राम नाम निज औषधि
दिनांक १३. ७. १९७५ प्रातःकाल श्री रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:
संत शिरोमणि दादू की कुछ साखियां इस प्रकार हैं:
मेरा संसा को नहीं, जीवन मरन का राम।।
सुपनैं ही जनि वीसरैं--मुख हिरदै हरि नाम।।
हरि भजि साफल जीवना, पर उपगार समाई।
दादू मरण तहं भला, जहं पसु-पंखी खाइ।।
राम-नाम निज औषधि, काटै कोटि विकार।
विषम व्याधिजे ऊबरै, काया-कंचन सार।।
कौन पटंतर दीजिए, दूजा नाहीं कोइ।
राम सरीखा राम है, सुमरियां ही सुख होइ।।
नांव लिया तब जानिए, जे तन-मन रहे समाइ।
आदि, अंत, मध, एक रस, कबहूं भूलि न जाइ।।
भगवान, कृपापूर्वक हमें इनका अभिप्राय समझाएं।
जीवन
को जीने के दो ढंग हैं। एक ढंग है संदेह का; और एक ढंग है श्रद्धा का। दोनों बड़ी विपरीत
यात्राएं हैं। दोनों के परिणाम बड़े भिन्न हैं।
और
अक्सर ऐसा होता है कि लोग जीते तो हैं संदेह का जीवन और आकांक्षा करते हैं श्रद्धा
के फलों की। तब असफलता के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगेगा। बीज तो बोए हों संदेह के, और फल चाहे हों श्रद्धा के, यह न तो कभी हुआ है और न कभी
हो सकेगा।
संदेह
का अर्थ है: डांवाडोल चित्त। संदेह का अर्थ है: कंपती हुई मनोदशा। संदेह का अर्थ
है: जो भी कर रहे हैं, उस
करने में भरोसा नहीं है, कि कुछ
होगा। संदेह का अर्थ है: एक हाथ से कर रहे हैं, दूसरे हाथ से मिटा रहे हैं। संदेह का अर्थ
है, एक कदम उत्तर चलते हैं, एक कदम दक्षिण चलते हैं, टूटे हैं, खंडित हैं, विभाजित हैं। संदेह तो महारोग
है, उससे कभी कोई पहुंचा नहीं।
उससे चलने वाला चलता तो बहुत है, मार्ग
तो बहुत तय करता है, मंजिल
कभी नहीं आती है।
श्रद्धा
का अर्थ है: थिर हुआ चित्त। श्रद्धा का अर्थ है: एक-स्वर हुआ चित्त, श्रद्धा का अर्थ है: एक ही
धुन बजती है,
द्वैत
नहीं है। जिस यात्रा पर निकले हैं, पूरे ही निकल गए हैं, पीछे किसी को छोड़ नहीं दिया
है। एक अंग नहीं गया है यात्रा पर, समग्रता से चले गए हैं।
और बड़े
मजे की बात है,
कि
जैसे संदेह वाला आदमी चलता बहुत है। पर पहुंचता नहीं; श्रद्धा वाला आदमी चलता ही
नहीं और पहुंच जाता है।
अगर
पहली बात तुम्हें समझ में आ गई हो, कि संदेह वाला आदमी चलता बहुत है, पहुंचता नहीं; तो दूसरी बात की भी हलकी झलक
मिल सकती है। श्रद्धा वाला चलता ही नहीं, पहुंच जाता है। बैठे-बैठे पहुंच जाता है।
कुछ करता नहीं,
और
पहुंच जाता है। संदेह वाला बहुत उपक्रम करता है। श्रद्धा वाला सिर्फ श्रद्धा करता
है, उतना काफी है। उससे बड़ा कोई
उपक्रम नहीं है। उससे बड़ा कोई उपाय नहीं है।
पर जो
संदेह में ही जीए हैं, उन्हें
बड़ी कठिनाई होती है कि श्रद्धा से कोई पहुंचेगा कैसे, और बैठे-बैठे पहुंच जाएगा!
मैं
विद्यार्थी था जिस विश्वविद्यालय में, रोज सुबह घूमने जाता था। राह के किनारे, एक पुलिया पर, अक्सर बैठ जाता था। घंटों
बैठा रहता था।
एक
प्रोफेसर भी घूमने आते थे। धीरे-धीरे उनसे परिचय हुआ। वे अक्सर मुझे वहां बैठा
देखते थे। एक दिन कहने लगे, ऐसे
बैठे-बैठे कुछ भी न होगा। अपना जीवन गंवा दोगे। कुछ करो। क्योंकि सांझ आता हूं, तुम यहां बैठे मिलते हो। सुबह
आता हूं तब तुम यहां बैठे मिलते हो। आता हूं चला जाता हूं, तुम यहां बैठे ही रहते हो। कर
क्या रहे हो बैठे-बैठे? मुझे
तुम्हारे लिए चिंता होने लगी है।
चिंता
होने-योग्य बात थी, क्योंकि
विश्वविद्यालय तो मुझे सिर्फ बहाना था, वहां मेरा कोई रस न था। वह तो बहाना दूसरों
को दिखाने के लिए,
कि कुछ
कर रहा हूं,
खाली
नहीं बैठा हूं--अन्यथा परिवार के लोग परेशान होते, मित्र-प्रियजन पीड़ित
होते--कुछ कर रहा हूं। वहां कुछ भी न कर रहा था। मैंने उनसे कहा, कभी दोपहर भी आओ, तब भी तुम मुझे यहां बैठा हुआ
पाओगे। कभी आधी रात भी आओ, तब भी
तुम मुझे यहां बैठा हुआ पाओगे। ज्यादातर बैठता ही हूं।
वे
नाराज हुए और कहा,
इस तरह
जीवन गंवा दोगे,
ऐसे
बैठे-बैठे कुछ न मिलेगा। मैंने उनसे पूछा, आप तो नहीं बैठे रहे, कुछ मिल गया? आप तो काफी दौड़े-धूपे हैं।
अगर मिल गया हो,
तो
मुझे बता दें। और अगर न मिला हो, तो मुझ
से बैठना सीख लें। उस दिन से उन्होंने उस रास्ते पर आना बंद कर दिया। मुझे देख
लेते, तो दूर से ही लौट जाते।
धीरे-धीरे बात आई-गई हो गई। मैं भूल ही गया।
कोई
तीन महीने बाद--एक दिन देखा कि वे आ रहे हैं, फिर लौटे भी नहीं। मैं चकित हुआ। वे पास आए, और कहने लगे, बाबा, क्षमा करो। क्यों मेरे पीछे
पड़े हो?
दिन
में कई बार तुम्हारी याद आती है। और कल रात तो हद्द हो गई; रातभर सोने न दिया--सपने में
भी! बैठे हो;
और
मुझसे कह रहे हो,
बैठो
तुम भी। मुझसे भूल हो गई, जो
मैंने कहा,
और यही
निवेदन करने आया हूं कि मैंने कुछ पाया नहीं चल कर। और अगर नहीं बैठ पा रहा हूं, तो सिर्फ इस कारण, कि चलने की आदत हो गई है।
लेकिन कौन जाने,
शायद
तुम पा लो। मैं अपने शब्द वापिस लेता हूं।
श्रद्धा
तो बैठने का एक ढंग है। संदेह चलने की एक प्रक्रिया है। संदेह दौड़ है, श्रद्धा विराम है। संदेह पाने
की आकांक्षा है। श्रद्धा "पा लिया' ऐसा भाव है।
इसे
तुम ठीक से समझ लो। क्योंकि अगर यही बीज न हुआ मूल में, तो जिस वृक्ष की हम कल्पना कर
रहे हैं,
वह कभी
भी प्रगटेगा नहीं। श्रद्धा तो पा लिया--ऐसा भाव है; पहुंच गए--ऐसी प्रतीति है; आ गया मंदिर, कहीं जाने को नहीं और--ऐसी
चित्तदशा है।
संदेह
सदा कहता है: और आगे--और आगे--। संदेह तो मील का पत्थर है, जिस पर तीर लगा है: और
आगे--और आगे--। श्रद्धा तो ऐसी भावदशा है--यहीं; अभी और यहीं।
संदेह
वाले व्यक्ति को,
श्रद्धा
वाला व्यक्ति अंधा दिखाई पड़ता है। श्रद्धा वाले व्यक्ति को, संदेह वाले व्यक्ति पर दया
आती है,
कि
नाहक व्यर्थ ही दौड़े चले जा रहे हैं। कहीं पहुंचेगा नहीं, गिरेगा; और बुरी तरह गिरेगा। श्रद्धा
वाला आदमी भी कब्र में उतरता है, लेकिन
उसके उतरने में एक शान होती है। कब्र में भी जाता है, तो शाही ढंग से जाता है। उसकी
समाधि साधारण समाधि नहीं होती। उसकी समाधि परमात्मा से मिलन का द्वार होती है।
संदेह
वाला भी गिरता है;
बुरी
तरह गिरता है;
कब्र
में ही गिरता है;
मुंह
में धूल भर जाती है। चीखता है, चिल्लाता
है, बचना चाहता है। जिंदगीभर चला
है, और कब्र रोके देती है--कब्र
दुश्मन मालूम होती है। मृत्यु से भय लगता है।
श्रद्धा
वाला तो जीवनभर बैठा है। बाहर बैठा था कि कब्र में बैठा है, कोई फर्क नहीं पड़ता है।
मृत्यु मित्र मालूम होती है। और जिसने जान लिया, कि मृत्यु मित्र है, उसने सब जान लिया। उसने जीवन
के सब खजाने पा लिए। और जो मृत्यु से डरता रहा और भागता रहा, उसने सब गंवा दिया। जीवन में
जो भी पाने योग्य था, उस
सबसे वह वंचित रह जाएगा।
श्रद्धा
वाले व्यक्ति को दया आती है; क्योंकि
लगता है,
संदेह
वाला व्यर्थ ही भागता है। पसीने-पसीने, लथ-पथ, सदा थका हुआ मालूम पड़ता है--और ऐसे ही
गिरेगा। कोई मंजिल हाथ न आएगी। क्योंकि मंजिल तो वहीं थी, जहां तुम थे। जितने दौड़ोगे, उतने ही दूर निकल जाओगे।
क्योंकि
मंजिल तो तुम हो। कुछ और पाना थोड़े ही है! जो तुम्हें मिला ही हुआ है, उसे भर जानना है। कहीं
पहुंचना थोड़े ही है। तुम वहां हो ही सदा से। थोड़ी आंखभर खोलनी है। थोड़ा स्मरण करना
है। थोड़ी सुरति आ जाएं, थोड़ा
होश आ जाए,
तो तुम
अचानक हंसोगे,
कि मैं
जा कहां रहा था! मैं खोज किसे रहा था! खोजने वाला ही तो वह है, जिसे हम खोज रहे थे। सम्राटों
का सम्राट भीतर है!
