कुल पेज दृश्य

रविवार, 5 मार्च 2017

ज्‍योति से ज्‍योति जले-(सूंदर दास)-प्रवचन-09



ज्‍योति से ज्‍योति जले-(सूंदर दास)

प्रवचन-नौवां
सारसूत्र-

सुंदर मनुषा देह यह, पायौ रतन अमोल।

कौड़ी सटै न खोइए, मानि हमारौ बोल।।

सुंदर सांची कहत है, मति आनै कछु रोस।

जौं तैं खोयो रतन यह, तौ तोही कौ दोस।।

बार-बार नहिं पाइए, सुंदर मनुषा देह।

रामभजन सेवा सुकृत, यह सौदो करि लेह।।

सुंदर सांचि कहतु है, जौ मानै तो मानि।

यहै देह अति निंद्य है, यहै रतन की खानि।।


सुंदर नदी प्रवाह मैं, मिल्यौ काठ-संजोग।

आपु आपुकौं लै गए, त्यौं कुटुंब सब लोग।।

सुंदर बैठे नाव मैं, कहूं-कहूं तें आई।

पार भए कतहूं गए, त्यौं कुटुंब सब जाई।।

सुंदर पक्षी वृक्ष पर, लियौ बसेरा आनि।

राति रहे दिन उठि गए, त्यौं कुटुंब सब जानि।।

सुंदर यह औसर भलौ, भजिलै सिरजनहार।

जैसे ताते लोह कौं, लेत मिलाइ लुहार।।

सुंदर याही देह मैं हारि जीति कौ खेल।

जीतैं सो जगपति मिलै, हारै माया मेल।।

सुंदर सौदा कीजिए, भली बस्तु कछु खाटि।

नाना बिधि का टांगरा, उस बनिया की हाटि।।

दीया की बतियां कहै, दीया किया न जाइ।

दीया करै सनेह करि, दीए ज्योति दिखाइ।।

दीए तें सब देखिए, दीए करौ सनेह।

दीएं दसा प्रकासिए, दीया करि किन लेह।।

दीया राखै जतन सौं दीए होइ प्रकाश।

दीए पवन लगै अहं, दीए होइ विनाश।।

साईं दीया है सही, इसका दीया नांहिं।

यह अपना दीया कहै, दीया लखै न मांहिं।।

साईं आप दिया किया, दीया मांहिं सनेह।

दीए दीए होत है, सुंदर जीया देह।

मनुष्य एक संभावना है, सत्य नहीं; बीज है, फूल नहीं। फूल हो सकता है, पर होने की कोई अनिवार्यता नहीं। बीज बीज की भांति मर भी सकता है। बीज बीज की भांति सड़ भी सकता है। सभी बीज फूल नहीं हो जाते; सभी बीज फूल हो सकते थे। ऐसा ही मनुष्य है।
सभी मनुष्य बुद्ध हो सकते हैं। सभी की संभावना है। सभी के भीतर परमात्मा का अवतरण हो सकता है। लेकिन सभी हो नहीं पाते, इस बात को भूल मत जाना!
जन्म से ही कोई बुद्ध नहीं है। बुद्धत्व यात्रा है। जन्म और मृत्यु के बीच जो महा अवसर है, उसका जो सम्यक उपयोग कर लेगा, उसे बुद्धत्व भेंट में मिलता है। वह अस्तित्व के द्वारा दिया गया पुरस्कार है। ऐसे ही धक्के खाते-खाते कोई बुद्ध नहीं हो जाता। संकल्प चाहिए, समर्पण चाहिए, संघर्ष चाहिए, साधना चाहिए! साधना की प्रक्रिया से गुजरे बिना, बीज बीज ही रह जाएगा। बीज भूमि में पड़े, भूमि में गले, मिटाए अपने को, तो अंकुरण होता है।
ऐसे ही व्यक्ति को साधना की भूमि चाहिए--गले, मिटाए अपने को! राख कर दे अपने अहंकार को। अपनी अस्मिता को पोंछ डाले। तो अंकुरण होता है--अपूर्व प्रसाद का, अपूर्व आनंद का! जब तक उस अंकुरण को उपलब्ध न हो जाओ तब तक सोचना--जन्मे तो जरूर, अभी जीवन नहीं मिला। तब तक एक क्षण को भूलना मत, क्योंकि जितने क्षण भूले गए, भूल में गए, उतने ही व्यर्थ गए। तब तक सोते-जागते स्मरण रखना कि जिंदगी के हाथ से समय की धारा बही जाती है। कौन जाने, आनेवाले क्षण मौत द्वार पर दस्तक दे! इसके पहले कि मौत आए, बुद्धत्व आना ही चाहिए।
ऐसा संकल्प सघन करो! ऐसी अभीप्सा जगाओ। तो ही तुम्हारा वास्तविक जन्म हो पाएगा। तुम द्विज बनोगे। तुम्हारा दूसरा जन्म होगा। पहला जन्म तो नाममात्र का जन्म है। पहला जन्म तो जीवन की भूमिका-मात्र है। क, , ग! उसे सब मत समझ लेना। उस क, , ग से, उस वर्णमाला से वेद का निर्माण किया जा सकता है, उपनिषदों का जन्म हो सकता है। गीताएं आविर्भूत होती हैं--उसी वर्णमाला से! और यह भी ध्यान रहे कि जिस वर्णमाला से उपनिषदों के अमृत वचन पैदा होते हैं, उसी वर्णमाला से गालियां भी निर्मित हो जाती हैं। और वर्णमाला वही है।
जिस जीवन की संपदा को कुछ लोग बुद्धत्व के अमृत में बदल लेते हैं, कुछ लोग उसी अमृत की संभावना को जहर में बदल लेते हैं। अधिक लोग दुःखी दिखायी पड़ते हैं; उन्होंने अपने जीवन को जहर में बदल लिया है। अधिक लोग दुःखी ही जीते हैं, दुःखी ही समाप्त होते हैं। उनके जीवन में कांटों के अतिरिक्त न कभी कोई फूल खिलते, न कोई सुवास उठती। उनके अंतरंग में कभी कोई पक्षी गीत नहीं गाते। उनकी जीवन-वीणा ऐसी ही पड़ी रह जाती है; वे कभी उसका तार नहीं छेड़ पाते।
आज तुम यहां मेरे पास इकट्ठे हुए हो, यही तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं, यही तुम्हें रोज याद दिलाता हूं। सतत एक ही बात तुमसे कह रहा हूं कि एक अमूल्य अवसर है, उसे खो मत देना! पुकारो परमात्मा को, कि तुम्हारा खाली घर रोशन हो जाए, कि तुम्हारा खाली घड़ा भर जाए!
और ध्यान रखना, चाहो तो चमत्कार भी हो सकता है। ऐसा चमत्कार, कि जिसके आगे और सब चमत्कार फीके पड़ जाते हैं। तुम्हारी छोटी-सी गागर में उसका पूरा सागर भर सकता है। क्योंकि तुम छोटे ऊपर-ऊपर से दिखायी पड़ते हो. . .। बीज कितना छोटा होता है, कितने बड़े वृक्ष को छिपाए होता है! और बीज कोई एक ही वृक्ष को थोड़े ही छिपाए होता है; एक बीज में एक वृक्ष लगेगा, उस वृक्ष में अनंत बीज लगेंगे, अनंत बीजों में अनंत वृक्ष लगेंगे, अनंत वृक्षों में अनंत-अनंत बीज लगेंगे! एक बीज में इतनी क्षमता है कि सारी पृथ्वी को हरियाली से भर दे! पृथ्वी को ही क्यों, सारे गृह-नक्षत्रों को, चांदत्तारों को हरियाली से भर दे। एक बीज! फैलता जाए, अवसर का उपयोग करता जाए, संभावना को वास्तविकता बनाता जाए, कहीं रुके न, धारा बहती रहे--तो गंगा जैसे सागर में पहुंच जाती है, ऐसे ही व्यक्ति परमात्मा में पहुंच जाता है।
बहो! पुकारो!तलाशो रुके-रुके डबरे बने न रह जाओ!

मेरे भीतर मुझसे भी बड़ी कोई चीज है

आंखें चार न करना इससे

हर परेशानी का बीज है!
जीवन का सारा दुःख इस छोटे-से सूत्र में संक्षिप्त किया जा सकता है--

मेरे भीतर मुझसे भी बड़ी कोई चीज है

आंखें चार न करना इससे 

हर परेशानी का बीज है!
जो अपने को देख ले, उसने जगत् का सारा सार देख लिया। और जो अपने को पा ले, उसने जो भी पाने-योग्य है सब पा लिया।
जीसस ने कहा है : और तुम पृथ्वी के सारे राज्य को भी पा लो, लेकिन अगर अपने को गंवा दिया तो उस पाने का अर्थ क्या, अभिप्राय क्या?
और यही हो रहा है। लोग न मालूम क्या-क्या पाने में लगे हैं!--सिर्फ एक को छोड़कर। उस एक की तरफ ध्यान नहीं जाता। उस एक को तो हमने मान ही लिया है कि जैसे हमने पा ही लिया है। जैसे पैदा क्या हो गए, सब हो गया! बीज ने स्वीकार कर लिया है : यही मेरी नियति है। तो मरेगा बीज की तरह ही। तो इस बीज से न तो वृक्ष होंगे, न वृक्षों पर कोयल के गीत होंगे, न वृक्षों पर चांद की किरणें बरसेंगी, न वृक्ष पर सूरज आएगा-जाएगा, न बादल घिरेंगे, न वर्षा होगी, न हवाएं नाचेंगी--कुछ भी न होगा! बीज तो निष्प्राण है। बीज तो बंद है। बीज और कंकड़ में भेद ही क्या है? भेद तो तभी है, जब बीज वृक्ष बने, अन्यथा कोई भेद नहीं।
और तुम्हें याद दिला दूं कि इस पृथ्वी पर सौ में से निन्यानबे लोग ऐसे ही आते हैं, ऐसे ही चले जाते हैं। निर्णय करो कि तुम ऐसे ही न चले जाओगे! और निर्णय कर लो तो कोई भी कारण नहीं है कि तुम ऐसे ही जाओ। जिन्होंने किया, वे भरकर गए।
      तुम कि जिसने नील अंबर में
      सितारों को कि जैसे सी दिया है
      तुम कि जिसने पेड, पंछी, पहाड़ आदमी को जी दिया है
      तुम कि जिसने चार महीने विपुल धरती-भर सरस बरसात दी है
      तुम कि जिसने हर तपे दिन को सुशीतल रात दी है
      हे वही तुम
      आज अपने परम विस्तृत शून्य दिव्याकाश से थोड़े उतर कर
      पास धरती के चले आओ
      कि धरती तुम्हें छूने के लिए उठ-सी रही है
      एक विप्लव हर सतह में अतल तक इसके मचा है
      एक कण भी अचल या अविचल नहीं इसका बचा है
      हिल गयी हैं जड़ें ही धरती की जैसे
      कांपते हैं आज उसके जड़-हिमालय
      आज सर सरिता नगर उपवन सभी के प्राण के भय
      यह रहेगी या नहीं
      विक्षिप्त इतनी गति सहेगी या नहीं
      संदेह आस्तिक मनों तक में कहीं यह जगने लगा है
      आज तुम्हें शांत दिव्याकाश से अपने उतर कर
      पास इसके चले आओ यह मुझे लगने लगा है
      एक शांत उदार सुख का झला बरसा दो भला
      तुम कि जिसने विपुल धरती-भर सरस बरसात दी है
      डूब जाए यह विकलता लीन हो जाए
      पराजित चित्त की सारी व्यवस्था एक रस की बाढ़ में
      यों कि बंजर भूमि मेरे देश की आषाढ़ में
      कह सके धरती कि मैं आकाश हूं, आनंद हूं
      लग सके उसके कि वह कोई पहेली निरर्थक अंधी नहीं है,
      वह अंधेरे से उजाले में गयी है
      लग सके उसको कि वह ज्योतिर्मयी है
देह तो तुम्हारी पृथ्वी से बनी है। देह तो तुम्हारी धरती है। पर अगर पुकारो, अगर प्रार्थना जगे, तो आकाश तुम में उतरे। देह तो तुम्हारी मिट्टी का बना हुआ दीया है। अगर पुकारो तुम, खोजो तुम, तलाशो तुम, तो ज्योति भी उतरे। और दीए में जब ज्योति उतरे, तभी दीया दीया है। नहीं तो नाममात्र को दीया है। और जब तुम्हारी देह में आकाश का अवतरण हो, उस आकाश को ही हम परमात्मा कहते हैं, मोक्ष कहते हैं, निर्वाण कहते हैं।
जब तुम्हारी मिट्टी की देह में चिन्मय का पर्दापण हो, तभी जानना कि जीवन सार्थक हुआ--तभी जानना कि जीवन हुआ! तभी मानना कि तुम व्यर्थ आए व्यर्थ नहीं गए। तुम भरकर जा रहे हो। तुम सार्थक होकर जा रहे हो।
और जो ऐसा धन्यभागी है, वह न केवल अपने भीतर दीए को जला लेता है, उसके आसपास जो भी बुझे दीए आते हैं वे भी जल उठते हैं। ज्योति से ज्योति जले! फिर एक परंपरा पैदा होती है।
बुद्ध जगे। जिन्होंने उनकी आवाज सुनी, वे जगे। जिन्होंने उन जागों की आवाज सुनी, वे जगे। फिर हजारों साल तक श्रृंखला चलती है जागे हुओं की।
तुम जागो। जागने की यात्रा फिर तुम पर समाप्त नहीं हो जाती। सोए रहे तो तुम अपने पर समाप्त हो जाओगे। जागे तो तुम्हारी ज्योति बहती रहेगी। जागे हुए शाश्वत हो जाते हैं। जागरण में नित्यता है। फिर समय उस ज्योति को बुझा नहीं पाता। फिर कैसे ही अंधड़ आएं और कैसे ही तूफान उठें और कैसी ही अंधेरी रातें घिरें, वह ज्योति जलती ही चली जाती है। गुरु से शिष्य में, शिष्य से शिष्य में; एक हाथ से दूसरे हाथ; एक हृदय से दूसरे हृदय--ज्योति उतरती चली जाती है। लोग आते हैं, विदा होते हैं, मगर ज्योति बनी रहती है।
यही संपदा है। अगर छोड़ना चाहो तो इसी संपदा को छोड़ना चाहना! छोड़ जाओगे कुछ ठीकरे, कुछ मकान, कुछ जमीन; उसका कोई भी मूल्य नहीं है। वसीयत कुछ छोड़ जाना हो तो रोशनी की छोड़ जाना।
पुकारो परमात्मा को! और वह पुकार सुनते ही दौड़ा चला आता है। तुम्हारी पुकार की ही जैसे प्रतीक्षा है। तुम्हारे भीतर प्रार्थना उठे तो परमात्मा तुम्हारे भीतर बरसना शुरू हो जाता है। देर नहीं लगती।
यह जगत् एक नियम है, अराजकता नहीं है। इस नियम पर भरोसा धार्मिकता है--कि अगर मैं पुकारूंगा प्राण-पण से तो उतर आएगा। ऐसे तो लोग दौड़ते ही रहते, गिर जाते कब्र में और समाप्त हो जाते!
                  दौड़ता ही रहा मैं
                  दीवार के इस पार. . .
                  बहुत जूझा,
                  बहुत टकराया, लड़ा. . .
                  व्यूह-भेदन सीखने को
                  कुछ युगातों की
                  अति कठिन मरुभूमि लांघी;
                  बेतहाशा दौड़ फिर
                  दूरस्त कितने ही
                  स्वप्न-शिखरों पर चढ़ा. . .
                  किंतु मैं हूं वहीं
                  वहीं है दीवार
                  खोजता हूं आज भी
                  उस पार का
                  विस्तार!
ज़रा दौड़ते हुए लोगों को देखो--तैमूर को और चंगेज को, नेपोलियन को और सिकंदर को! ज़रा दौड़ते हुए लोगों को देखो, पहुंचते कहां हैं? जैसे एक वर्तुल में दौड़ते हों। और तुम भी कुछ नए नहीं हो, तुम भी खूब दौड़े हो। तुम भी कोल्हू के बैल की चाल खूब चले हो। आंखों पर पट्टियां हैं, इसलिए दिखायी भी नहीं पड़ता। तुम सोचते हो कि यात्रा हो रही है, कहीं पहुंच रहे हैं।
ज़रा रोज चौबीस घंटे की अपनी प्रक्रिया को परखो, जांचो, विश्लेषण करो,--करते क्या हो? वही रोज-रोज करते हो! कभी कुछ नया भी होने दो। वही क्रोध, वही लोभ, वही मोह, वही मान. . . इनका ही तो परिवर्तन होता रहता है। जैसे पृथ्वी पर आ गयी वही वर्षा, आ गयी शीत, आ गयी गर्मी, फिर आ गयी वर्षा--एक वर्तुल दोहरता है। ऐसे ही तुम अपने मन के वातावरण को भी ज़रा देखो-- बस यही मौसम दोहरते रहते हैं! अभी क्रुद्ध, अभी लोभ से भरे, अभी काम में भरे, अभी भयातुर--ऐसे ही कब से तुम चलते रहे हो!
और मैं तुमसे कहता हूं : तुम नए नहीं हो, नया यहां कोई भी नहीं है। अनंत-अनंत जन्मों से तुम चल रहे हो। तुम्हारे पैर थकते भी नहीं! तुम्हारा मन ऊबता भी नहीं! कितनी बार क्रोध करके फिर तुम वही कर लेते हो।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन के घर एक मेहमान आए। होंगे तुम जैसे ही। मेहमान जो आए, खूब पान खाते थे। और बाहर पान की पीक न फेंककर जहां बैठे थे, वहीं जमीन पर पीक थूक रहे थे। यह देख नसरुद्दीन भीतर गया और नौकर द्वारा एक चांदी का नक्काशीदार पीकदान जहां मेहमान बैठे थे वहां ला कर रखवा दिया। मेहमान ने पीकदान दूसरी तरफ सरकाकर फिर जमीन पर थूक दिया। यह देखकर नौकर ने फिर से पीकदान उठाकर पहली वाली जगह पर रख दिया। पर इस बार भी मेहमान ने वह पीकदान हटा कर जमीन पर थूक दिया! नौकर ने एक बार फिर पीकदान पहले वाली जगह पर रख दिया। लेकिन इस बार भी मेहमान साहब ने उसे फिर से सरकाकर जमीन पर पीक फेंक दी। नौकर ने फिर पीकदान पुरानी जगह पर रख दिया। ऐसा बार-बार होता देखकर मेहमान नौकर पर बहुत गुस्सा होकर बोले : अब अगर इस पीकदान को यहां से नहीं हटाओगे और बार-बार इसे यहीं रखोगे तो हम इसी में थूक देंगे!
चांदी का पीकदान! मेहमान ने सोचा होगा कि चांदी के पीकदान में और थूकना! वे हटाते रहे और थूकते रहे।
तुम अगर अपनी जिंदगी को थोड़ा तलाशोगे तो ऐसा ही पाओगे! वही-वही करते जाते हो। और ऐसा ही नहीं है कि उससे चोट नहीं खाते, पीड़ित नहीं होते। कौन नहीं होगा पीड़ित! लोभ किसे नहीं दीन कर जाता, दुःखी कर जाता, हीन कर जाता? क्रोध किसे नहीं जला जाता, दग्ध कर जाता? किसके हृदय में घाव नहीं छोड़ जाता? अहंकार ने कब किसको शीतलता दी है? रोज वही पीड़ा है, और रोज तुम निर्णय भी करते हो कि अब बहुत हो चुका है। मगर कल फिर होगी सुबह, फिर तुम वही करोगे जो तुम सदा करते रहे हो।
इस वर्तुल को तोड़ो! इस वर्तुल से छलांग लगाओ। इस वर्तुल से बाहर आ जाने का नाम धर्म है। इस यांत्रिकता के बाहर आ जाने का नाम जीवन है।
सम्मान दो अपने को! तुम यंत्र नहीं हो। यंत्र का जीवन झूठा जीवन होता है। ऊपर-ऊपर से लगता है गति है, लेकिन भीतर कोई होश तो होता नहीं। तो जैसे मशीन चलती है, ऐसे ही तुम्हारा जीवन चलता है। तुमने मशीन से भिन्न अपने जीवन को पाया है?
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी से बहुत पीड़ित था; जैसे कि सभी पति हैं, और जैसे कि सभी पत्नियां हैं। पीड़ित यहां कौन नहीं! लाख छिपाओ, कुछ छिपता भी तो नहीं। चेहरे-चेहरे पर पीड़ा लिखी है। आंख-आंख में आंसू हैं। हृदय-हृदय में शूल चुभे हैं। सोचता था बहुत बार कि अगर इस बार छुटकारा हो जाए तो अब दुबारा इस झंझट में पड़ने का नहीं हूं।
संयोग की बात. . . ऐसे संयोग बहुत मुश्किल से आते हैं; पत्नियां ऐसे संयोग आने ही नहीं देतीं!. . . पत्नी बीमार पड़ी, जैसे बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा! सुधार के कोई लक्षण न दिखाई पड़े। मुल्ला भीतर-भीतर प्रसन्न होने लगा। आखिर घड़ी मरने की भी आ गई। पत्नी ने कहा मरते वक्त : नसरुद्दीन, अगर मैं मर जाऊं तो क्या तुम दूसरी शादी करोगे?
नसरुद्दीन ने कहा : इस सवाल का जवाब देना मुश्किल है।
पत्नी ने पूछा : क्यों?
मर रही थी, लेकिन एक लपक आ गयी!. . ."क्यों? सवाल का जवाब देना मुश्किल क्यों है?'
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा : इसलिए कि अगर "हां' कहूं तो तुम नाराज हो जाओगी और अगर "ना' कहूं तो वह नाराज हो जाएगी।
जिंदगीभर से सोच रहा था कि किस तरह से छुटकारा हो। अभी छुटकारा हो भी नहीं पाया. . .।
तुम एक जाल से छूटते भी नहीं कि तुम दूसरा जाल बुनने लगते हो, कि कहीं ऐसा न हो पहला जाल टूट जाए और तुम्हारे पास कोई जाल ही न बचे! तुम एक दुःख के बाहर भी नहीं हो पाते कि तुम दूसरे दुःख के बीज बोने लगते हो, ताकि इस दुःख की फसल कटते-कटते दूसरी फसल आ जाए।
और मैं कोई सैद्धांतिक बात नहीं कर रहा हूं। अपने जीवन का निरीक्षण करो, वहां तुम्हें गवाहियां मिलेंगी! एक नहीं हजार गवाहियां मिलेंगी।
इस यांत्रिकता में ऊपर-ऊपर तुम एक होते हो, भीतर-भीतर तुम दूसरे होते हो। क्योंकि इस यांत्रिकता से तुम्हारी चेतना का मेल हो ही नहीं सकता। तो तुम्हारा जीवन ज्यादा से ज्यादा एक अभिनय, एक प्रवंचना, एक धोखा होता है। तुम्हारे चेहरे पर मुखौटे हैं। तुम्हारे असली चेहरे का तुम्हें पता नहीं है। तुम क्या कहते हो, वह वह नहीं है जो तुम कहना चाहते हो। और तुम क्या करते हो, वह भी वही नहीं है जो तुम करना चाहते हो, करना चाहते थे।
तुम कुछ सोचते हो, कुछ करते हो। कुछ कहते हो, कुछ होते हो। तुम्हारे जीवन में बड़ी वंचना है। सारी पृथ्वी एक झूठा नाटक हो गयी है। सच्चे आदमी नहीं हैं, क्योंकि सच्चा जीवन नहीं है।
जो भीतर से जिएगा और चैतन्यपूर्वक जिएगा, वही व्यक्ति एकस्वर हो सकता है। और जहां एकस्वर है वहां सच्चिदानंद का वास है। और जहां बहुत स्वर हैं, जहां ऊपर कुछ है भीतर कुछ है, ऊपर नाटक-नाटक है--वहां तो आनंद का वास नहीं हो सकता।
"हे हनुमान! मैं तुमसे अत्यंत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हें मनोवांछित वर दूंगा! बोलो क्या चाहते हो?' --भगवान राम ने हनुमान से कहा।
यह घटना एक नाटक-कंपनी द्वारा प्रस्तुत लंका-विजय नामक नाटक की है। राम की भूमिका में नाटक-कंपनी के मालिक स्वयं थे। और हनुमान की भूमिका में एक वेतनभोगी कलाकार! कंपनी की स्थिति जनता में सिनेमा की तुलना में नाटकों के प्रति घटती रुचि के कारण दिनों-दिन गिर रही थी। पिछले तीन महीनों से किसी कलाकार का वेतन नहीं चुकाया जा सका था। यह बात कलाकारों के मन में सदैव खटकती रहती थी। ऐसा क्यों न होता, आखिर उनके भी परिवार थे, बाल-बच्चे थे।
श्री रामचंद्र जी द्वारा मनोवांछित वर देने की इच्छा प्रकट करते ही हनुमान ने अकस्मात कहा : "मैनेजर साहब, तीन महीने का वेतन बाकी है। मिल जाए तो बड़ी कृपा होगी। बच्चे भूखों मर रहे हैं, मेरे मालिक!'
जनता में तो सन्नाटा हो गया। "मैनेजर साहब!. . . तीन महीने का वेतन बाकी है! . . .बच्चे भूखे मर रहे हैं!' ये हनुमान क्या कह रहे हैं? जो सो गए थे वे भी जग गए। सब चौकन्ने हो गए कि यह क्या हो रहा है! यह कैसी रामलीला! सांसे रुक गईं। अपलक लोग सुनने लगे कि अब रामचंद्रजी ही कहेंगे--"तथास्तु'! लेकिन नहीं, रामचंद्र जी ने भी तथास्तु नहीं कहा! कुछ कहना चाहा, लेकिन मुंह से आवाज न निकली। फसूकर निकलने लगा। चक्कर खाकर गिर पड़े! नाटक ही उखड़ गया। भाग-दौड़ मची, भीड़ में से कोई डॉक्टर आया। रामचंद्रजी को इंजेक्शन दिया। हनुमान ने हालत बिगड़ते देखकर भागने की कोशिश की, जनता ने पकड़ लिया, खींचत्तान में पूंछ निकल गयी।
तुम अगर अपनी जिंदगी पर गौर करोगे तो ऐसी ही हालत पाओगे। लेकिन असली को कब तक छिपाओगे? और कभी-कभी निकल-निकल आता है, उभर-उभर आता है। तुम्हारे न चाहे तुम्हारे बावजूद भी, भीतर जो है--वह तुम्हारी आंखों से झांक जाता है। लहरें कभी-कभी तुम्हारे भीतर भी सत्य की उतरती हैं, अभिनय को तोड़कर, लेकिन जिंदगी के न्यस्त स्वार्थ हैं, तुम फिर सत्य को दबा देते हो। तुम फिर उसकी छाती पर बैठ जाते हो। तुम फिर उखड़ी पूंछों को चिपका लेते हो। सरक गए मुखौटे, फिर से ओढ़ लेते हो। झूठ का फिर गुणगान करने लगते हो।
मेरे पास अगर सच में तुम आए हो तो अब छोड़ो। ये नकली पूंछें गिर जाने दो। ये मुखौटे सरक जाने दो। अब जिंदगी का एक बार फिर से निर्णय करो। जिस ढंग से जिए हो, जैसे जिए हो, वह गलत गया है। और शैली सीखो। सुंदरदास उस नयी शैली की ही बात कर रहे हैं। उनके वचन सीधे-साफ हैं।
सत्य सदा ही सीधा-साफ होता है। उलझाव तो झूठ में होते हैं। झूठ सीधा-साफ हो ही नहीं सकता, क्योंकि सीधा-साफ हो तो फौरन पकड़ में आ जाए। झूठ को तो बहुत चालबाजियां करनी होती हैं! झूठ तो पेचदार होता है। झूठ में गुत्थियां बनानी पड़ती है। झूठ में बड़े जटिल शब्दों में जकड़ना होता है--ऐसे शब्दों में कि लोग समझें न। लोग अगर हिंदी बोलते हैं तो झूठ संस्कृत बोलता है। लोग अगर उर्दू बोलते हैं, झूठ अरबी बोलता है। लोग अगर अंग्रेजी बोलते हैं, झूठ लेटिन बोलता है।
वास्तविक संत सदा लोगों की भाषा में बोले। झूठा धर्म सदा मुर्दा भाषाओं में बोलता है। झूठा धर्म संस्कृत, अरबी, चीनी. . .। झूठा धर्म लेटिन और ग्रीक. . . लोगों की समझ में जो न आए। लोगों की समझ में जो आ जाए तो जितना जाल फैलाकर रखा है--शब्दों का, सिद्धांतों का--वह टूटे, गिरे। और उस जाल के साथ जुड़े हुए न्यस्त स्वार्थ भी गिर जाएं।
पंडित हमेशा मुर्दा भाषाओं में बोलता है; वही उसका पांडित्य है। सुंदरदास सीधे-सादे आदमी हैं, पंडित नहीं हैं। और ऐसा नहीं है कि संस्कृत के अद्भुत ग्रंथों से उनका कोई परिचय न था। मगर बोले लोकभाषा में, बोले लोगों की सीधी-सादी भाषा में, जो लोगों की समझ में आए। क्योंकि लोगों की समझ रूपांतरित करनी है। इसलिए शब्द कुछ कठिन नहीं हैं। शांति से सुनोगे, सुनते ही समझ में आ जाएंगे। मगर उस समझ में ही रुक मत जाना, क्योंकि उतने से कुछ भी न होगा।
बुद्धि की समझ काफी नहीं है, जब तक तुम्हारा अंतरतम न रंग जाए। ये बातें रंगे जाने की हैं। ये लोग रंगरेज जैसे हैं--ये सुंदरदास, ये नानक, ये कबीर. . .। ये लोग रंगरेज हैं। इनका काम है, इन्हें एक रंग मिल गया है--ऐसा पक्का रंग कि जिंदगी तो उसे मिटा ही नहीं सकती, मौत भी नहीं मिटा पाती। उसी रंग में तुम्हें भी रंग देना चाहते हैं। डुबकी मारो! रंगो!

सुंदर मनुषा देह यह, पायौ रतन अमोल।

कौड़ी सटै न खोइए, मानि हमारौ बोल।।
यह मनुष्य की देह एक अमूल्य रत्न है। तुम्हें तो भरोसा न आएगा--कैसे भरोसा आए? तुमने तो नरक के अतिरिक्त इस जीवन में कुछ जाना नहीं है। हां, कोई कहे कंकड़-पत्थर है, दो कौड़ी की है, तो समझ में आ जाए।. . . अमोलक रत्न! तुम कैसे मानोगे? तुमने तो अपने भीतर कुछ भी देखा नहीं है, जिसका कुछ मूल्य हो। तुम तो अपने को दो कौड़ी में इसीलिए बेचने को तैयार हो।
एक कुम्हार मिट्टी खोदकर अपने गधे पर लादकर मटके बनाने के लिए ले जा रहा था। एक हीरा हाथ लग गया। प्यारा हीरा! बड़ा हीरा! मगर कुम्हार को तो हीरे की पहचान नहीं। कुम्हार का तो संबंध मिट्टी से है। माटी उसका नाता, माटी उसकी भाषा। पहले तो उसने फेंक ही दिया उस हीरे को। फिर थोड़ा चमकदार दिखता था, सूरज की रोशनी में चमकता था, सोचा कि चलो अपने प्यारे गधे के गले में लटका देंगे। और तो उसका किसी से नाता-रिश्ता भी न था। कुम्हार का और नाता-रिश्ता हो भी किससे! गधा ही उसका सब कुछ था। तो उसने गधे के गले में लटका दिया। बड़ा खुश हुआ। चला मिट्टी लादकर।
राह पर एक जौहरी ने यह देखा। उसकी तो आंखें फटी की फटी रह गयीं। इतना बड़ा हीरा उसने देखा ही नहीं था। और गधे के गले में बंधा! बात तो साफ हो गयी कि इस कुम्हार को कुछ भी पता नहीं है। वह जौहरी पास आया और कहा, इस पत्थर का क्या लोगे? कुम्हार ने तो सोचा ही नहीं था कि इसका कोई दाम देनेवाला मिलेगा। अब उसने कहा कि अब आपकी मर्जी ही हो गयी और आपको पत्थर रुच ही गया, एक रुपया दे दें।
एक रुपया भी कुम्हार ने बहुत हिम्मत करके मांगा। एक रुपया! दिनभर की मेहनत के बाद मिलता है। मगर इस आदमी की आंखों में ऐसी रौनक मालूम पड़ रही थी और जीभ में ऐसा स्वाद उठता दिख रहा था, लार टपकी पड़ रही थी, कि उसने सोचा कि देगा एक रुपया, इसको पत्थर जंच गया है।
लेकिन जौहरी ने कहा : एक रुपया? पत्थर का एक रुपया? चार आने में देना हो तो दे दे।
लोभ की कोई सीमा नहीं है। लाखों का हीरा था, एक रुपये में भी लेने में लोभ पकड़ा। सोचा--चार आने में देगा यह, चार आने में भी इसको लगेगा कि बहुत कीमत मिल रही है।
कुम्हार ने कहा : चार आने! चार आने में तो नहीं दूंगा। इससे तो गधे के गले में ही अच्छा। और बच्चे घर में खेलेंगे। अपना रस्ता लो!
आठ आना ले लो--जौहरी ने कहा! फिर सोचकर दस-पांच कदम चला गया जौहरी, कि इसको बुद्धि आ ही जाएगी, आठ आने कौन इसको देने वाला है! आधे दिन की मेहनत। थोड़ी दूर जाकर जब कुम्हार नहीं लौटा तो जौहरी वापिस आया, लेकिन तब तक किसी दूसरे आदमी ने दो रुपये में खरीद लिया। दूसरे जौहरी ने खरीद लिया। बिक ही चुका था। छाती पीट ली पहले जौहरी ने। और कुम्हार से कहाः अरे मूरख! महामूरख! लाखों की चीज दो रुपये में बेच दी?
उस कुम्हार ने कहाः मैं तो मूरख हूं, सो जाहिर है। लेकिन तुम तो लाखों की चीज रुपये में भी न खरीद सके! मैं तो मूरख हूं, मुझे पता नहीं है; तुम्हें तो पता था? तुम्हारी मूर्खता मुझसे बहुत ज्यादा घनी है।
यहां तुम देखो, लोग जिंदगी को ऐसे गंवा रहे हैं कि जैसे उन्हें सूझता ही नहीं क्या करें! कोई ताश खेल रहा है, उससे पूछो : क्या कर रहे हो? वह कहता हैः समय काट रहे हैं। समय काटने का मतलब तो है, जिंदगी काट रहे हैं। काटे नहीं कट रही है! यह परमात्मा ने बड़ा गुनाह किया, तुम्हें जिंदगी दी। तुम काट रहे हो। कोई रोटरी-क्लब में काट रहा है, कोई होटल में काट रहा है, कोई सिनेमा में काट रहा है, कोई कहीं काट रहा है, कोई कहीं काट रहा है. . . काटो। तुम्हें पता नहीं है कि तुम क्या काट रहे हो!
एक कैसा अमूल्य अवसर--जहां इस जगत् की सारी संपदा बरस उठे! जहां जीवन की परम अनुभूति प्रगाढ़ हो! जहां तुम्हारे भीतर सूरजों का सूरज उगे! जहां तुम्हारे भीतर ऐसे अमृत का झरना बहे कि मौत भी उसे हरा न पाए! जहां तुम शाश्वत से जुड़ जाओ! --उस समय को तुम ताश खेल कर काट रहे हो?
लेकिन तुम तो ठीक ही हो, उनकी क्या कहें जो शास्त्र भी पढ़ते हैं, उपनिषद भी पढ़ते हैं, कुरान भी कंठस्थ है, वेदों के वचन भी याद हैं, उनकी क्या कहो? तुम तो कुम्हार जैसे हो, तुम्हें पता नहीं, तो तुमने गधे के गले में हीरा लटका दिया है। ताश खेल कर जिंदगी काट रहे हो! लेकिन उनके संबंध में क्या कहो जो काशी से पंडित होकर लौटे हैं? उनके संबंध में क्या कहो जिन्होंने उपनिषद पर टीकाएं लिखी हैं, कि शोध-ग्रंथ लिखे हैं। उनके संबंध में क्या कहो, क्योंकि वे भी जीवन ऐसे ही काट रहे हैं।
खैर, मूढ़ कुम्हार अगर गधे के गले में लटका दे हीरे को, चलेगा। लेकिन इन महामूढ़ों के संबंध में क्या कहो!
तुम्हारे अज्ञानी में और तुम्हारे ज्ञानी में तुम्हें कुछ फर्क दिखाई पड़ता है? तुम जिसको अज्ञानी कहते हो, उसमें और तुम्हारे पंडित में तुम्हें कुछ फर्क दिखाई पड़ता है? तुम में और तुम्हारे घर जो पूजा करने आता है पंडित, उसमें तुम्हें कुछ फर्क दिखाई पड़ता है? तुम्हारे लोभ में, तुम्हारे क्रोध में, तुम्हारे काम में, कुछ भेद है? सब एक जैसे हैं। समझ में नहीं आएगा।
इसलिए मजबूरी में सुंदरदास को एक बात कहनी पड़ रही है, जो सभी संतों को कहनी पड़ी है--

सुंदर मनुषा देह यह, पायौ रतन अमोल।

कौड़ी सटै न खोइए मानि हमारो बोल।।
वे कहते हैं: हमारी बात मान लो। तुम्हारी समझ में अभी आ नहीं सकता। तुम हमारी बात मान लो। हम भी तुम जैसे थे और हमने भी बहुत जिंदगियां ऐसे ही गंवाईं और बहुत हीरे ऐसे ही खो दिए। तुम मत खोओ।
मैंने सुना है, एक सुबह एक मछुआ, जल्दी ही उठा और मछलियां पकड़ने नदी के किनारे पहुंच गया। थोड़े जल्दी आ गया था, अभी रात अंधेरी थी और बादल घिरे थे, सूरज निकला नहीं था। थोड़ी रोशनी हो जाए तो नाव खोले, मछिलयां पकड़ने जाए। तो बैठ गया किनारे पर। बैठा तो उसे पता लगा कि पास ही एक झोला पड़ा है। टटोलकर देखा, कुछ काम तो था नहीं। टटोल कर देखा तो झोले में लगा कि बहुत से पत्थर भरे हैं। बैठा-बैठा आदमी करे क्या, समय काटने लगा। एक पत्थर निकाला, पानी में फेंका। आवाज हुई--छपाक! लहरें उठीं! फिर दूसरा पत्थर निकाला, फेंका --छपाक! फेंकता रहा, फेंकता रहा, फिर सूरज निकलने लगा। जब सूरज निकलने लगा तो झोले में से आखिरी पत्थर हाथ में आया। सूरज की किरणें पड़ीं। वह पत्थर नहीं था, हीरा था। उसकी छाती पर क्या गुजरी होगी, सोच सकते हो! एकदम छाती पकड़ कर बैठ गया--तो वे भी सब हीरे ही थे, जो अंधेरे में फेंकता रहा और छपाक-छपाक पानी की आवाज सुनता रहा!
अंधेरे में जो पत्थर दिखाई पड़ता है, वह रोशनी आने पर हीरा हो जाता है। जो जागे और जिन्होंने थोड़ा ध्यान को साफ-सुधरा किया, जिन्होंने अपनी ज़रा भीतर की भूमि सुधारी, घास-पात काटा, कूड़ा-करकट हटाया, जिन्होंने भीतर थोड़ी-सी दीए की बाती जलायी--उन्होंने पाया कि हीरा है।
सुंदरदास इसलिए कहते हैं: मानि हमारो बोल! मजबूरी है। तुम्हारा अनुभव तो राजी नहीं होगा, क्योंकि तुमने जिंदगी में कुछ जाना नहीं। तुम अंधेरे में जिए हो। तुम्हारी जिंदगी में तुमने पत्थरों से ही पहचान पायी है। हीरों से तुम्हारी मुलाकात नहीं हुई। इसलिए सुंदरदास कहते हैं कि हमारा बोल सुनो और मान लो।
यह जीवन अमोल है। बड़ी मुश्किल से मनुष्य की यह देह मिलती है। जन्मों-जन्मों की यात्रा के बाद, न मालूम कितनी योनियों में यात्रा के बाद यह देह मिलती है! न मालूम कितने जन्मों तक तुमने प्रार्थना की है मनुष्य हो जाने की! प्रार्थना अब पूरी हो गयी है। अब कुछ करो! मनुष्य तुम हो गए हो, अब इस सौभाग्य का कुछ उपयोग करो! अब इस अवसर को किसी और महा अवसर में बदलो।

सुंदर मनुषा देह यह, पायौ रतन अमोल।

कौड़ी सटै न खोइए, मानि हमारो बोल।।
और इसे कौड़ियों में मत गंवाओ। और लोग कौड़ियों में ही गंवा रहे हैं। लोग कागज के नोटों के ढेर लगाए जा रहे हैं और सोच रहे हैं, जिंदगी सार्थक हुई जा रही है! लोग बैंक में अपना बैलेंस बड़ा किए जा रहे हैं और सोचते हैं जिंदगी सार्थक हुई जा रही है। या कोई पदों की सीढ़ी पर चढ़ा तो जा रहा है और सोचता है, जिंदगी सार्थक हुई जा रही है।
सावधान! यही ढंग हैं लोगों के जिंदगी गंवाने के। यहां कुछ पाओगे नहीं। दौड़-धूप बहुत है। आपा-धापी बहुत है। लेकिन पाना न कभी यहां हुआ है, न कभी हो सकता है।
एक रात मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने स्वप्न देखा। सुबह उठकर उसने मुल्ला से कहा : मुल्ला! कल रात मैंने स्वप्न देखा कि मैं और आप किसी गहनेवाले की दुकान पर गए हैं। वहां पर मेरे लिए आपने नौ लाख का एक हार खरीदा।
मुल्ला तो घबड़ाने लगा, पसीना आने लगा! मुल्ला ने कहा : पर ये खयाल रखो ये बातें सपने की हैं। पत्नी ने कहा : वह तो जब आपने गहना खरीद लिया, तभी मैं समझ गयी थी कि यह सपना है। तभी तो मेरी नींद टूटी। जैसे ही तुमने गहना खरीदा, मैं तभी समझ गयी कि यह सपना है। यह सच नहीं हो सकता। उसी चोट में तो मेरी नींद खुली!
इस जिंदगी में कुछ भी नहीं खरीदा जा सकता। इस जिंदगी में तुम कुछ भी इकट्ठा न कर सकोगे। हां, इकट्ठा करने में अपने को गंवा सकते हो।
कौड़ी सटै न खोइए, मानि हमारो बोल।

तूने प्राणपन से नहीं टेरा

ऊष्मा और प्रकाश

और शक्ति का सवेरा

तभी तो शून्य में खड़ा है तू

और अब सूने में रोएगा

अंधेरे में जागेगा

अंधेरे में सोएगा!
बस जिंदगी ऐसे ही अंधेरे-अंधेरे में बीत रही है। टटोलते-टटोलते अंधेरे में लोग कैसे मां के गर्भ के बाहर आ जाते हैं, टटोलते-टटोलते और फिर कैसे कब्रों में प्रवेश कर जाते हैं, बस इतनी ही दो घटनाएं घटती हैं, और कुछ भी नहीं घटता। इसलिए तुम मानो तो कैसे मानो? मैं भी तुमसे कहता हूं कि जिंदगी अमोल है। यह रत्न ऐसा है कि बड़ी मुश्किल से मिलता है, सौभाग्य से मिलता है।. . .मानि हमारो बोल!
इसलिए सारे धर्मों ने श्रद्धा पर बल दिया है। श्रद्धा का अर्थ क्या होता है? जो तुम्हारे अभी अनुभव में नहीं आ रहा है, लेकिन किसी के अनुभव में आ गया है; अगर उस आदमी के अनुभव से तुम्हें कुछ बातें प्रत्यक्ष होने लगें. . .। उसका अनुभव तो प्रत्यक्ष नहीं हो सकता जो मैंने भीतर पाया है, उसे तुम्हें दिखाने को मेरे पास कोई उपाय नहीं है, न सुंदरदास के पास है, न बुद्ध के पास है। लेकिन अगर तुम में थोड़ी समझ हो तो उसके कुछ अनुमान लगाने के उपाय जरूर हैं। बुद्ध की शांति देखो। बुद्ध के जीवन पर छाया हुआ प्रसाद देखो। बुद्ध के चारों तरफ आ गया बसंत देखो! बुद्ध के उठने में, बैठने में, बुद्ध के बोलने में, न बोलने में, कोई स्वर बज रहा है, उसे सुनो! बुद्ध की आंखों में झांको। शायद आंखें चार हों, तो उन आंखों की गहराइयों में तुम्हें किसी चीज का अनुमान होने लगे! बुद्ध के चरण पकड़ो, शायद उन चरणों से बहती हुई कोई ऊर्जा तुम्हें तरंगित करे!
बुद्ध के पास बैठो--सिर्फ बैठो! सत्संग करो! शायद बैठे-बैठे, पास बैठे-बैठे जो उनके हृदय में घटा है, उसकी तरंगें तुम्हारे हृदय को भी छुएं, आंदोलित करें। इसलिए इस देश में सत्संग का इतना मूल्य हो गया है। क्योंकि बुद्ध को क्या हुआ है, इसको हम बाहर तो देख ही नहीं सकते। अब इसको परोक्ष रूप से अनुभव करने के उपाय खोजने पड़ेंगे। सीधे-सीधे देखने की तो कोई व्यवस्था नहीं हो सकती, लेकिन आस-पास से घूमकर पहचानने का कोई उपाय हो सकता है।
तुम जब बगीचे के करीब आने लगते हो तो बगीचा दिखाई भी न पड़े, तो भी हवाएं ठंडी होने लगती हैं। उससे अनुमान तो कर सकते हो कि बगीचा करीब आ रहा है, कि हम ठीक दिशा में हैं। बगीचा दिखाई भी न पड़े, लेकिन हवाओं में कुछ सुवास तो आने लगती है। बेले के फूल खिल गए होंगे और हवाएं सुवास को ले आयी होंगी, तुम्हारे नासापुट अहसास करने लगते हैं कि हम जिस दिशा में जा रहे हैं वहां फूल होने चाहिए। फिर जैसे-जैसे तुम बढ़ते हो, सुवास बढ़ती है। अभी भी बगीचा दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन एक बात पक्की हो जाती है कि मैं ठीक दिशा में जा रहा हूं, क्योंकि सुवास बढ़ने लगी, मेरे कदम ठीक रास्ते पर हैं। इसी का नाम सत्संग है।
गुरु के जैसे-जैसे पास होते हो, सुवास बढ़ने लगती है। जीवन का संगीत बढ़ने लगता है। तुम्हारे भीतर भी प्रसाद की अवधारणा होने लगती है। तुम्हारे भीतर कुछ नया होने लगता है, जो इसके पहले नहीं हुआ था।
यह जो अनुमान है, यही श्रद्धा है--कि मुझे तो नहीं हुआ है अभी, लेकिन किसी को हुआ है। इसके परोक्ष प्रमाण मुझे मिल रहे हैं।
रामकृष्ण मरते थे, उनको कैंसर हुआ था। गले का कैंसर था, पानी भी नहीं पी सकते थे, भोजन भी नहीं ले सकते थे, अंतिम दिन बड़े कष्टपूर्ण थे। लेकिन चिकित्सक चकित थे, क्योंकि रामकृष्ण की आंखों में कोई कष्ट नहीं। ये परोक्ष लक्षण हैं। चिकित्सक मान ही नहीं सकते थे कि इतनी पीड़ा में तो आदमी को मूर्च्छित हो जाना चाहिए। और रामकृष्ण जैसे आदमी को तो निश्चित हो जाना चाहिए, जो ज़रा-ज़रा सी बातों में समाधि में उतर जाते थे। किसी ने राम का नाम ले दिया कि वे गिर पड़ते थे, बेहोश हो जाते थे। छहः-छहः घंटे बेहोश रह जाते थे। रास्ते पर उनको ले जाना मुश्किल था। उनके शिष्यों को उन्हें पकड़कर रास्ते से गुजारना पड़ता था; क्योंकि कोई ऐसे ही कह दे कि जै राम जी, कि राम शब्द सुन लें वे कि काफी हो गया। उतनी बूंद पड़ जाए कि वे मस्त हो गए, वहीं सड़क पर नाचने लगें, कि सड़क पर गिर पड़ें, भावाविष्ट हो जाएं।
तो जो आदमी ऐसी छोटी-छोटी घटनाओं में भावाविष्ट हो जाता था, कंठ सड़ गया है, पानी की एक बूंद नहीं उतरती, दिनों से भोजन-पानी भीतर नहीं गया है, भयंकर पीड़ा है, सारा शरीर अग्नि से भरा हुआ है. . . लेकिन रामकृष्ण की आंखें ऐसी शांत हैं जैसे वे परम आनंद में हैं। जो चिकित्सक उनकी देख-रेख करते थे, वे भी आस्तिक होने लगे। आए नहीं थे आस्तिक होने, सत्संग करने की इच्छा भी नहीं थी, अनायास आ गए थे, ऐसे ही आ गए थे; लेकिन आस्तिकता जन्मने लगी। सत्संग अनायास भी हो जाए, अनायास भी बगीचे के पास से निकल जाओ तो भी तो फूलों की गंध नासापुटों में भर जाएगी न।
रामकृष्ण के भक्तों ने रामकृष्ण से कहाः आप मां को क्यों नहीं कहते? आप तो काली के ऐसे भक्त हैं, एक बार कह देंगे, सब ठीक हो जाएगा!
रामकृष्ण कहतेः लेकिन मुझे दुःख हो तो मैं कुछ कहूं। दुःख हो तो शिकायत करूं।
आखिर भक्तों ने एक तरकीब निकाली। उन्होंने कहाः दुःख हमें है, आपको नहीं। हमारे लिए तो प्रार्थना करो!
तो रामकृष्ण मना न कर सके। सीधे-सीधे आदमी थे, यह उन्हें तर्क जंचा कि मुझे दुःख नहीं है, ठीक; मैं शिकायत भी नहीं कर सकता, यह भी ठीक। लेकिन ये दुःखी हैं जरूर, सब रो रहे हैं। तो उन्होंने कहा, तुम्हारे लिए प्रार्थना करूंगा, आज आंख बंद करके कहता हूं। आंख बंद की खिल-खिला कर हंसने लगे। उस घड़ी में हंसी का आना तो मुश्किल ही था, असंभव ही था। ये लक्षण हैं। भक्तों ने पूछाः आप क्यों हंस रहे हैं? उन्होंने कहा कि मैंने कहा मां को कि देख, मुझे तो कोई अड़चन नहीं है, जैसा रख वैसा रहूंगा। जैसा तूने रखा है वैसा ही सदा रहा हूं, उससे अन्यथा मैंने नहीं चाहा है। उससे अन्यथा चाहने का सवाल भी नहीं है। तूने जो दिया है वही सुख है। तूने जो दिया है वही शुभ है। मुझे जिस बात की जब जरूरत थी, वही तूने दिया है। यह दिया है तो जरूर जरूरत होगी, मुझे पता हो या न हो। मगर ये मेरे प्रेम करनेवाले लोग हैं, ये बड़े दुःखी हो रहे हैं, ये रो रहे हैं। इनको खयाल में रखकर एक घूंट पानी मेरे गले से उतर जाने दे, एक कौर भोजन मेरे गले से उतर जाने दे, ताकि ये प्रसन्न हो जाएं।
तो भक्तों ने कहा, फिर हंसे क्यों? तो उन्होंने कहा कि मां ने कहा कि यह भी खूब रही! तुझे भलीभांति पता है कि इनके कंठों से भी तो तू पानी पी रहा है, इनके कंठों से भी तो तू भोजन ले रहा है! अब इसी कंठ से क्यों अटकाना?
आप हंसे क्यों? भक्तों ने पूछा। रामकृष्ण ने कहाः मैं हंसा इसलिए कि यह मुझे पता था, वह यही कहेगी। यह मुझे पहले से ही पता था कि यही उत्तर आनेवाला है। तुम नहीं माने, नाहक मेरी फजीहत करवायी। उसने कहा कि अब इस कंठ से बहुत भोजन ले लिया, बहुत पानी ले लिया, अब और कंठों से ले। अब प्यारों के कंठ से ले, सब कंठ तेरे हैं।
ये लक्षण कुछ कहेंगे। इन लक्षणों पर श्रद्धा होती है।
श्रद्धा विश्वास का नाम नहीं है। श्रद्धा परोक्ष अनुमान है। प्रत्यक्ष तो समझ में नहीं आ रहा है। साफ-साफ दिखाई नहीं पड़ रहा है, लेकिन दूर एक तारा टिमटिमाने लगा है। बहुत दूर से संगीत का एक स्वर सुनाई पड़ने लगा है। कौन बजाता है, पता नहीं। क्यों बजाता है, पता नहीं!
सत्संग में बैठने का अर्थ होता हैः जिसको घटा है, जिसने जीवन के मूल्य को समझा है, उसके पास बैठते-बैठते, उसकी सोबत में, उसके रंग में, कुछ-कुछ तुम्हें भी दिखाई पड़ने लगेगा। जौहरी के पास बैठ-बैठ कर हीरों की परख हो जाती है।
कौड़ी सटै न खाइए, मानि हमारौ बोल

जो नहीं दिखना चाहिए

उसे न देख सकने के लिए

एक अलग आंख चाहिए

जहां नहीं उड़ना चाहिए

वहां न खुलने के लिए

एक अलग पांख चाहिए!
दृश्य को देखनेवाली एक आंख है। अदृश्य को देखने के लिए और दूसरे तरह की आंख चाहिए, उसी का नाम श्रद्धा है। इस बाहर के जगत् में उड़ने के लिए एक और तरह का पंख चाहिए। उसी का नाम श्रद्धा है। इस बाहर के जगत् में उड़ने के लिए एक तरह के पंख चाहिए, भीतर के जगत् में उड़ने के लिए एक और तरह का पंख चाहिए। उसी का नाम श्रद्धा है।

जो नहीं दिखना चाहिए

उसे न देख सकने के लिए

एक अलग आंख चाहिए

जहां नहीं उड़ना चाहिए

वहां न खुलने के लिए

एक अलग पांख चाहिए!
और भीतर जो दिखाई पड़ता है वह दिखाई पड़ने जैसा नहीं है। और भीतर जो उड़ान होती है, वह उड़ान जैसी भी नहीं है। कहते हैं उड़ान, क्योंकि बाहर की उड़ान हम पहचानते हैं। कहते हैं दर्शन, आत्मदर्शन, प्रभु-दर्शन, क्योंकि यह भाषा हमारी पकड़ में आ सकती है। लेकिन वहां कैसा दर्शन? वहां तो द्रष्टा और दर्शन एक हो जाते हैं। और वहां कैसा उड़ना? वहां किसमें उड़ना! वहां तो आकाश और पंख एक हो जाते हैं। मगर यह अलग पांख चाहिए, अलग पांख चाहिए। उस अलग आंख, अलग आंख का नाम श्रद्धा है।
इसलिए सुंदरदास कहते हैं: मानि हमारो बोल!

सुंदर सांची कहतु है, मति आनै कछु रोस।

जौ तैं खोयो रतन यह, तौ तोही कौ दोस।।
सुंदरदास कहते हैं: मैं बिल्कुल सच कह रहा हूं सांची कह रहा हूं। नाराज न हो जाना!
बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कही है। संतों को सदा इस बात की चिंता रही है कि जब भी वे सच कहेंगे, लोग नाराज हो जाएंगे। लोग झूठ में ऐसे पग गए हैं, लोग ऐसे झूठ हो गए हैं कि सच  उन्हें कांटे की तरह चुभेगा। लोग झूठ के ऐसे आदी हो गए हैं कि सच को वे झेल नहीं पाएंगे। इसलिए तो लोग नाराज होते हैं। लोग मुझसे नाराज हैं! कितने नाराज हैं!

सुंदर सांची कहतु है, मति आनै कछु रोस।
सुंदर कहते हैं: नाराज न हो जाना। नाहक क्रोध से मत भर जाना। मैं तुमसे सच-सच कह रहा हूं। जैसा है वैसा कह रहा हूं। ज़रा भी अन्यथा नहीं कर रहा हूं।
लेकिन लोगों से वैसा-वैसा कह दो जैसा है, तो लोग नाराज हो जाते हैं। अंधे से अंधा नहीं कहना पड़ता--अंधे से हम कहते हैं: सूरदास जी! उससे सूरदास जी बहुत प्रसन्न होते हैं। कोई मर जाता है तो कहते हैं। "महायात्रा' पर गए। जा रहे हैं मरघट, कहना पड़ता है महायात्रा। राजनेता भी मर जाते हैं तो हम कहते हैं स्वर्गीय हो गए। तो फिर नरक कौन जाता है? जो मरा, वही स्वर्गीय! दिल्ली में भी मरो तो भी स्वर्गीय हो जाते हैं!
एक राजनेता मरे। जब आंख खुली, सोचा स्वभावतः, राजनेता थे कि स्वर्ग में होंगे! आसपास देखा, हालात बिल्कुल दिल्ली जैसे मालूम पड़े। थोड़े चौंके भी। वही शोरगुल, वही उपद्रव, वही जुलूस, घिराव, मारपीट. . . ठीक पार्लियामेंट भरी थीं! कुर्सियां फेंकी जा रही हैं, माइक फेंके जा रहे हैं, दंगा-फसाद हो रहा है, एक-दूसरे की टांग खींच रहे हैं लोग, उठा-पटक चल रही है। पास ही खड़े एक आदमी से पूछा कि भाई, स्वर्ग की स्थिति तो ठीक वैसी ही मालूम पड़ती है जैसी नई दिल्ली की है। पास खड़े आदमी ने कहाः महानुभाव! होश में आइए, यह स्वर्ग नहीं है, यह नरक है।
राजनेता भी मरता है तो हम कहते हैं स्वर्ग गया। हम अच्छी बातें कहने के आदी हैं। अच्छे-अच्छे शब्दों का उपयोग करते हैं। इसलिए जब संत हमसे सीधी-सीधी बात कह देते हैं तो चोट लगती है। जीसस को हमने ऐसे ही थोड़े सूली पर लटका दिया। बहुत नाराज हो गए, तब लटकाया। मंसूर की हमने ऐसे ही थोड़े गर्दन काट दी। कोई ऐसे ही थोड़े किसी की गर्दन काटता है। बहुत नाराज हो गए। उसने कुछ बात कह दी, ऐसी बात कह दि कि हमारे हृदय को छू गयी, घाव कर गयी।
सुकरात को हमने जहर पिला दिया। सीमा के बाहर हो गयी हमारी बात, बर्दाश्त के बाहर हो गयी।

सुंदर सांची कहतु है, मति आनै कछु रोस।

जौ तैं खोयो रतन यह, तौ तोही कौ दोस।।
और सुंदर कहते हैं: यह मैं तुझसे कहना चाहता हूं कि अगर यह जीवन तूने खोया तो तेरे अतिरिक्त और कोई जुम्मेवार नहीं है। नाराज हो मत जाना! यह बात सुनकर पीड़ित मत हो जाना!
लोग हमेशा चाहते हैं, किसी और पर दोष दे दो! यह लोगों की आदत ही है। जिंदगी में जब भी कुछ तकलीफ होती है--कोई कहता है, भाग्य; कोई कहता है, भगवान्। भाषा बदल जाती है, समय बदल जाते हैं, तो लोग कहते हैं: समाज, राज्य की व्यवस्था। पुराने दिनों में लोग कहते थे भाग्य; फिर माक्र्स आया, उसने कहाः भाग्य का कोई सवाल नहीं, आर्थिक व्यवस्था समाज की खराब है, इसलिए लोगों की जिंदगी खराब जा रही है। इसलिए लोगों की जिंदगी में सुख नहीं है।
जंची लोगों को बात। भाग्य की भी जंचती थी, माक्र्स की भी जंची। फिर फ्रायड आया और फ्रायड ने कहा कि ये गलत ढंग से बच्चे पाले जा रहे हैं, इसलिए सब उपद्रव हो रहा है। यह भी सबको जंचती है, कि ठीक है। बच्चे जब तक ठीक से न पाले जाएंगे, शिक्षा जब ठीक से न होगी, तो सब गड़बड़ हो जाएगा। शिक्षा ठीक होनी चाहिए। समाज ठीक होना चाहिए--व्यवस्था ठीक होनी चाहिए। सब ठीक होना चाहिए। एक कोई तुमसे यह भी न कहे कि तुम जुम्मेवार हो! जुम्मेवारी किसी और की होनी चाहिए।
हम भी सब यही करते हैं। अगर तुम दुःखी हो तो पति कहता है पत्नी के कारण। इस दुष्ट से कहां संबंध हो गया! और तुम्हारे तथाकथित महात्मा भी यही कहते हैं। कोई भेद तुममें और तुम्हारे महात्माओं में नहीं है। दोनों का गणित एक है। पत्नी सोचती है, इस पति के कारण। बच्चे हों तो लोग सोचते हैं, बच्चों के कारण हम नरक में पड़े हैं। और बच्चे न हों तो सोचते हैं कि बच्चे के न होने के कारण हम दुःख भोग रहे हैं।
मेरे पास दोनों तरह के लोग आते हैं। कोई आ जाता है कि बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं, ये बच्चे-कच्चों में उलझ गया हूं! कोई आ जाता है कि बच्चे-कच्चे बिल्कुल नहीं हैं, आशीर्वाद दें! मगर कोई यह बात देखने को राजी नहीं होता कि अगर जिंदगी हमारी व्यर्थ जा रही है तो सिवाय मेरे, और सिवाय मेरे, और कोई जुम्मेवार नहीं है! धर्म की शुरुआत इसी सूत्र से होती है।
जिस व्यक्ति ने यह स्वीकार कर लिया कि मैं ही जुम्मेवार हूं, उसके जीवन में क्रांति घट सकती है। और किसी के जीवन में क्रांति नहीं घटती। और तो सब बहाने हैं। टालने के बहाने हैं! अपना बोझ हटाने के बहाने हैं। हटाते रहो बोझ, लेकिन अगर मूल कारण को तुमने स्वीकार नहीं किया तो तुम जैसे के तैसे हो, वैसे ही रहोगे, वैसे ही मर जाओगे!

सुंदर सांची कहत है, मति आनै कछु रोस।

जौ तैं खोयो रतन यह, तो तोही कौ दोस।।

बार-बार नहीं पाइए, सुंदर मनुषा देह।

राम भजन सेवा सुकृत, यह सौदो करि लेह।।
यह बार-बार नहीं मिलेगा जीवन। यह सौदा कर ही लो। दो चीजों से यह सौदा हो सकता है। भीतर राम का स्मरण, भीतर भक्ति-भाव, ध्यान--और बाहर, जो राम के बहुत रूप हैं, उनकी सेवा। इन दो छोटे-से शब्दों में सब कह दिया। सीधी-साधी बात। भीतर शांति ध्यान की, प्रभु का स्मरण; और बाहर, जो प्रभु के अनंत-अनंत रूप हैं, उनकी जितनी सेवा बन सके सेवा!

रामभजन सेवा सुकृत, यह सौदो कर लेहु।
बस ये दो बातें अगर तुम पूरी कर लो, तो यह सौदा हो गया! यह हीरा तुम्हारा रहा। तुमने पा लिया जीवन का धन। तुमने पा ली असली संपदा--जो तुमसे छीनी न जा सकेगी, डाकू जिसे लूट न सकेंगे, चोर जिसे चुरा न सकेंगे, मृत्यु भी जिसे नष्ट न कर सकेगी। तुमने शाश्वत की संपदा पा ली!

सुंदर सांचि कहतु है जौ मानै तो मानि।

यह देह अति निंद्य है, यहै रतन की खानि।।
बहुत मूल्यवान वचन है। इसी देह में जहर भरा है, इसी देह में अमृत। सब तुम पर निर्भर है। समझदार हो तो जहर से औषधि बना लेना। और नासमझ हो तो अमृत से भी जहर बना लेता है। नासमझ के हाथ में जहर भी जहर है, अमृत भी जहर है। समझदार के हाथ में अमृत भी अमृत है और जहर भी अमृत है। सब तुम पर निर्भर है।
इसलिए जिनने तुमसे कहा कि देह पाप है, कि देह निंद्य है, कि देह नरक है, उनकी बात सुनकर रुक मत जाना; उन्होंने आधी बात कही है। दूसरा हिस्सा तो बात चूक ही गए वे--इसी देह में परमात्मा छिपा है। इसी देह की पोर-पोर में प्रेम की रसधार छिपी है। इसी हृदय पर अनाहद का नाद उठता है। इसी से अमृत की तलाश पर निकलना है। इसी देह को सीढ़ी बनाना है स्वर्ग की।

दिल पै जब कोई चोट खाते हैं

अहले-दिल और मुस्कराते हैं

देखकर तेरी मस्त आंखों को

मैकदे खुद भी झूम जाते हैं

ऐ गमे-जिंदगी! उदास न हो

आ तुझे हम गले लगाते हैं

अहले-दिल जिंदगी की जुल्मत में

खूने-दिल से दिए जलाते हैं

हम हैं वो रहरबे-हयात जिन्हें

राहजन रास्ता दिखाते हैं
अगर समझ हो तो लुटेरे भी तुम्हारे लिए मार्गदर्शक हो जाएंगे।

हम हैं वो रहरबे-हयात जिन्हें

राह जन रास्ता दिखाते हैं
हम ऐसे जीवन-पथिक हैं कि लुटेरे भी जिनके मार्गदर्शक हो जाते हैं। बस पीने का अंदाज आए, पीने की शैली आए। अमृत न तो अमृत है, न जहर जहर है। सब तुम्हारे पीने के अंदाज पर निर्भर है। कोई वीणा उठाकर किसी के सिर पर दे मारे, हत्या कर दे, उसी वीणा से अपूर्व संगीत उठ सकता था।

एक वक्त आता है

जिसमें सब कुछ सीधा हो जाता है

मगर यह वक्त आता है तब

जब लगा देते हो अपना सब

तुम दांव पर या कह सकते हैं

जब रख देते हो तुम

अपने जीवन का सिर

मौत के पांव पर

तब सब सीधा हो जाता है

और सरल अमृत बन जाता है तब

अब तक का गरल
जिस दिन भी तुमने बोधपूर्वक अपनी सारी ऊर्जा को दांव पर लगाया उसी दिन गरल अमृत हो जाता है; मृत्यु परमात्मा का द्वार बन जाती है; और देह में ही उससे मिलन हो जाता है।
यह देह दिव्य भी है। यह देह सिर्फ संसार का घर नहीं है, यह परमात्मा का मंदिर भी है। तुम पर निर्भर है सब, कैसा इसका उपयोग करोगे।

यह देह अति निंद्य है, यह रतन की खानि।

सुंदर सांची कहतु है, जौ मानै तौ मानि।।
लेकिन वे कहते हैं, मान सको तो मान लो! सिद्ध करने का कोई भी उपाय नहीं। देखते हो अवशता संतों की! उनकी अड़चन देखते हो! उन्हें दिखाई पड़ रहा है। तुम दिखाई पड़ रहे हो कि गङ्ढे में गिर रहे हो। तुम्हें पुकारते हैं, चिल्लाते हैं कि मत जाओ उस रास्ते पर, गङ्ढा है; मगर तुम्हें गङ्ढे में संपदा दिखाई पड़ रही है। तुम्हें सांपों में मित्र दिखाई पड़ रहे हैं।
. . .जौ मानै तौ मानि! सुंदरदास कहते हैं: जो मान सको तो मान लो। सुन सको तो सुन लो! आ सको मेरे पास तो आ जाओ। इसका स्वाद थोड़ा ले सको तो ले लो।

सुंदर नदी प्रवाह मैं मिल्यौ काठ संजोग।

आपु आपकौ बहि गए, त्यौं कुटुंब सब लोग।।
जिनमें तुम भटके हो, भरमाए हो अपने को. . . मित्र हैं, प्रियजन हैं, भाई-बंधु हैं, मा-पिता हैं, पति-पत्नी हैं, बच्चे हैं. . . जिस परिवार में तुम अपने को उलझाए हो, यह सिर्फ समय गंवाया जा रहा है। इस उलझाव को जिंदगी का सब कुछ मत समझ लेना। इस खेल को जीवन का सार मत समझ लो।

सुंदर नदी-प्रवाह मैं मिल्यौ काठ संजोग।
यह तो ऐसा ही है, जैसे लकड़ी के दो टुकड़े नदी में बहते-बहते मिल जाएं अचानक, फिर बिछड़ जाएं। . . . आपु आपुकौ बहि गए। फिर विदा हो जाएंगे। फिर अपने-अपने रास्तों पर चले जाएंगे।

सुंदर बैठे नाव मैं, कहूं-कहूं ते आइ!

पार भए कतहूं गए, त्यौं कुटुंब सब जाइ।।
जैसे नाव में बैठते हैं यात्री न मालूम कहां-कहां से आकर, घड़ीभर को साथ हो जाता है, फिर नदी पार हो गए, फिर उतर-उतरकर फिर अपने रास्तों पर चले जाते हैं।
तुम्हारी पत्नी से तुम्हारी पहले कभी पहचान थी? सोचते हो, फिर कभी पहचान हो पाएगी?
अभी कुछ ही दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के एक जस्टिस मिलने आए। भले और प्यारे आदमी हैं! पत्नी मर गयी है, तो बहुत दुःखी हैं। दो वर्ष बीत गए पत्नी को मरे हुए, मगर उनका दुःख का घाव उन्हें सुखाए डाल रहा है, जलाए डाल रहा है। सीधे-साफ आदमी हैं। मुझसे कहने लगेः बस एक ही बात के लिए आया हूं। मेरा मेरी पत्नी से फिर कभी मिलना हो पाएगा या नहीं?
मैंने उनसे पूछाः मुझे यह बता दो, इस जन्म के पहले कभी पत्नी से मिलना हुआ था? उन्होंने ऐसा सोचा भी नहीं था। जब पहले नहीं हुआ था तो पीछे भी क्या होगा? यह तो नाव पर हम बैठे गए हैं, थोड़ी घड़ी को। तुम कहां से आए, मैं कहां से आया, हम बड़ी-बड़ी दूर से आए। अलग-अलग रास्ते हैं हमारे, अलग-अलग जीवन-पथ हैं। यह थोड़ी देर नाव पर बैठ गए, दोस्ती भी बन गई, मित्रता भी बनी, पति-पत्नी भी बने, बच्चे भी हुए, सब हुआ! फिर नाव किनारे पर लग जाएगी सब उतर पड़ेंगे, अपने-अपने रास्ते पर चले जाएंगे। मौत सब को विदा कर देगी। जन्म ने जोड़ दिया, मौत विदा कर देगी। जन्म इस घाट को समझो, मौत उस घाट को समझो। इस जीवन में थोड़ी देर नाव पर बैठ गए, बस इतना समझो। इसमें ही उलझ मत जाओ, कुछ पहले की याद करो।
झेन फकीर कहते हैं: याद करो उस चेहरे की जो तुम्हारा तब था जब तुम पैदा नहीं हुए थे, जब तुम्हारे मां-बाप भी पैदा नहीं हुए थे। याद करो उस चेहरे को जो तुम्हारा तब होगा, जब तुम मर जाओगे। अपने मूल को पहचानो, क्योंकि वही चेहरा परमात्मा का चेहरा है।

सुंदर पक्षी वृक्ष पर, लियौ बसेरा आनि।

राति रहै दिन उठि गए, त्यौं कुटुंब सब जानि।।
सांझ को देखते हैं, वृक्षों पर पक्षी आकर इकट्ठा हो जाते हैं! बड़ा शोरगुल मचता है। बड़े झगड़े-झांसे हो जाते हैं। किसकी जगह किसने ले ली, कौन किस की डाल पर बैठ गया! फिर थोड़ी देर में सब सन्नाटा हो जाता है। रात सब सो गए। सुबह होगी, सूरज उगेगा, पक्षी जगेंगे, फिर चल पड़ेंगे अपने-अपने यात्रा-पथों पर। ऐसा ही यह संसार है।

सुंदर यह औसर भलौ, भजिलै सिरजनहार।

जैसे ताते लोह कौं लेत मिलाइ लुहार।।
समझकर, देख कर कि यह मिलना तो चार दिन का है, इसी में सब गंवा नहीं देना है, इस परम अवसर का उपयोग कर लो। और एक ही उपयोग हैः उसको खोज लेना, जिसने बनाया। उसको खोज लेना, जो मैं हूं। उसको खोज लेना, जो इस जीवन की आधारशिला है, जो मेरा स्वभाव है, स्वरूप है।

सुंदर यह औसर भलौ, भजि लै सिरजनहार।

जैसे ताते लोह कौं, लेत मिलाइ लुहार।।
लुहार को देखा है, लोहे को गर्म करता है, सुर्ख करता है--आग जैसा! और फिर दो लोहे के टुकड़ों को मिला देता है। ऐसा ही इस जीवन का उपयोग कर लो। जीवन एक ऊर्जा है, एक गर्मी है। अगर चाहो तो यह परमात्मा से मिल सकती है। लेकिन अभी। ठंडा होकर नहीं मिल पाएगी।
अकसर लोग बुढ़ापे की राह देख रहे हैं, तब सोचते हैं परमात्मा की याद करेंगे। तब लोहा ठंडा हो जाएगा। कुछ लोग तो सोचते हैं, जब मर रहे होंगे बिल्कुल, बिस्तर पर पड़े होंगे, तभी कर लेंगे याद, इतनी जल्दी क्या है? अभी तो भोग लें, चार दिन का राग-रंग देख लें। मरते वक्त लोग गंगाजल पिलाते हैं। वह आदमी मर रहा है, उसे अब कुछ होश भी नहीं कि तुम क्या पिला रहे हो। मरते आदमी को लोग वेदों का पाठ सुनाते हैं। उसे कुछ सुनायी नहीं पड़ता अब। उसके कान डूबे जा रहे हैं। जब जिंदगी गरम हो, जब जिंदगी युवा हो, तभी खोज लेना।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं: आप युवकों को संन्यास दे देते हैं। मैं उनसे कहता हूं: संन्यास मूलतः युवकों का ही गुणधर्म है। क्योंकि जब लोहा गर्म हो, जब जीवन तप्त हो और ऊर्जा से भरा हो, जब जीवन में तूफान की क्षमता हो, जब जीवन में अंवेषण का उपाय हो, जब अभियान करने के लिए चुनौती स्वीकार करने का साहस हो, तभी! ठंडे हो गए सब, मुर्दा हो गए सब, फिर? फिर तुम तो राम-राम न कह पाओगे, दूसरे लोग कहते हैं। ले चले अर्थी पर रखकर तुमको। ले जाएंगे लोग अर्थी पर रखकर तुमको। वे कहेंगे, राम-नाम सत्य है। और इन सज्जन ने जिंदगीभर न कहा राम-नाम सत्य है। यह भी खूब मजा है! जिंदगी थी, तब राम-नाम सत्य नहीं था; तब और सब चीजें सत्य थीं, राम-नाम को छोड़कर। अब मर गए, अब लोग चिल्ला रहे हैं--दूसरे, कि राम-नाम सत्य है। वे भी अपने लिए नहीं कह रहे हैं; तुम्हें ठंडा करके घर लौटकर वे भी उसी को सत्य कहेंगे जिसको तुम जिंदगीभर सत्य कहते रहे। वे भी प्रतीक्षा करेंगे कभी फिर कोई चार आदमी उनको उठाएंगे, तब वे कह देंगे राम-नाम सत्य है। राम को तुमने उधार छोड़ रखा है?

तुम्हीं को पुकारना होगा!

सुंदर याही देह में हारि जीति को खेल।
यहीं सब घट रहा है इसी देह के भीतर--हारने का खेल, जीतने का खेल। चोसर बिछी है। पांसे फेंके जा रहे हैं। किस बात को हार कहते हैं सुंदर? किस बात को जीत कहते हैं?

सुंदर याही देह में हारि जीति को खेल।

जीतै सौ जगपति मिलै, हारै माया मेल।।
जो राम-नाम सत्य है, ऐसा जीवन में जान ले, वह जीत गया! और जिसने और कुछ जाना--पद सत्य है, धन सत्य है, प्रतिष्ठा सत्य है--वह चूका, वह हारा। यहां सिकंदर भी भिखमंगों की तरह मरते हैं। सम्राट् की तरह मरना हो तो बुद्धों की तरह जीना सीखो।

सुंदर सौदा कीजिए, भलि बस्तु कछु खाटि।

नाना विधि का टांगरा, उस बनिया की हाटि।।
सुंदरदास कहते हैं: उस परमात्मा की इस दुकान पर सब कुछ है--अच्छा भी, बुरा भी; ठीक भी, गलत भी; जहर भी, अमृत भी।
सुंदर सौदा कीजिए, भलि बस्तु कछु खाटि। ज़रा सोच-परखकर। आदमी दो पैसे की हंडी खरीदने बाजार जाता है तो ठोंक-ठोंक कर बजा-बजा कर लेता है। और तुम पूरी जिंदगी को ऐसे ही गंवा रहे हो--बिना परखे। तुम जैसा पागल और कौन होगा?

नाना विधि का टांगरा, उस बनिया की हाटि।
सुंदरदास कहते हैं कि उस परमात्मा के उस बाजार में सब तरह की चीजें बिक रही हैं। यहां क्या है जो नहीं बिक रहा है? हर चीज का सौदा हो रहा है। यहां आदमी बिकते हैं; औरतें बिकती हैं। यहां इज्जतें बिकती हैं, यहां प्रेम बिकता है, यहां शरीर बिकते हैं। यहां सब चीजें बिक रही हैं। सिर्फ यहां एक चीज नहीं बिक रही--परमात्मा नहीं बिक रहा है। इसी हाट में मत उलझ जाना। इसी बाजार के शोरगुल में मत खो जाना। उसको पा लो, जिसे पकड़ कर फिर कुछ खोता नहीं; जिसे पाकर फिर कुछ और पाने को शेष नहीं रह जाता है।

दीया की बतियां कहैदीया किया नजाय।
ये वचन बड़े प्यारे हैं। इनमें श्लेष अलंकार है। इनके दोहरे अर्थ हैं। दोनों ही अर्थ समझने जैसे हैं।

दीया की बतियां कहै दीया किया न जाइ।

दीया करै सनेह करि दीए ज्योति दिखाइ।।
जो आदमी दीए की बातें करता रहे, क्या तुम सोचते हो वह इन बातों को करने से ही कभी दीए को जला पाएगा? प्रकाश की बात से प्रकाश तो नहीं होता और न रोटी की चर्चा से पेट भरता है। कब तक पड़े रहोगे शास्त्र में? कब तक शब्द में उलझे रहोगे? शास्त्र नहीं, शास्ता खोजो। शब्द नहीं, कहीं जीवंत सत्य हो, उसकी शरण गहो। बुद्धं शरणं गच्छामि! जहां कहीं परमात्मा की किरण उतरी हो, उस किरण से मैत्री करो। उस किरण से नाता जोड़ो, संबंध जोड़ो!

दीया की बतियां कहै दीया किया न जाइ।
सिर्फ बातचीत ही करते रहोगे तो दीया कभी न जलेगा। अंधेरा जैसा है वैसा ही बना रहेगा।
और दूसरा अर्थ हैः देने की बातें करने से दीया नहीं जाता! देना हो तो दो, बातें ही मत करते रहो। और मजा यह है, जिसके भीतर का दीया जल जाता है उसके बाहर दान प्रकट होता है।
इसलिए श्लेष अलंकार का उपयोग किया है। जिसके भीतर रोशनी होती है, वह बाहर रोशनी बांटने लगता है, करेगा क्या? परमात्मा उसे देता है, वह औरों को देता है। जितना देता है उतना भीतर की संपदा बढ़ती है। जितना बांटता है उतना साम्राज्य बड़ा होता है।

दीया करै सनेह करि, दीए ज्योत दिखाइ।
और अगर भीतर का दीया जलाना है तो तेल खोजना पड़ेगा। भीतर का दीया, भीतर का प्रकाश प्रार्थना के तेल से जलता है। और फिर दीया जल जाए तो भीतर सब दिखाई पड़ने लगता है। जैसा है, वैसा ही दिखाई पड़ने लगता है। फिर राम-नाम सत्य है, जीते-जी राम-नाम सत्य है।
दूसरा अर्थः दीया करै सनेह करि. . .। अगर देना हो तो प्रेम से देना। प्रेम से दिया गया हो, तो ही दान में रोशनी होती है। अगर किसी और कारण से दिया तो दान व्यर्थ हो गया। तुमने अगर इसलिए दिया कि स्वर्ग मिले तो तुम चूक गए। तुमने अगर इसलिए दिया कि प्रतिष्ठा मिले, तुम चूक गए। तुमने मंदिर बनवाया और पत्थर लगवा दिया नाम का, तुम चूक गए। देना हो तो देने के आनंद से देना। जिसको दिया हो, उसके प्रति प्रेम से देना। सिर्फ प्रेम के कारण ही देना, और कोई कारण न हो, पाने की कोई आकांक्षा न हो, तो तुम्हारे जीवन में बड़ी रोशनी होगी, बड़ा प्रकाश होगा। एक कंजूस आदमी तालाब में डूब रहा था, किनारे खड़े एक आदमी ने अपना हाथ बढ़ाकर कहा, भाई! मैं तुम्हें खींचता हूं, मुझे अपना हाथ दो।
लेकिन यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया कि उस आदमी ने अपना हाथ नहीं बढ़ाया। तब पास ही खड़े मुल्ला नसरुद्दीन ने उसे समझाया, भैया! इन्होंने अपनी तमाम जिंदगी में दूसरों से लिया है। किसी को कभी कुछ दिया नहीं। आप इनसे कहिए मै, तुम्हें खींचता हूं, मेरा हाथ लो। तब ये आपका हाथ पकड़ेंगे।
और ऐसा ही हुआ! जैसे ही कहा कि मैं हाथ देता हूं, लो मेरा हाथ, तत्क्षण उस आदमी ने हाथ पकड़ लिया।
जीवन के ढंग और शैलियां होती हैं! एक भाषा सीखने के हम धीरे-धीरे अभ्यस्त हो जाते हैं। लोभी देता भी है तो कुछ और सौदा कर लेने के लिए। स्वर्ग में सही। एक पैसा देता है तो सोचता है कितना मिलेगा।
एक आदमी मरा, स्वर्ग पहुंचा। खाते-बही खोले गए, देख-दाख की। उस आदमी से पूछाः भाई, तुम्हारे नाम का कुछ पता नहीं चलता। तुमने कभी किसी को कुछ दिया? क्योंकि जो देते हैं, उनका ही यहां नाम लिखा होता है।
उसने कहाः हां, मैंने दिया। एक बुढ़िया को मैंने तीन पैसे दिए थे। बहुत खोजबीन करने से मिला। दिए थे जरूर। वह देवदूत भी थोड़ा परेशान हुआ कि तीन पैसे दिए इस आदमी ने, अब इसको कहां स्वर्ग में जगह दें? तीन पैसे में स्वर्ग बड़ा सस्ता हो जाएगा। उसने अपने सहयोगी से पूछा, असिस्टेंट से, कि भाई क्या करें? उसने कहा, इसके तीन पैसे वापस लौटाओ और नरक भेजो। तीन ही पैसे दिए थे। देवदूत ने खीसे से तीन पैसे निकालकर उस आदमी को दिए। उस आदमी ने कहाः ब्याज? आदमी तो आदमी है! न मिले स्वर्ग, मगर ब्याज. . .।

दीए ते सब देखिए, दीए करौ सनेह।

दीए दसा प्रकासिए, दीया करि किन लेह।।
दीए से सब दिखाई पड़ता है, दर्शन होता है। इसलिए सबसे महत्त्वपूर्ण बात है, मेरे भीतर का दीया कैसे जले? इसलिए अगर कोई भी चीज खोज करनी हो और अपने प्रेम को किसी एक केंद्र पर आधारित करना हो, एक जगह अपने प्रेम, अपने ध्यान को एकाग्र करना हो, तो वह एक ही बात हैः मेरे भीतर प्रकाश कैसे प्रज्वलित हो?
पुकारोः हे ज्योतिर्मय, मेरे भीतर उतरो!
उपनिषद के ऋषि कहते हैं: ले चलो हमें अंधकार से प्रकाश की तरफ! तमसो मा ज्योतिर्गमय!
वही सार-प्रार्थना है। क्योंकि दीए से ही सब दिखाई पड़ेगा। इसलिए दीए से ही प्रेम करो!
दूसरा अर्थः जो देता है उसी को दिखाई पड़ता है। जो बांटता है उसी को दिखाई पड़ता है। कृपण तो अंधा हो जाता है। दानी की आंख होती है।
तुमने कभी देखा, जब तुम किसी को बिना किसी हेतु के कुछ देते हो, कैसी प्रफुल्लता होती है! कैसा हल्कापन होता है! कैसा चित्त निर्भार हो जाता है! पंख लग जाते हैं कि लगे आकाश में उड़ जाओ! और जब तुम किसी से कुछ छीन लेते हो, कैसे बोझिल हो जाते हो! भारी हो जाते हो! और जब तुम किसी को नहीं दे पाते, तो कैसी पीड़ा मन में काटती है!
देने से बड़ा मजा तुमने कोई और जाना है? देने से बड़ा सुख तुमने कोई और जाना है? इसलिए कृपण सुख को जान ही नहीं पाता, सिर्फ दाता ही जानते हैं।

दीए ते सब देखिए, दीए करौ सनेह।
इसलिए देने की कला सीखो। और ध्यान रखना, सुंदरदास यह नहीं कह रहे हैं कि देने से तुम्हें स्वर्ग मिलेगा, इसलिए। सुंदरदास कह रहे हैं, देने में स्वर्ग है। देना स्वर्ग है। मिलने-विलने की बात छोड़ो। भविष्य नहीं है कुछ। वर्तमान के क्षण में ही तुमने जब भी किसी को प्रेम से कुछ दिया है, तभी तुमने पाया हैः स्वर्ग के द्वार खुले!

दीए दसा प्रकासिए, दीया करि किन लेह।
दीए से, प्रकाश से तुम्हारी वास्तविक दशा का बोध होगा कि तुम कौन हो। तुम परमात्मा हो! तत्त्वमसि! तुम परमात्मा से इंचभर कम नहीं, रत्तीभर कम नहीं, ज़रा भी छोटे नहीं!
उपनिषद कहते हैं: उस पूर्ण से ही पूर्ण प्रकट हुआ। उस पूर्ण में ही पूर्ण लीन होता है। और जब हम उस पूर्ण से पूर्ण को भी निकाल लें, तब भी पीछे पूर्ण ही शेष रहता है।
ऐसा मत सोचना कि तुम्हारे भीतर परमात्मा अंश-अंश में प्रकट हुआ है। तुम प्रत्येक पूरे के पूरे परमात्मा हो। परमात्मा पूरा का पूरा उतरा है। लेकिन यह पहचान कहां हो? भीतर तो अंधेरा छाया है।
दीया जलाओ! और यह पहचान कैसे हो? भीतर तो हम बड़े कृपण हो गए हैं। हम देना ही भूल गए हैं। और हम देना भूल गए हैं, तो परमात्मा हमें नहीं दे पाता।
जैसे कोई किसी कुएं से पानी न उलीचे, तो उसमें नए झरने पानी नहीं लाएंगे। झरने बंद हो जाएंगे। पानी उलीचो तो नये झरने आएं, खुलें। उलीचते जाओ पानी और कुएं में नया जल आता जाए। न उलीचोगा, सड़ जाएगा जल, मर जाएगा जल। उलीचते रहोगे, जीवंत रहेगा, स्वच्छ रहेगा, प्रवाहमान रहेगा।
ऐसे ही जो देता है, बांटता है, जो . . .जिसके पास प्रेम है, प्रेम बांटो। ज्ञान है ज्ञान बांटो। ध्यान है, ध्यान बांटो। जो जिसके पास है, बांटो! पकड़ो मत। मौत तो वैसे ही आकर सब छीन लेगी। इसके पहले बांटो। तो तुम्हें अपने भीतर के मूल स्वरूप का पता चलना शुरू हो जाएगा। क्योंकि तुम्हारे भीतर परमात्मा के झरने प्रवाहित होने लगे।

दीया राखै जतन सौं दीए होइ प्रकाश।

और दीए को संभालना पड़ा है--जतन से!
देखा तुमने, कोई चली महिला तुलसी के चौरे पर दीया चढ़ाने, तो आंचल में संभाल कर चलती है दीए को! उसका नाम जतन। बुझ जाए नहीं तो, हवा का झोंका आ जाए। छोटा-सा दीया है। और जब शुरू-शुरू में जलता है तब तो बड़ा छोटा होता है।

दीया राखै जतन सौं, दीए होइ प्रकाश।

दीए पवन लगै अहं, दीए होइ बिनास।।
हवा का झोंका, नई-नई ताजी ज्योति है दीए की, बुझा न जाए कहीं! किस चीज का झोंका लगता है इस दीए को? अहंकार की हवा का झोंका लगता है इस दिए को
                  दीए पवन लगै अहं!
इसको और कोई हवा कहीं बुझा सकती, भीतर के दीए को; इसको सिर्फ अहंकार की हवा बुझा सकती है। और अहंकार बड़ा चालबाज है। बड़े जल्दी पकड़ लेता है। आंख बंद कर के घड़ीभर ध्यान में बैठे रहे तो भी अहंकार पकड़ लेता है कि देखो, मैं कितना बड़ा ध्यानी! दो पैसे किसी को दे दिए तो अहंकार कहता हैः कितना बड़ा दानी! किसी का एक कांटा निकाल दिया तो अहंकार कहता हैः कितना बड़ा महासेवी!
बचो इससे ! नम्र बनो!
                  नम्र कुछ नहीं है
                  घास के सिवा
                  या परिपूर्ण विश्वास के सिवा
परिपूर्ण विश्वास का अर्थ हैः मैं हूं ही नहीं, परमात्मा है!

दीया राखै जतन सौं दीए होइ प्रकाश।
और दूसरा अर्थ, कि जो भी दिया हो, उसको जतन से देना! ऐसे मत दे देना कि दूसरे का अपमान हो जाए। ऐसे मत दे देना कि दूसरा छोटा अनुभव करने लगे। इस ढंग से मत देना कि देखो कितना दे रहा हूं। जतन से देना! जिसको दो, उसको चोट न लगे! जिसको दो, उसको ऐसा न लगे कि छोटा हो गया, भिखारी हो गया!
इस दुनिया के सबसे बड़े दाता वही हैं जो देते भी हैं और जिसको देते हैं उसे पता भी नहीं चलने देते! उसे कानोंकान खबर भी नहीं होती कि उसे कुछ दिया गया है।

दीया राखै जतन सौं दीए होइ प्रकाश।
अगर इस तरह दोगे तो तुम्हारे देने से बड़ा प्रकाश होगा।

दीए पवन लगै अहं, दीए होइ बिनास।
और कहीं देने के इस मन में अहंकार न पकड़ ले कि देखो, मैंने इतना दिया! मैंने इतना किया! लोग अकसर यही बात करते दिखाई पड़ते हैं--कि मैंने इतना दिया, मैंने इतना किया! और मैं तो नेकी ही नेकी करता रहा और लोग मेरे साथ बदी कर रहे हैं!
सूफी फकीरों ने कहा है--नेकी कर और कुएं में डाल! करना और भूल जाना! याद मत रखना! याद रखा कि खराब हो गया। नेकी करने की बात है और भूल जाने की, विस्मृत हो जाने की। पीछे उसकी याद भी कभी मत करना, नहीं तो अहंकार उस पर हावी हो जाएगा। और अहंकार की हवा जैसे दीए को बुझा देती है, ऐसे ही अहंकार तुम्हारे दान को लीप-पोत कर मिट्टी कर देता है, कूड़ा-कचरा कर देता है।

सांईं  दीया है सही, इसका दीया नाहिं।
ध्यान रखो जो कुछ दिया है वह उसका दिया है। सांईं दीया है सही. . .! सब परमात्मा का दिया है। अपना दिया क्या है? तुम लेकर क्या आए थे? तुम स्वयं भी उसके ही दान हो। तुम स्वयं भी उसकी ही एक धार हो! उसने तुम्हें इतना दिया है, और तुम ज़रा-सा देने में अकड़ जाते हो!

सांईं दीया है सही इसका दीया नाहिं।
एक अर्थ--कि सब परमात्मा का दिया है, मेरा दिया क्या है? तो अहंकार खड़ा न होगा।
और दूसरा अर्थः सांईं दीया है सही . . . रोशनी तो सब उसकी है, प्रकाश तो उसका है, हम तो अंधेरे हैं। हमारा क्या प्रकाश होगा?
"मैं' जहां है वहां अंधकार है। अहंकार अंधकार है। और जहां निर्अहंकार है, वहीं प्रकाश है। निर्अहंकार में परमात्मा का प्रकाश उतरता है। तुम जब शून्य होते हो तब पूर्ण उतरता है।

यह अपना दीया कहै, दीया लखै न माहिं।
शोरगुल न मचाओ कि मैंने दिया! ज़रा भीतर तो देखो कि सब उसका दिया है। तुम जो दे रहे हो वह भी उसका दिया है। तुम सिर्फ बीच के एक उपकरण हो! रोशनी भी तुम्हारे भीतर जो जलेगी, वह भी तुम्हारी जलाई हुई नहीं है, उसकी ही जलाई हुई है। तुम तो सिर्फ विस्मरण कर बैठो हो। तुम तो भूल बैठे हो। तुमने तो पीठ कर ली है दीए की तरफ। दीया तो जल ही रहा है। ज़रा लौटो अपनी तरफ और तुम पाओगे कि ज्योति सदा से मौजूद थी। मैं ही भूल बैठा था।
परमात्मा को पाना ऐसा नहीं है कि हमने उसे खो दिया है और अब पाना है; बल्कि ऐसा है कि हम उसे पाए हुए बैठे हैं और विस्मरण हो गया है। सिर्फ स्मरण!

सांईं आप दिया किया, दीया माहिं सनेह।
वही दे रहा है। वही भर रहा है हमारे भीतर के जीवन के दीए को तेल से। वही भर रहा है हमारे जीवन के हृदय को प्रेम से। वही बांट रहा है। वही रोशनी है।

सांईं आप दिया किया, दीया मांहि सनेह।

दीए दीए होत हैं, सुंदर जीया देह।।
सुंदरदास कहते हैं: उसने गुरु को दिया। गुरु ने मुझे दिया । मैं दूसरों को दे रहा हूं। . . . दीए दीए होत हैं! . . . ज्योति से ज्योति जले! . . . सुंदर जीया देह। और सुंदर कहते हैं: इस देने की प्रक्रिया का मैं अंग बन गया, धन्यभागी हूं! इस श्रृंखला का मैं भी एक अंग बन गया, धन्यभागी हूं। मैं भी इस श्रृंखला की एक कड़ी हूं, बस, इतना मेरा धन्यभाग! मैं भी एक बांस की पोली बांसुरी हूं, उसके स्वर मेरे भीतर से भी उतरे--इतना मेरा धन्यभाग! गीत मेरे नहीं हैं, गीत उसके हैं। गाया उसने। ज्यादा से ज्यादा मेरा गुण इतना है कि मैंने बाधा नहीं दी! मेरे गुरु ने मुझे जगाया, मैंने औरों को जगाया। औरों से कहूंगा, तुम औरों को जगा देना। जगाते जाना!
लेकिन सब रोशनी उसकी है। उसकी ही एक धारा बह रही। और सब प्रेम उसका ही है। उसका ही प्रेम बंट रहा है। यह सारा जगत् उसका ही प्रकाश और उसके ही प्रेम का अवतरण है।
सूत्र तो सरल हैं। कुछ ऐसी कठिनाई नहीं कि बुद्धि को अड़चन आए, लेकिन सत्संग में इनका राज खुलेगा रहस्य खुलेगा। सत्संग में यही सूत्र तुम्हारे मुंह में पड़ी हुई मिश्री की डली हो जाएंगे। इनका स्वाद खिलेगा, स्वाद खुलेगा!
अभी तो तुमने समझा बुद्धि से--हृदय से भी समझना होगा। तभी अस्तित्वमय हो जाती हैं सारी बातें! और तब यह औरों की नहीं रह जातीं। फिर सुंदरदास ने कही, ऐसी नहीं। फिर जैसे तुम्हारी ही बात किसी और ने तुम्हारे मुंह से छीन कर कह दी हो, ऐसी हो जाती हैं।
इन सूत्रों पर ध्यान करो। इन सूत्रों में मगन होओ। इन सूत्रों में नाचो, मदमस्त होओ! इन सूत्रों में कुंजियां छिपी हैं जो उसके मंदिर का द्वार खोल सकती हैं।

आज इतना ही।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें