नेति-नेति-(सत्य की खोज)-ओशो
एक
मित्र ने पूछा है,
यदि हम
पूछें कि कौन हो तो पूछने वाला और प्रश्न दोनों एक ही तो हैं, अलग नहीं हैं। जो प्रश्न बनकर
खड़ा है,
वही तो
उत्तर बनेगा। और तब कैसे कभी जाना जा सकता है कि मैं कौन हूं?
सच है
यह बात। जो पूछ रहा है, वही
उत्तर भी है। लेकिन पूछने के कारण उत्तर का पता नहीं चलता। पूछना है। पूछने से
उत्तर नहीं मिलेगा, लेकिन
पूछते रहें,
पूछते
रहें। पूछते जायें, फिर
उत्तर व्यर्थ होते चले जायेंगे। अंततः जब कोई उत्तर नहीं बचेगा तो प्रश्न ही
व्यर्थ हो जायेगा। और जब प्रश्न भी गिर जाता है--उत्तर तो मिलता ही नहीं! जब
प्रश्न ही गिर जाता है और चित्त निष्प्रश्न होता है, तब हम उसे जान लेते हैं। यह
प्रश्न भी पूछना है। और यह उत्तर भी है!
प्रश्न
पूछने का प्रयोजन उत्तर खोज लेना नहीं है। प्रश्न पूछने का प्रयोजन है, सब बंधे, सीखे उत्तरों को व्यर्थ कर
देना है। और उस जगह पहुंच जाना है, जहां प्रश्न भी अंततः व्यर्थ हो जाता है।
प्रश्न
जहां गिर जाता है,
वहां
ज्ञान है।
उत्तर
जहां मिल जाता है,
वहां
ज्ञान नहीं है। यह थोड़ी समझने जैसी बात है। हम सोचते हैं, ज्ञान है उत्तर का मिलना। और
मैं आपसे कहता हूं, ज्ञान
है प्रश्न का गिर जाना!
एक
युवा खोजी बुद्ध के पास गया। और उसने जीवन भर में बहुत से प्रश्न खोजे थे, जिनके उत्तर मिले थे। उसने
जाकर दो प्रश्न बुद्ध के सामने रखे। और कहा, चाहता हूं इनके उत्तर।
बुद्ध
ने कहा,
पहले
भी और किसी से ये प्रश्न पूछे हैं?
उस
युवक ने कहा,
बहुतों
से पूछे हैं। तीस वर्ष इन्हीं पर श्रम किया है, अब तक की जिंदगी इन्हीं में गंवायी है।
बुद्ध
ने कहा,
इतनों
से पूछे,
मिला
कोई उत्तर या नहीं? जिनसे
पूछा था,
उन्होंने
उत्तर दिये या नहीं?
उस
व्यक्ति ने कहा,
मुझे
उत्तर मिल जाता तो मैं आपसे पूछने नहीं आता। मुझे उत्तर नहीं मिला।
बुद्ध
ने कहा,
इतने
लोगों से पूछने के बाद, उत्तर
नहीं मिला,
फिर भी
तू पूछे चले जा रहा है! तुझे यह खयाल नहीं कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि पूछते-पूछते
मिलेगा भी नहीं! मैं भी तुझे उत्तर दूंगा, उससे भी तुझे उत्तर नहीं मिलेगा, क्योंकि आज तक उत्तर देने से
उत्तर मिला ही नहीं!
वह
आदमी पूछने लगा,
फिर
मैं क्या करूं?
बुद्ध
ने कहा,
तू एक
वर्ष यहां रुक जा और इतना शांत हो कि प्रश्न भी गिर जायें। और फिर वर्ष भर बाद, जब तेरा चित्त पूर्ण शांत हो, अगर तूने पूछा तो उत्तर दूंगा, और तुझे उत्तर मिल जायेगा।
एक
भिक्षु वृक्ष के नीचे सुनता था, जोर से
खिलखिलाकर हंसने लगा! उस नये आये आगंतुक ने पूछा, आप हंसते क्यों हैं? उस भिक्षु ने कहा, धोखे में पड़ जायेगा। मैं भी
कुछ वर्ष पूर्व बुद्ध के पास इसी तरह पूछने आया था। उन्होंने मुझसे कहा, एक वर्ष रुक जाओ और चुप हो
जाओ। और फिर पूछना तो मैं उत्तर दूंगा। यह बड़े धोखे की बात है। तू इस बात में पड़ना
मत, क्योंकि मैं जब चुप हो गया, वर्ष भर बाद वह मुझसे कहे, पूछना है? तो मैंने कहा, पूछना मुझे कुछ नहीं है, मेरे पास पूछने को ही कुछ
नहीं है! मैंने पूछा नहीं, उन्होंने
उत्तर दिया नहीं! मैं तुझसे कहता हूं, अगर पूछना हो तो अभी पूछ लेना, क्योंकि वर्ष भर बाद तेरे पास
पूछने को ही नहीं होगा! और यह मेरे साथ ही नहीं हुआ है, यह सैकड़ों लोगों के साथ मैं
रोज-रोज देखता हूं। वे आते हैं, पूछते
हैं। बुद्ध कहते हैं, पहले
चुप हो जाओ,
फिर
पूछना,
मैं
उत्तर दूंगा। वे चुप ही रह जाते हैं, वे फिर पूछते ही नहीं हैं! और बुद्ध के
उत्तर का पता ही नहीं चलता है कि उत्तर क्या है!
बुद्ध
ने कहा,
मैं
अपनी बात पर कायम रहूंगा। अगर वर्ष भर बाद तूने पूछा तो मैं उत्तर दूंगा। अब तू ही
पूछने से इंकार कर दे तो मैं क्या कर सकता हूं!
वह
आदमी रुक गया। उस आदमी का नाम मौलुंकपुत्त था। वर्ष भर बाद, ठीक वर्ष बीतने पर, बुद्ध ने उससे कहा, मौलुंकपुत्त खड़े हो जाओ, और पूछो।
वह
मौलुंकपुत्त हंसने लगा और उसने कहा, नहीं पूछना है। नहीं पूछना है!
बुद्ध
ने कहा,
फिर
क्यों नहीं पूछना है?
उसने
कहा, पूछने को कुछ बचा ही नहीं। मन
इतना शांत हो गया है कि प्रश्न ही नहीं है। और अब मैं उत्तर की झंझट में पड़ने वाला
नहीं हूं। जब प्रश्न ही नहीं है--तो उत्तर की झंझट में पड़ने वाला नहीं हूं। जब
प्रश्न ही नहीं है, तो
उत्तर की झंझट कौन लेगा!
प्रश्न
गिर जाते हैं एक दिन, वहीं
उत्तर मिलता है। उत्तर मिलने से कोई भी उत्तर नहीं मिलता है।
सब
उत्तर सीखे हुए होते हैं। सब उत्तर दूसरों के--उधार, किताबों और शास्त्रों के होते
हैं। अपने उत्तर तो उसी दिन मिलते हैं, जिस दिन सब प्रश्न गिर जाते हैं। लेकिन वह
उत्तर,
जो
मिलता नहीं है,
वह
स्वयं उत्तर हो जाता है, जब
प्रश्न गिर जाते हैं।
जैसे
किसी आदमी को सन्निपात हो, बुखार
चढ़ा हो,
होश खो
दिया हो और वह पूछता हो कि मेरी खाट आकाश में उड़ गयी है--यह खाट पूरब की तरफ उड़
रही है या पश्चिम की तरफ? आप उसे
उत्तर देंगे या आप भागेंगे वैद्य को बुलाने? आप बतायेंगे कि उत्तर में इस जगह कि पश्चिम
में?
आप
जानते हैं,
खाट उड़
ही नहीं रही है,
यह
आदमी सन्निपात में है। इसको उत्तर की जरूरत नहीं है, उपचार की जरूरत है। जायेंगे
वैद्य को बुलाने।
वह
आदमी कहेगा,
पहले
मेरा उत्तर चाहिए--खाट पूरब में उड़ती है या पश्चिम में? आप कहेंगे, ठहरो, अभी थोड़ी देर बाद उत्तर
देंगे। थोड़ी चिकित्सा होने दो, फिर
होश में आ जाओ,
फिर
पूछ लो। तब हम उत्तर देंगे।
और
उसकी चिकित्सा होती है, वह होश
में पुनः आ जाता है। अब आप उससे कहते हैं कि पूछो, खाट कहां उड़ रही है तो हम
उत्तर देंगे। तो आदमी कहता है, खाट उड़
ही नहीं रही थी,
पूछें
हम क्यों! वह बात खत्म हो जाती है।
मनुष्य
के सारे प्रश्न सन्निपात में पूछे गये प्रश्न हैं और सारी फिलासफी सन्निपात में
लिखी गई है। सारा शास्त्र और सारा दर्शन और सारी हजार तरह की सिस्टम, सब सन्निपात में पूछे गये
प्रश्नों के उत्तर हैं।
"जानना' वहां है, जहां कि सन्निपात मिट जाता है, पूछने का ज्वार ही चला जाता
है।
मैं
कोई उत्तर नहीं दे रहा हूं। और मैं आपसे कह रहा हूं कि आप पूछें कि "मैं कौन
हूं। '
आपको
उत्तर नहीं मिल जायेगा, इस
तीव्र जिज्ञासा की आग में पूछते-पूछते सब प्रश्न, सब उत्तर गिर जायेंगे। अंत
में रह जायेगा वही, जो है।
और वही उत्तर है। लेकिन वह उत्तर आता नहीं है। आप ही बच जाते हैं, आप ही उत्तर हो जाते हैं।
अब यह
रुग्ण है चित्त,
इसलिए
आप ही प्रश्न हैं। चित्त होगा स्वस्थ, आप ही उत्तर होंगे। उत्तर और प्रश्न का मिलन
कभी नहीं होता है,
क्योंकि
रुग्ण चित्त और स्वस्थ चित्त का मिलन नहीं होता है। जब रुग्ण चित्त चला जाता है, तब स्वस्थ चित्त आता है।
इसलिए जब तक कोई प्रश्न पूछता है, तब तक
उत्तर नहीं है। और जब उत्तर आता है, तब प्रश्न बहुत पहले ही विदा हो जाते हैं!
इनका मिलना ही कभी नहीं हुआ।
तो
ध्यान में रख लेना, उत्तर
और प्रश्न इन दोनों का मिलन ही कभी नहीं हुआ। जब तक प्रश्न है भीतर, तब तक जानना उत्तर नहीं हो
सकता। जिस दिन उत्तर होगा, उसके
बहुत पहले प्रश्न जा चुका होगा।
यह जो
जिज्ञासा और खोज के लिए कहा जा रहा है, वह सब इसीलिए है कि सब उत्तर गिर जायें। सब
उत्तर गिर जायें,
नेति-नेति
हो जाये। नहीं,
यह भी
नहीं, यह भी नहीं--सब गिर जाये, सब निषेध हो जाये। सब उत्तर
गिर जायें,
फिर
अकेला प्रश्न रह जाये--अकेला प्रश्न कैसे जीयेगा? प्रश्न जीता है, उत्तर मिलता है इसलिए, यह कभी आपने ध्यान नहीं किया
होगा! एक प्रश्न पूछिये, एक उत्तर
दिया जायेगा। उस उत्तर के बाद दस प्रश्न खड़े हो जायेंगे! दस प्रश्नों के दस उत्तर
और हजार प्रश्न खड़े हो जायेंगे! हर उत्तर नये प्रश्न खड़ा करेंगे!
अगर
गौर से देखा जाये तो पता चलेगा कि प्रश्नों का जो उत्तर है, जब तक उत्तर मिलता है, प्रश्न नयी संतति पैदा कर लेता
है। वह नयी संतान पैदा कर लेगा। अब तक दुनिया में जितने उत्तर दिये गये, सबने नये प्रश्न खड़े किये
हैं! कोई उत्तर,
उत्तर
नहीं है!
जैसे
अंडे से मुर्गी निकलती है और मुर्गी से फिर अंडे निकलते हैं; वैसे प्रश्न से उत्तर निकलता
है, उत्तर से फिर प्रश्न निकलते
हैं, प्रश्न से फिर उत्तर निकलते
हैं! वह अंडे मुर्गी का संबंध प्रश्न और उत्तर का संबंध है। और अंत नहीं आता है!
जिस उत्तर का अंत नहीं आता है, वह
उत्तर हो सकता है?
खोज
हमारी उसकी है,
जो
अंतिम है,
आत्यंतिक
है, अल्टीमेट है, जिसके आगे पूछने को नहीं बचता
है।
लेकिन
ऐसा उत्तर पूछने से नहीं आ सकता है। ऐसे उत्तर के लिए पूछना भी छूटना चाहिए। लेकिन
पूछना भी उन्हीं का छूट सकता है, जिन्होंने
पूछा है। जिन्होंने पूछा ही नहीं है, उनका छूटेगा कैसे? यह तीव्र जिज्ञासा चाहिए अपने
भीतर कि पूछते जायें--कौन हूं मैं--कौन हूं, कौन हूं। पूछते चले जायें, पूछते चले जायें। जल्दी से
बीच-बीच में उत्तर चले आयेंगे। मन कहेगा, अरे मालूम है कि कौन हूं। उन उत्तरों को मत
स्वीकार करना,
क्योंकि
उत्तरों के स्वीकार करने से प्रश्न कभी नहीं मरेगा, फिर नये प्रश्न खड़े हो
जायेंगे। मन कहेगा, आत्मा
हो तुम! और अगर स्वीकार कर लिया तो हम पूछेंगे कि आत्मा मरती है कि नहीं? आत्मा कहां से आयी? भगवान ने आत्मा क्यों बनायी? भगवान कौन है?
उत्तर
तो नये प्रश्न बनाते चले जायेंगे। नहीं, पूछना है उस सीमा तक। उत्तर तो स्वीकार ही
नहीं करना है। सिर्फ कमजोर लोग उत्तर स्वीकार करते हैं, बलशाली लोग उत्तर स्वीकार
नहीं करते। वे प्रश्नों को पूछते चले जाते हैं। कमजोर और आलसी उत्तर स्वीकार करते
हैं, क्योंकि उत्तर स्वीकार करने
से, वे कहते हैं, अब खोज की कोई जरूरत नहीं।
हमने मान लिया कि यही होगा। अब आगे और क्या पूछना है, बस खत्म करो!
लेकिन जो
अंतिम तक पूछने को राजी है, वह
आखिर में सारे उत्तरों के ऊपर चला जाता है, और फिर अंत में प्रश्न के भी। एक दीया
जलाइए। एक दीया जलाया, दीया
की बाती जलनी शुरू हुई। लेकिन बाती नहीं जलती, तेल जलता है। बाती पर तेल चढ़ता जाता है, तेल जलता जाता है। रात भर
बाती द्वारा तेल जलाते हैं। फिर तेल जल जाता है, फिर बाती जलने लगती है। जब
तेल खत्म हो जाता है, फिर
बाती जलने लगती है। जिस बाती ने सारे तेल को जलाया, उसे पता भी नहीं होगा कि तेल
को जलाकर वह अपनी मौत बुला रही है। जब तेल जल जायेगा तो फिर उसे जलना पड़ेगा।
इस
बाती को पता भी नहीं है कि मैं तेल को जलाकर अपनी ही मौत का आयोजन कर रही हूं।
आत्महत्या हो जायेगी, क्योंकि
तेल जैसे ही खत्म हुआ, फिर
बाती जलेगी। अभी बाती अपनी रक्षा कर रही है और तेल को जला रही है। रात भर तेल जलकर
समाप्त हो जायेगा। दीया खाली हुआ, फिर
बाती जलेगी और राख हो जायेगी। लेकिन बाती जलेगी, बाती तेल को जलायेगी और अंत
में खुद जल जायेगी।
ठीक
ऐसे ही प्रश्न पहले उत्तरों को गिराते हैं--यह भी उत्तर ठीक नहीं, यह भी उत्तर ठीक नहीं, यह भी उत्तर ठीक नहीं! लेकिन
प्रश्न को पता नहीं, जब सभी
उत्तर ठीक नहीं रह जायेंगे, आखिर
में जब सभी उत्तर जल जायेंगे, तो
बाती भी जलने के क्षण तक पहुंच जायेगी। आखिर में जब सब उत्तर गिर जाते हैं तो फिर
प्रश्न किसके सहारे खड़ा रहे? फिर
प्रश्न भी गिर जाता है। पहले पता चलता है, उत्तर गलत है; फिर पता चलता है, प्रश्न भी व्यर्थ है! और जब
प्रश्न नहीं रहते और उत्तर नहीं रहते तो वही रह जाता है, जो है। और सभी उत्तर अनुभव
हैं, इसलिए जिज्ञासा और खोज के लिए
मैंने कहा।
एक
दूसरे मित्र ने पूछा है कि मैं कहता हूं, क्रोध, लोभ इत्यादि का कोई नियम, कोई नियंत्रण, कोई संकल्प, कोई व्रत नहीं लेना चाहिए--कि
आज से मैं क्रोध नहीं करूंगा। उन्होंने पूछा है कि एक तरफ तो आप यह कहते हैं कि
ऐसा संकल्प नहीं करना चाहिए और दूसरी तरफ आप कहते हैं कि संकल्प की शक्ति होनी
चाहिए!
इन
दोनों बातों में उन्हें विरोध मालूम पड़ा। इन्हें समझना ठीक होगा। पहली बात, जो आदमी यह कहता है कि आज से
मैं क्रोध नहीं करूंगा, वह ऐसा
क्यों कहता है?
उसे
पता है कि वह क्रोध करेगा, इसीलिए
कहता है न?
उसे
मालूम है कि वह करेगा, इसीलिए
संकल्प लेगा। अगर उसे पता है कि कल से क्रोध होना ही नहीं है तो वह व्रत नहीं
लेगा।
आपने
कभी कसम खायी है कि आज से अब दीवार से नहीं निकलूंगा, दरवाजे से ही निकलूंगा! आपने
कभी कसम नहीं खायी है, क्योंकि
आप जानते हैं कि दीवार से कभी निकलते ही नहीं। दरवाजे से ही निकलते हैं। और अगर एक
आदमी मंदिर में खड़ा हुआ है मैंने जो कहा है--कि कल से मैंने बिलकुल पक्का कर लिया
है, चाहे कुछ भी हो जाये, दीवार से नहीं निकलूंगा तो आप
सब चौंककर देखेंगे कि क्या यह आदमी दीवार से निकलता रहा है? और कल भी उसको दीवार से
निकलने की आशा है,
कल्पना
है, आकांक्षा है?
जब एक
आदमी कहता है कि मैं कल से क्रोध नहीं करूंगा, तब वह आदमी जानता है कि कल मैं क्रोध करने
वाला हूं,
उसी के
खिलाफ वह संकल्प लेता है! संकल्प किसके खिलाफ ले रहे हैं? किसी दूसरे के खिलाफ? नियंत्रण, व्रत, नियम सब अपने ही खिलाफ किये
जाते हैं! मुझे पता है, मैं कल
भी क्रोध करूंगा। भली-भांति पता है। और जितने जोर से मुझे पक्का विश्वास है कि कल
क्रोध करूंगा,
उतने
ही जोर से मैं कसम खाता हूं कि कल नहीं करूंगा क्रोध! किसके खिलाफ कर रहा हूं? अपने ही खिलाफ!
और
अपने खिलाफ,
जो
आयोजन होता है,
उसमें
व्यक्तित्व टूट जाता है। एक व्यक्तित्व कहता है, नहीं करूंगा और दूसरा
व्यक्तित्व कहता है कि करूंगा! अब इसको भी थोड़ा ध्यान से समझ लेना कि मैं क्रोध
करूंगा,
यह
संकल्प कभी आपने लिया था जिंदगी में? कभी आपने यह व्रत लिया था कि मैं क्रोध
करूंगा?
यह
आपने कभी नहीं लिया था, यह
नैसर्गिक था। और यह आप ले रहे हैं कि मैं क्रोध नहीं करूंगा, यह नैसर्गिक नहीं है, यह कृत्रिम है। जो नैसर्गिक
होगा, वह मजबूत सिद्ध होगा। जो
कृत्रिम होगा,
यह
मजबूत सिद्ध नहीं होगा। नैसर्गिक और कृत्रिम की लड़ाई जब होगी तो कृत्रिम हारेगा और
नैसर्गिक जीतेगा। आप अपने को दो हिस्सों में तोड़ रहे हैं। आपका निसर्ग, आपकी प्रकृति कुछ कह रही है, कि करेंगे क्रोध और आपकी सीखी
हुई बुद्धि,
आपका
कांशस माइंड,
चैतन्य
चित्त कह रहा है कि नहीं, अब हम
क्रोध नहीं करेंगे!
आपको
पता नहीं है कि प्रकृति बहुत बलवान है और आपके ये संकल्प बहुत ना-कुछ हैं। इसका
कोई मूल्य नहीं है। कल जब क्रोध का झंझावात आयेगा, तब संकल्प पता नहीं कहां उड़
जायेगा सूखे पत्तों की तरह। जैसे एक सूखा पत्ता जमीन पर पड़ा है। अभी हवा नहीं चल
रही है और वह सूखा पत्ता कहता है, कसम
खाते हैं,
अब
नहीं उड़ेंगे। अब कसम खाते हैं, कल से
चाहे कुछ भी हो जाये, उड़ेंगे
नहीं! सूखा पत्ता सड़क पर कसम खा रहा है। अभी हवा नहीं चल रही है। पत्ते को पक्का
लग रहा है। ठीक है, जमीन पर
पड़ा है,
कसम
खाते हैं,
अब
नहीं उड़ेंगे। लेकिन पत्ता कसम क्यों खा रहा है कि नहीं उड़ेंगे?
पत्ते
को पुराना अनुभव है, जब भी
हवा चली है,
उड़ना
पड़ा है। उन्हीं के खिलाफ कसम खा रहा है। लेकिन कसम पत्ता खा रहा है। और पत्ते को
पता नहीं है कि सूखा पत्ता है, इसकी
ताकत कितनी है! अगर प्रकृति का झंझावात और आंधी उठेगी और हवाएं चलेंगी, तब कहां इसकी कसम रहेगी। सूखे
पत्ते की कोई कसम रहने वाली है? जरा
आयेगी हवा,
पत्ता
उड़ने लगेगा! जब हवा चली जायेगी, पत्ता
गिर जायेगा। फिर हवा चलेगी, फिर मन
में कहेगा,
आज टूट
गया; लेकिन कल से अब पक्का
करते
हैं। कल चलेंगे किसी संन्यासी के पास, किसी मुनि के पास और जाकर हाथ जोड़कर मंदिर
में प्रार्थना करके कसम खायेंगे कि अब नहीं, अब हम अणुव्रत लेते हैं कि अब नहीं उड़ेंगे।
इस पत्ते का क्या मतलब है?
जिस
चेतन मन में हमने सारी बातें कही हैं, उसकी ताकत क्या है? वह जो अचेतन प्रकृति हमारे
भीतर खड़ी है--ताकत है मेरी? आपके
व्रत का,
आपके
मन में पता भी नहीं रह जायेगा। अभी आपने कसम खा ली कि कल से क्रोध नहीं करेंगे। और
आज आपका व्रत खंडित हो गया! आपको नींद में व्रत का पता होगा? आप कहेंगे, व्रतों का पता रहेगा? लेकिन नींद में पता क्यों
नहीं रहेगा?
क्योंकि
जिस मन ने कसम खायी है, वह
बहुत छोटा-सा मन है। और जिस मन ने कसम नहीं खायी है, वह बहुत बड़ा मन है। वह नींद
में भी जागा होगा। नींद में भी क्रोध चलेगा, नींद में भी छुरा मारा जायेगा, नींद में भी हत्या होगी।
मनुष्य
की प्रकृति के रूपांतरण का सवाल है, मनुष्य के निर्णय का नहीं।
प्रकृति
बड़ी है,
निर्णय
हमेशा कमजोर है।
तो मैं
कहता हूं,
निर्णय
मत लेना। समझ लो प्रकृति को कि क्या है मेरी प्रकृति? क्रोध क्या है? और जिस दिन प्रकृति की पूरी
समझ आ जायेगी--प्रकृति की समझ, प्रकृति
से ज्यादा शक्तिशाली है, क्योंकि
समझ भी प्रकृति की गहनतम, और
गहरे से गहरा रूप है। समझ भी प्रकृति की है। वह आपकी नहीं है समझ भी! वह भी
प्रकृति से जन्मती है, विकसित
होती है और फैलती है।
जो
व्यक्ति अपने चित्त की पूरी प्रकृति को समझ लेता है, जागरूक हो जाता है, पूरे चित्त को पहचान लेता है, वह कसम नहीं खाता है। वह यह
नहीं कहता कि अब मैं क्रोध नहीं करूंगा। वह यह कहता है कि क्रोध गया, अब क्रोध कैसे करूंगा! अगर
मौका आ जायेगा तो क्रोध कैसे करूंगा! जो भी अपने भीतर क्रोध को समझ लेता है, वह यह कहेगा, अब बड़ी मुश्किल हो गयी--कल
अगर मौका आ गया तो क्रोध कैसे करूंगा! क्योंकि समझने के बाद क्रोध करना असंभव है।
वह ऐसे ही है,
जैसे
जानते हुए गङ्ढे में गिरना। आंखें खुली हैं और कांटों में चले जायें, वह वैसा ही है। आंखें खुली
हैं और दीवार से टकरायें, यह
वैसा ही है। जानना है, संकल्प
नहीं लेना है।
फिर
उन्होंने पूछा है कि लेकिन आप कहते हैं, संकल्प-शक्ति चाहिए? तो उसका क्या मतलब है?
उसका
मतलब ही यह है कि जितना आप संकल्प लेंगे, उतनी ही संकल्प-शक्ति क्षीण होती है।
संकल्प-शक्ति विकसित नहीं होती है संकल्प लेने से। असल में जब सब संकल्प-विकल्प
गिर जाते हैं,
तब
मनुष्य के भीतर संकल्प शुरू होता है, तब उसे संकल्प लेना नहीं पड़ता है। संकल्प
शक्ति होती है उसके भीतर। और जो भी उसके पूरे प्राण चाहते हैं, वह हो जाता है, उसके निर्णय नहीं लेने पड़ते
हैं कि ऐसा हो,
ऐसा
मैं करूं। उसका पूरा काम--जो चाहता है, वह हो जाता है! उसके भीतर संकल्प का अर्थ है
जिसके भीतर विकल्प नहीं रह गये।
जिस
आदमी के चित्त में विकल्प उठते ही नहीं, उसके भीतर संकल्प है।
विकल्पों
से विदा होने पर संकल्प रह जाता है।
संकल्प
का मतलब है वही ऊर्जा, वही
शक्ति,
जो
परमात्मा की है। वही काम करने लगती है।
फिर
आदमी ऐसा नहीं कहता है कि मैं ऐसा करूंगा। वह कहता है कि ऐसा हो रहा है। वैसा आदमी
च्वाइस भी नहीं करता, चुनाव
भी नहीं करता। वह यह कहता है कि मैं युक्त होता हूं और यह करता हूं। उसके पूरे
प्राणों को जो ठीक लगता है, वह वही
करता है। चुनाव भी नहीं करता! वह यह भी नहीं कहता कि मैं फलां चीज छोड़ता हूं!
क्योंकि हम छोड़ते उसी चीज को हैं, जिसके
पीछे हमारा कोई लगाव होगा।
जब एक
आदमी कहता है कि मैं बांये जाऊं कि दांये, तो उसके भीतर जो निर्णय होता है वह माना कि
मेजार्टी का निर्णय है, डेमोक्रेटिक
निर्णय है। पचास प्रतिशत दिमाग कहता है कि चलो, बांये चले चलो, उनचास प्रतिशत दिमाग कहता है
कि दांये चलो। फिर वह बांये चला जाता है। क्योंकि उनचास प्रतिशत दिमाग में रहा कि
दांये चलो--दस पच्चीस कदम गया है, तो
लगता है कि कहीं भूल तो नहीं हो गयी है--दो प्रतिशत! दांये ही चले जायें! उनचास
प्रतिशत कहने लगता है कि गलती हुई जा रही है, इसी पर चलते तो बहुत अच्छा था! यह आदमी
डोलता है। यह कभी तय नहीं कर पाता है।
ऐसे
लोग हैं कि घर में ताले लगाकर निकलते हैं, दस कदम के बाद खयाल आता है कि फिर से लौटकर
देख लें कि ताला ठीक से लगा है कि नहीं! क्योंकि दिमाग कहता है, देखा था कि नहीं देखा था? एक हिस्सा कहता है कि देखा तो
था। लेकिन दूसरा हिस्सा कहता है कि संदिग्ध है, चलें लौटकर देख लें! लेकिन वह आदमी यह नहीं
जानता कि लौटकर देखकर फिर दस कदम बाद यही हालत हो जायेगी! कुछ लोग जिंदगी भर
लौट-लौट कर ताला ही देखते रह जाते हैं! और निरंतर विकल्प करते रहते हैं--यह करो, यह करो। उनके दिमाग में यही
चलता रहता है!
एक
बहुत बड़ा विचारक था कीर्कगार्ड। वह जिस गांव में रहता था, उस गांव के लोगों ने उसका नाम
'ईदर-आर' रख छोड़ा था। चौरस्ते पर खड़ा
है और सोच रहा है कि इस रास्ते जाऊं कि उस रास्ते जाऊं! उसने एक किताब लिखी है, जिसका नाम "ईदर-आर' है--यह या वह! सारा गांव
चिल्लाता था,
वह
"ईदर-आर'
जा रहे
हैं--हर छोटी चीज में!
एक
लड़की से प्रेम हो गया। और "ईदर-आर' खड़ा हो गया--शादी करूं या न करूं! दस साल तक
सोचता रहा! तब तक लड़की की शादी हो गई, उसके लड़के-बच्चे शादी योग्य हो गये! तब वह
पक्का कर पाया कि कर लेनी चाहिए शादी! फिर वह गया। तब पता चला कि लड़की का तो विवाह
भी हो चुका है,
उसके
बच्चे भी बड़े हो चुके हैं। तुम बहुत देर करके आये, तुम गये कहां? उसने कहा, मैं हिसाब लगाता रहा कि करना
चाहिए कि नहीं करना चाहिए!
यह जो
मस्तिष्क है,
विकल्प
से भरा हुआ--मस्तिष्क हमेशा कहता है-- यह या वह! और हमेशा डोलता है दोनों तरफ! हर
वक्त डोलता रहता है, हर चीज
में डोलता रहता है! कमीज तक पहनता है आदमी तो एक निकालता है, उसको रखता है; फिर दूसरी निकालता है, फिर पहनकर आईने के सामने खड़ा
होता है,
फिर
उसे भी निकालता है! वह "ईदर-आर' पूरे वक्त दिमाग को खाये जा रहा है! ऐसा
आदमी कैसे संकल्प को उपलब्ध हो सकता है?
पति
बाहर हार्न बजा रहा है कि गाड़ी चूकी जाती है। पत्नी कहती है, सवाल गाड़ी का नहीं, स्टेशन पर इतने लोग हैं, साड़ी का सवाल है! और वह तय
नहीं कर पा रही है, क्योंकि
बहुत साड़ियां हैं पेटी में--नीचे से ऊपर तक! तो वह तय नहीं कर पा रही है कि कौन सी
साड़ी पहने! "ईदर-आर' है
दिमाग में,
हर
छोटी चीज पर!
