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शनिवार, 11 मार्च 2017

कानो सुनी सो झूठ सब--प्रवचन-06



कानो सुनी सो झूठ सब-(संत दरिया)

शून्य-शिखर में गैब का चांदना
प्रवचन : छट्ठवां
दिनांक: १६.७.१९७७
श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्न सार:
1--हरि से लगे रहो रे भाई
2--अष्टावक्र, कृष्णमूर्ति और बोधिधर्म के दर्शन का नामकरण क्या करेंगे?
3--शून्य के शिखर में गैब का चांदना
4--ध्यान से उदभूत नशे को कैसे सम्हालें?


1--पहला प्रश्न: एक प्रचलित पद है--
हरि से लगे रहो रे भाई,
बनत-बनत बनि जाई
क्या ऐसा ही है?

प्रार्थना के दो अंग हैं: एक प्रार्थना और दूसरा प्रतीक्षा। और दूसरा अंग पहले अंग से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। प्रार्थना तो बहुत लोग कर लेते हैं, प्रतीक्षा थोड़े लोग कर पाते हैं। और जो प्रतीक्षा कर पाते हैं। उनकी ही प्रार्थना पूरी होती है। प्रतीक्षा का अर्थ है, मैंने प्रार्थना कर ली। लेकिन मेरी प्रार्थना इसी क्षण पूरी हो ऐसी आकांक्षा नहीं है। पूरी हो ऐसी आशा तो है लेकिन अपेक्षा नहीं। तैयारी हो, धैर्य हो कि अनंत भी प्रतीक्षा करनी होगी तो करेंगे। आज न हो, कल न हो, परसों न हो, इस जन्म में न हो, अगले जन्म में न हो, कितना ही समय बीते, धैर्य न चुका देंगे।
ऐसे अनंत धैर्य से जो प्रार्थना करता है उसकी इसी क्षण भी पूरी हो सकती है। और जिसने अधैर्य किया हो उसकी कभी पूरी न होगी। क्योंकि धैर्य प्रार्थना का प्राण है। जब तुमने प्रार्थना की और धीरज न रखा तो प्रार्थना न रही, मांग हो गई। चूक गए। मांग में वासना है, अधैर्य है, जल्दबाजी है, अभी होना चाहिए। मांग में बचकानापन है। जैसे छोटे बच्चे कहते हैं, अभी, इसी वक्त। आधी रात में खिलौना चाहिए। मांग में प्रौढ़ता नहीं है। मांग में जिद है, हठ है, दुराग्रह है। प्रार्थना में कोई हठ नहीं है, न कोई मांग है, न कोई दुराग्रह है। दुराग्रह तो दूर, प्रार्थना में सत्याग्रह भी नहीं है। क्योंकि सत्याग्रह भी दुराग्रह का ही अच्छा नाम है।
प्रार्थना में आग्रह ही नहीं है, प्रार्थना में केवल निवेदन है, केवल निमंत्रण है। तुमने पाती भेज दी अपनी तरफ से, प्रभु को जब आना हो आए। तुम्हारी पाती इतनी ही खबर देती है कि जब भी प्रभु आए, तुम्हारा दरवाजा खुला होगा। जब भी प्रभु आए, तुम्हारे हृदय के द्वार बंद न होंगे। तुम्हारा हृदय-मंदिर खुला होगा। तुम प्रतीक्षा करोगे। और प्रतीक्षा में बड़ा सुख है। क्योंकि प्रतीक्षा में बड़ी शांति है, अधैर्य में दुख है, अधैर्य में तनाव है, चिंता है। अधैर्य में बेचैनी है, होगा कि नहीं होगा द्वंद्व है। धैर्य का अर्थ ही यही होता है कि होगा। निश्चित होगा। देर कितनी ही हो। और जो देर हो वह भी अन्याय नहीं। वह भी मेरी पात्रता के बनने के लिए समय है। बीज खो दिया, फूटेगा। ठीक ऋतु आने दो, समय पकने दो, बीज फूटेगा, वृक्ष बनेगा। बीज बो देने के बाद पानी सींचते रहो और राह देखो। जल्दबाजी में सब बिगड़ जाए।
इस पद का यही अर्थ है: हरि से लगे रहो रे भाई, बनत-बनत बनि जाई। तुम अपनी तरफ से लगे रहो। तुम अपनी तरफ से हरि का पीछा करते रहो। तुम अपनी तरफ से निमंत्रण भेजते ही रहो अथक। तुम अपनी तरफ से पुकारते ही रहो। तुम्हारी आंखें प्रेम के आंसू गिराती रहें। और तुम्हारे पैर घुंघरू बांधकर प्रेम के नाचते रहें। तुम अपनी तरफ से सब पूरा कर दो। तुम अपनी तरफ से कुछ कमी न करो। तुम अपनी तरफ से रत्ती भर भूल-चूक न करो।
जिस घड़ी भी मौसम पक जाएगा और तुम तैयार हो जाओगे उसी घड़ी घटना घट जाती है। अगर नहीं घट रही है अभी तो  उसका केवल एक ही अर्थ है। शिकायत मत करना, मत कहना कि परमात्मा नाराज है। मत कहना कि मेरे साथ नाराज है। मत कहना कि औरों के साथ घट रहा है, मेरे साथ क्यों नहीं घट रहा? मत कहना कि अन्याय हो रहा है। अगर परमात्मा तुम्हारे साथ नहीं घट रहा तो सिर्फ एक ही अर्थ है, बस केवल एक ही अर्थ है कि तुम अभी तैयार नहीं हो।
तो तैयारी में लग जाओ। अगर आज तुम्हारे द्वार परमात्मा नहीं आया तो तैयारी में लग जाओ। कल घर-द्वार को और झाड़ो, और बुहारो, और साफ करो, दिया जलाओ, धूप जलाओ, फूल लगाओ। कल फिर प्रतीक्षा करो। अगर न आए तो इतना ही समझो कि अभी कहीं थोड़ी भूल-चूक और है। जिस क्षण भी भूल-चूक पूरी हो जाती है, घटना ऐसे घटती है, जैसे सौ डिग्री पर पानी भाप बन जाता है। अगर निन्यानबे डिग्री तक भाप नहीं बना है तो इसका यह मतलब नहीं है कि परमात्मा नाराज है। इसका इतना ही मतलब है कि सौ डिग्री पानी जब तक गर्म न हो तब तक भाप नहीं बनता। थोड़ी और लकड़ियां लगाओ चूल्हे में और थोड़ा ईंधन जलाओ। थोड़े और जोर से पुकारो, थोड़े और पागल होकर उन्मत्त होकर चीखो। थोड़े और दीवाने बनो। गीत और थोड़ा गुनगुनाओ! आता ही होगा।
हरि से लगे रहो रे भाई, बनत-बनत बनि जाई।
बनत-बनत, होते-होते होता है। होता निश्चित है। जो भी उसकी तरफ गए, पहुंच जाते हैं। देर-अबेर। तुम्हारे कदमों की ताकत पर निर्भर है। कैसे तुम चलते हो! दिशा ठीक हो बस इतना ही याद रहे, फिर धीमे चलनेवाले भी पहुंच जाते हैं, जल्दी चलनेवाले भी पहुंच जाते हैं, तेज धावक भी पहुंच जाते हैं। दिशा भर ठीक हो।
और प्रार्थना ठीक दिशा है। गलत हो तो खतरा है। तुम धीमे चलो तो भटकोगे, तेज चले तो और भी ज्यादा भटकोगे। अगर बहुत ही भागने वाले हुए तब तो बहुत निकल जाओगे। दिशा भर ठीक हो। तो प्रार्थना दिशा को ठीक कर देती है। प्रार्थना का अर्थ होता है, समर्पण। प्रार्थना का अर्थ होता है, मेरे किए कुछ न होगा, तू कर। तुमसे गलती हो सकती है, उससे गलती नहीं होती। यह ठीक दिशा हो गई। जब तक तुम करोगे तब तक भूल-चूक हो सकती है। तुमसे भूल-चूक ही होगी। तुमसे और होने की आशा भी कहां है? इस अंधेरे मन को लेकर ठीक कैसे करोगे? इस बुझे दिए को लेकर राह कैसे खोजोगे? संभावना भटक जाने की है, संभावना पहुंचने की नहीं है। प्रार्थना का अर्थ होता है, मेरे किए तो जो हो जाता है गलत हो जाता है। जहां मैं आया वहां गलती हो जाती है। मेरी मौजूदगी गलती की सबूत है। मेरा भाव कि मैं मेरी सबसे बड़ी गलती है।
प्रार्थना का अर्थ है, मैं तो उतार कर रखता हूं। कहता हूं, तुम तू।
जलालुद्दीन की प्रसिद्ध कविता है:
प्रेमी ने प्रेयसी के द्वार पर दस्तक दी
और भीतर से आवाज आई,
कौन है तू?
और उसने कहा,
मैं अरे! पहचानी नहीं?
मेरी आवाज नहीं पहचानी?
लेकिन फिर भीतर सन्नाटा हो गया, कोई उत्तर न आया। बहुत द्वार पर उसने सिर पीटा लेकिन फिर पीछे से कोई प्रश्न भी नहीं पूछा गया। घर में जैसे कोई हो ही न। जब बहुत चीखा-चिल्लाया तो भीतर से इतनी ही आवाज आई, इस घर में दो न समा सकेंगे। यह प्रेम का घर है, यहां दो न समा सकेंगे।
प्रेमी समझा। तीर लग गया है हृदय पर। चला गया वनों में। कई चांद आए और गए। कई सूरज उगे और मिटे। वर्ष पर वर्ष बीते। उसने अपना मैं गलाया मिटाया, पिघलाया। जिस दिन उसका मैं बिलकुल पिघल गया, जिस दिन नाम मात्र भी न रहा, जिस दिन उसने भीतर झांककर देख लिया और परम शून्य को विराजमान पाया, जिसमें कि कोई धुन न उठती थी। आया, द्वार पर दस्तक दी।
फिर वही प्रश्न:
कौन है?
