कुल पेज दृश्य

बुधवार, 8 मार्च 2017

पोनी एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा-(अध्‍यार-06)



अध्‍याय—6 (जंगल की मस्‍ती)

      विवार छुटटी का दिन, सभी बच्चों के आराम का दिन होता था। पूरे हफ्ते की कच्ची नींद आज बिस्तरे मैं खूब कुनमुनाते से पूरी करने की कोशिश की जाती थी। जब भी उन्‍हें जगाने के लिए उनकी चादर को खिचता तो अपने शरीर पर फिर से पुरी तरह से पूरे शरीर पर वापस खींच कर औड कर सोने का भ्रम पैदा करने की कोशिश करते। चादर पर शारीर को तान—तान कर कैसे तम्बू सा बना लेते थे, मेरा मन करता था उस में भाग कर घुस जाऊँ पर डाट पड़ने के डर से बड़ी मुश्‍किल से रोक पाता था। सोन वाली चद्दर पर सिलवटों पर सिल बटे डाली जाती हैं इधर से उधर करवटें ले कर। बच्चे आँखें खोल—खोल कर चारों तरफ़ देख लेते हैं, फिर आँख बंद कर लेते हैं, छूटी की खुशी चेहरे पर लिए हुए। जब मैं उसके पास खड़ा होकर भौंकता तो वह कैसी मधहोष के साथ आलसाया पन लिये मुझे देखते।
इस सब को देख मुझे खीज भी बहुत होती की आज तो जंगल में जाना है वहाँ की खूली हवा में कितनी मस्‍ती भरी होती है। मैं बार—बार कोशिश करता उनके बिस्तरे पर चढने की पर सब बेकार जाती।
मैं भोंकता हूँ परंतु मेरे गले की आवाज़ बड़ी महीन, नन्‍ही—नन्ही घंटियों की तरह निकलती थी, जो उनकी नींद मैं लोरी का काम करती। उस दिन हम सब पापा जी के साथ जंगल मैं घूमने जाते थे, मम्‍मी जी कभी—कभी साथ जाती थी। उन्‍हें दुकानके अलावा घर पर भी बहुत काम होता, खाना बनाना, दुकान को देखना आदि। कपड़े धोने, झाडू पोचा, बरतन आदि के लिए एक अम्माँ रखी हुई थी। जंगल शब्द का नाम सुनते ही मेरा रोम—रोम प्रसन्नता से खील उठता था, जैसे कोई प्रदेश आई दुल्हन मायके के नाम क्या उस तरफ़ से आई हवा के झोंके से भी अपने रोम—रोम को छिटक कर बिखेर देना चाहती हैं। आखिर कार सब बच्चों की कुंभ करणी नींद पूरी होती है, जंगल जाने की तैयारी शुरू होती हैं। समय बहुत घीरे—घीरे गूजर रहा था, मानो वो भी अभी नींद मैं अलसाया सा आँखें मलता चल रहा हो। घर से जंगल तक पापा जी, या दीदी मुझे गोद में लेकर जाते थे, ताकि कोई बड़ा कुत्ता हम पर हमला ना कर दे।
जंगल शुरू होते ही हमें जमीन पर छोड़ दिया जाता था। आस पास के पेड़, पौधे देख मुझे लगता मैं एक—एक पेड़ की फुनगी यों को छू कर आऊ। पत्ते, तने क्या टहानीयों तक अपने होने की छाप छोड़ दूँ। जंगल का खूला पन आसमान में भी कैसा बिल्‍लोरी रंग भर देता है। आपकी नजर जहां भी जाती है बस आप उसमें खोते चले जाये। समय ओर स्‍थान भी आसमान को कैसे दिगभ्रमित कर देते है। काश मेरे पंख होते, फिर तो पेड़ की टहानीयों पर शोर मचाते उन पछियों को पता चल जाता, उन्हें दुर तक खदेड़ कर आता। रास्ते की नर्म मुलायम रेत, कैसे अंदर तक आपको अपने होने का भास देती हैं। उसने रात भर जिस ठंडक को अपने अंदर बड़े जतन से समेटा था, सजाया था, आपके पैरो ने बरबस उसे छुआ नहीं की कैसे रोम—रोम मैं सिहरन भरा देती हैं। कच्चे रास्ते पर पुरी ताक़त लगाकर जब मैं दोहता तो पीछे छोड़ती धूल का बादल, पैरो से छपे घुल पर फूल के निशान मानो ज़मीन पर ना हो बादलों पर छापता हुआ चल रहा हूँ। दूर तक जाति वह एकांत पगडंडी पैड पौधो के बीच से किस संभ्रंमता के साथ  गुजरती दिखाई देती थी।
पीछे छूटते धूल के गुब्बार को जब मैं पीछे मुड़ कर देखता, तो फिर उस मैं वापस भाग कर जाता, उससे कैसी मादक गंधव्य मेरे थूथनी मैं भर जाती थी। फिर कौन परवाह करता थकाने की, या थकान होती ही नहीं थी। टोनी मोटा भारी, मैं पतला छिपकली की तरह था। उसकी तो जीब दो मिनट दौड़ ने पर ही बहार निकल आती और खाड़ा होकर लगता हाकने, बस फिर क्या था मुझे बहाना मिल जाता उससे बदला लेने का। मैं भाग कर उसके टक्कर मारता और वो चारो खाने ज़मीन पर चित, जितनी देर मे वो खड़ा होता, मैं हवा से बातें करता ओर धूल उठाता हुआ ऊड़न छू हो जाता था।
ये सब देख बच्चे तालियाँ बजा—बजा कर बहुत खुश होते थे। थोड़ा आगे चलने के बाद अचानक पेड़ पौधे घने हो गये थे। मैं समझ गया अब नाला आने वाला था। जंगल जाने के लिए कम से कम तीन नाले पार करने पड़ते थे। ये पहला नाला सबसे बड़ा और गहरा था। इसमे जब भाग के उतरते थे तो आप केवल शरीर को छोड़ दो बिना ताकत के आप नीचे पहुँच जाओगे। अभी मैं छोटा था, छोटे—छोटे मेरे पैर बच्चे भाग कर मुझसे आगे निकल जाते। नाले मै तो बच्चे इतना तेज़ भगते की उनका कई बार सन्तुलन ही बिगड़ने लग जाता और सीधे मुहँ बल रेत मैं गिरते, कपड़े मुहँ सब मिटटी मै सन जाते थे।
पापा जी भाग कर उठाते, कपड़े झाड़ते, मुहँ साफ करते, बड़ी—बड़ी आँखो से, मिटटी सने चेहरे पर, आँसू कैसे लकीर डालते हुये गूजर जाते थे। मैं पास खड़े होकर उनका चेहरा देखता रहता, परन्तु समझ मे कुछ नहीं आता था। नाले मै पानी की पतली सी लकीर बहती कितनी अच्छी लगती थी। पानी एकदम पारदर्शी स्फटिक, तली मै पड़ी सफ़ेद कंकर तक नजर आती थी। टोनी तो भाग कर अन्दर घूस गया, पानी कम होने पर उसका बहाव हमारे लिये थोड़ा तेज था। परंतु उसका स्‍पर्श आपके शरीर को कैसे कामनियता से भर जाता था। फागुनी शितलता पानी में एक मादकता ला देती है। आप सके अंग संग आये नहीं की आप तरंगाईत हुए बिना नहीं रह सकते। पानी के कटाव नाले में एक पतली टेडी मेंढी लकीर खींचता सा लग रहा था।
ऐसा नहीं था की पानी कम गहरा था। कहीं कहीं तो वह काफी गहरा था। जहां किसी तरह से मिट्टी लगा कर पानी रोका होता तो काफी गहरा हो जाता। शायद भेड़ बकरी वाले ये सब करते होंगे ताकी पानी संग्रित हो जोय तो उन्‍हें पीना आसान हो जाये। इस से पास के बनस्‍पती भी खुब जी भर पानी को सेवन कर रही थी। जंगली पांग जो यहां बहुत अधिक मात्रो में होता था। वह किनारों पर लटक के इसके सौंद्रय को चार चाँद लगा रहा था। उसकी तेज गंध कैसी मन मोहकथी। परंतु टोनी तो मोटे दिमाग का था। वह शरीर से थुलथुल नहीं था दिमाग से भी थुलथुल था। मुझे पानी से डरते देख उसने सोचा आज अपनी धाक जमा ली जाये ओर वह भाग का खाल के पानी में घूस गया एक तो पानी की ठंडक ओर दूसरे वह की गहराई उसे कुछ नहीं देखी। लगा वो गोते खाने, पापा जी ने भाग कर उसे गोद मैं उठा लिया था। एक तो पानी इतना ठण्डा, उपर से उसके घने बाल, पापा जी ने जब उसे पानी से निकाला तो वो थर—थर काँपता रहा था। मैने तो एक पैर रखने की हिम्मत की और गला तर करने के लिए चार जीभ पानी पिया। शारदी केवल रात को ही होती थी, धूप निकलने के साथ—साथ वो भी गायब हो जाती थी। कुछ साहसी पेड़—पौधों ने इस शरद ऋतु में भी हिम्मत कर के नये पत्ते निकालने शुरू कर दिये थे। जंगल मैं हमेश कोई ना कोई फल खाने के लिए लगे ही रहते थे। पापा जी को इन बातों का बहुत ज्ञान था। क्योंकि उनका बचपन इसी जंगल मे गुजरा था। वो यहाँ के चप्पे—चप्पे को जानते थे।
एक—एक झाड़, पेड़ का नाम, गुण—दोष कितनी जड़ी बूटी को तोड़ कर बच्चो को खिलाते, देखो ये गिलोटहै, अभी इसका पत्ता खाने मै नमकीन लगेगा और दोपहर बाद एक दम फिका हो जाता था। ये हिंगोट है, अखरोट की ही जाती की, कुदरत ने इसका खोल थोड़ मजबूत कर दिया सखे इलाके के कारण, जैसे-जैसे यह उतंतुग उंचाई ओर ठंडे प्रदेश की ओर बढ़तीहै तो यह अखरोट हो जाती है। तब यह अपना छीलका पतलाकर लेतीहै। हैं ये एक ही जाति के। इसकी गुठली को आग मै भून कर खाने से किसी भी तरह की खासी हो एक दम ठीक हो जाती हैं। सब बच्चो ने उसे गुणकारी फल समझ कर अपनी जेब भर ली थी। अब मैं क्या करता मैरा छोटा सा मुहँ कैसे उसे उठा सकता, केवल देख सकता था। सच वह फल देखनेमें भी कितना सुंदर लग रहा था। उसके उपर का छलका जो हल्‍का पीलापन लिये था। वह अति नर्म था ओर जैसे ही मैंने उसे अपने दोतां से पकड़ा तो मेरे दाँत उस में गड गये उस के अंदर एक अति नरम ओर कडवा चिपचिप पर्दाथ भरा था। मैं थू-थू के दे अपने मुख के स्‍वाद को ठीक करने लगा। एक झाड़ के पास मणि दीदी, और पापा जी खड़े हो गये, उसकी उँचाई सात—आठ फिट होगी, तना और सुखा एक दम चिकनी थी।
रंग एक दम कच्चा हरा, पत्तों का नामो निशान नहीं, सच देखने वो इतना सुन्दर की मैं उसे देखता ही रह गया था। पापा जी और मणि दीदी ने उसपर लगे फल तोड़ने लगे, हरे गोल फल जिनका आकार छोटा ही था। मैं जिज्ञासा से खड़े हो कर दीदी को तोड़ते हुये देख रहा था, शायद इसी कारण एक फल उसने मेरे खुले मुहँ मे डाल दिया, मैने उसे चबाया तो मुहँ एक दम कड़वा हो गया था। क्या करेंगे इस कड़वे फल का ये लोग मैने अपना माथा ठोक लिया था। उस दिन हम बहुत गहरे जंगल मैं चले गये शायद, पापा—दीदी जी को टींट के फल ताड़ते हुये इसका भान ही नहीं रहा होगा की हम इतना अन्दर आ गये थे। मुझे लगा ये जगह मैने पहले भी देखी हैं, हाला की इससे पहले मैं यहाँ कभी नहीं आया था।
