प्रभु की अनुकंपा
पांचवां--प्रवचन
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक 15 मई, 1977
सारसूत्र:
मील कद करी थी भलाई जीया आप जान,
फील कद हुआ था मुरीद कहु किसका।।
गीव कद ज्ञान की किताब का किनारा छुआ,
ब्याध और बधिक तारा, क्या निसाफ तिसका।।
नाग केद माला लैके बंदगी करी थी बैठ,
मुझको भी लगा था अजामिल का हिसका।।
एतै बदराहों की तम बदी करी थी माफ,
मलूक अजाती पर एती करी रिस का।।
भेष फकीरी जे करैं, मन नहिं आवै हाथ।
दिल फकीर जे हो रहे, साहेब तिके साथ।।
राम राम के नाम को, जहां नहीं लवलेस।
पानी तहां न पीजिए, परिहरिये सो देस।।
बाबा मलूकदास
एक अवधूत हैं। अवधूत का अर्थ है--संन्यास की परम अवस्था जहां न कोई नियम शेष रह
जाते हैं--न कोई मर्यादा; जहां
कुछ शुभ है,
और न
कुछ अशुभ;
जहां
व्यक्ति जीता--सहज समाधि से; जहां
जो हो,
वही
ठीक है;
जहां
स्वीकार संपूर्ण है; जहां
कोई निषेध नहीं रहा; क्या
करना, क्या न करना--ऐसी धारणाएं, व्यवस्थाएं, नहीं रहीं; जहां व्यक्ति फिर से छोटे
बच्चे की भांति हो जाता है।
अवधूत
की दया को परम-दशा कहा है; वह
पुनर्जन्म है;
वह नया
जन्म है।
एक
जन्म मिलता है मां से, फिर उस
जन्म के साथ आई हुई निर्दोंषता कोमलता, पवित्रता--सब खो जाती है--समाज की भीड़ में, ऊहापोह में, संसार के जंजाल में। बेईमानी
सीखनी पड़ती है,
धोखा-घड़ी
सीखनी पड़ती है,
अविश्वास
सीखना पड़ता है। तो जिस श्रद्धा को लेकर मनुष्य पैदा होता है, वह धूमिल हो जाती है। फिर उस
धूमिल दर्पण में परमात्मा की छबि नहीं बनती। और हजार-हजार विचारों की तरंगें--छबि
बिखर-बिखर जाती है। जैसे कभी तरंगें उठी झील में चांद का प्रतिबिंब बनता है; तो बन नहीं पाता; लहरों में टूट जाता है; बिखर जाता है। पूरी झील पर
चांदी फैल जाती है। लेकिन चांद कहां है, कैसा है--यह पता लगाना मुश्किल हो जाता है।
झील
चाहिए शांत,
झील
चाहिए निर्मल,
तो
चांद का मुखड़ा दिखाई पड़ता है। ऐसा ही जब चित्त की झील निर्मल होती है, तो परमात्मा का रूप दिखाई
पड़ता है।
परमात्मा
को जाने के लिए शास्त्र की जानकारी नहीं। शब्द से मुक्ति चाहिए। और परमात्मा को
जानने के लिए बहुत गणित और तर्क नहीं--निर्दोष मन चाहिए; फिर से एक जन्म चाहिए।
अवधूत
का अर्थ है: जो फिर से जन्मा और जिसने फिर से बालक-जैसी सरलता को उपलब्ध कर लिया।
सारा
योग, सारी भक्ति, सारे ध्यान इतना ही करते हैं
कि जो गंदगी और जो कचरा समाज तुम पर जमा देते हैं, उसे हटा देते हैं। उनका
प्रयोग नकारात्मक है।
योग या
भक्ति तुम्हें कुछ देते नहीं, समाज
ने जो दे दिया है,
उसे
छीन लेते हैं। तुम फिर वैसे के वैसे हो जाते हो, जैसा तुम्हें होना था।
तो
निश्चित ही अवधूत की परमदशा में न तो कुछ पुण्य बचता है, न कोई पाप बचा है। अवधूत की
परमदशा में तो फिर से बालपन लौटा। और यह बालपन गहरा है--पहले बालपन से ज्यादा गहरा
है। क्योंकि पहला बालपन अगर बहुत गहरा होता, तो नष्ट न हो सकता था। नष्ट हो गया। संसार
के झंझावात ने झेल सका। कच्चा था; अप्रौढ़
था। सरल तो था,
लेकिन
बुनियाद बहुत मजबूत न थी उस सरलता की। जरा से हवा के झोंके आये और झील कंप गई। जरा
मुसीबतें आई और चित्त उद्विग्न हो गया। वृक्ष तो था, लेकिन जड़ें नहीं थी बहुत गहरी, तो जरा-जरा से हवा के झोंके
उसे उखाड़ गये।
दूसरा
जो बचपन है,
वह
ज्यादा गहरा होगा,
क्योंकि
स्वयं उपलब्ध किया हुआ होगा; जागरूक
होगा। दूसरा जो बचपन है, उसी को
हमने इस देश में द्विज कहा है--दूसरा जन्म।
दुनिया
में दो तरह के लोग हैं...। और यह बंटवारा बहुत महत्वपूर्ण है। एक तो वे, जो एक ही बार जन्मते हैं; उनको ही पारिभाषिक अर्थों में
शूद्र कहा जाता है--जो एक ही बार जन्में हैं; जिन्होंने पहले बचपन को ही सब मान लिया और
समाप्त हो गये और जिन्होंने दुबारा जन्म लेने की कोई चेष्टा न की।
जो
दुबारा जन्म लेता है--द्विज--टवाइस--वही ब्राह्मण है; वही ब्रह्म को पाने का हकदार
है।
तो एक
हैं: एक ही बार जन्मे--वंस बार्न; और
दूसरे हैं: दुबारा जन्मे--द्विज--टवाइस बार्न।
अवधूत
दुबारा जन्मा है। तो उसके शरीर की उम्र हो भी सकती है काफी हो--बूढ़ा हो, लेकिन उसके चित्त में कोई
उम्र नहीं है,
कोई
समय नहीं है। उसका चित्त समय से मुक्त है। उसका चित्त छोटे बच्चे की भांति है।
जीसस
एक बाजार में खड़े हैं और किसी ने पूछा...। जिसने पूछा, वह धर्मगुरु है; कि तुम्हारे प्रभु के राज्य
में कौन प्रवेश करेंगे? कौन न
होगे हकदार,
कौन
होंगे मालिक?
स्वभावतः
उस रब्बी ने सोचा होगा; जीसस
कहेंगे: तुम। क्योंकि वह धर्मगुरु था; धर्म का ज्ञाता था; प्रतिष्ठित था। लेकिन जीसस ने
उस की तरफ इशारा नहीं किया। पास में एक दूसरा आदमी खड़ा था, जिसकी संत की तरह प्रसिद्धि
थी कि वह बड़ा पवित्रात्मा है, पुण्यात्मा
है। उस ने भी गौर से जीसस की तरफ देखा की शायद वे मेरी तरफ इशारा करेंगे, लेकिन नहीं; जीसस ने उस की तरफ से भी नजर
हटा ली। कोई धनी खड़ा था; कोई
प्रतिष्ठा था;
भीड़
में सभी लोग थे,
लेकिन
जीसस की नजर जा कर रुकी एक छोटे से बच्चे पर। उन्होंने उसे कंधे पर उठा लिया और
कहा, जो इस बच्चे की भांति होगे, केवल वे ही...।
अवधूत
का अर्थ है: जो छोटे बच्चे की भांति है। तो अवधूत का जो संबंध है परमात्मा से, वह ठीक वैसा ही होगा, जैसा छोटे बच्चे का मां से
होता है। परमात्मा उस के लिए कोई बहुत बड़ी और बहुत दूर की बात नहीं है। परमात्मा
के साथ उसका नाता शिष्टाचार का नहीं है--प्रेमाचार का है। और प्रेम कोई सीमा मानता? कि कोई मर्यादा मानता?
छोटा
बच्चा मां से लड़ता भी है; छोटा
बच्चा मां से उलझता भी है; मां से
रूठता भी है;
नाराज
भी होता है;
उछल-कूद
भी मचाता है;
मां को
मजबूर भी करता है। अगर उसे बाहर जाना है, तो बाहर जाना है। फिर वह सब नियम इत्यादि
तोड़ कर मां को परेशान करता है।
छोटे
बच्चे का जो संबंध मां से हैं, वही
अवधूत का संबंध अस्तित्व से है। अस्तित्व यानी परमात्मा।
इन सूत्रों
को तभी समझा पाओगे, जब इस
संबंध को खयाल में ले लो। नहीं तो ये सूत्र थोड़े अजीब मालूम पड़ेंगे। थोड़े अशिष्ट
भी मालूम पड़ सकते हैं। शिष्टाचार की यहां कोई बात नहीं है।
शिष्टाचार--खयाल
रखना--औपचारिक है। जिसने तुम्हारा शिष्टाचार का संबंध है, उनसे तुम्हारा कोई संबंध नहीं
है। शिष्टाचार संबंध थोड़े ही है। शिष्टाचार तो, संबंध नहीं है--इस बात को छिपाने का उपाय
है। तो जब तक दो मित्रों के बीच शिष्टाचार चलता है, तुम जानना कि मित्रता अभी बनी
नहीं। जब दो मित्रों के बीच शिष्टाचार खो जाता है, जब दो मित्र एक दूसरे को
प्रेम में गाली भी देने लगते हैं, तभी
जानना कि मित्रता अब गहरी हुई। अब गाली भी मित्रता को उखाड़ न सकेगी।
जब
मित्र शिष्टाचार के सारे नियम तोड़ देते हैं, तो ही जानना कि हार्दिक रूप से करीब आये।
अगर
तुम भगवान के साथ शिष्टाचार का जीवन जी रहे हो, तो तुमने भगवान को जाना नहीं, पहचाना नहीं। उसके साथ तो
नाता प्रेम का ही हो सकता है--शिष्टता का नहीं; सभ्यता का नहीं। उसके साथ तो नाता हार्दिक
हो सकता है।
ये
सूत्र हृदय के सूत्र हैं। जैसे एक छोटा बच्चा अपनी मां से झगड़ रहा हो, ऐसे मलूकदास परमात्मा से झगड़
रहे हैं।
इसके
पहले कि हम सूत्रों में जाए, कुछ और
बातें खयाल में ले लेनी जरूरी है।
दूसरी
बात: कर्म का सिद्धांत बहुत महत्वपूर्ण सिद्धांत है, लेकिन ज्ञान के मार्ग
पर--कर्म के सिद्धांत का अर्थ है कि जो तुमने किया है, वही तुम पाओगे; जो बोया है, वही काटोगे। बुरा किया है, तो बुरे परिणाम होंगे; भला किया है, तो भले परिणाम होंगी। यह बात
तर्कयुक्त मालूम पड़ती है, न्याययुक्त
मालूम पड़ती है। इसमें कहीं कोई भूल-चूक नहीं है; यह गणित बहुत साफ है।
होना
भी ऐसा चाहिए कि जिसने बुरा किया है, वह बुरा भोगे; जिसने भला किया है, वह भला पाये। जिसने दूसरों को
सुख दिया है,
वह सुख
पाये; और जिसने दूसरों को दुःख दिया
है, वह दुःख पाए। इसमें कहीं कोई
गैर-इन्साफी नहीं है। अगर इससे विपरीत होता हो, तो फिर जगत में कोई इंसाफ नहीं कहा जायेगा।
अगर यहां बुरे सुखी हो और भले दुःखी हों, तो जगत की व्यवस्था अन्यायपूर्ण है।
कर्म
का सिद्धांत न्याय का सिद्धांत है। न्याय के तराजू पर प्रत्येक व्यक्ति तौला
जायेगा;
और कोई
विशिष्ट नहीं है,
और कोई
अपवाद नहीं है। न्याय किसी के साथ पक्षपात नहीं करेगा। कर्म का सिद्धांत निष्पक्ष
सिद्धांत है। वह गणित की खोज है; तर्क
की खोज है। कर्म का सिद्धांत निष्पक्ष सिद्धांत है। वह गणित की खोज है; तर्क की खोज है। और हमें भी
ठीक लगेगा। लेकिन भक्ति के मार्ग पर कर्म के सिद्धांत की कोई जगह ही नहीं है। और
तुम जानकर चकित होओगे कि भक्त किसी दूसरी ही दिशा से यात्रा करते हैं।
भक्त
कहते हैं: कर्म से हम जायेंगे स्वर्ग; ठीक, अच्छा करेंगे, तो स्वर्ग मिलेगा; बुरा करेंगे, तो नरक मिलेगा; लेकिन परमात्मा कैसे मिलेगा? अच्छा करने से सुख मिल जायेगा, बुरा करने से दुःख मिल जायेगा; लेकिन परमात्मा कैसे मिलेगा? परमात्मा तो न अच्छा है, न बुरा है। परमात्मा दोनों के
पार है। परमात्मा तो अतीत है।
परमात्मा
को तुम अच्छा हनीं कह सकते, न बुरा
कह सकते। अच्छा कहोगे, तो
परमात्मा में भी द्वंद्व हो जाएगा। अच्छा-बुरा कहने के कारण ही तो लोगों को शैतान
भी खोजना पड़ा है। क्योंकि परमात्मा को अच्छा कहते हो, तो फिर बुरा कहां जायेगा? बुरा किसके सिर जायेगा?
तो जिन
धर्मों ने परमात्मा को अच्छा कहा है, जैसे ईसाइयत या इसलाम, या यहूदी, उन धर्मों को एक और बात खोजनी
पड़ी; फिर बुरे के लिए भी कोई स्रोत
खोजना पड़ा। बुरा कहां से आयेगा?
परमात्मा
से अच्छा-अच्छा आ रहा है, सोना
परमात्मा से बरस रहा है; और
मिट्टी--और जीवन का नरक, और
जीवन की विपदायें,
और
जीवन के कष्ट?
सुबह
तो परमात्मा से आ रही है, तो
अंधेरी रात?
अंधेरी
रात को भी जन्म देने वाला कोई स्रोत चाहिए, नहीं तो बात बड़ी बेबूझ हो जायेगी। तो फिर एक
शैतान खड़ा करना पड़ता है।
लेकिन
इससे कुछ बात हल होती नहीं; क्योंकि
शैतान कहां से आता है?
तो
ईसाइयत भी मानती है, इसलाम
भी मानता है कि वह भी परमात्मा से आता है। वह भी देवदूत है, जो भ्रष्ट हो गया। इसका तो
मतलब हुआ कि शैतान के पहले भी भ्रष्ट होने की व्यवस्था थी! अर्थात शैतान ही
भ्रष्टता का स्रोत नहीं हो सकता, क्योंकि
शैतान खुद भ्रष्टता से पैदा हुआ। एक देवदूत भ्रष्ट हुआ; तो भ्रष्ट होने की संभावना तो
देवदूत के होने के पहले थी। इसलिए ईसाइयत, यहूदी, इसलाम--तीनों के पास एक बड़ी से बड़ी झंझट है, जिसको वे हल नहीं कर पाते। वह
झंझट यही है कि शैतान को कैसे समझायें!
शैतान
भी परमात्मा ने पैदा किया; शैतान
भी परमात्मा से आया, तो
इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम शैतान से, कहते हो, रात आई। अंततः तो परमात्मा से ही रात आई।
परमात्मा से शैतान आया--शैतान से रात आई। परमात्मा से शैतान आया--शैतान से पाप आया, बुराई आई। तो अंततः तो
जिम्मेदार परमात्मा ही होगा।
इन अर्थों
में भारत की दृष्टि, परमात्मा
के संबंध में बहुत अनूठी और साफ है। सब परमात्मा से आया है--बुरा भी, भला भी। इसलिए परमात्मा दोनों
के पार है। न तो हम परमात्मा को भला कह सकते, न बुरा कह सकते।
तो
भक्त कहते हैं: भला करेंगे, तो भले
हो जायेंगे;
सज्जन
हों जायेंगे;
बुरा
करेंगे,
तो
बुरे हो जायेंगे,
दुर्जन
हो जायेंगे। लेकिन संत कैसे होंगे। संतत्व का तो अर्थ है: भले और बुरे के पार। तो
भला कर करके भले के पार कैसे होओगे? और बुरा कर करके बुरे के पास कैसे होओगे?
फिर एक
बात और समझ लेने जैसी है कि जब भी तुम सोचते हो कि मैंने भला किया या बुरा किया, तो तुम्हारा मैं मजबूत होता
है। बुरा करने से भी मजबूत होता है; भला करने से भी मजबूत होता है।
तुमने
खयाल किया: जब तुम थोड़ा भला करते हो, तो बहुत बढ़ा-चढ़ा कर बतलाते हो। पांच रुपए
क्या दे दिए दान में, तुम
पचास बतलाते हो। फिर अगर कोई ज्यादा न दे रहा हो, तो पांच-सौ बतलाने लगते हो!
और यह
तुम खयाल रखना कि बुराई के साथ भी यही बात है। तुम जा कर कारागृह में देखो। वहां
जिस आदमी ने पांच सौ की चोरी की है, वह पांच हजार की बतलाता है। कारागृह में
कैदियों से पूछो;
कैदी
भी एक-दूसरे से बढ़-चढ़ कर बताते हैं--कि अरे, तू क्या जब काटता है! यह भी कोई बात है। हम
डाका डालते हैं।
कोई
किसी को मारपीट कर जेल में आ गया है, तो उसकी कोई कीमत थोड़े ही होती है। जहां बड़े
हत्यारे बैठे हों...!
मैंने
सुना है: एक जेलखाने में एक नया यात्री आया--एक नया कैदी। जो पहले से कोठरी में
आदमी मौजूद था,
उसने
उससे पड़े ही पड़े पूछा, कितने
दिन की सजा हुई है? उसने
कहा, केवल पांच साल की। तो उसने
कहा, तू दरवाजे पर ही बैठ, क्योंकि हमको पचास साल रहना
है। तू दरवाजे पर ही बैठ। पांच साल तो ऐसे ही चुक जायेंगे। वही से जल्दी से निकल
जाना।
कोठरी
में ज्यादा भीतर भी नहीं आने दिया--कहां कि तू वहीं दरवाजे के पास ही अपना डेरा
रख। तुझे जल्दी जाना है। तू भी क्या करके आया है; कुछ पांच साल! अरे, कुछ करना था, तो कुछ मर्द जैसी बात करता।
बुराई
भी आदमी बढ़ा कर बतलाता है; भलाई
भी बढ़ा कर बतलाता है! क्योंकि कर्म के साथ कर्ता का भाव है--और कर्ता के भाव में
अहंकार है।
भक्ति
का शास्त्र कहता है: जहां अहंकार है, वहां परमात्मा से कैसे मिलोगे? तो भक्ति कहती है कि कर्म की
बात ही व्यर्थ है। हम अपने कर्म से परमात्मा से नहीं मिलेंगे, उसकी कृपा से मिलेंगे। इस
फर्क को खयाल में लेना। यह बहुत बुनियादी, आधारभूत फर्क है।
ज्ञानी
कहता है: हम अपने शुभ कर्मों से मिलेंगे। वहां अस्मिता मौजूद है, अहंकार मौजूद है। भक्त कहता
है: हमारी क्या बिसात! हमारे किए क्या होगा? हम तो कर करके सब खराब ही किए। हम तो कर
करके ही बरबाद हुए--कर्ता बन गये; अहंकार
मजबूत हो गया। कभी अहंकार लिया--बड़े पापी होने का; कभी अहंकार लिया--बड़े
पुण्यात्मा होने का। कभी दुर्जन, कभी
सज्जन;
मगर हम
रहे अहंकारी ही। कभी इस कोने से उस कोने गये; उस कोने से इस कोने आए; लेकिन अहंकार सदा साथ रहा।
उसने छाया की तरह पीछा किया।
हम
अपने बल से परमात्मा को पायेंगे, यह बात
ही बेहूदी है--भक्त कहता है। भक्त कहता है: उसके प्रसाद से पायेंगे। हमारे प्रयास
से नहीं--उसके प्रसाद से; उसकी
अनुकंपा होगी--तो। वह राम है, रहीम
है; उसकी कृपा होगी--तो।
फर्क
समझना। सारा जोर बदल गया।
ज्ञान
का जोर है: शुद्ध बनो; भक्ति
का जोर है: प्यासे बनो। ज्ञान का जोर है--अपने को पुण्य से भरो; भक्ति का जोर है--अपने को
अहंकार से खाली करो।
पुण्य
भी भक्त के लिए सोने की जंजीर है। पाप है--लोहे की जंजीर; तुम दोनों को छोड़ दो। भक्त
कहता है: तुम दावा मत करो कि मेरे पास कुछ है, जिससे मैं तुझे पाने का हकदार हूं। हकदार? यह बात ही गलत है। तेरी कृपा
हो जाए। मैं रोऊंगा; मैं
गिड़गिड़ाऊंगा;
मैं
चिल्लाऊंगा।
छोटा
बच्चा क्या करता है? उसका
हक है कुछ?
अपने
झूले में पड़ा है और रो रहा है और पैर तड़फड़ा रहा है। उसका कोई कह है? मां दौड़ी आती है--उसके रोने
को सुन कर। उसका कोई दावा है? उसके
पास कोई भी आधार है, जिसके
बल पर वह कह सके कि तुझे आना होगा! कोई दावा नहीं है; सिर्फ रोता है। धीमे रोता है; नहीं सुनती मां, तो जोर से रोता है। एक ही
उसका आधार है--कि मैं पुकारूं; और एक
ही उसका भरोसा है--कि तेरे भीतर प्रेम है; तेरे भीतर करुणा है, तो मेरी पुकार के आधार पर
खिंचे हुए चले आओगे; आना
पड़ेगा।
भक्त
कहता है: हमारी तो कुछ बिसात नहीं; अपने बल तो हम कहीं न पहुंच पायेंगे। अपने
बल तो हम इतने छोटे हैं कि जो हम कमा भी लेंगे, वह भी छोटा होगा। जो हम करेंगे, वह हमसे बड़ा तो नहीं हो सकता।
तू इतना विराट है;
हम
तुझे कैसे पायेंगे! हम करके जो भी पायेंगे, वह सांसारिक ही होगा। तो हम तो पुकारते हैं; हम तो रोते हैं; हम तो रूठेंगे। हमें तेरे
रहमान होने पर भरोसा है, तेरे
रहीम होने पर भरोसा है। तू दयालु है--यह हमारा भरोसा है; तू कृपालु है--यह हमारा भरोसा
है।
अब
यहां देखने की बात है कि ज्ञान का पथ अगर ठीक से आगे चले, तो परमात्मा की जरूरत नहीं रह
जाती। क्योंकि परमात्मा फिर एक व्यर्थ की परिकल्पना मालूम होती है, इसलिए तो जैनों ने और बौद्धों
ने परमात्मा को हटा दिया। उनका तर्क भी समझने जैसा है। वह ज्ञान के तर्क की परम
अवस्था है। ज्ञान का तर्क अगर उसकी अंतिम स्थिति तक खींचा जाए, तो जो जैन और बौद्ध कहते हैं, वही ठीक है।
जैन और
बौद्ध यह कहते हैं कि अगर हम अपने शुभ कर्मों से ही मोक्ष को पाते हैं, तो फिर परमात्मा की धारणा को
बीच में रखने की जरूरत क्या है? शुभ
कर्म पर्याप्त है।
अगर
परमात्मा कुछ कर ही नहीं सकता; शुभ को
सुख मिलेगा,
अशुभ
को दुःख मिलेगा और परमात्मा बीच में कुछ कर ही नहीं सकता; न तो वह अशुभ को सूख दे सकता
और न शुभ को दुःख दे सकता, तो फिर
परमात्मा की धारणा का प्रयोजन क्या है? फिर यह कर्म का नियम पर्याप्त है। इसलिए जैन
और बौद्ध धर्मों में परमात्मा का स्थान कर्म के नियम ने ले लिया। उतना काफी है: यह
तर्कयुक्त बात है।
ज्ञान
के मार्ग पर वस्तुतः परमात्मा को माने रखने की कोई खास जरूरत नहीं है; कोई प्रयोजन नहीं रह जाता
जैसे
कि विज्ञान नियम को मानता है; परमात्मा
को नहीं मानता। मानता है कि जमीन में गुरुत्वाकर्षण का नियम है। तुम पत्थर को ऊपर
फेंकोगे,
जमीन
उसे खींच लेगी। ठीक ऐसे ही जो बुरा करता है, वह नीचे की तरफ खिंचेगा; जो भला करता है, वह ऊपर की तरफ उठेगा--यह नियम
है। अब और किसी परमात्मा को बीच में लेना ठीक नहीं है, जरूरत भी नहीं है। खतरा
है--लेने में। क्योंकि अगर परमात्मा बीच में रहेगा, तो कभी न कभी कुछ गड़बड़ कर
सकता है। जहां व्यक्ति है, वहां
भरोसा करना मुश्किल है। हो सकता है--किसी पर दया खा जाए। हो सकता है: किसी को अपना
समझ ले;
किसी
को पराया समझे!
