नेति-नेति-
जीवन
में दो भ्रम हैं। दोनों ही सत्य मालूम होते हैं! एक भ्रम तो पदार्थ का है और दूसरा
भ्रम अहंकार का है। एक भ्रम बाहर है, एक भ्रम भीतर है। दोनों भ्रम एक साथ ही जीते
हैं और साथ ही मरते हैं--वे एक ही भ्रम के दो छोर हैं!
पदार्थ
दिखाई पड़ता है और खयाल में भी नहीं आता कि ऐसा भी हो सकता है कि पदार्थ न हो। बहुत
ठोस मालूम होता है। पदार्थ कितना ठोस है?
एक
बहुत बड़ा विचारक जॉन्सन, बर्कले
के साथ घूमने निकला था। और बर्कले कहता था, बाहर जो भी दिखाई पड़ता है, सब भ्रम है।
तो जॉन्सन ने
पत्थर उठाकर बर्कले के पैर पर पटक दिया। बर्कले पैर पकड़कर बैठ गया है! बहुत चोट लग
गई है,
खून
बहने लगा है! जॉन्सन ने कहा, यह
पत्थर भ्रम है,
जिससे
चोट लगी और खून बहता है?
शायद
जॉन्सन ने सोचा होगा कि उसने बहुत बड़ी दलील दे दी है पत्थर के पक्ष में। लेकिन
पत्थर भ्रम है। अब तो विज्ञान कहता है कि मैटर है ही नहीं--पदार्थ नहीं है।
बहुत
पहले कुछ लोगों ने कहा था, पदार्थ
माया है,
तब
हंसी योग्य बात मालूम हुई होगी। पदार्थ और माया! पदार्थ ही तो सत्य है। जो दिखाई
पड़ता है,
वही तो
सत्य है। और शौक से हम कहते हैं, जो
दिखाई पड़ता है,
वही तो
सत्य है! जो दिखाई नहीं पड़ता, वह
सत्य कैसे हो सकता है? अब
विज्ञान कहता है कि जो दिखाई पड़ता है, वह बिलकुल सत्य नहीं है! पदार्थ--उसका ठोसपन, उसका होना, सभी असत्य है!
लेकिन
कैसे हम मानें?
पदार्थ
पैर पर गिरता है तो चोट लगती है। दीवार से निकलने की कोशिश करें तो सिर टूट जाता
है। इस दीवार को सत्य न मानें, जिससे
सिर टूट जाता हो?
सिर
जरूर टूट जाता है,
फिर भी
दीवार जैसी दिखाई पड़ती है, वैसी
नहीं है। हमें जो दिखाई पड़ रहा है बाहर का जगत--यह वृक्ष, आकाश,
सूरज; यह पृथ्वी, यह पत्थर! यह चारों तरफ जो
फैलाव है,
इस
फैलाव में जो हमें दिखाई पड़ता है--एक ठोसपन, एक पदार्थ, एक मैटीरियल!
लेकिन
जैसे गहरी खोज की गयी और पदार्थ तोड़ा गया तो पता चला, वहां कुछ ऊर्जा है, एनर्जी है, शक्ति है; पदार्थ नहीं है। पदार्थ अणुओं
का जोड़ है,
और अणु
पदार्थ नहीं है। पदार्थ परमाणुओं का संग्रह है और परमाणु केवल ऊर्जा के कण हैं, शक्ति के कण हैं।
पदार्थ
दिखाई कैसे पड़ता है? पदार्थ
दिखाई पड़ता है ऊर्जा की तीव्रगति से। एक पंखा है, इसमें तीन पंखुड़ियां हैं।
पंखा रुका हुआ है,
तो तीन
पंखुड़ियां दिखाई पड़ती हैं। पंखा तेज चलता है, तब पंखुड़ियां तीन नहीं दिखाई पड़ती हैं, सिर्फ बीच की खाली जगह दिखाई
पड़ती है,
फिर
पूरा घूमता हुआ वृत्त मालूम होता है। अगर बहुत तेज चले पंखा तो हमें दिखाई पड़ेगा
कि तीनों का एक गोल घेरा घूम रहा है, जो कि नहीं है! बीच की खाली जगह दिखनी बंद
हो जायेगी--तीव्र गति!
पदार्थ
के जो अणु हैं,
ऊर्जा
के जो अणु हैं,
वे
इतनी तीव्र गति से घूम रहे हैं कि उनके तीव्र गति से घूमने के कारण ठोस होने का
भ्रम पैदा हो रहा है। उनके बीच की खाली जगह दिखाई नहीं पड़ती। खाली जगह ठोस हो जाती
है! वे इतनी तेजी से घूम रहे हैं, उनकी
गति बहुत तीव्र है, उतनी
ही जितनी सूरज की किरणों की गति है! सूरज की किरणें एक सेकेंड में एक लाख छियासी
हजार मील चलती हैं। एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील की सीधी गति है सूरज की
किरणों की। और जो अणु छोटी-सी जगह में उसी गति से घूमते हैं, वे एक सेकेंड में कितने चक्कर
लगा लेते होंगे एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड की गति से!
और अणु
इतने छोटे हैं कि अगर हम अपने बाल के किनारे परमाणुओं को खड़ा करें तो एक बाल की
मोटाई में एक लाख परमाणु सीधे खड़े हो जायेंगे। इतने छोटे परमाणु हैं, इतनी छोटी उनकी परिधि है
घूमने की। और परिधि के घूमने की गति एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड है।
इसलिए ठोस दिखाई पड़ती हैं चीजें। कोई चीज ठोस नहीं है। सब पदार्थ बिलकुल भ्रम हैं।
एक
भ्रम बाहर है और दूसरा इसी भ्रम का छोर भीतर है। यहीं "मैं' का अहंकार भीतर दिखाई पड़ता है
कि "मैं'
है। यह
"मैं हूं',
बिलकुल
झूठा है। यह "मैं' भी
एकदम माया है,
यह
"मैं'
भी
एकदम भ्रम है!
लेकिन
आप कहेंगे,
पदार्थ
ऊर्जा का परिभ्रमण है, लेकिन
यह "मैं'
कैसे
झूठा है?
मेरा
जन्म नहीं हुआ?
मैं
बच्चा नहीं था?
मैंने
शिक्षा नहीं ली?
बड़ा
नहीं हुआ?
मैं आज
जवान नहीं हूं?
मैं
कभी बीमार पड़ता हूं, कभी
स्वस्थ होता हूं! फिर अगर मैं नहीं हूं तो यह सब कहां होता है? किस पर होता है? ये चारों अनुभव किस पर गुजरते
हैं? मैं हूं--मेरी प्रतिष्ठा है, मेरा मान है, मेरा सम्मान है, मेरा ज्ञान है, मेरा त्याग है। मैं नहीं
हूं--अगर मैं ही नहीं हूं तो फिर सब मिट गया।
इस
"मैं'
के
भीतर भी अगर हम प्रवेश करें, जैसे
वैज्ञानिक ने परमाणु के भीतर प्रवेश किया--पदार्थ के भीतर और उसने कहा, पदार्थ नहीं है। ऐसे ही अगर
कोई व्यक्ति "मैं' के
भीतर प्रवेश करे और "मैं' के
परमाणुओं को जाने तो उसे पता चलेगा कि "मैं' भी एक भ्रम है। मैं के परमाणु
हैं सब अनुभव। जैसे पदार्थ के परमाणु हैं, वैसे "मैं' के परमाणु हैं बुद्धि के कण, अनुभव के कण। ये अनुभव के कण
इकट्ठे हो रहे हैं और तेजी से घूम रहे हैं। इसकी गति के कारण यह शक पैदा होता है, यह लगता है कि "मैं' हूं।
जैसे
कोई एक मशाल जला ले और तेजी से मशाल को घुमाये तो एक फायर सर्किल बन जायेगा। दिखाई
पड़ने लगेगा एक अग्नि का गोल घेरा, जो है
नहीं कहीं भी! सिर्फ एक मशाल घूम रही है और एक वृत्त बन रहा है! मशाल नहीं दिखेगी, सिर्फ एक वृत्त दिखाई पड़ेगा!
मशाल बुझ जाये तो दिखाई नहीं पड़ेगा--वृत्त झूठा था, वह फायर सर्किल झूठा था, वह अग्नि-वृत्त नहीं था, सिर्फ एक मशाल तेजी से घूमती है।
जब कोई
व्यक्ति भीतर प्रवेश करेगा तो पता चलेगा, उसके अनुभव के कण, स्मृति के कण जो हो चुके हैं, उसके कण इतनी तेजी से घूम रहे
हैं कि इन तेजी से घूमते हुए कणों के कारण एक सर्किल पैदा होता है, एक वृत्त पैदा होता है, ईगो-सर्किल पैदा होता है और
लगता है कि "मैं हूं'! यह "मैं हूं' लगता
है, इसलिए हम कहते हैं, मेरा जन्म हुआ!
लेकिन
सच बात यह है कि मेरा जन्म नहीं हुआ। जन्म हुआ है--मेरा या आपका? आपका जन्म कब हुआ? जन्म हुआ। आप बड़े हुए। लेकिन
आप कहते हैं,
मैं
बड़ा हुआ! बड़े हुए,
बड़े
होने की क्रिया हुई। बीमारी आई। लेकिन हम प्रत्येक घटना के साथ जोड़ते हैं कि
"मैं'
बीमार
हुआ,
"मुझे' भूख लगी, "मैं' स्वस्थ हुआ, "मैं' गया!
लेकिन
हम एक-एक अनुभव के भीतर प्रवेश करें तो पता चलेगा कि घटनाएं घटीं। हमारी सारी भाषा
भ्रांत है। हम कहते हैं, आकाश
में बिजली चमकी! भाषा से ऐसी भूल पैदा होती है कि बिजली कोई अलग चीज है और चमकना
कोई अलग चीज है! बिजली चमकी। हम कहते हैं, बिजली है, जो चमकी। वैज्ञानिक कहेगा, बिजली चमकी यह गलत है। चमकने
का नाम बिजली है। बिजली कभी नहीं चमकी। जब चमकी है, उसी को ही हम बिजली कहते हैं।
चमकना और बिजली एक ही चीज के दो नाम हैं। दो चीजें नहीं हैं कि बिजली कहीं अलग है
और चमकना कहीं अलग है।
आप
कहते हैं कि मैं गया। अगर भीतर प्रवेश करेंगे तो पायेंगे, जाना हुआ है, मैं नहीं गया हूं। मैं और
जाना एक ही चीज के दो नाम हैं। लेकिन हमारी भाषा कहती है कि मैं गया!
हम
कहते हैं,
मुझे
प्यास लगी। सच बात यह है कि प्यास लगी। और प्यास लगते वक्त मैं और प्यास दो चीजें
नहीं थे। मैं ही प्यास था।
लेकिन
भाषा दो में कर देती है! वह कहती है, मुझे दुख हो रहा है! अगर हम बहुत गौर से
देखेंगे तो सिर्फ दुख हो रहा है। दुख हो रहा है, यही तथ्य है। लेकिन भाषा दो
हिस्से में तोड़ देती है! भाषा कहती है, मुझे दुख हो रहा है!
मैं
कहीं भी नहीं हूं,
लेकिन
यह निर्माण बचपन से लेकर जीवन भर चलता है। और एक असत्य का भ्रम धीरे-धीरे पुंजीभूत
हो जाता है,
खड़ा हो
जाता है,
ठोस हो
जाता है। और इसी ठोस "मैं' का बोझ
हमारे ऊपर सर्वाधिक है।
मैंने
दो बोझों की बात की आपसे--अतीत का बोझ और भविष्य का बोझ। और अंतिम बोझ--"मैं' का बोझ, "अहंकार' का बोझ।
यह
अहंकार का बोझ,
जब तक
चित्त पर है,
तब तक
हम सत्य में प्रवेश नहीं पा सकते; क्योंकि
यह है असत्य,
यह है
झूठ।
कभी
अपने भीतर प्रवेश करें। अब हमारी सारी भाषा गड़बड़ है! जब हम प्रवेश करेंगे अपने
भीतर तो वह "मैं' मजबूत
हो रहा है। कहना चाहिए भीतर! लेकिन भीतर भी "मैं' मजबूत होता है, और लगता है भीतर "मैं
हूं'! और "मैं नहीं हूं'!
और
सच्चाई यह है कि बाहर और भीतर दोनों--सब झूठ हैं। ऐसी दो चीजें नहीं हैं कि कुछ
बाहर और भीतर है। एक ही चीज फैलती है बाहर और भीतर। बाहर और भीतर दो चीजें नहीं
हैं। बाहर और भीतर एक ही चीज के फैलाव हैं, एक ही चीज के एक्सटेंशन हैं। वही भीतर है, वही बाहर है। लेकिन हमारे
देखने में ऐसा लगता है कि भीतर कुछ और है, बाहर कुछ और है!
हम
कहते हैं,
बाहर कुछ
भी नहीं है,
भीतर
सब कुछ है! हम कहते हैं बाहर छोड़ो, भीतर जाओ! उस सबसे "मैं' मजबूत होता है। लेकिन बहुत
गौर से देखें--क्या है बाहर, क्या
है भीतर?
कोई भी
चीज भीतर है,
कोई भी
चीज बाहर है?
श्वास
भीतर है कि बाहर?
श्वास
बाहर भी जाती है और भीतर भी। श्वास कहां है? श्वास बाहर भीतर का जोड़ है, सेतु है।
यह
सूरज तुमसे बाहर है या भीतर? सूरज
की गर्मी हमें भीतर पूरे वक्त मिल रही है। हम इसी से जी रहे हैं। सूरज बाहर हो या
भीतर, सूरज मेरा हिस्सा है, वह मुझसे अलग नहीं है। अगर
सूरज बुझ जाये तो मैं भी बुझ जाऊंगा कि नहीं बुझ जाऊंगा? अगर सूरज बुझ जाये, हम सब यहीं बुझ जायेंगे। तो
फिर सूरज बाहर था या भीतर था?
यह
वृक्ष बाहर है कि भीतर? हम
कहेंगे कि वृक्ष हम से बाहर है। वृक्ष बाहर दिखाई पड़ रहे हैं। दिखाई पड़ रहे हैं, यह सच है। लेकिन कभी आपने
खयाल किया,
गेहूं
आप कहां से ले आये? वृक्षों
से। भोजन कहां से ले आये? वृक्षों
से। वृक्ष पूरे वक्त आपके लिए भोजन तैयार कर रहे हैं। आप मिट्टी नहीं खा सकते हैं, लेकिन गेहूं बो देते हैं।
गेहूं मिट्टी खाता है। पौधा बड़ा होता है, एक गेहूं की जगह हजार गेहूं लग जाते हैं। वह
सब मिट्टी से खींचा है उस गेहूं ने। उस गेहूं ने सूरज की किरणें पी ली हैं। उस
गेहूं में वह सारी प्रक्रिया हो गयी है कि अब प्रक्रिया के द्वारा गेहूं आपके शरीर
का हिस्सा बन सकता है। अब यह गेहूं आपके भीतर जायेगा, आपका खून बनेगा, आपकी हड्डी बनेगा, आपका मांस बनेगा।
अगर
सारे पौधे भोजन बनाना बंद कर दें, आप एक
क्षण भी जीयेंगे?
आप इसी
क्षण विदा हो जायेंगे। तो पौधे आपके बाहर हैं या भीतर? या उसी जीवन की बड़ी प्रक्रिया
के हिस्से हैं। वही जीवन की प्रक्रिया एक तरफ गेहूं पैदा कर रही है और एक तरफ आपको
पैदा कर रही है। फिर वही गेहूं आपको पोषण दे रहा है। और कल आप फिर गिर जायेंगे और
मिट्टी में मिल जायेंगे!
मिट्टी
और आप अलग-अलग कैसे हैं? उसी
मिट्टी में पैदा होते हैं, उसी
मिट्टी में विदा हो जाते हैं। उसी मिट्टी से जीते हैं, फिर वही मिट्टी बन जाते हैं।
कितनी बार पौधे बन चुके हैं आप, और
कितनी बार पौधे आदमी बन चुके हैं। और कितनी बार आदमी फिर मिट्टी बन चुका है, फिर पौधा बन चुका है! ये किसी
एक ही वृक्ष के हिस्से हैं या अलग-अलग? क्या है बाहर, क्या है भीतर?
जो
बाहर है,
वह
प्रतिक्षण भीतर जा रहा है; जो
भीतर है,
वह
प्रतिक्षण बाहर जा रहा है!
बाहर
भीतर एक ही जीवन-ऊर्जा की लहरें है। जब भीतर की तरफ लहर आती हैं तो हम कहते हैं
"मैं'
और जब
बाहर की तरफ जाती है तो हम कहते हैं "तू'। लेकिन तू और मैं एक ही जीवन-ऊर्जा की लहर
के दो छोर हैं।
यह
दिखाई पड़ना जरूरी है, यह
मेरा भ्रम है। वह भीतर का भाव ही भ्रम है। और जब तक दिखाई न पड़ जाये, तब तक बोझ से मुक्ति नहीं हो
सकती। क्योंकि जब तक मैं मानता हूं कि मैं हूं पृथक, तब तक एक बोझ रहेगा। क्योंकि
तब तक एक संघर्ष रहेगा उससे, जो मैं
नहीं हूं। जब तक मैं "मैं' हूं, तू "तू' है, तब तक संघर्ष जारी रहेगा। जब
तक वृक्ष अलग है,
मैं
अलग हूं,
तब तक
एक अंतर्द्वंद्व जारी रहेगा। वह अंतर्द्वंद्व ही मनुष्य के ऊपर सबसे बड़ा बोझ है, क्योंकि संघर्ष में शांति
कहां, द्वंद्व में शांति कहां?
हम लड़
रहे हैं प्रतिक्षण! सबसे लड़ रहे हैं, चारों तरफ लड़ रहे हैं! और लड़ने का यह बिलकुल
भ्रम है कि मैं अलग हूं। अगर यह ज्ञात हो जाए कि मैं अलग नहीं हूं, अगर मैं इसी विराट जीवन
प्रक्रिया का एक अंग हूं तो किससे है लड़ना, किससे है संघर्ष, कौन है शत्रु?
यह
सारा विराट जीवन एक है।
ऐसा ही
समझें कि अगर मेरे हाथ को खयाल पैदा हो जाये कि मैं अलग हूं। और मेरी आंख को खयाल
पैदा हो जाये कि मैं अलग हूं। और आंख लड़ने लगे हाथ से, पेट लड़ने लगे सिर से, हाथ लड़ने लगे पैर से तो क्या
गति होगी उस व्यक्ति की? सारा
व्यक्तित्व अंतर्द्वंद्व और संघर्ष में नष्ट हो जायेगा। सारा व्यक्तित्व एक कलह बन
जायेगा। फिर जीवन आनंद नहीं हो सकता। भीतर सब एक है। आंख और पैर का अंगूठा अलग-अलग
नहीं, दोनों एक ही जीवन प्रक्रिया
के हिस्से हैं। गौर से देखेंगे, समझेंगे, पहचानेंगे--समझेंगे तो समस्त
जीवन एक ही प्रक्रिया मालूम होगी।
और जिस
दिन ऐसा मालूम होता है कि समस्त जीवन एक ही प्रक्रिया है, उसी दिन ईश्वर का अनुभव हो
जाता है। ईश्वर का और कोई अर्थ नहीं है। ईश्वर का अर्थ है सब एक है। ईश्वर का अर्थ
अनेक नहीं है। ईश्वर का अर्थ है खंड-खंड नहीं है। सब अखंड है। और यह अखंड, इकट्ठा जीवन है।
लेकिन
हमने उस अखंड से अपने को अलग तोड़ा हुआ है! और भक्त भी कहता है, मैं अलग हूं! भक्त कहता है, हे भगवान, मुझ पर दया करना! वह कहता है
कि मैं अलग हूं! ईश्वर दया करने वाला है, मैं दया पाने वाला हूं! तू पतित पावन है, मैं पतित हूं! भक्त भी कहता
है कि मेरा उद्धार करना!
किससे
कह रहे हो?
किससे
मांग रहे हो?
तुम
जिससे भीख मांग रहे हो, वही
हो। वहां कोई भी नहीं है सुनने को। क्योंकि मांगने वाला ही पाने वाला है। देने
वाला ही लेने वाला है। लेकिन सारे भक्त हाथ जोड़ खड़े हैं--किसके सामने!
और मैं
कहता हूं,
सारे
भक्त नास्तिक हैं। किसी भक्त को ईश्वर का कोई पता नहीं है। किसके हाथ जोड़ रहे हो? हाथ जोड़ने का मतलब है कि कोई
दूसरा है। और जहां दूसरा है, वहीं
सब उपद्रव शुरू हो गया है। वहां हमने तोड़ लिया है अपने को। किससे कर रहे हो
प्रार्थना?
किसके
चरणों में हाथ जोड़कर सिर टेक रहे हो? कौन है वहां दूसरा?
कोई भी
नहीं है। जीवन एक अंतहीन विस्तार है एक ही ऊर्जा का, एक ही जीवन शक्ति का। लेकिन
भक्त भी कहता है कि भगवान अलग है! भगवान को पाने की कोशिश कर रहा हूं! भगवान को
पाने की कोशिश भ्रम है। भ्रम इसलिए है कि भगवान को पाने की कोशिश में यह निर्णय
हुआ है कि मैं हूं और मैं भगवान को पाऊंगा!
नहीं, धर्म नहीं मानता, नहीं जानता ऐसा कि कोई और है।
धर्म का ज्ञान,
धर्म
का जानना यह है कि मैं नहीं हूं। और तब सब एक हो जाता है।
फिर
कुछ तो करनी है प्रार्थना! फिर अपने ही हाथ को अपने ही सिर पर जोड़े हुए हैं! अपने
ही पैर पर अपने ही सिर रखे हुए हैं! सारी प्रार्थना, सारी पूजा, सारी अर्चना एक गंभीर मूढ़ता
है, क्योंकि किससे कर रहे हैं यह?
वह जो
मौलिक भ्रम कायम है कि दूसरा अलग है और मैं अलग हूं! भीतर यह जो छोर है बाहर का, उसमें प्रवेश करके खोजें
"मैं हूं'?
जायें
और खोजें कि "मैं हूं'? और एक-एक जगह पूछें कि मैं यह हूं--मैं शरीर हूं?
हम
कहेंगे,
साधक
पूछते हैं। साधक पूछते हैं, मैं
शरीर हूं?
और उसका
उत्तर तैयार है कि मैं शरीर नहीं हूं! वह उत्तर कहीं से आता नहीं, वह किताब से पढ़ा हुआ है।
उत्तर पहले से मालूम है, पूछता
पीछे है! पूछना झूठा है। उत्तर पहले से मालूम है, जैसे कि बच्चे नकल करते हैं।
गणित करने के पहले किताबें उठाकर देख लेते हैं, उत्तर क्या है! उत्तर पहले से मालूम है, फिर गणित कर रहे हैं!
ऐसे ही
धार्मिक लोग करते हैं। उत्तर पहले से पता है कि हम आत्मा हैं! फिर अपने से पूछ रहे
हैं कि मैं शरीर हूं? मैं और
फिर खुद ही कह रहे हैं कि शरीर नहीं हूं! क्या पागलपन है! किससे पूछ रहे हो? किसको उत्तर दे रहे हो?
और जब
पूछना ही शुरू किया है तो अंत तक पूछो, फिर इतना जल्दी मत रुक जाओ। फिर पूछो कि मैं
शरीर हूं?
और
उत्तर किताब से निकला है, क्योंकि
किताब से आया हुआ उत्तर आपके लिए झूठा होगा। किसी के लिए सत्य होगा, जिसे मिला था। आपको किताब से
मिला है। आपको नहीं आया है।
पूछो, मैं शरीर हूं? पूछो, मैं मन हूं? लेकिन यहीं मत रुक जाओ। रुक
जाता है जो,
वह
पूछता ही नहीं। यह भी पूछो, मैं
आत्मा हूं?
और हर
जगह उत्तर मिलेगा,
नहीं।
शरीर पर भी मिलेगा, मन पर
भी मिलेगा,
आत्मा
पर भी मिलेगा! असल में जो हम पूछ सकते हैं, वही उत्तर मिलेगा--यह मैं नहीं हूं। पूछते
चले जाओ,
खोजते
चले जाओ और अंत में पाओगे कि मैं हूं नहीं। उत्तर मिलेगा ही नहीं। अंततः पता चलेगा
कि मैं हूं ही नहीं। सब हैं, मैं
नहीं हूं।
जैसे
कोई प्याज को चीरना शुरू करे, एक
पर्त निकाल ले। पूछे, अब
प्याज कहां है?
यह
पर्त तो प्याज नहीं है। फेंक दे, दूसरी
पर्त निकाल ले। दूसरी पर्त प्याज नहीं है। और प्याज, और प्याज, और खोजता चला जाये और एक-एक
पर्त को फेंकता चला जाये। आखिर में क्या मिलेगा? आखिर में शून्य मिलेगा और पता
चलेगा प्याज है ही नहीं, सब
पर्त ही पर्त थी।
ऐसे ही
अगर कोई खोजता चला जाये तो पर्त ही पर्त मिलेगी और "मैं' कहीं भी नहीं मिलेगा। अंततः
सब पर्तें शांत हो जायेंगी और मैं का भाव भी शांत हो जायेगा। लेकिन जहां मैं शांत
हो जाता है,
वहां
मैं तो नहीं मिलता है, सब मिल
जाता है!
पूछो, मैं कौन हूं? और आखिर में पता चले मैं हूं
ही नहीं। और तब जिसका पता चलेगा--वही है। उसका ही नाम सत्य है, उसी का नाम परमात्मा है।
लेकिन जो कहता है,
मैं
आत्मा हूं,
वह
परमात्मा को कभी नहीं जान पाता, क्योंकि
वह यह मानकर चल रहा है कि मैं हूं। वह जिसको हम आत्मवादी कहते हैं, वह भी परमात्मवादी नहीं है।
क्योंकि आत्मवादी कहता है, "मैं हूं'। और
यह जिद्द उसकी कायम है कि मैं अलग हूं! वह कहता है कि मुझे मोक्ष चाहिए! और वह
कहता है कि मोक्ष में भी "मैं' रहूंगा!
सब
छोड़ने को राजी हो जाता है आत्मवादी, लेकिन "मैं' को छोड़ने को राजी नहीं है! वह
कहता है,
धन मैं
छोड़ दूंगा। वह कहता है, पत्नी-बच्चे
मैं छोड़ दूंगा। वह कहता है, संसार
मैं छोड़ दूंगा,
मर
जाऊंगा। लेकिन वह यह कहता है कि मैं "मैं' को नहीं छोडूंगा! मैं को "मैं' रखूंगा! "मैं' मोक्ष में रहूंगा! "मैं' आनंद को, मोक्ष को अनुभव करूंगा!
"मैं'--"मैं' बचूंगा!
लेकिन
बड़े मजे की बात है, असली
संपत्ति "मैं' है, धन असली संपत्ति नहीं है। और
धन में जो मजा आता है, वह
"मैं'
के
मजबूत होने का मजा है और कोई मजा नहीं है। मेरे पास कुछ है, इसका जो मजा है, वह उसके "मैं' को मजबूत करने का मजा है!
आपके पास एक बड़ा मकान है तो उसी अनुपात में आपके पास एक बड़ा "मैं' होगा। छोटा मकान है, "मैं' छोटा हो जायेगा। छोटे मकान से
तकलीफ नहीं होती,
तकलीफ
"मैं'
के
छोटे हो जाने से होती है। अगर आप एक बड़ी कुर्सी पर सवार हैं तो आपके पास एक बड़ा
"मैं'
है।
कुर्सी से नीचे उतरें, "मैं' छोटा
हो गया! तकलीफ कुर्सी से नहीं होती है। बड़े तख्त पर बैठने से कौन-सा सुख मिलता
होगा? लेकिन बड़े तख्त पर बैठने से
"मैं'
बड़ा हो
जाता है!
वह
"मैं'
बिलकुल
काल्पनिक है। बड़े तख्ते का सहारा लेकर बड़ा हो जाता है! बड़े धन और बड़े पद का सहारा
लेकर बड़ा होता है! और हम कहते हैं, पद छोड़ दो, धन छोड़ दो। लेकिन वह
"मैं'
बहुत होशियार
है। वह छोड़ने से भी बड़ा हो जाता है! वह कहता है, "मैंने' धन छोड़ दिया! देखो
"मैंने'
मिनिस्ट्री
को लात मार दी,
"मैंने' पद छोड़ दिया! लेकिन वह
"मैं'
कहता
है,
"मैंने' सब छोड़ दिया! वह फिर नये
चेहरों या रूपों में खड़ा हो जाता है! इसलिए धन छोड़ना आसान है, क्योंकि धन छोड़ने से
"मैं'
मरता
नहीं, और मजबूत हो जाता है। धन को
चोर भी चुरा सकते हैं, लेकिन
त्याग को कोई नहीं चुरा सकता। इसलिए अगर तिजोरी मजबूत बनाना हो, तो त्याग की तिजोरी बनानी
चाहिए। लोहे की तिजोरी तोड़ी जाती है, टूट जाती है।
संन्यासी
बहुत होशियार हैं। संन्यासी के अहंकार भर की चोरी नहीं होती! गृहस्थ के अहंकार की
चोरी होती है,
गृहस्थ
नासमझ है। संन्यासी होशियार है, ज्यादा
कनिंग है,
ज्यादा
चालाक है। वह ऐसा "मैं' मजबूत
कर रहा है,
जिसको
कोई चुरा नहीं सकता। उसके "मैं' को आप कैसे चुराइयेगा? अगर आप उससे कपड़े छीनकर ले
जाओगे तो वह कहेगा, मैंने
कपड़े भी त्याग किये। चलो यह झंझट मिटी, कपड़े भी अब नहीं रहे! हम और भी मुक्त हो
गये! अब वह "मैं' और
मजबूत हो गया--वह कहता है, मैंने
कपड़े भी छोड़ दिये!
गृहस्थ
नासमझ अहंकारी है,
संन्यासी
समझदार अहंकारी है।
इसलिए
गृहस्थ की जब नासमझी टूटती है तो वह भी संन्यासी होना शुरू हो जाता है! समझ में आ
जाता है कि हम कहां के पागलपन में पड़े हैं! इसमें कोई सार नहीं। धन चोरी चला जाता
है। सरकार बदल जाये, सारा
गड़बड़ हो जाता है। कम्युनिज्म आ जाये, सब गड़बड़ हो जाता है।
संन्यासी
से कोई कुछ नहीं छीन सकता है। उसके पास कुछ है ही नहीं कि छीने। जिसके पास शुद्ध
"मैं'
बच गया
है, जिसके पास कुछ भी नहीं है
छोड़ने को,
लेकिन
असली "मैं'
है।
सवाल "मैं'
के
छोड़ने का है--न धन छोड़ने का सवाल है; न मकान छोड़ने का, न पद छोड़ने का। सवाल
"मैं'
छोड़ने
का है। लेकिन वह तो मोक्ष की खोज करने वाला भी नहीं छोड़ता! वह कहता है, "मैं' तो रहूंगा, शुद्ध रूप में रहूंगा! प्राण
छूट जायेंगे,
लेकिन
मैं तो रहूंगा! सब छूट जायेगा, मैं
रहूंगा!
यह
बहुत अदभुत बात है। जो सबसे ज्यादा भ्रामक है, उसी को बचाने की चेष्टा चलती है। नहीं, जब तक "मैं' है, तब तक कुछ नहीं छूटता। जिस
दिन "मैं'
छूट
जाता है,
उसी
दिन कुछ छूटता है। और जिस दिन "मैं' छूट जाता है, उस दिन मोक्ष है। "मैं' का कोई भी मोक्ष नहीं, "मैं' से मुक्ति का नाम मोक्ष है।
"मैं'
की कोई
मुक्ति नहीं होती कि मैं मुक्त हो जाऊंगा। मुक्त होने से मतलब कि "मैं' तो मरा, "मैं' तो गया। मुक्ति में कोई
"मैं'
नहीं
बचा रहता है।
मुक्ति
का अर्थ है परमात्म-जीवन। "मैं' नहीं रहा, समग्र की सत्ता रह गयी।
"मैं'
सबके
साथ एक है और एकमय मैं है।
मुझे
होना नहीं है,
सिर्फ
जानना है कि सत्य क्या है। क्या मैं अलग हूं? क्या मैं पृथक हूं? क्या पृथक होकर एक क्षण भी
जीया जा सकता है?
क्या
जीवन का पृथक होना संभव है? क्या
एक व्यक्ति को हम कैप्सूल में बंद कर दें, सब तरफ से तोड़ दें, वह जीयेगा? एक क्षण भी जीयेगा?
जीवन
अंतर्संबंध है। जीवन विराट अंतर्संबंध है।
सोचें
कि एक व्यक्ति को हमने एक शून्य डिब्बे में बंद कर दिया है। उसका संबंध नहीं रहा
दुनिया से। वह एक क्षण भी जी नहीं सकता है वहां। एक क्षण भी हो सकता है वहां? वह नहीं होगा, नहीं हो सकता।
लेकिन
हम सबने अहंकार का कैप्सूल बनाया हुआ है! और अहंकार में हम सब अलग-अलग खड़े हो गये
हैं! और कहते हैं,
"मैं
हूं'! जबकि हम जुड़े हुए हैं। लेकिन
फिर भी हम कहते हैं कि "मैं हूं' अलग और पृथक! जीवन है संयुक्त।
अहंकार
की खोज करनी जरूरी है कि यह भ्रम तो नहीं? कहीं एकांत में बैठकर देखा है भीतर की
तरफ--कहां है अहंकार, कहां
है मैं?
पूछते
चले जायें--यह हूं मैं? और
उत्तर आयेगा,
नहीं।
और एक उत्तर आयेगा--नहीं, नहीं, यह भी नहीं।
लेकिन
अगर किताब से उत्तर सीख लिया तो उत्तर आयेगा--हां! शरीर तो नहीं हूं, लेकिन आत्मा हूं! आत्मा तो
नहीं हूं,
लेकिन
परमात्मा हूं! उत्तर सीखा हुआ है तो व्यर्थ हो जायेगा।
सिर्फ
पूछें--अन्वेषण चाहिए कि यह हूं मैं? और फौरन पता चलेगा कि यह मैं नहीं हो सकता।
हाथ मैं नहीं हो सकता, क्योंकि
मैं तो हाथ को जान रहा हूं, पहचानता
हूं। शरीर हूं मैं? शरीर
मैं नहीं हो सकता हूं, क्योंकि
शरीर को मैं पहचानता हूं, शरीर
को मैं जानता हूं। जिसको मैं जान रहा हूं, वही मैं नहीं हो सकता हूं, मैं जानने वाला हूं। फिर तो
और पूछें--विचार हूं मैं? विचारों
को भी जान रहा हूं। मन हूं मैं? मन को
भी जान रहा हूं। पूछते चलिये, पूछते
चलिये। आत्मा हूं मैं? असल
में जिसको भी हम पूछ सकते हैं, यह हूं
मैं? वही हम नहीं होंगे। और
पूछते-पूछते वह घड़ी आयेगी कि पता चलेगा कि अब तो पूछने को कुछ नहीं बचा कि क्या
हूं मैं। और उत्तर भी नहीं मिला! उत्तर भी खो जायेगा, पूछने की वृत्ति भी खो जायेगी, साथ ही "मैं' भी खो जायेगा।
तब शेष
रह जायेगी एक अनंत शांति, तब शेष
रह जायेगा अनंत मौन। न वह प्रश्न है, न वह उत्तर है। तब शेष रह जायेगा अनंत
विस्तार। तब शेष रह जायेगा जीवन और जीवन का एक स्पंदन। और तब दिखाई पड़ेगा, यह वृक्ष भी मैं हूं, यह शरीर भी मैं हूं, यह चांद भी मैं हूं, यह तारा भी मैं हूं। वह जो
सामने दूसरी आंखें दिखाई पड़ रही हैं, उनसे भी मैं ही झांक रहा हूं। मैं ही बोल
रहा हूं और वह जो सुन रहा हूं, वह भी
मैं ही हूं। मैं ही बोल रहा हूं, दूसरे
कोने से मैं ही सुन रहा हूं! वह जिसको मैं प्रेम कर रहा हूं, वह भी मैं हूं। और वह जो
प्रेम कर रहा है,
वह भी
मैं हूं।
जिस
दिन दिखाई पड़ेगा,
"मैं
नहीं हूं',
उसी
दिन एक क्रांति हो जायेगी। और दिखाई पड़ेगा, "मैं नहीं हूं'। इन दोनों बातों का एक ही
अर्थ है। चाहे यह कहें, मैं
नहीं हूं,
सब है।
और चाहे यह कहें,
कुछ भी
नहीं है,
मैं ही
हूं। ये दोनों एक ही बातें हैं। इन दोनों का एक ही अर्थ है कि जीवन है, जीवन का अंतहीन अनंत विस्तार
है। ऊर्जा का अनंत सागर है, जो
स्पंदित हो रहा है अनंत-अनंत रूपों में। लेकिन एक का ही स्पंदन है। और जब तक यह
बोध स्पष्ट न हो जाये, तब तक
बोझ से मुक्ति नहीं मिल सकती।
अहंकार
सबसे बड़ा बोझ है।
लाओत्से
के पास एक आदमी गया और उस आदमी ने पूछा कि मैं मोक्ष चाहता हूं! लाओत्से हंसने
लगा। उसने कहा,
पागल, तू मोक्ष चाहता है? उसने कहा, हां मैं मोक्ष चाहता हूं, मैं मोक्ष को कैसे पाऊं?
लाओत्से
ने कहा,
पहले
समझकर आ कि "मैं' है? अगर हो तो मैं मुक्त करने का
रास्ता बता दूंगा। और अगर "मैं' ही है नहीं, तो किसको मुक्त होने का
रास्ता बताऊंगा!
वह
आदमी वापस गया। वर्षों बाद वापस लौटा है, चरणों पर सिर रख दिया है। लाओत्से ने कहा, खोज लिया "मैं'?
उस
आदमी ने कहा,
आपने
भी क्या आश्चर्यजनक बात कही। "मैं' को खोजने गया, "मैं' खो गया!
लाओत्से
ने कहा,
तो
मोक्ष का इरादा?
उसने
कहा, बात खत्म हो गयी। "मैं' ही नहीं है तो मुक्त किसको
होना है! और जब "मैं' ही
नहीं है तो मुक्त हो गया। "मैं' ही बंधन था।
लेकिन
हम सब मुक्ति खोज रहे हैं! हम कहते हैं, मुझे शांत होना है! ध्यान रहे, जब तक "मैं' है, तब तक शांति नहीं हो सकती।
लेकिन हम पूछते हैं, "मैं' शांत
कैसे हो जाऊं! हम पूछते हैं, लोग
शांत कैसे हो जायें!
यह ऐसे
ही है,
जैसे
कैंसर पूछे कि मैं स्वस्थ कैसे हो जाऊं! अगर कैंसर आ जाये और आपसे पूछे कि मैं
स्वस्थ कैसे हो जाऊं, तो हम
उससे कहेंगे,
इतनी
ही तो बीमारी है। कोई स्वस्थ नहीं होता, तू न रहे तो स्वास्थ्य आ जायेगा। कैंसर
स्वस्थ नहीं हो सकता, कैंसर
का न होना,
स्वास्थ्य
होगा।
"मैं' कभी शांत नहीं हो सकता। लेकिन
हम सब "मैं'
को
शांत करने में पड़े हैं! हम कहते हैं, दुनिया से हमें कोई मतलब नहीं, मैं कैसे शांत हो जाऊं! और
मैं ही अशांत हूं,
मैं ही
द्वंद्व हूं,
मैं ही
कष्ट हूं,
मैं ही
बंधन हूं! और हम पूछते हैं, मैं
मुक्त कैसे हो जाऊं?
और
बताने वाले लोग हैं, वे
कहते हैं--जप करो,
तप करो
और मुक्त हो जाओगे! और वह "मैं' कहता है--अच्छी बात! अब मैं उपवास करूंगा।
और मैं उपवास करता हूं। और उपवास के बाद मैं बाजार में आता है और कहता है, मैंने इतने उपवास किये, मैंने इतनी जाप की! एक लाख
माला फेर चुका हूं! मैंने राम-राम लिखकर हजारों किताबें भर दीं!
मैं एक
गांव में गया। वहां एक मंदिर बना हुआ है--राम मंदिर। उस मंदिर में एक ही काम है।
उसमें हजारों पुस्तकें हैं। और हर आदमी बैठकर वहां राम-राम लिखता रहता है किताबों
में! और वे किताबें रखते जाते हैं! वे कहते हैं, बस करोड़ों बार राम नाम! और
राम-राम लिखकर भेजते रहते हैं और वहां किताबें इकट्ठी होती जाती हैं!
और हर
आदमी हिसाब रखता है कि मैंने कितने लाख राम लिख दिये, मैंने कितने लाख नाम ले लिए, मैंने कितनी मालाएं फेरी, मैंने कितने उपवास किये! वह
मैं बहुत प्रसन्न होता है! वह मैं कहता है कि चलो, ठीक है। मैं को करने के नये
उपाय मिल गये। यह मैं पहले गिनती करता था कि मेरी तिजोरी में कितने रुपये हैं! अब
मैं कहता है,
मेरी
तिजोरी में कितने राम हैं, कितने
राम मैंने लिख दिये! वह पहले कहता था, मेरे पास कितने मंजिल के मकान हैं। अब वह
कहता है,
मेरे
पास कितने मंजिल का उपवास है--मैंने कितने उपवास किये-- मंजिल पर मंजिल! अब वह मैं
कहता है,
मैंने
यह-यह छोड़ दिया,
मैंने
यह-यह कर लिया! मैंने इतने नमोकार पढ़ डाले, मैंने इतनी नमाज पढ़ ली, मैंने यह किया! मैंने यह किया, मैंने वह किया! और वह मैं
नये-नये मकान बनाना शुरू कर देता है। और फिर वह मैं कहता है, मुझे मोक्ष चाहिए! मोक्ष कहां
है, मोक्ष कैसे मिलेगा!
यह
बुनियादी भ्रम है,
जिसमें
साधक भटक जाता है। मैं भटकता है और कोई नहीं भटकता है। फिर वह मैं न मालूम कितने
उपाय खोजता है! वह इस मैं को समझना जरूरी है कि जिसे हम शांत करना चाहते हैं--कहीं
वही तो अशांत नहीं है?
अभी
आपने खयाल किया,
अशांति
क्या है?
अगर इस
वक्त "मैं'
छूट
जाये तो कौन-सी अशांति है, एक
क्षण को सोचा है?
कभी
सोचा था इसे कि अगर "मैं नहीं हूं', इससे क्या अशांति है? कभी यह भी सोचा कि मेरी
अशांति के पैदा होने के, "मेरे ईगो' के
अतिरिक्त,
"मैं' के अतिरिक्त और कोई कारण है?
एक
आदमी ने रास्ते पर नमस्कार भी नहीं किया और मन अशांत हो जाता है! और एक आदमी ने
ऐसी आंख से देख लिया कि मन अशांत हो जाता है! और एक आदमी ने कह दिया कि तुम कुछ भी
नहीं हो और मन अशांत हो जाता है! और बेटे ने आज्ञा नहीं मानी और बाप अशांत हो गया!
और पति पत्नी की आज्ञा अनुसार नहीं चला और पत्नी अशांत हो गयी!
कभी
सोचा कि अशांति का कारण क्या है? अशांति
का कारण पति का मानकर न चलना है? अशांति
का कारण बेटे की बात न मानना है? या
अशांति का कारण बाप का "मैं' है, पत्नी का "मैं' है, बेटे का "मैं' है? कौन है अशांति का कारण? कौन कर रहा अशांत--किसको?
वह
मेरा "मैं'। वह कहता है, मेरा नहीं माना, "मैं' बाप हूं। "मैं' बाप बना बैठा है! वह "मैं' मां बने बैठा है, वह "मैं' पति बने बैठा है! वह कहता है, "मैं'। उसने हजार शक्लें बना रखी
है! जगह-जगह पुकार कर कह रहा है, उसकी
तृप्ति होनी चाहिए, जो
"मैं'
कहूं!
यह जो
"मैं'
का
सारा जाल है,
यही
अशांति है। सिर्फ यह अशांति बहुत बढ़ जाती है, तो अशांति बोझ हो जाती है। तब अशांति में
रहना असंभव हो जाता है। यह असहनीय हो तो वह "मैं' पूछता है कि शांति कैसे मिले? फिर वह "मैं' शांति की तलाश में जाता है!
"मैं'
जाता
है, शांति की खोज में! गुरुओं के
चरण पकड़ता है और कहता है, हमें
शांति का रास्ता बताइये, हम
शांत होना चाहते हैं! "मैं' शांत
होना चाहता हूं!
