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रविवार, 5 मार्च 2017

ज्‍योति से ज्योति जले-(सूंदर दास)-प्रवचन-10



ज्‍योति से ज्‍योति जले-(सूंदर दास)-

प्रवचन-दसवां
प्रश्‍नसार-  

1--प्रभु! मैं बिरहन बौराई, पियरवा रूप जो तेरो निरखों!

2--न गुरु की खोज थी, न परमात्मा की प्यास थी न जन्मों-जन्मों का बोध।
कौन-सी पुकार आपके पास ले आयी?तेरा मिलना, तेरा आना, तेरा बैठना, तेरा जाना, आपकी बात आप जानें, लेकिन अब--गुरुबिन आवत नाहीं चैन। गुरु मिलो आनंद भयो। हमारे लिए तो आप ही सर्वस्व, आप ही परमात्मा!
गुरुर् ब्रह्मा, गुरुर् विष्णु, गुरुर् देवो महेश्वरः।
गुरु : साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः।
--गुरु-समर्पण के इस महोत्सव पर इस शास्त्रोक्त कथन को समझाने की अनुकंपा करें।


3--श्रद्धा क्या है? श्रद्धा बनानी पड़ती है या हो जाती है? श्रद्धेय के निकट आने से श्रद्धा पर क्या असर होता है? कृपा कर समझाइए।

4--मैं शास्त्रों पर सदा से भरोसा करता आया हूं और अब आप हैं कि शास्त्रों से मुक्त होने को कह रहे हैं। मैं बड़ी उलझन में हूं, रास्ता सुझाएं।

5--मैं संन्यास में दीक्षित होना चाहता हूं, समग्र मन से तैयारी है; लेकिन परिवार वालों को कहीं दुःख न हो, इसलिए रुका हुआ हूं। फिर आप भी तो कहते हैं कि करुणापूर्वक जीना उचित है।

पहला प्रश्न : प्रभु! मैं बिरहन बौराई, पियरवा रूप जो तेरो निरखों!

कुसुम! प्रेम पागल है। पर पागलपन में ही उसकी महिमा है, गरिमा है। प्रार्थना पागलपन का शुद्धतम रूप है। उसके पार फिर कोई पागलपन नहीं। और प्रार्थना ही सेतु है परमात्मा से मिलाने का।
पागलपन दो प्रकार के हो सकते हैं। एक तो जब कोई बुद्धि से नीचे गिर जाए; और दूसरा जब कोई बुद्धि से ऊपर निकल जाए। दोनों ही स्थितियों में बुद्धि छूट जाती है। पागल की भी छूटती है, जिसको हम साधारणतः पागल कहते हैं; और प्रेम की भी छूटती है, भक्त की भी छूटती है। वह असाधारण अर्थों में पागल है। वह बुद्धि के पार गया।
अंतिम, प्रथम जैसा ही होता है। लक्ष्य उद्गम पर ही वापिस लौट आने का नाम है। इसलिए परम संत छोटे बच्चों जैसा भोला-भाला हो जाता है। पर खयाल रखना, "जैसा'; छोटा बच्चा नहीं हो जाता।
जीसस का प्रसिद्ध वचन है : धन्य हैं वे जो छोटे बच्चों की भांति होंगे, क्योंकि प्रभु का राज्य उन्हीं का है। लेकिन ध्यान रखना, जो छोटे बच्चों की भांति होंगे; छोटे बच्चे नहीं। छोटे बच्चे तो अभी भटकेंगे। अभी तो संसार उन्हें लुभाएगा। अभी तो धन, पद-प्रतिष्ठा, आकांक्षाएं उन्हें पुकारेंगी। अभी तो जीवन का विष उन्हें विषाक्त करेगा। अभी तो वे भटकेंगे, गिरेंगे, भूलेंगे। अभी तो बहुत अंधेरे पथों पर उन्हें जाना होगा। जीवन की प्रौढ़ता उन अंधेरे पथों पर जाने से ही संभव होती है। अभी तो उन्हें पकना है, लेकिन फिर जब एक बार जीवन के दुःख, जीवन की पीड़ाएं और जीवन के तथाकथित सुखों को समझने, भोगने के अनुभव के बाद वे वापस लौटेंगे, फिर छोटे बच्चों की भांति वे हो जाएंगे, फिर सरल, फिर निर्दोष--तब संतत्व का आविर्भाव होगा। बच्चा है संसार के पूर्व; संत हैं संसार के बाद। दोनों में एक समानता है कि दोनों के चित्त में संसार नहीं है। और दोनों में बड़ा भेद भी है। एक अभी भटका नहीं है; एक भटक चुक, जाग चुका।
ऐसा ही प्रेम है भक्त का। वह भी पागलपन है। एक पागलपन है पागलखाने में बंद आदमी का, वह बुद्धि से नीचे उतर गया है। उसकी बुद्धि अस्त-व्यस्त हो गयी है। उसके तार उलझ गए हैं। और एक पागलपन है भक्त का, प्रेमी का; वह बुद्धि के पार चला गया। बुद्धि से उसका तादात्म्य छूट गया। बुद्धि से उसका संबंध विच्छिन्न हो गया है। वह बुद्धि का साक्षी हो गया है।
मैं तेरी बात समझा। और तूने सिर्फ प्रश्न ही पूछा होता तो मैं उत्तर न देता। तू जब दो-चार दिन पहले मेरे पास आई तब मैंने देखा भी, बौरा गई है! तेरी आंखों में, तेरे चेहरे पर, तेरे उठने-बैठने में वह अपूर्व दशा फल रही है, जिसको भक्ति कहा है। घबड़ाएगी भी तू। तेरे जैसे और भी बहुत मित्र हैं यहां। यह तो दीवानों की बस्ती है। यहां तो पागलों का जमघट है। पियक्कड़ों से ही मेरा संबंध बन पाता है। वे जो पागल होने की क्षमता रखते हैं, वे ही केवल प्रेमी हो पाते हैं।
तू यहां अकेली भी नहीं है; तेरे ही नगर से चमनभारती हैं। उनने भी पूछा है कि मैं क्या करूं? जब से आपके प्रेम में पड़ा हूं, आंखें लाल-लाल रहने लगी हैं, चेहरे पर शराबी जैसा भाव है। पत्नी शक करती है। परिवार के लोग समझते हैं कि मैं पीने लगा हूं। गांव में भी अफवाह है। मैं किसको समझाऊं, कैसे समझाऊं?
समझाने से कुछ होगा भी नहीं। और वे ठीक ही कहते हैं, पीने तुम लगे हो! और तुमने कोई छोटी-मोटी शराब नहीं पी है कि रात पी और सुबह उतर गई। तुमने कुछ ऐसी शराब नहीं पी है कि मोरारजी बंद करना चाहें तो कर पाएं। तुमने ऐसी पी है, जो चढ़ती है तो बस चढ़ती ही चली जाती है।
कुसुम, तू चमन से पूछ लेना। नीलम से पूछ लेना। तेरे ही गांव के लोगों के नाम ले रहा हूं। वह भी खूब पी है और मदमाती हो रही है। शुभ लक्षण हैं। सिर्फ थोड़े-से सौभाग्यशालियों को ऐसी घड़ियां आती हैं।
मन जाए, अमन आए--इससे बड़ी और संपदा क्या है?
            मन नहीं बस में।
            आज बही फगुनौटी; मन नाहीं बस में।
            पाग रंगीली, मूंछ कंटीलीः
            पीपल पुरखा धुत्त, गा रहा पीरी होरी;
            कमर दोहरी, पवन डोकरीः
            फर्राटे से बके जा रही टेसुई गारी;
            जुड़ी टोलियां, बजी डफलियां; नशा दिशा दस में।
            आज बही फगुनौटी; मन नाहीं बस में।
            आंख अंगूरी, चाह सिंदूरी
            सुरुज छेड़ता भर पिचकारी : देह मखमली
            लजवंती की सिहरी, झमकी;
            ठुमुक रही अंधरों पर स्मिति की तोतई तितली;
            मोरपंखिया सुधियां छूतीं गाल, डुबोती रस में।
            आज बही फगुनौटी; मन नाहीं बस में।
            महुआ टपका; माटी बहकी
            पी के रंग में रंगी कोइलिया स्वर-स्वर महकी।
            पेड़ आम का--कैसा सनकीः
            गंध-गीत के समारोह में भरता सुरमई सिसकी।
            (प्यास रेत-सी, आस बूंद-सी; झूठी कसबिन कसमें?)
            आज बही फगुनौटी; मन नाहीं बस में।
इसी फगुनौटी को बहाने की चेष्टा कर रहा हूं। यह जो तुम्हें रंग दिया है, गैरिक, यह बसंत का रंग है। यह प्रेम का रंग है। यह फूलों का रंग है। यह सुबह के ऊगते सूरज का रंग है। यह जलती हुई अग्नि का रंग है। यह क्रांति का रंग भी है, यह उन्माद का रंग भी है।

आज बही फगुनौटी; मन नाहीं बस में।
डूबो इस बसंत! में डरना मत, भय लगेगा। भय भी स्वाभाविक है, क्योंकि कल तक का जीवन, कल तक की व्यवस्था, कल तक का सब हिसाब-किताब टूटने लगेगा; खंड-खंड होने लगेगा। एक तरह से जिए थे अब तक, अब उस तरह से न जी सकोगे। अब एक उतरी किरन जो तुम्हें रूपांतरित करेगी। और रूपांतरण ऐसे ही है जैसे कोई सोने को आग में डाले। जल जाता है कचरा, पर पीड़ा भी तो होती है। निखरता है सोना, कुंदन होकर निकलता है; पर आग से गुजरकर ही निकलता है।
यह पागलपन पीड़ा भी देगा, बदनामी भी देगा। नहीं तो मीरां ऐसे ही थोड़े कहती है कि--सब लोक-लाज छोड़ी। मीरां के घर के लोगों ने कुसुम, जहर का प्याला भेजा था। तू सोचती है दुष्ट लोग थे। गलत सोचना है वैसा। दुष्ट लोग नहीं थे। लेकिन मीरां की बदनामी परिवार पर भी काली छाया डालने लगी थी। मीरां नाचने लगी गांव-गांव, सड़कों-सड़कों पर। अंगों का, वस्त्रों का कोई ध्यान न रहा। और थोड़ा खयाल करो सदियों पीछे मेवाड़ का, जहां घूंघट से स्त्रियां कभी बाहर निकली न थीं। फिर मीरां कोई साधारण घर की स्त्री न थी, राजघर की थी, राजरानी थी। पैर कभी धूल में न पड़े थे, डोलियों से कभी  नीचे न उतरी थी। पहरेदारों के बिना कभी एक कदम न चली थी। और नाचने लगी! राहों में, बाजारों में! गाने लगी गीत परमात्मा के। आंख से बहने लगे आंसू। आंचल सरक जाए, वस्त्र गिर जाएं . . . घर तक बदनामी में डूबने लगा। बड़ा परिवार था, कुलीन परिवार था, भले लोग थे, बुरे लोग नहीं थे। जहर कुछ पुष्टता के कारण न भेजा था, आत्मरक्षा के लिए भेजा था। परिवार की, कुल की प्रतिष्ठा बचानी थी।
मगर पागलों पर जहर का परिणाम कहां! मस्तों पर जहर का परिणाम कहां! जो परमात्मा का अमृत पीते हैं उन पर किसी जहर का कोई परिणाम नहीं है।
तो कुसुम, कठिनाइयां तो आएंगी। तू जब मिलने आयी और अचानक गिर पड़ी मेरे चरणों में, तभी मुझे लगा था कि अड़चन आएगी। तू होश में न थी, तू डगमगा गई है। अब संभलना होगा।
प्रेम के दो कदम हैं एक कदम है, जब आदमी डगमगा जाता है। जरूरी कदम है। फिर एक और कदम है जब आदमी पुनः संभल जाता है। मीरां का एक रूप है, यह पहला रूप है; फिर बुद्ध का दूसरा रूप है, वह और भी आगे की बात है। जब मस्ती इतनी हो जाती है, इतनी सूक्ष्म, इतनी गहन, इतनी भीतर कि बाहर किसी को उसका पता भी नहीं चलता। पहले-पहले मस्ती आती है तो स्वाभाविक है। नया-नया आदमी शराब पीना सीखता है तो बहुत डगमगाता है असली पियक्कड़ों से पूछो, कितना ही पी जाएं किसी को पता ही नहीं चलता कि पिए हैं। पचाने की क्षमता भी धीरे-धीरे बढ़ती है। अब पचाओ। डोलो, लेकिन ध्यान रहे कि अंतिम स्थिति में डोलना भी विदा हो जाना चाहिए। डगमगाओ, लेकिन ध्यान रहे, परम अवस्था में डगमगाना भी समाप्त हो जाना चाहिए। जब डगमगानेवाला इतना डूब जाता है नशे में कि बचता ही नहीं, डगमगानेवाला ही नहीं बचता तो कौन डगमगाए?
तो प्रेम की या प्रेम के पागलपन की दो अवस्थाएं हैं। पहली अवस्था में तो बड़ी दीवानगी होती है। . . . आज बही फगुनौटी; मन नाहीं बस में! सब अवश हो जाता है। फिर धीरे-धीरे इस पागलपन को पचाना है। फिर धीरे-धीरे इस बेहोशी में भी होश का दीया जलाना है। फिर इस मस्ती में भी मौन को साधना है। तब मीरां बुद्ध बनती है। और जब तक मीरां बुद्ध बन जाए तब तक मस्ती कितनी ही हो, कुछ कमी रह गयी, कुछ कमी रह गयी, थोड़ी कमी रह गयी। अकंप समाधि अंतिम लक्ष्य है।
पर जो हो रहा है, शुभ है। इसी प्रेम से मनुष्य के जीवन में आत्मा का जन्म होता है। प्रेम के बिना जो जी रहे हैं वे बिना आत्मा के जी रहे हैं। जो डोले ही नहीं जिन्हें जीवन के बसंत ने छुआ ही नहीं, जिनके जीवन में न कोई फूल खिला न कोई गंध बही, न कोई राग उठा, जिनके जीवन में कोई उत्सव का अनुभव ही नहीं है--उनके भीतर आत्मा क्या? वे खाली, चली हुई कारतूस जैसे हैं, उनके भीतर बारूद नहीं। वे थोथे हैं।
मैंने सुना, एक रूसी कहानी है। बर्फ के पुतले को बना चुकने के बाद एक बच्चे ने उसके मुंह में लकड़ी की एक पाइप थमा दी। दूसरे ने अपनी गर्दन के गमछे को उसकी गरदन में लपेट दिया। तीसरे बच्चे ने नारियल के सूखे पत्तों की टोपी उसके सिर पर रख दी। जब तक बच्चे पास रहे, बर्फ के पुतले को ठंढ का आभास न हुआ।
कहानी रूसी है, हिंदुस्तानी होती तो हमने बर्फ के पुतले को चूड़ीदार पाजामा पहना दिया होता, अचकन पहना दी होती, गांधी टोपी लगा दी होती। कहते कि अब आप प्रधानमंत्री हुए, विदेश-यात्रा कर आओ। क्योंकि जिनके पास भी चूड़ीदार पाजामा है, याद रखें उनको प्रधानमंत्री होना ही पड़ेगा। नहीं तो चूड़ीदार पाजामा छोड़ दो। चूड़ीदार पाजामा है तो कर क्या रहे हो? विदेश-यात्रा करो!
कहानी रूसी है। एक बच्चे ने पाइप मुंह में लगा दिया। एक ने गमछा ओढ़ा दिया। एक ने सिर पर टोपी रख दी। बर्फ का पुतला अकड़ गया होगा ! और बच्चे पास खेलते रहे, बच्चों की गरमी, उसे बड़ा सुखद अनुभव हुआ। रात होने लगी, बच्चों को घर लौटना था। उस ठंड में सिसियाते से वे अपने-अपने घर को लौट गए। बच्चों के चले जाने के बाद बच्चों के हाथ से बने हुए बर्फ के बूढ़े को ठंड महसूस हुई। उसके अपने चारों ओर बर्फ ही बर्फ थी। दूर कहीं शहर की टिमटिमाती रोशनी जरूर दिखाई पड़ रही थी। बर्फ का बूढ़ा शहर की गरमी की चाह को अपने भीतर पाने के लिए शहर की ओर बढ़ा। किसी तरह वह शहर के बीच पहुंच ही गया। बिजली की बत्ती के खंभे के नीचे वह जा खड़ा हुआ। उसकी ठंडक जाती रही। उसने गरमी का आभास पाया। उस खुशी में, उस क्षणिक उल्लास में, उसे अपने पिघलने का एहसास भी न हुआ।
रात ढल गई, सुबह हुई। बच्चे फिर घरों से निकलकर गलियों में आ गए। बीच शहर में बिजली की बत्ती के खंभे के नीचे बच्चों को तीन ही चीजें मिलीं--एक पाइप, एक गमछा और एक टोपी।
बिना प्रेम का आदमी ऐसा ही है--चूड़ीदार पाजामा, अचकन, गांधी टोपी; भीतर कुछ भी नहीं! एक दिन इनको संभाल कर रख लेना।
प्रेम मनुष्य के भीतर अवतरण है--चैतन्य का। प्रेम मनुष्य के भीतर संगठन है ऊर्जा का। प्रेम मनुष्य के भीतर केंद्र का आविर्भाव है। बिना प्रेम के आदमी बिना केंद्र का है। परिधि है, लेकिन केंद्र नहीं। बिना प्रेम के आदमी एक भीड़ है, आत्मा नहीं। बहुत स्वर हैं उसके भीतर। बहुत शोरगुल है, लेकिन कोई छंद नहीं, कोई लयबद्धता नहीं।
प्रेम जीवन में लयबद्धता लाता है। साधारण प्रेम भी जीवन में लयबद्धता लाता है तो असाधारण प्रेम, परमात्मा-प्रेम की तो बात ही क्या करनी! देखते हो, जब तुम्हारे जीवन में किसी से प्रेम का थोड़ा नाता बन जाता है--किसी स्त्री से, किसी पुरुष से, किसी मित्र से--तुम्हारे जीवन में एक नई रौनक आ जाती है, आंखों में चमक आ जाती है, पैरों में गति आ जाती है; जीवन में छंद आ जाता है, पुलक आ जाती है, उत्फुल्लता आ जाती है, तुम खिले-खिले लगते हो। तुम्हारा मुरझानापन गया। तुम्हारी कली खिलने लगी; जैसे सूरज उगा, सुबह हुई और कली ने अपनी पंखुड़ियां खोलीं! इसके पहले तक तुम जमीन में घिसटते-से चलते थे; अब तुम आकाश में उड़ते-से मालूम होते हो, तुम्हारे पंख लग गए! अब तुम हल्के हुए, निर्भार हुए।
साधारण प्रेम भी जीवन को कैसा निर्भार कर जाता है, हल्का कर जाता है, पंख लगा जाता है! आदमी आकाश में उड़ने की क्षमता पा जाता है। साधारण प्रेम भी जीवन को प्रसाद दे जाता है, अर्थ दे जाता है, एक गीत दे जाता है। जीवन तब खाली-खाली नहीं मालूम होता। जीवन तब एक दुर्घटना ही नहीं मालूम होता । जैसे पश्चिम के बहुत-से विचारक, ज्यांपाल सार्त्र, कामू, मार्शल जैसे लोग कहते हैं--कि जीवन सिर्फ एक दुर्घटना है।
सार्त्र का प्रसिद्ध वचन है कि : मनुष्य एक व्यर्थ वासना है। सार्त्र ने किसी ऐसे ही मनुष्य की परीक्षा की होगी, जिसके भीतर कुछ भी नहीं था--बस चूड़ीदार पाजामा, अचकन, गांधी टोपी! असली आदमी से सार्त्र का मिलना नहीं हुआ है। सार्त्र दया का पात्र है। असली आदमी से तो मिलना हुआ ही नहीं; अपने भीतर भी अभी आदमी को पहचानने की कला नहीं आई है। अपने भीतर भी स्वयं से पहचान नहीं हुई है। बुद्ध जैसे व्यक्ति को मिलता, या कबीर जैसे, या सुंदरदास को, तो पता चलता कि एक और तरह का आदमी भी होता है।
तुम जाओ एक दुकान पर, जहां वीणाएं बिकती हों और वीणाओं की कतारें लगी हों। बहुत वीणाएं तुम्हें दिखाई पड़ेंगी, लेकिन जब तक कोई संगीतज्ञ, कोई स्वरकार, कोई बीनकार, वीणा के तारों को न छू दे, सोए संगीत को जगा न दे, जगमगा न दे--तब तक वीणा मुर्दा है, तब तक उसमें आत्मा नहीं है। तब तक वीणा में वीणा जैसा क्या है? हां, कुछ तार हैं, मगर तारों से क्या होगा? तार से तो सितार नहीं बनता। तार तो केवल ऊपर का आयोजन है। सितार का जन्म तो तब होता है जब कोई रविशंकर उसे छू देता है।
जब प्रेम की अंगुलियां तुम्हारे हृदय के तार को छेड़ देती है, तब तुम्हारे भीतर संगीत उठता है, अर्थ उठता है। तब मनुष्य एक व्यर्थ वासना नहीं है। तब मनुष्य परमात्मा है। तब मनुष्य इस जगत् की सबसे बड़ी अभीप्सा है। तब मनुष्य इस सारे जगत् के विस्तार का शिखर है, विकास की चरम कोटि है, चरम छलांग है, ऊंचे से ऊंचा गौरीशंकर है!
प्रेम ही व्यक्ति को आत्मा देता है। साधारण प्रेम भी! लेकिन साधारण प्रेम से ही तो हम असाधारण प्रेम का पाठ सीखते हैं। इसलिए खयाल रखना, मैं साधारण प्रेम के विरोध में नहीं हूं, जैसे तुम्हारे तथाकथित साधु-संत हैं। क्योंकि जो साधारण प्रेम के विरोध में है उसने असाधारण तक पहुंचने का मार्ग ही तोड़ दिया! जो साधारण के विरोध में है उसके पास सेतु कहां? नाव कहां? वह कैसे असाधारण तक जाएगा?
तुमने अपनी पत्नी को चाहा है, परमात्मा से तुम्हारी कोई पहचान नहीं है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, अगर तुमने अपनी पत्नी को चाहा है तो तुम्हारी चाहत में कभी-कभी ऐसे क्षण रहे हैं जब पत्नी परमात्मा हो गयी है? अगर तुमने अपने पति को चाहा है तो ऐसी घड़ियां आई हैं प्रेम की, चाहे क्षणभर को ही आई हों--जैसे बिजली कौंध जाए आकाश में, एक क्षण को अंधेरा कटे और सब रोशन हो जाए, क्षणभर बाद फिर अंधेरा हो जाता है--लेकिन अगर तुमने अपने पति को चाहा है, अपने बेटे को चाहा है, अपने भाई को, अपने मित्र को चाहा है, किसी को भी चाहा है, तो चाहत में भी कभी-कभी परमात्मा की झलक उतर आती है। वही तो सेतु है। उसी से तो पहचान बनेगी। उसीसे तो पहली खबर मिलेगी।
परमात्मा की पहली खबर शास्त्रों से नहीं मिलती, प्रेम से मिलती है। प्रार्थना की पहली खबर मंदिरों में बजती हुई घंटियों से नहीं मिलती और न मस्जिदों में की गई अजानों से मिलती है। प्रार्थना की पहली खबर प्रेम से भरी आंखों से मिलती है।
मैं तुमसे कहता हूं : तुम्हारे तथाकथित पंडितों के मुकाबले एक मजनू परमात्मा के ज्यादा करीब है! एक फरहाद तुम्हारे काशी में बैठे हुए पंडितों से, महापंडितों से परमात्मा के ज्यादा करीब है। अभी दृश्य से प्रेम हुआ है, हुआ तो! दृश्य से हो गया; जैसे-जैसे गहरा होने लगेगा प्रेम, वैसे-वैसे ही दृश्य में अदृश्य प्रकट होने लगता है। अभी रूप से हुआ, हुआ तो! रूप भी तो उसी के हैं! वह अरूप तो रूपों में भी छिपा है।
गुरु से जब प्रेम हो जाता है, तो वह निकटतम है अरूप के। गुरु से छलांग लग जाती है फिर अरूप में।
कुसुम, तू सौभाग्यशाली है। भयभीत न होना। तेरा प्रश्न प्यारा है : "मैं बिरहन बौराई, पियरवा रूप जो तेरो निरखो!' लेकिन अभी और अरूप के रूप को भी निरखना है। अभी यात्रा बहुत है, शेष है। अभी यात्रा का प्रारंभ हुआ। लेकिन प्रारंभ हुआ तो आधी यात्रा हो ही गई।
सारे बुद्धिमानों ने यह कहा है कि पहला कदम ही यात्रा का सबसे कठिन कदम होता है। क्यों कठिन होता है? क्योंकि हमारा अतीत उसके विपरीत होता है। हमारा तो पूरा अतीत पीछे खींचता है। एक कदम उठ गया, यात्रा आधी पूरी हो गई। क्यों आधी पूरी हो गई? क्योंकि फिर एक ही एक कदम तो उठाना है। एक उठा लिया, दो कदम तो कोई भी एक साथ उठाता नहीं। तो गणित तो आ गया। एक कदम उठाया है; अब दूसरा उठा लेंगे, वह भी एक होगा; फिर तीसरा उठा लेंगे, वह भी एक होगा। और एक-एक कदम चलकर आदमी हजारों मील की यात्रा कर लेता है। पहला कदम उठ गया है। आधी यात्रा हो गयी है, आधी शेष है। आधी यात्रा में प्रेमी डगमगाता हुआ चलता है--बेहोश, मदहोश, आंखें लाल हो जाती हैं। फिर शेष आधी यात्रा में सब ठहरने लगता है, शांत होने लगता है। जो उन्माद आया था, पच जाता है। फिर प्रगाढ़ मौन . . . फिर समाधि!

दूसरा प्रश्न : भगवान्!
न गुरु की खोज थी
न परमात्मा की प्यास थी
न जन्मों-जन्मों का बोध!
कौन-सी पुकार आपके पास ले आयी!
तेरा मिलना,
तेरा आना
तेरा बैठना
तेरा जाना
आपकी बात आप जानें लेकिन अब --
गुरु बिन आवत नाहीं चैन।
गुरु मिलो आनंद भयो।
हमारे लिए तो आप ही सर्वस्व,
आप ही परमात्मा!
गुरुर् : ब्रह्मा, गुरुर्ः विष्णु, गुरुर्ः देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरुवे नमः।।
गुरु-समर्पण के इस महोत्सव पर इस शास्त्रोक्त कथन को समझाने की कृपा करें!

चित्तरंजन! यह शास्त्रोक्त कथन ही नहीं है, यह अनंत-अनंत प्रेमियों का अनुभव है, सार है। यह किताब में लिखी हुई बात ही नहीं है, यह करोड़ों हृदयों में लिखी हुई बात है। शास्त्र तो मुर्दा होते हैं। मैं शास्त्र की व्याख्या करने में रस नहीं लेता। मेरा रस तो जीवंत शास्त्र से है--जो आदमी के हृदयों में लिखे गए हैं, जो आदमी के हृदय में खोदे गए हैं।
और यह वचन आदमी के अनुभव में बड़ा प्रगाढ़ है। इसका अर्थ तुम समझो। इस देश में हमने ईश्वर के तीन रूप माने हैं--त्रिमूर्ति। उसके तीन चेहरे हैं। आत्मा तो एक, लेकिन उस तरफ जाने वाली दिशाएं तीन हैं। विज्ञान ने तो तीन आयाम, थ्री डॉयमेंशन की कल्पना अभी-अभी दी है; लेकिन इस देश में बहुत-बहुत प्राचीन समय से, जीवन के तीन आयाम हैं, इस बात को पकड़ लिया है। इसलिए तीन का बड़ा मूल्य इस देश में रहा है। तीन का आंकड़ा ही मूल्यवान हो गया! हमने त्रिमूर्ति बनाई; वह हमारा पुराना ढंग है कहने का कि अस्तित्व थ्री-डॉयमेंशनल है, तीन-आयामी है। अस्तित्व तो एक है, मगर उसके चेहरे तीन हैं।
और वे तीन चेहरे भी बड़े सार्थक हैं। एक चेहरा है ब्रह्मा का। ब्रह्मा का अर्थ होता है--स्रष्टा, निर्माता। दूसरा चेहरा है विष्णु का। विष्णु का अर्थ होता है-- संभालनेवाला, सुरक्षा करनेवाला, प्रबंधक, संयोजक, संभालनेवाला। और तीसरा चेहरा है महेश का, शिव का। शिव का अर्थ होता है--संहार करनेवाला, मिटानेवाला, विनाश करनेवाला।
विज्ञान की नवीनतम खोजें पदार्थ के आखिरी विश्लेषण में भी इन्हीं तीन को पायी हैं। उनके नाम अलग हैं, क्योंकि विज्ञान अपने नाम देगा--न्यूट्रॉन, इलेक्ट्रॉन, पॉजिट्रॉन कहेगा। लेकिन उनके गुण-लक्षण यही हैं। उनमें एक विध्वंसक है, एक सर्जक है, एक केवल संभालता है।
सदियों से हमने कहा है कि जीवन का मूल स्तंभ प्रकाश है। जगत् प्रकाश से बना है। बाइबिल कहती है : ईश्वर ने कहा : प्रकाश हो! पहला वचन है। फिर सब हुआ। फिर प्रकाश से शेष सब हुआ। और सदियों-सदियों में जिन्होंने समाधि की दशा पायी है उन्होंने पाया है कि अंत में फिर प्रकाश ही रह जाता है, सिर्फ प्रकाश! कबीर कहते हैं: जैसे हजार-हजार सूरज एक साथ उग आएं! कैसे उस प्रकाश का वर्णन करें?
परमात्मा का पहला वचन : "प्रकाश हो' । और जगत् हुआ। और सारे संतों का अंतिम वचन कि प्रकाश ही शेष रह जाता है। और अब विज्ञान कहता है कि जगत् बना है प्रकाश की ऊर्जा से, इलेक्ट्रिसिटी से, विद्युत् से। सब कुछ प्रकाश है।
तुम जब भोजन भी करते हो तो तुम क्या कर रहे हो? तुम्हें शायद पता न हो कि तुम्हारा भोजन केवल संग्रहीत प्रकाश है। वृक्षों के फलों में, सब्जियों में सूरज की किरणें संग्रहीत हो रही हैं। अगर तुम मांसाहारी हो तो वह भी प्रकाश है। पशु पक्षी घास चर रहे हैं, घास में सूरज की किरणें संग्रहीत हैं, पशु-पक्षी उनको पचाकर अपने भीतर मांस निर्मित कर रहे हैं।
एक वैज्ञानिक ने जापान में एक अनूठा प्रयोग किया। उसने एक प्रयोग किया, सामान्यतया हम सोचते हैं कि जब एक पौधा बड़ा होता है तो उस पौधे में जमीन का बहुत-सा हिस्सा प्रवेश कर जाता होगा। इस वैज्ञानिक का निष्कर्ष बिल्कुल अनूठा है। इसने एक पौधे को लगाया, बीज से, और पूरे समय तौल करता रहा कि मिट्टी कितनी कम होती है। पौधा बड़ा होने लगा और मिट्टी कम होती नहीं। पौधा बहुत बड़ा हो गया, उसके पत्ते हो गए, फूल आ गए, फल लग गए, लेकिन मिट्टी उतनी ही उतनी है गमले में। मिट्टी में कुछ कमी हुई नहीं। इसका अर्थ हुआ कि पौधे का सारा-का-सारा अस्तित्व सूरज की रोशनी से आ रहा है।
जब तुम भोजन कर रहे हो तो तुम सूरज की रोशनी ही पचा रहे हो।
हम बने प्रकाश से हैं। और इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि जब समाधिस्थ व्यक्ति, कोई बुद्ध अपनी परमशांति के क्षण में, निर्विचार क्षण में, जहां चित्त विलीन हो जाता है, वासनाएं क्षीण हो जाती हैं, जहां सब विदा हो जाता है, कुछ भी शेष नहीं रह जाता, जहां केवल शून्य रह जाता है--सिर्फ प्रकाश को पाता है।
प्रकाश के तीन अंग हैं। एक उसमें विध्वंसक है, एक उसमें निर्माता है, एक उसमें संभालनेवाला है। ये ही तीन नाम हैं : ब्रह्मा, विष्णु, महेश। गुरु को हमने क्यों ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तीनों कहा है? इसलिए कि गुरु बहुत कुछ बनाता है शिष्य में, बहुत कुछ मिटाता है। गुरु शिष्य को मारता भी है, संभालता भी है, जिलाता भी! मारता है उस सब को जो अहंकार है। संभालता है उस सब को, जिसमें परमात्मा का अवतरण होगा। बचाता है उस सब को जिसमें परमात्मा ग्रहण किया जा सकेगा। और जन्माता है तुम्हारी आत्मा को।
गुरु एक अनूठी प्रक्रिया है, एक प्रयोगशाला है। गुरु के पास होने का अर्थ है मरना, जैसे कि तुम हो वैसे तो मरना।
जीसस ने कहा है निकोदेमस से कि जब तक तू मर न जाए, तब तक मेरा पुनर्जन्म न हो, तब तक कुछ भी न हो सकेगा। निकोदेमस ने पूछा था कि मैं परमात्मा को कैसे पाऊं? और निकोदेमस भला आदमी था, सज्जन था, सच्चरित्र था। जिसको हम साधारणतः साधुपुरुष कहते हैं, ऐसा आदमी था। न चोरी की कभी, न बेईमानी की कभी, न झूठ बोला कभी, न वचन भंग किया कभी। सब तरह से चरित्रवान था। और यहूदियों के शास्त्रों में जो भी नियम हैं, दसों आज्ञाओं को मानकर जीता था। स्वभावतः, उसने कहा कि अब मुझमें कमी और क्या है? सब नियम पालन करता हूं। आप मुझे बता दें, कोई नियम कम हो तो मैं उसको और पूरी तरह पालन करूं। मुझमें कमी क्या है? परमात्मा मुझमें अवतरित क्यों नहीं होता है? सब तरह शील को साधा है, चरित्र को निर्मित किया है, आचरण को जमाया है, जीवनभर कुरबानी दी है, शुभ के लिए मरा हूं। सब कुछ मूल्य चुकाया है। अब परमात्मा अवतरित क्यों नहीं हो रहा है? मैं खाली का खाली क्यों हूं? क्या मैं ऐसे ही मर जाऊंगा?
उसकी आंख में आंसू थे! जीसस ने कहाः जब तक मेरा पुनर्जन्म न हो . . .। उसने पूछा : पुनर्जन्म का अर्थ क्या है? क्या इस जन्म में परमात्मा नहीं मिलेगा, अगले जन्म में मिलेगा?
जीसस ने कहा : नहीं; जब तक इसी जन्म में पुनर्जन्म न हो . . .। जीसस यह कह रहे हैं : जब तक तू एक गुरु में जाए और मरे नहीं . . .।
इस देश में तो हमने गुरु की परिभाषा की है : "आचार्योः मृत्य।' गुरु वही है, जिसमें शिष्य की मृत्यु घटित हो जाए।
जीसस ने यह कहा कि निकोदेमस! तू सब अच्छा कर रहा है, लेकिन यह सब अच्छा तेरे अहंकार के आसपास ही इकट्ठा हो रहा है। तेरा मूल रोग मौजूद है। और उसी मूल रोग के आसपास यह सब तेरा चरित्र, तेरा आचरण, तेरे पुण्य आभूषण बनकर लटक गए हैं। यह तेरा अहंकार ही तृप्त हो रहा है--"मैं ऐसा, मैं वैसा!' पहले यह अहंकार मिटना चाहिए, तब इस चरित्र का कुछ अर्थ है। निर्अहंकारी के ही चरित्र का कुछ अर्थ है। निर्अहंकारी के ही पुण्य में सुगंध होती है। अहंकारी के पुण्य में दुर्गंध होती है। तू पहले मर। तू किसी गुरु को तलाश, किसी गुरु के चरणों में अपने सिर को गिर जाने दे।
कबीर कहते हैं : जो घर बारै आपना, चलै हमारे संग। जो जलाने को तैयार हो सब अपना घर, जो अपने को बिल्कुल भस्मीभूत करने को तैयार है, वह चले हमारे साथ।
इसलिए पहला रूप तो गुरु का संहारक का है। दूसरा रूप संभालनेवाले का है। जैसे कोई माली पौधे को संभालता है--बागोड़ भी लगाता, पानी भी सींचता, खाद भी देता। सूरज की किरणें पहुंच जाएं उस तक, इसका भी आयोजन करता; कहीं आड़ में न हो जाए; किसी बड़े वृक्ष की छाया में न पड़ जाए। ज्यादा पानी न हो जाए, कम पानी न रह जाए। ज्यादा धूप न हो जाए, ज्यादा धूप होती है तो छाता लगा देता है।
कबीर से किसी ने पूछा कि गुरु का काम क्या है? तो कबीर ने कहा : कभी कुम्हार को घड़ा बनाते देखा है? बाहर से थपकी मारता है और भीतर से संभालता है। जब कुम्हार घड़े को बनाता है एक हाथ से चोट करता है और एक हाथ से संभालता है। अब ऐसे तो कहो, पागल ही कहना पड़ेगा कि जब चोट ही मारनी है तो अच्छी तरह मार ही दो, फिर संभालना क्या? और जब संभाल ही रहे हो तो चोट क्यों मार रहे हो? लेकिन घड़ा ऐसे ही निर्मित होता है--एक तरफ से चोट, एक हाथ से संभालना!
तो गुरु चोट भी बहुत करता है। और जितनी चोट करता है उतना ही संभालता है। जिस पर जितनी चोट करता है उसको उतना ही संभालता है। असल में जो चोट खाने का हकदार हो गया, वह संभाले जाने का भी हकदार हो गया। इसलिए गुरु की चोट खाकर लोग धन्यभागी होते हैं। जो नासमझ हैं, वे चूक जाते हैं और भाग जाते हैं। जो समझदार हैं, वे चोट खाकर बिल्कुल रुक जाते हैं, क्योंकि अब कुछ होने के करीब है। गुरु ने ध्यान दिया। गुरु ने रस लिया। गुरु मारने लगा। नपुंसक भाग जाते हैं--छोटी-छोटी बातों से भाग जाते हैं। ऐसी बातों से, जिनकी तुम कल्पना न कर सकोगे! ऐसी क्षुद्र बातें . . .! अध्यात्म को खोजने चले थे, आत्मा को खोजने चले थे और इतनी छोटी बातों से भाग जाते हैं!
कोई मुझसे मिलने आया और उससे मैंने कहा कि आठ दिन रुकना पड़ेगा तब मिल सकोगे, बस वह भाग गया! परमात्मा को खोजने चला था, निर्वाण की संपदा पानी थी! अपमानित हो गया . . . आठ दिन रुकना पड़ेगा!
एक फिल्म-अभिनेता और फिल्म-निर्देशक कल ही संन्यास वापिस लौटा गए हैं। . . .क्यों? . . . तो पत्र में लिखा है कि अब आपके पास इतनी भीड़ बढ़ गयी है कि अब मैं जब आपसे मिलना चाहूं, नहीं मिल पाता हूं। इतनी भीड़-भाड़ में मैं सम्मिलित नहीं हो सकता।
 . . . विशिष्टता चाहिए! . . . विशेष व्यवस्था चाहिए! चुनाहुआपन चाहिए! अहंकार ऐसे सूक्ष्म रास्तों से हावी हो जाता है कि पता नहीं चलता। बनते-बनते बात बिगाड़ ली है उन्होंने। घड़ा बनने के ही करीब था, थोड़ी चोटें और . . .। उन्होंने लिखा पत्र मुझे कि "आपने जो मेरे ऊपर श्रम किया उसके लिए बहुत कृतज्ञ हूं, अनुगृहीत हूं। और आपने मुझे इस योग्य बना दिया है कि अब मैं अपने पैर पर चल सकता हूं।'
घड़ा करीब-करीब बन गया है, मगर उन्हें पता नहीं कि अभी कच्चा है। अभी भट्टी में नहीं पड़ा है। वर्षा का एक झोंका . . . और मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी! आग में पड़ने का मौका आ रहा था, तब भागने लगे! यह भीड़, गैरिक संन्यासियों की आग ही तो है!
बहुत लोग आते हैं, जाते हैं। और ऐसी छोटी-छोटी बातों से चले जाते हैं कि बड़ी आश्चर्य की बात होती है। कुछ मित्र मुझे पत्र लिखते हैं आकर कि हम पहली ही पंक्ति में बैठना चाहते हैं सुनते वक्त, हम पीछे नहीं बैठ सकते। उनका कारण है। कोई सुप्रीम कोर्ट का जज है, वह कैसे पीछे बैठ सकता है! अब यहां सुप्रीम कोर्ट का जज से क्या लेना? यहां तो और बुरी पिटाई हो जाएगी। यहां तो सुप्रीम कोर्ट के चपरासी होते, चल जाता, कम पिटते। यहां कोई राजनीति तो नहीं चल रही है।
कोई भूतपूर्व मंत्री आ जाते हैं, इस मुल्क में इतने भूतपूर्व मंत्री हैं कि भूत कम हो गए हैं? कुछ दिनों में तुम पाओगे साठ करोड़ भूतपूर्व मंत्री! हर एक को मंत्री होना है, हर एक को मंत्री होने से उतरना है। कोई भूतपूर्व मंत्री आ जाते हैं, वे कहते हैं कि मुझे आगे ही बैठने का है। आखिर आगे हमें क्यों नहीं बैठने दिया जाता?
जीसस ने कहा है : जो पीछे हैं, वे मेरे प्रभु के राज्य में आगे हो जाएंगे।
पीछे बैठने की विनम्रता तुम्हें मेरे ज्यादा करीब ले आएगी। फिर आगे जो बैठ रहे हैं वे कितनी चोटें खाकर बैठ रहे हैं, इसका तुम्हें पता नहीं है। उनकी कितनी पिटाई हुई है, इसका तुम्हें पता नहीं है। उतनी पिटने की तुम्हारी तैयारी नहीं है।
क्षुद्र बातें भगा ले जाती हैं। मगर गुरु तुम्हें सांत्वना देने के लिए नहीं है, तुम्हें संक्रांति देने को है। तुम्हें बदलना है, तो तुम्हारे साथ कठोर भी होना पड़ेगा। लोहार की तरह हथौड़ा पटकेगा तुम्हारे सिर पर, तोड़ेगा तुम्हें, क्योंकि तुम गलत हो। तुम्हारे अंग-अंग तोड़ने हैं, फिर से जोड़ने हैं।
इसलिए गुरु विनाशक भी है, संभालनेवाला भी है, क्योंकि तब तक तुम्हें संभाले रखेगा। इधर से तोड़ देगा और संभाले रखेगा, क्योंकि टूटने में और परमात्मा के आने के बीच में अंतराल होगा। और उस वक्त किसी के हाथ के सहारे की जरूरत होगी! पुरानी रोशनी बुझ जाएगी और नयी रोशनी आएगी नहीं, उसके बीच गहरा अंधेरा हो जाएगा। उस अंधेरे में उसकी ही रोशनी तुम्हें संभाले रखेगी। उसका ही प्रेम तुम्हें रोके रखेगा। उसका ही हाथ अंधेरे में तुम्हारा सहारा होगा। और फिर, तुम्हारे भीतर निर्मित करता है वह जो निर्मित होना चाहिए। जो तुम्हारी नियति है।
इसी अर्थों में गुरु को ब्रह्मा कहा है, विष्णु कहा है, महेश्वर कहा है, गुरु को साक्षात् परमब्रह्म कहा है।
परमात्मा तो कहां है, पता नहीं। परमात्मा को देखने के लिए तो और ही आंख चाहिए। वह आंख तुम्हारे पास नहीं। दो ही उपाय हैं। या तो आस्तिक का उपाय है साधारणतः कि मान लो कि होगा। जब इतने लोग कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। मां कहती है, पिता कहते हैं, शिक्षक कहते हैं, पुजारी, पंडित कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे। मान लो, विश्वास कर लो। लेकिन जो विश्वास मानकर किया गया है वह झूठ है। और जो यात्रा ही झूठ से शुरू होती है वह सत्य तक नहीं पहुंच सकती।
या दूसरा उपाय है कि इनकार कर दो--कि न मैं जानता हूं, न मैंने देखा है, कैसे मानूं? नास्तिक हो जाओ--"नहीं है' कहने लगो। यह मानना कि ईश्वर है, उतना ही भ्रांत है, जितना यह मानना कि ईश्वर नहीं है। क्योंकि दोनों का ही अनुभव नहीं है। न तो उसके होने का कुछ अनुभव है, न उसके न होने का कुछ अनुभव है। आस्तिक गलत है, नास्तिक गलत है। खोजी, जिज्ञासु, मुमुक्षु न तो आस्तिक होता है न नास्तिक होता है। फिर जिज्ञासु क्या करें?ये दो विकल्प मिलते हैं समाज में। या तो स्वीकार कर लो--हिंदू घर में पैदा हुए हिंदू हो जाओ . . . मुसलमान हो जाओ, ईसाई हो जाओ, या कम्यूनिस्ट घर में पैदा हुए, चीन में पैदा हुए, रूस में हुए, नास्तिक हो जाओ, अगर झंझट में नहीं पड़ना है, आस्तिक घर में हो तो आस्तिक हो जाओ--अगर झंझट में थोड़ा रस है, थोड़ी बगावती वृत्ति है, तो नास्तिक हो जाओ, मगर दोनों हालत में तुम पहुंचोगे नहीं। क्योंकि दोनों हालत में तुमने मान लिया कुछ जिसका तुम्हें अनुभव नहीं। फिर खोज कैसे शुरु होगी? खोज का एक ही उपाय है किसी ऐसे व्यत्ति के पास जाओ, जिसे अनुभव हो। पंडित के पास जाने से नहीं होगा, अनुभवी के पास जाने से होगा। किसी ऐसे आदमी की आंखों में आंखें डालो, जिसकी "वह' आंख खुल गयी हो। किसी आदमी के हाथ में हाथ दो, जिसका हाथ परमात्मा के हाथ में पहुंच गया हो। किसी आदमी के चरण छुओ, जिसके हाथ परमात्मा के चरण छू रहे हों। ऐसे परोक्ष रूप से तुम जुड़ जाओगे। ऐसे धीरे-धीरे गुरु सेतु बन जाएगा और जो तरंगें परमात्मा से उसके भीतर आ रही हैं, वे धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर भी आंदोलित होने लगेंगी। जो गीत परमात्मा का उसके भीतर गूंज रहा है, अगर तुम गुरु के पास बैठे ही रहे, बैठे ही रहे, बैठे ही रहे, कब तक तुम्हें सुनाई नहीं पड़ेगा? मैं तुमसे कहता हूं : बहरों को भी सुनाई पड़ा है और अंधों को भी दिखाई पड़ा है! लंगड़े भी पहाड़ चढ़ गए हैं! पर धीरज चाहिए।
इसलिए शिष्य के लिए तो परमात्मा नहीं है, गुरु ही परमात्मा है! यह शिष्य की भावदशा है, इसे दूसरे पर मत थोपना। जो मेरा शिष्य है उसे मुझमें साक्षात परब्रह्म दिखाई पड़ सकता है; लेकिन जो मेरा शिष्य नहीं है, उसे दिखाई नहीं पड़ेगा। उसे समझाने की जरूरत भी नहीं है। उस पर थोपने की चेष्टा भी मत करना। उससे विवाद भी मत करना।
मजनू लैला के प्रेम में पड़ गया था। लैला बहुत सुंदर नहीं थी, यह तुम्हें पता है? शायद तुम्हें पता न हो, क्यों मजनू ने इतना शोरगुल मचाया कि लोग यह भूल ही गए हैं कि लैला कोई बहुत सुंदर नहीं थी। मजनू घूमने लगा, चिल्लाने लगा; पुकारने लगा। रात गांव सो जाए और उसकी आवाज सुनाई पड़ती रहेः लैला, लैला . . . ! गांव का जो राजा था वह भी इस दीवाने को देखकर दुःखी होने लगा। उसने एक दिन मजनू को बुलवा ही लिया। और उसने कहा : तू पागल है। मगर तुझ पर मुझे दया आने लगी है। ये तेरे आंसू, यह तेरा रोना, ये तेरा गाना . . . मैं भी अब निश्चिंत होकर नहीं सो पाता हूं। और तेरा लैला का ऐसा गुणगान सुनकर मैंने भी सोचा कि स्त्री सुंदर होगी। स्त्रियों में मुझे भी रस है। तो मैंने सोचा कि मैं भी तेरी लैला को देख लूं। जब तू इतना दीवाना हो रहा है तो कुछ बात होगी। और जब मैंने लैला को देखा तो मैं हैरान हुआ, मैंने सिर ठोंक लिया! साधारण-सी काली-कलूटी स्त्री है। कुछ खास नहीं है। तू पागल है! तुझ पर मुझे इतना प्रेम और इतनी दया है! तेरी दीवानगी में मुझे इतना भाव पैदा हुआ है कि तू आ मेरे साथ राजमहल ।
राजमहल में तो सुंदर स्त्रियों की भीड़ थी! उसने एक दर्जन स्त्रियां खड़ी करवा दीं। उसने कहा : मजनू, तू चुन ले। इनमें से तेरी कोई लैला से पीछे तो होने का सवाल ही नहीं है; लैला तेरी इनमें से किसी के पैर छूने के योग्य भी नहीं है। तू ज़रा गौर से देख!
सुंदरतम स्त्रियां थीं महल की, छांटकर राजा ने खड़ी करवा दी थीं। मजनू ने देखा। एक को देखा, सिर हिलाया। दूसरी को देखा, सिर हिलाया। तीसरी को देखा, कहा कि नहीं। सम्राट् बोला : तू बात क्या कर रहा है यह मेरे पूरे साम्राज्य में इनसे सुंदर स्त्रियां नहीं हैं। उसने कहा : स्त्रियों से मुझे लेना-देना नहीं है इनमें लैला कोई भी नहीं है। मैं जो सिर हिला रहा हूं, वह इसलिए सिर हिला रहा हूं कि इनमें से लैला कोई भी नहीं है।
जाने लगा उदास, सम्राट् ने कहा कि मैं समझ नहीं पाया। मजनू ने कहा : आप समझ नहीं पाएंगे। लैला को देखना हो तो मजनू की आंख चाहिए।
गुरु को देखना हो तो शिष्य की आंख चाहिए। तुम हर किसी को समझाने बैठ मत जाना। यह तो दीवानी बात है! वह मजनू तो कहता गया--नहीं, नहीं, नहीं! मैंने एक और कहानी सुनी है। मुल्ला नसरुद्दीन को निमंत्रण मिला एक सौंदर्य-प्रतियोगिता में। भारत-सुंदरी चुने जाने को थी। मुल्ला की भी गणना पारखियों में है; वह भी एक न्यायाधीश थे। न्यायाधीशों के साथ . . . न्यायाधीशों की पंक्ति बैठी। हजारों लोग इकट्ठे हुए। सुंदरियां एक के बाद एक मंच से निकलतीं--एक से एक सुंदर स्त्रियां! कश्मीर से लेकर केरल तक सुंदर से सुंदर स्त्रियां, अनेक रंग अनेक ढंग! और मुल्ला क्या करता है, मालूम ? हर स्त्री को देखता है, कहता है : थूः! उसके पास बैठे हुए जो छह और दूसरे मजिस्ट्रेट हैं, वे भी थोड़े हैरान हो गए कि हद हो गई! वे तो दीवाने हुए जा रहे हैं, वे तो भूल ही जाते हैं कि किसको कितने अंक देने हैं। उनकी आंखें अटकी रह जाती हैं। ऐसा रूप कभी देखा नहीं! और एक मुल्ला है कि वह हर बार कहता हैः थू :! जब उसने पंद्रहवीं बार आखिरी स्त्री को भी देखकर कहा थू :, तो उनसे न रहा गया। उन्होंने कहा : सुनो नसरुद्दीन, तुमने अपने को समझ क्या रखा है? इतनी सुंदर स्त्रियां और थू, थू, थू क्या मचा रखा है? तुम्हें इनमें से कोई जंचती नहीं?
नसरुद्दीन ने कहा : तुम पागल हुए हो, इनको देखकर थोड़े ही "थू' कह रहा हूं; इनको देखकर मैं अपनी पत्नी को "थू' कह रहा हूं।
अपनी-अपनी नजर है, नजर-नजर की बात! किसी पर थोपना मत।
चितरंजन, तुम्हारा प्रश्न प्यारा है। . . . "न गुरु की खोज थी, न परमात्मा की प्यास थी, न जन्मों-जन्मों का बोध!' . . . नहीं, मैं तुमसे कहता हूं : खोज थी, प्यास थी, इसलिए तुम मेरे पास आ गए। न होती खोज, नहीं आ सकते थे न होती प्यास नहीं आ सकते थे। मगर ऐसा होता है कि हमें अपनी प्यास का भी कहां पता है? हम किसे खोज रहे हैं, इसका भी हमें कहां पता है?
और अकसर तो ऐसा हो जाता है कि हम वह खोजते रहते हैं जो हम चाहते भी नहीं और उसे नहीं खोजते जो हमारे भीतर प्रगाढ़ रूप से पुकार कर रहा है! और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम चाहते हैं जो, उसी को खोज रहे होते हैं, लेकिन गलत दिशा में खोज रहे होते हैं।
धन को थोड़े ही लोग खोज रहे हैं चितरंजन ! लोग ध्यान को ही खोज रहे हैं। तुम्हें यह बात मेरी थोड़ी कठिन लगेगी, लेकिन मैं हजारों लोगों के अनुभव से यह कहता हूं और हजारों लोगों के निरीक्षण से यह कहता हूं। मेरे पास कितने लोग गुजरे हैं! धन को कोई भी नहीं खोज रहा है, लोग ध्यान को खोज रहे हैं! लेकिन धन से उन्हें आशा बंधती है ध्यान की।
धन की कुछ खूबियां हैं! धन से एक तो आशा बंधती है कि धन होगा तो सीमा नहीं होगी। तुमने अनुभव किया है, धन नहीं होता तो कैसी सीमा का बोध होता है! राह से चले जा रहे हो, दुकान पर सुंदर वस्त्र टंगे हैं, खरीदने का मन होता है, जेब खाली है--सीमा आ गई! धक् से दिल हो जाता है। आज जेब भरी होती तो इतनी सीमा अनुभव न होती। सुंदर मकान देखा है, लेने का मन होता है, फिर बैंक-बैलेंस का खयाल आता है, सिर झुका कर गुजर जाते हो--सीमा आ गई! धन की कमी से आदमी को लगता है, मेरे चारों तरफ दीवालें ही दीवालें हैं, चीन की दीवाल मुझे घेरे हुए है! तो आदमी चाहता है, धन होगा तो असीम हो जाऊंगा। फिर कोई सीमा न होगी। जो खरीदना होगा खरीदूंगा। जिस मकान में रहना होगा उस मकान में रहूंगा। जिस स्त्री से विवाह करना होगा उस स्त्री से विवाह करूंगा। जो करना होगा करूंगा, सीमा नहीं रहेगी।
मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारी आंतरिक खोज असीम की है। मगर तुम सोचते हो, धन के मिल जाने से असीम मिल जाएगा तो तुम गलती में हो। धन मिल जाएगा एक दिन और धन के मिलने में जीवन खो जाएगा! क्योंकि ऐसे ही तो नहीं मिल जाएगा! चेष्टा करनी होगी, सतत चेष्टा करनी होगी। बामुश्किल मिलेगा। क्योंकि तुम अकेले ही थोड़े धन खोजने निकले हो, ये करोड़ों-करोड़ों लोग उसी को खोजने निकले हैं। यहां बड़ी छीना-झपटी है, बड़ा संघर्ष है, बड़ी प्रतिद्वंद्विता है, बड़ी प्रतिस्पर्धा है। यहां भाई भी भाई नहीं है, यहां मित्र भी मित्र नहीं है, क्योंकि सब प्रतिस्पर्धी हैं, यहां जो तुम्हारे पीछे खड़ा है, वही छाती में छुरा भोंकेगा। तुम्हें हटाना पड़ेगा न! और तुम भी तो दूसरों को हटाकर इसी तरह आगे बढ़े हो। एक-दूसरे की लाश को सीढ़ी बनाना पड़ता है ... ऐसा खूंखार संघर्ष है! यहां बामुश्किल तुम पहुंच पाओगे पद पर, धन पर . . .। और बड़ा मजा यह है कि जब पहुंच जाओगे, तब बड़े हैरान होओगे। जीवन भी गंवा दिया, धन भी मिल गया, मकान भी मिल गया, दुकान भी मिल गई, जो सामान चाहिए था वह भी मिल गया--फिर भी असीम का तो कुछ पता नहीं है!
असीम तो ध्यान से मिलता है, धन से नहीं मिलता। कहीं गणित की भूल हो गई है।
लोग पद खोजते हैं। और मैं तुमसे कहता हूं, पद कोई नहीं खोजता; लोग परमात्मा को खोज रहे हैं। पद नहीं परमात्मा ! वही पद है, वही परम पद है। लोग ऐसी अवस्था पाना चाहते हैं जिसके आगे कुछ भी न हो। लेकिन इस संसार में ऐसी कोई अवस्था नहीं है, जिसके आगे कुछ भी न हो। कुछ भी हो जाओ, तुम आओ, पाओगे--आगे कोई है! यहां हजार ढंग हैं आगे होने के। नेपोलियन, इतना बड़ा सम्राट्, इतना बड़ा विजेता! मगर मालूम है कि बड़ी अड़चन में रहता था! उसकी ऊंचाई ज्यादा नहीं थी, बस पांच फीट पांच इंच। वही उसका दुःख था। छह फीट का आदमी बगल में आकर खड़ा हो जाए कि बस . . . सब साम्राज्य फीका! एक दिन अपने कमरे में, तस्वीर लटकी थी वह तिरछी हो गई थी, वह उसे सीधा करना चाह रहा था, उसका हाथ नहीं पहुंच रहा था। तो उसके अर्दली ने कहाः "रुकिए, मैं आपसे बड़ा हूं, मैं ठीक किए देता हूं।' नेपोलियन आगबबूला हो गया, कहा : "शब्द वापस लो! मुझसे बड़े? बड़े नहीं, लंबे कहो।' उसकी पीड़ा वही थी।
लेनिन इतना बड़ा शक्तिशाली आदमी था! बड़े से बड़ा जार का साम्राज्य उसके हाथ में पड़ गया था। लेकिन उसकी एक तकलीफ थी, उसका ऊपर का धड़ बड़ा था और पैर छोटे थे। तो कुर्सियां वह ऐसी बनवाता था कि किसी को दिखाई न पड़े उसके पैर; मेज में, आड़ में छिपाए रखता था।
अब क्या करोगे? कहां जाओगे, जहां तुम सबसे आगे पहुंच जाओ और तुमसे आगे कोई भी न हो? किसी के पास सुंदर देह होगी, किसी के पास सुंदर कंठ होगा, किसी के पास सुंदर आंखें होंगी, किसी के पास मतवाली चाल होगी! और कभी-कभी ऐसा हो जाएगा कि राह का भिखमंगा तुम्हें झेंपा जाएगा। उसकी मस्ती तुम्हें बेचैनी से भर देगी।
इस जगत् में तुम कहीं पहुंच जाओ, किसी भी पद पर पहुंच जाओ, तुम भिखमंगे ही रहोगे। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं : किसी आदमी की तलाश पद की नहीं है। असली तलाश तो उस अवस्था की है जिसके आगे पाने को कुछ न हो जाए और हम निश्चिंत हो सकें। क्योंकि जब तक पाने को कुछ है, चिंता रहेगी।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं : चितरंजन! गुरु की भी खोज थी, परमात्मा की भी प्यास थी, तुम्हें पहचान न थी। तुम मेरे पास आ गए, यह अनायास नहीं हुआ है। अनायास कुछ भी नहीं होता, अकारण कुछ भी नहीं होता। करोड़-करोड़ लोग हैं, उनमें से थोड़े-से लोग मेरे पास आए हैं, सभी नहीं आ गए हैं। सभी आएंगे भी नहीं। ऐसा भी हो जाता है कि जो ठीक पडोस में रहता है वह भी नहीं आता; और दूर . . . कोई आया है स्वीडन से, कोई आया है कोरिया से, कोई आया है अमेरिका से; पड़ोस में कोई रहता है और नहीं आया। तुम यहां जाकर पड़ोसियों से पूछ ले सकते हो। सच तो यह है कि वे इस उत्सुकता में हैं कि मैं कब यहां से जाऊं! उनकी अड़चन यही है कि मैं यहां क्यों हूं?
अनायास कुछ भी नहीं होता। हां, यह हो जाता है कि तुम्हें ठीक-ठीक बोध न हो, तुम सजग न होओ, तुम नींद-नींद में तलाश रहे होओ--सोए-सोए। लेकिन तुम टटोलते थे, इसलिए तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में आ गया है।
"कौन-सी पुकार आपके पास ले आयी ?'
उसी पुकार को अब निखार रहा हूं, साफ कर रहा हूं। रोज-रोज साफ होगी, रोज-रोज निखरेगी, रोज-रोज तुम समझोगे। और जिस दिन तुम जागोगे पूरे, उस दिन तुम पाओगेः यही तुम्हारी जन्मों-जन्मों की तलाश थी, यही तुम्हारी प्यास थी; यही तुम्हारी नियति थी। और जब तक न मिल जाती तब तक तुम भटकते। तुम्हारे भटकाव का अंत करीब आ गया है।
            अपने कामों को समर्पित कर देना
            अथ है
            अपने क्षण-क्षण को समर्पित कर देना
            पथ है
            विलीन कर देना अपने समूचेपन को
            अकथ है
            अर्थात् प्राप्ति है
            समाप्ति है यह
            हमारे अधूरे शरीर की अधूरे मन की
            अधूरी आशाओं की अधूरे भयों की
            प्राप्ति है यह प्रकृति की उन समूची लयों की
            पाकर जिन्हें हम मानो
            एक ही साथ तपते हैं बरसते हैं
            उगते हैं पकते हैं
            ताजा बने रहते हैं अखिल काल तक
            थकते हैं तो वैसे थकते हैं
            जैसा थकता है सूरज या समुद्र
            क्षुद्र नहीं बचता तब हमारा कुछ
            समर्पित हो जाता है जब हमारा सारा कुछ!
आ गए हो अब, अब सब समर्पित हो जाने दो चितरंजन! जिस दिन तुम बिल्कुल खाली होकर मेरे पास बैठ जाओगे उसी दिन भर जाओगे  उसी दिन तुम्हारे चित्त का पक्षी गीत गाने लगेगा!
            हर निमिष में मुझे जैसे घेरते हैं सौ सवेरे
            और मेरे चित्त का पंछी चहकता है
            बड़ी गहरी नींद से जैसे जगा हो प्राण
            ऐसी ताजगी मन में सिहरती है
            समय सरिता नयी जीवन चेतना के
            पवन झोंकों से लहरती है
            और मानस कमल मानो कम खिला था
            अधिक खिलता है महकता है
हर निमिष में मुझे जैसे घेरते हैं सौ सवेरे और मेरे चित्त का पंछी चहकता है
            काम जो भी हाथ में आ जाए
            लगता है कि अपना है
            शोकमय संघर्ष दुःख देता नहीं है
            क्योंकि सपना है
            और गृहिणी की अंगीठी की तरह
            हर क्षण उठाकर शिखाएं सुख की दहकता है
            हर निमिष में मुझे जैसे घेरते हैं
            सौ सवेरे और मेरे चित्त का पंछी चहकता है!
तैयारी हो रही है। तुम्हारे भीतर का गीत पक रहा है। मैं उस गीत के पहले अंकुर देखने लगा हूं। क्षितिज पर सूरज की पहली लालिमा प्रकट होने लगी है। सब समर्पित करो। खाली हो जाओ, रिक्त हो जाओ।
            अनंत में प्रवेश करने की बात
            न भावना है न कल्पना है
            न किसी इच्छा का उच्चारण है
            न जल्पना है
            वह एक ठोस और सही अनुभव है
            मगर सारे वातावरण में से ओस की तरह
            समेटो और खींचो अपने को
            तब टपकती है वह बूंद अनुभव की
            बड़े दूर के अर्थ में भी तब आदमी
            व्यक्ति नहीं बचता
            सारे खयाल और इच्छाएं सब उसकी
            जब स्वच्छ एक बूंद की तरह
            नगण्य और सुंदर और पवित्र
            हो जाती हैं और हो पाती हैं जब वे
            विभोर किसी नन्हीं-सी घास की
            पत्ती को सहलाने में
            और सो भी किसी लहर की तरह
            हिलडुल कर नहीं
            निस्पंद बैठे रह कर
            तब मिलती है बच्चे जैसी गहराई
            और समझ और सहज सुख
            सहज शांति सहज गति
            सहज विरति!

तीसरा प्रश्न : श्रद्धा क्या है? श्रद्धा बनानी पड़ती है या हो जाती है? श्रद्धेय के निकट आने से श्रद्धा पर क्या असर होता है? कृपा कर समझाइए।

दिनकर! श्रद्धा का अर्थ है : जितना है उससे ज्यादा की प्रतीति; जितना दिखाई पड़ता है उससे ज्यादा का एहसास; जितना अनुभव में आता है उतने पर सब समाप्त नहीं है, ऐसी धीमी-धीमी अनुभूति . . . धुंधली-धुंधली अनुभूति!
जगत् मेरे ज्ञान से बड़ा है, इस बात का नाम श्रद्धा है। अस्तित्व मेरी बुद्धि से बड़ा है, इस बात का नाम श्रद्धा है। मेरी इस छोटी-सी खोपड़ी पर सारा अस्तित्व समाप्त नहीं है। मैं इस अस्तित्व से पैदा हुआ हूं, इसी में लीन हो जाऊंगा। मैं तो इसकी एक तरंग हूं, जैसे सागर की एक तरंग। सागर की तरंग सागर नहीं हो सकती। मैं तो एक छोटी-सी तरंग हूं, बड़ा सागर मेरे चारों तरफ फैला है। इस सागर का स्वीकार श्रद्धा है।
श्रद्धा बड़ा साहस है। क्योंकि मन कहता है : उतना ही मानो जितना मैं बताता हूं, एक कदम मुझसे आगे न जाना! मन लक्ष्मण-रेखा खींच देता है। मन कहता है : आगे मत बढ़ना इस रेखा के, इसके आगे कुछ भी नहीं है। लेकिन रेखा ही सबूत है इस बात का कि आगे कुछ होगा, अन्यथा रेखा नहीं खिंच सकती थी। रेखा खींचने के लिए भी आगे कोई चाहिए। रेखा के पार भी कुछ होना चाहिए, तभी रेखा खिंच सकती है।
मन की रेखाओं को जो स्वीकार कर लेता है और उनको लक्ष्मण-रेखा मान लेता है, उस आदमी के जीवन में श्रद्धा कभी अंकुरित नहीं होती और वह विराट से वंचित रह जाता है। उस आदमी की हालत ऐसी है जैसे वह आंख गड़ाकर जमीन में चलता हो और उसने कभी आंख उठाकर आकाश की तरफ न देखा हो, तारों से भरी रात न देखी हो, चांदत्तारे न देखे हों, सूरज न देखा हो, यह नीला आकाश का विस्तार न देखा हो, आकाश में पंख मारकर उड़ते दूर दिगंत में पक्षी न देखे हों! नीचे आंखें गड़ाए चलता रहा हो। कसम खा ली हो आंख न उठाने की!
श्रद्धा-रहित आदमी ऐसा है, जिसने जमीन के पार कुछ भी देखना नहीं है, इसका निर्णय ले लिया है। यह जरूर किसी भय के कारण हुआ होगा। क्योंकि विराट को देखने से भय लगता है। विराट में कहीं खो न जाऊं यह डर लगता है। आदमी क्षुद्र में जीना चाहता है; क्षुद्र में सुरक्षा है। क्षुद्र के हम मालिक होते हैं; विराट के हम मालिक नहीं हो सकते। विराट हमारा मालिक होगा, इसको खयाल में ले लो। हम सबने तय कर लिया है क्षुद्र में ही रहेंगे, क्योंकि क्षुद्र में हमारी मालकियत रहती है। विराट में न जाएंगे, क्योंकि विराट में हम मालिक न रह जाएंगे। विराट तो हमें भर देगा, हमें ले जाएगा।
ऊंट, कहते हैं, पहाड़ों के पास जाने से डरता है। रेगिस्तान में शायद इसीलिए रहता हो। रेगिस्तान में ऊंट हिमालय मालूम पड़ता है। पहाड़ों के पास जाएगा, उत्तुंग शिखर देखेगा, तब उसे पता चलेगा।
मैंने सुना है, सुबह-सुबह एक लोमड़ी उठी। अपनी खोल के बाहर निकली। सूरज निकला था, बड़ी छाया पड़ी उसकी। उस लोमड़ी ने कहा : अरे, यह मेरा असली रूप है! आज मुझे नाश्ते में कम से कम एक हाथी की जरूरत तो पड़ेगी ही। बड़ी अकड़कर चली हाथी की तलाश में, नाश्ते का इंतजाम करना है! न कहीं हाथी मिला, और मिल भी जाता तो लोमड़ी करती क्या? दोपहर हो गई, भूखी-प्यासी, रोज तो नाश्ता खोज भी लेती थी, आज यह हाथी के कारण झंझट हो गई। भूखी-प्यासी फिर से लौटकर देखा कि देख तो लूं; कहीं भूल तो नहीं हो गई? अब छाया सिकुड़ आयी थी, बिल्कुल उसके नीचे पड़ रही थी। लोमड़ी का चित्त बैठ गया। उसने कहा : अब तो चींटी भी मिल जाए तो बहुत हो जाए। अब तो चींटी भी मैं पचा सकूंगी, इसकी संभावना नहीं मालूम होती।
अपनी बड़ी-बड़ी छायाएं देख रहे हैं। अहंकार हमारा बड़ी-बड़ी छायाएं हैं। उन्हें हम खूब बड़ा करते हैं, उन्हें हम खूब रंगते हैं। और स्वभावतः परमात्मा के पास जाने से हम डरेंगे। जहां परमात्मा की बात होती है वहां जाने से भी डरेंगे। क्योंकि वहां जाकर हमें पता चलेगा कि यह छाया सिर्फ छाया है; यह हमारा रूप नहीं। हम छोटी-छोटी बूंदें हैं और हमें सागर होने का भ्रम हो गया है। और हम सागर पर भरोसा नहीं करना चाहते।
तुमने उस मेंढक की कहानी तो सुनी है न, जो अपने कुएं में रहता है। और एक बार सागर का एक मेंढक कुएं में आ गया। छोटा-सा कुआं है। और कुएं में मेंढक ने पूछा हालचाल--कहां से आते हैं, पता-ठिकाना . . .। उसने कहा : सागर से आता हूं। मेंढक ने पूछा : सागर कैसा है? इस कुएं के बराबर है न?
सागरवाले मेंढक की हालत तुम समझो; वही हालत मेरी है। सागरवाले मेंढक ने कहा : कुएं और सागर की तुलना नहीं हो सकती। लेकिन कुएं के मेंढक को बड़ा बुरा लगा। उसने कहा : क्या बात कर रहे हो? इससे बड़ी कोई जगह नहीं है! हम भी जिए हैं, हमने भी अनुभव लिया है। हमने कोई बाल ऐसे धूप में नहीं पका लिए हैं। अनुभवी हैं। हमने भी बहुत देखी है जिंदगी। मूसलाधार वर्षाएं भी देखी हैं। बड़े आकाश की वर्षा भी! हमारे इस कुंए में समा जाती है।मगर आकाश जब मूसलाधार वर्षा करता है तब भी हमारे कुएं में समा जाती है, पता नहीं चलता कहां गई! यह हमारा कुआं आकाश से भी बड़ा है। (स्वभावतः सीधा-साफ तर्क है।)  तुम किस सागर की बातें कर रहे हो, होश में हो?
कुएं का मेंढक छलांग लगाया कुएं के आधे तक और कहा : इतना बड़ा है सागर? फिर और थोड़ी उसने उदारता दिखाई, और ज़रा बड़ी छलांग लगाया, तीन चौथाई, कहा : इतना बड़ा है? फिर और अंतिम उदारता दिखाई, पूरी छलांग लगाई कुएं की, कहा : इतना बड़ा है?
लेकिन जब सागर के मेंढक ने कहा : मुझे क्षमा करो, इस मापदंड से तौला नहीं जा सकता। तो कुएं के मेंढक ने कहा : निकल जा बाहर यहां से! झूठे कहीं के!
श्रद्धा का अर्थ होता है : जिन्होंने देखा है, जो सागर के पास गए हैं, उनकी सुनो। शायद उनके हृदय की धड़कन में तुम्हें सागर की थोड़ी गूंज सुनाई पड़े। उनके पास बैठो।
श्रद्धा का मौलिक अर्थ सत्संग है।
            समझ और क्षमता
            ठीक-ठीक जीते चले जाने से बढ़ती है
            और फिर चढ़ जाते हैं
            हर प्राप्तव्य शिखर पर पांव
            हर धूप-छांव को मानते हुए सुख यों
            मानो पहाड़ कोई था ही नहीं
            पथ था सीधा और सरल, जो अपने-आप कट गया है
            एक कुहरा था केवल
            जो अपने भीतर की किरन से छंट गया है!
तुम्हारे भीतर सागर है, लेकिन तुम भरोसा कर सको--सागर से आए किसी यात्री की बात पर, सागर से आए किसी गायक के गीत पर, सागर से भर लाया है जो अपने भीतर संगीत--अगर तुम उसके संगीत को सुन सको, उसके हृदय पर अपने कानों को रखकर, तो तुम्हारे भीतर का कुहासा छंट जाए, तुम्हारे भीतर की किरण साफ हो जाए।
श्रद्धा मानती नहीं सीमा में। श्रद्धा कहती है : सीमा नहीं है। श्रद्धा मानती नहीं मृत्यु में; श्रद्धा कहती है : मृत्यु नहीं हो सकती। क्यों? क्योंकि जीवन कैसे मर सकता है? सीमा हो कैसे सकती है? क्योंकि वहां भी सीमा होगी, उसके पार कुछ होगा। जगत् असीम है और जीवन भी शाश्वत है। हम अनंत के यात्री हैं।
क्षितिज से क्षितिज तक सवेरे का घेरा
            चहक से भरा है
            चमकदार पंखों को छूते हुए
            मन हवा का हरा है
            हरी घास पर दूर तक मोतियों की
            लड़ी दिख रही है
            किरन मोतियों पर कि मोती किरन पर
            जड़ी दिख रही है
            हवा और पंछी किरन और मोती
            लहर और गाने
            अंधेरे ने इनको बहुत कुछ डराया
            मगर ये न माने!
श्रद्धा का अर्थ है : अंधेरे की मत मानना।
            हवा और पंछी, किरन और मोती
            लहर और गाने
            अंधेरे ने इनको बहुत कुछ डराया
            मगर ये न मानें!
डरना मत--अज्ञात से, अनंत से, विराट से--तो तुम अपना घर खोज पाओगे, क्योंकि वही तुम्हारा घर है।

एक ही विश्वास मेरी चेतना के पास

एक केवल एक निष्ठा की मुझे है आस

अर्थ मिलता शब्द को ध्वनि को गिरा की सांस

एक ही विश्वास हरता है हृदय का त्रास।

तुम न दो कुछ और मुझको, मैं नहीं असहाय

आस्था का बल जिसे है वह नहीं निरुपाय

आज गूंगे हों भले शंकित हृदय के भाव

हो पड़ा मूर्च्छित कहीं अभिव्यक्ति का सब चाव; 

हो भले छूंछे पड़े अभ्यास के आधार

हो पुराने की विवशता आज मेरी हार

पर जयी विश्वास मेरा, एक ही विश्वास

दे रहा भवितव्य को जो शक्ति का उल्लास।

गति नदी को दे रहा, गिरि को गगन की राह

एक ही विश्वास हरता मरुवनों का दाह

है नहीं बिकता किसी भी मूल्य पर यह मौन

इस गहन जीवन-क्रिया को मोल लेगा कौन?
एक श्रद्धा ही है, जो इस जगत् में नहीं खरीदी जा सकती। एक श्रद्धा ही है, जो नहीं बिकती।

एक ही विश्वास हरता मरुवनों का दाह।
और एक श्रद्धा ही है जो मरुस्थल में हरे वृक्ष उगा देती है, फूलों को जगमगा देती है। एक श्रद्धा ही है जो अंधेरे में दिया जला देती है; जो मृत्यु में अमृत को खोज लेती है।
श्रद्धा इस जगत् की सर्वाधिक बड़ी संपदा हैं।
तुमने पूछा, दिनकर! कि श्रद्धा बनानी पड़ती है या हो जाती है? बनानी नहीं पड़ती और अपने-आप भी नहीं हो जाती। तब तुम ज़रा मुश्किल में पड़ोगे, क्योंकि तुम सोचते हो दो ही विकल्प हैं। नहीं, असली बात तीसरी है। श्रद्धा बनाने से तो नहीं बनती; बनाने से तो थोथी होगी, ऊपर-ऊपर होगी, कागज के फूलों जैसी होगी। तुम्हारी बनाई श्रद्धा तुमसे छोटी होगी। और श्रद्धा को तुमसे बड़ा होना चाहिए। और अगर तुम न बनने दो तो दुनिया की कोई शक्ति उसे बना भी नहीं सकती। मैं लाख चाहूं उड़ेल दूं अपने प्राण तुम में, लेकिन तुम अपने द्वार ही न खोलो. . .। मैं लाख चाहूं कि बरसा दूं यह मेघ जो भरा है, मगर तुम अपने घड़े को उलटा ही रखो . . .। मैं पुकारता रहूं और तुम बहरे बने रहो . . . । मैं दीए लेकर तुम्हारी आरती उतारूं और तुम आंखें बंद रखो . . .। मैं क्या करूंगा? सुगंध उठे, तुम्हारे नासापुटों को घेरे, तुम अपनी नाक को बंद कर लो . . .।
श्रद्धा न तो बनाने से बनती है और न हो जाती है अपने-आप। श्रद्धा बनने से जब होने लगे, जब किसी के पास श्रद्धा का स्वर गूंजने लगे तो तुम अड़चन मत डालना, सहयोग करना, बनने देना। बनाने से नहीं बनती है--बनने देने से बनती है। भेद समझ में आया? तुम्हारे बनाने नहीं बन सकती, न किसी और के थोपे थोपी जा सकती है। लेकिन जहां सूरज निकला हो, वहां तुम आंखें बंद रखने की जिद मत करना। इतना सहयोग देना, आंख खोलना। आंख सूरज को पैदा नहीं कर सकती, लेकिन आंख चाहे तो सूरज उगा रहे, अपने को बंद रखे, तो अंधेरे में रह सकती है।
हवा का झोंका आ रहा है--सुवासित हवा का--तुम अपने द्वार-दरवाजे बंद रखो, धकधकाएगा, थपथपाएगा द्वार, लौट जाएगा। जबर्दस्ती नहीं कर सकता। लेकिन तुम अपने द्वार खोल दो; तुम्हारे द्वार खोलने से हवा का झोंका पैदा नहीं होता; लेकिन तुम्हारे द्वार खुले हों और हवा का झोंका आता हो--यह संयोग मिल जाए, यह सोने से सुगंध का संयोग मिल जाए, कि कहीं सद्गुरु हो और तुम अपने द्वार खोल दो, तो श्रद्धा जन्म जाती है।
ऐसा ही समझो, जैसे कोई पूछे, एक बच्चा पैदा हुआ, एक प्यारा बच्चा पैदा हुआ, इसे पुरुष ने जन्माया? तो बात गलत है, क्योंकि स्त्री के बिना गर्भ के यह न हो सकेगा। और कोई कहे स्त्री ने ही जन्माया, तो भी बात गलत है, क्योंकि बिना पुरुष के संस्पर्श के यह न हो सकेगा। किसने इसे जन्माया? ये दोनों मिले, ये प्रेम में डूबे, इन्होंने अपने तार जोड़े। इनके तार जोड़ने से वह अवसर बना, जिसमें परमात्मा उतर सका, इस बच्चे के रूप में।
ठीक ऐसी ही घटना गुरु और शिष्य के बीच घटती है। न तो गुरु पैदा कर सकता है श्रद्धा। जिसमें आग्रह है नहीं पैदा होने दूंगा, उसमें श्रद्धा पैदा नहीं की जा सकती। और जो सद्गुरु नहीं है, उसके पास तुम लाख सिर पटकते रहो, दरवाजा खोले बैठे रहो, श्रद्धा पैदा नहीं हो जाएगी। श्रद्धा उस संयोग में फलित होती है, जब तुम किसी सद्गुरु के पास अपने हृदय के द्वार खोलते हो। जहां शिष्य का और गुरु का मिलन होता है, वहां उस परम अवसर को अपने-आप निर्मिति होती है, जहां परमात्मा अवतरित होता है।

चौथा प्रश्न : मैं शास्त्रों में सदा से भरोसा करता आया हूं और अब आप हैं कि शास्त्रों से मुक्त होने को कह रहे हैं। मैं बड़ी उलझन में हूं। रास्ता सुझाएं।

भरोसा काम नहीं आएगा। अगर काम आता होता तो तुम यहां न आए होते। अगर काम ही आ गया होता तो फिर वैद्य की तलाश क्या थी? शब्द काम नहीं आ सकते। शब्दों के पीछे कोई जीवंत प्राण चाहिए, कोई चलती हुई ज्योति चाहिए।
याद करो, सुंदरदास ने कल ही तो कहा था। दीए की बातें करने से दीया नहीं जलता। प्रकाश की बातें करने से प्रकाश नहीं होता। न ही पाकशास्त्र को छाती से लगाकर बैठे रहोगे तो भूख मिटेगी। और कागज पर लिखते रहो एच टू ओ, एच टू ओ, एच टू ओ, उससे प्यास नहीं बुझेगी। ऐसे ही कुछ लोग राम-राम, राम-राम लिख रहे हैं कागज पर, वह भी एच टू ओ, एच टू ओ, एच टू ओ लिख रहे हैं! मंत्र उनका बिल्कुल ठीक है। एच टू ओ में गलती कुछ नहीं है, मगर एच टू ओ में पानी थोड़े ही होता है। वह तो सूत्र है, उससे प्यास नहीं बुझती। तुम अपने कंठ पर खुदवा लो एच टू ओ, मंत्र बना लो इसका तुम सोचते हो फिर तुम्हें पानी पीने की जरूरत न रह जाएगी?
शास्त्र से कुछ भी न होगा। मगर कुछ लोग दीवाने हैं शास्त्रों के। और मजा यह है कि सद्गुरु सदा वही करते हैं जो सारे शास्त्रों का सार है। मैंने तुमसे क्या एक भी ऐसी बात कही है, जो शास्त्रों ने नहीं कही है?
तुम कहते हो : "मैं शास्त्रों में सदा से भरोसा करता आया और अब आप हैं कि शास्त्रों से मुक्त होने को कह रहे हैं!' तुमने शास्त्र पढ़े ही नहीं, क्योंकि प्रत्येक शास्त्र कहता है कि शास्त्रों से मुक्त हो जाओ। कृष्ण ने कहा है कि मेरा निर्वचन नहीं हो सकता--अनिर्वचनीय हूं! बुद्ध ने कहा : उसकी व्याख्या नहीं हो सकती--अव्याख्या है। जो लिखा गया है, उसमें वह नहीं है। जो कहा गया है, उसमें वह नहीं है। लाओत्सु का प्रसिद्ध वचन हैः सत्य बोला कि बोलते ही झूठ हो जाता है।
तुमने शास्त्र पढ़े नहीं, अन्यथा मैं जो कह रहा हूं वह वही है जो सारे शास्त्रों ने कहा है। उनका निचोड़ तुमसे कह रहा हूं। और अपनी गवाही के आधार पर कह रहा हूं। इसलिए नहीं कह रहा हूं कि शास्त्रों में लिखा है, बल्कि इसलिए कह रहा हूं कि मेरा अनुभव है। शास्त्रों में लिखा हो या न लिखा हो, यह गौण बात है। लेकिन लिखा है शास्त्रों में यही, क्योंकि जिन्होंने भी जाना है ऐसा ही जाना है।
लेकिन लोग शास्त्र पढ़ते थोड़े ही हैं, तोतों की तरह रटते हैं!
मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन रेलवे इंक्वायरी पर तर्क कर रहे थे : टाइमटेबिल में यह गाड़ी फुलेरा से सीधी मेड़ता की तरफ जा रही है और आप कहते हैं कि गाड़ी अजमेर होकर निकलेगी। यह कैसे हो सकता है? टाइमटेबिल गलत कैसे हो सकता है?
"फुलेरा से आगे का रास्ता पानी में डूब गया है महोदय, इसलिए।' इंक्वायरी वाले ने समझाया।
"तो फिर टाइमटेबिल पानी में नहीं डूबा?' मुल्ला नसरुद्दीन ने पूछा।
"अगले साल तक डूब जाएगा'--उत्तर आया।
और क्या करोगे? कुछ लोग किताबों के दीवाने हैं! टाइमटेबिल भी तो डूबना चाहिए! कम-से-कम टाइमटेबिल में स्टेशन तो डूबनी चाहिए। कम-से-कम स्थान तो जाहिर होना चाहिए कि यह जगह पानी में डूबी हुई है, नहीं तो नक्शे का मतलब क्या है?
नक्शों को पकड़कर मत बैठे रहो, जिंदगी नक्शों से रोज आगे बढ़ जाती है। इंक्वायरी वाले ने ठीक ही कहाः अगले साल तक डूब जाएगा। इस देश की जैसी हालतें हैं, इसमें यह हो सकता है। पुल डूबेंगे, फिर टाइमटेबिल भी डूब जाएंगे, सब डूब जाएगा। घबड़ाओ मत, प्रतीक्षा करो। भाग्य पर भरोसा रखो, यह दुर्दिन भी आ जाएगा।
शास्त्र पर इतना भरोसा! और तुम शास्त्र से समझोगे क्या? तुम शास्त्र से उतना ही समझ सकते हो, जितना समझ सकते हो। कृष्ण ने जो गीता में कहा, क्या तुम समझते हो तुम पढ़कर वही समझ लोगे जो उन्होंने कहा? तुम उतना ही समझोगे, जितना तुम समझ सकते हो। तुम्हारी समझ उससे ज्यादा नहीं हो सकती।
एक आदमी डॉक्टर के पास गया। उसकी आंखों में कम दिखाई पड़ता था। डॉक्टर ने चश्मा बनाया। वह आदमी कहने लगा कि जब चश्मा लग जाएगा मेरी आंख पर तो मैं पढ़ने लगूंगा न ? डॉक्टर ने कहाः क्यों नहीं बिल्कुल, जरूर पढ़ने लगोगे। उस आदमी ने कहा चमत्कार! क्योंकि पहले मैं बिल्कुल पढ़ना जानता ही नहीं।
तुम पढ़ना ही नहीं जानोगे तो चश्मा लगाने से कैसे पढ़ने लगोगे? तुम ही तो गीता पढ़ोगे न, चश्मा लगाने से क्या होगा! और एक बार पढ़ो रोज पढ़ो, बार-बार पढ़ो, क्या होगा? तोतों की तरह रटते रहोगे।
मैंने सुना, एक पंडित जी के पास तोता था, वह राम-राम, राम-राम जपता था। बड़ा धार्मिक तोता था! तोते अकसर धार्मिक होते हैं और धार्मिक लोग अकसर तोते होते हैं! वह तोता सदा राम-नाम की चदरिया ओढ़े रहता था! और बैठा रहता, और माला लटकी रहती उसके बगल में और राम-राम, राम-राम, उसकी बड़ी ख्याति थी। पंडित जी के पास एक महिला आती थी। पंडितजिओं के पास महिलाओं के अतिरिक्त कोई और आता भी नहीं। एक बुढ़िया, अब जिसको कहीं और जाने की कोई जगह नहीं। पंडित जी के तोते को देखकर वह बुढ़िया भी एक तोता खरीद लायी। मगर तोता बड़ा नालायक था। वह गालियां बके। वह किसी अफीमची के पास रहा था। सत्संग का असर वह शुद्ध गालियां दे। बुढ़िया उसको बहुत राम-राम करवाए, लेकिन वह कहे : ऐसी की तैसी राम-राम की! बुढ़िया ने कहा : हद हो गई! यह तोता किस तरह का तोता है! पंडित जी से कहा कि मेरा तोता बिल्कुल . . . हालत खराब है।
पंडित जी ने कहा : तू ऐसा कर, तेरे तोते को यहां ले आ। एक दस-पंद्रह दिन मेरे तोते का सत्संग कर ले, सब ठीक हो जाएगा। यह तोता बड़ा ज्ञानी है। यह तो पिछले जन्मों का भक्त समझो। यह पहुंची हुई आत्मा है।
वह तोता बैठा था, अपना ओढ़े, राम-राम, राम-राम जप रहा था। उसके चेहरे पर बड़ा भक्ति-भाव दिखाई पड़ता था। बुढ़िया ले आयी अपने तोते को। दोनों को एक ही पिंजड़े में बंद कर दिया। पांच-सात दिन के बाद पंडित जी एकदम भागे हुए आए। बुढ़िया से कहा : ले जा अपना तोता! मेरे तोते ने राम-राम कहना बंद कर दिया, चदरिया फेंक दी! और मैंने उससे आज सुबह कहा कि कह भाई, राम-राम नहीं कहता?उसने कहा ऐसी की तैसी राम-राम की! तो मैंने उससे पूछाः इतने दिनों तक राम-राम क्यों जपता था? उसने कहा : जिस वजह से जपता था वह बात पूरी हो गयी। एक प्रेयसी की तलाश थी, यह आ गई। इसी के लिए तो राम-राम जप रहा था।
तुम तोतों की तरह शास्त्रों को पढ़ते रहो, इससे कुछ होगा नहीं। आंख उठा-उठाकर देखते रहोगे, दुकान पर ग्राहक आया कि नहीं? कौन गुजर रहा है रास्ते से! घर में क्या हो रहा है? पत्नी किससे बात कर रही है? यह सब चलता रहेगा और गीता पढ़ रहे हैं! कुत्ता आएगा, उसको भगा दोगे, गीता पढ़ रहे हैं! कंठस्थ हो गई है। अकसर ऐसा हो जाता है कि पन्ना कोई और है और पढ़ कोई और पन्ना रहे हैं, मगर कंठस्थ है। उलटी रख दो किताब सीधी रख दो किताब, कोई फर्क नहीं पड़ता, वह अपना पढ़े जा रहे हैं!
जो शास्त्रों में लिखा है वह शास्त्रों से नहीं जाना जा सकता। जो शास्त्रों में लिखा है उसे अगर जानना है तो समाधि में उतरना पड़ेगा। उसी की चेष्टा कर रहा हूं।
तुमसे कहता हूं : शास्त्र छोड़ो, समाधि में उतरो। मेरी बात तुम्हें विरोधाभासी लगती है। मैं कहता हूं : शास्त्र छोड़ो, समाधि में उतरो, क्योंकि समाधि में उतरोगे तो सारे शास्त्र तुम्हें उपलब्ध हो जाएंगे।

पांचवां प्रश्न : मैं संन्यास में दीक्षित होना चाहता हूं, समग्र मन से तैयारी है; लेकिन परिवारवालों को कहीं दुःख न हो, इसलिए रुका हुआ हूं। फिर आप भी तो कहते हैं कि करुणापूर्वक जीना उचित है।

देखा ! . . . तोते कैसे अपने मतलब का अर्थ निकाल रहे हैं!
आदमी बड़ा कुशल है। रेशनलाइजेशन . . . जो-जो करना चाहता है उसके लिए ठीक-ठीक तर्क खोज लेता है।
 मैंने सुना, बाबा मुक्तानंद और बाबा चुक्तानंद दोनों एक झाड़ के नीचे बैठे थे। गांजे का धुआं उठ रहा था, कुंडलिनी जाग्रत हो रही थी! मुक्तानंद गुरु हैं, चुक्तानंद शिष्य हैं। लेकिन मुक्तानंद चूहा-छाप, चुक्तानंद हाथी-छाप! दोनों डोल रहे थे। ज्ञान की चर्चा चल रही थी ऐसे अवसर पर तो ज्ञान की चर्चा चलती है। जैसे-जैसे गांजे का नशा बढ़ने लगा और जैसे-जैसे जमीन भुलने लगी और आकाश के तारे दिखाई पड़ने लगे, मस्ती छा गई . . .! चुक्तानंद की कुंडलिनी ऐसी जागी कि एक घूंसा बाबा मुक्तानंद को मार दिया! एक तो शिष्य और गुरु को घूंसा मारे . . .! और फिर हाथी जैसा शिष्य और चूहा जैसा गुरु . . .! नशा उतर गया बाबा मुक्तानंद का और कुंडलिनी भी स्वभावतः उतर गई! बड़े क्रोध से देखा शिष्य की तरफ। डपटकर बोले : क्यों बे चुक्तानंद, यह घूंसा क्यों मारा? लेकिन तभी खयाल भी आया कि और झंझट बढ़ानी ठीक नहीं है, कहीं एक-आध और न मार दे! एकांत है, यहां कोई है भी नहीं। और नशा इसका ज्यादा चढ़ा है और कुंडलिनी बिल्कुल जागी हुई है। सहस्त्रार तक पहुंचा हुआ मालूम होता है प्रभाव। एकदम डोल रहा है।
तो फिर बाबा मुक्तानंद ने थोड़ा संभालकर कहा कि एक बात बता, मजाक में मारा कि सीरियस होकर मारा? चुक्तानंद ने कहा : मजाक में नहीं, सीरियस होकर मारा है। करो क्या करते हो?
मुक्तानंद ने कहा : तब तो ठीक है, बाकी मजाक मुझे कतई पसंद नहीं!
आदमी अपने मतलब से निकाल लेता है अर्थ। मैंने जरूर कहा है कि करुणा से जियो, लेकिन यह मैंने भी नहीं सोचा था कि करुणा से जीने का अर्थ यह होगा कि संन्यास लेने की अब क्या जरूरत! संन्यास का अर्थ ही करुणा है। संन्यास का सार ही करुणा है। संन्यास का भाव ही प्रेम है।
तुम कहते हो : मैं संन्यास में दीक्षित होना चाहता हूं, समग्र मन से तैयारी है; लेकिन परिवारवालों को कहीं दुःख न हो।
और किन-किन बातों में परिवार वालों के दुःख की चिंता की है? जब पड़ोस की स्त्री से बातें करने लगते हो तो पत्नी की फिक्र करते हो? किन-किन बातों में परिवारवालों की चिंता की है? और फिर कल मरोगे, मरते वक्त क्या करोगे? मौत से कहोगे ठहर, मेरे परिवारवालों को दुःख होगा? यह बात ठीक नहीं। मौत आएगी और ले जाएगी।
शराब भी लोग पीते हैं, परिवारवालों की चिंता नहीं करते। जुआ भी खेलते हैं, परिवारवालों की चिंता नहीं करते। क्रोध भी करते हैं, मारपीट भी करते हैं, परिवारवालों की चिंता नहीं करते। लेकिन जब ध्यान करना हो या संन्यस्त होना हो तो तत्क्षण परिवारवालों की चिंता करते हैं! समझते हो तर्क! आदमी का मन बहुत जालसाज है।
रही बात तुम्हारे परिवारवालों के दुःखी होने की तो दो-चार दिन में सब ठीक हो जाएगा, क्योंकि मेरा संन्यास कोई भगोड़ा संन्यास नहीं है। मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि भाग जाओ हिमालय, छोड़-छाड़ कर पत्नी को। मेरा संन्यास तो तुम्हें ज्यादा बेहतर पति बनाएगा अगर तुम पति हो। अगर तुम पिता हो तो ज्यादा बेहतर पिता बनाएगा। अगर तुम पत्नी हो तो ज्यादा बेहतर पत्नी बनाएगा। अगर तुम बेटे हो तो ज्यादा बेहतर बेटा बनाएगा।
मेरा संन्यास तो जीवन का समग्र स्वीकार है। मैं तो जीवन को प्रेम के फूलों से भरना चाहता हूं। तो दो-चार दिन में वे समझ जाएंगे कि यह संन्यास कोई पुराना भगोड़ा संन्यास नहीं है यह संन्यास की नयी भाव भंगिमा है। यह संन्यास का एक नया अवतरण है। यह संन्यास का नया अवतार है। वे जल्दी ही समझ जाएंगे कि तुम पहले से ज्यादा प्रेमी हो गए हो, पहले से ज्यादा आर्द्र, पहले से ज्यादा भले, पहले से ज्यादा मानवीय, पहले से ज्यादा सरल और निर्दोष! वे देखेंगे कि तुम्हारे जीवन में पहले से थोड़ा ज्यादा काव्य है, और ज्यादा संगीत है। तो क्यों दुःखी होंगे? हां, दो-चार दिन के दुःख की बात है। दो-चार दिन के दुःख की बात के लिए चिंता न लो।
और फिर अगर सच में तुम उन्हें प्रेम करते हो तो यह तुम्हारे प्रेम की सबसे बड़ी भेंट होगी उन्हें कि घर से कम-से-कम एक व्यक्ति संन्यस्त होने दो। आज नहीं कल तुम्हारी पत्नी भी डूबेगी। ऐसे ही लोग डूबते चले गए हैं और चले आए हैं। मैं तो अकेला ही चला था, फिर लोग साथ होने लगे। ऐसे लोग डूबते गए हैं, ऐसे ही चले आए हैं। पति आया, फिर पत्नी आयी; या पत्नी कभी आई और पीछे पति आया; फिर बच्चे आ गए हैं। कभी-कभी तो ऐसा हुआ कि छोटे बच्चे पहले आ गए! फिर मां आई, फिर पिता आया, जैसे-जैसे हिम्मत जुटाते गए वैसे-वैसे आते गए।
एक बार तुम्हें यह समझ में आ जाए कि मेरा संगीत जीवन का निषेध नहीं है। मैं इस जगत् का विरोधी नहीं हूं। मैं इस संसार को छोड़ने के लिए नहीं कह रहा हूं। मैं तुमसे कह रहा हूं : इस संसार को अहोभाव से जियो। यह परमात्मा की भेंट है। . . . तो क्यों दुःखी होंगे?
फिक्र न लो। व्यर्थ भयभीत न होओ। मन को समझाने की चेष्टाएं न करो, टालने के उपाय मत करो। ऐसे ही आदमी टाले चला जाता है कि अब कल सोचेंगे, परसो सोचेंगे, पहले पत्नी को राजी कर लें, फिर बेटे को राजी कर लें, फिर पिता को राजी करना है, फिर मां को राजी करना है। तुम राजी करते-करते मर जाओगे।
मैं एक ट्रेन में यात्रा कर रहा था। पैसेंजर ट्रेन, और रफ्तार इतनी धीमी थी कि मुसाफिर एक-दूसरे पर खीझे पड़ रहे थे । और कोई उपाय भी नहीं था। गाड़ी कहां ठहर जाएगी, कुछ भी तय नहीं, कहीं भी ठहर जाए। गाड़ी इतनी ठहर रही थी कि लोग उतर-उतर कर रास्तों के किनारे लगे आम तोड़ रहे थे। बार-बार एक मूंगफलीवाला "करारा चीनी बादाम का शोर मचाता हुआ डब्बे के सामने से गुजरता था। मेरे साथ मुल्ला नसरुद्दीन भी सफर में था। मुल्ला बुरी तरह खीझा हुआ बैठा था। मैं था और मुल्ला। अब मुझ पर खीझने का कोई ज्यादा उपाय भी नहीं था। भुनभुना रहा था। कोई और उपाय न देखकर, जब अगले स्थान पर गाड़ी रुकी और मूंगफलीवाले ने आकर जोर से फिर आवाज दी "करारा चीनी बादाम!' तो फिर मुल्ला के बर्दाश्त के बाहर हो गया। खिड़की से सिर निकालकर उसने पूछा कि भइया, तुझमें कौन-सा इंजन फिट है? गाड़ी से तू तेज चल रहा है। जहां देखो तू आगे तैयार मिलता है!
इतना ही ज़रा खयाल कर लेना, तुम कहीं डब्बे ही डब्बे तो नहीं हो? नहीं तो अकसर डब्बे जो हैं वे बस पोस्टपोन करते रहते हैं। उनका काम ही स्थगन करने का है--कल करेंगे; इसको ठीक कर लें, उसको ठीक कर लें; लड़की की शादी हो जाए, लड़के के शादी हो जाए; फिर दुकान अभी नयी शुरू की है, वह चल जाए। फिर तुम्हारे जीवन में कभी कुछ घट न सकेगा।
निर्णय लो। और मैं नहीं कहता कि संन्यास लो। लेना है तो फिर किन्हीं बहानों से अटकाओ मत। नहीं लेना है तो फिर तो इतना स्पष्ट मन में भाव होना चाहिए कि नहीं लेना है, बात खत्म हो गई। दो टूक होना चाहिए आदमी को! साफ-साफ होना चाहिए आदमी को। आधा-आधा . . . धोबी का गधा नहीं होना चाहिए, न घर का न घाट का! त्रिशंकु नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसी उलझन में आदमी की जीवन-ऊर्जा व्यर्थ ही नष्ट होती है।
और अच्छे बहाने मत खोजो। अकसर लोग बुरे काम अच्छे बहानों से करते हैं। इसीलिए तो कहते हैं कि नरक का रास्ता अच्छी आकांक्षाओं से पटा है। . . . अब संन्यास से बचना है। भाव भी उठ रहा है, हिम्मत नहीं जुड़ रही-- तब तुम कह रहे हो कि आप ही तो कहते हैं कि करुणापूर्ण जीना उचित है।
संन्यास करुणापूर्ण जीने की ही प्रक्रिया का नाम है।

सुरीली किरणें प्रकाशवान गान

उड़ते हुए रूप

मूक और मौन आंधियां

भीतर हैं ये सब

भीतर के ये ढब बाहर करने हैं

समुद्र चढ़ने हैं पहाड़ तरने हैं
ऊंचाइयों के लिए पुकार रहा हूं, तुम्हें चुनौतियां दे रहा हूं। जागो!
            भीतर हैं ये सब
            भीतर के ये ढब बाहर करने हैं
            समुद्र चढ़ने हैं पहाड़ तरने हैं
बड़ी यात्रा करनी है। ऐसे ढील-ढाल करोगे तो कैसे होगा?
            जिंदगी मांगती है तुमसे अधिक से अधिक
            उतनी शक्ति जितनी तुममें है
            जैसे हो तुम में छै
            तो वह तुमसे सात नहीं मांगती
            शाम दे सकते हो तुम
            तो वह तुमसे प्रभात नहीं मांगती
            इसलिए तुम्हारे किए
            जितना हो सकता है करो तुम उतना ही
            पीठ नहीं देना है उसकी मांग को
            बस इतना ही!
बस पीठ मत देना चुनौती को। जब चुनौती उठे तो स्वीकार कर लेना!
            क्षण-क्षण पल-पल खुद को देना
            यह जीवन का अर्थ है
            जितना अधिक दे रहा है जो
            उतना अधिक समर्थ है
            जो जितना ज्यादा देता है
            उतना ज्यादा जीता है वह
            वर्षा मेघ न बरसे तो फिर
            भरा हुआ भी रीता है वह
            तो हम जीवन जिएं
            उंड़ेलें अपने प्राणों की रस-गागर
            नहीं चुकेंगे नहीं भरे हैं
            हर गागर में कितने सागर
            नदी सिवा बहने के क्या है
            जीवन दिए बिना है सूना
            धारा से हरियाली जागे
            तो धारा का बहना दूना
मेरा संन्यास जीविन की कला है। प्रेम को बांटने की व्यवस्था है। यह संन्यास संसार-विरोधी नहीं है। मेरी दृष्टि में परमात्मा और संसार में कोई दुश्मनी नहीं है। कैसे हो सकती है? संगीतज्ञ में और उसके संगीत में दुश्मनी? कवि में और उसकी कविता में दुश्मनी? चित्रकार में और उसके चित्र में दुश्मनी? कैसे हो सकती है? यह उसका नृत्य है। इस नृत्य के विपरीत नहीं जाना है। इस नृत्य में इतनी गहरी डुबकी लगाना है कि नर्तक भी हाथ में आ जाए, कि नर्तक भी पकड़ में आ जाए।
मेरा संन्यास एक नए ही संन्यास का सूत्रपात है। तुम्हारे मन में जरूर पुराने संन्यास की धारणा डोल रही होगी। इसी से तुम भयभीत हो। मेरे संन्यास में भय का कोई भी कारण नहीं।
संन्यास अभय देता है। हिम्मत जुटाओ। साहस करो। चुनौती अंगीकार करो। बस इतना ही खयाल रहे--
            जिंदगी मांगती है तुमसे अधिक से अधिक
            उतनी शक्ति जितनी तुममें है
            जैसे हो तुम में छै
            तो वह तुमसे सात नहीं मांगती
            शाम दे सकते हो तुम
            तो वह तुमसे प्रभात नहीं मांगती
            इसलिए तुम्हारे किए
            जितना हो सकता है करो
            तुम उतना ही है
            पीठ नहीं देना उसकी मांग को
            बस इतना ही!

आज इतना ही।



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