ल्यौ लागी तब जाणिये--प्रवचन—सातवां ,
दिनांक १७.७.१९७५, प्रातःकाल
श्री रजनीश आश्रम, पूना,
भगवान श्री, संत श्रेष्ठ दादूदयालजी की
वाणी हैं--
जोग समाधि सुख सुरति, सों, सहजै सहजै आव।
मुक्ता द्वारा महल का, इहै भगति का भाव।।
ल्यौ लागी तब जाणिए, जेवा कबहूं छूटि न जाइ।
जीवन यौं लागी रहे मूवा मंझि समाइ।।
मन ताजी चेतन चेढै, ल्यौ की करे लगान।
सबद गुरु का ताजना, कोई पहुंचे साधु सुजान।।
आदि अंत मध एक रस, टूटे नहिं धागा।
दादू एकै रहि गया, जब जाणै जागा।
अर्थ अनूपम आप है, और अनरथ भाई।
दादू ऐसी जानि करि, तासौं ल्यो लाई।।
भगवान
श्री हमारे लिए इसे बोधगम्य बनाने की अनुकंपा करें।
संसार
का गणित तथा सत्य का गणित न केवल भिन्न है बल्कि विपरीत थी। संसार में जो सीढ़ी है, वही सत्य में पतन हो जाता है।
संसार में जो सहारा है, सत्य
में वही बाधा हो जाती है। संसार में जिसके सहारे तुम सफल होते हो, सत्य में उसके ही कारण असफल
हो जाते हो।
और
जीवन की सारी शिक्षा-दीक्षा जीवन संसार में सफल होने की है। इसका अर्थ हुआ, कि परमात्मा में असफल होने का
पूरा आयोजन पूरा संस्कार तुम्हारे जीवन के चारों तरफ तैयार कर दिया जाता है। संसार
में सफल होना हो तो, संघर्ष
वहां सूत्र है;
समर्पण
वहां भूल;
संघर्ष
वहां सूत्र है। अगर समर्पण किया तो संसार में तुम कभी भी न जीत पाओगे। हारते ही
चले जाओगे। अगर संघर्ष किया तो ही जीतने की संभावना है।
लेकिन
कठिनाई और भी बढ़ जाती है। संसार में जीत भी जाओ तो जीत हाथ नहीं लगती। क्योंकि जीत
तो केवल सत्य की है। अगर संसार में जीतना हो, तो संघर्ष; लेकिन जीतकर तुम पाओगे, कि जीवन संघर्ष में व्यतीत
हुआ, पाया कुछ नहीं। जीतकर ही
पाओगे,
कि हार
गए। संसार में हारा हुआ आदमी तो हारता है; जीता हुआ भी अंत में पाता है, कि हार गया।
संसार
में कभी कोई जीता नहीं। लेकिन संसार का सूत्र संघर्ष है; हिंसा, वैमनस्य,र् ईष्या, द्वेष, लोभ, क्रोध-पूरी फौज है; वह संसार में सहारा देती है।
हम
प्रत्येक बच्चे को संसार के लिए तैयार करते हैं। वही तैयारी परमात्मा में बाधा बन
जाती है। तो जब तक तुम उस तैयारी को तोड़ने को राजी न हो जाओ तब तक परमात्मा का
द्वार जो कि सदा ही खुला हुआ है, तुम्हारे
लिए बंद रहेगा। वह तुम्हारे लिए बंद रहेगा। द्वार तो खुला ही हुआ है। लेकिन
तुम्हारी आंखों पर एक दीवाल है, उसके
कारण खुला द्वार भी दिखाई नहीं पड़ता।
एक
स्कूल में एक शिक्षक ने पूछा एक होटल-मालिक के बेटे से, कि पचास बाराती आए हो, तो जितनी दाल लगती है, तो यदि एक सौ पचास बाराती हों, तो उससे कितने गुना ज्यादा
दाल लगेगी?
उसके
बेटे ने कहा दाल तो उतनी ही लगेगी; सिर्फ मिर्च और पानी की मात्रा बढ़ानी पड़ेगी।
होटल मालिक का होनहार बेटा है। शिक्षित हो रहा है, दीक्षित हो रहा है।
संसार
में भरोसा भूल है। भरोसा किया कि भटके। संदेह सार है। संसार में मानकर ही चलना, कि सभी दुश्मन है, कोई मित्र नहीं। क्योंकि
जिसको भी मित्र माना वही से संसार में गिराव शुरू हो जाएगा। संसार को तो शत्रु
मानना। अगर किसी को मित्र कहो भी, तो कहना
भर; मानना कभी नहीं।
यही तो
कौटिल्य और मेक्यावली की शिक्षा है--किसी को मित्र मत मानना। मित्र को भी शत्रु की
तरह ही जानना,
ऊपर-ऊपर
मित्रता दिखाना,
भीतर
शत्रुता मानना। क्योंकि अगर मित्र मान लिया, तो भरोसा कर लिया। जिसका भरोसा किया, वही धोखा देगा।
ठीक
उलटी शिक्षा है जीसस की, शत्रु
को भी मित्र मानना। तो जिसने पहली शिक्षा में काफी पारंगत कुशलता पा ली है, उसे दूसरी शिक्षा बड़ी मुश्किल
हो जाएगा। सत्य की तरफ जाना हो तो श्रद्धा चाहिए। संसार की तरफ जाना हो तो जितनी
ज्यादा संदिग्ध मन की दशा हो, उतना
ही सहयोगी है। और संसार के लिए हम तैयार करते हैं।
तो
अश्रद्धा का तो हमारे पास बड़ा निष्णात, कुशल आयोजन होता है। श्रद्धा का कोई अंकुर
भी नहीं होता। इसलिए जब हम परमात्मा की तरफ भी मुड़ते हैं, तो वही शंकालु हृदय लेकर
मुड़ते हैं,
जो
संसार में काम आता था। फिर वही बाधा बन जाता है। द्वार तो सदा खुला है उसका। अगर
बंद है,
तो
तुम्हारा हृदय बंद है। आंख बंद है।
मुल्ला
नसरुद्दीन की पत्नी डाक्टर के पास गई थी। बीमार थी। वह उसे भीतर के कक्ष में ले
गया, जहां जांच-पड़ताल करेगा। टेबल
पर लेटते वक्त उसने कहा, एक बात; इसके पहले की बात मेरी जांच
करें, नर्स को भीतर बुला लें।
डाक्टर
थोड़ा नाराज हुआ। उसने कहा, क्या
मतलब? क्या मुझ पर तुम्हारा भरोसा
नहीं?
मुल्ला
नसरुद्दीन की पत्नी ने कहा, कि आप
पर तो पूरा भरोसा है। बाहर बैठे मेरे पति पर भरोसा नहीं। नर्स को भीतर ही बुला
लें। पति और नर्स बाहर अकेले छूट गए हैं।
प्रतिपल--जिन
से तुम्हारा प्रेम है और जिन से तुम कहते हो, कि हमारा प्रेम है, उन पर भी भरोसा नहीं।
संसार
में प्रेम पाप है,
घृणा
गणित है। और यही तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा है; इसकी ही पर्त दर पर्त तुम्हारे चारों तरफ
जमी है। इसलिए जब तुम किसी दिन संसार में थककर परमात्मा के द्वार पर दस्तक देते हो, दस्तक व्यर्थ चली जाती है।
क्योंकि द्वार तो बंद ही नहीं है; द्वार
तो खुला ही है। तुम जिस पर दस्तक दे रहे हो वह तुम्हारी ही खड़ी की हुई दीवाल है।
तुम अपनी ही दीवाल पर दस्तक दे रहे हो। परमात्मा का द्वार बंद कैसे हो सकता है? तुम्हारा ही संस्कारों का जाल
तुम्हें चारों तरफ से घेरे है। तुम ही गलत हो गए हो।
और जब
तब यह गलत होना ठीक न हो जाए तब तक लाख सिर पटकें दादू, कबीर, तुम्हें लगे भी कि तुम समझ गए, फिर भी तुम समझ न पाओगे।
तुम्हारी समझ भी कोई काम न आएगी। क्योंकि तुम्हारी जो जीवन-स्थिति है, जो ढांचा तुमने बना लिया है, वह मूलतः सत्य-विरोधी है।
इसे
ठीक से समझ लो। इसीलिए जीसस ने कहा है कि जब तक तुम पुनः बच्चों की भांति न हो जाओ, तब तक तुम प्रभु के राज्य में
प्रवेश न पा सकोगे। क्या मतलब है, पुनः
बच्चों की भांति न हो जाओ? सीधा-सा
मतलब है,
उस दशा
में न पहुंच जाओ जहां संसार और समाज और संस्कृति ने तुम्हें प्रभावित नहीं किया था; उस पूर्व दशा में न पहुंच जाओ, जहां तुमने कुछ भी सीखा न था, जहां संसार का जहर तुम्हारे
भीतर प्रविष्ट न हुआ था, जहां
तुमने संसार का अनुभव न किया था, उस दशा
में तुम जब तक न पहुंच जाओ, तुम जब
तक पुनः कुंआरे न हो जाओ।
संसार
में तुम्हें व्यभिचारी कर दिया है। जब तक तुम फिर से वापस उस प्राथमिक सरलता को न
पा लो,
तब तक
तुम प्रभु के राज्य में प्रवेश न पा सकोगे। और तुम बहुत जटिल हो गए हो। तुम बहुत
चालाक हो गए हो। तुम बहुत हिसाबी-किताबी हो गए हो। तुम बहुत हिसाबी-किताबी हो गए
हो। तुमने दुकान की भाषा सीख ली, प्रेम
का हिसाब ही तुम्हें भूल गया। तुम प्रेम से अपरिचित ही हो गए हो, और तुम प्रार्थना करने आ जाते
हो।
प्रार्थना
करने आना तो ऐसा है, उस
व्यक्ति का,
जो
प्रेम से अपरिचित हो गया, जैसे
कोई व्यक्ति लकवे से लगा पड़ा हो, चल भी
न सकता हो और दौड़ने के इरादे कर रहा हो। तुम चल भी नहीं सकते हो, दौड़ोगे कैसे?