अब प्रेमी ने कहा, अब कौन? तू ही है।
और द्वार खुल गए।
यह रूमी की छोटी सी कविता, भक्त की सारी भावदशा है।
अगर तुम्हारी प्रार्थना में मैं का स्वर है तो द्वार-दरवाजे बंद रहेंगे परमात्मा के। लाख सिर पटको, मैं के लिए द्वार न कभी खुला है, न कभी खुलेगा। मैं ही तो ताला है उस द्वार पर। तुम्हारा मैं उसके द्वार पर ताला है। और परमात्मा तुम्हारे मैं को नहीं खोल सकता। ताला तुम लगाते हो, तुम ही खोल सकोगे और तुम्हारा मैं हट जाए, तुम्हारे मैं का ताला गिर जाए तो द्वार खुला है। कभी बंद नहीं था। तुम्हारी आंख पर ही पर्दा है, परमात्मा पर कोई पर्दा नहीं।
लोग सोचते हैं परमात्मा कहीं छिपा है। तुम आंख बंद किए खड़े हो। यह तुम्हारा मैं तुम्हारे चारों तरफ एक काली दीवार बन गया है। प्रार्थना का अर्थ है, मैं गिर जाए, यह भाव मिट जाए कि मेरे किए कुछ हो सकेगा। मेरे किए तो जो हुआ है, सब गलत हुआ है। मेरे किए तो संसार हुआ। मेरे किए तो देह बनी। मेरे किए तो जाल फैले। मेरे किए तो वासना उठी। मेरे किए तो कर्म का बहुत जंजाल फैला। मेरे किए जो भी हुआ, गलत हुआ। मेरे किए सारी चिंता और संताप, पीड़ा और पागल पन पैदा हुए।
प्रार्थना का अर्थ है, अब ऊब गया हूं इस मैं से और मेरे करने से। अब कहता हूं, तू कर--प्रार्थना का सारभूत। प्रार्थना काम मतलब नहीं कि तुम अल्लाह-अल्लाह पुकारो कि राम-राम पुकारो। वे तो गौण बातें हैं। न भी पुकारें, चुप्पी में भी हो जाएगी प्रार्थना। मगर एक मूल बात है कि मैं को उतारकर रखो। फिर न भी पुकारे तो पुकार पहुंच जाती है। और मैं के रहते लाख पुकारते रहो तो भी पुकार पुकार नहीं पहुंचती।
और जब तुम रहे ही नहीं तो जल्दबाजी कैसी? जल्दबाजी किसकी? फिर कौन अधैर्य करेगा? और कौन कहेगा कि जल्दी हो जाए? यह भी मैं भी अपेक्षा है कि जल्दी हो जाए। मैं डरा हुआ है कि समय न निकल जाए। क्योंकि मैं का समय बंधा हुआ है। मैं शाश्वत नहीं है, क्षणभंगुर है। इसलिए मैं बहुत समय के बोध से भरा हुआ है। मैं हटा कि फिर तो जो बचा, वह शाश्वत है। फिर कोई जल्दी नहीं है। आज हो, कल हो, सब बराबर है। अनंत काल में कभी भी हो, सब बराबर है। फिर जो समय की आपा-धापी है, वह जो घबड़ाहट है कि समय बीता जा रहा है, कहीं ऐसा न हो कि मैं मर ही जाऊं और यह घटना न घटे...।
कल मैं एक कविता पढ़ रहा था,
तही है बहकते हुओं का इशारा
तू ही है सिसकते हुओं का सहारा
तू ही भटके-भूलों का है ध्रुव का तारा
जरा सींकचों में समा दिखा जा
मैं सध खो चुकूं उससे कुछ पहले आजा
आओ तुम अभिनव उल्लास भरे
नेह भरे, ज्वार भरे, प्यास भरे
अंजली के फूल गिर जाते हैं
आए आवेश फिरे जाते हैं
जरा सींकचों में समा दिखा जा
मैं सुध खो चुकूं उससे कुछ पहले आ जा
मैं को बड़ी जल्दी है। मैं तो डर यही है कि मौत आई जाती है। और मैं की मौत निश्चित है। मैं का होना चमत्कार है, मैं की मौत तो बिलकुल स्वाभाविक है। मैं को कैसे संभाले हो यही चमत्कार है, मैं की मौत तो बिलकुल स्वाभाविक है। मैं को कैसे संभाले हो यही चमत्कार है। मैं गिरा-गिरा, अभी गिरा। किसी भी क्षण गिर जाएगा। यह तो कभी भी टूटने को तत्पर है। इसे संभालने के लिए सारा जीवन लगाना पड़ता है फिर भी यह संभल तो पाता नहीं, एक दिन गिर ही जाता है। मौत इसी को होती है।
मैं की चूंकि मौत होनेवाली है इसलिए मैं समय से बहुत घबड़ाया हुआ है। मैं को समय का बड़ा बोध है। जल्दी हो जाए, अभी हो जाए, इसी क्षण हो जाए। तुम्हें क्या डर है?  मैं को जरा हटाकर जरा अपनी शक्ल तो पहचानो। मैं को जरा हटाकर अपना रूप तो देखो। तुम शाश्वत हो। तो कभी मिले, अनंत काल में मिले तो भी अभी मिला। देर होती ही नहीं फिर। इसलिए प्रार्थना का अनिवार्य अंग है। प्रतीक्षा। अनंत धैर्य से भरी प्रतीक्षा।
हरि से लगे रहो रे भाई, बनत-बनत बनि जाई।

दूसरा प्रश्न: आपने कहा कि दो ही मार्ग हैं, ध्यान और भक्ति। ध्यान में प्रयत्न निहित है और भक्ति में प्रसाद। इस संदर्भ में अष्टावक्र, बोधिधर्म और कृष्णमूर्ति के दर्शन को क्या कहेंगे, जो कोई भी अनुष्ठान नहीं बताते?

सत्य को जानने, सत्य में जागने के दो ही मार्ग हैं: भक्ति और प्रेम। फिर स्वभावतः प्रश्न उठता है कि अष्टावक्र तो कहते हैं कोई मार्ग नहीं। बोधिधर्म भी कहता है, कोई मार्ग नहीं। कृष्णमूर्ति भी कहते हैं, कि कोई मार्ग नहीं।
जो वे प्रस्ताविक करते हैं, अमार्ग है। उसकी गिनती मार्ग में नहीं हो सकती। अमार्ग से भी पहुंचा जाता है। मगर वह अमार्ग है। मार्ग तो दो हैं: भक्ति और ध्यान। अमार्ग एक है। अमार्ग को भी समझ लेना चाहिए। वह भी बात तो बड़ी गहरी है, बड़े काम की है।
बोधिधर्म, अष्टावक्र और कृष्णमूर्ति का जोर यह है कि तुम परमात्मा से कभी बिछड़े नहीं। तुम कभी दूर गए नहीं। इसलिए उसे तुम किसी मार्ग से खोजने चलोगे तो कैसे पाओगे? तुम तो वहां हो ही। इसलिए तुम अगर सब खोज छोड़ दो तो पहुंच गए। खोज के कारण भटक रहे हो। क्योंकि खोज का मतलब ही हुआ कि कहीं दूर है। खोजते हम उसी को हैं, जो दूर है। खोजते हम पर को। खोज का मतलब ही होता है, दूसरे की खोज। अपने को तो हम खोज नहीं सकते। कहां खोजेंगे? कहां जाएंगे खोजने? स्वयं तो हम हैं ही। इसमें यह भी एक संभावना है; मगर  यह दुरूहतम संभावना है। प्रेम और भक्ति से सुगमता से बात हल होती है। ध्यान थोड़ा उससे कठिन है; अमार्ग और भी कठिन। सरल दिखाई पड़ता है, इससे चूक में न पड़ना। सरल दिखाई ही इसीलिए पड़ता है कि बहुत कठिन है। जितना सरल  हो उतना ही कठिन है। कठिन को हल किया जा सकता है, सरल को हल करना बहुत मुश्किल हो जाता है। बात सच है कि तुम जहां हो वहीं परमात्मा है। तुम जैसे हो वैसा ही परमात्मा है। इसलिए अब कहीं जाना नहीं है।
हम सुनते हैं, वचन प्रसिद्ध है, जिन खोजा तिन पाइयां। जिसने खोजा उसने पाया। अगर पूछोगे बोधिधर्म से बोधिधर्म कहेगा, जिन खोजा तिन खोया। क्योंकि खोजने का मतलब है, कहीं गए। कहीं गए तो दूर गए। दोनों सच हैं। लेकिन बोधिधर्म की बात समझना तभी संभव है जब खूब-खूब खोजा हो और न पाया हो। जब खोज-खोज कर थक गए हो और न पाया हो। जब खोज आखिरी कर ली हो जितनी कर सकते थे, अहंकार जितनी दौड़ ले सकता था ले ली हो और फिर थका-हारा गिर पड़ा, उसी क्षण मिल जाता है। मिलता तो उसी क्षण है, जब तुम नहीं होते।
अब तुम कैसे नहीं होओगे, इसकी ये दो विधियां हैं। या तो तुम प्रेम में गल जाओ, नहीं हो जाओगे; या तुम ध्यान में बिखर जाओ, नहीं हो जाओगे। या फिर इतनी समझदारी हो जिसको कृष्णमूर्ति अंडरस्टेंर्डिग कहते हैं, इतनी प्रज्ञा हो कि न प्रेम की जरूरत हो, न ध्यान की जरूरत हो। सिर्फ बोध में यह बात सिर्फ समझ ली जाए और घटना घट जाए। कठिन हो गई बात। बोध इतना होता तो घट ही गई होती।
इसीलिए तो कृष्णमूर्ति को बैठे लोग सुनते रहते हैं, कहीं पहुंचते इत्यादि नहीं। और बात कृष्णमूर्ति ठीक ही कहते हैं, सो टका ठीक कहते हैं। शायद सौ टका ठीक है इसलिए चूक हो जाती है। लोग अभी वहां है जहां एक टका बात समझ में मुश्किल से आया। तुम सौ टका बात कहे चले जाते हो। लोगों पर ध्यान दो। वहां से बात करो जहां लोग खड़े हैं। तुम वहां से बात कर रहे हो जहां तुम हो। बोधिधर्म वहां से बोलता है जहां स्वयं है। अष्टावक्र वहां से बोलते हैं जहां स्वयं है। सुननेवाले की चिंता नहीं करते।
अगर में वहां से बोलूं जहां मैं हूं, फिर मैं तुम्हारे किसी काम का नहीं। फिर मेरे तुम्हारे बीच इतना फासला हो जाएगा कि तुम सीढ़ी न लगा सकोगे। अनंत दूरी हो जाएगी। मुझे वहां से बोलना है जहां तुम हो। धीरे-धीरे तुम्हें सरकाना है, फुसलाना है। किसी दिन वहां ले आना है। जहां मैं हूं। लेकिन अगर मैं वही कहूं जहां मैं हूं तो तुम्हारे लिए बेबूझ हो जाएगा। कितने लोग अष्टावक्र को समझ पाए, कितने लोग? कृष्ण की गीता ज्यादा लोगों तक पहुंची। करोड़ों जनों तक पहुंची। अष्टावक्र की गीता क्यों नहीं पहुंची? कृष्ण की गीता से सुनने वाले की स्थिति का ख्याल है। आदमी कहां खड़ा है, वहां से शुरू करो। वहीं से उसकी यात्रा होगी। अष्टावक्र को इसकी फिक्र नहीं है।
तो कोई जनक समझ लिया बात, ठीक है। लेकिन जनक कितने हैं? एक आदमी मिल गया यह भी चमत्कार है। कृष्णमूर्ति को अभी तक एक भी जनक नहीं मिला। मिल सकता नहीं। उसके कारण हैं। अष्टावक्र को भी कैसे मिला, यह भी जरा संदिग्ध है। मिला कि सिर्फ कहानी है। क्योंकि जो जनक होने की क्षमता रखता हो, वह बिना अष्टावक्र के पहुंच जाएगा। जनक होने की क्षमता का अर्थ ही यह है कि निन्नयाबे डिग्री पर उबल रहा है आदमी। वह तो ही तो समझ सकेगा सौ डिग्री के पार की बात। उसके लिए करीब एक कदम बात हो जानेवाली। शायद एक कदम भी नहीं, जरा सी चहलकदमी, जरा सी गति, जरा सा धक्का! वह किनारे पर खड़ा है; खाई-खड्ड के बिलकुल किनारे पर खड़ा है, जरा सा हवा का झोंका काफी है। न भी आता हवा का झोंका तो वह खुद भी कूद जाता। सामने ही खड़ा था परमात्मा। परमात्मा सामने ही फैला था। अष्टावक्र न भी मिलते तो जनक पहुंच जाते।
अष्टावक्र उसके काम के हैं जिसको न भी मिलता तो पहुंच जाता। तो बड़े काम के नहीं हैं। वक्तव्य बहुत महान है। लेकिन काम का नहीं, उपयोगी नहीं। कृष्ण अर्जुन की बात बोल रहे हैं, अर्जुन जहां खड़ा है। इसलिए अष्टावक्र की गीता में पुनरुक्ति है। पुनरुक्ति ही पुनरुक्ति है क्योंकि वह एक ही बात है। बोलने को। एक ही डिग्री का मामला है। वह एक ही बात बोले चले जाते हैं। फिर-फिर दोहराते हैं, फिर-फिर दोहराते हैं। खुद भी वही दोहराते हैं शिष्य भी वही दोहराता है। अष्टावक्र की पूरी गीता एक पृष्ठ में लिखी जा सकती है, एक पोस्टकार्ड पर लिखी जा सकती है। क्योंकि जो अष्टावक्र कह रहे हैं, वही जनक दोहराते हैं। फिर जनक दोहराते हैं, फिर अष्टावक्र दोहराते हैं। वह सिर्फ दोहराना है। बार-बार दोहराना है। क्योंकि कुछ और तो कहने को है नहीं। एक ही सत्य है वहां। उसी एक सत्य को बार-बार कहना है।
कृष्ण बहुत सी बातें कहते हैं--ज्ञान की, भक्ति की, कर्म की। कृष्ण सारे मार्गों की बात कहते हैं। क्योंकि अर्जुन ऐसे बिबूचन में पड़ा है। इसको पक्का पता नहीं कि यह कहां खड़ा है? यह बीच बाजार में खड़ा है, जहां से बहुत रास्ते निकलते हैं। सभी रास्ते इसको समझाते हैं। यह नहीं जंचा दूसरा समझाते हैं। किसी भी रास्ते से आ जाए। कृष्ण को इसकी कोई चिंता नहीं कि किस रास्ते से आता है। कृष्ण का किसी मार्ग से कोई मोह नहीं है। और कृष्ण को यह फिक्र नहीं है कि मैं जहां खड़ा हूं वह बात इसे आज समझ में आ जाए। यह अपेक्षा जरा ज्यादा है।
इसलिए कृष्णमूर्ति को तुम पाओगे, बड़े बेचैनी में हैं। समझाते-समझाते थक गए हैं। पचास साल से समझा रहे हैं। बोलते-बोलते सिर पीट लेते हैं। क्योंकि दिखाई ही नहीं पड़ता कि किसी को समझ में आ रहा है कि नहीं आ रहा। यही लोग बैठे सुन रहे हैं। उनमें कई पचास साल से सुनने वाले भी हैं, जो कृष्णमूर्ति जैसे बूढ़े हो गए हैं। उनको सुनते-सुनते बूढ़े हो गए हैं। और फिर भी कुछ क्रांति नहीं घटी।  पचास साल में बड़ी यात्रा हो सकती थी। लेकिन बात वहां से शुरू होनी चाहिए, जहां आदमी खड़ा हो।
तो अमार्ग का मार्ग तो करोड़ में एक-आधा के लिए हैं। इसलिए उसको मार्ग भी क्या कहना?