फिर भी एक—एक जगह, जहां पर झाड़ीयों के बीच से ऊंचे—उचे पेड़, और लताएं लटक रहीं थी। उन्‍हें देख कर ऐसा लगा ये मुझे बरबस अपनी ओर खींच रही है। और में उसी और खींचा चला गया। उचे खड़े पत्थरों की चटाने सब अपनी—अपनी लगने लग रही थी। ऐसा लगा कोई मुझे पुकार रहा हैं, मेरे दिल एक अनजानी हुंकार उठी, दिल ऐसे हो गया जेसे अभी फटा, साँस ना अन्दर जा रहीं थी ना बहार आ रही थी। शारीर पसीने—पसीने हो गया, अचानक अन्दर से हुंकार उठी हुँ..उ..हुँ..उ । पापा जी ने भाग कर मुझे गोद मैं उठा लिया, और प्यार से मेरे शारीर पर हाथ फेर कर पुच.....पुच......कर चुप कराने लगे। परन्तु मेरे मुँह से हुंकार निकलती ही रही, ना वो मैंने शुरू की थी, ना वो मेरे बस मैं थी। जो आपसे शुरू ही नहीं हुआ उसे आप बन्द भी कैसे सकते हो। मेरी मजबूरी पापा जी शायद समझ गये, उस जगह से वो बहुत तेज भागे, बच्चो को जल्दी पीछे आने को कहा था।
बच्चे पापा जी आवाज़ सुन कोई खतरा समझ पापा जी के साथ भागे। जंगल के नियम कायदे पापा जी ने बच्चो को समझा रखे थे। वरना इतने घने जिसमे जंगली जानवरों का भय हमेशा रहता है कौन अपने बच्चो को लेकर आता हैं। इसलिए पापा जी जब भी जंगल मैं आते एक मोटा सोटाहमेशा साथ लाते थे। गीदड़, नील गाय, जंगली गाय, जंगली कुत्ते, फावड़ी गीदड़ी, साँप, गोह के अलावा लक्कड भग्गा भी पकड़ा गया था। जिसे बाद मैं चिडिया घर भेज दिया गया था। थोड़ी दुर जाने के बाद मेरी हुंकार बन्द हो गई, सब ने चेन की सांस ली, तब पापा जी ने बताया की मुझे लगता हैं, पोनी को अपनी माँ की खुशबू आ गई इस लिए वो अपनी माँ को बुला रहा होगा। 
सब बच्चो ने पापा जी के दूरदर्शी ज्ञान की सरहना करते हुये मुझे प्यार से सबने एक—एक चपत मारा, दीदी जो उनमें थोड़ी बडी थी वो शायद इस खतरे को भाप गई थी। उस न मुझे धुर कर देखा जैसे कि मुझे जान से ही मार देगी। मैं थोड़ा सा डर गया। फिर मैं कर भी क्‍या सकता था। मुझे उन पेड़ों को देख कर वहां की सुगंध को देख कर अपनी मां की अपने घर की याद आ गई। मैं गोद में बठे—बठे ही अपने चिर परिचित अंदाज में पूछ हिला नी शुरू कर दी। जिससे उनकी गस्‍सा कम हो जाए और मेरी रक्षा हो जाए। अब गलती तो बाबूजी हो ही गई है किया क्‍या जा सकता है। आज मुझ वो दिन याद करके उसके खतरे का एहसास होता है।
अगर मेरी मां मुझे इस हालत में इनकी गोद में देख लेती तो जरूर इन लोगों पर हमला बोल देती। जब की इन्‍होंने तो मेरा कोई भी नुकसान नहीं पहुंचाया है। पर क्या मैं इस बात को अपनी मां को समझा सकता था। नहीं कभी नहीं। मेरी जरा सी भूल क्‍या से क्‍या कर देती। शायद पापा जी तो मेरी मां के हमले से अपने को बचा लेते पर ये छोटे—छोटे बच्‍चे तो खतरे में पड जाते।  घर आकर जब माँ जी को बताया की कैसे पोनी अपनी माँको बुला कर हमे पिटवां रहा था। माँ जी ने दोनो हाथों से उठ कर मैरा मुँह चूम लिया, इस लाड़ से मैं फुल के कुप्पा हो गया था। कैसा है ये मनुष्‍य जब भी जितना भी इसे जानने की कोशिश करता हूं इसके रहस्‍य उतने ही गहरे होते चले जाते है।
 समुन्दर की तरह भी इस कि गहराई अंनत है, शायद ये बे बुझा सा प्रश्‍न है। जो कभी हल नहीं हो सकेगा। और मुझ बुद्धू से तो कभी भी नहीं।
ओर एक सूहान दिन समाप्‍त हो गया.......





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें