अध्याय
5 : सूत्र 1
प्रकृति
स्वर्ग
और पृथ्वी को
सदय होने की
कामना
उत्प्रेरित
नहीं करती;
वे
सभी
प्राणियों के
साथ वैसा ही
व्यवहार
करते हैं, जैसे
कोई
घास-निर्मित
कुत्तों
से
व्यवहार करता
है।
तत्वविद
(संत) भी सदय
नहीं होते।
वे
सभी मनुष्यों
के साथ वैसा
ही व्यवहार
करते
हैं, जैसा
घास-निर्मित
कुत्तों से
किया जाता है।
पृथ्वी
पर जितने
जानने वाले
लोग हुए हैं, उन
सब में
लाओत्से बहुत
अद्वितीय है।
कृष्ण
की गीता में
कोई साधारण
बुद्धि का
व्यक्ति भी
कुछ जोड़ना
चाहे तो जोड़
सकता है।
महावीर के
वचनों में या
बुद्ध और
क्राइस्ट के
वक्तव्यों
में कुछ भी
मिश्रित किया
जा सकता है।
और पता लगाना बहुत
कठिन होगा।
क्योंकि उनके
वक्तव्य ऐसे हैं
कि साधारण
मनुष्य की
नीति और समझ
के प्रतिकूल
नहीं पड़ते। और
इसलिए दुनिया
के सभी शास्त्र
प्रक्षिप्त
हो जाते हैं; इंटरपोलेशन हो जाता है।
दूसरी
पीढ़ियां
उनमें बहुत
कुछ जोड़ देती
हैं। उन
शास्त्रों को
शुद्ध रखना
असंभव है।
लेकिन
लाओत्से की
किताब जमीन पर
बचने वाली उन थोड़ी
सी किताबों
में से एक है, जो
पूरी तरह
शुद्ध है।
इसमें कुछ
जोड़ा नहीं जा
सकता। न जोड़ने
का कारण यह है
कि जो लाओत्से
कहता है, लाओत्से
की हैसियत का
व्यक्ति ही
उसमें कुछ जोड़
सकता है।
क्योंकि
लाओत्से जो
कहता है, वह
साधारण समझ से
इतनी
प्रतिकूल
बातें हैं, सो मच अपोज्ड
टु दि कामन
सेंस, कि
साधारण आदमी
उसमें कुछ भी
जोड़ नहीं
सकता। किसी को
कुछ जोड़ना हो,
तो लाओत्से
होना पड़े। और
लाओत्से होकर जोड़ने में
फिर कोई हर्ज
नहीं है।
यह
वक्तव्य भी
ऐसा ही
वक्तव्य है।
यह आपने कभी
भी न सुना
होगा कि संत
दयावान नहीं
होते हैं। संतों
के संबंध में
जो भी आपने
सुना होगा, जरूर
ही जाना होगा
कि वे परम
दयालु होते
हैं। और
लाओत्से कहता
है कि संत सदय
नहीं होते। इस
वक्तव्य में
जोड़ना बहुत
मुश्किल है।
लाओत्से कहता
है कि जैसे
घास-निर्मित
कुत्तों के
साथ हम
व्यवहार करते
हैं, संत
ऐसा ही
व्यवहार
हमारे साथ
करते हैं।
बहुत अजीब सी
बात मालूम
पड़ती है; इसलिए
समझने जैसी भी
है। और
लाओत्से जितनी
भलीभांति
संतों को
जानता है, शायद
ही कोई और
जानता हो। असल
में, हम
संतों के
संबंध में जो
कहते हैं, वह
हमारी समझ है।
और लाओत्से जो
संतों के संबंध
में कह रहा है,
वह संतों की
समझ है।
इस
सूत्र को शुरू
से समझें।
"स्वर्ग
और पृथ्वी को
सदय होने की
कामना उत्प्रेरित
नहीं करती।'
प्रकृति
बिलकुल ही
दया-शून्य है।
चाहे वह प्रकृति
पृथ्वी पर
प्रकट होती हो
और चाहे
स्वर्ग-आकाश
में,
चाहे वह
शरीर के तल पर
प्रकट होती हो
और चाहे आत्मा
के तल पर, प्रकृति
सदय नहीं है।
इसका यह अर्थ
आप न लेना कि
प्रकृति कठोर
है। साधारणतः
ऐसा ही समझ
में आएगा कि
जो दयावान
नहीं है, वह
क्रूर होगा, कठोर होगा।
नहीं, जो
कठोर हो सकता
है, वह
दयावान भी हो
सकता है। जो
दयावान होता
है, वह
कठोर भी हो
सकता है।
लेकिन
प्रकृति
दोनों नहीं
है। न तो वह
किसी पर दया
करती है और न
किसी पर कठोर
होती है। असल
में, प्रकृति
आपकी चिंता ही
नहीं लेती। आप
हैं भी, आपका
अस्तित्व भी
है, प्रकृति
को इससे भी
प्रयोजन नहीं
है। कल आप नहीं
होंगे, तो
आकाश रोएगा
नहीं और
पृथ्वी आंसू
नहीं गिराएगी।
और कल आप नहीं
थे, तो
पृथ्वी को
आपके न होने
का कोई पता
नहीं था। और
आज आप हैं, तो
प्रकृति को
आपके होने का
कोई पता नहीं
है।
आपके
होने और न
होने से कोई
भी फर्क नहीं
पड़ता है।
वर्षा इसी तरह
होती रहेगी, सूरज
इसी तरह
निकलता रहेगा,
फूल ऐसे ही
खिलेंगे। जिस
दिन आप मरे
होंगे, उस
दिन भी फूल
ऐसे ही
खिलेंगे, जैसे
वे सदा खिलते
रहे हैं। चांद
ऐसे ही निकलेगा
और उसकी चांदनी
की शीतलता में
जरा भी कमी न
होगी। और आकाश
में दौड़ती हुई
बदलियां वैसी
ही दौड़ती
रहेंगी; उनकी
उत्फुल्लता
में कोई अंतर
न पड़ेगा। आपका
होना और न
होना इररेलेवेंट
है, असंगत
है। प्रकृति
को पता ही
नहीं कि आप
हैं।
लेकिन
हम ऐसी
प्रकृति को
नहीं जानते।
हम तो जिस
प्रकृति को
जानते हैं, वह
भी हमारा खयाल
है। अगर मैं
दुखी हूं, तो
चांदनी मुझे
उदास मालूम
पड़ने लगती है।
चांदनी उदास
नहीं होती; क्योंकि उसी
रात में कोई
अपने प्रेमी
को मिल गया
होगा और गीत
गा रहा होगा।
वही चांदनी
किसी के लिए
आनंद होगी और
वही चांदनी
मेरे लिए उदास
है। हो सकता
है, दीवार
के इस तरफ
चांदनी में
मुझे आंसू
मालूम पड़ते
हैं और दीवार
के ठीक उस पार
चांदनी में फूल
खिलते हों।
लेकिन
चांदनी में न
फूल खिलते हैं
और न चांदनी
उदास होती है।
चांदनी को न
मेरा पता है, न
किसी और का
पता है। हम न
भी होते, तो
भी चांदनी ऐसी
ही होती। हम
नहीं होंगे, तब भी ऐसी ही
होगी।
जब
लाओत्से कहता
है कि प्रकृति
सदय नहीं है, तो
वह यह कह रहा
है कि व्यर्थ
दया की भीख
मांगने मत
जाना। न जमीन
पर दया मिल
सकती है और न
आकाश में। हाथ
मत जोड़ना किसी
मंदिर और
मस्जिद के सामने।
किसी
परमात्मा की
प्रार्थना
इसलिए मत करना
कि प्रार्थना
से कुछ भेद पड़
जाएगा। नहीं,
प्रशंसा से
कोई भेद न
पड़ेगा
परमात्मा की
तरफ से; स्तुति
कुछ फर्क न ला
सकेगी, क्योंकि
गालियां भी
कोई अंतर नहीं
लाती हैं। स्तुति
वहीं सार्थक
होती है, जहां
गालियां भी
सार्थक हो
सकती हैं। अगर
परमात्मा को
दी गई मेरी गाली
बेचैन करती हो,
तो मेरी
स्तुति भी
सार्थक हो
सकती है। और
परमात्मा, अगर
मैं
प्रार्थना न
करूं, और
नाराज और कठोर
हो जाए, तो
मेरी स्तुति
उसे पिघला
सकती है, परसुएड
कर सकती है, फुसला सकती
है और राजी कर
सकती है। अगर
परमात्मा को
मैं दयावान
होने के लिए
राजी कर सकता
हूं, तो
फिर परमात्मा
को कठोर होने
के लिए भी
राजी किया जा
सकता है। उस
हालत में
परमात्मा
परमात्मा
नहीं रह जाता,
हमारे हाथ
की कठपुतली हो
जाता है।
लाओत्से
कहता है, उलटी
है बात; हम
उसके हाथ की कठपुतलियां
हैं, वह
हमारे हाथ की
कठपुतली नहीं
है। अगर वह
सदय हो, तो
हम उसके साथ
भी खेल कर
सकते हैं।
इसलिए लाओत्से
कहता है, प्रकृति
सदय नहीं है।
कठोर है, ऐसा
नहीं कहता।
कठोर से कठोर
आदमी भी
दयावान होता
है। कितना ही
कठोर आदमी हो,
चाहे वह तैमूर
हो, चाहे
वह चंगेज हो, चाहे वह
हिटलर हो, कठोर
से कठोर आदमी
भी दयावान
होता है। उसके
हृदय के भी
कमजोर कोने
होते हैं।
किसी को वह
प्यार भी करता
है और किसी की
पीड़ा से दुखी
भी होता है।
मात्रा के
फर्क होंगे।
कठोर आदमी की दया
की सीमा छोटी
होगी, कठोरता
की ज्यादा
होगी। और
दयावान आदमी
की दया की
सीमा बड़ी होगी
और कठोरता की
छोटी होगी। लेकिन
दयावान से
दयावान आदमी
भी कठोर होता
है। उसकी भी
कठोरता की
सीमा होती है।
इसलिए बड़े से
बड़े दयालु आदमी
के पास जाकर
भी आप पाएंगे
कि कुछ हिस्सा
बहुत कठोर है;
कहीं, कहीं
पत्थर भी है
हृदय में!
