ज्योति से ज्योति जले-(सूंदर दास)
प्रवचन-छठवां
प्रश्नसार:
1--भगवान्! आप दुनिया को क्या संदेश देना चाहते
हैं?
2--आग में जल गई यह दीवानी,
भस्म हुई अब फिरती है
सिंदूरी मेघा बरसे,
रिमझिम बरसे रुनझुन बरसे
जितने भीगे उतने तरसे । . . .
मंजिल का भी होश नहीं
राहों का भी ज्ञान नहीं
अतंरघट में किरणें उतरीं
हृदय कंवल है खिलता जाता
किंतु प्रभु! दृष्टि तुम्हारी एक
सारी पीड़ा हर लेती है
भस्मित करके जीवित करते
कितनी करुणा बरसाते हो!
3--संसार में इतना दुःख क्यों है?
4--मैं आपकी बातें सुनकर नशे में आ गया हूं।
नाचना चाहता हूं, लेकिन मेरे पैरों में जंजीरें हैं।
क्या इन जंजीरों से मुझे छुटकारा मिल सकता है?
आपने हजारों को अपने रंग में रंग दिया है,
इसके पीछे राज क्या है?
पहला प्रश्न : भगवान्! आप दुनिया को क्या संदेश
देना चाहते हो?
मेरा संदेश संक्षिप्त है--ऐसे संक्षिप्त , ऐसे सारे शास्त्र भी उसमें समा जाते हैं। और किसी एक परंपरा के शास्त्र ही
नहीं, सभी परंपराओं के शास्त्र समा जाते हैं। और
अध्यात्मवादियों के शास्त्र ही नहीं, भौतिकवादियों के
शास्त्र भी समा जाते हैं।
मैं ऐसा धर्म देना चाहता हूं, जो आस्तिक और नास्तिक
दोनों के लिए समान रूप से उपलब्ध हो। अब तक तो सारे धर्म आस्तिक को उपलब्ध रहे हैं;
जो मान सके उसको उपलब्ध रहे हैं। लेकिन उसका क्या जो न मान सके?
क्या उसे छोड़ ही दोगे? क्या उसके लिए परमात्मा
तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं होगा? तब तो यह पृथ्वी पूरी की
पूरी धार्मिक कभी भी न हो सकेगी। तब तो कुछ कमी बनी ही रहेगी। तब तो कुछ लोग
अधार्मिक होने को मजबूर ही रहेंगे।
फिर, जो मान सकता है उसके जीवन की क्रांति भी कुनकुनी होती
है। उसके जीवन की क्रांति में बड़ी ऊर्जा नहीं होती । एक अर्थों में उसकी क्रांति
नपुंसक होती है। वह मान सकता है, इसलिए मान लेता है। उसके
मानने में कोई संघर्ष नहीं होता। उसके मानने में कोई अभियान नहीं होता। उसके मानने
में सत्य की कोई खोज, गवेषणा नहीं होती।
असली खोज तो वह करता है जो नहीं मान पाता है; जिसके भीतर से "नहीं' का स्वर उठता है। क्रांति
तो वहीं घटित होती है। इस जगत् के जो परम धार्मिक लोग थे, वे
वे ही थे, जो नास्तिकता से गुजरे। जिन्होंने आस्तिकता से
शुरू किया उनकी आस्तिकता हमेशा लचर रही, कमजोर रही, लंगड़ी रही। मनुष्य यदि धार्मिक नहीं हो पाया तो इसी लचर आस्तिकता के कारण।
विश्वास करो . . . जो कर सके, ठीक; लेकिन
जो न कर सके वह कैसे करे? विश्वास कोई करने की बात है?
हो जाए तो हो जाए। न हो तो फिर क्या? क्या
परमात्मा तक पहुंचने का द्वार बंद ही हो गया? यह तो अन्याय
होगा।
मैं एक ऐसा धर्म देना चाहता हूं, जो श्रद्धा का भी
उपयोग करे और संदेह का भी; जो कहेः श्रद्धा से भी पहुंचा जा
सकता है और संदेह से भी पहुंचा जा सकता है। क्योंकि सभी रास्ते उस तक ले जाते हैं।
तुमने यह तो सुना होगा . . . जैसा रामकृष्ण ने कहा वह भी एक क्रांति
की बात थी, पहली दफा उन्होंने कही थी . . . कि हिंदू भी वहीं
पहुंच जाता है, मुसलमान भी वहीं पहुंच जाता है, ईसाई भी वहीं पहुंच जाता है, जैन भी वहीं पहुंच जाता
है। मैं उससे भी आगे एक कदम उठाना चाहता हूं, उससे भी बड़ी
क्रांति की बात तुमसे कहना चाहता हूं: आस्तिक ही नहीं पहुंचता वहां, नास्तिक भी पहुंच जाता है। रामकृष्ण ने यह नहीं कहा। रामकृष्ण वहां डगमगा
गए। हिंदू भी आस्तिक है, मुसलमान भी आस्तिक है, ईसाई भी आस्तिक है। ये सब पहुंच जाते हैं तो आस्तिक पहुंच जाते हैं;
नास्तिक के संबंध में क्या? चार्वाकों के
संबंध में क्या?
और, पृथ्वी का बड़ा अंश नास्तिक है, बहुमत
नास्तिक है। कहो तुम कुछ, मंदिर भी जाओ, मस्जिद भी जाओ, पूजा भी करो, प्रार्थना
भी करो; लेकिन अंतस्तल में टटोलोगे तो पाओगे कि मनुष्य-जाति का
बहुमत नास्तिक है। और यह स्वाभाविक है, इसमें कुछ
अस्वाभाविकता नहीं है। जिसे जाना नहीं उसे मानें कैसे? जिससे
प्रतीति नहीं हुई, संबंध नहीं हुआ, उसे
स्वीकार कैसे करें? उसे स्वीकार करना तो झूठ होगा। और झूठ
कहीं परमात्मा तक ले जा सकता है?
सत्य तक जाना हो तो पहला कदम भी सत्य में ही उठना चाहिए। मान लिया
क्योंकि तुम्हारे पुरखे कहते हैं; मान लिया क्योंकि समाज कहता है;
मान लिया क्योंकि सारा वातावरण कहता है--लेकिन तुमने तो जाना नहीं।
तुम्हारा घर तो खाली का खाली है। सारी दुनिया कहती है कि ईश्वर है, सो मान लेते हैं; मगर यह मानना झूठ है, असत्य है, प्रवंचना है, पाखंड
है। इसलिए मंदिर-मस्जिद में पाखंड इकट्ठा हो गया है। इसलिए पंडित और पुजारी पाखंड
की सेवा में लगे हैं, परमात्मा की सेवा में नहीं। और मैं यह
नहीं कह रहा हूं कि कुछ ऐसे सरल लोग नहीं होते, जिनकी
मान्यता सत्य होती है। जरूर होते हैं, मगर बिरले होते हैं,
कभी-कभार होते हैं। और वे भी इसीलिए होते हैं कि जन्मों-जन्मों तक
इनकार किया है उन्होंने, इनकार की आग में जले हैं, निषेध के कांटों पर चले हैं, निषेध ने उन्हें निखारा
है, बहुत लंबे अर्सों तक, बहुत जन्मों
तक नास्तिक रहे हैं। नास्तिकता ही वहां ले आई है उन्हें कि इस जन्म में वे सहज भाव
से आस्तिक हैं।
सहज भाव से आस्तिक होने का अर्थ है, इनकार उठता ही नहीं।
ऐसा तो कभी विरला होता है। इन विरले लोगों पर अगर हमने पृथ्वी को आधारित किया तो
पृथ्वी अधार्मिक रहेगी।
इसलिए मेरे संदेश का पहला सूत्रः मैं नास्तिक तक धर्म को पहुंचाना
चाहता हूं। और मैं कोई कारण नहीं देखता, क्योंकि श्रद्धा भी
उसकी ही दी हुई है और संदेह भी। सम्यक् रूप से श्रद्धा करो तो पहुंच जाओगे और
सम्यक् रूप से संदेह करो तो भी पहुंच जाओगे। असली बात है सम्यक् रूप। अगर पूरी
श्रद्धा करो तो भी पहुंच जाओगे। अगर पूरा संदेह करो तो भी रुके नहीं रह जाओगे।
असली बात है, पूरापन, समग्रता।
इसलिए मेरे पास जो आता है उसके ऊपर कोई भी शर्त नहीं है। वह आस्तिक है
तो मुझे अंगीकार है। वह नास्तिक है तो मुझे अंगीकार है। वह कहता है, मैं ईश्वर को मानता हूं तो मैं कहता हूं खोज में चलो। वह कहता है, मैं ईश्वर को नहीं मानता, तो मैं कहता हूं
"नहीं मानने' की खोज में चलो। अगर ईश्वर है तो नहीं
मानते, नहीं मानते, नहीं मानते भी
मिलेगा। अगर है तो कब तक इनकार कर सकोगे? और मैं जानता हूं
कि है। इसलिए नास्तिक से मेरा विरोध नहीं है। जिन्होंने नास्तिक का विरोध किया है,
शायद उन्हें भी शक है। अपने शक के कारण ही वे दूसरे के शक से भी
प्रताड़ित हो जाते हैं।
एक नया सूत्रपात मनुष्य को रूपांतरित करने के लिए चाहिए। तुम जैसे हो, जहां हो, वहीं से तुम्हें स्वीकार किया जाना चाहिए।
तुम पर कोई पूर्व-अपेक्षाएं लादी नहीं जानी चाहिए। इसलिए मैं तुम्हें विश्वास करने
को नहीं कहता, खोज करने को कहता हूं। और ध्यान रखना, जिसने विश्वास कर लिया, वह खोज क्या करेगा? खोज तो न विश्वास से होती है न अविश्वास से होती है। खोज तो
विश्वास-अविश्वास दोनों नहीं होते, तब होती है। पहली बात।
दूसरी बात : अब तक धर्म पारलौकिक रहा है; इस लोक की निंदा में तत्पर रहा है; संसार और निर्वाण
विपरीत हैं, ऐसी धारणा रही है। मैं घोषणा करना चाहता हूं:
संसार ही निर्वाण है और परमात्मा अपनी सृष्टि से अलग नहीं। सृष्टा अपनी सृष्टि में
लीन है। जैसे नर्तक अपने नृत्य में लीन है, ऐसा परमात्मा
अपनी सृष्टि में लीन है। यह लोक वह लोक है। इस लोक में और उस लोक में मैं किसी तरह
की दुविधा खड़ी नहीं करना चाहता।
और बड़े आश्चर्य की बात है, जिन्होंने अद्वैत की
बात की है अतीत में उन्होंने ही यह द्वैत खड़ा कर दिया। शंकर जैसा अद्वैतवादी भी
खोजोगे तो द्वैतवादी ही पाओगे --माया और ब्रह्म. . . । और माया छोड़नी है और ब्रह्म
पाना है . . . द्वैत खड़ा हो गया!