तुम
प्रेम भी नहीं कर सकते; तुम
प्रार्थना कैस करोगे? तुम
किसी व्यक्ति के लिए भी अपना हृदय नहीं खोल सकते, तुम समष्टि के लिए कैसे अपना
हृदय खोलोगे?
एक के
लिए नहीं खोल सकते, अनंत
के लिए कैसे खोलोगे?
यह
पहली बात खयाल में ले लें, तब ये
सूत्र बहुत आसान हो जाएंगे। अन्यथा समझना मुश्किल होगा। और वह बात यह है कि यहां
परमात्मा के द्वार पर श्रद्धा सहयोग है, संदेह बाधा है। भरोसा, अनन्य भरोसा, अनंत भरोसा यहां द्वार है।
जरा-सा शक,
जरा-सा
संशय--द्वार बंद हो जाता है; दीवार
है। फिर द्वार नहीं। यहां सरलता, चालाकी
नहीं; होशियारी नहीं, सरलता, निर्दोषता, सहयोगी है। तुम्हारी होशियारी, तुम्हारी कुशलता संसार में
पाई गई तुम्हारी उपाधियां संसार में उपाधियां होंगी, बड़ा उनका सम्मान होगा, यहां वे उपाधियां हैं, बीमारियां हैं। यह उपाधि शब्द
बड़ा अच्छा है। इसके दो अर्थ होते हैं। एक तो अर्थ होता है सम्मानित पद, और दूसरा अर्थ होता है
बीमारी। सब पद बीमारियां हैं। सब उपाधियां, उपाधियां हैं।
संसार
में तुम्हारी जो ऊंचाइयां हैं, वही
परमात्मा के जगत में तुम्हारी नीचाइयां हैं। संसार के जो शिखर हैं, वही परमात्मा के जगत में
अंधेर खाइयां हैं। संसार में जो तुम्हारी उपलब्धि है, परमात्मा के जगत में वही
तुम्हारी अपात्रता है।
मैंने
सुना है,
एक झेन
फकीर के द्वार पर एक दिन जापान का गवर्नर मिलने आया। उसने अपना कार्ड भेजा, अपना नाम लिखा। नीचे लिखा, "गवर्नर ऑफ टोकियो' टोकियो का गवर्नर।
जिस
शिष्य को द्वार पर खड़े होने की डयूटी थी, वह कार्ड लेकर भीतर गया। गुरु ने कार्ड देखा
और कहा,
फेंको।
भगाओ, इस आदमी को। यहां इसकी क्या
जरूरत है,
हटाओ
इस आदमी को। शिष्य आया और उसने कहा, गुरु ने कहा है, हटाओ इस आदमी को। यह द्वार
इसके लिए बंद है। यहां इसकी क्या जरूरत है?
गवर्नर
निश्चित ही बहुत समझदार रहा होगा। गवर्नरों से इतने समझदार होने की आशा की नहीं जा
सकती। बड़ा अनूठा रहा होगा। साधारणतः यह होता नहीं। गवर्नर होते-होते आदमी बिलकुल
गधा ही हो जाता है। वह यात्रा ऐसी है। अरब में एक कहावत है कि गधे घोड़े नहीं हो
सकते; लेकिन गवर्नर हो सकते हैं।
पर यह
गवर्नर अनूठा रहा होगा। बड़ा प्रतिभा-सजग। तत्क्षण समझ गया। कार्ड वापिस लिया, गवर्नर आफ टोकियो काट लिया, कार्ड वापिस दिया कहा, एक बार और कृपा करो, इसे वापिस ले जाओ।
गुरु
ने देखा कहा,
अरे!
यह है। बुलाओ भीतर। हम समझे गवर्नर हैं। गवर्नर की यहां क्या जरूरत है? यह तो अपने पुराने परिचित है, आने दो।
परमात्मा
के मार्ग पर तुम्हारी उपाधियां, तुम्हारी
सफलताएं,
तुम्हारा
नाम यश,
सभी
पत्थर की दीवालें बन जाते हैं। उन्हें तुम छोड़कर ही जाना, तो ही जा सकोगे। अगर उनको ले
जाने का मन हो,
तो
जाने का खयाल ही छोड़ दो। तुम अपने घर भले, परमात्मा अपने घर भला। नाहक झंझट न करो। अभी
संसार को और जी लो। अभी बीमारियों में रस है, थोड़े और बीमार रह लो। कोई जल्दी भी नहीं
अनंत काल पड़ा है,
लेकिन
ठीक से मुक्त हो जाओ संसार से, तो ही
तुम परमात्मा की तरफ चल पाओगे। जरा-सा भी रस वहां लगा रहा।
मुक्त
होने का यह अर्थ मत समझ लेना कि भाग जाओ जंगल में। जो भी भगोड़े हैं, वे तो भागते ही इसीलिए हैं
क्योंकि मुक्त नहीं है। मुक्त ही हो गए होते तो भागना कहां है? भागना किससे है? भागकर जाओगे भी कहां? जहां भी जाओगे, वही संसार है। और जहां भी
जाओगे,
कम से
कम तुम तो वही रहोगे। भागना कहीं भी नहीं है, सिर्फ जागना है। भागो नहीं, बदलो। और बदलने का केवल मतलब
इतना है,
कि सोए
से जागो। व्यर्थ का समझो, असार
को देखो,
सार को
पहचानो।
कहते
हैं दादू:
जोग
समाधि सुख सुरति सौ, सहजै
सहजै आव।
बड़ा
अनूठा वचन है।
मुक्ता
द्वार महल का,
यह है
भगति का भाव।
जीसस
कहते हैं,
खटखटाओ, द्वार खुलेंगे, मांगी, मिलेगा।
दादू
जीसस से भी गजब की बात कह रहे हैं। वे कहते हैं--मुक्ता द्वारा महल का। यह द्वार
तो खुला ही है,
मुक्त
है खटखटाओगे कहां?
मांगना
क्या है?
मिला
ही हुआ है। परमात्मा दूर थोड़े ही है! सामने खड़ा है। परमात्मा तुमसे भी ज्यादा
तुम्हारे पास है।
मुक्ता
द्वारा महल का,
है
भगति का भाव।
भक्त
का तो यही भाव है,
कि
द्वार खुला है। इसे खोलना भी नहीं है। खोलने का भी जरूरत नहीं है। खोलने का भी
यत्न करना पड़े,
तो
अहंकार आ जाएगा। तुम यत्न करोगे, तुम्हारा
अहंकार मजबूत हो जाएगा।
तुम
कुछ करोगे;
तुम्हारे
करने से परमात्मा नहीं मिलता है। तुम जब न करने की दशा में होते हो, तभी मिलता है। तुम जब बिलकुल ही
शांत अकर्म ही अवस्था में होते हो, तभी मिलता है। तुम तो खोलने को कोशिश भी, खटपट करोगे तो चिंता पैदा
होगी। इसलिए अक्सर यह हो जाता हैं, जो परमात्मा का दरवाजा खोलने को बहुत ज्यादा
चिंता बना लेते हैं, उनका
दरवाजा सदा के लिए भटक जाता है।
ऐसा
हुआ एक बहुत अदभुत जादूगर हुआ: हुदिनी। और उसके जीवन में उसने बड़े चमत्कार किए, जैसा की कोई दूसरा जादूगर कभी
नहीं कर पाया है। और वह आदमी बड़े गजब का आदमी था। और उसने सदा यह स्वीकार किया है
कि ये सिर्फ हाथ की सफाईयां हैं। उसने कभी धोखा न दिया। उसने ऐसी हजारों बातें कीं, कि जिनको अगर वह चाहता तो
दुनिया का सबसे बड़ा अवतारी पुरुष हो जाता। तुम्हारे साईबाबा इत्यादि सब फीके हैं, दो कौड़ी के हैं। हुदिनी की
कला बड़ी अनूठी थी। दुनिया में ऐसा कोई ताला नहीं है, जो उसने सेकेंड में न खोल
दिया हो। उसके ऊपर जंजीरें बांधी गई, हथकड़ियां बांधी गई, पानी में सागर में फेंका गया।
सेकेंड न लगे और वह बाहर आ गया, सब
जंजीरें अलग। जेलखानों में डाला गया; इंग्लैंड के जेलखानों में, अमेरिका के जेलखानों में, स्पेन के जेलखानों में, सख्त से सख्त जहां पहरा है, क्षणभर बाद वह बाहर खड़ा है।
कोई समझ नहीं पाए,
कि वह
कैसे बाहर आता?
क्या
होता? उसने सब व्यवस्था तुड़वा दी।
लेकिन उसने कभी कहा नहीं, कि मैं
कोई सिद्ध पुरुष हूं। उसने इतना ही कहा, कि सब हाथ की सफाई है।
लेकिन
एक बार वह मुश्किल में पड़ गया। फ्रांस में पेरिस में वह प्रयोग कर रहा था। सारी
दुनिया में वह सफल हुआ, वहां
आकर हार गया। एक जेलखाने में उसे डाला गया, जहां से उसे निकलकर आना था। जिंदगीभर में वह
बड़े से बड़े जेलखानों से निकल गया। और ऐसी भी जंजीरें हो, उसने खोल लीं बिना किसी
चाबियों के। क्या थी उसकी कला, बड़ा
कठिन है कहना। और कभी उसने दावा किया नहीं, कि मैं कोई चमत्कारी हू, या कोई ईश्वरी व्यक्ति हूं, कुछ भी नहीं।
मगर
वहां वह हार गया। जो आदमी तीन सेकेंड में बाहर आ जाता और ज्यादा से ज्यादा तीन
मिनट लेता,
उसको
तीन घंटे लग गए और वह बाहर न आया। लोग घबड़ा गए। बाहर हजारों लोगों की भीड़ थी
देखने। क्या हो गया?
मामला
यह हुआ कि मजाक की थी पुलिस अधिकारियों ने। ताला लगाया ही न था, दरवाजा खुला छोड़ दिया था; और वह ताला खोज रहा था। ताला
हो तो खोल ले। ताला था नहीं वह घबड़ा गया। उसे यह खयाल भी न आया घबड़ाहट में कि
दरवाजा सिर्फ अटका है। वह इतना परेशान हो गया कि ताला छिपा कहां है? कहीं न कहीं ताला होगा। सब
कोने-कातर छान डाले। कमरे के दूसरी तरफ छान डाला। हो सकता है, कोई धोखे का दरवाजा लगा है जो
दिखाई न पड़ता हो दरवाजा और वह यह दरवाजा न हो। दीवाल का कोना-कोना छान गया लेकिन
कहीं कोई ताला हो,
तो मिल
जाए। और जब ताला ही न हो, तो
तुम्हारे पास कोई भी चाबी हो, तो
क्या खाक काम आएगी?
तीन
घंटे बाद भी वह न निकलता। निकलने का कारण तो यह हुआ, कि वह इतना थक गया और
पसीने-पसीने हो गया, कि
बेहोश होकर गिर पड़ा। धक्का लगने से दरवाजा खुल गया। वह बाहर पड़े थे। पहली दफा
जिंदगी में वह असफल हुआ। मजाक के सामने जादू हार गया।
कारण? कारण वही है, जो हर आदमी की जिंदगी में घट
रहा है। तुम परमात्मा के दरवाजे पर अगर हार रहे हो, तो कारण यह है, कि तुम ताला खोज रहे हो। और
ताला वहां है नहीं।
मुक्ता
द्वार महल का--उस महल का द्वार मुक्त है, खुला है। अटका भी नहीं है। उतनी भी जरूरत
नहीं है कि तुम बेहोश होकर गिरो, धक्का
लगे, जब कहीं द्वार खुले। दरवाजा
खुला ही है।
जोग
समाधि सुख सुरति सों, सहजै
सहजै आव।
और
इतनी सहजता से परमात्मा में प्रवेश हो जाता है, कि तुम नाहक ही बड़े जतन कर करके अपने को थका
रहे हो,
पसीना-पसीना
कर रहे हो। कोई शीर्षासन लगाए खड़ा है, कोई उल्टी-सीधी कवायद कर रहा है, कोई योग साध रहा है, कोई नाक बंद किए, श्वास को रोके हुए है, कोई कानों में उंगलियां डाले
हुए है,
कोई
आंखों को दबाकर प्रकाश देख रहा है।
हजार
तरह की नासमझियां,
सारे
संसार में प्रचलित हैं। वे सब कुंजियां हैं खोलने की उस ताले को, जो ताला है ही नहीं; उस द्वार को खोलने के उपाय, जो खुला ही है। तुम्हारे उपाय
ही तुम्हारे हार को खुलने न देंगे।
भक्ति
सहज मार्ग है। सहज का अर्थ होता है, जहां कुछ भी न करना पड़े, अपने से हो जाए।
जोग
समाधि--वह जो योग की समाधि है, वह जो
योग का परम समाधान है, जहां सभी
समस्याएं गिर जाती हैं, सभी
प्रश्न तिरोहित हो जाते हैं, जहां
मात्र समाधान का संगीत बजने लगता है, जहां एक का स्वर गूंजने लगता है।
जोग
समाधि-- वह जो योग की समाधि है; योग का
अर्थ होता है,
मिलन
जहां व्यक्ति समष्टि से मिलता है, जहां
कण अनंत से मिलता है, जहां
बूंद सागर से मलती है, वह घड़ी
है योग। जहां तुम मिटोगे और परमात्मा से मिलोगे, वह आलिंगन है योग। जोग समाधि; इधर मिले कि सब समस्याएं गई।
मिले नहीं,
कि
समस्याएं मिटी नहीं।
समस्याओं
की समस्या एक ही है--वह तुम हो। तुम्हारे कारण ही सारी समस्या है। तुम्हारे अहंकार
के कारण ही सारी समस्याएं पैदा हुई हैं। वह तुमने पैदा की है, वह तुम से पैदा हुई है। तुम
सारी समस्याओं के केंद्र हो। मिले, तुम मिटे। क्योंकि मिलन का अर्थ ही यह है कि
जब तक मिटो न,
तब तक
मिलोगे न। बूंद अगर सागर से मिलेगी, तो मिलने के ही क्षण में मिट जाएगी। मिटने
की तैयार होगी,
तो ही
सागर की तरफ जाएगी। नहीं तो दूर-दूर भागेगी।
जोग-समाधि; वह मिलन जब घटता है, तब सब समाधान हो जाता है।
करोड़ों करोड़ों जन्मों में न मालूम कितने प्रश्न और समस्याएं उठी थीं; उस मिलन के क्षण में उठती ही
नहीं। चाहा होगा तुमने कि परमात्मा अगर मिलेगा तो पूछ लेंगे। हजार तरह के प्रश्न
तुम्हारे मन में उठते हैं। लेकिन जिस दिन परमात्मा मिलेगा उस दिन पूछने को कोई
प्रश्न न बचेगा,
उस दिन
तुम अचानक पाओगे,
कि
प्रश्न है ही नहीं; जीवन
निष्प्रश्न है।
जीवन
में कोई प्रश्न नहीं है। प्रश्न तुम्हारी चिंताओं से पैदा होते हैं। जीवन में
प्रश्न है ही नहीं। जीवन तो एक रहस्य है, एक रस है। भोगो, पूछो मत। पूछे, कि चूके। क्योंकि जैसे ही
पूछना तुमने शुरू किया, तुमने
भोगना बंद कर दिया। तुम जीवन के रस का स्वाद नहीं लेते; अब तुम पूछ रहे हो। और पूछने
का कोई अंत नहीं है। पूछने से पूंछ बढ़ती ही चली जाती है। प्रश्न बड़े ही होते चले
जाते हैं। एक प्रश्न पूछो, उत्तर
मिल भी नहीं पाता,
कि दस
प्रश्न खड़े हो जाते हैं। ऐसी शाखा प्रशाखाएं फैलने लगती हैं।
अस्तित्व
में कोई प्रश्न नहीं है। अस्तित्व तो उनके लिए है, जो निष्प्रश्न होकर जीना जानते
हैं।
जोग
समाधि का अर्थ है--समाधि शब्द का अर्थ बड़ा अर्थपूर्ण है। उसका अर्थ होता है, परिपूर्ण समाधान। जहां पूछने
को कुछ न बचा,
सब
शांत हो गया। तुम खोजो भी प्रश्न, तो
मिलते नहीं।
बुद्ध
के पास कोई भी आता तो वे यही कहते थे, एक साल रुक जाओ। जो भी पूछना हो, पूछ लेना। सभी प्रश्नों के
जवाब दूंगा,
अभी
भाग नहीं जा रहा हूं कहीं। लेकिन एक वर्ष रुक जाओ। एक वर्ष जो मैं कहूं, वह तुम कर लो। फिर तुम जो
पूछोगे मैं जवाब दूंगा।
एक
वर्ष बीत जाता। अगर व्यक्ति इतना रुकने को राजी हो जाता, और बुद्ध जो कहते, करने को राजी हो जाता; बहुत से तो लौट जाते, कि जो आदमी हमारे सवालों का
जवाब ही नहीं दे सकता उसके पास रहने का क्या सार है? जो हमारे प्रश्न हल नहीं कर
सकता, उसके पास समय क्यों बरबाद
करें? बहुत से लौट जाते। बहुत से
सोचते,
कि
बुद्ध को पता नहीं, इसलिए
उत्तर नहीं देते। बहुत से सोचते, कि यह
बुद्ध कोई ज्ञानी नहीं है, क्योंकि
ज्ञानी तो सदा ही उत्तर दे देते हैं; यह चुप क्यों है?
लेकिन
जो रुक जाते,
जो
हिम्मतवर होते,
जो
जीने को राजी होते, जो
बुद्ध के इशारे पर चलने को राजी होते, रुक जाते। साल बीत जाता, बुद्ध उनसे पूछते, कि अब तुम पूछ लो। तो वे
हंसते और कहते,
कि
आपने धोखा दे दिया। अब तो पूछने को कुछ न बचा। आपकी मानकर शांत होते गए, शांत होने के साथ-साथ प्रश्न
भी झड़ गए;
जैसे
पतझड़ में पत्ते झड़ जाते हैं। अब कोई प्रश्न नहीं उठता।
तो
बुद्ध कहते अगर उस दिन, जिस
दिन तुम पूछने आए थे, मैं
जवाब देता,
तो हर
जवाब के बाद प्रश्न उठते चले जाते। कोई अंतर न आता। आज प्रश्न नहीं उठता, मैं जवाब देने को तैयार हूं; और तुम पूछने को तैयार नहीं।
तब तुम पूछने को तैयार थे, मैं
जवाब देने को तैयार नहीं था।
जिसने
पूछा, वह कितना ही सोचने में उतर
जाए, लेकिन जितना तुम सोचोगे, अस्तित्व से उतना ही दूर निकल
जाते हो। अपने पास आना है, तो
विचार को छोड़ना है, खोना
है, विचार को शांत हो जाने देना
है। ऐसी लहर बन जाओ जहां कोई लहर न उठती हो। ऐसी शांत झील बन जाओ, जहां कोई लहर न उठती हो जहां
कोई कंपन न उठता हो प्रश्न का; उस
अवस्था का नाम समाधि है।
जोग
समाधि,
सुख
सुरति सों।
और यह
कैसे घटेगी जोग समाधि? यह
समाधान कैसे आएगा?
कैसे
प्रश्नों के पार तुम उठोगे? कैसे
विचारातीत होओगे?
कैसे
होगा अतिक्रमण मन का? कैसे
अमनी दशा पदा होगी? कैसे
नो-माइंड की शुरुआत होगी?
सूत्र
है, सुख सुरति सों। सुखपूर्वक
स्मरण को साधो। मगर बड़ी साफ बात है--सुख पूर्वक। दुख देने की चेष्टा मत करना अपने
को। अन्यथा ऐसा रोज हो रहा है।
दुनिया
में दो तरह के दुष्ट हैं। एक, जो
दूसरों को सताते हैं; दूसरे, जो खुद को सताते हैं। दोनों
दुष्ट हैं। पहले तरह के दुष्टों को तो तुम पकड़ लेते हो, दूसरे तरह के दुष्टों की तुम
पूजा करते हो। दूसरे तरह के दुष्ट ज्यादा कुशल है। तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी
दूसरे प्रकार के दुष्ट हैं, हिंसक
हैं।
इसे
तुम समझो। यह सीधी सी बात है। अगर तुम किसी दूसरे आदमी को भूखा मारो, सारे लोग कहेंगे, कि यह आदमी दुष्ट है। और तुम
खुद उपवास करो,
सब
कहेंगे,
यह
आदमी बड़ा त्यागी है।
अब यह
बड़े मजे की बात है। बात वही ही वही है। इसमें तुम अपने को भूखा मार रहे हो, तो तुम त्यागी। और दूसरे को
भूखा मारे तो तुम दुष्ट। अगर उपवास से लाभ होता है तो सभी को भूखा मारो। लोगों को
तुम्हारी प्रशंसा करनी चाहिए, कि यह
आदमी अकेले ही उपवास नहीं कर रहा है, कई को करवा रहा है।
जो
आदमी दूसरे को सताए, उसे हम
हिंसक और पापी कहते हैं। हिटलर, सिकंदर
मालूम पड़ते हैं--दूसरों को काटते हैं मारते हैं। लेकिन जो अपने को काटते हैं, मारते हैं, उन्हें तुम सिर पर उठाए घूमते
हो। कांटों पर सोए हैं, तुम
उनके चरणों पर सिर रखते हो, क्योंकि
कैसा महातपस्वी है। कांटों पर सो रहा है। यह दुष्ट है, हिंसक है। कुछ फर्क नहीं है, उसकी हिंसा अपने पर लौट आई
है।
मनोविज्ञान
दो तरह की हिंसाएं मानता है। और मनोविज्ञान की इस संबंध में सूझ बहुत साफ है। और
दुनिया में आने वाले भविष्य में धर्म को इस बात को समझ ही लेना होगा। नहीं तो धर्म
वास्तविक धर्म नहीं हो पाता। मनोविज्ञान कहता है, दो तरह के हिंसक लोग हैं।
एक, जिसको मनोविज्ञान कहता है, सेडिस्ट; जो दूसरों को सताने में रस
लेते हैं। दी सादे हुआ फ्रांस में एक बहुत बड़ा लेखक; उसके नाम पर सैडिजम पैदा हुआ।
क्योंकि वह सताता था दूसरों को; वही
उसका रस था। कि वह जिन स्त्रियों को प्रेम करता था, उनको भी द्वार-दरवाजे बंद
करके कोड़ों से मारता था, लहू-लुहान
कर देता था। वह जब प्रेम करने आता था तो ऐसे आता था, जैसे डाक्टर एक बैग लेकर आता
है। उसके बैग में सब चीजें होती थीं--कोड़ा, कांटे, चुभाने के लिए लोहे के नाखून, कि वह हड्डी, मांस, मज्जा, में भीतर चला जाए। वह पीटता, मारता, सताता। स्त्री चीखती, चिल्लाती; पुकारती। वही उसका आनंद था, फिर वह प्रेम करता।
थोड़ी
बहुत ऐसी हिंसा तुम भी अपने में पाते होओगे। तुमने अगर किसी स्त्री को प्रेम किया
है, तो कभी तुमने उसके शरीर को
काट भी लिया है। तब उसमें थोड़ी हिंसा है। दी सादे का थोड़ा-बहुत परिमाण तुम में भी
है।
अगर
तुम वात्स्यायन का कामसूत्र पढ़ो, तो
वात्स्यायन कहता है, प्रेम
की अनेक विधियों में नख-छेदन, स्त्री
में नख से लहू-लुहान कर देना। तो अपने नख से करो, कि लोहे के नख से करो। वह
थोड़ा टेक्निकल है। और तो कोई खास मामला नहीं है। वह ज्यादा होशियार है। नख भी क्या
उलझाओ अपना?
और
लोहे से जो काम ज्यादा ठीक से हो सकता है, वह नख से उतने ठीक से हो न पाएगा।
लेकिन
वात्स्यायन कहता है, कि नख
से छेदो,
दांत
से काटो। ये प्रेम के लक्षण हैं। तो फिर घृणा का लक्षण और क्या होता है? आमतौर से अगर तुम किसी जोड़े
को प्रेम करते देखो, शायद
इसीलिए जोड़े अंधेरे में प्रेम करते हैं, छिप कर, कि कोई देख न सके। अगर तुम देखो, तो तुम पाओगे, कि उनके प्रेम में लड़ाई जैसा
तत्व ज्यादा है। शायद इसीलिए स्त्रियां आंखें बंद कर लेती हैं प्रेम करने के क्षण
में, कि कौन देखे झंझट! वह पुरुष
जो है,
भयानक
मालूम होता है;
जैसे
कि जान ले लेगा।
सेडिजम
पैदा हुआ है सादे के नाम पर। उसका अर्थ है, दूसरे के दुख में सुख, पर-दुखवादी।
दूसरा
एक लेखक हुआ है,
उसका
नाम है मैसोच। वह स्व-दुखवादी था। उसके नाम पर मैसोचिस्ट शब्द बना, कुछ लोग हैं, जो अपने को सताते हैं। वह
अपने को ही सताता था। कोड़े खुद को ही मारता था, छाती पीटता था, लहू-लुहान कर लेता था--अपने
को ही! और उससे कहता था, बड़ा रस
आता है।
दुनिया
में ये दो तरह के लोग हैं। और दूसरे तरह के आदमी ने, वह मैसोचिस्ट जो आदमी
है--स्वयं को सताने वाला, उसने
बड़ा धोखा दिया है धर्म के नाम पर। वह उपवास करता है, कांटों पर सोता है, उसने क्या क्या नहीं किया? तुम हैरान होओगे; उसने आंखें फोड़ ली हैं, जननेद्रियां काट दी हैं, और उसको पूजा मिली है, आदर मिला है। वह आत्महत्या
करता है। जिसको तुम तपश्चर्या कहते हो, वह उसका आत्मघात है--धीमा-धीमा।
और
स्मरण रहे,
जो
दूसरों को दुख देता है, वह तो
थोड़ा हिम्मतवर भी है, इसीलिए
दूसरे को दुख देता है। क्योंकि दूसरे को दुख देना जरा झंझट है। दूसरा कुछ ऐसे ही
नहीं बैठा रहेगा। कुछ भी करेगा ही। इसीलिए डर है, कि दूसरा तुम्हें सता सकता
है। अगर मजबूत हुआ तो तुम्हें सताएगा ही। लेकिन जो कायर है, वे अपने को सताते हैं। डर भी
नहीं है कोई। खुद को सताओगे, तो
बदला लेने को भी कोई नहीं है, प्रतिशोध
करने को भी कोई नहीं है।
तो
दुनिया में जो थोड़े हिम्मतवर हैं, वे
दूसरों को सताते हैं। जो कायर हैं, कमजोर हैं, वे खुद को सताते हैं। और ये
कायर तुम्हें संत मालूम होते हैं।
नहीं; दादू कहते हैं, सुख सुरति सौ। जानने वाले तो
कहते हैं,
कि सुख
से पाया जाता है। दुख की कोई जरूरत ही नहीं। न दूसरे को देने की जरूरत है न खुद को
देने की जरूरत है। दुख से परमात्मा का क्या लेना-देना? सुख सुरति सौ। वह तो सुख की
ही भावदशा से उत्पन्न होगा। और इसमें अर्थ भी मालूम पड़ता है क्योंकि वह महासुख है।
दुख देने से कैसे उपलब्ध होगा? दुख
देने से तो और दुख उपलब्ध होगा। दुख का अभ्यास करोगे, तो नर्क जाओगे; स्वर्ग कैसे जाओगे?
स्वर्ग
का अगर अभ्यास करना हो, अगर
जाने की तैयारी करनी हो, तो सुख
में लीनता साधनी चाहिए, सुख की
कुशलता साधनी चाहिए। दादू ठीक कहते हैं, सुख सुरति सी। सुख को साधो।
सुख को
साधने का मतलब यह नहीं है कि सुख के पीछे दौड़ो। क्योंकि जो दौड़ता है, वह तो सुख को कभी पाता नहीं।
सुख को अगर साधना है, तो एक
ही रास्ता है--सुरती सौ। जागो! स्मरण पूर्वक जीयो।
सुरति
संस्कृत के स्मृति शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है; लेकिन बिगड़कर शब्द बड़ा मधुर हो गया है। कई
बार ऐसा हो जाता है। स्मृति में तो थोड़ी सी धार है, सुरति में बड़ी गोलाई है।
स्मृति शब्द तो बड़ी चोट करता है, सुरति
मिठास की तरह हृदय में उतर जाता है। बहुत बार ऐसा होता है, कि पंडितों के शब्द जब
लोक-भाषा में आ जाते हैं, तब बड़े
प्यारे हो जाते हैं। स्मृति पंडितों का शब्द है। सुरति गैर पढ़े-लिखे लोगों का।
मतलब वही है,
लेकिन
मतलब गहन हो गया। स्मृति से तो एक चोट लगती मालूम पड़ती है। धार है, शब्द में पैनापन है। सुरति
में धार नहीं है,
गोलाई
है, माधुर्य है।
सुख
सुरति सौ--सुखपूर्वक परमात्मा का स्मरण साधो। जोग समाधि उपलब्ध होगी। सुख से जीने
का अर्थ है,
दुख को
पालो-पोसो मत।
मैं
देखता हूं,
मेरे
पास रोज लोग आते हैं। जब वे अपनी दुख की कथा कहते हैं, तो मुझे सदा ऐसा लगता है कि
उस दुख की कथा कहने में भी बड़ा रस ले रहे हैं। अगर दुख की कथा न होती, तो कहने को उनके पास कुछ भी न
होता। उनके चेहरे पर देखो, तो एक
रौनक आ जाती है जब वे दुख की कथा कहते हैं। और दुख की कथा वह बढ़ा-बढ़ाकर कहते हैं।
जितना दुख उन्होंने पाया नहीं, उतना
बनाकर बताते हैं। खुद भी भरोसा करते होंगे, कि इतना ही पाया।
अगर
तुम ऐसे आदमियों के दुख पर भरोसा न करो और टालने की कोशिश करो, तो वे और भी दुखी हो जाते
हैं। अगर उनको कहो, कि ये
सब तुम्हारे मानसिक खयाल हैं, तो
उनको बड़ी चोट पहुंचती है। दुख में उन्हें बड़ा रस है। वे दुख कहकर तुमसे सहानुभूति
मांग रहे हैं। वे कहते हैं, कि
थपथपाओ हमारे सिर को जरा। आशीर्वाद दो। हम बड़े दुखी हैं। जैसे दुखी होना बड़ी
गुणवत्ता है! जैसे दुखी होना बड़ी पात्रता है, कि आप बड़ी योग्यता लेकर आए हैं! दुखी होना
तो कोई योग्यता नहीं है। दुखी होना तो सिर्फ मूढ़ता है।
और
इसको नियम मान लो कि अगर तुम दुखी हो, तो तुम्हारी ही भूल होगी। तुम संसार को
ठहराते हो,
कि
संसार दुखी कर रहा है। कोई किसी को दुखी कर नहीं सकता। तुम्हें संसार दुखी करता
मालूम पड़ता है,
क्योंकि
तुम दुखी होना चाहते हो। तुम बहाने खोज लेते हो। और उन बहानों को तुम इकट्ठा करते
रहते हो और फिर तुम दुखी हो जाते हो। फिर दुख को तुम छोड़ने को भी राजी नहीं। फिर
दुख से तुम चिपटते हो, जैसे
वह संपदा है। दुख को बहुत लोगों ने संपदा बना लिया है। उनके ही सहारे जीते हैं; नहीं तो जीएंगे कैसे? अगर दुख न होगा तो इनके जीवन
की कथा ही बंद हो जाएगी। उनकी आत्मकथा ही खो जाएगी। दुख से ही अपना ताना-बाना
बुनते हैं। और दुख में एक तरह का रस लेते हैं।
वह रस
वैसा ही है,
जैसे
कोई खाज को खुजलाता है। खाज हो जाए तो तुम जानते हो, कि खुजलाने से और पीड़ा होगी, लहू-लुहान हो जाएगा शरीर, चमड़ी उखड़ जाएगी, मगर फिर भी एक मीठा सुख मिलता
है, तुम खुजलाए चले जाते हो।
जानते हो,
कि भूल
हो रही है;
फिर भी
रोक नहीं पाते। दुख को तुमने खाज बना लिया है। और जितना तुम खुजलाओगे दुख को, जितनी उसकी चर्चा करोगे, जितना उस पर ध्यान दोगे, उतने ही दुख को भोजन दे रहे
हो।
ध्यान
भोजन है। अगर तुमने दुख को दिया, दुख
पनपेगा,
बढ़ेगा।
अगर तुमने सुख को दिया, सुख
पनपेगा,
बढ़ेगा।
ध्यान तो वर्षा है जल की; जिस
पौधे पर पड़ेगा,
वही
बढ़ने लगेगा।
और तुम
दुख ही दुख की चर्चा कर रहे हो। सुबह से उठते ही से बस, तुम दुख खोजना शुरू करते हो।
हर चीज में दुख पाते हो, हर चीज
का दुख इकट्ठा कर रहे हो। धीरे-धीरे तुम दुख का एक अंबार हो गए, एक संग्रह हो गए हो। अब
तुम्हारा सिर्फ एक ही सुख है कि कोई तुम्हारा दुख सुन ले।
पश्चिम
में पूरा धंधा पैदा हो गया है मनोविश्लेषण का। कुछ नहीं करता मनोविश्लेषक; इतना ही करता है, वह तुम्हारा दुख सुनता है।
पश्चिम में कोई दूसरा सुनने को राजी है भी नहीं। लोगों के पास इतना समय नहीं है।
पूरब जैसी बात नहीं है, कि तुम
किसी के भी घर पहुंच जाओ और अपना दुख सुनाने लगो। समय नहीं है लोगों के पास। किसी
के पास मिलने आना हो, तो
पहले से पूछना पड़ता है, पहले
से समय लेना पड़ता है। ऐसे किसी के घर भी सिर उठाया और पहुंच गए!समय नहीं है। पति
के पास समय नहीं है, कि
पत्नी की कहानी सुन ले; पत्नी
के पास समय नहीं कि पति की कहानी सुन ले। किसी के पास कोई समय नहीं बचा है।
तो
प्रोफेशनल सुनने वाला, धन्धेबाज, जो सिर्फ सुनने का ही धंधा
करता है वह मनोविश्लेषक है, साइकोएनालिस्ट
है। उसका काम इतना है, कि तुम
लेट जाओ कोच पर। वह पीछे बैठ जाता है, तुम जो भी बकवास करनी है, करो। वह सुनता है। इससे भी
राहत मिलती है। मनोविश्लेषण कुछ भी सहारा नहीं पहुंचाता, लेकिन तुम अपनी बकवास कह कहकर
हलके हो जाते हो। कोई तुम्हें इतने ध्यान से सुनता है, यह बात ही बड़ा मजा देती है।
तुम और दुख बढ़ा-बढ़ाकर लगने लगते हो। और उसको तो ध्यान से सुनना ही पड़ता है क्योंकि
वह पैसा ले रहा है सुनने के। यह कभी अतीत के दिनों में किसी ने सोचा भी न होगा, कि कभी प्रोफेशनल धंधेबाज
सुनने वालों की जरूरत पड़ेगी। जिनका कुछ काम उतना होगा, कि तुम्हारी बकवास वे सुनें
उतना समय उन्होंने दिया, उतना
पैसा तुम दे दो।
पूरब
की हालत उलटी है,
अभी भी
उलटी है। अभी भी कोई किसी की छाती पर जाकर बैठ जाए तो वह कितना ही उसको उबाए, कितना ही उसको उबाए, कितना ही उसको सताए, मगर वह कहता है, बड़ी कृपा की, अतिथि देवता है। आप आए, अच्छा हुआ।
मुल्ला
नसरुद्दीन भागा जा रहा था स्टेशन की तरफ। एक आदमी ने रोका। मित्र पुराने परिचित, कि बड़े मियां। कहां जा रहे हो?
उसने
कहा, बंबई जा रहा हूं। ट्रेन पकड़नी
है।
तो उस
आदमी ने कहा,
अभी
बजा क्या है?
ट्रेन
तो पांच बजे जाती है बंबई की। और तुम अभी से भागे जा रहे हो? अभी बजा क्या है?
तो
मुल्ला ने कहा,
अभी
बजा तीन है।
उसने
कहा, हद हो गई! तीन बजे से भागे जा
रहे हो पांच बजे की, ट्रेन
पकड़ने के लिए?
मुल्ला
ने कहा,
भाई
साहब! अभी तुम जैसे कई बेवकूफ रास्ते में मिलेंगे। पांच बजे तक भी पहुंच जाऊं, तो बहुत है।
अभी
पूरब में यही चल रहा है। लेकिन पश्चिम में हालात बदल गई हैं। किसी के पास कोई समय
नहीं है। तो धंधेबाज सुनने वाला चाहिए। बर्ट्रेंड रसेल ने लिखा है, कि आने वाली सदी में
मनोविश्लेषण सबसे बड़ा व्यवसाय होगा। इक्कीसवीं सदी में हर मुहल्ले में दो-चार मनोवैज्ञानिकों
की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि कोई किसी को सुनने को राजी नहीं होगा। क्यों कोई किसी की
सुने?
और
मनोवैज्ञानिक सुनता है। पता है, और
मनोवैज्ञानिक काफी महंगी फीस लेता है। एक बैठक के सौ, दो सौ, पांच सौ रुपए या हजार
रुपए--मनोवैज्ञानिक की प्रतिष्ठा पर निर्भर होता है। एक घंटा बकवास सुनता है, हजार रुपए लेते है। लोग सालों
मनोविश्लेषण करवाते हैं। तीन साल, चार
साल, पांच साला ऐसे मरीज हैं, जो दसों साल से इलाज करवा रहे
हैं। हजार रुपया प्रति घंटे का चुका रहे हैं।
और
मनोवैज्ञानिक उनको कैसे सुधार पाएगा, वह मैं जानता नहीं। क्योंकि यहां मेरे पास
मनोवैज्ञानिक आते हैं अपने इलाज के लिए। पश्चिम से आ रहे हैं। जो हजारों मरीजों का
इलाज कर रहे हैं,
वे फिर
खुद अभी इलाज के लिए चले आ रहे हैं, कि उनके मन में शांति नहीं है।
मगर वह
मरीज को राहत मिल रही है, कि कोई
सुन रहा है,
बस!
सुनने से कितनी सांत्वना मिलती है! तुम्हारा दुख कोई ध्यान दे रहा है।
लेकिन
तुम्हें पता नहीं कि जब भी तुम्हारे दुख को तुम ध्यान दो या कोई भी ध्यान
दे--ध्यान वर्षा है। तुम्हारे दुख का पौधा और बड़ा होगा। सुख को ध्यान दो, दुख की उपेक्षा करो। एक कांटा
गड़ जाए तो उसके लिए हायत्तोबा मत बचाओ। जीवन में बहुत फूल हैं, उनको देखो। जरा सी पीड़ा आ जाए, तो उसको सिर पर लिए मत घूमो।
अनुगृहीत होने के लिए बहुत परमात्मा ने दिया है, थोड़ा उस तरफ स्मरण करो--सुख
सुरति सों।
एक
मुसलमान बादशाह हुआ। उसका नौकर उसे बड़ा प्रिय था--एक नौकर। इतना प्रिय था, कि रात उसके कमरे में भी वह
नौकर सोता ही था। उससे बड़ी निकटता थी, बड़ी आत्मीयता थी। दोनों जंगल जा रहे थे।
शिकार पर निकले थे। एक वृक्ष के नीचे खड़े हुए। सम्राट ने हाथ बढ़ाया और फल तोड़ा।
जैसे उसकी सदा आदत थी, कुछ भी
उसे मिले तो वह नौकर को भी देता था। वह मित्र जैसा था नौकर। उसने उसे काटा, एक कली नौकर को दी। उसने खाई
और उसने कहा,
अहोभाग्य!
एक और दें। दूसरी भी ले ली, वह भी
खा ली। बड़ा प्रसन्न हुआ। कहा, एक और
दें ।एक ही बची,
एक
टुकड़ा ही बचा सम्राट के हाथ में; तीन
उसे दे दिए।
सम्राट
ने कहा,
यह तो
तू हद कर रखा है। अब एक मुझे भी चखने दे। और तेरा भाव देखकर, तेरी प्रसन्नता देखकर ऐसा
लगता है,
कोई
अनूठा फल है। उसने कहा, कि
नहीं मालिक। फल निश्चित अनूठा है मगर खाऊंगा मैं ही, आप नहीं। छीन-झपट करने लगा।
सम्राट नाराज हुआ उसने कहा, यह भी
सीमा के बाहर की बात हो गई। दूसरा फल भी नहीं है वृक्ष पर। सम्राट ने छीन-झपटी में
ही अपने मुंह में फल का टुकड़ा रख लिया--जहर था! थूक दिया; उसने कहा, कि नासमझ! और तू मुस्कुरा रहा
है? तूने कहा क्यों नहीं?
उस
नौकर ने कहा,
जिन
हाथों से बहुत मीठे फल खाए, एक
जहरीले फल के लिए क्या बात उठानी, क्या
चर्चा करनी! जिन हाथों से बहुत मिष्ठान्न मिले, जिस प्रसाद से जीवन भरा है, उसके हाथ से एक अगर कड़वा फल
भी मिल गया,
तो
उसकी बात ही क्यों उठानी? उसको
कहां रखना तराजू पर? इसलिए
जिद कर रहा था कि एक टुकड़ा और दे दें, कि आपको पता न चल जाए। क्योंकि वह पता चल
जाए आपको,
तो भी
जाने-अनजाने शिकायत हो गई। अगर आपके हाथ में एक टुकड़ा छोड़ दिया मैंने, कुछ न कहा कि कड़वा है, सिर्फ छोड़ दिया, और आप जान गए कि कड़वा है, तो मैंने कह ही दिया। बिना
कहे कह दिया। इसलिए छीन-झपट कर रहा था मालिक, माफ कर दे। चाहता था, यह पता न चले। अनुग्रह अखंड
रहे, शिकायत की बात न उठे, इसलिए छुड़ाने की कोशिश कर रहा
था। आप माफ कर दें।
भक्त
का यही भाव है परमात्मा के प्रति। जिस हाथ से इतना मिला है, जिसके दान का कोई अंत नहीं है, जिसका प्रसाद प्रतिपल बरस रहा
है, श्वास-श्वास में जिसकी सुवास
है, धड़कन धड़कन में जिसका गीत है, क्या शिकायत करनी उसकी? क्या दुख की बात उठानी?
छोड़ो!
दुख की चर्चा बंद करो, अन्यथा
दुख बढ़ेगा। दुख की उपेक्षा करो, दुख
में रस मत लो। घाव में उंगली डालकर मत चलाओ। नहीं तो घाव हरा है, हरा ही बना रहेगा। वह कभी
भरेगा कैसे?
यह
खुजलाहट बंद करो।
सुख
सुरति सौ--परमात्मा का स्मरण करो सुखपूर्वक। और इतना सुख है, कि कोई कारण नहीं कि क्यों
तुम सुखपूर्वक परमात्मा का स्मरण न कर सको। तुम्हारा होना ही इतना बड़ा सुख है, सांस का चलना ही इतना बड़ा सुख
है। तुम हो,
यह कोई
छोटी घटना है?
इससे
बड़ी घटना तुम कल्पना कर सकते हो? होने
से बड़ा और क्या हो सकेगा?
तुम हो
होशपूर्ण हो,
तुम्हारे
भीतर एक जगमगाती चेतना का एक दीया है और इससे बड़ा क्या चाहते हो? सच्चिदानंद की तुम्हारी पूरी
संभावना है,
और
तुम्हारी क्या मांग है? किसलिए
भिखारी बने हो?
द्वार
खुला है,
थोड़े
सुख-पूर्वक बैठ जाओ, थोड़ा
सुख-पूर्वक उसकी सुरति से भरो। जैसे-जैसे सुख समाएगा, जैसे-जैसे सुख की भनक
तुम्हारे चारों तरफ गूंजने लगेगी, जैसे-जैसे
सुख नाचेगा,
जैसे-जैसे
सुख में तुम डूबोगे, सुख
तुम में डूबेगा?
जैसे-जैसे
तुम सुख के साथ एक होने लगोगे--और उसका स्मरण एक महासुख बन जाएगा। आंख खोलोगे, पाओगे, द्वार खुला है। द्वार खुला ही
है।
सुख
सुरति सौ। दुख को मत पोसो, दुख को
मत अपने ऊपर रोपो। दुख को मत ढोओ। सुख की तरफ मुड़ो। ध्यान सुख की तरफ ले जाओ, और दोनों संभावनाएं हैं--सदा
हैं।
मैंने
सुना है,
कि एक
कारागृह में दो व्यक्ति बंद थे वे दोनों ही पहले ही दिन कारागृह में आए थे। दोनों
ही सींखचों को पकड़कर खिड़कियों की खड़े थे। एक ने देखा, सींखचों के बाहर ही गंदा
डबरा। वर्षा के दिन होंगे, मच्छर
डबरे पर बैठे,
बदबू
उठती, कूड़ा-करकट इकट्ठा; उसका मन शिकायत से भर गया। और
उसने कहा,
कि
जेलखाना,
और ऊपर
से यह बदबू और यह गंदगी। जीवन नर्क है। इससे मर जाना बेहतर है।
दूसरा
भी उसी के पास खड़ा था उन्हीं सींखचों को हाथ में पकड़े हुए। उसने आकाश की तरफ देखा, यह पूरे चांद की रात थी। आकाश
अपूर्व ज्योत्स्ना से भरा था। अदभुत संगीत था आकाश में। चांदत्तारों की गूफ्तगू
थी। वह अहोभाव से भर गया और नाचने लगा।
पहले
आदमी ने कहा,
तू
पागल है। यहां नाचने-योग्य कुछ भी नहीं।
दूसरे
आदमी ने कहा,
भला
मैं पागल होऊं। तुम्हारी बुद्धिमानी तुम अपने पास रखो। क्योंकि तुम्हारी
बुद्धिमानी सिवाय कूड़े-करकट को, कचरों
को, डबरों को और कुछ दिखाती भी तो
नहीं। पागल सही,
मगर
मेरे पागलपन से चांद दिखा है। मेरे पागलपन में मैंने खुले आकाश को देखा है, और मेरे पागलपन ने मुझे आनंद
से भर दिया है। भला मेरे शरीर को उन्होंने कारागृह में डाल दिया हो, लेकिन चांद को देखने के क्षण
में मैं कारागृह में नहीं था। उस घड़ी जो लौ लग गई, चांद की रोशनी के साथ जो
संबंध जुड़ गया,
उस घड़ी
में मेरे हाथ पर जंजीरें नहीं थी; मैं
तुमसे कहता हूं। और ये सींखचे मुझे घेरते नहीं थे। शरीर को भला उन्होंने कारागृह
में डाल डाल दिया हो, मेरी
आत्मा को कारागृह में डालने का कोई उपाय नहीं।
और उस
दूसरे आदमी ने कहा, कि तुम
अगर बाहर भी होते हो तो भी तुम कारागृह में होते। तुम्हारी समझदारी तुम्हारा
कारागृह है। तुम्हें यह डबरा फिर भी दिखाई पड़ता; तुम इतने ही दुखी होते।
तुम
कहां हो,
इससे
फर्क नहीं पड़ता,
तुम्हारे
देखने का ढंग क्या है? ढंग को
बदलो। सुख सुरति सौ--सुख को खोजो, बहुत
सुख है। चारों तरफ भरा है। शायद इसीलिए दिखाई नहीं पड़ता। कितना मिला है! उसकी कोई
सीमा है?
जरा
हिसाब लगाओ,
हिसाब
लग न पाएगा। अनंत मिला है। तुम्हारे छोटे से आंगन में कितना बरसा है!
जोग
समाधि सुख सुरति सौं।
वह जो
समाधान की समाधि है, वह जो
मिलन है परमात्मा से, सुख से, स्मरणपूर्वक करने से घटता है।
सहजै
सहजै आव--और परमात्मा सहज-सहज चला आता है। जरा भी अड़चन नहीं होती।
ऐसा
मैं तुम्हें अपने अनुभव से कहता हूं। मैं गवाह हूं, जो कहता हूं। दादू के कारण
नहीं कह रहा हूं। दादू की बात ठीक है। यह इसलिए कह रहा हूं, कि मैं भी वैसा ही जानता
हूं--सहजै सहजै आव।
सुख
सुरति सौं सहजै सहजै आव।
मुक्ता
द्वारा महल का इहै भगति का भाव। द्वार तो खुला है, यही भक्त का भाव है। द्वार
बंद नहीं है। परमात्मा मौजूद है, तुम्हारी
आंख के सामने खड़ा है। तुम से भी तुम्हारे ज्यादा पास है। इहै भगति का भाव।
ल्यौ
लागी तब जाणिए,
जे
कबहूं छूटि न जाइ।
और जल
गई तुम्हारे भीतर लो भक्ति की, यह तभी
जानना,
जब वह
कभी छूटे न। सातत्य बहे धारा। रहे एक सिलसिला भीतर। कभी सूख न जाए, कभी टूट न जाए, कभी बंद न हो जाए।
ल्यौ
लागी तब जाणिए,
जे
कबहूं छूटि न जाइ।
कुछ भी
हो जाए जीवन में। दुख आए, लेकिन
लौ न छूटे;
दुख
मिट जाएगा। आपत्ति आए, लौ न
छूटे; आपत्ति नष्ट हो जाएगी। नर्क आ
जाए। लौ न छूटे;
नर्क
खो जाएगा।
उस लौ
से बड़ा कुछ भी नहीं है। अगर तुम उसको ही सम्हाल लो, सब सम्हल गया। और वही अगर चूक
गई, तो सब चूक गया। सम्हाले रहो, जो भी तुम सम्हाल रहे हो; कुछ सार न आएगा। आखिर में सब
कचरा, कंकड़-पत्थर सिद्ध होंगे।
ल्यौ
लागी तब जाणिए,
जे
कबहूं छूटि न जाई।
वह लौ
भी क्या,
जो लगे
और छूटे! वह तो मन का ही खेल रहा होगा।
इसे
थोड़ा समझो। जो लगे और छूटे, वह एक
विचार ही रहा होगा। विचार आते हैं, चले जाते हैं। लौ तो वही है, जो निर्विचार में लग जाए; फिर आना-जाना नहीं है। फिर
छूटेगा क्या?
फिर तो
तुम्हारा स्वभाव बन गई लौ। विचार की तरंगें तो आती हैं, जाती हैं। आज हैं, कल नहीं है। लगती है, छूट जाती है। क्षणभर को रहती
है, चली जाती है। विचार के लिए तो
तुम एक धर्मशाला हो। वे रुकते हैं इसलिए कि कुछ देते भी नहीं; मुफ्त रुकते हैं, भीड़-भड़क्का किए रहते हैं
तुम्हारे भीतर,
फिर
चले जाते हैं। तुम तो बीच का एक पड़ाव हो।
इसलिए
अगर यह लौ भी एक यात्री की तरफ ही तुम्हारे पास आए, रातभर रुके और सुबह चली जाए, तो यह लौ ही नहीं है। दादू
कहते हैं,
इसको
तुम लौ मत कहना।
लौ तो
वही है--लौ लागी तब जाणिए, जे
कबहूं छूटि न जाइ। वह उसका लक्षण है। असली लौ का लक्षण है कि वह छूटे न।
तब
इसका अर्थ हुआ,
कि
असली लौ तभी लग सकती है जब विचार से ज्यादा गहरे तल पर उसकी चोट हो; निर्विचार में लगे। क्योंकि
निर्विचार आता न जाता; सदा
है। निर्विचार तुम्हारी वह अवस्था है, जो आती-जाती नहीं; वह तुम्हारा स्वभाव है।
जीवन
यौ लागी रहे,
मूवा
मंझि समाइ।
और
जीते जी तो लगी ही रहेगी, मरकर
भी नहीं मिटती। तुम मिट जाओगे, लौ
अनंत में समा जाएगी।
यह बड़ी
प्यारी बात है। भक्त जब खोता है, तो
भक्त तो खो जाता है, उसकी
लौ का क्या होता है? लौ तो
सारे संसार में लग जाती है। भक्त की लौ भटकती रहती है संसार में। और न मालूम कितने
सोयों को जगाती है, न
मालूम कितने अंधों की आंखें खोलती है, न मालूम कितने बंद हृदयों को धड़काती है, न मालूम कितनों को प्रेम में
उठाती है,
प्रार्थना
में जगाती है। भक्त तो खो जाता है; पर उसकी लौ संसार में बिखर जाती है। वह
भटकती है,
घूमती
है।
बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट, जरथुस्त्र तो खो जाते हैं; लेकिन उनकी आग--उनकी आग आज भी
जलती है। तुम बुद्ध को तो न पा सकोगे अब, वह बात गई। वह बूंद तो समा गई सागर में।
बुद्ध में जो जली थी प्यास, बुद्ध
में जो जला था ज्ञान, वह अब
भी मौजूद है,
वह अब
भी संसार में समाया हुआ है। तुम्हारे पास अगर थोड़ी भी समझ हो, तुम उससे आज भी जुड़ सकते हो
अगर तुम्हारा प्रेम हो तो आज भी तुम बुद्ध से उतना ही लाभ ले सकते हो, जितना बुद्ध के साथ उनके जीवन
में उनके शिष्यों ने लिया होगा। लौ तो समा जाती है संसार में, अस्तित्व में।
जीवन
यौं लागी रहे,
मूवा
मंझि समाइ।
और
मरने पर समष्टि में समा जाती है।
मन
ताजी चेतन चढ़े,
लौ की
करै लगान।
सबद
गुरु का ताजना,
कोइ
पहुंचे साध सुजान।
मन
ताजी--मन है घोड़ा। चेतन चढ़े--और चेतन है सवार।
अभी
उलटी है हालत। घोड़ा चढ़ा सवार पर। अभी तो घोड़ा जहां ले जाता है, वही तुम जा रहे हो। अभी तो
घोड़ा जहां बताता है, वहीं
तुम्हारी आंखें मुड़ जाती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन भागा जा रहा था अपने गधे पर। बाजार में लोगों ने रोका, कहां जा रहे हो बड़ी तेजी में?
उसने
कहा, मुझसे मत पूछो, इस गधे से पूछो।
लोगों
ने कहा,
क्यों? तुम जा रहे हो, गधे से क्यों पूछे?
उसने
कहा, मैं समझ गया अनुभव से, कि मैं जहां ले जाना चाहूं, यह गधा तो वहां जाता नहीं। तो
अब मैं अब जहां यह गधा ले जाता है, वहीं जाता हूं। अब यह कहां ले जा रहा है, कुछ पता नहीं। तेजी से जा रहा
है, इतना पक्का है। कहीं
पहुंचेगा--जरूर पहुंचेगा। जा रहा है, तो कहीं न पहुंचेगा और जब मैं चेष्टा करके
इसको कहीं ले जाता था, तो बड़ी
फजीहत होती थी। कहीं बाजार में अड़ गया, तो लोग हंसी-मजाक करते, कि गधा भी नहीं मानता इसकी।
अब कोई ऐसी मजाक नहीं करता। अब लोग समझते हैं, कि देखो। गधा बिलकुल इसके पीछे चलता है, कभी अड़ता नहीं। हालत बिलकुल
उलटी है। अब अड़ने का सवाल ही नहीं। अब जहां यह जाता है, हम इसके साथ जाते हैं।
तुमने
मन के साथ चलना शुरू कर दिया है। तुम जन्मों से मन के साथ चल रहे हो। अगर कोई
तुमसे पूछे,
कहां
जा रहे हो?
तो
तुम्हें भी यही कहना पड़ेगा, पूछो
गधे से।तुम्हें भी पता नहीं, कहां
जा रहे हो?
मन
जहां ने जाए।
मन
कहां ले जाएगा,
कहना
मुश्किल है। मन कहीं ले जाता नहीं। अक्सर तेजी से जाता है। मगर कहीं ले जाता नहीं।
दौड़ता है। पहुंचाता नहीं। और मन की गति वर्तुलाकार हैं। वह कोल्हू के बैल की तरह
चलता रहता है। गोल घेरे में घूमता रहता है--वहीं--वहीं फिर वहीं।
तुम
गौर से देखो अपने मन को; तो तुम
वर्तुल को पहचान लोगे। एक महीने तक अपने मन की डायरी रखो। लिखते जाओ मन क्या क्या
करता है। सोमवार को सुबह क्रोध किया, फिर सोमवार को शाम बड़ी दया की, फिर दान किया, फिर बड़े नाराज हुए। फिर बड़े
कठोर हो गए। सब लिखते जाओ। एक महीना तुम डायरी बनाओ, तुम बड़े हैरान होओगे, यह तो वर्तुल है। वैसा का
वैसा घूमता चला जाता है। फिर वही करते हो, फिर सोमवार आ गया, फिर नाराज। अगर तुम ठीक से
निरीक्षण करोगे,
तो तुम
चकित हो जाओगे कि तुम्हारी जिंदगी यंत्रवत है।
जैसे
स्त्रियों का मासिक धर्म ठीक अट्ठाईस दिन के बाद आ जाता है, वैसे ही तुम्हारी मन की
स्थितियां भी ठीक अट्ठाईस दिन के घेरे में घूमती रहती हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता।
मगर तुम कभी जागकर उसको सोचते भी नहीं, देखते भी नहीं। इस वर्तुल में भटकने से कैसे
पहुंचोगे?
मन
ताजी--दादू कहते हैं, मन को
घोड़ा करो। वह सवार बनकर बैठ गया है। मन पर चढ़ो--चेतन चढ़े। चढ़ाओगे कैसे चेतन को मन
पर? अगर चेतन जग जाए, तो चढ़ जाता है। जागना, चढ़ना है। अगर तुम होश से भर
जाओ, अगर तुम मन को देखने वाले बन
जाओ, अगर मन के साक्षी बन जाओ, चेतन चढ़ जाता है। जब तक
तुम्हारा साक्षी नहीं है मौजूद, तब तक
मन चढ़ा रहेगा,
तुम
गुलाम रहोगे। मन चलाएगा। तुम पीछे-पीछे घसीटोगे।
मन
ताजी चेतन चढ़े,
लौ की
करे लगाम।
और वह
जो लौ है परमात्मा की, उसको
बना लो लगाम। उस लौ से ही चलाओ मन को। बड़ा प्यारा वचन है। उस लौ से ही चलाओ मन को।
मन की गतिविधि में वह लौ ही समा जाए। मनुष्य लौ की मानकर चले वहीं जाओ, जहां जाने से परमात्मा मिले।
वही करो,
जिसे
करने से परमात्मा मिले। वही होओ, जो
होने से परमात्मा मिले। बाकी सब असार है।
मन
ताजी चेतन चढ़े,
लौ की
करे लगाम।
खाओ तो
परमात्मा को पाने के लिए। पीयो तो परमात्मा को पाने के लिए। जगो तो परमात्मा को
पाने के लिए। सोओ तो परमात्मा को पाने के लिए--लौ की करो लगाम।
सबद
गुरु का ताजना--और गुरु के शब्द को कोड़ा बन जाने दो--सबद गुरु का ताजना। वह
तुम्हें चोट करे तो भयभीत मत हो जाओ। वह प्यार करता है, इसीलिए चोट करता है। वह
तुम्हें मारे तो घबड़ाओ मत, तो
शत्रुता मत पाल लो। क्योंकि वह तुम्हें मारता है सिर्फ इसीलिए, कि उसकी करुणा है, वह तुम्हें खींचे तुम्हारे
रास्तों से,
तो
संदेह मत करो। क्योंकि अगर संदेह किया तो वह खींच न पाएगा। भरोसा चाहिए। भरोसा
होगा तो ही खींचे जा सकोगे।
सबद
गुरु का ताजना। और वह जो गुरु का शब्द है, उसे तुम कोड़ा बना लो। और जब भी मन तुम्हारा
यहां वहां जाए,
लगाम
की न माने,
लौ की
न माने;
लगाम
की मान ले तब तो कोड़े की कोई जरूरत नहीं। अगर सब तरफ से परमात्मा पर पहुंचने का
आयोजन चलता रहे,
तब तो
कोड़े को कोई जरूरत नहीं। लेकिन कभी-कभी लगाम की माने, घोड़ा जिद्दी हो, जैसे कि सब घोड़े हैं, सभी मन हैं, तो फिर कोड़े की जरूरत पड़े। तो
फिर तुम अपने हाथ में निर्णय मत लो, निर्णय गुरु के हाथ में दे दो। फिर वह जो
कहे, वही करो। उस पर ही छोड़ दो।
उसका अर्थ होता है, सबद
गुरु का ताजना।
बुद्ध
ने कहा है,
कि
दुनिया में चार तरह के लोग हैं। एक तो उन घोड़ों जैसे हैं, जिनको तुम मारो, ठोको, पीटो, तब बमुश्किल चलते हैं। और वह
भी घड़ी दो घड़ी में भूल जाते हैं, फिर
खड़े हो जाते हैं। दूसरी तरह के लोग उन घोड़ों की तरह हैं, जिनको तुम मारो, तो याद रखते हैं, चलते हैं, जल्दी भूल नहीं जाते। तीसरे
उन घोड़ों की तरह हैं, जिनको
मारने की ज्यादा जरूरत नहीं; सिर्फ
कोड़े को फटकारो,
मारो
मत, और घोड़ा सावधान हो जाता हैं, कि अब अगर चूके तो कोड़ा
पड़ेगा। वह चलने लगता है। और चौथे, बुद्ध
ने कहा है कि वे बड़े अनूठे लोग हैं, वे वे हैं, जिनको फटकारने की भी जरूरत
नहीं पड़ती। कोड़े की छाया दिखाई पड़ जाए कि कोड़ा उठ रहा है। छाया दिखाई पड़ जाए घोड़े
को, बस काफी है। घोड़ा रास्ते पर आ
जाता है।
तुम इन
चार घोड़ों में कहां हो, ठीक से
अपने को पहचान लो। और चौथा घोड़ा बनने की कोशिश करो। सिर्फ सबद गुरु का ताजा, तुम्हारे लिए कोड़ा बन जाए, तो धीरे-धीरे उसकी छाया भी
तुम्हें चलाने लगेगी। उसका स्मरण तुम्हें चलाने लगेगा। यादभर आ जाएगी गुरु के शब्द
की, तुम रुक जाओगे कहीं जाने से, कहीं और चलने लगोगे।
कोई
पहुंचे साध सुजान--तो इन तीन बातों को पूरा कर लेते हैं ऐसे कुछ साधु पुरुष, जागे हुए पुरुष पहुंच पाते
हैं।
आदि
अंत मध एक रस टूटै नहि धागा।
दादू
एकै रहि गया,
जब
जाणे जागा।।
वह तो
परमात्मा का आनंद है, वह सदा
समस्वर है। शुरू में भी वैसा, मध्य
में भी वैसा,
अंत
में भी वैसा। उसमें कोई परिवर्तन नहीं है, वह शाश्वत है। उसमें कोई रूपांतरण नहीं है।
वह बदलता नहीं है। वह सदा एक-रस है।
आदि
अंत मध्य एक रस टूटै नहीं धागा।
जब
तुम्हारा धागा इस एक-रसता से जुड़ जाए और टूटे न, तभी समझना मंजिल आई। उसके
पहले विश्राम मत करना। उसके पहले पड़ाव बनाना पड़े, बना लेना। लेकिन जानना कि यह
घर नहीं है। रुके हैं रातभर विश्राम के लिए। सुबह होगी, चल पड़ेंगे। जब तक ऐसी घड़ी न आ
जाए कि उस एकरसता से धागा बंध जाए पूरा का पूरा--टूटै नहीं धागा; तब तक मत समझना मंजिल आ गई।
बहुत
बार पड़ाव धोखा देते हैं मंजिल का। जरा सा मन शांत हो जाता है, तुम सोचते हो, बस हो गया! जल्दी इतनी नहीं
करना जरा रस मिलने लगता है, आनंद-भाव
आने लगता है,
सोचते
हो, हो गया। इतनी जल्दी नहीं
करना। ये सब पड़ाव हैं। प्रकाश दिखाई पड़ने लगा भीतर, मत सोच लेना कि मंजिल आ गई।
ये अभी भी मन के ही भीतर घट रही घटनाएं हैं। अनुभव होने लगे अच्छे सुखद, तो भी यह मत सोच लेता, कि पहुंच गए।
क्योंकि
पहुंचोगे तो तुम तभी, दादू
एकै रहि गया जब जाणे जागा। तक जानेंगे दादू कहते हैं, कि तुम जाग गए, जब एक ही रह जाए। तुम और
परमात्मा दो न रहो। अगर परमात्मा भी सामने खड़ा दिखाई पड़ जाए, तो भी समझना, कि अभी पहुंचे नहीं, फासला कायम है। अभी थोड़ी दूरी
कायम है। एक ही हो जाओ। दादू एकै रहि गया--अब दो न बचे। जब जाणे जागा--तभी जानना
कि जाग गए। तभी जानना, कि घर
आ गया।
अर्थ
अनूपम आप है--और दादू कहते हैं मत पूछो, कि उस घड़ी में कैसे अर्थ के फूल खिलेंगे? मत पूछो, कि कैसी अर्थ की सुवास उठेगी?
अर्थ
अनुपम आप है। वह अर्थ अनुपम है। उसकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती इस संसार में वैसा
कुछ भी नहीं है,
जिससे
इशारा किया जा सके। इस संसार के सभी इशारे बड़े फीके हैं। इस संसार के इशारों से
भूल हो जाएगी। अर्थ अनुपम--अद्वितीय है, वह बेजोड़ है। वैसा कुछ भी नहीं है।
अर्थ
अनुपम आप है,
बस, वह अपने जैसा आप है।
और
अनरथ भाई--और उसके अतिरिक्त जो भी है, सब अर्थहीन है।
दादू
ऐसी जानि करि तासौ ल्यो लाइ। और ऐसा जानकर उसमें ही लौ को लगा दो। दादू कहते हैं, मैंने ऐसा जानकर उसमें ही लौ
लगा दी। दादू ऐसी जानि करि ता सौ ला लगाइ। उसमें ही लौ लगा दी।
लौ
शब्द समझ लेने जैसा है। दिए में लौ होती है। तुमने कभी खयाल किया, कि दिए की लौ, तुम कैसा भी दिए को रखो, वह सदा ऊपर की तरफ जाती है।
दिए को तिरछा रख दो, कोई
फर्क नहीं पड़ता। लौ तिरछी नहीं होती। दिए को तुम उल्टा भी कर दो तो भी कोई फर्क
नहीं पड़ता। लौ फिर भी ऊपर की तरफ ही भागी चली जाती है। पानी का स्वभाव है। नीचे की
तरफ जाना;
अग्नि
का स्वभाव है ऊपर की तरफ जाना।
लौ का
प्रतीक कहता है,
तुम्हारी
चेतना जब सतत ऊपर की तरफ जाने लगे, शरीर की कोई भी अवस्था हो--सुख की हो कि दुख
की हो,
पीड़ा
की हो,
जीवन
की हो,
कि
मृत्यु की हो;
जवानी
हो, कि बुढ़ापा; सौंदर्य हो, कि कुरूपता; सफलता हो कि असफलता; कोई भी अवस्था में रखा हो
दिया, इससे कोई फर्क न पड़े। लौ सदा
परमात्मा की तरफ जाती रहे, ऊपर की
तरफ जाती रहे।
दादू
ऐसी जानि करि तासों ल्यौ लाई।
ये
एक-एक शब्द प्यारे हैं। मैं फिर दोहरा देता हूं।
जोग
समाधि सुख सुरति सों, सहजै
सहजै आव।
मुक्ता
द्वारा महल का,
इहै
भगति का भाव।।
ल्यौ
लागी तक जाणिए,
जे
कबहूं छूटि न जाइ।
जीवन
ज्यो लागी रहे मूवा मंझि समाइ।।
मन
ताजी चेजन चढ़े,
ल्यौ
की करे लगान।
सबद
गुरु का ताजना,
कोई
पहुंचे साध सुजान।।
आदि
अंत मध एक रस,
टूटैं
नहि धागा।
दादू
एकै रहि गया,
जब
जाणै जागा।।
अर्थ
अनूपम आप है,
और
अनरथ भाई।
दादू
ऐसी जानि करि,
तासौं
ल्यौ लाई।।
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