श्रद्धा
विश्राम बना देती है। क्योंकि जब चित्त में कोई विरोध ही न रहा, कोई विषमता न रही, सब थिर हो गया, तो गति शून्य हो जाती है। उस
गति-शून्य दशा का नाम समाधि है।
ये
श्रद्धा के सूत्र हैं। एक-एक शब्द को ठीक से समझना।
"मेरा संसा को नहीं, जीवन मरन का राम।
सुपने
ही जन वीसरै,
मुख
हिरदै हरिनाम।'
दादू
कहते हैं,
मेरा संशय
जा चुका। मेरा अब कोई संशय नहीं। अब मैंने श्रद्धा पा ली।
श्रद्धा
उपलब्ध ही है। श्रद्धा उपाय नहीं है, उपलब्धि है। तुमने लोगों को कहते सुना होगा
कि श्रद्धा से परमात्मा पाया जाता है। गलत कहते हैं। श्रद्धा परमात्मा है। श्रद्धा
कोई उपकरण थोड़े ही है, कि
इससे परमात्मा को पाया जाता है! यह कोई विधि थोड़े ही है! यह कोई तकनीक थोड़े ही है!
इसलिए ऐसी घड़ी कभी नहीं आती, जब
श्रद्धा छूट जाए;
क्योंकि
तकनीक होता तो छूट जाता। जब पा लिया, तो तकनीक व्यर्थ हो जाता है। विधि तो छूट
जाएगी। मार्ग तो छूट जाएगा, जब
मंजिल मिलेगी। श्रद्धा कभी नहीं छूटती। श्रद्धा परमात्मा को पाने का उपाय नहीं है; श्रद्धा परमात्मा है। वह विधि
नहीं है,
वही
लक्ष्य है।
"मेरा संसा को नहीं'--दादू कहते हैं, अब कोई संशय न बचा, कोई संदेह मन में न रहा।
श्रद्धा उपलब्ध हो गई।
संदेह
का अर्थ होता है,
हमेशा
डरे हुए जीते हो। प्रेम करते हो, लेकिन
संदेह है;
प्रेम
नहीं हो पाता। मित्रता बनाते हो, लेकिन
संदेह है;
मित्रता
नहीं हो पाती। पैर बढ़ाते हो, लेकिन
संदेह है,
पूरी
ताकत से बढ़ नहीं पाती।
सब तरफ
संदेह है,
तो तुम
आधे-आधे जीते हो। और तुम्हारा अधूरा जीवन, तुम्हारा यह कुनकुनापन ही तुम्हें उबलने
नहीं देता और जीवन की गरिमा प्रगट नहीं हो पाती। श्रद्धा तुम्हें सौ डिगरी पर उबाल
देगी, जहां से जल भाप हो जाता है।
संदेह तो तुम्हें कुनकुनाए रखेगा; तुम्हें
सदा बीच में ही अटकाए रखेगा। तुम कुछ भी करोगे, तुम्हारे कृत्य कभी तुम्हारे पूरे प्राणों
से आच्छादित न होगा।
और वही
तो तृप्त होने का ढंग है कि तुम्हारा कृत्य तुम्हारे पूरे प्राण से आच्छादित हो
जाए। तुम जो करो,
उसे
करने में तुम पीछे न रहो, डूब
जाओ पूरे,
एक हो
जाओ। नाचो,
तो नाच
बचे, नाचने वाला न बचे। देखो, तो आंख हो जाओ, और सब खो जाए। सुनो, तो कान हो जाओ, कुछ और न बचे।
जिस
दिन तुम्हारा कृत्य समग्र होता है, टोटल होता है, उसी दिन तो जीवन में आनंद की
वर्षा शुरू हो जाती है। ताल-मेल बैठ जाता है। अभी बस, ताल-मेल टूटा हुआ है, वर्षा तो हो रही है आनंद की; तुम्हारा पात्र उलटा रखा है।
वर्षा होती रहती है, और तुम
रोते-चिल्लाते रहते हो।
संदेह
उलटा पात्र है। तुम कंपते रहते हो। ऐसे ही समझो, कि कोई आदमी कंपते हुए हाथों
से तीर चलाए,
तो
कितना ही लक्ष्य निकट हो, क्या
फर्क पड़ता है?
कंपते
हाथ तीर को न चला सकेंगे। कंपते हाथ तीर को भी कंपा देंगे। कहीं देखेगा, कहीं सोचेगा, कहीं तीर लगेगा।
पाना
चाहते हो सुख;
मिलता
है दुख। जीवनभर हाथ साधते हो, कि सुख
पर तीर लग जाए,
लगता
नहीं; चूक-चूक जाता है। हाथ ही कंप
रहे हैं। हृदय ही कंप रहा है, तुम एक
कंपन हो,
तो
तुम्हारा तीर चूक जाएगा। जब तक संशय है मन में, तब तक तुम चूकते ही रहोगे। संशय की अवस्था
रुग्ण अवस्था है।
मेरे
गांव में मेरे घर के सामने एक सुनार रहता है। वह संशय का प्रतीक है। वह अकेला ही
है, संपन्न भी है; लेकिन संशय उसका प्राण लिए ले
रहा है। ताला लगाता है, हिलाकर
देखता है। दस कदम जाएगा, फिर
लौट आएगा,
दस कदम
जाने में संदेह फिर पकड़ लेता है, कि पता
नहीं ताला लगाया,
हिलाया, नहीं हिलाया!
पूरे
गांव के बच्चे उसे मुसीबत में डाले रहते थे। वह पहुंच गया है फर्लांग भर, बाजार सब्जी लेने जा रहा है, फिर कोई मिल जाएगा, कहेगा--"सोनी जी, ताला खुला पड़ा है।' फिर कोई उपाय नहीं है, कि वह न वापिस लौट आए। और ऐसा
भी नहीं है कि ऐसा हजार दफे मजाक हो चुकी हो, और हजार दफा गलत पाया ताला तो लगा हुआ ही
है। लेकिन पता नहीं, नौं सौ
निन्यानबे दफा लोगों ने झूठ कहा हो और अब यह लड़का ठीक ही कह रहा हो। वह फिर लौट
गया है;
वह फिर
घर लाकर ताला हिला रहा है। नदी पर स्नान कर रहा है और फिर किसी ने कह दिया--सोनी
जी ताला...! यह भी नहीं कहा, कि
खुला है,
कि लगा
है; सिर्फ ताला!...उसका सारा
स्नान भ्रष्ट हुआ,
वह
भागा अपनी पोटली उठाकर घर की तरफ।
संशय
से बंधा हुआ चित्त, खूंटी
से बंधा हुआ है। थोड?ी-बहुत
रस्सी है,
उस
रस्सी में बंधा हुआ जानवर जैसे खूंटी के आस-पास घूमता रहता है, ऐसा संशय से भरा हुआ व्यक्ति
भी, बस, रुग्णता के आसपास ही घूमता
रहता है रोग से बंधा है।
श्रद्धा
मुक्ति है।
और
तुम्हारे चित्त में संदेह तब तक रहेंगे जब तक कि तुम अपने को बहुत समझदार समझ रहे
हो। जितना समझदार आदमी है, उतना
ही ज्यादा संदेह से भरा होगा। वह सुनार बहुत बुद्धिमान है, विचारशील है। जितना बुद्धिमान
आदमी अपने को सोचता है बुद्धिमान, उतना
ज्यादा संदेह करता है; उतना
हर बात पर सोचता है, विचार
करता है। धीरे-धीरे विचार करना, एक
जीवन की बंधी हुई जकड़ हो जाती है। एक कारागृह हो जाता है। वह विचार ही करता रहता
है।
सुना
है मैंने,
कि
इमानुएल कांट को एक लड़की ने विवाह के लिए निमंत्रण दिया था। इमानुएल कांट जर्मनी
का बड़ा विचारक,
दार्शनिक
हुआ। उसने कहा,
"सोचूंगा'।
एक तो
स्त्रियां साधारणतः किसी को विवाह का निमंत्रण नहीं देतीं। कोई तीन वर्ष तक वह
लड़की प्रतीक्षा करती रही, कि यह
अपनी तरफ से कुछ पहल ले; लेकिन
संदेह वाला आदमी अपनी तरफ से पहल नहीं लेता। जब तक झंझट से बचे रहे, तब तक ठीक। इमानुएल कांट ने
अपनी तरफ से पहल न ली, जब
लड़की ने मजबूरी में पहल भी ली, तो
उसने कहा,
मैं
सोचूंगा;
क्योंकि
समझदार आदमी बिना सोचे कुछ भी नहीं करता। वह बिना सोचे प्रेम भी नहीं करता।
उसने
काफी सोचा-विचारा। विश्वविद्यालय में जहां वह प्रोफेसर था, वहां के पुस्तकालय को छान
डाला। सारे पक्ष और विपक्ष में जितने भी बिंदु हो सकते थे, सब लिख डाले कि विवाह करो तो
क्या लाभ है,
न करो
तो क्या लाभ है। करो तो हानि कितनी है, न करो तो हानि कितनी है, सब लिख डाला; बड़ी मुश्किल में पड़ गया।
जैसे-जैसे
खोजता गया,
वैसे-वैसे
जाल बड़ा होता गया। कहते हैं, उसने
कोई तीन सौ पचास पक्ष में, और तीन
सौ पचास विपक्ष में तर्क लिख लिए। स्वभावतः काफी समय निकल गया। जब तर्क बराबर ही
हो गए दोनों तरफ;
तीन सौ
पचास इस तरफ और तीन सौ पचास उस तरफ। और तर्क की यह खूबी है, कि अगर तुम खोजते ही जाओ तो
हमेशा पाओगे,
वे
बराबर हो जाते हैं। क्योंकि हर तर्क दुधारी तलवार है, वह दोनों तरफ काटता है।
जो लोग
तर्क के द्वारा निष्कर्ष ले लेते हैं, वे ठीक तर्कनिष्ठ नहीं हैं इसलिए। उनको तर्क
की पूरी कला नहीं आती, नहीं
तो तर्क तो कभी भी कोई निष्कर्ष लेने ही नहीं देगा। जो आदमी ठीक-ठीक तार्किक है, वह निष्कर्ष नहीं ले सकता; क्योंकि हर तर्क दोनों तरफ
काटता है,
बराबर
काटता है। तो ऐसी तो कोई घड़ी आती नहीं जिस तरफ, एक तरफ तर्क ज्यादा हो, दूसरी तरफ तर्क कम हो; वह बराबर ही होता है; क्योंकि हर तर्क दोनों तरफ
काटता है। ठीक तार्किक व्यक्ति निष्कर्ष ले ही नहीं सकता।
इमानुएल
कांट बड़े से बड़े तार्किकों में एक था। देखा कि सब खोज व्यर्थ गई, दोनों तरफ बराबर तर्क हो गए
हैं, अब कैसे निर्णय लेना! बात
वहीं की वहीं खड़ी है। तीन सौ पचास तर्क खोजने में जो समय गया, वह व्यर्थ गया। निर्णय अब उसी
को लेना है। तर्क से कुछ सहारा न मिला। तो वह गया, लड़की के द्वार खटखटाए; लेकिन पता चला कि लड़की की तो
शादी हो चुकी है। उसको तो तीन बच्चे भी हो चुके हैं। तो वर्षों पहले की बात थी, यह तो वह भूल ही गया इस तर्क
की उधेड़-बुन में। इमानुएल कांट अविवाहित ही रहा; अविवाहित ही मरा। क्योंकि
तर्क ने निर्णय ही न लेने दिया।
संदिग्ध
व्यक्ति निर्णय ले ही नहीं सकता। और अगर सन्दिग्ध व्यक्ति भी निर्णय लेता है, तो उसका एक ही अर्थ है, कि उसने संदेह पूरा न किया।
कहीं न कहीं संदेह की यात्रा में उसने थोड़ी-बहुत श्रद्धा कर ली। जहां श्रद्धा की, वहीं निष्कर्ष आ गया। श्रद्धा
ही निष्कर्ष है;
और कोई
निष्कर्ष है ही नहीं।
अगर
तुमने कभी भी कोई निष्कर्ष लिया है तो तुम गौर करना, कि वह संदेह के कारण नहीं
लिया है,
संदेह
से थककर लिया है। तर्क के जाल से, ऊहा-पोह
से बेचैन होकर लिया है। ऐसी जगह पहुंच गए; कि खुद ही थक गए और कहा कि ठीक है, अब ले ही लो। अब कुछ तो करना
ही पड़ेगा,
इसलिए
कुछ करो।
यह तो
पहले ही क्षण में हो सकता था, यह
इतना समय खोने की कोई जरूरत न थी। यह इतना बहुमूल्य जीवन व्यर्थ ही गया।
श्रद्धा
निष्कर्ष है। श्रद्धावान व्यक्ति प्रतिपल निष्कर्ष में जीता है। उसके जीवन में एक
निष्पत्ति है। वह कभी अधूरा नहीं है। वह सदा पूरा है। इसलिए वह जो भी करता है
परिपूर्ण मन से करता है। और जो भी परिपूर्ण मन से किया जाता है, उससे ही आनंद उपलब्ध होने
लगता है।
तुमने
अगर भोजन भी परिपूर्ण मन से किया है, तुम ब्रह्म का स्वाद पाओगे। अगर तुम सुबह
घूमने भी परिपूर्ण मन से निकल गए हो, तो तुम चारों तरफ ब्रह्म को ही हवाओं में
तिरते,
और आकाश
में उतरते देखोगे। अगर तुमने पूरे मन से गुलाब के फूल को देख लिया है, तो उसमें ही तुम्हें परमात्मा
के दर्शन हो जाएंगे। असली राज है, पूरे
मन से होना। श्रद्धा का उतना ही अर्थ है।
"मेरा संसा को नहीं'--अब मेरा कोई संशय नहीं। दादू
कहते हैं--"जीवन मरन का राम।' और जब संशय ही न रहा, तो अब जीवन हो, तो भी राम का, मरण हो तो भी राम का।
जब तक
संशय है,
तब तुम
जीवन तो राम का कहोगे, मरण
राम का नहीं कह सकते। तब तक तुम कहोगे कि सौ वर्ष जिलाओ, हजार वर्ष जिलाओ, मारो मत। घर में तुम्हारा
बेटा पैदा होगा तो तुम बैंड-बाजे बजाओगे, परमात्मा को धन्यवाद दोगे, फूल-उपहार चढ़ाओगे। और बेटे की
मृत्यु हो जाएगी,
तो तुम
परमात्मा को धन्यवाद न दे सकोगे।
तो
तुम्हारा मन पूरा नहीं है। अगर पूरा ही मन था, तो जन्म जैसे उसने दिया था, मृत्यु भी उसी ने दी। जब जन्म
में भी उसी का हाथ था, तो
मृत्यु में भी उसी का हाथ है। जब उसका हाथ है, तो सब ठीक है। फिर शिकायत कहां?
शिकायत
तो इसलिए पैदा होती है, कि
तुम्हारा चुनाव है। वस्तुतः शिकायत इसलिए पैदा होती है, कि तुम परमात्मा से ऊपर अपने
को रखे हुए हो। तुम्हारे मन के अनुकूल करता है, तो ठीक; तुम्हारे मन के प्रतिकूल करता है, तो गलत।
यह तो
भक्त का लक्षण नहीं। यह तो श्रद्धा की बात ही नहीं। श्रद्धा का तो इतना ही अर्थ है, कि तू जो करता है, ठीक करता है। अब मेरी कोई चाह
भी नहीं है,
कि तू
यही कर। तेरी मर्जी, मेरी
मर्जी है! तूने जन्म दिया, हम
प्रफुल्लित हुए। तूने वापिस उठा लिया, हम फिर आनंदित हैं। तेरा ही सब कुछ है--जन्म
भी, मरण भी।
"जीवन मरन का राम'--दादू कहते हैं, अब जीवन भी उसी का है, मृत्यु भी उसी की है। अब हम
बीच से हट गए।
इस बात
को ठीक से समझ लें। संदेह वाला आदमी बीच से कभी नहीं हटता। वह कहता है, हम निर्णय लेंगे। श्रद्धावान
बीच से हट जाता है। वह कहता है, कि
हमारी क्या जरूरत;
तू कर
ही रहा है। तू सदा ठीक ही कर रहा है। और हमारे सोचने-विचारने से कुछ बदलता भी तो
नहीं। तुम्हारे सोचने-विचारने से रत्तीभर भी तो कोई परिवर्तन नहीं होता। जो होता
है, होता है, जो होना है, हो रहा है। श्रद्धालु कहता है, तब सब ठीक। मेरे बीच में खड़े
होने की जरूरत ही क्या है? वह बीच
से हट जाता है।
इस बीच
से हट जाने का नाम ही विनम्रता है, निरहंकारिता है। संदेह वाला व्यक्ति अहंकार
से कभी नहीं छूट सकता। संदेह से अहंकार पुष्ट होता है; श्रद्धा से मर जाता है। इसलिए
सभी धर्म श्रद्धा पर जोर देते हैं; क्योंकि श्रद्धा के बिना कोई निरहंकारी नहीं
हो सकता। संदेह का इतना ही अर्थ है, कि मैं सोचूंगा, विचारूंगा, मैं निर्णय लूंगा। श्रद्धा का
इतना ही अर्थ है,
कि तू
ही सोच-विचार रहा है, तू ही
निर्णय ले रहा है। मैं बीच में व्यर्थ क्यों आऊं।
मैंने
सुना है,
एक
सम्राट एक रथ से गुजरता था। जंगल से आता था शिकार करके। राह पर उसने एक भिखारी को
देखा, जो अपनी पोटली को सिर पर रखे
हुए चल रहा था। उसे दया आ गई। बूढ़ा भिखारी था। राजपथ पर मिला होता, तो शायद सम्राट देखता भी
नहीं। इस एकांत जंगल में--उस बूढ़े के थके-मांदे पैर, जीर्ण-जर्जर देह, उस पर पोटली का भार--उसे दया
आ गई।
रथ
रोका, भिखारी को ऊपर रथ पर ले लिया।
कहा, कि कहां तुझे जाना है, हम राह में छोड़ देंगे। भिखारी
बैठ गया। सम्राट हैरान हुआ। पोटली वह अब भी सिर पर रखे हुए है। उसने कहा, "मेरे भाई, तू पागल तो नहीं है? पोटली अब क्यों सिर पर रखे है? अब तो नीचे रख सकता है। राह
पर चलते समय पोटली सिर पर थी, समझ
में आती है। पर अब रथ पर बैठकर किसलिए पोटली सिर पर रखे हैं?'