मैं तुमसे कहता हूं : माया ही ब्रह्म है। यह अद्वैत की आत्यंतिक घोषणा
है। माया छोड़नी नहीं है। माया में गहरे डूबोगे तो तुम ब्रह्म को ही पाओगे, क्योंकि वहीं छिपा है। इस सारे राग-रंग में उसी की छवि है।
इसलिए जीवन का परम स्वीकार है मेरा संदेश। ज़रा भी निषेध नहीं, ज़रा भी नकार नहीं। किसी और लोक की खोज में मैं उत्सुक नहीं हूं। कोई और
लोक है भी नहीं। और लोक कल्पना-जाल है। इस लोक में आदमी ने दुःख पाया है और इस लोक
में सुख पाने के उपाय न खोज सका, इसलिए परलोक की ईजाद की गई
है। परलोक एक तरह की आत्मवंचना है। यहां दुःखी हो, कहीं तो
आशा टिकानी पड़ेगी, नहीं तो जियोगे कैसे! यहां तो सब तरफ कंटक
ही कंटक हैं, दूर परलोक में खिलते हैं कमल के फूल! उस आशा
में आदमी जिए चला जाता है।
मैं तुमसे कहता हूं : कांटों में फूलों को बदला जा सकता है। कांटों को
फूलों में बदला जा सकता है। सब तुम पर निर्भर है; तुम्हारे जीवन के ढंग
पर निर्भर है। यह पृथ्वी स्वर्ग हो जाती है। यही पृथ्वी नरक हो जाती है। तुम अपने
जीवन की शैली से, तुम अपने ध्यान की गहराई से, तुम अपने प्रेम की ऊंचाई से--रूपांतरण लाते हो।
कोई दूसरा जगत् नहीं है। इस जगत् को ही रूपांतरित करना है। कहीं और
कोई स्वर्ग नहीं है, न कहीं कोई नरक है। नरक है, तुम्हारे
गलत ढंग से जीने का परिणाम। नरक है, मूर्च्छित जीने का
परिणाम। स्वर्ग है, होशपूर्वक जीने का परिणाम। मगर स्वर्ग और
नरक कहीं और नहीं, तुम्हारे मनोविज्ञान हैं।
अतीत के सारे धर्मों ने मनुष्य को द्वंद्व सिखाया है--यह छोड़ो, वह पकड़ो। और जहां भी द्वंद्व सिखाया जाता है वहीं मनुष्य विभाजित हो जाता
है। मनुष्य को विभाजित करना उसे विक्षिप्त करने के लिए तैयार करना है। इसलिए सारी
मनुष्यता--पूछो मनोवैज्ञानिकों से--विक्षिप्त है। यह पृथ्वी हमने एक बड़े पागलखाने
में बदल दी है। कोई थोड़ा पागल, कोई ज्यादा पागल। ज्यादा पागल
पागलखाने में है, थोड़े पागल पागलखाने के बाहर हैं। मगर कोई
बुनियादी भेद नहीं। कोई गुणात्मक भेद नहीं। पागलखाने में जाकर देख लो या
पार्लियामेंट में जाकर देख लो, क्या भेद पाओगे? एक ही तरह के लोग, एक ही तरह से विक्षिप्त।
विक्षिप्तता सामान्य स्थिति हो गई है। यहां स्वस्थ होना ही अड़चन की बात है। यहां
स्वस्थ आदमी पसंद नहीं किया जाता। इसलिए तो मंसूर को सूली पर लटका देते हैं,
सुकरात को जहर पिला देते हैं, बुद्ध पर
पत्थरों की वर्षा होती है।
यह जो मनुष्य को विभाजित कर दिया गया है--कि तुम्हारे भीतर कुछ निम्न
है, तुम्हारे भीतर कुछ पाप है, तुम्हारे भीतर कुछ गलत है,
उसे काटो; और तुम्हारे भीतर कुछ श्रेष्ठ है,
उसे उघाड़ो। मनुष्य को खंडित करना महत से महत पाप हैं। मैं मनुष्य को
अखंड करना चाहता हूं। मैं कहता हूं : न तुम्हारे भीतर कुछ बुरा है न तुम्हारे भीतर
कुछ भला है। तुम तो मात्र ऊर्जा हो। ऊर्जा अनेक रूपों में प्रकट हो सकती है। ऊर्जा
एक सीढ़ी है। लेकिन सीढ़ी का जो नीचा से नीचा पायदान है, वह भी
सीढ़ी के ऊंचे से ऊंचे पायदान से जुड़ा है। वे पृथक् नहीं हैं, विपरीत नहीं हैं। वे एक ही इंद्रधनुष के रंग हैं।
तुम्हारी कामवासना और तुम्हारी रामवासना अलग-अलग नहीं हैं, शत्रु नहीं हैं--एक ही ऊर्जा की तरंगें हैं। तुम्हारी कामवासना ही एक दिन
रामवासना में रूपांतरित होती है। तुम्हारी संभोग की क्षमता ही एक दिन समाधि बनती
है।
अगर दो नहीं हैं जगत् में तो फिर मनुष्य को भी दो में बांटने की कोई
जरूरत नहीं। और जैसे ही मनुष्य को न बांटा जाए, चिंता विसर्जित होती
है। जैसे ही मनुष्य को न बांटा जाए, तनाव शून्य हो जाता है।
जैसे ही मनुष्य को न बांटा जाए वैसे ही उत्सव है, वैसे ही
नृत्य का आविर्भाव होता है। जैसे ही मनुष्य को न बांटा जाए वैसे ही समाधि उतरनी
शुरू हो जाती है।
तो दूसरी बात, मैं मनुष्य को अखंड स्वीकार करता हूं--जैसा है वैसा
पूरा का पूरा! जिन्होंने उसमें खंड किए, उन्हें जीवन की पूरी
कला का ज्ञान न था; उन्हें पता न था कि सारी ऊर्जा को एक साथ,
समवेत, एक संगीत में कैसे गूंथा जाए। उन्हें
जीवन का आरकेस्ट्रा बनाने की सूझ-बूझ नहीं थी। स्वभावतः जीवन को आरकेस्ट्रा बनाना
हो , बहुत-से वाद्यों को एक ही संगीत में समाविष्ट करना हो
तो बड़ी सूझ चाहिए, बड़ी अंतर्दृष्टि चाहिए--कि तुम्हारी देह
तुम्हारे मन के साथ नाचे, तुम्हारा मन तुम्हारे आत्म के साथ
नाचे, कि तुम्हारी पूरी त्रिवेणी इस पूरे अस्तित्व के साथ
नाचे।
धर्म अब तक काट-छांट करता रहा है; मनुष्य को तोड़ता रहा
खंडों में। मैं मनुष्य को जोड़ना चाहता हूं प्रेम मेरा सूत्र है। घृणा तोड़ती है।
प्रेम जोड़ता है। अब तक धर्मों ने बात तो प्रेम की है, लेकिन
प्रेम की आड़ में घृणा सिखाई है--"शरीर को घृणा करो, तो
आत्मा से प्रेम होगा।' मैं तुमसे कहता हूं : जिसने अपने शरीर
को भी प्रेम नहीं किया, वह अपनी आत्मा को कैसे प्रेम कर
सकेगा? जो दृश्य से भी प्रेम कर न सका, उसके अदृश्य से कोई संबंध जुडेंगे, इसकी संभावना
छोड़ो, इसकी आशा छोड़ो। अपने शरीर को भी प्रेम करो। उसी प्रेम
की गहराई में तुम्हें मन की तरंगें मिलेंगी। अपने मन को भी प्रेम करो। उसी गहराई
में तुम्हें आत्मा का शाश्वत आनंद भी छलकेगा। अपनी आत्मा को प्रेम करो। और उसी में
उतरते-उतरते तुम्हें परमात्मा के दर्शन होंगे।
अब तक धर्मों ने तुमसे कहा है--इसे काटो, उसे काटो; यह पैर ठीक नहीं है, इसे तोड़ डालो; यह हाथ ठीक नहीं है, इसे तोड़ डालो; आंखें वासना में ले जाती हैं, आंखें फोड़ डालो;जीभ में स्वाद उमगता है, जीभ काट डालो। इन्हें धर्म कहना ठीक नहीं। ये धर्म के नाम पर बड़े जंगली
प्रयोग थे, अशिष्ट असभ्य असंस्कृत। मनुष्य आगे आया है।
मनुष्य अब प्रौढ़ हुआ है। अब मनुष्य को कुछ और विराटतर धर्म की आभा चाहिए, दिशा चाहिए।
कजानजाकिश का जोरबा और गौतम बुद्ध, इन दोनों को अब मैं
एक साथ देखना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि तुम्हारा जीवन एक संगीत हो--जिस संगीत
में सब समाविष्ट हो जाए, कुछ भी निषिद्ध न हो, कुछ भी वर्जित न हो, कुछ भी पाप की तरह छोड़ा न जाए।
मैं तुम्हारे सारे पापों की ऊर्जा को भी पुण्य की सुवास में रूपांतरित करलेना
चाहता हूं। और उसी को मैं कलाकार कहता हूं, उसी को मैं
बुद्धिमान कहता हूं--जो लोहे को सोना बना ले; और जो जहर से
औषधि बना ले; और जो मृत्यु से अमृत निचोड़ ले।
द्वंद के कारण अब तक के धर्म दमन पर आधारित रहे। . . . दबाओ! क्रोध है
तो क्रोध को दबाओ। काम है तो काम को दबाओ। . . .दमन, रिप्रेस्सन उनकी
आधारशिला रही है। और ध्यान रखना, जितना दबाओगे उतनी ही उलझन
में उलझ जाओगे। दबाने से कभी कुछ जाता नहीं। दबाने से बात बिगड़ती है, बनती नहीं।
एक होटल में एक रात एक आदमी मेहमान हुआ। एक ही कमरा खाली था। मैनेजर
ने कहा कि आप किसी और होटल में चले जाएं। एक कमरा खाली है, मैं दे सकता हूं; लेकिन उस कमरे के नीचे जो सज्जन
ठहरे हुए हैं, वे ज़रा उपद्रवी स्वभाव के हैं। अगर तुम ज़रा
जोर से चले, ज़रा जोर से बोले, ज़रा आवाज
हो गई, बर्तन गिर गया--तो झगड़ा-झांसा खड़ा हो जाएगा। इसलिए उस
कमरे को हमने खाली ही छोड़ रखा है कि जब तक वे सज्जन न चले जाएं उसे खाली ही रहने
दें।
उस यात्री ने कहा कि मैं दिनभर तो काम में रहूंगा, रात बारह बजे लौटूंगा। चार घंटे मुझे सोना है। सुबह पांच बजे की गाड़ी पकड़
लेनी है। बहुत कम संभावना है कि मेरी उनसे कोई झंझट हो।
कमरा दे दिया गया। रात वह आदमी बारह बजे थका-मांदा लौटा। दिनभर का
बाजार का काम। बिस्तर पर बैठकर उसने जूता खोला और जूता पटक दिया। जैसे ही एक जूता
पटका, उसे याद आया कि कहीं नीचे के आदमी की नींद न टूट जाए,
कोई झंझट आधी रात में खड़ी न हो जाए . . . उसने दूसरा जूता आहिस्ते
से रख दिया। सो गया। कोई घंटेभर बाद किसी ने द्वार पर जोर से दस्तक दी, द्वार को झकझोरा। नींद टूटी, उठा। सोचा कौन होगा! वह
नीचे वाला आदमी खड़ा था--आगबबूला, आंख खून से भरी! उसने पूछा
कि दूसरे जूते का क्या हुआ? पहला गिरा, मैंने कहा कि महानुभाव आ गए; फिर दूसरा गिरा ही
नहीं! मैंने बहुत हटाने की कोशिश की, बहुत हटाने की कोशिश की
कि मुझे क्या लेना-देना, किसी का जूता. . . अगर कोई एक जूता
पहन कर सोए भी तो सो सकता है, मगर मेरी आंखों में दूसरा जूता
झूलने लगा, एक जूता पहने हुए सोया हुआ आदमी दिखाई पड़ने लगा!
मैंने सब तरफ करवटें बदलीं, सोने की कोशिश की, राम-राम जपा, मंत्र याद किए, कुछ
काम न आया। जूता झूलता ही रहा। इसलिए मैं आया हूं। कृपा करके इतना बता दें कि
दूसरे जूते का क्या हुआ, ताकि मैं सो सकूं।
दबाओगे कुछ ऐसा ही झूलने लगेगा। इसलिए जिसने कामवासना को दबाया वह
कामवासना से ही भर जाता है। तुम्हारे तथाकथित ब्रह्मचारी सिवाय कामवासना के और
किसी चीज से भरे हुए नहीं होते। इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि तुम्हारे ऋषि-मुनियों
की कथाओं में अप्सराएं आ जाती हैं और नग्न उसके आसपास नाचती हैं। किन अप्सराओं को
पड़ी है! तुम किसी इसी आशा में एक आध दिन जाकर झाड़ के नीचे आंखें बंद करके मत बैठ
जाना कि अब अप्सराएं आएंगी। अप्सराओं को अगर बुलाना हो तो पहले ऋषि-मुनियों की
पूरी दमन की प्रक्रिया से गुजरना होगा; कामवासना को इस बुरी
तरह दबाना होगा कि तुम्हारा सारा प्राणपण उसी वासना से भर जाए; तुम्हारे भीतर धुआं ही धुआं हो जाए कामवासना का। इस तरह लड़ना होगा
कामवासना से कि तुम्हें सिवाय कामवासना के और किसी चीज की सुधि ही न रहे। तो फिर
विभ्रम खड़ा होगा। फिर बैठ जाना एकांत में। फिर जरूर आती हैं उर्वशियां, आकाश से उतरती हैं, नाचती हैं, रुनझुन करती हैं। फिर वे तुम्हें बहुत लुभाएंगी। और वहां कोई भी नहीं है--
तुम्हीं हो। और यह जो तुम देख रहे हो, वह तुम्हारा खुली आंख
का सपना है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं अगर कोई चीज बहुत देर तक दबाई जाए तो फिर आंख
बंद करके सपना देखने की जरूरत नहीं रहती; आंख खुली ही रहे और
सपना खड़ा हो जाता है। हेलूसिनेशन पैदा हो जाता है। विभ्रम पैदा हो जाता है।
मनुष्य-जाति को अब तक दमन सिखाया गया है। मेरा संदेश हैः दमन नहीं।
अपनी ऊर्जाओं से संघर्ष नहीं। अपनी ऊर्जाओं की समझ। अपनी ऊर्जाओं के साथ एक
मैत्री। शत्रुता से कुछ भी हल न होगा। लड़े कि हारे। जीतने का उपाय है : जागो, समझो। ध्यान करो। कामवासना है तो कामवासना पर ध्यान करो। कामवासना है तो
कामवासना की प्रक्रिया से गुजरो ध्यान पूर्वक, जागे हुए,
सजग, हाथ में दीए को लिए हुए! और जल्दी ही तुम
मुक्त हो जाओगे। तब एक ब्रह्मचर्य आता है, जो तुम्हारे
तथाकथित ब्रह्मचारियों का ब्रह्मचर्य नहीं है। उस ब्रह्मचर्य की शोभा अनूठी है। उस
ब्रह्मचर्य में कुछ दबाया नहीं गया है। रूपांतरित किया गया है। सारी ऊर्जा एक नए
रूप में प्रकट होनी शुरू हुई है। ऊर्जा का तल बदला है, अभिव्यक्ति
बदली है।
ऐसा ही समझो कि तुम्हारे हाथ में नई-नई किसी ने वीणा थमा दी, तुम क्या सोचते हो तुम दीपक राग गा सकोगे, कि बुझे
दीए जल जाएं? हालांकि दीपक राग भी उस वीणा में छिपा पड़ा है।
किसी बैजूबावरा के हाथ पड़ जाए, तो बुझे दीपक जल सकते हैं।
वीणा यही है, मगर तुम्हें कुशलता सीखनी होगी। क्या तुम सोचते
हो कि उठाकर एक हंटर और वीणा को मारने लगोगे, पीटने लगोगे,
तो वीणा झुक जाएगी, अपने रहस्य तुम्हारे सामने
खोल देगी और तुम दीपक राग गा सकोगे? तो तुम पागल हुए हो। तो
तुम वीणा तोड़ डालोगे। दीपक राग तो दूर, उससे कोई भी राग नहीं
उठेगा।
अधिकतर लोग अपनी जीवन-वीणा को इसी तरह तोड़ कर बैठ गए हैं। तुम्हारे
मंदिरों में, तुम्हारे आश्रमों में जो लोग बैठे हैं, जिनको तुम महात्मा, साधु-संत कहते हो, इसी तरह के मुर्दे हैं, जिनकी वीणाएं टूट गई हैं।
उनकी वीणा से कोई राग नहीं उठ रहा है। उदास, उत्सव-हीन,
न कोई संगीत है, न कोई सुवास है। और ये रुग्ण
विक्षिप्त लोग दूसरों को भी रुग्ण और किए जा रहे हैं। जो इन्होंने सीखा है वही
दूसरों को सिखाए चले जा रहे हैं। ऐसे ही मनुष्य-जाति एक बड़े गहन रोग से उलझी है।
मैं तुम्हें एक ऐसा धर्म देना चाहता हूं, जो तुम्हें वीणा पर अंगुलियों को साधने की कला सिखाए; जो तुम्हें वीणा से मैत्री सिखाए; जो तुम्हें वीणा
के तारों में छिपे हुए सूक्ष्म-सूक्ष्म स्वरों को अनुभव कराए, जो तुम्हें इतना कुशल बना दे कि किसी दिन दीपक राग उठे, कि बुझे दीए भी जल जाएं, ऐसा संगीत जन्मे।
परमात्मा ने तुम्हें जो दिया है वह व्यर्थ नहीं हो सकता। अगर तुम्हें
सार्थकता न दिखाई पड़ती हो तो इतना ही समझना कि अभी तुम्हारे पास देखने की क्षमता
नहीं है। परमात्मा ने तुम्हें जो दिया है सभी सार्थक है। देखते हो, बिजली तो कब से चमकती थी, करोड़ों साल से चमकती है,
जब से पृथ्वी बनी तब से चमकती है और आदमी सिर्फ डरता था! और जब
बिजली कड़कती थी आकाश में और मेघ घिरते थे तो आदमी घुटने के बल गिरकर इंद्र देवता
की प्रार्थना करता था। सोचता था इंद्र नाराज हैं, कि इंद्र
ने बिजली के माध्यम से अपनी प्रत्ययंचा खींची है, कि अपना
धनुष उठाया है। आज हम जानते हैं, न कोई इंद्र है, न कोई इंद्र की नाराजगी है न कहीं कोई प्रत्ययंचा है, न कोई धनुष उठाया गया है। आज हम जानते हैं कि विद्युत् जगत् की एक ऊर्जा
है। आज हम ऊर्जा को पहचान गए, तो आज विद्युत् तुम्हारी सेवक
हो गई है, घरों में पंखे चला रही है। इंद्र महाराज पंखों में
बंद हैं, बिजली के बल्ब जला रहे हैं, चूल्हे
पर रोटी सेक रहे हैं। इंद्र महाराज! भूल-भाल गए प्रत्ययंचा, अब
न मालूम कितने काम करने पड़ रहे होंगे। वैक्यूम क्लीनर से घर का कचरा साफ कर रहे
हैं। इंद्र महाराज!
ऐसी ही ऊर्जाएं तुम्हारे भीतर हैं। तुम्हारा भीतर का आकाश भी बहुत-सी
बिजलियों से भरा है। कामवासना वैसी ही बिजली है, वैसी ही विद्युत की
कड़क है। नहीं जानोगे तो घबड़ाओगे, डरोगे, घुटने टेक दोगे। नहीं जानोगे, आंख छिपा लोगे,
भागोगे। तुम जानोगे, पहचानोगे, तो यही बिजली परमात्मा के रास्ते पर रोशनी बनेगी, इसी
से दीए जलेंगे।
मेरा संदेश हैः संसार को इतना प्रेम करो कि संसार में परमात्मा को पा
सको। कहीं और कोई परमात्मा नहीं है। और परमात्मा को मान मत लेना--जानना है, खोजना है। अपने को अंगीकार करो। अपने को अंगीकार करने में ही तुमने
परमात्मा और अपने बीच संबंध जोड़ा। अपने को अस्वीकार मत करो। तुम जैसे हो भले हो।
उसके हस्ताक्षर तुम्हारे ऊपर हैं। तुम उसकी निर्मिति हो।
मैं मनुष्य को यह गौरव और गरिमा देना चाहता हूं। पुराने धर्मों ने
तुम्हें पापी कहा है। पुराने धर्मों ने तुम्हें इतना निंदित किया है कि तुम्हारे
भीतर बड़ा अपराध का भाव पैदा हो गया है। मैं तुम्हें अपराध के भाव से मुत्त करना
चाहता हूं। तुम पापी नहीं हो। तुम्हारे भीतर पुण्य के बहुत-से बीज पड़े हैं जो
खिलने के लिए तत्पर हैं, जो फूल बनना चाहते हैं। खाद दो। संभालो उन्हें।
तुम्हारे भीतर बड़ी हरियाली प्रकट होना चाहती है। तुम अगर रेगिस्तान हो तो सिर्फ
तुम्हारा जुम्मा है। यह रेगिस्तान लहलहाता हुआ उपवन बन सकता है।
दूसरा प्रश्न :
आग
में जल गयी यह दीवानी
भस्म
हुई अब फिरती है
सिंदूरी
मेघा बरसे
रिमझिम
बरसे रुनझुन बरसे
जितने
भीगे उतने तरसे।
मंजिल
का भी होश नहीं
राहों
का भी ज्ञान नहीं
अंतरघट
में किरणें उतरीं
हृदय
कंवल है खिलता जाता।
किंतु
प्रभु! दृष्टि तुम्हारी एक
सारी
पीड़ा हर लेती है
भस्मित
करके जीवित करते
कितनी
करुणा बरसाते हो!
निरुपम!
तू तो सधुक्कड़ी भाषा सीख गई!
सधुक्कड़ी भाषा बड़ी प्यारी भाषा है। सधुक्कड़ी भाषा का अर्थ होता हैः
जैसा है वैसा ही बिना लाग-लपेट के कह देना। सधुक्कड़ी भाषा का अर्थ होता हैः भाव को
कच्चे-कच्चे बाहर ले आना; उन्हें मर्यादा न देना, व्यवस्था
न देना, उन्हें गणित, तर्क और व्याकरण
के नियम न देना। सधुक्कड़ी भाषा का अर्थ होता है : सहज निवेदन। समझे कोई समझे,
न समझे कोई न समझे।
कबीरदास ने कहा हैः एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागी आगि! क्या समझोगे? . . . नदिया लागी आगि!
एक अचंभा मैंने देखा, मछली चढ़ गई रुख! वृक्ष पर मछली चढ़ गई,
क्या समझोगे? समझना कठिन हो जाएगा। बात समझने
की कम, अनुभव की ज्यादा है। ऐसा उलटा हो रहा है दुनिया में,
इसलिए कबीर ने कहा है।
देखो, आदमी के भीतर परमात्मा बैठा है और आदमी सारे जगत् में
खोज रहा है--एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागी आगि! आदमी जिसे
खोज रहा है वह खोजने वाले में छिपा है और मजा है कि आदमी खोजता ही चला जाता है और
खोजने के कारण ही खोज नहीं पाता है।
कबीर अगर आज होते तो ज़रा मुश्किल में पड़ते; ये वचन आज नहीं बोल सकते थे। क्योंकि अभी ऐसा होने लगा है, अमरीका की नदियों में कभी-कभी आग लग जाती है, क्योंकि
इतना तेल नदियों में मिल गया है, पैट्रोल, तेल, फैक्ट्री . . . सारी नदियां इस तरह विषाक्त हो
गई हैं कि अमरीका की नदियों में कभी-कभी आग लग जाती है। खयाल रखना, अभी कुछ दिन पहले एक झील में आग लग गई थी। कबीर आज होते तो न कहते यह,
कि एक अचंभा मैंने देखा। अचंभा ही नहीं रहा अब कुछ इसमें। मगर तब यह
बड़ी अचंभे की बात थी। कबीर इशारा कर रहे थे।
ऐसे ही निरुपम! अच्छा हुआ कि ऐसे सधुक्कड़ी वचन तेरे भीतर पैदा होने
शुरू हुए। अच्छे लक्षण हैं! मेघ घिरने लगे--आषाढ़ के पहले मेघ! जल्दी ही वर्षा
होगी। तैयार करो अपने को।
आग
में जल गई यह दीवानी
भस्म
हुई अब फिरती है।
ऐसा होता है। जलकर ही तो जीवन मिलता है। अचंभे की बातें हैं, साधारण तर्क के बाहर हैं। जो अपने को बचाता है, खो
देता है। जो अपने को खोने को तत्पर है, पा लेता है। जो मझधार
में डूब जाता है उसे किनारा मिल जाता है। और जो किनारे की तलाश करता है वह मझधारों
में डूब जाता है। ऐसा ही है। जिंदगी के नियम तुम्हारे साधारण गणित के नियम नहीं
है। जिंदगी के नियम तुम्हारे साधारण गणित के नियम से बहुत भिन्न हैं।
एक तो साधारण गणित है, जिसमें दो और दो चार
होते हैं। एक प्रेम का गणित है, जिसमें दो मिलकर एक हो जाता
है।
आग
में जल गई यह दीवानी
भस्म
हुई अब फिरती है
सिंदूरी
मेघा बरसे
रिमझिम
बरसे रुनझुन बरसे
जितने
भीगे उतने तरसे!
सच। जितना भीगोगे उतने तरसोगे। जितना पियोगे, प्यास बढ़ती चली जाएगी। यह परमात्मा के साथ नाता जोड़ना, ऐसी ही अनंत प्यास के साथ नाता जोड़ना है। यह कुछ पीने से बुझने वाली नहीं
है, मिटने वाली नहीं। और भक्त चाहता भी नहीं कि मिटे;
क्योंकि प्यास मिट जाएगी तो फिर परमात्मा को कैसे पिएगा? तो भक्त कहता है : तड़फाओ मुझे! जलाओ मेरी प्यास को, बढ़ाओ
मेरी प्यास को। मुझे और दीवाना करो। बरसो मेरे ऊपर। मगर मेरी प्यास को बुझा मत
देना। क्योंकि प्यास बुझ गई तो फिर जीवन कहां!
संसार की तो प्यासें बुझ भी जाएं, परमात्मा की प्यास
कभी नहीं बुझती। जितना मिलन होता है उतना ही पास आने का मन होता है और पास से भी
पास, और पास से भी पास
और इस यात्रा का कोई अंत नहीं है! परमात्मा की यात्रा शुरू होती है,
समाप्त नहीं होती। उसका पहला पृष्ठ तो है, अंतिम
पृष्ठ नहीं है।
जितने
भीगे उतने तरसे
मंजिल
का भी होश नहीं
राहों
का भी ज्ञान नहीं।
जरूरत भी नहीं। मंजिलों का होश और राहों का ज्ञान--सब बुद्धि के हिसाब
हैं। प्रेमियों को क्या चिंता पड़ी! प्रेमी तो लड़खड़ाए चले जाते हैं। और किसी भी दिशा
में चल पड़ें, अगर हृदय में प्रेम है तो उससे मिलना हो जाता है। और
अगर हृदय में प्रेम न हो तो तुम जाओ काशी, तुम जाओ काबा,
उससे मिलना नहीं होगा। उससे मिलना दिशाओं में थोड़े ही होता है;
उससे मिलना तो अंतरतम में होता है। किन्हीं मार्गों पर चलकर थोड़े ही
हम उस तक पहुंचते हैं। वह तो हम में आया ही हुआ है, सदा से
आया हुआ है। जब सब मार्ग छूट जाते हैं तब उसके दर्शन होते हैं।
इसलिए कहा सधुक्कड़ी भाषा। मार्गों से वह नहीं मिलता, मार्गों के छूट जाने से मिलता है। दौड़ोगे, चूकोगे।
रुक जाओ, पा लोगे।
अंतरघट
में किरणें उतरीं
हृदय
कंवल है खिलता जाता।
रास्ते खो जाएंगे, मंजिलें खो जाएंगी, तभी किरणें उतरनी शुरू होती हैं। किरणें भी ऐसी कि बाहर के सब सूरज फीके
हैं। किरणें भी ऐसी कि एक-एक किरण में हजार-हजार सूरज छिप जाएं।
अंतरघट
में किरणें उतरीं
हृदय
कंवल है खिलता जाता।
और हृदय-कमल खिलता ही जाता है, खिलता ही जाता है।
इसलिए हमने मनुष्य की अंतिम चेतना की अभिव्यक्ति को सहस्रदल कमल कहा है, हजार पंखुड़ियों वाला कमल! हजार प्रतीक-अंक है। उसका मतलब होता है असंख्य!
पंखुड़ियों पर पंखुड़ियां खुलती चली जाती हैं। यह खुलना कभी बंद नहीं होता।
मनुष्य अपने में कितना छिपाए है, हमें पता ही नहीं। एक
छोटे-से बीज को देखकर कह सकते हो कितना इसमें छिपा है? वैज्ञानिक
से पूछो, वह कहता है सब छिपा है, एक-एक
पत्ता। अगर यह वृक्ष होकर हजार साल जिएगा तो उस हजार साल में जितने पत्ते पैदा
होंगे सब छिपे हैं; जितने फूल लगेंगे, सब
छिपे हैं; जितने फल लगेंगे, सब छिपे
हैं; जितने बीज लगेंगे, सब छिपे हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं : एक छोटा-सा बीज सारी पृथ्वी को हरियाली से भर सकता है। इतनी
उसकी विराट क्षमता है! तो फिर आदमी के चैतन्य के बीज की तो क्षमता और भी विराट
निश्चित ही होगी।
एक व्यक्ति के भीतर की रोशनी सारे जगत् को रोशन कर सकती है। ऐसा ही तो
कभी-कभी हो जाता है--किसी बुद्ध के पैदा होने पर, किसी मुहम्मद के पैदा
होने पर। जिनके पास आंखें हैं, वे चल पड़ते हैं रोशनी की तलाश
में। जिनके पास थोड़ा भी हृदय है--सजग, संवेदनशील--उनके भीतर
भनक पड़ने लगती है, कंपन होने लगता है।
किंतु
प्रभु! दृष्टि तुम्हारी एक
सारी
पीड़ा हर लेती है।
पीड़ा ही क्या है? पीड़ा यही है कि उससे मिलन कब
होगा। तो स्वभावतः उसकी एक दृष्टि भी पड़ जाए तो बरस गए मेघ! जन्मों-जन्मों की
प्यासी धरती हरी हो उठी!
दुःख क्या है जीवन में? एक ही दुःख है कि हम
अपने मूलस्रोत से कैसे जुड़ जाएं? हम अपनी जड़ें भूल गए हैं।
हम अपना घर भूल गए हैं। उस घर में हमारी वापसी कैसे हो जाए?
निश्चित ही एक झलक काफी है। एक आंख उसकी पड़ जाए कि फिर हम दुबारा वही
नहीं हो सकते जो थे। हम कुछ के कुछ हो गए। हम नए हो गए। एक आंख की झलक और सारे
रोएं बदल गए हैं। रोआं-रोआं, कण-कण, दिल
की धड़कन-धड़कन गूंज उठी, नाच उठी!
भस्मित
करके जीवित करते
कितनी
करुणा बरसाते हो!
इसलिए मैंने कहा कि निरुपम, अच्छा हुआ, तेरे भीतर सधुक्कड़ी भाषा पैदा हो रही है। ऐसा ही राज है उसका। मिटाता है,
मिटा कर बनाता है।
जीसस ने कहा है : जो मिटेंगे, वही केवल उसे पा
सकेंगे।
एक अंधेरी रात में निकोदेमस नाम का एक बहुत प्रसिद्ध विचारक जीसस को
मिलने आया था। और उसने जीसस से पूछा कि मैं परमात्मा को कैसे पा सकता हूं? जीसस ने कहा : धर्म के नियमों का पालन करते हो? उसने
कहा : पालन करता हूं अक्षरशः, एक-एक नियम का पालन करता हूं।
और वह झूठ नहीं बोल रहा था, वह जाना-माना नीतिज्ञ था,
जाना-माना चरित्रवान व्यक्ति था, उसकी बड़ी
ख्याति थी। जीसस को तो कोई भी नहीं जानता था, निकोदेमस बहुत
प्रसिद्ध था। यहूदियों के सबसे बड़े मंदिर का वह भी एक आचार्य था।
जीसस ने पूछा : तो फिर एक ही कमी रह गई है, अगर सब नियमों का पालन करते हो और परमात्मा नहीं मिला और तुम्हें मुझसे
पूछने आना पड़ा . . . तो सिर्फ एक ही बात की कमी रह गई है।
निकोदेमस ने पूछा : कहो किस बात की कमी, मैं पूरा करूंगा।
जीसस ने कहा : अनलेस यू आर बार्न अगेन . . . जब तक कि तुम्हारा फिर से
जन्म न हो, तब तक तुम उसे न पा सकोगे।
निकोदेमस ने कहा : फिर से जन्म! तो क्या मुझे मरना होगा?
जीसस ने कहा : मरना ही होगा। मिटना ही होगा। तुम्हारी तरफ से तुम्हें
मरना ही होगा, मिटना ही होगा। जैसे बीज जमीन में गिरता है और मिट
जाता है, ऐसे तुम जिस दिन मिट जाओगे उस दिन तुम्हारे भीतर से
अंकुरण होगा।
धर्म मिटने की कला है--और पाने की भी। धर्म सूली है--और सिंहासन भी।
तीसरा प्रश्न : संसार में इतना दुःख क्यों है?
संसार में दुःख नहीं है। संसार में देखो, आदमी को हटा दो, ज़रा आदमी को बाद कर दो, संसार में कहां दुःख है? पक्षियों के गीत सुनो,
वृक्षों में खिले फूल देखो, कहीं दुःख की छाया
भी मालूम पड़ी है? आकाश के तारों से मुलाकात लो, सुबह उगते सूरज को देखो, वृक्षों से गुजरती हवाओं का
नाच, सागर की तरफ दौड़ती हुई नदियों की गति, कहां दुःख है?
संसार में कोई दुःख नहीं है। दुःख है तो आदमी के मन में है। दुःख आदमी
की ईजाद है। दुःख आदमी का आविष्कार है।
ये रस की सेज, ये सुकुमार, ये सुकोमल गात
नैन कमल की झपक, कामरूप का जादू
ये रसमसाई पलक की घनी-घनी परछांई
फलक पे बिखरे हुए चांद और सितारों की
चमकती उंगलियों से छिड़के राज फितरत के
तराने जागने वाले हैं, तुम भी जाग उठो
यह महवे-ख्वाब हैं, रंगीन मछलियां तहे-आब
कि हौजे-सहन में अब इनकी चश्मकें भी नहीं
ये सरनिगूं हैं सरे-शाख फूल गुड़हल के
कि जैसे बेबुझे अंगारे ठंडे पड़ जाएं।
ये चांदनी है कि उमड़ा हुआ है रस-सागर
एक आदमी है कि इतना दुःखी है दुनिया में।
चांदनी देखते हैं! चांद से बरसता रस का सागर देखते हैं!
ये चांदनी है कि उमड़ता हुआ है रस-सागर!
एक आदमी है कि इतना दुःखी है दुनिया में।
दुनिया में दुःख नहीं है। नहीं, ज़रा भी नहीं। दुनिया
तो महत आनंद-उत्सव में लीन है। अस्तित्व तो परमात्मा के साथ नाच रहा है--उसका
नृत्य है। जंगल में भागते हुए हिरणों की कतारें देखीं! पशुओं की आंख में झांक कर
देखा, कैसा सन्नाटा है! कैसी निर्दोष भाव-भंगिमा! मोर को
नाचते देखा! कोयल को पुकारते सुना है! इस सबसे तुम्हें खबर मिलती है कि संसार में
दुःख है ? संसार तो रस का सागर है। रसो वै सः! उस रस से उतरा
है, रस का ही सागर है।
परमात्मा तो रस-रूप है, मगर आदमी का मन इस रस
के सागर से टूट गया है। आदमी ने अपने अहंकार में अपने को अस्तित्व से पृथक् कर
लिया है, अजनबी कर लिया है, अपने को
दूर-दूर कर लिया है। चारों तरफ अहंकार की एक लक्ष्मण-रेखा खींच दी है, उसके बाहर नहीं जाता। उसके भीतर दुःख है। तुम्हारी मान्यता में दुःख है।
और अगर तुम्हारी मान्यता में दुःख है तो फिर संसार में भी तुम्हें सुख दिखाई नहीं
पड़ेगा।
तुमने कभी ऐसे आदमी को देखा, जिसको तुम कहो कि
देखो कितना प्यारा चांद निकला है और वह कहे क्या प्यारा है इसमें? चांद है, चांद जैसा चांद है! निकलता ही रहा है,
निकलता ही रहेगा, इसमें प्यारा क्या है?
तुमने ऐसे आदमी से बात की कभी कि फूल खिले और तुम कहो कि देखो फूल
खिला और वह कहे कि मुझे भी दिखाई पड़ रहा है, पर इससे क्या?
फितरत के पुजारी कुछ तो बता,
क्या हुस्न है इन गुलजारों में?
है कौन-सी रअनाई आखिर,
इन फूलों में, इन खारों में?
वो ख्वाह सुलगते हों शब भर,
वो ख्वाह चमकते हों शब भर
मैंने भी तो देखा है अकसर,
क्या बात नई है तारों में?
इस चांद की ठंडी किरनों से
मुझको तो सुकूं होता ही नहीं;
मुझको तो जुनूं होता ही नहीं,
जब फिरता हूं गुलजारों में।
ये चुप-चुप नर्गिस की कलियां
क्या जाने कैसी कलियां हैं?
जो खिलती हैं, जो हंसती हैं
और फिर भी हैं बीमारों में।
दरिया के तलातुम का मंजर हां
तुझको मुबारिक हो लेकिन,
इक टूटी-फूटी कश्ती भी
टकराती है मंझधारों में।
कोयल के रसीले गीत सुने
लेकिन ये कभी सोचा तूने,
हैं उलझे हुए नगमे कितने
इक साज के टूटे तारों में?
कुछ लोग हैं, जो सिर्फ टूटे हुए साज के नगमे ही सुनते हैं।
कोयल के रसीले गीत सुने
लेकिन ये कभी सोचा तूने
हैं उलझे हुए नगमे कितने
इक साज के टूटे तारों में?
कुछ लोग हैं जो आदमी नहीं देखते, लाशें गिनते हैं। कुछ
लोग हैं जो जिंदगी नहीं देखते, जो मौत का हिसाब लगाते हैं।
कुछ लोग हैं, जो गुलाब की झाड़ के पास खड़े होकर फूल नहीं
देखते, कांटे गिनते हैं। फिर उनके लिए दुःख ही दुःख है।
दुःख तुम्हारी दृष्टि में है, तुम्हारे चुनाव में
है। संसार तो कोरा कागज है, चाहो तो स्वर्ग लिखो उस पर,
चाहो तो नरक लिखो उस पर। संसार तो दर्पण है; तुम
जैसे हो वही उसमें दिखाई पड़ जाएगा।
एक ईसाई पादरी अपने शिष्यों को समझा रहा था। शिष्य तैयार हो गए थे, दूर यात्राओं पर जा रहे थे--और-और लोगों को ईसाई बनाने। पादरी ने समझाया
कि सुनो, जब तुम समझाओ लोगों को, तो
जो-जो तुम समझाओ उसकी भाव-भंगिमा भी प्रकट करना। ऐसे ही मत समझाए जाना ग्रामोफोन
के रिकार्ड की तरह, नहीं तो लोगों पर असर नहीं पड़ता। जैसे,
उदाहरण के लिए, जब तुम स्वर्ग की बात करो,
तो चेहरे पर एकदम स्वर्गीय आभा को प्रकट करना, मस्त हो जाना, जैसे शराब पी ली हो! मस्ती में डोलने
लगना। आंखें ऊपर चढ़ जाएं! आकाश की तरफ देखना, हाथ उठा देना
कि लोग भी अचंभे में आ जाएं।
एक युवक ने खड़े होकर पूछा कि यह तो ठीक है गुरुदेव, नरक का वर्णन करते समय क्या करना? तो ईसाई पादरी ने
कहाः तुम्हारी जैसी शकल है वही काम कर जाएगी। कुछ विशेष भाव-भंगिमा की जरूरत नहीं।
तुम जैसे हो बस ऐसे ही खड़े हो जाना। पर्याप्त है। तुम्हें देखकर भरोसा आ जाएगा कि
नरक है।
एक युवती एक युवक के प्रेम में थी। मां भी चाहती थी कि विवाह हो जाए।
लेकिन युवती ने एक दिन अपनी मां को कहा कि और सब तो ठीक है, उसे धर्म में बिल्कुल विश्वास नहीं है--उस युवक को। क्या यह उचित है कि हम
ऐसे आदमी से विवाह करें जिसे धर्म में विश्वास न हो?
मां ने पूछाः तू विस्तार की बात कर। क्या मतलब? धर्म में विश्वास नहीं, किस बात में विश्वास नहीं?
लड़की ने कहाः जैसे उदाहरण के
लिये, उसे नर्क में विश्वास नहीं मां ने कहाः पागल, छोड़ फिकर। हम दोनों के बीच एक दफा आ जाने दे, विश्वास
दिला देंगे। एक दफा हम दोनों के बीच पड़ भर जाए, नरक में उसे
निश्चित विश्वास आ जाएगा।
विवाह के पहले जिन्हें नरक में विश्वास नहीं होता, विवाह के बाद हो जाता है। अनुभव से हो जाता है। स्वर्ग में चाहे अविश्वास
रहे, नरक में अविश्वास नहीं रह सकता।
तुम कैसे जी रहे हो, उस पर सब निर्भर है। ऐसा तो पूछो
ही मत कि संसार में इतना दुःख क्यों है। संसार में कोई दुःख नहीं है। तुम्हारी
दृष्टि दुःख को चुननेवाली दृष्टि है। तुम दुःखों को संग्रहीत करते हो। फिर
स्वभावतः संसार में दुःख ही दुःख दिखाई पड़ता है।
कहते हैं, किसी आशावादी से पूछो तो वह कहेगा, दो दिनों के बीच में एक रात होती है; और किसी
निराशावादी से पूछो तो वह कहेगा, दो रातों के बीच में एक दिन
होता है।
पश्चिम का एक बड़ा विचारक, डीनइंगे, बहुत निराशावादी था। एक जगह बोल रहा था। उसने निराशा के बड़े चित्र खींचे।
किसी व्यक्ति ने खड़े होकर पूछा कि आप महानिराशावादी हैं। आपकी बातें सुन-सुन कर
मैं तक निराश हुआ जा रहा हूं। आपसे बड़ा निराशावादी मैंने नहीं देखा।
डीनइंगे ने कहा : क्या कहा? मैं और निराशावादी!
गलत। क्योंकि मैं जितनी निराश अपेक्षाएं करता हूं जिंदगी से, जिंदगी उससे भी ज्यादा बदतर साबित होती है। मैं निराशावादी नहीं हूं। मेरा
सब निराशावाद जिंदगी से कम बदतर है। मैं जो सोचता हूं उससे भी बुरा सिद्ध होता है।
एक आशावादी होता है।
मैंने सुना है कि एक आशावादी न्यूयार्क के एक मकान से गिर पड़ा, कोई पचास मंजिल मकान से। गिरते, राह में खिड़कियों से
लोगों ने झांक कर पूछा कि भाई क्या हाल है? उसने कहा,
अब तक सब ठीक है।
एक आशावाद है जीवन का। आशा हो तो बड़े फूल खिलते हैं। तुम पर निर्भर
है। यह जिंदगी नरक बन जाती है, स्वर्ग भी बन जाती है। और इस
जिंदगी से एक और नया द्वार खुलता है, जिसको हम मोक्ष कहते
हैं। जब यह समझ में आ जाता है किसी व्यक्ति को कि जिंदगी पर मैं जो चाहूं वही रंग
भर दूं, नरक का चाहूं तो नरक का, स्वर्ग
का चाहूं तो स्वर्ग का--तब उसे एक अंतिम बात समझ आती हैः अगर जिंदगी में रंग ही न
भरूं, न स्वर्ग का न नरक का, जिंदगी को
खाली की खाली ही रहने दूं, तो क्या होगा? उस स्थिति की दशा मोक्ष है। कोई भी रंग नहीं भरा जाता। दिन भी ठीक और रात
भी ठीक। रात आए तो रात ठीक और दिन आए तो दिन ठीक। सुख भी ठीक, दुःख भी ठीक, सब ठीक। ऐसा जो सर्व-स्वीकार का भाव है,
जहां कांटों में और फूलों में भेद नहीं किया जाता , जहां जय और पराजय समान हो जाती है, जहां
सफलता-विफलता में कोई अंतर नहीं रह जाता है--इस दशा को हमने
मोक्ष कहा है। मोक्ष का अर्थ है : परम स्वतंत्रता। मन बिल्कुल गया।
तो तीन बातें हैं। अगर मन निराशावादी हो तो संसार में दुःख ही दुःख
है। और फिर तुम्हारी जितनी मर्जी हो उतना तुम दुःख बना सकते हो। संसार पूरी
स्वतंत्रता देता है। कोरा कैनवास है। इससे तुम चाहो तो माइकल एंजिलो के अपूर्व
चित्र उभर सकते हैं या पिकासो के। पिकासो के चित्र नरक का भरोसा दिलवा देंगे। नरक
में भी इतनी गड़बड़ न होगा जितनी पिकासो के चित्रों में।
मैंने सुना है, एक अमरीकी करोड़पति ने अपना चित्र बनवाया। पिकासो ने
कहा, छः महीने लगेंगे। और बहुत दाम मांगे। लाखों डॉलर! उस
करोड़पति ने कहा कि रुपए की तुम फिकर न करो। चित्र बनकर तैयार हुआ, वह करोड़पति लेने आया। उसने चित्र को सब तरफ से उलट-पलट कर देखा। उसने पूछा
कि और सब तो ठीक है, नाक मुझे पसंद नहीं आई, नाक नहीं बनी। पिकासो ने कहा, यह बड़ी मुश्किल हो गई।
अब बदलाहट नहीं हो सकती।
उसने पूछा, बदलाहट क्यों नहीं हो सकती? मैं
और पैसा दूंगा।
पिकासो ने कहा, नहीं। बदलाहट हो ही नहीं सकती। पिकासो का एक शिष्य
पास बैठा था, उसने कहा कि क्यों बदलाहट नहीं हो सकती?
पिकासो ने कहा, भलेमानस, मुझे खुद ही पता नहीं है कि नाक मैंने कहां बनाई! बदलाहट कहां करनी है?
नरक में कम से कम नाक तो साफ होती होगी। कहां कान, कहां नाक, कहां आंख . . . पिकासो के चित्रों में सब
गड़बड़ हो जाता है। पिकासो का चित्र अपनी दीवाल पर रात लगाकर सो जाओ, रात तुम्हें दुःख-स्वप्न आएंगे, भूत-प्रेत सताएंगे।
कैनवास वही है।
मैंने माइकल एंजिलो के संबंध में यह कहानी सुनी है कि जब वह जीसस का
अपना अपूर्व चित्र बना रहा था तो एक आदमी ने उसे रास्ते में गालियां दे दीं। उसका
अपमान कर दिया। लेकिन उसने यह सोचकर कि अभी मैं जीसस में संलग्न हूं, इस झंझट में कहां पड़ूं! और जीसस ने कहा है, जो
तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, तुम दूसरा उसके सामने कर
देना। और जो तुम्हारा कोट छीने, कमीज भी दे देना। और जो
तुमसे कहे कि मेरे साथ एक मील चलो और मेरा बोझा ढो दो, तो दो
मील तक चले जाना। तो ऐसे आदमी का चित्र बना रहा हूं, अभी इस
झंझट में नहीं पड़ना है।
वह चुपचाप सुन लिया और चला गया। मगर ऐसे कुछ आसान थोड़े ही है सुन लेना
और चला जाना। भीतर-भीतर आग उबलने लगी। उसका मन होने लगा कि सिर तोड़ देता उसका। ये
जीसस बीच में आ गए, फिर देख लूंगा। अभी ज़रा यह चित्र पूरा हो जाए।
उस दिन उसने बहुत चेष्टा की। चित्र पूरा तैयार हो गया था, सिर्फ जीसस के चेहरे पर बस आखिरी रंग भरने थे, मगर
वे रंग न भरे जा सके। उसने सब तरह से चेष्टा की। लेकिन जीसस का चेहरा न उभरा सो न
उभरा। अंततः उसे खयाल में आया कि मैं इतने क्रोध से भरा हूं, इस अक्रोधी आदमी के चेहरे को मैं न उभार पाऊंगा। मैं इतनी आग से जल रहा
हूं, मेरे भीतर तो वह आदमी घूम रहा है, उसकी गालियां गूंज रही हैं। इस आदमी के भीतर, जिसके
भीतर ऋचाएं उठ रही थीं, इसके चेहरे को मैं कैसे बना पाऊंगा?
मेरा तालमेल नहीं है।
अब तक ऐसी अड़चन न आई थी। उसने तूलिका रख दी, भागा हुआ गया। वह आदमी तो सो गया था, रात हो गई थी,
उसे उठाया, उसने क्षमा मांगी। कहा, मुझे माफ कर दो। उसने कहा, माफ करने की बात ही नहीं
है; माफी मुझे मांगनी चाहिए। तुम तो कुछ बोले ही न थे। तुम
मुझे अड़चन में डाल गए थे। मैं सोचने लगा, इसे क्या हो गया है?
इसका दिमाग ठीक है कि कुछ गड़बड़ हो गया है? माफी
मुझे मांगनी चाहिए।
लेकिन माइकल एंजिलो ने कहा कि माफी मैं ही मांगता हूं, क्योंकि मैंने कहा तो कुछ नहीं, लेकिन भीतर आग जल
गई। मुझे क्षमा कर दो।
जीसस का प्रसिद्ध वचन है : तुम मंदिर में जाओ और प्रार्थना करने लगो
और तुम्हें याद आ जाए कि तुमने किसी को क्षमा नहीं किया है, तुम किसी पर क्रुद्ध हो, तो पहले जाकर उसे क्षमा
मांग आना, फिर ही प्रार्थना करना; अन्यथा
तुम्हारी प्रार्थना में पंख नहीं होंगे। तुम्हारी प्रार्थना परमात्मा तक नहीं
पहुंचेगी।
जब उसने क्षमा मांग ली, हलका हो गया, निर्भार हो गया, वापिस गया और घड़ीभर भी न लगी और
जीसस का चेहरा उभर आया।
तुम मतलब समझे? जब तक जीसस जैसी भावदशा भीतर न हो, तब तक तुम बाहर जीसस का चेहरा भी नहीं बना सकते। पिकासो भीतर नरक में जी
रहा है। इस बसवीं सदी का सारा नरक, सारी सड़ांध, सारा उपद्रव, सारा वैमनस्य, दो
महायुद्ध, उन महायुद्धों में कटे हुए हजारों लोग, बहा हुआ लहू, हिरोशिमा और नागासाकी--वह सब पिकासो के
भीतर भरा हुआ है। उसके चित्रों में बह जाता है।
तुम अपनी जिंदगी जो बना रहे हो, वह भी एक कैनवास है।
तुम अपनी जिंदगी को रंग रहे हो। उसमें अगर नरक उभर आता है तो समझना कि नरक
तुम्हारे भीतर है। उसमें अगर स्वर्ग उभर आए तो समझना कि स्वर्ग तुम्हारे भीतर है।
और ऐसा भी नहीं है कि कभी-कभी तुम्हें स्वर्गिक क्षणों का अनुभव नहीं होता।
कभी-कभी होता है। तब ज़रा जांचना अपने भीतर कि क्या बात घट रही है। कभी-कभी भीतर
सन्नाटा हो जाता है। तुम्हारे बावजूद हो जाता है। कभी सूरज को उगते देखते, डूबते देखकर, कभी पक्षियों को अपनी नीड़ की तरफ लौटते
देखकर, तुम्हारे भीतर भी कुछ हो जाता है। कभी संगीत सुनते
देखकर, कभी किसी बच्चे को हंसते देखकर, कुछ तुम्हारे भीतर हो जाता है, तब तुम भी क्षणभर को
स्वर्ग से जुड़ जाते हो। मगर ये क्षण बड़े विरले हैं। अधिकतर तो तुम नरक में जीते
हो।
पर ध्यान रखना, संसार न तो नरक है न स्वर्ग। यहीं हैं लोग, तुम्हारे ही पड़ोस में बैठे होंगे, जो स्वर्ग में जी
रहे हैं; और यहीं वे लोग भी हैं जिन्होंने दोनों सत्य जान
लिए कि स्वर्ग और नरक दोनों हमारे मन के खेल हैं, हमारा
मनोविज्ञान है और उससे मुक्त हो गए। उन्होंने कैनवास को खाली छोड़ दिया। उस खाली
कैनवास, उस शून्य का नाम समाधि है, उस
शून्य का नाम मोक्ष है। वह परम दशा है। वहां शाश्वत शांति है। और अखंड आनंद है।
नरक में दुःख है, स्वर्ग में सुख है। सुख और दुःख
एक-दूसरे से जुड़े, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मोक्ष में न
सुख है, न दुःख है। दोनों उपद्रव गए। दोनों उत्तेजनाएं गईं।
मोक्ष उत्तेजना-शून्य है, निर्द्वंद्व, शांति--ऐसी परम दशा है जहां तुम भी नहीं; जहां कोई
द्वैत, द्वंद्व नहीं; जहां तुम इस
विराट ऊर्जा के साथ एक तरंग हो गए हो, एक लयबद्ध, एक छंद हो गए हो।
उसी छंदोबद्धता को पैदा कर सकूं, इसके लिए तुमसे बातें
कर रहा हूं। उसी छंदोबद्धता में तुम्हें ले चल सकूं, इसलिए
तुम्हें करीब अपने बुला रहा हूं। वह छंद घटा है मेरे भीतर। मैं किसी शास्त्र के
आधार पर तुमसे नहीं कह रहा हूं कि वह छंद घटेगा। वह छंद घटा है। मैंने तीनों बातें
जान लीं। नरक के चित्र भी बनाकर देखे, स्वर्ग के चित्र भी
बनाकर देखे, फिर दोनों चित्र पोंछ डाले। कैनवास का सूनापन भी
देखा है।
चौथा प्रश्न : मैं आपकी बातें सुनकर नशे में आ
गया हूं। नाचना चाहता हूं, लेकिन मेरे पैरों में जंजीरें
हैं। क्या इन जंजीरों से मुझे छुटकारा मिल सकता है?
नशा अभी पूरा नहीं आया। नहीं तो कौन फिकर करता है जंजीरों की! किसको
याद रह जाती हैं जंजीरें! हां, थोड़ी-थोड़ी घूंट उतरी है गले के
नीचे। थोड़ी-थोड़ी। और पियो!
मोहतसिब! साकी की चश्मे-नीम-वा को क्या करूं।
मैकदे का दर खुला गर्दिश में जाम आ ही गया।।
इक सितमगर तू कि वजहे-सद-खराबी तेरा दर्द।
इक बला-कश मैं कि तेरा दर्द काम आ ही गया।।
हमकफस! सय्याद की रस्मे-जबा-बंदी की खैर।
बेजबानों को भी अंदाजे-कलाम आ ही गया।।
मोहतसिब! साकी की चश्मे-नीम-वा को क्या करूं।
मैकदे का दर खुला गर्दिश में जाम आ ही गया।।
मधुशाला है यह। दरवाजा खुला है। दौर पर दौर चल रहे हैं। पीयो और पीने
में संकोच न करो। जी भर कर पीयो। और जैसे ही तुम पूरी तरह पीयोगे, जैसे ही तुम पूरी तरह मस्त हो जाओगे, तुम चकित हो
जाओगे--कहां की जंजीरें, कैसी जंजीरें! जंजीरें तुम्हारी
मान्यता में हैं। कौन तुम्हें बांधे है? तुमने माना है कि
बंधे हो, तो बंधे हो। तुम्हारी मान्यता है तुम्हारी जंजीरें।
मैंने सुना है, एक आदमी दस वर्ष से लकवे का मरीज था, बिस्तर पर पड़ा था। लकवे के मरीज अकसर ही निन्यानबे प्रतिशत मानसिक मरीज
होते हैं। दस साल से उठा नहीं, चला नहीं, बैठा नहीं। एक दिन घर में आग लग गई, आधी रात घर के
लोग बाहर भागे। वह आदमी भी भाग खड़ा हुआ। वह उठता ही नहीं था, चलता ही नहीं था, बैठता ही नहीं था। अब घर में आग
लगी हो तो कौन फिकर करता है लकवे की! यह लकवे की! यह कोई वक्त है लकवे की सोचने का?
ये तो सब सुख-सुविधा की बातें हैं। याद ही न रही कि मैं लकवे का
मरीज हूं! फुरसत कहां थी! इतना समय कहां था! रात आधी नींद में जगाया गया, घर में आग लगी है, सब भाग रहे हैं। एक तो नींद,
आधी रात, अचानक जाग गया। कभी-कभी तुम्हें भी
लगा होगा, एकदम अचानक कोई जगा दे तो तुम्हें समझ में नहीं
आता, तुम कौन हो; समझ में नहीं आता,
तुम कहां हो। ज़रा देर लगती है। और फिर आग लगी हो, तो और मुश्किल हो गई। वह भाग ही गया। जब बाहर पहुंच गया और भीड़ ने उसे
भागते देखा तो लोगों ने पूछा :"अरे! यह क्या? आप तो
लकवे के मरीज हैं।' वहीं गिर पड़ा! जैसे ही खयाल आया . . .
लकवे का मरीज!
जंजीरें! कैसी जंजीरें! किसने तुम्हें बांधा है? सब जंजीरें झूठी हैं। तुम सच मानो तो सच है।
गुरजिएफ ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि काकेसस पहाड़ के पास रहने
वाला एक कबीला अपने छोटे बच्चों को . . . कबीले का जीवन ज़रा संघर्ष का और कठिन है, पुरुषों को भी जंगल में मेहनत करने जाना पड़ता है। लकड़ियां काटो, शिकार करो। स्त्रियों को भी जाना पड़ता है। बच्चों को छोड़ देना पड़ता है। छोटे-छोटे
बच्चे! जिंदगी ज़रा मुश्किल है, सुविधापूर्ण नहीं है। तो
उन्होंने एक तरकीब निकाल ली है, जिसका वे हजारों साल से
उपयोग कर रहे हैं। वह तरकीब यह है कि छोटे बच्चे के चारों तरफ चाक से एक लकीर खींच
देते हैं और बच्चे को कह देते हैं, इसके बाहर नहीं निकलना,
कोई निकल ही नहीं सकता इसके बाहर! यह इतने बचपन से कही जाती है बात
कि इसका भरोसा आ जाता है। यह एक तरह की हिप्नोसिस है, एक तरह
का सम्मोहन हो जाता है। फिर बच्चा और बच्चों को भी देखता है। घर में सब अपनी-अपनी
लकीरों में बंद हैं सब अपनी लकीरों में बैठे हैं। बस लकीर तक आ सकते हैं। वहीं
खेलते हैं, कूदते हैं; मगर लकीर के
बाहर नहीं निकलते। लकीर के बाहर कोई निकल ही नहीं सकता है!
जब गुरजिएफ पहली दफा काकेसस के इन पहाड़ों में गया, तो वह चकित हुआ। बड़े आदमी के पास, जवान आदमी के पास
लकीर खींच दो और कह दो कि इसके बाहर नहीं जा सकते, वह नहीं
जा सकता। वह जा ही नहीं सकता! अगर कोशिश करेगा तो लकीर के पास जैसे कोई अदृश्य
दीवाल उसे धक्के मारकर भीतर भेज देती है। वह अदृश्य दीवार कहीं भी नहीं है;
पर उसके मन में, उसकी मान्यता में. . .।
अगर तुमने सम्मोहन के संबंध में कुछ कभी समझा है तो तुम चकित हो
जाओगे। किसी को सम्मोहित कर दो। और सम्मोहित करना बड़ी सरल बात है। बस कोई राजी भर
हो, तुम पर भरोसा भर करता हो, तुम उससे कहना कि ज़रा पांच
मिनट तक बिना आंख को झपके बिजली के बल्ब को देखते रहो और तुम उसके पास बैठ कर कहते
जाना कि बेहाशी आ रही है, बेहोशी आ रही है, बेहोशी आ रही है, बेहोशी आ रही है। और दस आदमियों पर
प्रयोग करोगे तो तीन पर सफल हो जाओगे, क्योंकि तैंतीस
प्रतिशत लोग हमेशा तैयार हैं सम्मोहित होने को। ये ही तैंतीस प्रतिशत लोग दुनिया
के सब उपद्रव चलवाते हैं। ये आधारशिला हैं। ये दुनियाभर की राजनीति चलवाते हैं।
इन्हीं के कारण हिटलर जैसे लोग पैदा हो जाते हैं। ये तैंतीस प्रतिशत लोग किसी के
भी चक्कर में आने को तैयार होते हैं। ये आतुर होते हैं कि कोई चक्कर डाले।
इन्होंने दुनिया को बड़े कष्ट में डाला है। और ये बुरे लोग नहीं हैं--सीधे-सादे भले
लोग हैं।
पांच मिनिट के बाद जब उस आदमी की आंखें झपकने लगें, तब तुम समझ लेना, उसके चेहरे का भाव बदल जाएगा। एकदम
से चेहरा निस्तेज हो जाएगा। वह जो चेहरे पर थोड़ा जीवन मालूम होता था, वह क्षीण हो जाएगा। जब चेहरा बिल्कुल निस्तेज हो जाए, जैसे मुर्दे का हो गया है, तो उस आदमी को कहना कि अब
तुम लेट जाओ, तुम बिल्कुल बेहोश हो गए। अब इस बेहोशी की हालत
में तुम उससे जो कहोगे वह मानेगा। तुम अगर उसके हाथ पर एक साधारण कंकड़ उठाकर रख
दोगे और कहोगे कि यह अंगारा है तो वह चीख मारकर कंकड़ को फेंक देगा। इसमें बहुत
आश्चर्य नहीं है कि उसने चीख मारकर अंगारा फेंक दिया, आश्चर्य
तो तब तुम्हें होगा जब उसके हाथ पर फफोला उठ आएगा। इतना मन मान लेता है कि हाथ पर
फफोला आ जाता है!
इसकी ही उलटी प्रक्रिया है, जो लोग आग पर चलते
हैं, कुछ भिन्न नहीं हैं, सम्मोहन की
ही प्रक्रिया है। इससे उलटी प्रक्रिया है। उसमें ज़रा और गहरा सम्मोहन चाहिए। और
गहरा सम्मोहित आदमी हो, उसके हाथ पर अंगारा रख दो और कहो कि
यह साधारण कंकड़ है, ठंडा कंकड़, और हाथ
नहीं जलेगा।
मन जो मान लेता है वैसा हो जाता है। मन की बड़ी क्षमता है।
तुम किन जंजीरों की बातें कर रहे हो? वे जंजीरें तुम्हारी
मन की मानी हुई हैं। सोचते होओगे कि पत्नी है, बच्चा है। कौन
किसका है! सोचते होओगे कि गांव में प्रतिष्ठा है, नाम है।
लोग क्या कहेंगे कि तुम और नाचने लगे दीवाने की तरह! अच्छे-भले गए थे, यह तुम्हें क्या हो गया? मगर प्रतिष्ठा नाम, यश सब तुम्हारी मान्यता है।
आहे-जांसोज की महरूमी-एत्तासीर न देख।
हो ही जाएगी कोई जीने की तदबीर न देख।।
हादसे और भी गुजरे उल्फत के सिवा।
हां मुझे देख मुझे अब मेरी तस्वीर न देख।।
ये ज़रा दूर पे मंजिल ये उजाला ये सुकूं।
ख्वाब को देख अभी ख्वाब की ताबीर न देख।।
देख जिंदां से परे रंगे-चमन, जोशे-बहार।
रक्स करना है तो फिर पांव की जंजीर न देख।।
नाचना है तो फिर पांव की जंजीर न देख!
देख जिंदां से परे रंगे-चमन जोशे-बहार
जिस कारागृह में तुम बंद हो, उसकी तरफ तुम्हारी
आंखें उठाने के लिए पुकार रहा हूं, कि ज़रा आंखें खोलो,
ज़रा आंखें ऊपर उठाओ!
देख जिंदां से परे रंगे-चमन जोशे-बहार
बसंत आया हुआ है। फूल खिले हुए हैं। पक्षी मदमस्त हैं। सारा अस्तित्व
रसविमुग्ध है।
देख जिंदां से परे रंगे-चमन जोशे-बाहर।
रक्स करना है तो फिर पांव की जंजीर न देख।।
और नाचना है तो फिर पांव की जंजीर देखो ही मत। और मैं तुमसे कहता हूं
और मैं तुम्हें आश्वासन देता हूं कि अगर तुम नाचे तो पांव की जंजीर पायल बन जाएगी।
मैंने पांव की जंजीर को पायल बनते देखा है, इसलिए कहता हूं। ये
तुम्हीं थोड़े ही पहली दफा यहां आए हो, यहां सभी इसी तरह आते
हैं और सभी जंजीरों से भरे आते हैं। और फिर नाचने लगते हैं तो चकित हो जाते हैं:
वही जंजीर जो कल रोकती थी, नाच में ताल देने लगती है। वही
जंजीर, जो कल जंजीर थी, पायल बन जाती
है। उसकी रुनझुन से गीत प्रकट होने लगते हैं।
लेकिन तुमने अभी ज़रा-ज़रा चखा, इसलिए प्रश्न उठ रहे
हैं। थोड़ा और पीयो। थोड़े और करीब आओ। थोड़ी और मस्ती में डूबो। यहां मैं तुम्हें
उदासी सिखाने के लिए नहीं बैठा हूं। यहां मैं तुम्हें जीवन का रस सिखाना चाहता
हूं। मैं नहीं चाहता कि मेरे संन्यासी उदास दिखें, विरक्त
दिखें। मैं चाहता हूं, मेरे संन्यासी परमात्मा पर आसक्त
दिखें, परमात्मा के प्रति रस-भरे हों। और यह जगत् उसका है और यह जगत् उसकी ही छाया है। इसलिए इस जगत्
के प्रति भी रस-भरे हों।
तुम नाचो, तुम्हारी जंजीरें भी नाचेंगी। तुम नाचो, तुम्हारी पत्नी भी कभी नाचेगी, तुम्हारे बच्चे भी
कभी नाचेंगे। तुम नाचना तो शुरू करो! यह संक्रामक है, यह
फैलता चला जाता है।
आखिरी प्रश्न : आपने हजारों को अपने रंग में रंग दिया है, इसके पीछे जादू क्या है?
जादू परमात्मा का है, मेरा उसमें कुछ भी नहीं है। जहां
तक मेरात्तेरा है, वहां तक जादू आता ही नहीं। जहां
मेरात्तेरा गया, वहीं से जादू की शुरुआत है।
वही रंग रहा है। रंग उसका है।
ऐसे ही समझो, जैसे तुम तूलिका को लेकर और चित्र बनाते हो। तूलिका
थोड़े ही चित्र बनाती है। तूलिका तो किसी के हाथ में होती है। मैं उसके हाथ में
हूं। जीते तो वह, हारे तो वह। मैं बिल्कुल निश्चिंत हूं।
अपना कुछ लेना-देना नहीं। कोई चेष्टा थोड़े ही कर रहा हूं लोगों को रंगने की। देखते
हो, अपने कमरे से बाहर भी नहीं जाता। लेकिन लोग आए चले जाते
हैं! न मालूम कौन उन्हें बुलाए लाता है!
मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंजिल मगर।
मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंजिल मगर।
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।।
मैं तो जब मानूं कि भर दे सागरे-हर-खासो-आम।
यूं तो जो आया वही पीरे-मुगां बनता गया।।
जिस तरफ भी चल पड़े हम आबला पायाने शौक।
खार से गुल और गुल से गुलिस्तां बनता गया।।
शरहे-गम तो मुख्तसर होती गई उसके हुजूर।
लफ्ज जो मुंह से न निकला, दास्तां बनता गया।।
मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंजिल मगर।
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।।
यह सब कैसे हो रहा है, मुझे पता नहीं। तुम
यहां कैसे आ गए हो, मुझे पता नहीं। कौन तुम्हें ले आया है,
मुझे पता नहीं।
लेकिन जिनकी प्यास है वे खोजने निकलते हैं। जहां उन्हें सरोवर की खबर
मिल जाती है, उसी तरफ चल पड़ते हैं। संसार में अभी वैसे दुर्भाग्य
का दिन नहीं आया जब लोग सत्य की खोज बंद कर देते हैं।
नीत्शे ने कहा हैः वह दिन सबसे बड़े दुर्भाग्य का दिन होगा जब मनुष्य
मनुष्य से ऊपर उठने की आकांक्षा छोड़ देगा। वह दिन सबसे दुर्दिन होगा, जब मनुष्य की प्रत्ययंचा पर परमात्मा को खोजने के लिए तीर न चढ़ेगा। नहीं,
वह दुर्दिन अभी नहीं आया और वह दुर्दिन कभी भी नहीं आएगा। वह आ ही
नहीं सकता।
लोगों को परमात्मा को खोजना ही पड़ता है। देर-अबेर! आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों। ज्यादा से ज्यादा तुम देर कर सकते हो, मगर सदा के लिए टाल नहीं सकते इस खोज को। इस खोज को अगर तुम ठीक-ठीक समझो
तो मैं कहता हूं आनंद की खोज। कैसे इससे बचोगे? धन में भी
उसी को खोजते हो, फिर नहीं पाते। पद में उसी को खोजते हो,
फिर नहीं पाते। जब सब तरफ टटोल लेते हो, सब
द्वार खटखटा लेते हो, दीन भिखारी की तरह न मालूम कितनों के
सामने अपना भिक्षापात्र फैला देते हो और हर बार खाली के खाली लौट आते हो, कब तक यह चलेगा? एक दिन तो सोचोगे कि ज़रा भीतर चलकर
देखें, मालिकों का मालिक शायद वहां बैठा हो! और वहां बैठा
है।
जिस दिन तुम्हारे भीतर परमात्मा की खोज शुरू होती है, उसी दिन गुरु की खोज शुरू हो जाती है। क्योंकि परमात्मा का और कोई प्रमाण
नहीं है। कोई तर्क परमात्मा को सिद्ध नहीं कर सकता--सिर्फ एक सद्गुरु की मौजूदगी।
उसकी आंखों में आंखें डालकर ही प्रमाण मिल सकता है कि परमात्मा है।
तुमने पूछा : आपने हजारों को अपने रंग में रंग दिया, इसके पीछे जादू क्या है?
सच पूछा : आपने हजारों को अपने रंग में रंग दिया, इसके पीछे जादू क्या है?
सच में जादू जानना है तो तुम भी रंगो। बिना रंगे तुम जान न पाओगे। ये
बातें "होकर ही जानी जाती हैं। निश्चित ही पूछनेवाला अभी दूर-दूर खड़ा है, अभी रंगरेज के हाथ नहीं पड़ा है। शायद डर की वजह से पूछ रहा है कि माजरा
क्या है, इतने लोग रंग गए हैं, थोड़ा
पास जाऊं कि न जाऊं! प्रश्न पूछनेवाले ने अपना नाम भी नहीं लिखा है, क्योंकि नाम की भी मुझे खबर मिल जाए तो मैं खींचतान शुरू करता हूं।'
अभी परसों ही देखा न, यश शर्मा, जो
रोहतक से आए हैं और लंबी यात्रा करके आए हैं, मिलना चाहते थे,
लेकिन बिना संन्यास के मिलना नहीं हो पा रहा था। नाम लिख दिया
प्रश्न में, फंस गए। कल सांझ रंग गए। क्योंकि जब मैं
पुकारूंगा तो अगर थोड़ी भी आत्मा है भीतर, तो कैसे लौट जाओगे?
जब मैं चुनौती दूंगा, तो थोड़ा भी बल है और
थोड़ी भी आत्म-गरिमा है तो कैसे भाग जाओगे? नहीं भाग सके।
तुम भी रंगो! चलो नाम न सही, नाम तो किसका होता
है! सभी अनाम हैं। औरों को पता नहीं तुम्हारा नाम, तुम्हें
तो पता है! तुम से ही कह रहा हूं।
साकी की हर निगाह पे बल खाके पी गया
लहरों से खेलता हुआ लहराके पी गया।
बेकैफियों की कैफ से घबराके पी गया
तोबा को तोड़त्ताड़के थर्रा के पी गया
जाहिद! ये मेरी शोखी-ए-रिंदा न देखना
रहमत को बातों-बातों में बहलाके पी गया
सरमस्ती-ए-अजल मुझे जब याद आ गई
दुनिया-ए-एतबार को ठुकराके पी गया
आजीजगी-ए-खातरे साकी को देखकर
मुझको यह शर्म आई कि शरमाके पी गया
ऐ रहमतेत्तमाम! मेरी हर खता मुआफ
मैं इंतहाए-शौक में घबराके पी गया
पीता बगैर इज्म ये कब थी मेरी मजाल
दर परदा-चश्मे-यार की शह पा के पी गया
इस जान-ए-मयकदा की कसम बारहा जिगर
कुल आलमें बशीद पे मैं छाके पी गया।
पीयो!
साकी की हर निगाह पे बल खाके पी गया
लहरों से खेलता हुआ लहराके पी गया
ये लहरें हैं। ये तुम्हारे पास गैरिक वस्त्रों में इन लहरों का तूफान
उठा है। डूबो! इन लहरों के साथ थोड़ा नाचो!
लहरों से खेलता हुआ लहराके पी गया
बेकैफियों की कैफ से घबराके पी गया
तोबा को तोड़त्ताड़के थर्रा के पी गया
अगर तोबा भी करके आए हो. . .
कुछ लोग आते हैं घर से तय करके कि संन्यास नहीं लेना है। पक्का ही करके आते हैं कि
संन्यास नहीं लेना है। पत्नी कसम खिला देती है कि संन्यास नहीं लेना है। पति कसम
खिला देता है और सब करना, संन्यास मत लेना।
तोबा को तोड़त्ताड़के थर्राके पी गया
छोड़ो, ये भी कोई कसमें हैं?
मुझको यह शर्म आई कि शरमाके पी गया
यश शर्मा की हालत देखी है! शर्मा थे, शरमा गए, पी गए!
रहमते तमाम मेरी हर खता मुआफ
मैं इंतहाए-शौक में घबराके पी गया
पीता बगैर इज्म ये कब थी मेरी मजाल
हे परमात्मा! तेरी आज्ञा के बिना पीता, यह मेरी सामर्थ्य
कहां थी !
पीता बगैर इज्म ये कब थी मेरी मजाल
दर-परदा चश्मे-यार की शह पाके पी गया
तूने जो आंख का इशारा किया, उसमें मैं समझ गया कि
तू भी राजी है, कि तोड़ ही डालूं सब तोबा और पी जाऊं।
मैं नहीं पुकार रहा हूं, परमात्मा पुकार रहा
है।
पीता बगैर इज्म ये कब थी मेरी मजाल
दर परदा चश्मे-यार की शह पाके पी गया
डूबो! यह रंग ऊपर का ही रंग नहीं है। यह छंद ऊपर का ही छंद नहीं है।
ऊपर-ऊपर तो खेल है, भीतर-भतर असली राज है। बाहर-बाहर से मत लौट जाना'
अन्यथा तुम जो भी जानोगे वह गलत होगा।
यहां लोग आ जाते हैं--तमाशबीन जो सोचते हैं कि बाहर खड़े होकर देख
लेंगे, समझ लेंगे क्या हो रहा है। सोचते हैं कि दूसरों को
ध्यान करते देखकर हम समझ लेंगे कि क्या हो रहा है। पागल हो गए हो! ध्यान बिना किए
कोई कभी नहीं समझता कि क्या हो रहा है। प्रेम किए बिना कोई नहीं समझता कि क्या हो
रहा है। बात अंतर की है।
जादू परमात्मा का है। खोलो अपने हृदय को और उसके जादू को हृदय पर छा
जाने दो। अपने ढंग से बहुत जी लिए, चलो अब उसके ढंग से
जियो। कहोः तेरी मर्जी पूरी हो!
यही संन्यास है : तेरी मर्जी पूरी हो! यही संन्यास की व्याख्या है।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें