प्रश्न
सार:
1—योग
और तंत्र में
क्या फर्क है?
2—समर्पण
की विधि क्या
है?
3—कैसे
कोई विधि रास
आती है?
कई
प्रश्न हैं।
पहला
प्रश्न:
परंपरागत
योग और तंत्र
में भेद क्या
है? क्या
वे एक ही चीज
हैं?
तंत्र और योग
बुनियादी रूप
से भिन्न हैं।
यद्यपि दोनों
एक ही लक्ष्य
पर ले जाते
हैं, तो
भी उनके
रास्ते भिन्न
हैं; भिन्न
ही नहीं
विपरीत हैं।
इसे
ठीक से समझ
लेना है। योग
की प्रक्रिया
भी उपायमूलक
है। योग भी
विधि ही है।
योग कोई
मीमांसा नहीं
है। तंत्र की
तरह ही योग भी
क्रिया, उपाय, विधि.
पर निर्भर है।
तंत्र की तरह
ही योग में भी
कुछ करने से, क्रिया से
होना या
अस्तित्व
उपलब्ध होता
है। लेकिन
दोनों के ढंग,
दोनों की
प्रक्रियाएं
भिन्न—भिन्न
हैं।
योग में
लड़ना
अनिवार्य है, वह
योद्धा का पथ
है। तंत्र के
मार्ग पर लड़ना
बिलकुल नहीं
है। उलटे
तंत्र में भोग
है, भोगना
है, लेकिन
बोधपूर्वक।
योग होश के
साथ दमन है, तंत्र होश
के साथ भोग
है।
तंत्र
कहता है कि
तुम जो कुछ हो, परम तत्व
उसके विपरीत
नहीं है। वह
वृद्धि है, विकास है; तुम परम
तत्व की ओर
विकसित हो
सकते हो।
तुम्हारे और
सत्य के बीच
विरोध नहीं
है। तुम उसके
अंश हो, इसलिए
प्रकृति के
साथ विरोध की,
द्वंद्व की
जरूरत नहीं
है। तुम्हें
प्रकृति का
उपयोग करना है;
तुम जो भी
हो उसका उपयोग
करना है ताकि
उसके पार उठ
सको। योग में ऊपर
जाने के लिए
तुम्हें अपने
से ही संघर्ष
करना है। योग
में संसार और
मोक्ष—जो तुम
हो और जो तुम
हो सकते हो—दो
विपरीत चीजें
हैं। इसलिए
दमन करो, जो
हो उसे मिटाओ;
ताकि वह हो
सको जो हो
सकते है। योग
में पार जाना
मृत्यु है।
तुम्हारे
स्वरूप के
जन्म लेने के
लिए तुम्हें
मरना होगा।
तंत्र
की निगाह में
योग गहरा
आत्मघात है।
उसमें
तुम्हें अपने
प्रकृत रूप—शरीर, वृत्ति, इच्छा—सब
कुछ को मारना
होगा, नष्ट
करना होगा।
तंत्र कहता है
: तुम जैसे हो, अपने को
स्वीकार करो।
तंत्र गहरी से
गहरी स्वीकृति
है। अपने और
सत्य के बीच, संसार और निर्वाण
के बीच अंतराल
नहीं बनाना
है। कोई भी अंतराल
नहीं। तंत्र
में अंतराल
जरूरी नहीं है,
मृत्यु
जरूरी नहीं
है। वहां
तुम्हारे
पुनर्जन्म के
लिए मृत्यु
नहीं, अतिक्रमण
आवश्यक है। और
इस अतिक्रमण
के लिए अपना
उपयोग करना
है।
उदाहरण
के लिए यौन है, काम है।
वह बुनियादी
ऊर्जा है
जिसके जरिए, जिससे ही तुम
पैदा हुए हो।
तुम्हारे
अस्तित्व के,
तुम्हारे
शरीर के
बुनियादी कोश
कामजन्य हैं;
कामुक हैं। यही
कारण छ मनुष्य
का मन ट छ इर्द—गिर्द
घूमता रहता
है। योग में
इस ऊर्जा से
लड़ना
अनिवार्य है।
वहां लड़कर ही
तुम अपने भीतर
एक भिन्न केंद्र
को जन्म देते
हो। जितना ही
तुम लड़ते हो उतना
ही इस दूसरे
केंद्र पर तुम
एकत्रित होते हो,
अखंड होते
हो। तब यौन
तुम्हारा
केंद्र नहीं रह
जाता। काम से
लड़कर, मगर
बोधपूर्वक, तुम्हारे
भीतर
अस्तित्व का
एक नया केंद्र,
एक नई धुरी,
एक नया
स्फटिकीकरण
पैदा होगा। तब
काम तुम्हारी
ऊर्जा नहीं रह
जाएगा। काम से
लड़कर तुम अपनी
ऊर्जा
निर्मित
करोगे। तब एक
सर्वथा नई
ऊर्जा, सर्वथा
नया अस्तित्व—केंद्र
पैदा होगा।
तंत्र
में काम—ऊर्जा
का उपयोग करना
है। उससे लड़ो
मत, उसे
रूपांतरित
करो। शत्रुता
की भाषा में
मत सोचो, उससे
मैत्री साधो।
वह तुम्हारी
ही ऊर्जा है, वह बुरी
नहीं है, दुष्ट
नहीं है। सब
ऊर्जा तटस्थ
है। उसे ही
तुम्हारे
अहित में
लगाया जा सकता
है। तुम उस
ऊर्जा को अपना
अवरोधक बना
सकते हो, और
उसी ऊर्जा को
अपनी सीडी भी
बना सकते हो।
उपयोग की बात
है। सही उपयोग
करो तो वह
मित्र है; गलत
उपयोग से वही
शत्रु हो जाती
है। स्वयं में
वह कोई भी नहीं
है—मित्र न
शत्रु।
साधारण
आदमी यौन का, काम का
जिस प्रकार से
उपयोग करता है,
काम उसका
शत्रु बन जाता
है। काम उसको
विनष्ट करता
है; काम से
वह बस क्षीणबल
होता है।
योग
विपरीत
दृष्टि, साधारण
चित्त के
विपरीत
दृष्टि अपनाता
है। साधारण
चित्त अपनी ही
वासनाओं से विनष्ट
होता है।
इसलिए योग
कहता है वासना
छोड़ो और वासना—शून्य
बनो। तंत्र
कहता है वासना
के प्रति, कामना
के प्रति जागो,
उससे लड़ों
मत। कामना में
पूरी सजगता के
साथ उतर जाओ।
और जब तुम
पूरे होश से
कामना में
उतरते हो, तुम
उसका
अतिक्रमण कर
जाते हो। तब
तुम उसमें
होते हो और
उसमें नहीं
होते हो। उसके
भीतर से गुजरकर
भी तुम उससे
अछूते बने
रहते हो।
योग का
आकर्षण है, प्रभाव
है; क्योंकि
योग साधारण
चित्त के
विपरीत है।
इसलिए साधारण
चित्त योग की
भाषा समझता
है। तुम्हें
पता है कि काम
कैसे तुम्हें
विनष्ट करता
है कैसे तुम
उसके गिर्द कठपुतली
की तरह नाचते
हो। अपने
अनुभव से तुम
यह जानते हो।
इसलिए योग जब
लड़ने को कहता
है तब तुरंत
तुम उसकी भाषा
समझ जाते हो।
योग का यही
आकर्षण है।
तंत्र
आसानी से उस
आकर्षण को
नहीं पा सकता।
यह बहुत कठिन
लगता है कि कैसे
कामना में
उससे पराजित
हुए बिना
प्रवेश हो सकता
है! चित्त
भयभीत होता
है। बात ही यह
खतरनाक मालूम
देती है। ऐसा
नहीं कि यह
खतरनाक है, तुम काम
के संबंध में
जो जानते हो
उसके चलते तुम्हें
यह खतरा नजर
आता है। तुम
अपने को जानते
हो। तुम जानते
हो कि तुम
कैसे अपने को
धोखा दे सकते
हो। तुम
भलीभांति
जानते हो कि तुम्हारा
मन चालाक है।
तुम कामना में,
काम में, सब चीज में
उतर सकते हो
और अपने को
धोखे में रख
सकते हो कि
पूरे होश के
साथ उतर रहे
हो। यही कारण
है कि तुम्हें
खतरा मालूम
देता है।
खतरा
तंत्र में
नहीं, तुममें
है। और योग का
आकर्षण भी
तुम्हारे
कारण है, तुम्हारे
साधारण मन के
कारण है, जिसने
काम का दमन
किया है, जो
काम का भूखा
है, जो
कामांध है। साधारण
मन काम के
संबंध में
स्वस्थ नहीं
है; इसलिए
योग का आकर्षण
है। जब
मनुष्यता कुछ
समर्पण बेहतर
होगी, जब
यौन स्वस्थ
होगा, प्रकृत
और सामान्य
होगा, तब
बात कुछ दूसरी
होगी।
हम
प्रकृत, स्वाभाविक
और सामान्य
नहीं हैं। हम
तो सर्वथा अप—सामान्य,
अस्वस्थ और
विक्षिप्त
हैं। लेकिन
क्योंकि सभी
लोग ऐसे ही
हैं, इसलिए
इसका बोध हमें
नहीं होता।
पागलपन ही इतना
सामान्य है कि
नहीं पागल
होना अप—सामान्य
मालूम पड़ेगा।
हमारे बीच
बुद्ध अप—सामान्य
हैं। जीसस अप—सामान्य
हैं। वे हमसे
अन्यथा मालूम
पड़ते हैं। यह
सामान्यता
रोग है। और
इसी सामान्य
चित्त में योग
का आकर्षण
पैदा होता है।
यदि
तुम युनि को
उसकी
स्वाभाविकता
में ग्रहण करो, यदि उसके
आस—पास पक्ष
या विपक्ष का
तत्वचिंतन नहीं
खड़ा करो, यदि
तुम उसे वैसे
ही देखो जैसे
अपने हाथ—पांव
को देखते हो, एक
स्वाभाविक
चीज की तरह
उसे उसकी
समग्रता में
स्वीकार करो,
तो फिर
तंत्र का
प्रभाव पैदा
होगा। और तभी
तंत्र
बहुजनहिताय
सिद्ध हो सकता
है।
और
तंत्र के दिन
आ रहे हैं।
देर—अबेर पहली
बार सर्व —साधारण
के बीच तंत्र
का विस्फोट
होने वाली है।
क्योंकि पहली
बार यौन को, काम को
स्वाभाविक
ढंग से ग्रहण
करने की भूमि
तैयार हुई है।
और संभव है कि
यह विस्फोट
पश्चिम में
शुरू हो, क्योंकि
फ्रायड, जुंग
और रेख ने
वहां भूमि
तैयार की हुई
है। वे तंत्र
के बारे में
तो अनभिज्ञ थे,
लेकिन
अनजाने ही
उन्होंने
तंत्र के
विकास के लिए
बुनियादी भूमि
तैयार
कर दी है।
पश्चिम का
मनोविज्ञान
इस निष्कर्ष
पर पहुंचा है
कि मनुष्य की
बुनियादी
बीमारी
कामजन्य है, उसकी
बुनियादी
विक्षिप्तता
काम—केंद्रित
है। इसलिए जब
तक उसका यह
काम—केंद्रित
होना नहीं
मिटता है, आदमी
स्वाभाविक और
सामान्य नहीं
होगा।
सेक्स
के प्रति, काम के
प्रति अपनी
दृष्टि और
रुझान के चलते,
अपने भाव के
चलते आदमी गलत
हो गया है।
किसी भी दृष्टि
या भाव की
जरूरत नहीं
है। और तभी
तुम स्वाभाविक
हो सकते हो।
क्या तुम अपनी
आंखों के
प्रति कोई रुझान
रखते हो? वे
दुष्ट हैं या
दिव्य? तुम
अपनी आंखों के
पक्ष में हो
या विपक्ष में?
