ज्योति से ज्योति जले-(सूंदर दास)
प्रवचन-ग्याहरवां
सारसूत्र:
मन ही बड़ौ कपूत है
मन कौं राखत हटकि करि, सटकि चहूं दिसि जाइ।
सुंदर लटकि स लालची गटकि बिषैफल खाइ।।
सुंदर क्यौंकरि धीजिए मन कौ बुरौ सुभाव।
आइ बनै गुदरै नहीं, खेलै अपनौं दाव।।
सुंदर यहु मन भांड है, सदा भंडायौ देत।
रूप धरै बहु भांति कै, राते पीरे सेत।।
सुंदर आसन मारिकै, साधि रहे मुख मौन।
तन कौं राखै पकरिकै, मन पकरै कहि कौन।।
तन कौ साधन होत है, मन कौ साधन नाहिं।।
सुंदर बाहर सब करै, मन साधन मन मांहिं।।
मन ही बड़ौ कपूत है, मन ही महा सपूत।
सुंदर जौ मन थिर रहै, तौ मन ही अवधूत।।
जब मन देखै जगत् कौं, जगत् रूप ह्वैं जाइ।
सुंदर देखै ब्रह्म कौं, तब मन ब्रह्म समाइ।।
सुंदर परम सुगंध सौ, लपटि रहयौ निश-भोर।
पुंडिरीक परमातमा, चंचरीक मन मोर।।
छुटयौ चाहत जगत् सौं, महा अज्ञ मतिमंद।
जोई करै उपाय कछु, सुंदर सोई फंद।।
बैठौ आसन मारि करि, पकरि रहयो मुख मौन।
सुंदर सैन बतावतें, सिद्ध भयौ कहि कौन।।
कोउ करैं पयपान कौं, कौन सिद्धि कहि बीर।
सुंदर बालक बाछरा, ये नित पीवहिं खीर।।
कोऊ होत अलौंनिया, खाय अलौंनो नाज।
सुंदर करहिं प्रपंच बबहु, मान बढ़ावन काज।।
कोऊक दूध रूपूत दे, कर पर मेल्हि विभूति।
सुंदर ये पाखंड किय, क्यौंही परै न सूति।।
केस लुचाइ न ह्वैं जती, कान फराइ न जोग।
सुंदर सिद्धि कहा भई, बादि हंसाए लोग।।
मेरे एक संन्यासी कवि स्वामी योग प्रीतम ने यह गीत मुझे भेजा है--
भगवान एक और गीत मुझे गाना है
एक और छंद गुनगुनाना है
गीत तो वही हैं जो हुलस-हुलस
अपने ही कंठों ने गाए हों
भाव तो वही है जो उमग-उमग
अपने ही प्राणों से आए हों
क्या होगा पर के सुरत्तालों से
मुझको निज सरगम पर आना है
प्यारे हैं गीत बहुत प्यारे हैं
रसभीगे गीत ये तुम्हारे हैं
इन पर मैं न्यौछावर होता हूं
पर मेरे गीत अभी क्वांरे हैं
इनका भी ब्याह अब रचाना है
प्राणों का साज ही बजाना है
जब तक वह पाहुना न आएगा
आंसू की आरती उतारूंगा
जब तक सागर न मिले अपना ही
सरिता की पीर बन पुकारूंगा
अपनी ही आग में सुलगना है
अंतस में प्रीत को जगाना है
कुछ ऐसा वर दो भगवान मेरे!
मैं भुला अपने घर आ जाऊं
कुछ ऐसा कर दो गुरुदेव मेरे!
मैं अपने मितवा को पा जाऊं
उस परम उत्सव की घड़ियों को
अनगाए लौट नहीं जाना है।
प्रत्येक मनुष्य एक गीत लेकर पैदा होता है और बहुत थोड़े-से
सौभाग्यशाली लोग हैं जो उस गीत को गाकर विदा होते हैं। अधिक गीत अनगाए ही मर जाते
हैं। यही जीवन की पीड़ा है, यही विषाद है। यही जीवन की चिंता और संताप है।
जब तक तुम्हारा गीत गाया नहीं गया है, तब तक तुम हो या नहीं
बराबर है। जब तक तुम्हारा बीज नहीं टूटा, तब तक तुम्हारा
होना एक आभास मात्र है, एक छाया-भर, एक
परछाईं! जिस दिन तुम्हारा गीत प्रकट होगा . . . और ध्यान रहे, वह तुम्हारा हो! वह बुद्ध का न हो, महावीर का न हो,
कृष्ण का न हो, मेरा न हो--वह तुम्हारा हो! और
सभी बुद्धों ने यही कहा है। किसी के गीत दोहराने नहीं हैं। किसी को भी कार्बन कापी
बनकर मर जाना नहीं है। उससे बड़ा कोई दुर्भाग्य नहीं है।
मूल बनों! अपने को प्रकट होने दो। खोजो अपने भीतर, कहां तुम्हारा खजाना दबा है? तलाशो, टटोलो! तुम भी हीरा लेकर आए हो। परमात्मा ने किसी को भी बिना पाथेय के
भेजा नहीं है; पूरी यात्रा का सारा प्रबंध करके भेजा है। वह
सब दिया है जो तुम्हें जरूरी पड़ेगा। वह सब दिया है जो तुम चाहते हो। और इतना दिया
है जितना तुम कभी चाह नहीं सकते हो।
जब जीवन की संपदा मिलती है तो आश्चर्यचकित होकर यह पता चलता है कि हम
तो कौड़ियां मांगते थे और उसने हीरों के ढेर दे रखे हैं। हम तो कुछ छुद्र की मांग
किए बैठे थे, उसने विराट दे रखा है। हम तो पदार्थ मांगते थे,
परमात्मा स्वयं हमारे भीतर मौजूद है। सम्राटों का सम्राट् तुम अपने
भीतर लिए बैठे हो; पर सोया पड़ा है, तुमने
जगाया नहीं, तुमने पुकारा नहीं।
धर्म और कुछ भी नहीं है--अपने भीतर सोए पड़े गीत को जगाने की प्रक्रिया
है। तुम्हारे मन में, तुम्हारी समाधि है। तुम जो-जो बाहर तलाश रहे हो,
तलाशो लाख, पाओगे नहीं। क्योंकि जिसे तुम बाहर
तलाश रहे हो वह तलाश करनेवाले में ही छिपा है। गंतव्य बाहर नहीं है, गंता का अंतर्तम है। लौटाओ आंखें भीतर। मुड़ो अपनी ओर।
योग प्रीतम का गीत ठीक-ठीक है। मेरे प्रत्येक संन्यासी के मन में यह
गीत गूंजना चाहिए। अपना ही गीत गाना है! और मजा यह है, विरोधाभास यह है कि जिस दिन तुम ठीक-ठीक अपना गीत गाओगे, उसमें तुम समस्त बुद्धों के स्वर पाओगे। और जब तक तुम बुद्धों के वचन
दोहराते रहोगे, तब तक बुद्धों की कोई छाया भी इन वचनों में
नहीं होगी। क्योंकि जब कोई अपने अंतर्तम को अभिव्यक्ति देता है तो वहां कहां मेरा
कहां तेरा! वहां तो बस एक ही बचता है।
योग प्रीतम तो मेवाड़ी कवि हैं। उन्हें सुंदरदास की बात याद दिला देनी
चाहिए--"न म्हारो न थारो'! वहां न कुछ मेरा है न तेरा है।
जब तुम अपने अंतर्तम में आओगे तो पाओगे, अपना अंतर्तम कहना
इसे उचित नहीं है--बस अंतर्तम है। सबका है। समस्त अस्तित्व का है। परिधि पर हम
भिन्न-भिन्न हैं, केंद्र पर हम एक हैं। दीयों की भांति हम
भिन्न-भिन्न हैं, ज्योति की भांति हम एक हैं।
इस ज्योति की तलाश में मनुष्य ने बहुत-सी विधियां ईजाद की हैं, बहुत योगत्तप खोजे हैं। सुंदरदास आज के सूत्रों में कह रहे हैं, वे योगत्तप, विधि-विधान कोई काम नहीं पड़ते। इस गीत
की तलाश विधियों से नहीं होती। इस अंतर्तम की खोज साधारण उपायों से नहीं होती।
कारण है। जो हमारा नहीं है, उसे खोजने का एक उपाय होता है।
जो दूर है, उसे खोजने की एक व्यवस्था होती है। जो अपना ही है,
उसे खोजने का वही उपाय नहीं होता। और जो पास ही है उसे खोजने की वही
व्यवस्था नहीं होती जो दूर को खोजने की होती है। जो बाहर है उसे पाने को चलना पड़ता
है; और जो भीतर है उसे पाने को ठहराना पड़ता है। दूर है जो,
उसके लिए वाहन खोजने होते हैं; और जो भीतर ही
बैठा है, उसके लिए सब वाहनों से उतर आना होता है। जो जितने
दूर हैं उसे पाने के लिए उतनी शक्ति चाहिए। स्वभावतः, नहीं
तो यात्रा कैसे करोगे? और जो भीतर ही बैठा है उसे पाने के
लिए शक्ति ही बाधा बन जाएगी। वहां समर्पण चाहिए। निर्बल के बल राम! वहां असहाय
अवस्था चाहिए। वहां शक्तिशाली चूक जाते हैं, वहां सरल पहुंच
जाते हैं।
जो उलझा है उसे सुलझाने को ज्ञान चाहिए; लेकिन जो कभी उलझा ही
नहीं, जो सुलझा ही पड़ा है तुम्हारे भीतर, उसके लिए कोई ज्ञान की आवश्यकता नहीं। उसके लिए निर्दोष चित्त चाहिए। उसके
लिए बालक जैसा मन चाहिए। इस भेद को समझ लेना।
तुम्हारे उपाय जो भी ले आएंगे वह तुमसे छोटा होगा। इस गणित को गांठ
बांध लो। तुम जो करोगे, तुम्हारे करने से जो निःसृत होगा, वह तुमसे छोटा होगा। तुम्हारा कृत्य तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। कोई संगीत
संगीतज्ञ से बड़ा नहीं हो सकता। कोई चित्र चित्रकार से बड़ा नहीं हो सकता। और
परमात्मा तुमसे बहुत बड़ा है, इसलिए परमात्मा तुम्हारे हाथ
में नहीं हो सकता। तुम परमात्मा पर मुट्ठी नहीं बांध सकते। बांधोगे कि चूकोगे।
ज़रा देखो, आकाश को मुट्ठी में बांध कर देखो! जैसे-जैसे मुट्ठी
बंधती जाती है, आकाश मुट्ठी के बाहर होता जाता है। हां,
धन पर मुट्ठी बंध सकती है; धन क्षुद्र है,
तुमसे बहुत छोटा है। हाथ का मैल है तो हाथ में आ जाता होगा। आकाश तो
हाथ में न आएगा। मगर एक मजा हैः हाथ खुला रखो कि पूरा आकाश तुम्हारा है! खुले हाथ
में पूरा आकाश है, बंद हाथ में बिल्कुल नहीं। ऐसी ही
प्रक्रिया तुम्हारे विचार में साफ-साफ बैठ जानी चाहिए कि परमात्मा पर मुट्ठी नहीं
बांधी जा सकती। उसे पाने के लिए सब मुट्ठी खोल देनी होती है। उसे पाने के लिए
निर्बंध, निर्ग्रंथ . . .! उसे पाने के लिए तुम्हारा मन कोई
उपाय करे तो चूकते चले जाओगे। उसे पाने के लिए मन का निरुपाय हो जाना जरूरी है।
गीत तो निश्चित गाना है। गीत तो जरूर जगाना है। बिना गाए गए गीत तो
फिर वापिस लौटना पड़ेगा। वह तो परीक्षा है। उसमें तो उत्तीर्ण होना ही है। गीत तो
गाकर जाना ही है। परमात्मा ने तुम्हें जो बनने भेजा है वह तुम्हें बनना ही है, तो ही तुम स्वीकार हो सकोगे।
यह जगत् एक शिक्षण की व्यवस्था है, एक पाठशाला है। यहां
कोई गहरा पाठ सीखने के लिए तुम्हें भेजा गया है। तुम आकस्मिक नहीं हो। एक विराट
आयोजन तुम्हारे पीछे काम कर रहा है। तुम ऐसे ही नहीं फेंक दिए गए हो। तुम्हें
भेजने के पीछे कोई सुनियोजित दिशा है, गंतव्य है। क्या
गंतव्य है? कुछ पाठ है, जो यहां,
सीखना है। कुछ राज है जो यहां सीखना है। कुछ रहस्य है जो यहां खोलना
है। अगर तुम खोल सके तो पहुंच जाओगे।
एक कहानी मैंने सुनी है। एक सम्राट् का वजीर मर गया। बड़ा बुद्धिमान।
दूर-दूर तक उसकी ख्याति थी। उसके स्थान को भरना भी मुश्किल था। खोज शुरू हुई सारे
साम्राज्य में। जगह-जगह से बुद्धिमानों को बुलाया गया, खोजबीन की गई। फिर तीन बुद्धिमान चुने गए अंततः और उनकी अंतिम परीक्षा बड़ी
अनूठी थी। उन्हें एक कमरे में ले जाकर छोड़ दिया गया। सम्राट् ने कहा कि तुम अंदर
बैठो, मैं दरवाजे पर ताला लगा जाता हूं; जो सबसे पहले इस ताले को खोलकर बाहर आ जाए, वजीर हो
जाएगा। चाबी तुम्हें देता नहीं हूं। इस ताले की कोई चाबी नहीं है। यह ताला गणित की
एक पहेली है।
ताला क्या था, उस पर अंक ही अंक लिखे थे। अगर तुम यह पहेली हल कर
लोगे तो इन अंकों को जमाने की कला तुम्हें आ जाएगी। अंकों के जमते ही ताला खुल
जाएगा और तुम बाहर आ जाओगे।
जल्दी ही वे काम में लग गए। पहले ने जल्दी से अपनी किताबें निकाल लीं
जिन्हें वह चोरी से अपने वस्त्रों में छिपा लाया था । अफवाहें उड़ गई थीं कि इस तरह
का एक ताला बनाया गया है, जिसकी कोई चाबी नहीं है; जिस पर
गणित के अंक हैं; अंकों के जमा लेने से ताला खुलेगा। तो वह
गणित की बड़ी किताबें ले आया था। उसने किताबें खोलकर जल्दी खोज-बीन शुरू कर दी कि
कहीं कोई उपाय मिल जाए। लेकिन किताबों में जो उलझा हो, उसे
उपाय नहीं मिलते। वह किताब में उलझ गया, ताले पर तो ध्यान ही
न दे पाया। समस्याएं किताबों में से नहीं सुलझतीं। समस्याएं तो समस्याओं को गौर से
देखने से सुलझती हैं। समस्याएं तो समस्याओं में गहरे उतरने से सुलझती हैं।
समस्याओं का समाधान तो समस्याओं की ही गहराई में पड़ा होता है, उनकी ही तलहटी में पड़ा होता है।
हर प्रश्न अपने उत्तर को अपने भीतर छिपाए है। तुम ज़रा प्रश्न की
सीढ़ियों से उतरो और तुम उत्तर के तल तक पहुंच जाओगे।
मगर उसे फुर्सत न थी। बड़ी किताबें ले आया था। पन्ने पलट रहा था। जल्दबाजी
थी। किताब भी ठीक से पढ़ नहीं पाता था, कहीं दूसरा खोल न ले!
दूसरे ने जल्दी से अपने कागज निकाल लिए; वह कलम-कागज लेकर
आया था। बड़ी गहरी गणित की गुत्थियों को सुलझाने में लग गया। सारे ताले के अंक उसने
लिख लिए और जल्दी कागज पर सुलझाने में लग गया। सारे ताले के अंक उसने लिख लिए और
जल्दी कागज पर सुलझाने में व्यस्त हो गया। और तीसरे आदमी ने पता है, क्या किया****)१०** ? वह एक कोने में आंख बंद करके
बैठ गया। न वह किताबें लाया था; उसके पास कोई शास्त्र नहीं
थे--न गीता, न कुरान न, बाईबिल। वह कोई
कागज-कलम भी न लाया था। उसने तो आंखें बंद कर लीं और शांत होकर बैठ गया। उन दोनों
ने एक-दूसरे की तरफ देखा और हंसे। उन्होंने कहा, यह मूढ़
देखो! आंख बंद करके वहां क्या कर रहा है? आंख बंद करने से
कहीं ताले खुले हैं।
मगर कुछ ताले हैं जो आंख बंद करने से खुलते हैं।
"यह वहां आंख बंद करके क्या खोल रहा है? लगता है हताश हो गया।'
ध्यान में बैठे आदमी को देखकर लोग अकसर सोचते हैं--हताश हो गया।
जिंदगी से हार गया। हारे को हरिनाम! अब जैसे जप रहे हैं राम-राम, गए काम से! डगमगा गए पैर।
"यह क्या कर रहा है पागल?'
लेकिन वह आदमी बैठा ही रहा। वह ऐसे हो गया जैसे बुद्ध की मूर्ति। वह
इतना शांत हो गया . . .। उसने सारे विचार विदा कर दिए। ताले का भी विचार भी विदा
कर दिया। ताला खोलना है, यह विचार भी विदा कर दिया। निर्विचार हो गया। और
निर्विचार में एक तरंग उठी। वह तरंग विचार की नहीं थी, भाव
की थी। वह तरंग मस्तिष्क में नहीं आई थी, हृदय से उठी थी। एक
तरंग उठी। उसी तरंग में वह उठ आया। तरंग में लोग उठ गए हैं। तरंग में लोग ऐसे उठ
गए हैं कि परमात्मा तक पहुंच गए हैं। तरंग में लोग उठ गए हैं, नाच गए हैं, गीत फूट गया है, फूल
खिल गए हैं! वह तरंग में उठ गया। उसे पता भी नहीं, क्यों उठा?
मजा जानते हो उस उठने का, जब तुम्हें पता भी
नहीं होता कि तुम क्यों उठे? जब एक गीत फूटता है तुम्हारे
कंठ से और तुम्हें पता भी नहीं होता कि क्यों, कौन गा गया!
और एक भावभंगिमा प्रकट होती है, जो तुम्हारी नहीं है!
क्योंकि तुम्हारी आयोजित नहीं है। क्योंकि तुमने उसकी व्यवस्था नहीं की है। जो
तुमसे उपर से आती है। जो परमात्मा की ही होगी।
इसलिए हमने राम को भगवान् कहा, बुद्ध को भगवान् कहा,
कृष्ण को भगवान कहा, क्राइस्ट को भगवान् कहा।
किस कारण कहा? ये भावभंगिमाएं इनकी नहीं थीं। देह तो इनकी ही
थी, मगर देह में जो भाव उतरा था वह इनका नहीं था। आंखें तो
इनकी थीं, लेकिन आंखों में जो गहराई आ गई थी वह उनकी नहीं
थी। शब्द तो इनके ही थे, मगर शब्दों में जो अर्थ था वह उनका
नहीं था। ये उठ खड़े हुए थे।
ऐसे ही वह आदमी उठ खड़ा हुआ। वह कहां जा रहा है, उसे पता नहीं। वह क्यों जा रहा है, उसे पता नहीं।
कोई उसे ले चला। और जब कोई तुम्हें ले चलता है तब तुम पहुंचते हो। अपने से कोई
नहीं पहुंचता; उसके ले जाने से पहुंचता है। वह चल पड़ा। उसने
बाहर जाकर दरवाजे को हाथ से छुआ। दरवाजा अटका था। ताला बंद था ही नहीं। दरवाजा खुल
गया। वह चुपचाप बाहर निकल गया। वे जो किताब में उलझे थे और जो गणित का हल कर रहे
थे, उन्हें पता भी न चला कि कोई बाहर भी हो गया।
इस जगत् में पता भी नहीं चलता उन लोगों का जो चुपचाप बाहर हो जाते
हैं। कौन कब चुपचाप सरक जाता है समाधि के द्वार से परमात्मा में, लोगों को कानों-कान खबर भी नहीं होती। लोग अपने कामों में व्यस्त हैं--कोई
अपनी दुकान पर खाते-बही में लगा है, कोई अपने दफ्तर में
फाइलों में उलझा है, कोई किसी और काम में, कोई किसी और काम में, कोई धन में कोई पद में,
कोई प्रतिष्ठा में। फुर्सत किसको है! कौन बाहर हो गया--कौन कबीर कौन
सुंदरदास कौन नानक --कब चुपचाप, किसने उठा दिया . . . !
उन्हें तो पता तब चला जब सम्राट् भीतर आया उस तीसरे आदमी को लेकर और कहा कि भाई बंद करो किताबें, बंद करो तुम्हारी लिखा-पढ़ी। जिसे बाहर निकलना था वह निकल चुका। उनको तो
भरोसा न आया आंखें उठाईं। वे तो चौंके के चौंके रह गए, अवाक्।
उन्होंने कहा, यह हुआ कैसे? उस आदमी से
पूछा कि तुम निकले कैसे? उसने कहा, मुझे
कुछ पता नहीं। एक बात पक्की थी कि गणित मैंने कभी हल नहीं किए। सो मैंने कहा,
यह अपने बस का नहीं। नाहक मेहनत करने से सार भी क्या है? मैं अवश होकर बैठ गया, अपने बस का नहीं। मैंने
परमात्मा को कहा कि तेरी मर्जी हो तो कुछ कर। सब मैंने उसकी मर्जी पर छोड़ दिया।
फिर किसने मुझे उठाया, किसने मुझे द्वार तक पहुंचाया,
किसने मुझे यह भाव दिया कि दरवाजा सिर्फ अटका है बंद नहीं है कि एक
मजाक की गई है।
और समझो, ताले लगे हों तो चाबियां खोजी जा सकती हैं। उलझन हो,
सुलझाई जा सकती है। समस्या हो, समाधान हो सकते
हैं। कठिनाई तो यही है कि परमात्मा समस्या नहीं है, इसलिए
तुम्हारे समाधानों से कुछ भी न होगा। उसके द्वार पर ताला नहीं पड़ा है। इसलिए तुम
बिठाते रहो कुंजियां, बनाते रहो कुंजियां, तुम्हारी कोई कुंजियां काम नहीं आएंगी। तुम्हारे कागजों पर फैलाए गए
तुम्हारे गणित के विस्तार, तुम्हारे मन को और उलझा जाएंगे,
और जंगलों में भटका जाएंगे।
परमात्मा कोई गणित का सवाल नहीं, न दर्शन की कोई
समस्या है। परमात्मा उलझाव नहीं है। परमात्मा खुली किताब है।
दरवाजा खुला था, लेकिन शांत चित्त को पता चलता है
कि दरवाजा खुला है। मौन में पता चलता है कि दरवाजा खुला है। शून्य में पूर्ण का
साक्षात्कार होता है।
गीत तो निश्चित गाना है, लेकिन तुम्हें
नहीं--उसे गाने देना है। गीत तो जरूर उठाना है, लेकिन
तुम्हें नहीं--उसे अवसर देना है। तुम बाधा न बनो। तुम उसके झरने के बीच पत्थर की
आड़ न बनो। तुम चट्टान न बनो।
अगर छंद मधुगंध सरीखा किसी चांदनी रात में
हल्का-हल्का फैल न पाए जग के मुक्ति प्रभात
अगर शब्द के तट से लहरें अर्थ की
हटा न दें शैवाल सिवार अनर्थ की
अगर गीत पक्षी आकाश न चीर दे
अगर शब्द का स्नेह न सबको धीर दे
अगर तीर के चरण न ऊंचे चढ़ सकें
नेत्र आज के अगर न शाश्वत पढ़ सकें
अगर मृत्यु के शिखरों से स्वर-निर्झर
जीवन सलिल न ढालें
बंद शब्दकोशों से अक्षर
अरमानों की असि न निकालें
मर्त्य अचेतन जड़ता को यदि
कवि न भागवत स्वर से सींचे
अर्थहीन आकाश शीस पर
नाहक धरा पांव के नीचे।
गीत तो उठाना है। गीत तो जगाना है। पर तुम्हें नहीं। तुम्हें बीच से
विदा हो जाना है। ताकि वह गा सके। ताकि वह गुनगुना सके। तुम्हें बांसुरी बन जाना
है। तुम्हें मार्ग देना है। उसका रथ आता है। राह से हटो। और जिस दिन तुम अपना गीत
गाओगे, उसी दिन तुम पाओगेः कौन अपना, कौन
पराया!
न म्हारो न थारो! न मेरा न तेरा।
प्रभु के हाथ में निमित्त होने से अधिक
और क्या है मेरे चित्त
पूरी तरह अर्पित हो जाना
निःशेष खो जाना
हो जाना है प्रकृति की तरह सरल
और प्रबल और विमल भी
बसंत न अपनी मर्जी से आता है
न निदाध अपनी मर्जी से जाता है
न घिरते हैं बादल अपने किसी काम से
किसी आकाश-भर
उड़ो पतझड़ के पत्ते की तरह जब प्रभु चाहें
खिलो सरसिज की तरह
जब और जितनी देर प्रभु उस तरह निबाहें
राहें मत चुनो क्योंकि तुम क्या चुन सकते हो
आदेश सुनो उसका क्योंकि वह तो तुम सुन सकते हो
पूरी तरह अर्पित होकर
पूरी तरह अपने को खोकर
अर्पित होने और बनने और करने
और टूटने तक में सुख ही सुख है
दुःख है जितना अर्पित न होने का है
अपने को समूचे में न खोने का है!
एक ही सुख है जगत् में -- स्वयं का मिट जाना और उसका हो जाना। और एक
ही दुःख है जगत् में--उसका न होना और स्वयं का होना। क्या करोगे तुम? उड़ो पतझड़ के पत्ते की तरह जब प्रभु चाहें! छोड़ दो अपने को उसके हाथ
में--जहां ले जाए जैसे ले जाए, जहां चलाए, जैसे चलाए।
खिलो सरसिज की तरह
जब और जितनी देर प्रभु उस तरह निबाहें
फूल सुबह खिला और सांझ मुरझा गया। न तो खिलने में फूल ने अकड़ बांधी, न सांझ मुरझाने में रोया। खिला तो हंसा, मुरझाया तो
हंसा।
तुमने मुरझाते फूल का सौंदर्य देखा?
तुमने सांझ सूरज के डूबते हुए सौंदर्य को देखा या नहीं? उस सौंदर्य में तुम कुछ कमी पाते हो, प्रभात के
सौंदर्य से? सुबह उगता है सूरज--उसी शान से, उसी गरिमा से, उसी गौरव से, वही
आभा वही श्रृंगार! सांझ डूबता है--उसी आभा, उसी गरिमा से!
सुबह तो सुंदर होती ही है, संध्या भी सुंदर है, बहुत सुंदर है! क्या होगा कारण? एक ही कारण है--
खिलो सरसिज की तरह
जब और जितनी देर प्रभु उस तरह निबाहें
राहें मत चुनो क्योंकि तुम क्या चुन सकते हो
आदेश सुनो उसका क्योंकि वह तो तुम सुन सकते हो
पूरी तरह अर्पित होकर
पूरी तरह अपने को खो कर
अर्पित होने और बनने और करने
और टूटने तक में सुख ही सुख है
फिर से दोहरा दूं--
अर्पित होने और बनने और करने
और टूटने तक में सुख ही सुख है
दुःख है जितना अर्पित न होने का है
अपने को समूचे में न खोने का है!
आज के सूत्र इसी खोने के संबंध में हैं। अपने को समग्र रूप से कैसे
कोई शून्य कर पाए? विधि से तो नहीं होगा, विधान से
तो नहीं होगा। विधि-विधान में उलझे रहे तो जीवन एक कष्टपूर्ण यात्रा हो जाएगी।
जीवन में नृत्य नहीं होगा फिर। जीवन एक बोझ हो जाएगा।
इसलिए तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी ऐसे दिखाई पड़ते हैं जैसे पहाड़
उनकी छाती पर रखा है; जैसे सारे संसार का उपद्रव वे ही झेल रहे हैं। उनकी
दशा वैसी है, जैसे मैंने सुना, एक
छिपकली एक महल में रहती थी। कुछ उत्सव था छिपकलियों का और उसे भी, महल की छिपकली को भी, निमंत्रण दिया था। निमंत्रण ही
नहीं दिया था, कहा था उद्घाटन करो। महल की छिपकली थी,
कोई साधारण छिपकली न थी। कुछ छिपकलियां यही काम करती हैं--उद्घाटन!
उनका काम ही यही है।
मगर उस छिपकली ने कहा, असंभव। मेरा आना न हो
सकेगा। मैं बहुत व्यस्त हूं।
और छिपकलियों ने देखा कि कोई व्यस्तता दिखाई न पड़ती। उसने कहा, तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगी। तुम्हें क्या पता? मेरे
जाते ही यह महल गिर जाएगा। मैं ही इसे सम्भाले रखती हूं। यह सारा महल मैंने संभाला
है। मेरे बिना इस महल की क्या गति हो जाएगी?
तुम्हारे साधु-संन्यासी ऐसे लगते हैं, जैसे सारे जगत् का
बोझ वे ही ढो रहे हैं; जैसे उनके ही सिर पर सारा भार है;
जैसे वे ही स्तंभ हैं! साधु तो हो हलका, फुलका,
शुभ्र बादलों की भांति! हवाएं जहां ले जाएं, चला
जाए! साधु तो हो फूल जैसा; खिले परमात्मा उसमें तो खिले और
परमात्मा विदा हो जाए तो विदा हो जाए! गिर जाए फूल की पंखुड़ियों-सा। खिलने में भी
आनंद हो! साधु तो हो ऐसा--सुबह की ताजी ओस जैसा! क्षण-भर को चमके लेकिन क्षण-भर की
पीड़ा न हो। क्षण भी, उसका शाश्वत भी उसका। और फिर आए सूरज और
उड़ जाए ओस की बूंद आकाश में, बन जाए वाष्प, तो फिर उड़ जाए--आनंद से, उसी मग्नता से, उसी धन्यवाद से, उसी अहोभाव से!
साधुता एक समझ है--साधना नहीं है। साधुता एक अंतर्दृष्टि है जीवन में।
और उस अंतर्दृष्टि का सार सूत्र सुंदरदास के इन वचनों में है। अगर ये वचन पूरे हो
जाएं, तो तुम भी अपना गीत गा सकोगे; अन्यथा
रोओगे, परेशान होओगे, बहुत पीड़ित
होओगे। जीवन तो व्यर्थ जाएगा ही जाएगा, मृत्यु के क्षण में
भी बहुत तड़फोगे।
मृत्यु के क्षण में लोग तड़फते क्यों हैं? तुमने किसी पक्षी को मरते देखा ? ऐसे सरल, ऐसे सहज, चुपचाप विदा हो जाता है! पंख भी नहीं
फड़फड़ाता। शोरगुल भी नहीं मचाता। पक्षी तो इतने चुपचाप विदा हो जाते हैं, कि सदियों से इस तरह धारणा रही है कि पक्षी मरते भी हैं या नहीं? क्योंकि राहों किनारे तुम चिड़ियों को मरा हुआ पड़ा नहीं देखते। जंगलों में
पक्षी मरे हुए नहीं पाए जाते। पक्षी मरते भी हैं या नहीं? इतनी
सरलता से विदा हो जाते हैं! ज़रा नोच-खचोंट नहीं। ज़रा शोरगुल नहीं।
तुमने पशुओं को मरते देखा? मौत में भी एक अपूर्व
शांति होती है। आदमी को मरते देखो--कितना उपद्रव मचाता है, कितना
रोकने की अपने को चेष्टा करता है! क्या होगा कारण? कारण हैः
जिंदगी व्यर्थ गई और मौत आ गई। अब आगे कोई समय न बचा। अब तक सब दिन ऐसे ही
गए--खाली आए खाली गए, कुछ भराव नहीं और यह मौत आ गई। तड़फे न
आदमी तो क्या करे आदमी? भरे हुए आदमी ही शांति से मर सकते हैं।
हां, बुद्ध विदा होते हैं शांति से, उल्लास
से, उमंग से; जैसे किसी प्यारी यात्रा
पर जाते हों! ज़रा भी क्षण-भर को भी, कण-भर को भी मोह नहीं
होता इस तट से बंधे रहने का। छोड़ देते अपनी नाव उस पार जाने को। खोल देते अपने
पंख। विराट की पुकार आ गई, आवाज आ गई, संदेश
आ गया। रुकना कैसा? फिर इस तट को खूब जी लिया, मन भर कर जी लिया जी भरकर जी लिया! इस तट के गीत भी सुन लिए, इस तट का गीत भी गा लिया। इस तट के नृत्य भी देख लिए, इस तट का नाच भी नाच लिया। इस तट पर जो भी सुंदर था, जो भी मूल्यवान था, सबका स्वाद ले लिया। जाने की घड़ी
आ ही गई। अब और तटों पर होंगे। अब और नृत्य और गीत उठेंगे। अब और दीए जलेंगे। एक
उल्लास है। एक जाने की तत्परता है। अगर गीत न गाया गया हो तो मुश्किल खड़ी होती है।
अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूं तो चलूं,
अपने गम खाने में एक धूम मचा लूं तो चलूं,
और इक जामे-मएत्तल्ख चढ़ा लूं तो चलूं,
अभी चलता हूं ज़रा खुद को संभालूं तो चलूं।
मौत जब आती है तो स्वभावतः खाली आदमी यह कहेगा--अपनी सोई हुई दुनिया
को जगा लूं तो चलूं। अभी तो सोए-सोए रहा। अभी तो जागरण भी नहीं फला। यह मौत कैसे
असमय में आ गई! हम तो सोचते थे कल जगेंगे, कल जगेंगे और यह मौत
आ गई। कल तो आया नहीं और मौत आ गई। कल कभी आता नहीं है, कल
सदा मौत ही आती है।
अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूं तो चलूं,
अपने गमखाने में एक धूम मचा लूं तो चलूं,
और इक जामे-मएत्तल्ख चढ़ा लूं तो चलूं,
अभी चलता हूं ज़रा खुद को संभालूं तो चलूं,
जाने कब पी थी अभी तक है मए ए गम का खुमार,
धुंधला-धुंधला नजर आता है जहाने-बेदार,
आंधियां चलती हैं दुनिया हुई जाती है गुबार,
आंख तो मल लूं ज़रा होश में आ लूं तो चलूं।
वो मेरा सहर, वो एजाज कहां है? लाना,
मेरी खोई हुई आवाज कहां है? लाना,
मेरा टूटा हुआ वो साज कहां है? लाना,
एक ज़रा गीत भी एक साज पे गा लूं तो चलूं।
मुझसे कुछ कहने को आई है मेरे दिल की जलन,
क्या किया मैंने जमाने में नहीं जिसका चलन,
आंसुओ! तुमने तो बेदार भिगोया दामन,
अपने भीगे हुए दामन को सुखा लूं तो चलूं।
मेरी आंखों में अभी तक है मुहब्बत का गरूर,
मेरे ओठों पे अभी तक है सदाकत का गरूर
ऐसे वहमों से भी अब खुद को निकालूं तो चलूं
वो मेरा सहर, वो एजाज कहां है? लाना,
मेरी खोई हुई आवाज कहां है? लाना,
मेरा टूटा हुआ वो साज कहां है? लाना
एक ज़रा गीत भी उस साज पे गा लूं तो चलूं।
मृत्यु पीड़ा है, क्योंकि गीत गाया नहीं गया है।
गीत गाने की तो बात दूर, साज भी टूट गया है। वीणा के तार भी
उखड़ गए हैं। वाद्य भी विकृत हो गया है। आवाज भी मर गई है। यह आवाज जो गीत गाने को
दी गई थी, गालियां देते-देते मर गई है। ये प्राण जो
प्रार्थना के लिए दिए थे, इनका प्रार्थना से तो कोई संबंध ही
न जुड़ा;ये तो पद-प्रतिष्ठा की आपा-धापी में ही टूट गए हैं,
उखड़ गए हैं। ये धड़कनें जो परमात्मा के साथ नाचने के लिए थीं,
इन्हें तो बड़े सस्ते में बाजार में बेच आए
हो।**त्र्!)ध्****त्र्!)इ१४)१०**
आत्मा बेच कर मरते हैं लोग, तो रोते हुए मरते
हैं।
अपना गीत तो निश्चित गाना है। और यह गीत तुम्हारे गाए नहीं गाया जा
सकता। तुम्हें राह देनी है कि परमात्मा गा सके। और यह गीत जब गाया जाता है तो पता
चलता है ः अपना है न पराया है, उसका है।
आज के सूत्र --
माइ हो, हरिदरसन की आस।
एक ही आकांक्षा है कि कैसे प्रभु का दर्शन मिल जाए! कैसे हम जान लें
उसे, जो इस सबका मालिक है! कैसे हम पहचान लें, उसे जो हमारे भीतर हृदय में धड़कन है और श्वासों में चलता है! कैसे हम
पहचान लें उसे, जो वृक्षों की हरियाली है, पक्षियों का गीत है, सागरों की गूंज है। कौन है वह?
