
अपने गुरु के
पास आया और
उसने कहा, और
सब तो ठीक है; लेकिन जो
कोठरी आपने दी
है, उसका
कांच टूटा हुआ
है। और सात
साल में मैं
एक दिन नहीं
सो पाया।
वर्षा अंदर
चली आती है, कीड़े-मकोड़े
अंदर घुस जाते
हैं, मच्छर
अंदर आ जाते
हैं। पर सात
साल में एक ही
दफे की आज्ञा
थी; इसलिए
निवेदन करता
हूं, वह
कांच ठीक कर
दिया जाए।
गुरु ने कहा, ठीक! वह कांच
ठीक करने लोग
भेज दिए गए।
सात
साल बाद
फिर--यानी
चौदह साल
बाद--वह
संन्यासी
गुरु के चरणों
में आया और
उसने कहा, और
सब तो ठीक है, कांच तो
आपने ठीक करवा
दिया; लेकिन
सात साल की
वर्षा की वजह
से, जो चटाई
मुझे आपने
सोने को दी थी,
वह अकड़ कर
बिलकुल लक्कड़
हो गई है। सात
साल से सो
नहीं पाया। तो
कृपा करके वह
चटाई बदलवा
दें। गुरु ने
कहा, ठीक
है! वह फिर चला
गया।
फिर
सात साल बाद, यानी
इक्कीस साल
बाद वह वापस
आया। गुरु ने
उससे पूछा कि
सब ठीक है? उसने
कहा, और सब
तो ठीक है; लेकिन
वह चटाई बदलने
जो लोग भेजे
थे आपने, जब
वे पुरानी उस
सूख गई चटाई
को लेकर
निकलने लगे, तो वह कांच
फिर टूट गया।
सात साल से सो
नहीं पाया।
पानी अंदर आ
रहा है। गुरु
ने कहा कि
निकल, तू
दरवाजे के
बाहर हो जा!
इक्कीस साल
में सिवाय
शिकायत के
तूने कुछ भी
नहीं किया।
दरवाजे से
बाहर! ऐसे
आदमी को हम संन्यास
नहीं देते।
इक्कीस साल
में सिवाय
शिकायतों के
तेरा कोई काम
ही नहीं।
ये एक
दूसरी दुनिया
के लोग हैं!
इक्कीस मिनट सहना
हमें मुश्किल
हो जाता, इक्कीस
साल तो बहुत
बड़ी बात है।
सात साल में बेचारा
एक शिकायत
लेकर आता है; वह भी कहता
है गुरु बहुत
ज्यादा है।
सात साल वह
प्रतीक्षा
करता रहता है
कि ठीक सात
साल बाद दिन
आएगा। टाइम
कांशसनेस
बिलकुल नहीं
होगी। नहीं तो
सात मिनट
मुश्किल हो
जाते।
समय की
चेतना बढ़ती है
पुरुष-चित्त
के साथ; स्त्रियों
को समय की कोई
धारणा नहीं
है। इसलिए रोज
आप हर घर के
सामने झगड़ा
देखते हैं। वह
झगड़ा
स्त्रैण और
पुरुष चित्त
का है। पुरुष
बजा रहा है
हॉर्न दरवाजे
पर खड़ा हुआ और
पत्नी अपनी सजावट
किए चली जा
रही है। गाड़ी
चूक गए हैं, या फिल्म
में पहुंचे
देर से हैं, हॉल बंद हो
गया! और वह पति
चिल्ला रहा है
कि इतनी देर लगाने
की क्या जरूरत
थी? असल
में, स्त्री
को टाइम
कांशसनेस
नहीं है।
उसमें कसूर
नहीं है। यह
कोई फर्क ही
नहीं पड़ता।
आधा घंटे, घंटे
से क्या फर्क
पड़ता है? ऐसा
क्यों परेशान
हो रहे हो? काहे
के लिए हॉर्न बजाए जा
रहे हो?
मैंने
सुना है, एक
स्त्री की सड़क
पर कार रुक गई है
और वह उसे
स्टार्ट नहीं
कर पा रही है।
पीछे का आदमी
आकर हॉर्न बजा
रहा है। तो वह
स्त्री बाहर
निकली, उसने
उस आदमी से
जाकर कहा, महानुभाव,
गाड़ी मेरी
स्टार्ट नहीं
होती; आप
जरा स्टार्ट
करिए; हॉर्न
बजाने का काम
मैं किए देती
हूं।
जल्दबाजी
नहीं है; व्यक्तित्व
में नहीं है।
लाओत्से
कहता है, स्त्रैण-चित्त
का यह जो
रहस्य है--यह
गैर-जल्दबाजी,
अधैर्य
बिलकुल नहीं,
समय का
बिलकुल बोध
नहीं--ये सत्य
की दिशा में बड़े
सहयोगी कदम
हैं। ध्यान
इतना ही रखना
कि जब भी मैं
स्त्रैण-चित्त
की बात कर रहा
हूं, तो
स्त्रैण-चित्त
की बात कर रहा हूं,
स्त्री की
नहीं।
स्त्रैण-चित्त
पुरुष के पास हो
सकता है। जैसे
बुद्ध जैसे
आदमी के पास
स्त्रैण-चित्त
है; समय का
कोई बोध नहीं
है।
बुद्ध
जब मरे, चालीस
साल हो चुके
थे उन्हें
ज्ञान उपलब्ध
हुए। किसी ने
उनसे मरने के
दिन कहा है कि
अपरंपार थी
तुम्हारी
कृपा, अनुकंपा
तुम्हारी
अपार थी!
तुम्हें जीने
की कोई भी जरूरत
न थी ज्ञान हो
जाने के बाद।
तुम दीए की तरह
बुझ जा सकते
थे अनंत में, निर्वाण को
उपलब्ध हो
सकते थे। हम
पर कृपा करके
तुम चालीस साल
जीए! बुद्ध ने
कहा, चालीस
साल? आनंद,
पास में
बैठे भिक्षु
से कहा, क्या
इतना समय व्यतीत
हो गया? समय
का कोई बोध
नहीं है।
चालीस साल? बुद्ध ने
कहा, क्या
इतना समय
व्यतीत हो गया
मुझे ज्ञान
उपलब्ध हुए? कोई हिसाब
नहीं है।
स्पेस
में जीती है
स्त्री। उसका
चित्त जो है, वह
स्थान में
जीता है।
स्थान अभी और
यहीं फैला हुआ
है। समय
भविष्य और
अतीत में फैला
हुआ है। स्थान
वर्तमान में
फैला हुआ है, अभी और यहीं!
इसलिए स्थान
का स्त्री को
बहुत बोध है।
और स्त्री ने
जो कुछ भी
थोड़ा-बहुत काम
किया है, वह
सब स्थान में
है। चाहे वह
घर बनाए, चाहे
फर्नीचर सजाए,
चाहे कमरे
की सजावट करे,
चाहे शरीर
पर कपड़ा
डाले, चाहे
गहने पहने--यह
सब स्पेसियल
है, यह सब
स्थान में है।
इनका रूप-आकार
स्थान में है।
समय में इनकी
कोई स्थिति
नहीं है।
पुरुष
इन बातों में
बहुत रस नहीं
ले पाता। ये उसे
ट्रिवियल, क्षुद्र
बातें मालूम
पड़ती हैं।
उसका रस समय में
है। वह सोचता
है, कम्युनिज्म कैसे आए! अब
माक्र्स सौ
साल पहले बैठ
कर ब्रिटिश
म्यूजियम की
लाइब्रेरी
में अपना पूरा
जीवन नष्ट कर
देता है--इस खयाल
में कि कभी कम्युनिज्म
कैसे आए!
माक्र्स उसे
देखने को नहीं
बचेगा। कोई
कारण नहीं है
उसके बचने का।
लेकिन वह
योजना बनाता
है कि कम्युनिज्म
कैसे आए! कोई
और लाएगा, कोई
और देखेगा; आएगा, नहीं
आएगा; इससे
मतलब नहीं है।
लेकिन
माक्र्स इतनी
मेहनत करता है,
कोई स्त्री
नहीं कर सकती।
माक्र्स
ब्रिटिश
म्यूजियम से
तब हटता था, जब
बेहोश हो जाता
था पढ़ते-पढ़ते
और
लिखते-लिखते।
अक्सर उसे
बेहोश घर ले
जाया गया है।
और उसकी पत्नी
हैरान होती थी
कि तुम पागल
हो! तुम कर
क्या रहे हो? इसे लिख कर
होगा क्या? उसकी किताब
भी कोई छापने
को तैयार नहीं
था। स्त्री
सोच ही नहीं
सकती थी, इससे
फायदा क्या
है! यह किताब
बिक भी नहीं
सकती। उलटे
मंहगा पड़ रहा
था। माक्र्स
ने कैपिटल लिखी,
तो जितने
में उसकी
किताब बिकी, उससे ज्यादा
की तो वह
सिगरेट पी
चुका था उसे
लिखने में। तो
मंहगा पड़ रहा
था। और बेहोश
घर उठा कर
लाया जाता।
लाइब्रेरी से
धक्के देकर
निकाला जाता;
क्योंकि
लाइब्रेरी
बंद हो गई और
वह हटता ही नहीं
है, वह
अपनी कुर्सी पकड़े हुए
बैठा है।
चपरासी कह रहे
हैं, हटिए! और वह कह रहा
है, थोड़ा
और लिख लेने
दो।
यह किसलिए? यह
भविष्य की कोई
कल्पना है कि
कहीं किसी दिन
साम्यवाद
आएगा! इसमें
कोई स्पेसियल
बोध नहीं है, स्थान का
कोई बोध नहीं
है। कोई
स्त्री यह
नहीं कर सकती।
अभी और यहीं!
यहीं कुछ हो
सकता हो, तो!
उसके अंतर में
ही समय की
प्रतीति नहीं
है।
लाओत्से
मानता है कि
समय की
प्रतीति खो
जाए,
तो आप
स्त्रैण-चित्त
के हो जाएंगे।
इसलिए
दुनिया के
समस्त साधकों
ने यह कहा है
कि जब समय मिट
जाएगा, तभी
ध्यान उपलब्ध
होगा। व्हेन
देयर इज़
नो टाइम। जीसस
से किसी ने
पूछा है कि
तुम्हारे
स्वर्ग में
खास बात क्या
होगी? तो
उन्होंने कहा,
देयर शैल बी
टाइम नो
लांगर। खास
बात जीसस ने बताई
कि वहां समय
नहीं होगा।
समय होगा ही
नहीं। और सब
कुछ होगा, समय
नहीं होगा।
क्योंकि समय
के साथ ही
चिंताएं आती
हैं। समय के
साथ ही दौड़
आती है। समय
के साथ ही
वासना आती है।
समय के साथ ही
इच्छा का जन्म
होता है। समय
के साथ ही फल
की आकांक्षा
पैदा होती है।
समय के साथ ही
यहां नहीं, कहीं और
हमारे सुख का
साम्राज्य
निर्मित हो जाता
है।
इसलिए
स्त्रैण-चित्त
के ये गुण भी
खयाल में रखेंगे, तो
अगले सूत्र को
कल समझना हमें
आसान हो सकेगा।
आज
इतना ही।
कीर्तन में
पांच मिनट
सम्मिलित
हों। जो लोग
वहां कीर्तन
में सम्मिलित
होना चाहें, भयभीत
न हों।
पास-पड़ोस के
लोगों को भूल
जाएं और
कीर्तन में डूबें।
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