कोई भी
पक्षपात नहीं
है। और इसीलिए
आंखें सामान्य
हैं।।
फिर
कोई भाव ले लो, सोचो कि आंखें
बुरी
हैं, और तब
उनसे देखना
मुश्किल हो
जाएगा। तब
देखना वैसे ही
समस्या—मूलक
हो जाएगा जैसे
अभी यौन है, काम है। तब
तुम देखना
चाहोगे, देखने
की इच्छा
करोगे, देखने
को व्यग्र
होओगे, और
जब देख लोगे
तब अपराधी
अनुभव करोगे।
देखने —के—बाद
तुम्हें
लगेगा कि कुछ
भूल हो गई, कुछ
पाप हो गया।
और तब तुम
अपने देखने के
यंत्र को, आंखों
को ही नष्ट
करना चाहोगे।
और फिर जितना
ही उन्हें
नष्ट करना
चाहोगे, उतना
ही तुम आख—केंद्रित
हो जाओगे। और
एक अनर्गल
सिलसिला शुरू
होगा. तुम
ज्यादा से
ज्यादा देखना
भी चाहोगे और
साथ ही ज्यादा
से ज्यादा
अपराधी भी
अनुभव करोगे।
काम—केंद्र के
साथ यही
दुर्घटना घटी
है।
तंत्र
कहता है : तुम
जो भी हो उसे
स्वीकार करो।
तंत्र का यह
मूल स्वर है
समग्र स्वीकार।
और समग्र
स्वीकार के
जरिए ही तुम
विकास कर सकते
हो। तब जो भी
ऊर्जा तुम्हारे
पास है, उसका उपयोग
करो।
पर
उसका उपयोग
कैसे करोगे? पहले
उन्हें
स्वीकारो, फिर
खोजो, जानो
कि यह ऊर्जा
क्या है,
यह तत्व क्या
है, यह यौन
क्या है? हम
उससे परिचित
नहीं है। हम
यौन के बार
में बहुत कुछ
जानते हैं जो
दूसरों ने
हमें सिखाया है,
जो उधार
ज्ञान है। हम
काम— भोग से भी
गुजरे होंगे,
लेकिन
अपराधी मन से,
दमित मन से
और जल्दबाजी
में। मन का
कोई बोझ उतार
फेंकने के लिए
हम संभोग में
उतरे होंगे।
तुम्हारे लिए
काम— भोग
प्रिय कर्म
नहीं है, तुम
उसमें
प्रसन्न नहीं
हो; लेकिन
उसे तुम छोड़
भी नहीं सकते।
क्योंकि जितना
ही उसे छोड़ना
चाहते हो, उतना
ही वह आकर्षक
होता जाता है।
जितना ही तुम
उसे नकारते हो,
उतना ही
उसके प्रति
आमंत्रित
अनुभव करते
हो।
तुम कामवासना
को नकार नहीं
सकते, मिटा
नहीं सकते; लेकिन
मिटाने के
प्रयत्न में
तुम उस चित्त
को ही, उस
सजगता और
संवेदनशीलता
को ही मिटा
डालते हो जो
कामवासना को
समझ सकती थी।
इसलिए
तुम्हारा यौन,
तुम्हारा
काम
संवेदनशून्य
होकर जारी
रहता है, और
तब तुम उसे
समझ नहीं
पाते।
गहरी
संवेदनशीलता
ही किसी चीज
को समझ सकती
है, उसके
प्रति गहरा
भाव, गहरी
सहानुभूति और
उसमें गहरी
गति ही किसी
चीज को समझ
सकती है। तुम
काम को तभी
समझ सकते हो, यदि तुम काम
के पास वैसे
ही जाओ जैसे
कोई कवि फूलों
के पास जाता
है—तभी समझ
सकते हो। अगर
तुम फूलों के
साथ अपराध
अनुभव करो, तो तुम
फुलवारी से आंखें
बंद
किए गुजर
जाओगे, तुम
बड़ी जल्दबाजी
में रहोगे, तुम्हें
फुलवारी से
जल्दी—जल्दी,
किसी कदर
निकल भागने की
फिक्र लगी
रहेगी। फिर सजग
और बोधपूर्ण
कैसे रह सकोगे?
इसलिए
तंत्र कहता है
तुम जो भी हो
उसे स्वीकार
करो। तुम अनेक
बहु—आयामी
ऊर्जाओं के
रहस्य हो, महारहस्य
हो, उसे
स्वीकारो और
प्रत्येक
ऊर्जा के साथ
गहरी संवेदना
और सजगता से, प्रेम और
बोध के साथ
यात्रा करो।
उसके साथ यात्रा
करो। और तब
प्रत्येक
कामना अपने ही
अतिक्रमण का
वाहन बन जाती
है। तब
प्रत्येक
ऊर्जा सहयोगी
हो जाती है।
और तब संसार
ही निर्वाण हो
जाता है, शरीर
ही मंदिर बन
जाता है—पवित्र
मंदिर, पावन
तीर्थ।
योग
निषेध है, तंत्र
विधेय। योग
द्वैत की भाषा
में सोचता है,
इसलिए यह
योग शब्द। योग
का अर्थ है, दो चीजों को
जोड़ना, उनका
युग्म बनाना;
दो चीजों के
ऊपर जूआ रखना।
लेकिन वहां दो
चीजें हैं, वहां द्वैत
है। तंत्र
कहता है.
द्वैत नहीं
है। और अगर
द्वैत है तो
तुम उसे एक
नहीं कर सकते।
कितना भी
प्रयत्न करो,
दो रहेंगे
ही। कितना भी
जोड़ो, दो
के दो रहेंगे
ही। संघर्ष
जारी रहेगा, द्वैत बचा
रहेगा।
अगर
संसार और
परमात्मा दो
हैं तो वे एक
में नहीं जोड़े
जा सकते। और
अगर वे यथार्थ
में दो नहीं हैं, दो की तरह
सिर्फ भासते
हैं तो ही वे
एक हो सकते हैं।
अगर तुम्हारा
शरीर और
तुम्हारी
आत्मा दो हैं
तो उनको
जोड्ने का
उपाय नहीं है।
वे दो रहेंगे
ही।
तंत्र
कहता है.
द्वैत नहीं है, वह मात्र
आभास है।
इसलिए आभास को
मजबूत बनाने
की जरूरत क्या
है? इस
आभास को मजबूत
होने में
सहयोग क्यों
दिया जाए? इसी
क्षण इसे
समाप्त करो और
एक हो जाओ। और
एक होने के
लिए स्वीकार
चाहिए, संघर्ष
नहीं।
स्वीकार एक
करता है।
संसार को
स्वीकारो, शरीर
को स्वीकारो,
उस सब को
स्वीकारो जो
इसमें निहित
म् है। अपने
भीतर दूसरा
केंद्र मत
पैदा करो।
क्योंकि
तंत्र की
दृष्टि में
दूसरा केंद्र
अहंकार के सिवाय
कुछ नहीं है।
याद रहे, तंत्र
की नजर में वह
अहंकार ही है।
इसलिए अहंकार
को मत खड़ा करो,
सिर्फ बोध
रखो कि तुम
क्या हो।
और अगर
लड़ोगे तो
अहंकार वहां
होगा. ही।
इसलिए ऐसा
योगी खोजना मुश्किल
है जो अहंकारी
न हो। सच में
मुश्किल है।
योगी निरहंकारिता
की बात किए जा
सकते है।
लेकिन वे निरहंकारी
नहीं हो सकते।
उनकी पद्धति
ही अहंकार का सृजन
करती है। और
संघर्ष वह
पद्धति है, प्रक्रिया
है। अगर लड़ोगे
तो निश्चय
अहंकार पैदा
करोगे। जितना
तुम लड़ोगे
उतना अहंकार
बलवान होगा।
और अगर तुम संघर्ष
में जीत गए, तो तुम्हारा
अहंकार परम हो
जाएगा।
तंत्र
कहता है : कोई
संघर्ष नहीं।
और तब अहंकार
की संभावना
नहीं है।
लेकिन
अगर हम तंत्र
की मानें तो
बहुत समस्याएं
खड़ी होंगी।
क्योंकि यदि
हम लड़ते नहीं
तो हमारे लिए भोग
ही रह जाता
है। हमारे लिए
संघर्ष नहीं
का मतलब होता
है भोग। और तब
हम डर जाते
हैं। जन्मों—जन्मों
हम भोग में
डूबे रहे और
कहीं नहीं
पहुंचे।
लेकिन
जो हमारा भोग
है, वही
तंत्र का भोग
नहीं है।
तंत्र कहता
है. भोगो, लेकिन
होश के साथ।
अगर तुम
क्रोधित हो तो
तंत्र यह नहीं
कहेगा कि
क्रोध मत करो।
वह कहेगा कि
पूरे दिल से
क्रोध करो, लेकिन साथ—साथ
उसके प्रति
सजग भी रहो।
तंत्र क्रोध
के खिलाफ नहीं
है। तंत्र
आध्यात्मिक
नींद, आध्यात्मिक
मूर्च्छा के
खिलाफ है। होश
रखो और क्रोध
करो। और तंत्र
का यही गुह्य
रहस्य है कि
अगर तुम होशपूर्ण
रहे तो क्रोध
रूपांतरित हो
जाता है, क्रोध
करुणा बन जाता
है। तो तंत्र
के अनुसार क्रोध
तुम्हारा
शत्रु नहीं है,
क्रोध
बीजरूप में
करुणा है।
क्रोध की
ऊर्जा ही
करुणा बन जाती
है। और अगर
तुम उससे लड़ते
हो, तो
करुणा की
संभावना नहीं
रह जाती।
तो अगर
तुम दमन में
सफल हुए, तो मृत हो
जाओगे। दमन के
कारण क्रोध तो
नहीं रहेगा, लेकिन उसी
कारण करुणा भी
जाती रहेगी।
क्योंकि
क्रोध ही
करुणा बनता
है। उसी तरह
काम के दमन में
अगर तुम सफल
हुए—जो कि
असंभव है—तो
काम तो नहीं
रहेगा, लेकिन
उसके साथ ही
प्रेम भी नहीं
रहेगा। क्योंकि
काम के मरने
पर वह ऊर्जा
ही कहां बची
जो प्रेम में
विकसित होती
है! तुम
कामरहित तो हो
'जाओगे, पर साथ ही
प्रेमरहित भी
हो जाओगे। और
तब सारा खेल
ही खतम हो
गया। क्योंकि
प्रेम के बिना
भगवत्ता कहां
है? और
प्रेम के बिना
मुक्ति कहां
है?
तंत्र
का कहना है कि
इन्हीं
ऊर्जाओं को रूपांतरित
करना है। इसी
बात को दूसरे
ढंग से भी कहां
जा सकता है।
यदि तुम संसार
के विरुद्ध हो
तो निर्वाण
संभव नहीं है; क्योंकि
संसार को ही
तो निर्वाण
में रूपांतरित
करना है। तब
तुम बुनियादी
शक्तियों के
ही खिलाफ हो
गए—उन्हीं
शक्तियों के
जो कि स्रोत
हैं।
इसलिए
तंत्र की
कीमिया कहती
है कि लड़ो मत; तुम्हें
जो भी
शक्तियां
मिली हैं उनके
साथ मैत्रीपूर्ण
बनो। तुम उनका
स्वागत करो।
इस बात के लिए
कृतज्ञ अनुभव
करो कि
तुम्हें
क्रोध मिला है,
कि तुम्हें
कामवासना
मिली है, कि
तुम्हें लोभ
मिला है।
कृतज्ञ अनुभव
करो, क्योंकि
वे ही अप्रकट
स्रोत हैं, उदगम हैं।
और उन्हें
रूपांतरित
किया जा सकता है।
और काम रूपांतरित
हो तो वही
प्रेम बन जाता
है। काम का
जहर मिट जाता
है; उसकी
कुरूपता जाती
रहती है।
बीज
कुरूप है।
लेकिन वही बीज
जब जीवंत होता
है तो अंकुर
और फूल में
रूपांतरित हो
जाता है। और
तब उसमें
सौंदर्य है।
बीज को मत
फेंको, क्योंकि तब
तुम उसके साथ
फूल भी फेंक
रहे हो। फूल
अभी प्रकट
नहीं हैं कि
तुम उन्हें
देख सको। वे
अप्रकट हैं; लेकिन हैं।
बीज का उपयोग
करो कि तुम
उसके फूल को
प्राप्त कर
सको।
इसलिए
पहले
स्वीकृति, संवेदनशील
स्वीकृति और
बोध, और तब भोग
की इजाजत। एक
और बात। यह
हैरानी की बात
है; लेकिन
तंत्र की वह
गहरी से गहरी
खोज है। और वह यह
है कि जिस
किसी चीज को
भी तुम अपना
दुश्मन मान
लेते हो, चाहे
वह लोभ हो या
क्रोध हो, काम
हो, कुछ भी
हो, वह
तुम्हारे
मानने से ही
दुश्मन हो
जाती है। इसलिए
उसे परमात्मा
का वरदान मानो
और उसके पास
कृतज्ञ हृदय
से पहुंची।
उदाहरण के लिए
तंत्र ने काम—ऊर्जा
के रूपांतरण
के लिए अनेक
विधियां खोज निकाली
हैं। संभोग
में ऐसे जाओ
जैसे कि तुम
भगवान के
मंदिर में जा
रहे हो। काम—कृत्य
को ऐसे लो
जैसे कि वह
प्रार्थना हो,
ध्यान हो।
उसकी पवित्रता
को अनुभव करो।
यही
कारण है कि
खजुराहो, पुरी और
कोणार्क के
मंदिरों में
मैथुन की मूर्तियां
अंकित हैं।
मंदिर की
दीवारों पर
संभोग के चित्र
बेतुके लगते
हैं—खासकर
ईसाइयत, इस्लाम
और जैन धर्म
की आंखों में।
उनके मनों में
ही यह बात
नहीं अटती कि
मैथुन के
चित्रों से
मंदिर का क्या
संबंध हो सकता
है! खजुराहो
के मंदिरों की
बाहरी
दीवारों पर
संभोग की, मैथुन
की हर संभव
मुद्रा पत्थर
में अंकित है।
क्यों? मंदिर
में उनका क्या
स्थान है? हमारे
मनों में यह
बात नहीं समा
पाती। ईसाइयत एक
ऐसे चर्च की
कल्पना नहीं
कर सकती
जिसमें खजुराहो
जैसे चित्र
खुदे हों।
असंभव!
आधुनिक
हिंदू भी इस
बात के लिए
अपने को
अपराधी अनुभव
करते हैं।
इसका कारण है
कि आधुनिक
हिंदुओं का
मानस ईसाइयत
के द्वारा
निर्मित हुआ
है। वे हिंदू —ईसाई
हैं और इसीलिए
वे और भी बदतर
हैं। ईसाई होना
तो ठीक है, लेकिन
हिंदू—ईसाई
होना बहुत
अजीब, बहुत
बेहूदा लगता
है। वे अपराधी
अनुभव करते हैं।
एक हिंदू नेता
पुरुषोत्तम
दास टंडन ने
तो यहां तक कहां
कि इन मंदिरों
को ध्वस्त कर
देना चाहिए; वे हमारे
नहीं हैं।
सच ही
वे हमारे नहीं
मालूम पड़ते।
क्योंकि बहुत
समय से, सदियों से
तंत्र हमारे
हृदयों से
निर्वासित
रहा है। तंत्र
हमारी मुख्य
धारा नहीं रहा,
योग मुख्य
धारा रहा। और
योग खजुराहो
की सोच भी
नहीं सकता, और यही कारण
है कि उनके
नष्ट किए जाने
की मांग होती
है।
तंत्र
कहता है मैथुन
के पास ऐसे
जाओ जैसे कि पवित्र
मंदिर को जा
रहे हो। यही
कारण है कि
उसके पवित्र
मंदिरों में
मैथुन के
चित्र अंकित
हैं। उन्होंने
कहां कि मैथुन
में ऐसे उतरो
जैसे मंदिर
में प्रवेश
करते हो। जब
यहां मंदिर
में प्रवेश
करते हो तो
मंदिर में
मैथुन इसलिए
है कि
तुम्हारे मन
में दोनों
संबंधित हो
जाएं, दोनों
की संगति बैठ
जाए।
और तब
तुम अनुभव कर
सकते हो कि
संसार और
निर्वाण दो
विरोधी तत्व
नहीं, वरन
एक हैं। वे एक—दूसरे
के शत्रु नहीं
हैं। वे
ध्रुवीय
विपरीतताए
हैं जो एक—दूसरे
की सहायता
करती हैं। और
इस ध्रुवीयता
के कारण ही वे
अस्तित्व में
भी हैं। अगर
यह ध्रुवीयता
नष्ट हो जाए
तो संसार ही
नष्ट हो जाएगा।
इसलिए
उस गहरी एकता
को देखो जो
सभी चीजों के
भीतर समाई है।
केवल ध्रुवीय बिंदुओं
को मत देखो, उस आंतरिक
धारा को भी
देखो जो सब को
एक करती है।
तंत्र
के लिए सब कुछ
पवित्र है।
स्मरण रखो कि तंत्र
के लिए सब कुछ
पवित्र है; कुछ
समर्पण भी
अपवित्र नहीं
है। इसे इस
भांति देखने की
कोशिश करो। एक
अधार्मिक
आदमी के लिए सब
कुछ अपवित्र,
और तंत्र के
लिए सब कुछ
पवित्र है।
कुछ
समय पूर्व एक
ईसाई पादरी
मेरे पास आया
था। उसने कहां
कि ईश्वर ने
संसार को
बनाया। मैंने
उससे पूछा कि
पाप को किसने
बनाया? उसने उत्तर
दिया कि शैतान
ने पाप को
पैदा किया। तब
मैंने पूछा, और शैतान को
किसने बनाया?
और पादरी
अड़चन में पड़
गया और उसने कहां,
शैतान को तो
ईश्वर ने ही
बनाया।
अब
शैतान पाप को
पैदा करता है
और परमात्मा
शैतान को। तब
असली पापी कौन
है, शैतान
या परमात्मा?
लेकिन
द्वैतवादी
धारणा सदा ऐसी
ही अनर्गल बातों
पर पहुंचती और
पहुंचाती है।
तंत्र
के लिए ईश्वर
और शैतान दो
नहीं हैं। तंत्र
में शैतान नाम
की कोई चीज ही
नहीं है। तंत्र
में सब कुछ
भागवत है, सब कुछ
पवित्र है। और
यही सही
दृष्टिकोण और
सबसे गहरा
दृष्टिकोण
मालूम पड़ता
है। अगर इस
जगत में कोई
चीज अपवित्र
है तो प्रश्न
उठता है कि वह
कहां से आती
है और वह संभव
कैसे है?
इसलिए
दो ही विकल्प
हैं। एक है
नास्तिक का
विकल्प जो
कहता है कि सब
कुछ अपवित्र
है। यह दृष्टिकोण
अपनी जगह ठीक
है। नास्तिक
भी अद्वैतवादी
है, उसे
संसार में
कहीं भी
पवित्रता
दिखाई नहीं देती।
और दूसरा
विकल्प
तांत्रिक का है।
वह कहता है कि
सब कुछ पवित्र
है। वह भी अद्वैतवादी
है। लेकिन इन
दोनों के बीच
जो तथाकथित
धार्मिक लोग
हैं, वे
वास्तव में
धार्मिक नहीं
हैं। वे न
धार्मिक हैं
और न अधार्मिक,
वे सदा
द्वंद्व में
जीते हैं। और
उनका पूरा धर्मशास्त्र
छोरों को
मिलाने में
संलग्न है। लेकिन
वे छोर कभी
नहीं मिलते।
अगर
संसार में एक
भी कोश, एक भी अणु
अपवित्र है तो
सारा संसार
अपवित्र हो
जाता है।
क्योंकि
पवित्र संसार
में वह अकेला
अपवित्र अणु
कैसे रह सकता
है? उसे सब
कुछ का, समस्त
का सहारा मिला
है, होने
के लिए सबका, समस्त का
सहारा चाहिए।
और अगर
अपवित्र तत्व
पवित्र
तत्वों से
सहारा पाता है,
तो दोनों
में फर्क क्या
रहा? इसलिए
संसार या तो
समग्ररूपेण
और बेशर्त पवित्र
है, और या
वह अपवित्र
है। बीच की
कोई स्थिति
नहीं हो सकती।
तंत्र
कहता है कि सब
कुछ पवित्र
है। और यही कारण
है कि हम उसे
समझ नहीं पाते
हैं। यह सबसे
गहरी
अद्वैतवादी
दृष्टि है—यदि
इसे दृष्टि कह
सकें। पर
दृष्टिकोण यह
नहीं है, क्योंकि कोई
भी दृष्टिकोण
द्वैतवादी ही
होगा। तंत्र
किसी के भी
विरुद्ध नहीं
है; इसलिए
वह दृष्टिकोण
नहीं है। वह
तो अनुभूत एकता
है, जी हुई
एकता।
ये दो
मार्ग हैं.
योग और तंत्र।
हमारे अपंग
चित्त के कारण
तंत्र
प्रभावी नहीं
हो सका। लेकिन
जब कोई भीतर
से स्वस्थ
होता है, जब वह अराजक
नहीं है, तभी
तंत्र का
सौंदर्य है।
और वही समझ
सकता है कि
तंत्र क्या
है। हमारे
अशात चित्त के
कारण योग का
आकर्षण है। अशांत
चित्त को योग
आसानी से
आकर्षित करता
है।
स्मरण
रहे कि अंतिम
रूप से
तुम्हारा
चित्त ही किसी
चीज को आकर्षक
या विकर्षक बनाता
है। तुम ही
निर्णायक घटक
हो।
और ये
दोनों मार्ग, योग और
तंत्र के
मार्ग, एक—दूसरे
से अलग हैं।
मैं यह नहीं
कहता कि कोई
योग के द्वारा
नहीं पहुंच
सकता है। योग
के मार्ग से
भी पहुंचा जा
सकता है, लेकिन
प्रचलित योग
के मार्ग से
नहीं। जो योग
प्रचलित है, वह सच्चा
योग नहीं है, वह तो
तुम्हारे
रुग्ण चित्त
की व्याख्या
है। परम को
उपलब्ध होने
के लिए योग भी
एक प्रामाणिक
मार्ग हो सकता
है, लेकिन
वह तभी संभव
है जब कि
तुम्हारा
चित्त स्वस्थ
हो, जब वह
रुग्ण और
बीमार न हो; तब योग का
रूप ही कुछ और
होता है।
उदाहरण
के लिए, महावीर
योगमार्गी थे;
लेकिन वे
काम का दमन
नहीं करते थे।
उन्होंने काम
को जाना था, उसे जीया था,
उससे भलीभांति
परिचय
प्राप्त किया
था। और तब काम
उनके लिए
व्यर्थ हो गया
और गिर गया।
बुद्ध भी योगी
थे। लेकिन वे
भी संसार से
गुजरे थे, उससे
भलीभांति
परिचित थे। वे
संसार से
संघर्षरत
नहीं थे।
तुम
जिसे जान लेते
हो उससे मुक्त
हो जाते हो। वह
फिर वैसे ही
छूट जाता है
जैसे वृक्ष से
पुराने पत्ते
झर जाते हैं।
वह त्याग नहीं
है, उसमें
संघर्ष नहीं
निहित है। बुद्ध
के चेहरे को
देखो; वह
लड़ाके का
चेहरा नहीं
है। वे लड़
नहीं रहे हैं।
वे कितने शांत
हैं, शांति
के प्रतीक हैं
वे। और फिर
अपने योगियों को
देखो; संघर्ष
उनके चेहरों
पर ही अंकित
है। गहरे में वहां
बहुत शोरगुल
है, क्षोभ
है, अशांति
है, मानो
वे
ज्वालामुखी
पर बैठे हों।
उनकी आंखों
में झांको; उनके चेहरों
में झांको और
तुम्हें इसका
पता चलेगा कि
उन्होंने
अपने समस्त
रोगों को किसी
गहराई में दबा
रखा है। वे
उनके पार नहीं
गए हैं।
एक
स्वस्थ संसार
में, जहां
प्रत्येक
व्यक्ति अपना
प्रामाणिक
जीवन जीता है,
जहां कोई
किसी का
अनुकरण नहीं
करता, वरन
अपना जीवन
अपने ही ढंग
से जीता है, ये दोनों ही
मार्ग संभव
हैं। वहां वह
उस गहरी संवेदनशीलता
को उपलब्ध हो
सकता है जो
वासनाओं का
अतिक्रमण
करती है, वहां
वह उस बिंदु
पर पहुंच सकता
है जहां
कामनाएं
व्यर्थ होकर
गिर जाती हैं।
योग से
भी वह संभव
है। लेकिन मेरे
देखे, उसी
संसार में योग
कारगर होगा
जहां तंत्र भी
कारगर होगा।
हमें स्वस्थ
और स्वाभाविक
चित्त की
जरूरत है। जिस
संसार में
स्वाभाविक
मनुष्य होगा
वहां योग और
तंत्र दोनों
कामनाओं के अतिक्रमण
में सहयोगी
होंगे।
हमारे
रुग्ण और
बीमार समाज
में योग और
तंत्र में से
कोई भी हमारा
मार्ग—दर्शन
नहीं कर सकता।
यहां अगर हम
योग को चुनते
हैं तो इसलिए
नहीं कि कामनाएं
व्यर्थ हो गई
हैं। नहीं, कामनाएं
तो अब भी
अर्थपूर्ण
हैं, वे
गिरी नहीं हैं;
उन्हें
बलपूर्वक
हटाना है। और
तब यदि हम योग
को चुनते हैं
तो उसे दमन की
विधि के रूप
में ही चुनते
हैं। और यदि
तंत्र को
चुनते हैं, तो महज इस
चालाकी से कि
भोग में उतरने
के लिए वह ओट
का काम दे, छलावा
बने। इसलिए
अस्वस्थ
चित्त—दशा में
न योग काम दे
सकता है और न
तंत्र ही। वे दोनों
ही हमें छलावे
में, धोखे
में ले
जाएंगे। आरंभ
करने के लिए
तो स्वस्थ
चित्त की, विशेषकर
यौन के तल पर
स्वस्थ चित्त
की जरूरत है।
तब तुम्हें
अपना मार्ग
चुनने में
बहुत कठिनाई
नहीं है। तब
तुम योग को
चुन सकते हो, तब तुम
तंत्र को चुन
सकते हो।
बुनियादी
तौर से दो
प्रकार के लोग
हैं, पुरुष—चित्त
और स्त्री—चित्त।
यह विभाजन मनोवैज्ञानिक
अर्थों में है,
जैविक
अर्थों में
नहीं। योग
उनका मार्ग है
जो लोग
बुनियादी रूप
से और
मनोवैज्ञानिक
अर्थों में
पुरुष—चित्त
हैं—आक्रामक,
हिंसक, बहिर्मुखी।
और तंत्र उनका
समर्पण मार्ग
है जो
बुनियादी रूप
से स्त्री—चित्त
हैं—ग्रहणशील,
निष्क्रिय
और अहिंसक।
इसे ठीक से ध्यान
में रख लो।
तंत्र के लिए
मां काली, तारा,
देवी, भैरवी
महत्वपूर्ण
हैं। योग में
कहीं किसी देवी
का नाम नहीं
मिलेगा।
तंत्र में
देवियां ही
देवियां हैं
और योग में
देव ही देव।
योग बहिर्गामी
ऊर्जा है और
तंत्र भीतर
आने वाली ऊर्जा।
आधुनिक
मनोविज्ञान
की भाषा में
कह सकते हैं
कि योग
बहिर्मुखी है
और तंत्र
अंतर्मुखी।
इसलिए
व्यक्तित्व
पर निर्भर है।
अगर तुम्हारा
व्यक्तित्व
अंतर्मुखी है
तो संघर्ष का
मार्ग
तुम्हारे लिए
नहीं है। और
यदि तुम
बहिर्मुखी हो
तो संघर्ष ही
तुम्हारे लिए
है।
लेकिन
हम तो बुरी
तरह उलझे हैं, भ्रांत
हैं, हमारा
सब कुछ गड्ड—मड्ड
है। इसलिए कुछ
भी हमें काम
नहीं करता; उलटे सब कुछ
अशांति पैदा
करता है। योग
तुम्हें
अशांत करेगा,
तंत्र भी
अशात करेगा।
हर औषधि
तुम्हारे लिए
नई बीमारी
पैदा करेगी, क्योंकि
चुनने वाला
रुग्ण है और
उसका चुनाव रुग्ण
है।
तो मैं
यह नहीं कहता
कि योग से तुम
नहीं
पहुंचोगे।
मैं तो केवल
इसलिए तंत्र
पर जोर देता
हूं? क्योंकि
हम तंत्र को
समझने चले
हैं।
दूसरा
प्रश्न:
समर्पण
के मार्ग पर
चलने वाला साधक
अपने लिए इन
एक सौ बारह विधियों
में से सही
विधि कैसे
प्राप्त करे?
संकल्प के
मार्ग के लिए
ये सारी विधियां
हैं—एक सौ
बारह
विधियां।
लेकिन समर्पण
के मार्ग पर
जो समर्पण ही
विधि है।
स्मरण रहे कि
समर्पण की कोई
विधि नहीं
होती; सभी
विधिया गैर—समर्पण
के लिए हैं।
क्योंकि उपाय
का अर्थ ही है
कि तुम अपने
पर निर्भर हो।
तुम कुछ कर
सकते हो, उसके
लिए उपाय है, और तुम वह
उपाय करते हो।
समर्पण के
मार्ग पर तुम
मिट जाते हो; फिर और क्या
कर सकते हो? तुमने तो
आखिरी बात कर
दी—परम उपाय—समर्पण।
समर्पण के
मार्ग पर
समर्पण ही
उपाय है।
सभी एक
सौ बारह उपाय
संकल्प का
तकाजा करते
हैं; वे
तुमसे कहते
हैं कि कुछ
करो। तुम अपनी
ऊर्जा को किसी
ढंग से नियोजित
करते हो, उसमें
संतुलन लाते
हो; अपनी
अराजकता के
भीतर एक ठहराव,
एक धुरी, एक केंद्र
पैदा करते हो।
तुम कुछ करते
हो। उसमें
तुम्हारा
प्रयत्न, तुम्हारा
प्रयास
महत्वपूर्ण
है, बुनियादी
है, जरूरी
है।
और
समर्पण के
मार्ग पर एक
ही चीज जरूरी
है कि तुम
समर्पण कर दो, समर्पित
हो जाओ। हम यहां
इन एक सौ बारह
विधियों में
गहरे जाने
वाले हैं; इसलिए
यहां समर्पण
के संबंध में
कुछ कहना
अच्छा होगा।
क्योंकि
समर्पण की कोई
विधि नहीं है।
इन एक सौ बारह
विधियों में
समर्पण के लिए
कुछ भी नहीं
है।
और शिव
ने समर्पण के
संबंध में कुछ
भी क्यों नहीं
कहां? इसीलिए
क्योंकि कुछ कहां
नहीं जा सकता।
भैरवी, देवी
स्वयं बिना
किसी विधि के
शिव को उपलब्ध
हुईं।
उन्होंने
मात्र समर्पण
किया। इसलिए
यहां यह जान
लेना जरूरी है
कि ये प्रश्न
देवी अपने लिए
नहीं पूछ रही है।
पूरी मनुष्यता
के लिए ये
प्रश्न पूछे
गए है। देवी
तो शिव को
उपलब्ध ही है।
वे शिव की गोद
में ही
हैं—उनके
आलिंगन में। वे
शिव के साथ एक
हो चुकी हैं, लेकिन
फिर भी प्रश्न
पूछती हैं।
इसलिए ध्यान रहे
कि देवी अपने
लिए नहीं, पूरी
मनुष्य—जाति
के लिए प्रश्न
पूछती हैं। लेकिन
तब प्रश्न
उठता है कि
अगर देवी आत्मोपलब्ध
हैं तो फिर वे
शिव से क्यों
पूछती हैं? क्या वे
स्वयं
मनुष्यता से
नहीं बोल सकती
हैं?
क्योंकि
देवी स्वयं
समर्पण के
मार्ग से पहुंची
हैं,
इसलिए
विधियों के
विषय में वे
कुछ नहीं
जानतीं। वे
स्वयं तो
प्रेम के
द्वार से
पहुंची हैं।
और प्रेम अपने
आप में
पर्याप्त है।
प्रेम को कुछ
अधिक की जरूरत
ही नहीं है। और
वे प्रेम के
जरिए
ज्ञानोपलब्ध
हुईं, इस
कारण से विधि
और उपाय के
बारे में
उन्हें कुछ
पता नहीं है।
शिव से पूछने
का यही कारण
है।
और
शिव सीधे एक
सौ बारह
विधियों की
चर्चा करते
हैं। वे भी
समर्पण की बात
नहीं करेंगे, क्योंकि
समर्पण
वास्तव में
कोई विधि नहीं
है। समर्पण
तुम तभी करते
हो जब सब
विधियां
व्यर्थ हो
जाती हैं; जब
किसी भी उपाय
से पहुंचना
असंभव हो जाता
है। तुमने सब
प्रयत्न किए
तुमने सभी
द्वार खटखटाए
लेकिन कोई भी
द्वार नहीं
खुलता। तुमने
सभी रास्ते चल
लिए लेकिन कोई
भी रास्ता
मंजिल पर नहीं
पहुंचाता।
तुमने सब कुछ
किया जो कर
सकते थे और अब
तुम असहाय
अनुभव करते
हो। उसी समग्र
असहायपन में
समर्पण घटित
होता है। तो
समर्पण के
मार्ग पर कोई
विधि नहीं है।
लेकिन
यह समर्पण
क्या है? और वह
कैसे काम करता
है? और अगर
समर्पण से ही
सब कुछ होता
है तो फिर एक
सौ बारह
विधियों की
क्या जरूरत है?
मन पूछ सकता
है कि फिर इन
विधियों में
उलझने की क्या
जरूरत है? तब
तो ठीक है, समर्पण
से काम होता
है तो समर्पण
करना ही ठीक।
फिर उपायों के
पीछे जाने की
क्या जरूरत? और फिर कौन
जानता है कि
कोई खास विधि
तुम्हें रास
ही आएगी या
रास नहीं आएगी?
उसे खोजने
में ही कहीं
जन्म—जन्म न
लग जाएं। इसलिए
समर्पण करना
ही अच्छा है।
समर्पण
अच्छा तो है, पर
कठिन है।
संसार में
सबसे कठिन
समर्पण है। उपाय
कठिन नहीं हैं;
वे आसान
हैं। तुम उनका
अभ्यास कर
सकते हो। लेकिन
समर्पण के लिए
कोई अभ्यास नहीं
है। तुम तो यह
भी नहीं पूछ
सकते कि कैसे
समर्पण किया
जाए। सवाल ही
बेतुका है।
कैसे तुम पूछ
सकते हो कि
समर्पण कैसे
किया जाए!
क्या
तुम पूछ सकते
हो कि प्रेम
कैसे किया जाए? या
तो प्रेम है
या प्रेम नहीं
है। लेकिन तुम
यह नहीं पूछ
सकते कि प्रेम
कैसे करें। और
अगर कोई
तुम्हें
सिखाता है कि
प्रेम कैसे
करो तो
निश्चित
जानना कि तुम
कभी भी प्रेम
करने के योग्य
नहीं हो
सकोगे। अगर
प्रेम करने की
कोई विधि
तुम्हारे हाथ
आ गई तो तुम उस
विधि से ही
बंध जाओगे।
यही
कारण है कि
अभिनेता
प्रेम नहीं कर
पाते। वे इतनी
विधियां, इतने
उपाय जानते
हैं! और हम सभी
अभिनेता हैं।
अगर तुम प्रेम
करने के
दाव—पेंच सीख
गए तो तुममें
प्रेम का फूल
कभी नहीं
खिलेगा।
क्योंकि तब
तुम प्रेम का
छलावा ही कर
सकते हो, प्रेम
का धोखा ही कर
सकते हो। और
धोखे के कारण तुम
प्रेम के बाहर
हो गए; तुम
प्रेम में
आविष्ट नहीं
हुए। तब तुम
बस सुरक्षित
हो, निरापद
हो। प्रेम में
व्यक्ति पूरी
तरह खुला होता
है, असुरक्षित
होता है।
प्रेम खतरनाक
है। तुम उसमें
असुरक्षित हो
जाते हो। तो
यह नहीं पूछा
जा सकता कि हम
कैसे प्रेम
करें, या
कि कैसे
समर्पण करें।
यह बस घटित
होता है। प्रेम
घटित होता है।
गहरे में
प्रेम और
समर्पण एक ही
हैं।
लेकिन
आखिर यह है
क्या? और अगर
हम यह नहीं
जान सकते कि
समर्पण कैसे किया
जाता है तो कम
से कम इतना तो
जान सकते हैं कि
समर्पण करने
से हम बचते
कैसे हैं, हम
समर्पण का
प्रतिरोध
कैसे करते
हैं। वह जाना
जा सकता है और
वह जानना
सहयोगी है। यह
कैसे हुआ कि
तुमने अब तक
समर्पण नहीं किया?
गैर—समर्पण
की तुम्हारी
युक्ति क्या
है?
यदि
तुम अब तक
प्रेम में
नहीं पड़े हो
तो असली समस्या
यह नहीं है कि
प्रेम कैसे
किया जाए। तब असली
समस्या गहरे
में यह खोज
करने की है कि
तुम प्रेम के
बिना अब तक
रहे कैसे? तुम्हारी
युक्ति क्या
है? तुम्हारी
विधि क्या है?
तुम्हारा
सुरक्षा—कवच
क्या है? तुम
प्रेम के बिना
जीए कैसे? वह
समझा जा सकता
है, और उसे
समझना ही
चाहिए।
पहली
बात,
हम अहंकार
से जीते हैं, अहंकार में
जीते हैं, और
अहंकार—केंद्रित
होकर जीते
हैं। मैं हूं
लेकिन यह जाने
बिना ही कि
मैं कौन हूं।
मैं ऐलान किए
चलता हूं कि
मैं हूं। यह 'मैं हूं, झूठा
है, क्योंकि
मैं नहीं
जानता कि मैं
कौन हूं। और
जब तक मैं
नहीं जानता कि
मैं कौन हूं
मैं 'मैं' कैसे कह
सकता हूं। यह
मैं झूठा है।
यह झूठा मैं
ही अहंकार है।
और यही हमारी
सुरक्षा है।
यह
अहंकार
समर्पण से
तुम्हारा
बचाव किए चलता
है। तुम
समर्पण तो
नहीं कर सकते, लेकिन
इस
सुरक्षा—व्यवस्था
को जान सकते
हो, उसके
प्रति सचेत हो
सकते हो। और
अगर इसके प्रति
सजग हो गए तो
यह विसर्जित
हो जाता है।
तब धीरे—धीरे
तुम उसे बल
देना बंद कर
देते हो और
फिर एक दिन
अनुभव करते हो
कि मैं नहीं
हूं। और जिस
क्षण अनुभव
करते हो कि
मैं नहीं हूं, उसी क्षण
समर्पण घटित
हो जाता है।
इसलिए
यही जानने की
कोशिश करो कि
तुम हो भी? क्या
यथार्थ में
तुम्हारे
भीतर कोई
केंद्र है
जिसे तुम मेरा
'मैं' कह
सको? अपने
भीतर गहरे
उतरो और खोजते
चलो कि यह 'मैं'
कहां है गुम
इस अहंकार का
निवास कहां है?
रिंझाई
अपने गुरु के
पास पहुंचा और
बोला, मुझे
मुक्ति
दीजिए। गुरु
ने कहा, अपने
को मेरे पास
ले आओ। अगर
तुम हो तो मैं
तुम्हें
मुक्त कर
दूंगा, अगर
तुम नहीं हो
तो मैं
तुम्हें कैसे
मुक्त करूंगा? तब तुम
मुक्त ही हो।
और फिर गुरु
ने कहा, और
यह मुक्ति
तुम्हारी
मुक्ति नहीं
है। सच्चाई यह
है कि यह
मुक्ति तुमसे
ही मुक्ति है।
इसलिए जाओ और
खोजो कि यह
मैं कहां है? तुम कहां हो?
और तब फिर
मेरे पास आना।
यही ध्यान है।
जाओ और ध्यान
करो। शिष्य
रिंझाई जाता
है और हफ्तों,
महीनों ध्यान
करता है। फिर
लौटकर आता है
और गुरु से
कहता है कि
इतना पता चला
है कि मैं यह
शरीर नहीं हूं।
गुरु ने कहा, इतना भी तुम
मुक्त हुए।
फिर जाओ और
खोजो। रिंझाई
जाता है, ध्यान
करता है और
पाता है कि
मैं मन नहीं
हूं,
क्योंकि मैं
मेरे विचारों
को देख सकता
हूं। द्रष्टा दृश्य
से भिन्न है, मैं मन नहीं
हूं। और गुरु
के पास लौटकर
यह बात बताता
है। गुरु ने
कहा, अब
तुम तीन—चौथाई
मुक्त हुए।
फिर भी वापस
जाओ और खोजो
कि तुम क्या
हो।
रिंझाई
विचार करता
रहा कि मैं
मेरा शरीर
नहीं हूं कि
मैं मेरा मन
नहीं हूं उसने
पढ़ा था, अध्ययन
किया था; वह
बहुश्रुत था।
उसने सोचा कि
क्योंकि मैं
शरीर और मन
नहीं हूं, इस लिए
मैं आत्मा हूं।
लेकिन उसने ध्यान
किया और पाया
कि कोई आत्मा
नहीं है। क्योंकि
यह आत्मा भी
हमारी मानसिक
सूचना भर है—महज
मतवाद, शब्दावली, मीमांसा।
इसलिए एक दिन
वह गुरु के
पास दौड़ा आया
और बोला कि
मैं तो अब हूं
ही नहीं। तब
गुरु ने पूछा
कि क्या अब भी
मुझे सिखाना
होगा कि
मुक्ति का
उपाय क्या है?
रिंझाई ने कहां,
मैं मुक्त
हूं क्योंकि
मैं नहीं हूं।
अब कोई है ही
नहीं जो बंधन
में हो। मैं
एक विशाल
शून्य हूं—स्व
अभाव, ना—कुछ।
केवल
ना—कुछ मुक्त
हो सकता है।
अगर तुम कुछ
हो तो तुम
बंधन में
रहोगे। अगर तुम
हो तो बंधन
में हो। केवल
शून्य, रिक्त स्थान
मुक्त हो सकता
है। तुम उसे
नहीं बांध
सकते हो।
रिंझाई दौड़कर
आया और बोला
कि मैं अब
नहीं हूं मैं
कहीं भी नहीं
पाया जाता
हूं। यही
मुक्ति है। और
पहली बार उसने
अपने गुरु के
पांव छुए।
पहली बार!
यथार्थ में
नहीं, क्योंकि
वह उन्हें
पूर्व में भी
कई बार छू चुका
था। लेकिन
गुरु ने कहां
कि पहली बार
तुमने मेरे
चरण स्पर्श
किए हैं। रिंझाई
ने पूछा कि आप
ऐसा क्यों
कहते हैं? मैंने
अनेक बार आपके
पांव छुए हैं।
गुरु ने कहां,
लेकिन तब
तुम मौजूद थे।
इसलिए मौजूद
रहते हुए तुम
मेरे पांव कैसे
छू सकते थे? जब तक तुम हो,
तुम मेरे
पांव कैसे छू
सकते हो? 'मैं'
किसी के पैर
नहीं छू सकता।
यद्यपि ऐसा
दिखता है कि
वह किसी के
पांव स्पर्श
कर रहा है, लेकिन
वास्तव में वह
घूमकर अपने ही
पांव छूता है।
इसलिए गुरु ने
कहां कि तुमने
पहली बार मेरे
पांव छुए, क्योंकि
अब तुम नहीं
हो। और गुरु
ने कहां कि
यही अंतिम बार
भी है। प्रथम
और अंतिम।
जब तुम
नहीं होते तब
समर्पण घटित
होता है। इसलिए
तुम समर्पण
नहीं कर सकते।
और यही कारण
है कि समर्पण
विधि नहीं हो
सकता। तुम तुम
नहीं हो, समर्पण है।
इसलिए तुम और
समर्पण साथ—साथ
नहीं जी सकते;
तुम्हारे
और समर्पण के
बीच सह—
अस्तित्व
नहीं हो सकता।
तुम हो या
समर्पण है।
इसलिए खोजो कि
तुम कहां हो? तुम कौन हो?
इस खोज
की व्याख्या
अनेक ढंग से
और अजीब—अजीब
ढंग से की गई
है। रमण
महर्षि कहते
थे कि पूछो कि 'मैं कौन
हूं'? उसे
गलत समझा गया।
उनके नजदीकी
से नजदीकी शिष्य
भी उसका अर्थ
नहीं समझ सके।
वे समझते हैं
कि यह इस बात
की खोज है कि
सच में मैं
कौन हूं। लेकिन
यह बात नहीं
है। यदि तुम
खोजते चले गए
कि मैं कौन
हूं र तो तुम
इस निष्कर्ष
पर अवश्य पहुंचोगे
कि मैं नहीं
हूं। दरअसल यह
इस बात की खोज
नहीं है कि
मैं कौन हूं? यह तो सच में
ही मिटने की
खोज है।
मैंने
अनेक लोगों को
यह विधि दी है
कि भीतर खोजो
कि मैं कौन
हूं। महीने, दो महीने
के बाद वे आते
हैं और कहते
हैं कि मैं अब
तक यह पता
नहीं पा सका
हूं कि मैं
कौन हूं। प्रश्न
प्रश्न ही बना
है, उत्तर
नहीं आया है।
तब मैं उन्हें
कहता हूं कि
खोज जारी रखो
तो किसी दिन
उत्तर आ
जाएगा। और वे
उम्मीद करते
हैं कि उत्तर
आएगा। लेकिन
कोई उत्तर आने
को नहीं है।
कोई उत्तर
नहीं है, यही
होगा कि
प्रश्न गिर
जाएगा। कोई
ऐसा उत्तर नहीं
आने वाला है
कि तुम यह हो या
वह हो। केवल
प्रश्न
समाप्त हो
जाने वाला है।
तब कोई यह
पूछने को भी
नहीं रहेगा कि
मैं कौन हूं।
और तब तुम
जानोगे।
जब मैं
नहीं रहता तो
सच्चा मैं
प्रकट होता
है। जब अहंकार
मिट जाता है
तो पहली बार
तुम्हें
तुम्हारे
अस्तित्व से
साक्षात्कार
होता है। वह
अस्तित्व शून्य
है। और तब तुम
समर्पण कर
सकते हो। तब
तुम समर्पित
ही हो। तुम ही
अब समर्पण है।
इसलिए
समर्पण के लिए
कोई विधि नहीं
हो सकती है।
या सिर्फ ऐसी
नकारात्मक विधि
हो सकती है
जैसे कि यह
खोजना कि मै
कौन हूं।
समर्पण
में क्या होता
है? जब
तुम समर्पण
करते हो तो
क्या घटित
होता है? वह
कैसे काम करता
है? विधियां
कैसे काम करती
हैं? विधियां
कैसे काम करती
हैं, यह हम
आगे समझेंगे।
हम विधियों की
गहराई में उतरेंगे
और जानेंगे कि
वे कैसे काम
करती हैं। उनके
काम का तो
वैज्ञानिक
आधार है।
लेकिन यह समर्पण
कैसे काम करता
है?
जब तुम
समर्पण करते
हो तो तुम
घाटी बन जाते
हो। अभी तुम
अहंकार हो तो
शिखर की तरह
हो। अहंकार का
अर्थ ही है कि
तुम सबसे ऊपर
हो, तुम
कुछ विशिष्ट
हो। दूसरे
तुम्हें वैसा
मानें, न
मानें, यह
बात दूसरी है;
लेकिन तुम
तो यही माने
बैठे हो कि
तुम सबसे ऊपर
हो, तुम
शिखर हो। और
तब कोई तुममें
प्रवेश नहीं
कर सकता है।
जब कोई
समर्पण करता
है तो वह घाटी
की तरह हो जाता
है। तब वह
गहराई बन जाता
है, ऊंचाई
नहीं। और तब
सारा
अस्तित्व
चारों ओर से उसकी
ओर बहने लग
जाता है।
समूचा
अस्तित्व अपने
को उसमें
उड़ेलने लगता
है। वह महज
खालीपन रह जाता
है—एक गहराई, एक अगाध
गर्त। और
समस्त
अस्तित्व
चारों ओर से आकर
उसे भरने लगता
है। तुम कह
सकते हो कि
परमात्मा
चारों तरफ से
उसमें
प्रवाहित
होने लगता है,
रंध्र—रंध्र
से उसमें
प्रविष्ट
होने लगता है,
और उसे पूरी
तरह भर देता
है।
यह
समर्पण, यह घाटी, यह
अतल हो जाना, समर्पित
होना कई—कई
ढंग से अनुभव
में आता है।
छोटा समर्पण
होता है, बड़ा
समर्पण भी
होता है। छोटे
समर्पण में भी
तुम्हें उसका
अनुभव होता
है। गुरु के 'प्रति
समर्पण. छोटा
समर्पण है, लेकिन तुम
उसे अनुभव
करते हो; क्योंकि
गुरु तुरंत ही
तुम्हारी ओर
प्रवाहित
होने लगता है।
अगर तुम गुरु
के प्रति
समर्पित होते
हो तो अचानक
तुम उसकी
ऊर्जा को अपनी
तरफ प्रवाहित
होते अनुभव
करते हो। और
यदि तुम्हें
ऐसा अनुभव
नहीं हो तो समझना
कि तुमने अभी
छोटा समर्पण
भी नहीं किया
है। समर्पण ही
नहीं किया है।
अनेक
कथाएं हैं जो
अब हमारे लिए
अर्थहीन हो गई
हैं, क्योंकि
हम उनके घटित
होने की
प्रक्रिया से
नहीं परिचित
हैं।
महाकाश्यप
बुद्ध के पास
आया और बुद्ध
ने बस अपना
हाथ उसके सिर
पर धर दिया और
घटना घट गई।
महाकाश्यप
नाचने लगा।
आनंद ने बुद्ध
से पूछा कि
उसे क्या हुआ
है? मैं तो
आपके पास
चालीस वर्षों
से हूं। क्या
वह पागल हो गया
है? या वह
दूसरों को
बेवकूफ बना
रहा है? उसे
क्या हो गया
है कि वह नाच
रहा है? मैंने
तो हजारों बार
आपके पैर छुए
हैं!