चीनी कथा है कि लाओत्से ने एक बार अतीत साहित्य और समृद्धि की बहुत चर्चा करने के लिए कनफ्यूशियस का मजाक उड़ाया था। कंफ्यूशियस उसे मिलने आया था। लाओत्से ने उससे कहा था, तुम्हारे सारे प्रवचन वस्तुओं से संबद्ध हैं जो धूल में छोड़े गए चरण-चिह्नों से ज्यादा नहीं। और जानते हैं कि चरण-चिह्न जूतों से बनते हैं लेकिन वे जूते ही नहीं होते? कहते हैं, लाओत्से की हंसी की आवाज गूंजती ही रही सदियों में। कंफ्यूशियस कुछ जवाब भी नहीं दे सका था।
लाओत्से के लिए तो जो भी वास्तविक मार्ग है--अमार्ग कहें--वह ऐसा है, जैसा आकाश में पक्षी उड़ते हैं, कोई चरण-चिह्न नहीं छोड़ते। पक्षी उड़ जाता है, कोई रेखा नहीं छूट जाती। कोई मार्ग नहीं बनता है। जमीन पर चलने जैसा नहीं है सत्य, आकाश में उड़ने जैसा है।
जमीन पर तो मार्ग बनता है। तुम चलोगे तो मार्ग बनता है, पगंड्डी बनती है। कई लोग गुजरेंगे तो मार्ग और सघन हो जाता है। मार्ग बनता है। इतने भक्त गुजरे हैं, अनंत काल में तो भक्ति का एक मार्ग बन गया है। इतने ध्यानी हुए हैं अनंत काल में कि ध्यान का एक मार्ग बन गया है। लेकिन ये अष्टावक्र, बोधिधर्म, लाओत्से, कृष्णमूर्ति, इनका कोई मार्ग नहीं। वे कहते हैं आकाश में उड़ने जैसा है सत्य। ठीक है, मगर आकाश में उड़ने वालों के लिए ठीक है।
जो अभी जमीन पर चल रहे हैं, इनके संबंध में क्या? चल भी नहीं रहे हैं, जो जमीन पर घसिट रहे हैं, इनके संबंध में क्या? जिन्होंने जमीन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं जाना, इनके संबंध में क्या? जिनको अपने पंखों का पता ही नहीं है, इनके संबंध में क्या? इनको बहुत दूर आकाश दिखाई दे भी जाए तो भी सिर्फ ये तड़फेंगे, उड़ न सकेंगे। इन्हें पता ही नहीं इनके पास पंख हैं। इनके पंखों को धीरे-धीरे जगाना होगा। सोए पंखों को धीरे-धीरे जगाना होगा। इनके सोए पंखों को धीरे-धीरे उकसाना होगा। इन्हें धीरे-धीरे राजी करना होगा। क्रमशः धीरे-धीरे, इनकी हिम्मत बढ़ जाए। पंख इनके पास हैं, परमात्मा इनके पास है, अगर ये आंख खोल सके तो अभी पास हैं। मगर आंख ही नहीं खोलते, वही तो झंझट है। आंख तो भींचे हुए बैठे हैं। इन्हें धीरे-धीरे राजी करना होगा। आहिस्ता-आहिस्ता ये आंख खोलें।
कहते हैं कबीर जब युवा थे तब भी घटना है। कुछ लोग उनसे ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग पूछने आए थे। वे बौद्धिक रूप से उसके रहस्यमय पथ के संबंध में मार्ग-निर्देश चाहते थे। रवींद्रनाथ ने इस पर टिप्पणी की है। रवींद्रनाथ ने लिखा है, कबीर ने इतना ही कहा, मार्ग दूसरी को प्रस्तावित करता है। समझना। मार्ग दूरी को प्रस्तावित करता है, पर वह यदि निकट हो तो कोई भी मार्ग आवश्यक नहीं। सच, मुझे बहुत हंसना आता है कि मछली सागर में ही प्यासी है।
पाथ प्रिसपोजेज डिस्टेंस,
इफ ही बी नियर, नो पाथ बीडेथ दाउ एप आल
बेरिली इट मेकेथ मी स्माइल, टू हियर ऑफ ए
फिश इन ए वाटर एथर्स्ट।
मार्ग का मतलब ही है कि दूर। मार्ग दूरी को प्रस्तावित करता है। अगर पास ही पास ही है तो कैसा मार्ग? और अगर तुम ही हो तो इंच भर फासला नहीं, तो मार्ग कहां बनाओगे? जो जितना तुम चलोगे उतने भटक जाओगे।
बात बिलकुल तर्कयुक्त है कि जितना चलोगे उतना भटक जाओगे। चलो मत, जागो। होश जगा लो। जहां हो वहीं दिया जला लो। और सब हो जाएगा। लेकिन यह बात तुम्हारे कानों पर ऐसे पड़ेगी, जैसे बहने कानों पर पड़ी। यह बात कुछ अर्थ न रखेगी। सुन भी लोगे, तो भाषा समझते हो तो समझ भी लोगे, मगर फिर इससे कुछ द्वार न खुलेगा।
भक्त कहता है अभी तो दूरी है।
जब जागोगे तो पाओगे, कोई दूरी न थी।
अभी तो दूरी है। अभी तो बड़ी दूरी है। अभी तो अनंत दूरी है। माना कि अनंत दूरी झूठ है, लेकिन अभी है। झूठ ही सही, अभी है।
तुम अगर डरे हुए हो तो तुम भला झूठे भूत से डरे हुए हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? भय तो सच्चा है। एक अंधेरी रात में तुम एक मरघट से गुजरते हो। तुम डरे हुए हो कि भूत-प्रेत सताएंगे। भूत-प्रेत कोई भी नहीं है। हो सकता है मरघट मरघट ही न हो, सिर्फ तुम्हें खयाल है; या किसी ने मजाक कर दिया है कि जरा संभल कर निकलना, रास्ते में मरघट है, लेकिन तुम्हें खयाल आ गया, इधर भूत हैं, अब तुम डरे हुए हो। अब जरा पत्ता खड़कता है तो तुम्हें लगा कि आया भूत। जरा कुत्ता निकल जाता है, पक्षी फड़फड़ाता है, तुम्हें लगा आ गया। तुम भागने लगे। तुम्हारी छाती धड़क रही है, तुम्हारे हाथ-पैर कांप रहे हैं, तुम पसीने से तरबतर हो। तुमने होश खो दिया है एक पत्थर से चोट खा गए, समझा कि गए! गिर पड़े कि बेहोश ही हो गए।
भूत झूठ है, सच; लेकिन यह जो तुम्हें घट रहा है, यह पसीना बहना और छाती की धड़कन और यह होश खो देना, यह तो सब सच है। भूत झूठ हो कि सच इससे क्या फर्क पड़ता है? जो घट रहा है वह तो सच है। इसलिए असली सवाल यह नहीं कि भूत है या नहीं। अब कोई आदमी वहां तुम्हें समझाए कि तुम व्यर्थ ही परेशान हो रहे हो, भूत है ही नहीं। तो तुम इस बात को सुन भी लो तो समझ न पाओगे। तुम्हारे लिए कोई उपाय चाहिए। तुम्हारे लिए कोई उपाय चाहिए जो झूठे भूतों से तुम्हें मुक्त करा दे। माना कि उपाय भी झूठा होगा। क्योंकि झूठ केवल झूठ से कटता है। झूठ को काटने के लिए की जरूरत नहीं होती। झूठ केवल झूठ से कट जाता है। लेकिन अभी काटने के लिए कोई उपाय चाहिए होगा। और एक बार कट जाए झूठ तो तुम भी समझ लोगे कि मरघट भी नहीं है, भूत भी नहीं है। मैं व्यर्थ ही घबड़ा रहा था। घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है। तब तुम भी हंसोगे। तुम भी राजी हो जाओगे कि बात तो ठीक थी, सब झूठ का ही जाल था।
भक्ति और ध्यान मनुष्य के प्रति ज्यादा करुणापूर्ण हैं। अमार्ग की बात करुणापूर्ण नहीं है। सत्य तो है लेकिन करुणा नहीं है, दया नहीं है। बड़ी कठोर है। इसलिए कृष्णमूर्ति कठोर मालूम होंगे। इसलिए कृष्णमूर्ति गुरु नहीं हो सके। इतनी कठोरता से गुरु नहीं हुआ जा सकता।
गुरु के लिए अपार करुणा चाहिए। इतनी करुणा चाहिए कि वह उन घाटियों में चला जाए जहां उसके शिष्य भटक रहे हैं। इतनी करुणा चाहिए कि उन्हीं अंधेरे रास्तों पर पहुंच जाए जहां उसके शिष्य भटक रहे हैं। उनका हाथ पकड?, उन्हें वापिस पहाड़ के शिखर की तरफ ले चलने लगे रास्ता कठिन होगा। और शिष्य इंकार करेंगे ऊपर चढ़ने से। हर तरह की बाधाएं डालेंगे। बार-बार वापिस खाई खड्ड में भाग जाना चाहेंगे। बार-बार उसे लौटकर आना होगा। बार-बार उनका हाथ पकड़ना होगा। शिष्य उसे कभी क्षमा नहीं करेंगे। क्योंकि उनके वह नाहक पीछे पड़ा है। वे मजे से सो जाना चाहते हैं, वह जगा रहा है। वे संसार में थोड़ा और रस ले लेना चाहते हैं और वह उन्हें विरस किए दे रहा है। वे चाहते थे कि घर-गृहस्थी बना लें और वह सब उजाड़े दे रहा है। अभी तो उनको यह ऐसा लगेगा कि यह दुश्मन है। शिष्यों को गुरु दुश्मन जैसा मालूम होगा। और गुरु है कि लौट-लौट कर आएगा और उन्हें वापिस ले चलने लगेगा।
एक आदमी वह भी है, जो पहाड़ के शिखर पर पहुंच गया, वहां से खड़े होकर चिल्ला देता है कि घाटी के लोगों, सुन लो बात ऐसी है, सत्य ऐसा है। मगर घाटी के लोग बहुत दूर हैं, वहां तक न तो आवाज पहुंचती है, और आवाज भी पहुंच जाए तो अर्थ नहीं पहुंचता। और अर्थ तो पहुंच ही कैसे सकता? क्योंकि वे तो तुम्हारे शब्दों का जो अर्थ करेंगे वह उनका ही होगा; वह अर्थ घाटी का होगा, वह शिखर का नहीं हो सकता। उन्होंने शिखर कभी देखा नहीं। शिखर की भाषा से वे परिचित नहीं हैं।
इसलिए मार्ग तो दो ही हैं: भक्ति और ध्यान। अमार्ग एक और है। अगर तुम अमार्ग को भी मार्ग में गिनना चाहो तो तीन मार्ग गिन लो। मगर वह चूंकि अमार्ग है इसलिए मैं उसकी गिनती नहीं करता। और चूंकि कभी कोई उससे पहुंचता है, उसको छोड़ा जा सकता है। उसका हिसाब रखने की कोई जरूरत नहीं। और जो उससे पहुंचता है वह ऐसा बिरला व्यक्ति है कि उसको हम अपवाद मान ले सकते हैं। नियम बनाने की जरूरत नहीं।
अमार्ग के मार्ग पर गुरु नहीं होता। अमार्ग के मार्ग पर कोई विधि नहीं होती। अमार्ग के मार्ग पर यह पूछना कि कैसे करें, गलत प्रश्न पूछना है। अमार्ग के मार्ग पर प्रश्न ही पूछना गलत है। क्योंकि अमार्ग का मार्ग तो यह मानकर चलता है कि तुम वहां हो ही। बस आंख खोलो और देख लो। और बात सच है। बात जरा भी गलत नहीं है। मगर करुणा शून्य है। जरा भी भाव-भीनी नहीं है। रूखी-सूखी है--मरुस्थल जैसी।
भक्ति भी वहीं पहुंचती है लेकिन तुम पर दशा करती है। धीरे-धीरे।
मैंने सुना है कि जंगल में लोमड़ियां एक तरह का प्रयोग करती हैं। वही भक्ति और वही ध्यान का प्रयोग है। लोमड़ी के ऊपर कभी-कभी मधुमक्खी बैठ जाती है, या मक्खियां बैठ जाती हैं। उनसे कैसे छुटकारा पाए? मुंह हिलाती है तो वे पीछे बैठ जाती हैं, पूंछ पकड़ लेती हैं। पूंछ हिलाती है तो सिर पर बैठ जाती है। सिर और पूंछ दोनों हिलाए तो बीच में बैठ जाती हैं। भागे तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। वे मक्खियां बैठी रहती हैं। उसके ऊपर उड़ती हैं। वे उसे बड़े कष्ट में डाल देती हैं।
तो लोमड़ी क्या करती है? जिन लोगों ने लोमड़ियों का अध्ययन किया है वे कहते हैं, वह बड़ी कुशलता का काम करती है। वह क्या करती, नदी में या तालाब में उतर जाती। उलटी उतरती--पूंछ की तरफ से पहले। पहले पूंछ डूब जाती पानी में तो मक्खियां उसकी पूंछ छोड़ देती। फिर उसकी पीठ डूब जाती तो मक्खियां उसकी गर्दन भी छोड़ देती। और भी लोमड़ी बड़ा होशियारी का काम करती है, एक पत्ता मुंह में पकड़ लेती है। फिर वह और बिलकुल डुबने लगी तो उसका सिर भी डूबने लगा। तो वे सारी मक्खियां उसकी नाक पर आ जातीं। फिर आखिरी झपके में वह अपनी नाक को भी डुबकी मार देती है। तो सारी मक्खियां पत्ते पर आ जाती हैं। वह पत्ते को छोड़ देती है। पत्ता नदी में बह जाता है।
क्रमशः, धीरे-धीरे एक-एक कदम। घटना तो एक ही क्षण में घटती है यह सच है। क्योंकि जब तक मक्खियां उसकी नाक पर बैठी हैं तब तक सब मक्खियां बैठी हैं। पूंछ पर नहीं हैं, पीठ पर नहीं हैं मगर लोमड़ी पर तो है ही। अभी नाक पर बैठी है। अभी मक्खी एक भी गई नहीं है। आखिरी क्षण तक भी सब मक्खियां उस पर बैठी हैं। जाती तो एक ही क्षण में हैं। जब वह आखिरी डुबकी मारती है, एक क्षण में पत्ते पर सारी मक्खियां हो जाती हैं और पत्ता बह जाता है, मक्खियों को ले जाता है। क्रमशः नहीं घटती बात। यह याद रखना।
यह मत सोचन कि भक्त क्रमशः भगवान के करीब आता है। और यह मत सोचना कि ध्यानी क्रमशः समाधि के करीब आता है। नहीं, घटना तो आकस्मिक ही है। घटना तो अनायास ही है। घटना तो एक क्षण में ही घटती है। मगर घटना की तैयारी क्रमिक होगी। इस भेद को ठीक से समझ लेना। अमार्ग के मार्गी कहते हैं कि एक क्षण में घटती है। ठीक कहते हैं, एक ही क्षण में घटती है। मगर तैयारी...तैयारी में कभी वर्षों लगते हैं, कभी जन्म भी लग जाते हैं।
और यह ध्यान रखना कि जब तक घटी नहीं है तब तक जिसने तैयारी की है और जिसने तैयारी नहीं की है, दोनों एक से ही अंधकार में खड़े हैं। मगर जिसने तैयारी की है वह निन्नयानबे डिग्री पर उबल रहा हो, और जिसने तैयारी नहीं की है, वह हो सकता है चालीस डिग्री उबल रहा हो, कि तीस डिग्री पर, कि कुनकुना मात्र हो कि अभी ठंडा ही हो अभी बर्फ ही हो। कोई भी नहीं अभी भाप बना है। लेकिन जो निन्नयानबे डिग्री के पास आ गया है वह भाप बनने के करीब है। भाप तो एक क्षण में बनेगी। सौ डिग्री--और छलांग।
भक्त भी जानते हैं कि छलांग ही लगती है। मगर छलांग की वे बात नहीं करते। वे कहते हैं वह तो जब लगनी है, लग जाएगी। उसकी क्या बात करनी! तुम तैयारी तो करो। तुम मक्खियों को धीरे-धीरे धीरे-धीरे नाक तक तो ले आओ कि फिर पत्ता ही बचे उनको बचने के लिए। फिर पत्ते को छोड़ देना, जैसे ही वे पत्ते पर छलांग लगा जाएं, एक क्षण में मुक्त। मक्खियों से छुटकारा हो जाए।

तीसरा प्रश्न: शून्य के शिखर में गैब का चांदना
वेद कितेब के गम नाहीं
खुले जब चश्म, हुस्न सब पश्म हैं
दिन और दूनी से कम नाहीं
शब्द को कोट में चोट लागत नाहीं
तत्व झंकार ब्रह्मांड माही
कहत कमाल कबीर जी को बालका
योग सब भोग त्रिलोक नाहीं
पूछा है नानक देव ने।
प्यारे वचन हैं। अर्थपूर्ण वचन हैं। समझो।
शून्य के शिखर में गैब का चांदना।

वह जो रहस्य का चांद है--गैब का चांदना। वह जो परम रहस्य की ज्योति है, वह शून्य में जल रही है। अगर उस परम रहस्य में उतरना है तो शून्य में उतरना पड़े। शून्य के शिखर में। शून्य के शिखर पर चढ़ना पड़े। अहंकार की घाटी छोड़नी पड़े। यह अहंकार के अंधेरे, खाई खड्ड छोड़ने पड़ें। शून्य के शिखर पर उठना पड़े। धीरे-धीरे मिटना है। जो मिटना है वही परमात्मा को पाने का अधिकारी होता है।
शून्य के शिखर में गैब का चांदना
वेद कितेब के गम नाहीं
वहां न वेद जाते हैं, न किताब जाती है। वहां इनकी गति नहीं है। वह तो अगम है। वहां किसी की गति नहीं है। वहां तुम भी नहीं जा सकते। वहां कोई नहीं जा सकता। वहां तो जब शून्य हो जाते हो तब जाते हो। शून्य ही जाता है शून्य की ही गति है शून्य में।
परमात्मा के पास वही पहुंचता है जो सब भांति मिट गया। जिसने अपने को बचाया ही नहीं। जिसने बचाने के सारे आयोजन छोड़ दिए। सुरक्षा के सारे उपाय छोड़ दिए। परमात्मा में पहुंचना एक तरह आत्मघात है। असली आत्मघात! जिसको तुम आत्मघात कहते हो वह तो शरीर-घात है। उसमें तो आदमी का शरीर मर जाता है। दूसरा शरीर हो जाएगा। आत्मघात नहीं है वह। उसको आत्मघात नहीं कहना चाहिए। आत्मघात तो समाधि में घटता है। जब तुम बिलकुल ही मिट गए। बचे ही नहीं। रूपरेखा भी नहीं रही।
शून्य के शिखर में गैब का चांदना
वेद कितेब के गम नाहीं
वहां शब्द नहीं जाते। वहां सिद्धांत नहीं जाते। वहां शास्त्र नहीं जाते। वहां हिंदू-मुसलमान ईसाई की तरह तुम न जा सकोगे। वहां हिंदुस्तानी-चीनी-जापानी की तरह तुम न जा सकोगे। वहां गोरे और काले की तरह तुम न जा सकोगे। वहां स्त्री-पुरुष की भांति तुम न जा सकोगे। वहां जवान बूढ़े की तरह तुम न जा सकोगे। वहां ज्ञानी-अज्ञानी की भांति तुम न जा सकोगे। जब तक तुमने कोई भी अपनी परिभाषा पकड़ रखी है, कोई भी तुमने सीमा बांध रखी है, तुम जानोगे ही नहीं कि मैं हूं, ऐसा शून्य तुम्हारे भीतर जगमगाएगा, थर-थराएगा जब तुम जा सकोगे।
खुले जब चश्म हुस्न सब पश्म हैं
और असली बात आंख के खुलने की है। जब आंख खुल जाए तो सब दिखाई पड़ जाता है।
खुले जब चश्म हुस्न सब पश्म हैं
फिर उसका सौंदर्य सब तरह दिखाई पड़ता है। दूर नहीं है, निकट से भी निकट है; पास से भी पास है। हर घड़ी मौजूद है। पर बात इतनी है कि आंख बंद है। अंधे हैं हम और सूरज द्वार पर खड़ा है। और हम पूछ रहे हैं कि सूरज कहां? हम पूछते हैं कि रोशनी कहां? अंधे हैं हम, असली बात तो नहीं पूछते कि आंख कैसे खुले? पूछते हैं कि सूरज है या नहीं? सूरज होता है या नहीं? प्रमाण क्या है सूरज के होने का? और जो हमें प्रमाण देते हैं, वे अंधों से भी गए-बीते हैं।
किसी ज्ञानी ने परमात्मा के लिए प्रमाण दिया है? जिन्होंने दिया वे सब अज्ञानी ही हैं। परमात्मा के लिए प्रमाण दिया ही नहीं जा सकता। वह तो ऐसा ही होगा जैसे अंधे आदमी को तुम प्रकाश का प्रमाण दो कि प्रकाश है। क्या प्रमाण दोगे?
बुद्ध के पास एक अंधे को लाया गया था। बड़ा तार्किक था अंधा। गांव भर को परास्त कर चुका था। गांव के पंडितों को हरा दिया था। सभी उसको बुद्ध के पास ले आए थे कि हम तो हार गए। आप आए हैं, कृपया करके इसे थोड़ा समझा दें। यह कहता है कि प्रकाश होता ही नहीं। और हम इसे तर्क के द्वारा नहीं समझा पाते। यह बड़ा तार्किक है। ऐसा तार्किक हमने देखा नहीं। यह कहता है, अगर प्रकाश हो तो लाओ, मेरे हाथ में रख दो, मैं छू कर देख लूं। अगर प्रकाश हो, तुम कहते हो कि छुआ नहीं जा सकता तो जरा उसे बजाओ, मैं उसकी आवाज सुन लूं। अगर आवाज भी न होती हो, जरा मुझे चखाओ, मैं उसका स्वाद ले लूं। अगर स्वाद भी न होता हो तो मेरे नासापुटों में करीब ले आओ, मैं जरा उसकी गंध ले लूं।
अब न तो प्रकाश में कोई गंध होती, न कोई स्वाद होता, न उसे छुआ जा सकता और न उसको चोट मारकर कोई संगीत पैदा किया जा सकता, कोई आवाज, झनकार पैदा की जा सकती। तो यह अंधा हंसता है। यह कहता है, खूब रही। तो तुम मुझे बुद्धू बनाने चले हो? तुम भी अंधे हो पागलों। और प्रकाश इत्यादि कहीं होता नहीं। अफवाहें हैं, झूठे लोगों ने उड़ा रखी है। और इन सबका एक ही प्रयोजन है कि तुम यह सिद्ध करना चाहते हो कि मैं अंधा हूं; हालांकि तुम सब अंधे हो। आंख किसी के भी पास नहीं है। कहां है प्रकाश? मुझे प्रमाण दो।
बुद्ध ने सुनी सारी बात। वह तो बड़ा अकड़कर बैठा था। उसने कहा कि आपके पास कोई प्रमाण हो तो बताइए, मैं एकक प्रमाण को खंडन करूंगा। बुद्ध ने कहा, मैं इन पागलो जैसा पागल नहीं हूं। तुझे प्रमाण की जरूरत ही नहीं। मैं एक वैद्य को जानता हूं--बुद्ध का खुद का वैद्य था--जीवक के पास जाओ। जीवक उस वैद्य का नाम था। वह अपूर्व कुशल वैद्य है। वह कुछ करेगा। तुम्हें प्रमाण की जरूरत नहीं, औषधि की जरूरत है। तुम्हारे आंख खुलनी चाहिए। प्रकाश का प्रमाण और कुछ होता नहीं है। हो लाख, इससे क्या फर्क पड़ता है? बंद, तो नहीं है। तो तुम जाओ।
वह आदमी भेजा गया। बुद्ध के वैद्य ने बड़ी मेहनत की। छह महीनों में उस आदमी की आंखों का जाला कट गया। वह अंधा तो था नहीं। अंधा कोई भी नहीं है। जाला है आंख पर; जन्मों-जन्मों का जाला है, कट गया। आंख खोली उसने तो देखा, सारा जगत प्रकाश से भरा है। एकक पत्ते पर प्रकाश नाच रहा है। एकक कंकड़ प्रकाश से नहा रहा है। सारा जगत आलोकमंडित है।
वह नाचता बुद्ध के चरणों में आया। उसकी आंखों में आनंद के आंसू बह रहे हैं। वह रोमांचित हो उठा। वह बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा। बुद्ध ने कहा , कहो क्या खयाल है प्रमाण के संबंध में? उस आदमी ने कहा, मुझे क्षमा करें। और मेरे गांव वालों से भी मैं क्षमा मांगता हूं कि मुझे क्षमा करें। मैं अंधा था लेकिन मैं यह मानने को राजी नहीं था कि मैं अंधा हूं। वह मेरे अहंकार के विपरीत जाता था कि मैं अंधा, और सब आंखवाले? इस अहंकार को बचाने का एक ही उपाय था कि मैं सिद्ध करूं कि प्रकाश नहीं है। इसलिए मैं प्रकाश नहीं है, प्रकाश नहीं है इसकी धुन लगाए रहता था।
जितने लोग जगत में कहते हैं ईश्वर नहीं है, वे अपने अहंकार को बचाने की कोशिश में लगे हैं। ईश्वर है तो अहंकार मिटेगा। तो यही उचित है कि कह दो कि ईश्वर नहीं है। कहां का ईश्वर! कैसा ईश्वर! प्रमाण क्या है?और ईश्वर के लिए कोई प्रमाण नहीं होता। अनुभव ही प्रमाण है।
खुले जब चश्म हुस्न सब पश्म है
आंख खुल जाए तो उसका सौंदर्य सब तरफ जाहिर है। हर तरफ से उसी के इशारे हैं। हर तरफ से वही झांकता हुआ पाओगे तुम। हर तरफ से वही बुलाता है। कोयल के कंठ में भी वही है। मोर के नाच में भी वही है। बादल जब घिर आते हैं आकाश में वही घिरता है। रात-चांदत्तारों में भी वही है, पशु-पक्षियों में भी वही है, मनुष्यों में भी वही है। चारों तरफ वही है। एक का ही विस्तार है। एक के ही अनंत रूप हैं। एक का ही खेल है।
खुले जब चश्म हुस्न सब पशम है
दिन और दूनी से कम नाहीं
और फिर कोई फर्क नहीं पड़ता। आंख खुली हो तो दिन में भी है, रात में भी है। प्रकाश में भी है और अंधेरे में भी। आंख खुली हो तो सब हालत में है, हर हालत में है। फिर कोई शर्त की जरूरत नहीं होती। फिर संन्यासी को भी है और गृहस्थ को भी है। फिर ऐसा नहीं होता कि संन्यासी को ही है और गृहस्थ को नहीं है। फिर बुद्धिमान को भी है और बुद्धू को भी है। फिर बच्चों को भी है और बूढ़ों को भी। सुंदर-असुंदर सभी को। स्त्री-पुरुष को सभी को। फिर कोई शर्त नहीं है, फिर बेशर्त है।
शब्द को कोट में चोट लागत नाहीं
लेकिन तुम बड़ा छिपाए हुए हो उसको अपने भीतर और चोट नहीं लगने देते। चोट से तुम तिलमिलाते हो। जहां चोट लगती हो वहां तुम जाते नहीं। तुम तो वहां जाते हो जहां तुम्हारी दीवाल को और फुसलाया जाता हो और समझाया जाता हो कि और जरा दीवाल उठा लो। जहां तुम्हें सांत्वना दी जाता है, जहां तुम्हें संतोष दिया जाता है। वहां तुम जाते हो। सत्य जहां हो वहां तुम जाते नहीं। वहां से तुम दूर भागते हो क्योंकि सत्य की तो चोट होती है।
सदगुरु से तो तुम बचते हो। सब तरह आंख चुराते हो क्योंकि वह तुम्हारी दीवाल को, तुम्हारे कोट को, तुमने जो किला बना रखा है उसको तोड़ेगा। वह टूटे तो ही तुम्हारे भीतर छिपे हुए परमात्मा का आविर्भाव हो।
शब्द को कोट में चोट लागत नाहीं
वह शब्द तुम्हारे भीतर पड़ा है। वह प्यारा तुम्हारे भीतर बैठा है। वह अनाहत नाद तुम्हारे भीतर अभी भी गूंज रहा है मगर तुम किले में छिपे हो। और किले के कारण वह प्रगट हो पा रहा है। और तुमने कितने किले बना रखे हैं--धन के, पद के, प्रतिष्ठा के। इन झूठे किलों में तुम छिपे हो
शब्द को कोट में चोट लागत नाहीं
तत्व झंकार ब्रह्मांड माही
और मजा यह है कि उसी की झंकार हो रही है सारे ब्रह्मांड में, मगर तुम ऐसी दीवालें बनाकर बैठे हो कि न तुम्हें भीतर सुनाई पड़ती है उसकी आवाज, न बाहर सुनाई पड़ती उसकी आवाज। तुम्हें सिर्फ ईश्वर की आवाज नहीं सुनाई पड़ती, और तुम्हें सब सुनाई पड़ता है। कामवासना की आवाज सुनाई पड़ती है, लोभ की आवाज सुनाई पड़ती है, मोह की आवाज सुनाई पड़ती है। सब तरह की आवाजें सुनने में तुम कुशल हो, बस एक आवाज नहीं सुनाई पड़ती उस परम तत्व की; और उसकी झनकार सब तरफ है।
कहत कमाल कबीर जी को बालका
योग सब भोग त्रिलोक नाहीं
और जिसको तुम योग समझ बैठे हो वह भी भोग मात्र है। वह भी त्रिलोक नहीं है। जिसको तुम योग समझ बैठे हो...लोग किस बात को योग समझ बैठे हैं? कोई शरीर के आसन लगा रहा है और सोचता है, आसन-सिद्धि हो गई। तो कहीं पहुंच गए।
शरीर की सिद्धि आत्मसिद्धि तो नहीं बन सकती। शरीर का खूब आड़ा-तिरछा करो, सर्कस के कर्तब सीखो, इससे कुछ होनेवाला नहीं। हां, इससे अच्छा  स्वास्थ्य हो जाएगा। वह तो भोग ही है। अच्छा स्वास्थ्य, उसका योग से क्या लेना-देना? थोड़े लंबे जीओगे। दूसरे अस्सी साल में मर जाएंगे, तुम सौ साल जीओगे कि डेढ़ सौ साल भी जीओगे। इससे क्या होगा?
बड़ी इस बात की महिमा होती है, कोई महात्मा आ जाएं गांव में कि डेढ़ सौ साल उमर है। बड़े तुम प्रभावित होते हो। मगर यह सब भोग की ही भाषा है। तुम भी डेढ़ सौ साल जीना चाहते हो इसलिए प्रभावित होते हो।
मैंने सुना है, हिमालय में एक  योगी था, वह समझा रहा था लोगों को कि उसकी उम्र सात सौ साल है। एक अंग्रेज भी पहुंच गया, यात्री था। वह भी सुन रहा था भीड़ में खड़े होकर। सात सौ साल उसे जंची नहीं। सत्तर साल से ज्यादा यह आदमी मालूम होता नहीं था। सात सौ साल! वह जरा घूमा-फिरा, पता लगाया। लोगों ने कहा, भई हमें तो कुछ पता नहीं। वे कहते हैं सात सौ साल तो ठीक ही कहते होंगे। महात्मा पुरुष हैं। यह तो सदा ही से योगी ऐसा चमत्कार करते रहे। तो फिर उसने उस महात्मा के शिष्य से पूछा। एक शिष्य था, होगा मुश्किल से कोई तीस साल की उमर का--लड़का ही था। महात्मा के हाथ पैर दबाना और भोजन वगैरह बना देना यह उसका काम था। उसको उसने मिलाया-जलाया, रात एकांत में उससे मिला। बोला, भाई तू पास रहता है। तू तो बता इनकी उम्र क्या? उसने कहा, मैं कुछ भी नहीं कह सकता। मैं केवल तीन साल से इनके पास हूं। सात सौ साल की मैं कैसे कहूं?ये बातें हमें खूब प्रभावित करती हैं। क्यों? तुम भी जीना चाहते हो। अगर सात सौ साल जीने की कोई तरकीब मिल जाए तो आहा! तुम गदगद हो जाओ। तो अगर कोई सात सौ साल जी रहा है तो तुम्हारे भीतर आशा बलवती होती है कि अगर यह आदमी जी रहा है तो हम भी इससे जड़ी-बूटी ले लेंगे कि कोई सिद्धि ले लेंगे। मगर यह तो भोग की भाषा है।
योग शाश्वत की बात करता है, समय की बात नहीं। वह असली योग तो न हुआ जो सात सौ साल जीने की बात करता हो।
योग सब भोग त्रिलोक नाही
फिर कोई बैठे हैं और भीतर देख रहे हैं, कुंडलिनी जग रही है और रीढ़ पर कुंडलिनी चढ़ रही है, मगर ये सब भी मन के ही खेल हैं। यह भी कुछ असली बात नहीं। फिर कोई देख रहा है कि भीतर सिर में रोशनी हो गई है, कमल खिल रहे हैं, मगर ये सब कल्पनाएं हैं। अच्छी कल्पनाएं हैं। किसी की हत्या करने की कल्पना, उससे यह कल्पना बेहतर है कि कुंडलिनी चढ़ रही है। खूब धन लेने की कल्पना और रुपए ही रुपए इकट्ठे होते जा रहे हैं, उससे यह बेहतर है कि भीतर रोशनी प्रगट हो रही है, तीसरा नेत्र खुल रहा है कि कमल खिल रहा है।  कल्पनाएं बेहतर हैं। सुंदर कल्पनाएं हैं, धार्मिक कल्पनाएं हैं मगर हैं तो कल्पनाएं; है तो सब मन का जाल।
योग क्या है? योग शून्य भाव है।
शून्य के शिखर में गैब का चांदना
न कोई ऊर्जा उठ रही है, न कोई कुंडलिनी जग रही है, न कोई कमल खिल रहे हैं, न सहस्त्रदल पैदा हो रहा है, न कोई रोशनी है, न कोई अंधकार है, परम शून्य है। सब भांति स्थिति सम हो गई। कोई दृश्य नहीं बचा, मात्र द्रष्टा बचा है।
फिर से दोहरा दूं। कोई दृश्य नहीं बचा, मात्र द्रष्टा बचा है। कोई अनुभव नहीं बचा, मात्र अनुभव करने की शुद्ध क्षमता बची। अनुभव मात्र समाप्त हो गए। अनुभव संसार है। इसलिए परमात्मा का कोई अनुभव नहीं होता, जब सब अनुभव से छुटकारा होता है तो जो शेष रह जाता है उसको ही हम परमात्मा का अनुभव कहते हैं।
कहत कमाल कबीर जी को बालका
कबीर का बेटा हुआ कमाल। कबीर ने उसे नाम दिया कमाल। वह कमाल का बेटा था। आदमी कमाल का था। कभी-कभी कबीर से बाजी मार ले जाता था। कबीर का ही बेटा था इसीलिए कमाल नाम दिया था।
तुमने एक प्रसिद्ध वचन सुना होगा, उसके बड़े गलत अर्थ लगाए जाते हैं। लोग समझते हैं कि कबीर कमाल पर नाराज थे। नाराज नहीं थे। नाराज हो ही नहीं सकते। कहानी है। क्योंकि कमाल ऐसे काम कर देता था जो साधारण व्यवस्था के अनुकूल नहीं होते। वह कमाल ही था। वह कुछ साधारण मर्यादा का आदमी नहीं था।
तो कबीर को थोड़ी अड़चन होती होगी। कबीर उसे समझते थे कि कमाल कहां है, ठीक जगह है। लेकिन फिर भी कबीर मानते थे कि मर्यादा में ही जीना चाहिए क्योंकि लोग दिक्कत में पड़ जाएंगे। अगर सभी संत मर्यादा के बाहर जीने लगे...एकाध कृष्ण ठीक, राम भी चाहिए। मर्यादा पुरुषोत्तम भी चाहिए नहीं तो लोग बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। इसलिए लोग पूजते तो कृष्ण को हैं, मानते राम को हैं। पूजा इत्यादि करनी हो तो कृष्ण की कर लेते हैं। मगर कृष्ण को मानते इत्यादि नहीं। कृष्ण की मानकर कौन झंझट में पड़ेगा? ज्यादा देर न लगेगी, पुलिस पकड़ ले जाएगी। मानते राम की है, आचरण राम के जैसा करते हैं। लेकिन हिंदुओं ने हिंमत की बात तो कि कृष्ण को पूर्णावतार कहा है, राम को अंशावतार। वहां मर्यादा ही बाधा है।
मगर मर्यादा लोगों को तो चाहिए। लोग तो ऐसी अंधेरी गली में जी रहे हैं, कि वहां तो टिमटिमाती रोशनी भी बहुत रोशनी है। जो सूरज के शिखर पर जीते हैं उनकी वे जानें, लेकिन इन लोगों के लिए तो कुछ नियम चाहिए, व्यवस्था चाहिए, मर्यादा चाहिए।
कमाल कृष्ण जैसा आदमी था। वह कोई मर्यादा इत्यादि मानता नहीं था। मर्यादा की उसे कोई चिंता भी न थी। वह भी एक अभिव्यक्ति है संतत्व की। वह आखिरी अभिव्यक्ति है। मगर कबीर व्यवस्था में थोड़ा अर्थ देखते थे। अंधों के लिए हाथ में लकड़ी चाहिए। तुम आंखवाले हो गए तो भी अंधों की लकड़ी मत छीन लो, इतना ही कबीर का कहना था। माना कि लकड़ी की कोई जरूरत नहीं है मगर आंख पहले होनी चाहिए, तब लकड़ी की कोई जरूरत नहीं है। नीति चली जाती है; धर्म पहले आ जाना चाहिए। मगर नीति छीन लो लोगों से और धर्म आए न, तो तुमने उन्हें और अड़चन में डाल दिया। अंधे तो थे, हाथ की लकड़ी भी गई। बीमार तो थे, औषधि भी गई, स्वास्थ्य का तो कुछ पता नहीं।
इसलिए कबीर कभी-कभी कमाल को डांटते-डपटते रहे होंगे। फिर आखिर में तो ऐसी हालत आ गई कि कबीर ने कह दिया कि तू अलग ही रहने का इंतजाम कर ले क्योंकि वह उन्हीं के पास रहता। कबीर कुछ कहते, कुछ कह देता। कबीर के शिष्यों को बातें बता देता ऐसी कि वे गड़बड़ा जाते।
मगर कबीर नाराज नहीं थे।  वचन तुमने सुना होगा, कबीर का वचन प्रसिद्ध हो गया है। लोग यही सोचते हैं, कबीर पंथी भी यही सोचते हैं कि कबीर ने नाराजगी में कहा। कबीर नाराज तो हो ही नहीं सकते। उनको लोगों पर भी दया है। वे लोगों को समझते हैं इसलिए मर्यादा की भी बात करते हैं। वे कमाल को भी समझते हैं क्योंकि वे खुद भी उसी शून्य के शिखर पर खड़े हज। वे कमाल को नाराज तो हो ही नहीं सकते। उन्होंने कहा, बूढ़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल।
लोग समझते हैं कि यह नाराजगी में कहा है कि मेरा वंश नष्ट कर दिया है इस कमाल ने पैदा होकर। नाराजगी में नहीं कहा है। इस वचनों को समझो। बूढ़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल। लोग समझते हैं, शायद पूत व्यंग में कहा है। जैसा हम कहते हैं न, किसी कपूत को कहते हैं सपूत। कि ये सपूत चले आ रहे हैं। कि ये सपूत क्या पैदा हो गए, डुबा दी; सब मर्यादा डुबा दी। नाव डुबा दी। इन सपूत के कारण सब वंश नष्ट हो गया।
ऐसा मतलब नहीं है। मतलब ऐसा है जैसा कि पुरानी बाइबल में। पुरानी बाइबल शुरू होती है, ईश्वर ने अदम को बनाया, अदम के बेटे हुए, बेटों के बेटे हुए, उनके नाम हैं, वंशावली है--जेनेसिस। ऐसी लंबी फहरिस्त है। फिर जोसेफ पैदा हुआ और जोसेफ ने मरियम से विवाह किया और मरियम का बेटा जीसस हुआ। और वहां जाकर वंशावली समाप्त हो गई क्योंकि जीसस का फिर कोई बेटा नहीं हुआ। लंबी वंशावली जीसस पर आकर समाप्त हो जाती है। जीसस आखिरी शिखर आ गया। बूढ़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल। आखिरी बात हो गई। अब इसका कहां बेटा? यह तो आखिरी फूल खिल गया। अब इसमें से और शाखाएं प्रशाखाएं नहीं निकलतीं। जीसस पर आकर पुरानी बाइबल की वंशावली समाप्त हो गई। शिखर आ गया, अब और कहां गति?
यही मतलब है कबीर का--बूढ़ा वंश कबीर का। यह बेटा ऐसा कमाल का पदा हुआ कि अब यह वंश तो बसाएगा नहीं। अब यह संसार तो चलाएगा नहीं। अब तो यह विवाह भी नहीं करनेवाला, इसके बेटे भी नहीं होने वाले इसलिए कबीर ने कहा है। लेकिन यह पूत व्यंग में नहीं कहा है, यह बड़े आदर में कहा है; मगर इसे समझा नहीं जा सका।
ऐसा हुआ कि काशी नरेश को पता चला कि लोग जाते हैं, कबीर को भेंट करते हैं तो कबीर तो कह देते थे रुपए-पैसे का हम क्या करेंगे--जैसा साधु-संत को कहन चाहिए--कि हम क्या करेंगे? चले जाओ। उधर बाहर बैठा रहता कमाल। वह कहता, अब ले ही आए हो तो कहां ले जाते हो? चलो, रख दो। नाहक इधर तक ढोया, अब नाहक फिर घर तक ढोओगे। छोड़ो भी। कहां बोझ लिए फिरते हो! तो लोगों को शक होता। लोग कहते, कबीर तो महात्मा हैं, मगर यह...यह तो लोभी दिखता है। यह तरकीब की बातें करता है कि कहां ले जाते हो। रखवा लेता है।
तो कबीर ने कहा कि तू भाई अलग ही एक कोठरी बना ले। तू अलग ही एक झोपड़ी बना ले। तू जान, तेरा काम जान। क्योंकि मेरे पास रोज शिकायतें आती हैं कि हम लिए जा रहे थे, आपने तो कह दिया...अब तुम थोड़ा समझना, लोग भी जब पैसे देते हैं किसी महात्मा को तो सोचते यही है कि महात्मा इंकार करेगा। अब यह बड़े मजे की बात है। तो देने ही काहे को गए थे? सोचते तो यही हैं कि अगर असली महात्मा होगा तो इंकार करेगा। इंकार ही नहीं करेगा, और कुछ इसके पास होगा तो मिलाकर देगा कि भई पैसे-लत्ते का हम क्या करेंगे?तो तुम देने किसलिए गए थे? और जब महात्मा इंकार कर देता है, तुम बड़े प्रसन्न होते हो। महात्मा और थोड़ा बड़ा हो जाता है। तुम पैसे से ही महात्मा को भी तौलते हो।
तो कमाल लोगों को समझ में आता होगा। वह आदमी ही कमाल का था। वह असली बात तो वही कह रहा है। कबीर से ज्यादा असली बात कह रहा है। कबीर कहते हैं, पैसे में क्या रखा है? यह बात तुम्हें जंच गई कि पैसे में क्या रखा है। और कमाल तो यही कह रहा है कि पैसे में क्या रखा है? कहां लिए जा रहे हो? अब नहीं जंचती। अब तुम्हें लगता है, यह बात नहीं है। की बात जंच गई क्योंकि पैसे वापिस मिल गए। कबीर को कहने दो, क्या रखा है। चलो महात्मा बड़े हैं। अपने पैसे बचे।
पैसे में तुम्हें कुछ रखा तो है ही। अगर तुम कबीर की बात ही समझ गए थे तो वहीं छोड़ देते पैसे। तुम कहते, जब कुछ रखा ही नहीं तो मैं भी क्यों ले जाऊं? अगर तुम कबीर की बात समझ गए थे तो तुम कहते, अगर कुछ रखा ही नहीं है तो आप इंकार ही क्यों करते हैं? जब कुछ रखा ही नहीं है...क्योंकि पहले कभी मैं फूल लाया था, आपके चरणों में रखे, आपने इंकार न किया। आज नोट लाया हूं तो आप इंकार करते हैं। अगर कुछ रहा ही नहीं तो कागज ही है। चलो, मेरा खेल, मेरा भाव, रख लो। छोड़ जाने दो। तुम्हारा क्या बिगड़ेगा? कुछ है तो नहीं। हवा उड़ा ले जाएगा या कोई उठा ले जाएगा, या कुछ होगा। तुम क्यों चिंतित? फूल चढ़ाए, तुम कुछ न बोले। कागज चढ़ाता हूं, तुम क्यों बोलते होने की जरूरत क्या है, जब कुछ रखा ही नहीं?
अगर तुम्हें समझ में आ जाए तो तुम कहोगे, फिर मैं क्यों ले जाऊं? फिर मैं न ले जाऊंगा। लेकिन समझ में तो तुम्हें कुछ आता नहीं। तुम होशियार हो। तुम चालाक हो। तुम कहते, बढ़िया! आदमी बहुत बड़ा है, बहुत ऊंचा है। पैसे-लत्ते से ऊपर उठ गया। जल्दी से अपना नोट सम्हाल कर खीसे में रख लेते हो कि चलो पैसा भी बचा, और इस पैसे के बचने की वजह से महात्मा बड़ा हो गया। अब तुम्हें डर भी न रहा। अब दुबारा तुम दुगुने नोट भी ला सकते हो और तुम पक्का भरोसा रख सकते हो कि महात्मा तो लेंगे नहीं। देने का मजा भी ले लेंगे और पैसा भी बच जाएगा। घर भी लौट आएंगे। पुण्य का भी लाभ मिला, पैसा भी बचा। दोनों हाथ लूटिए। यह तो लूट ही लूट है। इसमें तो कुछ नुकसान ही नहीं। परमात्मा को वक्त जब आएगा तो कह देंगे कि हम तो गए थे साहब। और हमने तो दिए थे। अब कबीर साहब ने न लिए तो हम क्या करें? हमने तो दान किया था तो दान भी हुआ और पैसे भी बचे।
लेकिन कमाल की बात लोगों को नहीं जंचती थी। कमाल कहता, चलो भाई अब ले ही आए, इतनी दूर ढोया, बेकार का सामान ढोते फिरते हो। अब छोड़ दो यहीं। रखा क्या है? तब तुम्हें अड़चन होती है। बात तो यह भी वही कह रहा है लेकिन यह उस जगह से कह रहा है, जहां तुम्हारे लोभ के विपरीत पड़ती है। बात तो ठीक वही है जो कबीर की है। और अगर तुम मुझसे समझो तो कबीर से ज्यादा गहरी है। क्योंकि कबीर के कारण तुम्हारा लोभ नहीं मिटा। यह तुम्हारे लोभ को ही मिटा डालेगा। यह तुम्हें ठीक चोट कर रहा।
शिकायतें पहुंचने लगी होंगी तो कबीर ने कहा, तू भाई अलग झोपड़ा कर ले। वहां कोई तुझे दे जाए, तू ले ले। यहां तो ऐसा लगता है, लोग सोचते हैं कि यह कबीर की ही जालसाजी है। बेटे को बिठा रखा है बाहर, खुद कहते हैं, क्या रखा? और बेटा ले लेता है। यह तो बड़ी तरकीब हो गई। बेटा छोड़ता नहीं और बाप कहता है कि क्या रखा! अब बेटा बाहर बैठा रहता है, वह सब रखवा लेता है। तो यह तो कुछ जालसाजी है। लोग सोचते हैं, जालसाजी है। तू अलग ही कर ले। गलती है तेरी, ऐसी कबीर ने कहा नहीं। कबीर कैसे कह सकते हैं? अगर कबीर कहें कि गलती है तो फिर कौन कहेगा कि ठीक है? कबीर को तो दिखाई पड़ता है।
काशी नरेश एक दिन मिलने आए, उनको भी खबर लग गई थी कि कबीर ने कमाल को अलग कर दिया। तो एक बड़ा हीरा लेकर आए थे। कबीर से पूछा कि कमाल दिखाई नहीं पड़ता तो कबीर ने कहा, अब वह बड़ा भी हो गया, अब कोई साथ रहने की जरूरत भी नहीं है। पास ही एक झोपड़ा बना दिया है, वहां रहता है।
तो सम्राट उससे मिलने गए। खबरें सुनी थी बहुत, तो उन्होंने हीरा निकाला और कमाल को दिया। कमाल ने कहा, लाए भी तो पत्थर! खाने का, न पीने का। क्या करूंगा इसका? कुछ फल लाते, मिठाई लाते तो भी ठीक था। पत्थर ले आए। उम्र हो गई, होश नहीं आया?
तो सम्राट ने सोचा, अरे, लोग तो कहते हैं कि पैसे रखवा लेता है और यह इतनी गजब की बात कह रहा है। तो वह अपना हीरा खीसे में रखने लगा। कमाल ने कहा, अब काहे के लिए खीसे में रख रहे हो? जिंदगी भर पत्थर ही ढोते रहोगे? तब सम्राट ने समझा कि लोग ठीक ही कहते हैं। यह आदमी होशियार है! यह आदमी चालबाज है। महात्मा भी बने रहे और हीरा भी नहीं छोड़ता। तो सम्राट ने पूछा--वह तो परीक्षा ही लेने आया था--कि कहां रख दूं? कमाल ने कहा, अब कहां रखने की पूछते हो कि फिर ले ही जाओ। क्योंकि कहां रखने का मतलब है, तो तुम्हें अभी हीरा दिखाई पड़ रहा है। पत्थर को कोई पूछता है, कहां रख दूं? अरे, कहीं भी डाल दो। यह झोपड़ी बड़ी है। इसमें कहीं भी पड़ा रहेगा। कभी-कभी मोहल्ले पड़ोस के बच्चे आ जाते हैं। खेलेंगे या कोई उठा ले जाएगा। कभी-कभी चोर इत्यादि भी आ जाते हैं, उनके काम पड़ जाएगा। अब इसमें पूछना क्या है कि कहां रख दूं? रख दो कहीं भी। पत्थर ही है।
तो सम्राट पूरी परीक्षा ही लेना चाहता था तो उसने कमाल को दिखाकर उसके झोपड़े का जो छप्पर था सनोलियों का बना हुआ, उसमें वह हीरा सनोलियों में घोंप दिया--उसको दिखाकर, ताकि उसे खयाल रहे। आठ दिन बाद सम्राट वापस आय, उसे तो पक्का पता था कि मैं इधर बाहर निकला कि हीरा इसने निकाल लिया होगा। अब तक बिक भी गया होगा बाजार में।
आठ दिन बाद आया, इधर-उधर की बात की, आया तो मतलब और से था। फिर असली बात पूछी, उस हीरे का क्या हुआ? कमाल की बात है। तुम हीरा ही हीरा लगाए हुए हो? तुम अंधे हो, तुम्हें कब दिखाई पड़ेगा? पत्थर लाए थे, हीरे की बात कर रहे हो?, छोड़ो ज्ञान की बातें। मैं यह पूछता हूं, उसका हुआ क्या? कमाल ने कहा, जहां रख गए थे, अगर कोई न निकाल ले गया हो। तो निकाल तो इसने लिया होगा। उठा, सनोलियों में खोजा हीरा वहां के वहां था। तब उसकी आंखें खुलीं। यह आदमी जो कहता है, ठीक ही कहता है--कि अगर कोई न निकाल ले गया हो। तब चरणों पर गिरा।
फिर जाकर कबीर को कहा, आपने ठीक नहीं किया, इस बेटे को अलग किया। तब कबीर ने यह वचन कहा, बूढ़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल। यह निंदा में नहीं कहा है, मगर कबीरपंथी समझते हैं कि अस्वीकार कर दिया बेटे को इस वचन को बोलकर। नहीं; इस वचन को बोलकर परम धन्यता प्रगट कर दी।
ये थोड़ी सी पंक्तियां उसी कमाल की हैं:
कहत कमाल कबीर जी को बालका
योग सब भोग त्रिलोक नाही
शून्य के शिखर में गैब का चांदना
वेद कितेब के गम नाही
खुले जब चश्म हुस्न सब पश्म है
दिन और दूनी से कम नाही
शब्द को कोट में चोट लागत नाही
तत्व झंकार ब्रह्मांड माही
सब तरफ मौजूद है, तुम जरा सूनी आंख से देखो। तुम भरी आंखों से देख रहे हो इसलिए चूक रहे हो। शून्य की आंख को जगाकर देखो। शून्य यानी समाधि।

चौथा प्रश्न: प्रति दिन के प्रवचन के बाद घंटे डेढ़ घंटे तक कुछ नशा सा छा जाता है। उस बीच बात करना तो दूर, किसी को देखने की ख्वाहिस भी नहीं होती। और अजीब मुस्कुराहट प्रगट होती है। और कभी-कभी रोना भी आता है और फिर अकेला रहना चाहता हूं। उस समय किसी के छेड़ने पर चिड़चिड़ाहट महसूस होती है। आप कुछ कहें। ठीक हो रहा है। ऐसा ही होना चाहिए। यह कोई मंदिर नहीं है, यह मधुशाला है। यहां अगर नशा न आया तो कुछ भी न आया। यहां अगर मस्त न हुए तो चूक ही गए। यहां कोई शास्त्रों पर प्रवचन चल रहा है। यहां तो शराब ढाली जा रही है। यहां तो पियक्कड़ों का काम है। यहां तो कमजोरों की गति नहीं है।

यहां तुम मुझे पीयो। और यहां तुम इस तरह डूबो कि तुम्हारे सब होश खो  जाएं। बेहोश हो गए तो भक्त हो गए। और अंगूरों की शराब तो पीयो तो एक दिन उतर जाती है। आज पीयो, सुबह उतर जाएगी, कल उतर जाएगी, सांझ उतर जाएगी। यह असली शराब है, चढ़ी तो फिर उतरती नहीं। धीरे-धीरे इसमें डुबकी लो।
ठीक हो रहा है। घंटे-डेढ़ घंटे नशा रहता है अभी, धीरे-धीरे और बढ़ेगा। घबड़ाओ मत। डरो मत। डरोगे तो चूकोगे। नशा जब छाए, आंखें जब भारी होने लगें, मन जब मगन लगे, गीत जब भीतर अंकुरित होने लगे तो स्वभावतः अकेलापन चाहा जाएगा। क्योंकि दूसरे की मौजूदगी तुम्हारी इस तरंगायित दशा में बाधा बनेगी। दूसरे की मौजूदगी तुम्हें खींचेगी, तुम भीतर जा रहे हो; इसलिए चिड़चिड़ाहट पैदा होगी: यह शुरू-शुरू में होता है। एक ऐसी घड़ी आ जाती है बाद में नशे की, कि फिर सारा संसार मौजूद रहा है तो कोई फर्क नहीं पड़ता। पर नशा उस सीमा तक पहुंच जाने दो। तब तक बीच के समय कभी-कभी जब नशा चढ़ा हो तो एकांत खोज लेना। पड़े रहना। बैठ जाना किसी मस्जिद में, किसी मंदिर में जाकर बैठो जहां कोई नहीं जाता। कौन जाता मंदिर-मस्जिदों में अब? गुरुद्वारे में कहीं बैठ जाना एक कोने में या निकल जाना गांव से दूर नदी के किनारे। या अपने ही घर में कोठरी बंद करके रह जाना। जब नशा चढ़े तो उस नशे का सम्मान करो। उस समय बात करनी, बात चीत में समय गंवाना एक चिड़चिड़ाहट पैदा करेगा। चिड़चिड़ाहट ही नहीं, एक भीतर द्वंद्व भी पैदा करेगा। भीतर ऊर्जा जा रही है आत्मा की तरफ और बाहर की बातचीत बाहर खींच रही है। तो तुम दो दिशाओं में गतिमान हो जाओगे, खैंचतान होगी, तनाव पैदा होगा, कष्ट पैदा होगा। और जो लाभ होना था वह चूक जाएगा।
जब भीतर गति हो रही हो, प्रवाह आया तो फिर बह जाओ। फिर सब भूल-भालकर डुबकी लगा लो। एक क्षण को भी अगर भीतर तक पहुंच गए तो परम सौभाग्य है। यह संक्रमण काल की ही बात है। धीरे-धीरे जब नशा थिर हो जाएगा। यह सिक्खड़ों के लिए कह रहा हूं, जिन्होंने अभी शराब पीनी शुरू-शुरू ही की है; जब अभ्यस्त हो जाएगी फिर कोई अड़चन न आएगी। फिर भीतर भी बहते रहोगे और किसी से बात भी कर लोगे।
ऐसा ही समझो न कि तुम कार ड्राइव करना सीखते हो तो शुरू-शुरू में बड़ी अड़चन होती है। बड़ी झंझट आती है। स्टेयरिंग पर नजर रखो तो एक्सिलेटर से पांव खिसक जाता है। एक्सिलेटर पर नजर रखो तो ब्रेक लगाना भूल जाते। ब्रेक पर पैर रखो तो क्लच स्मरण में नहीं रहता। और इन सबकी कैसे इकट्ठी याद रखो? बड़ी बेचैनी होती, बड़े पसीने-पसीने हो जाते हो।
फिर एक दफा ड्राइविंग आ गई तो इनकी कुछ याद ही रखना पड़ती? यह सब अपने आप यंत्रवत होने लगता है। पैर फिकर कर लेते हैं क्लच और एक्सिलेटर और ब्रेक की। और हाथ--एक ही हाथ, दो हाथ की भी जरूरत नहीं रह जाती--एक ही हाथ स्टेयरिंग व्हील को सम्हाल लेता है। और तुम गीत गा सकते हो या रेडिओ सुन सकते हो, या तुम हजार तरह के विचार सोच सकते हो, कल्पना कर सकते हो, सपने देख सकते हो। बहुमत कुशल ड्राइवरों के संबंध में तो कहा जाता है, वे झपकी भी ले लेते हैं। एकाध मिनट को अगर आंख भी झपक गई तो कुछ खास फर्क नहीं पड़ता--अगर शरीर बिलकुल कुशल हो गया है तो।
ठीक ऐसा ही इस नशे के बाबत भी सच है। सीख रहे हो अभी, तो अभी चिड़चिड़ाहट पैदा होगी। यह अच्छा लक्षण है। इससे इतना ही पता चलता है कि एक नई बात पैदा हो रही है और कोई उखाड़ने आ गए। अब तुम भीतर जा रहे हो कोई बाहर की बात करने लगे, वह कहने लगे, फलानी फिल्म बड़ी अच्छी चल रही है। अब तुम्हें चिड़चिड़ाहट न पैदा हो तो क्या बड़ा आनंद आए? या वह कहने लगा कि सुना, कि मुरार जी देसाई की तरफ खींच रहा है!
