प्रवचन-पंद्रहवां
नेति-नेति-(सत्य की खोज)
मनुष्य
का मन एक बोझ है--बोझ है अतीत का। लेकिन मनुष्य का मन एक तनाव भी है--भविष्य का।
अतीत के बोझ को हटा देने के लिए कुछ बातें की हैं। भविष्य के तनाव से मुक्त हो
जाना भी उतना ही आवश्यक है। भविष्य भी बहुत बड़े तनाव की तरह मनुष्य के मन पर सदा
मौजूद है। भविष्य का तनाव बहुत रूपों में हमारे मन को पकड़े है।
एक तो, हम आज में जीते ही नहीं! हम
सदा कल में जीते हैं! और कल में कोई भी नहीं जी सकता। जीना सदा आज में है, अभी में है।
वनवास
के दिनों में एक सुबह युधिष्ठिर अपने झोपड़े पर बैठे हैं और एक भिखारी ने
भिक्षापात्र उनके सामने फैलाया है। युधिष्ठिर ने कहा, कल! कल ले लेना, कल आ जाना, कल दे दूंगा!
भीम
बैठा हुआ सुनता था, वह जोर
से हंसने लगा! पास में पड़े हुए घंटे को उठाकर वह बजाने लगा और गांव की तरफ भागने
लगा!
युधिष्ठिर
ने पूछा,
क्या
हुआ है तुझे,
पागल
हो गया?
भीम के
कहा, पागल नहीं हुआ हूं। यह जानकर
बहुत खुश हुआ हूं कि मेरे भाई ने कल कुछ करने का वायदा किया है। जाऊं गांव में खबर
कर आऊं कि मेरे भाई ने समय को जीत लिया है, क्योंकि मैंने आज तक सुना नहीं है कि कल कोई
भी कुछ कर सका हो। तुमने कहा है, कल
देंगे! जाऊं खबर कर आऊं गांव में, क्योंकि
इतिहास में ऐसी घटना नहीं घटी है।
बहुत
मजे की बात है। कल तो कुछ भी नहीं किया जा सकता। जो भी किया जा सकता है--अभी और
यहां; आज, इसी क्षण।
जिस कल
की हम बात करते हैं, वह
कल्पना के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं रहेगा। वह कभी नहीं रहेगा। कल कभी नहीं आता। जो
आता है,
वह आज
है, अभी है।
लेकिन
हमारा मन जीता है कल में! जो अभी हो सकता है, उसे कल पर छोड़ते हैं! और कल कभी नहीं होगा।
फिर यह कल की लंबी धारा, आने
वाले कलों की लंबी कल्पना मन पर बैठती चली जाती है, मन को खींचती चली जाती है।
इसका बोझ बहुत ज्यादा है, वह हमें
पता नहीं! हमें उन्हीं बोझों का पता चलता है, जिनके हम आदी नहीं होते। और भविष्य के बोझ
के हम पैदा होने के क्षण के साथ आदी हो जाते हैं! वह हमें पता नहीं चलता!
गागरिन
जब पहली दफा अंतरिक्ष में गया तो उसने लिखा कि पहली बार मुझे पता चला कि पृथ्वी पर
कितना बोझ था! लेकिन हमें कुछ पता नहीं चलता!
गागरिन
जब लौटकर पृथ्वी पर आया तो लोगों ने उससे पूछा कि सबसे नया अनुभव क्या हुआ?
उसने
कहा, सबसे नया अनुभव हुआ
गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो जाने का। शरीर निर्भार हो गया! समझ में नहीं पड़ा कि यही
मेरा शरीर है! और यह भी समझ में नहीं पड़ा कि इतना बोझ इस शरीर पर पृथ्वी पर था, इतना खिंचाव इस शरीर पर था!
शरीर हल्का रुई की तरह हो गया--जैसे शरीर है ही नहीं, ऐसा अनुभव हुआ! हवा में जैसे
ऊपर तैरने लगा शरीर। यान की छत से लग गया जाकर। कोई वजन नहीं रहा। हाथ उठायें तो
मालूम नहीं पड़े कि उठाया कि नहीं उठाया। सारा शरीर निर्भार हो गया!
लेकिन
हमारे शरीर पर कितना बोझ है, वह
हमें पता नहीं चलता, क्योंकि
जमीन पर ही हम पैदा होते हैं, जमीन
पर ही हम बड़े होते हैं, जमीन
पर ही मर जाते हैं। वह जिसको हम शरीर का वजन कहते हैं, शरीर का वजन नहीं है। अगर दो
सौ पौंड शरीर का वजन है तो शरीर का कोई वजन नहीं होता। वह जमीन खींच रही है इतनी
ताकत से कि शरीर पर दो सौ पौंड का भार पड़ रहा है। लेकिन हम उसमें जीते हैं। हमें
इसका कोई पता नहीं है, क्योंकि
हम उसमें ही जन्मते हैं, उसमें
ही आदत बन जाती है।
ऐसे ही
भविष्य का--न मालूम और कितना बड़ा बोझ है, कितनी कशिश है। जमीन से भी ज्यादा, लेकिन हमें पता नहीं चलता! हम
बचपन से ही कल में जीते हैं--आगे! आगे और आगे!
और यह
कल में जीने की जो हमारी मनोवैज्ञानिक भूल है, यह समझ लेना बहुत आवश्यक है। और तभी संभवतः
हम आने वाले कल से मुक्त हो जायें। मुक्त हो जाने का यह मतलब नहीं है कि कल के लिए
आप कोई योजना नहीं करेंगे। इसका यह मतलब भी नहीं है कि सुबह ट्रेन पकड़ने को है तो
आज सुबह रिजर्वेशन नहीं करायेंगे। इसका यह मतलब भी नहीं है कि कल के लिए कोई जीवन
की योजना नहीं होगी। असल में हमने एक मनोवैज्ञानिक समय का आविष्कार किया हुआ है, जो कहीं भी नहीं है!
एक
आदमी क्रोधी और हिंसक है। और वह आदमी कहता है, अगले जन्म में अहिंसक हो जाऊंगा, शांत हो जाऊंगा! वह यह कहता
है मैं चेष्टा करूंगा, श्रम
करूंगा,
साधना
करूंगा,
योग
करूंगा। मैं नीति का आचरण करूंगा, व्रत
लूंगा,
अहिंसक
हो जाऊंगा! हिंसक है, लेकिन
कल्पना करता है कि कल भविष्य में कभी अहिंसक हो जायेगा!
जो
आदमी हिंसक है,
वह कुछ
भी योजना करे,
वह कोई
भी व्रत ले,
वह कोई
भी धारणा करे,
वह कोई
भी ध्यान करे,
वह कोई
भी योग करे;
तप
साधे, तपश्चर्या करे--हिंसक आदमी जो
कुछ भी करेगा,
उससे
कभी भी अहिंसक नहीं हो सकता है, हिंसक
ही रहेगा। व्रत भी हिंसक ही करेगा। उस व्रत के करने में भी उसकी हिंसा पूरी तरह
निहित है। तपश्चर्या हिंसक ही करेगा, उस तप में भी उसकी हिंसा पूरी तरह निहित है।
कल तक
वह दूसरे के शरीरों को सताता था, अब वह
अपने शरीर को सतायेगा। हिंसा अब भी पूरी तरह प्रस्तुत है। कल तक वह रस लेता था
किसी दूसरे की गर्दन दबाने में, अब वह
अपनी ही गर्दन दबाने में रस लेगा। सोचेगा कल अहिंसक हो जाऊंगा तो वह जो हिंसा की
पीड़ा है,
वह जो
हिंसा का दंश है,
वह जो
हिंसा का कांटा चुभ रहा है, वह
हल्का हो जायेगा! वह कल की अहिंसा को सत्य मान लेगा, आज की हिंसा को झूठ कर लेगा!
आज की हिंसा यथावत रहेगी, वह कभी
अहिंसक नहीं होगा। लेकिन कल अहिंसक हो जायेगा इस भाव से, हिंसा की जो पीड़ा होनी चाहिए, वह कम हो जायेगी। और हिंसा की
पीड़ा जितनी ही कम हो जायेगी, उतना
ही हिंसा से मुक्त होना असंभव है।
लेकिन
वह कल की कल्पना करेगा! वह कहेगा, मृत्यु
के बाद मोक्ष चला जायेगा। वह चलता रहेगा इस तरह भविष्य पर और आज के तथ्य को नहीं
देखेगा! इस तथ्य को ठीक से जान लेना होगा। जो भी आज के तथ्य को नहीं देखना चाहते
हैं, वे भविष्य की योजनाओं और
कल्पनाओं में,
अंधेरे
में, धुएं में अपने को छिपा लेते
हैं!
आज का
तथ्य ही सत्य है। उसे छिपाना और भुलाना भी नहीं है। वह पूरी तरह जानने से ही
बदलेगा।
बदलाहट
का कोई उपाय नहीं--भारतवर्ष कितने हजारों साल से अहिंसा की बातें करता है, कितने हजारों साल से हमने
अहिंसा के गीत गाये हैं, अहिंसा
के शास्त्र रचे हैं, अहिंसा
की बात हम करते रहे हैं और एक भी आदमी अहिंसक नहीं है!
इधर
बीस, पच्चीस, चालीस सालों से तो हम बहुत ही
अहिंसा की बातें कर रहे हैं! लेकिन जब स्वयं पर मुसीबत आती है तो हम उतने ही हिंसक
सिद्ध होते हैं,
जितना
कोई और! चीन ने देश पर हमला किया, फिर
हमारी अहिंसा खो गयी! पाकिस्तान के साथ मुठभेड़ होते ही हमारी अहिंसा खो जाती है!
फिर कोई अहिंसा की बात नहीं करता। फिर हम कहते हैं, अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा
की जरूरत है!
अहिंसा
की रक्षा के लिए भी हिंसा की जरूरत पड़ती है तो अहिंसा बहुत नपुंसक है। अगर अहिंसा
की रक्षा हिंसा से की जा सकती है, तब तो
फिर अमृत की सुरक्षा के लिए जहर का इंतजाम करना पड़ेगा, और प्रेम की रक्षा के लिए
घृणा सीखनी पड़ेगी,
और
जिंदा रहने के लिए मरना पड़ेगा!
अहिंसा
हमारी बातचीत है हजारों साल की और उससे सिर्फ एक बात घटी है कि हमने हिंसा को
देखना बंद कर दिया है! अहिंसा की बातों में हिंसा का तथ्य भूल गये हैं और हमें
दिखाई नहीं पड़ता!
चित्त
अशांत है तो हम कहेंगे, कल हम
शांत हो जायेंगे! कुछ विधि का उपयोग करेंगे, किसी जाप का उपयोग करेंगे! फिर कल भी आ
जायेगा। कल तो आता नहीं, वह आज
होगा। और आप कहेंगे, आज
अशांत हूं,
कोई
बात नहीं,
कल
शांत हो जायेंगे।
यह
स्थिति करण आत्मवंचना है। इस स्थिति से फिर जिंदगी में कभी परिवर्तन नहीं होगा।
फिर तने ही रह जायेंगे, तनाव
ही रह जायेगा। पीछे लौटकर देखिये, जिंदगी
में कितनी बार सोचा होगा, कल यह
कर लेंगे,
कल वह
कर लेंगे। मनोवैज्ञानिक बात कहें तो भीतर वह "आज' आज तक नहीं हुआ। वह कभी नहीं
होगा। वह उपाय तथ्यों को झुठलाने और पलायन का है।
किसी
तथ्य को भूलने से कभी उसको बदला नहीं जा सकता।
अगर
हिंसा बदलनी है तो अहिंसा की बातचीत बंद कर दें। हिंसा को देखें। वह जो अभी है, उसे देखें, उसे पहचानें, उसे खोजें कि क्या है। और
जितना उसे जानेंगे, जितना
पहचानेंगे,
जितना
उसको देखने में समर्थ हो जायेंगे, वह
हिंसा का तथ्य उतना ही बदलना शुरू हो जायेगा--अभी और यहीं, कल नहीं।
अगर
भीतर घृणा है,
चोरी
है तो उसे देखें और पहचानें। यह मत कहें कि कल मैं चोरी छोड़ दूंगा। अगर चोरी गलत
हो गई है तो कल की बात क्यों करते हैं?
अभी
सांप रास्ता काटता है तो आप ऐसा नहीं कहते कि कल मैं बच जाऊंगा। अभी छलांग लगाते
हैं, क्योंकि सांप सामने खड़ा है फन
फैलाये हुए। तो आप यह नहीं कहते, ठीक है, अभी खड़े रहो। सांप से कल हम
बच जायेंगे। कल हम छलांग लगा लेंगे। सांप सामने खड़ा होता है तो आप अभी, इसी वक्त छलांग लगाते हैं।
क्यों?
क्योंकि
सांप दिखाई पड़ता है। सांप के साथ मौत दिखाई पड़ती है। सांप का जहर दिखाई पड़ता है।
एक छलांग में आप बाहर हो जाते हैं।
हिंसा
सामने खड़ी है और आप कहते हैं, कल हम
अहिंसक हो जायेंगे! तो फिर आपको हिंसा का जहर दिखाई नहीं पड़ता, हिंसा की मौत दिखाई नहीं पड़ती, हिंसा का पागलपन दिखाई नहीं
पड़ता। इसलिए आप कहते हैं, कल।
अभी क्या जल्दी है, कल!
अभी घर
में आग लगी है,
तब आप
यह नहीं कहते हैं कि कल बाहर निकल जायेंगे। तब आप कहते हैं, अभी इसी क्षण मुझे बाहर
निकलना है। आप यह कहते भी नहीं हैं, इसी क्षण बाहर निकलना है; आप निकलना शुरू हो जाते हैं, आप निकल ही जाते हैं!
जिंदगी
के तथ्य भी आग लगे होने से या सांप के तथ्यों से ज्यादा खतरनाक हैं। लेकिन कल की
तरकीब से आप झुठला जाते हैं और उनको नहीं बदल पाते!
जीवन
की बदलाहट,
जीवन
की क्रांति,
जीवन
का रूपांतरण इस क्षण होगा, अभी
होगा। कल कभी नहीं होगा।
लेकिन
हमने, एक विचार, एक प्रत्यय बनाया हुआ है कि
कल हम अहिंसक हो जायेंगे। और बस हम कल्पना कर लेते हैं कि कल से हम अहिंसक हो गये।
और कल की अहिंसा जो कि बिलकुल झूठी है, वह हमें सच मालूम लगने लगती है! हिंसा तो
मौजूद रहती है और हम अहिंसक होने की कोशिश में लग जाते हैं! घृणा मौजूद रहती है, प्रेम करने की कोशिश में लग
जाते हैं!
एक
फकीर के पास किसी आदमी ने जाकर कहा। वह फकीर कभी-कभी उस आदमी के द्वार पर भीख
मांगने आता था। कई बार उसने भीख दी थी। एक दिन उसके झोपड़े पर जाकर कहा कि आज मैं
भी भीख मांगने आया हूं। मेरे भीतर बहुत घृणा है। मेरे भीतर बहुत हिंसा है और क्रोध
है। मेरे भीतर बहुतर् ईष्या है, बहुत
जलन है। मैं कैसे इनसे छुटकारा पाऊंगा? मुझे कुछ रास्ता बता दो।
उस
फकीर ने कहा,
कल जब
मैं भोजन मांगने आऊंगा तेरे द्वार पर, तभी रास्ता भी बता दूंगा।
वह
फकीर दूसरे दिन फिर भोजन मांगने आया। भिक्षा का पात्र उसने उस घर के सामने फैला
दिया। उस आदमी ने आज बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाया था। आज उस फकीर को भिक्षा और ही
ढंग से देनी थी। आज उससे कुछ लेना भी था। वह सारे फल और मिठाइयां लेकर भिक्षा के
पात्र में डालने आया तो देखकर हैरान हो गया कि भिक्षा के पात्र में तो कंकड़, पत्थर, गोबर पड़ा हुआ था! उसने हाथ
रोक लिया और कहा,
महाशय, भिक्षु जी, इस पात्र में मैं कैसे ये
मिठाइयां डालूं?
भिक्षु
ने कहा,
डाल दो, क्या हर्जा है?
उसने
कहा, सब खराब हो जायेगा। यह पात्र
तो गंदा है। पहले पात्र को धो लो।
संन्यासी
ने पात्र धो लिया। फिर मिठाई दे दी। भिक्षु वापस लौटने लगा तो उसने कहा, आपने कहा था, कुछ मुझे भी कहेंगे।
उस
संन्यासी ने कहा,
मैंने
कह दिया है। वह इस पात्र में गंदगी पड़ी है, इसमें तुम मिठाई डालने को तैयार नहीं हो! और
भीतर हिंसा पड़ी है तो अहिंसा कैसे डाली जा सकती है! भीतर क्रोध है तो क्षमा कैसे
डाली जा सकती है! तुम्हें यह दिखता है कि थोड़े से कंकड़, पत्थर, गोबर, सब मिठाइयों को खराब कर देंगे।
लेकिन तुम्हें यह नहीं दिखता कि तुम्हारे भीतर सब पड़ा है और तुम उसी में भगवान तक
को डालने का प्रयत्न कर रहे हो!
लोग
आते हैं,
पूछते
हैं कि भगवान को कैसे पायें? वे यह
नहीं कहते कि अपने पात्र को कैसे साफ करें! वे कहते हैं, भगवान को कैसे पायें! वे कहते
हैं, प्रार्थना कैसे करें! वे यह
नहीं कहते कि यह घृणा और क्रोध!
जीवन
के इन तथ्यों को हम देखते नहीं, जो अभी
हैं! और उन तथ्यों को पाना चाहते हैं, जो कभी होंगे! तो उन्हें जान लेना चाहिए, वे कभी भी नहीं होंगे और मन
एक खिंचाव में पड़ जायेगा। क्रोध भीतर होगा और प्रार्थना की चेष्टा चलेगी। यह कितना
असंभव तनाव है। क्रोध करने वाला चित्त कैसे प्रार्थना कर सकता है? वह प्रार्थना में ही क्रोध से
भरा रहेगा।
घरों
में देखिये! जो प्रार्थना करते हैं, जो प्रार्थना भी कर रहे हैं और चारों तरफ
देख भी रहे हैं कि कब क्रोध का अवसर मिल जाये! पूजा और प्रार्थना करने वाले लोग
अकसर क्रोधी हो जाते हैं। और उसका कारण है, वह अकारण नहीं। भीतर क्रोध है, ऊपर से प्रार्थना की कोशिश चल
रही है! भीतर जो है, वही सच
है।
ऊपर जो
चल रहा है,
वह सच
नहीं है। वह झूठ है। लेकिन भविष्य की आशा है कि कभी प्रार्थना पूरी हो जायेगी, कभी क्रोध खत्म हो जायेगा।
क्रोध कभी खत्म नहीं होगा। क्रोध को किसी प्रोसेस, किसी प्रक्रिया के द्वारा कभी
खत्म नहीं किया जा सकता। क्रोध को, घृणा को, हिंसा को-- जो भी हमारे भीतर गलत है, उसको कभी भी हम धीरे-धीरे दूर
नहीं कर सकते।
जिंदगी
के परिवर्तन तर्क से नहीं, क्रांति
से होते हैं।
अगर
आपको अपने भीतर की हिंसा दिखाई पड़ जाये तो इसी क्षण एक छलांग लग जायेगी, जैसे सांप को देखकर लग जाती
है। आप हिंसा के बाहर हो जायेंगे।
और यह
कल कभी नहीं होगा। वह ऐसा नहीं है कि धीरे-धीरे हम सब ठीक कर लेंगे। हम करेंगे
धीरे-धीरे ठीक और जितनी देर आप ठीक करेंगे, उतनी देर हिंसा मौजूद रहेगी। वह और मजबूत
होती चली जायेगी।
एक
आदमी एक बीज बो देता है। बीज प्रतिक्षण बड़ा हो रहा है। वह आदमी कहता है कि
धीरे-धीरे हम इस वृक्ष को उखाड़कर फेंक देंगे। और तब तक पानी भी डाल रहा है, तब तक खाद भी डाल रहा है, क्योंकि वह कहता है, धीरे-धीरे, बाद में, कभी हम इसे उखाड़कर फेंक
देंगे! वह कहता है कल; कल, फिर, आगे!
और इस
देश में तो जहां हमें पुनर्जन्मों की बहुत लंबी बात बतायी गयी है, वहां हम कहते हैं, अभी भी क्या जल्दी है! अगले
जन्म में,
उसके
आगे देखेंगे!
हिंदुस्तान
के पास भविष्य की सबसे बड़ी योजना है! इतनी कि दुनिया के किसी मुल्क के पास नहीं
है! हमारे लिए समय की कमी ही नहीं है! हम कहते हैं, अनंत-अनंत जन्म हैं, अनंत-अनंत आगे बीतेंगे! गलत
नहीं कहते हैं हम,
जिन्होंने
कहा है,
उन्होंने
जानकर कहा है। लेकिन जिन्होंने सुन लिया है, उनके लिए घातक हुआ है। अगर यह जन्म भी खो
गया तो नुकसान क्या है! आगे और जन्म हैं!
हिंदुस्तान
के पास भविष्य का सबसे लंबा विस्तार है। और इसलिए हिंदुस्तान का वर्तमान सबसे
ज्यादा निकृष्ट और नीचा हो गया है। भविष्य का इतना बड़ा विस्तार है कि उसकी वजह के
वर्तमान को बदलने की जरूरत नहीं रहेगी।
और
ध्यान रहे,
जो भी
होना है,
वह अभी
होना है,
यहां
होना है,
इसी
क्षण होना है,
क्योंकि
जिंदगी एक छलांग है।
जब
हमें कोई चीज दिखाई पड़ती है, हम
एकदम बदल जाते हैं। फिर ऐसा नहीं होता कि हम धीरे-धीरे बदलेंगे।
धीरे-धीरे
बदलने की बात हमारे मोह को प्रकट करती है कि हम बदलना नहीं चाहते। इसीलिए हम कहते
हैं, धीरे-धीरे बदलेंगे। और बदलना
हम क्यों नहीं चाहते? क्योंकि
हमने देखा ही नहीं है इस तथ्य को कि भीतर क्या है! अगर आपको पता चल जाये कि भीतर
कैंसर है,
तब आप
यह नहीं कहते कि धीरे-धीरे। आप अभी भागते हैं, कहते हैं, इसी वक्त कुछ करना पड़ेगा!
लेकिन
यह कैंसर कुछ भी नहीं है। हिंसा और भी बड़ा कैंसर है, क्रोध और भी बड़ा कैंसर है, घृणा और बड़ा कैंसर है। कैंसर
तो सिर्फ शरीर को खाता है। घृणा, हिंसा
और क्रोध तो पूरी तरह आत्मा को खा जाते हैं। लेकिन वे हमें दिखाई नहीं पड़ते! हमने
कभी देखा ही नहीं है। हम उन्हें देखने से बचते हैं! जब भी देखने का अवसर आ जाये, हम इधर उधर देखने लगते हैं!
फिर हम किनारे देखने लगते हैं, सीधा
नहीं देखते हैं!
और
हमने ऐसी तरकीबें निकाली हैं अपने को झुठलाने की, प्रवंचना की! अगर भीतर क्रोध
है तो हम चाहते हैं कि यह क्रोध तो दूसरे को सुधारने के लिए है! अगर भीतर हिंसा है
तो हम कहते हैं कि हिंसा नहीं होगी तो लोग समझेंगे कि हम कायर हैं, कमजोर हैं! अगर भीतरर् ईष्या
है तो हम कहेंगे कि भीतरर् ईष्या नहीं होगी तो प्रतिस्पर्धा कैसे होगी!
प्रतिस्पर्धा नहीं होगी तो विकास कैसे होगा! हम अपने भीतर के सब जहर, सब रोगों की सुरक्षा के लिए
बहुत आयोजन किये हुए हैं, बहुत
दलीलें इकट्ठी किये हुए हैं! हम अपने भीतर की सब बुराइयों की रक्षा करते हैं और
फिर कहते हैं कि धीरे-धीरे बदलेंगे! यह धीरे-धीरे बदलना भी, न बदलने की तैयारी है।
जो
आदमी कहता है कि धीरे-धीरे बदलेंगे, वह नहीं बदलना चाहता है।
उसे
शायद पता भी नहीं है कि जो है भीतर; वह कितना रुग्ण, कितना बीमार, कितना कुरूप, कितना गंदा है। लेकिन हम
शास्त्रों को पढ़ लेते हैं कि भीतर तो परमात्मा का निवास है, भीतर तो आत्मा है! उस भीतर का
हमें कोई पता ही नहीं है, जहां
आत्मा है और जहां परमात्मा है।
अगर हम
भीतर गये तो मिलेगी घृणा, आत्मा
नहीं। अगर हम भीतर जायेंगे तो मिलेगा क्रोध, आत्मा नहीं। अगर हम भीतर जायेंगे तो
मिलेगीर् ईष्या,
मिलेंगे
सब तरह के जहर,
आत्मा
नहीं। किताबों में लिखा है कि आत्मा भीतर है। जब ये सब भीतर नहीं होंगे, तब वह मिलेगा, जो आत्मा है, जो परमात्मा है। लेकिन अभी तो
यह सब दूषित है और इसको हम देखने से बचना चाहते हैं! हम कहते हैं, देखने की क्या जरूरत है, धीरे-धीरे हम बदल लेंगे!
आत्म-साक्षात्कार
का पहला कदम भीतर के कुरूप का साक्षात्कार है। आत्मा-साक्षात्कार उसे देख लेता है, जो भीतर है और तब उस क्षण
बदलाहट शुरू हो जाती है। एक क्षण रुकना नहीं पड़ता। देखा और बदलाहट शुरू हो जाती
है। निरीक्षण की,
देखने
की, इतनी बड़ी क्षमता है, जिसका कोई हिसाब नहीं।
क्रांति
का एक सूत्र है भीतर जो है, उसके
प्रति जाग जाना।
लेकिन
हम तो भविष्य के प्रति जागे हुए हैं। जो है, उसके प्रति नहीं जागते हैं! हम चूके हुए हैं
उस बिन्दु से जहां हम हैं। और भागेंगे वहां, जहां हम नहीं हैं! भागते रहते हैं, भागते रहते हैं, जहां हम नहीं हैं! और जहां हम
हैं, वहां हम आंख भी नहीं उठाकर
देखते कि कहां हम हैं, हम
क्या हैं!
अच्छे-अच्छे
सिद्धांतों की बातें हमें कंठस्थ हो गयी हैं, उनको हम दोहराये चले जाते हैं! और हमने हर
चीज को न्याययुक्त ठहराने की व्यवस्था कर ली है! हम कहते हैं हिंसा है, क्योंकि पिछले जन्म में बुरे
काम किये थे,
इसलिए
हिंसा बाकी रह गयी थी। वह तो भोगनी पड़ेगी! क्रोध है, क्योंकि पीछे जो किया था, वह क्रोध पैदा कर गया है! जो
हमारे भीतर हैं,
उसके
लिए हम दलीलें खोजते हैं कि वह क्यों है! दलीलें खोजकर हम निश्चिंत हो जाते हैं!
हमें
पता चल गया है कि वह सब क्यों है! और हम पूछते हैं कि इसे मिटायें कैसे! हमें
विधियां बताने वाले लोग भी हैं। वे कहते हैं कि अगर क्रोध को मिटाना है तो
क्षमाभाव ग्रहण करो! अगर सेक्स को मिटाना है तो ब्रह्मचर्य का व्रत लो! अगर हिंसा
मिटानी है तो अहिंसा का पालन करो! इससे ज्यादा खतरनाक शिक्षा नहीं हो सकती है, और नहीं है। वे हिंसक को
समझाते हैं कि तुम अहिंसा का भाव ग्रहण करो!
अब
हिंसक अहिंसा का भाव कैसे ग्रहण कर सकता है? यह असंभावना है। हिंसक कैसे अहिंसक का भाव
ग्रहण कर सकता है,
यह कभी
आपने सोचा?
क्रोधी
कैसे क्षमा की धारणा कर सकता है, यह कभी
आपने सोचा?
और
कामी कैसे ब्रह्मचर्य का व्रत ले सकता है, यह कभी आपने सोचा? हालांकि, कामी ब्रह्मचर्य का व्रत लेते
हैं, और हिंसक अहिंसक का व्रत
ग्रहण करते हैं,
और
लोभी अलोभ की बात करते हैं, आसक्त
अनासक्त के भाव लेते हैं! और हम कभी सोचते नहीं कि यह क्या हो रहा है?
इससे
सिर्फ तनाव पैदा होता है। जो है और जो होना चाहिए, उसमें तनाव पैदा होता है। वह
तनाव मस्तिष्क की सारी शक्तियों को, प्राण की सारी ऊर्जा को नष्ट करता है, और कुछ भी नहीं करता है।
हर
आदमी तना हुआ है,
क्योंकि
हर आदमी जो है,
उसे
देखने को राजी नहीं है! और जो नहीं है, वह होने की कोशिश कर रहा है! हर आदमी तना
हुआ है,
क्योंकि
वह जो है,
उसे
देखता नहीं। और जो नहीं है, उसे
होने की चेष्टा में संलग्न है! कितना तनाव पैदा नहीं हो जायेगा? इसी तनाव में मनुष्य की सारी
शक्ति क्षीण हो जाती है। फिर मनुष्य शक्ति का एक अंबार नहीं रह जाता, फिर उसके पास कुछ भी शक्ति
नहीं होगी।
और एक
दुष्परिणाम और घटित होता है कि जब बार-बार सोचता है कि यह हो जाऊं, यह हो जाऊं और बार-बार पाता
है कि वह नहीं हो पाता, तब
आत्मविश्वास क्षीण होता चला जाता है।
मैं
कलकत्ता में था। एक बहुत अदभुत वृद्ध आदमी, जो चल बसे, उनसे मैं बात कर रहा था।
उन्होंने खड़े होकर सभा में यह कहा कि मैंने अपनी जिंदगी में चार बार ब्रह्मचर्य का
व्रत लिया। सुनने वालों ने सोचा, बहुत
गजब का काम किया,
चार
बार जीवन में व्रत लिया!
लेकिन
वह बूढ़ा हंसने लगा और उस बूढ़े ने कहा, समझ लो चार बार व्रत रखा, उसका मतलब क्या होता है? और पांचवीं बार नहीं लिया तो
यह मत समझना कि व्रत पूरा हो गया। पांचवीं बार नहीं लिया, क्योंकि समझ में आ गया कि
व्रत पूरा नहीं हो सकता है। और चार बार व्रत के असफल होने से जो आत्मग्लानि पैदा
हुई, वह अलग, जो आत्महीनता पैदा हुई वह अलग, जो अपने पर विश्वास खो गया वह
अलग।
दुनिया
में नियम और व्रत देने वाले लोगों ने मनुष्य की आत्मा को हीनता एवं ग्लानि से भर
दिया है। एक-एक आदमी की आत्मा ग्लानि से भर गयी है। उसे लगता है कि इससे कुछ नहीं
हो सकता,
क्योंकि
कितनी बार व्रत लिया और कुछ भी नहीं होता है। हर बार हार जाते हैं तो हारने की
धारणा मजबूत हो जाती है। हिंसा नहीं छूटती, सेक्स नहीं छूटता। लेकिन सेक्स नहीं छूट
सकता है,
क्योंकि
व्रत लेने वाले को बार-बार व्रत लेने से स्पष्ट हो जाता है।
और तब
वह सोचता है कि महावीर का छूट गया होगा तो वह तीर्थंकर थे। हम साधारण आदमी हैं, यह हमारे वश की बात नहीं है।
फिर वह सोचता है,
पिछले
जन्मों में दुष्कर्म किये होंगे, उनके
कारण नहीं छूटता! फिर वह सोचता है कि भविष्य में कोशिश करते रहेंगे, जन्मों-जन्मों में छूटने वाली
चीज है,
धीरे-धीरे
छूट जायेगी! और इस तरह आदमी जैसा है, वैसा ही रह जाता है और उसके जीवन में कोई
क्रांति नहीं हो पाती।
नहीं, सब छूट सकता है--इसी क्षण।
लेकिन कल कभी नहीं छूट सकता है। फिर क्या करें?
पहली
बात है कि कल को छोड़ने की धारणा से छुटकारा चाहिए। यह खयाल ही भूल जायें कि कल कुछ
हो सकता है,
क्योंकि
आप अभी हैं--समय अभी है, घृणा
अभी है। कल की बात क्यों करते हैं? और कल भी आप होंगे--यही घृणा होगी, यही समय होगा। फिर कल क्या
करेंगे?
कल कुछ
नया हो जाने वाला है?
आज से
आप कल और कमजोर होंगे। और आज से कल घृणा और मजबूत होगी। क्योंकि एक दिन घृणा ने और
यात्रा कर ली होगी, और
आपको और कमजोर कर दिया होगा। कल आप कमजोर होंगे। आपका क्रोध कल और भी मजबूत होगा, क्योंकि कल तक क्रोध ने और
यात्रा कर ली होगी, जड़ें
फैला दी होंगी। कल तक क्रोध कई बार हो चुका होगा। फिर आप कहेंगे कि आगे, कल करूंगा!
और यह
यात्रा जारी रहेगी। मरते वक्त आप क्रोधी मरेंगे, कामी मरेंगे, हिंसक मरेंगे। फिर आप सोचेंगे, अगले जन्म में होगा! अगले
जन्म में आप और कमजोर हो जायेंगे! भविष्य आपको मजबूत नहीं करता है। भविष्य आपको
कमजोर करता चला जायेगा, क्योंकि
जिन चीजों से आप कमजोर हो रहे है, उनकी
यात्रा जारी रहेगी।
अगर
टूटना है कुछ तो आज टूटेगा, कल
नहीं। अगर बदलना है कुछ तो अभी, कल
नहीं।
लेकिन
बदलने की चेष्टा में कुछ नहीं बदल जाता है, क्योंकि बदलने की चेष्टा आप करते हैं। आप, जो कि हिंसक हैं, क्रोधी हैं--कैसे अहिंसक हो
जाइएगा?
फिर
क्या किया जा सकता है? कल
बदला जा सकता है?
और मैं
फिर कह रहा हूं कि बदला ही नहीं जा सकता है। फिर क्या किया जा सकता है?
जागा
जा सकता है। जो स्थिति है अभी, यहीं, उसके प्रति पूरी तरह जागा जा
सकता है।
क्या
है मेरे भीतर?
एक-एक
पल, रोआं-रोआं अहंकार से भरा हुआ
है। उठना,
बैठना
अहंकार से भरा हुआ है। आंख के इशारे में घृणा है। चलते होते हैं--हिंसा है, घृणा है। जिंदगी की पूरी-पूरी
व्यवस्था में वह सब छिपा है, जो
कभी-कभी प्रकट होता है। हम सोचते हैं, कभी-कभी मुझे क्रोध आता है! ऐसी भूल में मत
पड़ना। क्रोध सदा रहता है, कभी-कभी
प्रकट होता है। जो नहीं है, वह प्रकट
कैसे हो जायेगा?
एक
बिजली के तार में बिजली दौड़ रही है। बटन दबाते हैं तो बल्ब जल जाता है, बटन नहीं दबाते तो बल्ब बुझा
रहता है। लेकिन बिजली दौड़ रही है। बटन दबाइयेगा अभी तो बल्ब जलेगा--बिजली अगर
दौड़ती होगी। अगर नहीं दौड़ती होगी तो बल्ब क्या जलेगा--बटन कोई कितना ही दबाये?
अगर
मुझे आकर कोई गाली दे गया और भीतर क्रोध की करेंट दौड़ रही है तो क्रोध निकलेगा
कहीं से। वह देता रहे गाली, बटन
दबाता रहे,
लेकिन
भीतर अगर करेंट दौड़ रही है तो बल्ब जल जायेगा। लेकिन हम सोचेंगे कि कभी-कभी क्रोध
होता है! कभी-कभी क्रोध नहीं होता है! क्रोध प्रतिपल पूरे वक्त है। घृणा कभी-कभी
नहीं होती,
वह
मौजूद है। वह बिलकुल मौजूद है, हमेशा।
हिंसा पूरे क्षण मौजूद है।
हम
हिंसा ही हैं,
क्रोध
ही हैं,
घृणा
ही हैं--और इसको जानना पड़ेगा, इसको
पहचानना पड़ेगा,
इसको
भीतर खोजना पड़ेगा,
इसके
पूरे के पूरे दर्शन करने पड़ेंगे, और यह
दर्शन तो अभी करने पड़ेंगे, क्योंकि
हम अभी मौजूद है;
वह सब
भी मौजूद है,
जिसका
दर्शन करना है। खोलें अपने भीतर और अपने को पूरा देखें कि यह मैं हूं।
और
जैसे ही यह दिखाई पड़ जाये कि यह मैं हूं--आप हैरान हो जायेंगे कि बदलाहट शुरू हो
गयी। वह आपको करनी नहीं पड़ेगी। वह बदलाहट वैसे ही हो जाती है, जैसे सांप रास्ते पर खड़ा है
और छलांग लगा जाते हैं। एक क्षण भी नहीं लगता छलांग लगाने में! सोचना भी नहीं
पड़ता! अपने भीतर भी नहीं सोचना पड़ता कि मैं बचूं। छलांग हो जाती है।
अगर
घृणा का पूरा तथ्य दिखाई पड़ जाये, आप इसी
क्षण घृणा के बाहर हो जायेंगे--इसी क्षण। न कोई पिछला जन्म रोकेगा, न कोई पिछला कर्म रोकेगा। कोई
रोकने वाला नहीं है। लेकिन दर्शन हो जाये तथ्य का--नग्न तथ्य का। वह जो नग्न तथ्य
है हमारे भीतर जिंदगी का, वह दिख
जाये, छलांग हो जाती है।
यह
पहली बात मैंने कही--अतीत का बोझ छोड़ दें और भविष्य की मानसिक योजना भी कि मैं यह
हो जाऊंगा,
मैं यह
हो जाऊंगा। नहीं,
जो हम
हैं, उसे जानना है; जो मैं हूं, उसे जानना है। बहुत कष्टपूर्ण
है, नहीं तो हम भविष्य की योजना
ही नहीं करते। बहुत कष्टपूर्ण है; जो हूं, उसे जानना, क्योंकि वह बहुत कुरूप है। वह
बहुत कुरूप है,
जो मैं
हूं।
मैंने
सुना है एक स्त्री थी, वह कभी
दर्पण के सामने नहीं आती थी। और अगर कोई उसके सामने दर्पण ले आये तो वह दर्पण तोड़
डालती थी,
क्योंकि
वह कहती थी कि दर्पण बड़े गंदे हैं! इन दर्पणों के कारण मैं कुरूप दिखाई पड़ने लगती
हूं! वह कुरूप थी। लेकिन जब तक दर्पण सामने नहीं आता था, तब तक तो कुरूप नहीं थी; तब तक वह सुंदर थी, क्योंकि तब तक कल्पना की बात
थी। दर्पण सामने उसे बताता था कि वह क्या है। और दर्पण सामने नहीं होता था तो वह
सुंदर थी। वह अपनी किसी कल्पना में थी। फिर किसी के देखने का तो सवाल नहीं था। तो
वह दर्पण देखती ही नहीं थी, वह
दर्पण तोड़ डालती थी और वह मानती थी कि दर्पण के कारण ही मैं कुरूप हो जाती हूं! और
जब तक दर्पण नहीं होता है, मैं
सुंदर होती हूं! वह औरत पागल रही होगी!
लेकिन
हम सब भी वैसे ही पागल हैं। हम सब भी उसे देखने से बचते हैं, जो हम हैं! और उसे देखने से
बचने के लिए हमने भी कल्पना में एक इमेज बना रखी है। हर आदमी ने अपनी प्रतिमा बना
रखी है कि मैं यह हूं। वह प्रतिमा बिलकुल झूठी है। वह प्रतिमा वही नहीं है, जो हम हैं। उसे छिपाने के लिए
हमने प्रतिमा बना रखी है कि हम यह हैं।
हर
आदमी अपने को कुछ और समझता है, उससे
जो वह है। और आप इसे सोचेंगे तो वह बहुत साफ दिखाई पड़ जायेगा कि जो मैं हूं, वह मैं कभी नहीं हूं। कभी
स्वीकार नहीं करता कि मैं यह हूं! अगर कोई स्वीकार करने के लिए मजबूर करे तो झगड़ा
करूंगा,
लडूंगा, अपनी प्रतिमा को बचाने की
कोशिश करूंगा कि मैं यही हूं।
लेकिन
ध्यान रहे,
ये
सारी प्रतिमायें मेरे व्यक्तित्व को रूपांतरित होने से रोकेंगी। ये क्रांति में
नहीं जाने देंगी,
ये
बदलने नहीं देंगी। एक नये आदमी का भीतर जन्म नहीं हो सकेगा, क्योंकि मैंने एक झूठी
प्रतिमा बना रखी है। मैं उसी प्रतिमा को मानकर जीता रहूंगा। और जो मैं हूं, वह मैं कुछ और ही हूं, उसका मुझे पता भी नहीं चलेगा!
हमने इतना भीतर दबाया हुआ है कि हम पहचान भी नहीं पाते कि हम क्या हैं! फिर हम
नये-नये वस्त्रों में, नये-नये
मुखौटों में,
नयी-नयी
ओढ़नियों में छिपा लेते हैं, जो हम
हैं।
मेरी
दृष्टि में स्वयं की जो स्थिति है, उसको देखने से बड़ी और कोई तपश्चर्या नहीं।
धूप में खड़ा होना बहुत आसान है, भूखे
बैठ जाना भी बहुत आसान है। और अगर भूखे रहने की आदत डाल ली जाये, तब तो खाना खाना कहीं ज्यादा
कठिन है,
भूखा
रहना ही फिर ज्यादा आसान है। नग्न खड़ा हो जाना भी बहुत आसान है। ये सब छोटी बातें
हैं, जो कोई भी कर सकता है। इसमें
तपश्चर्या का कोई भी संबंध नहीं है। असली तपश्चर्या--मैं जैसा हूं, उसे जानने से शुरू होती है, क्योंकि असली कष्ट वहीं से
शुरू होते हैं,
जैसा
मैं हूं।
हम सब
समझते हैं कि हम सत्य बोलते हैं। और हम सब अगर कोई झूठ बोलता हो तो उसकी भारी
निंदा करते हैं। और हम हैरान होते हैं कि इतना अच्छा आदमी इतनी छोटी-सी बात पर झूठ
बोल गया! लेकिन हम कभी नहीं सोचते कि हमारा सारा व्यक्तित्व झूठ से खड़ा हुआ है। हम
चौबीस घंटे झूठ में हैं। झूठ न केवल बोल रहे हैं, झूठ में जी भी रहे हैं! और
यहां तक हालत पहुंच गयी है कि हमें पता भी नहीं होता है कि हम झूठ बोल रहे हैं!
मेरे
एक अध्यापक थे। मैंने कई बार ऐसा अनुभव किया कि किसी भी किताब का नाम लिया जाये और
वह जरूर कहते थे कि मैंने पढ़ी है! ऐसी कभी नहीं हुआ कि कोई किताब ऐसी हो, जो उन्होंने न पढ़ी हो! फिर
मुझे शक हुआ। मैं एक दिन गया और मैंने एक ऐसी किताब का नाम लिया, जो है ही नहीं। और वह बोले, मैंने पढ़ी है! वह तो मैंने
मैंने कोई पंद्रह-बीस साल पहले पढ़ी है। अब उसका मुझे खयाल नहीं है, लेकिन किताब मैंने पढ़ी है!
छोटी-सी बात थी,
अब
उनको झूठ बोलने से फायदा भी न था। लेकिन शायद उन्हें पता भी नहीं, शायद उन्हें खयाल भी नहीं कि
वह क्या कह रहे हैं! आदत का हिस्सा हो गया है, सहज बोल रहे हैं। उन्हें कहीं खयाल भी नहीं
है कि यह जो मैं बोल रहा हूं, उसमें
क्या प्रयोजन है!
एक
आदमी झूठ बोलता हो, कुछ
लाभ होता हो तो भी समझ में आता है। हम ऐसे झूठ भी चौबीस घंटे बोल रहे हैं, जिनसे कोई लाभ भी नहीं! लेकिन
हमारा व्यक्तित्व ही, जिसको
कहें झूठ हो गया है, वह झूठ
बोल रहा है,
वह
बोलता चला जा रहा है! यह जो ऐसा झूठ है, इसे पहचानेंगे तो मन को बड़ी पीड़ा होगी। वह
जो हमने अपनी सत्य बोलने वाले की प्रतिमा बना रखी है, एकदम खंड-खंड होकर नीचे गिर
जायेगी। गिर जानी चाहिए।
वह
जिसको भी आत्यंतिक सत्य की खोज है, जिसको भी जान लेना है कि क्या गहरे से गहरा
जीवन का सत्य है,
जिसको
भी पहचान लेना है,
उसे
जिसे परमात्मा कहें, जिसे
भी मुक्त हो जाना है, उसे
सबसे पहले अपनी झूठी प्रतिमा को तोड़ना पड़ेगा। अपने हाथों से अपनी ही मूर्ति का
भंजन करना होता है।
हम
सोचते हैं कि शायद हिंसा का मतलब यह है कि किसी आदमी की छाती में छुरा मार दो तो
हिंसा हो गयी। शब्द से भी छुरे की मार मार सकते हैं, आंख के इशारे से भी छुरे की
मार मार सकते हैं।
जब आप
अपने नौकर को देखते हैं, तब
आपने खयाल किया,
वह आंख
वही नहीं होती है,
जब आप
अपने मित्र को देखते हैं। और मित्र को जब आप देखते हैं तो आंख वही नहीं होती है, जब आप नौकर को देखते हैं!
दृष्टि का यह भेद बहुत सूम हिंसा है।
हम
सोचते हैं,
पानी
को छानकर पी लेते हैं, हम
अहिंसक हो गये! हम सोचते हैं, हम
मांसाहार नहीं करते! हम अहिंसक हो गये, ठीक है। हिंसा इतनी ही होती तो ठीक था।
हिंसा बहुत गहरी है, हिंसा
बहुत-बहुत रोयें-रोयें में समा गयी है। आदमी चलता है तो पता चल सकता है कि आदमी
हिंसक है कि नहीं। उसकी चाल में हिंसा हो सकती है, उसके उठने-बैठने में हिंसा हो
सकती है,
उसके
माथे के बालें में हिंसा हो सकती है और उसे पता भी नहीं होगा! वह सब उसमें
जीते-जीते इतने पक गये हैं कि उसे भी पता नहीं चलेगा कि वह किस तरह की हिंसायें कर
रहा है! वह हंसना हो सकता है और हंसने में हिंसा हो सकती है। वह किसी का व्यंग्य
कर सकता है और व्यंग्य करने में हिंसा हो सकती है। वह मजाक कर सकता है और मजाक में
हिंसा हो सकती है।
अगर
भीतर हिंसक चित्त है तो हम जो भी करेंगे, उसमें हिंसा होगी।
यह भी
हो सकता है,
वह
आदमी सारी दुनिया से छूटकर भाग जाये, वह जंगल में अकेला बैठ जाये तो भी हिंसा
जारी रहेगी। हिंसा हमारे व्यक्तित्व के भीतर होने का सवाल है। वह हमारे भीतरी
यौगिक का सवाल है। और उसको पहचानना पड़ेगा। हम उठते-बैठते, बात करते, चलते, सोते हिंसक तो नहीं हैं?
महावीर
एक ही करवट सोते थे। बुद्ध एक ही करवट सोते थे। आनंद उनका भिक्षु वर्षों तक उनके
साथ सोया था। वह बहुत हैरान हुआ कि वे रात में करवट क्यों नहीं बदलते! एक दिन आनंद
ने बुद्ध को पूछा कि बड़े आश्चर्य की बात है कि आप रात भर करवट क्यों नहीं बदलते? मैंने कल पूरी रात जागकर देखा
कि आप करवट बदलते हैं कि नहीं, आपने
जहां हाथ रखा,
जहां
पैर रखा,
फिर आप
रात भर वैसा ही सोते रहे हैं!
बुद्ध
ने कहा,
अकारण
करवट बदलने में हिंसा हो सकती है। कोई कीड़ा-मकोड़ा आ गया हो, पीछे विश्राम करता हो, रात के अंधेरे में करवट बदलूं, अकारण--क्या जरूरत है? जीवन में एक बार करवट बदली थी
और तब खयाल आया कि बिना करवट बदले भी सोना हो सकता है तो क्यों बदलूं।
तो
आनंद ने पूछा,
क्या
होश से सोते हैं पूरी रात, क्योंकि
हमसे तो करवट बदल जाती है, हम
बदलते थोड़े ही हैं।
बुद्ध
ने कहा,
होश से
नहीं, मन जितना शांत हो गया है, उतनी करवट बदलनी कम हो गयी
है।
आप
हैरान होंगे,
मन
जितना अशांत होगा,
रात
उतनी करवट ज्यादा बदली जायेंगी। वह जो करवट बदलना है, मौन हिंसा का हिस्सा है। एक
अशांत आदमी बैठेगा तो बैठे टांग हिलाता रहेगा! कोई पूछे कि ये टांगें किसलिए हिल
रही हैं,
यह
क्या हो गया है टांगों को? कुर्सी
पर बैठ हैं लोग--टांगें क्यों हिलती हैं? भीतर वायलेंस है, वह वायलेंस कंपा रही है, उन टांगों को! हिला रही है!
वह तो हमारे पूरे व्यक्तित्व की अंतर-धारा पहचाननी पड़ेगी कि ये पैर क्यों हिल रहे
हैं अकारण। जैसे-जैसे आदमी शांत होगा, उसका शरीर भी शांत होता चला जायेगा, उसके कंपन कम हो जायेंगे, क्योंकि कंपन भीतर की हिंसा
से पैदा होती है।
यह
व्यक्तित्व की एक-एक पर्त को उघाड़कर देखना होगा। जैसा व्यक्तित्व है, उसे पहचानना होगा।
रास्ते
पर आप जा रहे हैं,
दो
आदमी लड़ रहे हैं,
आप खड़े
होकर देख रहे हैं! आपने कभी भी नहीं सोचा होगा कि यह हिंसा है! दो आदमी लड़ रहे हैं, आप खड़े होकर क्यों देख रहे
हैं? आपको खड़े होकर देखने में रस आ
रहा है कि नहीं?
और अगर
झगड़े बिना मारपीट हुए ही समाप्त हो जायें तो आप थोड़ा-सा दुखी लौटेंगे कि नहीं? सोचेंगे व्यर्थ ही खड़े रहे, कुछ निकला नहीं! लेकिन अगर
तेजी से झगड़ा हो जाये, छुरेबाजी
हो जाये और लहू बह जाये तो आप थोड़े-से हल्के होकर लौटेंगे! मन थोड़ा निश्चिंत हो
गया होगा। ऐसा लगेगा कि कुछ हुआ, कुछ
देखा!
आखिर
ये फिल्में डिटेक्टिव, खूनी
और हत्यारों की कहानियां--क्यों पढ़ी जाती हैं? ये हिंसक चित्त के कारण हैं। जितना दुनिया
में हिंसक चित्त बढ़ता चला जायेगा, उतने
हिंसक चित्र,
हिंसक
कथायें रस देती हैं। क्यों? क्योंकि
हिंसक कथा देखते-देखते आप भूल जाते हैं कि आप कथा के हिस्से नहीं हैं--आप कथा के
हिस्से हो जाते हैं! अगर आप एक जासूसी फिल्म देख रहे हैं तो आप भूल जाते हैं कि आप
किसके साथ आत्मलीन हो जाते हैं! नायक के साथ आप एक हो जाते हैं! आप देखेंगे कि जब
नायक घोड़े पर भागा जा रहा है तेजी से तो आप भी कुर्सी पर अकड़कर बैठ गये हैं! आप
क्यों अकड़कर बैठ गये हैं? यह
आपकी रीढ़ में क्या हो गया है? यह
आकस्मिक नहीं है,
यह
भीतर की हिंसा है! आप भी किसी घोड़े पर बैठकर इसी तरह, इसी गति से यात्रा करना चाहते
हैं। किसी की छाती में इसी तरह भाला भोंकना चाहते हैं, वह भोंक नहीं सके हैं आप, कहानी को देखकर रस ले रहे हैं, तृप्त हो रहे हैं!
स्पेन
में भैंसों के साथ आदमियों को लड़ाया जाता है! लाखों लोग देखने इकट्ठे होते हैं!
भारी धूप है,
आग बरस
रही है और वे बैठे हुए हैं कि एक आदमी भैंस से लड़ रहा है! और भैंस के सींग उसकी
छाती में घुस गये हैं और लाखों लोग उत्सुकता और आतुरता से उसके गिरते हुए खून को
देख रहे हैं?
उनको
क्या हो गया है?
इन
आदमियों को क्या हो गया है? कुश्ती
देखने हजारों लाखों लोग इकट्ठे होते हैं, क्यों, किसलिए? भीतर की हिंसा को रस मिलता है!
यह रस
पहचानना पड़ेगा,
तो
हमें अपनी प्रतिमा का पता चलेगा कि प्रतिमा कैसी है? यह हम कैसे आदमी हैं? यह हमारे भीतर क्या हो रहा है?
जो
अखबार जितनी हत्याओं की, आत्महत्याओं
की, स्त्रियों को भगाने की; जितनी ही खबरें छापता है, वह उतना ही ज्यादा बिकता है!
कौन पढ़ता है?
जो लोग
पढ़ते हैं,
उनके
भीतर की किसी हिंसा को, किसी
बात को रस उपलब्ध होता है। वे इसको पढ़कर सुखी होते हैं, कहीं उन्हें कुछ आनंद आता है!
यह आनंद हिंसक है! और इसे पहचानना पड़ेगा, और यह तथ्य है। और किसी भविष्य में आप
अहिंसक नहीं हो जाने वाले हैं। इन तथ्यों को आज और यहीं देखना पड़ेगा।
गांधीजी
के आश्रम में एक दिन सुबह रामायण की कथा पढ़ी जा रही थी। एक प्रकरण में एक बहुत
अदभुत प्रसंग आया कि सीता को रावण चुराकर ले गया है तो सीता अपने हाथ के, पैर के, गले के जो आभूषण थे, फेंकती गयी, ताकि पीछे राम खोजने आयें तो
उन्हें रास्ते का पता हो सके कि सीता किस रास्ते से ले जायी गयी है। राम आये और
उन्हें वे आभूषण भी मिल गये।
लेकिन
राम आभूषण नहीं पहचान सके! उन्होंने लक्ष्मण को कहा कि सीता के आभूषण तुझे पहचान
में आते ही होंगे,
क्योंकि
मैं तो कभी उन्हें देख ही नहीं पाया और कभी उनका खयाल ही नहीं किया!
तो
लक्ष्मण ने कहा कि मैं केवल पैर के आभूषण पहचान सकता हूं, क्योंकि मैंने पैर के ऊपर कभी
आंख उठाकर नहीं देखा! तो गांधीजी ने कहा, यह बड़ी हैरानी की बात है कि लक्ष्मण इतने
दिन साथ था! तीनों थे--राम थे, सीता
थी, लक्ष्मण थे। तीनों वर्षों
जंगल में साथ हैं! और लक्ष्मण ने कभी आंख उठाकर नहीं देखा! यह बड़ी हैरानी की बात
है! इसका क्या मतलब?
तो
विनोबा ने कहा,
इसका
मतलब है कि लक्ष्मण ब्रह्मचारी थे और ऊपर आंख उठाकर उसने कभी नहीं देखा! उसने
सिर्फ पैर देखे हैं!
गांधीजी
तृप्त हुए और उन्होंने कहा, विनोबा
की व्याख्या अदभुत है और बिलकुल सही है।
लेकिन
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि विनोबा की व्याख्या एकदम गलत है। और अगर यह व्याख्या
सही है तो लक्ष्मण एकदम व्यभिचारी चित्त का आदमी था, क्योंकि लक्ष्मण सीता को भी
देखने में डरे,
यह
ब्रह्मचर्य का सबूत नहीं हो सकता, यह
व्यभिचारी चित्त का सबूत हो सकता है। लक्ष्मण ब्रह्मचर्य की स्थिति में हो तो सीता
को देखने में,
न-देखने
में क्या फर्क पड़ता है? ऐसे
नजर नीचे ही नीचे रखनी पड़े, पैर ही
पैर पर वर्षों तक,
और नजर
ऊपर जाने में डर लगे तो यह बहुत घबराएं हुए चित्त का लक्षण है। विनोबा ने लक्ष्मण
की प्रशंसा नहीं की--इससे बड़ी कोई निंदा नहीं हो सकती।
लेकिन
गांधी को विनोबा की बात जंची! वह जंची उनको, इसलिए नहीं कि वह बात सही है, वह जंची इसलिए कि उनके
ब्रह्मचर्य की धारणाएं यही हैं।
यह
ब्रह्मचारी चित्त का नहीं, अबह्मचारी
चित्त का लक्षण है। यह हमें पहचानना पड़ेगा, यह हमें अपने भीतर की खोज करनी पड़ेगी। किसी
स्त्री के चेहरे को हम इसलिए नहीं देख सकते कि भीतर काम है, वासना है। और किसी स्त्री के
चेहरे को देखने से हम आंख इसलिए भी बचा सकते हैं कि भीतर काम है और वासना है। अगर
भीतर काम और वासना नहीं है तो चेहरे को देखने की कोई विशेष चेष्टा होती है, न नहीं देखने की चेष्टा होती
है। देखने की,
या न
देखने की विशेष चेष्टा भीतर के काम का सबूत है।
सहज आप
वृक्ष को देख लेते हैं, ऊपर भी
देखते हैं,
नीचे
भी देखते हैं। और अगर वृक्ष सुंदर होता है तो आप कहते हैं, बहुत सुंदर है। लेकिन कोई
नहीं कहता है कि यह आदमी कामी है। फूल है, खिला है। आप देख लेते हैं, अपने रास्ते पर बढ़ जाते हैं
और कहते हैं,
बहुत
सुंदर हैं,
और कोई
नहीं कहता है,
यह
कामी है! और अगर एक स्त्री का चेहरा बहुत सुंदर है और देखते हैं, और आगे बढ़ जाते हैं और कहते
हैं कि बहुत सुंदर हैं तो लोग कहेंगे कि यह आदमी कामी है!
यह
आश्चर्यजनक बात है। अगर एक पुरुष का चेहरा सुंदर है और एक स्त्री खड़ी होकर देखती
है और कहती है,
सुंदर
है तो हम कहेंगे,
यह
स्त्री कामी है! अगर सरलता जीवन में हो तो जैसे फूल सुंदर है, जैसे चांद सुंदर है, वैसे आदमी के चेहरे भी सुंदर
होते हैं। और जिस दिन दुनिया अच्छी होगी और भली होगी, उस दिन किसी अजनबी को रास्ते
पर रोककर कह सकेंगे कि बहुत सुंदर आंखें हैं तुम्हारी, बहुत आनंद हुआ।
लेकिन
आज अगर किसी को ऐसा रोककर कहें तो झगड़ा भी हो सकता है, क्योंकि चित्त कामुक है! अगर
किसी स्त्री को रोककर कहें कि बहुत सुंदर आंखें हैं, बहुत खुश हुआ, तो झंझट हो जायेगी, क्योंकि स्त्री पूछेगी, तुम मेरे कौन हो--पति हो, बेटे हो? पहले यह सिद्ध करो। अगर यह
कोई भी नहीं हो तो तुमने अजनबी, राह
चलते मेरी आंखों के सौंदर्य की बात कैसे की? ब्रह्मचारी को पैर पर नजर रखनी चाहिए। तो
तुमने आंखें देखी ही कैसे?
लेकिन
हमें पता नहीं है कि पूरी सभ्यता कामुक है! हमारे सारे प्रतिमान कामुकता के हैं!
और हम पहचान भी नहीं पाते। और जब हम इस तरह की व्याख्याएं कर लेते हैं तो कामुकता
को जानना मुश्किल हो जाता है। नहीं, भीतर एक-एक पर्त उघाड़कर देखनी है कि मैं जो
कर रहा हूं,
जो सोच
रहा हूं,
जो जी
रहा हूं,
वह
क्या है?
अपनी
नग्नता में वह सीधा और सच्चा है। वह सीधा और सच्चा जो है, अगर देखा जा सके तो उससे
तत्क्षण छुटकारा हो सकता है।
धर्म
क्रांति है,
धर्म
विकास नहीं है। लेकिन क्रांति होती है तथ्य में, दर्पण में।
इसलिए
मैंने आपसे यह कहा। मत सोचें कि कल आप ऐसे हो जायेंगे। आज क्या हैं, उसे देखें। भविष्य के तनाव को
बिलकुल छोड़ दें। वह प्रारंभ का खयाल कि मैं यह हो जाऊंगा, बिलकुल छोड़ दें और जो है, उसे जानें।
और
आश्चर्य की घटना घटती है कि जो है, उसे जानते ही जो गलत है, वह विसर्जित हो जाता है; जो श्रेष्ठ है, वह प्रकट हो जाता है। जो है, उसे जानते ही, भीतर और भीतर प्रवेश शुरू हो
जाता है,
क्योंकि
निकृष्ट गिरने लगता है, व्यर्थ
गिरने लगता है,
कुरूप
विसर्जित होने लगता है, सुंदर
खिलने लगता है,
शिव
प्रकट होने लगता है, सत्य
की निकटता बढ़ जाती है। और एक दिन वह जो वस्तुतः हम हैं भीतर, वह प्रकट हो जाता है। एक दिन
का मेरा मतलब कल से नहीं; एक दिन
से मेरा मतलब--अभी, यहीं, इसी क्षण। जितनी तीव्रता होगी
तथ्य को जानने की,
सत्य
के हम उतने ही निकट पहुंच जाते हैं।
लेकिन
हमारे मन की जो आदत है, वह
कहेगी,
आप
बिलकुल ठीक कह रहे हैं। हम इसका प्रयोग करेंगे, बस बात खत्म हो गयी, वह सब व्यर्थ हो गया। आपका मन
कह रहा होगा कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं, करेंगे। करेंगे नहीं; करना है--अभी, आज, यहीं। सारा जोर मेरा इस क्षण
पर है,
क्योंकि
इस क्षण के अतिरिक्त और कुछ भी सत्य नहीं। जो होगा, इस क्षण में ही हो सकता है।
नहीं करना हो,
तो फिर
कल के क्षण की बात सोची जा सकती है। न करना हो तो सोचना चाहिए, कल करेंगे। जो भी न करना हो
उसे कल पर छोड़ देना चाहिए, जो भी
करना हो--उसे अभी।
अगर हम
अतीत के बोझ और भविष्य की योजना से मुक्त हो जायें तो जीवन बदल जाता है। ऐसा जीवन, जिस पर अतीत का बोझ नहीं, भविष्य का तनाव नहीं, ऐसे जीवन को भागवत जीवन कहता
हूं। ऐसा जीवन भगवान को उपलब्ध हो जाता है।
यह जो
मैंने कहा,
इसे आप
इसी तरह मत सोचना कि मैं जो कह रहा हूं, वह ठीक है या गलत; वह किसी किताब में लिखा है, कि नहीं लिखा है। इन्हें आप
इस तरह से मत सोचना, क्योंकि
इस तरह सोचने से कोई भी अर्थ, प्रयोजन
नहीं है। इसे आप इस तरह सोचना कि जो मैंने कहा है, वह आपके भीतर सही है या गलत।
इस तरह
मत सोचना,
जैसा
मैंने गांधी की बात कही, विनोबा
की बात कही। न मुझे गांधी से मतलब, न विनोबा से। इस तरह मत सोचना कि गांधी ने
ऐसा क्यों कहा,
कहा कि
नहीं कहा;
या
दूसरी बात कही विनोबा ने, कुछ और
मतलब रहा होगा। सवाल यह है कि जब आप किसी स्त्री के पैर पर ही आंख रखें और ऊपर आंख
उठाने की हिम्मत न पड़े तो खोज करनी है कि बात क्या है! मैं डरा हुआ क्यों हूं? यह आंख मैं सरलता से क्यों
नहीं उठाता?
उससे
मेरे कौन से संबंध हैं?
जब
रास्ते पर रुक जाएं आप, किसी
को लड़ते देखें तो उस वक्त देखना कि चित्त कोई प्रसन्नता अनुभव कर रहा है? चित्त चाहता है कि झगड़ा हो
जाये? अपनी इस चित्त-दशा को खोजना, तो जो मैं कह रहा हूं, उसका कोई परिणाम निश्चित ही
हो सकता है। और क्रांति भी हो सकती है।
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