निस्संदेह
आनंद के लिए
महाकाश्यप
पागल मालूम
पड़ेगा, या उसे
लगेगा कि वह
औरों की आख
में धूल झोंक
रहा है। आनंद
बुद्ध के पास
चालीस साल
जरूर था, लेकिन
उसकी एक बड़ी
कठिनाई थी।
कठिनाई थी कि
वह बुद्ध का
भाई था, बड़ा
भाई। चालीस
वर्ष
पूर्व
जब आनंद बुद्ध
के पास पहुंचा
था तो उसने
बुद्ध से पहली
बात यह कही कि
मैं आपका बड़ा
भाई हूं और जब
आप मुझे
दीक्षित
करेंगे तो मैं
आपका शिष्य हो
जाऊंगा और फिर
आपसे कुछ भी
मांग नहीं कर
सकूंगा, इसलिए उसके
पूर्व ही आप
मुझे तीन वचन दे
दें।
पहला कि
मैं सदा आपके
साथ रहूंगा।
आप मुझे यह
नहीं कहेंगे कि
किसी दूसरी
जगह जाओ, मैं आपके
साथ—साथ
चलूंगा।
दूसरा कि मैं
उसी कमरे में
सोऊंगा
जिसमें आप
सोएंगे। आप
मुझे यह नहीं
कहेंगे कि
बाहर जाओ, मैं
आपके साथ आपकी
छाया की तरह
रहूंगा। और
तीसरा कि अगर
मैं किसी
व्यक्ति को
आधी रात गए भी
आपके पास
लाऊंगा तो आप
उसको समाधान
अवश्य देंगे,
आप यह नहीं
कहेंगे कि यह
समय ठीक नहीं
है। अभी तो
मैं आपका बड़ा
भाई हूं इसलिए
ये तीन वचन
मुझे दे दें।
जब मैं शिष्य
हो जाऊंगा तो
मुझे ही आपका
अनुगमन करना
होगा, अभी
आप मुझसे छोटे
हैं, अभी
आप मुझसे छोटे
हैं, इसलिए
वायदा कर दें।
बुद्ध
ने वचन दे
दिए। और वही
आनंद की
समस्या भी।
आनंद बुद्ध के
साथ चालीस
वर्षों तक रहा, लेकिन वह
समर्पित नहीं
हो सका।
क्योंकि यह समर्पण
का भाव नहीं
है। आनंद ने
अनेक बार
बुद्ध से पूछा
कि मैं कब
ज्ञान को उपलब्ध
होऊंगा? और
बुद्ध ने कहां
कि जब तक मैं
नहीं मरूंगा,
तुम उपलब्ध
नहीं हो
सकोगे। और
आनंद बुद्ध की
मृत्यु के बाद
ही
ज्ञानोपलब्ध
हुआ।
और इस
महाकाश्यप को
अचानक क्या हो
गया था? और क्या
बुद्ध ने उसके
प्रति
पक्षपात किया
था? नहीं, उन्होंने
पक्षपात नहीं
किया। बुद्ध
तो बह रहे हैं,
सतत
प्रवाहमान
हैं। लेकिन
उन्हें पाने
के लिए घाटी
बनना होगा, गर्भ बनना
होगा। अगर तुम
उनसे ऊपर रहे
तो उन्हें
कैसे पा सकोगे?
वह
प्रवाहमान
ऊर्जा तुम तक
नहीं आ पाएगी,
तुम उसे चूक
जाओगे। इसलिए
झुक जाओ। गुरु
के प्रति एक
छोटे से
समर्पण में भी
ऊर्जा शिष्य
की ओर बहने
लगती है।
अचानक और तुरंत
तुम एक
महाशक्ति का
वाहन बन जाते
हो।
ऐसी
हजारों कहांनियां
हैं कि स्पर्श
मात्र से, दृष्टिपात
भर से लोग
आत्मोपलब्ध
हो गए। वे कहांनियां
हमें
बुद्धिगम्य
नहीं मालूम
होतीं। यह
कैसे संभव है?
संभव है।
तुम्हारी आख
में गुरु झांक
भी दे तो तुम
समग्ररूपेण
बदल जाओगे।
लेकिन तब, जब
तुम्हारी आंखें
बिलकुल
खाली हों, घाटी
सदृश हों। अगर
गुरु की
दृष्टि को तुम
पी गए तो तुम
तुरंत बदल
जाओगे।
ये
छोटे—मोटे
समर्पण हैं जो
पूरी तरह
समर्पित होने
के पहले घटित
होते हैं। और
ये छोटे
समर्पण ही तुम्हें
पूर्ण समर्पण
के लिए तैयार
करते हैं। एक
बार तुमने जान
लिया कि
समर्पण के
जरिए कुछ अज्ञात, कुछ
अनअपेक्षित, कुछ
अविश्वसनीय, कुछ
स्वभातीत
घटित होता है
तो तुम्हें
महासमर्पण के
लिए तैयार
होने में
कठिनाई नहीं
होती। और गुरु
वही करता है, तुम्हें
छोटे—छोटे
समर्पण करने
में मदद करता
है ताकि तुम
समर्पण, पूर्ण
समर्पण के लिए
साहस बटोर
सको।
और
आखिरी प्रश्न
:
यह
जानने के अचूक
संकेत क्या
हैं कि जिस
खास विधि का
प्रयोग कर रहे
हैं उससे परम
को उपलब्ध हुआ
जा सकता है।
कुछ सूचक संकेत
हैं। एक कि
तुम अपने भीतर
एक भिन्न तरह का
तादात्म्य
अनुभव म् करते
हो। तुम वही
नहीं रह जाते
हो जो थे। यदि
वह विधि
तुम्हें रास आ
गई तो तुरंत
तुम दूसरेn
आदमी हो
जाते हो। अगर
पति हो या
पत्नी हो तो
तुम वही पति
या पत्नी नहीं
रह जाते जो पहले
थे। अगर तुम
दुकानदार हो
तो वही पुराने
दुकानदार
नहीं रह जाते।
यदि विधि
तुम्हारे अनुकूल
पड़ जाए तो तुम जो
कुछ भी हो
उससे भिन्न हो
जाते हो। वह
पहला संकेत
है।
इसलिए अगर
तुम अपने बारे
में कुछ अजीब
अनुभव करो तो समझना
कि तुम्हें
कुछ घटित हो
रहा है। और
अगर ज्यों के
त्यों रहे, कुछ
अजूबापन
अनुभव में
नहीं आया तो
समझना कि कुछ
नहीं हुआ। कोई
विधि
तुम्हारे
योग्य है या
नहीं, यह
जानने का यह
पहला चिह्न
है। अगर योग्य
होगी तो तुम
तुरंत दूसरे
व्यक्ति में
बदल जाओगे। अचानक
कुछ होता है
कि तुम जगत को
दूसरी तरह से
देखने लगते
हो। आंखें तो वही
रहती हैं, लेकिन
उनके पीछे से
देखने वाला
बदल जाता है।
दूसरा
संकेत है कि
तनाव और
द्वंद्व पैदा
करने वाली
चीजों का लोप
होने लगता है।
ऐसा नहीं है कि
वर्षों की
साधना के बाद
द्वंद्व, चिंता और
तनाव दूर
होंगे। नहीं,
यदि विधि
रास आ गई तो वे
जल्दी ही दूर
होने लगते
हैं। तुम
अनुभव करोगे
कि तुममें एक
जीवंतता आ रही
है और तुम
निर्भार हो
रहे हो। तुम
पाओगे कि गुरुत्वाकर्षण
का नियम
विपरीत ढंग से
काम करने लगा
है। अब
तुम्हें
पृथ्वी अपनी
ओर नीचे को
नहीं खींचती
बल्कि आकाश
तुम्हें ऊपर
को उठाने लगा है।
जब एक
हवाई जहाज
जमीन के ऊपर
उठता है तो
तुम कैसा
अनुभव करते हो? सब कुछ
विचलित हो
जाता है, अचानक
झटका लगता है
और गुरुत्व का
नियम व्यर्थ
हो जाता है।
अब धरती
तुम्हें नीचे
की ओर नहीं
खींचेती, तुम
गुरुत्व से
दूर हट रहे
हो। वैसा ही
झटका तब लगता
है जब एक
ध्यान की विधि
रास आ जाती
है। अचानक ऊपर
उठने लगते हो।
अचानक
तुम्हें लगता
है कि पृथ्वी
व्यर्थ हो गई
है, उसमें
नीचे की ओर
खींचने की
शक्ति नहीं
रही। वह अब
तुम्हें नीचे
नहीं खींचती,
तुम ऊपर की
ओर गति कर रहे
हो।
धर्म
की शब्दावली
में इसे ही
प्रसाद कहते
हैं। दो
शक्तियां हैं, एक
गुरुत्व और
दूसरी
प्रसाद। गुरुत्व
का अर्थ है कि
तुम नीचे
उतारे जा रहे
हो, और
प्रसाद का
अर्थ है कि
तुम ऊपर उठाए
जा रहे हो।
यही कारण है
कि ध्यान में
कई लोगों को
अचानक लगता है
कि उनका वजन
नहीं रहा, कई
लोगों को भीतर
से लगता है कि
उन्होंने
पृथ्वी का
संस्पर्श खो
दिया। अनेक
लोगों ने विधि
के रास आने पर
मुझे कहां है,
आश्चर्य है
कि आख मूंदते
ही हमें लगता
है कि हम जमीन
से ऊपर उठ गए
हैं! एक फीट, दो फीट, यहां
तक कि चार फीट
ऊपर उठ गए
हैं। और आख
खोलते ही हम
जमीन पर ही
होते हैं, जमीन
से ऊपर नहीं।
बात यह
है कि शरीर तो
जमीन पर ही
रहता है, लेकिन तुम
ऊपर उठ जाते
हो। यह
आकाशगामिता
दरअसल ऊपर का
आकर्षण है।
विधि काम कर
गई तो तुम ऊपर
की ओर खींच लिए
जाते हो। विधि
की सफलता
इसमें है कि
वह तुम्हें
ऊपर से आरोहण
के लिए उपलब्ध
कर दे। विधि का
काम यह है कि
वह तुम्हें उस
शक्ति के लिए
उपलब्ध कर दे
जो ऊपर को
उठाती है। इसलिए
विधि के
अनुकूल होते
ही तुम जानते
हो कि तुम भार—शून्य
हो गए।
और
