प्रवचन-सौहलवां
एक
मित्र ने पूछा है कि क्रोध को हम जानते हैं, पहचानते हैं, लेकिन फिर भी क्रोध मिटता
नहीं! और आपने कहा कि यदि हम देख लें, जान लें, पहचान लें, तो क्रोध मिट जाना चाहिए!
इस
संबंध में दोत्तीन बातें समझ लें। पहली बात यह है कि क्रोध के विरोध में हमें इतनी
बातें सिखायी गयी हैं कि उन विरोधी बातों के कारण क्रोध को हम कभी भी सरलता से
देखने में समर्थ नहीं हो पाते।
जिससे
हमारा विरोध है,
उसे
देखना मुश्किल हो जाता है।
जिसके
संबंध में हमने पहले से निर्णय ले रखा है कि वह पाप है, बुरा है, नरक का द्वार है, उसे हम देख कैसे सकेंगे? देखते ही हमारे भीतर विरोध
दौड़ जाता है। विरोध के कारण हमारे और क्रोध के बीच एक दीवार खड़ी हो जाती है, वह दीवार देखने नहीं देती।
आपने
कभी अपने दुश्मन के चेहरे पर गौर से देखा है? जिससे दुश्मनी हो, उसे देखने का मन ही नहीं
करता। और फिर जिससे दुश्मनी है, उसे आप
देखना भी चाहें तो नहीं देख सकते हैं। आप वही देख लेंगे, जो आपने दुश्मनी में मान रखा
है। दुश्मन को देखना बहुत कठिन है, क्योंकि दुश्मन के संबंध में हमने निश्चित
धारणा बना रखी है कि बुरा आदमी है। वह जो हमारी धारणा है, उसके ही हमें दर्शन हो
जायेंगे। उसके नहीं, जो
दुश्मन असलियत में है, जैसा
है।
क्रोध
के, काम के, लोभ के, भय के संबंध में हमें इतनी
बातें दिखायी गयी हैं कि हमारा पूरा चित्त धारणाओं से भर गया है!
क्रोध
को हम नहीं जानते,
क्रोध
के संबंध की धारणा को ही जानते हैं। हमने क्रोध को कभी आमने-सामने एनकाउंटर नहीं
किया। हमने कभी उसे वैसा ही नहीं देखा, जैसा वह है। हमें बताया गया है। और जो हमें
बताया गया है,
वह हम
देख लेते हैं!
पहली
बात है,
निष्पक्ष
मन से सोचें कि क्रोध क्या है? लेकिन
आप कहेंगे,
हमें
मालूम है कि क्रोध क्या है। हम जानते ही हैं, सब किताबों में लिखा है, सब शिक्षाएं कहती है कि क्रोध
आग है,
नरक है, जहर है--क्रोध मत करना। वह हम
मानते हैं।
यह
हमने मान रखा है क्रोध को बिना जाने! क्या यह अन्यायपूर्ण नहीं है? जैसे किसी आदमी को हमने कभी
नहीं देखा है और उसके संबंध में कोई धारणा बना लें और वह धारणा हम मजबूत करते चले
जायें। और अगर वह आदमी कभी हमारे सामने भी आ जाये तो भी फिर देखना मुश्किल हो
जायेगा। धारणा हमारे और उस आदमी के बीच में खड़ी हो जायेगी एक चश्मे की तरह। और जो
हमारी धारणा का रंग होगा, वही
हमें दिखाई पड़ जायेगा।
यह खेल
सूम है। और इसलिए हम क्रोध के विरोध में तो बहुत बातें कहते हैं, लेकिन क्रोध से मुक्त नहीं हो
पाते। हम मुक्त हो ही नहीं सकते, क्योंकि
हम क्रोध को जान ही नहीं पाते। जिसे हम जानते नहीं, उससे मुक्त हम कैसे हो सकते
हैं? मैं आपसे कहूंगा कि आप क्रोध
को नहीं जानते। क्रोध के संबंध में जो आपने सुन रखा है, वही आप जानते हैं, वही आप पहचानते हैं। क्रोध की
सीधी और नग्न अवस्था बिना किसी धारणा के, निष्पक्ष आपने नहीं जानी। उसे जानना जरूरी
है।
पहली
बात, मन की सारी वृत्तियों के
संबंध में पूर्व निर्धारित विचार छोड़ दें। और मन के भीतर इस तरह जायें, जैसे हम अनजान दुनिया में
जाते हों;
जहां
हम कुछ भी नहीं जानते, जहां
सब अपरिचित है। हम एक भी चीज नहीं जानते हैं--मन के भीतर क्या है, क्या नहीं है! हम सिर्फ देखने
जा रहे हैं,
परिचित
होने जा रहे हैं। सिर्फ क्रोध देखेंगे, ऐसे ही जैसे रास्ते के किनारे किसी वृक्ष पर
फूल खिला है या किसी वृक्ष पर कांटे लगे हैं। ऐसे ही किसी रास्ते के किनारे से
चित्त में प्रवेश होते क्रोध दिखेगा, घृणा दिखेगी, लोभ दिखेगा।
और आज
सीधा मुकाबला होगा। आज हम बीच में कोई धारणा नहीं लिए हुए हैं। शास्त्र क्या कहता
है, उससे हमें प्रयोजन नहीं। संत
क्या कहते हैं,
उससे
हमें प्रयोजन नहीं। क्रोध मेरे पास है, मैं खुद क्यों न देख लूं। इसमें संतों से
उधार सीखने की क्या जरूरत है? लेकिन
हमारा पूरा दिमाग उधार है। हमारे पास अपना कुछ भी नहीं! अपने पास जो है, उसकी पहचान भी अपनी नहीं! वह
भी हम किसी और से पूछने जाते हैं!
रामकृष्ण
एक दिन बहुत हंसने लगे, बहुत
लोग इकट्ठे थे। और कहने लगे, आज
बहुत मजा आया। एक आदमी उनसे मिलने आया था। उसके पड़ोस के मकान में रात आग लग गयी
थी। मैंने उसने पूछा, तेरे
पड़ोस के मकान में सुना है, आग लगी
थी? उसने कहा, नहीं! मैंने तो अखबार देखा, अखबार में तो कोई खबर नहीं!
पड़ोस के मकान में लगी आग, उसे
सुबह अखबार लगी है आग! आग लगती तो अखबार में खबर होती।
रामकृष्ण
कहते हैं कि उस आदमी से यह सुनकर मुझे बहुत ही हंसी आयी। पड़ोस के मकान की आग भी
उसने खुद नहीं देखी, वह भी
अखबार से उधार देखेगा! पड़ोस का मकान फिर भी दूर है, लेकिन अपने भीतर जो है, वह भी हम दूसरे से सीखने जाते
हैं--कि क्रोध कैसा है, प्रेम
कैसा है,
घृणा
कैसी है! वह भी हम पूछते हैं शास्त्रों से! वे पुराने अखबार हैं, हजार साल पहले! वह आदमी तो
फिर भी नया अखबार देखता था। और जितना पुराना शास्त्र हो, हम कहते हैं, उतना ही श्रेष्ठ है! उतनी ही
पुरानी खबर हम पढ़ने जाते हैं! और उसमें से हम जांच करेंगे, हमारे भीतर क्या है!
क्या
सब पुराने आदमी हैं, कोई
नया आदमी नहीं है?
क्या
अपने भीतर जो है,
उसे भी
दूसरे से पूछने जाने की जरूरत है? लेकिन
ऐसा ही हुआ है। पूरी मनुष्यता पुरानी हो गई है। कोई आदमी मौलिक नहीं है। जब कोई
आदमी मौलिक होगा,
तभी
क्रांति हो जायेगी; क्योंकि
वह चीजों को जानेगा, वह
क्या है।
हमने
शब्द सीख रखे हैं! हम कहते है, क्रोध
बुरा है! न हम क्रोध को जानते हैं, न हम बुरा क्या है, इसको जानते हैं। बस सीख लिए
हैं शब्द तोते की तरह और हम उन्हीं शब्दों पर जीते चले जाते हैं! अगर कोई अच्छे
शब्द दे दिये जायें क्रोध को तो हो सकता है, हम उसे बुरा कहना भी बंद कर दें! कहते हैं, कुछ क्रोध ऐसे होते हैं, जो अच्छे होते हैं! फिर क्रोध
में बुराई नहीं रह जाती।
धार्मिक
क्रोध भी होते हैं! क्रोध कैसे धार्मिक हो सकता है? और नरक भी धार्मिक हो सकता
है! धर्मयुद्ध भी होता है! धार्मिक क्रोध भी होते हैं, धार्मिक हिंसा भी होती है!
