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रविवार, 5 मार्च 2017

05 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा - (मनसा-मोहनी)

दिन बहुत लम्बे और उबाऊ भरे हो गए थे। शरद ऋतु ओर ग्रीष्म ऋतु के मध्‍यकाल में ही आता है फागुन मास। उस शरद और ग्रीष्म ऋतु का ये संधि काल ही समझो। इसमें एक तरफ तो सुहाना पन होता है और दूसरी और एक अलसायापन जो आपके अंग संग भर जाता है। धूप सुमधुर तो लगती है परंतु कुछ ही क्षण के बाद वह बदन पर चूबने लग जाती है। धूप की वहनता को शरीर आपके पर से गुजरने भर देना चाहता है। एक उथले पानी की तरह मानो वो कह रही है, केवल आप गुजरो रूको मत। पूरी प्रकृति इस समय सजधज कर कैसे रमणीय लगने लग जाती है। आपकी नजर जहां तक जाती है, वहीं आपको चारों और उपवन, पुष्प और वायु का मधुर नाद ही मिलेगा। चारों और हर कोने कातर में प्रकृति का यौवन रंगा-रचा आप देख सकते है। जहां तक आपकी नजर देखना चाहेगी वहां तक, पूरी प्रकृति कैसी नये कोमल पत्तों से सजी सवंरी दिखाई देगी। प्रकृति कैसे प्रत्येक मौसम को अपने ऊपर पूर्णता से बीतने देती है। परंतु मेरे लिए यह तो अति मुश्‍किल था कि मैं कितना सोऊं, सौ—सौ कर भी उक्तता जाता था। जितना सौ सकता था उतना सोने की कोशिश करता था, पर मेरे पास सोने के सिवाय और क्या काम था। इस स्थिति मैं मुझे अपना अकेलापन बहुत सालता था। फिर प्रत्‍येक प्राणी को अपने जैसे संगी—साथी की ज़रूरत महसूस होती हैं। वो मेरी भाषा समझे, मेरे अंग—संग लिपट कर सोये, मेरे साथ लड़े—झगड़े, खेले—कूदे। हम एक दूसरे के साथ खूब भागे वह मेरे साथ खाना छीन झपट कर खाए। यही प्रकृति के विकास का एक तरीका है।

परंतु मनुष्‍य तो अपने को परम विजेता बन कर के बहुत ही खुश था। वह तो अपने ह्रदय और दूसरे अतींद्रिय ज्ञान को लगभग भूल ही गया था। उसे तो अपने मस्‍तिष्‍क पर बहुत गुमान हो गया था। उसका पूरा जीवन का केंद्र मन-मस्तिष्क ही बन कर रह गया था। एक प्रकार से मनुष्य ने रह कर एक कृत्रिम मशीन मात्र बन गया था। मनुष्य के साथ सूख सुविधा तो खूब थी, पर अपने पन की कमी बहुत महसूस होती थी। फिर अचानक वो दिन आया जब एक दिन भगवान ने मेरी सून ली, काश मैंने आज कुछ और मांगा लिया होता। परन्तु हम माँग ही नहीं सकते अपनी वासना के सिवाय और कुछ। हम जो भी मांगते हैं वहीं दुख और पीड़ा ही लाता हैं। जब हम मांगते है तो समझते नहीं, जब मिल जायेगा तो कितना अच्छा होगा। परंतु मिलने के क्षण बाद ही पीछे—पीछे चला आता हैं एक नया दूख।