तीसरा संकेत
कि तुम जो भी
करोगे, चाहे वह
कितना ही अदना
सा काम क्यों
न हो, वह
भिन्न ढंग से
करोगे। तुम
भिन्न ढंग से
चलोगे, भिन्न
ढंग से बैठोगे,
भिन्न ढंग
से भोजन
करोगे। हर बात
भिन्न होगी। और
यह भिन्नता
तुम सब जगह
अनुभव करोगे।
कभी—कभी
तो भिन्नता का
यह अजूबा
अनुभव भय पैदा
करता है। तब
आदमी चाहता है
कि वह वापस
जाए वही हो
रहे जो पहले
था। क्योंकि पुराने
का वह बिलकुल
आदी था। वह
परिचित
दुनिया, दिनचर्या की
दुनिया थी।
यद्यपि ऊबभरी
थी तो भी
उसमें
तुम्हें दक्षता
हासिल थी। अब
तुम सर्वत्र
एक अंतराल पाओगे।
तुम्हें
लगेगा कि
तुम्हारी
दक्षता नष्ट
हो गई, तुम्हारी
उपयोगिता घट
गई। तुम्हें
लगेगा कि सर्वत्र
तुम एक अजनबी
हो—बाहरी
आदमी।
और इस
अवस्था से
गुजरना ही
पड़ेगा। उसके
बाद तो फिर वह
भी रास आ
जाएगी। तुम
बदले हो, संसार नहीं
बदला है।
इसलिए
संसार के साथ
अब तुम्हारा
तालमेल नहीं बैठेगा।
इसलिए इस
तीसरे संकेत
को याद रखो कि
जब विधि
तुम्हें जम
जाएगी तब
संसार के साथ
तुम्हारा
तालमेल टूट
जाएगा। तुम
उसके योग्य
नहीं रहे। हर
जगह कुछ चीजें
ढीली होंगी, कुछ
पुर्जे गायब
होंगे।
सर्वत्र
तुम्हें
लगेगा कि
भूकंप हो गया
है। सच तो यह है
कि सब चीजें
वही की वही
हैं, केवल
तुम दूसरे हो
गए हो। लेकिन
एक दूसरे तल पर,
ऊंचे तल पर
तुम लयबद्ध
होओगे।
जब एक
बच्चा बड़ा और
प्रौढ़ होता है
तो उसे ऐसा ही
उपद्रव अनुभव
में आता है।
चौदह या
पंद्रह की
उम्र में हर
बच्चे को
महसूस होता है
कि वह अजनबी
है। क्योंकि
अब उसमें एक
नई शक्ति
अवतरित हुई है—काम—शक्ति।
अभी तक वह
शक्ति नहीं थी, या थी भी
तो छिपी थी।
अब पहली बार
एक नए ढंग की शक्ति
के लिए वह
उपलब्ध हुआ
है।
यही
कारण है कि जब
लड़की—लड़के काम
के तल पर
प्रौढ़ होते
हैं, तो
वे अपने में
कुछ अजीब और
बेढंगा अनुभव
करते हैं। अब
वे कहीं के भी
नहीं मालूम
होते। वे अब
बच्चे तो रहे
नहीं और अभी
वे पूरे
मनुष्य भी
नहीं हुए हैं;
दोनों के
बीच में हैं।
और इसलिए वे
कहीं भी जम नहीं
पाते। छोटे
बच्चों के बीच
खेलते हुए सयाने
मालूम होते
हैं और सयानों
के बीच बच्चे
ही रहते हैं।
वे कहीं जम
नहीं पाते।
वही
बात तब घटित
होती है जब
तुम्हारे साथ
विधि का
तालमेल बैठ
जाता है। तब
एक ऐसा ऊर्जा—स्रोत
उपलब्ध होता
है जो काम—शक्ति
से बहुत बड़ा
है। तब तुम
फिर एक
संक्राति—काल
में होते हो।
अब तुम
दुनियावी
लोगों की दुनिया
के लायक नहीं
रहे, क्योंकि
बच्चे नहीं
रहे। और तुम
संतों की दुनिया
में भी प्रवेश
नहीं कर सकते,
क्योंकि
पूरा आदमी
होना अभी बाकी
है। और बीच की
स्थिति में
आदमी बेढंगा
अनुभव करता
है।
जब कोई
विधि सटीक
बैठेगी तब ये
तीन बातें
घटित होंगी।
लेकिन तुमने
मुझसे यह
अपेक्षा नहीं
की होगी कि
मैं ये बातें
कहूंगा। तुम
तो सोचते होगे
कि मैं कहूंगा
कि तुम ज्यादा
मौन हो जाओगे, ज्यादा
शांत हो
जाओगे। और मैं
उलटी बातें कह
रहा हूं कि
तुम उपद्रव
में पड़ोगे। जब
विधि अनुकूल
आएगी तब तुम
अधिक शांत
नहीं, अधिक
उपद्रव में
पड़ोगे। शांति
तो बाद में
आएगी। और अगर शांति
उपद्रव से
पहले आ जाए तो
समझना कि विधि
विधि नहीं है।
यह तो पुराने
ढांचे में ही
फिर से समायोजित
होना है।
यही
कारण है कि
अधिक लोग
ध्यान की बजाय
प्रार्थना
पसंद करते
हैं।
प्रार्थना
तुम्हें सांत्वना
देती है, वह तुम्हारे
संसार के साथ
तुम्हें समायोजित
कर देती है।
अतीत में
प्रार्थना
वही काम करती
थी, जो आज
मनोचिकित्सक
कर रहे हैं।
अगर तुम अशांत
हो, तो वे
तुम्हारी म्
अशांति को कम
करके तुम्हें तुम्हारे
ढांचे में, परिवार में,
समाज में
फिर से समाहित
कर देंगे।
दो—दो
साल, तीन—तीन
साल तक
मनोचिकित्सक
के पास जाकर
तुम बेहतर तो
नहीं होओगे, ज्यादा
समायोजित भर
होओगे। ठीक
वही काम पुरोहित
भी करते हैं, वे तुम्हें
अधिक समर्पण
समायोजित
बनाते हैं।
तुम्हारा
बच्चा मर गया
है। तुम
परेशान हो और
पुरोहित के पास
पहुंचते हो।
पुरोहित कहता
है, परेशान
मत होओ। जिन
बच्चों को परमात्मा
प्यार करता है,
उन्हें वह
पहले ही बुला
लेता है। और
यह सुनकर तुम
संतोष कर लेते
हो, सोचते
हो कि बच्चा
बुला लिया गया,
परमात्मा
उसे अधिक
प्यार करता
था। या पुरोहित
दूसरी बात
कहता है। वह
कहता है कि
चिंता मत करो,
आत्मा तो
कभी नहीं मरती
है। तुम्हारा
बच्चा स्वर्ग
में है।
कुछ ही
दिन हुए एक
स्त्री मेरे
पास आई थी।
उसके पति का
देहांत हो गया; वह बहुत
दुखी थी। उसने
मुझसे कहां, केवल यही
बता दें कि
किसी अच्छे
स्थान पर उनका
पुनर्जन्म हो
गया और फिर सब
ठीक रहेगा।
मुझे इतना
निश्चय हो जाए
कि वे नरक
नहीं गए हैं
या वे पशु नहीं
हुए हैं कि वे
स्वर्ग में
हैं या
देवयोनि में
हैं तो कोई
चिंता नहीं
रहेगी। मैं सब
बर्दाश्त कर
लूंगी।
कोई
पुरोहित होता
तो कहता, ठीक, तुम्हारा
पति सातवें
स्वर्ग में
देवता होकर पैदा
हुआ है। और वह
बहुत प्रसन्न
है और वह तुम्हारा
इंतजार कर रहा
है।
प्रार्थना
तुम्हें उसी
ढांचे में
समायोजित
करती है। तुम
बेहतर अनुभव
करते हो।
ध्यान
विज्ञान है।
वह तुम्हें
समायोजन में मदद
नहीं देगा। वह
तुम्हें
तुम्हारे
रूपांतरण में
जरूर सहयोग
करेगा। यही
कारण है कि
मैं कहता हूं
कि पहले ये
तीन लक्षण, तीन
संकेत प्रकट
होंगे। शांति
भी आएगी, लेकिन
किसी समायोजन
की तरह नहीं। शांति
आएगी एक आंतरिक
खिलावट की
तरह। वह शांति
समाज और
परिवार, संसार
और व्यवसाय के
साथ एक
समायोजन नहीं
होगी। वह शांति
पूरे
ब्रह्मांड के
साथ एक, लयबद्धता
होगी। तब
तुम्हारे और
समग्रता के बीच
एक गहरी
लयबद्धता
पैदा होगी। तब
शांति होगी—पर
वह बाद में
आएगी। पहले तो
तुम उपद्रव
में पड़ोगे, क्योंकि तुम
पागल हो।
यदि
विधि ठीक है
तो वह तुम्हें
' उस
सबका बोध करा
देगी जो तुम
हो। तुम्हारी
अराजकता, तुम्हारा
मन, तुम्हारा
पागलपन, सब
प्रकाश में आ
जाएगा। अभी
तुम एक अंधेरा
भरा घालमेल हो,
उपद्रव हो।
जब विधि काम
करेगी तो
अचानक प्रकाश
हो जाएगा और
सब घालमेल
स्पष्ट होने
लगेगा। पहली
बार तुम्हें
अपना ठीक वैसा
साक्षात्कार
होगा जैसे तुम
हो। तुम तो
चाहोगे कि
रोशनी गुल
करके तुम फिर
से सो जाओ—वह
स्थिति
डरावनी है। और
यही वह बिंदु
है जब गुरु
सहायक होता
है। वह कहेगा.
डरो मत, यह
तो आरंभ भर
है। और इससे
भागो भी मत।
पहले तो यह
प्रकाश
तुम्हें
तुम्हारा सही
रूप दिखा देगा—वह
यथार्थ जो तुम
हो। और फिर
जैसे—जैसे तुम
गति करोगे, वह तुम्हें
उसमें
रूपांतरित
करेगा जो तुम
हो सकते हो।
आज
इतना ही।
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