उस
गरीब आदमी ने कहा,
"अन्नदाता, आपकी इतनी ही कृपा क्या कम है
कि मुझे रथ पर बैठा लिया! अब पोटली का भार और रथ पर रखूं, क्या यह योग्य होगा?' लेकिन तुम सिर पर रखे रहो, तो भी भार तो रथ पर ही पड़ रहा
है।
ठीक
ऐसी ही दशा है संदेह और श्रद्धा की। तुम सोचते हो--सोच तो वही रहा है। तुम करते
हो--कर भी वही रहा है। तुम नाहक ही बीच में निर्मित हो जाते हो। तुम यह जो पोटली
सिर पर ढो रहे हो अहंकार की, और दबे
जा रहे हो,
और
अशांत,
और
परेशान! और रथ उसका चल ही रहा है, तुम
कृपा करो। रथ पर ही पोटली भी रख दो, जिस पर तुम बैठे हो। तुम निश्चिंत होकर बैठ
जाओ। श्रद्धा का इतना ही अर्थ है।
श्रद्धा
इस जगत में परम बोध है। संदेह अज्ञान है। वह बूढ़ा आदमी मूढ़ था। थोड़ी भी समझ हो, तो पोटली तुम नीचे रख दोगे।
सब चल ही रहा है। तुम नहीं थे, चांदत्तारे
चल रहे थे,
कोई
अड़चन न थी। फूल खिलते थे, पक्षी
गीत गाते थे,
लोग
पैदा होते थे--सब चल रहा था। तुम कल नहीं रहोगे, तब भी सब चलता रहेगा। तुम
क्षणभर को हो यहां। तुम क्यों व्यर्थ अपने को अपने सिर पर रखे हुए हो? उतार दो पोटली।
जीवन, मरण दोनों उसी के हैं। सुख भी
उसी का,
दुख भी
उसी का। बीमारी भी उसी की, स्वास्थ्य
भी उसी का। अगर तुम बीच से बिलकुल हट जाओ, तो बड़ी से बड़ी क्रांति घटित होती है। एक मात्र
क्रांति--जो हो सकती है जगत में, वह
घटित होती है। तुम्हारे बीच से हटते ही, जिस दिन तुम कहते हो, सब तेरा; उसी दिन दुख मिट जाता है, उसी दिन मृत्यु मिट जाती है।
क्योंकि दुख अस्वीकार में है, मृत्यु
अस्वीकार में है,
तुम
मरना नहीं चाहते और मरना पड़ता है, इसलिए
मृत्यु है। तुम राजी हो, फिर
कैसी मृत्यु! फिर कौन तुम्हें मारेगा? तुम अपने हाथ से राजी हो, चलकर जाने को राजी हो, फिर तुम्हें कौन मारेगा? मृत्यु हार गई तुमसे।
अगर
दुख आया,
और तुम
दुख में भी प्रफुल्लित हो, और
धन्यवाद दे रहे हो--दुख हार गया। अब दुख तुम्हें दुखी न कर सकेगा। दुख दुखी करता
है; क्योंकि तुम्हारी चाह छिपी है
भीतर, कि दुख न हो, सुख हो। और बड़ी हैरानी की बात
यह है,
कि ऐसी
चित्त-दशा में जब तुम चाहते हो दुख न हो, और सुख हो; तुम जब दुख होता है तब तो
दुखी होते ही हो;
क्योंकि
जो तुमने नहीं चाहा था, वह हो
रहा है। और जब सुख होता है; तब भी
तुम सुखी नहीं हो पाते; क्योंकि
भय बना रहता है,
कि
जल्दी ही दुख आएगा। ज्यादा देर न लगेगी, दुख आ ही रहा होगा। कहीं सुख छिन न जाए!
जब तुम
सुखी होते हो;
तब तुम
दुखी होते हो,
कहीं
सुख छिन न जाए। और जब तुम सुखी होते हो तब भी सुखी नहीं हो पाते क्योंकि मन कहता
है कि और ज्यादा सुख हो सकता था। यह भी कोई सुख है? कल्पना प्रगाढ़ होती है। जो
मिलता है वह सदा छोटा मालूम पड़ता है; वासना विराट होती है। जो मिलता है वह सदा
क्षुद्र मालूम होती है, तब तुम
दुखी होते हो।
और जब
दुख आता है तब तुम दुखी होते हो। तुम्हारा सारा जीवन ही दुख हो जाता है। इस
चित्त-दशा को ही हमने नर्क कहा है। नर्क कोई भौगोलिक जगह नहीं है। उसे नक्शे में
मत खोजना। वह तुममें छिपा है। वह तुम्हारे जीवन को देखने के ढंग का नाम है।
और फिर
कुछ लोग है जो सदा स्वर्ग में रहते हैं। उनके हाथ में चाबी श्रद्धा की लग गई है।
सुख आता है तो वे धन्यवाद देते हैं, कि हमारी कोई पात्रता न थी, इतना तूने सुख दिया। और दुख
आता है तो भी वे धन्यवाद देते हैं कि जरूर तेरा कोई राज होगा। तू निखारना चाहता
होगा, तू परीक्षा लेता होगा, तू गलत को काटता होगा। दुख
तूने दिया है,
तो
जरूर दुख के पीछे कोई राज होगा। तेरी कोई अनुकंपा ही छिपी होगी। हम नहीं पहचान
पाते; हमारी भूल है। ऐसा व्यक्ति
दुख में भी सुख पाता है और सुख में तो सुख पाता ही है। उसकी चित्त-दशा स्वर्ग की
हो जाती है।
"मेरा संसा को नहीं, जीवन मरण का राम।
सुपने
ही जन वीसरै,
मुख
हिरदै हरिनाम।'
कहते
हैं दादू,
अब
सपने में भी उसका नाम नहीं बिसरता।
जब
संशय न रहे तो सपना मिट जाता है।
इसे
क्या तुमने कभी थोड़ा निरीक्षण किया है, कि जब तुम्हारे चित्त में बहुत संदेह होते
हैं, तब रात बहुत सपने आते हैं। और
जब तुम्हारे चित्त में बड़ी शांति, श्रद्धा
की भाव-दशा होती है, सपने
कम हो जाते हैं। जब परिपूर्ण श्रद्धा होती है, सपने बिलकुल खो जाते हैं; क्योंकि सपना भी तुम्हारी
वासना की ही प्रक्रिया है।
सपना
है क्या?
सपना
क्यों पैदा होता है? सपना
पैदा होता है तुम्हारी अधूरी वासना से। जो तुम चाहते थे, वह नहीं मिला, तो उसे तुम सपने में पाने की
कोशिश करते हो। तुमने चाहा था कि तुम सम्राट हो जाओ, लेकिन नहीं हो पाए। सम्राट भी
नहीं हो पाते सम्राट। वे भी भिखारी बने रह जाते हैं। तुमने चाहा था सम्राट होना, नहीं हो पाए। रात सपने में हो
जाते हो। सोने का महल बना लेते हो। सिंहासन पर बैठ जाते हो।
मन
तुम्हें समझाने की कोशिश कर रहा है; तुम्हें सांत्वना दे रहा है। मन कह रहा है
मत घबड़ाओ;
न सही
दिन में,
रात
में तो हो ही सकते हो। तुम अगर दिन में भूखे रहे, उपवास किया, तो रात राजमहल में तुम्हें
निमंत्रण मिल जाता है सपने में। जो तुम दिन में चूक गए हो, उसे रात सपना पूरा कर देता
है। सपना परिपूरक है। अन्यथा तुम पागल हो जाओगे। सपना तुम्हें थोड़ी सी राहत दे
देता है,
थोड़ी
ढाढ़स बंधा देता है। सपना कहता है, घबड़ाओ
मत। और फर्क क्या है?
आधा
दिन जागते हो,
आधी
रात सोते हो। समझ लो, कि एक
आदमी साठ साल जिंदा रहा, तो बीस
साल सोएगा। अगर बीस साल यह आदमी सोकर सपना देखता रहे, और दूसरा आदमी बीस साल जागकर
सपना देखता रहे,
कि वह
सम्राट है,
क्या
फर्क है?
सपना
कहता है,
क्यों
परेशान हो रहे हो?
जो तुम
नहीं कर पाए,
वह हम
यूं ही कर देते हैं। जो वासना से नहीं हो पाया, वह हम कल्पना से कर देते हैं। कल्पना, वासना की सहचरी है।
जैसे
ही व्यक्ति संदेह से मुक्त हो जाता है, जो मिला है, उससे अनुगृहीत हो जाता है। जो
मिला है वह इतना है, कि
उससे ज्यादा की कोई मांग ही नहीं उठती। सपना खो जाता है। सपने की कोई जरूरत न रही।
वासनाग्रस्त व्यक्ति ज्यादा सपने देखता है। निर्वासना से भरा हुआ व्यक्ति कोई सपने
नहीं देखता।
तुम्हारे
सपने, तुम्हारे मन की खबर देते हैं।
मनोविज्ञान तो तुम्हारे सपनों के आधार पर ही तुम्हारे व्यक्तित्व का पता लगाता है।
एक आदमी हो सकता है ब्रह्मचारी है, लेकिन उसके सपने में वह स्त्रियों को देखता
है। उससे असली खबर मिलती है। उसके ब्रह्मचर्य का कोई मूल्य नहीं है। असली बात तो
रात है। सपना बता देता है, कि
भीतर असली में क्या चल रहा है। ब्रह्मचर्य ऊपर-ऊपर है, भीतर वासना चल रही है। और एक
आदमी दीन-दरिद्र है। अपने को त्याग में रखकर जीता है, सब छोड़ दिया है, लेकिन रात सपनों में महल
देखता है--कुछ छूटा नहीं।
सपने
तुम्हारे संबंध में ज्यादा असलियत की खबर देते हैं, कैसी विडंबना है। तुम्हारा
जीवन ऐसा झूठ हो गया है कि सपनों से पता लगाना पड़ता है, कि सच क्या है। मनोवैज्ञानिक
पहले तुम्हारे सपने पूछता है, कि
अपने सपने बताओ। क्योंकि तुम जो जागकर कहोगे, उस पर तो भरोसा किया नहीं जा सकता। तुम्हारा
धोखा आखिरी सीमा पर पहुंच गया है। तुम कहोगे कुछ, होओगे कुछ, और तुम्हें खुद भी पता नहीं
चलता कि जो तुम कह रहे हो, वह
कहां तक सच है,
कहां
तक झूठ है।
ऐसे
संदेह की दशा में तुम दूसरों पर ही थोड़े ही संदेह करते हो; अपने पर भी संदेह करते हो।
संदेह धीरे-धीरे आत्म-संशय बन जाता है। तुम्हें अपने पर भी भरोसा नहीं रहा है।
दादू
कहते हैं,
अब तो
सपने में भी उसका विस्मरण नहीं होता। इसका अगर ठीक अर्थ समझो, तो यह हुआ, अब सपने आते ही नहीं, उसका स्मरण ही होता है, क्योंकि उसका स्मरण होता रहे, तो सपना कैसे आएगा? स्मरण का तो अर्थ है कि नींद
पूरी नींद नहीं है अब। कोई हिस्सा जागा हुआ है, जो स्मरण कर रहा है। दीया जल रहा है भीतर।
ज्योति जल रही है। अंधेरा नहीं है; अन्यथा स्मरण कौन करेगा? चैतन्य की ज्योति भीतर जगमगा
रही है। अंधेरे में सपने आते हैं, जैसे
अंधेरे में चोर-डाकू आते हैं, सांप-बिच्छू
आते हैं। जब दीया जलता है घर में, तो
चोर-डाकू भी दूर से निकल जाते हैं, कि घर का मालिक जागा हुआ है। जब ज्योति
स्मरण की जलती है भीतर, तो
सपना कैसे संभव है?
"सुपनै ही जनि वीसर, मुख हिरदै हरि नाम।'
मुख
में भी हरि का नाम चलता रहता है, हृदय
में भी हरि का नाम चलता रहता है।
इसको
ठीक से समझ लेना। इसका यह मतलब नहीं है कि दादू "हरि-हरि-हरि--ऐसा जपते रहते
हैं। इसे ठीक से समझ लेना; क्योंकि
इससे भ्रांति होने का डर है, कि तुम
जपने लगो "हरि-हरि-हरि-हरि...।' उससे तुम पागल हो जाओगे। उससे कोई पहुंचता
नहीं। स्मरण का अर्थ, शब्द
का स्मरण नहीं है;
स्मरण
का अर्थ,
भाव
है।
जैसे
मां खाना बनाती है, उसका
छोटा बच्चा कमरे में घूम रहा है। वह खाना बनाती है, लेकिन स्मरण बच्चे की तरफ लगा
रहता है,
कि
कहीं वह कमरे में बाहर तो नहीं निकल गया। ऐसा कोई नाम नहीं लेती रहती उसका कि
"हरि-हरि-हरि...' क्योंकि
अगर नाम लेती रहे,
तो
बच्चे का पता ही न चलेगा कि बच्चा कहां निकल गया।
न; वह नाम नहीं लेती, लेकिन स्मरण की एक धारा बहती
रहती है। एक सूक्ष्म अंतर्संबंध बना रहता है। बार-बार लौटकर देख लेती है, फिर काम में लग जाती है।
लेकिन काम में लगी भी रहती है, और
भीतर, एक सतत सुरति बनी रहती है, कि बच्चा कहीं बाहर तो नहीं
गया! कुछ सामान तो नहीं गिरा लेगा अपने ऊपर! हाथ-पैर तो नहीं तोड़ लेगा! ऐसा कोई
शब्दों में सोचती नहीं, बस
इसका भान बना रहता है। इस भान का नाम स्मरण है।
तो मुख
में और हृदय में एक ही भाव बना रहता है--परमात्मा है; मैं नहीं हूं। लेकिन बहुत से
लोगों ने गलत समझ ली है बात। हरेकृष्ण--हरेराम वाले लोग हैं, वे सड़कों पर चीखते-चिल्लाते
फिरते हैं--"हरे कृष्ण, हरे
राम--। वह चीखना-चिल्लाना है, उससे
कुछ सार नहीं है। सार तो तब है, जब तुम
बैठो, उठो, चलो, सोओ, जागो, उसका भान न भूले। एक सतत
अहर्निश धार तुम्हारे भीतर उसके स्मरण की चलती रहे। उसकी भाव-धारा बनी रहे। तुम
उसे भूलो न।
जैसे
तुम कभी किसी के प्रेम में पड़ जाते हो, तो तुम सब काम करते हो, लेकिन भीतर हृदय की धड़कन में
प्रेमी का स्मरण बना रहता है। तुम उसे नहीं भूल पाते। उसकी याद बनी रहती है। एक
मीठी सी पीड़ा हृदय के आसपास घनीभूत हो जाती है। एक कांटा चुभता रहता है। उस कांटे
में चुभन भी है और मिठास भी है। वह चुभन भी सौभाग्य है क्योंकि वह उन्हीं के जीवन
में उतरती है,
जो
धन्यभागी हैं,
जिन्होंने
श्रद्धा को पाया है, अन्यथा
नहीं उतरती।
इस
संसार में तुम्हारे कुछ अनुभव ऐसे हैं, जिनसे तुम्हें थोड़ी सी समझ आ सकती है। जैसे
कभी तुम किसी के प्रेम में पड़े हो तो, या तुम्हें अगर कभी खयाल हो, किसी गहरी चिंता में तुम उलझ
गए हो,
तो।
विद्यार्थी, स्कूल में परीक्षा के दिन आ
जाते हैं तब रात-दिन एक ही स्मरण से भरा रहता है। रात सोता भी है, सपने भी देखता है, तो सपने भी परीक्षा देने के
देखता है। एक याद बनी रहती है। मगर ये सब उपमाएं ठीक नहीं हैं। ये तो सिर्फ
तुम्हें इशारे देने को हैं क्योंकि परमात्मा की याद इन सबसे बड़ी भिन्न है। श्रद्धा
होगी तो उसकी प्रतीति होगी।
"सुपने ही जनि वीसरै मुख हिरदै
हरि नाम।'
एक धुन
बजती रहती है अखंड। श्वास-श्वास में वही डोलता रहता है।
मैंने
सुना है कि एक मुसलमान फकीर हुआ--बड़े से बड़े सूफियों में एक--जलालुद्दीन रूमी। वह
अल्लाह-अल्लाह का स्मरण करता रहता था। एक दिन गुजर रहा था, रास्ते से; जहां से गुजर रहा था, वहां सुनारों की दुकानें थीं।
लोग सोने-चांदी के पत्तर पीट रहे थे।
कुछ
हुआ! जलालुद्दीन खड़ा हो गया। उसे लुहार सुनार, जो हथौड़ियों से पीट रहे थे सोने-लोहे के
पत्तरों को,
उनमें
अल्लाह की आवाज सुनाई पड़ने लगी। वह नाचने लगा। वह घंटों नाचता रहा। पूरा गांव
इकट्ठा हो गया। ऐसी महिमा उस गांव में कभी देखी नहीं गई थी। जलालुद्दीन प्रकाश का
एक पुंज मालूम होने लगा। वह नाचता ही रहा, नाचता ही रहा। लुहारों के सुनारों के हथौड़े
बंद हो गए;
क्योंकि
भीड़ बहुत बढ़ गई। वे भी इकट्ठे हो गए देखने। वह जो चोट पड़ती थी, जिससे अल्लाह का स्मरण आया था, वह भी बंद हो गई, लेकिन स्मरण जारी रहा, और वह नाचता रहा।
उस रात, उस संध्या दरवेश-नृत्य का
जन्म हुआ।
और जब
बाद में,
उसके
शिष्य उससे पूछते कि तुमने इसे कैसे खोजा, तो वह कहता, कहना मुश्किल है, परमात्मा ने ही मुझे खोजा।
मैं तो बाजार किसी दूसरे काम से जा रहा था। अचानक उसकी आवाज मुझको सुनाई पड़ी।
लेकिन
यह आवाज किसी और को सुनाई नहीं पड़ी थी। उसके मन में एक धागा था। एक सेतु था।
निरंतर अल्लाह का स्मरण कर रहा था। उस चोट से, उसका मन तैयार था, उस तैयार मन में...अन्यथा
कहीं सुनारों या लुहारों की हथौड़ियों से कहीं किसी को परमात्मा का बोध हुआ है!
कहते
हैं नानक को--वे नौकर थे एक सूबेदार के, और उसके सिपाहियों को अनाज देने का काम करते
थे--एक दिन अनाज दे रहे थे, तौल
रहे थे अनाज,
एक-दोत्तीन--,तौलकर डालते गए। ग्यारह, बारह, फिर तेरह, तो पंजाबी में तो तेरह
"तेरा'
ही
पुकारा जाता है।
"तेरा'--कहते ही परमात्मा की स्मृति
बंध गई। फिर तो वह तौलते गए और "तेरा'--कहते गए। फिर चौदह नहीं आया। गांवभर में खबर
पहुंच गई। मालिक भी भागा हुआ आया, रोका
कि क्या पागल हो गए हो। लेकिन इस आदमी को रोकना मुश्किल था। इस आदमी में कोई
महाशक्ति का अवतरण हुआ था। फिर मालिक ने भी कहा कि बांटने दो; क्योंकि यह नानक नहीं हैं, कुछ और आविर्भूत हुआ है। बस, उस दिन से नानक खो गए, "तेरा' ही बचा।
नानक
से कोई पूछता कि कैसे पाया, तो वे
कहते, अनाज तौलते हुए पाया।
"तेरा'
पर अटक
गया। "तेरा'
कहते
कहते कहते रूपांतरण हो गया; तेरा
शब्द से एक छलांग लग गई।
भाव
में धारा बंधी हो,
तो
बहाना कोई भी मिल सकता है। भीतर भाव चल रहा हो, तो पक्षियों के गीत जगा सकते हैं। और भीतर
भाव न चल रहा हो,
तो
कृष्ण की बांसुरी भी सुनाई न पड़ेगी।
"सुपनै ही जनि वीसरै, मुख हिरदै हरि नाम।
हरि भज
साफल जीवना,
पर
उपगार समाई।
दादू
मरना तहं भला,
जहं
पशु पंखी खाइ।'
"हरि भजि साफल जीवना'--दादू कहते हैं, हरि को भजकर ही जीवन की सफलता
जानी।
सफल
शब्द बड़ा अर्थपूर्ण है। अंग्रेजी में शब्द है सक्सेस; वह वैसा अर्थपूर्ण नहीं है।
और भाषाओं में शब्द हैं, लेकिन
सफल शब्द का कोई मुकाबला नहीं। सफल का अर्थ होता है--फल का लग जाना। उसका अर्थ
सिर्फ सक्सेस नहीं है; क्योंकि
यह भी हो सकता है,
कि एक
आदमी सक्सेस हो जाए, सफल हो
जाए, और फल न लगे। एक और शब्द है
संस्कृत में,
वह है, "सुफल'। यह भी हो सकता है कि फल लग
जाए, लेकिन वह सुफल न हो। सफल का
अर्थ है,
जब तुम
अपने फल पर आ गए। फल आखिरी घटना है वृक्ष में। बीज से शुरू होती है यात्रा। अंकुर
टूटता है,
वृक्ष
बनता है,
फूल
आते हैं,
फिर फल
आते हैं। फिर फल में बीज लग जाते हैं। फल आखिरी विकास की अवस्था है। सफल का अर्थ