किसकी है यह अभिव्यक्ति सब? कौन छिपा है इन
सारे रहस्यों के पीछे?
माइ हो, हरिदरसन की आस।
जिस व्यक्ति के जीवन में यह आकांक्षा उठ गई कि अब बस एक ही आकांक्षा
है, एक ही अभीप्सा है, एक ही प्यास है, हरि का दर्शन हो, उसके लिए ही ये सूत्र सार्थक हो
सकेंगे। ये सूत्र सबके लिए नहीं हैं।
मन कौं राखत हटकि कर, सटकि चहुं दिसि जाइ।
सुंदर लटकि स लालची, गटकि विषै फल खाइ।।
मन भटका रहा है। मन दौड़ा रहा है। मन न मालूम कितने-कितने सपनों में
उलझा रहा है। मन कहता है, यह करो वह करो, यह पा लो वह पा
लो। मन बैठने नहीं देता चैन से। क्षण-भर विश्राम नहीं देता। दिन भी दौड़ाता है,
रात भी दौड़ाता है, जागते भी, स्वप्नों में भी। मन दौड़ता ही रहता है। और इसी दौड़ने के कारण उसका पता
नहीं चल पाता जो सदा ठहरा हुआ है। ठहरो तो उसका पता चले।
मन तो गति के नए-नए साधन खोज रहा है कि कैसे गति और तीव्र हो जाए, कैसे हम चांद पर पहुंच जाएं कैसे सूरज पर और तारों पर। मन तो कहता है ः और
दूर चलो। यहां नहीं मिला तो थोड़ा और आगे चलो। मन तो कहता है कि दूर है। मन सदा
कहता है कि दूर है। दूर के ढोल सुहावने! मन तो दूर की आवाजों पर लोभित होता है,
प्रलोभित होता है। और जिसकी तलाश है, वह
तुम्हारे भीतर बैठा है।
इसलिए सारी आध्यात्मिक साधना की प्रक्रिया के आधार में एक बात समझने
की है--मन दूर ले जाता है और परमात्मा पास है। इसलिए मन और परमात्मा का मिलना नहीं
हो पाता। मन कहता है वहां, और परमात्मा है यहां। मन कहता है कल, और परमात्मा है अभी। मन पैदा करता है समय की लंबाइयां, भविष्य और परमात्मा है सदा वर्तमान के क्षण में।
सुनो इस क्षण!
चुप हो जाओ इस क्षण!
एक क्षण को ठहर जाओ इस क्षण।
--और तुम परमात्मा से भर जाओगे। भरे ही हुए हो। मन मौका
नहीं देता। मन अवसर नहीं देता। मन बैठने ही नहीं देता। मन डरता है। मन बहुत भयभीत
है।
मन ध्यान से ऐसा डरता है, जैसे किसी चीज से भी
नहीं डरता, क्योंकि ध्यान का मतलब होता है, बैठ जाना, न दौड़ना। और जहां दौड़ गई वहां मन गया। मन
यानी दौड़। और जहां दौड़ गई वहां परमात्मा मिला। और परमात्मा जिसे मिला वह कैसे
दौड़ेगा फिर? क्योंकि फिर तो मिल गया सारी आकांक्षाओं को
पूर्ण कर देनेवाला, सारी अभीप्साओं की तृप्ति। फिर तो कुछ
पाने को शेष नहीं। फिर जाओगे कहां? फिर दौड़ोगे कैसे? इसलिए मन मौका नहीं देता।
सुंदर कहते हैं ः मन को राखत हटक करि। कितनी चेष्टा लोग करते हैं कि
मन को हटको, रोको, कि रुक जा भाई, ज़रा ठहर ! . . . सटकि चहूं दिसि जाइ। तुम कितना ही रोको वह चारों दिशाओं
में भागता रहता है। तुम इधर से रोको वह उधर से भागता है। उधर से रोको, इधर से भाग जाता है। तुम जितना रोको उतना भागता है।
तुमने खयाल किया, साधारणतः मन इतना नहीं भागता
जितना जब तुम मंदिर में या मस्जिद में जाकर बैठ जाते हो शांत होकर, तब भागता है! ध्यान करने बैठते हो तब बहुत भागता है। ऐसे नहीं भी भागता।
ऐसे निश्चिंत रहता है, कोई भय भी नहीं होता। ज़रा ध्यान करने
बैठो, कभी आंख बंद करके कुछ देर के लिए बैठ जाओ एक कोने में
और तब तुम देखो मन का खेल, उसका व्यवहार, कितनी उछल-कूद मचाता है। फिर तो एक पल नहीं ठहरता, क्योंकि
ध्यान से भयभीत हो जाता है। एक बात साफ हो जाती है उसको कि अब अगर रुका, ज़रा भी अगर रुका तो सदा के लिए मर जाऊंगा। मरना कौन चाहता है! मन मरना
नहीं चाहता इसलिए मन दौड़ाए रखता है।
सुंदर लटकि स लालची गटकि बिषै फल खाइ।
और मन की हालत ऐसी है कि वह सदा लालच में है। मन यानी लोभ। मन यानी
लालच। लालच है तभी तो दौड़ेगा। लालची ही दौड़ता है। लोभी ही दौड़ता है। लोभ न होगा तो
कोई किसलिए दौड़ेगा?
भर्तृहरि सम्राट् थे। उन्होंने सब छोड़ दिया, छोड़-छाड़ जंगल चले गए। मन को यह बात जंची न होगी। मन को यह बात कभी नहीं
जंचती। जंगल में बैठे हैं, वर्षों बीत गए हैं। धीरे-धीरे
धीरे-धीरे तरंगें शांत होती जा रही हैं। एक दिन सुबह ही आंख खोली, सुबह का सूरज निकला है, सामने ही राह जाती है--जिस
चट्टान पर बैठे हैं, उसी के सामने से राह जाती है। उस राह पर
एक बड़ा हीरा पड़ा है! बांध-बूंध के वर्षों में मन को किसी तरह बिठाया था--और मन दौड़
गया! और मन जब दौड़ता है तो कोई सूचना भी नहीं देता कि सावधान कि अब जाता हूं। वह
तो चला ही जाता है तब पता चलता है। वह तो इतनी त्वरा से जाता है, इतनी तीव्रता से जाता है कि दुनिया में किसी और चीज की इतनी गति नहीं है
जितनी मन की गति है। तुम्हें पता चले, चले, चले, तब तक तो वह काफी दूर निकल गया होता है।
शरीर तो वहीं बैठा रहा, लेकिन मन पहुंच गया
हीरे के पास। मन ने तो हीरा उठा भी लिया। मन तो हीरे के साथ खेलने भी लगा। तुमने
कहानियां तो पढ़ी हैं न शेखचिल्लियों की, वे सब कहानियां मन
की कहानियां हैं। मन शेखचिल्ली है। और इस के पहले कि मन शरीर को भी उठा दे,
दो घुड़सवार दोनों तरफ से आए, उन्होंने तलवारें
खींच लीं। दोनों को हीरा दिखाई पड़ा, दोनों ने तलवारें हीरे
के पास टेक दीं और कहा, हीरा पहले मुझे दिखाई पड़ा। भर्तृहरि
का मन तो कहने लगा कि यह बात गलत है, हीरा पहले मुझे दिखाई
पड़ा। मगर यह अभी मन में ही चल रहा है। और इसके पहले भर्तृहरि कुछ बोलें, वे तो तलवारें खिंच गईं। राजपूत थे। तलवारें एक-दूसरे की छाती में घुस
गईं। दोनों लाशें गिर पड़ीं। हीरा अपनी जगह पड़ा है सो अपनी जगह पड़ा है।
लोग आते हैं और चले जाते हैं, हीरे अपनी जगह पड़े
हैं अपनी ही जगह पड़े रह जाते हैं।
लाशों का गिर जाना, लहू के फव्वारे फूट जाना,
चारों तरफ खून बिखर जाना, हीरे का अपनी जगह ही
पड़े रहना--होश आया भर्तृहरि को कि मैं यह क्या कर रहा था! वर्षों की साधना मिट्टी
हो गई? मेरा मन तो भाग ही गया था, मैं
तो खुद भी दावेदार हो गया था। मैं तो कहने ही जानेवाला था कि चुप, हीरे को पहले मैंने देखा है! तुम दोनों पीछे आए हो। हीरा मेरा है!