मैंने ये क्या माँग लिया, ये माँगा होता, वो माँगा होता, सच तृप्ति किसी मैं भी नहीं हैं। पहले बच्चे जितना मुझसे डरते थे, अब तो मुझसे बिलकुल भी नहीं डरते थे। स्कूल से आते ही जितना उन्हें देख कर मैं खुश होता था। अब वह भी उतना ही खुश होते है मेरे साथ खेलकर। वह स्कूल के कपड़ भी नहीं उतारते, बस मुझे प्यार करने लग जाते थे। मैं भी आज कल उन सब के आने का बहुत इंतजार करता था। सच ही मेरे इस पल भर की खुशी के बारे में आप कुछ नहीं जान सकते जबकि वो आप उससे गुजरे न हो। इस पल भर में अपने आप को किस तरह से तरो ताजा कर लेता था। आप ये मत सोचना की आपका पालतु कुत्‍ता आपके घर आने पर आपका स्‍वागत सत्कार कर रहा है। ये एक गौण बात है, परंतु इसके पीछे के विज्ञान को न ही जानो तो आपके लिए अच्‍छा होगा। वराना आप बुरा मान जायेगें। सारा दिन की मायूसी और उदासी पल में उड़न छू हो जाती थी। मन करता इनके चारो तरफ दौड़ू भागू चाटू पर वो इस से पहले ही मुझे उठा कर अपनी गोद में ले लेते थे। सब बारी—बारी से मुझे गोद मे लेते, सब का मैं दुलारा हो गया था। सब चाहते थे की पोनी पहले मुझे चाटे और मेरी गोद में पूछ हिलाए, मेरे पास आये। पर मुझे तो सभी को खुश करना होता था। इसलिए में बारी—बारी से सब के पास चला जाता था। और सब का बरसता प्यार समेटता रहता था।

वो मुझे भिंचते, चूमते और अपने से रगड़ते मेरा दम घुटने को हो जाता। उनके कपड़े मैं से पसीने की दुर्गन्ध आती तब मेरा जी घबराने लग जाता था। मैं कसमसा कर रह जाता, ऐसा दिल करता नीचे उतर कर इनकी पकड़ से कहीं दूर भाग जाऊँ। कई बार तो मैं गुर्राने भी लग जाता था, उस समय उन पर सचमुच गुस्सा भी कर देता था। क्‍योंकि मैं जानता था अभी वो बच्‍चे है। कल तक तो मेरे पास आने से ही डर के मारे दीवान पर चढ़ कर अपनी जान बचाते थे। तब मैं नीचे से उन्‍हें खूब भौंक—भौंक कर उतर कर खेलने के लिए कहता था। लेकिन आज वो मेरी गीदड़ भभकी से नहीं डरते थे। अब बताओ मैं क्या करूं, कई बार मम्मी जी जब देख लेती तो उन सब को डटती, की पहले सब अपने कपड़े बदलो। पहले ही कितने गंदे कर के आये हो। धोते-धोते मेरे हाथों में दर्द हो जाता है, न जाने स्कूल जाते हो लगता है किसी स्कूल से नहीं तबेले से या किसी कबाड़ खाने से आ रहो हो। तब जाकर कहीं मेरी जान में जान आती और मैं एक चैन की श्वास लेता था।

लेकिन कुछ बुरी आदतें जो मेरी जीवन संरचना के साथ मुझे मेरे पूर्वजों से मिली थी। वो अब मुझे सताने लगी गई थी। एक तो काटने की आदत मुझे बहुत अधिक परेशान कर रही थी। शायद ये सब दाँत जो मेरे निकल रहे थे उन सब के कारण ऐसा करता था। परंतु ये आदत अब मेरे जी का जंजाल बन गयी थी। क्या करूं क्‍या न करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा था। दाँत जब निकलते है तो कैसे सुई की तरह पैने होते है। क्योंकि वह अपना विकास कर बड़े हो रहे होते है। आपने जरा किसी को खेल में पकड़ा नहीं की तुरंत ही गड़ जायेंगे। परंतु इस का भुगतान कई बार मुझे ही करना पड़ा। एक दाँत तो उस दिन हिमांशु भैया के साथ खेलते हुए टुट भी गया था। हुआ यह की हम भाग-भाग कर खेल रहे वह मेरे आगे में उसके पीछे तब मैंने उसकी पैंट को जोर से पकड़ कर रोकना चाहा। परंतु वह भी शायद डर गया होगा और उसने जोर से झटका मारा मेरा दाँत उसकी पैंट में गड़ा ही रह गया था। अभी तो वह नाजुक कोमल ही था इतना झटका कहां सहन कर सकता था। उस झटके के कारण अचानक मैं दूर जा कर गिरा, परंतु मेरे मुख में दर्द की लहर दौड़ गई। और में बार-बार अपने मुंह को जीभ से चाटने लगा। तब भैया समझ गये की कुछ गलत जरूर हुआ है। वह मेरा मुख खोल कर देखने लगे तो उन्‍हें समझ में आया की मेरा दांत उसकी पेट में ही गड़ा रह गया था। परंतु उसके बाद वह मेरे लिए ठंडी आइसक्रीम लेकर आये थे। उस दर्द के कारण मैं उसे खाना नहीं चाहता था। परंतु जब मैंने उसे एक बार चाटा तो मेरा मुख सुन्न सा हो गया और दर्द भी कम हो गया। इसके अलावा हमारे शरीर इतना तमस से भरा होता है कि थोड़ी ही देर में सब दर्द खत्म हो गया मानो मुझे कोई दर्द ही नहीं हुआ था। अगर प्रकृति इस तरह की संरचना न करती तो हमारे लिए कितना कठिन हो जाता जीना। परंतु शायद मनुष्य के शरीर में ये दर्द या दुःख भावना की तरंग काफी दूर और देर तक चलती रहती होगी।

बस कुछ दिनों तक मुंह के अंदर कोई खाली पन सा महसूस होता रहा था। जहां पर जीभ बार—बार जा कर रूक जाती थी। मानो ये मुख का अंतिम छोर हो। न जाने क्‍यों यहां पर दांतों का निकलना मेरे को बहुत बेचैन कर रहा था। क्‍योंकि शायद मां या भाई बहन के साथ खेलने में मुझे इतनी दिक्‍कत नहीं आती क्‍यों हमारे सब के शरीर पर बाल होते है। इस मनुष्‍य का शरीर कितना नाजुक होता है जरा सा आपने पकड़ा नहीं की खून निकल आयेगा। और उपर से इसके पहने हुए कपड़े जिन में दाँत फंस जाते तो निकलते ही नहीं। इसी तरह से खेलते हुए भी अब मुझे डर लगने लग गया था।

लाख अपने को समझाने की कोशिश करता कि मैं एक पशु हूं, इतनी बुद्धि मेरे भीतर कहां थी। सारा दिन कभी किसी बोतल को मुंह से पकड़-पकड़ कर खेलता। कभी हिमांशु भैया का कोई खिलौना ले कर खेलते—खेलते मुझे पता ही नहीं चलता था की कब में उसे काटने लग जाता था। अपने खिलौने कि ऐसी दुर्दशा देखते तो भैया को मुझ पर बहुत गुस्सा करते थे। तब मैं भाग कर चारपाई के नीचे छुप जाता था। उस समय मैं चारपाई के नीचे अपने को बहुत सुरक्षित समझता था। सोचता की इस के अंदर आना तो इस मनुष्‍य के लिए बहुत मुश्किल है, क्‍योंकि ये तो इतना बड़ा है। इसके अंदर कैसे आयेगा लेकिन ये मेरा भ्रम ज्‍यादा दिन नहीं चला जब मैंने देखा ये झुक कर भी इसके अंदर बड़े मजे से आ सकता है। इतनी देर में या तो मम्‍मी जी आ जाती या दीदी और मैं मार से बच्‍चा जाता। फिर भाई का गुस्सा थोड़ी देर में खत्म हो जाता और हमारी दोस्ती हो जाती थी। अगले ही पल हम साथ मिलकर खेलने लग जाते थे।

आदमी कैसे बंदर की तरह हरकत करने लगा जाता है देख कर मुझे बहुत डर भी लगता था। वरूण भैया को पापा जी छोड़ने और लेने जाते थे, क्योंकि उसका स्कूल शायद  दूर था। मणि दीदी सबसे बड़ी थी इसलिए वो तो खूद ही बस मैं बैठ कर चली जाती थी। हिमांशु भैया की स्कूल बस आती थी, उसे दादा जी बहुत खुश होकर छोड़ने और लेकर के भी जाते थे। उस समय दादा जी की उम्र कोई 85 वर्ष के आस पास रही होगी। बाल सारे सफ़ेद खीचड़ी, मुंह पर झूरियाँ जैसे वक्त ने संघर्ष की रेखाएं उरेर रखी हो। सफेद धोती, कुर्ता और सर पर साफ़ा, हाथ मैं ड़ोगा लेकर इस उम्र मैं भी सुबह—श्याम तीन—चार मील घूमने चले जाते थे। दिल्ली पुलिस से रिटायर थे, गुस्सा तो उनकी नाक पर धरा होता रहता था। इतनी कड़क आवाज़ मैं बोलते थे, मुझे इतना डर लगता की मैं भाग कर चारपाई के नीचे छुप जाता था। हिमांशु को प्यार से 'हैमन' कह कर बुलाते थे। इस उम्र मैं भी हिमांशु भैया को उसके बसते सहित पीठ पर बिठा के ले आते थे।

