मेरा जन्म दिल्ली कि अरावली पर्वत श्रृंखला के घने जंगल मैं हुआ था। जो तड़पती दिल्ली के फेफडों को ताजा हवा देने के साथ-साथ उसे जीवित रखे हुए थी। न जाने यह कैसे आज भी पर्यावरण के उन भूखे भेडीयों से, घूंघट की ओट में एक छुई—मुई सी दुल्हन बन कर अपने आप को बचाए हुए थी। बचाए हुए ही नहीं थी, वह अपने आप को सजाने-संवारने के साथ—साथ इठलाती मस्त मुस्कराती सी भी दिखती थी। ये किसी चमत्कार से कम नहीं था, वरना तो पर्यावरण के दुश्मन उसके अस्तित्व को कब का खत्म कर चूके होते। आज भी इस जंगल के अंदर गहरे बरसाती नाले, सहमल, रोंझ, कीकर, बकाण, अमलतास, ढाँक और अनेक जंगली नसल के पेड़ों की भरमार थी। कितने पशु पक्षी आज भी इसकी शरण में विचरण करते ही नहीं इठलाते से आपको दिख जायेगें। गीदड़, खरगोश, जंगली गाय, नीलगाय, मोर, तीतर, ऊदबिलाव, सांप, बिच्छू, जंगली कुत्ते, व भेड़िया के अलावा और न जाने कितने ही पशु पक्षी मिलेगें आपको। सर्दी के दिनों में झाड़ियाँ, कीकर, ढाँक के छोटे बड़े पेड़ सभी अपने पत्तों को गिरा कर, कैसे एक दूसरे में समा जाना चाहते थे। कैसे दूर से देखने में वह समभाव लिए खड़े नजर आते थे। जब तक कोई बहुत जानकार नहीं हो तो कहां पहचान पाता उनकी विविद्यता को या उनके विभेद को। कि यह रौंझ है या रौंझी....कीकर है या बबूल...कैर है या गूगल सब कैसे एक रूप ले खड़े कितने रमणीय लगते थे।
रात भर ठिठुरन के बाद सुबह की पहली किरण पेड़-पौधों की ऊपर की फूलगिंयों को छुई नहीं की नीचे कि कोमल अमराई तक सिहर उठती थी। पेड़ पौधे प्रायः अपनी फूल पत्तियों में ही सजीवता नहीं रखते वह अपने स्त्रोत के प्रति भी उतने ही सजग रहते है। किस तरह रात की ठिठुरन के साथ-साथ चाँद की चाँदनी को भी अपनी पूर्णता में पिरोये रहते है। रात भर कण—कण कर नहलाई ओस की एक—एक बूँदों को सूर्य की किरणें फैली नहीं की वो उसे कैसे दूर छिटक देना चाहती थे। पूरी प्रकृति रात मैं कैसे अलसाई सी, सिहरी सी, एक अविचल सी अकंठा लिए साथ चलती सी लगती थी। श्याम को आप उसके पास से गुजरो तो कैसे छटांक, सिहर सिमट जाना चाहेगी। और वही डाल दिन के उजाले मैं कैसे आपके अंग—संग को छूकर या उसे पकड़ कर मानो कुछ कहना चाह रही हो। कैसे दिन के उजाले में उसमें बाल सुलभ चंचलता आ जाती है। आपके छुअन और अनंतरता से मुग्ध हो लहराता परितोष भरी मुस्कराती—खिलखिलाती सी प्रतीत होती आपको दिखाई देगी। एक फैली प्रसन्नता उसके रौये रेसे में अंदर तक समाई सी प्रतीत होती थी।
उसी अरावली की कंदरा में झाड़—झंखाड़ से ढ़ंकी एक गहरी खाई मैं मेरा जन्म हुआ था। जिसके किनारे एक बहुत बड़ा सेमल का पेड़ थे। परन्तु शरद ऋतु के कारण वो पत्ते विहीन खड़ा भी अपनी गौरव लीला कह रहा था। कैसे ये प्रकृति उस उथले गहरे नाले के आस पास आपने होने की कथा लिखता सा प्रतीत हो रहा थी। उन विशाल सहमल की शाखा प्रशाखा दूर दराज तक फैली पसरी पड़ी थी। हजारों पक्षियों के झूंड उस पर बैठ कैसा कलरव गान गा रहे थे। दूर लालिमा अंबर में दिखाई दी नहीं की उसकी फुलंगियों पर प्रकाश की किरणें चमक उठती थी। वह गहरी खान अजय-जंगल में शिरमोर थी। उस खान को अपनी गहराई पर अति गर्व था। पत्थरों की उबड़—खाबड़ और गहराई के कारण सूर्य का प्रकाश पूर्ण यौवन पर आने के बाद ही वहां आने का साहास जुटा पाता था। फिर भी भेड़—बकरी चराने वाले गडरियों को हमारे होने की भनक मिल ही गई होगी। क्या रहस्य था इस गहरी खान का। मनुष्य कि भेदती निगाह इन कंटक-कीकरों को भी भेद गई, शायद मेरी मां को आते जाते उन लोगों ने कभी जरूर देख लिया होगा। फिर मनुष्य तो मनुष्य ही है पूरी पृथ्वी का सर्वोपरि प्राणी, मेरी माँ इतनी सतर्क और चपल होने पर भी उनकी आँखों में धूल झोंक नहीं पाई। उन्होंने मेरी माँ को दूध या कुछ खाने का लालच देकर उसकी सतर्कता को कम कर दिया होगा। शायद वो भूख से बेहाल रही होगी, हम पाँच—पाँच पिल्ले उसे दिन रात नोचते जो रहते थे।
क्या हम अपने नजदीक वालों पर अधिक विश्वास नहीं करते है, या उसके हाथों अपनी सुरक्षा के कवच को ढीला नहीं छोड़ देते है। इस शब्द जहर के वाश (विश+वाश) का मैंने ही नहीं मेरी मां ने भी पहला फल चखा था। एक दिन मैं अपनी मां की छत्र छाया से दूर कर दिया गया। उधर मेरी माँ ने मुझे और मेरी बहन को खो कर भी कोई सबक नहीं सिखा होगा। शायद फिर इसी क्रम को बार—बार दोहराया गया होगा। मेरी माँ बार—बार धोखा खाकर भी क्या संभल गई होगी। इस मजबूरी की जड़ कहीं लाचारी या लालच में दबी रही होगी कहीं। जब हम माँ के मुलायम थनों से एक दूसरे पर चढ़ कर दूध पीते थे, कितना सुखद स्पर्श लगता था। सर्दी में जो अलसाया पन यहां-वहां छितरा पड़ा था। वह पुरवा हवा में, हमें कैसे अन्दर तक आह्लादित, प्रसन्न, हर्षित कर जाती थी। पुरी प्रकृति ठिठुरती, नवयौवना सी कैसे सिहर—सिहर कर इठलाती प्रतीत होती थी। कैसे हम एक दूसरे में गूंथे लिपटे सोते रहते थे। कैसे प्रेम एक दूसरे पर लिहाफ का काम करता था।
फिर अचानक एक दिन किन्हीं कठोर हाथों ने मुझे दबोच लिया, ये मेरा किसी मनुष्य का पहला स्पर्श था। भय कि लकीर मेरे पूरे शरीर में दौड़ गई, मैंने आंखें खोल कर देखना चाहा, मेरे मुँह से प्यांऊ..ऊँ..उ...प्याऊ....ऊ.....की ध्वनि के साथ एक दर्द भरी चीख निकल गई। मुझे और मेरी बहन को उन्होंने अपने हाथों में उठा लिया था। मेरे चीखने और रोने से, यानि पि..या......ऊ, पि.....याऊं की आवाज से शायद वो घबरा गये और तेजी से भागने लगे, मैंने समझने की बहुत कोशिश की ये सब क्या हो रहा था। परन्तु मेरा नन्हा सा मस्तिष्क अभी इस सब के लिए तैयार नहीं था। अच्छा हुआ मेरी आवाज मेरी माँ के कानों तक नहीं गई वरना शायद ये लोग उसको भी घायल कर देते। ये तीन—चार थे, फिर इनके हाथों में बड़े—बड़े डंडे भी थे। वो हमें लेकर तेजी से भागे, मैं अपनी नन्हीं आँखों से जो देख रहा था। वो मेरे मस्तिष्क के लिए एकदम नया अनुभव था।
परंतु कही मेरा अचेतन ये जरूर जान गया की अब जीवन खतरे में था। ये प्रकृति के देन ही हो सकती है जो प्रत्येक प्राणी को उसने सहज रूप प्रदान की जाती है। उसके जीवन रक्षण के लिए। कैसे हर चीज पीछे दौड़ती जा रही थी। पेड़, झाड़ियाँ सबको जैसे कोई पीछे धकेल रहा हो, मानो उन्होंने अपने को पृथ्वी की पकड़ से मुक्त कर लिया था। वो अब बिना पंखों के पीछे की और दौड़ते चले जो रहे थे। चल हम खुद रहे होते है परन्तु मन को कैसे भ्रम या धोखा होता है कि सब चीजें पीछे की और भागी जा रही थी। अपनी नन्हीं आंखों से मैंने इस भ्रम—सत्य को पहली बार देखा था।
मेरा रंग भूरा मटियाला और बादामी था। मेरी बहन एक दम शाह काली थी। काले चमकते रंग पर उसकी स्लेटी नीली आंखें बहुत सुन्दर लगती थी। मेरी आंखें मेरे शरीर के रंग की भूरी थोड़ा काला पन लिए थी। परन्तु उनके ऊपर काले घने बालों के गुच्छे दो आँखों का भ्रम पैदा कर रहे थे। पारिवारिक प्यार का सुख, स्नेह और संग—साथ हम केवल महीना भर भी नहीं ले पाये। मेरे दूसरे भाई—बहन का क्या हुआ, मेरी माँ ने हम दोनों बहन—भाई को ढूंढने की कोशिश जरूर की होगी पर वो यहाँ तक कैसे आती, हम उसकी पकड़ पहुँच से कितनी दूर, एक अनजान लोक में आ गये थे। एक तो हम इतने छोटे अबोध, इस दुनियाँ से अनजान—अपरिचित भाषा, तो मैंने तो अपने को किस्मत के भरोसे छोड़ दिया होगा था।
मेरी समझ में नहीं आ रहा था ये लोग हमारा क्या करेंगे, कहाँ हमें लिए जा रहे थे। हर पाणी पर मौत जीवन में एक ही बार घटती है, फिर वो पहले से ही उससे क्यों भय भीत रहता है। शायद कहीं अनंत से हमारा अनुभव होना चाहिए, वरना तो इस भय का कोई कारण ही नहीं था। हम जरूर अनंत बार इस प्रक्रिया से गुजरें होगे। मारे भय के मेरा पूरा शरीर सूखे पत्ते कि तरह कांप रहा था। इसके बाद ही दूसरे मनुष्य स्पर्श का अनुभव भी बहुत जल्दी हुआ, जब उन्होंने मुझे ले जाकर किन्हीं दूसरे हाथों में सौंप दिया। उनकी भाषा तो मेरी समझ में नहीं आ रही थी। डरे सहमते कांपते मैंने उनके हिलते हाथों से समझने की कोशिश जरूर की, परन्तु मैं समझ कुछ भी नहीं पाया था। जिन दूसरे हाथों में उन्होंने मुझे सौंपा, वो एक महिला थी। उनके हाथों के स्पर्श मात्र से ही मेरे कांपते शरीर में मधुर शीतलता दौड़ गई, मेरा कांपना भी अचानक बन्द हो गया। क्या सारे भय की तरंगें उन कुरूप कुरूर हाथों से बह कर मेरे शरीर में प्रवेश कर रही थी?
उस महिला के हाथों में जाते ही न जाने क्यों मैं प्रेम की सिहरन भर गया। मेरा शरीर एक असीम उर्जा से पुलकित हो गया। प्रेम मेरे शरीर के रेशे—रोंए में नये जीवन का संचार भर रहा था। जीवन में फिर एक जीने का नया अंकुर फूटा, एक कोमल पत्ते ने अँगड़ाई ली, मैंने नये जीवन को निहारना चाहा, अचानक नरम—मुलायम होंठों ने मुझे चूम लिया। उनकी आँखों से बहते हुए उस प्रेम से मैं अन्दर तक डूब गया। अब प्रेम से इतना भरा तालाब किनारे तोड़ कर बह जाना चाह रहा था। मुझे भी लगा मैं इन हाथों से मुक्त हो, जमीन पर भागूं और अनंत के उस छोर को छू लूं। शायद मेरी बात को वो समझ गई और सीढ़ियाँ चढ़ कर उन्होंने मुझे छत पर छोड़ दिया। मैं आजाद था, मुक्त था, मैंने गर्व से अपने शरीर को थोड़ा अकड़ा कर एक अंगड़ाई ली, और दो कदम पीछे हट कर लगा भोंकने।
मेरे भौंकने की आवाज़ सुन कर एक लम्बा चौड़ा पुरूष जिसकी बहुत घनी लम्बी दाढ़ी थी, कंधे तक झूलते लम्बे बालो को देख कर मैं थोड़ा घबरा गया मेरा मुँह खुला का खुला रह गया था। मानो कुछ देर के लिए मेरे विचार बंद हो गए हो और मेरी मछली बहार निकल गई हो। एक मजेदार बात तो यह थी कि मैं उन पुरूष को देख कर अपने चिर परिचित हथियार भौंकने को ही भूल गया। उसने उठा कर मुझे अपने हाथ पर खड़ा कर लिया, मुझे लगा गुलिवर की कथा फिर दोहराई जा रही थी। मैं उसके उन बड़े-बड़े हाथों के बीचों-बीच में पूरा समा गया था। फिर उन्होंने दूसरे हाथ से मेरे शरीर पर बड़े प्यार से हाथ फेरना शुरू किया। मेरे शरीर के रोंए—रोंए में शांति की लहर दौड़ गई। मेरी आंखें अपने आप बन्द होने लगी और शरीर से मेरी पकड़ ढीली पकने लगी। उस नींद, तंद्रा, मदहोशी के उस रस को जो उस क्षण मैंने अनुभव किया उसे आज तक नहीं भूल पाया हूं।
सच वो सब चमत्कार जैसा लगता रहा था मुझे। अगर मुझे उन्होंने ना सम्हाला होता तो मैं उनके हाथ से नीचे अवश्य ही गिर गया होता। मैंने अपनी नन्हीं सी जीभ से उस विशाल हाथ की एक उंगली को चाटा। मेरी नन्हीं लाल मुलायम जीभ के स्पर्श में धन्यवाद का जो भाव छिपा था शायद उन तक न जाने कैसे पहुंच गया। उनकी बड़ी चमकदार आँखों से दो आंसू लुढ़क कर मेरे सामने गिर गये, मैंने उन्हें चख लिया, कैसा कसैलापन, नमकीन अजीब था उसका स्वाद था। मैं थका और भूखा भी था, मेरे हावभाव देख कर वो समझ गये, एक छोटी सी कटोरी में दूध मेरे सामने रखा। मुझे तो माँ के थन से दूध पीने की आदत थी, जीभ को मरोड़ कर थन के चारों तरफ़ गोल—गोल लपेट कर चूसने का अनुभव कितना सरल व सुखद होता है। ये तब पता चलता है जब वे चीज आपसे छूट जाती है। लेकिन कुदरत भी कितनी विचित्र है एक चीज आपके हाथों से छूटी नहीं की दूसरा द्वारा आपके लिए तुरंत खोल देती है। अब मजबूरी में मैंने अपना दूसरा हथियार निकाला जीभ से चटक कर पीने का। पेट तो भरा, परन्तु पीछे कुछ छूट गया, चूसने की सरसता। चटक कर पीने में मानो एक हिंसा का प्रवेश हो गया। कुदरत हम शाकाहारी—मांसाहारी प्राणियों को बचपन में एक समान दूध पीने की परवर्ती देती है। चटखने—चूसने का विभाजन बाद में हमारे स्वभाव का बदलाव बन जाता है शायद। बड़े होने पर सभी शाकाहारी पानी चूस कर पीते है और हम मांसाहारी चटक कर पीते हैं। दोनों की गुणवत्ता में एक भेद है। क्या ये प्रवृति हमें हिंसात्मक नहीं बना देती?
शायद मनुष्य भी अपना स्वभाव भूल गया, इसलिए क्या वो हिंसात्मक नहीं होता जा रहा ? माँ का दूध कितने कम दिन मैं पी पाया, फिर भी वो अनमोल है, अस्मरणीय है। अब भी गहरे में जाता हूं तो माँ का चेहरा आँखों के सामने खड़ा हो जाता हैं। दूध पीकर मैं थोड़ा खेला, फिर अचानक घर की मां की याद आई, मैं कु..कु.. करके रोने लगा। तभी माँ जी ने मुझे एक नरम कपड़े में लपेट कर अपनी गोद में छुपा लिया। मेरे पूरे शरीर में थकान के साथ भय कि तरंगे भी भरी थी। मैं लेटते ही सो गया। कितनी देर सोया मुझे भास नहीं, मेरे आस पास कुछ फुसफुसाहट हुई तो मेरी आँख खुली। तीन चेहरे मेरे ऊपर झुके और बड़ी—बड़ी छह आंखें मुझे घूर रही थी। बहुत देर तक मेरी समझ में नहीं आया कि मेरे साथ क्या हुआ और मैं कहाँ पर हूं, जिस तरह से अचानक गहरी नींद में हमारा मस्तिष्क चेतना शून्य हो जाता हैं। दूर कहीं विचारों का तंतु जाल उसमें पीछे बुना जाता है। इसी तरह से में एक गहरे भय के तंतु जाल में उलझा जा रहा महसूस कर रहा था।
धीरे—धीरे एक—एक चित्र मेरी आँखों के सामने घूमने लगा। कि मैं कहाँ हूं और क्या मेरे साथ घटा था। मैं जैसे ही उठने लगा, हलकी सी चीख के साथ वो सारी आँख दूर भाग गई। मैं इतना छोटा भी किसी को डरा सकता हूं, यकीन नहीं हो रहा था। वो इस छोटे से परिवार के तीन नन्हे—मुन्ने सदस्य थे, मणि दीदी, वरूण और हिमांशु भैया। उम्र क्रमशः 11, 8 और 5 वर्ष होगी। उनमें सबसे छोटे बच्चे ने पास आकर मेरे थूथन को पकड़ कर हिलाया, मैं झटपट खड़े हो उसके पीछे भागा। वो तीनों डर के मारे चीख मार कर पलंग पर चढ़ कर खड़े हो गये। मैं नीचे खड़े हो कर लगा उन्हें भौंकने, यहीं मेरा पहला परिचय था उन तीनों से। बाद मैं हमारी दोस्ती और प्रेम चिर स्मरणीय बन गया। धीरे—धीरे मैं भी उस परिवार का सदस्य बन गया, फिर भी मनुष्य और हमारे रहन—सहन विकास क्रम में बहुत फर्क था, ताल—मेल बिठाने में मुझे बहुत ही दिक्कत आ रही थी। रह—रह कर अपने आप को बहुत ही अकेला पाता था।
कभी—कभी जब ज्यादा अकेला पन महसूस होता तो आपको अपनी जाति और अपने प्रिय की बहुत याद आ जाती है। मन में रह—रह कर बस यही विचार कौंधता की कहाँ होगी मेरी वो बहन जो मेरे साथ आई थी! मेरी माँ ने हमें ढूंढा अवश्यक होगा परन्तु वो लाचार, असहाय, अबला सी केवल तड़पती और रोती रह गई होगी। जो अपनी पीड़ा अपनी ममत्व किसी को दिखा भी न पाई होगी। और उस समय कैसा खाली—खाली सा लगता होगा उसे। उसका वो दूध पिलाना, वह रह—रह कर हमें बारी—बारी से कैसे चाटती थी। रोती बिलखती अपने मन को मसोस कर रह गई होगी बेचारी। किसके सामने अपनी पीड़ा, संताप दिखाए, मेरा मन माँ की याद में तड़प रहा था। लगता था की किसी तरह एक बार मेरी मां सामने आ जाए बस मैं उसी संग-साथ लिपट—बस जाऊँ, उसके मुँह को चाटू, उसके आस—पास भागू और कु.. कु..करके खूब रोंऊ।
अपनों से दूर होकर जब हम तड़पते हैं तो उनकी याद हमारे कितना पास आ जाता हैं। मनुष्य के संग रह के जितना थोड़ा सा मैंने जाना था, वो इतना बुरा नहीं लगता जितना हम उसके बारे में सोचते थे। मेरी बहन जहाँ भी होगी जरूर खुश होगी शायद मेरे से भी ज्यादा मजे मैं होगी। भगवान उसके साथ ऐसा ही करें। सबसे ज्यादा अकेला पन सोने के समय महसूस होता, छोटा बच्चा कितना असहाय और लाचार होता हैं, अपनी माँ के बिना। कैसे अपने को माँ का अंग—संग समझता हैं, कैसे अपने को अपूर्ण महसूस करता हैं। कैसे सोते में अपने शरीर को मां के शरीर से सटा कर उसकी गर्मी में वह लवरेज हो जाता है। उस समय मां के संग साथ अपने को कितना सुरक्षित समझ है, सारे जहां को सारे भय को कैसे भूल जाता है।
ये प्रकृति का कितना कुरूप और भद्दा मजाक था मेरे साथ। परन्तु प्रेम के रंग मैं रँगना भी एक कला है एक खेल हैं। प्रेम की छाया की छाया भी कितनी निर्मलता लिए रहती है अपने में। एक अतुलनीय गहराई सी उसमें आ जाती है, वरना तो जीवन क्रम कभी का रूक गया होता। हम जिस शरीर में होते है उसके साथ उसी तरह का प्रेम महसूस कर पाते है। परंतु मनुष्य के साथ एक अनोखी घटना घटी है वह मन से विकसित हो गया है इसलिए उसके मन के जितने आयाम है प्रेम के उससे भी अधिक आयाम उसे महसूस होते है। उसके इस प्रेम को समझना मेरे बूते के बाहर की बात थी। मैं केवल शरीर का या अंदर से मां की बहती उर्जा के समझने में सामर्थ्य था। परंतु यहां तो उनके साथ एक लाचारी महसूस कर रहा था या प्रेम की भिन्नता को। उनके प्रेम को उनकी बातों उनके स्पर्श से उनके संग से महसूस कर पा रहा था। फिर भी न जाने क्यों अपने को छला सा महसूस कर रहा था। इसमें मनुष्य कुछ भिन्न था, उसने विज्ञान से प्रातः सुविधा को अपने जीवन मैं समाहित कर लिया था। यहीं उसका गौरव है,गरिमा थी। यहीं उसके ना होने पर होने की विजय थी। उसने जो जाना है, जो जिया है वह आने वाली अपनी संतति को उपहार के रूप में दे जाता है। जो कोई भी दूसरा प्राणी नहीं कर पा रहा इसलिए बाकी सब प्राणियों का विकास एक क्रम से होता है और मनुष्य एक क्रांति की तरह विकास कर पाया था।
और अजीब चमत्कार है, यहीं क्रांति मनुष्य की सबसे बड़ी हार थी। वो आज और-और अधिक प्रकृति से दूर होता जा रहा था। भाव हीन संवेदना हीन वह एक मशीन बनता जा रहा था। लेकिन दिख रहा होता है मानो वह कितना खुश था...अपने ही हाथों इस अपने विनाश से। परंतु मनुष्य की भिन्नता को जानना हो तो उसके संग साथ जीना बहुत जरूरी था। दूर से देखने में सब समान लगता था। परंतु प्रत्येक की अपनी गहराई...आपना विकास भिन्न था....जो मुझे बहुत ही रूचिकर लग रहा था।
भू...भू....भू....
(आज इतना ही)
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