मगर इसके पहले कि कुछ कहते, उसके पहले ही यह घटना
घट गई--दो लाशें गिर गईं। भर्तृहरि ने आंखें बंद कर लीं। सोचा कि हद हो गई,
कितने हीरे घर छोड़ आया हूं जो इससे बड़े-बड़े थे! इस साधारण-से हीरे
के लिए फिर लालच में आ गया। कुछ हुआ नहीं, बाहर कोई कृत्य
नहीं उठा, लेकिन मन के भीतर तो सब यात्रा हो गई।
जरूरी नहीं है कि तुम बाहर कुछ करो, मन तो भीतर ही सब कर
लेता है। यह हो भी सकता है कि बाहर से कोई हिमालय गुफा में बैठा हो और मन सारे
संसार की यात्राएं करता रहे। बाहर की गुफाओं से धोखे में मत पड़ जाना। असली सवाल मन
का है। और यह भी हो सकता है कि कोई राजमहल में बैठा हो और मन कहीं न जाता हो। तो
जनक जैसे व्यक्ति भी पहुंच जाते हैं। क्यों? बात बाहर की
नहीं है; बात भीतर की है, बात मन की
है। और मन बड़ा लोभी है। मन हर चीज में लोभ लगा लेता है। मन कहता है सब मेरा हो
जाए। और यह लोभ उसका ऐसा है कि ज़रा-ज़रा से स्वाद के पीछे जहर भी गटक जाता है।
तुमने यह प्रतीति की या नहीं? सुख तो न के बराबर
होते हैं, शायद ही नहीं। जो ठीक-ठीक देखते हैं उनको पता चलता
है कि सुख तो हैं ही नहीं, आभास होते हैं। सुख तो ऐसे ही हैं,
जैसे कड़वी दवाई के ऊपर हम शक्कर की थोड़ी-सी पर्त चढ़ा देते हैं। नहीं
तो कौन गटके कड़वी दवाई को! शक्कर की पर्त चढ़ी होती है, दवाई
को हम गटक जाते हैं। सुख भी ऐसे ही है ः शक्कर की पतली-सी पर्त है जहर के ऊपर। हम
किसी भी तरह के जहर को पीने को तैयार हैं, ज़रा-सा हमारे जीभ
पर मिठास का स्वाद आ जाए।
कामवासना या क्रोध या लोभ या मोह या अहंकार तुम्हें कितने नरक में
डालते हैं, कितने विष-बुझे तीर तुम्हारी छाती में चुभाते हैं,
मगर ज़रा-सा सुख जरूर होगा, ज़रा-सा स्वाद जरूर
होगा। उस स्वाद के लिए हम सब कीमत चुकाने को तैयार हैं।
सुंदर लटकि स लालची, गटकि विषैफल खाइ।
ज़रा-सी लालच में विष के फल खा रहे हो।
सुंदर क्यों कर दीजिए मन को बुरौ सुभाव।
और ऐसा मत सोचो कि तुम्हारी कोई गलती है। आत्मनिंदा से मत भर जाना।
अपने को पापी मत समझ लेना। यह मन का स्वभाव है। यह बात बड़ी वैज्ञानिक है, बड़े मूल्य की है। ऐसे रोने मत लगना, नाहक पछताने मत
लगना। छाती मत पीटने लगना। उससे कुछ हल नहीं होगा। यह मन का स्वभाव है। जैसे आग
जलाती है, ऐसा मन भटकाता है। यह वैज्ञानिक उद्घोषणा हुई।
जैसे आग जलाती है, ऐसे मन भटकाता है। तुम्हारा और मेरा मन,
ऐसा कोई सवाल नहीं है--सबका मन भटकाता है। मन का यह स्वभाव है।
इसलिए किसी भटकते आदमी को देखकर मन में यह मत सोचना कि यह पापी है। अपने को भटकते
पाकर नाहक निंदा की धारणा से मत दब जाना। नहीं तो पहले पाप दबाए बैठा था, अब निंदा दबा कर बैठ जाएगी। मगर तुम दबे थे सो दबे रहे। क्या फर्क पड़ता है
किस पत्थर से दबे हो--सफेद पत्थर से दबे हो कि काले पत्थर से दबे हो, क्या फर्क पड़ता है?दबे हो सो दबे हो।
अकसर ऐसा हो जाता है कि जो लोग धर्म की दुनिया में प्रवेश करते हैं, वे जल्दी ही आत्मनिंदित हो जाते हैं, क्योंकि वहां
हर तथाकथित महात्मा यही कह रहा है कि यह पाप वह पाप। इतने पाप बताए जा रहे हैं कि
आदमी घबड़ा जाता है, डर जाता है।
बौद्ध शास्त्रों में बौद्ध भिक्षुओं के लिए तो हजार नियमों के पालन
करने की व्यवस्था है। नियम को याद रखना ही मुश्किल हो जाएगा। तीस हजार नियम, कैसे याद रखोगे? और तीस हजार नियम का मतलब हुआ कि
तीस हजार पाप की संभावना हो गई।
एक बहुत मजाक की घटना घटी। पोप ने एक वक्तव्य दिया, जिसमें उसने कहा --लोगों को सावधान करने के लिए--कि सावधान रहना! शैतान
बहुत कुशल हैं, चालबाज हैं। दुनिया में तीन सौ सड़सठ पाप हैं।
कई पत्र आए पोप के पास कि आप पूरी लिस्ट हमें भिजवा दें। कुछ ने तो
सच्ची बात लिखी कि सच्ची बात आप से क्या छिपाना, पाप तो हमने भी किए,
मगर तीन सौ सड़सठ नहीं किए हैं। तो मन में ऐसा होता है कि न मालूम
कितने अनकिए रह गए हैं! बड़ी पीड़ा हो रही है कि पता नहीं कौन-कौन से चूके हैं हम!
यह तो आदमी को तीन सौ सड़सठ पाप हैं, ऐसा सुनकर भाव उठेगा
कि जिंदगी यूं ही गंवाई, ऐसे ही दो चार ही करते रहे, उस्तादों ने तीन सौ सड़सठ कर लिए! हम कहीं के नहीं रहे। तो कम-से-कम पता तो
चल जाए, अभी कुछ देर बची हो, कुछ समय
बचा हो, कुछ थोड़ा-बहुत सुविधा बची हो तो थोड़े हम भी कर
गुजरें। पता नहीं , कौन-कौन से चूक गए! या तो यह और या फिर
यह कि तीन सौ सड़सठ पाप . . . तीन सौ सड़सठ चट्टानें छाती पर बैठ गईं। अब इनसे कैसे
छूटोगे?
नहीं, सुंदर की घोषणा बड़ी वैज्ञानिक है। सुंदर कहते हैं--मन
कौ बुरौ सुभाव। यह मन का स्वभाव है भटकाना। यह तीन सौ सड़सठ ढंग से भटकाए कि तीन
हजार ढंग से भटकाए , कि तीस हजार ढंग से भटकाए, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। यह मन का स्वभाव है।
सूत्र एक समझो कि मन न भटकाए। और मन इतना कुशल है कि संसार की चीजों
से तो भटकाता ही है, आध्यात्मिक चीजों के नाम पर भटका सकता है। कोई थोड़ा
पुण्य कर लेता है तो सोचता है कि अब मिलीं अप्सराएं, बस अब
देर नहीं है! अब पहुंचे स्वर्ग! अब बस हूरें नाचेंगी। अब ज्यादा देर नहीं है।
एक महात्मा मरा। संयोग की बात, उसी दिन उनके शिष्य
भी मरे। महात्मा ज़रा पहले, शिष्य ज़रा पीछे, जैसा कि नियमानुसार उचित है। गुरु आगे चला, शिष्य
पीछे चला। महात्मा पहले पहुंच गए स्वर्ग। शिष्य तो सोचता ही चला कि गुरुदेव आनंद
कर रहे होंगे, हूरें नाच रही होंगी। क्योंकि तपश्चर्या भी तो
की है बेचारों ने, दुःख भी तो भोगे, उपवास
भी तो किए, व्रत-नियम . . . कांटों पर भी तो सोए! जिंदगी
उनकी खड़ग की धार थी। अब अगर सुख भोग रहे होंगे तो भोगना ही चाहिए।
मगर मन में यह खयाल उठता था कि देखें कहां होंगे। सोए होंगे फूलों की
सेज पर! बज रही होगी बांसुरी! नाच रही होंगी हूरें--जो सदा जवान रहती हैं, कभी बूढ़ी नहीं होतीं; जिनके शरीर पर कभी पसीना नहीं
आता; जिनके शिरीर से हमेशा सुवास झरती है। अह्लादित हो रहा
था कि बेचारों ने तकलीफ भी बहुत भोगी। सोच रहा था अपने लिए कि कुछ-कुछ अपने को भी
मिलेगा, मगर ज्यादा अपन ने तकलीफ भोगी भी नही है। मगर
गुरुदेव को मिल रहा है, यह क्या कम है!
पहुंचा स्वर्ग, देखा सच में बात सच थी। एक बहुत सुंदर स्त्री,
नग्न, गुरुदेव के गले लगी थी। शिष्य तो एकदम
गिर पड़ा साष्टांग दंडवत् गुरुदेव के चरणों पर, कि गुरुदेव,
धन्य हो आप! आज सिद्ध हो गया कि तपश्चर्या आपने की थी।
लेकिन गुरु बहुत नाराज हुआ। गुरु ने कहा, चुप रह नासमझ। जब तक पूरी बात का पता न हो बीच में नहीं बोलना चाहिए।
उसने कहा ः पूरी बात! पूरी बात सब आंख के सामने है, अब इसमें और क्या पता चलना है?
गुरु ने कहा ः पूरी बात यह है कि यह मेरी तपश्चर्या का पुण्य-फल नहीं
है, यह इसके पापों का दंड मैं हूं। इसने जो पाप किए हैं, उनका दंड भोगने के लिए मैं दिया गया हूं इसको। जब तक पूरी बात पता न चले,
बीच में नहीं बोलना चाहिए। यह बेचारी कष्ट पा रही है। यह फिल्म-अभिनेत्री
थी, अब कष्ट पा रही है। अब भोगो एक महात्मा को।
मगर लोग सोच रहे हैं, स्वर्ग में ऐसा मिलेगा वैसा
मिलेगा, योजनाएं बना रहे हैं। अपने लिए स्वर्ग की योजनाएं
बना रहे हैं और अपने प्रतियोगियों के लिए; विरोधियों के लिए
नरक की योजना बना रहे हैं कि कैसे सड़ाए जाओगे, कैसे गलाए
जाओगे, कैसे शैतान तुम्हारी छाती पर नाचेंगे, तांडव नृत्य करेंगे।
मन के जाल गहरे हैं। मन का स्वभाव बुरा है। मन चाहे संसार की सोचे तो
गलत, मन चाहे स्वर्ग की सोचे तो गलत--सोचने में ही गलती
है। कोई सोचना अच्छा नहीं होता, कोई सोचना बुरा नहीं होता।
विचार मात्र भ्रांत होते हैं। निर्विचार शुभ दशा है।
इसलिए तुम्हें यह कह दूंः कोई विचार शुभ नहीं होते, कोई विचार अशुभ नहीं होते। विचार तो सभी अशुभ होते हैं। कोई अच्छा मन कोई
बुरा मन, ऐसा भेद मत करना। मन का स्वभाव ही बुरा है। मन
मात्र बुरा है। मन से मुक्ति, उन्मन हो जाना, वहां शुभ का सूर्योदय होता है।
सुंदर क्यौं करि दीजिए मन कौ बुरो सुभाव।
आइ बनै गुदरै नहीं, खेलै अपनौं दाव।।
अगर इसको मौका मिल जाए, अगर अवसर आ जाए . .
.आइ बनै गुदरै नहीं . . . तो यह चूकता ही नहीं। बस ज़रा ही इसको अवसर मिले, ज़रा-सा भी संधि मिल जाए इसको, यह तत्क्षण अपना दांव
मार देता है।
आइ बनै गुदरै नहीं खेलै अपनौं दाव।
अति सावधान कोई हो तो ही बच सकता है। अति जागरूक कोई हो तो ही बच सकता
है। क्योंकि यह क्षण में अपना दांव खेल देता है। इसके दांव ज़रा देखना। इसकी
सूक्ष्म चालें देखना। इसकी चालें इतनी सूक्षम हैं कि जब तक तुम्हारी उन चालों से
ज्यादा सूक्ष्म न हो तब तक तुम इससे जीत न पाओगे। और लोग स्थूल काम कर रहे हैं।
लोग सोच रहे हैं स्थूल काम करने से मन से मुक्ति हो जाएगी। मन बड़ा सूक्ष्म है, सूक्ष्मातिसूक्ष्म है। लोग क्या कर रहे हैं--कोई शीर्षासन लगा कर खड़ा है;
जैसे कि शीर्षासन करने से मन को कोई फर्क पड़ता है। तुम लगाए रहो
शीर्षासन, मन अपना काम जारी रखता है। मन सोचता ही रहेगा।
शीर्षासन तुम करते रहो और मन विचार कर रहा है कि क्या करना है, क्या नहीं करना है, कि कब यह शीर्षासन खत्म हो। तुम
बैठ जाओ सिंहासन में, तुम मार लो पालथी, तुम आसन जगा लो, तुम बिल्कुल पत्थर की मूरत हो जाओ,
मगर कुछ फर्क नहीं पड़ता, भीतर मन दौड़ता ही
रहेगा। तुम उपवास करो, तुम व्रत करो, तुम
शरीर को गलाओ, तुम रोज शरीर को कोड़े मारो--कुछ फर्क नहीं
पड़ता। मन अपना काम जारी रखेगा।
मन सूक्ष्म है और तुम स्थूल से लड़ रहे हो। मन कुछ और है, तुम कुछ और से लड़ रहे हो। तुम तन से लड़ रहे थे, तन
का कोई कसूर नहीं।
आइ बनै गुदरै नहीं खेलै अपनौं दाव।
सुंदर यहु मन भांड है सदा भंडायौ देत।
रूप धरै बहु भांति के राते पीरे सेत।
और यह तो भांड की तरह है। यह तो न मालूम कितने रूप रख लेता है! तुम यह
मत सोचना कि इसका कोई एक रूप है। तुम एक रूप पहचानो, यह दूसरा रूप रख लेता
है। दूसरा रूप पहचानो, यह तीसरा रूप रख लेता है। यह रूप रखने
में कुशल है।
तुम्हारे पास धन था, मन अकड़ा-अकड़ा फिरता था कि कितना
मेरे पास धन है! तुम्हें समझ आई, तुमने सोचा कि यह तो मन की
अकड़ हो रहा है धन, तुमने धन त्याग दिया, अब मन अकड़ा-अकड़ा फिरता है कि मैंने कितना बड़ा त्याग किया! उसने रूप बदल
लिया। और ध्यान रखना, धनी से त्यागी की अकड़ ज्यादा खतरनाक
है। क्योंकि धनी की अकड़ तो किसी को भी दिखाई पड़ जाए, त्यागी की
अकड़ देखनेवाला बहुत सूक्ष्म दृष्टि का आदमी हो तो ही दिखाई पड़ती है। नहीं तो
त्यागी की अकड़ तुम्हें कैसे दिखाई पड़ेगी? स्त्रियों के पीछे
भाग रहा था, किसी को भी दिखाई पड़ जाएगा। स्त्रियों को छोड़कर
भागने लगा, अब बहुत कम संभावना है किसी को दिखाई पड़े। लेकिन
यह मन वही का वही है। स्त्रियों की तरफ भागो कि स्त्रियों को छोड़कर भागो, मन कहता है भागते भर रहो। बस चलते रहो, रुकना भर
नहीं। दिशा की तुम फिक्र रखो। किस दिशा में तुम्हें जाना है, तुम समझो। तुम्हें संसार की तरफ भागना है, संसार की
तरफ भागो, मोक्ष की तरफ भागना है मोक्ष की तरफ भागो, मुझे कोई चिंता नहीं--भागते भर रहो! बस मैं जी लूंगा। मैं भागने में जीता
हूं।
तुमने देखा न, तुम साइकिल चलाते हो, तुम पैडल
मारते हो। पैडल मारते रहो, साइकिल चलती रहती है। अब साइकिल
यह थोड़े ही कहती है कि जब तुम पश्चिम की तरफ जाओगे तभी चलूंगी, पूरब की तरफ जाओगे तो नहीं चलूंगी। साइकिल कहती है, शर्त
एक है--पैडल मारो। पूरब जाओ कि पश्चिम, दक्षिण कि उत्तर,
जहां जाना है जाओ, पैडल मारो। बस पैडल लगते
रहे तो साइकिल चलती रहेगी।
मन कहता है ः भागते रहो, मैं चलता रहूंगा,
मैं जीता रहूंगा। तुम कहां जाते हो . . . हिमालय चल रहे हो चलो,
साधु बनना है साधु बनो, तुम्हें जो करना है
मैं राजी हूं। तुम्हें स्वर्ग जाना है, मन तुमसे आगे जाने को
राजी है। वह कहता है, हम तैयार हैं। मोक्ष--हम तैयार हैं। मन
कहता है तुम बस एक काम भर मत चूकना--दौड़ना, भागना, मांगना, चाहना, वासना भर मत
छोड़ना। बस और सब ठीक है। तुम्हें जो मांगना हो, उसकी तुम्हें
स्वतंत्रता है। मांगते भर रहना। मन तो भिक्षा पात्र है।
रूप धरै बहु भांति के राते पीरे सेत।
सुंदर आसन मारि के साधि रहे मुख मौन।
कि तुम बैठ जाओ आसन मार कर, कि कर लो मुंह
बिल्कुल बंद, कुछ फर्क नहीं पड़ता।
तन कौं राखै पकरि कै मन पकरै कहीं कौन।
तुम तन को बिल्कुल पकड़ कर बैठ सकते हो। अभ्यास करने से ऐसा कर सकते हो
कि तन बिल्कुल अड़िग हो जाए। मगर मन को कौन पकड़ेगा?
महावीर के जीवन में प्यारी कथा है। सम्राट् प्रसेनजित उन्हें मिलने
आया। जब वह महावीर को मिलने आ रहा था, तभी रास्ते में उसे
खयाल आया कि उसका एक पुराना मित्र बचपन का साथी, साथ ही
स्कूल में पढ़े, वह भी राजकुमार था, वह
संन्यासी हो गया है, महावीर का मुनि हो गया है। तो उसने सोचा
कि महावीर से मिलने जा रहा हूं, सुना है कि रास्ते में ही
कहीं मेरे मित्र ने भी किसी चट्टान पर अपनी साधना कर रखी है। उसके भी दर्शन कर
चलूं। प्रसन्नकुमार उसका नाम था--मित्र का। तो वह गया। देखकर दंग हो गया, भाव-विभोर हो गया। ऐसी शांत प्रतिमा। पत्थर जैसी मौन! न पलक हिले न रोआं
कंपे! अड़िग। उन चट्टानों के बीच में प्रसन्नकुमार भी जैसे चट्टान ही है। प्रसेनजित
ने चरणों में झुककर नमस्कार किया; यद्यपि बचपन का मित्र था,
संगी-साथी थे, मगर अब इसकी क्या बात करनी। यह
कहां पहुंच गया और मैं कहां रह गया! मन में बड़ा खिन्न, उदास,
महावीर के दर्शन को गया। महावीर से उसने पूछा कि मेरे मन में एक
प्रश्न उठा, प्रश्नकुमार के दर्शन करते समय, कि अगर प्रसन्नकुमार की अभी मृत्यु हो जाए तो किस स्वर्ग में इनका जन्म
होगा। ये किस ऊंचाई पर पहुंचेंगे? किस देवलोक में? किस प्रकार के देव होंगे?
महावीर ने कहा ः जिस समय तूने नमस्कार किया प्रसन्नकुमार को, अगर उसी वक्त वह मर जाता तो सातवें नरक में पैदा होता। प्रसेनजित तो भरोसा
ही न कर सका कि सातवें नरक में! आप कहते क्या हैं?
महावीर ने कहा ः तू पूरी बात सुन ले। लेकिन अब, अभी घड़ी ही गुजरी है, अब अगर प्रसन्नकुमार मर जाए तो
वह सातवें स्वर्ग में पैदा होगा।
एक घड़ी में इतना फासला! प्रसेनजित पूछने लगा। महावीर ने कहाः एक क्षण
में हो जाता है। मन की बात है। तू पूरी कहानी समझ ले। तेरे आने के पहले तेरा और
फौज-फांटा निकला। सम्राट् का आगमन . . .तो पहले घोड़े आए, फिर वजीर आए, फिर पहरेदार आए। तो तेरे दो वजीर
प्रसन्नकुमार का दर्शन करने गए और उन्होंने कहा कि ये बूद्धू देखो, यहां खड़ें हैं सिर घुटाए! प्रसन्नकुमार आग-बबूला हो गया कि ये क्या कह रहे
हैं। मगर उसने अपनी शांति रखी। ऊपर से वह शांत ही रहा, भीतर
बवंडर उठ गया। दूसरे ने पूछा कि बुद्धू कहते हो इन्हें, लेकिन
देखो तो कितने शांत हैं! पहले ने कहाः अरे रहने दो इनकी शांति! बच्चे मुश्किल में
पड़ गए, पत्नी मुश्किल में पड़ गई। और यह जिन वजीरों के हाथ
में अपने बच्चों को सौंप आया है . . .बच्चे अभी कच्ची उम्र के थे . . .वे सब हड़पे
जा रहे हैं। जब तक बच्चे योग्य होंगे सम्राट् बनने को, तब तक
रत्ती नहीं बचेगी खजानों में और ये भैया यहां खड़े हैं। इनके बच्चे बरबाद हो रहे
हैं। इनका राज्य बरबाद हो रहा है।
प्रसन्नकुमार तो भूल गया एक क्षण में, जैसे भर्तृहरि भूल
गया था एक क्षण में और हीरे पर लोभ हो गया। भूल ही गया कि मैं महावीर का मुनि हूं।
भूल ही गया कि अब मैं सम्राट् नहीं हूं। उसने कहा, अच्छा! तो
वे वजीर मुझे धोखा दे रहे हैं? गर्दनें उतार दूंगा।
उसने तलवार खींच ली--तलवार जो कि अब थी ही नहीं। पुरानी आदत। तुमने
देखा न, पुरानी आदत से हो जाता है। पुरानी आदत। होश कहां था।
म्यान से तलवार बाहर आ गई। गर्दनें काट डालीं उसने अपने वजीरों की। तलवार वापिस
चली गई। उसकी पुरानी आदत थी। जब भी वह किसी की गर्दन काटता था, पुराना हत्यारा था। सम्राट् बिना कोई हत्यारा हुए होता भी नहीं। तो उसकी
पुरानी आदत थी कि जब भी किसी की गर्दन काट देता था तो अपने मुकुट को संभालता था।
तो उसने अपने हाथ से अपने मुकुट को संभाला। वहां तो कुछ था ही नहीं मुकुट इत्यादि।
एक क्षण में उसे खयाल आया कि अरे, यह मैंने क्या किया! न
तलवार है, न मुकुट है, और मैंने हत्या
कर दी और यह मेरा भाव, यह मेरा विचार है, यह मन मुझे कहां ले गया!