फिर हम शब्द नया दे देते हैं, फिर हम
लड़ लेते हैं,
फिर
हमें कोई फिक्र नहीं है।
१९५२
में वहां हिमालय की तराई में, नीलगाय
नामक जानवर ने खेतों में बहुत नुकसान किया हुआ था। पार्लियामेंट तक बात उठी कि
क्या करें! तो लोगों ने कहा कि गाय है, उसको गोली तो मारी नहीं जा सकती। नाम ही है
उनका नीलगाय। नाम वह नहीं है। लेकिन नाम में गाय जुड़ा होना चाहिए तो धार्मिक
उपद्रव,
दंगे
हो जायेंगे! तो एक समझदार सदस्य ने सलाह दी कि पहले उसका नाम नीलघोड़ा रख दिया
जाये। फिर उसका नाम पार्लियामेंट ने नीलघोड़ा रख दिया! फिर उस नीलघोड़े को गोली मारी
गयी और हिंदुस्तान में किसी शंकराचार्य ने नहीं कहा कि हमारी गाय को गोली मार दी!
वह नीलघोड़ा हो गयी! वह बेचारी वही की वही रही। वह जो थी, वही रही, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ा।
लेकिन नीलघोड़े को गोली मार दी तो हिंदुस्तान में क्या नुकसान होने वाला है! नीलगाय
को गोली लगती तो झंझट खड़ी हो सकती थी!
हम
शब्द और लेबल से जीते हैं! बड़ी होशियारी की बात है। नाम बदल दें तो सब खत्म हो
जाता है!
क्रोध, बस एक नाम हमने सीख रखा है।
हिंसा,
एक नाम
हमने सीख रखा है। लोभ, एक नाम
हमने सीख रखा है। और उस नाम के साथ हजारों साल का प्रचार है। और हमारा मस्तिष्क
सिर्फ प्रचार से जी रहा है! और यह आपको पता नहीं! शायद प्रचार के द्वारा कुछ भी
सत्य मालूम पड़ने लगता है। जो भी प्रचारित किया जाये, वही सत्य मालूम पड़ने लगता है!
और जब सत्य मालूम पड़ने लगता है, तो जो
सत्य है,
उसको
देखना मुश्किल हो जाता है। प्रचार से बचना जरूरी है, अगर क्रोध को देखना हो, जानना हो, पहचानना हो।
तो
प्रचारित जो दिमाग में संस्कार बिठा दिया गया है कि पाप है, बुरा है, उसको दोहराये चले जाते हैं!
फिर जैसे ही क्रोध आ जाता है, तो
क्रोध को तो जानते नहीं हैं, वह
हमें पकड़ लेता है! क्रोध हम पर सवार हो जाता है! हम दुखी होते हैं! दूसरे को दुख
दे लेते हैं। जब क्रोध चला जाता है तो तोतों की रटी बात फिर पीछे लौट आती है और
वही कहने लगते हैं कि क्रोध बहुत बुरा है, क्रोध नहीं करना चाहिए! क्रोध करके बहुत पाप
किया! फिर हम कसम खाते हैं, पश्चात्ताप
करते हैं कि अब नहीं करेंगे!
और
हमें पता नहीं कि जिसको हम कह रहे हैं, नहीं करेंगे, उससे हमारी कोई पहचान नहीं
है! जब वह आ जायेगा तो हम एकदम हार जायेंगे, क्योंकि जिसे हम पहचानते ही नहीं, उससे जीत कैसे संभव है? इसलिए रोज आदमी तय करता है, अब क्रोध नहीं करेंगे और रोज
क्रोध करता है! फिर और जोर से तय करता है, फिर और जोर से कसम खाता है, संकल्प लेता है, भगवान के मंदिर में जाकर प्रण
करता है,
साधु-संन्यासियों
के सामने प्रतिज्ञा और व्रत लेता है--और फिर वही होता है!
नहीं, ये व्रत और प्रतिज्ञाएं और यह
संकल्प दो कौड़ी के हैं। इनसे कुछ होने वाला नहीं है। असली सवाल है कि जिसे आप
बदलना चाहते हैं,
उससे
आप परिचित हैं।
पहली
बात, ये सारी धारणाएं छोड़ दें। कौन
कहता है,
क्रोध
बुरा है?
कौन
कहता है,
सेक्स
बुरा है?
हमें
जब पता ही नहीं है तो हमारे भीतर हम खुद ही जायेंगे। हम दूसरे से पूछने क्यों चले
जायें?
भीतर
प्रवेश करें निष्पक्ष मन लेकर। लेकिन ऐसे मत सोचना।
मेरे
पास लोग आते हैं,
वे
कहते हैं कि हमने आपकी पद्धति से भी कोशिश की, लेकिन अभी तक छुटकारा नहीं हुआ! मैं आपसे यह
पूछना चाहता हूं कि चाहना कठिन है। छुटकारा चाहने में वह मानी हुई बात बैठी हुई है
कि क्रोध बुरा है। मैं आपसे कहता हूं कि जानिये क्रोध को, छुटकारा हो जायेगा। छुटकारा
पाने के लिए अगर जानने गये तो निर्णय पहले से मौजूद है कि बुरा है, उससे छूटना है; फिर नहीं छुटकारा होगा।
वे
कहते हैं,
आपकी
बात भी हम मान लेते हैं, लेकिन
छुटकारा कब होगा?
आपने
फिर मेरी बात समझी ही नहीं। छुटकारे की जो बात आप कहते हैं, वह दूसरे की माने हुए बैठे
हैं कि बुरा है क्रोध, इसलिए
छुटकारा चाहिए। फिर अगर मेरी बात सुनते हैं तो कहते हैं, अच्छी बात है। अगर इस तरकीब
से छुटकारा होता हो तो हम यह तरकीब भी करते हैं, लेकिन छुटकारा होगा कि नहीं? हम धारणा भी छोड़ने को राजी
हैं, लेकिन छुटकारा होगा कि नहीं?
अब
कैसे धारणा छोड़ रहे हैं आप! अगर धारणा छोड़ रहे हैं तो छुटकारे का सवाल समाप्त हो
जाता है। हम जानने जाते हैं, क्या
है। और जानने से जो होगा, वह
होगा। जानने से छुटकारा होता है। छुटकारा पाने के लिए जान नहीं सकते हैं आप।
छुटकारा पाने के लिए--जानने की प्रक्रिया में बाधा पड़ेगी, जान नहीं सकेंगे। क्योंकि
जिससे छूटना है जल्दी, जिससे
मुक्त होना है,
उसे
जानने का धीरज,
जानने
की सरलता कैसे हम बरत पायेंगे?
अगर
कोई आदमी आपके घर आये और आप चाहते हैं कि जल्दी चला जाये, जल्दी चला जाये। फिर आपने कभी
खयाल किया है कि आप उसकी बात नहीं सुन पाते हैं। ऐसा दिखता है कि आप सुन रहे हैं, लेकिन भीतर चल रहा है कि यह
आदमी कब जाये। वह भी कहता है कि आप जो कहते हैं, बिलकुल ठीक है। लेकिन भीतर
यही होता है कि आदमी जल्दी चला जाये। भीतर कुछ नहीं सुनाई पड़ रहा है! न वह आदमी
दिखाई पड़ रहा है! बार-बार घड़ी देख रहे हैं और लग रहा है कि कितनी देर हो गयी! कब
चला जाये। और यह सारा चल रहा है और ऊपर से यह भाव चल रहा है! हम देख रहे हैं, हम सुन रहे हैं, हम स्वागत कर रहे हैं--और
भीतर? भीतर एक दीवार खड़ी हो गयी है, क्योंकि उस आदमी को सहन नहीं
कर पा रहे हैं।
क्रोध
को जानना है,
सेक्स
को जानना है,
हिंसा
को जानना है। छुटकारे का क्या सवाल है! अभी हम जानते नहीं, इसलिए पहले से निर्णय न करें
कि क्या अच्छा है,
क्या
बुरा है,
वह
बुराई से कभी मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि अच्छा वह दूसरे के अनुभव के आधार पर तय
कर रहा है! और दूसरे के अनुभव के आधार पर पक्षपात कर रहा है।
और
पक्षपात स्वयं का ज्ञान पैदा नहीं होने देता। वह एक चक्र में पड़ा है, जिसमें पूरा जीवन नष्ट कर
लेगा और कहीं भी नहीं पहुंच सकता है।
नहीं, जानना है। और जानने से मुक्ति
आती है। सारी धारणा छोड़ दें। क्रोध क्या है--मत कहें कि वह बुरा है, मत कहें कि अच्छा है, मत कहें कि मैं जानता हूं।
इतना ही कहें कि मैं नहीं जानता हूं। मैं जानना चाहता हूं। इतनी सरलता से कि मैं
नहीं जानता हूं और जानना चाहता हूं। अगर आपका मन तैयार है तो आप क्रोध को जान
लेंगे। और जानते ही क्रोध से मुक्त हो जायेंगे। जानने के बाद एक क्षण भी कोई बंधन
नहीं है किसी बात का।
यह ऐसा
ही है,
जैसे
एक मकान के भीतर मैं बैठा हूं और मैं कहूं कि मुझे दरवाजे से बाहर निकलना है। और
आपसे मैं कहूं,
आप आंख
खोलकर गौर से देखिये, दरवाजा
कहां है! आपको दिख जायेगा और आप निकल जायेंगे। वह आदमी कहे कि ठीक है, हमें दरवाजा दिख गया, तो भी हम निकलेंगे कैसे! और
आदमी कहे कि दरवाजा तो दिखाई पड़ता है, लेकिन मैं निकल नहीं पाता! निकलता हूं तो
दीवार से टकरा जाता हूं!
