अध्याय—4 -(मेरी नई दूनियां)
अब मेरे लिए तो ये एक नई ही दुनिया थी। एक दम से
अनजानी अनसमझी अनसुलझी एक तिलिस्म की तरह से मुझे लग रही थी। जिसे मैं समझ नहीं पा
रहा था। मैं इसके बारे में ना के बराबर रही जानता था। मां जी सुबह जब उठाती तो मेरी समझ में नहीं आता
था ये मानव इतनी जल्दी से उठ कर क्या करता है। पापा जी भी सुबह सवेरे ही स्कूटर
ले कर बहार चले जाते थे। में बिस्तरे में लेटा—लेटा ये सब देखता रहता पर में इन्हें
एक तारतम्यता में जोड़ नहीं पा रहा था। ये सब एक टूकडे-टूकडे मेरी समझ में नहीं
आते थे। जैसे भिन्न-भिन्न छाया चित्र अलग-अलग रख दिये जाये तो उनसे कोई चलचित्र
नहीं बन सकता। मेरा छोटा सा मस्तिष्क इसके लिए तैयार नही था। इनका ताल मेल नहीं
बिठा पा रहा था। कि ये क्या करते कहां जाते है।
फिर बच्चों को उठाया जाता स्कूल भेजने
के लिए, तब मुझे पहली बार ये सब
देख कर बड़ा अचरज हुआ। क्योंकि ये सब मेरे लिए नया और जिज्ञासा का प्रश्न था। उन
बच्चों को सोते से क्यों उठाना पड़ा। हमे तो हमारी मां कभी नहीं उठाती क्या
हमारी स्वतंत्रता इन मनुष्यों से कुछ भिन्न है। बच्चो के चेहरे कैसे उदास ओर
मायूस होते जब वे स्कूल के लिए जाते माने उन्हें कोई सज़ा दी जा रही है।
हम तो जितनी देर सोते रहते वहीं हमारे लिए सुरक्षा का
समय माना जाता। मां जब खाने की तलाश में बहार निकल जाती तो हम एक दूसरे से सट कर
चुप चाप पड़े रहते ये किसी ने हमें बताया या समझाया नहीं पर हम अंदर से अपने को
असुरक्षित महसूस करते थे। खास कर मां के जाने के बाद। और जब मां आ जाती तो फिर और
कोई बात कहां से दिमाग में आती टुट पड़ते उसके दुध पीने के लिए। यहीं सब मैं
बिस्तरे के अंदर से लेटा—लेटा देखता रहता। कि क्या हो रहा है। शायद मुझे भी उठाया
जाए। पर मैंने चैन कि सांस ली की मुझे उस गर्म विस्तर से बहार नहीं निकाला गया। तब
मुझे पहली बार लगा कितना अच्छा हुआ मैं इन लोगों से भिन्न हूं। पर वो मेरी नासमझी
थी धीरे—धीरे वो मेरी पीडा बन गई। कि मैं वैसा क्यों नहीं हुं। पर उस समय किसी भी
बच्चे को स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता था। ये बातें उसके चेहरे से साफ झलकती ही
नहीं थी। देखी जा सकती था। कैसे मन मार कर उठते थे। आंखें भी नहीं खोलते थे। माँ जी को कितनी मेहनत और सर खपाई करनी पड़ती, मैं बिस्तरे की कौर से लेटा सब देखता रहता थी। कैसे वरूण,
हिमांशु भैया आँख बन्द किये दूध का गिलास लिये बैठे होते थे। कैसे
एक—एक काम के लिए चार—चार बार हिलाना—डुलाना उन्हें पकड़ कर फड़—फड़ाना पड़ता था।
अब कोई एक काम माँ जी के सर पर थोडे ही था। कहीं नाश्ता जल रहा हैं, उसे देखना है। कहीं कोई टूथब्रश मुहँ में लिए चलाना हीं भूल गया है।
उस से कैसे सफेद—सफेद झाग के गोल—गोल गोले बना—बना कर
थूकते थे। मेरा भी मन करता में भी ऐसा करू। और मेरे उसे कई बार करने की नाकाम
कोशिश की और असफल भी हुआ डाट भी खाई। कहीं कोई महाराज बाथ रूम में नहाने गया तो
नहाते—नहाते उस बालटी के पास धुनी रमा कर ही आंखें बंध किये बैठा हैं! इतने काम की मारा मारी और एक माँ जी देखो कैसे सम्हालती
होगी। उनकी इन्हीं छोटी—छोटी बातों से में उन का कायल होता चला गया। मेरी नजरों
में धीरे—धीरे मनुष्य का सम्मान बढ़ता चला गया। मैं सोचता ये लोग कहां जाते है, इतनी सुबह अलसाये से, पीछे लटके बसते के बोझ को
लिए।
वहां जाने की उन बच्चों के चेहरों पर कोई खुशी नहीं
होती थी। फिर भी उन्हें भेजा जाता था। और वो मन मार कर जाते थे। मुझे लगा यहीं
मनुष्य का रोग है। वह स्वभाव के विपरीत चल दिया। मन से बुद्धि से जो नैसर्गिक
नहीं है। प्रकृति के विरोध में खड़ा हो गया। ये सुख सुविधा हासिल उसने जरूर की है
पर उसे इसकी बहुत बडी कीमत देनी पड़ी। वो जितना प्रकृति से दुर होता चला गया। उस
का विरोधी हो गया। उसका शेष शुरू कर दिया उस से लगवा खत्म हो गया। क्योंकि वो तो
संसाधन के सहारे जीवित था। मनुष्य न बहुत बड़ी कीमत चुकाई है इन झूठी सुविधाओं के
कारण। जो एक दिन उसके लिए धातकी सिद्ध होंगी। प्रकृति की पूर्णता में जो छेद कर
अपने को महान समझता है यहीं इसकी मूर्खता है। परंतु में ना समझ इसके बारे में कुछ
कहने का हक नहीं रखता। परंतु केवल एक विचार जो में नाजुक से मन में उठा है उसे कहा
रहा हूं।
क्या सीखने जाते
होग़े, क्या माँ—स्वामी जी इन्हे
यहाँ नहीं सिखा सकते ? मुझे या हमारी जाती के किसी प्राणी को
ये आफ़त नहीं करनी पड़ती, मुझे ही ले लीजिए मेरी मां ने मुझे
तो ऐसा कुछ नहीं सिखाया। फिर भी मैं जीवन के वो सब तोर तरीके सिख गया जो मेरी जाति
के पास है। फिर मनुष्य को ये सब कुछ क्या करना पड़ता है। उन बच्चों को पुरी नींद
सोने नहीं दिया जाता। सुबह की नींद का कोई जवाब नहीं होता। सारी दुनियां की खुशी
भी उसे दे कर लेने का मन करता है। और ये बेचारे बच्चे....दया आती है इन पर। ये
दौड़ें खेले कितना भला लगे इनको। तो वहां ऐसा कुछ होता नहीं होगा जो इन के मन को
भा जाए। यही है मनुष्य का समाज वाद एक क्रांति जो कर के अपने का महान समझताहै। क्योंकि
जो उसने अर्जित किया है वह अपनी आने वाली पीढ़ी को दे जाता है। चाहे वह धन हो या ज्ञान
या जानकारी परंतु आने वाली पीढी उसका उपयोग भी कर सके यही काफी है। इसी परंपरा में
मनुष्य ने पूरे संसार के प्रणायो से आगे वाजी मार ली।
वरना तो फिर ये इतना मन मार कर नहीं जाते। एक भी बच्चा
ऐसा नहीं देखोगे जो स्कूल जाते कि उसके चेहरे पर खुशी हो। आरे प्रत्येक मां बाप
उन्हें वहां भेज कर गर्व महसूस करते है।
मैं देखता जिस दिन इन बच्चें को स्कूल नजाना होता था। उस दिन हम सब जंगल में
घूमने जाते थे। उस दिन बिना उठाये कितनी जल्दी उठ जाते। आज क्या हो गया आज तो
उनहें सोना चाहिए था। परंतु काम ओर खेल में यही फर्क है। कैसे मजे में जूते पहन कर डंडा ले कर खुशी से
कूदते थे। उस दिन उनके चेहरे कि खुशी ही और होती थी। तब मुझे अपने घर अपनी मां की
याद आती।
मुझे जंगल में जाना इस लिए भी अच्छा लगता में सोचता
क्या पता मेरी मां मुझे मिल जाए तो मैं इस को छोड़—छाड़ कर अपनी मां के पास भाग
जाऊँ। और मुझे लगता देखो ये मेरे घर जाते है तो कितने खुश हो जाते है। और स्कूल
जाते हुए कैसा रोता सा चेहरा लिए जाते है। यानि मेरा जंगल इनके स्कूल से ज्यादा
अच्छा है। आनंद, परितुष्टि देना वाला है।
उसमें फैली दूर तक अविछिन्न कामलता जो आपके पेरो के माधम से आपके पूरे शरीरही
नहीं अंतस तक गहरे उतर जाती। उस उसकी छूअन से बच नहीं सकते थे। आपके शरिर में कैसे
परछन्नता फैल जाति। एक निनाद सा आपके ह्रदय में बज रहा होता। ओर आपको ऐसा लगता की
दूर वह उतुंग पहाडी टीलो के पास जो आकास है उसे अभी उड़ कर पकड़ लू.... आपके पैर
आपके पंख बन जाते...... ओर मैं अपने आप को
बहुत सौभाग्य शाली समझता था। ये सब से मैं बच गया। स्कूल से बच्चे जब दोपहर को
थके मादे, उदास लम्बे मुहँ लटकाये घर आते तो, सुबह जो झक सफेद कपडे सिलवटों से भरे मैले कुचैले बन चूके होते थे। सुबह नींद
मैं भी जो चेहरे ताजा शांत, मुलायम दिखते थे, दोपहर तक कैसे थके, उदास और रूखे—रूखे नजर आने लगते
थे। मुझे लगता इतनी थकान, मैले कुचैले चेहरो के लिए ये लोग
इतनी मेहनत मशक्कत करते हैं। धन्य है मनुष्य तू, मुझे उसकी बुद्धि
पर दया आती, पर मैं था ही कितना और कितना मेरा दिमाग़ कौन
सुनता मेरी बात।
बच्चे जब स्कूल चले जाते, माँ और स्वामी जी दूकान चले जाते जो पास ही थी। घर का मैन
दरवाज़ा बंद कर दिया जाता, अब मैं अकेला क्या दीवारों के साथ खेलूँ।
मैं अकेला खेल भी कितना सकता हूँ, बचपन मैं खेल ही प्रत्येक
प्राणी विकास का केन्द्र हैं। वहीं उसके तन—मन को भरता है, उसमे
सहसा जीवन दाव पेच के रंग भरता हैं। यहीं कुदरत का नियम है, यहीं
उसकी संरचना हैं। परन्तु मनुष्य के साथ रह कर तो सब नियम काम नहीं आते। फिर भी
अंदर से कोई चीज़ धक्के मार रही थी, वो शाश्वत का नियम क्या
जाने महाराज जंगल मैं झाड़—झुण्ड मैं धक्के खा रहे हैं या महल के नरम मुलायम गद्दों
पर सो रहे हैं।
दिन कितने लम्बे लगते खत्म जो होने का नाम ही नहीं
लेते थे.....मेरी उर्जा पूरा दिन अपने में सिकुडी रहती...वह दौड़ना चाहती, खेलना चाहती परंतु यहां मेरे जैसा कोई नहीं था। न मेरी
भाषा न मेरा आकार प्रकार......कितनी गहरी तन्हाई थी.......जो मुझे अंदर तक परो
रही थी। परंतु इस के सोचने से क्या होने वाला था.......पीडा ओर दर्द में जीना एक
बात है ओर उसका साक्षात्कार करना अलग ही आयाम है। जो लोग जीते है वह उसे ढोते
है.....ओर जो भोगते है वह उसके पास चले जाते है.....एक साक्षित्व लिए
हुए......मेरे साथ भी यही हो रहा था.....एक निस्यह सा में केवल उन सौपानों को
निहाता भर था जो मेरी पकड़ के परे थे.....न में उन्हें जान सकता था ओर ने ही में
उनपर चढ़ सकाता था।
आज इति
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