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मंगलवार, 14 मार्च 2017

पिव पिव लागी प्‍यास—(दादू दयाल)-प्रवचन-04




जिज्ञासा-पूर्ति: दो--प्रवचन—चौथा
दिनांक १४. ७. १९७५,
प्रातःकाल श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्‍नसार:
1— आप बार-बार गुरु की महिमा बतलाकर क्या हमें पंगु नहीं बना रहे हैं?
2— जीवन-ऊर्जा के शीघ्र से शीघ्र रूपांतरण के लिए कौन सी ध्यान की विधि उपयोगी होगी?
3— ध्यान का फल आत्म-दर्शन है क्या? और श्रद्धा को कैसे उपलब्ध हुआ जाए?
4— सक्रिय ध्यान में अंतिम चरण में एक शांति किंतु उदासी सी घेर लेती है?
5— आपने अनेक बार कहा है कि सदगुरु शिष्य को पास भी बुलाता है, फिर दूर भी करता है।
6आने वाला युग आपको कृष्ण से भी ऊपर रखेगा। क्या इस पर आप कुछ प्रकाश डालेंगे?
7— दूसरों के सामने: विशेषकर प्रियजनों के सामने, उसे प्रतिपादित करने की इतनी आतुरता मुझमें क्यों है?
8— आपने पहले कहा, कि मेरा सारा बोलना मात्र बहाना है। फिर आपका होना क्या है?


पहला प्रश्न: सच्ची और गहरी प्यास स्वयं परमात्मा तक पहुंचा देती है फिर आप बार-बार गुरु की महिमा बतलाकर क्या हमें पंगु नहीं बना रहे हैं?

पंगु तुम हो! और ज्यादा पंगु तुम बनाए नहीं जा सकते। अंधे तुम हो, आंख को और ज्यादा बंद करने की कोई व्यवस्था की नहीं जा सकती।
गुरु की महिमा सुनकर चोट कहां लगती है? अहंकार को बड़ी पीड़ा होती है गुरु की महिमा सुन कर। निरहंकारी तो अहोभाव से भर जाता है। गुरु की महिमा उसके भीतर एक अमृत की वर्षा बन जाती है, लेकिन अहंकारी को बड़ी पीड़ा लगती है। क्योंकि गुरु की महिमा का अर्थ है, तुम्हें मिटना पड़ेगा।
गुरु का अर्थ है, तुम्हें "न' हो जाना पड़ेगा। जब तक तुम हो, तब तक गुरु न हो सकेगा। गुरु मृत्यु है। वह तुम्हें मिटाएगा, पोंछ डालेगा बिलकुल। इससे घबड़ाहट होती है। इससे गुरु की महिमा सुनकर कहीं न कहीं चोट लगती है। चोट लगती हो, तो गौर से देखना भीतर, अहंकार खड़ा है। और वह अहंकार बड़ा चालाक है, वह बड़े तर्क, बड़ी दलीलें खोजता है। उसी अहंकार ने यह दलील खोज ली है।
सच्ची और गहरी प्यास स्वयं परमात्मा तक पहुंचा देती है। लेकिन सच्ची और गहरी प्यास पाओगे कहां? अगर होती, तो तुम परमात्मा तक पहुंच गए होते; मेरे पास आने की कोई जरूरत न थी।
कौन तुम्हें बताएगा, कि कौन सी प्यास सच्ची है और कौन सी झूठी? कौन तुम्हें समझाएगा कि कौन सी प्यास गहरी है और कौन सी उथली? कौन तुम्हें जगाएगा कि क्या प्यास है और क्या प्यास नहीं? अगर तुम यह कर ही लेते, तो कितने जन्म तुमने बिताए हैं अब तक, कर क्यों नहीं पाए?
अकड़! कहीं झुकना न पड़े। किसी से सीखना न पड़े। सीखना इतना पीड़ादायी है, शिष्य होना ऐसा कांटे की तरह चुभता है। क्योंकि शिष्य का अर्थ है झुको, शिष्य का अर्थ है, खुलो; शिष्य का अर्थ है कि किसी और को आने दो, हृदय के सिंहासन पर विराजमान होने दो। वहां अहंकार कब्जा किए बैठा है। वह अहंकार तुम्हें बहुत बातें समझाएगा, तुमसे कहेगा, इसकी क्या जरूरत है; तुम खुद ही तो परमात्मा हो!
ठीक है यह बात, कि तुम परमात्मा हो। लेकिन इसका तुम्हें अनुभव नहीं है। और जब तक अनुभव न हो, तब तक यह बात दो कौड़ी की है। यह बात सच है कि गहरी प्यास पहुंचा देती है, लेकिन गहरी प्यास हो तब न! गुरु थोड़े ही पहुंचाता है, गहरी प्यास ही पहुंचाती है। लेकिन गुरु गहरी प्यास को जगाता है। गुरु, परमात्मा थोड़े ही दे सकता है तुम्हें। परमात्मा तो तुम्हें मिला ही हुआ है। गुरु केवल तुम्हें जगा सकता है, ताकि तुम वही देख लो, जो कि तुम्हारे भीतर छिपा है।
और बड़े मजे की बात है कि गुरु तो एक बहाना है। गुरु के बहाने तुम झुकना सीख जाते हो। और किसी दिन गुरु के चरणों में झुके-झुके तुम अचानक पाते हो: गुरु के चरण तो चले गए, परमात्मा के चरण हाथ में हैं। गुरु तो बहाना था, जिसके बहाने तुमने झुकना सीख लिया। जिसने झुकना सीख लिया वह परमात्मा के पास पहुंच जाता है।
लेकिन गुरु के बिना तुम झुकना न सीख पाओगे, गुरु के बिना तो तुम अकड़े रह जाओगे।
वही तो हुआ है कृष्णमूर्ति के शिष्यों में। सुन रहे हैं वर्षों से, कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है। यह सुनकर अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है। कृष्णमूर्ति के पास अहंकारियों की जमात इकट्ठा हो गई है। वहां तुम्हें विनम्र आदमी खोजे न मिलेगा, क्योंकि जिनका अहंकार झुकना नहीं चाहता, उन्हें कृष्णमूर्ति की बात बहुत जंचती है। और बात बिलकुल सही है; लेकिन जंचना बिलकुल गलत है।
कभी-कभी तुम ठीक बात को भी गलत कारण से पकड़ लेते हो। बात तो बिलकुल ठीक होती है, लेकिन कारण तुम्हारा बिलकुल गलत होता है। कभी-कभी तुम सच का उपयोग झूठ की तरह करते हो। तुम सच का उपयोग ही किसी को चोट पहुंचाने के लिए करते हो; तब सत्य हिंसा बन जाता है।
इसलिए जानने वालों ने, महावीर ने, पतंजलि ने, बुद्ध ने, सत्य के भी पहले अहिंसा को रखा है। उसका कुल कारण एक ही है कि अगर अहिंसा हो, तो ही तुम सत्य बोल सकोगे। अन्यथा तुम एक आंख वाले आदमी को देखकर काना कहोगे। दिल तो होगा दुख पहुंचाने का, लेकिन तुम कहोगे कि मैं सत्य बोल रहा हूं। इसलिए सारे ज्ञानियों ने अहिंसा को पहला व्रत माना है। सत्य को पीछे रखा है। सत्य खतरनाक हो सकता है।
कृष्णमूर्ति जो कह रहे है, वह बिलकुल सत्य है, लेकिन सुनने वाला गलत कारण से सुन रहा है। सुनने वाला गलत कारण से पकड़ रहा है। सुनने वाला झुकना नहीं चाहता है। कृष्णमूर्ति में सहारा मिल गया। सुनने वाला गुरु होना चाहता है, शिष्य नहीं होना चाहता। कृष्णमूर्ति में बहाना मिल गया। लेकिन वर्षों तक सुनने के बाद कोई कहीं पहुंचता हुआ दिखाई नहीं पड़ता।
कृष्णमूर्ति का सुनने वाला बड़ा वर्ग मुझसे संबंधित रहा है। उनमें से एक को भी मैं पहुंचता हुआ नहीं देखता। और वे सभी मुझसे आकर कहते हैं कि क्या करें? बात तो सब समझ में आती है, लेकिन परिवर्तन कुछ भी नहीं हो रहा है। परिवर्तन होगा भी नहीं; बात गलत जगह सहारा दे रही है; रोग के लिए औषधि भोजन बन रही है।
तुम कहते हो, कि गुरु की महिमा सुन-सुनकर तुम पंगु न बन जाओगे?
अगर तुम पंगु न होते, तो तुम यहां आते ही नहीं। तुम यहां आए ही इसलिए हो कि तुम पंगु हो और तुम चलना सीखना चाहते हो। तुम पंगु भी हो, लेकिन तुम अहंकारी भी हो, कि तुम किसी का सहारा लेकर चलना भी नहीं सीखना चाहते। तुम चलना भी सीखना चाहते हो, लेकिन किसी को धन्यवाद भी देना पड़े, इतनी भी उदारता तुम्हारे हृदय में नहीं है कि किसी के प्रति कृतज्ञ होना पड़े, अनुगृहीत होना पड़े कि किसी ने चलाया। तुम्हारा अहंकार इतना सा धन्यवाद भी न दे सकेगा। और गुरु ने कुछ मांगा नहीं है कभी; धन्यवाद भी नहीं मांगा है।
गुरु की महिमा का एक ही अर्थ है, कि मैं तुम्हारे अहंकार की निंदा कर रहा हूं। अगर तुम मेरी बात ठीक से समझो, तो गुरु से क्या लेना-देना? गुरु की महिमा कह रहा हूं इसलिए, ताकि तुम्हारा अहंकार निंदित हो जाए। गुरु की चर्चा कर रहा हूं इसलिए, ताकि तुम झुकना सीख जाओ। तुम शिष्य होने के लिए आतुर हो जाओ--गुरु की महिमा में बस, इतना ही राज है।
झुकोगे तुम गुरु के चरणों में, उठकर तुम पाओगे कि गुरु तो विसर्जित, विलीन हो गया है, परमात्मा के चरण हाथ में आ गए हैं। क्योंकि जो झुक गया, उसके हाथ में परमात्मा के चरण आ जाते हैं। तब तुम गुरु को धन्यवाद दोगे, कि तेरी कृपा कि तूने हमें झुकना सिखा दिया।
झुकते ही मिल गया, जिसे हम खोए थे। झुकते ही जान लिया, जिसे जानने की बड़ी प्यास थी।

दूसरा प्रश्न: जीवन-ऊर्जा के शीघ्र से शीघ्र रूपांतरण के लिए कौन सी ध्यान की विधि उपयोगी होगी? भीतरी योगाग्नि को जाग्रत करने के लिए सूर्य-त्राटक की क्या उपयोगिता है?

पहली तो बात, "शीघ्र से शीघ्र' की दृष्टि ही गलत है। उसका अर्थ है, कि तुम प्रतीक्षा करने को जरा भी तैयार नहीं हो। उसका अर्थ है, कि तुम बड़ी जल्दी में हो। उसका अर्थ है कि तुम बड़े तनाव में हो, बड़े अधैर्य में। परमात्मा को वे ही पा सकते हैं, जिनकी जीवन-चेतना में जल्दी का रोग प्रविष्ट नहीं हुआ है; जो प्रतीक्षा करने को राजी हैं।
प्रतीक्षा वरदान है।
प्रतीक्षा का अर्थ है, कि तू इतना विराट है, कि अगर अनंत जन्मों तक भी प्रतीक्षा करनी पड़े और फिर तू मिले, तो भी जल्दी ही मिल गया। प्रतीक्षा का अर्थ है, कभी भी तू मिलेगा, अनंत काल में भी, तो भी तू जल्दी मिल गया; क्योंकि मेरी पात्रता ही क्या थी? तब भी मिलना ही चाहिए, ऐसी कोई पात्रता तो नहीं थी। तू अगर न मिलता, तो शिकायत क्या थी।
और जितनी तुम जल्दी करोगे, उतनी देर हो जाएगी। और तुम्हें पता है? कभी-कभी तुम्हें साधारण जीवन में भी अनुभव हुआ है कि जल्दी ट्रेन पकड़नी है, उस दिन और देर होने लगती है। कोट की बटन नीचे की ऊपर लग जाती है। उल्टा जूता पैर में चला जाता है। कुछ रखना था सूटकेस में, कुछ और रखा जाता है। चाबी घर ही भूल आते हो। टिकट टैक्सी में छूट जाती है। बड़ी जल्दी में थे। जितनी जल्दी में होते हो, उतनी देर लगती है। क्योंकि जल्दी, समय को नष्ट करती है। जल्दी, समय को जलाती है। और जल्दी का अर्थ है, मन तनाव में होता है, अशांत होता है। बड़ी तरंगें और बड़ी लहरें मन में होती हैं।
जितने धीरज से तुम चल सको, उतने जल्दी तुम पहुंचते हो। और अगर तुम अनंत प्रतीक्षा के लिए राजी हो, तो इसी क्षण घटना घट सकती है।
ये वक्तव्य विरोधाभासी मालूम पड़ेंगे। मैं यह कह रहा हूं कि, अगर जल्दी चाहिए हो, तो जल्दी मत करना। मैं यह कह रहा हूं कि अगर जल्दी न चाहिए हो, तो जितनी जल्दी करना हो, करना। वह मन, जो बहुत आतुर होकर लगा है और जल्दी में है, कभी पहुंच न पाएगा। क्योंकि परमात्मा को मिलने का रास्ता शांत होना है। जल्दी तो अशांति है।
प्रतीक्षा करो। इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि, प्यासे मत बनो। प्यास तो तीव्र हो, प्रतीक्षा अनंत हो। प्यास तो ऐसी हो, जैसे अभी चाहते हो और प्रतीक्षा ऐसी हो कि जैसे कभी भी मिलेगा, तो भी जल्दी है। ये दो गुण जब तुम्हारी जीवन-धारा में जुड़ते हैं--
सूफी फकीर बायजीद अपने शिष्यों को कहा करता था, कि हर काम ऐसे करो, जैसे यह आखिरी दिन है। आलस्य का उपाय नहीं है। हर काम ऐसे करो, जैसे यह जीवन का आखिरी दिन है। यह सूर्यास्त आखिरी सूर्यास्त है, अब कोई सूर्योदय नहीं होगा। कोई कल नहीं है, बस आज सब समाप्त है। हर काम ऐसे करो कि यह आखिरी दिन है। और हर काम ऐसे भी करो, कि जीवन अनंत काल तक चलेगा। कोई जल्दी नहीं है।
बड़ा विरोधाभास है। ये तुम दोनों बात एक साथ कैसे साध सकोगे? ये साधी जाती हैं। ये सध जाती हैं। और जिस दिन ये सधती हैं, तुम्हारे भीतर एक ऐसा अपूर्व संगीत जन्मता है, जिसमें प्यास तो प्रबल होती है, प्रतीक्षा भी उतनी ही प्रबल होती है।
प्यास तो तुम्हारी होती है, तुम जलते हो, आग की लपट बन जाते हो, व्याकुलता गहन होती है, यह तुम्हारी दशा है, लेकिन इस कारण तुम परमात्मा से यह नहीं कहते, कि तू अभी मिल। तुम परमात्मा से कहते हो, यह प्यास मेरी है, मैं जलूंगा, लेकिन मैं राजी हूं, जब तुझे मिलना हो, तेरी सुविधा से मिल। मैं द्वार पर बैठा रहूंगा। मैं दस्तक भी न दूंगा। मैं प्यासा रहूंगा। मेरी प्यास एक अग्नि बन जाएगी। अगर वही तेरे द्वार पर दस्तक बन जाए तो पर्याप्त है, लेकिन मैं और जल्दी न करूंगा।
यह भक्ति का रसायन है। यह भक्ति का पूरा शास्त्र है कि तुम मांगो भी और जल्दी भी न करो। प्रार्थना भी हो, और होंठ पर मांग भी न आए।
बायजीद जब प्रार्थना करता था, तो कभी उसके होंठ न हिलते थे। शिष्यों ने पूछा, हम प्रार्थना करते हैं, कुछ कहते हैं, तो होंठ हिलते हैं। आपके होंठ नहीं हिलते? आप ऐसे पत्थर की मूर्ति की तरह खड़े हो जाते हैं। आप कहते क्या हैं भीतर? क्योंकि भीतर भी आप कुछ कहेंगे, तो होंठ पर थोड़ा कंपन आ जाता है। चेहरे पर बोलने का भाव आ जाता है, लेकिन वह भाव भी नहीं आता।
बायजीद ने कहा, कि मैं एक बार एक राजधानी से गुजरता था, और एक राजमहल के सामने सम्राट के द्वार पर मैंने एक सम्राट को भी खड़े देखा, और एक भिखारी को भी खड़े देखा। वह भिखारी बस खड़ा था। फटे-चीथड़े थे शरीर पर। जीर्ण-जर्जर देह थी, जैसे बहुत दिन से भोजन न मिला हो। शरीर सूखकर कांटा हो गया। बस आंखें ही दीयों की तरह जगमगा रही थीं। बाकी जीवन जैसे सब तरफ से विलीन हो गया हो। वह कैसे खड़ा था यह भी आश्चर्य था। लगता था अब गिरा-अब गिरा--! सम्राट उससे बोला कि बोलो क्या चाहते हो?
उस फकीर ने कहा, "अगर मेरे, आपके द्वार पर खड़े होने से, मेरी मांग का पता नहीं चलता, तो कहने की कोई जरूरत नहीं। क्या कहना है और? मैं द्वार पर खड़ा हूं, मुझे देख लो। मेरा होना ही मेरी प्रार्थना है।'
बायजीद ने कहा, उसी दिन से मैंने प्रार्थना बंद कर दी। मैं परमात्मा के द्वार पर खड़ा हूं। वह देख लेगा। मैं क्या कहूं? और अगर मेरी स्थिति कुछ नहीं कह सकती, तो मेरे शब्द क्या कह सकेंगे? और अगर वह मेरी स्थिति नहीं समझ सकता, तो मेरे शब्दों को क्या समझेगा?
भक्त जलता है। बड़ी गहन पीड़ा है उसकी। गहनतम पीड़ा है भक्ति की। उससे बड़ी कोई पीड़ा नहीं। और मिठास भी बड़ी है उस पीड़ा में, क्योंकि वह एक मीठा दर्द है, और परम प्रतीक्षा भी है उसमें। भक्त रुक सकता है, अनंत काल तक रुक सकता है। और जिस दिन तुम अनंतकाल तक रुकने को तैयार हो, उसी क्षण घटना घट जाती है। उसके पहले घटना न घटेगी। क्योंकि उतने धैर्य में ही शांति घटित होती है। उसी शांति में द्वार खुलता है।
अधैर्य छोड़ो।
सारी ध्यान की विधियां धैर्य सिखाने को हैं, जल्दबाजी सिखाने को नहीं। यह तुम मुझसे पूछो ही मत शीघ्र से शीघ्र रूपांतरण के लिए। इतनी जल्दी भी क्या है? प्रकृति बड़ी शांति से बहती है। स्वभाव चुपचाप चलता है। स्वभाव समय को मानता ही नहीं। वह शाश्वत है। फूल जल्दी नहीं करते। वृक्ष जल्दी नहीं पकते--रुकते हैं, राह देखते हैं। चांदत्तारे भागते नहीं, अपनी गति को थिर रखते हैं।
मैंने सुना है, ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उनके पांडित्य की खबर सारी दुनिया में पहुंच गई। और गवर्नर जनरल ने--तब राजधानी कलकत्ता हुआ करती थी--उन्हें सम्मानित करने के लिए राजदरबार में बुलाया।
तो वे गरीब आदमी थे। फटे-पुराने कपड़े थे। मित्रों ने कहा, यह ठीक नहीं। तुम्हारी प्रतिष्ठा भारत की प्रतिष्ठा है। तुम इन कपड़ों में जाओगे, अच्छा न लगेगा। दरबार में जाने योग्य ये कपड़े नहीं हैं। हम तुम्हें अच्छे कपड़े बना देते हैं।
पहले तो उन्होंने इनकार किया, लेकिन फिर उन्हें बात समझ में आ गई, कि यह उचित न होगा। और इसमें गवर्नर जनरल का भी अपमान है, वह भी नाराज हो सकता है। व्यवस्थित कपड़ों में जाना जरूरी है। तो वे राजी हो गए। लेकिन मन में थोड़ी बेचैनी रही।
कल सुबह जाना है और आज की सांझ वह घूमने गए हैं, बगीचे की तरफ, जब वहां से लौट रहे हैं, तो उनके सामने एक मुसलमान बड़ी शांति, शांति से टहलता हुआ चल रहा है, उनके आगे-आगे। नौकर एक भागा हुआ आया और उसने मुसलमान से कहा--मीर साहब! आपके घर में आग लग गई।
लेकिन मीर साहब के कदमों में फर्क न पड़ा। वही चाल रही, वही ढंग से छड़ी हिलती रही। वही गति रही। उसमें रत्तीभर फर्क न पड़ा, जैसे कुछ भी नहीं हुआ है। नौकर समझा कि शायद मीर साहब समझे नहीं, सुने नहीं।
नौकर एकदम व्याकुल है, पसीने से लथ-पथ है, हांफ रहा है, घबरा रहा है। संपत्ति किसी और की जल रही है। नौकर सिर्फ नौकर है। उसका कुछ भी नहीं जा रहा है। जिसकी संपत्ति जल रही है, वह शांति से चल रहा है। उसने फिर से कहा, मकान में आग लग गई है। आप समझे कि नहीं? आप किस खयाल में डूबे हैं? दौड़िए! राख हुआ जा रहा है सब!
उस मुसलमान ने अपने नौकर से कहा, नासमझ, क्या साधारण से मकान के जलने के कारण अपने जीवनभर की चाल छोड़ दूं? और फिर मकान तो जल ही रहा है। मेरे दौड़ने से मैं भी जलूंगा? जलने दे मकान! और मेरे दौड़ने से कुछ बुझेगा नहीं, लेकिन मैं भी जल उठूंगा। अब मेरा खयाल इतना ही है कि मकान तो गया, अपने को बचा लूं।
विद्यासागर पीछे-पीछे थे, सुनी यह बात, चोट कर गई। सोचा कि यह आदमी--मकान में आग लग गई है--और चाल बदलने को राजी नहीं है और मेरे तो कोई मकान में आग नहीं लगी है, और मैं कपड़ा बदलने को राजी हूं। नहीं, कल ऐसे ही, जाऊंगा।
तुम जब जल्दी में हो, तब आग तुम्हारे भीतर लग जाती है। संसार तो वैसे ही जल रहा है। तुम अपने को बचा लो, बस इतना ही काफी है। संसार तो जल ही जाएगा। और तुम्हारे बचने का एक ही रास्ता है, कि तुम्हारी शांति में, तुम्हारे धैर्य में, तुम्हारी प्रतीक्षा में कोई अंतर न पड़े।
धैर्य को ही ध्यान बनाओ; प्रतीक्षा को प्रार्थना। फिर देखो, कितनी जल्दी उसकी घटना घट जाती है। इस क्षण भी घट सकती है। एक क्षण भी रुकने की कोई जरूरत नहीं है अगर रुकना पड़ रहा है, तो इसलिए क्योंकि तुम बहुत जल्दी में हो, अगर तुम पूरी तरह छोड़ दो, तो इसी क्षण घटना घट जाएगी। एक और क्षण खोने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि तुम शांत हो गए। तुम्हारी भाग-दौड़ के कारण ही तुम नहीं देख पाते हो। जो मौजूद है, भाग-दौड़ के कारण दिखाई नहीं पड़ता। आंखें धुंधली हैं, दौड़ में लगी हैं। रुको और पा लो।
तेरा मेरा सूत्र ध्यान रख लो--जो दौड़ेगा, वह चूकेगा। जो रुकेगा, वह पा लेगा। मांगोगे, कभी न मिलेगा। चुप रहो, मिला ही हुआ है।
और सूर्य-त्राटक इत्यादि सब शारीरिक बातें हैं। उन सब उलझनों में मत पड़ना। भीतर की आंख के खुलने का तो पक्का नहीं, बाहर की आंखें खराब हो सकती हैं।

तीसरा प्रश्न: ध्यान का फल आत्म-दर्शन है क्या? और श्रद्धा को कैसे उपलब्ध हुआ जाए?

श्रद्धा को उपलब्ध होने का एक ही उपाय है, श्रद्धा करना। और कोई उपाय नहीं।
जैसे कोई पूछे कि तैरना कैसे सीखा जाए? क्या करो? तैरना ही एक उपाय है। उतरो पानी में, हाथ-पैर तड़फड़ाओ। एकदम से न आ जाएगा तैरना। लेकिन हाथ-पैर तड़फड़ाना तैरने की शुरुआत है। तैरना है क्या? हाथ-पैर तड़फड़ाने की प्रक्रिया को थोड़ा व्यवस्थित कर लेना, और तो तैरना कुछ है नहीं।
एकदम आदमी को फेंक दो पानी में, वह भी हाथ-पैर तड़फड़ाता है। वह भी तैरता है, लेकिन उसके तैरने में कला नहीं है। कुशलता नहीं है। और अक्सर तो ऐसा होता है, कि वह डूबता है अपने इस तैरने की प्रक्रिया के कारण। वह इतना घबड़ा जाता है कि उलटे-सीधे हाथ फेंकता है, उसी में, दबोच में आ जाता है, उसी में पानी मुंह में चला जाता है। घबड़ाहट और बढ़ जाती है, और जोर से हाथ फेंकता है, मुश्किल में पड़ जाता है। अपने ही चक्कर में डूब जाता है।
तुमने एक मजे की घटना देखी कि मुर्दा कभी नहीं डूबता, जिंदा डूबता है! मुर्दा जरूर कोई कला जानता होगा, जो जिंदा आदमी नहीं जानता। जिंदा तो डूब जाता है पानी में, मुर्दा ऊपर आकर तैरने लगता है। मुर्दा एक ही कला जानता है, वह यह, कि वह कुछ करता ही नहीं। जब कुछ करता ही नहीं, तो कौन डुबाएगा उसे? तो नदी हार जाती है, कि इस मुर्दे को क्या डुबाओ, कैसे डुबाओ? यह कोई सहारा ही नहीं देता।
अंत में जो लोग तैरने की कला में पारंगत हो जाते हैं, वे भी मुर्दे की भांति पानी पर तैरने लगते हैं। उनको हाथ-पैर नहीं चलाना पड़ता। पानी में फेंक दो किसी को तड़फड़ाता है। रोज फेंकते रहो, धीरे-धीरे तड़फड़ाने में कुशलता आ जाती है। रोज अनुभव से सीखता है। हाथ सुचारू ढंग से फेंकने लगता है, मुंह को बंद रखता है, पानी के साथ संबंध बनने लगता है, मैत्री सधती है, पानी के ढंग समझ में आ जाते हैं। अपनी भूलें समझ में आ जाती हैं। वही आदमी एक दिन तैरना सीख जाता है। तैरने को सीखने के लिए और क्या करोगे, सिवाय तैरने के?
श्रद्धा भी वैसी ही घटना है--श्रद्धा करो। पहले तो हाथ-पैर तड़फड़ाओ। संदेह पकड़-पकड़ लेगा। किनारे से भागने का मन होगा, कि डूबे। सीखना पड़ेगा। थोड़ा ढाढ़स रखना पड़ेगा। थोड़ा साहस रखना पड़ेगा। किनारे की तरफ भागने की जल्दी न करनी पड़ेगी। भाग भी गए, तो फिर उतर आना पड़ेगा। संदेह पकड़ेगा बार-बार; धीरे-धीरे श्रद्धा से संबंध बनने लगेगा। रस उत्पन्न होगा। सुचारू हो जाएगी व्यवस्था। तब धीरे-धीरे हिम्मत बढ़ेगी।
पहले उथले पानी में कोशिश चलती है, फिर आदमी गहरे पानी में उतरता है, फिर अनंत गहराई में उतर जाता है।
गुरु किनारा है--जहां पानी बहुत गहरा नहीं; जहां डूबे तो भी मरोगे नहीं। गुरु सिर्फ उथला किनारा है, जहां तुम थोड़ा तैरना सीख लो। तो फिर तुम अनंत गहराई की तरफ चले जाओ, जहां परमात्मा है। और जिसने तैरना सीख लिया उसके लिए गहराई से कोई फर्क नहीं पड़ता। गहराई और उथले का फर्क गैर तैरने वालों को है। तैरने वालों को क्या फर्क पड़ता है, कि नीचे पांच मील गहराई है कि चार मील कि तीन मिल, कि दो मील--सब बराबर है। तैरना आता हो, तो गहराई का सवाल ही मिट जाता है।
एक बार गुरु में श्रद्धा को थोड़ा र्जंन्मा लो, तो फिर तुम अपने हाथ अनंत की तरफ बढ़ा सकते हो। तो गुरु तो, छोटा सा प्रयोग है श्रद्धा का। और अगर तुम उससे बचे, तो तुम उसी बड़ी श्रद्धा में न जा सकोगे, जिसको हम परमात्मा कहते हैं।
और यह तो पूछो ही मत, कि श्रद्धा को पैदा करने का क्या उपाय है? कोई उपाय नहीं। श्रद्धा कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे तुम सीख सको। उसे सीखने का एक ही उपाय है, और वह अनुभव है। प्रेम को कोई कैसे सीखता है? कहीं कोई विद्यापीठ खुले हैं, जहां कोई प्रेम को सीखता है? नहीं!
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिस बच्चे को बचपन में मां-बाप का प्रेम न मिले, वह जीवनभर फिर प्रेम नहीं सीख पाता। सीख ही नहीं पाता, क्योंकि उथला किनारा चूक गया। फिर वह उपाय करता रहता है लाख! किताबें पढ़ता है, शास्त्र पढ़ता है, मगर उससे कुछ नहीं होता। क्योंकि पहली तो जो संभावना थी, वह चूक गई, जहां से बीजारोपण होता।
बच्चा प्रेम कैसे सीखता है? पहले वह मां में तैरना सीखता है। मां उसका पहला प्रेम है। इसलिए जिस व्यक्ति का संबंध अपनी मां से गड़बड़ हो गया, उसके सारे जीवन के संबंध अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। फिर बड़ा मुश्किल है। जिस व्यक्ति का संबंध अपनी मां से ठीक न जुड़ा, वह किसी स्त्री से कभी ठीक से न जुड़ पाएगा, क्योंकि वह पहली स्त्री थी। फिर सभी स्त्रियों में वही स्त्री बार-बार मिलने वाली है। क्योंकि स्त्रियों का थोड़े ही सवाल है, स्त्रैण गुण का सवाल है।
और मां से प्रेम कैसे होता है? बच्चा क्या करेगा? बच्चा कुछ भी नहीं कर सकता। जानता भी नहीं। मां उसे प्रेम देती है। मां के प्रेम की छाया में वह भी प्रत्युत्तर देना सीखने लगता है। मां मुस्कुराती है, तो धीरे-धीरे वह भी अपने होंठ खींचने लगता है। मां उसे थपथपाती है, उसे स्पर्श करती है, तो वह भी मां को स्पर्श करना सीखने लगता है। मां उसे कंठ से लगा लेती है, तो वह भी मां को कंठ से लगाने का अभ्यास करने लगता है। ऐसा प्रेम करते-करते वह मां का प्रेम सीख लेता है। प्रेम की कला आ गई! अब वह जीवन में बहुत प्रेम से भर सकेगा, और कभी सवाल न उठेगा।
पश्चिम में बड़ा सवाल उठा है। प्रेम बड़ी समस्या बन गई है; क्योंकि मां का प्राथमिक प्रेम ही नष्ट हो गया है। कोई मां पश्चिम में अपने स्तन से बच्चों को दूध पिलाने को राजी नहीं है। क्योंकि स्तन का आकार, रूप, रंग-ढंग, दूध पिलाने से बिगड़ जाता है। मां बूढ़ी मालूम होने लगती है। स्तन की ताजगी चली जाती है। तो कोई मां स्तन से दूध पिलाने को राजी नहीं है। और स्तन से ही बच्चे का पहला संबंध था, जब वह मां के शरीर से जुड़ता था और मां की ऊष्मा को अनुभव करता था। और मां स्तन के द्वारा ही उसे जीवन, भोजन और प्रेमी देती थी।
वह सेतु टूट गया। अब यह बच्चा जीवनभर कोशिश करेगा, लेकिन जहां भी कोशिश करेगा, वहीं असफल होगा। तब मनोवैज्ञानिक खड़े होंगे, पागलखाने भरेंगे।
आज अमरीका में करीब-करीब सत्तर प्रतिशत अस्पतालों की जगह मन के मरीज घेरे हुए हैं। और मन का एक ही रोग है। अगर प्रेम न उपलब्ध हो पाया, तो मन रुग्ण हो जाता है। अगर प्रेम उपलब्ध हो गया, तो मन स्वस्थ हो जाता है। वह जो पहली घटना थी, पहला सूत्रपात था, नदी के किनारे उथले में तैरने की जो सुविधा थी, वह चूक गई। अब यह गहरे में कैसे जाए? अब डर लगता है।
मेरे पास रोज आते हैं लोग, जो कहते हैं कि स्त्री से भय लगता है, प्रेम करने में डर लगता है। डरेंगे ही! क्योंकि उनको हम सागर में बुला रहे हैं और किनारे पर चूक गए। उनको किनारे पर मौका न मिला तैरने का।
जैसे मां के पास बच्चा सीखता है प्रेम का ढंग, वह कोई कला नहीं है, जो सिखाई जा सके। मां अपने प्रेम में उसे निमंत्रण देती है, उसे प्रेम में डूबकर ही वह सीख जाता है, ऐसे ही गुरु के पास व्यक्ति सीखता है श्रद्धा। गुरु तुम्हें अपने प्रेम से भर देता है। और कोई कला नहीं है। गुरु तुम्हारे बिना मांगे तुम्हें देता चला जाता है। गुरु के होने के ढंग में, तुम पर वर्षा होती रहती है। उसके देखने में, उसके बोलने में, उसके चुप होने में, उसकी मौजूदगी में, वह चारों तरफ एक वातावरण खड़ा करता है, जहां तुम थोड़ा तैरना सीख लो।
लेकिन तुम पूछते हो, श्रद्धा कैसे? क्या करें?
कुछ करना नहीं है, सिर्फ थोड़ा अपने को छोड़ो। गुरु बुलावा देता है, थोड़ा अपने को छोड़ो। थोड़ा सा तो भरोसा करो, कि इस थोड़े से उथले पानी में उतर सको।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन तैरने गया था, सीखने। पैर फिसल गया घाट पर, गिर पड़ा। अभी पानी में उतरा ही न था, भागा घाट से। जो गुरु सिखाने ले गया था, उसने कहा कि मुल्ला, कहां भागे जा रहे हो? ऐसे तो तैरना न हो पाएगा। मुल्ला ने कहा, अब जब तक तैरना न सीख लूंगा, नदी के पास न आऊंगा। यह तो जान पर खतरा है। वह तो बच गया। अगर नदी में गिर गए होते, जब पैर फिसला था, तो गए! अब तो तैरना सीखकर ही आऊंगा। गुरु ने कहा अब तुम वहीं रहो, मैं पहले...
वह अभी तक नहीं पहुंच गया। वह कभी नहीं पहुंचेगा। क्योंकि तैरना सीखकर अगर नदी में आने का नियम बनाया हो, तो तुम तैरना कहां सीखोगे? कोई घर में गद्देत्तकिए बिछाकर थोड़े ही तैरना सीखा जाता है, कि अपने गद्दे पर लेटे हैं और हाथ-पैर चला रहे हैं। चलाते रहो! उससे कुछ तैरना नहीं आ जाएगा। उतरना ही पड़ेगा।
श्रद्धा अगर सीखनी है, तो साहस चाहिए। गुरु जब बुलावा दे, तब रुकना मत। जब गुरु निमंत्रण दे, तो चले जाना। जैसे-जैसे रस आएगा, जैसे-जैसे स्वाद आएगा, वैसे-वैसे हिम्मत बढ़ेगी। और गहरे में जाने की हिम्मत बढ़ेगी। और जब उथले में इतना सुख पाओगे, और उथले में ऐसा महासुख तुम्हें घेरने लगेगा, जो कभी नहीं जाना, तो तुम खुद ही कहोगे, कि अब और गहरे में जाना है।
तो गुरु तो एक इशारा है--और गहरे की तरफ। जब तुम तैयार हो गए, तब वह कह देगा, अब जाओ गहरे की तरफ। वह तुम्हें खुद ही धक्के देगा कि अब तुम गहरे की तरफ जाओ। कहीं मुझे पकड़कर मत रुक जाना।
गुरु सीढ़ी है, जिससे पार हो जाना है; जिस पर पैर रखना है और जिससे पार हो जाना है। गुरु एक सहारा है, जिससे स्वतंत्र हो जाना है। कोई गुरु तुम्हें परतंत्र नहीं कर सकता, अगर वह गुरु है। क्योंकि गुरु की गुरुता इसमें है, कि वह स्वतंत्र करे। कोई गुरु तुम्हें पंगु नहीं बना सकता, पंगु तो तुम हो। गुरु तुम्हें हाथ का सहारा देगा, जैसे ही तुम्हारे पैर सम्हल जाएंगे, वह अपना सहारा अलग कर लेगा, ताकि तुम अपने पैरों पर चल पड़ो।
तो गुरु के प्रति दो धन्यवाद देता है शिष्य। पहला धन्यवाद तो तब देता है, जब वह उसकी पंगुता में हाथ का सहारा देता है। और दूसरा उससे भी बड़ा धन्यवाद तब देता है, जब उसके पैर चलने लगते हैं और वह अपना हाथ खींच लेता है। दूसरी घड़ी और भी बड़ी घड़ी है। क्योंकि पहली घड़ी इतनी बड़ी घड़ी नहीं थी, शिष्य पकड़ना ही नहीं चाहता था।
यह बड़े मजे की बात है, कि शिष्य पहले पकड़ना नहीं चाहता, गुरु उसे पकड़ता है। फिर शिष्य छोड़ना नहीं चाहता और गुरु उससे छुड़ाता है। और जिस दिन ये दोनों कदम पूरे हो जाते हैं, उस दिन द्वार खुला है। उस दिन तुम मंदिर के पास आ गए।
"और ध्यान का फल आत्म-दर्शन है क्या?'
ध्यान का फल नहीं है आत्म-दर्शन, ध्यान की गहराई है। फल और गहराई में थोड़ा फर्क है। फल तो होता है भविष्य में। बीज आज बोओगे, तो आज ही फल नहीं आ जाएगा। लेकिन ध्यान ऐसा बीज है कि फल आज भी आ सकता है। इसलिए उसे फल कहना उचित नहीं। उसे गहराई कहना उचित है। वह ध्यान की ही गहराई है आत्म-दर्शन। जिस दिन ध्यान में गहराई पूरी हो जाती है, आत्म-दर्शन हो जाता है। अगर तुम डुबकी आज लगा लो, आज हो जाएगा। कल लगा लो, कल हो जाएगा। वर्षों तक ऐसे ही बैठे सोच-विचार करते रहो, कभी न होगा।
ध्यान ही आत्म-दर्शन है। जिस दिन पूरा ध्यान हो जाता है, आत्म-दर्शन हो गया। तो ध्यान में कोई फल नहीं लगता आत्म-दर्शन का। ध्यान के बाहर कोई आत्म-दर्शन नहीं है। ध्यान की परिपूर्णता ही आत्म-दर्शन है।
और श्रद्धा शुरुआत है, आत्म-दर्शन अंत है।

चौथा प्रश्न: सक्रिय ध्यान में अंतिम चरण में एक शांति किंतु उदासी सी घेर लेती है, जबकि आप उत्सव मनाने को कहते हैं, इस उदासी में कैसे उत्सव मनाएं, और कैसे नाचें?

उदासी में क्या बुराई है? उदास नृत्य नहीं हो सकता? और बड़ा मजा तो यह है, कि अगर तुम उदास होकर नाचो, तो जल्दी ही तुम पाओगे, उदासी बदल गई। नाच उदासी को बदल देगा। इसलिए रुको मत, आज अगर उदासी का क्षण है, तो उदासी में ही नाचो। नाच को रोको मत, क्योंकि रोकने से तो उदासी गहन हो जाएगी, बोझ हो जाएगी। नाचने से उदासी बिखर जाएगी। जैसे सूरज निकल आया और बादल हट जाए, ऐसे तुम अगर सच में नाचे, तो बादल हट जाएंगे।
इसे तुम समझने की कोशिश करो। उदास व्यक्ति नाच सकता है, लेकिन, नाचने वाला व्यक्ति उदास नहीं रह सकता। उदासी में कोई बाधा नहीं है, चलो, धीमे थोड़े पैर उठेंगे। घूंघर में पूरी झनकार न आएगी, ठीक सही! आज ऐसा ही सही! हाथ-पैर पूरे उमंग से नहीं उठते, सुस्ती घेरे हुए हैं, चलो ऐसा ही सही। लेकिन उठाओ हाथ-पैर, नाचो गाओ, उदास गीत गाओ, मगर गाओ।
अगर तुमने गाया और नाचे, तो तुम जल्दी ही पाओगे, तुम्हें पता ही न चलेगा, कब उदासी में शुरू हुआ गीत, उदासी को मिटा गया। कब उदासी में उठे पैर, नृत्य...। उदासी कब खो गई, पता नहीं चलेगा। अचानक तुम पाओगे, उदासी नहीं है, अब तुम नाच रहे हो।
जीवन के प्रत्येक अनुभव से नृत्य निकल सकता है। जीवन के प्रत्येक अनुभव को उत्सव बनाया जा सकता है। और यही तो कला है धर्म की, कि तुम जीवन के प्रत्येक अनुभव से...
तुम क्रोधित हो, कोई फिक्र नहीं, आज तुम नाचो। तांडव सही! आज तोड़-फोड़ का मन हुआ है, नाचो! तुम्हारे नृत्य को तोड़-फोड़ होने दो। मगर तुम जल्दी ही पाओगे, कि नृत्य ने तुम्हारी क्रोध की ऊर्जा को निष्कासित कर दिया, रेचन हो गया। क्रोध विलीन हो गया, झंझावात जा चुका, अब तुम नाच रहे हो बड़े हल्के हो कर, पंख लग गए हैं तुम्हें।
उदासी हो या क्रोध, उत्सव तो हो ही सकता है। उत्सव में किसी चीज से कोई बाधा नहीं पड़ती। यह एक गलत दृष्टि है तुम्हारी, कि आज उदास हैं तो कैसे नाचें, जब खुश होंगे, तभी नाचेंगे। तब तुम कभी भी न नाचोगे। क्योंकि उदास तुम आज हो। इसी उदासी को ढोओगे, इससे खुशी कैसे निकलेगी? तुम्हारी खुशी में भी उदासी का बोझ होगा। तुम्हारी खुशी भी उदासी से दबी होगी। तुम खुश भी होओगे, तो समग्रता से न हो पाओगे। तुम हंसोगे भी, तो तुम्हारी हंसी पूरी न होगी, पीछे पत्थरों का बोझ अटका रहेगा।
तुम लोगों को हंसते देखते हो, कभी निरीक्षण किया? बहुत कम लोग हैं, जो हृदयपूर्वक हंसते हैं। मुश्किल से कभी कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए, उसके पैर छूना, जो हृदय से हंसता हो। बस, होंठ पर ही आती है। बहुत गहरी गई, तो कंठ तक जाती है, लेकिन हृदय तक नहीं जाती। क्योंकि हृदय में तो जन्मों-जन्मों की उदासी घिरी है।
वहां से तो आ नहीं सकती हंसी। वहां तो द्वार बंद हैं। वहां तो कभी दीया जला ही नहीं। वहां तो कभी किसी ने अर्चना नहीं की, धूप नहीं जलाई। वहां तो सब गंदा हो गया है। उस अंधेरे में तो सिर्फ सांप-बिच्छू रहते हैं और इसलिए तो आदमी भीतर जाने से डरते हैं। लोग कहते हैं, भीतर जाओ, भीतर-जाओ। वे घबड़ाते हैं भीतर जाने से, क्योंकि भीतर सिवाय अंधकार के कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
कबीर कहते हैं, सूर्यों का सूर्य जल रहा है भीतर; पर तुम जब जाते हो वहां, तो अंधेरों का अंधेरा दिखाई पड़ता है। कबीर गलत नहीं कहते, दादू गलत नहीं कहते। मगर वह अंधेरे की सीमा पार करनी पड़ेगी। उस अंधेरे के मरघट में ही छिपा है सूरज।
और अंधेरा तुम इकट्ठा करते गए हो। और तुम रोज इकट्ठा करते जा रहे हो, उसकी मात्रा बढ़ती चली जाती है। उदासी को इकट्ठा मत करो। क्रोध को इकट्ठा मत करो। नाचो, और तुम पाओगे कि तुम हल्के हो गए हो। न केवल मन हल्का हुआ; शरीर हल्का हुआ।
जिस दिन कोई समाज नाचना भूल जाता है, उसी दिन समाज रुग्ण हो जाता है। जंगल में आदिवासी हैं, नाचते हैं, उनके स्वास्थ्य की बात ही और! रात, आधी-आधी रात तक नाचते हैं। तारों तले नाचते हैं, तारों के नीचे। तारों की तरह ही नाचते हैं। सो जाते हैं थके-मांदे। लेकिन उस थकान में थकान नहीं है, उस थकान में एक हलकापन है। फिर सुबह जब आदिवासी उठता है, तो उस उठने में फर्क है तुम्हारे उठने से। तुम सोते थोड़े ही हो। तुम सोते में भी सपना ही रहते देखते हो, सोते में भी तुम जागने का सारा व्यापार जारी रखते हो। सोते में भी तुम वही दुस्वप्न देखते रहते हो, जो तुमने जागने में देखे। वही बाजार, वही मित्र, वही शत्रु, वही गोरखधंधा। नींद में भी तुम तड़फते ही रहते हो। नींद भी तुम्हारी शांत घटना नहीं है। आदिवासियों से पूछो, कि तुमने सपना देखा? तुम्हें मुश्किल से कभी कोई आदिवासी कहेगा कि हां, एक बार जीवन में देखा था।
मनोवैज्ञानिक जब पहली दफा आदिवासियों का अध्ययन करने लगे, तो चकित हुए, क्योंकि वे कहते ही नहीं कि कभी उनने सपना देखा। सपने की कोई जरूरत नहीं, कुछ इकट्ठा ही नहीं होता। सुबह ताजे उठते हैं पशुओं और पक्षियों की भांति, और पौधों की भांति। फिर दिनभर का काम है, व्यवसाय है। वह काम भी छोटा-मोटा है, भोजन के लिए, छप्पर के लिए। जीवन की उनकी जरूरतें थोड़ी हैं, वह पूरी हो जाती है। सांझ फिर नाच है। नाच उनकी प्रार्थना है। नाच उनका धर्म है।
सभ्यता सबसे पहले नाच को तुड़वा देती है। सभ्य आदमी नाचने से डरने लगता है। कोई सभ्य जाति नाचती नहीं। और अगर नाचती भी है, तो उसका नाच सिर्फ कामुक होता है। कामुक नाच नाच का एक बहुत ही निम्नतम ढंग है।
मैं तुमसे कह रहा हूं उत्सव। नृत्य को तुम उत्सव बनाओ। मैं तुमसे कह रहा हूं, वह तुम्हारे पूरे जीवन-ऊर्जा का खिलाव बन जाए, फूल की तरह खिल जाए। तुम पाओगे, उस नृत्य से तुम्हारा जीवन बदलना शुरू हो गया। तुम उदास कम होते हो, क्रोधित कम होते हो, क्योंकि तुम इकट्ठा ही नहीं करते। वह कचरा तुम नाच में फेंक देते हो। तुम्हारे हाथ में एक कीमिया लग गई, एक तरकीब, जिससे तुम लोहे को सोना बना लेते हो, जिससे तुम व्यर्थ को सार्थक बना लेते हो। हर नाच के बाद तुम पाओगे, तुम इतने ताजे होकर वापस आए, जैसे भीतर का एक स्नान हो गया। तुम मत रुको कभी इस कारण, कि उदासी मालूम पड़ती है।
सच तो यह है, कि मेरे अनुभव में अनेक लोगों को निरीक्षण करने से यह पता चला है, कि तुम शांति से इतने अपरिचित हो गए हो, कि जब शांति आती है, तो तुम समझते हो कि यह उदासी है। तुम शांति भूल ही गए हो। तुम्हें याद ही नहीं कि शांति का गुणधर्म क्या है? शांति के निकटतम जो तुम्हारी अनुभूति है, वह उदासी की है, बस! तो जब शांति पहली दफा उतरती है, तो तुम समझते हो, ढीले-ढीले, उदास हो गए हो। एक्साइटमेंट नहीं है, उत्तेजना नहीं है, उदास हो गए।
सुख के नाम पर तुमने उत्तेजना जानी है। और शांति के नाम पर तुमने उदासी जानी है। तुम्हारा जीवन बिलकुल झूठा है। तुम नकली सिक्कों में जी रहे हो। इसलिए तुम्हारी व्याख्या मैं समझता हूं, कि तुम्हारी व्याख्या भ्रांत है, लेकिन तुम भी क्या करोगे? तुम उसी से तो पहचानोगे नए अनुभव को, जो तुम्हारा पिछला अतीत का अनुभव रहा है। ज्ञात से ही तो तुम अज्ञात की लक्षणा को जानोगे।
तुम उदासी जानते हो, तो जब भी तुम शांत होते हो, तुम्हें उदासी पकड़ लेती है। वह उदासी नहीं है, एक नई घटना का आविर्भाव हो रहा है। तुम्हारे भीतर शांति घनीभूत हो रही है। और अगर तुम समझ जाओ कला को, तो तुम हर उदासी को शांति में रूपांतरित कर सकते हो। और अगर तुम न समझो तो हर शांति को तुम उदासी समझोगे और उससे छूटने का उपाय करोगे।
ध्यान तुम्हें जो दे जाए, कोई फिक्र नहीं, कि वह क्या है! शर्त मत लगाओ, कि हम कब नाचेंगे। ध्यान तुम्हें जो दे जाए, समझो कि परमात्मा का वही प्रसाद है आज के दिन। नाचो!
कल सांझ ही मैं कह रहा था कि, एक सूफी फकीर निरंतर कहा करता था, कि परमात्मा तेरा धन्यवाद। अहोभाग्य है मेरे, कि जब मेरी जो जरूरत होती है, तू तत्क्षण पूरी कर देता है।
उसके शिष्य उससे धीरे-धीरे परेशान हो गए। यह बात सुन-सुन कर, क्योंकि वे कुछ देखते नहीं थे, कि कौन सी जरूरत पूरी हो रही है? फकीर गरीब था। शिष्य भूखे मरते थे। कुछ उपाय न था। और यह रोज सुबह सांझ पांच बार मुसलमान फकीर पांच बार प्रार्थना करे और पांच बार भगवान को धन्यवाद देता और ऐसे अहोभाव से! तो शिष्यों को लगता कि यह भी क्या मामला है?
एक दिन हद हो गई। यात्रा पर थे, तीर्थ-यात्रा के लिए जा रहे थे। तीन दिन से भूखे-प्यासे थे। एक गांव में सांझ थके-मांदे आए। गांव के लोगों ने ठहराने से इनकार कर दिया। तो वृक्षों के नीचे, भूखे, थके-मांदे पड़े हैं। और आखिरी प्रार्थना का क्षण आया, कोई उठा नहीं। क्या प्रार्थना करनी है? किससे प्रार्थना करनी है? हो गई बहुत प्रार्थना! यह क्षण नहीं था प्रार्थना का। लेकिन गुरु उठा, उसने हाथ जोड़े। वही अहोभाव की धन्यवाद परमात्मा, जब भी मेरी जो भी जरूरत होती है, तू तभी पूरी कर देता है।
एक शिष्य से यह बर्दाश्त न हुआ, उसने कहा, बंद करो बकवास। यह हम बहुत सुन चुके। अब आज तो यह बिलकुल ही असंगत है। तीन दिन से भूखे-प्यासे हैं, छप्पर सिर पर नहीं है। ठंडी रेगिस्तानी रात में बारह पड़े हैं, किस बात का धन्यवाद दे रहे हो?
उस फकीर ने कहा, आज गरीबी मेरी जरूरत थी। आज भूख मेरी जरूरत थी, वह उसने पूरी की। आज नगर के बाहर पड़े रहना मेरी जरूरत थी। आज गांव मुझे स्वीकार न करे, यह मेरी जरूरत थी। और अगर इस क्षण में उसे धन्यवाद न दे पाया, तो मेरे सब धन्यवाद बेकार हैं। क्योंकि जब वह तुम्हें कुछ देता है, जो तुम्हारी मन के अनुकूल है, तब धन्यवाद का क्या अर्थ? जब वह तुम्हें कुछ देता है, जो तुम्हारे मन के अनुकूल नहीं है, तभी धन्यवाद का कोई अर्थ है।
और जब उसने दिया है, तो जरूर मेरी जरूरत होगी, अन्यथा वह देगा ही क्यों? आज यही जरूरी होगा मेरे जीवन-उपक्रम में, मेरी साधना में, मेरी यात्रा में कि आज मैं भूखा रहूं, कि गांव अस्वीकार कर दे, कि रेगिस्तान में खुली रात, ठंडी रात पड़ा रहूं। आज यही थी जरूरत। और अगर इस जरूरत को उसने पूरा किया है और मैं धन्यवाद न दूं, तो बात ठीक न होगी।
ऐसे व्यक्ति को ही परमात्मा उपलब्ध होता है। तो तुम जब उदास हो तो समझ लो कि यही थी तुम्हारी जरूरत। आज परमात्मा ने चाहा है कि उदासी में नाचो। पर नाच नहीं रुके, धन्यवाद बंद न हो, उत्सव जारी रहे।

पांचवां प्रश्न: आपने अनेक बार कहा है कि सदगुरु शिष्य को पास भी बुलाता है, फिर दूर भी करता है। कैसे पता चले कि सदगुरु ने अप्रसन्नता से, नाराज होकर दूर किया है, या आशीर्वाद रूप से, प्रसन्नता से, आगे के विकास के लिए शिष्य को दूर किया है?

पहली बात, जो गुरु नाराज हो, वह गुरु नहीं। और दूसरी बात, जो शिष्य दूर किए जाने पर ऐसा सोचे, कि प्रसन्नता से दूर किया होगा, वह शिष्य की योग्यता का नहीं।
गुरु नाराज नहीं होता। नाराज होने की बात ही समाप्त हो गई है। अगर कभी गुरु नाराज भी दिखे, तो जानना कि अभिनय करता होगा; क्योंकि अन्यथा कोई उपाय नहीं है।
गुरजिएफ बहुत बार नाराज हो जाता था। ऐसा नाराज हो जाता था कि जैसे खून-खराबा कर देगा। जो भाग जाते थे, वे वंचित रह जाते थे। जो फिर भी टिके रहे, वे जानते थे, कि उस जैसा कोमल हृदय पाना कठिन है।
लेकिन फिर वह इस तरह नाराज क्यों हो जाता है? शायद वही शिष्य के लिए जरूरी था। ऐसी भी घटनाएं घटी हैं--और वह गुरजिएफ ही कर सकता था, कि दो व्यक्ति मिलने आए हैं, एक बाएं बैठा है, एक दाएं, जब वह बाएं की तरफ देखे, तो नाराजगी से और दाएं की तरफ देखे तो बड़े प्रेम से। और दोनों जब बाहर गए तो विवाद में पड़ गए, कि यह आदमी कैसा है? एक कहे, कि बिलकुल दुष्ट प्रकृति का मालूम होता है, और दूसरा कहे कि इतना प्रेमी आदमी मैंने नहीं देखा।
और दोनों सही थे, क्योंकि दोनों को पता नहीं था कि वह क्या कर रहा था। वह एक को इनकार कर रहा था, कि तू जा। वह एक को कह रहा था, कि तू आ। उसको इनकार कर रहा था, जिसकी अभी जरूरत न थी, जिसका आना अभी व्यर्थ होगा, जो अभी आने के लिए परिपक्व नहीं था, शायद दूसरे के साथ चला आया होगा, शायद कुतूहलवश चला आया होगा, लेकिन कोई प्यास न थी।
तो गुरु उस पर तो मेहनत नहीं करेगा, जिसकी कोई प्यास न हो। वह तो ऐसा ही होगा, जैसे कोई पत्थरों पर बीज फेंके। वे तो बीज भी नष्ट हो जाएंगे। वह उस पर ही मेहनत करेगा, जहां भूमि है, जहां हृदय राजी है--बीज को स्वीकार करने को, अंगीकार करने को।
तो गुरु कई बार नाराज हो सकता है, लेकिन गुरु नाराज कभी नहीं होता। और शिष्य तो वही है, जो गुरु की नाराजगी में भी करुणा देख पाए। अगर गुरु की नाराजगी में नाराजगी दिख जाए, तो तुम्हें शिष्यत्व का कुछ पता ही नहीं। तब तुम सीखे ही नहीं झुकना।
झुकने का मतलब ही यह होता है, जिस दिन शिष्य बने, उस दिन ये सब परिभाषाएं और व्याख्याएं तुमने छोड़ दीं। अब तुमने कहा, इस आदमी के साथ मैं राजी हूं चलने को। यह नर्क ले जाए तो नर्क, स्वर्ग ले जाए तो स्वर्ग; भटकाए तो उसके साथ भटकूंगा, पहुंचाए तो उसके साथ पहुंचूंगा।
इसलिए इस के साथ नहीं हूं, कि यह पहुंचाएगा; इसलिए इसके साथ हूं...शिष्य का मतलब ही यह है, कि इसके साथ हूं, अब पहुंचना हो जाए, तो इसके साथ हूं, भटकना हो जाए तो इसके साथ हूं। असल में इसके साथ होना ही अब पहुंचना है। कोई विकल्प नहीं छोड़ा, तब ही कोई शिष्य बनता है।
शिष्य बनना एक महान क्रांति है; एक बड़ी भारी छलांग है।

छठवां प्रश्न: अतीत में जितने सदगुरु हुए, उनमें भगवान कृष्ण पूर्णावतार कहे गए हैं। मेरा विश्वास है कि आपकी अभिव्यक्ति इतनी ऊंची और श्रेष्ठ है, कि आने वाला युग आपको कृष्ण से भी ऊपर रखेगा। क्या इस पर आप कुछ प्रकाश डालेंगे?

