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गुरुवार, 2 मार्च 2017

पोनी-(एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा)-अध्‍याय-02



अध्‍याय—दूसरा-( मनुष्‍य का पहला स्‍पर्श)

    
मेरा जन्म दिल्ली कि अरावली पर्वत श्रृंखला के घने जंगल मैं हुआ, जो तड़पती दिल्ली के फेफडों को ताजा हवा दे कर उसे जीवित रखे हुऐ है। यह कैसे आज भी अपने को पर्यावरण के उन भूखे भेडीयों से घूंघट की ओट मे एक छुई—मुई सी दुल्हन बन कर वह अपने आप को बचाए हुऐ है। यहीं नहीं वह सजने संवारने के साथ—साथ इठलाती मस्त मुस्कराती सी प्रतीत होती है। ये भी एक चमत्कार से कम नहीं है, वरना उसके अस्तित्व को खत्म करने के लिए लोग बेचैन, बेताब, इंतजार कर रहे है। आज भी इसके अंदर गहरे बरसाती नाले, सेमल, रोझ, कीकर, बकाण, अमलतास, ढाँक और अनेक जंगली नसल के पेड़ों की भरमार है। कितने पशु पक्षी आज भी इसकी शरण में विचरण करते ही नहीं इठलाते से दिखते है, गिदड़..खरगोश, जंगली गाय, निलगाय, मोर...तीतर...उदबिलाव, सांप...बिच्‍छू...ओर न जाने कितने ही। सर्दी में झाड़ियाँ, कीकर, ढाँक के छोटे बड़े पेड़ सभी अपने पत्तों को गिरा, कैसे एक दूसरे मे समा जाना चाहते हैं। कैसे दूर से देखने में वह समभाव खड़े नजर आते है। जब तक कोई बहुत जानकार नहीं हो तो कहां पहचान पाता है। कि यह रौंझ है या रौझी....किकर है या बबुल...कैर है या गुगल......।
रात भर ठिठुरन के बाद सुबह की पहली किरण उपर की फूलगिंयों को छुई नहीं की नीचे कि कोमल अमराई तक सिहर उठती है। पेड़ पोधे प्राय अपनी फूल पत्‍तियों मे ही सजिवता नहीं रखते वह अपने स्त्रोत के प्रति भी उतने ही सजग रहते है। रात की ठूठरन के साथ-साथ चाँद की चाँदनी को भी अपनी पूर्णता में पिरोये रहते है। रात भर कण—कण कर नहलाई ओस की एक—एक बूँदों को सूर्य की किरणें फैली नहीं की वो उसे कैसे दूर छिटक देना चाहती हैं। पूरी प्रकृति रात मैं कैसे अल साई सी, सिहरी सी, एक अवचय सी अनिकटता साथ लिए होती हैं। उसके पास से गूजरों तो कैसे छटांक, सिहर सिमट जाना चाहती हैं। और वही डाल दिन के उजाले मैं कैसे आपके अंग—संग को छूकर—पकड़ कर मानो कुछ कहना चाह रही हो। कैसे दिन के उजाले में उसमें बाल सुलभ चंचलता आ जाती है।  आपके छुंवन और अनंतरता से मुग्ध हो लहराता परितोष भरी मुस्कराती—खिलखिलाती सी प्रतीत होती दिखाई देगी। प्रसन्‍नता उसके रौंये रेसे में  अंदर तक समाई सी प्रतीत होगी।                                                 
 उसी अरावली की कंदरा में झाड़—झंखाड़ से ढकी एक गहरी खाई मैं मेरा जन्म हुआ। जिसके किनारे एक बहुत बड़ा सेमल का पेड़ था। परन्तु शरद ऋतु के कारण वो पत्ते विहीन खड़ा भी अपनी गौरव लीला कह रहा था उपतू उस उथले गहरे खाल में लिखता सा प्रतित हो रहा था। उसकी शाखा प्रशाखए दूर दराज तक फैली पसरी पडी थी। हजारों के झूंड पक्षी उस पर कलरव गान करते थे। दूर लालीमा अंबर में दिखाई दि नहीं की उसकी फूलंगियों पर प्रकाश की किरणें चमक उठती थी। वह अजय-जगंल में शिरमोर था। पत्थरों की उबड़—खाबड़ और गहराई के कारण सूर्य का प्रकाश पुर्ण यौवन पर आने के बाद ही कुछ देर वहाँ जा पाता था। फिर भी भेड़—बकरी चराते गडरियों को इसकी भनक मिल ही गई। मनुष्‍य कि भेदती निगाह इन कंटकी किंकरों को भी भेद गई , शायद मेरी मां को आते जाते उन लोगो ने देख लिया होगा, फिर मनुष्‍य तो मनुष्‍य ही है पुरी पृथ्‍वी का सर्वोपरि प्राणी, मेरी माँ इतनी सतर्क और चपल होने पर भी उनकी आँखो में धूल झोंक नही पाई। उन्होंने मेरी माँ को दुध या कुछ खाने का लालच देकर उसकी सतर्कता को कम कर दिया। शायद वो भूख से बेहाल रही होगी, हम पाँच—पाँच पिल्ले उसे दिन रात नोचते जो रहते थे।
 क्या हम अपने नजदीक वालों पर अघिक विश्वास नहीं करते है, या उसके हाथों अपनी सुरक्षा के कवच को ढीला छोड़ देते है। इस शब्‍द जहर के वास (विश+वाश) का मैंने पहला फल चखा, और मैं अपनी मां की छत्र छाया से दूर हो गया। और उधर मेरी माँ ने मुझे और मेरी बहन को खो कर भी कोई सबक नहीं सूखा होगा। शायद फिर इसी क्रम को बार—बार दोहराया होगा। मेरी माँ बार—बार धोखा खाकर भी। इसकी जड़ लाचारी या लालच मे दबी होगी कहीं। माँ के मुलायम थनों से एक दूसरे पर चढ़ कर दूध पीना, कितना सुखद स्पर्श लगता एक दूसरे का। सर्दी मे जो अलसाया पन छितरा पडा था हवाओं मे, वो हमे कैसे अन्दर तक आह्लादित कर  देती है। पुरी प्रकृति ठिठुरती,नवयौवना सी कैसे सिहर—सिहर कर इठलाती प्रतीत होती है। कैसे हम एक दूसरे मे गुंथे लिपटे सोते थे। कैसे प्रेम एक दूसरे पर लिहाप का काम करता था।
फिर अचानक एक दिन किन्हीं कठोर हाथों ने मुझे दबोच लिया, ये मेरा किसी मनुष्य का पहला स्पर्श था। भय कि लकीर मेरे सारे शरीर मे दौड़ गई, मैने आंखे खोल कर देखना चाहा, मेरे मुँह से प्यांऊ..ऊँ..उ...प्‍यां....ऊ.....की धवनि के साथ एक दर्द भरी चीख निकल गई। मुझे और मेरी बहन को उन्होंने अपने हाथों मे उठा लिया था। मेरे चीखने यानि पि..या......ऊ, पि.....या की आवाज से शायद वो घबरा गये और तेजी से भागे, मैने समझने की कोशिश की, परन्तु मेरा नन्हा सा मस्तिष्क अभी इस के लिए तैयार नही था। अच्छा हुआ मेरी आवाज मेरी माँ के कानों तक नही गई वरना शायद ये लोग उसको भी घायल कर देते, ये तीन—चार थे, फिर इनके हाथों मे बड़े—बड़े डंडे भी थे। वो हमे लेकर तेजी से भागे, मैं अपनी नन्हीं आँखो से जो देख रहा था। वो मेरे मस्‍तिष्‍क के लिए एकदम नया अनुभव था।
परंतु कही अचेतन ये जान गया की अब जीवन खतरे में है। ये प्रकृति के देन ही हो सकती है जो प्रत्‍येक प्राणी को उसने सहज रूप प्रदान की है। जीवन रक्षण के लिए। कैसे हर चीज़ पीछे दौड़ती जा रही है। पेड़, झाड़ियाँ सबको जेसे कोई पीछे धकेल रहा हो, मानो उन्होंने अपने को पृथ्वी की पकड़ से मुक्त कर लिया, और वो  अब बिना पंखों के दौड़ते चले जो रहे है। चल हम खुद रहे होते है परन्तु मन को कैसे धोखा होता है चीजें पीछे भागी जा रही है। मेंने इस भ्रम—सत्य को पहली बार देखा।
मेरा रंग भूरा मटियाला और बादामी था। मेरी बहन एक दम शाह काली, काले चमकते रंग पर उसकी सलेटी नीली आंखे बहुत सुन्दर लगती थी। मेरी आंखे मेरे शरीर के रंग की भूरी थोड़ा काला पन लिए थी। परन्तु उनके ऊपर काले घने बालों के गुच्छे दो आँखो का भ्रम पैदा कर रहे थे। पारिवारिक प्यार का सुख,स्नेह और संग—साथ हम केवल महीना भर जी पाये। मेरे दूसरे भाई—बहन का क्या हुआ,मेरी माँ ने हम दोनो बहन—भाई को ढूंढने की कोशिश जरूर की होगी पर वो यहाँ  तक कैसे आती, हम उसकी पकड़ पहुँच से कितनी दुर, एक अनजान लोक मे आ गये थे। एक तो हम इतने छोटे अबोध, इस दुनियाँ से अनजान —अपरिचित भाषा, तो हमे किस्मत के भरोसे छोड़ दिया होगा।
 मेरी समझ मे नहीं आ रहा था ये लोग हमारा क्या करेंगे,कहाँ हमे लिए जा रहे है। हर पाणी पे मोत जीवन मे एक ही बार घटती है, फिर वो पहले से ही उससे क्यो भय भीत रहता है। शायद अनन्त से हमारा अनुभव होना चाहिए, वरना तो इस भय का कोई ही नहीं। हम अनन्त बार इस प्रक्रिया से गूजरें होगें। मारे भय के शरीर सूखे पत्ते कि तरह कांप रहा था। स्पर्श का दूसरा अनुभव भी बहुत जल्दी हुआ,जब उन्होने मुझे दूसरे हाथों मे सौंप दिया। उनकी भाषा तो मेरी समझ मे नहीं आ रही थी। डरे सहमते कांपते मैने उनके हिलते हाथों से समझने की कोशिश जरूर की,परन्तु मे समझ कुछ भी नहीं पाया। जेसे ही  उन्होने मुझे दूसरे हाथों मे दिया, वो एक महिला थी। मेरे कांपते शारीर में मधुर शीतलता दौड़ गई,मेरा कांपना भी अचानक बन्द हो गया। क्या सारे भय की तरंगें उन कुरूर  हाथों से बह कर मेरे शारीर मे प्रवेश कर रही थी ?
 उस महिला के हाथों में जाते ही मैं प्रेम की सिहरन से मेरा शरीर पुलकित हो गया। प्रेम मेरे शरीर के रेशे—रोंए मे नये जीवन का संचार भर गया। जीवन में फिर एक जीने का नया अंकुर फूटा,एक कोमल पत्ते ने अँगडाई ली, मैने नये जीवन को निहारना चाहा,अचानक नरम—मुलायम होठों ने मुझे चूम लिया। उनकी आँखो से बहते प्रेम से मैं अन्दर तक डूब गया। अब इतना भरा तालाब किनारे तोड़ कर बह जाना चाह रहा था। मुझे भी लगा मैं इन हाथों से मुक्त हो,जमीन पर भागू और अनन्त के उस छोर को छू आउ। शायद मेरी बात को वो समझ गई और सीढ़ियाँ चढ़ कर उन्होंने मुझे छत पर छोड़ दिया। मैं आजाद मुक्त सा, गर्व कर, दो कदम पीछे हट कर लगा भौंकने।
मेरे भौंकने की आवाज़ सुन एक लम्बा चौड़ा पुरूष जिसकी बहुत घनी लम्बी दाढ़ी, कन्धे तक झूलते लम्बे बाल मैं उन्हे देख कर इतना घबरा गया मेरा मुहँ खुला का खुला रह गया मानो मेरी मछली बहार निकल गई हो और मजेदार बात तो ये कि मैं अपने चिर परिचित हथियार भौंकने को ही भूल गया। उसने उठा कर मुझे अपने हाथ पर खड़ा कर लिया, मुझे लगा गुलीवर की कथा फिर दोहराई जा रही है। मैं उनके के बीचों बीच समा गया। फिर उन्होने दूसरे हाथ से मेरे शरीर पर बड़े प्यार से हाथ फेरना शुरू किया। मेरे शरीर के रोंए—रोंए मे शान्ति की लहर दौड़ गई। मेरी आंखे अपने आप बन्द होने लगी और शरीर से मेरी पकड ढीली पकने लगी। उस नींद,तंद्रा, मदहोशी का रस मैं आज तक नहीं भूल पाया हूं।