है, कि तुम अपनी उस जगह आ गए, जहां फूल भी लग गए और फल भी
लग गए।
मनुष्य
के जीवन का फल क्या है? जब तक
हरि न आ जाए जीवन में, तब तक
फल नहीं लगता। तो अगर तुम संसार में ही रहे, तो तुम बीज की भांति ही रहोगे और मर जाओगे।
सफल होना तो दूर,
तुम
वृक्ष भी न हो पाओगे। अगर तुमने संसार से थोड़ा ऊपर उठने की आकांक्षा शुरू की, तो अंकुर टूटा। तो बीज के
भीतर छिपा हुआ जीवन बाहर आया। आकाश की तरफ यात्रा शुरू हुई।
अगर
तुम सिर्फ आकांक्षा ही करते रहे, अभीप्सा
ही करते रहे,
तो
वृक्ष हो जाओगे,
लेकिन
फूल न लगेंगे। अभीप्सा जीवन बननी चाहिए। जो तुम चाहते हो, उस यात्रा पर तुम्हें निकलना
भी चाहिए। जो तुम चाहते हो, वह
तुम्हारा आचरण भी बन जाना चाहिए।
जब
परमात्मा की तरफ यात्रा तुम्हारा आचरण बनने लगती है, तो फूल आने शुरू हुए। तो ऐसा
समझो कि संसारी--बीज; साधक--वृक्ष; साधु--फूल; और सिद्ध--तो स्वयं परमात्मा
हो गया--सफल। जब तक तुम परमात्मा ही न हो जाओ, तब तक हम सफल नहीं मानते।
इस
मुल्क की आकांक्षा बड़ी गहन है। पूरब की अभीप्सा बड़ी उत्तुंग है। इससे कम पर हम
राजी नहीं है। जब तक तुम्हारे भीतर का परमात्मा ही निखर न आए, सब कूड़ा-कचरा जल न जाए, तुम्हारा सोना ही न बच रहे तब
तक हम राजी नहीं है, तब तक
हम सफल नहीं कहते। धन की सफलता को हमने सफलता नहीं कहा है। पद की सफलता को सफलता
नहीं कहा है। बस,
एक
प्रभु-प्राप्ति को सफल होना कहा है।
"हरि भजि साफल जीवना'--जिसने हरि को भज लिया, हरि का भजन आ गया, स्मरण आ गया, जिसके जीवन में हरि की गंध
उतर आई,
वह सफल
हुआ।
"पर उपगार समाई'--ऐसे व्यक्ति का जीवन करुणा बन
जाता है,
प्रेम
बन जाता है,
सेवा
बन जाता है।
इसे
थोड़ा समझ लेना चाहिए। ये शब्द बड़े अनूठे हैं--"पर उपगार समाई'
तुम
दूसरे का उपकार दो तरह से कर सकते हो। एक तो, कि तुम उपकार करो--चेष्टा से, विचार से, योजना से। तब यह उपकार भी
तुम्हारे अहंकार को बढ़ाएगा। तब तुम उपकारी हो जाओगे। तब तुम्हें लगेगा, कितना मैंने दूसरे के लिए
किया। तब तुम्हारा अहंकार बढ़ेगा।
एक और
है उपकार का ढंग,
कि तुम
हरि को उपलब्ध हो जाओ। तुम इसके पहले उपकार की बात ही मत सोचो। उसके पहले तुम सेवा
कर ही नहीं सकते। उसके पहले सब सेवा जहरीली होगी। वह तुम्हें भी खाएगी और दूसरे को
भी नुकसान पहुंचाएगी।
हरि को
तुम पहले पा लो,
फिर
तुम्हारे जीवन में एक सेवा होगी, उसे
तुम्हें योजना न करनी पड़ेगी, न
तुम्हें कृत्य करना पड़ेगा--वह होगी।
इसलिए
दादू कहते हैं--पर उपगार समाई। तुम उसमें समा जाओगे; तुम उससे पीछे न खड़े रहोगे; तुम उपकार करते वक्त पीछे खड़े
होकर देखते न रहोगे, कि मैं
उपकार कर रहा हूं--तुम उपकार में समा जाओगे। तुम उसके साथ एक हो जाओगे, लीन हो जाओगे। तुम्हें यह भी
याद न रहेगी,
कि कोई
धन्यवाद दे। कोई धन्यवाद देगा, तो तुम
चौंकोगे,
कि
मैंने कुछ किया नहीं। और यह जो उपकार है, "उपकार' शब्द इसे पूरा नहीं कह पाता।
यह तुम्हारा आनंद होगा; यह
तुम्हारा उत्सव होगा।
तो दो
तरह के उपकार संभव है। एक तो ईसाई मिशनरी है, वह कर रहा है; या सर्वोदयी है, वह कर रहा है। एक तरह का
उपकार वह है,
कि करो
सेवा; क्योंकि सेवा से मेवा मिलेगा।
मगर मेवा पर नजर लगी है; सेवा
उपकरण है।
एक
दूसरा उपकार है,
वह
मेवा मिलने से होता है। मेवा मिल गया, इसलिए सेवा करता है आदमी। क्योंकि अब करे
क्या? कुछ और करने को बचा नहीं। अब
सारा जीवन उसका हो गया, अब वह
जहां ले जाए,
जाता
है। जो करवाए,
करता
है। अब कर्ता खुद नहीं रहा, अब
उपकरण हुआ,
निमित्त
हुआ।
पहले
तरह की सेवा नैतिक है। दूसरे तरह की सेवा धार्मिक है। इसलिए मेरा भी जोर पहले
ध्यान पर है।
विनोबा
कहते हैं,
सेवा
धर्म है। मैं नहीं कहता। मैं कहता हूं, धर्म सेवा है। और फर्क भारी है। विनोबा कहते
हैं, सेवा करो, तुम धार्मिक हो जाओगे। इतना
आसान नहीं है। सेवा करने से तुम धार्मिक न होओगे। मैं कहता हूं, धर्म सेवा है। तुम धार्मिक हो
जाओ, तुम सेवक हो ही जाओगे। छाया
की तरह आएगी सेवा। यह सदा की परंपरा है।
इधर
गांधी और विनोबा ने उस परंपरा को बुरी तरह तोड़ा है। क्योंकि परंपरा यही है, कि पहले तुम प्रभु को पा लो।
जब तक तुमने उसे नहीं पा लिया, बांटोगे
क्या? तुम्हारे पास बांटने को क्या
है? बुझे हुए दीए हो; दूसरे दीए को जलाने मत निकल
जाना, अन्यथा जलों को बुझा दोगे।
तुम अपने घर ही रहो, तुम्हारी
अभी सेवा खतरनाक है। पहले तुम जले हुए दीए बन जाओ, फिर तुम किसी को जला सकते हो।
पहले तुम हो जाओ,
तो तुम
दे सकते हो,
बांट
सकते हो। जो तुम्हारे पास ही नहीं है, उसे तुम देने चले हो, उसे तुम बांटने चले हो? तो तुम्हारी सेवा में भी
अहंकार फलेगा;
उसमें
परमात्मा न लगेगा। उसमें तुम और अस्मिता से भरोगे, और अकड़ हो जाएगी।
सेवक
को देखा,
कैसा
अकड़ा हुआ चलता है! क्योंकि वह कहता है, हम सेवक हैं। वह पहले पैर से शुरू करता है, पैर दबाने से, फिर गर्दन दबाता है, पैर पर ही रोक देना, नहीं तो फिर गर्दन पर चला
आएगा। तुम अगर पैर पर सोचो, कि चलो
करने दो मसाज,
सेवक
आदमी है। वह धीरे-धीरे आ जाएगा गर्दन पर। उसकी इच्छा पैर दबाने की है भी नहीं, वह तो केवल गर्दन पकड़ने का
उपाय है। वह सेवा करने इसलिए आया है कि लोग कहते हैं, मेवा मिलेगा। सेवा करने से
थोड़े ही उसे मेवा मिल रहा है। सेवा तो साधन है; साध्य पर नजर लगी है।
नहीं, जब कोई हरि भजन से भर जाता है, तो उसके जीवन में सेवा होती
है। वह सेवा ऐसी ही सहज है, जैसे
श्वास का चलना,
जैसे
हृदय का धड़कना;
जैसे
सुबह सूरज का निकलना; जैसे
रात चांद का आना,
जैसे
नदियों का सागर की तरफ बहना; जैसे
फूल खिल जाए,
उनकी
सुगंध का हवा में बिखर जाना--बस, ऐसी ही
सरल और सहज है।
वह
उपकार नहीं है,
वह
किसी के ऊपर बोझ नहीं है। वस्तुतः जिस व्यक्ति ने सेवा की है और प्रभु को नहीं
जाना, वह तुमसे धन्यवाद मांगेगा। और
जिस व्यक्ति ने प्रभु को जाना है, और
सेवा की है,
वह
तुम्हें धन्यवाद देगा कि तुम्हारी बड़ी कृपा, कि मुझे मौका दिया। इनकार भी कर सकते थे।
तुम्हारा अनुग्रह है, कि तुम
थोड़ी सी मेरे पास जो संपदा थी, उसे
बांटने में साथ दिया, साझीदार
बने; क्योंकि मैं बोझिल हुआ जा रहा
था।
प्रभु
से भरा हुआ व्यक्ति ऐसे ही है, जैसे
मेघ जल से भरे। और जब कोई भूमिखंड प्यासा हो, उस मेघ को बरसने को राजी कर लेता है, तो मेघ धन्यवाद देता है।
अन्यथा बोझ से लदा हुआ था।
"हरि भजि साफल जीवना, पर उपगार समाइ।
दादू
मरणा तहं भला,
जहं
पसु पंखी खाइ।।'
और
दादू कहते हैं जीवन तो लग गया; जीवन
तो बन गया सेवा। हरि ने आकर बदल दिया सब; लेकिन मर जाऊंगा, तब भी यह आकांक्षा है कि ऐसी