अगर आप
भी यह तय कर लें कि मैं पक्का निर्णय करके ही कुछ करूंगा, तो जिंदगी भर कुछ नहीं कर
पायेंगे,
क्योंकि
पक्का निर्णय होने वाला नहीं है। कुछ हिस्सा भीतर का कहता रहेगा, यह भी कर लो, शायद वह ठीक हो। वह तो मौत
आपसे पूछती नहीं,
आती
है। आप मरना चाहते हैं कि नहीं? नहीं
तो बड़ी मुश्किल हो जाये। आदमी अधमरे मुद पड़े रहेंगे, वर्षों, सैकड़ों वर्षों तक और तय नहीं
कर पाये कि मरें कि नहीं! तो मौत आती है। वह पूछती नहीं और ले जाती है। सिर्फ मौत
आपको कोई विकल्प नहीं देती है। और इसलिए मौत का सबसे ज्यादा डर लगता है, क्योंकि वह हमसे पूछती नहीं।
इसलिए हम उससे भयभीत रहते हैं, क्योंकि
वह हमसे पूछती नहीं कि आपको क्या करना है!
मैंने
सुना है,
एक
लकड़हारा जंगल से लकड़ी काटकर लौटता था, तब रोज-रोज कई बार कहता था, हे भगवान, मुझे तुम मार डालो, उठा लो दुनिया से! यह क्या
लकड़ी ढोते-ढोते जिंदगी खराब हो गयी! जिंदगी भर यही करता रहूंगा? आज भी लकड़ी ढोते चला आया--सिर
पर भार है,
पसीना
चू आया है,
बूढ़ा
आदमी है,
एक जगह
आकर लकड़ियों का गट्ठा टेककर उसने कहा, हे भगवान, अब तो मुझे उठा ले, अब मुझे रहने की जरूरत नहीं!
भाग्य
की बात कि मौत उस रास्ते से गुजरती थी। उसने सुन ली, कहा, यह बेचारा बहुत दिन से बुलाता
है, चलो इसको लेते चलें। तो मौत
उसके पास आयी उसने कहा, मैं आ
गयी हूं!
लकड़हारे
ने कहा,
तू कौन
है?
उसने
कहा, मैं मौत हूं, तू बहुत दिन से बुलाता था, आज रास्ते पर मिल गये, मैं जा रही थी दूसरी जगह, चलो तुम्हें ले चलती हूं।
उस
बूढ़े ने कहा,
मर
गये! ठहर-ठहर,
मैंने
तुझे बुलाया जरूर,
लेकिन
बुलाया इसलिए कि रास्ते पर कोई दिखाई नहीं पड़ता था। यह जो गट्ठा दिखाई दे रहा है, यह उठा दे मेरे सिर पर! और
कोई काम नहीं है,
सिर्फ
यह गट्ठा उठा दे मेरे सिर पर। और जिंदगी में आइंदा ऐसी बात नहीं करूंगा। मैंने तो
तुझे इसे उठवाने के लिए बुलाया था!
वह
हमारा जो चित्त है, उस
चित्त की चंचलता का कोई अर्थ नहीं है। चित्त की चंचलता का हमेशा एक ही अर्थ है कि
चित्त हमेशा "ईदर-आर' में
सोचता है--यह या वह! और दोनों पर डोलता है! ऐसा डोलने वाला चित्त, विकल्प चित्त कहलाता
है--विकल्पवान।
जब
चित्त ऐसी दशा में पहुंचता है, जहां
यह-वह दोनों समाप्त हो जाते हैं। जो है, वही परिपूर्ण टोटल, इंटिग्रेटेड। एक ही प्राण का
उत्तर होता है। कि यह और वह, इसमें
कोई विरोधी स्वर नहीं होता। ऐसा चित्त संकल्पवान होता है।
संकल्प
उन्हें उपलब्ध होता है, जो
विकल्प से मुक्त हो जाते हैं।
लेकिन
आप कहते हो कि मैं सिगरेट छोड़कर रहूंगा, मैं कसम खाता हूं, सिगरेट नहीं पीयूंगा! आप
विकल्प खड़ा कर रहे हैं। एक मन कह रहा है कि मैं सिगरेट पीयूंगा, उसी के खिलाफ आप दूसरा विकल्प
कर रहे हैं कि नहीं पीयूंगा! आप विकल्प खड़ा कर रहे हैं। आपकी संकल्प शक्ति कम होगी, बढ़ेगी नहीं। आप यह मत समझना
कि इससे संकल्प बढ़ जायेगा, इससे
संकल्प शक्ति क्षीण होगी, क्योंकि
रोज-रोज आप कसम लेंगे और रोज-रोज कसम टूटेगी। और अंततः आप पायेंगे कि व्यक्तित्व
सारा टूट गया है। संकल्प का अर्थ है जहां विकल्प नहीं है, जहां कोई अल्टरनेटिव नहीं है, जहां एक ही स्वर उठता है कि
बस यही।
बंगाल
में बुत्तौ एक बहुत बड़ा व्याकरण का ज्ञाता हुआ। उसके बाप ने उसकी जब साठवीं
वर्षगांठ हुई तो उससे कहा कि तू अपने इस व्याकरण में उलझा रहेगा? यह धंधा तू छोड़ और भगवान का
स्मरण कर!
उस
बेटे ने--साठ वर्ष का बूढ़ा वह भी था, बाप अस्सी साल का होगा--उस बूढ़े बेटे ने कहा, कि करूंगा एक दिन, एक बार; बार-बार नहीं! क्योंकि
बार-बार स्मरण करने से मतलब क्या है? तुम्हें मैं देख रहा हूं वर्षों से, सुबह से शाम तक भगवान का
स्मरण करते हो! कुछ हुआ तो नहीं!
और तुम
बड़े अजीब हो! तुमने जब पहली दफा स्मरण किया था और जब पहली दफा नहीं हुआ तो उसी स्मरण
को बार-बार करने से फायदा क्या है? जब होना था तो पहली बार ही हो गया होता। वही
तो कर रहे हो न?
दो बार, फिर तीन बार, वही कर रहे हो! जब पहली बार
नहीं हुआ--करने वाले भी तुम्हीं हो, स्मरण भी वही है और रोज-रोज कर रहे हो, और नहीं हो रहा है--फिर भी
किये चले जा रहे हो! मैं एक बार करूंगा। एक बार सिर्फ! दोबारा नहीं करूंगा।
पांच
साल बाद उसकी पैंसठवीं वर्षगांठ थी। वह पैंसठ वर्ष का बूढ़ा उठा। अपने पिता के चरण
छुए और कहा कि मैं मंदिर जा रहा हूं। शायद आज स्मरण का दिन आ गया है, आपके चरण छूता हूं।
बाप ने
कहा, इसमें चरण छूने की क्या बात
है?
उसने
कहा, लौटना मुश्किल है, क्योंकि जा रहा हूं।
बाप ने
कहा, मतलब क्या है तेरा?
उसने
कहा, मतलब साफ है। जब मंदिर जा रहा
हूं तो घर कैसे लौटूंगा!
बाप ने
कहा, पागल हो गये हो? मैं रोज लौटता हूं। कोई मंदिर
जाने से लौटने में बाधा होती है?
उस बेटे
ने कहा,
आप
मंदिर गये ही नहीं। नहीं तो लौटते कैसे?
बाप
हंसा कि पागल है! कभी गया नहीं मंदिर और आज क्या बातें करता है!
लेकिन
उस दिन और रात गांव के लोगों ने दौड़कर खबर दी कि तुम्हारा लड़का मरा हुआ पड़ा है
मंदिर में!
बाप ने
कहा, यह क्या हो गया!
सारा
का सारा गांव इकट्ठा हो गया। मंदिर के पुजारी ने कहा, न मालूम आज पहली दफे तो आया
और हाथ जोड़कर खड़ा हुआ और उसने कहा, एक बार पुकारता हूं, सुनते हो तो सुन लो। नहीं
सुनते हो तो बात खत्म। फिर दोबारा मैं तेरी तरफ लौटकर देखूंगा भी नहीं। और उसने एक
बार आंख बंद की और उसकी श्वास जो बाहर गयी तो पीछे नहीं लौटी!
इसको
कहते हैं संकल्प। संकल्प का मतलब क्या होता है? संकल्प का मतलब होता है इंटिग्रेटेड माइंड।
पूरा का पूरा,
टोटल, समग्र चित्त। जब कोई एक स्वर
से भरता है,
तब
संकल्प की स्थिति है। और संकल्प जो चाहता है, वही हो जाता है। संकल्प के लिए कोई बाधा
नहीं है।
हम तो
विकल्पों में जीते हैं। और एक विकल्प को पकड़ते हैं, और दूसरे के खिलाफ कहते हैं
कि मैं संकल्प कर रहा हूं! यह संकल्प नहीं है।
तो
दूसरी बात,
इन
छोटी-छोटी बातों को लेकर अपने मन को खंड-खंड में मत तोड़ना। क्योंकि खंडित मन कमजोर
मन है। जितने खंड टूट जायेंगे, मन
उतना ही अशक्त और निर्वीर्य हो जाता है। मन चाहिए अखंड। अखंड चित्त ही विराट खंड
से जुड़ने में समर्थ हो पाता है।
लेकिन
यह मत समझ लेना कि मैं कहता हूं, क्रोध
करो। जो भी करना हो, करो।
क्योंकि संकल्प करने में ही व्रत लेना नहीं है।
साधु-संन्यासी
समझाते हैं पूरे मुल्क में कि मैं लोगों को क्रोध करने की, वासना में उतरने के--इन सबके
लिए प्रयोग कर रहा हूं। तो मैं लोगों से कह रहा हूं, व्रत मत लो, नियम मत लो और जो ठीक लगे
करो! मैंने कभी नहीं कहा। मैं यह कह रहा हूं कि व्रत और नियम लेने के बाद तुम
क्रोध ही करते रहोगे। काम में ही उलझे रहोगे। व्रत और नियम से कभी कोई क्रोध, लोभ, काम से मुक्त नहीं हुआ है।
मैं यह
कह रहा हूं,
व्रत
मत लो। क्रोध को,
काम को
समझो। समझते ही मुक्त हो जाओगे। समझ से ही कभी कोई मुक्त हुआ है। नियम सिर्फ नासमझ
लेते हैं। समझदार आदमी कभी नियम नहीं लेता, समझ को विकसित करता है। समझ नियम बन जाती
है। नियम समझ नहीं बन पाते। सिर्फ जड़-बुद्धि, मंद-बुद्धि व्रत लेते हैं! बुद्धिमान कभी
व्रत नहीं लेता। क्योंकि बुद्धिमानी स्वयं व्रत है। बुद्धिमान लोगों को इसलिए अलग
से व्रत नहीं लेने पड़ते। बुद्धिमानी स्वयं संयम है। बुद्धिमान को संयम की, नियम की, कसमें नहीं खानी पड़ती हैं।
धर्म
के नाम पर मंद-बुद्धि का प्रयोग चल रहा है। और जो अभी व्रत लेता है, कसम खाता है, संघर्ष करता है कि ऐसा नहीं
करूंगा,
ऐसा
करूंगा;
ऐसे
आदमी अपने मस्तिष्क को, अपनी
बुद्धि को,
मंद
करने की दिशा में ले जाते हैं। अगर बिलकुल ही जड़ता पानी हो तो नियम, व्रत आदि बड़े सहयोगी हैं।
अगर
सारा गौरव खोना हो; विवेक
का, बुद्धि का सारा प्रकाश खोना
हो; अगर वह ऊर्जा, वह गरिमा, जो मनुष्य के भीतर छिपी है
विवेक की,
अंडरस्टैंडिंग
की, वह सब नष्ट करनी हो तो व्रत
लेना, संयम लेना, नियम लेना।
और
ध्यान रखना,
संयम, नियम और व्रत कभी भी संयमी
नहीं बना सकेंगे। न नियमी बना सकेंगे, न व्रती बना सकेंगे।
यह बड़ी
उलटी बात मालूम पड़ती है। यही तो हमें दिखाई पड़ता है चारों तरफ। महावीर को देखें, बुद्ध को देखें, जीसस को या कृष्ण को, तो ऐसा मालूम पड़ता है कि बड़े
नियम के आदमी हैं। नियम के आदमी बिलकुल नहीं हैं। महावीर से ज्यादा बिना नियम का
आदमी खोजना मुश्किल है।
लेकिन
हम कहेंगे कि महावीर तो इंच-इंच नियम का पालन करते हैं! बुद्ध इंच-इंच नियम का
पालन करते हैं! हर रोज पांच बजे सुबह उठते हैं ब्रह्म-मुहूर्त में, तो हमको भी कसम खानी चाहिए कि
रोज पांच बजे ब्रह्म-मुहूर्त में उठेंगे।
लेकिन
कभी आपको पता है,
महावीर
ने ब्रह्म-मुहूर्त में उठने की कसम नहीं खायी। महावीर इतने गहरे सोते हैं कि
ब्रह्म-मुहूर्त में उठ जाते हैं। ब्रह्म-मुहूर्त में उठने की कोई कसम उन्होंने
नहीं ली है। लेकिन इतना गहरा सोते हैं कि ब्रह्म-मुहूर्त तक नींद पूरी हो जाती है
और उठ जाते हैं!
और आप
खायेंगे कसम कि हम पांच बजे उठेंगे। वह कसम पांच बजे उठा देगी, लेकिन दिनभर सोये हुए रखेगी।
दिन भर झपकियां आती रहेंगी। क्योंकि महावीर की नींद कहां है आपके पास। महावीर की
नींद तो ब्रह्म-मुहूर्त में खुलती है। और महावीर की नींद न हो तो ब्रह्म-मुहूर्त
में नींद खोलनी होती है। और खोलनी पड़े तो नींद झूठी है। और इससे बेहतर है, सो जाना। सात बजे ही उठना, कोई हर्जा नहीं है। कम से कम
दिन भर तो जागे हुए होंगे।
मैं
चाहता हूं कि पांच बजे नींद खुले, इसकी
समझ विकसित होनी चाहिए। और नींद खुल जाये अपने आप। जो नींद अपने आप खुलती है, वही नींद सम्यक नींद है। जिस
नींद को खोलना पड़ता है, वह
नींद गड़बड़ हो जाती है, विकृत
हो जाती है। लेकिन एक आदमी कसमें खा लेता है कि हम तो तीन बजे उठेंगे!
एक
पंजाबी महिला मेरे पास आयी और उसने मुझसे कहा कि किसी भांति मेरे पति को थोड़ा कम
धार्मिक बनाइए! वह मेरे पास आई, क्योंकि
वह जानती है कि मैं लोगों को कम धार्मिक बनाता हूं। किसी तरह थोड़ा इनका रिलीजन कम
हो जाये तो हम पर बड़ी कृपा होगी! हमारा पूरा घर पागल हुआ जा रहा है!
और एक
घर में एक आदमी धार्मिक हो जाये तो पूरा घर पागल होने लगता है! तथाकथित धार्मिक
अगर एक आदमी हो गया पूरे घर में, तो
पूरे घर का दुर्भाग्य समझें। वह पूरे घर को दिक्कत में डाल देगा। उसके नियम, उपवास, व्रत आदि का ऐसा चक्कर चलेगा
कि उस घर में शांति से रहना, किसी
का भी संभव नहीं है। तो मैंने पूछा, तकलीफ क्या है उन्हें?
तो
उसने कहा,
वह दो
बजे रात उठते हैं,
और
जपुजी का पाठ करते हैं इतने जोर-जोर से कि मुहल्ले के सब लोग आकर कहते हैं कि
हमारी नींद हराम कर डाली। घर में न बच्चे सो सकते हैं, न हम सो सकते हैं। दिन भर
स्कूल में बच्चों को नींद आती है, क्योंकि
इनके जपुजी के मारे मुसीबत हो गयी है! आप मेरे पति को समझा दें कि थोड़ा कम धार्मिक
हो जायें तो मुझ पर बड़ी कृपा होगी।
उनके
पति को मैंने बुलाया। मैंने कहा, कब
उठते हो?
उन्होंने
कहा, दो बजे सुबह! और बहुत
प्रसन्नता में मुस्कराकर बोले कि आप तो मेरी बात को शाबाशी देंगे! मेरी पत्नी जान
खाये जा रही है। लेकिन ऐसा सदा होता रहा है, धार्मिक पुरुषों की पत्नियां हमेशा पीछे
खींचती हैं। पत्नियां ही संसार की तरफ लाती हैं लोगों को भगवान की तरफ से! फिर यह
तो होता रहा है,
मैं
सुनने वाला नहीं। और कोई बुरा काम तो करता नहीं हूं, जपुजी का पाठ करता हूं।
मैंने
कहा, धीरे करते हो कि जोर से?
उन्होंने
कहा, मैं तो जोर से करता हूं, क्योंकि पत्नी, बच्चे सबको अनायास लाभ हो
जाता है! वह तो अनायास कई लोगों को लाभ दे रहे हैं! माइक, लाउड-स्पीकर लगाकर अखंड
रामायण चलाते हैं,
अखंड
राम-नाम चलाते हैं! वह सारे मुहल्ले वालों को राम-नाम का फायदा देते हैं! सारा
मोहल्ला गाली देता है। बच्चे परीक्षाओं में फेल हो जाते हैं। और वह राम-नाम को
अखंड चला रहे हैं,
वह
सबका कल्याण कर रहे हैं! मैंने उनसे कहा कि तुम तो माइक लगाकर जपुजी का पाठ करो तो
मोहल्ले वालों को बहुत फायदा होगा! लेकिन एक बात ध्यान रखना, आजकल जो माइक वगैरह लगाकर
अखंड रामायण करते हैं, सबको
नर्क जाना पड़ता
है, क्योंकि इतने लोगों को तकलीफ
पहुंचा देते हैं! यह क्या पागलपन मचा रखा है? दिन भर क्या हालत है?
उन्होंने
कहा, दिन भर तामसी प्रवृत्ति है, इसलिए दिन भर नींद आती है! अब
दो बजे रात जागेंगे! और दिन भर नींद आयेगी तो शास्त्रों में लिखा है कि जिसको दिन
में नींद आती है,
वह
तामसी प्रवृत्ति का आदमी होगा! तो मेरी तामसी प्रवृत्ति है और उससे ही लड़ रहा हूं।
आज नहीं कल,
जीत
जाऊंगा। और काफी मैं काबू पा लिया हूं।
यह जो
इस तरह के नियम लेने वाले लोग हैं, वे किसी भी चीज में नियम लेंगे। उससे वे
अपने को भी नुकसान पहुंचायेंगे, पड़ोस
में भी सबको नुकसान पहुंचायेंगे।
नियम
नहीं लिए जाते,
समझ
होनी चाहिए।
और समझ
विकसित हो तो आदमी ठीक समय पर सोयेगा, ठीक समय पर उठेगा; ठीक खायेगा, ठीक पीयेगा, ठीक बोलेगा, ठीक बैठेगा। लेकिन समझ से। यह
मेरी समझ से आया हुआ अनुशासन होगा, यह थोपा हुआ अनुशासन नहीं होगा।
लेकिन
हम थोपे हुए अनुशासन को अब तक मानते रहे हैं! और इसलिए सारी मनुष्य-जाति को विकृत, कुरूप, अपंग, भटका हुआ कर दिया है।
नहीं, ऊपर से थोपा हुआ कोई अनुशासन
नहीं चाहिए। समझ से, भीतर
से आया हुआ अनुशासन चाहिए। वह अनुशासन बहुत और तरह का है। उसमें उतना ही फर्क होता
है, जैसे कोई बाजार से कागज के
फूल खरीद लाये और किसी के घर में गुलाब के फूल खिले हों। बाजार में भी गुलाब के
फूल कागज के मिलते हैं, वे
अच्छे भी होते हैं--कई कारण हैं। एक तो अच्छाई उनकी यह होती है कि उनमें कांटे
नहीं होते हैं,
दूसरी
अच्छाई यह होती है कि वे मुरझाते नहीं, तीसरी अच्छाई यह होती है कि कितने ही दिन
रखे रहो,
वैसे
ही बने रहते हैं! लेकिन एक ही भर उनमें खराबी होती है, वे कागज के होते हैं, फूल नहीं होते हैं!
वह
असली फूल आता है पौधे के भीतर से। जमीन की गहराइयों से आता है, जड़ों से आता है। अनजान, अज्ञान लोक से आता है और
प्रकट होता है,
खिलता
है। वह भीतर से आया हुआ फूल है। कागज के फूल लाये गये, लगाये गये फूल हैं।
नियम
और व्रत लेने वाले लोग कागजी किस्म के लोग हैं, जापानी किस्म के, ऊपर से सब लगाया हुआ। उनके
भीतर से कुछ भी नहीं आया है। सब बाजार से खरीदकर लाया गया है, और ऊपर से चिपका लिया है, बिठा लिया गया है। भीतर उनके
कुछ भी नहीं है।
मैं
बात कर रहा हूं,
उस
धर्म की,
जो
भीतर से फूलों की तरह आये और सारे व्यक्तित्व में खिल जाये। लेकिन उन फूलों को
लाने में श्रम करना पड़ता है। श्रम इस अर्थ में कि बहुत-सी नासमझी छोड़नी पड़ती है, बहुत-सा अज्ञान तोड़ना पड़ता है, बहुत-सी व्यक्तित्व की पर्तों
की खोज करनी पड़ती है, भीतर
जाना पड़ता है,
उघाड़ना
पड़ता है,
अपने
को नग्न करना पड़ता है, इसलिए
मेहनत उठानी पड़ती है।
कागज
के फूलों को कोई दिक्कत नहीं है। वे बाजार में मिल जायेंगे, उनको ले आओ और लगा दो!
मंदिरों
में व्रत लिए जाते हैं, कसमें
खायी जाती हैं। वहां तुम चले जाओ, कसमें
खाओ, व्रत लो, लेकिन उनसे एक झूठा आदमी पैदा
होता है,
सच्चा
आदमी पैदा नहीं होगा।
इस
पृथ्वी पर इतना असत्य है, इतना
झूठ, इतना पाखंड, इतनी हिपोक्रेसी है; इसका कुल कारण इतना है कि
लोगों ने ऊपर से धर्म थोपा है, वह
भीतर से नहीं आया है। अगर भीतर से न आये तो बड़ी तकलीफ होती है और बड़ी पीड़ा होती
है।
एक
सुधारक मेरे पास मेहमान हुए। दो चार दिन मेरे करीब रहे तो मुझसे परिचित हो गये और
मेरे प्रति वे सरल और साफ हो गये। मुझसे कहने लगे कि आपसे मैं अपने हृदय की कुछ
सच्ची बातें कह सकता हूं, जो
मैंने कभी किसी से नहीं कहीं। और मेरी कुछ सहायता करें तो मेरा बड़ा लाभ हो। तो
मैंने कहा,
क्या
मैं कर सकता हूं,
बोलो।
तो
उन्होंने कहा कि सबसे पहला तो यह कि मुझे सिनेमा देखना है!
मैं भी
बहुत हैरान हुआ। मैंने कहा, मतलब?
तो
उन्होंने कहा,
जब मैं
नौ साल का था,
तब
मेरे पिता ने मुझे दीक्षा दिलायी थी। मेरी पिता भी दीक्षित हो गये थे। और वे इसलिए
दीक्षित हो गये कि मेरे मां मर गयी थी। मेरी मां के मरने की वजह से पिता बेकार हो
गये और वे दीक्षित हो गये। मैं अकेला नौ साल का बच्चा था, तो उन्होंने मुझे दीक्षा
दिलायी। मेरी बुद्धि नौ साल के ऊपर अटकी हुई है, उससे आगे विकसित नहीं हुई है।
कैसे विकसित होगी?
दीक्षित
आदमी की बुद्धि कभी विकसित नहीं होगी। क्योंकि विकास के लिए चाहिए अनुभव, विकास के लिए चाहिए विराट
अनुभव। दीक्षित आदमी को अनुभव नहीं होता है--बंधा हुआ होता है, एक घेरे में जीता है। अब नौ
साल का बच्चा,
उसने
कभी फिल्म नहीं देखी थी! अब वह हो गया ज्ञानी, वह हो गया मुनि, वह अपने हाथों में कमंडल और
पट्टी-बट्टी बांधकर घूमने लगा! वह लोगों को आत्मा और मोक्ष का ज्ञान देने लगा! अब
भीतर एक अटकाव है कि जब वह टाकीज के सामने से निकलता है, वहां भीड़ लगी हुई देखता है!
उसके मन में होता है, भीतर न
जाने क्या होता होगा। भीतर तो कुछ होता होगा? इतने लोग भीड़ लगाये हुए हैं खिड़कियों पर!
भीतर होता क्या है?
वह
आपको अंदाजा नहीं हो सकता है--उस बेचारे की तकलीफ! क्योंकि आप भीतर हो आये। आपको
पता नहीं हो सकता कि नौ साल में जो दीक्षित हो गया है, उसकी तकलीफ क्या हो सकती है? वह कितनी मुश्किल में पड़ा
होगा?
उसने
मुझसे कहा,
मेरी
बड़ी मुसीबत हो गयी है। मैं रहता तो मंदिरों में हूं, लेकिन मेरा चित्त टाकीज के
पास घूमता है! मैं तो मोक्ष की बातें ही कर सकता हूं। यही करता हूं। और देखना मुझे
फिल्म है! एक दफे कोई तरकीब से आप मुझे दिखा दें।
मैंने
एक मित्र को बुलाया। पड़ोस के एक मित्र थे। मैंने उनको कहा कि आप जाकर इनको फिल्म
दिखा लाइये। उन्होंने कहा, मैं
हाथ जोड़ता हूं। मैं इनको ले जाऊंगा और किसी ने मुझे देख लिया कि मैं इस साधु को
फिल्म दिखाने लाया हूं तो यह ठीक नहीं है। मेरी भी मरम्मत हो सकती है। मैं इस झंझट
में नहीं पड़ता। बहुत उनको समझाया तो वह बोले कि कैंटोनमेंट एरिया में अंग्रेजी
फिल्म की एक टाकीज है। वहां ले जा सकता हूं, क्योंकि वहां जैनी वगैरह नहीं है। ये
जैनियों के गुरु हैं। वहां अंग्रेजी फिल्म दिखा सकता हूं इनको। बस्ती में नहीं ले
जा सकता हूं इनको। लेकिन यह गुरु अंग्रेजी नहीं जानते हैं! वह कहने लगे, अंग्रेजी तो मैं जानता नहीं।
तो
मैंने कहा,
यह तो
अंग्रेजी फिल्म ही दिखा सकते हैं। यह उनको मैंने कहा कि ये हिंदी चित्र दिखाने को
राजी नहीं हैं। आप अंग्रेजी नहीं समझते हैं, क्या किया जा सकता है। फिर आप मत जाइये। वह
बोले, कोई हर्जा नहीं, भाषा नहीं समझूंगा, लेकिन देख तो लूंगा। चले गये!
नौ
वर्ष में व्रत दिलवा दिया जिंदगी के प्रति आंख बंद रखने का! उससे जिंदगी मिट नहीं
जायेगी और उससे जिंदगी आकर्षण हो जायेगी। मन और जोरों से पुकार करने लगता है कि यह
जानूं,
यह
जानूं!
व्रत
भूलकर मत लेना। व्रत से समझ विकसित नहीं होती है, कुंठित होती है।
दीक्षा
कभी भूलकर मत लेना। दीक्षा से आदमी मंद-बुद्धि होता है।
समझ को
स्वीकार कर लेना चाहिए। समझ से एक दिन नियम आते हैं फूलों की तरह। समझ से अंततः
संन्यास आता है फूलों की तरह। तब वह संन्यास बिलकुल दूसरा हो जाता है। यह
वर्दीधारियों का संन्यास नहीं होता है। वर्दीधारी संन्यासी में और वर्दीधारी
मिलटरी के सैनिक में कोई फर्क नहीं है। सब सीखा हुआ है ऊपर से। लेफट-राइट करने
वाले लोग हैं,
इससे
ज्यादा कोई मूल्य नहीं है। लिया हुआ संन्यास झूठा होगा। संन्यास आना चाहिए।
जीवन
की समझ से धीरे-धीरे संन्यास आता है।
सारा
व्यक्तित्व बदल जाता है। उस बदले हुए व्यक्तित्व के लिए--सारी बातें जो मैंने कही
हैं, उसके लिए एक सहज फ्लावरिंग, एक सहज खिल जाना है। थोपा हुआ, जबरदस्ती खींचात्ताना, चेष्टा से लाया, जड़--और इस तरह प्रलोभन के
मार्ग से आया हुआ कोई भी ढंग, ढांचा
मनुष्य के हित में नहीं है, वह
मनुष्य की हत्या करता है।
और
बहुत से प्रश्न रह गये हैं। उन पर तो बात संभव नहीं हो पायेगी। जिन मित्रों के
प्रश्न छूट गये हों, वे भी
जिन प्रश्नों के मैंने उत्तर दिये हैं, अगर उन्होंने गौर से सुना होगा, समझा होगा, तो उन्हें ऐसा नहीं लगेगा कि
उनके प्रश्न छूट गये हैं।
लेकिन
हमारे मन में बड़ा मुश्किल होता है। जो आदमी प्रश्न पूछता है, उसे प्रश्न से ज्यादा इस बात
का खयाल होता है कि उसका प्रश्न! तो मैं जब फिर निकलता हूं तो मुझे रास्ते में याद
दिला देते हैं कि सब तो ठीक है, लेकिन
मेरे प्रश्न का क्या हुआ! वह प्रश्न उतना मूल्यवान नहीं है। वह मैंने पूछा है, उसका उत्तर जरूरी है!
ये
सारभूत प्रश्न थे,
जो
सबके प्रश्नों में समान थे। जो मुझे लगा कि आपकी साधना में उपयोगी होंगे, उनके मैंने उत्तर दिये हैं।
कुछ और भी प्रश्न उपयोगी हो सकते थे, लेकिन वे समय के अभाव में संभव नहीं हैं।
जिनके प्रश्नों के उत्तर न मिल पाये हों, वे अपने प्रश्नों को संभालकर रखेंगे, दुबारा जब कभी उनको उत्तर मिल
सके। हालांकि लोग प्रश्न भी भूल जाते हैं, क्योंकि प्रश्न भी उधार होते हैं। ऐसा मैं
रोज-रोज अनुभव करता हूं।
एक
आदमी आता है मेरे पास और पूछता है कि आत्मा के संबंध में कुछ बताइए?
और मैं
देखता हूं कि उस बेचारे को आत्मा से क्या मतलब है! आत्मा से किसी को क्या मतलब हो
सकता है!
तो मैं
उससे पूछता हूं,
कैसी
तबीयत है,
क्या
हाल है,
कैसा
काम चलता है?
बस दो
मिनट मैं दूसरी बात करता हूं। फिर वह घंटे भर बैठता है, फिर वह हजार बातें करता है और
चला जाता है!
फिर वह
भूलकर दुबारा याद नहीं दिलाता कि वह आत्मा का क्या हुआ! वह बात गयी। वह कहीं उसके
भीतर से आयी हुई बात नहीं है कि उसे पूछने से कोई संबंध था बहुत। पूछना था, पूछ लिया। सुना था, खयाल आ गया कि मन में हवा उड़
गयी। खयाल आ गया,
चलो
आत्मा के संबंध में पूछो, लेकिन
कहीं कोई गहरा लगाव नहीं था।
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