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गुरुवार, 2 मार्च 2017

नेति-नेति-(सत्‍य की खोज)-प्रवचन-12



प्रवचन-बारहवां
नेति-नेति-(सत्‍य की खोज)

मैंने सुना है कि एक बहुत बड़ा राजमहल था। आधी रात उस राजमहल में आग लग गयी। आंख वाले लोग बाहर निकल गये। एक अंधा आदमी राजमहल में था। वह द्वार टटोलकर बाहर निकलने का मार्ग खोजने लगा। लेकिन सभी द्वार बंद थे, सिर्फ एक द्वार खुला था। बंद द्वारों के पास उसने हाथ फैलाकर खोजबीन की और वह आगे बढ़ गया। हर बंद द्वार पर उसने श्रम किया, लेकिन द्वार बंद थे। आग बढ़ती चली गयी और जीवन संकट में पड़ता चला गया। अंततः वह उस द्वार के निकट पहुंचा, जो खुला था। लेकिन दुर्भाग्य कि उस द्वार पर उसके सिर पर खुजली आ गयी! वह खुजलाने लगा और उस द्वार से आगे निकल गया और फिर वह बंद द्वारों पर भटकने लगा!

अगर आप देख रहे हों उस आदमी को तो मन में क्या होगा? कैसा अभागा था कि बंद द्वार पर श्रम किया और खुले द्वार पर भूल की--जहां से कि बिना श्रम के ही बाहर निकला जा सकता था?
लेकिन यह किसी राजमहल में ही घटी घटना-मात्र नहीं है। जीवन के महल में भी रोज ऐसी घटना घटती है। पूरे जीवन के महल में अंधकार है, आग है। एक ही द्वार खुला है और सब द्वार बंद हैं। बंद द्वार के पास हम सब इतना श्रम करते हैं, जिसका कोई अनुमान नहीं! खुले द्वार के पास छोटी-सी भूल होते ही चूक जाते हैं और फिर बंद द्वार पर रह जाते हैं! ऐसा जन्म जन्मांतरों से चल रहा है! धन और यश द्वार हैं--वे बंद द्वार हैं, वे जीवन के बाहर नहीं ले जाते।
एक ही द्वार है जीवन के आग लगे भवन में बाहर निकलने का और उस द्वार का नाम "ध्यान' है। वह अकेला खुला द्वार है, जो जीवन की आग से बाहर ले जा सकता है।
लेकिन वह सिर पर खुजली उठ आती है, पैर में कीड़ा काट लेता है और कुछ हो जाता है और आदमी चूक जाता है! फिर बंद द्वार हैं और अनंत भटकन है।
इस कहानी से अपनी बात मैं इसलिए शुरू करना चाहता हूं, क्योंकि उस खुले द्वार के पास कोई छोटी-सी चीज को चूक न जायें। और यह भी ध्यान रखें कि ध्यान के अतिरिक्त न कोई खुला द्वार कभी था और न है, न होगा। जो भी जीवन की आग के बाहर हैं, वे उसी द्वार से गये हैं। और जो भी कभी जीवन की आग के बाहर जायेगा, वह उसी द्वार से ही जा सकता है।
शेष सब द्वार दिखायी पड़ते हैं कि द्वार हैं, लेकिन वे बंद हैं। धन भी मालूम पड़ता है कि जीवन की आग के बाहर ले जायेगा, अन्यथा कोई पागल तो नहीं है कि धन को इकट्ठा करता रहे-- लगता है कि द्वार है, दिखता भी है कि द्वार है! द्वार नहीं है, बंद है। दीवार भी दिखती तो अच्छा था, क्योंकि दीवार से हम सिर फोड़ने की कोशिश नहीं करते। लेकिन बंद द्वार पर तो अधिक लोग श्रम करते हैं कि शायद खुल जाये! लेकिन धन से द्वार आज तक नहीं खुला है, कितना ही श्रम करें। वह द्वार बाहर ले जाता है और भीतर नहीं ले आता है।
ऐसे ही बड़े द्वार हैं--यश के, कीर्ति के, अहंकार के, पद के, प्रतिष्ठा के। वे कोई भी द्वार बाहर ले जाने वाले नहीं हैं। लेकिन जब हम उन बंद द्वारों पर खड़े हैं, उन्हें देखकर, पीछे जो उन द्वारों पर नहीं हैं, उन्हें लगता है कि शायद अब भी निकल जायेंगे, अब भी निकल जायेंगे! जिसके पास बहुत--बहुत धन है, निर्धन को देखकर लगता है कि शायद धनी अब निकल जायेगा जीवन की पीड़ा से, जीवन के दुख से, जीवन की आग से, जीवन के अंधकार से। जो खड़े हैं बंद द्वार पर, वे ऐसा भाव करते हैं कि जैसे निकलने के करीब पहुंच गये। एक और छोटी-सी कहानी से उनकी बात समझ लेनी जरूरी है।
एक अस्पताल है। उस अस्पताल में, जो ऐसे रोगी हैं, जिनके बचने की कोई उम्मीद नहीं है, केवल उनको ही भर्ती किया जाता है। एक ही दरवाजा है, दरवाजे के पास लंबी दालान है। लंबी दालान पर मरीजों की खाटें हैं। नंबर एक खाट का जो मरीज है, वह कभी-कभी सुबह उठकर कहता है, कैसा सूरज निकला है, कैसे फूल खिले हैं, पक्षी कैसे गीत गा रहे हैं! और सारे लंबे वार्ड के मरीजों को कुछ भी नहीं दिखायी पड़ता। वहां कोई द्वार नहीं, कोई खिड़की नहीं। वे मन ही मन जलते हैं कि यह मरीज कब मर जाये कि नंबर एक की जगह हम पहुंच सकें!
फिर उस मरीज को हृदय का दौरा आया है और सारे वार्ड के मरीज भगवान से प्रार्थना करते हैं कि यह मर जाये और उसकी जगह हमें मिल जाये। वहां से सूरज के दर्शन हमें भी हो जायें। फूल भी खिलते हैं, पक्षी गीत भी गाते हैं, चांद भी दीखता है, तारे भी दिखते हैं। धन्य है वह, उस द्वार पर सब दिखायी देता है। लेकिन वह आदमी बच जाता है और फिर सुबह उठकर कहने लगता है--कितनी सुगंध आती है, कैसी सूरज की किरणें हैं, कैसा आनंद है इस द्वार पर!
फिर दोबारा दौरा आता है उस आदमी को। फिर वे सब प्रार्थना करते हैं कि मर जाये! बार-बार यह होता है, लेकिन वह मरीज मरता नहीं है! और बार-बार वह मरीज जब ठीक हो जाता है तो द्वार के बाहर झांककर द्वार के सौंदर्य की बातें करता है। सारे वार्ड के मरीज प्रतिस्पर्धा,र् ईष्या, जलन से भरे हैं। अंततः वह मरीज मर जाता है। सारे मरीज कोशिश करते हैं कि हमें पहली जगह मिल जाये। रिश्वत देते हैं, सेवा करते हैं डाक्टरों की।
किसी तरह कोई एक मरीज सफल हो जाता है और पहली खाट पर पहुंच जाता है। झांककर बाहर देखता है, वहां भी दीवार है, द्वार के बाहर परकोटे की दीवार है! न वहां सूरज दिखायी पड़ता है, न वहां कोई फूल खुलते हैं, न वहां कभी चांद आता है, न वहां कभी किरणें आती हैं! धक से रह जाती है तबियत। लेकिन अब अगर यह कहे कि नहीं कुछ है तो सारे वार्ड के मरीज कहेंगे, मूर्ख बन गया। सो वह देखता है दीवार को और लौटकर मुस्कुराता है और कहता है, धन्य मेरे भाग्य, कैसा सूरज निकला है, कैसे फूल खिले हैं! और सारे फिर वार्ड के मरीज उसी चक्कर में परेशान हैं कि कब यह मर जायेगा तो हमें वह जगह मिल जायेगी!