तो हम
कहेंगे कि वह दरवाजा कहीं की सुनी हुई खबर होगी कि यहां दरवाजा है। आपको नहीं
दिखाई पड़ता है,
नहीं
तो फिर कैसे दीवार से टकरा जाते? लेकिन
दरवाजा मुझे मालूम है! तो हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे दरवाजा मालूम नहीं होगा, अन्यथा निकल गये होते, दीवार से क्यों टकराते? सुना होगा, यहां दरवाजा है। वह सुनी हुई
बात पकड़ ली है,
इसलिए
टकराहट होती है। और जिसे दरवाजा दिखाई पड़ता है, वह नहीं पूछता कि मैं कैसे निकलूं। दिखाई
पड़ना और निकल जाना, एक ही
साथ हो जाते हैं।
पहली
बात, अंतःवृत्तियों के तथ्य का
सीधा ज्ञान,
उधार
ज्ञान नहीं।
अभी हम
क्या करते हैं?
अगर
मैं आप पर क्रोधित हो जाऊं तो आप क्या करेंगे, पता है आपको? अगर मैं आपको गाली दूं और
अपमानित करूं और मैं आप पर क्रोधित हो जाऊं तो आपके भीतर क्रोध जगेगा। उस क्रोध
में आप क्या करेंगे, आपको
पता है?
आज तक
आपने क्या किया है, आपको
पता है?
उस
क्रोध में आप अपने को भूल जायेंगे और मेरे बाबत विचार करेंगे कि इस आदमी ने ऐसा
क्यों कहा?
यह
आदमी बुरा है,
इस
आदमी से कैसे बदला लूं? जब आप
क्रोध से भरेंगे तो आपका पूरा ध्यान उस पर चला जायेगा। और क्रोध आपके भीतर होगा और
ध्यान मुझ पर होगा। आप क्रोध को जानने से वंचित हो जायेंगे, क्योंकि ध्यान मुझ पर है और
क्रोध भीतर चल रहा है।
अब
दोबारा क्रोध आये तो उसकी फिक्र छोड़ दें। गाली दी है अब--तो भीतर पहुंच जायें, कमरा बंद कर लें और भीतर
झांकें। और बैठ जायें, देखें, जहां भीतर क्रोध है। जिसने
क्रोधित किया है,
उस पर
हमारा ध्यान होता है। जो क्रोधित हो गया है, उस पर हमारा ध्यान नहीं होता है! इसलिए हम
क्रोध को कभी नहीं जान पाते। आग यहां भीतर जलती है और नजर हमारी लगी होती है उस
आदमी पर! और हम विचार कर रहे होते हैं कि क्या करें, कैसे बदला लें। सारा चित्त
वहां है और यहां भीतर आग लगी है! इस हालत में कैसे आप जान पायेंगे?
एक
युवक खेल रहा है हाकी। पैर में चोट लग गयी है, खून बह रहा है। उसे पता नहीं, जब तक वह खेल रहा है! खून बह
रहा है,
पैर
में चोट लग गई है,
नाखून
टूट गया है। दूसरे को खून बहता हुआ दिखाई पड़ रहा है। उसे पता नहीं, उसका सारा ध्यान खेल पर लगा
हुआ है! वहां ध्यान नहीं है उसका! खेल बंद होगा और उसे ध्यान आयेगा कि अरे! यह तो
पैर में चोट लग गयी! कब से खून बह रहा है, कितना खून गिर गया है, लेकिन मुझे पता ही नहीं है!
पता
हमें उन्हीं चीजों का होता है, जहां
हमारा ध्यान होता है। पता का अर्थ है जहां ध्यान है।
जब
आपको क्रोध होता है तो आपका ध्यान कहां होता है? क्रोध ऊपर होता है। अगर क्रोध
ऊपर होगा तो आप क्रोध को जान लेंगे। लेकिन क्रोध ऊपर नहीं होता है। जिसने क्रोध को
जगाया है,
वह
निमित्त भर होता है। हमारी आंखें वहां अटकी होती हैं। हो सकता है वह आदमी यहां न
हो, वह लंदन में बैठा हो। लेकिन
क्रोध हमारा उस पर होगा।
एक
आदमी ने लंदन से आपको चिट्ठी लिख दी और गालियां लिख दीं। और आप चिट्ठी को फाड़कर
फेंक देंगे! ध्यान लंदन के उस आदमी पर चला जायेगा! और वह आदमी जो भीतर बैठा है, वह क्रोध में जल रहा है, आग में भुन रहा है, इस पर ध्यान नहीं होगा! जहां
ध्यान होगा ,
वहां
पता चलेगा। जहां ध्यान नहीं है, वहां
कैसे पता चलेगा?
लेकिन
आप कहेंगे कि मैंने अनेक बार क्रोध किया है, मुझे क्रोध का पता नहीं है? मुझे क्रोध का पूरा पता है, क्योंकि मैंने जिंदगी भर
क्रोध किया है। लेकिन हमेशा आपका ध्यान क्रोध के क्षण में वहां चला गया है, जहां क्रोध नहीं है। वहां से
लौट गया है,
जहां
क्रोध है। और इसलिए ध्यान और क्रोध का मिलन कभी नहीं हो पाया है।
जब
क्रोध चला जायेगा। वह जायेगा आगे, आप
वापस लौट आयेंगे लंदन के दुश्मन से। तब आप कहेंगे, अरे! मकान गिर गया, जगह-जगह दीवारें गिर गयीं, यह तो बहुत बुरा हुआ, यह तो पश्चात्ताप हो गया। अब
मैं निर्णय करता हूं, क्रोध
कभी नहीं करूंगा। फिर क्रोध, फिर
वही दोहरायेंगे बात, फिर
नजर वहां चली जायेगी, जहां
क्रोध चूक जायेगा। नहीं, क्रोध
पर करना है ध्यान,
तब आप
जान सकेंगे। जिस पर ध्यान होता है, उसे हम जान पाते हैं। लेकिन आप कहेंगे क्रोध
पर कैसे ध्यान करेंगे, क्योंकि
क्रोध में हम होश में नहीं रहते। ध्यान-व्यान कौन करेगा। वहां तो हम बेहोश हो जाते
हैं।
निश्चित
ही अब तक ऐसा ही हुआ है। और इसलिए आप क्रोध को जान नहीं पाये। आपको सिर्फ गये हुए
क्रोध की स्मृति है। मरे हुए क्रोध की, अतीत के क्रोध की स्मृति है। वर्तमान क्रोध
को आपने कभी नहीं जाना। भविष्य के क्रोध के लिए निर्णय है और अतीत के क्रोध की
स्मृति है! वर्तमान क्रोध की कोई अनुभूति, वर्तमान क्रोध का कोई साक्षात्कार नहीं है।
और वर्तमान क्रोध का साक्षात्कार हो जाये तो न अतीत की स्मृति की जाती है, न भविष्य की योजना की।
वर्तमान में क्रोध को जो जान लेते है, उनकी हालत वैसी ही हो जाती है, जैसे आग लगे हुए मकान में
आदमी छलांग लगाकर बाहर निकल जाता है। और जान लेता है कि यह आग मैं ही लगाता हूं
अपने ही मकान में।
बुद्ध
ने कहा है कि जब मैंने जाना तो मैंने पाया है कि अदभुत हैं वे लोग, जो दूसरों की भूल पर क्रोध
करते हैं! क्यों?
तो
बुद्ध ने कहा कि अदभुत इसलिए कि भूल दूसरा करता है, दंड वह अपने को देता है। गाली
मैं आपको दूं और क्रोधित आप होंगे। दंड कौन भोग रहा है? दंड आप भोग रहे हैं, गाली मैंने दी!
क्रोध
में जलते हम हैं,
राख हम
होते हैं,
लेकिन
ध्यान वहां नहीं होता! इसलिए धीरे-धीरे पूरी जिंदगी राख हो जाती है। और हमको भ्रम
यह होता है कि हम जान गये हैं! हम जानते नहीं-- क्रोध की सिर्फ स्मृति है और क्रोध
के संबंध में शास्त्रों में पढ़े हुए वचन हैं और हमारा कोई अनुभव नहीं।
जब
क्रोध आ जाये तो उस आदमी को धन्यवाद दें, जिसने क्रोध पैदा करवा दिया, क्योंकि उसकी कृपा, उसने आत्म-निरीक्षण का एक
मौका दिया;
भीतर
आपको जानने का एक अवसर दिया। उसको फौरन धन्यवाद दें कि मित्र धन्यवाद, और अब मैं जाता हूं, थोड़ा इस पर ध्यान करके वापस
आकर बात करूंगा। द्वार बंद कर लें और देखें कि भीतर क्रोध उठ गया है। हाथ-पैर कसते
हों, कसने दें; क्योंकि हाथ-पैर कसेंगे। हो
सकता है कि क्रोध में, अंधेरे
में, हवा में, घूंसे चलें; चलने दें। द्वार बंद कर दें
और देखें कि क्या-क्या होता है। अपनी पूरी पागल स्थिति को जानें और पागलपन को पूरा
प्रकट हो जाने दें अपने सामने। तब आप पहली बार अनुभव करेंगे कि क्या है यह क्रोध।
जब आप इस पागलपन की स्थिति को अनुभव करेंगे तो कांप जायेंगे भीतर से, कि यह है क्रोध। यह मैंने कई
बार किया था,
दूसरे
लोगों ने क्या सोचा होगा!
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं,
क्रोध
संक्षिप्त रूप में आया हुआ पागलपन है, थोड़ी देर के लिए आया हुआ पागलपन है, क्षणिक पागलपन है। क्षण भर
में आदमी उसी हालत में हो गया, जिस
हालत में कुछ लोग सदा के लिए हो जाते हैं। क्रोध में जलते हुए आदमी में और पागल
आदमी में मौलिक अंतर नहीं है। अंतर सिर्फ लंबाई का है। पागल आदमी स्थायी पागल है, क्रोधी आदमी अस्थायी पागल है।
दूसरे
ने आपको क्रोध में देखा होगा, इसलिए
दूसरे कहते है कि यह बेचारा कितना पागल हो गया है, यह क्या करता है? आपने कभी देखा है अपने को? अतः द्वार बंद कर लें। और
अपनी पूरी हालत को देखें कि यह क्या हो रहा है। और रोकें मत, प्रकट होने दें, जो हो रहा है। और उसका पूरा
निरीक्षण करें,
तब आप
पहली दफा परिचित होंगे, यह है
क्रोध।
लेकिन
ऐसा न सोचना कि कोई क्या कहेगा--कहीं पत्नी न देख ले! पत्नी बहुत दफा देख चुकी है
आपके पागलपन को। और आप भी अपनी पत्नी के पागलपन से भली-भांति परिचित हैं। और बेटे
भी आपको जानते हैं अच्छी तरह और आप भी बेटों को जानते हैं। लेकिन कोई चिंता मत
करना, बल्कि उनसे कह देना, क्रोध का निरीक्षण करता हूं
और पागल हो जाता हूं, अभी
उसको जानना चाहता हूं। हो सकता है जोर से आवाजें निकलने लगे, गाली निकलने लगे। दीवार पर
घूंसा पड़ने लगे आपका, पड़ने
दें। एक बार पूरी तरह क्रोध को पूरी स्थिति में देख लेना, उसके बाद दोबारा वह नहीं होगा, क्योंकि तब आप पूरा परिचित
होंगे ही। यह स्थिति है! दर्पण लगा लेना और उसमें देखते जाना क्या-क्या होता है? यह क्या हो रहा है?
और एक
बार भी पूरा नग्न दर्शन भीतर का, क्रोध
के पूरे वर्तुल का, पूरे
बवंडर का हो जाये तो आप पहली दफा अनुभव करेंगे, क्या है क्रोध। और उसके बाद कसम लेने की
जरूरत नहीं होगी कि अब मैं क्रोध नहीं करूंगा। उसके बाद कोई आयेगा और कहेगा कि
अपनी जायदाद आपके नाम लिखता हूं, आप फिर
से पागल हो जायें एक मिनिट के लिए। और कोई कहेगा, दुनिया आपको देते हैं। तो आप
कहेंगे,
क्षमा
करें, मैंने जान लिया कि क्या है
क्रोध।
जो मैं
क्रोध के लिए कह रहा हूं, वह
सारी चीजों के लिए है--चाहे लोभ हो, चाहे सेक्स हो, चाहे कुछ भी हो।
जिंदगी
में जो हमें पकड़े हुए है, उसको
जानना है,
उसको
जानने से उसका परिवर्तन है। ऐसा आपने जाना है तो फिर दोबारा नहीं होगा।
मगर
बचपन से ही हमने दबाया है। छोटा-सा बच्चा भी क्रोध करने लगता है तो हम कहते हैं, अभी नहीं! अभी दूसरा मौजूद है, मेहमान घर में आया हुआ है, अभी नहीं! वह बेचारा पी जाता
है! बचपन से ही पीये हैं क्रोध को, वह हमारी नस, नाड़ी में भर गया है, सब तरफ फैल गया है। फिर
जिंदगी भर पीते ही चले गये हैं, कभी
प्रकट ही नहीं किया!
अगर
मेरा वश चले तो मैं आपको कहूं, बच्चे
को रोकना मत। जब बच्चे क्रोध में भर जायें तो रोकना मत। और आईना लेकर सामने कर
देना। और कहना कि करो जोर से और देखो, कैसी हालत में हो तुम, और क्या हो गया है--इसे तुम
देखो। हम सब भी घर के लोग बैठकर तुम्हारा निरीक्षण करेंगे, क्योंकि तुम्हारे निरीक्षण से
हो सकता है हमको भी लाभ हो जाये। रोकना मत उसे।
सारी
शिक्षा गलत है। पूरे व्यक्तित्व का, मनुष्य को बनाने का विज्ञान गलत है। इसलिए
गलत आदमी पैदा होगा। अगर बचपन से बच्चे को उसके क्रोध की पूरी की पूरी झलक मिलनी
शुरू हो जाये,
जवान
होते-होते वह क्रोध के बाहर हो जायेगा। आज वह गंदगी के बाहर है। वह गंदे कपड़े नहीं
पहनता,
लेकिन
गंदी आत्मा को पहने रहता है! यह कैसे संभव है! यह संभव इसलिए हो सका है कि हमने
कभी पहचान भी नहीं की है कि आत्मा की गंदगी क्या है? ऊपर से मुस्कुराहट थोप ली है, भीतर से क्रोध जल रहा है! वह
जलता रहा है। क्रोध बढ़ता रहा है। वह उसके प्राणों को घेरे हुए है।
हर
आदमी एक ज्वालामुखी है, जिसमें
चारों तरफ वह किसी तरह अपने को संभाले हुए है। जब रास्ते पर आप निकलते हैं, तब खयाल करना अपने मन पर आप, कि क्या-क्या करने का मन नहीं
होता है! घर बैठे हैं, तब भी
क्या-क्या करने का मन नहीं होता है! कितनी बार कितने लोगों की हत्या नहीं की है!
कितनी बार जरा-सी बात में किसी की गर्दन काट दी! भीतर काटी, मन में काटी! कितनी बार नहीं
सोचा, जहर पिला दें इस आदमी को। वह
किया या सोचा बराबर है, उसमें
कोई फर्क नहीं है। कमजोर हैं, इसलिए
कर नहीं सके। लेकिन जहां कर सकते थे, वहां पूरी तरह से कर लिया है। कितनी दफे खुद
की आत्महत्या नहीं कर ली है!
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं,
ऐसा
आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने
जिंदगी में अपने आप दो चार बार अपने को खत्म करने का विचार न किया हो। खोजना ही
मुश्किल है ऐसा आदमी, जिसने
दस पच्चीस दफा नहीं सोचा कि खत्म कर दो अपने को। ऐसा बेटा खोजना मुश्किल है, जिसने बाप को खत्म करने की
बात न सोची हो। ऐसा पति खोजना मुश्किल है, जिसने पत्नी की गर्दन कई दफे न दबाने की
सोची हो। यह सब चल रहा है भीतर, १बाहर
से कोई कहता नहीं! इसलिए तो दुनिया संभली हुई है।
अगर
भीतर के राज सब आदमी खोल दें तो आज पता चल जाये कि दुनिया की क्या हालत है। अगर
पांच आदमी तय कर लें कि हम अपनी सब असलियत की बातें, जैसी होंगी, वैसी कह देंगे। तब आपको पता
चलेगा कि दुनिया की हालत क्या है। दिन में पच्चीस दफा वह आदमी एक दूसरे से आकर
कहेगा कि अभी मैंने तुम्हारी गर्दन में आकर छुरा मारा है। वह हम सब कर रहे हैं!
मैंने
सुना है कि नियाग्रा जलप्रपात के पास एक पत्थर ऐसा है कि उस पत्थर पर खड़ा होकर जो
भी भाव किया जाये,
वह
पूरा हो जाता है। कई लोग जाकर वहां भाव करते हैं। एक जोड़ा वहां खड़ा हुआ है पति और
पत्नी का। दोनों आंख बंद करके प्रयोग कर रहे हैं। एकदम पत्नी को चक्कर आया और
पत्थर के नीचे नियाग्रा में गिर पड़ी!
उस पति
ने कहा,
हे
भगवान,
मालूम
होता है भाव पूरे हो जाते हैं! वह बेचारा यहां भाव कर रहा था खड़े होकर कि कहीं ऐसा
हो जाये और पत्नी नियाग्रा में चक्कर खाकर गिरे।
यह
हमारे भीतर है सब,
इसको
हम छिपाये हुए हैं, इस
ज्वालामुखी पर बैठे हुए हैं! और फिर हम पूछने जाते हैं, ध्यान कैसे होगा! और नीचे
देखते नहीं कि ज्वालामुखी पर बैठे हैं, जो पूरे वक्त हिल रहा है। नीचे से धक्के लग
रहे हैं और पूछ रहे हैं कि ध्यान कैसे हो! शांति कैसे मिले! मोक्ष का रास्ता क्या
है!