उस जगत में न तो कोई छोटा होता, न बड़ा। न तो कृष्ण बड़े हैं, न राम छोटे। न कृष्ण बड़े हैं, न क्राइस्ट छोटे हैं। न कृष्ण बड़े हैं, न महावीर छोटे हैं। छोटे और बड़े का हिसाब, अज्ञान का हिसाब है, अंधेरे के मापदंड है, प्रकाश में सब मापदंड खो जाते हैं।
लेकिन भक्त के पास तो प्रेम की आंख होती है। इसलिए जो कृष्ण को प्रेम करता है, स्वभावतः, कृष्ण उसके लिए सबसे बड़े हैं। इसमें भी कुछ भूल नहीं है। यह भक्त की तरफ से बताई गई बात है। भक्त तो अंधेरे में खड़ा है। उसे तो सिर्फ एक दीए का दर्शन हुआ है, वह कृष्ण का दिया है। उसे महावीर के दीए का कोई पता नहीं। उसे तो एक ही दीए से पहचान हुई है, वह कृष्ण का दीया है। तो वह कहता है, यह दीया सबसे बड़ा है। कोई दीया इतना बड़ा नहीं है, सब दीए इससे छोटे हैं। वह असल में कह ही नहीं रहा है कि सब दीए इससे छोटे हैं, वह इतना ही कह रहा है कि मेरे हृदय को इस दीए ने ऐसा भर दिया है कि इससे बड़ा कोई दीया नहीं हो सकता। जगह ही नहीं बची मेरे हृदय में, अब और बड़ा क्या हो सकता है?
मजनू पागल था लैला के पीछे। गांव के नरेश ने उसे बुलाया, क्योंकि दया आने लगी लोगों को। पागल की तरह दिन रात लैला...लैला...की रट लगाए रहता। नरेश ने अपने महल की बारह जवान सुंदरतम लड़कियां लाकर खड़ी कर दीं, और कहा, तू पागल है। लैला साधारण सी लड़की है। मैंने भी उसे देखा है। तू भरोसा मान। मेरी परख तुझसे ज्यादा है। जिंदगीभर औरतों के बीच रहा हूं। वह बिलकुल साधारण काली-कलूटी लड़की है। तू नाहक पागल है। अगर वह इतनी सुंदर होती, जैसा तू समझ रहा है, तो मेरे राजमहल में होती, सड़क पर हो ही नहीं सकती थी। तू भरोसा मान। ये बारह लड़कियां तेरे सामने खड़ी हैं, ये सुंदरतम हैं। इस राज्य में इन से सुंदर लड़कियां तू न खोज पाएगा। कोई भी चुन ले।
मजनू हंसने लगा। उसने कहा, "आपने लैला को देखा ही नहीं।'
सम्राट ने कहा, "तू पागल है? मैंने देखा। तेरी वजह से देखना पड़ा। तू महल के आसपास चिल्लाए फिरता है, लैला...लैला...। यह कौन लैला है? एक आदमी पागल हुआ, देखना है। बुलाकर देखा।'
मजनू ने कहा कि नहीं, आप देख ही नहीं सकते। लैला को देखने के लिए मजनू की आंख चाहिए। आपके पास मेरी आंख कहां? मेरी आंख से ही सिर्फ लैला देखी जा सकती है। उस जैसी सुंदर न तो कभी कोई स्त्री हुई है, न कभी होगी। और मैं आज की ही नहीं कहता, भविष्य की भी कहता हूं।
भक्त की आंख तो मजनू की आंख है। शिष्य की आंख तो मजनू की आंख है। वह एक के प्रेम में पड़ गया। बात बिलकुल सही है। कोई जरूरत भी नहीं है मजनू को, कि लैला से सुंदर कोई स्त्री कहीं हो, ऐसा वह माने। कोई कारण भी नहीं है। श्रद्धा तो पूर्ण होती है। जब श्रद्धा पूर्ण होती है, तो सब खो जाता है, एक ही रह जाता है। श्रद्धा तो अनन्य होती है। दूसरे कोई बचते नहीं ।
तो जिसने कृष्ण को प्रेम किया है, कृष्ण उसके लिए पूर्णावतार हैं। जिसने महावीर को प्रेम किया है, उसके लिए महावीर तीर्थंकर है, उसके लिए महावीर तीर्थंकर हैं, कृष्ण कुछ भी नहीं।
जैनों ने कृष्ण को नर्क में डाल रखा है। उनके शास्त्र कहते हैं, कृष्ण सीधे नर्क गए हैं--सातवें नर्क! क्योंकि इसी आदमी ने महाभारत का युद्ध करवाया। अर्जुन तो जैन मालूम पड़ता है। उसमें तो बड़ी सदबुद्धि पैदा हुई थी। इस कृष्ण ने उसको भटकाया और भरमाया। और उस बेचारे ने लाख उपाय किया कि निकल जाए पंजे से। हजार उसने संदेह उठाए। बाकी यह आदमी भी एक था, जिसने सब तरफ से घेर-घारकर उसको फंसा दिया। युद्ध करवा दिया। भयंकर उत्पात हुआ, हिंसा हुई। शायद महाभारत जैसा बड़ा युद्ध फिर कभी हुआ ही नहीं। भारत की तो रीढ़ ही टूट गई उस युद्ध में। उसके बाद भारत फिर कभी खड़ा ही नहीं हो सका। वह सारा जिम्मा कृष्ण का है।
तो जैनों ने बड़ी हिम्मत की, उन्होंने सातवें नर्क में डाल दिया। और आदमी बलशाली था, यह तो मानना ही पड़ेगा। नहीं तो अर्जुन को भी कैसे भटका देता? और आदमी बलशाली है, हजारों लोग उसको प्रेम करते हैं, यह भी मानना पड़ेगा। तो जैनों ने इतनी उदारता बरती है, कि अगली सृष्टि में, जब यह सृष्टि पूर्ण नष्ट हो जाएगी, तब तक तो कृष्ण को नर्क में रहना ही पड़ेगा। फिर अगली सृष्टि में वे पहले तीर्थंकर होंगे। मगर तब तक तो नर्क की महाअग्नि में जलना पड़ेगा।
अब तुम सोचो। किसी को कृष्ण पूर्ण अवतार हैं, उनके सामने सब फीके हैं, सब अधूरे हैं। और किसी के लिए कृष्ण नर्क में डालने योग्य है। और मैं किसी को, इन दोनों में से, सही-गलत नहीं कह रहा हूं। मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं, एक प्रेमी की नजर है। एक मित्र की नजर है, एक शत्रु की नजर है। ये दोनों ही अपनी नजर के संबंध में कुछ कह रहे हैं, कृष्ण के संबंध में कुछ भी नहीं कह रहे हैं।
अगर तुम्हें मुझसे प्रेम हो गया, तो जो तुम कह रहे हो, मेरे संबंध में नहीं है, वह तुम अपने प्रेम के संबंध में कह रहे हो; वह मेरे संबंध में नहीं, वह तुम अपनी श्रद्धा के संबंध में कह रहे हो।
आदमी सदा अपने संबंध में ही कहता है। किसी और के संबंध में कहने का उपाय नहीं है। अगर तुम्हें मेरी अभिव्यक्ति बहुत प्रीतिकर मालूम पड़ती है, तो तुम अपनी संबंध में कुछ कह रहे हो, कि यह अभिव्यक्ति तुम्हें जमती हैं। यह तुम्हारे हृदय को छूती है। यह तुम्हारे हृदय में कोई तार छेड़ देती है। बस, इतनी बात है। उस लोक में कोई आगे नहीं, कोई पीछे नहीं, कोई छोटा नहीं, कोई बड़ा नहीं, मुहम्मद, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट--
जैसे ही अंधेरे का जगत समाप्त हुआ, सभी एक जैसे हो जाते। सब रंग, सब भेद, सब भिन्नताएं अंधेरे में है। जागे हुए पुरुषों में कोई भेद नहीं है।
लेकिन तुम सभी जागे पुरुषों को प्रेम तो न कर पाओगे। सभी जागे पुरुषों को प्रेम करना हितकर भी नहीं होगा; क्योंकि जितने तुम्हारे प्रेम-पत्र होंगे, उतना ही तुम्हारा हृदय बंट जाएगा। और अगर हृदय बंट जाए, तो श्रद्धा भी बंट जाएगी। और बंटी हुई श्रद्धा से तुम कभी सत्य तक न पहुंच सकोगे।
इसलिए, मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम, गांधी जैसा भजन करवाते हैं--अल्ला ईश्वर तेरा नाम! नहीं कहता, कि वह करो। तुमको नाम अपना चुन लेना है। यह तो अल्लाह या ईश्वर। क्योंकि दोनों नाम तुम लेते रहोगे, तुम्हारा हृदय सदा ही बंटा रहेगा। वह कभी पूरा न हो पाएगा।
और गांधी जी अपनी ही बात को पूरा मान न सके, मरते वक्त जब गोली लगी, तो "राम' निकला, "अल्लाह' न निकला। वह बात-चीत थी। वह राजनीति होगी, धर्म नहीं था। जब गोली लगी, तब "अल्लाह' नहीं निकला, तब तो राम निकला, "हे राम' वह बिलकुल ठीक है। वह बिलकुल गैर-राजनीतिक आवाज है। मरते वक्त कोई राजनीतिज्ञ हो सकता है? मरते वक्त तो जो था हृदय में, वह निकला, जिंदगी में तो सब लीपा-पोती थी।
मैं तुम से नहीं कहता, चुन लो। मैं तुम से नहीं कहता कि तुम महावीर को भी पूजो, बुद्ध को भी पूजो, कृष्ण को भी पूजो--नहीं। पूजा तो अनन्य होती है। तुम चुन लो। क्योंकि मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कि तुम किसको चुनते हो। फर्क इससे पड़ता है, तुम पूजा करते हो या नहीं, बस!
पूजा पूरी हो। तुम पत्थर चुन लो, वृक्ष के नीचे रखा, दुनिया कहे पत्थर है, तुम फिक्र मत करो। तुम्हारा अगर हृदय वहां लग गया, और पत्थर से तुम्हारा रास जम गया और तुम नाचने लगे पत्थर के पास, तो वहां भगवान है तुम्हारे लिए। तुम उसी पत्थर से पहुंच जाओगे। तुम फिर किसी की मत सुनो। तुम फिर अंधे होकर पत्थर के पागल हो जाओ, तुम नाचो, तुम पूजा करो। पत्थर ही तुम्हारी अर्चना और तुम्हारा आराध्य बन जाए। तुम वहीं से पहुंच जाओगे। क्योंकि कोई पात्र से नहीं पहुंचता, प्रेम-पात्र से; प्रेम से पहुंचता है। श्रद्धा-पात्र से नहीं पहुंचता है, श्रद्धा से पहुंचता है।
तुम कृष्ण, राम, बुद्ध से नहीं पहुंचते, तुम्हारी पूजा के भाव से पहुंचते हो वह पूजा का भाव जहां तुम्हें आ गया हो, फिर तुम बिलकुल फिक्र मत करना, फिर तुम कहना कि कृष्ण पूर्ण अवतार है, और इनसे ऊपर कोई भी नहीं। कोई चिंता मत करना। यह अंधेरे की भाषा है। लेकिन तुम अंधेरे में हो। अभी तुम प्रकाश की भाषा बोलोगे, तो भाषा ही गलत होगी। झूठी होगी अंधेरे को पार कर लो। कृष्ण के सहारे। जिस दिन तुम प्रकाश में पहुंचोगे, उस दिन तुम हंसोगे कि मैं भी कैसा पागल था, कि किसी को छोटा कहा, किसी को बड़ा कहा; किसी को आगे कहा, किसी को पीछे कहा। यहां प्रकाश के लोग में तो सब समान हो गए हैं।

सातवां प्रश्न: मैं खुद तो निःसंदेह मार्ग पर चल पड़ा हूं और मार्ग ही मंजिल होता जा रहा है। लेकिन जब प्रवचन में बैठता हूं, तो जो कुछ आप कहते हैं, उसे दूसरों को बताने के लिए मेरा मन संगृहीत किए जाता है। दूसरों के सामने: विशेषकर प्रियजनों के सामने, उसे प्रतिपादित करने की इतनी आतुरता मुझमें क्यों है?

स्वाभाविक है। जिन्हें हम प्रेम करते हैं, उन्हें हम वह दे देना चाहते हैं जो हमें मिला है, जिसमें हमने आनंद जाना है जिसमें हमें सत्य की भनक मिली है। जो स्वाद हमने चखा है वह अपने प्रियजनों को चखा देना चाहते। हम उन्हें साझीदार बनाना चाहते हैं। बिलकुल स्वाभाविक है।
बांटो! जो तुम्हें लग रहा है ठीक, उसे तुम कहो। पता नहीं किसी को, और को भी ठीक लग जाए।
एक ही बात खयाल रखना। बांटने की आतुरता तो ठीक है, आग्रह ठीक नहीं है। ऐसा किसी की छाती पर मत बैठ जाना कि हमने माना, तुम्हें भी मानना पड़ेगा; क्योंकि तू मेरी पत्नी है, अगर तू मेरी नहीं मानेगी तो बस, ठीक नहीं है, या तू मेरा पति है। आग्रह मत करना, निराग्रह! वह माने या न माने इसकी पूरी स्वतंत्रता देना।
लेकिन तुम्हारे हृदय में भाव उठता है, उसे भी दबाना मत। तुम्हें लगता है सुख, रस प्रतीत होता है, बांटो, उलीचो! जितना उलीच सको, उतना अच्छा है। इससे तुम्हारे हृदय का रस और बढ़ेगा। जितना तुम उलीचोगे, बांटोगे, जितनी आंखों में तुम्हारा रस झलकने लगेगा, उतना तुम्हारा रस भी बढ़ेगा। बस, एक ही बात खयाल रखना, किसी पर थोपना मत। आग्रह मत करना।
और मजे की बात यह है, अगर तुम आग्रह करो, तो तू दूसरा दूर हटता है। अगर तुम निराग्रह भाव से कहो, दूसरा पास आता है। अगर दूसरा यह बात देख ले, कि तुम्हारी कोई आकांक्षा किसी को "कन्वर्ट' करने की, किसी को अपने मार्ग पर लाने की नहीं है, तो दूसरे को तुम्हारे मार्ग पर आ जाना आसान हो जाता है। और जैसे ही तुम दूसरे को अपने मार्ग पर लाने की चेष्टा में रत हो जाते हो,वैसे ही दूसरे में एक प्रतिरोध, एक रेसिस्टेंस खड़ा होता है। उसका अहंकार बचाव करने लगता है।
बांटो जरूर, लेकिन कोई अगर न लेना चाहे, तो जबर्दस्ती किसी के कंठ मत उतारना।
जबर्दस्ती दिया गया अमृत भी जहर हो जाता है। प्रेम, सहजता से, जितना बन सके! इसमें कुछ बुरा मत मानना कि तुम्हारे मन में यह क्यों ऐसी वासना उठती है? यह वासना नहीं, यही करुणा है। वासना का अर्थ है:
जब तक तुम अपने लिए पाना चाहते हो, तब तक वासना। जब तुम दूसरे को बांटना चाहते हो तब करुणा।
साधक के जीवन में करुणा का क्षण भी आएगा। मेरे पास जब तुम पहली दफा आना शुरू होते हो, तब तुम वासना से ही आना चाहते हो, तुम अपने लिए पाना चाहते हो। तुम्हारी खोज स्व-केंद्रित है। लेकिन जैसे-जैसे तुम्हें प्रतीति होगी, जैसे-जैसे तुम्हारा अनुभव बढ़ेगा, जैसे-जैसे तुम थोड़े जागोगे होश सधेगा, वैसे-वैसे तुम्हें लगेगा कि जो तुम्हें मिला है, इसे बांट देना है। यह करुणा का जन्म है।
वासना की ऊर्जा करुणा बन जाती है। इसलिए बांटो! बेफिक्री से बांटो, निश्चिंत होकर बांटो! बस, बांटते वक्त एक ही खयाल सदा रखना, किसी पर बोझ न पड़े।

आठवां प्रश्न: आपने पहले कहा, कि मेरा सारा बोलना मात्र बहाना है। फिर आपका होना क्या है?

अगर वह भी मुझे बोलना पड़े तो वह भी बहाना हो जाएगा। होने को जानना हो, तो बिना बोले ही जानना पड़ेगा। आंख हो, तो मुझे देखो। हृदय हो तो मुझे अनुभव करो।
होने का तो एक ही उपाय है, कि मेरे होने के साथ सत्संग करो। तब मैं क्या कहता हूं, इसकी फिक्र छोड़ो। मैं क्या हूं, उस मौन क्षण में, दो शब्दों के बीच, दो विचारों के बीच जो अंतराल है, दो पंक्तियों के बीच जो खाली जगह है, वहां उतरो।
अगर तुम वह भी मुझसे पूछते हो कि आप का होना क्या है, तो मैं फिर बोलूंगा। उस बोलने में तो बोलना ही होगा, वह बहाना हो जाएगा।
मैं बोलने को बहाना कहता हूं इस कारण, क्योंकि अगर मैं यहां चुप बैठ जाऊं, तो तुम में से दो-चार ही यहां मेरे पास बैठे रहेंगे, बाकी जा चुकेंगे। दो-चार ही यहां बैठे रहेंगे, जो मौन सत्संग करने में समर्थ हो गए हैं। वे तो बड़े प्रफुल्लित होंगे। वे तो कहेंगे, यह बोलने की बाधा थी बीच में, यह भी हट गई। ये शब्द बीच में पर्त बनाते थे, ये भी जा चुके। अब तो सीधा हृदय और हृदय का खालिस मिलन है। अब तो सीधा-सीधा साक्षात्कार हैं।
वे तो बड़े आनंदित होंगे, वे तो बड़े प्रफुल्लित होंगे, लेकिन वे दो-चार होंगे, बाकी जा चुकेंगे। बाकी से मैं बोल रहा हूं। क्योंकि वे जो दो-चार हैं, वे तो मेरे बोलते समय भी मेरे मौन को सुन सकते हैं। वे तो मेरे बोलते समय भी, बोलने को जानेंगे, कि ऊपर सागर की लहरें हैं, और भीतर के सागर की शांति उन्हें सुनाई पड़ती रहेगी। उनको तो कुछ हर्ज नहीं हो रहा है, लेकिन दूसरे जो मेरे मौन को न सुन सकेंगे, न समझ सकेंगे, उनके लिए बहाना है, कि उनके लिए मैं बोलता रहूं। और धीरे-धीरे-धीरे वे भी राजी होने लगेंगे। बोल-बोलकर मैं उन्हें राजी कर लूंगा कि वे मेरे होने को, शून्य को, मौन को समझने में समर्थ हो जाएं।
जिस दिन तुम सब होने को समझने में समर्थ हो जाओगे, मैं बोलना बंद कर दूंगा। कोई जरूरत न रह जाएगी। क्योंकि फिर मुझे जो कहना है, वह सीधा ही कह दिया जाएगा। शब्द के माध्यम का कोई उपाय न रहेगा। लेकिन फिर बहुत जो अभी नहीं, उस होने में डूब सकते हैं, वे वंचित रह जाएंगे।
ऐसा हुआ, बुद्ध की मृत्यु हुई। तो जब तक बुद्ध जीवित थे, किसी ने फिक्र भी न की थी, कि उनके वचनों का संग्रह हो जाए। बुद्ध जीवित थे, किसी को याद भी न आया। फिर अचानक होश हुआ, जैसे एक सपना टूटा। इतने बहुमूल्य वचन खो जाएंगे ऐसे ही। तो संग्रह ही करो।
तो जो जाग चुके थे बुद्ध के समय में बुद्ध के बहुत शिष्य, जो बुद्धत्व को पा चुके थे, उनसे प्रार्थना की गई। उन्होंने कहा, हमने कुछ सुना ही नहीं, कि बुद्ध ने क्या कहा। यह बकवास बंद करो। बुद्ध कभी बोले ही नहीं। इनका तो उनके मौन से संबंध जुड़ गया था। तो उन्होंने कहा, हमने तो सुना ही नहीं, तुम भी क्या बात कर रहे हो? बुद्ध और बोले? कभी नहीं! बुद्धत्व के बाद चालीस साल चुप रहे, हमने तो चुप्पी सुनी।
बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। जिन पर भरोसा किया जा सकता था, जो जाग गए थे, जिनकी वाणी का मूल्य होता, जिनकी रिपोर्ट सही होने की संभावना थी, वे कहते हैं हमने सुना ही नहीं, कहां की बात कर रहे हो? सपने में हो?
उनमें जो परमज्ञानी था एक महाकाश्यप, उसने तो कहा-बुद्ध कभी हुए ही नहीं। किस की बात उठाते हो? कोई सपना देखा होगा!
यह तो द्वार बंद हो गया। जो सर्वाधिक कीमती व्यक्ति था महाकाश्यप, जिसको बुद्ध ने कहा था--जो मैं शब्द से दे सकता हूं, वह मैंने दूसरों को दे दिया महाकाश्यप, और जो शब्द से नहीं दिया जा सकता, वह मैं तुझे देता हूं। उस आदमी ने तो कह दिया, बुद्ध कभी हुए ही नहीं। कौन बोला? किसने सुना? कहां की बातें करते हो?
तब आनंद का सहारा लेना पड़ा। आनंद, बुद्ध के समय में ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ। वह अज्ञानी ही रहा। वह अंधेरे में ही रहा, उसने शून्य को नहीं सुना, उसने शब्द को सुना। लेकिन उसके पास पूरा संग्रह था। उसकी स्मृति ने सब सम्हालकर रखा था। उसने सब बोल दिया, सब संगृहीत कर लिया गया।
अब सवाल यह है, कि अगर आनंद भी ज्ञान को उपलब्ध हो गया होता बुद्ध के जीते, तो बुद्ध के संबंध में तुम्हें कुछ पता भी नहीं हो सकता था। रेखा भी न छूट जाती क्योंकि महाकाश्यप तो यह भी मानने को राजी नहीं कि यह आदमी कभी हुआ!
अज्ञानी आनंद की ही अनुकंपा है, कि बुद्ध के वचन संगृहीत हैं।
तो मेरे मौन को जो समझ सकते हैं, वे तो एक दिन कह देंगे कि यह आदमी कभी हुआ? कहां की बात कर रहे हो? यह कुर्सी सदा से खाली थी। सपना देखा है।
लेकिन जो नहीं मेरे मौन को समझ पा रहे हैं, मेरे शब्द को ही समझ सकते हैं, उनका भी उपयोग है। शायद वे ही उस शब्द की नौका को दूसरों तक पहुंचा देंगे। शब्द की नौका का प्रयोजन तो शून्य के तट पर लगना है। लक्ष्य तो शून्य है। लेकिन लक्ष्य तो मिलेगा, तब मिलेगा। आज तो नौका भी मिल जाए, तो काफी है।

आज इतना ही।


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