वे जो राष्ट्रपति की जगह खड़े हैं, ऐसे ही बंद दरवाजे पर खड़े हैं कि जहां आगे न कोई सूरज है, न कोई रोशनी है, न कोई फूल है। वे जो धन के दरवाजे पर खड़े हैं, ऐसे ही बंद दरवाजे पर खड़े हैं, जहां दीवार है! लेकिन पीछे लौटकर वे कहेंगे, बहुत फूल खिले हैं, सूरज दिख रहा है, चांद दिख रहा है, पक्षी गीत गा रहे हैं! अगर वे यह न कहें तो मूर्ख समझे जायेंगे।
लेकिन कभी-कभी उन द्वारों से भी कुछ लोग लौट पड़ते हैं हिम्मतवर, साहसी और कह देते हैं, नहीं है कुछ। कभी कोई महावीर, कभी कोई बुद्ध लौट आता है उस द्वार से और कहता है, वहां कुछ भी नहीं है।
लेकिन अधिकतर लोग तो अपनी भूल को स्वीकार करने को राजी नहीं होते और उनका यह दंभ हजारों लोगों को पागल बना देता है कि कब हम वहां पहुंच जायें। लेकिन सब द्वार बंद हैं। एक द्वार खुला है, वह ध्यान का द्वार है। और मजे की बात है कि वे सब द्वार बंद हैं, जो बाहर की तरफ खुलते मालूम पड़ते हैं। वह द्वार खुला है, जो भीतर की तरफ खुलता मालूम पड़ता है।
ध्यान का द्वार भीतर की तरफ खुलता है, धन का द्वार बाहर की तरफ खुलता है।
बाहर की तरफ खुलने वाले सब द्वार धोखे के सिद्ध हुए हैं। कोई द्वार बाहर की तरफ नहीं खुलता है, खुल सकता ही नहीं है, बंद ही है। असल में बाहर की तरफ दीवार है, वहां कुछ है ही नहीं खोलने को। खुलता है वह द्वार, तो भीतर की तरफ खुलता है। लेकिन उस द्वार के पास से हम निकल जाते हैं और तब सब छूट जाता है।
भीतरी यात्रा में कठिनाई प्रारंभ हो जाती है, क्योंकि हमें बाहर जाने की जन्म-जन्मांतरों से आदत है। उस रास्ते से हम भली-भांति परिचित हैं; वह पहचाना, जाना-माना है, वहां कोई भूल-चूक का डर नहीं है। यह यात्रा बिलकुल अपरिचित है, यह जो भीतर की तरफ जाते हैं। और ध्यान का द्वार भीतर की तरफ खुलता है। उस द्वार पर स्वामी राम मजाक में कहते थे--उस द्वार पर लिखा है खींचो भीतर की तरफ, मत धकाओ बाहर की तरफ। बाहर की तरफ धकाने से वह और बंद होता है।
हम जो बाहर के दरवाजे के आदी हैं, अगर भीतर के दरवाजे पर पहुंच जाते हैं तो वहां भी धक्के देते हैं। आदत हमारी बाहर की तरफ है। इस भीतर के दरवाजे की जो यात्रा है, वह यात्रा अपने आप में कठिन नहीं है। कठिन इस कारण है कि हमारी आदत बाहर की है और आदतें इतनी खतरनाक सिद्ध हो सकती हैं कि हमें पता ही नहीं चलता। हम अपनी आदत के अनुसार चलते चले जाते हैं। हम केवल आदत में ही जीते हैं और हमारी समूची आदत बाहर की तरफ है। और वही कठिनाई है, अन्यथा कोई कठिनाई नहीं है भीतर की तरफ जाने में।
आदतें हमेशा खतरनाक, मजबूत और यांत्रिक होती हैं कि हमें पता भी नहीं चलता!
रास्ते पर आप चलते हैं। आपको पता भी नहीं कि दोनों हाथ क्यों हिल रहे हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि दस लाख वर्ष पहले आदमी के जो पूर्वज थे, वे चारों हाथ-पैर से चलते थे। बहुत बाद में आदमी दो पैर से खड़ा हुआ। वह जो चार हाथ-पैर से चलने की आदत है, वह अब तक पीछा पकड़े हुए है। अब चलते तो दोनों पैर से हैं और साथ में दोनों हाथ हिलते हैं--बायें पैर के साथ दायां हाथ हिलता है, दायें पैर के साथ बायां हाथ हिलता है! इससे चलने में कोई सहायता नहीं मिलती है, इससे चलने का कोई संबंध नहीं है। लेकिन दस लाख साल पहले आदमी की जो आदत थी, वह पीछा कर रही है, वह पीछा किये जा रही है, वह जड़-आदत अपना काम जारी रखे हुए है! कभी आपने खयाल नहीं किया होगा कि जब हमारे हाथ हिलते हैं तो हम दस लाख साल पुराने आदमी की खबर दे रहे हैं, जो चार हाथ-पैर से चलता था। वह आदत कायम रह गयी। शरीर को पता ही नहीं चला आज तक कि आदमी दो पैर से चलने लगा है। शरीर को पता नहीं, शरीर दस लाख साल पुरानी आदत में ही जी रहा है!
मनुष्य साधारणतः आदत में जीता है और आदत को तोड़ने में कठिनाई मालूम पड़ती है। हमारी भी सब आदतें हैं, जो ध्यान में बाधा बनती हैं।
ध्यान में और कोई बाधा नहीं है, सिर्फ हमारी आदतों के अतिरिक्त।
अगर हम अपनी आदत को समझ लें और उनसे मुक्त होने का थोड़ा-सा भी प्रयास करें तो ध्यान में ऐसी गति हो जाती है, इतनी सरलता से जैसे झरने के ऊपर से कोई पत्थर हटा दे और झरना बह जाये। जैसे कोई पत्थर को टकरा दे और आग जल जाये। इतना ही सरलता से ध्यान में प्रवेश हो जाता है। लेकिन हमारी आदतें प्रतिकूल हैं। थोड़ा-सा इन आदतों के संबंध में प्राथमिक रूप से समझें, फिर कल से हम इनकी गहराइयों में उतरने की कोशिश करेंगे।
हमारी एक आदत है सदा कुछ न कुछ करते रहने की। ध्यान में इससे खतरनाक और कोई दूसरी आदत नहीं हो सकती है।
ध्यान है न-करना। ध्यान है कुछ भी न करना।
और हमारी आदत है कुछ न कुछ करने की! हम जब भी खाली बैठते हैं तो कुछ न कुछ करते हैं! जिस आदमी को हम कहते हैं कि कुछ भी नहीं कर रहा है, उसकी भी खोपड़ी में हम झांकें तो पता चलेगा कि वह बहुत कुछ कर रहा है। आदमी अव्यस्त, खाली होता ही नहीं! जो आदमी खाली हो जाये, वह परमात्मा को पा जाता है।
खाली करने की कला ही ध्यान है।
और हम जानते हैं भरे होने की कला, किसी भी तरह अपने को भरे रखने की कला! अगर कुछ भी नहीं तो आदमी रेडियो खोलेगा, अखबार उठायेगा, चारों तरफ झांककर देखेगा कि कोई मिल जाये और उससे बात करे!
मैं एक ट्रेन में यात्रा कर रहा था। मेरे डिब्बे में एक सज्जन और थे। मैं आमतौर से यात्रा में सोया ही रहता हूं। जैसे ही कमरे के अंदर गया कि मैं सो गया। वह सज्जन बड़े बेचैन दिखायी पड़े, क्योंकि इस इच्छा में होंगे कि मैं जागूं, वे कुछ बात करें। कोई आधे घंटे बाद मैं उठा तो वे तैयार थे। उनकी तैयारी देखकर मैंने फिर आंखें बंद कर लीं तो वे बहुत बेचैन हो गये। फिर मैं आंख बंद किये देखता रहा कि वे क्या कर रहे हैं। वे मुश्किल से जो अखबार लिए थे, उसको कई बार पढ़ चुके थे, उसको उन्होंने फिर से पढ़ना शुरू किया! कई बार पढ़कर भी उन्होंने फिर पढ़ना शुरू किया, फिर उसे नीचे पटक दिया!
मैं आंख बंद करके बीच-बीच में देख लेता हूं कि वे क्या कर रहे हैं। उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही है, वे खिड़की खोलते हैं, फिर खिड़की बंद करते हैं, फिर सूटकेस से कुछ निकालते हैं, फिर अंदर कर देते हैं, फिर बाथरूम में जाते हैं, फिर बाहर जाते हैं!
फिर मुझे हंसी आ गयी। उन्होंने कहा, आप क्यों हंसते हैं? आप अजीब आदमी हैं। चौदह घंटे होने को आये, सोचा था कि कोई आ गया तो थोड़ा साथ होगा और आप हैं कि आंखें बंद किये पड़े हैं और मेरी जान घबरायी जा रही है! आप नहीं होते तो भी एक राहत थी, चलो अकेला हूं।
मैंने कहा, मैं भी अनुभव कर रहा हूं और बहुत आनंद ले रहा हूं, आपके काम देख रहा हूं। ये खिड़कियां क्यों बार-बार खोलते हैं? या तो खोलना हो तो खोल लीजिये, बंद करना हो तो बंद कर दीजिये। यह सूटकेस से आप क्या निकालते हैं बार-बार और अंदर रख देते हैं?
उन्होंने कहा, कुछ भी नहीं कर रहा हूं। आप ठीक से पहचान गये, मैं किसी भी तरह से कुछ करने की कोशिश कर रहा हूं, क्योंकि विरक्त मन बहुत घबराता है।
आप भी अपने संबंध में सोचेंगे तो ऐसी ही दशा पायेंगे, कुछ न कुछ। अगर तीन महीने आपके लिए सब कुछ व्यवस्था कर दी जाये और कहें कि खाली बैठे रहें तीन महीने। आप छत से कूद पड़ेंगे, फांसी लगा लेंगे। तीन महीने कह रहे हैं आप! तीन घंटे बहुत हैं।
कारागृहों में जो लोग बंद किये जाते हैं, उन्हें तकलीफ कारागृह की नहीं होती है। असली तकलीफ बेकाम हो जाने की होती है। इसलिए तो कारागृह में लोग गीता पर टीका लिखते हैं, गीता पर भाष्य लिखते हैं, न मालूम क्या-क्या करते हैं! कोई न कोई काम चाहिए। तो कारागृह में जो लोग चले जाते हैं--किताबें पढ़ते हैं, लिखते हैं! कोई न कोई काम, खाली होना बहुत मुश्किल है!
और जो खाली नहीं हो सकता, वह ध्यान में नहीं जा सकता।
ध्यान के नाम पर भी लोग काम करते हैं! कोई माला फेरता है, कोई राम-राम जपता है, कोई आसन करता है, कोई शीर्षासन करता है! ध्यान के नाम पर बहुत-कुछ करते हैं लोग, जिसका ध्यान से कोई संबंध नहीं है, क्योंकि जब तक आप कुछ करते हैं, तब तक मन तनाव से भरा होता है।
जब आप कुछ भी नहीं करते, तब मन की झील बिलकुल मौन हो जाती है।
जब तक आप कुछ करते हैं, तब तक मन की झील पर तरंगें उठती रहती हैं। जब आप कुछ भी नहीं करते तो झील सो जाती है शांति से। उसी शांति से द्वार खुलते हैं। जब तक आप कुछ करते हैं, तब तक धक्के जारी हैं। आप कुछ कर रहे हैं।
ध्यान रहे, करना मात्र बाहर ले जाने का दरवाजा है, न-करना भीतर का दरवाजा है।
अदभुत है यह बात। अगर कोई एक क्षण को भी न-करने की हालत में रह जाये तो पा लिया सब, जो पाने जैसा है। खुल गये वे द्वार, जो सच में खुल सकते हैं। और पहुंच गये हम वहां, जहां जीवन की संपदा है। एक क्षण कोई भी न-करने से आदमी वहां पहुंच जाता है, जहां जन्म-जन्मांतरों तक करने पर कोई नहीं पहुंचता।
करने से आप सदैव दूसरे तक पहुंच सकते हैं। करने से अपने आप तक नहीं पहुंच सकते। अगर आपके पास मुझे आना हो तो चलना पड़ेगा, क्योंकि आपके और मेरे बीच में फासला है। अगर नहीं चलूंगा तो फासला
पूरा नहीं होगा। लेकिन मुझे मुझ तक ही जाना हो तो चलने की कहां जरूरत है--क्योंकि वहां कोई फासला नहीं है।
अगर दूसरे तक जाना हो तो चलना जरूरी है। अगर अपने तक जाना है तो रुक जाना जरूरी है।
अगर कुछ और पाना है तो कुछ करना जरूरी है। अगर खुद को ही पाना है तो करना जरूरी नहीं है। क्योंकि मैं हूं, मुझे करके पाने का कोई सवाल नहीं है। मैं हूं ही। जो है ही, उसे कुछ करके नहीं पाया जा सकता। जो नहीं है, उसे कुछ करके पाना होता है। अगर धन पाना है तो कुछ करना पड़ेगा। न-करने से धन नहीं मिल जायेगा। अगर यश पाना है तो कुछ करना पड़ेगा, न-कुछ करने से यश नहीं मिल जायेगा।
लेकिन अगर स्वयं को पाना है तो कुछ भी किया तो भटक जाइयेगा, क्योंकि वह है, वह है ही। जब आपको लग रहा है कि वह नहीं है, तब भी वह है। उसे कुछ करके पाने का सवाल नहीं है, उसे न-करके पाना होगा। और यह राज की बात ठीक से समझ लेनी चाहिए। दुनिया की सब चीजें करके पायी जाती हैं, स्वयं को न-करके पाया जाता है।
धर्म न-करने से उपलब्ध होता है, अधर्म करने से उपलब्ध होता है।
अधर्म करने से उपलब्ध होता है। इसलिए कुछ भी करिए, अधर्म होगा। मंदिर बनाइए तो अधर्म होगा, धर्मशाला बनाइए तो अधर्म होगा, कुछ भी करिए, क्योंकि करना ही बाहर से जोड़ता है।
लेकिन एक बार न-करने की हालत मिल जाये तो वह मिल जाता है, जो धर्म है। और यह और मजे की बात है कि जो न-करने को जान लेता है, वह कर्ता है तो भी अकर्ता है। फिर वह कुछ भी करता है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।
महावीर भी चलते हैं, भोजन भी मांगते हैं, बोलते भी हैं, सोते भी हैं, उठते भी हैं, सब करते हैं; लेकिन अकर्ता बने रहते हैं, करने से कोई भी संबंध नहीं रहा।
न-करना ऐसे है, जैसे कोई अभिनेता किसी नाटक में काम कर रहा हो। वह सब करता है और भीतर-भीतर कुछ भी नहीं करता है। वह राम बनता है, और सीता के खो जाने पर छाती पीटकर रोता है! और भीतर--न वह छाती पीटता है, न वह रोता है! वह रावण बन जाता है और लंका के लिए लड़ता है और लंका जल जाती है और रात को मजे से सो जाता है! उसके भीतर कुछ नहीं छूता, अभिनय रह जाता है बाहर।
इसीलिए कृष्ण के चरित्र को हम चरित्र नहीं कहते, कृष्ण के चरित्र को कहते हैं लीला ! सबके चरित्र को चरित्र कह देते हैं। राम के चरित्र को चरित्र को कहते हैं, लेकिन कृष्ण के चरित्र को नहीं कहते हैं! और लीला और चरित्र में कुछ अंतर है। लीला का मतलब है अभिनय। इसलिए कृष्ण जैसा अनूठा आदमी खोजना दुनिया में मुश्किल है। वह सब तरह के काम कर लेता है, क्योंकि चरित्र का प्रश्न ही नहीं है। उसमें सब मामला लीला का है, वह किसी नाटक का हिस्सा है, इससे ज्यादा नहीं है। वह ऐसे काम कर लेता है, जिसकी हम कभी कल्पना नहीं कर सकते। दस औरतें खड़ी होकर नाच रही हैं तो उनके बीच में खड़ा होकर नाच लेता है! हमारी कल्पना के बाहर हो जाता है, यह आदमी क्या कर रहा है!
लेकिन कृष्ण कहते हैं, यह है लीला, इधर कोई चरित्र नहीं है। हम कुछ कर ही नहीं रहे हैं। विकल्प न-करना कायम है, बाहर सब करना चल रहा है।
चरित्र जिस दिन लीला बन जाये, उसी दिन से धर्म शुरू होता है। जब तक चरित्र बना रहे, तब तक अधर्म का हिस्सा होता है। और चरित्र लीला उसी दिन बनता है, जिस दिन भीतर हम अकर्ता को अनुभव कर लेते हैं, जो बिना किये कुछ करने से मिलता है।
ध्यान इसलिए, करना नहीं है और हमारी आदत है करने की! हम कुछ भी पूछें तो हम करने की आदत में हैं। जब कोई हमसे कहे कि कहां जा रहे हो तो हम यह कह सकते हैं कि ध्यान करने जा रहे हैं। हमारी आदत है वह। हम जब ध्यान भी करेंगे--ध्यान "करना' है। क्योंकि हमें पता ही नहीं है कि ध्यान का करने से कोई भी संबंध नहीं है। ध्यान न-करना है।
जापान में एक फकीर था। उसका एक अच्छा-सा आश्रम था। उसके आश्रम की बड़ी ख्याति थी। जापान का सम्राट स्वयं उसके आश्रम को देखने गया था। वह फकीर आश्रम के एक-एक झोपड़े के सामने ले जाकर बताने लगा कि यहां भिक्षु स्नान करते हैं, यहां भिक्षु भोजन करते हैं, यहां भिक्षु विश्राम करते हैं। और सारे झोपड़े में हो आने के बाद--बीच में एक बड़ा भवन था--सम्राट बार-बार पूछने लगा उससे, ठीक है, मगर इस भवन में क्या करते हैं?
वह इस भवन की बात ही न करे, जैसे वह भवन है ही नहीं! फिर सम्राट घूमकर वापस द्वार पर आ गया और वह जो भवन था बीच में, उसकी बात ही न उठायी उस भिक्षु ने!
सम्राट क्रोध से भर गया। द्वार पर अपने घोड़े पर बैठते हुए उसने कहा कि या तो तुम पागल हो या मैं पागल हूं। तुम्हारा आश्रम देखने आया था, तुमने झोपड़े दिखाये कि यहां भिक्षु खाना खाते हैं, यहां स्नान करते हैं--क्या जरूरत है इसको दिखाने की? और वह जो बड़ा भवन बीच में खड़ा है, मैंने तुमसे पच्चीस बार पूछा कि यहां क्या करते हैं और तुम ऐसे बहरे हो जाते हो, जैसे तुमने सुना ही नहीं!
वह भिक्षु फिर भी हंसने लगा। उसने कहा, नमस्कार!
सम्राट ने कहा, तुम्हें सुनायी नहीं पड़ता है, मैं पूछता हूं, इस भवन में क्या करते हैं?
उस भिक्षु ने कहा, माफ कीजिये, आप गलत प्रश्न पूछते हैं तो मैं उत्तर कैसे दूं, क्योंकि उत्तर गलत देने से प्रश्न गलत ही हो जाता है। आप प्रश्न ही गलत पूछते हैं। उस भवन में हम कुछ भी नहीं करते हैं। आप पूछते हैं, वहां क्या करते हैं तो मैं समझ गया कि यह आदमी करने की भाषा समझता है--तो मैंने दिखाया कि यहां स्नान करते हैं, यहां भोजन करते हैं। मैं समझ गया कि यह आदमी करने की भाषा समझने वाला आदमी है। न-करने की भाषा नहीं समझ सकता। वहां हम कुछ भी नहीं करते और तुम पूछते हो कि वहां क्या करते हो! मैं चुप रह जाता हूं कि अब मैं क्या कहूं।
उस सम्राट ने कहा, कुछ भी नहीं करते! कुछ तो करते होंगे? यह बनाया है किस लिए?
उसने कहा, आप माफ करिए। फिर आप कभी आना। वहां सच में ही कुछ नहीं करते। बनाया जरूर है। और अगर मैं आपसे कहूं तो आप शायद नहीं समझ पायेंगे। वह हमारा ध्यान भवन है, मेडिटेशन हाल है।
उस सम्राट ने कहा, ठीक है, तो यह क्यों नहीं कहते कि ध्यान करते हैं!
तो उस फकीर ने कहा, यही तो मुश्किल है। स्नान किया जा सकता है, भोजन किया जा सकता है, व्यायाम किया जा सकता है, लेकिन ध्यान नहीं किया जा सकता ।
"न-करने' का नाम ध्यान है।
हम भी स्नान करने की भाषा समझते हैं। हम सोचते हैं कि ध्यान करना भी कोई क्रिया होगी। कई नासमझ तो यह भी समझाते हैं कि वह भीतरी स्नान है, आत्मिक स्नान है! जैसी शीतलता नहाने से मिलती है, वैसी शीतलता ध्यान से भी मिलती है! लेकिन करने की भाषा में जब तक आप समझेंगे, आप नहीं समझ पायेंगे, क्योंकि करने की भाषा की आदत ही बाधा है।
इन तीन दिनों में इस बात पर खूब खयाल कर लेना। ध्यान करना जिसे कह रहे हैं, वह न-करना है। उस वक्त कुछ भी नहीं करना है। सब करना छोड़ देना है। सिर्फ रह जाना है। यह समझ में नहीं आता! हम रास्ते पर चलते हैं, वह चलना हुआ; भोजन करते हैं, वह भोजन करना हुआ; सोते हैं, वह सोना हुआ; बैठते हैं, वह बैठना हुआ; उठते हैं, वह उठना हुआ--ये सब क्रियाएं हैं। इन सारी क्रियाओं को करने वाला भीतर कोई है।
जब हम क्रिया कर सकते हैं तो अक्रिया क्यों नहीं कर सकते हैं? अगर मैं हाथ खोल सकता हूं तो हाथ बंद क्यों नहीं कर सकता? अगर मैं आंख खोल सकता हूं तो आंख बंद क्यों नहीं कर सकता? जो भी हम कर सकते हैं, उससे उलटा भी हो सकता है।
अब तक हमने जीवन में करने की ही एकमात्र दिशा जानी है, न-करने की हमने कोई दिशा नहीं जानी। तो हमें पता ही नहीं! जब हम कहते हैं किसी से प्रेम की बात तो भी हम उससे कहते हैं कि मैं प्रेम करता हूं! हालांकि जिनको भी कभी प्रेम का अनुभव हुआ होगा, उन्हें पता है कि प्रेम किया नहीं जाता। वह क्रिया नहीं है।
आप प्रेम कर ही नहीं सकते। प्रेम होता है, किया नहीं जा सकता।
लेकिन हम तो प्रेम को भी करने की भाषा में सोचते हैं! हमारी करने की आदत इतनी मजबूत हो गयी है कि हम जो भी सोच सकते हैं, वह करने की ही भाषा में सोच सकते हैं। हम तो यह भी कहते हुए सुने जाते हैं कि श्वास लेते हैं! हालांकि आपने कभी श्वास नहीं ली अपने जीवन में अभी तक और न कभी आप ले सकते हैं। श्वास चलती है। और अगर आप श्वास लेते होते तो मरना मुश्किल हो जाता और मौत दरवाजे पर खड़ी हो जाती और आप कहते कि खड़ी रहो, हम तो श्वास ले रहे हैं, हम श्वास लेते रहेंगे। लेकिन हमें पता है, मौत हो दरवाजे पर--फिर श्वास-बुआस लेते नहीं; गयी, गयी। श्वास किसी आदमी ने कभी नहीं ली। लेकिन हम ब्रीदिंग को भी क्रिया बनाये हुए हैं! कहते हम ऐसे ही हैं, जैसे श्वास-प्रश्वास भी एक क्रिया है! क्रिया नहीं है, एक घटना है। हम नहीं कर हैं उसे, हो रही है।
वह जो हमारे भीतर बैठा हुआ है, उसे करने की कोई जरूरत नहीं है। वह है। और वह सदा से है। और उसके मिटने का भी कोई उपाय नहीं है। वह सदा होगा। उसका होना अगर जानना है तो करने से मुक्त हुए बिना जानना मुश्किल है। क्योंकि जब तक हम करने में उलझे होते हैं, तब तक होने का पता नहीं चलता। जो अपने करने में उलझा हुआ है, उसको पता नहीं चलता कि क्या है भीतर। जब सारी क्रिया छूट जायेगी एक क्षण को भी, सिर्फ होना रह जाता है--जैसे हवाएं चल रही हैं, और वह वृक्ष है, पत्ते हिल रहे हैं। वृक्ष पत्ते हिलायेंगे। हवाएं चल रही हैं, वृक्ष के पत्ते हिल रहे हैं, श्वास चल रही है--यह सब हो रहा है।
ध्यान की अवस्था का मतलब है होने में छूट जायें। जो हो रहा है, होने दें। विचार भी चल रहे हैं तो चलने दें। आप कौन हैं रोकने वाले? जो भी हो रहा है--पत्ते हिल रहे हैं, हवा चल रही है, आकाश में तारे निकले हैं; कोई बच्चा रो रहा है, कोई देख रहा है, चिल्ला रहा है; भीतर विचार चल रहे हैं, धड़कन चल रही है, श्वास चल रही है, खून बह रहा है--सब चल रहा है। इस सब चलने को होने दें। आप कुछ भी न करें, आप बस रह जायें। अगर एक क्षण को भी--यह नये क्षण का स्पंदन भी अनुभव हो जाये रह जाने का--तो ध्यान में गति हो गयी। वह जो भीतर खुलने वाला द्वार है, वह खुल गया। उसकी एक झलक मिल जाये, फिर कोई नहीं है फिर हम पहचान गये रास्ता, फिर तो हम जा सकेंगे और गहरे और गहरे। और गहरे।
करने की आदत से थोड़ा सावधान रहें। भूलकर भी न सोचें कि हम ध्यान करने जा रहे हैं। बैठें तो वह भी क्रिया है, करें तो वह भी क्रिया है, आयें तो वह भी क्रिया है।
आदमी की सारी भाषा क्रिया है और परमात्मा की भाषा अक्रिया है।
और वह तो कुछ भी नहीं कर रहा है। वह जो लोग कहते हैं कि परमात्मा ने दुनिया को बनाया है, निहायत नासमझ हैं, क्योंकि वे अपनी भाषा में सोच रहे हैं--करने की भाषा में, कि परमात्मा ने दुनिया बनायी, जैसे कुम्हार घड़ा बनाता है!
परमात्मा ने दुनिया कभी नहीं बनायी। परमात्मा से दुनिया बन रही है। यह कोई क्रिया नहीं है कि परमात्मा बैठा है और दुनिया बना रहा है। दुनिया बन रही है। यह बनाने की घटना घट रही है। कोई बना नहीं रहा है कहीं बैठकर। जैसे आप श्वास ले रहे हैं, बस ऐसे ही जीवन का प्रवाह चलता है। करने का भ्रम आदमी को पैदा हो गया है! न पक्षियों को यह भ्रम है, न पौधों को यह भ्रम है, न आकाश के बादलों को यह भ्रम है, न चांदत्तारों को यह भ्रम है; किसी को यह भ्रम नहीं है। आदमी को यह भ्रम है कि हम करते हैं और यह करने का भ्रम जीवन में पत्थर की तरह बैठ जाता है!
इससे बड़ा कोई झूठ नहीं कि हम करते हैं। सब होता है। और जिस व्यक्ति को ध्यान में जाना है, उसे ठीक से समझ लेना चाहिए कि सब हो रहा है। तो यह भी प्रयत्न न करें कि मैं शांत हो जाऊं, क्योंकि शांत करने वाले प्रयत्न से ज्यादा अशांत करने वाली संसार में और कोई वस्तु नहीं है। यह भी प्रयत्न न करें कि मैं पवित्र हो जाऊं। यह भी प्रयत्न न करें कि मैं भगवान को उपलब्ध हो जाऊं। आपका कोई प्रयत्न कारगर नहीं होगा। वहां तो वे पहुंच जाते हैं, जो कुछ भी नहीं करते। जिनका यह भ्रम ही छूट जाता है कि हम कुछ कर सकते हैं।
आगे इसी बात को ध्यान-पूर्वक बोध कराने का प्रयत्न किया जा रहा है। इस बोध को जितना गहरा होने देंगे, उतना ध्यान में परिणाम होगा। ध्यान में तो हम सुबह बैठेंगे, रात बैठेंगे और इस प्रयोग में उसी द्वार पर परिश्रम करना है। इस प्रयोग काल में यह दरवाजा चूक न जायें, उसके लिए खयाल रखें। चौबीस घंटे बोध रखें कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं, हो रहा है। चल रहा हूं तो समझें कि चल रहा हूं, यह हो रही है क्रिया। श्वास ले रहा हूं, तो यह हो रही है। भूख लगी है तो हो रही है। प्यास लगी है तो हो रही है।
प्रयोग काल में सतत इस बात का स्मरण रहे कि ये चीजें हो रही हैं। मैं कर नहीं रहा हूं। आप हैरान हो जायेंगे कि इतनी विश्राम की दशा चित्त को उपलब्ध हो जायेगी, इतनी शांति हो जायेगी, सब कुछ इतना ठहर जायेगा भीतर, इतनी गहराई पैदा होगी, जो कभी नहीं खयाल में आयेगी कि इतनी गहराई हो सकती है। और फिर ध्यान के लिए हम बैठेंगे तो उसमें वह झलक शीघ्रता और गति से पैदा हो जायेगी।
लेकिन चौबीस घंटे जो भी हो रहा है, उसको इस तरह लें कि वह हो रहा है। और सच में वह हो ही रहा है। वही है सत्य। कभी आपने भूख लगायी है आज तक? कभी नींद ला सके हैं आप? वह सब हो रहा है। कभी एकाध दिन नींद लाने की कोशिश करें--तो उस रात नींद नहीं आयेगी, जिस रात आप नींद लाने की कोशिश करेंगे! जिनको नींद नहीं आती, उनका यही कुल जमा कारण है कि वे नींद लाने की कोशिश में बुरी तरह दीवाने हैं। अब नींद लाने की कोशिश से नींद आ सकती है कभी? सब कोशिश नींद को तोड़ देगी, क्योंकि नींद विश्राम है और कोशिश श्रम है। कहीं भूख लग सकती है लगाने से? कि प्यास लग सकती है, कि प्रेम जग सकता है, कि श्वास चल सकती है? कुछ भी नहीं हो सकता। जिंदगी में जो भी गहरा है, वह चुपचाप हो रहा है, वह अपने आप हो रहा है। फूल खिल रहे हैं अपने आप, कोई गुलाब फूल खिला नहीं रहा है। और गुलाब का अगर दिमाग खराब हो जाये और फूल खिलाने लगे तो समझ लेना कि उसमें फूल नहीं खिलेंगे। फूल खिलते हैं।
पूरी जिंदगी सहज एक धारा है, सिर्फ आदमी के दिमाग को छोड़कर। वहां एक पत्थर खड़ा हो गया है। और उस पत्थर ने सारी अड़चनें डाल दीं हैं। वह पत्थर यह है कि हम कर रहे हैं! हम ध्यान भी करते हैं और प्रार्थना भी करते हैं! और यह करने में लग जाते हैं और तब उलझ जाते हैं। कहीं भी हम भीतर नहीं पहुंच पाते हैं।
इस प्रयोग में नहीं कुछ कर रहे हैं, बस हैं, इसका भाव। इसका भाव जितना गहरा हो सके। अभी यहां से जाते वक्त भी, चलते वक्त भी ऐसा ही अनुभव करना कि चलना हो रहा है। होटल की तरफ आप जा नहीं रहे हैं! जाना हो रहा है। आपका सारा व्यक्तित्व जा रहा है। सोने के लिए बिस्तर पर जा रहा है, आपका सारा व्यक्तित्व--आप नहीं ले जा रहे हैं।
ये उतनी ही प्राकृतिक घटनाएं हैं, जैसे हवा चले और पत्ते हिल रहे हों। इसी तरह आप दिन भर में थक गये हैं और शरीर का रोआं-रोआं मांग कर रहा है कि बस, बस अब बस। वह पूरा शरीर मांग कर रहा है, सो जाओ। वह आपकी मांग नहीं है, वह उतनी ही प्राकृतिक मांग है, जैसे कोई फूल गिर गया हो, जैसे कोई पत्ता सूख गया हो और हवा में गिर गया हो। यह उतनी ही प्राकृतिक घटना है, यह उतनी ही सहज घटना है। जब पेट में भूख लगती है तो कोई कुछ कर रहा है? वह सब प्राकृतिक हो रहा है।
यह हम नहीं कहते कि पानी गर्म हो जाये और भाप बनकर उड़ने लगे। तो हम थोड़े ही कहेंगे कि पानी भाप बनकर उड़ रहा है! हम कहते हैं, पानी भाप बन गया है।
जिंदगी के जो नियम चारों तरफ हैं, वे ही नियम हम पर भी हैं। हम जिंदगी में कोई अपवाद नहीं हैं। आदमी प्रकृति का एक हिस्सा है। और जो व्यक्ति यह समझ लेगा कि हम प्रकृति के हिस्से हैं, वह इसी वक्त ध्यान में जा सकता है-- इसी क्षण। क्योंकि तब यह खयाल मिट गया है कि कुछ हमें करना है। तब चीजें होंगी। ध्यान आयेगा,आप ला नहीं सकते।
और ध्यान आये, और उस द्वार से आप चूक न जायें तो उसके लिए कुछ स्मरण रख लेना है। पहला यह कर्तृत्व का, करने का खयाल बिलकुल जाने दें। कभी ध्यान की दुनिया में प्रवेश करना है, तो मैं कुछ कर सकता हूं, वह खयाल जाने दें। प्रयोग काल में यह स्मरण रखेंगे तो बहुत अदभुत अनुभव होंगे। अगर चलते वक्त आपको यह ख्याल आ जाये कि चल नहीं रहा हूं, यह चलने की क्रिया उसी तरह हो रही है, जैसे चांद चल रहा है, पृथ्वी चल रही है, तारे चल रहे हैं। ठीक यह उसी तरह चलने की क्रिया हो रही है।
यह समझें। यह सारा का सारा जगत जैसे चल रहा है, उसी में मेरा चलना भी एक हिस्सा है। तो आप एकदम चौंकेंगे, कुछ नया ही अनुभव करेंगे, जो आपने कभी अनुभव नहीं किया था। आप अंदर से पायेंगे कि कुछ और ही बात है--कोई दूसरा आदमी खड़ा है, आप नहीं। खाना खाते वक्त खाने की क्रिया हो रही है, स्नान करते वक्त स्नान की क्रिया हो रही है।
चीजें हो रही हैं, आप कुछ भी नहीं कर रहे हैं।
अनायास एक गहरी शांति चारों तरफ घेर लेगी, भीतर एक सन्नाटा छा जायेगा। और इस प्रयोग काल में कोई कारण नहीं कि जिस द्वार पर हम आमतौर से बचकर निकल जाते हैं, उस द्वार पर हम रुक जायें। वह द्वार हमें दिख जायेगा, हम बाहर हो जायेंगे। यह हो सकता है, यह हुआ है, यह किसी से भी हो सकता है। और इसके लिए कोई विशेष पात्रता नहीं चाहिए। बस एक मिटने की पात्रता चाहिए।
होने का खयाल बहुत ज्यादा है कि "मैं' हूं। वही बाधा डालता है और कोई बाधा नहीं डालता है। न कोई पाप रोकता है किसी को, न कोई पुण्य पहुंचाता है किसी को। पाप भी रोकता है, क्योंकि पापी का खयाल है कि मैं कर रहा हूं। अगर पापी का यह खयाल मिट जाये कि मैंने किया और पापी अगर यह जान ले कि हुआ तो पापी भी इसी रास्ते से जायेगा इसी क्षण। और पुण्यात्मा को अगर पता चले कि हुआ, तो पुण्यात्मा भी इसी क्षण पहुंच जायेगा।
न पाप रोकता है, न पुण्य पहुंचाता है। मैं कर रहा हूं--यह, यह अहंकार भर रोकता है।
पापी को भी यही रोकता है, पुण्यात्मा को भी यही रोकता है। वह कर्तृत्व का खयाल रोकता है। और हम कर्तृत्व के खयाल से इतने भरे हैं कि हमें लगता है कि अगर हम थोड़ी देर कुछ न करेंगे तो हम मिट ही जायेंगे, मर ही जायेंगे!
लेकिन बिना कुछ किये, कितना बड़ा संसार चल रहा है; बिना कुछ किये, कितना विराट आयोजन चल रहा है! बिना कुछ खबर दिये, बिना कोई इशारा किये, कितने तारे चल रहे हैं! कितनी पृथ्वियां आयेंगी तारों में, कितने जीवन रहेंगे--अंतहीन है! कुछ पता नहीं, इतना सब चल रहा है बिना किसी के कुछ किये!
अगर भगवान कुछ करता तो भूलें-चूकें भी होतीं। करने में भूल-चूक होती है। कभी भगवान को नींद भी लग जाती है, कभी दो तारे टकरा जाते हैं, कभी गलत सूचना मिल जाती है। न मालूम क्या-क्या होता है! लेकिन भगवान कुछ नहीं कर रहा है, इसलिए कोई गलती नहीं होती। न-करने में गलती हो कैसे सकती है? चीजें हो रही हैं, चीजों का एक सहज स्वभाव होता है, उससे हो रही हैं।
धर्म का अर्थ है स्वभाव। और स्वभाव का अर्थ है जो होता है, किया नहीं जाता।
ध्यान स्वभाव में ले जाने का द्वार है। और इसलिए ध्यान, करने से नहीं होता है। इसलिए जहां-जहां लोग सिखाते हैं कि माला फेरो और ध्यान हो जायेगा; राम-राम जपो, ध्यान हो जायेगा; ओम जपो ध्यान हो जायेगा; गायत्री जपो ध्यान हो जायेगा--वहां किसी को कुछ भी पता नहीं कि ध्यान का मतलब क्या है!
ध्यान कुछ भी करने से नहीं होता है। ध्यान न-करने से होता है। कुछ न करो और ध्यान हो जायेगा।
कुछ कर रहे हैं हम, इसलिए ध्यान नहीं हो पा रहा है। कुछ कर रहे हैं और करने में उलझे हैं, इसलिए ध्यान नहीं हो पा रहा है।
बुद्ध के जीवन की घटना बहुत अदभुत है। बुद्ध ने छह वर्ष तक कठिन तपश्चर्या की। जो भी किया जा सकता था, वह बुद्ध ने किया। उपवास किये, शरीर का दमन किया। और ऐसी शरीर की हालत हो गयी कि नदी में नहाने उतर रहे थे तो घाट पकड़ कर चढ़ने की हिम्मत न थी! एक जड़ को पकड़कर लटक गये, बेहोशी आ गयी! इतनी ताकत न थी शरीर में! छह वर्ष जो भी किया जा सकता था, सब किया। और मजा यह कि छह वर्षों में कुछ भी नहीं मिला! कुछ मिला ही नहीं, कौड़ी भर कुछ नहीं मिला उनको। क्यों उस नदी में नहाते वक्त बेहोशी आ गयी? कमजोरी के कारण! शरीर बिलकुल हड्डियां रह गया!
उस बेहोश हुए क्षण में बुद्ध ने सोचा कि नदी पार नहीं कर सकता हूं और भवसागर पार करने की कोशिश कर रहा हूं! कैसे होगा? नदी का पार करना मुश्किल हो गया है। छह वर्ष जो भी किया था, प्रतीत हुआ व्यर्थ गया। कुछ सार नहीं पाया, कुछ मिला नहीं। उस दिन थककर सब छोड़ दिया। निकलकर नदी के पार एक वृक्ष के नीचे बैठे थे तो सुजाता ने खीर दी। वह बुद्ध को नहीं दी थी खीर। उसने कुछ मनौती मानी थी उस झाड़ के देवता के लिए। और जब सांझ वहां आयी तो बुद्ध को देखकर समझी, देवता प्रसन्न हुआ है और झाड़ से निकला है। बुद्ध, दूसरे दिन कभी वह आयी होती तो उपवासे रहते। आज उन्होंने सब छोड़ दिया है। भूख लगी थी।
भूख लगानी थोड़े पड़ती है। उपवास करना पड़ता है। भूख लगती है। ध्यान रहे, उपवास करना पड़ता है। और करने में मन को कभी भय नहीं हो सकता है, क्योंकि करना हमारा किया हुआ है। उससे अहंकार मजबूत होता है। इसलिए उपवास करने वाले अखबारों में खबर छपाते हैं कि फलाने महाराज ने इतने उपवास किये! लेकिन फलाने महाराज को इतनी भूख लग रही है, इसको छपवाने की कोई जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि भूख लगती है। उसमें महाराज के करने जैसा कुछ भी नहीं है, वह अपने आप आती है। वह भगवान से आती है। इसलिए भूख का कोई हिसाब नहीं रखता है, उपवास का हिसाब रखना पड़ता है।
उस दिन से बुद्ध ने करना छोड़ दिया। थक गये थे। अब कहा, छह वर्ष बहुत कर लिया! कुछ नहीं करना है। वृक्ष के नीचे बैठे थे, भूख लगी थी। उस लड़की ने कहा, लायी हूं खीर। तो पेट ने कहा कि लो--बुद्ध ने खीर ले ली।
यह पहला मौका था, जब उन्होंने भोजन के साथ सरल व्यवहार किया। सरल व्यवहार जीवन के साथ नहीं होता है, उसमें भी कठिनाई है! कोई आया। सुजाता तो शूद्र है, बुद्ध ने नहीं पूछा कि कौन लाया, क्योंकि भूख बिलकुल नहीं जानती कि शूद्र ने बनाया कि ब्राह्मण ने बनाया। वह सिर्फ आदमी का अहंकार जानता है, किसने बनाया। कौन लाया, क्या है, वह कोई भूख तो कुछ जानती नहीं। भूख के लिए न कोई शूद्र है। भूख के लिए भोजन चाहिए।
बुद्ध ने पूछा ही नहीं कि तू कौन है! सुजाता नाम था उसका। उससे पता चल जाता है कि वह शूद्र थी, नहीं तो सुजाता नाम नहीं रखती। हमेशा हमारे सब नाम उलटे होते हैं। जो हम नहीं होते, उसको नाम में बताने की कोशिश करते हैं। वह अच्छी जाति से पैदा नहीं हुई थी, इसलिए सुजाता नाम रहा होगा। अच्छी जाति वाला आदमी काहे के लिए सुजाता नाम रखेगा। वह जो भीतर है, उसको छिपाने की कोशिश चलती है!
सुबह पांच-छह बजे बुद्ध उठे। बुद्ध को भूख लगी थी, ठीक है, भोजन कर लिया! फिर नींद आयी, सो गये!
यह नींद के साथ भी पहला सदव्यवहार था। इसके पहले इतनी देर सोना चाहिए और इतने वक्त सोना चाहिए और इतने वक्त उठना चाहिए, ये सब विचार थे!
आज नींद आयी तो बुद्ध सो गये! आज उन्होंने नहीं कहा कि अभी नहीं, अभी मेरा समय नहीं हुआ है। और अभी सो जाऊंगा तो फिर ज्यादा नींद हो जायेगी।
साधु-संन्यासी के सब नियम होते हैं। इसलिए साधु-संन्यासी कभी कहीं नहीं पहुंचते। नियम वाला आदमी कभी कहीं पहुंच नहीं सकता, क्योंकि नियम वाला आदमी आदतें बनाता है।
स्वभाव के नियम होते हैं अपने। उसको हमें नहीं जानना पड़ता है। जब नींद आयी तो शरीर कह रहा है, प्राण कह रहे हैं, सो जाओ। और अगर जागने का वक्त आयेगा तो शरीर और प्राण कहेंगे, उठो। न अपनी तरफ से सोना, न अपनी तरफ से जागना। और तब वह नींद उपलब्ध होगी जो परमात्मा की है। जब शरीर कहे, भोजन कर लो तो कर लेना। जब भूख कहे, खा लो तो खा लेना; जब भूख कहे नहीं, तो उठ जाना। तब वह भूख मिलेगी जो परमात्मा की है। नहीं तो फिर हमारी कृत्रिम भूखे भी हैं!
जैसे हम घड़ी को देखकर कहते हैं, ठीक दस बज गये, समय हो गया भोजन का। वह हमारी भूख है। अगर घड़ी किसी ने एक घंटा पीछे कर दी और आपको पता न हो तो आपको जब दस बजेंगे तो भूख लग जायेगी! हालांकि अभी नौ बजे हैं या ग्यारह बज गये हैं। वह घड़ी देखकर भूख चलती है! यह भूख हमारी है!
बुद्ध को नींद आ गयी, सो गये। आज उन्होंने सब छोड़ दिया। सब--जो उन्होंने किया था, सब छोड़ दिया। आज उन्होंने तय कर लिया था कि अब कुछ करूंगा नहीं। छह साल बहुत कर लिया था। उन्हें पता भी नहीं था कि जो करने से नहीं हुआ, वह नहीं करने से हो सकता है! उस रात वे सो गये, नींद आयी। सुबह पांच बजे के करीब नींद खुली, आंख खुली, आखिरी तारे डूबने के करीब थे आकाश में। वे उसी वृक्ष के नीचे पड़े रहे और उन डूबते हुए तारों को देखते रहे--एक-एक तारा डूबता गया। सन्नाटा सुबह का, रात की गहरी नींद। सब करने का खयाल छोड़ दिया, कुछ करने को न बचा।
राजा कोई थे वह, तो छोड़ चुके थे छह साल पहले। वह सब धन, यश जो कुछ था, छह साल पहले छोड़ दिया था। फिर नयी दौड़ पकड़ ली थी मोक्ष की, निर्वाण की! आज वह भी छोड़ दी। अब करने को कुछ भी नहीं था। कहना चाहिए बिलकुल बेकार। यह जो बेकार है, वह बेकार नहीं है। कुछ न कुछ करता है।
बुद्ध अब बिलकुल बेकार थे, जिसको कहना चाहिए--न कोई राज्य था, न कोई यश था, न कोई धन था, न कोई मोक्ष था, न कोई परमात्मा था, न कोई आत्मा थी। कुछ पाना न था। खाली बैठे थे।
वह आखिरी तारा डूबा और बुद्ध खड़े हो गये और वह मिल गया! छह साल कोशिश करने से नहीं मिला! और जब लोग पूछने आये कि कैसे मिला
तो बुद्ध ने कहा, यह मत पूछें, कैसे मिला! क्योंकि वैसे तो बहुत कोशिश करने से नहीं मिला। आज कैसे मिला, कहना मुश्किल है, क्योंकि मैंने कुछ किया ही नहीं था। आज तो मैं था ही नहीं, क्योंकि मैं कुछ कर रहा ही नहीं था और हो गया। और तब बुद्ध बाद में कहने लगे, करने से नहीं मिलेगा, न-करने से मिलता है।
जब भी मिला है, न-करने से मिला है।
लेकिन बुद्ध को समझने वाले कोशिश करते हैं! तो वे कहते हैं कि क्या किया बुद्ध ने! वह जो छह साल तक उन्होंने किया, वे ही उनके भिक्षु कर रहे हैं! और वह जो आखिरी रात नहीं किया था, वह तो उनकी पकड़ में नहीं आता! क्योंकि न-करने का क्या मतलब?
वह जो छह साल किया था, वह चल रहा है सारी दुनिया में! उपवास किया था! यह किया था, वह किया था! लेकिन वह बात चूक गयी थी। जो हुई थी घटना, वह न-करने में हुई थी। वह करने में कभी नहीं हुई थी। चाहे छह साल करो या चाहे छह लाख साल करो, वह करने से कभी नहीं होती। वह हमेशा न-करने से होती है, क्योंकि जो भीतर है, वह तो है ही। तुम करने में उलझे रहते हो, इसीलिए वह दिखायी नहीं देता।
इस प्रयोग काल में न-करने की ओर कदम उठाना है और करने का खयाल ही छोड़ देना है। कुछ करना ही नहीं, तीन दिनों में जो होता है, होने दें। भूख लगे तो खाना खा लेना, नींद आये तो सो जाना। अपनी तरफ से बुलाना भी मत, अपनी तरफ से मौन भी मत होना। जब बोलने का मन हो तो बोल लेना, जब मौन का मन हो मौन हो जाना। जब मौन का मन हो तो चाहे सारी दुनिया कहे कि बोलना तो मत बोलना। और जब बोलने का मन हो तो अगर कोई न बोलता हो तो दरख्तों से बोल लेना। जो हो, उसे होने देना। अपने को ऐसे छोड़ देना, जैसे सूखे पत्ते हवाओं में छोड़ देते हैं। हवाएं पूरब जाती हैं, पत्ते पूरब चले जाते हैं। हवाएं पश्चिम जाती हैं, पत्ते पश्चिम चले जाते हैं। हवाएं आकाश में उठा देती हैं, पत्ता ऊपर उठ जाता है। हवाएं नीचे गिरा देती हैं, पत्ता नीचे गिर जाता है।
लाओत्से से किसी ने पूछा, तूने कैसे पाया? उसने कहा, मैं सूखा पत्ता हो गया। हवाएं जहां ले जाने लगीं, हमने कहा, चलो। हमने अपनी जिद्द छोड़ दी कि इधर जायेंगे। हवाएं जहां जाने देंगी, हमने कहा, वहीं चलेंगे। और जैसे ही हमने छोड़ दी जिद्द, वैसे ही हमने पा लिया! प्रयत्न से नहीं, निष्प्रयत्न से; कर्म से नहीं, अकर्म से; चेष्टा से नहीं, निश्चेष्टा से; दौड़ने से नहीं, रुकने से; खोजने से नहीं, खड़े हो जाने से।
इस प्रयोग में तो धीरे-धीरे आखिरी तारे डूबते चले जायेंगे, फिर आखिरी तारा भी डूब जायेगा और मौन सन्नाटा रह जायेगा। फिर यहां तो हम विधिवत बैठेंगे। और विधि भी बड़ी गड़बड़ चीज है, उससे कोई संबंध नहीं है। आपका मन हो तो जहां आप हैं, बैठे रहें। नहीं मन हो तो कहीं भी उठकर चल दें। बिस्तर पर बैठ जायें। किसी वृक्ष के नीचे घंटे-दो घंटे, और रात भर भी हो तो क्या बिगड़ सकता है।
एक रात सुकरात रात भर एक पेड़ के नीचे खड़ा पकड़ा गया! घर भर के लोग परेशान हो गये कि सुकरात कहां है! सब जगह खोजा। मित्रों के घर खोजा, मित्रों के घर में नहीं था। उन्होंने कहा, सुकरात दिन भर दिखायी नहीं पड़ा, हम खुद भी चिंतित हैं कि वह कहां है। बाजार में खोजा। लेकिन दुकानें बंद होने के करीब आ गयी थीं। सुकरात कहीं भी नहीं था! फिर तो बहुत घबरा गये, रात भर लोग जागते रहे, सुकरात गया कहां?
सुबह-सुबह किसी ने खबर दी कि वह एक वृक्ष के नीचे खड़ा है और उसकी आंखें ठहर गयी हैं! उसकी पलक झपकती नहीं और वह आकाश को देख रहा है! और हमें डर लगता है कि उसको छूना भी है कि नहीं। फिर वह उसी हालत में खड़ा है रात भर से!
घर के लोग गये। उसे देखा लोगों ने और चुपचाप बैठ गये। किसी की हिम्मत न पड़ी कि उसके पास जाकर उसे हिलायें, क्योंकि वह इतना शांत था।
अगर बहुत शांत आदमी के पास अशांत आदमी भी जाये तो स्वयं शांत होकर बैठ जाता है।
फिर सुकरात हिला, डुला। सुबह हो गयी, सूरज निकल आया, फिर वह घर की तरफ चल पड़ा तो लोगों ने चिल्लाया कि तुम देख ही नहीं रहे हो, हम कैसे तुम्हारे पास यहां बैठे रहे! तुम कर क्या रहे थे? क्या हो गया तुम्हें?
सुकरात ने कहा, किया तो बहुत, रात न-करने की बात हो गयी। कल आकर खड़ा हुआ था झाड़ के नीचे और फिर पता नहीं क्या हुआ, क्योंकि फिर मैंने कुछ नहीं किया। लेकिन जो करने से नहीं हो सका, आज रात हो गया।
आप अभी जायें और मन हो जाये तो झाड़ के नीचे बैठ जायें। वक्त पर सब होता रहेगा, वह सब होने पर छोड़ दें। आप कहीं भी बैठ जायें--सुबह, रात, दोपहर। और इस तरह जीयें प्रयोगकाल में, जैसे कोई आदमी पानी में बह रहा हो। ध्यान रहे, तैरना नहीं है।
पानी में एक आदमी तैरता है, तैरने में उसे कुछ करना पड़ता है। वह कहता है, उसे पहुंचना है, तो वह तैरकर पहुंचने की कोशिश करता है। एक दूसरा आदमी कूद जाता है और बहता है, तैरता नहीं। वह कहता है, नदी जहां ले जाये, हम राजी हैं। हम नहीं हैं, नदी जहां ले जाये--बहता है। इस प्रयोगकाल में बहने की फिक्र रखें।
और रोज तो हम जिंदगी में तैरने की फिक्र करते हैं, तैर रहे हैं! किसी को दिल्ली की तरफ तैरना है, और वहां तैरता चला जा रहा है! किसी को कहीं और तरफ तैरना है, वह वहां तैरता चला जा रहा है! हम जिंदगी में तैरते हैं। तैरना एक आदत है। तैरना एक काम है।
बहना--तैरना नहीं।
इस प्रयोगकाल में बहना है। एकदम हलके, उड़े जा रहे हैं। और जिंदगी में कुछ बोझ नहीं है, तो उस दरवाजे पर चूक नहीं पायेंगे, जहां कुछ भी किया हुआ बाधा बन जाता है। इस प्रयोगकाल में बहेंगे। जो हो रहा है, होने देंगे। और जो आ रहा है, उसे आने देंगे।


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