यह
अनिवार्य है।
क्योंकि इस
जीवन में जो
भी हम जानते
हैं,
वह द्वंद्व
है, डुएल है, दोहरे
में बंटा हुआ
है। जो आदमी
प्रेम करेगा,
वह घृणा भी
करेगा ही। और
जो आदमी क्रोध
करेगा, वह
क्षमा भी
करेगा ही। और
जैसे सुबह
होती है और
सांझ होती है,
ठीक ऐसे ही
आदमी के मन पर
द्वंद्व का
आना और जाना
होता है।
लाओत्से
कहता है, प्रकृति
निर्द्वंद्व
है। लाओत्से
यह कहता है कि
वहां एक-रस
नियम है। उस
एक-रस नियम
में कोई फर्क
नहीं पड़ सकता।
न तो वह दया
करेगा, और
न वह कठोर
होगा। न तो वह
बुरे के लिए
गर्दन काट
देगा और न भले
के लिए
सिंहासन का
इंतजाम करेगा।
इसका अर्थ यह
हुआ कि जो भी
हम करते हैं
और जो भी हम
पाते हैं, वह
अपना ही किया
हुआ और अपना
ही पाया हुआ
है। उसमें प्रकृति
कोई हाथ नहीं बंटाती।
अगर
मेरे पैर में
कांटे गड़ जाते
हैं,
तो इसलिए
नहीं कि
प्रकृति मेरे
पैर में कांटे
गड़ाने को
उत्सुक है; बल्कि इसलिए
कि मैं उन
रास्तों पर
चलने के लिए
उत्सुक हूं, जहां कांटे
हैं। और अगर
मेरे सिर पर
फूलों की
वर्षा हो जाती
है, तो
इसलिए नहीं कि
आकाश के देवता
मेरे ऊपर फूल बरसाने
को आतुर हैं, बल्कि सिर्फ
इसलिए कि मैं
उन वृक्षों की
खोज कर लिया
हूं, जिनके
नीचे बैठने से
फूल बरस जाते
हैं। यह संयोग
है। यह मेरी
ही खोज है, चाहे
वह कांटे की
हो और चाहे फूल
की, और
चाहे मुझे
गालियां
मिलें और चाहे
मुझे प्रेम
मिले, और
चाहे मैं नर्क
में सडूं
और चाहे
स्वर्ग का
संगीत मेरे
चारों ओर
गूंजने लगे, यह मेरी ही
खोज है।
लेकिन
प्रकृति
निरपेक्ष है।
नहीं, प्रकृति
जरा भी उत्सुक
नहीं है। होनी
भी नहीं चाहिए;
क्योंकि
अगर प्रकृति
इसमें उत्सुक
हो, तो
अव्यवस्था हो
जाए।
लाओत्से
कहता है, यही
प्रकृति की
व्यवस्था है
कि वह आप में
बिलकुल
उत्सुक नहीं
है। आप में
उत्सुकता हो,
तो आप
प्रकृति के
नियमों का
दुरुपयोग
शुरू कर दें।
आप में
उत्सुकता हो,
तो आप
प्रकृति को
आदमी के हाथ
के भीतर रख
दें।
लेकिन
प्रकृति आप
में उत्सुक
नहीं है; इसलिए
सदा आपके हाथ
के बाहर है।
और कभी अगर आपकी
प्रार्थनाएं
पूरी हो जाती
हैं, तो
इसलिए नहीं कि
किसी ने
उन्हें सुना,
बल्कि
इसलिए कि आपने
उन
प्रार्थनाओं
को पूरा करने
के लिए कुछ और
भी किया। अगर
आपकी प्रार्थनाएं
पूरी नहीं होतीं,
तो इसलिए
नहीं कि
परमात्मा
नाराज है, बल्कि
इसलिए कि आप
बिलकुल कोरी
प्रार्थनाएं कर
रहे हैं और
उनके पीछे कुछ
भी नहीं है।
अगर प्रार्थनाओं
से बल भी आता
है, तो आप
में ही आता है
और आपका ही
आता है। अगर
मंदिर के
सामने हाथ जोड़
कर आपने
प्रार्थना की
है और लौटते वक्त
पाया है कि
प्राणों में
ताकत ज्यादा
है, संकल्प
ज्यादा सजग है,
पैर ज्यादा
मजबूत हैं, तो यह कहीं
और से आ गई
ताकत नहीं है;
यह मंदिर के
सामने खड़े
होकर
प्रार्थना
करने के खयाल
का परिणाम है।
यह आपका अपना
है। और ऐसे मंदिर
के बाहर भी हो
सकता है, जहां
मंदिर में कुछ
भी न हो।
और
इसलिए कई बार
ऐसा हो जाता
है कि पत्थर
भी आपकी
प्रार्थनाओं
को पूरा करने
में सफल हो
जाते हैं। और
कई बार ऐसा हो
जाता है कि
बुद्ध और महावीर
और लाओत्से की
हैसियत का
आदमी सामने
खड़ा हो और
आपकी
प्रार्थना
अधूरी की
अधूरी रह जाती
है।
नहीं, दूसरी
तरफ बात नहीं
है, आपकी
ही तरफ बात
है। इसको साफ
करने के लिए
लाओत्से कहता
है, प्रकृति
सदय नहीं है।
एक
लिहाज से यह
बहुत कठोर है
बात,
क्योंकि हम
बेसहारा हो
जाते हैं।
हमारे हाथ की
सारी की सारी
क्षमता टूट
जाती है, अगर
कोई कह दे कि
प्रकृति सदय
नहीं है। अगर
मैं गङ्ढे
में गिर रहा
होऊंगा, तो
प्रकृति से
कोई आवाज न
आएगी कि रुक
जाओ। यह कठोर
लगती है बात
और मन को
धक्का भी लगता
है।
इस
धक्के की वजह
से ही लाओत्से
बहुत अधिक
लोगों की समझ
के बाहर पड़ा।
क्योंकि उसने
आपकी किसी
कमजोरी को
पूरा करने का
कोई वचन नहीं
दिया है।
लाओत्से के
पीछे धर्म
बनाना बहुत
मुश्किल है।
क्योंकि धर्म
तो तभी बनता
है,
जब आपकी
कमजोरी का
शोषण किया जा
सके। जो आप चाहते
हैं वही कहा
जाए कि
परमात्मा भी
चाहता है, जो
आप पाना चाहते
हैं वही देने
को परमात्मा
भी राजी हो, तो धर्म
निर्मित होते
हैं।
लाओत्से
के पीछे कोई
धर्म निर्मित
नहीं हो सका।
लाओत्से की
हैसियत का
आदमी वह अकेला
है,
जिसके पीछे
कोई धर्म
निर्मित नहीं
हो सका, कोई
चर्च नहीं खड़ा
हो सका। कैसे
खड़ा होगा? क्योंकि
लाओत्से कहता
है, प्रकृति
सदय नहीं है।
प्रार्थना कट
गई, स्तुति
कट गई, परमात्मा
कट गया; आप
अकेले रह गए।
और अकेले रहने
में हमें इतना
डर लगता है कि
झूठा भी साथ मिल
जाए, तो मन
को राहत होती
है। नहीं हो
कोई साथ, मेरी
नाव बिलकुल
खाली है और
मैं हूं; आंख
बंद करके भी
सपना देख लूं
कि कोई साथ है
नाव पर, अकेला
नहीं हूं, तो
भी राहत मिलती
है। शायद
इसीलिए आदमी
सपने देखता
है। और सपने सोकर ही
देखता हो, ऐसा
नहीं; जाग
कर भी देखता
है।
जिन्हें
हम धर्म कहते
हैं,
वे हमारे
फैलाए गए
बड़े-बड़े
स्वप्न हैं।
जिनमें हमने
वही देख लिया
है, जो हम
चाहते हैं। और
बड़े सस्ते में
देख लिया है।
चूंकि एक आदमी
एक बार भोजन
करता है, या
एक आदमी एक
लंगोटी पहनता
है, या एक
आदमी नग्न खड़ा
हो जाता है, या एक आदमी
रोज मंदिर की घंटियां
बजा देता है, तो वह सोचता
है, मोक्ष
सुनिश्चित
हुआ, निश्चित
हुआ स्वर्ग।
नहीं, प्रकृति
सदय नहीं है।
लेकिन
दया की भीख
कौन मांगते
हैं?
दया की भीख
सदा ही गलत
लोग मांगते
हैं। ठीक आदमी
दया की भीख
नहीं मांगेगा।
मिलती भी हो, तो इनकार
करेगा।
क्योंकि जो
दया करके पाया
जाता है, वह
कभी पाया ही
नहीं जाता। जो
दया से मिलता
है, वह कभी
मिल ही नहीं
पाता, वह
हमारे
प्राणों का
कभी हिस्सा
नहीं हो पाता।
जो हमारे श्रम
से ही
आविर्भूत
होता है, वही
केवल हमारी
संपदा है।
लाओत्से
कहता है, प्रकृति
सदय नहीं है।
कठोर है? कठोर
भी नहीं है।
प्रकृति
सिर्फ आपके
प्रति निरपेक्ष
है। आपके
प्रति
प्रकृति का
कोई भाव नहीं
है, निर्भावी है।
पक्ष-विपक्ष
नहीं है। हम
सदा तोड़ कर
सोचते हैं, प्रकृति
मित्र है या
शत्रु है।
नहीं प्रकृति मित्र
है, नहीं
प्रकृति
शत्रु है।
प्रकृति आपका
कोई लेखा-जोखा
नहीं रखती। आप
एकाउंटेबल
ही नहीं हैं।
आपका कोई
हिसाब नहीं
रखा जाता है।
आप न होते, तो
कुछ कमी नहीं
होती। आप होते
हैं, तो
कुछ बढ़ नहीं
जाता है। पानी
पर खींची गई
लकीरों जैसा
हमारा होना है;
पानी को कोई
अंतर नहीं
पड़ता। लकीर
खिंच भी नहीं
पाती कि मिट
जाती है और
बुझ जाती है।
सदय नहीं है, इसका अर्थ? इसका अर्थ
है, आपके
प्रति कोई भाव
नहीं है।
यह एक
दृष्टि से
कठोर, दूसरी
दृष्टि से
बहुत ही
आनंदपूर्ण
बात है। क्योंकि
अगर प्रकृति
भी भाव रखती
हो, तो
वहां भी
पक्षपात हो ही
जाएगा। फिर कोई
वहां भी धोखा
देने में
समर्थ हो
जाएगा। फिर
वहां कोई पाप
भी करेगा और
स्वर्ग भी
पहुंच जाएगा,
और कोई
पुण्य भी
करेगा और नर्क
में सड़ेगा।
अगर कोई भी
भाव है
अस्तित्व के
पास, तो
चुनाव शुरू हो
जाएगा।
इसलिए
सारे दुनिया
के धर्म, जो कि
चुनाव पर ही
खड़े हैं और
प्रकृति के
सदय होने की
धारणा पर खड़े
हैं, निर्णय
करते हैं। अगर
हम मुसलमान से
पूछें कि गैर-मुसलमान
का क्या होगा?
तो मुसलमान
को लगता है, भटकेगा दोजख
में, कोई
उपाय नहीं है
गैर-मुसलमान
के लिए। ईसाई
से पूछें, गैर-ईसाई
का क्या होगा?
तो जो ईसा
के पीछे नहीं
है, वह
अंधेरे में
भटक जाएगा!
परमात्मा ने
तो अपना बेटा
भेज दिया। अब
जो उसके बेटे
के साथ हो
जाएंगे, वे
बच जाएंगे। जो
उसके बेटे के
साथ नहीं
होंगे, वे
मिट जाएंगे।
अगर
परमात्मा का
कोई बेटा है, तो
उपद्रव होगा।
और अगर
परमात्मा के
बेटे के पक्ष
में होने की
सुविधा है और
अस्तित्व भी
उसके पक्ष में
हो जाएगा, तो
फिर कठिनाई
है।
नहीं, लाओत्से
कहता है, प्रकृति
का कोई बेटा
नहीं।
प्रकृति का
कोई अपना नहीं,
क्योंकि
प्रकृति का
कोई पराया
नहीं है। प्रकृति
किसी को
स्वीकार नहीं
करती, क्योंकि
प्रकृति किसी
को इनकार नहीं
करती है।
प्रकृति का
कोई पक्ष नहीं
है; प्रकृति
पक्षधर नहीं
है।
यह
आनंद की बात
है एक अर्थ
में। इसलिए
जिसकी जितनी
सामर्थ्य और
जिसका जितना
बल,
वही हो
जाएगा। कोई
पक्षपात नहीं
होगा। अगर नर्क
होगा, तो
मेरा अर्जन।
और अगर स्वर्ग
होगा, तो
मेरा अर्जन। न
मैं किसी को
दोषी ठहरा
पाऊंगा और न
किसी को
उत्तरदायी। न
मैं किसी को
धन्यवाद दे
पाऊंगा और न
किसी को
गालियां दे
पाऊंगा कि
तुम्हारी वजह
से सब गड़बड़ हो
गई है।
लाओत्से
के इस वचन का
अर्थ है, अल्टीमेटली आई एम दि रिस्पांसिबल;
अल्टीमेट रिस्पांसिबिलिटी
इज़ विद
मी। आत्यंतिक
रूप से मैं ही
दायित्व का भागीदार
हूं, कोई
और नहीं।
इसलिए
लाओत्से का
दूसरा वचन और
भी कठोर मालूम
पड़ता है। कहता
है,
"स्वर्ग और
पृथ्वी को सदय
होने की कामना
उत्प्रेरित
नहीं करती। वे
सभी
प्राणियों के
साथ वैसा ही
व्यवहार करते
हैं, जैसे
कोई
घास-निर्मित
कुत्तों से
व्यवहार करे।'
घास-निर्मित
कुत्ते से आप
कैसा व्यवहार
करेंगे? अगर
घास-निर्मित
कुत्ता पूंछ
हिलाने लगे, तो आप
प्रसन्न
होंगे? आप
कहेंगे, घास
का कुत्ता है।
अगर
घास-निर्मित
कुत्ता भौंकने
लगे, तो आप
भयभीत होंगे,
भागेंगे?
आप कहेंगे,
घास का
कुत्ता है।
घास का कुत्ता
आपको किसी भी
दिशा में
उत्प्रेरित न
कर सकेगा। न
तो आप भागेंगे
और न आप
प्रसन्न
होंगे।
लेकिन
अगर खयाल भी आ
जाए कि घास का
कुत्ता असली
है,
तो आप
उत्प्रेरित
हो जाएंगे।
झूठा भी, घास
का ही हो
कुत्ता, लेकिन
आपको पता न हो
और समझें कि
असली है, तो
उसकी हिलती
पूंछ आपके
भीतर भी कुछ
हिला जाएगी।
कुछ भीतर
प्रसन्न हो
जाएगा, गदगद!
कुत्ता
आदमी इसीलिए
पालता है, क्योंकि
आदमी खोजना
मंहगा काम है
जो आपके पीछे
पूंछ हिलाए।
सभी एफोर्ड
नहीं भी कर
सकते हैं, मंहगा
है। जो कर
सकते हैं, वे
कर लेते हैं।
एक आदमी एक
कुत्ते को पाल
लेता है। घर
लौटता है आदमी
थका हुआ, पत्नी
का तो कोई
भरोसा नहीं कि
पूंछ हिलाएगी।
पत्नी होने के
बाद बिलकुल ही
भरोसा नहीं; पहले हो भी
सकता था।
लेकिन एक
कुत्ता
दरवाजे पर
रहेगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
के एक मित्र
ने उससे एक
दिन कहा है, बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया हूं।
शादी जब तक
नहीं की थी, घर लौटता था,
तो कुत्ता
भौंकता था, पत्नी चप्पल
उठा कर लाती
थी। अब हालत
बिलकुल बदल गई
है। पत्नी भौंकती
है, कुत्ता
चप्पल उठा कर
लाता है। नसरुद्दीन
ने कहा, लेकिन
मैं कोई फर्क
नहीं देखता।
दि सेम सर्विसेज!
परेशान क्यों
हो? काम
पूरा हो रहा
है; वही
काम पूरा हो
रहा है; करने
वाले बदल गए
हैं, इससे
तुम परेशान
क्यों हो? चप्पल
भी मिल जाती
है; भौंकना
भी मिल जाता
है।
आदमी
कुत्ते की
पूंछ से भी
प्रसन्न होता
है। उसके
भौंकने से
भयभीत भी होता
है। घास के
कुत्ते से भी
यही हो सकता
है,
अगर पता न
हो। क्योंकि
हम असलियत से
नहीं जीते, हम अपनी
धारणाओं से
जीते हैं।
मेरी धारणा ही
मेरे असलियत
का जगत है।
लाओत्से
कहता है, प्रकृति
ऐसा व्यवहार
करती है, जैसे
हम सब घास के
कुत्ते हों।
वह हमसे
उत्प्रेरित
नहीं होती।
इसमें बड़ी
गहराई है, बड़ी
गहरी
अंतर्दृष्टि
है। प्रकृति
के लिए हम घास
के कुत्ते हैं
ही। मेटाफोरिकली
ही नहीं, प्रतीकात्मक
ही नहीं, वस्तुतः।
प्रकृति के
लिए हम घास के
कुत्ते से ज्यादा
होंगे भी क्या?
जहां
तक हमारा
संबंध है, वहां
तक हम घास के
भरे हुए पुतले
ही हैं। आप में
से घास निकाल
लिया जाए, पीछे
कुछ भी नहीं
बचता फिर।
शरीर हमारा
सिर्फ घास है।
भोजन है, पानी
है, हड्डी-मांस-मज्जा
है। वह सब
हमारा शरीर का
जोड़ है। और
हमें तो जरा
भी पता नहीं
है कि शरीर से
ज्यादा भी
हमारे भीतर
कुछ है। शरीर
ही हम हैं। इस
शरीर को खोल
कर देखें, तो
सिवाय घास के
और कुछ भी न
मिलेगा।
वैज्ञानिक
कहते हैं, कोई
चार-पांच रुपए
का सामान है
आदमी के भीतर।
कुछ एल्युमिनियम
है, कुछ
तांबा है, कुछ
लोहा है, कुछ
फासफोरस
है। ज्यादा तो
पानी है, कोई
अस्सी
प्रतिशत से
ऊपर। फिर
मिट्टी है। और
यह सब घास से
ही बना है।
जिसे हम जीवन
कहते हैं आज, अगर हम
वैज्ञानिक से
पूछें, तो
वह कहता है, यह सब घास का
ही विकास है, वेजिटेबल। यह उसका ही
विकास है। और
आज भी हम उसी
पर जीते हैं।
एक आदमी साल
भर में एक टन
घास शरीर में
डालता है, तब
जी पाता है।
चौबीस घंटे
घास डालनी
पड़ती है।
अपनी-अपनी घास
अलग-अलग हो
सकती है। उससे
हम जीते हैं।
वही हमारा
ईंधन है। वही
हमारा अस्तित्व
और हमारा शरीर
है।
तो
लाओत्से अगर
कहता है, प्रकृति
हमें घास के
कुत्तों से
ज्यादा नहीं जानती,
तो नाराज
होने की जरूरत
नहीं है। हम
भी नहीं जानते
हैं कि हम
इससे ज्यादा
हैं। प्रकृति
ऐसा ही जाने, यह उचित है; लेकिन हम भी
ऐसा ही जानें,
यह उचित
नहीं है। पर
हमें कोई पता
नहीं है: हमारे
भीतर के शरीर
के अलावा भी
कुछ हम में है?
कुछ मिट्टी
को छोड़ कर भी? सुनते हैं
आत्मा की बात,
समझ तो नहीं
पाते हैं।
क्योंकि समझ
हम वही पा सकते
हैं, जो
हमारा जानना
बन जाए!
लेकिन
और अर्थों में
भी हम घास के
जैसे ही हैं।
कभी आपने देखा, खेत
में झूठा आदमी
बना कर खड़ा कर
देते हैं। घास
भर देते हैं
और हंडी सिर
पर टांग देते
हैं। जानवरों
को भगाने के
काम आ जाता
है। जानवरों
को सच्चा ही
मालूम पड़ता है,
इसीलिए
उत्प्रेरित
हो जाते हैं, डर जाते हैं,
भयभीत हो
जाते हैं। कभी
रात अंधेरी हो
और अपरिचित
जगह हो, तो
आपको भी डरा
सकता है घास का
पुतला खेत में
खड़ा हुआ। आपकी
भावना ही प्रोजेक्ट
होती है, उस
घास के पुतले
पर सवार हो
जाती है। घास
के पुतले को
देख कर हम
उत्प्रेरित
हो सकते हैं।
अभी भी
हम जो
उत्प्रेरित
होते हैं, वह
घास के पुतले
को देख कर ही
उत्प्रेरित
होते हैं। अगर
एक सुंदर शरीर
मुझे आकर्षित
कर लेता है, तो क्या
मैंने कभी
सोचा है कि
घास मुझे
उत्प्रेरित
कर रहा है? अगर
एक आदमी के
शरीर की हत्या
करने को मैं
आतुर हो जाता
हूं, तो
क्या कभी
मैंने सोचा है
कि मैं घास को
काटने के लिए,
घास में
छुरा भोंकने
के लिए आतुर
हो रहा हूं? किसी का
होना मुझे
खुशी देता है
और किसी का न
होना मुझे दुख
से भर जाता है,
तो क्या
मैंने कभी
सोचा है कि
घास के पुतले
की इतनी
मौजूदगी, गैर-मौजूदगी
इतना अंतर
मुझमें डाल
देती है?
लाओत्से
कहता है, प्रकृति
को प्रयोजन
नहीं है। वह
आपको घास के कुत्तों
जैसा जानती
है। आप नहीं
हैं, सिर्फ
ताश का घर
हैं।
लेकिन
प्रकृति के
संबंध में हम
समझने को राजी
भी हो जाएं, लाओत्से
और भी कठिन
बात कहता है।
वह कहता है, तत्वविद भी सदय नहीं
होते। वे जो
जानते हैं संत,
वे भी सदय
नहीं होते।
संत तो
सदा ही सदय
होते हैं। हम
तो कहते हैं, वे
महा दयावान
हैं। महावीर
के भक्त कहते
हैं, वे
परम क्षमावान
हैं। बुद्ध के
भक्त कहते हैं,
वे परम
कारुणिक हैं।
जीसस के भक्त
कहते हैं कि
उनका आना ही
इसलिए हुआ कि
लोगों को दया
करके वे उनके
दुख से
छुटकारा दिला
दें। कृष्ण के
भक्त कहते हैं
कि जब भी दुख
होगा तब वे
दया करके आएंगे
और लोगों को
मुक्त कर
लेंगे। हम तो
यही जानते रहे
हैं अब तक कि संत
सदय होते हैं।
लेकिन
लाओत्से कहता
है,
संत भी सदय
नहीं होते।
क्योंकि संत
वही है, जिसने
प्रकृति के
आंतरिक तत्व
के साथ अपनी
एकता साध ली
है। नहीं तो
वह संत नहीं
है। अगर प्रकृति
ऐसी है, अगर
अस्तित्व ऐसा
है कि सदय
नहीं है, तो
संत कैसे सदय
हो सकते हैं!
संत का अर्थ
ही है, जो
अस्तित्व के
सत्य को
उपलब्ध हो गया,
जिसने सत्य
के साथ एकता
साध ली। अगर
सत्य ही सदय
नहीं है, तो
संत कैसे सदय
हो सकते हैं!
क्योंकि संत
का अर्थ ही यह
है कि जो सत्य
के साथ एक हो
गया।
संत
सदय नहीं होते!
तत्काल हमारे
मन में
द्वंद्व खड़ा
हो जाता है, कठोर
होते होंगे।
नहीं, कठोर
भी नहीं होते।
न कठोर होते
हैं, न
विनम्र होते
हैं; द्वंद्व
के बाहर होते
हैं। वे जो
करते हैं, इसलिए
नहीं कि आपके
ऊपर कठोर हैं;
इसलिए भी
नहीं कि आपके
ऊपर उनकी दया
है; वे वही
करते हैं, जो
उनकी प्रकृति
उनसे चुपचाप
कराए चली जाती
है--स्पांटेनियस
और सहज। अगर
आप एक संत के
चरणों में
जाकर सिर रख
देते हैं और
वह आपके सिर
पर हाथ रखता
है, तो
इसलिए नहीं कि
उसको दया है
आप पर। ऐसा भी
हो सकता है कि
वह सिर पर हाथ
न रखे, धक्का
मार दे और हटा
दे। तो भी जरूरी
नहीं कि वह
कठोर है आपके
प्रति।
रिंझाई
जब सबसे पहले
अपने गुरु के
पास गया, तो
उसका गुरु
बहुत ही कठोर
आदमी था, ऐसी
लोगों में खबर
थी। लोगों की
खबरें आमतौर से
गलत होती हैं।
न उन्हें इसका
पता है कि संत
सदय होते हैं
या कठोर होते
हैं। उन्हें
संत का ही पता
नहीं है।
रिंझाई जब
जाने लगा, तो
गांव के लोगों
ने कहा कि मत
जाना उस बूढ़े
के पास, वह
आदमी कठोर है।
रिंझाई ने कहा,
लोगों ने
मुझसे कहा
फलां संत बहुत
दयावान है, मैं उनके
पास भी जाकर
देखा। मैंने
पाया, उनमें
कोई दया नहीं।
अब तुम कहते
हो, यह
आदमी कठोर है;
इसके पास भी
जाकर देखूं।
बहुत संभावना
यही है कि तुम
भी गलत होओगे।
तुम सदा ही
गलत होते हो।
उस आदमी ने
हंस कर कहा, लौट कर तुम
खुद ही कहोगे।
यह तुम पहले
आदमी नहीं हो,
जिसको
मैंने यह खबर
दी है। और
जिनको भी
मैंने खबर दी,
उन्होंने
लौट कर कहा कि
ठीक कहते थे, अच्छा होता
हम न गए होते।
रिंझाई
गया। उसका
गुरु द्वार पर
बैठा था हाथ में
एक डंडा लिए।
झेन फकीर एक
डंडा अपने हाथ
में रखते रहे
हैं सदा से।
पता नहीं, शंकर
ने अपने
संन्यासियों
को डंडा क्यों
दिया? कम
से कम
हिंदुस्तान
को तो पता
नहीं है। शायद
उसका ठीक-ठीक
डंडे का कभी
उपयोग शंकर के
संन्यासी ने
किया नहीं।
क्योंकि
हिंदुस्तान
में संन्यासी
के बाबत हमारी
धारणा सदय
होने की है।
वह दंडीधारी
संन्यासी तो
कहलाता है, लेकिन उस
डंडे का उपयोग
सिर्फ एक फकीरों
के वर्ग ने
किया है जापान
में, झेन फकीरों
ने। गुरु डंडा
लिए बैठा था।
रिंझाई उसके
सामने जाकर झुकता
था।
गुरु
ने कहा, रुक!
मैं सभी को
पैर नहीं छूने
देता। पहले
मेरी बात का
जवाब दे दे, फिर तू पैर
छू सकता है।
रिंझाई
ने कहा, क्या
है सवाल?
उसके
गुरु ने कहा, सवाल
पीछे बताऊंगा,
पहले तुझे
यह बता दूं कि
तू हां में
जवाब दे, तो
भी यह डंडा
तेरे सिर पर
पड़ेगा; तू
न में जवाब दे,
तो भी यह
डंडा तेरे सिर
पर पड़ेगा। असल
में, तू
कोई भी जवाब
दे, डंडा
तो पड़ेगा ही।
तू पहले सोच
ले।
रिंझाई
ने कहा, तो
मैं पहले पैर
पड़ लूं और आप
डंडा मार लें;
जवाब-सवाल
पीछे हो
जाएगा। जब
डंडा पड़ना
ही है, तो
इसकी चिंता को
निपटा देना
उचित है। इसे
पहले निपटा
लें, पीछे
हम बात कर
लेंगे। उसने
सिर चरणों में
रखा और गुरु
को कहा, वह
डंडा मार लें,
ताकि यह
डंडे का काम
समाप्त हो
जाए। फिर आप
पूछ लें।
उसके
गुरु ने डंडा
नीचे रख दिया
और उसने कहा, तो
शायद तुझे
मारने की
जरूरत मुझे
नहीं पड़ेगी।
रिंझाई
ने पूछा, बात
क्या है?
उसके
गुरु ने कहा, जो
भी मेरे पास
दया की भीख
मांगते आते
हैं, मेरा
अस्तित्व
उनके प्रति
कठोर हो जाता
है। मैं नहीं
होता, बस
ऐसा हो जाता
है। उस तरफ
भीख, और
इधर मैं कठोर
हो जाता हूं!
उस तरफ
मालकियत, इधर
मैं सदय हो
जाता हूं!
लेकिन असली
बात यह है, उस
बूढ़े फकीर ने
कहा कि मैं
दोनों के बाहर
हो गया हूं।
अपनी तरफ से
कुछ भी नहीं
होता। जो हो
जाता है, उसके
लिए मैं राजी
हो जाता हूं।
अगर मेरा हाथ डंडा
उठा लेता है, तो मैं डंडा
मारता हूं।
अभी हाथ ने
डंडा छोड़ दिया,
तो मैंने
डंडा छोड़ दिया
है।
असल
में,
संत सहज
होते हैं। सहज
का अर्थ आप
समझ लें।
अकारण, जो
भीतर से उनका
अस्तित्व
करता है, वे
उसी के साथ
बहते हैं। च्वाइसलेस
फ्लोइंग! कोई
चुनाव उनका
नहीं है। सदय
वे नहीं हो
सकते, दया
वे नहीं कर
सकते। कठोर भी
वे नहीं हो
सकते। लेकिन
कभी वे दयावान
मालूम होते
हैं, वह
हमारी समझ है।
और कभी वे
कठोर मालूम
होते हैं, वह
भी हमारी समझ
है। और हमारी
समझ पागल की
समझ है। हम जो
समझते हैं, वैसा शायद
ही कभी होता
है।
एक
मित्र दो
महीने पहले
मेरे पास आए।
कोई पांच वर्ष
से आते हैं।
सदा आकर वह
मुझे कहते हैं
कि आपको
दो-चार दिन
नहीं देख पाता, आपके
दर्शन नहीं कर
पाता, तो
मन बड़ा बेचैन
हो जाता है।
ऐसा उन्होंने
इतनी बार कहा
है कि मुझे
मान लेना
चाहिए कि वे
ठीक कहते
होंगे। आपके
दर्शन नहीं कर
पाता हूं दो-चार
दिन, तो मन
बड़ा बेचैन हो
जाता है, यह
उन्होंने
इतनी बार कहा
है कि कोई
कारण नहीं
दिखाई पड़ता कि
इससे भिन्न कोई
बात होगी।
बहुत बार उनसे
कहना चाहा, लेकिन मैंने
नहीं कहा। इस
बार दो महीने
पहले आए थे, तो मैंने
उनसे कहा कि
एक बात पूछूं,
इतने दिन से
आप आते हैं, कहते हैं, आपका दर्शन
न करूं तो मन
बड़ा बेचैन हो
जाता है। कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि आप मुझे
दर्शन नहीं दे
पाते दो-चार
दिन तो मन
बेचैन हो जाता
हो?
उन्होंने
कहा,
आप कैसी बात
कर रहे हैं? कभी नहीं, ऐसा खयाल ही
मुझे कभी नहीं
उठा।
खयाल न
भी उठा हो; खयाल
का उठना जरूरी
नहीं है। हम
अपने को धोखा देने
में इतने कुशल
हैं!
मैंने
कहा,
फिर भी
सोचना।
उन्होंने
कहा,
सोचने का
कोई सवाल ही
नहीं है। आपको
नहीं देख पाता,
आपकी चर्चा
नहीं कर पाता,
आपका
प्रवचन नहीं
सुन पाता, आपकी
किताब नहीं पढ़
पाता जिस दिन,
उस दिन मन
बड़ा बेचैन हो
जाता है।
पंद्रह
दिन बाद वे
फिर आए। चार
मित्रों के
साथ आए थे।
मैंने तीन को
देखा, उनको
नहीं देखा।
तीन से बात की,
उनसे बात
नहीं की। तीन
को माना कि वे
कमरे में हैं,
उनको नहीं
माना कि वे
कमरे में हैं।
उन्होंने पैर
छुए, मेरी
तरफ देखा।
मैंने ऐसे
देखा, जैसे
वहां कोई नहीं
है। बेचैन हो
गए। एक कोने में
बैठ गए। मैंने
देखा कि वे आज
दूसरे आदमी हैं।
सब बदल गया
है। मुझे
पूछना चाहिए
था, पत्नी
कैसी है? बेटी
कैसी है? बेटा
कैसा है? तो
वे समझते थे
कि मेरा दर्शन
करने आए हैं।
दर्शन तो आज
भी मेरा हुआ, लेकिन उनका
दर्शन मैंने
नहीं किया।
जाते वक्त पैर
छूकर वे नहीं
गए। जाते वक्त
उन्होंने जब
दरवाजा लगाया,
तो मैं समझा
कि यह दरवाजा
सदा के लिए
लगा गए हैं, अब इस
दरवाजे के
भीतर नहीं
आएंगे।
नहीं
आए। किताबें
मेरी फेंक दी
हैं,
किसी ने
मुझे खबर दी।
अब मेरे बिना
काम मजे से चल
रहा है। इतना
ही नहीं, अब
जब तक वे दिन
में दोत्तीन
घंटे लोगों के
पास जाकर मुझे
गालियां नहीं
दे लेते, तब
तक उनको चैन
नहीं पड़ती है।
क्या हो गया? वे वर्षों
से कहते थे कि
आपके दर्शन के
बिना चैन नहीं
पड़ती। मैं
जानता था कि
मेरा दर्शन
नहीं है असली
बात।
लेकिन
ऐसा मैं न
कहूंगा कि वे
जान कर ऐसा कर
रहे थे। नहीं, उन्हें
पता ही नहीं
था। हम इतने
धोखेबाज हैं,
खुद को भी
पता नहीं होने
देना चाहते
हैं। खुद को
भी पता नहीं
होने देते हैं
कि हमारे भीतर
क्या है। उस
दिन जब मैंने
उनको दस मिनट
तक ध्यान ही
नहीं दिया, तब कितना
कचरा और कितना
घास उसी वक्त
उसी कमरे में
उनसे गिर गया,
उसका हिसाब
लगाना
मुश्किल है।
उनके जाने के
बाद कमरा
बोझिल और भारी
हो गया।
अभी एक
घटना घटी है।
एक महिला
मुझसे मिलने
आई। दस
मिनट--उसके मन
में बहुत कुछ
था,
किसी के
प्रति क्रोध,र्
ईष्या, वैमनस्य--वह
सब उसने
निकाला। वह तो
हलकी होकर चली
गई। ठीक उसके
पीछे एक युवक
प्रवेश किया।
उस युवक ने
कमरे के भीतर
आकर बेचैनी से
देखा और उसने
कहा कि आई फील वेरी स्ट्रेंज,
बात क्या है?
मैंने उससे
कहा, तू
घबड़ा मत, थोड़ी
देर बैठ। अभी
एक महिला थोड़ी
सा घास यहां गिरा
गई है; थोड़ी
हवा भारी है।
अभी उसका रोग
चारों तरफ प्रतिध्वनित
है। एक पांच
मिनट बिखर
जाने दे, फिर
ठीक हो जाएगा।
कचरा
हमारे शरीर
में ही नहीं
है,
मन में और
भी ज्यादा है।
और शरीर से ही
मल-मूत्र का
त्याग होता हो,
ऐसी भूल में
मत पड़ना, मन से भी
मल-मूत्र का
दिन-रात त्याग
करना पड़ता है।
इसलिए आप किसी
के प्रति
चौबीस घंटे
प्रेम से भरे
नहीं रह सकते।
नहीं तो
मल-मूत्र का
त्याग कहां
करिएगा? उसके
प्रति घृणा
आपको बतानी
पड़ेगी। जैसे
हर घर में
हमें गुसलखाने
का इंतजाम
करना पड़ता है,
हर मन में
घृणा का भी
इंतजाम करना
पड़ता है। वहां
कचरा इकट्ठा
हो जाता है; फिर वह कहां
निकलेगा?
इसलिए
पति और पत्नी
में ही डायवोर्स
नहीं होते, गुरु
और शिष्य में
भी डायवोर्स
चलते हैं। कोई
खयाल नहीं
लेता उसका, लेकिन चलते
हैं। चलेंगे
ही। मित्र और
मित्र में भी
चलते हैं। बाप
और बेटे में
चलते हैं।
चलेंगे ही। क्योंकि
जिसके प्रति
हमने प्रेम
दिखाया, हम
उसके लिए बिना
गुसलखाने
के हो गए।
हमारा पूरा घर
बैठकखाना हो
गया उसके लिए।
गुसलखाना
कहां जाएगा? उसे हमें
छिपा कर रखना
पड़ेगा। धीरे-धीरे
बैठकखाना
छोटा होता
जाएगा, गुसलखाना
बड़ा होगा; क्योंकि
बढ़ता जाएगा, बढ़ता जाएगा।
एक दिन
बैठकखाना
बिलकुल सिकुड़
जाएगा और सारे
घर में
मल-मूत्र फैल
जाएगा। यह होगा,
यह मन के
द्वंद्व के
साथ अनिवार्य
है।
लाओत्से
कहता है, वे
संत द्वंद्व
में नहीं
जीते। वे न किसी
को प्रेम करते
हैं, और
इसलिए ही वे
किसी को घृणा
नहीं करते।
इसे
ठीक से समझ
लें। हमारा
तर्क और है।
हम कहते हैं, चूंकि
मैं आपको
प्रेम करता
हूं, इसलिए
आपको घृणा
नहीं करता। यह
तर्क बिलकुल ही
गलत है। जब भी
कोई आपसे कहे
कि मैं आपको
प्रेम करता
हूं, तब
दूसरा हिस्सा
जो वह छोड़ रहा
है वह यह कि
इसलिए मैं
आपको घृणा
करूंगा। वह
दूसरा हिस्सा
अनिवार्य तर्क
है। लेकिन उसे
हम छिपा जाते
हैं। फिर उसका
फल भोगना पड़ता
है।
लाओत्से
कहता है, वे
किसी को प्रेम
नहीं करते, क्योंकि वे
किसी को घृणा
नहीं करते। वे
किसी पर दया
नहीं करते, क्योंकि वे
किसी के प्रति
क्रूर और कठोर
नहीं हैं। वे
किसी को कभी
क्षमा नहीं
करते, क्योंकि
वे कभी क्रोध
नहीं करते
हैं। इस द्वंद्व
को ठीक से समझ
लें। ये एक ही
सिक्के के दो
पहलू साथ ही
साथ चलते हैं,
चाहे आप एक
पहलू को छिपा
लें। कितनी
देर छिपाइएगा?