तुम
देखते हो न,
न्यायाधीश
है अदालत में,
इसलिए
न्याय न्यायाधीश के कारण पूरा नहीं हो पता। न्यायाधीश की मौजूदगी न्याय में बाधा
है। उसके बेटे ने चोरी कर ली, तो
न्यायाधीश दिखावा करता है कि न्याय कर रहा है, लेकिन भीतर तो वह जितना कम से कम सजा दे
सकेगा,
देगा; बचा सकेगा, तो बचाएगा। उसके दुश्मन के
बेटे ने चोरी कर ली, तो
जितनी ज्यादा सजा दे सकेगा, देने
की कोशिश करेगा। और इसमें काफी भेद हो सकता है। जिस दंड के लिए पांच साल की सजा हो
सकती है,
उसी
दंड के लिए दस साल भी सजा हो सकती है। फर्क तो हो ही सकता है। तरकीब निकाल कर माफ
भी किया जा सकता है, तरकीब
निकाल कर उलझाया भी जा सकता है, फंसाया
भी जा सकता है।
न्यायाधीश
की मौजूदगी न्याय में सहयोगी नहीं है। हमारी मजबूरी है, इसलिए न्यायाधीश को रखना पड़ता
है। जिस दिन कम्प्यूटर यह काम कर सकेगा, उस दिन न्याय ज्यादा पूरा होगा। कम्प्यूटर
की मशीन वहां होगी। उसका न कोई बेटा है, न कोई पत्नी है, न कोई भाई है; निष्पक्ष--मशीन है।
जिस
दिन मशीन निर्णय देने लगेगी, उस दिन
न्याय में कोई अड़चन होगी, न्याय
सीधा, साफ होगा।
तो जैन
और बौद्ध कहते हैं: ईश्वर को मानने में खतरा है। क्योंकि हो सकता है कि कोई आदमी
खूब गिड़गिड़ाता रहा, प्रार्थना
करता रहा,
पूजा
करता रहा,
आरती-दीप
उतारता रहा,
और
इनको किसी तरह प्रसन्न कर लिया; और एक
आदमी, जिसने कभी इनकी तरफ देखा नहीं, कभी मंदिर न गया, कभी पूजा न की, कभी प्रार्थना न की, लेकिन शुभ कार्यों में लगा
रहा है,
तो
खतरा है। खतरा यही है कि जो प्रार्थना करता था, गिड़गिड़ाता था--हो सकता था शुभ कार्यों में न
भी लगा रहा हो,
खुशामद
की वजह से...।
स्तुति
का मतलब खुशामद होता है। प्रार्थना का मतलब खुशामद होता है। ज्ञानी के मार्ग पर
प्रार्थना और स्तुति खतरनाक बातें हैं। इसलिए जैन और बौद्ध धर्मों में प्रार्थना
की कोई जगह नहीं है; ध्यान
की जगह है,
प्रार्थना
की कोई जगह नहीं है; स्तुति
का कोई स्थान नहीं है। शांत हो जाओ, लेकिन प्रार्थना किससे करनी है? किसलिए करनी है? यह भगवान के मंदिर में जाकर
भोग किसलिए चढ़ाना है? यह तो
न्यायाधीश के घर फल की टोकरी भेजने जैसा है। यह तो न्यायाधीश को रिश्वत पहुंचाने
जैसा है।
फिर
रिश्वत पहुंचाने के ढंग हजार हो सकते हैं: कोई न्यायाधीश को सीधे दे आता है; कोई न्यायाधीश की पत्नी को दे
आता है। जो ज्यादा होशियार है, वह
पत्नी को दे आता है।
तो कोई
राम को भज रहा है;
कोई
सीता को भज रहा है। वह जो ज्यादा होशियार है, वह सीता को भज रहा है। इसलिए तुम देखते हो:
भजने वाले राम का नाम पीछे रखते हैं। वे कहते हैं--सीता-राम; राधा-कृष्ण। होशियार हैं।
राधा को पहले रखा। राधा राजी हो गई, तो कृष्ण तो राजी हो ही जायेंगे। सीता को
मना लो,
तो राम
तो पीछे चले ही जायेंगे। उलटा जरूरी नहीं है कि राम की मना लो तो सीता चली आये। और
राम को मना लो और सीता न मानी हो, तो
झंझट भी खड़ी कर देगी--वक्त-बेवक्त।
स्तुति, प्रार्थना--ध्यान के मार्ग पर, ज्ञान के मार्ग पर अर्थ हीन
हैं; बाधाएं हैं। परमात्मा भी बाधा
मालूम होता है। नियम पर्याप्त है। एक निर्वेयक्तिक नियम काम कर रहा है--कर्म का
नियम।
लेकिन
भक्ति के मार्ग पर परमात्मा पर्याप्त है, नियम की कोई जरूरत नहीं है। नियम का तो मतलब
ही यह हुआ कि हम अपने भरोसे कर रहे हैं। शुभ किया, शुभ चाहते हैं। जितना किया, उतना चाहते हैं। न्याय चाहते
हैं।
भक्त
कहता है: न्याय की अगर हम मांग करें, तो हमसे क्या शुभ हुआ है! हम अनुकंपा चाहते
हैं--न्याय नहीं चाहते। हम कृपा चाहते हैं। हमारा किया हुआ सब व्यर्थ है। हमारे
किए हुए का कोई भी मूल्य नहीं है। इसलिए हम न्याय मांगेंगे, तो भटकेंगे--जन्मों-जन्मों तक
और कभी छुटकारा न होगा। हम तो प्रार्थना करते हैं; तेरी अनुकंपा मांगते हैं; तेरा प्रसाद मांगते हैं।
इस भेद
को खयाल में रखना,
तो समझ
में आ जायेगा कि ज्ञान के मार्ग पर संकल्प का मूल्य है; और भक्ति के मार्ग पर समर्पण
का मूल्य है। ज्ञान के मार्ग पर अपने को सजाना है, संवारना है, शुद्ध करना है, चरित्र लाना है। भक्ति के
मार्ग पर उसके चरणों में अपने को गिराने की कला लानी है।
अंधेरी
रात में दीपक
जलाए
कौन बैठा है?
उठी
ऐसी घटा नभ में
छिपे
सब चांद और तारे
उठा
तूफान वह नभ में
गए बुझ
दीप भी सारे
मगर इस
रात में भी लो
लगाए
कौन बैठा है?
अंधेरी
रात में दीपक
जलाए
कौन बैठा है?
ऐसे तो
अंधेरी रात है;
ऐसे तो
अहंकार का गहन अंधेरा है। ऐसे तो पाप ही पाप हमसे हुए हैं; पुण्य हमसे क्या हुआ! जिसको
हम पुण्य कहते हैं, उसमें
भी हमारा पाप छिपे हैं।
तुमने
अगर कुछ रुपए दान करके मंदिर बनवा दिया, तो तुम सोचते हो--पुण्य हुआ? वे रुपए आये कहां से थे? वे रुपए तुमने शोषण किए थे।
उस पुण्य में भी पाप छिपा है। दानवीर होने के लिए पहले शोषक होना जरूरी है। दान के
लिए रुपया चाहिए न! पहले चोरी करो; छीना-झपटी करो; लोगों की गरदन काटो--फिर दान
करो!
गगन
में गर्व से उठ-उठ
गगन
में गर्व से घिर घिर
गरज
कहती घटाएं हैं
नहीं
होगा उजाला फिर
मगर
चिर ज्योति में निष्ठा
लगाए
कौन बैठा है?
अंधेरी
रात में दीपक
जलाए
कौन बैठा है?
तुम
पुण्य क्या करोगे?
पुण्य
करने में ही पाप छिपा है। बड़ी अंधेरी रात है।
अगर हम
अपने ही कृत्यों को देखें, तो गहन
अंधेरी रात है। इस अंधेरी रात में कोई छुटकारा नहीं मालूम होता; सिवाय इसके कि एक आस्था
है--कि जिसने हमें जन्माया है, जिसने
हमें उपजाया है,
जिसने
हमें बनाया है,
उसमें
मां जैसा हृदय होगा। जिससे हम पैदा हुए हैं, उसमें हमारा प्रति प्रेम होगा, करुणा होगी, प्रति लगाव होगा--ऐसी आस्था
का दीया जले अंधेरी रात में, तो ही
कोई रास्ता है। अन्यथा कोई रास्ता नहीं है।
तिमिर
के राम का ऐसा
कठिन
आतंक छाया है
उठा जो
शीश सकते थे
उन्होंने
सिर झुकाया है।
मगर
विद्रोह की ज्वाला
जलाए
कौन बैठा है?
अंधेरी
रात में दीपक
जलाए
कौन बैठा है?
प्रलय
की सबा समां बांधे
प्रलय
की रात है छाई
विनाशक
शक्तियों की इस
तिमिर
के बीच बन आई
मगर
निर्माण में आशा
दृढ़ाए
कौन बैठा है?
अंधेरी
रात में दीपक
जलाए
कौन बैठा है?
प्रभंजन, मेघ दामिनी ने
न क्या
तोड़ा, न क्या फोड़ा
धरा के
और नभ के बीच
कुछ
साबित नहीं छोड़ा
मगर
विश्वास को अपने
बचो
कौन बैठा है
अंधेरी
रात में दीपक
जलाए
कौन बैठा है?
प्रलय
की रात में सोचे
प्रणय
की बात क्या कोई
मगर
पड़े प्रेम बंधन में
समझ
किसने नहीं खोई।
किसी
के पंथ में पलकें
बिछाए
कौन बैठा है?
अंधेरी
रात में दीपक
जलाए
कौन बैठा है?
एक
प्रेम के पंथ में,
एक
प्रेम की आया मग दीया जलता है; प्रार्थना
में दीया जलता है। इस भरोसे में दीया जलता है कि जिससे हम पैदा हुए हैं, वह हमारे प्रति निरपेक्ष नहीं
हो सकता। जिससे हम आए हैं, उसका
हमारे प्रति जरूर कोई सूत्र, लगाव
का, बाकी होगा। और इस बात के लिए
हजार-हजार प्रमाण है।
अभी इस
लाओत्सु भवन के सामने एक छोटे से वृक्ष पर एक चिड़िया ने दो अंडे रखे हैं। दिनों तक
अंडों को बैठी सेती रही। चौबीस घंटे। न तो उसनने फिक्र की अपनी भूख-प्यास की; हटी ही नहीं। किस गहन प्रेम
में, किस भरोसे! फिर जैसे ही बच्चे
अंडों से निकल आए,
भाग-दौड़
में लगी है तब से। लाती है खाना; बचाती
है; बच्चों के मुंह में डालती
है--खिलाती है। दिन भर यह चल रहा है। खुद खाने की अभी भी फुरसत नहीं दिखाई पड़ती
उसे। खुद खाती भी है, यह भी
नहीं दिखाई पड़ता।
किस
प्रबल प्रेम में यह सब चल रहा है!
मगर हम
जीवन में चारों तरफ आंखें उठा कर देखें तो हम हर जगह पायेंगे--प्रबल प्रेम है।
जहां मां है,
वहां
प्रेम है। इसलिए मां को अगर हमने इस देश में अपरिसीम गौरव दिया, गरिमा दी, तो उसका कोई कारण था। उसका
कारण सिर्फ इतना ही नहीं था कि मां...। उसका कारण बहुत गहरे में यह या कि मां का
सूत्र ही धर्म का सूत्र है।
हम
पैदा हुए इस जगत में, तो
परमात्मा हमें सब तरफ से घेरे हुए है; हमारी चिंता-फिक्र कर रहा है; इस भरोसे में ही दीया जलता है; अन्यथा दीया नहीं जलता।
प्रलय
की रात में सोचे
प्रणय
की बात क्या कोई
मगर
पड़े प्रेम बंधन में
समझ
किसने नहीं खोई!
जो
प्रेम के बंधन में नहीं पड़ा, उसी ने
समझ नहीं खोई।
किसी
के पंथ में पलकें
बिछाया
कौन बैठा है!
अंधेरी
रात में दीपक
जलाए
कौन बैठा है?
भक्त
कहता है: हमारा भरोसा हम पर नहीं है। हम पर तो हमारा भरोसा है ही नहीं। हमने तो
अपने पर भरोसा करके बार-बार देखा और गङ्ढे में गिरे। जब भरोसा किया, तभी गङ्ढे में गिरे। जब अकड़े, जब सोचा कि मैं हूं, तभी भूल हो गई।
तो
भक्त कहता है: अब हम विराट पर भरोसा करेंगे, इसलिए भक्त के मार्ग पर श्रद्धा पहली शर्त
है। श्रद्धा न हो सके, तो कदम
ही न बढ़ेगा;
हो सके
तो ही कदम बढ़ेगा।
ज्ञान
के मार्ग पर श्रद्धा पहली शर्त नहीं है। तुम संदेह से भी आगे बढ़ सकते हो; कोई अड़चन नहीं है। और दुनिया
में जिन लोगों को श्रद्धा सहज है, उनके
लिए भक्ति का मार्ग। जिनके लिए संदेह सहज है, उनके लिए ज्ञान का मार्ग। अंत में वे दोनों
एक ही जगह पहुंच जाते हैं। लेकिन उनके यात्रा-पथ बड़े अलग-अलग हैं।
भक्त
की प्रतीति,
अपनी
कम--परमात्मा की ज्यादा है।
तुम गा
दो, मेरा गान अमर हो जाए।
मेरे
वर्ण-वर्ण विशृंखल
चरण-चरण
भरमाए
गूंज-गूंज
कर मिटने वाले
मैंने
गीत बनाए
कूक हो
गई हूक गगन की
कोकिल
के कंठों पर
तुम गा
दो, मेरा गान अमर हो जाए।
भक्त
कहता है: मैं गाऊंगा--कुछ होगा नहीं। जरा सी लहर उठेगी--खो जायेगी; क्षणभंगुर होगा परिणाम।
मेरे
वर्ण-वर्ण विशृंखल
चरण-चरण
भरमाये
गूंज-गूंज
कर मिटने वाले
मैंने
गीत बनाए।
मैं गा
भी नहीं पाता कि वे मिट जाते हैं। मैं बना भी नहीं पाता, कि वे बिखर जाते हैं। पानी पर
खींची रेखाएं हैं--मेरे सारे कृत्य। मैं ही क्षण-भंगुर हूं; मैं ही सीमित हूं, तो मेरा कृत्य तो कैसे असीम
होगा! कैसे शाश्वत होगा?