जगह मरूं,
जहां
पशु-पंखी खा सके,
उनका भोजन
बन सकूं। जीवन तो काम आ गया, मौत भी
काम आ जाए। जीवन का तो उपयोग हो गया, सफल हुआ, मौत भी व्यर्थ न चली जाए।
तुम्हारा
जीवन भी व्यर्थ जा रहा है। मौत के व्यर्थ जाने का तो सवाल ही कहां है? वह तो प्रश्न ही नहीं उठता।
दादू कहते हैं,
जीवन
तो सफल हो गया,
अब
तेरी कृपा ऐसी हो कि मरूं, तो ऐसी
जगह मरूं,
कि मौत
का भी उपयोग हो जाए। वह भी अकारण बोझ न हो। पशु-पक्षियों का भोजन बन जाऊं।
यह
थोड़ा समझने जैसा है।
इस जगत
में सभी चीजें एक-दूसरे का भोजन है। फल पकता है, गिरता है, तुम्हारा भोजन हो जाता है।
तुम मरोगे--लेकिन आदमी का अहंकार अदभुत है। आदमी मरता है तो या तो उसे गड़ा देते
हैं, या जला देते हैं, सिर्फ पारसियों को छोड़ कर।
दादू पक्के जरथुस्त्र के अनुयायी मालूम होते हैं। अब तो पारसी भी चिंतित हैं, वे भी विचार करते हैं कि किसी
तरह यह उपद्रव बंद किया जाए। वह भी चाहते है जलाओ या गड़ाओ, या कोई और उपाय खोजो। यह शरीर
को पशु-पक्षियों के लिए खुला छोड़ देना ठीक नहीं। यह आदमी का अहंकार है। इस जगत में
सभी चीजें एक-दूसरे का भोजन हैं। तुमने जीवनभर भोजन किया, शरीर क्या है तुम्हारा? तुमने जो-जो भोजन किया है वही
तुम्हारा शरीर है,
उसे
वापिस लौटा दो। जलाकर क्यों नष्ट करते हो? गड़ाकर क्यों खराब करते हो? वह किसी के काम आ सकता है, काम आ जाने दो। उतना भी ऋण
लेकर क्यों वापिस जाते हो? वह भी
ऋण चुका दो। जो लिया था, वह दे
दिया।
मेरे देखे भी पारसियों की व्यवस्था जितनी
वैज्ञानिक है,
किसी
की भी नहीं। क्योंकि उससे जीवन का वर्तुल नहीं टूटता। जीवन का वर्तुल निर्मित बना
रहता है। तुमने लिया था, लौटा
दिया। तुमने खाया था, तुम
भोजन बन गए। लेन-देन बराबर हो गया। आदमी नष्ट करता रहा है। फिर हम रो रहे हैं, परेशान हैं।
पश्चिम
में एक बहुत जोर से एक आंदोलन चल रहा है, उसको वे एकोलाजी का आंदोलन कहते हैं। वह
आंदोलन यही है,
कि
आदमी चीजों का उपयोग तो कर लेता है, लौटाता नहीं। तो लौटाता ही नहीं, तो प्रकृति बंजर होती जा रही
है। भूमि सूखती जा रही है। वर्तुल टूटता जा रहा है जगह-जगह से। जगह-जगह से खंड हो
गए हैं। जीवन का वह संगीत नहीं रहा।
हम सब
लेते जाते हैं। पेट्रोल हम लेते जाते हैं जमीन से, जलाते जाते हैं, लौटाया हमने? लौटाने का कोई सवाल ही नहीं
है। जो भी हम लेते हैं प्रकृति से, उसको हम लौटाते नहीं हैं। और जो हम लौटाते
हैं--जैसे कि प्लास्टिक को हम लौटाते हैं, प्लास्टिक के बर्तन, और प्लास्टिक के सामान--वे
करोड़ों साल तक पड़े रहेंगे, उनको
जमीन गला नहीं सकती। उनको जमीन पचा नहीं सकती। क्योंकि वह अप्राकृतिक है। जो भी
प्राकृतिक है,
उसे
जमीन पचा लेती है;
जो
अप्राकृतिक है,
उसे
पचा नहीं सकती। तो वे पृथ्वी की छाती पर बोझ की तरह पड़े रहेंगे।
और यह
सब प्रकृति के वर्तुल को तोड़ना है। फिर वर्षा समय पर नहीं आती, फिर धूप ज्यादा पड़ती है, कि धूप पड़ती ही नहीं, कि वर्षा ज्यादा हो जाती है, बाढ़ आ जाती है। फिर तुम
परेशान होते हो।
कुछ भी
समय पूर्व ऋतुएं समय पर आती थीं। सब क्रमबद्ध था। आदमी ने सब अस्त-व्यस्त कर दिया
है। उसी जीवन के वर्तुल का एक हिस्सा है। चार अरब आदमी है जमीन पर। कितना भोजन चार
अरब आदमियों ने अपने शरीरों में इकट्ठा कर रखा है! ये सब जला दिए जाएंगे। तो इतना
भोजन करने की क्षमता, इतनी
भोजन पैदा करने की क्षमता पृथ्वी की क्षीण हो जाएगी।
आदमी
को गड़ा देते हैं,
तो भी
थोड़ा-बहुत चला जाता है, थोड़-बहुत
तो पृथ्वी बचा लेती है उसमें से, लेकिन
बिलकुल जला देते हैं। उसमें भी थोड़ी-बहुत बचने की संभावना थी। अब हम विद्युत से
जलाते हैं,
वह भी
बचने की संभावना नहीं है। एक आदमी को हम जला देते हैं, राख कर देते हैं; उतना हमने जीवन की क्षमता को
कम कर दिया। ऐसे पृथ्वी बांझ होती चली गई। सब अस्त-व्यस्त हो गया है।
दादू
कहते हैं,
जो लो, वह वापिस लौटा दो। भोजन किया
है, भोजन बन जाओ। एक हाथ से लिया, दूसरे हाथ से लौटा दो। अगर
ठीक से समझो,
तो यही
तो कर्म की सारी की सारी गहन व्याख्या है, कि तुम कुछ लेकर मत जाओ, तुम पर कुछ बोझ न हो, ऋण न हो। उऋण हो जाओ। जीवन
में काम आ गए,
मृत्यु
में भी काम आ जाओ।
"राम नाम निज औषधी, काटै कोटि विकार।
विषम
व्याधि ये उबरै,
काया
कंचन सार।।'
"राम-नाम निज औषधी'--औषधि तुम्हारे भीतर है। और
तुम कहां-कहां खोजते फिर रहे हो? "निज औषधी'--वह तुम्हारी अपनी है, तुम्हारे पास है और तुम वैद्यों से पूछते
फिर रहे हो।
"राम नाम निज औषधि, काटै कोटि विकार।'
और एक
ही औषधि से सारे विकार कट जाते हैं। और वह औषधि बड़ी सीधी और सरल है, कि प्रभु का स्मरण भर जाए।
"विषम व्याधि ये उबरै'--और जैसे ही तुम्हारे जीवन में
प्रभु का स्मरण भरता है, तुम्हारी
विषमता,
असंतुलन
कम होने लगता है। तुम सम होने लगते हो; समता को उपलब्ध होने लगते हो; संतुलन सध जाता है। जीवन में
एक संगीत और संयम आ जाता है।
"विषम व्याधि ये ऊबरै, काया कंचन सार--' और उसी अवस्था में, जब कोई व्याधि नहीं रह जाती
चित्त की,
कोई
बीमारी नहीं रह जाति चित्त की, तुम
परम स्वस्थ होते हो। उसी क्षण में तुम्हारे भीतर छिपा हुआ जो स्वर्ण है, वह प्रगट होता है। तब
तुम्हारी यह मिट्टी, मास-मज्जा
की देह,
तुम्हारी
अपनी देह नहीं रह जाती। "काया कंचन सार'--तब तुम एक स्वर्ण-देह को देख पाते हो। एक
अविनाशी काया का अविर्भाव होता है। तब तुम अपने भीतर उस छिपे को देख पाते हो, जिसका कोई अंत नहीं है। जिसका
कोई प्रारंभ नहीं है।
"विषम व्याधि ये उबरै, काया कंचन सार।'
"कौन पटंतर दीजिए'-- दादू कहते हैं, कैसी उपमा दे? बड़ा मुश्किल है। क्योंकि उपमा
उसकी हो सकती है,
जिसके
जैसी और चीजें भी हो।
"कौन पटंतर दीजिए, दूजा नाहीं कोय।'
अब उस
घड़ी की हम किस बात से तुलना करें? किस
बात से उपमा दें?
जब
व्यक्ति परम स्वास्थ्य को उपलब्ध होता है और स्वर्ण-काया उपलब्ध होती है, सार-सार बच रहता है, असार-असार छूट जाता है; शुद्ध चैतन्य का अविर्भाव
होता है;
एक
महिमा-मंडित अमृत जीवन का जन्म होता है, उसे किस तरह हम समझाएं? कौन सी उपमा दें? क्योंकि जो भी हम कहेंगे, वह छोटा पड़ता है। यह क्यों
दादू को कहना पड़ रहा है? क्योंकि
इसके पहले उन्होंने जो उपमा दी है, उसकी वजह से। उपमा क्या दी है? "राम-नाम निज औषधि'--राम-नाम को औषधि बताना पड़ा
है। औषधि कहना राम-नाम को, बहुत
छोटी बात कहनी है। पर क्या करो? मजबूरी
है।
..."काटै कोटि विकार।
विषम
व्याधि ये उबरै,
काया
कंचन सार।।'
उसे
स्वर्ण-काया कहा है, लेकिन
क्या कहो?
सोने
से क्या लेना-देना उसका? तुम्हारे
लिए सोना बहुत मूल्यवान है, इसलिए
दादू को कहना पड़ता है, कि वह
काया स्वर्ण की है। बड़ी बहुमूल्य है, लेकिन उसका कोई भी मूल्य नहीं हो सकता। सोना
भी वहां मिट्टी है।
"कौन पटंतर दीजिए, दूजा नाहीं कोय।'--कैसे उसकी उपमा दें? कोई दूसरी वैसी घटना नहीं।
"राम सरीखा राम है, सुमिरयां ही सुख होय।'
बस, राम सरीखा राम है। मत पूछो, राम कैसा है? मत पूछो, ईश्वर कैसा है? मत पूछो, आत्मा कैसी है? क्योंकि कोई उत्तर दिया नहीं
जा सकता।
"राम सरीखा राम'--तब फिर एक ही उपाय है: पूछो
मत परिभाषा,
स्वाद
लो। "सुमरिया ही सुख होय।' स्वाद
लो, सुमिरण करो। यह मत पूछो कि
परमात्मा कैसा है। इतना ही पूछो, कि
परमात्मा कैसे हो सकता है। यह मत पूछो, कि सत्य क्या है; इतना ही पूछो कि मेरी आंख
सत्य के लिए कैसे खुल सकती है। क्योंकि बंद आंख वाले आदमी के पास कोई भी अनुभव
नहीं है,
जिससे
सत्य की उपमा दी जा सके। और जो भी उपमा हम देंगे, आखिर में सब झूठी सिद्ध होगी।
कोई परिभाषा नहीं हो सकती।
परिभाषा
का मतलब ही होता है, एक को
दूसरे से समझाना। अगर तुम्हारे गांव में गुलाब के फूल नहीं होते, तो भी दूसरे फूल होते हैं। और
कोई यात्री अगर गुलाब के फूल की खबर लाए, और तुम पूछो, कैसे? तो कह सकता है। तुम्हारे गांव
के फूलों से तुलना दे सकता है। कहेगा कि इनसे भिन्न होते हैं, लेकिन कोई रास्ता बनाया जा
सकता है,
कि
समझा दे तुम्हें। कम से कम फूल तुम्हारे गांव में भी होते हैं। वह जो फूलने की
क्रिया है,
वह
तुम्हारे गांव में भी घटती है। खिलने की क्रिया तुम्हारे गांव में भी घटती है। लाल
फूल भी तुम्हारे गांव में होते हैं। गुलाब के बराबर फूल भी तुम्हारे गांव में होते
हैं। कोई सुगंध भी तुम्हारे गांव में खोजी जा सकती है, जो गुलाब की सुगंध की थोड़ी सी
झलक दे दे।
लेकिन
परमात्मा का फूल तो तुम जिस गांव में रहते हो, वहां लगता ही नहीं। वहां उस जैसी कोई घटना
ही नहीं घटती।
धन से
उपमा दे,
बड़ी
ओछी मालूम पड़ती है; धन
तुम्हारा परमात्मा है। पद से उपमा दें, बड़ी ओछी मालूम पड़ती है, पद तुम्हारा परमात्मा है। फिर
भी उपमा दी गई है। संतों ने उसे परम पद कहा है। संतों ने उसे परम धन कहा है। करें
क्या? मजबूरी है। धन तुम्हारा
परमात्मा है,
उससे
तुम समझोगे थोड़ा-बहुत। पद तुम्हारा परमात्मा है।
निकटतम
जो उसके पहुंच सकती है बात, वह भी
पहुंच नहीं पाती। वह है, प्रेम
इसलिए ईसा ने परमात्मा को प्रेम कहा है। लेकिन वह भी नहीं पहुंच पाती, क्योंकि प्रेम तुम्हारा इतना
कीचड़-सना है;
क्योंकि
उससे डर है,
कि तुम
कुछ गलत ही समझ जाओ।
जीसस
ने प्रेम कहा है परमात्मा को। यह नहीं कहा, कि परमात्मा प्रेमी है। यह भी नहीं बताया, किसको प्रेम करता है? कौन प्रेयसी है? परमात्मा को ही प्रेम कहा है।
परमात्मा प्रेम से अलग नहीं है। वह प्रेम की भाव-दशा है। लेकिन भूल होना संभव है, हमेशा संभव है।
तुमने
प्रेम को जाना है कामवासना की कीचड़ में सना हुआ। तुम्हारे परमात्मा की तस्वीर में
भी कीचड़ आ जाएगी। अभी स्वीडन में वे एक फिल्म बना रहे हैं, "सेक्स लाइफ आफ जीसस'--जीसस का काम-जीवन। जो बना रहे
हैं, उनका खयाल है कि जब जीसस ने
इतना महत्व दिया है प्रेम को; तो
जरूर उनका काम-जीवन रहा होगा। कीचड़ आ गई! तुम सोच ही नहीं सकते कि जीसस का जीवन, कैसा जीवन होगा। स्वाभाविक है, तुम अपने से ही सोच सकते हो।
तुम्हारा गणित तुमसे ही शुरू होगा। इसलिए दादू ठीक ही कहते हैं--कौन पटंतर दीजिए, दूजा नाहीं कोय।
"राम सरीखा राम है, सुमिरयां ही सब सुख हो।'
इसलिए
मत पूछो,
कि राम
क्या है--इतना ही पूछो, कि
उसका स्मरण कैसे करें। बुद्ध ने बार-बार कहा है, मत पूछो सत्य क्या है। इतना
ही पूछो,
सत्य
कैसे पाया जाता है? विधि
पूछो, सत्य मत पूछो। प्रकाश क्या है, यह मत पूछो, इतना ही पूछो कि आंख कैसे
खुलती है। प्रकाश तो, तुम्हारी
आंख खुलेगी,
तभी
तुम जान सकोगे।
"नांव लिया तब जाणिए, जे तन-मन रहे समाइ।'--तभी जानोगे, जब नाम लोगे। जब उसके स्मरण
से भरोगे,
थिरकोगे, नाचोगे। पागल हो उठोगे, उस दीवानेपन में ही जानोगे।
पियोगे उसकी शराब,
तभी
जानोगे--नांव लिया तब जाणिए--
और कोई
जानने का उपाय नहीं। पढ़ो शास्त्र, सुनो
व्याख्याएं,
उससे
कुछ भी लाभ न होगा, कोई
इशारा भी न मिलेगा। भटकने की संभावना है, पहुंचने की नहीं।
नांव
लिया तब जाणिए,
जे
तन-मन रहा समाई।
--और नाम ऐसा, जो तन में और मन में समा जाए।
रोएं-रोएं में समा जाए। जो तुमसे भिन्न न हो; तुम्हारी श्वास बन जाए, तुम्हारी हृदय की धड़कन बन
जाए। तुम उसमें ऐसे लिप्त और सिक्त हो जाओ, कि कोई फासला न रहे।
"आदि, अंत, मध एक रस, कबहूं भूलि न जाइ।'
ये
शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं--आदि, अंत, मध एक रस।
दुनिया
में तीन तरह की संभावनाएं हैं अनुभव की। एक अनुभव है, जिसको हम दुख कहते हैं। और
संत कहते हैं,
कि दुख
का अनुभव,
शुरू
में तो सुख का है और बाद में दुख का है। जिसको तुम सुख कहते हो, उसको संत दुख कहते हैं।
तुम्हारे सुख का अनुभव पहले तो सुख का है, पीछे दुख का है। हर सुख तुम्हें दुख में ले
जाता है। इसलिए तुम्हारे सुख को, संत
दुख ही कहते हैं।
फिर एक
दूसरा अनुभव है,
जिसको
संत सुख का अनुभव कहते हैं। वह पहले तो दुख देता है, बाद में सुख देता है। तुम उसे
दुख कहते हो,
संत
उससे सुख कहते हैं; उसका
ही नाम तपश्चर्या है। पहले दुख, फिर
सुख। तो ये तो दो;
और
तीसरा,
जिसको
संत आनंद कहते हैं। आदि, अंत, मध एक रस--जो शुरू में भी सुख, मध्य में भी सुख, अंत में भी सुख। अगर तुम ऐसा
कोई सुख खोज लो,
तो वही
आनंद है। वही परमात्मा का स्मरण है, वही समाधि-रस है। जो सदा सर्वकाल में, तीनों काल में, प्रारंभ में, मध्य में, अंत में सदा ही एक रस है।
तुमने
दो तरह के अनुभव जाने हैं। किसी स्त्री से प्रेम हो गया, बड़ा सुख मालूम होता है; जल्दी ही दुख मालूम होगा।
विवाह करो घर बसाओ, दुख
शुरू हुआ--अड़चन,
झंझट, कलह! इधर विवाह पूरा नहीं हो
पाता, कि तलाक की तैयारी शुरू हो
जाती है। तुमने जितने भी सुख जाने है, वह सब ऐसे ही हैं कि शुरू में सुख होता है, पीछे दुख आ जाता है।
सुख तो
लगता है सिर्फ ऐसा ही है कि जैसे मछली को पकड़ने वाला कांटे पर आटा लगा देता है।
मछली आटे को खाने के लिए आती है, कांटे
को पकड़ने के लिए नहीं; पकड़ी
जाती है कांटे में।
तुम सब
गौर करो,
तुम
सबके मुंह आटे के लिए खुले थे, पकड़े
गए कांटे में। अब कांटा छिदा है। सबके मुंह में कांटे छिदे हैं। वे किसी सुख की
आकांक्षा में गए थे, पाया
दुख।
इस
अनुभव के कारण,
समझदारों
ने सोचा कि इसको उलटा कर लें, शीर्षासन
कर लें। दुख को साधें। जब सुख को साधने से दुख मिलता है, तो दुख को साधने से सुख
मिलेगा। गणित बिलकुल साफ था।
इसलिए
तपश्चर्या के अनेक रूप पैदा हुए। दुख को साधो, खड़े हैं धूप में, कांटे के बिस्तर बिछाकर सो
रहे हैं। इसमें सच्चाई है, कि जो
लोग इसको साध लेते हैं, उनको
पीछे सुख मिलता है। सुख मिलता है, क्योंकि
उनको दुख मिलना मुश्किल हो जाता है। दुख तो उन्होंने खुद ही साध लिया, अब उनको दुख तो आप दे नहीं
सकते।
जो
आदमी धूप में खड़ा है, भूखा
प्यासा खड़ा है,
जिसने
उसको साध लिया,
उसको
अब भूख का दुख नहीं दिया जा सकता, धूप का
दुख नहीं दिया जा सकता। जो आदमी कांटों की सेज पर सोया है, अब कोई भी सेज इस दुनिया में
उसको दुख नहीं दे सकती उसे स्वर्ग की सेजें मालूम पड़ेंगीं, इस कांटे की सेज के मुकाबले
उसको पीछे सुख ही सुख मालूम पड़ेगा। मगर दोनों ही एक से हैं। सिर्फ तुमने सिक्के को
उलटा कर लिया।
आनंद
बिलकुल तीसरी घटना है। "आदि, अंत, मध एक रस कबहूं भूलि न जाइ।' और जब ऐसी घटना घटती है, तो कैसे भूली जा सकती है?
"नाव लिया तब जाणिए, जे तन मन रहे समाइ।
आदि
अंत मध एक रस,
कबहूं
भूल न जाइ।।'
प्रभु
स्मरण आनंद की घटना है, सुख की
नहीं। और जो उसे शुरू करता है, शुरू
से ही सुख शुरू होता है। सुख बढ़ता ही चला जाता है। सुख महासुख हो जाता है। और सुख
का ऐसा नाद भीतर बजने लगता है , कि
रोआं-रोआं उसी में डूब जाता है। तुम उसमें ही जीते हो, उसमें ही होते हो। वह
तुम्हारा होना हो जाता है। तुम्हारा अस्तित्व बन जाता है।
इसे
कैसे समझाएं?
"कौन पटंतर दीजिए, दूजा नाहीं कोय।
राम
सरीखा राम है,
सुमिरया
ही सुख होय।।'
सुमरोगे, तो ही जानोगे, कि उसके जैसा बस वही है।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें