सूत्र:
शिव
कहते है:
1—हे
देवी, यह अनुभव दो
श्वासों के
बीच घटित हो
सकता
है। श्वास के
भीतर आने के
पश्चात और
बहार
लौटन
के ठीक पूर्व—श्रेयस
है,
कल्याण है।
2—जब
श्वास नींचे
से ऊपर की और
मुड़ती है, और फिर
जब
श्वास ऊपर से
नीचे की और
मुड़ती है, इन दो
मोड़ों के
द्वारा
उपलब्ध हो।
3—या
जब कभी
अंत:श्वास
और बहिर्श्वास
एक—दूसरे
में
विलीन होती
है। उस क्षण
ऊर्जारहित,
ऊर्जापूरित
केंद्र
को स्पर्श
करो।
4—या
जब श्वास
पूरी तरह बाहर
गई है और स्वत:
ठहरी
है,
या पूरी तरह
भीतर आई है और
ठहरी है—
ऐसे
जागतिक विराम
के क्षण में
व्यक्ति का क्षुद्र
अहंकार
विसर्जित हो
जाता है।
केवल
अशुद्ध के लिए
यह कठिन है।
सत्य सदा
यहीं है। वह
है; वही
है। किसी
भविष्य में
उसे उपलब्ध
नहीं करना है।
तुम यहीं और
अभी सत्य हो।
इसलिए सत्य कोई
ऐसी चीज नहीं
है जिसे पैदा
करना है, या
जिसके लिए
उपाय करना है,
या जिसे
खोजना है। इस
बात को पूरी
स्पष्टता के
साथ समझ लो, और तभी इन
विधियों को
समझने और
प्रयोग करने
में आसानी
होगी।
मन
कामना का
यंत्र है। मन
सदा चाह में
है, सदा
कुछ चाह रहा
है, सदा
कुछ मांग रहा
है। और उसका
विषय, उसका
उद्देश्य सदा
भविष्य में
होता है। मन
को वर्तमान से
कुछ लेना—देना
नहीं है।
वर्तमान क्षण
में मन गति
नहीं कर सकता,
इस क्षण में
गति के लिए
स्थान नहीं है,
गति के लिए
मन को भविष्य
चाहिए। वह या
तो अतीत में
गति कर सकता
है, या
भविष्य में।
वर्तमान में
वह गतिमान
नहीं हो सकता,
स्थान ही
नहीं है।
सत्य
वर्तमान में
है और मन सदा
भविष्य या
अतीत में होता
है। इसलिए मन
और सत्य के
बीच मिलन नहीं
हो सकता।
जब मन
कोई सांसारिक
विषय खोजता है
तो कठिनाई
नहीं है। तब
समस्या
लाइलाज नहीं
है; वह
हल हो सकती
है। लेकिन जब
वही मन सत्य
को खोजने चलता
है तो प्रयत्न
असंगत हो जाता
है। क्योंकि
सत्य यहीं और
अभी है। और मन
सदा वहा और
भविष्य में
होता है। मिलन
संभव नहीं है।
इसलिए पहली
बात समझ लो—तुम
सत्य को नहीं
खोज सकते। तुम
उसे पा सकते हो,
लेकिन खोज
नहीं सकते। यह
खोज ही बाधा
है।
जिस
क्षण तुम
खोजना शुरू
करते हो उसी
क्षण तुम
वर्तमान से, अपने से
दूर निकल जाते
हो। क्योंकि
तुम तो सदा
वर्तमान में
हो। खोजने वाला
सदा वर्तमान
में है और खोज
सदा भविष्य में
है। इसलिए
खोजी और खोज
में मिलन नहीं
हो सकता, चाहे
तुम कुछ भी
खोजो।
लाओत्से कहता
है, खोजो
और खो दोगे।
खोजो मत और पा
लोगे। मत खोजो
और पा लो।
शिव की
ये सारी
विधियां मन को
भविष्य या अतीत
से वर्तमान की
तरफ मोड़ने के
लिए हैं। तुम
जिसे खोज रहे
थे वह उपलब्ध
ही है। वह है
ही, वही
है। सिर्फ मन
को खोज से अखोज
की तरफ, चाह
से अचाह की
तरफ मोड़ना है।
यह कठीन
है। इसके बारे
में बुद्धि से
सोचो तो यह
बहुत कठिन है।
मन को चाह से
अचाह की ओर
कैसे मोड़ा जाए? क्योंकि
तब मन अखोज को
ही खोज का, चाह
को ही अचाह का
विषय बना लेता
है। तब मन कहता
है—मुझे खोजना
नहीं चाहिए।
तब मन कहता है—अब
अचाह मेरा
उद्देश्य है।
तब मन कहता है—अब
मैं अकाम की
अवस्था की
कामना करता
हूं। चाह फिर
प्रवेश कर गई,
पिछले
दरवाजे से
कामना फिर
वापस आ गई।
ऐसे
लोग हैं जो
सांसारिक
विषयों की
कामना करते
हैं और ऐसे
लोग भी हैं जो
गैर—सांसारिक
विषयों की
कामना करते
हैं। लेकिन सब
विषय
सांसारिक हैं; क्योंकि
कामना ही
संसार है, चाह
ही संसार है।
इसलिए तुम
किसी गैर—सांसारिक
या अलौकिक की
कामना नहीं कर
सकते।
तुम्हारे चाहते
से ही वह
संसार हो जाता
है।
अगर
तुम परमात्मा
को चाह रहे हो
तो परमात्मा भी
तुम्हारे
संसार का
हिस्सा हो
गया। अगर तुम
मोक्ष या
निर्वाण
खोजते हो तो
खोजते से ही
तुम्हारा
मोक्ष संसार
हो गया।
तुम्हारा
मोक्ष तब संसार
का अतिक्रमण
नहीं करता है।
क्योंकि
खोजना ही संसार
है, कामना
ही संसार है।
इसलिए तुम
निर्वाण की
कामना नहीं कर
सकते, अचाह
की चाहना नहीं
कर सकते। और
अगर तुम बुद्धि
से इसे समझने
चलो तो यह एक
पहेली बन जाती
है।
शिव
इसके संबंध
में कुछ नहीं
कहते हैं। वे
झटपट विधियों
की बात शुरू
कर देते हैं।
विधियां
बौद्धिक नहीं
हैं। वे देवी
से यह नहीं
कहते कि सत्य
यहीं है; उसे खोजो मत
और उसे पा
लोगी। वे
तुरंत विधि बताने
लगते हैं।
और ये
विधियां गैर—बौद्धिक
हैं। उन्हें
प्रयोग करो और
मन मुड़ जाता
है, पलट
जाता है। यह
मुड़ना उसका
मात्र परिणाम
है, उप—उत्पत्ति
है। वह कोई
विषय नहीं है,
महज उप—उत्पत्ति
है। अगर तुम
किसी विधि को
प्रयोग में
लाए तो
तुम्हारा मन
भविष्य या
अतीत की यात्रा
से मुड़ जाएगा
और तुम अचानक
अपने को
वर्तमान में
पाओगे।
यही
कारण है कि
बुद्ध ने विधि
दी है, लाओत्से
ने विधि दी है,
कृष्ण ने
विधि दी है।
लेकिन
उन्होंने
हमेशा ही अपनी
विधियों को
बौद्धिक
सिद्धातों से
सजाकर पेश
किया है। केवल
शिव का ढंग
दूसरा है। वे
झटपट और सीधे
विधि ही बताते
हैं; उसके
साथ कोई
बौद्धिक समझ
या बौद्धिक
भूमिका नहीं
बताते हैं।
क्योंकि वे
जानते हैं कि
मनुष्य का मन
चालाक है, सर्वाधिक
चालाक है। वह
किसी भी चीज
को समस्या में
बदल सकता है।
अचाह ही
समस्या बन
जाएगी।
लोग
मेरे पास आते
हैं और पूछते
हैं कि कैसे
अचाह हो जाऊं? वे अचाह
की चाहना कर
रहे हैं। किसी
ने उनसे कहां
है, या
उन्होंने
कहीं सुना है,
या कोई
आध्यात्मिक
गए सुनी है कि
अगर तुम इच्छा
न करो तो तुम
आनंद को
प्राप्त हो
जाओगे, इच्छा
न करो तो
मुक्त हो
जाओगे, इच्छा
न करो तो दुख
नहीं रहेगा।
अब उनका मन उस अवस्था
को पाने के
लिए लालायित
हो उठता है
जिसमें दुख
नहीं है और वे
पूछते हैं कि
कैसे इच्छा न
करें।
उनका
मन चालबाजी कर
रहा है। वे अब
भी इच्छा कर
रहे हैं, चाह कर रहे
हैं। अब सिर्फ
इच्छा का विषय
बदल गया है।
पहले वे धन चाहते
थे, यश
चाहते थे, पद—प्रतिष्ठा
चाहते थे। अब
वे अचाह को
चाह रहे हैं।
केवल विषय बदल
गया है, वे
तो' वही
हैं, उनका चाहना
भी वही है।
लेकिन अब वही
चाह अधिक
कपटपूर्ण हो
गई है।
यही
कारण है कि
शिव किसी भूमि
का के बिना ही
शुरू करते हैं, वे तुरंत
विधियों की बात
शुरू कर देते
हैं। वे
विधियां, अगर
उनका प्रयोग
किया जाए, मन
को मोड़ देती
हैं। वह वर्तमान
में आ जाता
है। और जब मन
वर्तमान में
होता है तो वह
ठहर जाता है।
वर्तमान में
तुम मन नहीं
हो सकते। यह
असंभव है।
इस
क्षण भी अगर
तुम यहीं और
अभी हो तो तुम
मन कैसे रह
सकते हो? विचार
विसर्जित हो
जाते हैं, क्योंकि
वे गति नहीं
कर सकते।
वर्तमान में
गति के लिए
स्थान नहीं
है। वर्तमान
में तुम सोच
नहीं सकते।
अगर तुम इसी
क्षण में हो
तो गति कैसे
करोगे? मन
ठहर जाता है
और तुम अ—मन को,
मन—शन्यता
को उपलब्ध हो
जाते हो।
इसलिए
असली बात यह
है कि अभी और
यहीं कैसे हुआ
जाए। तुम
चेष्टा कर
सकते हो, लेकिन
चेष्टा
व्यर्थ होगी।
क्योंकि अगर
तुम वर्तमान
में होने का
निश्चय करते
हो तो वह
निश्चय ही
भविष्य में
खिसक जाना
हुआ। जब तुम
पूछते हो कि
वर्तमान में
कैसे हुआ जाए
तो फिर तुम
भविष्य के लिए
ही पूछ रहे हो।
यह क्षण तो इस
जांच—पड़ताल
में बीत रहा
है कि कैसे
वर्तमान में,
अभी और यहीं
हुआ जाए।
वर्तमान क्षण
पूछताछ में जा
रहा है और
तुम्हारा मन
भविष्य के लिए
सपने बुन रहा
है कि किसी
दिन तुम उस
अवस्था में
होओगे जहा कोई
गति नहीं होगी,
कोई चाह
नहीं होगी और
तब आनंद ही
आनंद होगा।
तो
वर्तमान में
कैसे हुआ जाए? शिव इसके
संबंध में कुछ
नहीं कहते
हैं। वे सिर्फ
विधि देते
हैं। इसे तुम
करते हो, और
अपने को अभी
और यहीं पाते
हो। और
तुम्हारा अभी
और यहीं होना
सत्य है, तुम्हारा
अभी और यहीं
होना
स्वतंत्रता
है, तुम्हारा
अभी और यहीं
होना निर्वाण
है।
आरंभ
की नौ विधिया
श्वास—क्रिया
से संबंध रखती
हैं। इसलिए
पहले हम श्वास—क्रिया
के संबंध में
थोड़ा समझ लें
और फिर विधियों
में प्रवेश
करेंगे।
हम
जन्म के क्षण
से मृत्यु के
क्षण तक
निरंतर श्वास
लेते रहते
हैं। इन दो
बिंदुओं के
बीच सब कुछ
बदल जाता है, सब चीज
बदल जाती है, कुछ भी बदले
बिना नहीं
रहता, लेकिन
जन्म और
मृत्यु के बीच
श्वास—क्रिया
अचल रहती है।
बच्चा जवान
होगा, जवान
का होगा। वह
बीमार होगा, उसका शरीर
रुग्ण और
कुरूप होगा, सब कुछ बदल
जाएगा। वह
सुखी होगा, दुखी होगा, पीड़ा में
होगा, सब
कुछ बदलता
रहेगा। लेकिन
इन दो बिंदुओं
के बीच आदमी
श्वास भर सतत
लेता रहेगा, चाहे और कुछ
भी हो। तुम
सुखी हो कि
दुखी, जवान
हो कि के, सफल
कि असफल—जो भी
हो, वह
अप्रासंगिक
है—लेकिन एक
बात निश्चित
है कि इन दो
बिंदुओं के बीच
तुम्हें
श्वास लेते ही
रहना है।
श्वास—क्रिया
एक सतत प्रवाह
है, उसमें
अंतराल संभव
नहीं है। अगर
तुम एक क्षण के
लिए भी श्वास
लेना भूल जाओ
तो तुम समाप्त
हो जाओगे। यही
कारण है कि
श्वास लेने का
जिम्मा
तुम्हारा
नहीं है, नहीं
तो मुश्किल हो
जाए। कोई एक
क्षण को भी श्वास
लेना भूल जाए
तो फिर कुछ भी
नहीं किया जा
सकता।
इसलिए
यथार्थ में
तुम श्वास
नहीं लेते हो, क्योंकि
उसमें
तुम्हारी
जरूरत नहीं
है। तुम गहरी
नींद में हो
और श्वास चल
रही है। तुम
गहरी मूर्च्छा
में हो और
श्वास चल रही
है। तुम जरूरी
नहीं हो।
तुम्हारे
बावजूद श्वास—क्रिया
जारी रहती है।
श्वसन
तुम्हारे व्यक्तित्व
का एक अचल
तत्व, यह
पहली बात हुई।
और दूसरी बात
कि वह जीवन के
लिए अत्यंत
आवश्यक और
आधारभूत है।
श्वास के बिना
तुम जीवित
नहीं रह सकते।
इसलिए श्वास
और जीवन
पर्यायवाची
हो गए हैं।
श्वास—क्रिया
जीवन की
यांत्रिकी है
और जीवन गहरे
रूप में उससे
जुड़ा है।
इसलिए भारत
में उसे प्राण
कहते हैं।
श्वास और जीवन
दोनों के लिए
हमने यह शब्द
प्राण रखा है।
प्राण का अर्थ
है, जीवन—शक्ति,
जीवंतता।
तुम्हारा
जीवन तुम्हारी
श्वास है।
और
तीसरी बात कि
श्वास
तुम्हारे और
तुम्हारे शरीर
के बीच सेतु
है। सतत श्वास
तुम्हें तुम्हारे
शरीर से जोड़
रही है, संबंधित कर
रही है। और
श्वास न सिर्फ
तुम्हारे और
तुम्हारे
शरीर के बीच
सेतु है, वह
तुम्हारे और
विश्व के बीच
भी सेतु है।
शरीर वह विश्व
है जो
तुम्हारे पास
आया है, जो
तुम्हारे पास
है। तुम्हारा
शरीर विश्व का
ही अंग है।
शरीर की हरेक
चीज, हरेक
कण, हरेक
कोश विश्व का
अंश है। यह
विश्व के साथ
निकटतम संबंध
है। और श्वास
सेतु है। अगर
सेतु टूट जाए
तो तुम शरीर
में नहीं रह
सकोगे; तुम
किसी अज्ञात आयाम
में चले
जाओगे। तब तुम
समय और स्थान
में नहीं पाए
जाओगे। इसलिए
श्वास
तुम्हारे और
देश—काल के
बीच का सेतु
है।
श्वास
इसलिए बहुत
महत्वपूर्ण, सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
हो जाती है।
यही कारण है
कि आरंभ की नौ
विधियां
श्वास से
संबंधित हैं।
अगर तुम श्वास
के साथ कुछ कर सको
तो तुम अचानक
वर्तमान में
लौट आओगे। अगर
तुम श्वास के
साथ कुछ कर
सको तो तुम
जीवन—स्रोत को
उपलब्ध हो
जाओगे। अगर
तुम श्वास के
साथ कुछ कर
सको तो तुम
समय और स्थान
का अतिक्रमण
कर जाओगे। अगर
तुम श्वास के
साथ कुछ कर
सको तो तुम
संसार में भी
होओगे और उसके
पार भी।
श्वास
के दो बिंदु
हैं, दो
छोर हैं। एक
छोर है जहां
पर वह शरीर और
विश्व को छूती
है और दूसरा
छोर है जहां
वह तुम्हें और
विश्वातीत को
छूती है। और
हम श्वास के
एक ही हिस्से
से परिचित
हैं। जब वह
विश्व में, शरीर में
गति करती है, तभी हम उसे
जानते हैं।
लेकिन वह सदा ही
शरीर से अशरीर
में और अशरीर
से शरीर में
संक्रमण कर
रही है। इस
दूसरे बिंदु
को हम नहीं जानते
हैं। और अगर
तुम दूसरे
बिंदु को, जो
सेतु का दूसरा
ध्रुव है, जान
जाओ—तुम एकाएक
रूपांतरित
होकर एक दूसरे
ही आयाम में
प्रवेश कर
जाओगे।
लेकिन
याद रखो, शिव जो कहने
जा रहे हैं वह
योग नहीं है; वह तंत्र
है। योग भी
श्वास पर काम
करता है, लेकिन
योग और तंत्र
के काम में
बुनियादी
फर्क है। योग
श्वास—किया को
व्यवस्थित
करने की
चेष्टा करता
है। अगर तुम
अपनी श्वास को
व्यवस्था दो
तो तुम्हारा
स्वास्थ्य
सुधर जाएगा।
अगर तुम श्वास—क्रिया
को व्यवस्थित
करो, उसके
रहस्यों को
समझो, तो
तुम्हें
स्वास्थ्य और
दीर्घ जीवन
मिलेगा। तुम
ज्यादा बली, ज्यादा
ओजस्वी, ज्यादा
जीवंत, ज्यादा
युवा और
ज्यादा ताजा
हो जाओगे।
लेकिन
तंत्र को उससे
कुछ लेना—देना
नहीं है।
तंत्र श्वास
की व्यवस्था
की चिंता नहीं
लेता, भीतर
की ओर मुड़ने
के लिए वह
श्वास—क्रिया
का उपयोग भर
करता है।
तंत्र में
साधक को किसी
विशेष ढंग की
श्वास का
अभ्यास नहीं
करना है, कोई
विशेष
प्राणायाम
नहीं साधना है,
प्राण को
लयबद्ध नहीं
बनाना है; बस,
उसके कुछ
विशेष
बिंदुओं के
प्रति
बोधपूर्ण रहना
है।
श्वास—प्रश्वास
के कुछ बिंदु
हैं जिन्हें
हम नहीं
जानते। हम सदा
श्वास लेते
रहे हैं, लेते रहेंगे,
हम श्वास के
साथ जन्मते
हैं, श्वास
के साथ मरते
हैं। लेकिन
हमें उसके कुछ
महत्वपूर्ण
बिंदुओं का
बोध नहीं है।
और यह हैरानी
की बात है।
मनुष्य
अंतरिक्ष की
गहराइयों में
उतर रहा है, खोज कर रहा
है। वह चांद.
पर पहुंच रहा
है, वह
पृथ्वी से
निकलकर सुदूर
अंतरिक्ष में
पहुंचने की
चेष्टा कर रहा
है। लेकिन वह
अपने जीवन के
इस निकटतम अंग
को नहीं समझ
सका है। श्वास
के कुछ बिंदु
हैं जिन्हें
तुमने कभी
देखा ही नहीं।
वे बिंदु
द्वार हैं, तुम्हारे
निकटतम द्वार,
जिनसे होकर
तुम एक दूसरे
ही संसार में,
एक दूसरे ही
अस्तित्व में,
एक दूसरी ही
चेतना में
प्रवेश कर
सकते हो।
लेकिन
वे बिंदु बहुत
सूक्ष्म हैं।
चांद का निरीक्षण
बहुत कठिन
नहीं है। चांद
पर पहुंचना भी
बहुत कठिन
नहीं है। वह
एक स्थूल
यात्रा है। यंत्रीकरण
हो, प्राविधि
हो, ढेर सी
सूचनाएं हों,
और तुम चांद
पर पहुंच
जाओगे। श्वास—क्रिया
तुम्हारी
निकटतम चीज
है। लेकिन जो
चीज जितनी ही
निकट होती है
उसे देखना
उतना ही कठिन
हो जाता है।
जो चीज जितनी
निकट हो वह
उतनी ही कठिन
मालूम देती है,
जो चीज
जितनी ही
प्रकट हो उतनी
ही कठिन लगती
है। श्वास
तुम्हारे
इतनी करीब है
कि तुम्हारे
और उसके बीच
स्थान ही नहीं
रहता। या इतना
अल्प स्थान है
कि उसे देखने
के लिए बहुत
सूक्ष्म
दृष्टि
चाहिए। तभी
तुम उन
बिंदुओं के प्रति
बोधपूर्ण हो
सकोगे। और ये
बिंदु इन
विधियों के
आधार हैं।
अब मैं
एक—एक विधि को
लूंगा।
शिव
उत्तर में
कहते हैं. हे
देवी यह अनुभव
दो श्वासों के
बीच घटित हो
सकता है।
श्वास के भीतर
आने के पश्चात
और बाहर लौटने
के ठीक पूर्व—श्रेयस
है कल्याण है।
यह विधि है. 'हे देवी, यह अनुभव दो
श्वासों के
बीच घटित हो
सकता है।’ जब
श्वास भीतर
अथवा नीचे को
आती है उसके
बाद, और
फिर श्वास के
बाहर लौटने के
ठीक पूर्व—' श्रेयस है।’
इन दो
बिंदुओं के
बीच होशपूर्ण
होने से घटना
घटती है।
जब
तुम्हारी
श्वास भीतर आए
तो उसका
निरीक्षण करो।
उसके फिर बाहर
या ऊपर के लिए
मुड़ने के पहले
एक क्षण के
लिए, या
क्षण के
हजारवें भाग
के लिए श्वास
बंद हो जाती
है। श्वास
भीतर आती है
और वहां एक
बिंदु है जहा
वह ठहर जाती
है। फिर श्वास
बाहर जाती है।
और जब श्वास
बाहर जाती है
तो फिर वहा भी
एक क्षण के
लिए या
क्षणांश के
लिए ठहर जाती
है। और फिर वह
भीतर के लिए
लौटती है।
श्वास
के भीतर या
बाहर के लिए
मुड़ने के पहले
एक क्षण है जब
तुम श्वास
नहीं लेते हो।
उसी क्षण में
घटना घटनी
संभव है; क्योंकि जब
तुम श्वास
नहीं लेते हो
तो तुम संसार
में नहीं होते
हो। समझ लो कि
जब तुम श्वास
नहीं लेते हो
तब तुम मृत हो;
तुम तो हो, लेकिन मृत।
लेकिन यह क्षण
इतना छोटा है
कि तुम उसे कभी
देख नहीं
पाते।
तंत्र
के लिए
प्रत्येक
बहिर्गामी
श्वास मृत्यु
है और
प्रत्येक नई
श्वास
पुनर्जन्म
है। भीतर आने
वाली श्वास' पुनर्जन्म
है; बाहर
जाने वाली
श्वास मृत्यु
है। बाहर जाने
वाली श्वास
मृत्यु का
पर्याय है, अंदर आने
वाली जीवन का।
इसलिए
प्रत्येक
श्वास के साथ
तुम मरते हो
और फिर जन्म
लेते हो।
दोनों के बीच
का अंतराल बहुत
क्षणिक है, लेकिन पैनी
दृष्टि, शुद्ध
निरीक्षण
अवधान और अनुभव
छट जा सकता।
यदि तुम उस
अंतराल छ
अनुभव कर सको
तो शिव कहते
हैं कि श्रेयस
उपलब्ध है। तब
और किसी चीज
की जरूरत नहीं
है। तब तुम
आप्तकाम हो
गए। तुमने जान
लिया; घटना
घट गई।
श्वास
को
प्रशिक्षित
नहीं करना है।
वह जैसी है
उसे वैसी ही
रहने दो। फिर
इतनी सरल विधि
क्यों? सत्य को
जानने को ऐसी
सरल विधि? सत्य
को जानना उसको
जानना है
जिसका न जन्म
है न मरण, उस
शाश्वत को
जानना है जो
सदा है। तुम
बाहर जाती श्वास
को जान सकते
हो, तुम
भीतर आती
श्वास को भी
जान सकते हो, लेकिन तुम
दोनों के
अंतराल को कभी
नहीं जानते।
प्रयोग
करो और तुम उस
बिंदु को पा
लोगे। उसे अवश्य
पा सकते हो, वह है।
तुम्हें या
तुम्हारी
संरचना में
कुछ जोड़ना
नहीं है, वह
है ही। सब कुछ
है, सिर्फ
बोध नहीं है।
कैसे प्रयोग
करो? पहले
भीतर आने वाली
श्वास के
प्रति
होशपूर्ण बनो।
उसे देखो। सब
कुछ भूल जाओ
और आने वाली
श्वास को, उसके
यात्रा—पथ को
देखो। जब
श्वास
नासापुटों को
स्पर्श करे तो
उसको महसूस
करो। श्वास को
गति करने दो
और पूरी सजगता
से उसके साथ
यात्रा करो।
श्वास के साथ
ठीक कदम से
कदम मिलाकर
नीचे उतरो, न आगे जाओ और
न पीछे पड़ो।
उसका साथ न
छूटे, बिलकुल
साथ—साथ चलो।
स्मरण
रहे, न
आगे जाना है
और न छाया की
तरह पीछे चलना
है—समांतर चलो,
युगपत।
श्वास और
सजगता को एक
हो जाने दो।
श्वास नीचे
जाती है तो
तुम भी नीचे
जाओ। और तभी
उस बिंदु को
पा सकते हो जो
दो श्वासों के
बीच में है।
यह आसान नहीं
है। श्वास के
साथ अंदर जाओ,
श्वास के
साथ बाहर जाओ।
बुद्ध
ने इसी विधि
का प्रयोग
विशेष रूप से
किया, इसलिए
यह बौद्ध विधि
बन गई। बौद्ध
शब्दावली में
इसे
अनापानसती
योग कहते हैं।
और स्वयं बुद्ध
की' आत्मोपलब्धि
इस विधि पर ही
आधारित थी।
संसार के सभी
धर्म, संसार
के सभी
द्रष्टा किसी
न किसी विधि
के जरिए मंजिल
पर पहुंचे
हैं। और वे सब
विधियां इन एक
सौ बारह
विधियों में
सम्मिलित
हैं। यह पहली विधि
बौद्ध विधि
है। दुनिया
इसे बौद्ध
विधि के रूप
में जानती है,
क्योंकि
बुद्ध इसके
द्वारा ही
निर्वाण को उपलब्ध
हुए थे।
बुद्ध
ने कहां है
अपनी श्वास—प्रश्वास
के प्रति सजग
रहो, अंदर
आती—जाती
श्वास के
प्रति होश
रखो। बुद्ध
अंतराल की
चर्चा नहीं
करते, क्योंकि
उसकी जरूरत
नहीं है।
बुद्ध ने सोचा
और समझा कि
अगर तुम
अंतराल की, दो श्वासों
के बीच के
विराम की
फिक्र करने
लगे, तो
उससे
तुम्हारी
सजगता खंडित
होगी। इसलिए उन्होंने
सिर्फ यह कहां
कि होश रखो; जब श्वास
भीतर आए तो
तुम भी उसके
साथ भीतर आओ और
जब श्वास बाहर
जाए तो तुम भी
उसके साथ ही
बाहर जाओ।
इतना ही करो, श्वास के
साथ—साथ तुम
भी भीतर—बाहर
चलते रहो।
विधि के दूसरे
हिस्से के
संबंध में
बुद्ध कुछ भी
नहीं कहते
हैं।
इसका
कारण है। कारण
यह है कि
बुद्ध बहुत
साधारण लोगों
से, सीधे—सादे
लोगों से बोल
रहे थे। वे
उनसे अंतराल
की बात करते
तो उससे लोगों
में अंतराल को
पाने की एक अलग
कामना
निर्मित हो
जाती। और यह
अंतराल को
पाने की कामना
बोध में बाधा
बन जाती।
क्योंकि अगर
तुम अंतराल को
पाना चाहते हो
तो तुम आगे बढ़
जाओगे, श्वास
भीतर आती
रहेगी और तुम
उसके आगे निकल
जाओगे।
क्योंकि
तुम्हारी
दृष्टि
अंतराल पर है जो
भविष्य में
है। बुद्ध कभी
इसकी चर्चा
नहीं करते; इसलिए बुद्ध
की विधि आधी
है।
लेकिन
दूसरा हिस्सा
अपने आप ही
चला आता है।
अगर तुम श्वास
के प्रति
सजगता का, बोध का
अभ्यास करते
गए तो एक दिन
अनजाने ही तुम
अंतराल को पा
जाओगे।
क्योंकि जैसे—जैसे
तुम्हारा बोध
तीव्र, गहरा
और सघन होगा, जैसे—जैसे
तुम्हारा बोध
स्पष्ट आकार लेगा—जब
सारा संसार
भूल जाएगा, बस श्वास का
आना—जाना ही
एकमात्र बोध
रह जाएगा—तब
अचानक तुम उस
अंतराल को
अनुभव करोगे
जिसमें श्वास
नहीं है।
अगर
तुम
सूक्ष्मता से
श्वास—प्रश्वास
के साथ यात्रा
कर रहे हो तो
उस स्थिति के
प्रति अबोध
कैसे रह सकते
हो जहा श्वास
नहीं है। वह
क्षण आ ही
जाएगा जब तुम
महसूस करोगे
कि अब श्वास न
जाती है, न आती है।
श्वास—क्रिया
बिलकुल ठहर गई
है। और उसी
ठहराव में श्रेयस
का वास है।
यह एक
विधि लाखों—करोड़ों
लोगों के लिए
पर्याप्त है।
सदियों तक समूचा
एशिया इस एक
विधि के साथ
जीया और उसका
प्रयोग करता
रहा। तिब्बत, चीन, जापान,
बर्मा, श्याम,
श्रीलंका—
भारत को
छोड्कर समस्त
एशिया सदियों
तक इस एक विधि
का उपयोग करता
रहा। और इस एक
विधि के द्वारा
हजारों—हजारों
व्यक्ति
ज्ञान को
उपलब्ध हुए।
और यह पहली ही
विधि है।
दुर्भाग्य की
बात कि चूंकि
यह विधि बुद्ध
के नाम से संबद्ध
हो गई, इसलिए
हिंदू इस विधि
से बचने की
चेष्टा में लगे
रहे। क्योंकि
यह बौद्ध विधि
की तरह बहुत
प्रसिद्ध हुई,
हिंदू इसे
बिलकुल भूल ही
बैठे। इतना ही
नहीं, उन्होंने
और एक कारण से
उसकी अवहेलना
की। क्योंकि
शिव ने सबसे
पहले इस विधि
का उल्लेख
किया, अनेक
बौद्धों ने इस
विज्ञान भैरव
तंत्र के
बौद्ध ग्रंथ
होने का दावा
किया है। वे
इसे हिंदू
ग्रंथ नहीं मानते।
यह न
हिंदू है न
बौद्ध, और विधि
मात्र विधि
है। बुद्ध ने
इसका उपयोग किया,
लेकिन यह
उपयोग के लिए
मौजूद ही थी।
और इस विधि के
चलते बुद्ध
बुद्ध हुए।
विधि बुद्ध से
भी पहले थी, वह मौजूद ही
थी। इसको
प्रयोग में
लाओ। यह सरलतम
विधियों में
से है—अन्य
विधियों की
तुलना में; मैं यह नहीं
कहता कि यह
विधि
तुम्हारे लिए
सरल है। अन्य
विधियां अधिक
कठिन होंगी।
यही कारण है
कि पहली विधि
की तरह इसका
उल्लेख हुआ
है।
दूसरी
विधि—आरंभ की
सब नौ विधियां
श्वास से
संबंधित हैं—इस
प्रकार है :
जब
श्वास नीचे से
ऊपर की ओर
मुड़ती है और
फिर जब श्वास
ऊपर से नीचे
की ओर मुड़ती
है—इन दो
मोड़ों के
द्वारा
उपलब्ध हो।
थोड़े फर्क के
साथ यह वही
विधि है, जोर अब
अंतराल पर न
होकर मोड़ पर
है। बाहर जाने
वाली और अंदर
आने वाली
श्वास एक
वर्तुल बनाती
हैं। याद रहे,
वे समांतर
रेखाओं की तरह
नहीं हैं। हम
सदा सोचते हैं
कि आने वाली
श्वास और जाने
वाली श्वास दो
समांतर
रेखाओं की तरह
हैं। मगर वे
ऐसी हैं नहीं।
भीतर आने वाली
श्वास आधा
वर्तुल बनाती है
और शेष आधा
वर्तुल बाहर
जाने वाली
श्वास बनाती
है।
इसलिए
पहले यह समझ
लो कि श्वास
और प्रश्वास
मिलकर एक
वर्तुल बनाती
हैं। और वे
समांतर
रेखाएं नहीं
हैं; क्योंकि
समांतर
रेखाएं कहीं
नहीं मिलती
हैं। दूसरा यह
कि आने वाली
और जाने वाली श्वास
दो नहीं है, वे एक है।
वही श्वास
भीतर आती है, बाहर भी
जाती है।
इसलिए भीतर
उसका कोई मोड़
अवश्य होगा, वह कहीं
जरूर मुड़ती
होगी। कोई
बिंदु होगा, जहां आने
वाली श्वास
जाने वाली
श्वास बन जाती
होगी।
लेकिन
मोड़ पर इतना
जोर क्यों है?
क्योंकि
शिव कहते हैं, 'जब श्वास
नीचे से ऊपर
की ओर मुड़ती
है, और फिर
जब श्वास ऊपर
से नीचे की ओर
मुड़ती है—इन
दो मोड़ों के
द्वारा
उपलब्ध हो।'
बहुत
सरल है। लेकिन
शिव कहते हैं
कि मोड़ों को प्राप्त
कर लो और
आत्मा को
उपलब्ध हो
जाओगे। लेकिन
मोड़ क्यों?
अगर
तुम कार चलाना
जानते हो तो
तुम्हें गियर
का पता होगा।
हर बार जब तुम
गियर बदलते हो
तो तुम्हें न्यूट्रल
गियर से
गुजरना पड़ता
है जो कि गियर
बिलकुल नहीं
है। तुम पहले
गियर से दूसरे
गियर में जाते
हो और दूसरे
से तीसरे गियर
में। लेकिन
सदा तुम्हें
न्यूट्रल गियर
से होकर जाना
पड़ता है। वह
न्यूट्रल
गियर घुमाव का
बिंदु है, मोड़ है।
उस मोड़ पर
पहला गियर
दूसरा बन जाता
है और दूसरा
तीसरा बन जाता
है।
वैसे
ही जब
तुम्हारी
श्वास भीतर
जाती है और
घूमने लगती है
तो उस वक्त वह
न्यूट्रल
गियर में होती
है, नहीं
तो वह नहीं
घूम सकती। उसे
तटस्थ
क्षेत्र से
गुजरना पड़ता
है।
उस
तटस्थ
क्षेत्र में
तुम न तो शरीर
हो और न मन ही
हो, न
शारीरिक हो, न मानसिक
हो। क्योंकि
शरीर
तुम्हारे
अस्तित्व का
एक गियर है और
मन उसका दूसरा
गियर है। तुम
एक गियर से
दूसरे गियर
में गति करते
हो, इसलिए
तुम्हें एक न्यूट्रल
गियर की जरूरत
है जो न शरीर
हो और न मन हो।
उस तटस्थ
क्षेत्र में
तुम मात्र हो,
मात्र
अस्तित्व—शुद्ध,
सरल, अशरीरी
और मन से
मुक्त। यही
कारण है कि
घुमाव—बिंदु
पर, मोड़ पर
इतना जोर है।
मनुष्य
एक यंत्र है—बडा
और बहुत जटिल
यंत्र है।
तुम्हारे
शरीर और मन
में भी अनेक
गियर हैं।
तुम्हें उस
महान यंत्र—रचना
का बोध नहीं
है, लेकिन
तुम एक महान
यंत्र हो। और
अच्छा: है कि तुम्हें
उसका बोध नहीं
है, अन्यथा
तुम पागल हो
जाओगे। शरीर
ऐसा विशाल
यंत्र है कि
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर हमें शरीर
के समांतर एक
कारखाना
निर्मित करना
पड़े तो उसे
चार वर्गमील जमीन
की जरूरत
होगी। और उसका
शोरगुल इतना
भारी होगा कि
उससे सौ
वर्गमील भूमि
प्रभावित होगी।
शरीर
एक विशाल
यांत्रिक
रचना है—विशालतम।
उसमें लाखों —लाखों
कोशिकाएं हैं, और
प्रत्येक
कोशिका जीवित
है। तुम सात
करोड़ कोशिकाओं
के एक विशाल
नगर हो; तुम्हारे
भीतर सात करोड़
नागरिक बसते
हैं, और
सारा नगर बहुत
शांति और
व्यवस्था से
चल रहा है।
प्रतिक्षण
यंत्र—रचना
काम कर रही है,
और वह बहुत
जटिल है।
कई
स्थलों पर इन
विधियों का
तुम्हारे
शरीर और मन की
इस यंत्र—रचना
के साथ वास्ता
पड़ेगा। लेकिन
याद रखो कि सदा
ही जोर उन
बिंदुओं पर
रहेगा जहां
तुम अचानक
यंत्र—रचना के
अंग नहीं रह
जाते हो। जब
एकाएक तुम यंत्र—रचना
के अंग नहीं
रहे तो ये ही
क्षण हैं जब
तुम गियर
बदलते हो।
उदाहरण
के लिए, रात जब तुम
नींद में
उतरते हो तो
तुम्हें गियर
बदलता पड़ता
है। कारण यह
है कि दिन में
जागी हुई
चेतना के लिए
दूसरे ढंग की
यंत्र—रचना की
जरूरत रहती
है। तब मन का
भी एक दूसरा भाग
काम करता है।
और जब तुम नींद
में उतरते हो
तो वह भाग
निष्किय हो
जाता है और
अन्य भाग
सक्रिय होता
है। उस क्षण
वहा एक अंतराल,
एक मोड़ आता
है। एक गियर
बदला। फिर
सुबह जब तुम
जागते हो तो
गियर बदलता
है।
तुम
चुपचाप बैठे
हो और अचानक
कोई कुछ कह
देता है और
तुम क्रुद्ध
हो जाते हो।
तब तुम भिन्न
गियर में चले
गए। यही कारण
है कि सब कुछ
बदल जाता है।
तुम क्रोध में
हुए कि
तुम्हारी
श्वास—क्रिया
बदल जाएगी, वह
अस्तव्यस्त, अराजक हो
जाएगी।
तुम्हारी
श्वास—क्रिया
में कंपन आ
जाएगा, तुम्हारा
दम घुटने
लगेगा। उस समय
तुम्हारा सारा
शरीर कुछ करना
चाहेगा, किसी
चीज को चूर—चूर
कर देना
चाहेगा, ताकि
यह घुटन जाए।
तुम्हारी
श्वास—क्रिया
बदल जाएगी, तुम्हारे
खून की लय
दूसरी होगी, चाल दूसरी
होगी। शरीर
में और ही तरह
का रस—द्रव्य
सक्रिय होगा।
पूरी ग्रंथि—व्यवस्था
ही बदल जाएगी।
क्रोध में तुम
दूसरे ही आदमी
हो जाते हो।
एक कार
खड़ी है, तुम उसे
स्टार्ट करो।
उसे किसी गियर
में न डालकर न्यूट्रल
गियर में छोड़
दो। गाड़ी
हिलेगी, कांपेगी,
लेकिन चल तो
सकती नहीं। वह
गरम हो जाएगी।
इसी तरह क्रोध
में नहीं कुछ
कर पाने के
कारण तुम गरम
हो जाते हो।
यंत्र—रचना तो
कुछ करने के
लिए सक्रिय है
और तुम उसे कुछ
करने नहीं
देते तो उसका
गरम हो जाना
स्वाभाविक है।
तुम एक यंत्र—रचना
हो, लेकिन
मात्र यंत्र—रचना
नहीं हो। उससे
कुछ अधिक हो।
उस अधिक को खोजना
है। जब तुम
गियर बदलते हो
तो भीतर सब
कुछ बदल जाता
है। जब तुम
गियर बदलते हो
तो एक मोड़ आता
है।
शिव
कहते हैं, 'जब श्वास
नीचे से ऊपर
की ओर मुड़ती
है, और फिर
जब श्वास ऊपर
से नीचे की ओर
मुड़ती है—इन
दो मोड़ों के
द्वारा
उपलब्ध हो।'
मोड़ पर
सावधान हो जाओ, सजग हो
जाओ। लेकिन यह
मोड़ बहुत
सूक्ष्म है और
उसके लिए बहुत
सूक्ष्म
निरीक्षण की
जरूरत पड़ेगी।
हमारी
निरीक्षण की
क्षमता नहीं
के बराबर है, हम कुछ देख
ही नहीं सकते।
अगर मैं
तुम्हें कहूं
कि इस फूल को
देखो—इस फूल
को जो तुम्हें
मैं देता हूं—तो
तुम उसे नहीं
देख पाओगे। एक
क्षण को तुम
उसे देखोगे और
फिर किसी और
चीज के संबंध
में सोचने
लगोगे। वह
सोचना फूल के
विषय में हो
सकता है, लेकिन
वह फूल नहीं
होगा। तुम फूल
के बारे में
सोच सकते हो
कि वह कितना
सुंदर है, लेकिन
तब तुम फूल से
दूर हट गए। अब
फूल तुम्हारे
निरीक्षण—
क्षेत्र में
नहीं रहा, क्षेत्र
बदल गया। तुम
कहोगे कि यह
लाल है, नीला
है, लेकिन
तुम उस फूल से
दूर चले गए।
निरीक्षण
का अर्थ होता
है : किसी शब्द
या शाब्दिकता
के साथ, भीतर की
बदलाहट के साथ
न रहकर मात्र
फूल के साथ
रहना। अगर तुम
फूल के साथ
ऐसे तीन मिनट
रह जाओ, जिसमें
मन कोई गति न
करे, तो
श्रेयस घट
जाएगा, तुम
उपलब्ध हो
जाओगे।
लेकिन
हम निरीक्षण
बिलकुल नहीं
जानते हैं। हम
सावधान नहीं
हैं, सतर्क
नहीं हैं। हम
किसी भी चीज
को अपना अवधान
नहीं दे पाते
हैं। हम तो
यहां—वहां
उछलते रहते
हैं। वह हमारी
वंशगत विरासत है,
बंदर—वंश की
विरासत। बंदर
के मन से ही
मनुष्य का मन विकसित
हुआ है। बंदर
शात नहीं बैठ
सकता। इसीलिए
बुद्ध बिना
हलन—चलन के
बैठने पर, मात्र
बैठने पर इतना
जोर देते थे।
क्योंकि तब
बंदर—मन का
अपनी राह चलना
बंद हो जाता
है।
जापान
में एक खास
तरह का ध्यान
चलता है जिसे
वे झाझेन कहते
हैं। झाझेन
शब्द का
जापानी में अर्थ
होता है, मात्र बैठना
और कुछ भी
नहीं करना।
कुछ भी हलचल
नहीं करनी है,
मूर्ति की
तरह वर्षों
बैठे रहना है—मृतवत,
अचल। लेकिन
मूर्ति की तरह
वर्षों बैठने
की जरूरत क्या
है? अगर
तुम अपने
श्वास के
घुमाव को अचल
मन से देख सको
तो तुम प्रवेश
पा जाओगे। तुम
स्वयं में प्रवेश
पा जाओगे, अंतर
के भी पार
प्रवेश पा
जाओगे। लेकिन
ये मोड़ इतने
महत्वपूर्ण
क्यों हैं?
वे
महत्वपूर्ण
हैं, क्योंकि
मोड़ पर दूसरी
दिशा में
घूमने के लिए
श्वास
तुम्हें छोड़
देती है। जब
वह भीतर आ रही
थी तो
तुम्हारे साथ
थी; फिर जब
वह बाहर जाएगी
तो तुम्हारे
साथ होगी। लेकिन
घुमाव—बिंदु
पर न वह
तुम्हारे साथ
है और न तुम
उसके साथ हो।
उस क्षण में
श्वास तुमसे
भिन्न है और तुम
उससे भिन्न
हो। अगर श्वास—क्रिया
ही जीवन है तो
तब तुम मृत
हो। अगर श्वास—क्रिया
तुम्हारा मन
है तो उस क्षण
तुम अ—मन हो।
तुम्हें
पता हो या
नहीं, अगर
तुम अपनी
श्वास को ठहरा
दो तो मन
अचानक ठहर
जाता है। अगर
तुम अपनी
श्वास को ठहरा
दो तो तुम्हारा
मन अभी और
अचानक ठहर
जाएगा; मन
चल नहीं सकता।
श्वास का
अचानक ठहरना
मन को ठहरा
देता है।
क्यों? क्योंकि
वे पृथक हो
जाते हैं।
केवल चलती हुई
श्वास मन से, शरीर से
जुड़ी होती है।
अचल श्वास अलग
हो जाती है।
और तब तुम न्यूट्रल
गियर में होते
हो।
कार
चालू है, ऊर्जा भाग
रही है। कार
शोर मचा रही
है, वह आगे
जाने को तैयार
है। लेकिन वह
गियर में ही
नहीं है।
इसलिए कार का
शरीर और कार
की यंत्र—रचना,
दोनों अलग—
अलग हैं। कार
दो हिस्सों
में बंटी है।
वह चलने को
तैयार है, लेकिन
गति का यंत्र
उससे अलग है।
वही
बात तब होती
है जब श्वास
मोड़ लेती है।
उस समय तुम
उससे नहीं
जुड़े हो। और
उस क्षण तुम
आसानी से जान
सकते हो कि
मैं कौन हूं
यह होना क्या
है। उस समय
तुम जान सकते
हो कि शरीर
रूपी घर के
भीतर कौन है, इस घर का
स्वामी कौन
है। मैं मात्र
घर हूं या वहा
कोई स्वामी भी
है। मैं मात्र
यंत्र—रचना
हूं या उसके
परे भी कुछ
है। और शिव
कहते हैं कि
उस घुमाव—बिंदु
पर उपलब्ध हो।
वे कहते हैं, उस मोड़ के
प्रति
बोधपूर्ण हो
जाओ और तुम
आत्मोपलब्ध
हो।
तीसरी
श्वास विधि
या
जब कभी अंत—श्वास
और
बहिर्श्वास
एक— दूसरे में
विलीन होती
हैं उस क्षण
में ऊर्जारहित
ऊर्जापूरित
केद्र को
स्पर्श करो।
हम केंद्र और
परिधि में
विभाजित हैं।
शरीर परिधि
है। हम शरीर
को, परिधि
को जानते हैं।
लेकिन हम यह
नहीं जानते कि
कहां केंद्र
है। जब
बहिर्श्वास
अंतःश्वास
में विलीन
होती है, जब
वे एक हो जाती
हैं, जब
तुम यह नहीं
कह सकते कि यह
अंतःश्वास है
कि बहिर्श्वास,
जब यह बताना
कठिन हो कि
श्वास भीतर जा
रही है कि बाहर
जा रही है, जब
श्वास भीतर
प्रवेश कर
बाहर की तरफ
मुड़ने लगती है,
तभी विलय का
क्षण है। तब
श्वास न बाहर
जाती है और
न भीतर
आती है। श्वास
गतिहीन है। जब
वह बाहर जाती
है, गतिमान
है; जब वह
भीतर आती है, गतिमान है।
और जब वह
दोनों में कुछ
भी नहीं करती
है, तब वह
मौन है, अचल
है। और तब तुम
केंद्र के
निकट हो। आने
वाली और जाने
वाली श्वासों
का यह विलय—बिंदु
तुम्हारा
केंद्र है।
इसे इस
तरह देखो। जब
श्वास भीतर
जाती है तो कहां
जाती है? वह तुम्हारे
केंद्र को
जाती है। और
जब वह बाहर जाती
है तो कहां से
जाती है? केंद्र
से बाहर जाती
है। इसी
केंद्र को
स्पर्श करना
है। यही कारण
है कि ताओवादी
संत और झेन संत
कहते हैं कि
सिर तुम्हारा
केंद्र नहीं
है, नाभि
तुम्हारा
केंद्र है।
श्वास नाभि—केंद्र
को जाती है, फिर वहां से
लौटती है, फिर—फिर
उसकी यात्रा
करती है।
जैसा
मैंने कहां, श्वास
तुम्हारे और
तुम्हारे
शरीर के बीच
सेतु है। तुम
शरीर को तो
जानते हो, लेकिन
यह नहीं जानते
कि केंद्र कहां
है। श्वास
निरंतर
केंद्र को जा
रही है और वहा से
लौट रही है।
लेकिन हम
पर्याप्त
श्वास नहीं लेते
हैं। इस कारण
से साधारणत:
वह केंद्र तक
नहीं पहुंच
पाती है।
खासकर आधुनिक समय
में तो वह
केंद्र तक
नहीं जाती। और
नतीजा यह है
कि हरेक
व्यक्ति
विकेंद्रित
अनुभव करता है,
अपने को
केंद्र से
च्युत महसूस
करता है। पूरे
आधुनिक संसार
में जो लोग भी
थोड़ा सोच—विचार
करते हैं, वे
महसूस करते
हैं कि उनका
केंद्र खो गया
है।
एक सोए
हुए बच्चे को
देखो, उसकी
श्वास का
निरीक्षण
करो। जब उसकी
श्वास भीतर
जाती है तो
उसका पेट ऊपर
उठता है, उसकी
छाती
अप्रभावित
रहती है। यही
वजह है कि बच्चों
के छाती नहीं
होती, उनके
केवल पेट होते
हैं—जीवंत
पेट। श्वास—प्रश्वास
के साथ उनका पेट
ऊपर—नीचे होता
है। उनका पेट
ऊपर—नीचे होता
है और बच्चे
अपने केंद्र
पर होते हैं, केंद्र में
होते हैं। और
यही कारण है
कि बच्चे इतने
सुखी हैं, इतने
आनंदमग्न हैं,
इतनी ऊर्जा
से भरे हैं कि
कभी थकते नहीं
और ओवरफ्लोइंग
हैं। वे सदा
वर्तमान क्षण
में होते हैं;
न उनका अतीत
है न भविष्य।
एक
बच्चा क्रोध
कर सकता है।
जब वह क्रोध
करता है तो
समग्रता से
क्रोध करता
है। वह क्रोध
ही हो जाता
है। और तब
उसका क्रोध भी
कितना सुंदर लगता
है। जब कोई
समग्रता से
क्रोध करता है
तो उसके क्रोध
का अपना ही
सौंदर्य है।
क्योंकि समग्रता
सदा सुंदर
होती है। तुम
क्रोधी और
सुंदर नहीं हो
सकते। क्रोध
में तुम कुरूप
लगोगे, क्योंकि खंड
सदा कुरूप
होता है।
क्रोध के साथ ही
ऐसा नहीं है, तुम प्रेम
भी करते हो तो
कुरूप लगते
हो। क्योंकि
उसमें भी तुम
खंडित हो, बंटे—बंटे
हो। जब तुम
किसी को प्रेम
कर रहे हो, जब
तुम संभोग में
उतर रहे हो तो
अपने चेहरे को
देखो। आईने के
सामने प्रेम
करो और अपना
चेहरा देखो। वह
कुरूप और
पशुवत होगा।
प्रेम
में भी
तुम्हारा रूप
कुरूप हो जाता
है। क्यों? तुम्हारे
प्रेम में भी
द्वंद्व है, तुम कुछ
बचाकर रख रहे
हो, कुछ
रोक रहे हो; तुम बहुत
कंजूसी से दे
रहे हो। तुम
अपने प्रेम
में भी समग्र
नहीं हो। तुम
समग्रता से, पूरे —पूरे
दे भी नहीं
पाते।
और
बच्चा क्रोध
और हिंसा में
भी समग्र होता
है, उसका
मुखडा दीप्त
और सुंदर हो
उठता है, वह
यहां और अभी
होता है। उसके
क्रोध को न
किसी अतीत से कुछ
लेना—देना है और
न किसी भविष्य
से, वह
हिसाब नहीं
रखता है। वह
मात्र
क्रुद्ध है। बच्चा
अपने केंद्र
पर है। और जब
तुम केंद्र पर
होते हो तो
सदा समग्र
होते हो। तब
तुम जो कुछ करते
हो वह समग्र
होता है। भला
या बुरा, वह
समग्र होता
है। और जब
खंडित होते हो,
केंद्र से
च्यूत होते
हो तो तुम्हारा
हरेक काम भी
खंडित होता है,
क्योंकि
उसमें
तुम्हारा खंड
ही होता है, उसमें
तुम्हारा
समग्र
संवेदित नहीं
होता है। खंड
समग्र के
खिलाफ जाता
है। और वही
कुरूपता पैदा
करता है।
कभी हम
सब बच्चे थे।
क्या बात है
कि जैसे—जैसे
हम बड़े होते
हैं हमारी
श्वास—क्रिया
उथली हो जाती
है? तब
श्वास पेट तक
कभी नहीं जाती
है, नाभि—केंद्र
को नहीं छूती
है। अगर वह
ज्यादा से ज्यादा
नीचे जाएगी तो
वह कम से कम
उथली रहेगी।
लेकिन वह तो
सीने को छूकर
लौट आती है।
वह केंद्र तक
नहीं जाती है।
तुम केंद्र से
डरते हो, क्योंकि
केंद्र पर
जाने से तुम
समग्र हो
जाओगे। अगर
तुम खंडित
रहना चाहो तो
खंडित रहने की
यही
प्रक्रिया
है।
तुम
प्रेम करते
हो। अगर तुम
केंद्र से
श्वास लो तो
तुम प्रेम में
पूरे बहोगे।
तुम डरे हुए हो।
तुम दूसरे के
प्रति, किसी के भी
प्रति खुले
होने से, असुरक्षित
और संवेदनशील
होने से डरते
हो। तुम उसे
अपना प्रेमी
कहो कि
प्रेमिका कहो,
तुम डरे हुए
हो। वह दूसरा
है, और अगर
तुम पूरी तरह
खुले हो, असुरक्षित
हो तो तुम
नहीं जानते कि
क्या होने जा
रहा है। तब
तुम हो, समग्रता
से हों—दूसरे
अर्थों में।
तुम पूरी तरह
दूसरे में खो जाने
से डरते हो।
इसलिए तुम
गहरी श्वास
नहीं ले सकते।
तुम अपनी
श्वास को
शिथिल और ढीला
नहीं कर सकते
कि वह केंद्र
तक चली जाए। क्योंकि
जिस क्षण
श्वास केंद्र
पर पहुंचेगी,
तुम्हारा
कृत्य
अधिकाधिक
समग्र होने
लगेगा।
क्योंकि
तुम समग्र
होने से डरते
हो, तुम
उथली श्वास
लेते हो। तुम
अल्पतम श्वास
लेते हो, अधिकतम
नहीं। यही
कारण है कि
जीवन इतना
जीवनहीन लगता
है। अगर तुम
न्यूनतम
श्वास लोगे तो
जीवन जीवनहीन
ही होगा। तुम
जीते भी
न्यूनतम हो, अधिकतम
नहीं। तुम
अधिकतम जीयो
तो जीवन अतिशय
हो जाए। लेकिन
तब कठिनाई
होगी। यदि
जीवन अतिशय हो
तो तुम न पति
हो सकते हो और
न पत्नी। सब
कुछ कठिन हो
जाएगा। अगर
जीवन अतिशय हो
तो प्रेम
अतिशय होगा।
तब तुम एक से
ही बंधे नहीं
रह सकते। तब
तुम सब तरफ
प्रवाहित
होने लगोगे, सभी आयाम
में तुम भर
जाओगे। और उस
हालत में मन खतरा
महसूस करता है,
इसलिए
जीवित ही नहीं
रहना उसे
मंजूर है।
तुम
जितने मृत होगे
उतने
सुरक्षित
होगे। जितने
मृत होगे उतना
ही सब कुछ
नियंत्रण में
होगा। तुम
नियंत्रण करते
हो तो तुम
मालिक हो।
क्योंकि
नियंत्रण कर सकते
हो, इसलिए
अपने को मालिक
समझते हो। तुम
अपने क्रोध पर,
अपने प्रेम
पर, सब कुछ
पर नियंत्रण
कर सकते हो।
लेकिन यह नियंत्रण
ऊर्जा के
न्यूनतम तल पर
ही संभव है।
कभी न
कभी हर आदमी
ने यह अनुभव
किया है कि वह
अचानक
न्यूनतम से
अधिकतम तल पर
पहुंच गया।
तुम किसी पहाड़
पर चले जाओ।
अचानक तुम शहर
से, उसकी
कैद से बाहर
हो जाओ। अब
तुम मुक्त हो।
विराट आकाश है,
हरा जंगल है,
बादलों को
छूता शिखर है।
अचानक तुम
गहरी श्वास
लेते हो। हो
सकता है, उस
पर तुम्हारा
ध्यान न गया
हो। अब जब
पहाड़ जाओ तो
इसका खयाल
रखना। केवल
पहाड़ के कारण
बदलाहट नहीं
मालूम होती, श्वास के
कारण मालूम
होती है। तुम
गहरी श्वास लेते
हो और कहते हो, अहा! तुमने
केंद्र छू
लिया; क्षणभर
के लिए तुम समग्र
हो गए। और सब
कुछ आनंदपूर्ण
है। श्वास.
शरीर वह आनंद
पहाड़ से नहीं,
तुम्हारे
केंद्र से आ
रहा है। तुमने
अचानक उसे छू
जो लिया।
शहर
में तुम भयभीत
थे। सर्वत्र
दूसरा मौजूद था
और तुम अपने
को काबू में
किए रहते थे।
न रो सकते थे, न हंस
सकते थे। कैसा
दुर्भाग्य, तुम सड़क पर
गा नहीं सकते
थे, नाच
नहीं सकते थे।
तुम डरे—डरे
थे। कहीं
सिपाही खड़ा था,
कहीं
पुरोहित, कहीं
जज खड़ा था, कहीं
राजनीतिज्ञ, कहीं
नीतिवादी।
कोई न कोई था
कि तुम नाच
नहीं सकते थे।
बर्ट्रेंड
रसेल ने कहीं कहां
है कि मैं
सभ्यता से
प्रेम करता
हूं लेकिन हमने
यह सभ्यता
भारी कीमत
चुकाकर हासिल
की है।
तुम
सड़क पर नहीं
नाच सकते, लेकिन
पहाड़ चले जाओ
और वहा अचानक
नाच सकते हो।
तुम आकाश के
साथ अकेले हो
और आकाश
कारागृह नहीं
है। वह खुलता
ही जाता है, खुलता ही
जाता है, अनंत
तक खुलता ही
जाता है।
एकाएक तुम एक
गहरी श्वास
लेते हो, केंद्र
छू जाता है, और तब आनंद
ही आनंद है।
लेकिन
वह लंबे समय
तक टिकने वाला
नहीं है। घंटे
दो घंटे में
पहाड़ विदा हो
जाएगा। तुम
वहा रह सकते
हो, लेकिन
पहाड़ विदा हो
जाएगा।
तुम्हारी
चिंताएं लौट
आएंगी। तुम
शहर देखना
चाहोगे, पत्नी
को पत्र लिखने
की सोचोगे या
सोचोगे कि तीन
दिन बाद वापस
जाना है तो
उसकी तैयारी
शुरू करें।
अभी तुम आए हो
और जाने की
तैयारी होने
लगी! फिर तुम
वापस आ गए। वह
गहरी श्वास सच
में तुमसे
नहीं आई थी।
वह अचानक घटित
हुई थी, बदली
परिस्थिति के
कारण गियर बदल
गया था। नई परिस्थिति
में तुम
पुराने ढंग से
श्वास नहीं ले
सकते थे, इसलिए
क्षणभर को एक
नयी श्वास आ
गई, उसने
केंद्र छू
लिया और तुम
आनंदित थे।
शिव
कहते हैं, तुम
प्रत्येक
क्षण केंद्र
को स्पर्श कर
रहे हो, या
यदि नहीं
स्पर्श कर रहे
तो कर सकते
हो। गहरी, धीमी
श्वास लो और
केंद्र को
स्पर्श करो।
छाती से श्वास
मत लो। वह एक
चाल है; सभ्यता,
शिक्षा और
नैतिकता ने
हमें उथली
श्वास सिखा दी
है। केंद्र
में गहरे
उतरना जरूरी
है, अन्यथा
तुम गहरी
श्वास नहीं ले
सकते।
जब तक
मनुष्य समाज
कामवासना के
प्रति गैर—दमन
की दृष्टि
नहीं अपनाता, तब तक वह
सच में श्वास
नहीं ले सकता।
अगर श्वास पेट
तक गहरी जाए
तो वह काम—केंद्र
को ऊर्जा देती
है, वह काम—केंद्र
को छूती है, उसकी भीतर
से मालिश करती
है। तब काम—केंद्र
अधिक सक्रिय,
अधिक जीवंत
हो उठता है।
और सभ्यता
कामवासना से
भयभीत है।
हम
अपने बच्चों
को
जननेंद्रिय
छूने नहीं देते
हैं। हम कहते
हैं, रुको,
उन्हें छुओ
मत। जब बच्चा
पहली बार
जननेंद्रिय
छूता है तो
उसे देखो, और
कहो, रुको;
और तब उसकी
श्वास—क्रिया
को देखो। जब
तुम कहते हो, रुको, जननेंद्रिय
मत छुओ, तो
उसकी श्वास
तुरंत उथली हो
जाती है।
क्योंकि उसका
हाथ ही काम—केंद्र
को नहीं छू
रहा है, गहरे
में उसकी
श्वास भी उसे
छू रही है।
अगर श्वास उसे
छूती रहे तो
हाथ को रोकना
कठिन होगा। और
अगर हाथ रुकता
है तो
बुनियादी तौर
से जरूरी हो
जाता है कि
श्वास गहरी न
होकर उथली
रहे।
हम काम
से भयभीत हैं।
शरीर का निचला
हिस्सा शारीरिक
तल पर ही नहीं, मूल्य के
तल पर भी
निचला हो गया
है। वह निचला कहकर
निंदित है।
इसलिए गहरी
श्वास नहीं, उथली श्वास
लो।
दुर्भाग्य की
बात है कि
श्वास नीचे को
ही जाती है।
अगर उपदेशक की
चलती तो वह पूरी
यंत्र—रचना को
बदल देता। वह
सिर्फ ऊपर की
ओर, सिर
में श्वास
लेने की इजाजत
देता। और तब
कामवासना
बिलकुल अनुभव नहीं
होती।
अगर
कामविहीन
मनुष्यता को
जन्म देना है
तो श्वास—प्रणाली
को बिलकुल बदल
देना होगा। तब
श्वास को सिर
में, सहस्रार
में भेजना
होगा। और वहा
से मुंह में वापस
लाना होगा।
मुंह से
सहस्रार उसका
मार्ग होगा।
उसे नीचे गहरे
में नहीं जाने
देना होगा, क्योंकि वहा
खतरा है।
जितने गहरे
उतरोगे उतने
ही जैविकी के गहरे
तलों पर
पहुंचोगे। तब
तुम केंद्र पर
पहुंचोगे और
वह केंद्र काम—केंद्र
के पास ही है।
ठीक भी है, क्योंकि
काम ही जीवन
है।
इसे इस
तरह देखो।
श्वास ऊपर से
नीचे को जाने
वाला जीवन है, काम ठीक
दूसरी दिशा से,
नीचे से ऊपर
को जाने वाला
जीवन है। काम—ऊर्जा
बह रही है और
श्वास—ऊर्जा
बह रही है।
श्वास का
रास्ता ऊपर
शरीर में है
और काम का
रास्ता निम्न
शरीर में है।
और जब श्वास
और काम मिलते
हैं तो जीवन
को जन्म देते
हैं, जब वे
मिलते हैं तो
जैविकी को, जीव—ऊर्जा
को जन्म देते
हैं। इसलिए
अगर तुम काम
से डरते हो तो
दोनों के बीच
दूरी बनाओ, उन्हें
मिलने मत दो।
सच तो यह है कि
सभ्य आदमी बधिया
किया हुआ आदमी
है। यही कारण
है कि हम श्वास
के संबंध में
नहीं जानते, और हमें यह
सूत्र समझना
कठिन होगा।
शिव
कहते हैं 'जब कभी
अंतःश्वास और
बहिर्श्वास
एक—दूसरे में
विलीन होती
हैं, उस
क्षण में
ऊर्जारहित, ऊर्जापूरित
केंद्र को
स्पर्श करो।’
शिव
परस्पर
विरोधी
शब्दावली का
उपयोग करते हैं
ऊर्जारहित, ऊर्जापूरित।
वह ऊर्जारहित
है, क्योंकि
तुम्हारे
शरीर, तुम्हारे
मन उसे ऊर्जा
नहीं दे सकते।
तुम्हारे
शरीर की ऊर्जा
और मन की ऊर्जा
वहां नहीं है,
इसलिए जहां
तक तुम्हारे
तादात्म्य का
संबंध है, वह
ऊर्जारहित
है। लेकिन वह
ऊर्जापूरित
है, क्योंकि
उसे ऊर्जा का
जागतिक स्रोत
उपलब्ध है।
तुम्हारे
शरीर की ऊर्जा
तो ईंधन है—पेट्रोल
जैसी। तुम कुछ
खाते—पीते हो
उससे ऊर्जा
बनती है। खाना—पीना
बंद कर दो और
शरीर मृत हो
जाएगा। तुरंत
नहीं, कम
से कम तीन
महीने लगेंगे,
क्योंकि
तुम्हारे पास
पेट्रोल का एक
खजाना भी है।
तुमने बहुत
ऊर्जा जमा की
हुई है, जो
कम से कम तीन
महीने काम दे
सकती है। शरीर
चलेगा, उसके
पास जमा ऊर्जा
थी। और किसी
आपातकाल में उसका
उपयोग हो सकता
है। इसलिए
शरीर—ऊर्जा
ईंधन—ऊर्जा
है।
केंद्र
को ईंधन—ऊर्जा
नहीं मिलती
है। यही कारण
है कि शिव उसे ऊर्जारहित
कहते हैं। वह
तुम्हारे
खाने—पीने पर
निर्भर नहीं
है। वह जागतिक
स्रोत से जुडा
हुआ है, वह जागतिक
ऊर्जा है।
इसीलिए शिव
उसे 'ऊर्जारहित,
ऊर्जापूरित
केंद्र' कहते
हैं। जिस क्षण
तुम उस केंद्र
को अनुभव करोगे
जहा से श्वास
जाती— आती है, जहां श्वास
विलीन होती है,
उस क्षण तुम
आत्मोपलब्ध
हुए।
चौथी
श्वास विधि
या
जब श्वास पूरी
तरह बाहर गई
है और स्वत:
ठहरी है या
पूरी तरह भीतर
आई है और ठहरी
है— ऐसे
जागतिक विराम
के क्षण में
व्यक्ति का
क्षुद्र
अहंकार
विसर्जित हो जाता
है। केवलअशुद्ध
के लिए यह
कठिन है।
लेकिन तब तो यह
विधि सब के
लिए कठिन है, क्योंकि
शिव कहते हैं
कि 'केवल
अशुद्ध के लिए
यह कठिन है.।’
लेकिन
कौन शुद्ध है? तुम्हारे
लिए यह कठिन
है, तुम
इसका अभ्यास
नहीं कर सकते।
लेकिन कभी
अचानक इसका
अनुभव
तुम्हें हो
सकता है। तुम
कार चला रहे
हो और अचानक
तुम्हें लगता
है कि
दुर्घटना
होने जा रही
है। श्वास बंद
हो जाएगी। अगर
वह बाहर है तो बाहर
ही रह जाएगी, भीतर है तो
भीतर ही रह
जाएगी। ऐसे
संकटकाल में
तुम श्वास
नहीं ले सकते;
तुम्हारे
बस में नहीं
है। सब कुछ
ठहर जाता है, विदा हो
जाता है।
'या
जब श्वास पूरी
तरह बाहर गई
है और स्वत:
ठहरी है, या
पूरी तरह भीतर
आई है और ठहरी
है—ऐसे जागतिक
विराम के क्षण
में व्यक्ति
का क्षुद्र
अहंकार
विसर्जित हो
जाता है।’ तुम्हारा
क्षुद्र
अहंकार दैनिक
उपयोगिता की चीज
है। संकट की
घड़ी में तुम
उसे नहीं याद
रख सकते। तुम
जो भी हो, नाम,
बैंक
बैलेंस, प्रतिष्ठा,
सब काफूर हो
जाता है।
तुम्हारी कार
दूसरी कार से
टकराने जा रही
है; एक
क्षण, और
मृत्यु हो
जाएगी। इस
क्षण में एक
विराम होगा, अशुद्ध के
लिए भी विराम
होगा। ऐसे
क्षण में अचानक
श्वास बंद हो
जाती है। और
उस क्षण में अगर
तुम बोधपूर्ण
हो सके तो तुम
उपलब्ध हो
जाओगे।
जापान
में झेन संतों
ने इस विधि का
बहुत उपयोग
किया है।
इसीलिए उनके
उपाय अनूठे, बेतुके
और चकित करने
वाले होते
हैं। उन्होंने
बहुत से ऐसे
काम किए हैं
जिन्हें तुम
सोच भी नहीं
सकते। एक गुरु
किसी को घर के
बाहर फेंक देगा।
अचानक और
अकारण गुरु
शिष्य को
चांटे मारने
लगेगा। तुम
गुरु के साथ
बैठे थे और सब
कुछ ठीक था।
तुम गपशप कर
रहे थे और वह
तुम्हें मारने
लगा ताकि
विराम पैदा
हो।
अगर
गुरु सकारण
ऐसा करे तो
विराम नहीं
पैदा होगा।
अगर तुमने
गुरु को गाली
दी होती और
गुरु तुम्हें
पीटता तो
पीटना सकारण
होता।
तुम्हारा मन
समझ जाता कि
मेरी गाली के
लिए मुझे मार
लगी। असल में
तुम्हारा मन
उसकी अपेक्षा
करता। इसलिए
विराम नहीं
पैदा होगा।
लेकिन याद रहे, झेन गुरु
गाली देने पर
तुम्हें नहीं
मारेगा। वह
हंसेगा, क्योंकि
तब हंसी विराम
पैदा कर सकती
है। तुम गाली
दे रहे थे, अनाप—शनाप
बक रहे थे, और
क्रोध का
इंतजार कर रहे
थे। लेकिन
गुरु हंसना या
नाचना शुरू कर
देता है। यह
अचानक है और इससे
विराम पैदा
होगा। तुम उसे
नहीं समझ
पाओगे। और अगर
नहीं समझ सके
तो मन ठहर
जाएगा। और जब
मन ठहरता है
तो श्वास भी
ठहर जाती है।
दोनों
ढंग से घटना
घटती है। अगर
श्वास रुकती है
तो मन रुक
जाता है, या अगर मन
रुकता है तो
श्वास रुक
जाती है। तुम गुरु
की प्रशंसा कर
रहे थे, तुम
अच्छी मुद्रा
में थे और
सोचते थे कि
गुरु प्रसन्न
ही होगा। और
गुरु अचानक
डंडा उठा लेता
है और तुम्हें
मारने लगता है,
वह भी
बेरहमी से, क्योंकि झेन
गुरु बेरहम
होते हैं। वह
तुम्हें
पीटने लगता है
और तुम समझ
नहीं पाते हो
कि क्या हो
रहा है। उस
क्षण मन ठहर
जाता है, विराम
घटित होता है।
और अगर
तुम्हें विधि
मालूम है तो
तुम
आत्मोपलब्ध
हो सकते हो।
अनेक
कथाएं हैं कि
कोई बुद्धत्व
को उपलब्ध हो गया
जब गुरु अचानक
उसे मारने लगा
था। तुम नहीं
समझोगे। क्या
नासमझी है!
किसी से पिटने
पर या खिड़की
से बाहर फेंक दिए
जाने पर कोई
बुद्धत्व को
कैसे उपलब्ध
हो सकता है? अगर तुम्हें
कोई मार भी
डाले तो भी तुम
बुद्धत्व को
उपलब्ध नहीं
हो सकते!
लेकिन अगर इस
विधि को तुम
समझते हो तो
इस
तरह की
घटनाओं को
समझना आसान।
पश्चिम
में पिछले तीस—चालीस
वर्षों के
दरम्यान झेन
बहुत फैला है—फैशन
की तरह। लेकिन
जब तक वे इस
विधि को नहीं
जानेंगे, वे झेन को
नहीं समझ
सकते। वे इसका
अनुकरण कर सकते
हैं, लेकिन
अनुकरण किसी
काम का नहीं
होता। बल्कि वह
खतरनाक है। यह
चीज अनुकरण
करने की नहीं
है।
समूची
झेन विधि शिव
की चौथी विधि
पर आधारित है।
लेकिन कैसा
दुर्भाग्य कि
अब हमें जापान
से झेन का
आयात करना
होगा; क्योंकि
हमने पूरी
परंपरा खो दी
है, हम उसे
नहीं जानते। शिव
इस विधि के
बेजोड़
विशेषज्ञ थे।
जब वे अपनी
बरात लेकर
देवी को ब्याहने
पहुंचे थे, समूचे नगर
ने विराम
अनुभव किया
होगा।
देवी
के पिता अपनी
बेटी को इस
हिप्पी के साथ
ब्याहने को
बिलकुल राजी
नहीं थे। शिव
मौलिक हिप्पी
थे। देवी के
पिता उनके
बिलकुल खिलाफ
थे। कोई भी
पिता ऐसे
विवाह की
अनुमति नहीं
दे सकता है। इसलिए
हम देवी के
पिता के खिलाफ
कुछ नहीं कह
सकते। कौन
पिता शिव से
विवाह की
अनुमति देगा? और तब
देवी हठ कर
बैठी। और
उन्हें
अनिच्छा से, खेदपूर्वक
अनुमति देनी
पड़ी।
और फिर
बरात आई। कहां
जाता है कि
शिव और उनकी
बरात देखकर
लोग भागने
लगे। समूची
बरात मानो एल
एस. डी, मारिजुआना,
भंग और
गांजा जैसी
चीजें खाकर आई
हो। लोग नशे में
चूर थे। सच तो
यह है कि एल. एस
डी. और
मारिजुआना
आरंभिक चीजें
हैं। शिव और
उनके दोस्तों
और शिष्यों को
उस परम
मनोमद्य का
पता था जिसे
वे सोमरस कहते
थे। एलडुअस हक्सले
ने शिव के
कारण ही परम
मनोमद्य को
सोमा नाम दिया
है। वे मतवाले
थे, नाचते,
गाते, चीखते—चिल्लाते
थे। समूचा नगर
भाग खड़ा हुआ।
अवश्य ही
विराम का
अनुभव हुआ
होगा।
अशुद्ध
के लिए कोई भी
आकस्मिक, अप्रत्याशित,
अविश्वसनीय
चीज विराम
पैदा कर सकती
है। लेकिन
शुद्ध के लिए
ऐसी चीजों की
जरूरत नहीं
है। शुद्ध के
लिए तो हमेशा
विराम उपलब्ध
है। विराम ही
विराम है। कई
बार शुद्ध
चित्त के लिए
श्वास अपने आप
ही रुक जाती
है। अगर
तुम्हारा
चित्त शुद्ध
है—शुद्ध का
अर्थ है कि
तुम किसी चीज
की चाहना नहीं
करते, किसी
के पीछे भागते
नहीं—मौन और
शुद्ध है, सरल
और शुद्ध है, तो तुम बैठे
रहोगे और
अचानक
तुम्हारी
श्वास रुक
जाएगी।
याद
रखो कि मन की
गति के लिए
श्वास की गति
आवश्यक है; मन के तेज
चलने के लिए
श्वास का तेज
चलना आवश्यक
है। यही कारण
है कि जब तुम
क्रोध में
होते हो तो
तुम्हारी
श्वास तेज
चलती है। और
यही कारण है
कि आयुर्वेद
में कहां गया
है कि मैथुन
अतिशय होगा तो
तुम्हारी आयु कम
हो जाएगी।
आयुर्वेद
श्वास से आयु
का हिसाब रखता
है। अगर
तुम्हारी
श्वास—क्रिया
बहुत तीव्र है
तो तुम चिरायु
नहीं हो सकते।
आधुनिक
चिकित्सा
कहती है कि
काम— भोग रक्त—प्रवाह
में और विश्राम
में जाने में
सहयोगी होता
है। और जो लोग
कामवासना का
दमन करते हैं, वे
मुसीबत में
पड़ते हैं, खासकर
हृदय—रोग के
शिकार होते
हैं।
आधुनिक
चिकित्सा ठीक
कहती है। अपनी—
अपनी जगह
आयुर्वेद भी
सही है और
आधुनिक चिकित्सा
भी; यद्यपि
दोनों परस्पर
विरोधी मालूम
होते हैं। आयुर्वेद
का आविष्कार
आज से पांच
हजार वर्ष पहले
हुआ था। तब
आदमी काफी श्रम
करता था; जीवन
ही श्रम था।
इसलिए
विश्राम की
जरूरत नहीं
थी। और रक्त—प्रवाह
के लिए
कृत्रिम
उपायों की भी
जरूरत नहीं
थी। लेकिन अब
जिन लोगों को
बहुत शारीरिक
श्रम नहीं करना
पड़ता है उनके लिए
काम— भोग ही
श्रम है।
इसलिए
आधुनिक आदमी
के बाबत
आधुनिक
चिकित्सा सही
है। वह
शारीरिक श्रम
नहीं करता है, उसके लिए
काम— भोग ही
श्रम है। काम—
भोग में उसकी
हृदय की धड़कन
तेज हो जाती
है, उसका
रक्त—प्रवाह
बढ़ जाता है और
उसकी श्वास—क्रिया
गहरी होकर
केंद्र तक
पहुंच जाती
है। इसलिए
संभोग के बाद
तुम शिथिल
अनुभव करते हो
और आसानी से
नींद में उतर
जाते हो। फ्रायड
कहता है कि
संभोग सब से
बढिया नींद की
दवा, ट्रैक्वेलाइजर
है। और आधुनिक
आदमी के लिए
फ्रायड सही भी
है।
काम—
भोग में, क्रोध में
श्वास—क्रिया
तेज हो जाती
है। काम— भोग में
मन वासना से, लोभ से, अशुद्धियों
से भरा होता
है। जब मन
शुद्ध होता है,
मन में कोई
वासना नहीं
होती है, कोई
चाह, कोई
दौड़, कोई
प्रयोजन नहीं
होता है, तुम
कहीं जा नहीं
रहे होते हो, तुम निर्दोष
जलाशय की तरह
अभी और यहीं
ठहरे हुए होते
हो, कोई
लहर भी नहीं
होती है, तब
श्वास अपने आप
ही ठहर जाती
है—अकारण।
इस
मार्ग पर
क्षुद्र
अहंकार
विसर्जित हो
जाता है, और तुम
उच्चात्मा को,
परमात्मा
को उपलब्ध हो
जाते हो।
आज
इतना ही।
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