फिर बोरडम
पैदा होती है।
जिसको छिपाते
हैं, उसे
देखने की
जिज्ञासा
जगती है। और
जिसे बहुत देखते
हैं, उससे
हटने का मन
होता है। फिर
पहलू बदलना
पड़ता है।
प्रेमी का
अनिवार्य
परिणाम यही है
कि वह घृणा से
भर जाए। और
मित्रता अगर
पक्की है, तो
शत्रुता पैदा
होगी। पक्की
है तो। कच्ची
है, तो चल
सकती है।
इसलिए
मेरे पास बहुत
लोग आते हैं, वे
कहते हैं, फलां
व्यक्ति आपको
इतना प्रेम
करता था, इतनी
श्रद्धा करता
था, वह
आपके खिलाफ
क्यों हो गया?
मैं कहता
हूं, इसीलिए।
यह उनके खयाल
में नहीं आता
इसीलिए; क्योंकि
वे तो यह खयाल
लेकर आए हैं
कि जो इतना प्रेम
करता था, उसे
तो खिलाफ होना
ही नहीं
चाहिए। और मैं
तो इतना प्रेम
आपको नहीं भी
करता हूं, वह
मुझे कहता है,
मैं खिलाफ
नहीं हुआ। तो
मैं कहता हूं,
इसीलिए।
यह
इसीलिए को ठीक
से देख लें तो
लाओत्से समझ में
आ जाएगा। वह
कहता है, संत
द्वंद्व के
बाहर हैं।
इसलिए अगर आप समझते
हैं कि महावीर
आप पर दया
करते हैं, यह
आपकी ही समझ
है। इसमें
महावीर कहीं
भी जिम्मेवार
नहीं हैं। और
अगर आप समझते
हैं, महावीर
की आंख आप पर
तेज है और
कठोर है, यह
आपकी ही समझ, आपका इंटरप्रिटेशन,
आपकी
व्याख्या है;
महावीर का
इससे कुछ
लेना-देना
नहीं है। संत
द्वंद्व में
अपने को
विभाजित नहीं
करता।
लेकिन
यह लाओत्से
कहता है, "वे
भी सभी
मनुष्यों के
साथ ऐसा
व्यवहार करते
हैं, जैसे
घास-निर्मित
कुत्तों के
साथ किया जाता
है।'
संत और
लोगों के साथ
ऐसा व्यवहार, जैसे
घास-निर्मित
कुत्तों के
साथ! संत तो सब
के भीतर
परमात्मा देखता
है। संत और
किसी के भीतर
घास-निर्मित
कुत्ते को
देखेगा!
घास-निर्मित
कुत्ते में भी
उसको
घास-निर्मित
कुत्ता नहीं
देखना चाहिए।
कुत्ते में भी
उसको
परमात्मा ही
दिखाई पड़ता है,
ऐसा हमने
सुना है।
लाओत्से क्या
कह रहा है? यह
बिलकुल उलटी
बात कह रहा
है।
लेकिन
यह उलटी बात
नहीं है। यह
उसी बात का
दूसरा हिस्सा है।
जो आदमी सब
में परमात्मा
देखता है, वह
आप में
घास-निर्मित
कुत्ता
देखेगा। इसे
थोड़ा समझ लें।
आप में--जो
आदमी सब में
परमात्मा देखता
है, वह आप
में
घास-निर्मित
कुत्ता
देखेगा--आप
में कह रहा
हूं।
अस्तित्व में
तो उसे परमात्मा
ही दिखाई पड़ता
है। लेकिन आप
अस्तित्व
नहीं हो, सिर्फ
घास-निर्मित
एक गठरी, एक
गांठ, एक कांप्लेक्शन
हो! आप आदमी
नहीं हो। आप
सिर्फ एक गांठ
हो बीमारियों
की। और आदमी
तो गांठ के
पीछे छिपा है।
जब संत
कहते हैं
उन्हें सब में
परमात्मा
दिखाई पड़ता है, तो
वे गांठ को
बाद देकर कह
रहे हैं, आपको
हटा कर कह रहे
हैं। आपसे
नहीं कह रहे
हैं। आपके पार
जो बैठा है, जिससे आपकी
कोई मुलाकात
नहीं हुई कभी,
उससे कह रहे
हैं। सुनते हो
आप; समझते
हो, आपसे
कही गई बात।
आप सिर्फ गांठ
हो बीमारियों की;
एक ग्रंथि!
उस ग्रंथि को
संत
घास-निर्मित
कुत्ते की तरह
ही देखते हैं।
वह ग्रंथि है
हमारा
अहंकार। वही
हम हैं। उसी
से लगता है, मैं हूं।
उसे वे इससे
ज्यादा मूल्य
नहीं देते।
लेकिन वह
अहंकार बड़े
रास्ते खोजता
है कि कहीं से
मूल्य मिल
जाए। वह संतों
के चरणों में
जा सकता है और
बाहर अकड़ कर
निकल सकता है
कि संत के
चरणों तक
पहुंचने का
मुझे मौका
मिला--मुझे! जब
दूसरे पीछे
खड़े रह गए थे, तब भी मैं
चरणों तक
पहुंच गया! और
जब संत ने दूसरों
की तरफ देखा
भी नहीं, तब
मेरी तरफ देखे
कैसी उनकी
प्यार से भरी
आंख थी!
यह आंख
किसी भी दिन
पत्थर की हो
जाएगी। यह आंख
आपका निर्माण
है।
इसलिए
लाओत्से जैसे
लोग बहुत बड़ी
भीड़ को प्रभावित
नहीं कर पाते।
क्योंकि भीड़
तो उनसे प्रभावित
होती है, जो
उनके अहंकार
को फुसलाने की
कला जानते
हों। सेल्समैनशिप,
आदमी के साथ
सारा काम कला
का है। अमरीका
में हजारों
किताबें लिखी
जाती हैं इधर
इन बीस वर्षों
में, जो
लोगों को
सिखाती हैं कि
हाऊ टु इनफ्लुएंस
पीपुल, हाऊ टु विन फ्रेंड्स!
कैसे जीतें
लोगों का दिल,
पतियों को कैसे पकड़ें,
पत्नियों
को कैसे फंसाएं,
ग्राहक को
कैसे माल
बेचें!
हजार-हजार
रास्ते समझाती
हैं। सब
रास्तों का
सार एक है कि
दूसरे आदमी के
अहंकार को
कैसे फुसलाएं।
अगर एक
कुरूप से
कुरूप स्त्री
भी आपके
अहंकार को
फुसलाने में
समर्थ हो जाए, तो
मुमताज और नूरजहां
दो कौड़ी
की हो जाती
हैं। सौंदर्य
स्त्री के
शरीर में कम, उसके परसुएशन
में है। इसलिए
कई दफा कुरूप
स्त्रियां
चमत्कार पैदा
कर देती हैं
और सुंदर
स्त्रियां
पीछे क्यू में
खड़ी रह जाती
हैं। कई बार
साधारण
बुद्धि का
आदमी
प्रभावशाली
नेता हो जाता
है और असाधारण
बुद्धि के
आदमी को कोई
पूछने वाला
नहीं मिलता।
राज क्या है? वह जानता है
कि दूसरे के
अहंकार को
कैसे फुसलाएं।
इस जगत
में कोई चीज
नहीं बिकती और
न कोई चीज कब्जा
की जा सकती है, जब
तक आप दूसरे
के अहंकार पर
तरकीबें न सीख
लें। और दूसरे
के अहंकार को
फुसलाने से
आसान क्या है!
बहुत आसान है।
क्योंकि
दूसरा फिसलने
को राजी ही
है। सदा तैयार
है, इसी
उत्सुकता में
है कि आप फिसलाओ।
आप एक कदम सरकाओ,
वह दस कदम
गिरने को
तैयार है!
लाओत्से
जैसा आदमी
प्रभावी नहीं
हो सकता, क्योंकि
वह कहता है, तुम्हारा
अहंकार सिवाय
घास-निर्मित
कुत्ते के और
कुछ भी नहीं।
कनफ्यूशियस
लाओत्से को
मिलने आया, तो
वहां कोई
बैठने की जगह
न थी, कोई
कुर्सी न थी, कोई ऊंचा
आसन न था। कनफ्यूशियस
तो बहुत नियमविद
आदमी था। उसने
चारों तरफ
कमरे के देखा
बैठने के पहले,
कहां बैठे।
लाओत्से ने
कहा, कहीं
भी बैठ जाओ, कमरे को
तुम्हारी कोई
भी फिक्र नहीं
है। कमरा कोई
चिंता न लेगा;
कहीं भी बैठ
जाओ। मैं यहां
बहुत देर से
बैठा हूं; कमरे
ने मेरी तरफ
देखा ही नहीं।
कनफ्यूशियस
बैठ तो गया।
लेकिन बेचैन
हो गया। कभी
ऐसा जमीन पर
नहीं बैठा था।
लाओत्से ने
कहा,
शरीर तो बैठ
गया है; तुम
भी बैठ जाओ।
वह अहंकार अभी
पीछे खड़ा था।
लाओत्से ने
कहा, जब
बैठ ही गए हो, तो अब तुम भी
बैठ जाओ। शरीर
तो बैठ ही गया
है।
बैठ तो
गया,
लेकिन कनफ्यूशियस
सुन नहीं पाया
कि लाओत्से ने
क्या कहा। अगर
आपसे सौ शब्द
बोले जाएं, तो
निन्यानबे
नहीं सुने
जाते हैं।
नेपोलियन हिल,
अमरीका के
एक कुशल
विचारक ने कहा
है कि अगर दूसरे
आदमी के भीतर
प्रवेश करना
हो, तो
सबसे पहले
उसके अहंकार
को थोड़ी सी
खुशामद दो। तब
वह सुनने को
राजी होता है।
नहीं तो वह
सुनता भी
नहीं। सुनता
भी नहीं!
आप
यहां आए। अगर
आते ही मैं
आपसे पूछता कि
आपके मन में
कौन सा विचार
चल रहा है? तो
आप सब अगर
ईमानदारी से
अपने विचार
बताएं, तो
सबके मन में
कुछ न कुछ चल
रहा होगा। अगर
मुझे आपसे बात
करनी है, तो
मुझे आपके
भीतर की
अंतर्धारा तोड़नी
पड़ेगी। तो ही
मेरी बात
प्रवेश करेगी;
अन्यथा
आपके कान मुझे
सुनते रहेंगे,
आंखें मुझे
देखती रहेंगी,
भीतर की
अंतर्धारा
जारी रहेगी।
वह
नेपोलियन हिल
कहता है, अगर
दूसरे की
अंतर्धारा तोड़नी है, तो पहले
उसके अहंकार
को फुसलाओ।
तब वह सुनने
को एकदम राजी
हो जाता है। उसने
अपना एक
संस्मरण लिखा
है। उसका खयाल
है कि आदमी
चार चीजों के
आस-पास, इर्द-गिर्द
घूमता है: यश, धन, वासना,
जीवेषणा।
इनके
इर्द-गिर्द
घूमता रहता
है। ये सब
अहंकार के ही
हिस्से हैं।
उनको चार, आठ
कितना ही कोई
कहे। अगर किसी
आदमी को आपको
राजी करना है,
तो हिल जैसे
लोग कहते हैं
कि इन चार में
से कहीं से
प्रवेश करो।
वह एक
बस में चढ़ा
है। बस तेजी
से भागी जा
रही है। जोर
की वर्षा है।
और उसको पचपन
नंबर के स्टैंड
पर उतर जाना
है। ड्राइवर
से उसने कहा
कि खयाल रखना, मुझे
पचपन नंबर के
स्टैंड पर याद
दिला देना कि
पचपन नंबर आ
गया। कहीं ऐसा
न हो कि मैं
आगे-पीछे चला
जाऊं। रात अंधेरी
है और वर्षा
बहुत हो रही
है।
ड्राइवर
ने कहा, मैं
किस-किस को
याद दिलाऊंगा!
और वर्षा की
वजह से मुझे
खुद भी ठीक
दिखाई नहीं पड़
रहा है कि कौन
सा नंबर निकला
जा रहा है। अपना
खयाल रखना। और
भी लोगों ने
मुझसे कहा है।
फिर मैं
ट्रैफिक पर
ध्यान रखूं कि
नंबरों का
खयाल रखूं?
दूसरा
आदमी होता, चुपचाप
पीछे चला
जाता।
नेपोलियन हिल
ने सोचा, प्रयोग
करना उचित है।
उसने कहा कि
और इसलिए और
भी कह रहा हूं
कि पचपन नंबर
के स्टैंड के
पास जमीन में गङ्ढा
खुदा है, सड़क
खोदी जा रही
है; जरा होश
से चलाना!
वह
पीछे जाकर खड़ा
हो गया। और
सबके नंबर भूल
गए ड्राइवर को, पचपन
नंबर नहीं
भूला। पचपन
नंबर पर गाड़ी
धीमी करके
उसने कहा, लेकिन
वह गङ्ढा
कहां है? नेपोलियन
हिल ने उससे
कहा, गङ्ढा वगैरह कोई
भी नहीं है; लेकिन
तुम्हारे
भीतर जो
अंतर्धारा है,
उसको तोड़ कर
पचपन नंबर
डालना जरूरी
है।
अगर
मौत का खयाल आ
जाए,
तो अहंकार
को धक्का लग
जाता है। धन
का खयाल आ जाए,
तो धक्का लग
जाता है।
वासना का खयाल
आ जाए, तो
धक्का लग जाता
है। यश का
खयाल आ जाए, तो धक्का लग
जाता है। धारा
टूट जाती है; ओपनिंग हो
जाती है। वहां
से भीतर
प्रवेश किया
जा सकता है।
लाओत्से
जैसे लोग कैसे
प्रवेश करें
आपके भीतर? क्योंकि
न वे धन की बात
करेंगे, न
यश की बात
करेंगे, न
पद की बात
करेंगे, न
वासना की बात
करेंगे। वे
कोई बात न
करेंगे। वे
आपसे कह रहे
हैं, तुम
कुत्ते हो
घास-निर्मित।
इनकी कोई
सुनेगा? कनफ्यूशियस ने लौट कर
अपने शिष्यों
से क्या कहा, आपको पता है?
उसने
कहा,
उस बूढ़े के
पास कोई मत
जाना कभी। वह
आदमी क्या है,
सिंह मालूम
पड़ता है, किसी
को खा जाएगा।
इतना कठोर
आदमी मैंने
नहीं देखा।
मैं उसके
सामने एकदम
घबड़ा गया।
उसने जो भी
कहा, मुझे
पता नहीं, क्या
कहा। मैंने
सुना भी ठीक
से नहीं, मैं
सुन भी नहीं
सका। उस आदमी
की तरफ आंख
उठाना बहुत
कठिन है।
लाओत्से
सदय भी नहीं
है,
कठोर भी
नहीं है।
लेकिन कनफ्यूशियस
को कठोर लगा
होगा।
क्योंकि कनफ्यूशियस
जैसा महा
विचारक, प्रतिष्ठा
थी उसकी
लाओत्से से
ज्यादा। लाओत्से
को कम लोग
जानते थे, कनफ्यूशियस को ज्यादा।
और ढाई हजार
साल में
लाओत्से ने नहीं
चीन के मन को
निर्मित किया,
कनफ्यूशियस ने निर्मित
किया। तो कनफ्यूशियस
ज्यादा
प्रतिष्ठित
था। सम्राट
उसको सम्मान देते
थे। सम्राट उठ
कर उसको बैठने
को कहते थे।
और एक बूढ़े
फकीर ने उससे
कहा, बैठ
भी जा, कमरे
को तेरी कोई
फिक्र नहीं
है। उसका मन
और बंद हो गया
होगा।
संत
सदय नहीं हैं।
संत इतने
एकात्म को
उपलब्ध हो गए
हैं अस्तित्व
से कि
अस्तित्व ही
उनके भीतर से
बोलता, अस्तित्व
ही उनके भीतर
से व्यवहार
करता, अस्तित्व
ही उनके भीतर
से चलता-उठता
है; संत
नहीं। यह स्मरण
रहे, तो
लाओत्से का यह
बहुत अजीब सा
दिखने वाला
सूत्र आसान हो
जाएगा। और काश,
हम संतों को
इस भांति देख
सकें, तो
संतों के
संबंध में
हमारी सारी
दृष्टि और हो
जाएगी। हम और
ढंग से देख
पाएंगे, सोच
पाएंगे।
लेकिन
संत के पास भी
हम अपनी
दृष्टि लेकर
जाते हैं। हम
संत को समझने
नहीं जाते, हम
अपनी दृष्टि
का आंकलन करने
जाते हैं। यदि
हम सुनते भी
हैं संत को, तो हम इस
हिसाब से
सुनते हैं कि
कौन सी बात
इसमें सही है।
सही का मतलब
क्या होता है?
आपसे कौन सी
बात मेल खाती
है। सत्य का
क्या मतलब
होता है? जिसको
आप सत्य मानते
हैं, वह
अगर मेल खाता
हो, तो
आदमी ठीक है।
अगर वह मेल न
खाता हो, तो
आदमी गलत है।
आप अपने को
मापदंड बना कर
घूम रहे हैं।
आपका संत से
मिलना भी नहीं
हो सकेगा कभी।
लाओत्से
जिस संत की
बात कर रहा है, वह
आपको न
मिलेगा। हां,
कोई रेवड़ी
बांटने वाला
संत आपको मिल
सकता है। आपकी
जीभ पर एक रेवड़ी
रख देगा, बहुत
खुशी होगी। वह
घास का जो
कुत्ता है, बहुत
प्रसन्न होगा;
और कहेगा, बिलकुल ठीक!
सिर पर पानी छिड़क देगा
और कहेगा कि
आशीर्वाद! जा,
सभी में
सफलता मिलेगी!
तंत्र-मंत्र
दे देगा कुछ, अदालत में
मुकदमा जीतो,
हारा हुआ
प्रेम बाजी
बदल दो, कहीं
किसी लाटरी
में नंबर लगा
दो! वे आदमी
आपको मिल जाएंगे।
लाओत्से का
संत आपको नहीं
मिलेगा।
नहीं
मिलेगा इसलिए
कि आप उसको
तभी खोज सकते
हैं,
जब आप अपने
को घास का
कुत्ता जानने
को राजी हों।
तभी आप उसको
खोज सकते हैं।
और जो आदमी
अपने को घास
का कुत्ता
जानने को राजी
हो जाए, उस
आदमी को उसके
दरवाजे पर
वैसा संत आकर
मिल जाएगा, उसे जाने की
भी शायद जरूरत
न पड़े।
क्योंकि जैसी
हमारी तैयारी
है, वैसे
ही अस्तित्व
प्रकट करने
लगता है अपने
राज, अपने
रहस्य! हमारी
तैयारी पर सब
कुछ निर्भर होता
है।
हमारी
तैयारी का सब
से अनिवार्य
अंग जो है, उसके
लिए लाओत्से
इशारा कर रहा
है। यह इशारा
केवल
मेटाफिजिकल
नहीं है, यह
कोई दार्शनिक
तत्वज्ञ
मात्र की बात
नहीं है।
लाओत्से
इशारा इसलिए
कर रहा है, ताकि
हम समझ सकें
कि अगर संत को
खोजना हो, तो
हमें क्या
करना पड़ेगा।
हमें अपने
संबंध में साफ
हो जाना पड़ेगा
कि हम क्या
हैं। यदि
स्पष्ट मुझे
बोध हो जाए कि
मैं क्या हूं,
तो वह जो
गांठ हमारे
ऊपर लदी हुई
है, उसके
टूट जाने में
जरा भी देर
नहीं लगती, उसके गिर
जाने में भी
जरा देर नहीं
लगती। लेकिन
हमें स्मरण ही
नहीं होता।
अभी एक
मां मेरे पास
आई हुई थी
अपनी बेटी को
लेकर, दूर
न्यूयार्क
से। क्योंकि
मां और बेटी
में बड़ी कलह
थी। और मां का
खयाल है कि
अपनी बेटी को
बहुत प्रेम करती
है। दो महीने
पहले भी आई
थी। और तब
उसने कहा कि
मैं अपने
बच्चों को
इतना प्रेम
करती हूं कि
मैं उनके लिए
जान दे सकती
हूं। मैंने
उससे कहा कि
तू फिर एक दफा
सोच, क्योंकि
यह स्वाभाविक
नहीं है। उसने
कहा, मैं
अपनी लड़कियों
को इतना
प्रेम--तीन लड़कियां
ही हैं
उसकी--इतना
प्रेम करती
हूं कि आप
भरोसा नहीं कर
सकते। मैंने
उससे कहा कि
तू फिर एक दफा
सोचना।
तो वह
रोने लगी, चीखने
लगी, छाती
पीटने लगी। और
उसने मुझसे
कहा कि आप
बहुत कठोर हैं,
आप अपने
शब्द वापस ले
लें, मैं
अपने बच्चों
को सच में ही
प्रेम करती
हूं।
वह
जितनी ही
चीखने लगी, उतना
ही मैंने उससे
कहा, यह
चीख मार कर तू
किसको समझाने
की कोशिश कर
रही है--मुझे
या स्वयं को? अगर करती है
प्रेम, तो
खतम हो गई
बात। इसमें
चीख मारना और
रोना और छाती
पीटने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। लेकिन तू
इतनी चीख
मारती है, छाती
पीटती है, रोती
है, तो मैं
तुझसे कहता
हूं कि तू
अपने को
समझाने की
कोशिश कर रही
है। तेरे रोने
से मुझ पर कोई
फर्क नहीं
पड़ेगा। लेकिन
शायद तुझे
स्वयं पर पड़ेगा
कि मैं इतनी
रोई, इतनी
छाती पीटी,
देखो कितना
प्रेम करती
हूं!
प्रेम
करना हो, तो
छाती पीटना और
रोना जरूर आना
चाहिए। नहीं तो
आपका पता ही
नहीं चलेगा
किसी को कि आप
प्रेम भी करते
हैं। ज्यादा
जोर से छाती
पीटना और रोना
आता हो, तो
आप प्रेम करते
हैं। इसलिए
स्त्रियां
बहुत जल्दी
सिद्ध कर देती
हैं कि वे प्रेम
करती हैं।
पुरुष सिद्ध
नहीं कर पाते
कि वे प्रेम
करते हैं।
सिद्ध करने का
उपाय ही नहीं हाथ
में लाते।
मैंने
उसे कहा कि
नहीं, इस सब से
कुछ मेरे
सामने नहीं
होगा।
तो इस
बार वह अपनी
लड़की को लेकर
आई है, अपनी
बड़ी लड़की को
लेकर आई है।
और उसने कहा
कि अब आप
देखें। और
मैंने देखा।
और पंद्रह दिन
में, इस
जमीन पर जितनी
दुश्मनी हो
सकती है
किन्हीं दो
व्यक्तियों
में, उतनी
उन दोनों के
बीच दुश्मनी
पूरी प्रकट हो
गई है।
मां और
बेटी के बीच
होती है
दुश्मनी।
समाज छिपाता
है,
परिवार छिपवाता
है। लड़की
जैसे-जैसे
जवान होने
लगती है, मां
दुश्मन होने
लगती है। वह
बिलकुल
स्वाभाविक है।
वह हमारा एनीमल
हेरिटेज
है; वह जो
जानवरों से
हमें मिला है,
वह है। बेटा
जैसे जवान
होने लगता है,
बापर् ईष्या से
भरने लगता है।
मगर ये बातें
कहने की नहीं
हैं। सब बाप
जानते हैं, सब बेटे
जानते हैं।
बेटा जैसे
जवान होने लगता
है, बाप को
हटाने और
सरकाने की
कोशिश करने
लगता है।
निश्चित ही, जगह बनानी
पड़ती है। जवान
लड़की को देख
कर मां को याद
आना शुरू हो
जाता है, वह
भी कभी जवान
थी। और यह भी
याद आना शुरू
हो जाता है, इन बच्चों
के कारण उसकी
जवानी खो गई।
किसी के कारण
खोती नहीं, बिना बच्चों
के भी खो जाती
है। लेकिन यह
खयाल आने लगता
है। और अब घर
में कोई भी
आदमी प्रवेश
करता है, तो
पहले जवान
लड़की पर उसका
ध्यान जाता है,
पीछे बूढ़ी
मां पर। पीड़ा
भारी हो जाती
है।
अगर
लड़कियों को
विवाह के बाद
उनके पतियों
के घर भेजने
की योजना किसी
की होगी, तो वह
माताओं की है।
और चूंकि
माताएं सदा
जीत जाती हैं,
इसलिए बाप
हार गया। बेटे
को घर में
रखने के लिए
उसको राजी
होना पड़ा; बेटियों
को बाहर करना
पड़ा। अगर बाप
भी अपनी बेटी
के प्रति
ज्यादा
उत्सुकता ले,
जो कि
बिलकुल
स्वाभाविक है
वह लेगा, तो
मां को तकलीफ औरर्
ईष्या हो जाती
है। फिर बेटी
बेटी नहीं
दिखाई पड़ती, धीरे-धीरे
निपट स्त्री
दिखाई पड़ने
लगती है।
मैंने
पंद्रह दिन उन
दोनों की सारी
बीमारियों को
उभारने की
पूरी कोशिश की, दोनों
को उकसाया। उन
दोनों की
बीमारियां
इतनी बढ़ गईं
कि एक-दूसरे
की गर्दन घोंट
डालें। और जब
मैंने उनको
सामने बिठा कर
दोनों को कहा
कि अब तुम
अपना दिल खोल दो,
जो-जो
तुम्हारे
भीतर है! तो जो
रोग बाहर
दिखाई पड़े, वह कोई मां
कल्पना नहीं
करती, कोई
बेटी कल्पना
नहीं करती; लेकिन हर
बेटी और हर
मां के भीतर
होते हैं। पर हम
दबाए चले जाते
हैं, छिपाए
चले जाते हैं।
उनके ऊपर और अच्छी
पर्तें, मुलम्मे
लगाए चले जाते
हैं। फूल की
कतार सजा लेते
हैं और भीतर
गंदगी को छिपा
देते हैं।
लाओत्से
कहता है, तुम
यही जोड़
हो--इसी सब
छिपी हुई
गंदगी का। इसे
हम घास के
कुत्ते से
ज्यादा नहीं
मानते। और न हम
इस पर दया
करते हैं, न
इसकी क्षमा
करते हैं, न
हम इस पर कठोर
हैं। हम सिर्फ
इतना कहते हैं,
यह बिलकुल
व्यर्थ है, इररेलेवेंट है, असंगत
है। इसका कोई
मूल्य नहीं
है। और जब तक यह
गांठ न फिंक
जाए, तब तक
वह जो
मूल्यवान है,
उसका
आविर्भाव
नहीं होता। और
जब तक यह कचरा
न हट जाए, तब
तक भीतर वह जो
स्वर्ण छिपा
है, वह कभी निखरता
नहीं।
यह
हैरानी होगी
जान कर कि
पंद्रह दिन इन
मां और बेटी
ने एक-दूसरे
के साथ इतनीर्
ईष्या, इतनी
घृणा और इतनी
गालियां दीं
कि कभी-कभी तो मैं
भी दिक्कत में
पड़ा और मुझे
लगा कि कहीं
यह हल न हो
पाया--क्योंकि
उन्हें जल्दी
वापस लौटना
है--तो उपद्रव
हो जाएगा। फिर
मुझे सामने
बिठा कर उनके
घृणा के
निकालने के
प्रयोग
करवाने पड़े।
एक ही प्रयोग
में, जो
किसी लड़की ने
अपनी मां को
कभी नहीं कहा
होगा, किसी
मां ने अपनी
कभी लड़की को
नहीं कहा
होगा--लेकिन
दोनों ने
सदा-सदा सोचा
है काल-काल, युग-युग
में--वह उन
दोनों ने कहा।
कल्पना के
बाहर! मां कह
सकी अपनी बेटी
से कि तू मेरी
दुश्मन है और
मेरे साथ जो
भी किसी का
प्रेम बनता है,
तू उसे
छीनने की
कोशिश करती
है। और लड़की
कह सकी अपनी
मां से कि तू
सिर्फ एक
वेश्या है। और
जब मां ने
पूछा कि तू
मुझे घृणा
करती है? तो
उसने कहा कि
हां, मैं
तुझे सिर्फ घृणा
करती हूं, एट
लीस्ट
राइट दिस
मोमेंट, मैं
तुझे घृणा
करती हूं। मां
कह सकी, तू
मेरी कोई भी
नहीं है; मैं
तुझे देखना भी
बर्दाश्त
नहीं कर सकती।
और यह
सारी गाली
घंटे भर जब
निकल गई, और
मैंने उन
दोनों से कहा,
अब आंख बंद
करके तुम चुप
हो जाओ। पांच
मिनट वे चुप
बैठ कर रोती
रहीं; फिर
एक-दूसरे के
गले लग गईं।
रात वे एक ही
बिस्तर में सोईं। और
दूसरे दिन मां
ने मुझसे कहा
कि हमारी हनीमून
की रात थी!
वर्षों के बाद
मैं इस लड़की
को फिर से
प्रेम कर पाई।
लेकिन मैंने
उसे कहा कि ध्यान
रखना, यह
प्रेम फिर
घृणा को
इकट्ठा करने
लगेगा।
द्वंद्व
जहां है, वहां
हम विपरीत को
इकट्ठा कर
लेते हैं।
लाओत्से
कहता है, संत
विपरीत के पार
हैं, दोनों
के बाहर हैं।
वे न कठोर, न
वे सदय।
आज
इतना ही। कल
हम दूसरा
सूत्र लेंगे।
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