जब जब
जग ने कर फैलाए
मैंने
कोष लुटाया
रंक
हुआ मैं निज निधि खो कर
जगती
ने क्या पाया!
भेंट न
जिससे मैं कुछ खोऊं
पर तुम
सब कुछ पाओ
तुम ले
लो, मेरा दान अमर हो जाए।
तुम गा
दो, मेरा गान अमर हो जाए।
सुंदर
और असुंदर जग में
मैंने
क्या न सराहा
इतनी
ममता मय दुनिया में
मैं
केवल अनचाहा
देखूं
अब किसकी रुकती है
आ मुझ
पर अभिलाषा
तुम रख
लो, मेरा नाम अमर हो जाए।
तुम गा
दो, मेरा नाम अगर हो जाए।
दुःख
से जीवन बीता फिर भी
शेष
अभी कुछ रहता
जीवन
की अंतिम घड़ियों में
भी
तुमसे यह कहता
सुख की
एक सांस पर होता
है
अमृत निछावर
तुम छू
दो, मेरा प्राण अमर हो जाए।
तुम गा
दो, मेरा गान अमर हो जाए।
भक्त
कहता है: मैं अपने में ना-कुछ; तुम छू
दो, मेरा प्राण अमर हो जाए। भक्त
कहता है: मैं तो सूना हूं। शून्य हूं। तुम्हारा आंकड़ा मुझ पर बैठ जाये--मेरे सामने
बैठ जाए,
तो
मुझमें मूल्य आ जाए। मेरा अपना कोई मूल्य नहीं है; मैं निर्मूंल्य हूं। तुम जिस
मात्रा में मेरे साथ हो, उतना
ही मेरा मूल्य है। तुम गा दो, मेरा
गान अमर हो जाए।
यह जो
प्रतीति है,
स्पष्ट
हो जाए,
तो
मलूकदास के सूत्र समझ में आयेंगे। बड़े अनूठे सूत्र हैं। सीधे-सरल--पर बड़े अनूठे।
भील कद
करी थी भलाई जीया आप जान,
फील कद
हुआ था मुरीद कहु किसका।।
कहते
हैं मलूक: भील कद करी थी भलाई जीया आप जान। याद दिलाते हैं भगवान को--कि जरा सुनो, बाल्मीकि ने किसका भला किया
था? लुटेरा था; हत्यारा था। तुम्हारा नाम भी
कभी सीधा-सीधा नहीं लिया; राम-राम
जपने की जगह मरा-मरा जपता रहा!
भील कद
करी थी,
भलाई
जीया आप जान। तुम्हें याद है; तुम्हें
खयाल हैं कि उस भील ने कभी कोई भलाई की थी किसी की? उस बाल्या भी के नाम कोई भी
पुण्य की कथा है?
कोई
कथा नहीं है। बाल्या भील हत्यारा ही था; लुटेरा ही था
कहानी
तुम्हें पता है: कि नारद निकल रहे हैं और बाल्या उन्हें लूटने को आ गया है। लेकिन
नारद कुछ अनूठे व्यक्ति हैं। बाल्या अपनी तलवार निकाल लेता होगा। लेकिन नारद हैं
कि वे अपनी वीणा बजाए ही चले जा रहे हैं। वह उनके सामने खड़ा है हत्या करने को और
उनकी वीणा रुकती नहीं। तो वह पूछता है, तुम पागल तो नहीं हो! क्योंकि मैंने दो तरह
के लोग देखे हैं। एक: जो मेरी तलवार देख कर तलवार निकाल लेते हैं और संघर्ष के लिए
आतुर हो जाते हैं। दूसरे: जो मेरी तलवार देख कर भाग खड़े होते हैं। मगर तुम तीसरे
तरह के आदमी हो। तुम पहली दफा मिले हो। न तुम भाग रहे हो, न तुम तलवार निकाल निकाल रहे
हो! और यह क्या लगा रखा है! बंद करो। यह तुम वीणा क्यों बजाए जा रहे हो? और नारद हंसते हैं और वीणा
चले जाते हैं।
बाल्या
चकित है। यह नए आदमी से मिलन हुआ। इस आदमी में भय नहीं है। न तो यह दूसरे को भयभीत
करना चाहता है,
न खुद
भयभीत है। यह आदमी किसी और कोटि का है। ऐसी कोटि से बाल्या का कभी मिलना न हुआ था।
तो वह भी खड़े हो कर सुनने लगा यह गीत। यह गीत भी मनोरम है। इस संगीत में कुछ अनूठा
है, क्योंकि यह गीत राम के स्मरण
का है।
और जब
गीत चुक गया और गान बंद हुआ और संगीत रुका, तो बाल्या ने कहा: तुम्हें पा है कि मैं
हत्यारा हूं! और मैं तुम्हें लूटने आया हूं। नारद ने कहा: तुम लूट लो। लेकिन एक
बात का मुझे जवाब दे दो। यह मैं कई बार पूछना चाहता था कि किसी लुटेरे से मिलना हो
जाए, तो पूछ लूं। कि तुम यह
लूट-खसोट कर रहे हो, किसके
लिए? किस लिए? बाल्या ने कहा: यह भी कोई
पूछने की बात है! मेरी पत्नी है, बच्चे
हैं, मां है, पिता हैं--उनके लिए। नारद ने
कहा: तो तुम एक काम करो। उनसे पूछ आओ कि इस सब का जो पाप तुम्हारे सिर गिरेगा, वे इसमें भागीदार होंगे?
बाल्या
हंसने लगा। उसने कहा: तुमने मुझे समझा क्या है! मैं घर गया, तुम नदारत हो जाओ। तो नारद ने
कहा: तुम ऐसा करो,
मुझे
बांध दो इस वृक्ष से भलीभांति, ताकि
मैं भाग न सकूं। पर तुम घर हो आओ। बात तो बाल्या को भी जंची। सोचा तो शायद उसने भी
कभी-कभी होगा। कौन नहीं सोचता है?
अगर
तुम चोरी कर रहे हो अपने बच्चों के लिए, तो कभी-कभी तुम सोचते नहीं क्या मन में कि
ये बच्चे अनुग्रह भी मानेंगे! यह बड़े हो कर धन्यवाद भी देंगे? ये बुढ़ापे में याद भी रखेंगे? तुम अगर अपनी पत्नी के लिए
डाके डाल रहे हो,
तो
क्या तुम्हारे मन में यह कभी खयाल नहीं आता होगा कि अगर सच में ही कर्म का
सिद्धांत काम करता हो, तो मैं
तो नरक में पडूंगा; और
मेरी पत्नी--क्या वह मेरे साथ होगी? क्योंकि कर तो मैं उसी के लिए रहा हूं।
इस जगत
में पाप तुम सदा दूसरों के लिए कर रहे हो। अपने लिए कौन पाप करता है? इतना पापी कोई भी नहीं है।
यह जान
कर तुम हैरान होओगे: इतना पापी कोई भी नहीं है कि अपने लिए पाप करता हो। सभी लोग
दूसरे के लिए पाप रहे हैं। पाप के लिए भी कम से कम इतना तो भरोसा चाहिए कि किसी के
प्रेम में कर रहे हैं।
पाप भी
बिना प्रेम के नहीं हो सकता। पाप के लिए भी प्रेम का सहारा चाहिए। तुम चोरी भी कर
सकते हो,
हत्या
भी कर सकते हो,
इतना
पक्का हो कि किसी के लिए कर रहे हो, किसी के प्रेम में कर रहे हो।
प्रेम
के बिना इस जगत में कोई कृत्य होता ही नहीं; बुरा कृत्य भी प्रेम के कारण होता है।
तो
बाल्या ने भी सोचा तो होगा ही; कितना
ही मूढ़ रहा हो,
अज्ञानी
रहा हो,
लेकिन
यह बात कई बार मन में तरंगित तो हुई होगी कि मैं इतना बस कर रहा हूं, इस सब का परिणाम मुझे ही तो
भुगतना नहीं पड़ेगा?
तो बात
उसे जंच गई है। वह पूछने चला गया। और उसी पूछने के जाल में उलझ गया। नारद का शिष्य
हो गया।
क्योंकि
घर जाकर सब उसने पूछा, तो
पत्नी ने कहा कि मुझे क्या पता कि तुम क्या करते हो! यह तुम्हारा कर्तव्य है कि
मेरे भरण-पोषण की व्यवस्था करो। मुझे कुछ पता नहीं कि तुम क्या कर रहे हो। और तुम
जो करते हो,
वह तुम
जानो। तुम अच्छे लाते, बुरे लाते यह तुम जानो। इससे
हमारा कुछ लेना-देना नहीं। हमने कभी कहा नहीं कि तुम बुरा करो।
बूढ़े
मां-बाप ने कभी कहा: हम बूढ़े हो गये; अब यह कहां की झंझट तू हम पर लाता है कि हम
इसमें भागीदार होंगे! हमारे दिन कम बचे। परमात्मा से हमारी मुलाकात जल्दी होगी; तेरी तो अभी बहुत देर लगेगी।
हमें कुछ पता नहीं है। तुमने तुझे जन्म दिया; हमने तुझे बड़ा किया; तू हमारे लिए भोजन जुटाता है, तो इसमें कोई बड़ा एहसान कर
रहा है?
बच्चों
से पूछा;
बच्चों
ने कहा,
हमें
क्या पता;
हम तो
भोले-भाले। हमने तो कभी कहा भी नहीं।
बाल्या
उदास लौट आया। नारद से उसने कहा कि कोई भी मेरे पाप में भागीदार नहीं है। तो नारद
ने कहा,
फिर तू
सोचे ले। यह जारी रखना है?
और उस
क्षण एक क्रांति घट गई। और बाल्या ने फेंक दी अपनी तलवार; नारद के चरणों में गिर पड़ा और
कहा, मुझे भी सिखा दो वह पाठ कि
तुम जैसा गीत मुझसे भी पैदा हो सके; कि तुम जैसी शांति अभय, कि तुम जैसा आनंद मुझमें भी
व्याप्त हो जाए--कि मृत्यु मेरे सामने खड़ी हो और मैं अडिग रहूं; कि मौत भी मुझे हिला न पाये।
क्या है राज इसका?
नारद
ने कहा,
राज
कुछ ज्यादा नहीं है--राम का स्मरण। बाल्या अपढ़ अज्ञानी था। उसने कहा, तो क्या होगा? नारद ने कहा, बस राम-राम जप; राम की याद कर; सब भूल--राम को स्मरण कर।
बाल्या
जपने लगा--राम-राम-राम। अपढ़ था, अज्ञानी
था, कभी राम का नाम जपा न था। और
अगर तुम भी जपोगे। राम-राम-राम-राम बहुत जोर से, तेजी से, त्वरा से--एक के पीछे दूसरा
राम--तो धीरे-धीरे तुम पाओगे कि शब्द जुड़ गये और राम की जगह मरा-मरा की ध्वनि आने
लगी।
वह तो
भूल ही गया धीरे-धीरे कि राम शब्द है कि मरा शब्द है। मरा जपते-जपते बाल्या ज्ञान
को उपलब्ध हो गया।
बाबा
मलूकदास राम से कह रहे हैं, भील कद
करी थी भलाई जीया आप जान। आपके जाने कुछ याद है आपको; कुछ होश-हवास है! इस बाल्या
भील को बाल्मीकि बना दिया, ऋषि
बना दिया! यह मुफ्त हो गया! किस किताब में लिखा है तुम्हारे ? कहां इसका हिसाब है? भील कद करी थी, भलाई जीया आप जान। तुम्हें
कुछ होश है?--कि कुछ भी किए चले जाते हो!
फील कद हुआ था मुरीद कहु किसका।
और
कहानी है कि गजेंद्र (गज, हाथी)
फंस गया है--एक मगर के पाश में; मगर ने
उसका पैर पकड़ लिया है; और
उसने प्रभु का स्मरण किया और वह छूट गया। फीद कद हुआ था मुरीद कहु किसका? और मैं पूछता हूं तुमसे कि यह
जो हाथी था,
यह
किसका शिष्य था?
यह
मुरीद कब हुआ था?
इसने
किससे शिष्यत्व ग्रहण किया? किससे
मंत्र लिया;
किसके
साथ साधना की;
कौन
इसका गुरु था?
इनके
हिसाब-किताब कहां है?
इतनी
चर्चा सुनते हैं--न्याय--न्याय--न्याय--और कर्म का सिद्धांत; सच्चाई कुछ और दिखाई पड़ती है!
मलूक
कह रहे हैं: गीध कद ज्ञान की किताब का किनारा दुआ! और वह जटायु! उसने कभी कोई
किताब पढ़ी थी,
कोई
वेद पढ़ा था?
गीध कद
ज्ञान की किताब का किनारा छुआ? किताब
की तो दूर--किताब का किनारा भी उसने कभी दुआ नहीं था। कौन सा ज्ञान था उसे, जिसके सहारे वह मुक्त हो गया?
ब्याधि
और बधिक तारा,
क्या
निसाफ तिसका?
इस सब
का इंसाफ कहां है?
मैं
तुमसे यह पूछता हूं, मलूक
कहते, कि इस सब में कहां इंसाफ है?
लोग
अपने कर्मों के कारण शुभ को पा रहे हैं, अशुभ को पा रहे हैं, यह बात गलत है। ये
नाम--बाल्मीकि का,
और
गजेंद्र का,
और
जटायु का--मलूकदास उठा रहे हैं इसलिए, ताकि यह बात साफ हो सके कि कोई अपने करने से
मुक्त नहीं होता है; उसकी
अनुकंपा से मुक्त होता है।
और वे
कह रहे हैं कि न्याय असली बात नहीं है; करुणा...। अब खयाल रखना कि न्याय और करुणा
के सिद्धांत अलग-अलग है; विपरीत
हैं।
इसलिए
अकसर न्यायाधीश के सामने यह सवाल उठता है कि न्याय पर ज्यादा जोर दे कि करुणा पर
ज्यादा जोर दे।
न्याय
बड़ा कठोर है;
न्याय
में हृदय की मूर्ति जैसा बैठता है। उसके कपड़े-लते, उसके बैठने का ढंग, उसका चेहरा--वह बिलकुल पत्थर
की मूर्ति बनकर बैठता है। वह हृदय को बिलकुल सिकोड़ लेता है तो ही न्याय कर पायेगा।
अगर जरा हृदय खुला हो, अगर वह
भी मनुष्य की भांति बैठे, तो
न्याय बहुत मुश्किल हो जायेगा; करुणा
होगी। क्योंकि कोई आदमी चोरी करके आ गया है। अब अगर वह न्याय ही देखे, तो सिर्फ किताब देखनी है, बस। उसे यह देखने की जरूरत
नहीं कि इस आदमी ने चोरी क्यों की। हो सकता है: इसकी पत्नी मर रही हो और दवा के
लिए घर में पैसे न हो। और अगर इस आदमी ने जा कर किसी की जेब काट ली; और ऐसे की जेब काट ली, जिसके पास बहुत है; पांच-दस रुपये कम हो गये, तो कुछ फर्क न पड़ा। जिससे
लिये, उसके पांच-दस कम हुए, कोई फर्क न पड़ा। लेकिन इसकी
पत्नी बच गई। इसके छोटे-छोटे दूध-मुंहें बच्चे; पत्नी मर जाती तो उनका क्या होता! वे बच
गये। तो यह पांच-दस रुपए की चोरी कोई बहुत बड़ी चोरी है? क्या इसको पाप माना जाए? अपराध माना जाए?
अगर
न्याय की किताब कोई देखनी हो, तो फिर
करुणा को कोई जगह नहीं है। न्याय बड़ा कठोर
है। न्याय में कोई दया नहीं है।
करुणा
बहुत कोमल है। और करुणा मग शुद्ध न्याय नहीं हो सकता।
जीसस
ने इसके बहुत उल्लेख दिए हैं। जीसस का एक बहुत प्रसिद्ध उल्लेख है कि एक अंगूर के
बगीचे के मालिक ने अपने नौकरों को भेजा...। अंगूर पक गए थे और जल्दी उन्हें तोड़
लेना था अन्यथा वे सड़ जायेंगे; तो
जितने मजदूर मिल सकें, ले आओ।
नौकर गये और बाजार से जितने मजदूर मिल सकते थे--ले आये। लेकिन वे मजदूर काफी न थे।
आधा
दिन बीतते-बीतते मालिक को लगा कि इनसे सांझ तक फल कट न पायेंगे, तो उसने कहा, और काई मजदूर मिलते हों, तो ले आओ। तो भरी दुपहरी में
फिर लोग गए,
फिर
कुछ लोगों को ले आये। लेकिन फिर भी लगा कि सांझ होते-होते काम पूरा न हो पायेगा, तो उसने कहा, और ले आओ। तो लोग फिर गये; फिर कुछ मजदूरों को ले आए। तो
यह जो आखिरी किश्त मजदूरों की आई, यह तो
करीब सूरज ढलते-ढलते आई।
जब काम
पूरा हो गया,
और रात
जब पैसे बांटे गये, तो उस
मालिक ने सब को बराबर पैसे दिए--जो सुबह आया, उसको भी; जो दोपहर आया, उसको भी, जो सांझ आया, उसको भी। स्वाभाविक था कि
सुबह आए थे,
उन्होंने
विरोध किया;
उन्होंने
कहा, यह अन्याय है। हम सुबह से
मेहनत कर रहे हैं;
और कुछ
लोग दोपहर आये,
उनको
भी उतना ही;
और कुछ
लोग अभी-अभी आये,
जिन्होंने
कुछ भी नहीं किया करने के नाम पर, सूरज
ढलते आए,
उनको
भी उतना। यह अन्याय है।
लेकिन
वह मालिक हंसने लगा: और उसने कहा, तुम्हें
जितना दिया,
तुम्हारी
मजदूरी के लिए पर्याप्त नहीं है क्या! नहीं, उन मजदूरों ने कहा, हमारी मजदूरी के लिए पर्याप्त
है, लेकिन इनका क्या? उसने कहा कि इनको मैं अपने
आधिक्य ये देता हूं। तुम्हारी मजदूरी, तुमने जो की, उतना तुम्हें मिल गया; उसमें कमी नहीं है। दोपहर हो
जाए। इन्हें मैं इसलिए देता हूं कि मेरे पास बहुत है देने को। इनके साथ दया कर रहा
हूं; तुम्हारे साथ अन्याय नहीं कर
रहा हूं। तुम्हें उतना मिल गया, जितना
तुम्हें मिलना चाहिए था।
जीसस
यह कहते हैं: परमात्मा ज्ञानियों के साथ न्याय करेगा और भक्तों के साथ दया करेगा।
यह बड़ी अजीब बात है। ज्ञानी वे हैं, जो सुबह से लगे हैं; भक्त हो सकता है कि दोपहर
आए--कि सांझ आए--कि नहीं भी आए। परमात्मा उन्हें अपने आधिक्य से देगा। ज्ञानी के
साथ अन्याय नहीं होगा, यह सच
हैं। उसने जितना किया, उतना
उसे मिलेगा। लेकिन इससे वह यह न सोच ले कि जिन्होंने कुछ नहीं किया, उन्हें कुछ नहीं मिलेगा।
भील कद
करी थी,
भलाई
जीया आप जान। ये मलूकदास यही कह रहे हैं कि ये सांझ के आये हुए लोग...।
भील कद
करी थी,
भलाई
जीया आप जान,
फील कद
हुआ था,
मुरीद
कहु किसका।।
गीध कद
ज्ञान की किताब का किनारा छुआ,
ब्याधि
और बधिक तारा,
क्या
निसाफ तिसका।।
...इसका न्याय क्या? इसको मैं किस अदालत में ले
जाऊं? इसमें कौन से न्याय की बात है?
नाग कद
माला लै के बंदगी करी थी बैठ? उस
गजेंद्र ने कब प्रार्थना की थी? कब
माला ले कर माला जपी थी?
नाग कद
माला लैके बंदगी करी थी बैठ,
मुझको
भी लगा था अजामिल का हिसका।
और
मलूकदास कहते हैं कि जब से तुमने अजामिल को मुक्त किया, तब से मुझे बड़ी स्पर्धा है; मुझे हिसका लग गया है।
अजामिल
की कथा तो जाहिर है। अजामिल की कथा तो बड़ी अनूठी है; जीसस थी थोड़े चिंतित होगे; क्योंकि सांझ को भी जो जाए थे, कम से कम आए तो थे! सांझ को
आए थे,
सूरज
ढलते आए थे;
कुछ
उठा-पटक तो की होगी; कुछ तो
किया ही होगा। कुछ न किया, तो कम
से कम आए और गये तो थे! अजामिल ने तो इतना भी नहीं किया था।
अजामिल
ने तो जिंदगी भर भगवान का नाम ही नहीं लिया था। उसे भगवान से कुछ लेना ही देना न
था। वह तो नास्तिक था। मरण-शैय्या पर पड़ा था। मरते वक्त उससे जोर से अपने बेटे को
बुलाया;
उसके
बेटे का नाम नारायण था।
पुराने
दिनों में सभी नाम भगवान के नाम ही होते थे। जितने नाम होते थे, सब भगवान के ही नाम होते थे।
वह भी बड़ी विचारपूर्ण बात थी कि चलो, इस बहाने ही भगवान का स्मरण होगा। कोई राम, कोई विष्णु, कोई नारायण, कोई कृष्ण! मुसलमानों में
जितने नाम होते हैं, करीब करीब
सब में भगवान...। अब्दुल्लाह--तो अल्लाह लगा हुआ है। करीब, रहीम, रहमान--सब परमात्मा के नाम
हैं।
हिंदुओं
के पास तो अनूठी किताब है--विष्णसहस्रनाम, जिसमें भगवान के हजार नाम हैं; सिर्फ नाम ही नाम दिए हैं।
सारे नाम भगवान के होते थे; क्योंकि
सारे रूप भी उसे के हैं, तो नाम
भी उसी के होने चाहिए। बात बड़ी अर्थपूर्ण है।
सब
रूपों में वही प्रकट हुआ है, तो सभी
नाम भी उसी के होने चाहिए। और फिर कम से कम चलो, इसी बहाने भगवान की याद होती
रहेगी। राम को बुलाया, तो
उनकी याद हो गई;
नारायण
को बुलाया,
तो
उनकी याद हो गई;
विष्णु
को बुलाया,
तो
उनकी याद हो गई;
नारायण
को बुलाया,
तो
उनकी याद हो गई;
विष्णु
को बुलाया,
तो
उनकी याद हो गई। और कौन जाने किस घड़ी, किस मुहूर्त में चोट लग जाए--कौन जाने!
कभी-कभी
चोट ऐसी लगती है--अनायास लगती है--कि जिसका हमें कोई पता भी नहीं होता, कि जिसका हमने कोई आयोजन भी
नहीं किया होता। मगर चारों तरफ की हवा में भगवान का नाम गूंजता रहे। पता नहीं किस
कोने से हमारे भीतर प्रभु का स्मरण प्रविष्ट हो जाए! तो ऐसी ही घटना अजामिल की है।
अजामिल
मर रहा है। भगवान को मानता नहीं है; लेकिन बेटे का नाम नारायण है। वह भी शायद भूलचूक
से रख लिया होगा,
क्योंकि
और नाम थे ही नहीं उन दिनों में। मरते वक्त बेटे को बुलाया है कि नारायण, तू कहा है? सांस टूटी जा रही है; बेटे को बुला रहा है; शायद कुछ बताना होगा कि खजाना
कहां गड?ा है; कि कुछ हिसाब-किताब की बात
समझानी होगी;
कि कुछ
राज बताना होगा। मौत करीब आ गई है; बेटे को बता जाए।
लेकिन
बेटे को सुनाई नहीं पड़ा। जोर-जोर से चिल्लाता-चिल्लाता अजामिल मर गया। कथा यह है
कि ऊपर बैठे नारायण--भगवान को ऐसा लगा कि बेचारे ने कितना पुकारा! मुझको कितना
पुकारा! और अजामिल मर कर परम अवस्था को उपलब्ध हुआ।
यह कथा
बड़ी अनूठी है;
जीसस
की इस कथा से आगे जाती है। यह तो न गया--सांझ भी नहीं। यह तो जब नारायण, नारायण बुला रहा था, तब भी इसका परमात्मा से कोई
लेना-देना नहीं था।
अब बात
यह है कि परमात्मा क्या धोखे में आ गया? क्या परमात्मा को इतनी भी समझ नहीं है--कि
यह अपने बेटे को बुला रहा है; मुझे
नहीं बुला रहा है?
क्या
परमात्मा में इतना भी बोध ही है? क्या
यह धोखा हो सकता है?
यह
धोखा अगर हो सकता है, तो
इसीलिए हो सकता है, कि
परमात्मा किसी भी बहाने अपनी करुणा बांटने को तैयार है। उसके पास आधिक्य है; उसे देना है, तो कोई भी बहाना पर्याप्त है।
जब देना ही हो,
तो
किसको बुला रहा है--बेटे को बुला रहा है, कि मुझे बुला रहा है, क्या फर्क पड़ता है! चलो, यह खूंटी भी काफी है, इसी पर परमात्मा अपनी कृपा
टांग देगा।
मलूकदास
कहते हैं: नाग कद माला लै के बंदगी करी थी बैठ। उस गजेंद्र ने कभी माला फेरी नहीं।
बैठ कर कभी बंदगी नहीं की--नमाज नहीं पढ़ो, प्रार्थना-पूजा नहीं की। चलो, छोड़ो, उसको भी जाने दो। मुझको भी
लगा था अजामिल का हिसका। लेकिन अजामिल के साथ तो हद हो गई! उसका धक्का मुझे कभी भी
लगता है--कि आखिर फिर मेरा कसूर क्या है!
मलूकदास
यह कह रहे हैं कि इन सब के साथ यह तथाकथित न्याय होता रहा है, तो मेरे साथ ज्यादती क्यों हो
रही है?
मुझे
स्पर्धा होती है।
ऐसे
बदराहों की तुम बदी करी थी माफ। ऐसे सब बदराह--ऐसे सब भूले-भटके लोग...। ऐसे
बदराही की तुम बदी करी थी माफ। मलूक अजाती पर एती करी रिस का। तो मुझसे ऐसे कैसे
रिसाए बैठे हो?
आखिर
मेरा कसूर क्या है? इतना
बुरा तो मैंने कुछ किया नहीं; ऐसा तो
कोई बड़ा पाप मेरा है नहीं। और इतनी भी बात तय है कि तुम्हीं को पुकार रहा
हूं--अपने बेटे को नहीं पुकार रहा!
अजामिल
तक मुक्त हो गया! तुम मुक्त करने को ही बैठे हो! तो मेरे ही साथ यह भेद-भाव क्यों
चल रहा है?
यह
प्रेमी का झगड़ा है। यह परम प्रेम में ही घट सकता है। साधारण आदमी तो हिम्मत नहीं
कर सकता--भगवान से इस तरह की बात करने की; असाधारण अवधूत ही कर सकता है। साधारण तो
डरेगा कि कहीं नाराज न हो जाए। साधारण तो सदा कहता है: तुम पतितपावन, मैं पापी; और जमाने भर की बातें कहता
है। वह तो हिसाब की बातें लगाता है। वह तो कहता है: शायद इस तरह मना लेंगे।
लेकिन
मलूकदास बड़ी अनूठी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं: मलूक अजाती पर एती करी रिस का? माना कि मेरी जात-पात कुछ
ठिकाने की नहीं है,तो
किसकी है?
माना
कि मेरे कर्म कुछ हिसाब के नहीं हैं, तो किसके हैं? और माना कि मैंने तुम्हें
पूरे भाव से शायद न भी पुकारा हो, अजामिल
के बाबत क्या विचार है?
ये
सारी की सारी घटनाएं मलूकदास याद मिला रहे हैं परमात्मा को; यह बड़े प्रेम का निवेदन है; यह अपूर्व निवेदन है।
तुम
मुझसे क्यों रिसाए बैठे हो? क्या
नाराजगी होगी?
ऐसा
क्या गुनाह मैंने किया होगा! गुनाहों को तो माफ करते रहे हो; बदराहों को माफ करते रहे हो!
चलो, मैं बदराह सही; और चलो, मैं बहुत गुनहगार सही। लेकिन
ऐसे क्या रिसाए बैठे हो? क्या
तुम्हारी करुणा चुक गई? क्या
तुम्हारा प्रेम चुक गया? या कि
तुम्हारी पुरानी आदतें बदल गई!--कि अब अजामिल जैसी घटनाएं नहीं घटतीं? तुम्हारा हृदय सूख गया है
क्या?
जैसे
छोटा बच्चा मां के लिए रोता है और सोचता है: क्यों नहीं आती?...छोटा बच्चा तो यही सोचता है
कि मां हर घड़ी मौजूद रहनी चाहिए--जब वह पुकारे। रात-आधी-रात पुकारे, तो मौजूद रहनी चाहिए। छोटा
बच्चा तो यह मान कर ही चलता है कि मां मेरे लिए है। उसे यह तो खयाल भी नहीं हो
सकता कि उसके और हजार काम हो सकते हैं! कि अभी वह अपने पति की सेवा कर रही हो; कि थक गई हो, सो गई हो; कि बाजार गई हो, सामान खरीद रही हो! और हजार
काम हो सकते हैं। बच्चे को यह सवाल ही नहीं उठता। बच्चे को तो एक प्रतीति होती है
कि वह मेरे लिए है, मैं
उसके लिए हूं। मैं चौबीस घंटे उसका हूं; वह चौबीस घंटे मेरी है।
ठीक
ऐसा ही भाव भक्त का होता है।
होंगे
तुम्हें हजार काम;
चलाते
होओगे चांदत्तारों को; बड़ी उलझनें
होंगी। लेकिन भक्त मानता है कि पहला अधिकार मेरा है।
एतै
बदराहों की तुम बदी करी थी माफ,
मलूक
अजाती पर एती करी रिस का।।
भक्त
ने सदा इस बात पर भरोसा किया है कि तुम्हारा प्रेम अपार है। और तुम देख-देख कर दान
नहीं देते--कि किसने अच्छा किया और किसने बुरा किया। यह भी कोई बात हुई...! यह बड़ी
मानवीय बात हो जाएगी। कि जिसने अच्छा किया--उसको जरा ज्यादा दें; जिसने बुरा किया, उसे थोड़ा कम दें। जिसने अच्छा
किया, उसे सुख दें, और जिसने बुरा किया, उसे दुःख दें। यह बड़ी मानवीय
बात हो जायेगी;
ईश्वरीय
न रह जायेगी।
यह
मनुष्य का न्याय तो ठीक है, मगर यह
ईश्वरीय न्याय न होगा। ईश्वरीय न्याय में तो अनुकंपा होनी चाहिए--अपार अनुकंपा
होनी चाहिए। हमने क्या किया--यह बात ही फिजूल है। तुम्हारे पास देने को इतना है!
सारा का सारा देने को पड़ा है! और तुम देओगे किसको आखिर?
जब मेघ
घुमड़ते हैं भादों में, वर्षों
से भरे हुए मेघ आते हैं, तो यह
थोड़े ही फिक्र करते हैं कि सिर्फ उपजाऊ जमीन पर गिरें! कंकड़-पत्थरों पर भी बरसते
हैं। यह थोड़े ही सोचते हैं कि अच्छे आदमी के खेत में ही बरसें; बुरे आदमी के खेत में भी
बरसते हैं। सूरज जब निकलता है, तो ऐसी
कोई कंजूसी थोड़े ही करता है, कि
सज्जन के घर पर ही रोशनी करेगा और दुर्जन के घर पर अंधेरा रखेगा! और जब फूलों की
सुगंध उड़ती है,
तो
संतों के ही नासापुट थोड़े ही खोजती है।
सब को
मिलता है--यह भक्त की आस्था है। सब को मिलता है--अकारण मिलता है। कारण से मिले, तो बात बड़ी कंजूसी की हो
जायेगी और परमात्मा कंजूस नहीं है।
वह जो
कर्म का सिद्धांत हैं, वह बड़ी
कंजूसी का सिद्धांत है। वह यह कहता है कि जो करेगा, उसको मिलेगा; जो नहीं करेगा, उसको नहीं मिलेगा। वह बड़ा ओछा
सिद्धांत है;
बड़ा
संकीर्ण सिद्धांत है।
भक्त
कहता है: यह भी कोई बात हुई; ऐसे
ओछे लांछन तो परमात्मा पर मत लगाओ। और तुम जानते हो भलीभांति; सारा जीवन इस बात का प्रमाण
है; जो मलूकदास कह रहे हैं; उसका प्रमाण सारा जीवन है।
सूरज देखो;
चांदत्तारे
देखो; हवाएं देखो; यह हवा का जो झोंका आया, यह सज्जनों को ही थोड़े मिलेगा; इसमें दुर्जन भी वैसे ही
नहायेंगे। कुछ भेद नहीं है। अस्तित्व भेद नहीं करता।
मां
भेद करती है--उस बेटे में जो उसकी आज्ञा मानता है और उस बेटे में जो उसका आज्ञा
नहीं माता?
हालत
हमेशा यह है कि जो आज्ञा नहीं मानता है, उसको ज्यादा देती है। जो बेटे उपद्रव होते
हैं, मां का प्रेम उन पर ज्यादा
होता है;
उप पर
ज्यादा दया होती है। स्वाभाविक भी है, क्योंकि उसे ज्यादा ममता आती है कि बेचारा, उपद्रवी है। जगह-जगह झकझोरी
खाता है;
जहां
गया, वहीं झंझट में पड़ जाता है। उस
पर दया स्वभावतः ज्यादा आती है।
जो
सज्जन है,
वह तो
सभी जगह सत्कारा जाता है। जहां जाता है, वहीं आदर पाता है। उसके लिए तो आदर की कोई
कमी नहीं है;
जो
मिलता है,
वही
प्रशंसा करता है।
लेकिन
जो बेटा थोड़ा गुमराह है, थोड़ा
बदराह है,
अनाज्ञाकारी
है, थोड़ा बगावती है, उसको तो और कहीं प्रेम मिलेगा
नहीं; अगर मां भी उसे प्रेम न देगी, तो वह प्रेम से वंचित ही रह
जायेगा।
प्रकृति
का अनूठा नियम है कि सब तरह से सब को बराबर हो जाता है; तो अंत में सब को बराबर हो
जाता है।
तो
दूसरे नहीं देते प्रेम, तो मां
उसे प्रेम देती है।
तुमने
कभी खयाल नहीं किया: आज्ञाकारी बेटे की तुम प्रशंसा करते हो; आनाज्ञाकारी बेटे की तुम
निंदा करते हो। लेकिन प्रेम...?
जीसस
की फिर एक कहानी है; और
जीसस की कहानियां प्रेम के मार्ग की अनूठी कहानियां हैं।
जीसस
ने कहा...। कोई पूछता है जीसस से कि मैं तो योग्य नहीं हूं; मैं तो भूला-भटका हूं; मैं तो पापी हूं; परमात्मा मुझे भी उबारेगा!
मैं पुकारूं?
मेरी
पुकार उस तक भी पहुंचेगी?
जीसस
ने कहा: सुन। वह आदमी गड़रिया था। इसलिए जीसस ने गड़रिये की भाषा ही कही। उन्होंने
कहा। सुन। कभी-कभी तुझे ऐसा हुआ होगा--सांझ जब तू अपनी सारी भेड़ों को इकट्ठा करके
घर की तरफ लौटता है और अचानक घर आ कर पाता है कि सौ भेड़ों में निन्यानबे ही हैं और
एक भेड़ कहीं छूट गई; जंगल
में कहीं भटक गई;
तू
क्या करता है!
उसने
कहा: मैं उन भेड़ों को वहीं छोड़ देता हूं और भागता हूं जंगल की तरफ--उस एक भेड़ के
खोजने--कि वह कहां गई; कोई
भेड़िया न खा जाए! कोई जंगली जानवर न खा जाए! मैं निन्यानबे भेड़ों की फिक्र ही छोड़
देता हूं;
उसी एक
भेड़ की फिक्र मेरे मन में गूंजने लगती है। मेरा सारा भाव उसी की तरफ दौड़ने लगता
है। अंधेरी रात में चिल्ला-चिल्ल कर जंगल-पहाड़ पर उसे खोज कर लाता हूं।
जीसस
ने कहा: एक बात और पूछनी है। तू उसे किस तरफ लाता है? उसने कहा: किस तरह लाता हूं? कंधे पर रख कर लाता हूं।
तो
जीसस ने कहा: क्या तू सोचता है कि परमात्मा इतना भी प्रेम तेरे लिए नहीं दिखायेगा?
जीसस
यह कह रहे हैं कि पुण्यात्माओं को तो परमात्मा ले आता है--चला कर, पापियों को कंधे पर रख कर
लाता है;
भटके
हुओं को,
गुमराहों
को...।
प्रेम
का शास्त्र अनूठा है; उसके
भरोसे अनूठे हैं;
उसकी
दिशा अलग है। और अगर प्रेम का शास्त्र न होता, तो मनुष्य के लिए कोई भविष्य न था। मनुष्य
इतना कमजोर है,
लाख
उपाय करके भी कहां सज्जन हो पाता है! लाख उपाय करके भी कहां संत हो पाता है? और कभी कोई एकांत हो भी जाता
हो, तो उस पर परमात्मा की कृपा
बरसेगी,
बाकी
सब बरसा से रहित रह जायेंगे--सूखे; और कभी हरे न होंगे? तो प्रकृति बड़ी उदास हो जाती
है।
नहीं; तुम चारों तरफ देखो। सूरज की
भाषा समझो;
चांदत्तारों
की भाषा समझो;
हवाओं
की भाषा समझो। सब को बराबर मिल रहा है। अच्छे और बुरे का कोई भेद नहीं है। हालांकि
तुम्हारे मन में अड़चन होती है, क्योंकि
तुम्हारे अहंकार की अड़चन है। तुम सोचते हो। अरे! अगर सब को बराबर मिल रहा है, तो फिर हम अच्छा क्यों करें?
तुम्हें
यह लगता है: सब को बराबर मिल रहा है? बुरे को भी बराबर मिल रहा है? तो तुम्हारे मन में बड़ीर्
ईष्या पैदा होती है। ये तुम्हारी अड़चनें हैं। तुम इन अड़चनों के कारण ईश्वर को मत
तौलो।
मलूकदास
कहते हैं:
एतै
बदराहों की तुम बदी करी थी माफ,
मलूक
अजाती पर एती करी रिस का।।
क्या
कर रहे हो आज बैठे-बैठे? हम तो
सुनते थे कि भटक गई भेड़ों को कंधों पर रख कर लाते हो! अब ये रहे मलूकदास। हम भटकी
भेड़ हैं,
सब
उठाओ कंधे पर। हमारा कोई दवा नहीं है कि हम पहुंचे हुए संत हैं। भटकी हुए भेड़ हैं।
अब तुम कहां हो?
कहां
तुम्हारा कंधा है?
तुम
कहते हो: माला नहीं जपी; कभी
नहीं जपी। लेकिन गजेंद्र ने जपी थी? तुम कहते हो: वेद-कुरान नहीं पढ़े; कभी नहीं पढ़े। जटायु ने पढ़े
थे? तुम कहते हो: मलूकदास, तुमने ठीक-ठीक मेरा नाम नहीं
लिया। मलूकदास कहते हैं: तो फिर क्या इरादा है? कहानी को बदल दो; अजामिल की कहानी का क्या हुआ? मुझको भी लगा था, अजामिल का हिसका? और तब से जो मुझे चोट लगी है, अभी तक भरी नहीं। और जब तक
तुम मुझे न उठा लो...। अकारण उठा लो, तो ही चोट भरेगी।
यह
भक्त की भावदशा समझना।
अकारण
उठा लो। मेरे पास कोई कारण नहीं है कि मैं दावा कर सकूं। बूरा-बूरा मेरा है; सब जो मेरा है, बुरा है। इसलिए उस तरफ से कोई
दावा नहीं है। मगर जैसा भी हूं--बुरा-भला--तुम्हारा हूं।
जग
रूठे तो बात न कोई
तुम
रूठे तो प्यार न होगा।
मणियों
में तुम ही तो हो कौस्तुभ
तारों
में तुम ही तो हो चंदा,
नदियों
में तुम ही तो हो गंगा
गधों
में तुम ही तो हो निशिगंधा
दीपक
में जैसे लौ-बाती
तुम
प्राणों के संग-संगाती
तुम
बिछड़े तो बात न कोई
तुम
बिछुड़े सिंगार न होगा
जग
रूठे तो बात न कोई
तुम
रूठे तो प्यार न होगा।
मलूकदास
कहते: तुम क्यों रूठे मुझसे? सारा
जग रूठ जाए--चलेगा; तुम तो
न रूठो। सारा जग कहे: मैं बुरा हूं--चलेगा; तुम तो न कहो! तुम्हें तो शोभा नहीं देता।
उमर
खय्याम की एक पंक्ति है; किसी
मौलवी ने कहा है उमर खय्याम को कि अगर तुम ये पीने-पिलाने में पड़े रहे, तो नर्क में सड़ोगे: उमर
खय्याम हंसने लगा है और उसने कहा: तो क्या खयाल है तुम्हारा; अब परमात्मा रहमान न रहा! अब
उसमें दया न बची?
तुम
लांछन लगा रहे हो--उसकी दया पर! तुम यह कह रहे हो कि अब करुणा उसकी चुक गई! मुझे
रहने दो बुरा-भला--जैसा मैं हूं। मुझ पर भरोसा ही नहीं है। मुझे तो भरोसा उसकी
करुणा पर,
उसके
रहमान होने पर है,
उसके
रहीम होने पर है।
भक्त
का भरोसा अपने अहंकार पर नहीं है। ज्ञानी का भरोसा अपने व्यक्तित्व पर है। भक्त का
भरोसा उसकी कृपा पर है। ज्ञानी का अपने प्रयास पर--भक्त का उसके प्रसाद पर। जब भी
वह पाता है: कुछ अड़चन हो रही है, वह
प्रार्थना करता है। वह कहता है कि मामला क्या है! तुम्हारी दुनिया में रह रहा हूं, तुम्हारा हूं। और तकलीफ भोग
रहा हूं!
भोग कर
भी जल रहा हूं,
आह मैं
बरसात में
मेध
में मधु रस भरा है
या कि
यह ठंडी अगन है
देह को
छूते बराबर
हो रही
मीठी जलन है
चांद
का भी मुंह घटा ने
ढंक
दिया है कुंतलों से
मैं
यहां परदेस में
कितना
अकेला रात में
भीग कर
भी जल रहा हूं
आह मैं
बरसात में।
तुम
खयाल करो।
इस तरह
छाई उदासी
पलक
बोझिल आंख नम है
फिर
तुम्हारी याद का यह
दर्द
भी तो कुछ न कम है
इस तरह
से चल रहा है
काटता
हर एक झोंका
जहर
जैसे घुल गया है
पश्चिमी
मधुपात में
गीत तो
उमड़ा हृदय में
पर अभी
गाया न जाता
इस तरह
घायल हुआ है
मन कि
बहलाया न जाता
लग रहा
है ऐसे कि जैसे
गीत
वाले स्वर-भ्रमर
कैद होकर
रह गये हैं
मौन के
जलजात में
लाज से
दब बिजलियां जब
तुम
सरीखी मुस्कुराती
क्या
पता तुमको कि वे सब
किस
तरतु मुझको जलाती
बरसता
पानी
तरसता
है मगर चातक हृदय का
तुम
नहीं हो बस
तुम्हारी
याद ही है साथ में
भीग कर
भी जल रहा हूं
आह मैं
बरसात में
मैं
यहां परदेस में
कितना
अकेला रात में!
कुछ
खयाल करो।
भक्त
को सारा जोर इस बात पर है कि तुम कुछ कुछ करो। और कितना गिरूं, ताकि तुम्हारी करुणा पा सकूं!
और कितना भटकूं,
ताकि
तुम खोजने निकलो! और कितना गर्त में पडूं; और कितने अंधेरे में उतरूं, ताकि तुम्हारी रोशनी के किरण
कृपा बन कर मुझे खोजती हुई आ जाए?
भक्त
कहता है कि तुम अगर चाहो, तो सब
हो जाए। मेरे चाहे कुछ भी नहीं होता। सूत्र बांधते अगर गीत में, वेदों का वंशज हो जाता। इतना
भरा है मुझमें तुमने कि अगर जरा सूत्र बांध दो, अगर जरा व्यवस्था जुटा दो, तो मैं जो कहूं, वे वेद हो जाए।
सूत्र
बांधते अगर गीत में
वेदों
का वंशज हो जाता
हरदम
मिट्टी रही तरसती
रखा
जन्म से उसको प्यास
नित्य
तिरस्कृत होकर रोया
वीराने
में पड़ा उदास
होनहार
सूरज ने कोई
अंधियारे
में सांस तोड़ दी
शोकाकुल
हो गये तुम
तुमने
ठंडी आह छोड़ दी
दीप
जला कर तुमने हरदम
छोड़
दिया बिलकुल अनाथ सा
बूंद-बूंद
भी स्नेह पिलाते
अब तक
तो सूरज हो जाता
दीप
जला कर तुमने हरदम
छोड़
दिया बिलकुल अनाथ सा
बूंद-बूंद
भी स्नेह पिलाते
अब तक
तो सूरज हो जाता
सूत्र
बांधते अगर गीत में
वेदों
का वंशज हो जाता।
रही
उपेक्षित धरती तुमसे
अपमानित
ही लौटे मौसम
किया न
तुमने कभी बात में
श्रम
गंगा जमुना का संगम
कभी न
पूछी कुशल फूल की
कभी न
डाली को दुलराया
कभी न
दुर्वा का दुःख जाना
कभी न
शबनम को सहलाया
जरा
तुम्हारी लापरवाही
बगिया
में मधुमास न आया
अगर
पाल लेते तुम कलियां
फूल
फूल पंकज हो जाता
सूत्र
बांधते अगर गीत में
वेदों
का वंशज ही जाता।
बूंद-बूंद
भी स्नेह पिलाते
अब तक
तो सूरज हो जाता
दीप
जला कर तुमने हरदम
छोड़
दिया बिलकुल अनाथ सा
भक्त
कहता है: तुम जिम्मेवार हो, क्योंकि
तुम मालिक हो। तुम स्रष्टा हो; मैं
तुम्हारी सृष्टि हूं।
ऐसा ही
समझो कि एक मूर्ति मूर्तिकार को पुकारती हो कि यह क्या कर रहे हो! थोड़ा और छैनी
लगाओ; थोड़ा मुझे और निखारो--साफ
करो: थोड़ा मुझे और चमकाओ।
यह बात
तुम्हारी समझ में न आयेगी, अगर
संदेह से तुम चलते हो। तो यह बात ही छोड़ देना। यह तुम्हारे काम की नहीं है। फिर
बाबा मलूकदास तुम्हारे लिए नहीं हैं।
अगर
श्रद्धा का सूत्र तुम्हारे मन में गूंजता है, तो यह सारी बातें बहुत सीधी-साफ हैं। इनमें
जरा भी अड़चन नहीं है।
इक
दर्द की दुनिया है, इधर
देख तो ले
कुछ और
नहीं कहते,
मगर
देख तो ले
जिस
दिल को मेरा गम ने किया दिल-ए-दोस्त
उस दिल
की तरफ एक नजर देख तो ले।
भक्त
पुकारे चला जाता है--कि जरा मेरी तरफ नजर करो।
भेष
फकीरी जे करैं,
मन
नहिं आवै हाथ।...
यह
पहले सूत्रों की एक शृंखला पूरी हुई जिसमें मलूकदास परमात्मा को याद दिलाते हैं कि
जरा तुम अपनी किताबें तो देखो। हजार तरह के करुणा के कृत्य पहले कर चुके हो, अब कुछ कंजूस होने की जरूरत
नहीं है।
यह तो
बात भगवान के लिए।
दूसरी
बात भक्त के लिए:
भेष
फकीरी जे करैं,
मन
नहिं आवै हाथ।
दिल
फकीर जो हो रहे ,
साहेब
तिनके साथ।।
सिर्फ
वेश से जो फकीर हो गये हों, ऊपर-ऊपर
फकीर हो गये हों,
और
भीतर-भीतर जरा भी फकीरी नहीं प्रवेश पाई हो; भीतर विनम्रता न हो...। समझना।
जो
ज्ञानी है,
वह कभी
विनम्र नहीं हो पाता जो कर्म योगी है, वह कभी विनम्र नहीं हो पाता। उसका कर्म ही
उसके अहंकार जो दीप्तमा रखता है।
तुम
जरा फर्क देखना। जैन मुनि को तुम देखो और एक सूफी फकीर को देखो। सूफी फकीर में तुम
एक विनम्रता पाओगे, जो जैन
मुनि में नहीं मिलेगी। कारण साफ है। जैन मुनि विनम्र होने का कारण ही नहीं मानता।
वह तो अपना एक-एक कृत्य साफ कर रहा है, शुद्ध कर रहा है। हर शुद्ध होते कृत्य के
साथ अकड़ बढ़ रही है--कि मैं कुछ हूं।
जैन
मुनि तुम्हें हाथ भी जोड़ कर नमस्कार नहीं करेगा। तुम नमस्कार करो, वह नमस्कार नहीं करेगा। वह
कैसे नमस्कार कर सकता है! साधारण श्रावकों को, साधारण जनों को कैसे नमस्कार कर सकता है? अकड़ भारी है।
सूफी
फकीर तुम्हारे पैर भी छू सकता है, नमस्कार
की तो बात छोड़ो। तुम जाओगे, तो
तुम्हारे पैर छू लेगा। क्योंकि उसने परमात्मा को ही जाना है--तुममें भी परमात्मा
का जाना है। हर चरण परमात्मा का चरण है। यही असली फकीरी है।
फकीरी
का मतलब है कि मैं नहीं।
भेष
फकीरी जे करैं,
मन
नहिं आवै हाथ। और ऊपर-ऊपर से जो फकीर हो गये हैं और अभी अपने मन के भी मालिक नहीं
हो सके हैं;
अभी मन
ही जिनका मालिक है; अहंकार
जिनका मालिक बना बैठा है...।
भेष
फकीरी जे करैं,
मन
नहिं आवै हाथ।
दिल
फकीरी जे हो रहे,
साहेब
तिनके साथ।।
यह तो
परमात्मा से थोड़ा सा झगड़ा कर लिया, अब वे अपने शिष्यों में कह रहे हैं कि इस
बात का ध्यान रखना: ऊपर-ऊपर फकीरी से काम न चलेगा। भीतर फकीरी चाहिए। मैं ना कुछ
हूं--ऐसा भीतर भाव चाहिए।
जीसस
का प्रसिद्ध वचन है: धन्य हैं वे जो दरिद्र हैं, क्योंकि प्रभु का राज्य
उन्हीं का होगा। धन्य हैं वे जो दरिद्र हैं...यह फकीरी को परिभाषा है। दरिद्र का
मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे पास पैसा नहीं है, कि तुम्हारे पास मकान नहीं है। मकान और पैसे
से कोई समृद्ध होता, तो न
होने से दरिद्र हो सकता था। इस बात को खयाल में रखना।
मकान
होने से कोई समृद्ध ही नहीं होता, तो
मकान के होने से दरिद्र कैसे हो जायेगा! धन के होने से कोई समृद्ध नहीं होता, तो निर्धन होने से कोई दरिद्र
कैसे हो जायेगा।
अहंकार
जाए, तो आदमी गरीब हुआ। अहंकार जाए, तो आदमी वस्तुतः दरिद्र हुआ।
भीतर से उतर गया सिंहासन पर से; सिंहासन
खाली कर दिया;
उसी
सिंहासन पर तो परमात्मा विराजमान होगा, जहां तुम बैठक लगाए बैठे हो।
दिल
फकीरी जो हो रहे,
साहेब
तिनके साथ। और जिन्होंने दिल से फकीरी कर ली, जो भीतर दीन हो गए; जिन्होंने कहा: मैं कुछ भी
नहीं हूं,
उसी
क्षण--साहेब तिनके साथ।
राम
राम के नाम को,
जहां
नहीं लवलेस।
पानी
तहां न पीजिए,
परिहरिए
सो देस।।
कहते
मलूकदास कि जहां राम राम का गुणगान न होता हो, जहां प्रभु की याद न होती हो, जहां हवा-हवा में अर्चना की
गंध न हो,
जहां
वातावरण प्रभु-सिक्त न हो, उस जगह
रुकना मत। सूख जाओगे वहां। उस जगह ठहरना मत, क्योंकि उस जगह तुम्हें प्राणों का भोजन न
मिलेगा;
पुष्टि
न मिलेगी।
राम
राम के नाम को,
जहां
नहीं लवलेस।
पानी
तहां न पीजिए,
परिहरिये
सो देस।।
उस देश
को छोड़ देना;
वहां
पानी भी मत पीना,
क्योंकि
वहां पानी भी जहर है।
यह
सत्संग के लिए इशारा है। मलूकदास कहते हैं: वहां जाओ, जहां लोग राम की याद करते हों; जहां बैठ कर रोते हों; जहां बैठ कर गीत गुनगुनाते
हों; जहां सत्संग होता हो, वहां डुबकी लगाओ। क्योंकि उस
डुबकी में ही तुम धीरे-धीरे उस अमृत के साथ संबंध जोड़ पाओगे, जिसका नाम परमात्मा है।
अकेले
तुमसे न हो सकेगा। संग खोजी। अकेले तुम बहुत कमजोर हो। अकेले भटक जाने की बहुत
संभावना है। संग-साथ खोजो; साध-संग
खोजो; जहां प्रभु वचनों की महिमा
गाई जाती हो;
जहां
प्रभु की तरफ याद उठाई जाती हो; जहां
प्रभु की याद में लोग मगन होते हों, नाचते हों। उस जगह जाओ, उस हवा में जियो, वहां श्वास लो, वहां पानी पीओ, वहां ठहरो, वहां आवास करो, तो शायद तुम्हें भी धुन पकड़
जाए।
तुमने
यह खयाल किया: जहां दस-बीस लोग नाचते हों, वहां तुम्हारे पैर भी थिरकते लगते हैं। जहां
कोई ढंग से तबला बजाता हो, वीणा
बजाता हो,
वहां
तुम्हारे हाथ भी थपकने लगते हैं। क्या होता है?
कार्ल
गुस्ताव जुंग ने ठीक शब्द उसके लिए खोजा है--सिन्क्रानिसिटि। कुछ समतुल घटने लगता
है। उदास आदमी को देखकर तुम्हारे भीतर उदासी आ जाती है। क्योंकि हम अलग-अलग नहीं
हैं; हम एक दूसरे के भीतर प्रवेश
कर रहे हैं;
हमारी
तरंगें एक-दूसरे में लीन हो रही हैं। उदास आदमी को देखकर तुम्हीं उदासी आ जाती है; प्रसन्न चित्त आदमी को देखकर
तुम्हारे भीतर भी प्रसन्नता की किरण फूटने लगती है।
हम
अलग-अलग नहीं हैं;
हम
एक-दूसरे के संग-साथ हैं। जहां दस आदमी हंस रहे हों, वहां तुम भूल ही जाते हो
चिंता;
वहां
तुम भी हंसने लगते हो। पीछे तुम सोचते भी हो कि ऐसा कैसे हुआ। मैं तो इतना चिंतित
था, इतना बोझ से भरा था, हंसने कैसे लगा! तुम कितना ही
हंसते हुए जाओ,
जहां
दस आदमी उदास बैठे हों, मुर्दे
की तरह बैठे हों,
जहां
की हवा में मौत--जीवन न हो, तुम
अचानक पाओगे कि तुम्हारी हंसी ठहर गई, ठिठक गई। हंसना मुश्किल पाओगे। इतनी दस
आदमियों की उदासी दीवाल की तरह खड़ी हो जायेगी; तुम्हारे ओंठ बंध हो जायेंगे। तुम अचानक
पाओगे कि तुम भी डुब गये उस अंधेरे में, जिसमें वे दस डूबे हुए बैठे थे।
मनुष्य
एक-दूसरे से जुड़े हैं; एक
दूसरे के हृदय की तरंगें, एक-दूसरे
के भीतर जाती हैं,
आंदोलन
करती हैं। इसलिए साध-संग का बड़ा मूल्य है।
जहां
तुम जैसे प्रभु को खोजने वाले कुछ दीवाने इकट्ठे होते हों, बैठो उन मस्तों के पास, दीवानों के पास; घड़ी भर तो जरूर निकाल ही लो
चौबीस घंटे में। वहीं से तुम्हें धीरे-धीरे रस लगेगा। वहीं से तुम्हारे भीतर प्यास
जगेगी;
वहीं
से तुम्हारे भीतर चुनौती उठेगी।
राम
राम के नाम को,
जहां
नहीं लवलेस।
पानी
जहां न पीजिए,
परिहरिये
सो देस।।
उस देश
को भी छोड़ देना,
जहां
लोग राम को भूल गये हों। उस समाज को भी छोड़ देना, जहां लोग राम का स्मरण न करते
हों; वहां पानी भी मत पीना। उन
हाथों से दिया गया पानी भी घातक है।
जार्ज
गुरजिएफ कहा करता था कि तुम जैसे एक कारागृह में बंद हो। अकेले अगर तुम जेलखाने के
बाहर निकलना चाहो,
तो
मुश्किल आसान हो जायेगी। फिर भी अगर सिर्फ कैदी ही आपस में जुट कर निकलने की कोशिश
करें, तो भी कठिनाइयां होंगी। अगर
ये कैदी जेल के बाहर के किसी मुक्त पुरुष से संबंध बना लें, तो और भी आसानी हो जायेगी।
एक
कैदी निकलना चाहे,
तो
बहुत मुश्किल है,
पचास
पहरेदार हैं। लेकिन अगर सौ कैदी निकलना चाहें--इकट्ठे--एकजुट--तो पहरेदार कम पड़
जाते हैं। एक निकलता था, तो
पचास पहरेदार थे;
पचास
गुने थे। सौ कैदी निकलना चाहे, तो
पहरेदार कम पड़ गये; आधे हो
गये। लेकिन फिर भी कठिनाई है। पहरेदार के पास बंदूकें हैं; पहरेदारों के पास सब साधन
हैं। कैदी साधन ही हैं। लेकिन अगर भीतर के कैदी बाहर के जगत के किन्हीं लोगों से
संबंध बना लें,
जिनके
पास साधन हैं,
और
जिनको स्वतंत्रता है, जो
जानते हैं कि कब पहरा बदलता है; जो
जानते हैं कि कौन-सी दीवाल बाहर से कमजोर हो गई है; जो जानते हैं कि किस कोने से
निकल जाने पर आसानी पड़ेगी; जो
जानते हैं कि दीवाल के किस हिस्से पर चढ़ जाना सुगम होगा, क्योंकि बाहर से घूम कर जेल
खाने को भली-भांति देख सकते हैं। तो आसानी हो जायेगी।
फिर
गुरजिएफ कहता है: अगर यह जो बाहर का आदमी है, कभी जेल में न आया हो, तो उतनी आसानी होगी। लेकिन अगर कोई कैदी जो जले में भी रह
चुका है और मुक्त हो गया है--अगर उससे तुम्हारा संबंध जुड़ जाए, तो बहुत आसानी हो जाएगी; उसे भीतर बाहर--सब पता है। वह
तुम्हारे बड़े काम का हो जायेगा।
सदगुरु
का इतना ही अर्थ है। तुम्हारी ही तरह वह भी कभी एक जेलखाने में था; अब वह बाहर हो गया है। उसे
भीतर का सब पता है; उसे
बाहर का भी सब पता है। वह स्वतंत्रता है। वह सब जांच-पड़ताल कर सकता है। वह भीतर
नक्शे पहुंचा सकता है कि कहां से निकलना सुगम होगा; समय बता सकता है कि किस समय
सुगम होगा;
कब
पहरेदार रात में सो जाते हैं। कौन सा क्षार कमजोर है। या किस पहरेदार को मिला लिया
गया है और दरवाजा खुला छोड़ दिया जायेगा रात। ये सारी व्यवस्थाएं हो सकती हैं।
सदगुरु
का अर्थ इतना ही होता है: जो संसार से उठ गया, और परमात्मा के साथ एक हो गया है; जो संसार की कारागृह के बाहर
है। उसके साथ संबंध जोड़ लो। और जिन मित्रों को मुक्त होने की आकांक्षा है, उनसे भी संबंध जोड़ लो।
इसलिए
दुनिया में सत्संग पैदा हुए। बुद्ध के हजारों लोग इकट्ठे हुए। महावीर के पास
हजारों लोग इकट्ठे हुए; सत्संग
बने
यहां
करोड़ों-अरबों कैदी हैं, लेकिन
मुक्त होने की उनकी काई आकांक्षा नहीं है। अगर तुम उसके साथ ही संग-साथ रखोगे, तो वे तुम्हें भी बंधनों की
नई तरकीबें सिखाये जायेंगे। वे कहेंगे: चलो, इस बार इलैक्शन में ही खड़े हो जाओ; कि चलो, एक नई दुकान खोल लो; कि इस धंधे में बड़ा लाभ है।
वे तुमसे वे ही बातें करेंगे जो वे कर सकते हैं। उनका कोई कसूर भी नहीं है।
वहां
पानी भी मत पीना--मलूकदास कहते हैं: उस देश को भी छोड़ देना उन लोगों से भी
धीरे-धीरे हटना।
भेष
फकीरी जे करैं,
मन
नहिं आवै हाथ। और बाहर-बाहर से न होगा। दिल फकीर जे हो रहे, साहेब तिनके साथ। भीतर-भीतर
की बात है। भीतर की बात है।
राम
राम के नाम को,
जहां नहीं
लवलेस।
पानी
तहां न पीजिए,
परिहरिये
सो देस।।
और अगर
तुम सत्संग में डूबने लगो, तो तुम
पाओगे;
परमात्मा
धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर प्रवेश पाने लगा।
आंगन
में नर्म नर्म फूटती उजास
और
हिलती है पंखुड़ी गुलाब की
मेंहदी
के पत्तों से देह रचे दिन
आंखों
में सुबवंती सामे
हलकी-सी
एक छुअन पल-छिन
गोरी
रातों सी पहचाने
पोर-पोर
रंगता है इतना मधुमास
और बात
गांठ खोल रही बात की
कुछ भी
अनहोना अब रहा नहीं
सारा
अपनापन तो अपना है
रंगों
के मेले में एक रंग
पत्थर
पर दूब का पनपना है
यह भी
क्या कुछ कम
इतना
विश्वास
और
साथ-साथ परछाई आपकी।
पहले
तो परमात्मा परछाई की तरह आयेगा; लेकिन
इतना क्या कम है! कुछ भी अनहोना अब रहा नहीं।...
तुमने
देखा--पत्थर पर उप गीत हुई दूब को कभी देखा? पत्थर पर दूब ऊग आती है, तो आदमी के हृदय पर परमात्मा
न ऊगेगा! यहां असंभव होता है।
कुछ भी
अनहोना अब रहा नहीं
सारा
अपनापन तो अपना है
रंगों
के मेले में एक रंग
पत्थर
पर दूब का पनपना है
यह भी
क्या कुछ कम
है
इतना विश्वास
और
साथ-साथ परछाई आपकी
आंगन
में नर्म-नर्म फूटती उजास
और
हिलती है पंखुड़ी गुलाब की
परमात्मा
धीरे-धीरे आने लगेगा, जैसे
उजास आती आंगन में और खिलने लगता गुलाब; ऐसे ही तुम भी खिलने लगोगे।
सत्संग
खोजो; साध-संग खोजो; फिर पता ही नहीं चलता--कब
परमात्मा तुम्हारे भीतर किस चुपके से प्रवेश कर जाता है।
इश्क सुनते थे जिसे हम, वह यही है शायद।
खुद-ब-खुद दिल में एक शक समाया जाता।।
आज इतना ही।
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