तो अड़चन होगी, चिड़चिड़ाहट होगी। बचना। इस चिड़चिड़ाहट को लाने की जरूरत नहीं है। जब ऐसी मस्ती छाए तो थोड़ी देर डुबकी लगा लो। पूरी तरह हो जाने दो। और कभी-कभी तो एक क्षण में घटना हो जाएगी। एक क्षण में तुम डुबकी खा जाओगे, बाहर आ जाओगे, ताजे हो जाओगे, तरोताजा हो जाओगे। और फिर दिन भर तुम पाओगे एक ताजगी, एक मस्ती, एक गुनगुनाहट।
दृग गगन में तैरते हैं रूप के बादल सुनहले
दृग गूगल में तैरते हैं रूप के बादल रुपहले
मधुबनों ने सुरा पी ली सुरभि वेणी हुई ढीली
प्रस्तरों को बेधती हैं रेशमी किरणें नुकीली
अब न कोई बच सकेगा, यम-नियम क्रम रच सकेगा
बेखुदी में डूब तू भी ज्योत्स्ना की बांह गह ले
दृग गगन में तैरते हैं रूप के बादल रुपहले
चांदनी ने चिटक तोड़े लाज के बंधन निगोड़े
निर्वसन अंबर दिगंबर से गांठ जोड़े
इस धुले वातावरण में झिलमिलाते मधु रक्षण में
एक पल को ही सही पर अमी-सरी में मुक्त बह ले
दृग गगन में तैरते हैं रूप के बादल रुपहले
एक क्षण को ही सही, एक पल को ही सही, पर अमी-सरी में मुक्त बह ले। यह जो अमृत की थोड़ी सी धारा, यह झरना पैदा होता है इसमें एक क्षण को ही सही, एक पल को ही सही, पर अभी-सरी में मुक्त बह ले।
दृग गगन में तैरते हैं रूप के बादल रुपहले
तब उस समय व्यर्थ बातों में न पड़ो। तब उस समय अपने में डूब जाओ, डुबकी लगा लो। उस क्षण द्वार-दरवाजे बंद कर दो बाहर के। उस क्षण अंतर्यात्रा में पूरे-पूरे संलग्न हो जाओ। इसी की तो हम यहां कोशिश करते हैं कि किसी तरह तुम भीतर चलने लगो। और रोज-रोज तुम अगर भीतर गए और रोज-रोज तुमने अपने बाहर से चिड़चिड़ाहट पाई तो नुकसान हो जाएगा। चिड़चिड़ाहट का अभ्यास न हो जाए कहीं, यह डर है। और यह केवल संक्रमण की बात है।  यह सदा नहीं रहेगी। एक दफा अभ्यस्त हो गए, फिर नहीं रहेगी।
एक शराबी मेरे पास रहते थे। बड़े अभ्यस्त शराबी हैं। पता लगाना ही मुश्किल है कि वे शराब पीए हैं, ऐसा अभ्यास है। जो जानता है वही जानता है कि  काफी पीए हैं अन्यथा बातचीत में बिलकुल कुशल, तर्कयुक्त। जरा भी तुम हिसाब ले लगा सकोगे कि ये नशे में हैं। कई दिनों तक मेरे पास रहे, मुझे पता ही नहीं था कि ये नशे में हैं। उनकी पत्नी ने मुझसे कहा, आपको पता है कि ये चौबीस घंटे पीए रहते हैं? मैंने कहा, कुछ पता नहीं चला।
उनको पत्नी ने कहा, मुझे भी पता नहीं चला, तीन साल तक, जब मेरा इनके साथ विवाह हुआ। वह तो एक दिन ये बिना पीए घर आ गए, तब चला। ऐसा अभ्यास हो जाता है कि एक दिन बिना पीए गए तक पता चला कि कुछ गड़बड़ है। तब पता चला कि बाकी दिन ये पीए थे। तब उसने पूछताछ की, मामला क्या है? आज तुम कुछ उखड़े-उखड़े लगते हो। आज जमे-जमे नहीं मालूम होते। आज बात कुछ बेतुकी सी करते हो। आज चित्त कुछ तुम्हारा उदास लगता है। बात क्या है? और तुम्हारे पास जो एक खास तरह की गंध आती थी, आज नहीं आ रही। मामला क्या है? तब उसे पता चला। तब उन्होंने जाहिर किया, मैं जरा पीने का आदी हूं। और खूब पीने का आदी हूं।
ऐसा ही होगा। जब तुम पीने के खूब आदी हो जाओगे तक किसी को पता भी नहीं चलेगा, तुम भीतर विराजमान हो। तुम बाहर दुकान भी चला लोगे, बाजार भी चला लोगे, सामान खरीद लोगे-बचे दोगे, दफ्तर भी हो आओगे, पत्नी-बच्चे भी सम्हाल लोगे। किसी को पता भी नहीं चलेगा। लेकिन अभी शुरू-शुरू में तो अभ्यास की बात है। अभी डूबो। शुभ घड़ी आई है, उसे खो मत देना।
रंगों पर रंग केवल रंग
उड़ती हुई हवा में रंगों के रंग
आंखों में आज तुम्हें फिरी संग-संग
रंगों के लिए हुए रंग
इन्हीं दिनों बढ़ आई नदिया को कूल दिया तुमने
इन्हीं दिनों ओठों और नैनों का फूल दिया तुमने
इन्हीं दिनों भींजी में बार-बार
यहां-वहां, जहांत्तहां, कहां-कहां
कितने युगों में बार-बार
जीए हम संग-संग
घड़ी प्यारी आ रही है, जहां तुम्हारा मुझसे संग बैठ जाएगा। सत्संग की घड़ी आ रही है।
कितने युगों में बार-बार
यहां-वहां, जहांत्तहां, कहां-कहां
जीए हम संग-संग
एक बार इस मधुरस में पूरे उतर जाओ तो संग साथ पूरा हो गया। फिर तुम हजारों मील मुझसे दूर रहो तो भी फर्क न पड़ेगा। मैं इस देह में न रहूं, तुम इस देह में न रहो तो भी फर्क न पड़ेगा। जिस घड़ी यह शराब तुम्हें पकड़ लेगी, मैं तुम्हें पकड़ लूंगा। जिस घड़ी तुम इस शराब में मदमस्त हो जाओगे, तुम मेरे करीब आ जाओगे।
डरना मत। डरना बिलकुल स्वाभाविक है। ऐसी घड़ियों में डरना उठता है। लगता है, क्या हुआ जा रहा है? कुछ अस्वाभाविक तो नहीं हो रहा है? कुछ ऐसा तो नहीं हो रहा, जो किसी खतरे में ले जाए? कोई झंझट तो सिर पर नहीं आ जाएगी?
ऐसे भाव उठने बिलकुल स्वाभाविक है। क्योंकि तुम एक ढंग का जीवन जीए हो, अब यह उसमें एक नई मस्ती आने लगी। कुछ नया होना शुरू हुआ तो मन डरता है। मन पुराने से राजी रहता है, नए से घबड़ाता है। मगर परमात्मा नया है, बिलकुल नया है। तुम नए से धीरे-धीरे राजा होओगे तो ही एक दिन परमात्मा के लिए मार्ग बनेगा। और यह मस्ती उसी की मस्ती है।
जिसने पूछा है, भक्ति उसका मार्ग है; वह खयाल में रख लो। जिसको भी नशे में डुबकी लग रही हो, भक्ति उसका मार्ग है। ध्यानी होश से जाता परमात्मा की तरफ, भक्त बेहोशी से जाता है। ध्यानी चुप जाता, भक्त गुनगुनाता जाता। ध्यानी का एकक कदम सावधान होता। भक्त को चिंता ही नहीं होती। भक्त को सावधानी इत्यादि नहीं लगती। भक्त शराबी की तरह झूमता, नाचता हुआ जाता।
पूछा है स्वामी वेदांत भारती ने। तुम्हारे भीतर उठते हुए नशे से बड़ी साफ खबर मिलती है कि भक्त छिपा बैठा है। तुम्हारे भीतर मीरा का जन्म हो सकता है या चैतन्य का जन्म हो सकता है। तुम्हारे भीतर बड़े नाच की संभावना छिपी है। हिंमत करना। जरा साहस रखना। घबड़ाना मत। एक अपूर्व अवसर बहुत करीब है। हिंमत की तो घट जाएगी।
भटकी हवाएं जो गाती हैं
रात की सिहरती पत्तियों से
अनमनी झरती वारि-बूंदें जिसे टेरती हैं
फूलों की पीली प्यालियां
जिसकी मुसकान छलकाती हैं
ओट मिट्टी की असंख्य रसातुरा शिराएं
जिस मात्र को हरती हैं
वसंत जो लाता है, निदाघ तापता है
वर्षा जिसे धोती है, शरद संजोता है
अगहन पकाता और फागुन लहराता
और चैत काट, बांध, रौंद, भरकर ले जाता है
नैसर्गिक संक्रमण सारा, पर दूर क्यों?
मैं ही जो सांस लेता हूं, जो हवा पीता हूं
उसमें हर बार
हर बार, अविराम, अक्लान, अनप्यायत
तुम्हें ही जीता हूं
हर घड़ी परमात्मा को ही हम जी रहे हैं। या तो होश आ जाए तो बात समझ में आ जाए, या बेहोशी आ जाए तो समझ  जाए। होश की बात तो बुद्धि के पकड़ में भी आ जाती है। बेहोशी की बात बड़ी कठिन हो जाती है।
कल संध्या एक संन्यासी ने आकर कहा..वह घबड़ाया हुआ था। यहां तीन महीने से ध्यान करता था, फिर एक महीने आज्ञा लेकर हिमालय चला गया था। ध्यान में रस आने लगे तो फिर हिमालय में भी रस आता है। और जैसी हवा हिमालय पर है वैसी कहीं भी नहीं है। और जैसी पवित्रता हिमालय पर है वैसी कहीं भी नहीं। और अभी भी सन्नाटा हिमालय पर वैसा है जैसा सदियों पहले सारी पृथ्वी पर था। हिमालय अकेला ही बचा है जहां शाश्वत और सनातन का अब भी राज है।
तो उसके मन में बड़ी हूक उठी, हिमालय की अचानक हूक उठी। मैंने उसे कहा, तू जा, वहां ध्यान कर। वहां से लौटा। द्वार पर दो-चार दिन पहले सुबह के प्रवचन में आता होगा, खड़े-खड़े बेहोश हो गया, गिर गया। दो घंटे बाद वह होश में आया। दो घंटे उसे पता नहीं कि कहां चला गया। स्वभावतः घबड़ा गया। जो लोग आसपास थे, उन्होंने कहा, मालूम होता है तुम्हें मिर्गी की बीमारी है। एपिलेक्टिक फिट आ गया। उसे भी बात जंची कि और क्या हो सकता है? दो घंटे बेहोशी! मगर थोड़ी शंका भी मन में रही क्योंकि उसे कभी जिंदगी हो गई, एपिलेप्टिक फिट नहीं आया, कभी मिर्गी हुई नहीं। अचानक हो गई?
कल वह रात पूछने आया था कि क्या यह मिर्गी थी? नहीं, मिर्गी नहीं थी। उसे पहली दफा भाव-समाधि हुई। उसे पहले दफा भक्त की घड़ी आई उसके जीवन में।
रामकृष्ण को ऐसा रोज होता था। डाक्टर तब भी कहते थे मिर्गी की बीमारी है। डाक्टर अब भी कहते हैं कि रामकृष्ण को एपिलेप्टिक फिट आते थे। रामकृष्ण को हिस्टेरिया था। डाक्टर की अपनी पकड़ है; बहुत गहरी नहीं जाती। और एक लिहाज से डाक्टर भी ठीक ही कहता है क्योंकि बाहर से भाव-समाधि और एपिलेप्टिक के लक्षण बिलकुल एक जैसे होते हैं। यही अड़चन है। डाक्टर भी क्या करे? भाव समाधि तो कभी करोड़ में एकाध को लगती है, एपिलेप्टिक फिट बहुतों को आते हैं। और लक्षण दोनों के बिलकुल एक हैं। मुंह से फसूकर गिरने लगता है, हाथ-पैर अकड़ जाते हैं। तो जितनी देर बेहोशी रही उसका कुछ पता नहीं रहता है कि क्या हुआ, जैसे सब बिलकुल अंधकार हो गया। चैतन्य बिलकुल खो गया।
तो रामकृष्ण तक को वे कहते रहे कि इनको मिर्गी की बीमारी है। रामकृष्ण हंसते थे। वे कहते थे, धन्य भाग्य मेरे कि मुझे मिर्गी की बीमारी है। और सबको भी हो जाए। जब बेहोश हो जाते थे तो घंटों..कभी छह घंटे भी बेहोश हो जाते थे। एक बार तो छह दिन बेहोश रहे। छह दिन लंबा वक्त है। भक्त तो घबड़ा गए। रोना-पीटना शुरू हो गया, भक्त तो सोचे कि अब लौटना नहीं होगा। डाक्टरों से पूछा, उन्होंने कहा, यह तो कोमा है। यह तो अब शायद ही लौटें। महीनों भी रह सकते हैं कोमा में। लौटेंगे कि नहीं कहा नहीं जा सकता। छह दिन के बाद रामकृष्ण लौटे। और लौटते ही क्या कहा पता? लौटते ही छाती पीटने लगे और रोने लगे और कहने लगे कि वहीं बुला ले वापिस; यहां कहां भेजता है? इधर भक्त रो रहे हैं कि अच्छे लौट आए। बड़े प्रसन्न हो रहे हैं कि बड़ी कृपा की कि लौट आए, हमारी याद रखी। और रामकृष्ण कह रहे हैं, नासमझों! तुम्हें कुछ पता ही नहीं कि मैं क्या चूका जा रहा हूं। मुझे फिर वहीं बुला लो, जल्दी करो, यहां मन नहीं लगता।
ऐसी ही घटना इस संन्यासी को घटी। मगर पहली दफा घटी तो अभी उसे कुछ समझ नहीं है। यहां समाधि के बहुत रूप घटने वाले हैं, बहुतों को घटने वाले हैं। किसी की ध्यान-समाधि लगेगी, किसी को भाव-समाधि लगेगी। इसलिए सावधान रहो। वेदांत को भाव समाधि लग सकती है। अगर यह नशे को बढ़ने दिया तो एक न एक दिन कि एपिलप्पिक फिट। एक न एक दिन वह अपूर्व मिर्गी घटेगी जिसके घट जाने के बाद ही पता चलता है कि जीवन का सार क्या, अर्थ क्या, प्रयोजन क्या?
आज इतना ही।


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