और
गुरु! उनके पास भी अपना "मैं' है, क्योंकि "मैं' न हो तो कोई गुरु बनकर बैठेगा? वह कहेगा, हम शांति देंगे! और जो कहता
है,
"मैंने' शांति दी, उस बेचारे के पास खुद ही
शांति नहीं हो सकती, क्योंकि
जहां "मैं'
है, वहां शांति कैसे हो सकती है? वह कहता है, मैं शांति दूंगा!
ऐसे
अशांत मन उसके आसपास इकट्ठे होते हैं। और फिर संप्रदाय खड़े होते हैं, गुरुडम खड़ी होती है, आश्रम खड़े होते हैं, पंथ चलते हैं! सब "मैं' का उपद्रव है!
गुरु
भी "मैं'
का
उपद्रव है,
शिष्य
भी!
और
शिष्य बड़े गुरु खोजता है और सिद्ध कर लेना चाहता है कि गुरु पक्का, बड़ा है कि नहीं! क्योंकि बड़े
गुरु के पास बड़े शिष्य का "बड़ा मैं' मजबूत होता है। और लगता है कि "मैं' कोई साधारण गुरु का चेला नहीं
हूं,
"बड़े
गुरु' का चेला हूं, "बड़ा चेला' हूं! इधर "मैं' मजबूत होता है।
अगर
उससे कहो कि "तुम्हारा' महावीर
कोई "बड़ा गुरु' नहीं
है, तुम्हारा "बुद्ध' कोई "बड़ा गुरु' नहीं है, तुम्हारा "महात्मा' आधा महात्मा है तो उसको पीड़ा
लगती है! उसको पीड़ा इसलिए नहीं लगती है कि महावीर को चोट लगती है। वह कहता है, "मेरा गुरु'! "मेरा गुरु' कमजोर हो गया है! "आधा
गुरु' है--कभी नहीं हो सकता।
"मेरा गुरु'
हमेशा
"पूरा गुरु'
है।
"मेरा गुरु'
तीर्थंकर
है,
"मेरा
गुरु' अवतार है, "मेरा गुरु' भगवान है! तो फिर कहता है, तलवारें चल जायेंगी!
महावीर
को हुए ढाई हजार साल हो गये, मोहम्मद
को मरे चौदह सौ साल हो गये, जीसस
को मरे जमाना गुजर गया। उनकी मृत्यु बहुत बड़ी राख में मिल गयीं। वे बहुत पहले खो
चुके उसमें,
जो
सबमें है। लेकिन तलवार चलाने वाला पीछे खड़ा है! कहता है, हम तलवार चला देंगे, अगर मोहम्मद को कुछ कहा!
क्यों?
तुम्हें
क्या तकलीफ होती है?
अगर
महात्मा छोटा है तो बेचारे का "मैं' छोटा होता है। यह मुसलमान है। और मुसलमान के
"मैं'
का मजा
तभी तक है,
जब तक
मोहम्मद "बड़े' हैं।
यह जैन है। जैन का मजा तभी तक है, जब तक
महावीर "तीर्थंकर' हैं।
अगर पता चल जाये कि महावीर "तीर्थंकर' नहीं हैं, तो बेचारे का "मैं' मरा! फिर यह किसी छोटे गुरु
को पकड़कर चल रहा था। गया, सब खो
गया! उसको जो पीड़ा होती रही है, वह
"मैं'
की
पीड़ा है!
इस
खयाल को समझ लेना है। इस जगत की सारी अशांति "मैं' की अशांति है। "मैं' के अतिरिक्त और कोई अशांति
नहीं है।
लेकिन
मजा देखें कि वह "मैं' कहता
है कि "मुझे'
शांत
होना है! वह आखिरी तरकीब है "मैं' की। फिर वह शांत होने के बहाने भी करता है।
आंखें बंद करके बैठ जाता है, आसन
लगा लेता है और कहता है कि मैं शांत हो रहा हूं! और बीच-बीच में आंखें खोलकर देखता
रहता है कि कोई देखने वाला निकला कि नहीं! देखा किसी ने कि नहीं--कि कितनी शांति
से हम आसन लगाये बैठे हैं! मंदिर में बड़ी देर से बैठे हुए हैं--और भी आराधक आये कि
नहीं, गांव में खबर पहुंची कि नहीं!
वह मैं देख रहा हूं, आंख
खोल-खोलकर कि कौन कितना मानता है! यह "मैं' बीच-बीच में झांककर देख लेता
है कि "मैं'
जब
इतनी साधना कर रहा है तो जनता को पता चल गया है कि नहीं! किस-किस को खबर मिल गयी? लोग आना शुरू हो गये हैं कि
नहीं!
एक
संन्यासी के आश्रम में मैं गया था। एक बड़े मजे की बात हो गयी! सभी आश्रमों में
वैसी मजे की बात होती है। संन्यासी एक बहुत बड़े तख्त पर विराजमान हैं। उस तख्त के
नीचे और एक छोटा-सा तख्त है, उस पर
एक दूसरा संन्यासी विराजमान है! उस तख्त के नीचे और एक छोटा-सा तख्त है, उस पर तीसरे संन्यासी
विराजमान हैं!
मैं
गया, उन संन्यासी ने मुझसे कहा, आप जानते हैं, बगल में कौन बैठा हुआ है?
मैंने
कहा, मैं नहीं जानता, आप बताने की कृपा करें।
उन्होंने
कहा, आपको पता नहीं, यह आदमी हाईकोर्ट का जज था, संन्यासी हो गया है! सब छोड़
दिया है,
बहुत
विनम्र है! देखते हैं, यह कभी
मेरे बराबर आसन पर नहीं बैठता है, आसन
छोटा रखता है।
मैंने
कहा, महाराज, वह आपसे तो आसन छोटा रखे हुए
हैं, लेकिन आपके मरने की प्रतीक्षा
करता है,
क्योंकि
उससे भी नीचे तीसरा बैठा हुआ है! वह उससे बड़ा आसन रखे हुए है! और आप मरे तो वह उस
आसन पर बैठेगा,
और वह
जो नंबर की सीढ़ी लगी हुई है, वह
दूसरा आदमी उसके आसन पर बैठेगा। इसमें भी पद है, प्रतिष्ठा है!
और इस
आदमी को क्यों मजा आ रहा है कि एक हाईकोर्ट के जज को नीचे बिठा दिया है। अब बताने
की क्या जरूरत है कि हाईकोर्ट का जज है। मामला खत्म हो गया। फिर हाईकोर्ट में जज
ही नहीं रहा अब। अब गेरुआ वस्त्र पहनकर आया है तो अब कैसा जज है?
लेकिन
यह बताता है कि यह आदमी हाईकोर्ट का जज है, कोई साधारण आदमी नहीं है। यह मुझसे नीचे
बैठा है,
यह कोई
साधारण आदमी नहीं। लेकिन इसको बताता क्यों है? यह बताता इसलिए है कि मैं किसी साधारण आदमी
के ऊपर नहीं बैठा हुआ हूं, हाईकोर्ट
का जज बैठा हुआ है नीचे! अपने हाथ में हाईकोर्ट के जज भी संन्यासी हो गये! वह नीचे
बैठा हुआ है और यह आदमी विनम्र है। ठीक है। क्योंकि मेरे बराबर नहीं बैठा। लेकिन
यह आदमी विनम्र है और आप क्या है? और
आपको इसमें मजा आ रहा है कि मेरे बराबर नहीं बैठता! आप बड़े खुश हैं!
गुरु
के पैर तो बहुत बार छुए हैं। एक बार पैर जरा उनके सिर पर रखकर देख लो, तब असलियत पता चलेगी कि मामला
क्या है। तब गुरु गर्दन पकड़ लेगा, तब पता
चलेगा कि वहां भी "मैं' बैठा
हुआ है। पैर छूकर वह तृप्त होता है! पैर मत छुओ तो नाराज हो जाता है! और अगर सिर
से पैर लगा दो तो पागल हो उठेगा! और जो हैं उनके पीछे, वे भी पागल हो उठेंगे!
क्योंकि उनके गुरु का सारा जाल पूरे "मैं' का है!
और इस
"मैं'
के जाल
के धार्मिक रूप भी हैं, अधार्मिक
रूप भी हैं;
राजनीतिक
रूप भी हैं,
सांस्कृतिक
रूप भी हैं,
साहित्यिक
रूप भी हैं,
कलात्मक
रूप भी हैं! हजार-हजार रास्ते से वह "मैं' आदमी को पकड़ेगा।
इसे
पहचानना पड़ेगा,
इसे
भीतर खोजना पड़ेगा। एक-एक इंच तलाश करनी पड़ेगी कि यह कहां बैठा है। और जहां-जहां आप
पहुंच जायेंगे,
जहां-जहां
आपकी दृष्टि पहुंच जायेगी, वहीं-वहीं
वह तिरोहित हो जायेगा। जहां-जहां आप देख लेंगे कि यहां-यहां बैठा हुआ है, वहीं-वहीं से विलीन होता चला
जायेगा। खोजें,
और
भीतर एक इंच न छोड़ें, जहां
खोज न की हो। सारे इट-इट खोज डालें भीतर और आखिर में आप पायेंगे, वह कहीं भी नहीं है!
जैसे
कोई दीया लेकर किसी अंधेरे घर में जाये। तो अंधेरे को खोजने लगे और दीया ले जाये
और देखे कोने-कोने में कि अंधेरा कहां है। जहां-जहां दीया जायेगा, वहीं-वहीं अंधेरा नहीं होगा।
आखिर में वह घर के बाहर आकर कहेगा, अंधेरा नहीं है! मैंने दीया ले जाकर देखा, वह कहीं नहीं है! लेकिन दीया
मत ले जायें भीतर तो अंधेरा है और दीया ले जायें तो नहीं है।
जब तक
हमने खोज नहीं की,
तब तक
"मैं'
है। जब
हम खोजेंगे,
तब
"मैं'
नहीं
होगा।
इसलिए
"मैं'
को
बदलने से बचें,
"मैं' की बदलाहट से बचें। "मैं' बदलने के लिए हमेशा तैयार है!
वह कहता है कि इस शक्ल में प्रसन्न नहीं हो, फिर मैं दूसरी शक्ल में राजी हूं! तुम कहते
हो, धन में अब मुझे मजा नहीं आता, तो अब मैं त्याग में राजी
हूं! कोई कहता है,
पाप
करने में अब मजा नहीं होता, अब
अहंकार की तृप्ति नहीं होती, तब हम
पुण्य करने में राजी हैं! एक कहता है कि शराबघर में जाने में अब मेरे अहंकार को
तृप्ति नहीं मिलती!
अब
ध्यान रखें,
शराब
पीने वाला,
सिगरेट
पीने वाला और सब--भीतर एक तृप्ति चाह रहे हैं! छोटा बच्चा भी अकड़कर सिगरेट पी लेता
है, क्योंकि वह देखता है कि लोग
सिगरेट पीते हैं अकड़कर, अहंकार
मालूम पड़ता है। छोटा बच्चा सिगरेट के लिए नहीं पीता है। सिर्फ पीता है--कि सिगरेट
पीने से बड़प्पन मिलता है। लगता है कि हम भी कुछ हैं! हम कोई साधारण नहीं हैं! वह
जो सिगरेट पीने का रस है, सिगरेट
का नहीं है,
"मैं' का रस है।
सिगरेट
में रस क्या हो सकता है? पागलपन
के सिवाय कुछ भी नहीं है। एक आदमी धुआं भीतर ले जाये और बाहर निकाले! यह क्या कर
रहे हो?
धुआं
भीतर बाहर किसलिए कर रहे हो? क्या
हो गया है तुम्हारे दिमाग में? लेकिन
चूंकि सारी दुनिया पागल है, इसलिए
कोई किसी से नहीं कहता कि यह कर क्यों रहे हो? धुआं जाये बाहर भीतर! और यह क्यों करते हो? इससे खांसी आ सकती है। तकलीफ
हो सकती है। रस तो कुछ भी नहीं है।
लेकिन
रस है और रस बिलकुल दूसरा है। इसलिए जब कोई सिगरेट पीने वाले को समझाता है कि
स्वास्थ्य खराब हो जायेगा तो उस पर कोई असर नहीं होता। क्योंकि रस है ही नहीं
उसमें। रस बिलकुल दूसरा है। सिगरेट पीने वाला एक अकड़ में आ जाता है! "मैं' को लगता है कि हम हैं कुछ!
सिगरेट पीने में भी ब्रांड हैं, वे सब
"मैं'
के
ब्रांड हैं। सस्ती वह एक गरीब आदमी का "मैं' पीता है। अमीर आदमियों का
"मैं'
ऐसी
सिगरेट पीता है,
जिसको
बहुत थोड़े लोग पी सकते हैं! फिर वह उसको बार-बार नहीं पीता है, सिर्फ हाथ में लगाकर धुआं
उड़ाता है! बार-बार पीने की जरूरत नहीं है, लेकिन वह कीमती सिगरेट को वैसे ही उड़ा देता
है! वह सब "मैं' है। वह
कश लेता है और फेंक देता है! कुछ मिलने का सवाल नहीं, असल में सवाल दिखाने का है कि
देखो।
यह जो
सारा का सारा हमारा जाल है--चाहे हम सिगरेट पीते हों, चाहे हम शराबघर में जाते हों
और चाहे हम कपड़े पहनते हों, उस
सबके पीछे असलियत बहुत दूसरी हो गयी है। उस सारे के पीछे "मैं' काम करता है। उसकी खोज करनी
पड़ेगी,
उनकी
पहचान करनी पड़ेगी कि वह कहां-कहां पकड़े हुए है। मैं कहीं "मैं' के आधार पर तो नहीं जी रहा
हूं?
अगर
"मैं'
के
आधार पर जी रहा हूं तो अशांति ही संभव है, शांति संभव नहीं है। और हम जी रहे हैं, इसकी खोज करनी पड़ेगी। इसकी
इंक्वायरी जरूरी है। इसके भीतर जासूसी करनी पड़ेगी, इसके भीतर जाना पड़ेगा, इसका पीछा करना पड़ेगा कि
कहां-कहां वह छिपा हुआ है। जन्मों-जन्मों से वह पकड़े हुए है!
और जब
मेरी पहचान पूरी होती है, जब वह
रिकग्नाइज कर लिया जाता है, जब
पहचान लिया जाता है कि यह रहा "मैं'; और जब रत्ती-रत्ती पहचान हो जाती है, और कण-कण और सूम से सूम उसकी
तरंगें पहचान में आ जाती हैं तो वह विदा होने लगता है, विलीन होने लगता है। एक घड़ी
आती है कि "मैं' विदा
हो जाता है। "मैं' के साथ
ही आत्मा विदा हो जाती है। तब जो शेष रह जाता है तब क्या शेष रह जाता है--वही शेष
सत्य है,
वही
शेष शांति है। उसे कोई भी नाम दो--सत्य कहो, मोक्ष कहो, परमात्मा कहो, नाम से कोई भी फर्क नहीं पड़ता
है। कोई भी नाम कहो,सब नाम
सत्य हैं उसके लिए। कोई भी नाम दे दें। और कोई भी नाम न दें, तब भी चल जायेगा। लेकिन
"मैं'
का
मिटना जरूरी है।
विज्ञान
तो पहुंच गया पदार्थ के मिटने पर। इधर धर्म को भी पहुंचना पड़ेगा--मैं, आत्मा के मिटने पर। जब दोनों
मिट जायेंगे--पदार्थ भी और आत्मा भी, तब जो शेष रह जायेगा, तरंगायित, वह सागर है। वही सागर है--एक
तरफ पदार्थ की तरह ठोस होकर दिखायी पड़ रहा है, वही सागर दूसरी तरफ तरंग होकर दिखायी पड़ रहा
है।
और वह
सागर ठोस नहीं है,
जीवंत
तरंगों का सागर है। जिस दिन यह लगेगा, उस दिन रास्ते पर चलना, ऐसा नहीं मालूम पड़ेगा कि मैं
चल रहा हूं,
लगेगा, ऊर्जा जा रही है। ऐसा नहीं
लगेगा,
मैं
बोल रहा हूं;
लगेगा, ऊर्जा बोल रही है, वही बोल रहा है।
ये
वेदों के,
उपनिषदों
के ऋषि अगर यह कह सके कि हम नहीं बोलते, उसी की वाणी है, तो उसका कारण यह नहीं था-- कि
जो दावा कर रहे थे कि हम जो बोलते हैं, वह इसलिए ही है--उसका कुल कारण इतना था कि
हम हैं ही नहीं,
बोल
कैसे सकते हैं! वही बोल रहा है, वही चल
रहा है,
वही खा
रहा है,
वही पी
रहा है,
वही उठ
रहा है,
वही जी
रहा है,
वही जा
रहा है,
वही
जन्म लेता है,
वही
मरता है--हम हैं ही नहीं।
और अगर
यह बोध स्पष्ट होता चला जाये तो फिर कैसी अशांति है, कैसा दुख है। फिर कैसी मृत्यु, फिर कैसा अज्ञान, फिर कैसा अंधकार। फिर सब गया!
व्यक्ति मिट जाये,
सब मिट
जाता है,
जो भी
दुखपूर्ण है। और हम सब "मैं' गठरी
बने हुए हैं!
मैंने
सुना है बंगाल के गांव में एक छोटा-सा लोकनाटय है। उस लोकनाटय में एक आदमी भगवान
के मंदिर पर वृंदावन पहुंचा है। वृंदावन के मंदिर में वह प्रवेश करने लगा। उसके
हाथ में कुछ नहीं है, उसके
पास कोई व्यक्ति नहीं है। जूता उसने बाहर रख दिया, छड़ी उसने बाहर छोड़ दी। लेकिन
द्वारपाल उसे रोकता है कि ठहरो, ठहरो!
सामान बाहर निकालकर आओ!
वह
आदमी कहता है कि लेकिन सामान तो मैं बाहर रख आया हूं, हाथ देखते नहीं खाली हैं? मैं बिलकुल खाली हूं, मुझे जाने दो। मैं भगवान की
प्रार्थना में आया हूं।
द्वारपाल
कहता है,
ऐसे
नहीं, सब सामान बाहर रख आओ!
वह
कहता है,
आप
पागल हो गये हैं,
सामान
है कहां?
वह
द्वारपाल कहता है,
जो
सामान तुम बाहर रख आये, उसे भी
ले आओ तो कोई हर्जा नहीं है। लेकिन यह जो "मैं' है--"मैं' भीतर जायेगा? "मैं' भगवान के दर्शन करूंगा, "मैं' पूजा करूंगा! इस "मैं' को बाहर रख आओ, क्योंकि इस "मैं' को लेकर कोई भी आज तक भगवान
के मंदिर में प्रविष्ट नहीं हुआ है।
लेकिन
वह आदमी कहता था कि जो सामान दिखाई पड़ता था, वह तो मैं रख आया हूं, यह "मैं' को कैसे निकालकर रख दूं।
द्वारपाल
कहता है,
जाओ
खोजो। अगर नहीं पा सको तो आ जाना। क्योंकि रख दिया बाहर, अगर नहीं मिला तो। और मिल
जाये, तो रख आना।
रूमी
ने एक गीत गाया है। एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर जाकर दरवाजा खटखटाता है।
पीछे से आवाज आती है कि कौन हो--कौन हो तुम?
और वह
कहता है,
मैं
हूं, पहचानी नहीं तू! आवाज नहीं
पहचानी,
पैर के
कदम नहीं पहचानी! मैं हूं तेरा प्रेमी।
और
भीतर सन्नाटा हो जाता है! वह फिर दरवाजा बंद कर लेती है, जैसे घर में कोई है नहीं!
वह
चिल्लाता है,
क्या
हो गया तुझे,
बोलती
क्यों नहीं! द्वार क्यों नहीं खोलती, मैं हूं तेरा प्रेमी!
भीतर
से सिर्फ इतनी आवाज आती है कि प्रेम के घर में दो नहीं समा सकते। इधर मैं पहले से
ही "मैं'
हूं।
अब तुम एक "मैं' और आ
गये! तो बड़ी तकलीफ होगी।
और सब
जानते हैं कि प्रेमी के घर में दो "मैं' समा गये हैं, बड़ी मुश्किल है। हर प्रेमी के
घर में "दो-दो मैं' बैठे
हुए हैं और वहां एक नर्क पैदा हो गया है।
उसने
कहा, एक "मैं' हूं, अब दूसरे "मैं' की इस घर में जगह नहीं है।
अभी तुम लौट जाओ। और उसने यह भी कहा जाते वक्त, ध्यान रखना कि जो प्रेम कहता है "मैं', वह प्रेम कैसे हो सकता हूं?
वह
प्रेमी वापस लौट गया। वर्ष पर वर्ष बीते। फिर वह नहीं लौटा--न मालूम कितनी बरसातें, कितनी धूप, कितनी रातें, अंधेरा गुजरा!
वह आया, फिर उस द्वार पर दस्तक दी।
फिर पीछे से पूछा गया, कौन हो
तुम?
उसने
कहा, अब तो मैं नहीं हूं, तू ही है। और रूमी की कविता
कहती है कि द्वार खुल गये!
लेकिन
रूमी को मरे बहुत दिन हो गये। वैसे मन होता है कि जाकर उसको उठाकर कहूं, कविता तुमने आधे में रोक दी।
यह कविता पूरी नहीं है। ठीक है--अब उसने कहा, मैं नहीं हूं, तू ही है! लेकिन जिसका
"मैं'
मिट
जाता है,
उसका
"तू'
भी मिट
जाता है। क्योंकि "तू' तभी तक
दिखाई पड़ता है,
जब तक
"मैं'
है। तो
वह कहने लगा "मैं' नहीं
हूं! लेकिन अगर तुम नहीं हो तो कहने वाला भी कौन होता है कि मैं नहीं हूं? और अगर तुम नहीं हो तो यह
कैसे कहते हो कि "तू' ही है।
रूमी ने जल्दी दरवाजा खोल दिया!
मैं
अभी दरवाजा खोलने को राजी नहीं होता। मैं तो कहता हूं, वह प्रेमिका फिर खो गयी। और उसने
कहा, अभी लौट जाओ, क्योंकि जब तक "तू' है, तब तक "मैं' कैसे मिट सकता है? लेकिन तब आगे कविता को बढ़ाना
बहुत मुश्किल है। शायद इसीलिए रूमी ने कविता रोक दी हो । आगे कविता बढ़ानी बहुत
मुश्किल है,
क्योंकि
कविता को बढ़ने के लिए भी दो चाहिए।
सब
नाटक के लिए कम से कम दो चाहिए। और जब एक ही रह जाये तो कैसी कविता। और जब एक ही
ही रह जाए तो कैसा आना। और जब एक रह जाये तो किसके द्वार पर दस्तक? फिर कौन पूछेगा, कौन उत्तर देगा?
फिर
मैं कहता हूं,
कविता
आगे बढ़ती है। प्रेमी फिर चला जाता है। फिर बरसात, फिर धूप। लेकिन फिर वह कभी नहीं
लौटता है,
क्योंकि
लौटने वाला ही नहीं रह गया है। लेकिन तब वह तो नहीं लौटता, लेकिन जिसकी तलाश थी, वह खुद ही उसके पास पहुंच
जाता है! क्योंकि जब मैं ही मिट गया है तो फिर लौटने की बात ही क्या रह गयी! फिर
तो प्रेमी मिट ही जाता है।
लेकिन
मैं कहता हूं,
आप कभी
परमात्मा तक नहीं पहुंच सकते। लेकिन परमात्मा आप तक आ जायेगा उस दिन, जिस दिन आप नहीं हैं। आज तक
कोई आदमी ईश्वर तक नहीं पहुंचा है और न पहुंच सकता है। और आज तक कोई आदमी मोक्ष तक
नहीं पहुंचा है और न पहुंच सकता है। जिस दिन आदमी मिट जाता है, मोक्ष पा जाता है, परमात्मा को पा जाता है। वह
आया ही हुआ है। वह "मैं' के
कारण दिखायी नहीं पड़ता है। वह मौजूद ही है। वह चारों तरफ खड़ा है, यहीं है। लेकिन इस "मैं' के कारण दिखायी नहीं पड़ता है।
यह "मैं'
एकमात्र
अंधापन है,
ब्लाइंडनेस
है। और यह "मैं' चला
जाये, आंख खुल जाती है। इस अनुभव
में ही जीवन की सार्थकता और धन्यता उपलब्ध होती है। इस अनुभव में ही वह घड़ी आती है, जो आनंद की है। वह घड़ी, जिसमें दुख का सवाल नहीं, क्योंकि गया वह। वह गया कि
चली गयी ग्रंथि,
जो दुख
की थी। वह ग्रंथि चली गयी, जो
दुखती थी। वही दुखता था, वही
चला गया। अब कैसा दुख, अब
कैसी पीड़ा,
अब
कैसी मृत्यु?
क्योंकि
वह "मैं'
ही था, जो मरता था। जो है, वह तो कभी नहीं मरा है। जो है, वह कभी मरता ही नहीं है। वह
"मैं'
ही
बार-बार जन्मता है और बार-बार मरता है। इसलिए भूलकर भी यह मत कहना कि कभी आत्मा का
पुनर्जन्म होता है, आत्मा
का कोई पुनर्जन्म नहीं है। सिर्फ "मैं' बार-बार जन्मता है। सब पुनर्जन्म ईगो के
हैं।
और जिस
दिन "मैं'
नहीं, उस दिन कोई पुनर्जन्म नहीं।
फिर जीवन है। न कोई जन्म है, न कोई
मृत्यु है। फिर अंतहीन अनादि जीवन है। उस अनादि जीवन का नाम परमात्मा है; उसका नाम मोक्ष है, वही सत्य है।
हम
असत्य हैं,
इसलिए
उस सत्य को नहीं खोज पाते। इस सत्य को खोजें, इस असत्य में। "मैं' की सत्य में खोज नहीं की जा
सकती। इस असत्य को खोजें। खोजें--खोज में असत्य मिल जायेगा, गिर जायेगा, शून्य हो जायेगा। इसके शून्य
होते ही सत्य प्रकट हो जाता है। "मैं' को मिटाना है। "मैं' को मिटते हुए जानना है। ऐसा
जानते ही "मैं' मिट
जायेगा।
और
जहां "मैं'
नहीं
है, वहीं ध्यान है, वहीं द्वार है।
जिस
द्वार से हमने बात शुरू की थी, वह
बहुत बंद द्वार है। एक खुला द्वार चाहिए। सब द्वार जो बंद हैं, "मैं' के द्वार हैं। और एक खुला द्वार
जो है,
वह
"ना-मैं'
है। वह
जो "आई'
का
द्वार है,
वही
अज्ञान है। ध्यान,
यानी
ज्ञान--आप नहीं है। गैर-ध्यान यानी जहां आप हैं। अपने को, स्वयं को, आत्मा को, अहंकार को, आत्मीयता को सबको विदा दे
दें। और जिस दिन सबको विदा दे देंगे, उस दिन बस वही है।
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