पहले
इस ज्वालामुखी का निपटारा करिये, इस
ज्वालामुखी को जानिये, समझिये
जो हम हैं। यह हमारी असलियत है। न भगवान से कोई लेना-देना है, न भगवान से कोई संबंध है, न सत्य से कोई मतलब है। हमारी
यह जलती हुई आग,
यह
हमारा व्यक्तित्व असली सवाल है। और इसको हमने कभी देखा नहीं है और ज्वालामुखी
इसलिए इकट्ठा हो गया है! बिना देखे दबाये चले गये हैं, बहुत इकट्ठा हो गया है। इससे
मुक्त होने के लिए एक ही मार्ग है --और वह है ज्ञान का, वह है सत्य का। जो सत्य है, उसे जान लेना है उसकी
परिपूर्णता में।
एक
बहुत बड़े बुद्धिमान आदमी हैं। बुद्धिमान आदमी बस किताबों से बुद्धिमान होते हैं।
वे मेरे पास आये। बड़ी ख्याति है, हजारों
लोग उन्हें मानते हैं। और हजारों लोगों के मानने से जितना अहित किसी व्यक्ति का
होता है,
उतना
शायद ही किसी बात से होता होगा। क्योंकि वे हजार नासमझ मिलकर किसी को भी समझदार का
भाव पैदा करवा देते हैं कि वह समझदार है! अब जरा बुढ़ापे में वह इधर आये हैं, क्योंकि थोड़ा डर पैदा हुआ है
कि बहुत कम समझदारी किताबों की है, बातचीत की है! तो वह मुझसे कहने लगे कि क्या
करूं, कैसे शांत होऊं, कैसे ध्यान करूं?
तो
मैंने उनसे कहा,
कि
पहले तुम एक काम कर लो। एक महीने के लिए एकांत में चले जाओ और व्यक्तित्व को पूरी
तरह प्रकट हो जाने दो। एक महीने में चिल्लाने का मन हो तो चिल्लायें, नाचने का मन हो तो नाचें, गाली देने का मन हो तो गाली
दें। पत्थर फेंकने का मन हो तो पत्थर फेंकें। एक महीने अपने को बिलकुल छोड़ दें। जो
होता है,
वह
होने दें। फिर एक महीने बाद आयें।
उन्होंने
कहा, एक महीने बाद फिर मैं आऊंगा
ही नहीं। क्यों?
तो
उन्होंने कहा,
मैं तो
पागल हो चुका होऊंगा, क्योंकि
आप जो कह रहे हैं,
वह सब
मेरे भीतर है। और अगर मैंने जारी किया तो रुकूंगा कैसे? फिर रुकना मुश्किल है। और मैं
यह नहीं कर सकता हूं। मैं डरता हूं मुझे तो शांत होने की तरकीब बताइए!
शांत
होने की कोई तरकीब नहीं होती। सिर्फ अशांत होने की तरकीबें होती हैं। और अशांत
होने की तरकीबें समझ में आ जायें तो आदमी शांत हो जाता है। शांत होने के लिए और
कुछ भी नहीं करना पड़ता है। अशांत होने की तरकीबों के हम बड़े अभ्यासी हैं और उन
सबका भार इकट्ठा हो गया है। और ज्ञानी भी हैं साथ में, क्योंकि हमको पता है कि क्रोध
बुरा है,
काम
बुरा है! सब हमको पता है! सब अच्छी बातें पता है। और अच्छी बातों का पता होना, नर्क का रास्ता बनाना है!
नहीं, सच में हमें पता नहीं है।
इसलिए इसका प्रयोग करके देखें। अगर क्रोध हो तो क्रोध की दशा में, लोभ हो तो लोभ की दशा में, काम हो तो काम की दशा में
पूरा प्रयोग करके देखें और पूरा ध्यान करके देखें। सारी स्थितियों को निकाल लें, उघाड़ लें, साफ करें नंगेपन को, बाहर कर लें और देखें। और एक
बार जिस दिन आप पोर-पोर अपने शरीर के और अपने मन के और अपनी आत्मा के रोयें-रोयें
में जो छिपा है,
उसको
नग्नता में देख सकेंगे, उस दिन
के बाद दुबारा नहीं होगी वह बात। दुबारा नहीं पायी जायेगी।
जिसने
जाना लिया है,
मुक्त
हो गया है। और नहीं मुक्त है, जानना
कि नहीं जाना।
एक
दूसरे मित्र ने पूछा है कि मैंने कहा, कि सीता के पैर के गहने लक्ष्मण को दिखाई
पड़े और कोई गहने दिखाई नहीं पड़े, तो
विनोबा ने जो व्याख्या की है कि लक्ष्मण नैष्ठिक ब्रह्मचारी है, ब्रह्मचर्य की साधना करता है, इसलिए सीता के चेहरे की तरफ
नहीं देखता है!
तो
मैंने कहा कि यह व्याख्या गलत है और यह लक्ष्मण का सम्मान नहीं है, अपमान है। क्योंकि इससे पता
चलता है कि लक्ष्मण ब्रह्मचारी बिलकुल नहीं है, अन्यथा सीता के चेहरे की तरफ देखने से डरता
नहीं। तो उन मित्र ने पूछा है कि अगर विनोबा की व्याख्या गलत है तो आपकी क्या
व्याख्या है?
लक्ष्मण
को पैर के गहने ही क्यों दिखाई पड़े?
दोत्तीन
कारण हैं। एक तो कारण यह है कि लक्ष्मण रोज सुबह सीता के पैर पड़ता था। सीधी-सीधी
बात है। उससे ज्यादा कुछ उलझाव नहीं है। रोज-रोज पैर पड़ते-पड़ते सीता के, वे पैर के गहने उसे रोज-रोज
दिखाई पड़े होंगे। वह उनको पहचानता होगा। सीता के शरीर पर दूसरे गहनों पर उसकी नजर
कभी नहीं गयी। इसका कारण यह नहीं था कि वह ब्रह्मचारी था। इसका कुल कारण इतना है
कि अगर स्त्री सुंदर हो तो उसके गहने पर नजर जाती ही नहीं। सिर्फ स्त्री कुरूप हो
तो उसके गहने पर नजर जाती है। और कुरूप स्त्री को ही गहने पहनने का शौक होता है।
सुंदर स्त्री को होता ही नहीं। वह सौंदर्य की कमी पूरी होती है।
सीता
जैसी सुंदर स्त्री दुनिया में मुश्किल से कभी होती हैं। उस जमाने के दो सबसे अदभुत
आदमी राम और रावण उसको प्रेम करते थे। उससे ज्यादा महिमा-मंडित, उससे ज्यादा सुंदर स्त्री को
खोजना मुश्किल है। सीता का चेहरा दिखे और किसी को उसके गले का हार दिखे तो वह
सुनार होगा,
लक्ष्मण
नहीं। सीता जैसी सुंदर और अदभुत स्त्री को देखकर गहने दिखाई पड़ सकते हैं?
वह
दिखाई नहीं पड़े होंगे। इसका कारण यह नहीं है कि वह ब्रह्मचारी है। इसका कारण यह
नहीं हैं कि ब्रह्मचारी नहीं है। लक्ष्मण ब्रह्मचारी था। लेकिन ब्रह्मचर्य इतना
भयभीत,
बलहीन
नहीं होता;
इतना
कमजोर नहीं होता कि चेहरे की तरफ देखने से डर जाये। और ऐसा ब्रह्मचर्य बिलकुल झूठा
होता है। सीता के चेहरे को बहुत देखा होगा उसने, लेकिन गहने दिखाई पड़ना--यह
ऐसी ही बात है,
जैसे
सड़क पर आप निकलते हैं तो आपके जूते को सिवाय चमार के और कोई नहीं देखता। और आप सोच
रहे हों कि दूसरे भी आपके जूते को देखकर बहुत प्रभावित हो रहे होंगे तो आप बहुत
गलती में हैं। सिवाय चमारों के और कोई प्रभावित नहीं होगा।
सच तो
यह है कि चमार शक्ल-सूरत देखते ही नहीं, सिर्फ जूते ही देखते रहते हैं। और जूते ही
देखते रहते हैं दिन-रात सड़कों पर और जूतों से आदमी को पहचान लेते हैं! अपने-अपने
मापदंड है। चमार जूता देख करके पहचान लेता है कि आदमी मिनिस्टर है, हार गया कि जीत गया! वह जूता
सब बता देता है! जूते की हालत सब बता देती है कि आदमी के खीसे में कुछ है कि नहीं।
जूता बता देता है कि आदमी सड़क पर चलता है कि हवाई जहाज में उड़ता है। जूता बता देता
है, किसका जूता है, वह आदमी कैसा होगा! वह चमार
जूते को देख लेता है और आदमी को पहचान लेता है! लेकिन चमारों के सिवाय जूते कोई
नहीं देखता तो ऐसा मत समझना कि चमार बड़े ब्रह्मचारी होते हैं, जो सिर्फ जूता ही देखते हैं, चेहरा नहीं देखते। लक्ष्मण को
वह पैर का गहना,
सिर्फ
इसलिए याद रह गया कि रोज-रोज सिर रखा होगा उन पैरों पर। रोज-रोज निरंतर वे गहने
उसकी नजर में आ गये होंगे, वे
खयाल में थे। फिर सीता जैसी सुंदर स्त्री के गहने किसी को याद नहीं रहते; लक्ष्मण को ही नहीं, किसी को नहीं याद रहते। इसी
वजह से राम को भी याद नहीं थे। राम तो ब्रह्मचारी नहीं थे। उनको क्यों याद नहीं था? उन्होंने चेहरा देखा होगा
सीता का,
लेकिन
उनको भी याद नहीं था।
सच तो
यह है कि जहां चेहरे का सौंदर्य होता है, वहां कौन गहने के सौंदर्य को देखने जाता है।
दुनिया जितनी सुंदर होती चली जायेगी, गहने उतने विसर्जित होते चले जायेंगे। गहने
कुरूपता का लक्षण हैं। आदमी अपने को सजाता है तब, जब जानता है, अनुभव करता है कि कहीं कुछ
कमी रह गयी है;
नहीं
तो नहीं सजाता है।
महावीर
जैसे लोग बहुत सुंदर लोग थे, इसलिए
नंगे खड़े हो गये। फिर कपड़े पहनने की जरूरत नहीं रही। यह मत सोच लें कि त्यागी, तपस्वी हैं। महावीर जैसी
सुंदर काया दुनिया में मुश्किल से होती है। तो उतनी सुंदर काया को कपड़े लगाना
नासमझी है। उतनी सुंदर काया को कपड़ों से ढांकना गलती है।
कपड़ों
से उस काया को ढांकना पड़ता है हिसाब से कि काया की सारी कुरूपता कपड़ों में ढंक
जाये। और काया के सिर्फ वे हिस्से दिखाई पड़ते रहें, जो कुरूप नहीं हैं। और तब
काया को सौंदर्य का एक भ्रम पैदा होता है।
महावीर
अदभुत सुंदर आदमी रहे होंगे। वे कपड़े खोलकर नंगे खड़े हो गये होंगे। उस नग्नता में
ही वे अप्रतिम रहे होंगे। और वे इतने सुंदर थे कि उनकी नग्नता किसी को दिखाई नहीं
पड़ती होगी। उस सौंदर्य के सामने कौन नग्नता को देखेगा।
मैं
नहीं मानता कि इससे ब्रह्मचर्य वगैरह का कोई संबंध है। लेकिन विनोबा जी और उस तरह
के लोगों को इसमें ब्रह्मचर्य दिखाई पड़ सकता है, क्योंकि ये सारे लोग ऐसा
सोचते हैं कि आंख बंद कर लेने का अर्थ ब्रह्मचर्य है! भाग जाने का नाम ब्रह्मचर्य
है! स्त्री और पुरुष के बीच फासला बनाने का नाम ब्रह्मचर्य है! यह ब्रह्मचर्य नहीं
है। ब्रह्मचर्य सतेज इतना निर्वीर्य नहीं होता है।
ब्रह्मचर्य
बहुत सतेज होता है, शक्तिशाली
होता है,
तेजस्वी
होता है। जहां ब्रह्मचर्य है, वहां
चोरी नहीं होती,
भागना
नहीं होता।
जो
ब्रह्मचारी स्त्री से भागता हो, वह
बहुत कमजोर है,
ब्रह्मचारी
बिलकुल नहीं है। कामुकता कमजोर होती है, ब्रह्मचर्य तो बहुत वीर्यवान होता है। वह
भागेगा नहीं,
डरेगा
नहीं। डरने का सवाल वहां नहीं है कोई! मैं वैसा नहीं मानता। और व्याख्या करने जैसी
कोई खास बात नहीं है। मुझे इतना ही लगता है कि जो मैंने कहा, इससे भिन्न, इससे ज्यादा, कुछ मालूम नहीं।
एक
मित्र ने पूछा है। आप जिस साधना की बात करते हैं, उससे स्वयं की ऊंचाई तो पायी
जा सकती है,
लेकिन
उससे दूसरों का कल्याण कैसे होगा?
हमें
यह पता ही नहीं है कि स्वयं की ऊंचाई से बड़ा और दूसरे का कोई कल्याण नहीं है। और
जो आदमी स्वयं ऊंचा नहीं है, वह
दूसरे का कल्याण कैसे कर सकता है? हां, कल्याण के नाम पर अकल्याण
जरूर कर सकता है। और अकसर जो सेवक, जो सुधारक, जो तथाकथित क्रांतिकारी
दूसरों का कल्याण करना चाहते हैं, उनसे
कल्याण नहीं होगा। क्योंकि खुद की कोई ऊंचाई नहीं है तो दूसरे में ऊंचाई कैसे आप
ला सकते हैं?
सच तो
यह है कि खुद की ऊंचाई विकसित हो तो उस ऊंचाई के साथ आसपास की सारी हवायें ऊंची
उठने लगती हैं। खुद की ऊंचाई विकसित हो तो उस ऊंचाई की किरणें चारों तरफ फैलने
लगती हैं और दूसरों को ऊंचा उठाने लगती हैं।
दूसरे
का क्या कल्याण करना है आपको? एक तो
दूसरे के कल्याण करने की बात में ही बहुत गहरा अहितकर अहंकार छिपा हुआ है, जो हमें दिखाई नहीं पड़ता।
अपना ही कल्याण कितना मुश्किल है। लेकिन अपने कल्याण से बचने के लिए कई लोग दूसरे
के कल्याण में लग जाते हैं! उनको वह झंझट का काम मालूम पड़ता है अपना कल्याण! वह
जरा कठोर रास्ता मालूम पड़ता है। दूसरे का कल्याण बिलकुल सरल मालूम पड़ता है।
और
दूसरे के कल्याण में सबसे बड़ी फायदे की बात यह है कि अगर परिणाम न निकले तो दूसरा
जिम्मेवार होगा! दूसरे के कल्याण में चित्त की हिंसा को बड़ा आनंद मिलता है। असल
में दूसरे को बदलने में, दूसरे
को बनाने में चित्त की हिंसा को बड़ा रस आता है!
चित्त
की हिंसा के बड़े अदभुत रूप हैं। जब बाप बेटे से कहता है कि मैं जैसा कहूं, वैसा ही करो, क्योंकि यह ठीक है, इसी में तुम्हारा कल्याण है।
तो वह कभी सोचता भी नहीं है कि वह जो कह रहा है, न तो उसे कल्याण की फिक्र है, न उसे इस बात की फिक्र है कि
क्या ठीक है। उसे फिक्र इस बात की है कि जो मैं कहता हूं, वह माना जाता है कि नहीं माना
जाता है। बहुत बुनियाद में उसका रस इस बात का है कि मेरा लड़का मेरी मानता है कि
नहीं मानता है! उसे मनवाने के वह सब उपाय करेगा, वह सब तरह की व्यवस्था करेगा
कि वह मान जाये,
क्योंकि
दूसरे व्यक्ति को अपने ढांचे में ढालने में जो मजा आता है, वह मजा हीनता का मजा है, वह दूसरे व्यक्ति को मिटाने
का मजा है।
गुरुओं
को जो मजा आता है शिष्यों को मिटाने में, उसमें और कोई अर्थ नहीं है। उसमें सिर्फ एक
अर्थ है कि दूसरे आदमी को हमने सिर्फ मिट्टी का लोंदा सिद्ध कर दिया है। हम उसको
बनाने में लगे हैं। हम जैसा बनायेंगे, वह वैसा बनेगा। इसलिए गुरु एक से कपड़े पहना
देते हैं। कतार खड़ी कर देते हैं नकली आदमियों की, एक से ढोंग सिखा देते हैं और
यह व्यवस्था करते हैं कि इतने आदमी हमने बना दिये!
कौन
बनाने वाला है,
कौन
किसको बना सकता है? जो
बनने को राजी हो जाते हैं, वे
कमजोर और डरे हुए लोग होते हैं और जो बनाने को राजी हो जाते हैं, वे खतरनाक लोग हैं। और खतरनाक
लोग कहते हैं,
हम
बनायेंगे! और डरे हुए लोग राजी हो जाते हैं कि ठीक है भाई, हम तो अपने को बना नहीं सकते
हैं। यह आदमी कहता है, चलो
तुम हमें बना दो! हम तुम्हारा पैर पकड़ लेते हैं!
दुनिया
को गुरुओं और शिष्यों ने जितना नुकसान पहुंचाया है, उतना किसी और ने नहीं
पहुंचाया है। क्योंकि जो आदमी किसी दूसरे के हाथ से बनने को राजी होता है, उस आदमी ने अपनी आत्मा खो दी।
क्योंकि उस आदमी ने यह कह दिया कि मैं व्यक्ति होने का अधिकार खोता हूं! मैं दूसरे
के हाथ में कठपुतली बनने को तैयार हूं! उस आदमी को परमात्मा ने मौका दिया था कि तू
"तू'
होना, पर वह किसी गुरु के चरण पकड़कर
"और'
होने
में लग गया है और स्वयं होने की कोशिश उसने बंद कर दी है!
धार्मिक
आदमी वह है,
जो
स्वयं होने की कोशिश में लगा है। वे सारे लोग अधार्मिक हैं, जो किसी और जैसे होने की
कोशिश में लगना चाहते हैं। अधार्मिक आदमी गुरु बनायेगा, शिष्य बनेगा। धार्मिक आदमी न
शिष्य बनता है,
न
गुरु। क्योंकि धार्मिक आदमी यह कहता है कि परमात्मा ने एक मौका खुद होने का दिया
है, वह मैं होना चाहता हूं। आप
कृपा करें गुरुजन,
आप जरा
दूर रहें। मैं वही होना चाहता हूं, जो भगवान ने मुझे मौका दिया है।
शिष्य
लोभ में पीछे चलते हैं, गुरु
अहंकार में आगे चलते हैं और इसके अतिरिक्त उनके बीच और कोई संबंध नहीं होता है।
शिष्य
लोभ में होते हैं कि गुरु हमें ऐसा बना देगा। गुरु दावा करता है कि हम ऐसा बना
देते हैं। और गुरु को मजा होता है बनाने का, कल्याण करने का!
भूलकर
किसी का कल्याण मत करना, क्योंकि
कल्याण नहीं होता है, सिर्फ टार्चर
होता है। जिस आदमी के कल्याण के पीछे आप पड़ गये, उसकी मुसीबत हो गयी। और बड़ी
कठिनाई यह है कि वह कुछ कह भी नहीं सकता, क्योंकि आप उसी के हित में कार्य कर रहे
हैं।
तो
किसी को अगर पूरा सताना हो तो बंदूक से वह सताने का मजा नहीं आता है, क्योंकि आदमी मर ही जाता है।
पूरा मजा इसमें आता है कि उस आदमी को बनाओ, बदलो! जिंदा भी रखो और जिंदा भी मत रहने दो!
मरा हुआ भी कर दो और मरने भी मत दो, क्योंकि उसको बदलते रहो!
कोई
किसी का कल्याण नहीं कर सकता है--न मां बेटे का कर सकती है, न बाप बेटे का कर सकता है।
कल्याण प्रत्येक व्यक्ति अपना कर ले, पर्याप्त है।
और जब
कोई व्यक्ति अपना कल्याण करता है, अपने
जीवन को ऊंचाइयों पर ले जाता है तो उसके चारों तरफ के जीवन अचानक, अनायास उन ऊंचाइयों की
प्रेरणा से भर जाते हैं। यह प्रेरणा दी गई नहीं होती है, यह प्रेरणा अनायास वितरित
होती है। यह ऐसे ही है, जैसे
रास्ते के किनारे का एक फूल खिल जाता है तो वह चिल्लाता नहीं है कि मुझे देखो। राह
से जो भी निकलता है, सुगंधें
छू जाती हैं। फूल पर आंखें टिक जाती हैं, क्षण भर को आदमी के हृदय में भी फूल खिल
जाता है। वह जो राह के किनारे रुक जाता है, उसके मन में भी फूल खिल जाता है।
एक बड़ा
वृक्ष है,
उसकी
घनी छाया है,
राह
चलता आदमी उसके नीचे रुक जाता है। छाया बुलाती नहीं है कि आ जाओ, छाया कहती नहीं है कि मैं
तुम्हारा कल्याण करूंगी। छाया बस है। कोई राह निकलता है और रुक जाता है। जैसे-जैसे
व्यक्ति के भीतर की आत्मा का वृक्ष बड़ा होता है, एक बहुत अनजान छाया उसके
चारों तरफ पड़ने लगती है, तो
राहगीर उसके नीचे रुक जाते हैं, चले
जाते हैं। न राहगीर कभी धन्यवाद देता है छाया को, वृक्ष को और न वृक्ष कहता है
कि देखो,
जा रहे
हो, दक्षिणा देते जाओ। बात खत्म
हो गयी है। वृक्ष को आनंद मिला है कि कोई उसके नीचे रुका। यह भी बड़ा सौभाग्य है।
जैसे
ही व्यक्ति के भीतर का वृक्ष बड़ा होता है, वह आत्मा का वृक्ष, उसमें शाखाएं और फूल आने शुरू
होते हैं,
उसके
नीचे बहुत लोग विश्राम करते हैं। लेकिन वह कोई गुरु नहीं बन जाता, उसे धन्यवाद की अपेक्षा भी
नहीं होती कि कोई धन्यवाद भी दे जायेगा। वह तो अनुगृहीत होता है।
ध्यान
रहे, वह आदमी अनुगृहीत होता है कि
आपने कृपा की और दो क्षण उसके पास में विश्राम किया। कौन कब, किसके पास विश्राम करता है? आपने मौका दिया कि उस वृक्ष
को पता चले कि उसकी छाया काम में आ गई तो धन्यवाद।
जब
किसी व्यक्ति की आत्मा ऊंचाई पर उठती है तो धन्यवाद उनसे नहीं मांगा जाता है, वे जो उसके नीचे ठहर गये होते
हैं कभी। धन्यवाद उन्हें देता है, क्योंकि
उन्होंने मौका दिया। उसको आनंद दिया, उसके पास ठहरने का अनुग्रह किया।
खुद की
ऊंचाई जितनी बढ़ती है, उस ऊंचाई
के आकस्मिक परिणाम आने शुरू हो जाते हैं, लेकिन वे सुनियोजित नहीं होते, अनायास होते रहते हैं!
अमरीका
में एक अदभुत आदमी था। वह इस पर कुछ प्रयोग करता था कि बिना कहे भी भाव संवेदित
होते हैं। एक अभिनेता उससे मिलने आया था और उस अभिनेता से उसने कहा कि बिना कहे भी
भाव का संवेदन होता है। उस अभिनेता ने कहा, बिना कहे बहुत मुश्किल है। बिना कहे
कैसे--कुछ कहना पड़ेगा! अगर क्रोध प्रकट करना हो तो मुट्ठी बांधनी पड़ेगी, आंख मिचनी पड़ेगी। कुछ शब्द
बोलने पड़ेंगे,
कुछ
करना पड़ेगा?
लेकिन
उसने कहा,
आंख भी
मत बंद रखो,
हाथ भी
मत बांधो,
बोलो
भी मत,
लेकिन
भीतर क्रोध से भर जाओ तो भी पड़ोस तक क्रोध की किरणें पहुंचती हैं। उस अभिनेता ने
कहा, मुझे विश्वास नहीं पड़ता। तभी
फोन की घंटी बजी और वह अपने आफिस में चला गया। अभिनेता कमरे में अकेला रह गया। आधे
घंटे तक फोन पर वह जरूरी कोई बात करता रहा। आधा घंटा बाद वापस लौटा तो एकदम खड़ा हो
गया चौंककर!
उसने
उस अभिनेता से कहा कि मालूम होता है, आप मुझ पर नाराज हो गये हैं--क्या बात है? मैंने तो आपको कुछ कहा नहीं, मैं नाराज नहीं हुआ, लेकिन आधा घंटा मैं प्रयोग कर
रहा था,
आप पर
क्रोधित होने का। और आप जो कहते हैं, मालूम होता है ठीक है। पूरा कमरा जैसे क्रोध
से भर गया था। क्रोध की तरंगें--जैसे पानी में हम पत्थर फेंकते हैं, उठती हैं और दूर तक फैलती चली
जाती हैं! यहां हम पत्थर पटकेंगे और मीलों दूर तक तरंगें फैलती चली जायेंगी!
ऐसा ही
मनोआकाश है। ऐसा ही हमारे मन का एक जगत है। और वह मनका जगत संयुक्त है, कलेक्टिव है, समष्टिगत है। वह फैला हुआ है।
और जब एक आदमी उसमें जोर से क्रोध का पत्थर डालता है तो उसकी किरणें, उसकी हवाएं, चारों तरफ फैलती चली जाती
हैं। और फिर जितने लोग भी क्रोध के प्रति रिसेप्टिव होते हैं, संवेदनशील होते हैं, उनके चित्त में भी क्रोध की
किरणें पहुंच जाती हैं। उनके भीतर का क्रोध भी हिलने लगता है, कंपने लगता है।
अगर
कोई व्यक्ति भीतर बहुत प्रेम से भरा होता है तो उसके चारों तरफ प्रेम की घटनाएं
घटने लगती हैं। अगर कोई व्यक्ति परिपूर्ण शांत होता है तो उसके आसपास शांति की
किरणें फैलने लगती हैं।
लेकिन
यह कम से कम हो जाता है। अभी भी हो रहा है, हर वक्त हो रहा है। जब आप अशांत हैं, तब भी हो रहा है। कभी आप
प्रयोग करके देखना इस बात को कि आप बहुत अशांत हैं।
तो एक
चौबीस घंटे प्रयोग करके देखना, कि
चौबीस घंटे अशांत से अशांत होते चला जाना। लेकिन किसी से कहना मत, मैं अशांत हूं। कोई भाव प्रकट
मत करना। और आप चौबीस घंटे में अनुभव करेंगे कि जो आदमी आपके पास आयेगा, वह अशांत हो जायेगा।
आप
इससे उलटा करके देखना। कभी चौबीस घंटे इस तरह से शांत हो जाना, जैसे कोई जीवन में अशांति
नहीं है,
सब
तनाव छोड़ दिया है। चौबीस घंटे ऐसे जीना कि जैसे जिंदगी में कुछ चिंता नहीं, दुख नहीं, पीड़ा नहीं; कोई अशांति नहीं। पूरे वक्त
शांति से भरे रहना; कुछ
कहना मत,
शांति
के अंबार बन जाना। आप चौबीस घंटे में जानकर हैरान होंगे कि जो भी आया है, उसने शांति प्रकट की है!
लेकिन
हमें इसका कोई साफ-साफ बोध नहीं है, क्योंकि हमें भीतर के जगत के किन्हीं भी
आयामों का कोई अनुभव नहीं, कोई
खबर नहीं। हमें पता ही नहीं कि हम सब जो अनुभव करते हैं, जो सोचते हैं, जो करते हैं, जो मन में भाव लेते हैं, उन सबके परिणाम चारों तरफ
होते चले जाते हैं।
जब कोई
आदमी भीतर ऊंचाई पर उठता है तो वह ऐसी लहरें पैदा करने लगता है, जो दूसरे को ऊंचाई पर ले जाने
का कारण होती हैं।
आप अगर
साधना से ऊंचे उठते हैं तो इस चिंता में मत पड़िये कि इससे दूसरे का क्या कल्याण
होगा। इसके अतिरिक्त कल्याण के लिए हम कोई हवा कभी पैदा कर ही नहीं सकते।
दूसरे
का कल्याण नहीं करना है, अपना
मंगल साध लेना है।
उस
साधे हुए मंगल के साथ दूसरे के मंगल के सधने का अवसर उपस्थित होता है।
आज हर
आदमी दूसरे का कल्याण कर रहा है! एक जाति, दूसरी जाति का कल्याण कर रही है! सभ्य लोग
आदिवासियों का कल्याण कर रहे हैं! ऊपर के वर्णों के लोग नीचे के वर्णों के लोगों
का कल्याण कर रहे हैं! पुरुष स्त्री का कल्याण कर रहे हैं! सब कल्याण में लगे हुए
हैं! और देखें दुनिया की हालत कैसी है! अकल्याण बढ़ता जा रहा है और कल्याण का कोई
भी पता नहीं! नहीं, इस तरह
नहीं होगा। कुछ विपरीत है मार्ग।
प्रत्येक
को लग जाना है अपने कल्याण में और उसी कल्याण में लगने के परिणाम से उसके
व्यक्तित्व में,
उसके
मन में,
उसकी
चेतना में,
उसके
शरीर में,
उसके
कामों में,
वह सब
प्रकट होना शुरू हो जायेगा, जिससे
कल्याण का अवसर उपस्थित होता है। वह अनायास हो जाता है, उसका पता भी नहीं चलता।
कोई
आदमी किसी का कल्याण करने जाये तो समझना कि यह आदमी खतरनाक है। वह किसी न किसी
आदमी को सताने का उपाय खोज रहा है। कल्याण उनका होता है, जिन्हें पता भी नहीं।
एक
फकीर था,
उस
फकीर के चित्त में अदभुत घटनायें घटीं। वह उस लोक में पहुंच गया, जहां कभी ही कोई सौभाग्यशाली
पहुंचता है। वह वहां पहुंच गया है, जहां अमृत है, जहां आलोक है। जब अचानक वह
वहां पहुंच गया तो कहानी कहती है कि देवताओं ने उससे कहा कि हम बहुत खुश हुए, हम तुझे कुछ वरदान देना चाहते
हैं।
उस
फकीर ने कहा,
लेकिन
अब मैं क्या मांगूं, क्योंकि
अब तो मेरी मांग ही मिट गयी। वह मिल गया, जिसको मिलने से मांग नहीं रह जाती, धन्यवाद।
लेकिन
देवता उन्हीं के पीछे पड़ जाते हैं, जो कहते हैं, हमें नहीं चाहिए! जो कहते हैं, हमें चाहिए, उनके पीछे भूत-प्रेत भी नहीं
पड़ते हैं!
वह
कहता है मुझे नहीं चाहिए, क्योंकि
मुझे जो चाहिए,
वह मिल
गया है। लेकिन देवताओं ने कहा कि नहीं, यह तो हमारा अपमान हो जायेगा। हमसे तो कोई
मांगने आता है,
तब हम
नहीं देते। हम खुद देने आये हैं।
उस
फकीर ने कहा,
अगर
अपमान हो जायेगा तो फिर जो भी तुम देना चाहो दे दो। मैं उसे अंगीकार कर लूंगा।
उन
देवताओं ने कहा कि तुम दूसरे का कल्याण करो, ऐसी सामर्थ्य दे दें?
उस
फकीर ने कहा,
क्षमा
करना, दूसरों के कल्याण करने वाले
लोगों को मैं भली-भांति जानता हूं। उन्होंने दुनिया में बहुत अकल्याण कर दिया है, यह काम मुझसे नहीं हो सकेगा।
देवताओं
ने कहा,
नहीं, यह काम तुमसे हो सकेगा, क्योंकि तुम उस जगह आ गये हो, जहां दूसरे का कल्याण हो सकता
है।
उस
फकीर ने कहा,
वह तो
ठीक है,
लेकिन
मुझे कोई दूसरा दिखाई नहीं पड़ता तो मैं किसका कल्याण खोजने जाऊंगा। नहीं, यह काम बहुत दुष्कर और कठिन
है। यह मुझसे मत करवायें।
देवताओं
ने कहा कि तुम जहां से निकलो, तुम्हारी
छाया जिन पर पड़ जाये, उनका
कल्याण हो जाये।
उसने
कहा, यह तो ठीक है, लेकिन इतना ध्यान रहे कि मेरी
जब छाया पीछे पड़ती हो तो मुझे पता न चले कि किसका कल्याण हो गया। मुझे पता चल जाये
तो मुझे भी नुकसान हो सकता है, क्योंकि
यह अहंकार आ जायेगा कि देखो, मैंने
यह कर दिया। तो छाया कर ले, मुझे
कोई पता भी न चले!
यह
होता रहा। कहानी कहती है कि वह फकीर जहां से निकलता है और उसकी छाया जहां पड़ जाती
है, वहां फूल प्रसन्नता से झूम
उठते हैं,
कलियां
खिल जाती हैं। मुर्झाये हुए पौधे होते है, वे हरे जाते हैं। बीमार पर छाया पड़ जाती है, वह स्वस्थ हो जाता है। अंधे
को आंख हो जाती है, बहरे
को कान मिल जाते हैं, कहानी
कहती है,
जहां
उसकी छाया पड़ जाती है! लेकिन उस फकीर को कभी पता नहीं चला, क्योंकि उस फकीर से कभी कुछ
नहीं हुआ। वह तो छाया पीछे करती रही।
इस
कहानी का मुझे पता नहीं। लेकिन इस जगत में जितने लोगों से भी कल्याण हुआ है, वह सदा उनकी छाया से हुआ है; उनसे नहीं हुआ है। और जितने
लोग कहते हैं,
हम
कल्याण करते हैं,
ये
सारे लोग अकल्याण करते हैं। इनसे कोई कल्याण नहीं होता है।
ये
ऊंचे उठ जायें उन गहराइयों में, उन
ऊंचाइयों पर,
जहां
प्रभु का प्रकाश है। उन शिखरों पर यात्रा करें, जहां वह सूरज है, जो हम घाटियों में, अंधेरे में रहने वाले लोगों
को दिखाई नहीं पड़ता है। और जिस दिन वह रोशनी भीतर भर जायेगी, आप भी एक प्रकाश-पुंज हो
जायेंगे।
और उस
प्रकाश-पुंज से भी किरणें फैलने लगेंगी, और बहुत से बुझे पुंजों को आलोकित कर देंगी।
बहुत से लोगों के जीवन के रास्ते पर फूल बिछा देंगी, बहुत से लोगों के भटके हुए
मार्ग मंदिर की तरफ आ जायेंगे, बहुत
से लोगों के प्राण प्रभु की तरफ प्यासे हो उठेंगे, बहुत से लोगों के जीवन में
दुख और पीड़ा क्षीण होगी, बहुत
से लोगों के जीवन में शांति के राज्य का द्वार खुलेगा। लेकिन वह आपकी छाया से हो
जायेगा,
उसका
आपको पता भी नहीं पड़ेगा।
जबसे
दुनिया में सचेतन सेवा शुरू हुई है, तब से बहुत अहित हो रहा है। फिर वापस वह
अचेतन सेवा,
जो सहज
हो जाती है,
उसका
कोई पता नहीं चलता, उसकी
पुनःस्थापना जरूरी हो गयी है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें