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शनिवार, 4 मार्च 2017

04 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा - (मनसा-मोहनी)

अब ये नया संसार मेरे लिए तो एक नई ही दुनिया थी। एक दम से अनजानी अनसमझी, अनसुलझी एक तिलिस्म की तरह से मुझे लग रही थी। जिसे मैं कभी भी नहीं समझ सकता था। मैं इसके बारे में ना के बराबर रही जानता था। मम्मी जी सुबह जब उठाती तो मेरी समझ में नहीं आता था ये मानव इतनी जल्‍दी से उठ कर क्‍या करता होगा। अभी सारी प्रकृति सो रही है तो ये क्यों नहीं सोता। पापा जी भी सुबह सवेरे ही स्‍कूटर ले कर बहार चले जाते थे। मैं बिस्‍तरे में लेटा—लेटा ये सब देखता रहता था। परंतु मैं कारण अकारण की एक तारतम्‍यता जोड़ नहीं पा रहा था। ये सब एक टुकड़े-टुकड़े में फैला मेरी समझ में नहीं आ रहा था। जैसे भिन्‍न-भिन्‍न छाया चित्र अलग-अलग रख दिये जाये तो उनसे कोई चलचित्र नहीं बन सकता। मेरा छोटा सा मस्‍तिष्‍क इसके लिए तैयार नही था। इनका ताल मेल नहीं बिठा पा रहा था। कि ये क्‍या करते कहां जाते है। फिर बच्‍चों को उठाया जाता वे अलसाये से आंखें मलते उठते, कितना अत्याचार है बच्चों पर। इस मनुष्य को समझ क्यों नहीं आता की बच्चा जितना अधिक सोएगा उतना ही स्वस्थ रहेगा। कहां भेजने के लिए उन्हें तैयार किया जाता था।

ये तो काफी दिनों बाद मेरी समझ में आया था। परंतु मुझे पहली बार ये सब देख कर बड़ा अचरज हुआ था। क्‍योंकि ये सब मेरे लिए नया और जिज्ञासा भरा प्रश्न था। उन बच्‍चों को सोते से क्‍यों उठाना पड़ रहा था। हमें तो हमारी मां कभी नहीं उठाती थी, क्‍या हमारी स्‍वतंत्रता इन मनुष्‍यों से कुछ भिन्‍न थी। सुबह बच्‍चों के चेहरे कैसे उदास और मायूस होते जब वे स्‍कूल के लिए जाते थे। मानो स्कूल में जाना उनके लिए कोई उमंग नहीं उन्‍हें कोई सज़ा दी जा रही थी।

हम तो जितनी देर सोते रहते वहीं हमारे लिए सुरक्षा का समय माना जाता था। मां जब खाने की तलाश में बहार निकल जाती तो हम एक दूसरे से सट कर चुप चाप पड़े रहते थे। ये किसी ने हमें बताया या समझाया नहीं पर हम अंदर से अपने को असुरक्षित महसूस करते थे। खास कर मां के जाने के बाद। और जब मां आ जाती तो फिर और कोई बात कहां से दिमाग में आती टूट पड़ते उसके दूध पीने के लिए। यहीं सब मैं बिस्तरे के अंदर से लेटा—लेटा देखता रहता। कि क्‍या हो रहा है यहां पर। शायद मुझे भी उठाया जाए। पर मैंने चैन कि सांस ली की मुझे उस गर्म विस्तर से बहार नहीं निकाला गया। तब मुझे पहली बार लगा कितना अच्‍छा हुआ मैं इन लोगों से भिन्‍न हूं। पर वो मेरी नासमझी थी धीरे—धीरे वो मेरी पीड़ा बन गई। कि मैं वैसा क्‍यों नहीं हूं। पर उस समय किसी भी बच्‍चे को स्कूल जाना अच्‍छा नहीं लगता होगा। ये बातें उसके चेहरे पर लिखी हुई साफ झलकती थी। उनका यूं नींद के उन्माद में ही उठना, लगता था मनुष्य नहीं कोई यंत्र जा रहा था। कैसे मन मार कर उठते थे वो बेचारे। आंखें भी नहीं खोल पाते थे बंद आंखों से ही कितने काम कर लेते थे। मम्मी जी को कितनी मेहनत और सर खपाई करनी पड़ती उस सब के साथ। मैं बिस्तरे की कौर से लेटा सब देखता रहता थी। कैसे वरूण, हिमांशु भैया आँख बन्द किये दूध का गिलास लिये बैठे होते थे। कैसे एक—एक काम के लिए चार—चार बार हिलाना—डुलाना पड़ता था मम्मी जी को। अब कोई एक काम मम्मी जी के सर पर थोड़े ही था। कहीं नाश्ता जल रहा हैं, उसे देखना है। कहीं कोई टूथब्रश मुंह में लिए खड़े-खड़े ही सो रहा था। कैसा मूर्ति वत खड़ा दांतो को रगड़ना हीं भूल जाते थे।

उस से कैसे सफेद—सफेद झाग के गोल—गोल गोले बना—बना कर थूकते थे। मेरा भी मन करता में भी ऐसा करू। और मैंने उसे कई बार करने की नाकाम कोशिश की और असफल भी हुआ डाट भी खाई। कहीं कोई महाराज बाथ रूम में नहाने गया तो नहाते—नहाते उस बालटी के पास धुनी रमा कर ही आंखें बंध किये बैठा था! इतने काम की मारा मारी और एक मम्मी जी देखो कैसे सम्हालती होगी। उनकी इन्‍हीं छोटी—छोटी बातों से में उनके प्यार का दीवाना होता चला गया था। मेरी नज़रों में धीरे—धीरे मनुष्‍य का सम्‍मान बढ़ता ही चला गया। मैं सोचता ये लोग कहां जाते है, इतनी सुबह अलसाये से, पीछे लटके बसते के बोझ को लिए।

वहां जाने की उन बच्‍चों के चेहरों पर कोई खुशी नहीं होती थी। फिर भी उन्‍हें भेजा जाता था। और वो मन मार कर जाते थे। मुझे लगा यहीं मनुष्‍य का रोग है। वह स्‍वभाव के विपरीत चल दिया है। मन से बुद्धि से जो नैसर्गिक नहीं था। परंतु वह प्रकृति के विरोध में खड़ा हो गया। ये सुख सुविधा हासिल उसने जरूर की थी, पर उसे इसकी बहुत बडी कीमत देनी पड़ी। वो जितना प्रकृति से दुर होता चला गया। उस का विरोधी हो गया। उसका शोषण करना शुरू कर दिया। उससे उसका जुड़ाव खत्म हो गया था। क्‍योंकि वो तो संसाधन के सहारे से ही जीवित था। मनुष्‍य न बहुत बड़ी कीमत चुकाई है इन झूठी सुविधाओं के कारण। जो एक दिन उसके लिए बहुत ही धातक सिद्ध होंगी। प्रकृति की पूर्णता में जो छेद कर अपने को महान समझता है, यहीं इसकी मूर्खता थी। परंतु मैं ना समझ प्राणी इसके बारे में कुछ कहने का हक नहीं रखता हूं। लेकिन केवल एक विचार जो मेरे नाजुक से मन में उठा था, उसे तो कह रहा हूं।

क्या सीखने जाते होंगे ये बच्चे वहां पर, क्या मम्मी—पापा जी इन्हें यहाँ नहीं सिखा सकते थे? मुझे या हमारी जाती के किसी प्राणी को ये आफ़त नहीं करनी पड़ती थी। ये सब हमारे लिए कितना भला था। मुझे ही ले लीजिए मेरी मां ने मुझे तो ऐसा कुछ नहीं सिखाया। फिर भी मैं जीवन के वो सब तौर तरीके सिख गया जो मेरी जाति के पास थे। फिर मनुष्‍य को ये सब कुछ क्‍यों करना पड़ रहा था। उन बच्‍चों को पुरी नींद सोने नहीं दिया जाता। सुबह की नींद का कोई जवाब नहीं होता। सारी दुनियां की खुशी भी उसे दे कर लेने का मन करता है। और ये बेचारे बच्‍चे....दया आती है इन पर। ये दौड़ें खेले कितना भला लगे इनको। तो वहां ऐसा कुछ होता नहीं होगा जो इन के मन को भा जाए। यही है मनुष्‍य का समाज वाद एक क्रांति जो कर के अपने का महान समझता है। क्‍योंकि जो उसने अर्जित किया है, वह अपनी आने वाली पीढ़ी को दे जाता है। चाहे वह धन हो या ज्ञान या जानकारी परंतु आने वाली पीढी उसका उपयोग भी कर सके यही काफी था। इसी परंपरा में मनुष्‍य ने पूरे संसार के प्रणायो से आगे वाजी मार ली थी।

वरना तो फिर ये इतना मन मार कर नहीं जाते। एक भी बच्‍चा ऐसा नहीं देखोगे जो स्‍कूल जाते हुए कि उसके चेहरे पर खुशी हो। और प्रत्‍येक मां बाप उन्हें वहां भेज कर गर्व महसूस करते है। मैं देखता जिस दिन इन बच्चे को स्‍कूल न जाना होता था। उस दिन हम सब जंगल में घूमने जाते थे। उस दिन बिना उठाये कितनी जल्‍दी उठ जाते थे। ये कैसा विरोधाभास था, आज क्‍या हो गया इन्हें, आज तो उन्हें सोना चाहिए था। परंतु काम और खेल में यही फर्क है। कैसे मजे में जूते पहन कर डंडा ले कर खुशी से कूदते थे। उस दिन उनके चेहरे कि खुशी ही और होती थी। तब मुझे अपने घर अपनी मां की बहुत याद आती थी।

मुझे जंगल में जाना इसलिए भी अच्‍छा लगता में अंदर से सोचता था। क्‍या पता किसी दिन मेरी मां मुझे मिल जाए। तो मैं इन सब को छोड़—छाड़ कर अपनी मां के पास भाग जाऊँ। और मुझे लगता देखो ये लोग भी मेरे घर (जंगल) जाते है तो कितने खुश हो जाते है। और स्‍कूल जाते हुए कैसा रोता सा चेहरा लिए जाते हैं। यानि मेरा जंगल इनके स्‍कूल से ज्‍यादा अच्‍छा है। एक आनंद, एक परितुष्टि देना वाला था। उसमें फैली दूर तक अविछिन्‍न कोमलता जो आपके पेरो के माधम से आपके पूरे शरीर ही नहीं अंतस तक गहरे उतर जाती है। आप उसकी इस चूम्बकीय छुअन से बच नहीं सकते थे। आपके शरीर में कैसे परछिन्‍नता- एक मीठा सा उच्छवास, एक परितोषता सा फैला महसूस होगा। वहां जाने मात्र से आपके मन में एक निनाद सा आपके ह्रदयतंत्र में बजना शुरू हो जायेगा। और आपको ऐसा लगेगा की दूर वह उतुंग पहाडी टीलो के पास जो आकाश है उसे अभी उड़ कर पकड़ लूं। आपके पैर आपके पंख बन जाते है कुछ क्षण के लिए। और मैं अपने आप को बहुत सौभाग्यशाली समझता था। इन सब से जो इन बच्चों के साथ होता था उससे मैं बच गया था। स्‍कूल से बच्चे जब दोपहर को थके मादे, उदास लम्बे मुँह लटकाये घर आते थे, सुबह जो वह झक सफेद कपड़े पहन कर गए थे। आते-आते वह सिलवटों से भरे मैले कुचैल बन चूके होते थे। सुबह नींद मैं भी जो चेहरे ताजा शांत, मुलायम दिखते थे, दोपहर तक कैसे थके, उदास और रूखे—रूखे नजर आने लगते थे। मुझे लगता इतनी थकान, मैले कुचैले चेहरो के लिए ये लोग इतनी मेहनत मशक्कत करते हैं। धन्य है मनुष्य तू, मुझे इसकी बुद्धि पर दया आती थी। पर मैं था ही कितना और कितना मेरा दिमाग़ कौन सुनता मेरी इस बात को। सब मेरी इस मूर्खता पर हंसते जरूर।

बच्चे जब स्कूल चले जाते, मम्मी पापा जी दुकान पर चले जाते थे। जो हमारे घर के पास ही थी। घर का मैन दरवाज़ा बंद कर दिया जाता था। अब मैं अकेला क्या दीवारों के साथ खेलूँ। मैं अकेला खेल भी कितना सकता था, बचपन मैं खेल ही प्रत्येक प्राणी विकास का केन्द्र होता हैं। वहीं उसके तन—मन को भरता है, उसमे सहसा, जीवन दाव पेच के रंग भरता है। यहीं कुदरत का नियम है, यहीं उसकी संरचना हैं। परन्तु मनुष्य के साथ रह कर तो सब नियम काम नहीं आते थे। फिर भी अंदर से कोई चीज़ धक्के मार रही थी, वो शाश्वत का नियम यहां काम करता भी है या नहीं। यहां तो मनुष्य के अपने नियम ही चलते है। प्रकृति तो कहीं दूर खड़ी केवल देखती रहती थी ये सब। आप जरा सोचो प्रकृति भी वहां कितनी लाचार थी, असहाय थी। क्या जाने हमारे वो नियम जो प्रकृति ने हम सब को दिए है केवल जंगल मैं झाड़—झक्कड़ों मैं ही उलझ कर रह गए होंगे। वही धक्के खा रहे होंगे और केवल वहीं के प्राणियों पर ही अपना चलन चालू रखते होंगे। वह इन शहरों की गलियों या महल के नरम मुलायम गद्दों पर आने से डर रहे होंगे।

दिन कितने लम्‍बे लगते थे, खत्‍म जो होने का नाम ही नहीं लेते थे। मेरी उर्जा पूरा दिन अपने में सिकुड़ती रहती थी। मेरी उर्जा दौड़ना चाहती, खेलना चाहती परंतु यहां मेरे जैसा कोई नहीं था। न मेरी भाषा न मेरा आकार प्रकार, कितनी गहरी तनहाई थी। जो मुझे अंदर तक तरेर रही थी एक सूखी मिट्टी की तरह चटका रही थी। परंतु इस तरह के सोचने से क्‍या होने वाला था। पीड़ा और दर्द में जीना एक बात है और उसका साक्षात्कार करना अलग ही आयाम था। जो लोग जीते है वह उसे ढोते है.....और जो भोगते है वह उसके पास चले जाते है। एक साक्षित्‍व लिए हुए, मेरे साथ भी यही हो रहा था। एक निस्सहाय सा मैं केवल उन सोपानों को निहारता भर रहता था। जो मेरी पकड़ के परे थे, न मैं उन्हें जान सकता था और ने ही उन पर चढ़ कर यात्रा ही सकता था।

भू....भू....भू

आज इतना ही।


 

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