तीनों बच्चे अलग—अलग स्कूल मैं जाते थे। आप सोचते होंगे मुझे कैसे पता की सब अलग—अलग स्कूल में जाते थे। एक तो तीनों बच्चे साथ नहीं आते, दूसरा उनके स्कूल के कपड़े अलग—अलग रंग के होते थे। ये तो एक साधारण सी बात थी, अब मैं इतना बुद्धू नहीं रहे गया था। वरूण भैया ने अपने स्कूल के पास कहीं कोई आवारा घूमता पिल्ला देखा होगा, क्योंकि मुझे लेकर मणि दीदी और वरूण भैया में रोजाना खींचा तानी होती थी। मुझे तो सब अच्छे लगते थे परंतु उनका अहंकार कि मैं किसका हूँ। इस सब का मेरे पास तो कोई इलाज नहीं था। अब बच्चे तो बच्चे ही होते हैं, सो उसने आसान रास्ता चुन लिया इस रोज़—रोज़ के झगड़े का की वो एक और पिल्ला ले आयेगा। अब बच्चो के लिए तो हम जीते—जागते खिलौने हैं, चल सकते, खा सकते उनके साथ, खेल भी सकते। लेकिन वो थोड़ा सोचेगें की हमारी मां उस समय हमें ढूंढेगी तो कितनी परेशान होगी। और फिर यहां का एकांत कैसे हम जी रहे है, हम ही जानते है बेचारे बच्चों की क्या बात करें, बड़े बूढ़ों को नहीं है इतना ज्ञान।

खिलौनों से बच्चे खेल सकते, परन्तु खिलौना तो उनके साथ नहीं खेल सकता, वो निर्जीव है बेजान हैं। उस दिन वरूण भैया मम्मी जी के साथ सलाह करके गया था। की उस पिल्ले को चुपचाप पापा जी को बिना बताये स्कूल बेग मैं छुपा कर ले आयेगा। फिर जब घर पर आ ही जायेगा तब पापा जी को बता देंगे। पापा जी सड़क पर खड़े रह कर वरूण भैया इंतजार कर रहे थे काफी देर हो गई कहां रह गया। सब बच्चे तो चले गए। वरूण भैया बेचारा उस पिल्ले को ढूँढ़ता हुआ धीरे-धीरे आ रहा था। पापा जी ने उसके चेहरे पर परेशानी देखी तो पूछने लगे क्या बात है क्या ढूंढ रहा है। कितनी देर हो गई घर नहीं चलना है। परंतु भैया के चेहरे पर परेशानी की रेखायें साफ़ दिखाई दे रहीं थी।

पापा जी ने वरूण भैया के चेहरे के भाव पढ़ लिए और पूछा—क्या बात हैं क्यो परेशान हैं। इससे पहले वरूण भैया कुछ बोलते पापा जी कहने लगे —पिल्ले को ढूँढ़ रहा हैं क्या करेगा घर पर तो पहले ही पोनी है। उसे कितना दुःख होगा जब दूसरा उसके सामने ले जाएगा।वरूण भैया की तो मछली बहार हो गई, आंखें फेल कर और बड़ी—बड़ी हो गई। पापा जी को कैसे पता चला ये रहस्य की वो पिल्ले को ढूंढ रहा था। उसके बाल मन के लिये एक अनसुलझा रहस्य था। और हो भी क्यों कोई आपके मन के विचार, भाव को समझ ले तो आप कितने परेशान हो जायेंगे। तब पापा जी ने उसे स्कूटर पर बिठाया और थोड़ा आगे जाकर स्कूटर खड़ा कर के कहा की वो पिल्ला हैं सामने ले आ’, वरूण भैया सोचने  लगा मुझे क्यों नहीं दिखाई दिया। परन्तु उसे खुशी भी थी, अपने पापा जी पर उसे बड़ा गर्व महसूस हो रहा था। उसे लग रहा था मेरे पापा जी महान हैं, उस बाल मन पर एक छवि बैठी जो पूरी उम्र प्रेम, आचरण और चरित्र के लिए मील का पत्थर बन जाती है।

उस पिल्ले को उन्‍होंने स्कूटर की जाली में बिठा लिया। अब वह घर पहुंचने के लिए बड़ा उतावला और बेचैन था। उसे लग रहा था आज स्कूटर की गति कुछ कम हैं। जब हम खुश होते हैं तो कैसे निर्भार से हो जाते है। अन्दर तक कैसे भरा—भरा सा लगता है सब कुछ। उस समय पृथ्वी का गुरुत्व शक्ति भी कोई काम नहीं कर रही होती आप पर। आपको लगता है अब अंबर में बिना किसी पंख के उड़े कि तब उड़े। जाली मैं पिल्ला भी अपने को असुरक्षित महसूस कर डर रहा था। और बार-बार बाहर कूदने की कोशिश कर रहा था। बार—बार वरूण भैया उसे प्‍यार कर रहे थे ताकि वह बाहर न कूद जाए। स्कूटर के चलने के कारण उसे कुछ अजीब सा लग रहा होगा। शायद थोड़ा डर भी रहा होगा बेचारा। अगर वह जाली से कूद जाता तो उसके लिए ये कितना खतरनाक था ये नहीं जानता था बेचारा।

घर आकर जैसे ही उसे जाली से निकाल कर फर्श पर खड़ा किया तो उसने चेन की साँस ली। एक अनजान जगह को बड़े ध्यान से चारों तरफ़ मूंह घुमा कर देख रहा था। उसकी ढूंढती हुए आंखें मेरे ऊपर जाकर थोड़ी देर के लिए रूक गई, वह मेरी तरफ़ बढ़ा पूछ हिलाई, मुझे सूंघा और शायद देख कर खुश भी हो गया था। की चलो यहां कोई मेरी जाती का तो उसे मिला। परन्तु मैं अपनी अकड़ में उसी तरह से खड़ा रहा, मुझे वो फूटी आँख नहीं सुहा रहा था। एक जलन ईर्ष्या का भाव अचानक अन्दर से निकल कर सामने आ खड़ा हुआ था। जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी हमने बड़े जतन से उसे सम्हाला हुआ था। हमारे पूर्वजों से चला आ रहा अचेतन एक संकल्प बन कर धीरे-धीरे वह अकड़ बन गया था। मानो यही तो एक मात्र हमारी धरोहर थी जो हमारे पूर्वजों ने हमें भेट रूप में दी थी। वो देखने मैं मोटा धांधूं, रंग बादामी भूरा, आंखें काली, गले में कुदरती सफ़ेद धारी, माथे पर सफेद टीका उसको कितना अच्छा लग रहा था। सच ही टोनी देखने में अति सुंदर था, वह एक नजर में किसी को भा जायेगा। वैसे सच ही वह मुझे तगड़ा और सुंदर भी था।

मम्मी जी ने उसे गर्म पानी से नहला और फिर कंघी कर के उसके सारे कीड़े निकाले। जो गली के पिल्लों को अक्सर हो जाते है। इतनी देर मैं मैंने सोच यहाँ खाने रहने की तो कोई कमी नहीं थी, फिर तू क्यों नाहक अपना खून जलाता है। सौ मेरे मन में अचानक न जाने एक हवा के झोंके की तरह बदलाव आ गया। मैं खुद अचरज कर रहा था या क्या हो गया। मानो एक चमत्‍कार हो गया जो मेरे बस के बाहर था। शायद जाति प्रेम या अकेले पन ने मेरे मन को समझा—बुझा कर राज़ी कर लिया था। तेरे को एक साथी मिल जायेगा जिसके साथ तू दिन भर खेल सकेगा। उसके साथ चिपट कर सौ सकेगा, कम से कम वो तेरी जाती का तो है। तेरी भाषा बोल सकता हैं, समझ सकता हैं। जिस चीज की तुझे अचेत में चाहत थी वह तुझे बिन मांगे ही मिल रहा था। फिर काहे परेशान हो रहा है बावले।

मैं अपने अंदर देख रहा था ये केवल दिखावा मात्र एक विचार था। अन्दर फिर भी कहीं जलन का कीड़ा रेंग ही रहा था। जैसे ही वो सामने आया सारे विचार न जाने कहाँ हवा हो गये मेरे। जब वह खा पी कर मेरी और आया तो उसका शरीर अभी तक गिला था। वह मेरे सामने आकर बैठ गया एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह। सच मेरे ह्रदय में उसके लिए प्रेम उठा। और मैंने उसका मुख चाट लिया। फिर हमारी दोस्ती हो गई। कई दिनों से किसी के साथ धींगा मस्ती नहीं की थी इसलिये शारीर मैं खुजली उठी और हम दोनो लगे साथ—साथ खेलने लगे कितनी देर खेले समय का पता ही नहीं चला। तब तक भैया, दीदी ने कपड़े बदल और खाना खां कर हमारा बटवारा करने के लिये आये और हमे अलग करने के लिये हाथ बढ़ाया हम बुरी तरह से एक दूसरे से उलझ गये। एक भूखे भेड़िया की तरह, एक दूसरे को बड़ी मुश्किल से अलग किया गया। ये कैसा खेले अभी तो हम कितने प्रेम से एक दूसरे के साथ खेल रहे थे ये अचानक हमें क्या हो गया?

मेरे दिल को गहरा आघात लगा मनुष्य की इस आदत का। पर चलो अच्छा ही हुआ जो हुआ शायद इसी में मेरी कुछ भलाई भी रही होगी। जिसे शायद आज मैं न देख पा रहा था, और न ही समझ पा रहा था। भविष्य की गहराई में झांकने की समझ मनुष्य के अलावा और प्राणीयों मैं नहीं होती। ये शक्ति तो केवल मनुष्य ने ही अर्जित की थी। वहीं उस अंधकार की गर्त मैं दबी छोटी सी किरण को भी देख सकता था। अगर वो चाहे तो इस पर्त को तोड़ भी सकता था यही तो उसकी महानता थी। चाहे तो किसी भी आयाम में गति कर सता था।

मैंने अपने को उस आस्तित्व की बहती धारा मैं बहने के लिए छोड़ दिया। अब तक अच्छा ही हुआ है मेरे साथ, कुदरत जो कर रही उसी में शायद हमारी भलाई होगी। वो महीन ध्वनि वह मधुर नाद कही ह्रदय में बहुत मंद गुंज रहा था। परंतु हम कहां सून पाते है, उसे विचारों और वासना के इस शोर में। सुन ही नहीं सकते तो फिर समझने का तो अर्थ ही नहीं रहा जाता। पर सच में एक पशु होने पर भी उस ध्‍वनि को मैं थोड़ा-थोड़ा सुन सका था। उसे महसूस कर रहा था। और उस पर अमल करने कोशिश करता था। की अभी तक जो भी हुआ था वही सब ठीक था, आगे भी ठीक ही होगा, उसे स्वीकार कर लेना ही अच्छा था। अचानक जो बुरे विचार एक जलन एक ईर्षा मेरे मन में थी टोनी के प्रति उसे मैं पचा नहीं पा रहा था।

परंतु जैसे ही मैंने उसे स्वीकार किया सब भाव बदल गए। वो सब जो हो रहा था उसे बदलना मेरे बस के बाहर की बात नहीं थी। और शायद आगे भी यहीं होगा जिसे में नहीं समझ सकूंगा उस में अड़चन न डाली तो वो सब मेरी भलाई ही होगी। मैं एक प्रकार से कर्ता नहीं बनना चाहता क्योंकि मैं जानता हूं मनुष्य के सामने करता बनना महान मूर्खता थी। और शायद यही सब मनुष्य के लिए भी सच था। वह परमात्मा के सामने अगर अपने कर्ता भाव को छोड़ दे तो उसके जीवन में एक अलग ही तल एक अलग ही आयाम आ जायेगा। पर आज भी अच्‍छा ही हुआ है तो आगे भी अच्छा ही होगा। एक गहरी साँस ली, मैंने आंखें बन्द की और हम दोनों एक दूसरे से लिपट कर सो गए।

आज पहली बार मुझे अपने परिवार की कमी नहीं खली क्योंकि अभी मेरा बालपन खत्म थोड़ी हुआ था। अब वो लड़कपन बन गया था।

भू....भू....आज बस।

आज इतना ही।

 


 

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