महावीर ने कहा कि प्रसेनजित, जब तू उसको नमस्कार
कर रहा था, तब वह तलवारें हाथ में लिए हुए था। तब गर्दनें
गिर रही थीं। इसलिए मैंने कहा, वह सातवें नरक में गया होता।
अब उसने होश वापिस संभाल लिया है। उसे हंसी आ गई अपनी मूढ़ता पर। उसे मन की
चालबाजियों पर समझ आ गई। तलवार, मुकुट, राज्य फिर विदा हो गया है। अब वह फिर शांतचित्त है। अब मन निस्तरंग है।
अभी मर जाए तो सातवें स्वर्ग में पैदा हो।
मन और बात है, तन और बात है। और तुम जो जगत् में देखते हो इतनी
साधना-प्रक्रियाएं, वे सब तन की ही हैं। लोग जिंदगियां लगा
रहे हैं, व्यायाम कर रहे हैं, कवायतें
कर रहे हैं, प्राणायाम कर रहे हैं। वे सब तन की ही हैं। मन
के प्रति जागो!
सुंदर आसन मारिकै साधि रहै मुख मौन।
तन कौं राखै पकरिकै मन पकरै कहि कौन।।
मन को कैसे पकड़ोगे? तन को तो पकड़ सकते हो।
तन कौ साधन होत है मन कौ साधन नाहिं।
सब साधन तन के हैं, मन का कोई साधन नहीं है।
सुंदर बाहर सब करै मन साधन मन माहिं।
और तो सब करना बाहर-बाहर है, मन का साधन मन के
भीतर है। वह क्या है साधन?
अभी किरन बढ़ती आती है और सोचता हूं
कि रोज सूरज होता है अस्त और फिर रोज निकलता है
क्या यह इसका पुनर्जन्म है? नहीं; नहीं है पुनर्जन्म यह
यह तो केवल गर्दिश ठहरी
लेकिन उसकी नहीं धरित्रि की गर्दिश है
धरती नियमबद्ध अपनी गति से व्याकुल है
दिवस रात्रि ऋतु के परिवर्तन इसी विकल गति के कारण हैं
यही विकलता किंतु देश अवकाश और आकाश बनाती
और विराट प्रभा सूरज की
केवल साक्षी रहकर मानो
क्रिया शून्यता में कर्मों के पर्व मनाती!
तुम्हारे भीतर जो बैठा हुआ है सूरज, जो प्रकाश वह मात्र
साक्षी है, न कर्ता है न भोक्ता है।
और विराट प्रभा सूरज की
केवल साक्षी रह कर मानो
क्रिया शून्यता में कर्मों के पर्व मनाती!
साधनाएं कृत्य हैं, कर्म हैं। कर्मों से तुम मन के
बाहर न जा सकोगे। कर्म तो मन का भोजन है। एक ही उपाय है मन के बाहर जाने काः
साक्षी-भाव। साक्षी बनो। भीतर बैठ जाओ और मन की दौड़ देखो। सिर्फ दौड़ देखो। इतना ही
ध्यान रखो कि मैं द्रष्टा हूं। भूलेगा, बार-बार भूलेगा। मन
बार-बार तुम्हें उलझा लेगा। मन बार-बार प्रलोभन देगा। फिर-फिर याद करो, पुनः-पुनः स्मरण करो कि मैं साक्षी हूं, मैं सिर्फ
देखनेवाला हूं। दुःख आता तो दुःख को देखता हूं, सुख आता तो
सुख को देखता हूं। सुबह होती सुबह देखता हूं, सांझ होती सांझ
देखता हूं। सफलता-विफलता, यश-अपयश सब देखता हूं। मैं सिर्फ
द्रष्टा हूं।
बस यही सूत्र है। द्रष्टा तुम्हें साफ होने लगे तो मन उतना ही तिरोहित
होने लगता है। वही ऊर्जा जो मन में दौड़ती है, द्रष्टा में थिर हो
जाती है। वही ऊर्जा जो मन में भागी-भागी है, द्रष्टा में
शांत सरोवर हो जाती है।
सुंदर बाहर सब करै मन साधन मन माहिं।
जो भी तुम कर सकते हो, बाहर है। कृत्य मात्र
बाहर है, साक्षी भीतर है।
मन ही बड़ो कपूत है मन ही महा सपूत।
अगर मन में उलझ गए, उसके कर्मों के जाल में पड़ गए,
मान लिया कि मैं कर्ता हूं, तो चूके।
मन ही बड़ो कपूत, मन ही बड़ो सपूत।
लेकिन अगर जागे, अगर मन के साक्षी बने तो बात बदल
जाती है; कांटा फूल बन जाता है, जहर
अमृत हो जाता है। पीने का अंदाज बदल जाता है। भोक्ता का एक अंदाज है, साक्षी का दूसरा अंदाज है।
सुंदर जो मन थिर रहे तो मन ही अवधूत।
और जैसे ही साक्षी का भाव हुआ और मन ठहरा कि फिर तुम पहुंचे हुए सिद्ध
हो, तुम परमात्मा हो, तुम साक्षात ब्रह्म हो!
जब मन देखै जगत् को जगत् रूप ह्वै जाइ।
सुंदर देखै ब्रह्म कौं तब मन ब्रह्म समाइ।
और भेद कुछ भी नहीं है। मन जब जगत् को देखता रहता है तो जगत्रूप हो
जाता है। और जब मन भीतर मुड़ता है, साक्षी बनकर ठहरता है और अंतर्तम
को देखता है, तो ब्रह्मरूप हो जाता है। मन तो एक दर्पण है;
उसमें बंदर झांकता है तो दर्पण बंदर हो जाता है; उसमें कोई बुद्ध झांकने लगता है तो दर्पण बुद्ध हो जाता है। मन बाहर-बाहर
जा रहा--मकान देखता, धन देखता, दुकान
देखता--तो वही हो गया। मन भीतर आ जाए, मन ठहरे और भीतर देखे,
आंख भीतर खुले तो मन ही ब्रह्मरूप हो जाता है।
सुंदर परम सुगंध सौं लपटि रह्यों निश-भोर।
फिर तो ऐसी हो जाती है बात--उस परम सुगंध की एक दफा खबर मिल जाए, ज़रा-सा झलक मिल जाए कि फिर तो दिन-रात उसी में डुबकी लगी रहती है। फिर
दुनिया की कोई चीज नहीं खींच पाती। फिर कुछ है ही नहीं, सब
फीका-फीका है। जिसने भीतर देखा, उसके लिए बाहर सब जग फीका
है।
सुंदर परम सुगंध सौं लपटि रह्यो निश-भोर।
पुंडरीक परमात्मा, चंचरीक मन मोर।।
जैसे भंवरा कमल के चारों तरफ डोले, कमल में बैठे,
कमल बंद भी हो जाए तो भी बैठा रहे . . .।
छूटयो चाहत जगत् सौं महा अज्ञ मतिमंद।
जगत् से छूटने की कोशिश करोगे, सफल नहीं होओगे।
परमात्मा को जानने की कोशिश, करो, जगत्
से छूट जाओगे।
छूटयो चाहत जगत् सौं महा अज्ञ मतिमंद।
जोई करै उपाइ कछु सुंदर सोई फंद।।
यहां तो जगत् से छूटने के तुम भी उपाय करोगे सभी फंदे हो जाते हैं।
दुकान से छूटे, मंदिर में उलझ गए। गांव से भागे, जंगल में उलझे। जहां से जाओगे . . . कहीं तो जाओगे, वहीं
उलझ जाओगे।
बठौ आसन मारि करि पकरि रह्यो मुख मौन।
बैठ जाओ आसन मार कर। ओंठ बंद कर लो। जबान न हिलाओ।
सुंदर सैन बतावतें सिद्ध भयो कहि कौन।
वह हाथ सैन से बातें करने लगेगा। मन जो है, बड़ा तरकीब वाला है; वह सैन बताने लगेगा।
तुमने देखा न, लोग मौन हो जाते हैं तो लिख-लिख कर बातें करने लगते
हैं। फायदा क्या हुआ? बात ही तो कर रहे हो न! बात ही करनी थी
तो मुंह से करने में क्या खराबी थी? इसमें और समय ज्यादा खराब
होता है। हाथ से इशारे करने लगते हैं। कोई गूंगे सिद्धपुरुष थोड़े ही होते हैं। तुम
गूंगे हो गए, और क्या हुआ? मगर जो बात
तुम कागज पर लिख रहे हो, वह तुम्हारे मन में भी तो उठेगी न।
नहीं तो कागज पर कैसे लिखोगे? जब कागज पर ही लिख रहे हो,
मन में उठ ही गई, तो कंठ से बोलने में कौन-सी
कठिनाई थी? ये उल्टे कान पकड़ने की चेष्टाओं से क्या होगा?
सुंदर सैन बतावतें सिद्ध भयो कहि कौन।
कोउ करै पयपान कौं कौन सिद्धि कहि बीर।
और कुछ ऐसे-ऐसे वीर पड़े हैं, कुछ ऐसे बहादुर कि वे
सोचते हैं कि दूध ही दूध पीते रहेंगे तो सिद्धपुरुष हो जाएंगे।
सुंदर बालक बाछरा ये नित पीवहिं खीर।
सुंदरदास कहते हैं बछड़े पी रहे हैं दूध ही दूध, सिद्ध नहीं हो गए। बालक पी रहे हैं दूध ही दूध, सिद्ध
नहीं हो गए। और अकसर ऐसा हो जाता है कि दूध ही दूध पीनेवाले बछड़े हो जाते हैं।
शंकर जी के सांड! किसी न मतलब के, न किसी उपाय के। इन
क्षुद्र-सी बातों से कुछ होने वाला नहीं है।
लोग सोचते हैं कि दूध बड़ा सात्विक आहार है। पागल हो गए हो? सच यह है कि आदमी को छोड़कर कोई जानवर बचपन के बाद दूध नहीं पीता। आदमी
अजीब है। यह भी कोई ढंग की बात है? और कभी-कभार पी लो तो भी
ठीक है, चाय-काफी में डालकर पी लो तो भी ठीक है। कुछ है कि
वे दूध ही दूध पी रहे हैं। अब गाय का दूध पिओगे तो गाय का दूध बना बछड़े के लिए है,
बछड़े की बुद्धि आ जाएगी। सिद्ध कैसे हो जाओगे? मन का इससे क्या लेना-देना है? मन कैसे विलीन हो
जाएगा?
कोऊ होत अलौंनिया, खाय अलौंनो नाज।
और कुछ ऐसे महापुरुष हैं कि वे कहते हैं नमक नहीं खाएंगे। बड़ा. .
.इसमें भी बड़ा महत्त्व माना जाता है।
एक घर में मैं मेहमान था तो पति महाराज ने मुझे कहा कि मेरी पत्नी बड़ी
धार्मिक है। "क्या उसका धर्म है?' नमक नहीं खाती! नमक
खाने-न-खाने से धर्म का क्या लेना-देना हो सकता है? लेकिन
कोई घी नहीं खाएगा, कोई नमक नहीं खाएगा, कोई शक्कर नहीं खाएगा। और कभी-कभी तो समझदार लोग तक नासमझियां कर देते
हैं।
मैंने सरदार भगत सिंह के जीवन में पढ़ा कि जब वे जेल में थे तो और सब
खाते थे, नमक नहीं खाते थे। सरदार भगतसिंह समझदार आदमियों में
एक थे। मगर यह क्या मामला? नमक क्यों नहीं खाते थे? कोई धार्मिक आदमी भी नहीं थे। वे नमक इसलिए नहीं खाते थे कि कहीं कोई यह न
कह दे कि ब्रिटिश सरकार का नमक खाया। और बाकी सब खाते थे। यह भी खूब मजा है! तो
बुद्धू तो यहां बुद्धू हैं ही, जिनको बुद्धिमान समझो उनमें
भी कुछ बुद्धिमत्ता दिखाई नहीं पड़ती। सरकारी नमक कैसे खा सकते हो! सरकारी रोटी खा
सकते हो! शब्दों से उलझ जाते हैं लोग।
कोऊ होत अलौंनियां खाय अलौंनो नाज।
सुंदर करहिं प्रपंच बहु मान बढ़ावन काज।।
इन सारी बातों से सिर्फ अहंकार बढ़ता है, और कुछ भी नहीं होता।
कोउक दूध रू पूत दे, कर पर मेल्हि विभूति।
और कुछ हैं कि चमत्कार दिखा रहे हैं, भभूत मल-मल कर हाथ से
किसी को दे देंगे कि ले, तुझे पुत्र हो जाएगा, किसी की बीमारी ठीक करवा देंगे। और अब तो लोग आगे बढ़ गए हैं। सुंदरदास जी,
कहां की पुरानी बातें कर रहे हो! लोग स्विस घड़ियां निकाल रहे हैं।
तुम भी कहां पिटी-पिटाई पुरानी बातों में लगे हो! जमाना आगे जा चुका। बेचारे
सुंदरदास! उन्हें क्या पता, नहीं तो वे लिख गए होते कि स्विस
घड़ी निकालने से कोई सिद्ध नहीं होता। और बड़ा मजा यह है कि हाथ के मलने से
स्विट्जरलैंड की बनी घड़ी क्यों निकलती है? उस पर तो र्सिफ्
लिखा होना चाहिए--मेड इन हैवन। कुछ ऐसा कुछ लिखा होना चाहिए। स्विट्जरलैंड . . .।
फिर सत्य साईंबाबा के खिलाफ बहुत-सी बातें जब चलीं तो उन्होंने
स्विट्जरलैंड की घड़ियां निकालनी बंद कर दीं, तो एच. एम. टी.।
उन्होंने सोचा कि स्वदेशी निकालो अब, क्योंकि इस देश में लोग
स्वदेशी को बहुत मानते हैं। मगर और झंझट में पड़ गए, क्योंकि
एच. एम. टी. के लोगों ने ज्यादा शोरगुल मचाना शुरू कर दिया। स्विट्जरलैंड के लोगों
ने तो कुछ फिकर भी नहीं की थी, ऐसी फिजूल की बातों की फिकर
दुनिया में और कोई करता नहीं। लेकिन एच. एम. टी. के लोगों ने तो मामले को मुकदमा
तक बनाने की कोशिश करनी शुरू कर दी, कि हमारी घड़ियां इस तरह
कोई निकालेगा तो हमारे बाजार का क्या होगा? अब बेचारे बड़ी
मुश्किल में पड़ गए हैं। तो अब उन्होंने घड़ियां निकालना बंद कर दिया है। क्योंकि अब
घड़ियां निकालो कहां से? घड़ी कहीं की तो बनी हुई होगी!
परमात्मा के वहां घड़ियां बनती नहीं, क्योंकि वहां समय
नहीं है। कालातीत। वहां कैसे घड़ी बनेगी?
कोउक दूध रू पूत दे कर पर मेल्हि विभूति।
सुंदर ये पाखंड किय क्यौं हि परै न सूति।।
ये सब पाखंड हैं। सब धोखे-धड़ियां हैं। यह सब मदारीबाजी है। इनसे
सावधान रहना! इस तरह किसी का सूत्र परमात्मा से नहीं जुड़ता। इस तरह तो सूत्र बनते
हों तो टूट जाते हैं। परमात्मा से सूत्र जुड़ता है सरलता से, इन पाखंडों से नहीं। ये मदारीबाजियां, ये सब बाजार
में अहंकार को सिद्ध करने की कोशिशें हैं। और इससे भले, गोगिया
पाशा भले, पी. सी. सरकार भले, कम से कम
साफ तो कहते हैं कि यह जादू है, हाथ की सफाई है। कम से कम
बेईमान तो नहीं! मगर जो लोग कह रहे हैं कि यह सिद्धि है, सिद्धि
का चमत्कार है, ये महा बेईमान हैं। साधु तो कहना असंभव ही है,
इनको असाधु कहो तो भी शब्द छोटा मालूम पड़ता है। ये असाधु से भी बदतर
हैं।
तोड़ो नहीं तार
धरती पर
इसी पार
कोई रुद्ध रोता है
भटक परछाइयों में
तुमुल युद्ध होता है
जीतने को जिसे होते
वार पर वार
तोड़ो नहीं तार!
परमात्मा से ऐसे तार मत तोड़ो। यहां जीवन में बड़ा संघर्ष है। इस संघर्ष
में उसके साथ की बड़ी जरूरत है, उसके सहारे की जरूरत है। ऐसे तार
मत तोड़ो। ऐसे पाखंड मत फैलाओ। लोगों को ऐसे मत भटकाओ।
तोड़ो नहीं तार
धरती पर
इसी पार
कोई रुद्ध रोता है
भटकी परछाइयों में
तुमुल युद्ध होता है
जीतने को जिसे होते
वार पर वार
तोड़ो नहीं तार!
धरती पर
इसी पार
जीवन भी फैला है
श्रम की उज्जवलता में
भाग्य के प्रकोप का
रंग मटमैला है
भाग्य को मिटाने को
जीवन में उठा नया ज्वार
तोड़ो नहीं तार!
इस तरह के साधु-महात्मा संसार से विदा हो जाएं तो संसार थोड़ा ज्यादा
धार्मिक हो। इस तरह के पाखंडी, इस तरह के उपद्रवी लोगों के मन
को व्यर्थ जालों में भरमाते हैं। लोगों को झूठी आशाएं दिला देते हैं।
और इस तरह की चालबाजियों के पीछे सारा खेल क्या है? एक ही खेल है--और वह खेल है ः मान बढ़ावन काज! अहंकार बड़े!
केस लुचाइ न हवैं जती, कान फराइ न जोग।
सुंदर सिद्धि कहा भई बाछि हंसाए लोग।।
फिर कुछ हैं, जैनों के मुनि हैं, वे बाल
नोंचते रहते हैं। केस लुचाइ न हवै . . .। वे केस नोंच-नोंच कर सोचते हैं कि कोई
सिद्धि हो रही है। बाल उखाड़ने से क्या सिद्धि होगी? क्यों
व्यर्थ के तमाशे कर रहे हो? अगर बाल नोंचने से सिद्धि होती
हो तो कितना आसान मामला था! कुछ करने जैसा खास है ही नहीं मामला। कोई बड़ी कठिन बात
नहीं है। पहले-पहले खींचोगे तो थोड़ी तकलीफ होगी, फिर
धीरे-धीरे अभयस्त हो जाओगे। फिर मजे से खींचने लगोगे। लेकिन बाल खिंच जाएंगे;
प्रेम, प्रार्थना, पूजा
इससे कैसे पैदा होगी? बाल खिंच जाएंगे, मन कैसे ठहरेगा? समाधि कैसे लगेगी? बालों के होने से मन है? तो बालों के न होने से चला
जाता है।
लेकिन इस तरह की व्यर्थ की बातें लोगों को आकर्षित करती हैं। लोगों को
इस तरह की बातों में चमत्कार मालूम पड़ता है, कि देखो, बेचारे कितना कष्ट झेल रहे हैं।
मैंने देखा है, जैन मुनि जब बाल नोंचते हैं, लोग
इकट्ठे हो जाते हैं, महिलाओं की आंखों से आंसू गिर रहे हैं।
वे मूढ़ता कर रहे हैं और महिलाओं की आंखों से आंसू गिर रहे हैं--कि मुनि महाराज!
कैसा कष्ट झेल रहे हैं! अगर कष्ट झेल रहे हैं तो अपनी मूढ़ता से झेल रहे हैं। तुम
किसलिए परेशान हो, पुलिस में खबर दो, कि
एक आदमी पगला गया है! अपने बाल नोंच रहा है। इसको रोको। या न मानता हो तो इसका सिर
घोंट दो।
केसे लुचाई न हवै जती . . . ऐसे कहीं कोई सिद्ध हुआ?
कान फराइ न जोग।
और लोग कान फड़वा-फड़वा कर . . . कनफटा जोगी! बड़ा मजा है! तुम ज़रा सोचो
तो, इस धार्मिक देश ने कैसी-कैसी कलाएं खोजीं। कन-फटा जोगी! कान फाड़ दिया,
तुम जोगी हो गए। लोगों ने सस्ती तरकीबें खोज ली हैं। इन सस्ती
तरकीबों से सावधान रहना।
योग तो एक है--और वह परमात्मा से मिलन है। सिद्धि तो एक है-- स्वयं का
शून्य हो जाना है। समाधि तो एक है--मन का ठहर जाना है।
सब तुम्हारे भीतर है। गीत तुम्हारे भीतर है। बीज तुम्हारे भीतर है।
बाहर के उपक्रम छोड़ो। भीतर जाओ। बाहर की व्यर्थ प्रवंचनाएं, बाहर के व्यर्थ जाल, विधि-विधान छोड़ो। लौटो अपनी
तरफ।
मेरी सारी चेष्टा यहां यही है कि तुम्हें तुम्हारे अंतर्तम की तरफ
लौटा दूं। तुम्हारा जो कुछ भी पाने योग्य है, तुमने कभी खोया है।
तुम पीठ किए खड़े हो। अभी तुम संसार की तरफ मुख किए हो, परमात्मा
की तरफ पीठ किए हो। अभी तुम काम-मुख हो, राम-विमुख हो। बस इतना-सा
काम करना है--राम की तरफ सम्मुख हो जाओ। और राम तुम्हारे भीतर खड़ा है। राम
तुम्हारा स्वभाव है।
ये सूत्र कीमती हैं। इन
सूत्रों का सहारा लेकर चले तो जरूर तुम गीत गा सकोगे। और मौत तुम्हारे द्वार पर आए
तो तुम्हें रोना न होगा, न पीड़ित होना होगा, न परेशान होना
होगा, न तुम्हें कहना होगा--
अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूं तो चलूं।
तुम जागे ही हुए होओगे।
अपने ग़मखाने में एक धूम मचा लूं तो चलूं
तुम्हारा कोई गमखाना ही न होगा। धूम तो मची ही रही जीवन-भर। तुम तो
उत्सव थे, मृत्यु में और महोत्सव हो जाओगे।
और इक जामे-मए तल्ख चढ़ा लूं तो चलूं।
और एक प्याली पी लूं . . .। नहीं; तुम्हें इसकी जरूरत न
होगी। तुमने तो जीवन-भर पिया। तुम तो पीते ही रहे, हर पल उसी
को पीते रहे।
अभी चलता हूं ज़रा खुद को संभालूं तो चलूं।
नहीं; तुम एक क्षण का भी मौत से समय नहीं मांगोगे कि अभी
चलता हूं।
ज़रा खुद को संभालूं तो चलूं
तुम्हारी तो सारी जिंदगी संभाली ही हुई थी। मौत तुम्हें तैयार पाएगी।
तुम तो मौत की डोली पर बैठ जाओगे। तुम कहोगेः मैं तैयार हूं। मैं अपने प्रभु से
मिलने को राजी हूं!
आज इतना ही।
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