 सच वो चमत्कार  जैसा लगता है मुझे। अगर मुझे ना सम्हाला होता तो मैं उनके हाथ से नीचे अवश्य ही गिर जाता। मैंने अपनी नन्हों जीभ से उस विशाल हाथ की एक उंगली को चाटा। मेरी नन्हों लाल मुलायम जीभ के स्पर्श में धन्यवाद का जो भाव छिपा था शायद उन तक पहुंच गया। उनकी बडी चमकदार आँखो से दो आंसू लुढक कर मेरे सामने गिर गये, मैने उन्हे चाट लिया, कैसा कसेला, नमकीन अजीब था उसका स्वाद। मैं थका और भूखा था, मेरे हाव—भाव देख कर वो समझ गये,एक छोटी सी कटोरी मे दूध मेरे सामने रखा। मुझे तो माँ के थन से दूध पीने की आदत थी, जीब को मरोड कर थन के चारो तरफ़ गोल—गोल लपेट कर चूसन की। अब मजबूरी मे मैने दूसरा हथियार निकाला जीब से चटक कर पीने का। पेट तो भरा, परन्तु पीछे कुछ छूट गया, चूसने की सरसता। चटक कर पीने में एक हिंसा का प्रवेश हो गया। कुदरत हम शाकाहारी—मांसाहारी प्राणिकों को बचपन मे एक समान दूध पीने की प्रवर्ती देती है। चटखने —चूसने का विभाजन बाद मे हमारे स्वभाव का बदलाव है शायद। बड़े होने पर सभी शाकाहारी पानी चूस कर पीते है और हम मांसाहारी चटक कर पीते हैं। दोनो की गुणवत्ता मे भेद है। क्या ये पर्वती हमे हिंसात्मक नहीं बना देती ?
 शायद मनुष्य भी अपना स्वभाव भूल गया, इसलिए क्या वो हिंसा—तमक नहीं होता जा रहा ? माँ का दूध कितने दिन मैं पी पाया,फिर भी वो अनमोल है, अस्मरणीय है। अब भी गहरे मे जाता हूं तो माँ का चेहरा आँखो के सामने खड़ा पाता हूं। दूध पीकर मैं थोड़ा खेला, फिर अचानक घर की याद आई, मैं कु..कु.. करके रोने लगा। तभी माँ जी ने मुझे एक नरम कपड़े मे लपेट कर अपनी गोद मे छुपा लिया। मेरे पूरे शारीर मे थकान भरी थी मैं लेटते ही सो गया। कितनी देर सोया मुझे भास नहीं, मेरे आस पास कुछ फुसफुसाहट हुई तो मेरी आँख खुली। तीन चेहरे मेरे उपर झुके और बड़ी—बड़ी छह आंखे मुझे घूर रही थी। बहुत देर तक मेरी समझ में नहीं आया कि मेरे साथ क्‍या हुआ और मैं कहाँ पर हुं, जिस तरह से अचानक गहरी नींद में हमारा मस्तिष्क चेतना शुन्य हो जाता हैं। दूर विचारों का तंतु जाल उसमे पीछे बुना जाता होता है। इसी तरह से में एक गहरे भय के तंतु जाल में उलझा जा रहा महसूस कर रहा था।
धीरे—धीरे एक—एक चित्र मेरी आँखो के सामने घूमने लगा। कि मैं कहाँ हूं और क्या मेरे साथ घटा हैं। मैं जैसे ही उठने लगा, हलकी सी चीख के साथ वो चारो आँख दूर भाग गई। मैं इतना छोटा भी किसी को डरा सकता हूं, यकीन नहीं हो रहा था। वो इस छोटे से परिवार के तीन नन्हे—मुन्ने सदस्य थे, मणि दीदी, वरूण और हिमांशु भैया। उम्र क्रमश: 11, 8 और 5 वर्ष होगी। उनमें सबसे छोटे बच्चे ने पास आकर मेरे थूथन को पकड़ कर हिलाया, मैं झटपट खड़े हो उसके पीछे भागा। वो तीनों उर के मारे चीख मार कर पलंग पर चढ़ कर खड़े हो गये। मैं नीचे खड़े हो कर लगा उन्‍हें भौंकने, यहीं मेरा पहला परिचय था उन तीनों से। बाद मैं हमारी दोस्ती और प्रेम चिर स्मरणीय बन गया। धीरे—धीरे मैं भी उस परिवार का सदस्य बन गया, फिर भी मनुष्य और हमारे रहन—सहन विकास क्रम मै बहुत फर्क हैं, ताल—मेल बिठाने मे दिक्कत आ रही थी। रह—रह कर अपने आप को अकेला पाता था।
 कभी—कभी जब ज्‍यादा अकेला पन महसूस होता तो अपनों की बहुत याद आ जाती। मन में रह—रह कर बस यही विचारे कौंधता की कहाँ होगी मेरी वो बहन जो मेरे साथ आई थी! मेरी माँ ने हमें ढूंढा अवश्यक होगा परन्तु वो लाचार, असहाय, अबला सी केवल तड़पती और रोती रह गई होगी। जो अपनी पीड़ा अपनी ममत्व किसी को दिखा भी नपाई होगी और उस समय कैसा खाली—खाली सा लगता होगा दुध पिलाना, वह रह—रह कर हमें बारी—बारी से कैसे चाटती थी। रोती बिलखती अपने मन को मसोस कर रह गई होगी बेचार। किसके सामने अपनी पीड़ा, संताप दिखाए, मेरा मन माँ करता की किसी तरह एक बार मां सामने आ जाए बस मैं उसी संग लिपट—बस जाऊँ, उसके मुँह को चाटू, उसके आस—पास भागू और कु.. कु..करके खूब रोंऊ।
अपनों से दूर होकर जब तड़पते हैं तो वो कितना पास आ जाता हैं। मनुष्य के संग रह के जितना थोड़ा सा मैंने जाना हैं, वो इतना बूरा नहीं लगता जितना हम उसके बारे में सोचते है। मेरी बहन जहाँ भी होगी जरूर खुश होगी शायद मेरे से भी जादा मेज़ मैं हो, भगवान उसके साथ ऐसा ही करे।  सबसे ज्‍यादा अकेला पन सोने के समय महसूस होता, छोटा बच्चा कितना असहाय और लाचार होता हैं, माँ के बिना। कैसे अपने को माँ का अंग—संग समझता हैं, कैसे अपने को अपूर्ण महसूस करता हैं। कैसे सोते में अपने शरीर को मां के शरीर से सटा कर उसकी गर्मी में वह लवरेज हो उस में अपने को सूरक्षित समझ सारे जहां को सारे भय को कैसे भूल जाता है।
ये प्रकीर्ति का कितना कुरूप और भद्दा मजाक था मेरे साथ। परन्तु प्रेम के रंग मैं रँगना भी एक कला है एक खेल हैं। प्रेम की छाया की इसमें इतनी निर्मलता, एक अतुलनीय आसकती है वरना तो जीवन क्रम कभी का रूक गया होता। हम जिसे शरीर में होते है उसके साथ उसी तरह का प्रेम महसूस कर पाते है। परंतु मनुष्‍य के साथ एक अनोखी घटना घटी है वह मन से विकसित हो गया है इस लिए उसके मन के जितने आयाम है प्रेम के उससे भी अधिक आयाम महसूस होते है। उसके इस प्रेम को समझना मेरे बूते के बहार की बात थी। मैं केवल शरीर का या अंदर से मां की बहती उर्जा के समझने में सामर्थ्य था। परंतु यहां तो अनेक के साथ महसूस कर रहा था की प्रेम भी भिन्‍न है। ये बातें उनके स्‍पर्श से उनके संग से महसूस कर पा रहा था। और अपने को छला सा महसूस कर रहा था। इसमें मनुष्य कुछ भिन्न हैं, उसने विज्ञान से प्रात सुविधा को अपने जीवन मैं समाहित कर लिया हैं। यहीं उसका गौरव है,गरिमा है। यहीं उसके ना होने पर होने की विजय हैं।
और यहीं मनुष्‍य की सबसे बड़ी हार है जो प्रकृति से दूर होता जा रहा है। एक मशीन बनता जा रहा है। लेकिन देख रहा था वह कितना खुश है...अपने ही विनाश से।
भू...भू....भू....(आज इतना ही)



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