प्रवचन-ग्याहरवां
प्रिय
आत्मन,
बहुत-से
प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।
एक
मित्र ने पूछा है,
आत्मा
दिखाई नहीं देती है और जो नहीं दिखाई देती, उसका इतना महत्व क्यों माना जाता है? और आप भी उसी न दिखाई पड़ने
वाली आत्मा की बात क्यों कर रहे हैं?
वृक्ष
दिखाई पड़ता है,
जड़ें
दिखाई नहीं पड़तीं;
जड़ें
जमीन के भीतर छिपी होती हैं। लेकिन इस कारण नहीं दिखाई पड़ने वाली जड़ों का मूल्य कम
नहीं हो जाता है। बल्कि जो वृक्ष दिखाई पड़ता है, वह उन्हीं जड़ों पर निर्भर
होता है,
जो
दिखाई नहीं पड़तीं। और वृक्ष की ही देख-संभाल में जो समय गंवा देगा और जड़ों की
फिक्र नहीं करेगा,
उसका
वृक्ष सूख जाने वाला है। उस वृक्ष पर न पत्ते आयेंगे, न फूल आयेंगे, न फल लगेंगे। नहीं दिखाई पड़ने
वाली जड़ों में ही वृक्ष के प्राण छिपे हैं।
जीवन
में जो भी महत्वपूर्ण है, वह
छिपा हुआ है। जो प्रकट होता है, वह ऊपर
की खोल है। जो अप्रकट रह जाता है, वह
भीतर का प्राण है।
शरीर
दिखाई पड़ता है,
क्योंकि
शरीर ऊपर की खोल है। वह नहीं दिखाई पड़ता, जो शरीर के भीतर है। लेकिन इस कारण नहीं
दिखाई पड़ने वाले का मूल्य कम नहीं हो जाता। बल्कि नहीं दिखाई पड़ता है, इसलिए उसकी खोज और भी ज्यादा
जरूरी हो जाती है।
कहीं
ऐसा न हो जाये कि जो दिखाई पड़ता है, हम उसी को सत्य मानकर समाप्त हो जायें। कहीं
ऐसी भूल न हो जाये कि जो दिखाई पड़ता है, हम उसी को सब कुछ मानकर रुक जायें। जो नहीं
दिखाई पड़ता है,
वह भी
है। नहीं दिखाई पड़ने का कुल अर्थ इतना है कि सामान्य आंखों से नहीं दिखाई पड़ता है।
लेकिन जो थोड़ी जो अंतर्दृष्टि पैदा करें, विवेक पैदा करें, समझ पैदा करें, उन्हें वह भी दिखाई पड़ना शुरू
हो जाता है।
विचार
आपके भीतर चलते हैं। अगर आपके सिर को तोड़ा जाये और आपके सिर की नसों को काटा जाये
तो उनमें विचार कहीं भी नहीं मिलेंगे। अगर विज्ञान की परीक्षा-शाला में मस्तिष्क
को काट-पीट करके जांच-परख की जाये तो विचार कहीं भी नहीं मिलेंगे। और वैज्ञानिक कह
देगा कि विचार कहीं भी खोजने से नहीं मिलते। लेकिन हम सब जानते हैं कि विचार हैं।
विचार दिखाई नहीं पड़ते, लेकिन
हमें उनका अनुभव होता है। हम किसी दूसरे को भी उन्हें बता नहीं सकते हैं, लेकिन हम भीतर जानते हैं कि
वे हैं।
लेकिन
प्रयोगशाला में वे नहीं पकड़े जा सकेंगे। इससे उनका न होना सिद्ध नहीं होता, इससे केवल इतना सिद्ध होता है
कि प्रयोगशाला में जो उपकरण उपयोग में लाया जा रहा है, वह बहुत स्थूल है और बहुत सूम
को नहीं पकड़ पाता है। वैसे अभी कुछ प्रयोग चलते हैं और ऐसा मालूम होता है कि शायद
विचार को पकड़ने की भी क्षमता हम शीघ्र ही विकसित कर लेंगे।
अमेरिका
के एक विश्वविद्यालय ने एक छोटा-सा प्रयोग किया है। उसने सारी दुनिया के विचारशील
लोगों को हैरानी में डाल दिया। एक आदमी को एक बहुत बड़े संवेदनशील कैमरे के सामने
बिठाकर उस व्यक्ति से कहा गया कि तुम किसी एक चीज पर बहुत तीव्रता से विचार करो।
उस कैमरे में जो फिल्म लगाई गयी थी, वह बहुत सेंसेटिव, बहुत संवेदनशील थी। और इस बात
की आशा की गयी थी कि अगर बहुत तीव्रता से एक विचार किया जाये तो शायद उस विचार की
प्रतिछवि को कैमरे की फिल्म पकड़ ले। उस आदमी ने बहुत तीव्रता से एक विचार किया, एक छुरी के ऊपर विचार किया।
सारे मन को केंद्रित कर दिया और बड़ी हैरानी की बात है, कैमरे की फिल्म में छुरी की
आकृति पकड़ी जा सकी! वे जो मन में विचार की सूम तरंगें थीं, वे भी संवेदनशील कैमरे में
पकड़ी जा सकीं! अब तक विचार नहीं देखा गया था। लेकिन विचार की पहली तस्वीर पकड़ी जा
सकी।
सोवियत
रूस में एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक है फयादौव। और रूस जैसे मुल्क में जो कि सूक्ष्मतम
चीजों पर बहुत आस्था नहीं रखते हैं, फयादौव ने एक प्रयोग किया--एक हजार मील दूर
तक विचार के संप्रेषण का! फयादौव ने मास्को में बैठकर तिफलिस नगर में एक हजार मील
दूर तक विचार की धारा को संवादित किया, बिना किसी यंत्र के माध्यम से! तिफलिस के एक
बगीचे में दस नंबर की सीट के आसपास कुछ लोग मौजूद हैं, छिपे हुए। मित्रों ने फोन से
खबर दी फयादौव को मास्को में कि दस नंबर की सीट पर एक आदमी बैठा है। आप मास्को से
विचार भेजकर उस आदमी को सुला सकते हों तो सुला दें।
फयादौव
ने मास्को में बैठकर ध्यान केंद्रित किया और उस आदमी को नींद के सुझाव भेजे--सो
जाओ, सो जाओ। एक हजार मील दूर सिर्फ
मन से! वह आदमी तीन मिनिट के भीतर सो गया!
लेकिन, यह भी हो सकता है, वह आदमी थका-मांदा हो और उसको
नींद लग गयी हो। जो मित्र छिपे थे, उन्होंने फोन से खबर दी कि आदमी तो सो गया
है, लेकिन यह संयोग भी हो सकता
है। आप अगर पांच मिनिट के भीतर ठीक उसे वापिस नींद से उठा दें तो हम सोच सकते हैं
कि आपके विचारों से वह प्रभावित हुआ है। फयादौव ने फिर उसे सुझाव भेजे कि ठीक पांच
मिनिट के भीतर तुम उठ जाओ--उठ जाओ, उठ जाओ।
एक
हजार मील दूर सोये उस आदमी ने पांच मिनिट के बाद आंखें खोल ही दीं और चौंककर चारों
तरफ देखा,
जैसे
किसी ने उसे पुकारा! जो मित्र छिपे थे, उन्होंने उस आदमी से आकर पूछा कि आप, इस तरह चौंककर क्यों देख रहे
हैं?
उस
आदमी ने कहा,
मैं
बहुत हैरान हूं। मैं अचानक यहां आकर बैठा और मुझे पहले ऐसा मालूम पड़ा कि कोई मुझसे
कह रहा है कि सो जाओ, सो जाओ, सो जाओ! मैंने सोचा कि शायद मैं
थका-मांदा हूं,
मेरा
मन ही मुझसे कहता है कि सो जाओ और मैं सो गया। लेकिन फिर अभी-अभी मुझे जोर से
सुनाई पड़ने लगा--उठ जाओ, उठ जाओ; पांच मिनिट के भीतर उठ जाओ!
मैं बहुत हैरान हूं कि यह कौन बोल रहा है?
फयादौव
ने और भी प्रयोग किये। और जो विचार दिखाई नहीं पड़ता, उसके संप्रेषण के वैज्ञानिक
प्रमाण दिये!
विचार
दिखाई नहीं पड़ता,
लेकिन
विचार है। आत्मा और भी दिखाई नहीं पड़ती, लेकिन वह भी है। और जो ध्यान की गहराइयों
में उतरते हैं,
उन्हें
वह आत्मा भी एक अर्थों में दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। वह भी दिखाई पड़ सकती है।
जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं, लेकिन
गङ्ढा खोदा जाये तो चारों तरफ की जड़ें भी दिखाई पड़ सकती हैं। आत्मा दिखाई नहीं
पड़ती, लेकिन जो आदमी शरीर के भीतर
थोड़े गङ्ढे खोदने की कोशिश करता है और शरीर से भिन्न वह जो चेतना है, उसे पृथक करने की कोशिश करता
है, उसे वह दिखाई पड़ना शुरू हो जाता
है। जैसे वृक्ष के चारों तरफ गङ्ढा खोदने पर मिट्टी अलग हो जायेगी और जड़ें अलग
दिखाई पड़नी शुरू हो जायेंगी।
एक
मुसलमान फकीर था शेख फरीद। एक गांव में ठहरा हुआ था। न मालूम कितने लोग उसके चरणों
के दर्शन करने आते थे। एक आदमी ने शेख फरीद से पूछा, मैंने सुना है कि जब जीसस को
सूली दी गयी तो वे मुस्कराते रहे! यह कैसे हो सकता है कि एक आदमी को सूली दी जा
रही हो और वह मुस्कुराता रहे? और उस
आदमी ने कहा कि मैंने सुना है कि जब मंसूर के हाथ-पैर काटे गये, तब वह हंस रहा था। यह असंभव
मालूम पड़ता है। मंसूर की आंखें फोड़ दी गयीं और उसके चेहरे पर दुख का जरा-सा भी भाव
न आया,
यह
कैसे हो सकता है?
फरीद
ने पास में पड़े हुए एक नारियल को उठा लिया, जो लोग उसके चरणों में चढ़ा गये थे। उस
नारियल को उस मित्र को दिया और कहा कि जरा जाकर इसे फोड़ लाओ। उस आदमी ने कहा कि
मेरे सवाल का जवाब?
फरीद
ने कहा कि वह जवाब ही मैं दे रहा हूं। यह नारियल देखते हो, कैसा है? नारियल कच्चा है? उस मित्र ने कहा, नारियल कच्चा है। फरीद ने कहा
कि इसे फोड़कर इसके भीतर की गरी को साबित बचाकर ला सकते हो? उस आदमी ने कहा, थोड़ा मुश्किल है, कच्चा है नारियल, खोल और गरी दोनों जुड़े हुए
हैं। खोल को तोडूंगा तो गरी भी टूट जायेगी।
फरीद
ने कहा,
छोड़ो
इस नारियल को। एक दूसरा नारियल सूखा उसे उठाकर दिया और कहा कि इसे देखते हो? उस आदमी ने कहा, इसकी गरी बचाकर लायी जा सकती
है। साबित है यह नारियल, सूखा
है।
फरीद
ने कहा,
लेकिन
सूखे नारियल की गरी को क्यों साबित बचाया जा सकता है?
उस
आदमी ने कहा,
बात
साफ है। नारियल की खोल और गरी दोनों अलग हो गयी हैं। दोनों के बीच फासला है। ऊपर
की खोल तोड़ी जा सकती है। भीतर की गरी साफ बच जायेगी।
तो
फरीद ने कहा कि बस तेरे सवाल का जवाब हो गया। कुछ लोग हैं, जो शरीर की खोल से जुड़े रहते
हैं। शरीर को चोट पहुंचती है तो उनको भी चोट पहुंच जाती है। कुछ लोग जो शरीर की
खोल को अपने से थोड़ा फासले पर कर लेते हैं, उनके शरीर को काट दिया जाता है तो भीतर कोई
पीड़ा, कोई दुख नहीं होता। वह जीसस
जो था,
वह
मंसूर जो था,
वह
सूखा हुआ नारियल था। और तू गीला नारियल है, यही मैं तुझसे कहना चाहता हूं।
शरीर
ही दिखाई पड़ता है। क्योंकि वह जो भीतर है, इतना जुड़ा हुआ है, इतना इकट्ठा जुड़ा हुआ है कि
हमें पता ही नहीं। अगर हम थोड़ा दोनों को फासले पर करके देख सकें तो वह जो नहीं
दिखाई पड़ता है,
वह भी
दिखाई पड़ सकता है।
और रह
गयी यह बात कि उसको इतना मूल्य क्यों दिया जाता है? उसका ही मूल्य है, इसलिए दिया जाता है। शरीर का
कोई भी मूल्य नहीं है। वस्त्रों का क्या मूल्य हो सकता है? स्थायी का मूल्य है, थोड़ी देर का मूल्य नहीं है।
वस्त्रों का मूल्य वही नहीं है, जो
पहनने वाले का है। शरीर का भी वही मूल्य नहीं, जो शरीर के भीतर निवास करने वाले का है। न
जाने कितने शरीर उस भीतर के निवासी ने ग्रहण किये हैं। और न मालूम कितने शरीर वह
छोड़ चुका! उसकी यात्रा बहुत लंबी है।
लेकिन
हम उसे नहीं पहचानते हैं, हम
वस्त्रों को ही पहचानते हैं, और
वस्त्रों को ही सब-कुछ समझ लेते हैं! जो जानते हैं, वे कहेंगे कि मूल्य इसका ही
है, जो भीतर छिपा है, वही है असली सत्य। जो बाहर
दिखाई पड़ रहा है;
वह खोल
है, बदल जायेगी। और रोज बदल जाती
है।
शायद
आपको पता न हो,
जिस
शरीर को लेकर बचपन में आप पैदा हुए, क्या वही शरीर आपके पास है? मां के पेट से जिस छोटे से
बीजांकुर का जन्म हुआ था, वही आप
हैं? वह जरा-सा टुकड़ा, जरा-सा सेल्स का जोड़, क्या दूरबीन से भी दिखाई
पड़ेगा कि वही आप हैं? कहां
है वह शरीर,
जो के
मां पेट में आपका था? और जब
आप पैदा हुए थे,
और अब
आप वही हैं?
शरीर
प्रतिक्षण बदल रहा है, जैसे
गंगा प्रतिक्षण बह रही है। शरीर प्रतिक्षण बदल रहा है। वैज्ञानिक कहते हैं कि सात
वर्ष में पूरे शरीर का सब-कुछ बदल जाता है, सब नया हो जाता है। सत्तर साल आदमी जीता है, दस बार शरीर बदल जाता है।
शरीर पूरे वक्त बह रहा है, शरीर
एक बहाव है।
लेकिन
भीतर कुछ है,
जो
नहीं बह रहा है। भीतर कुछ है, जो वही
है; जो कल था, जो परसों था, जो कल भी होगा और परसों भी
होगा। आप बच्चे थे, जवान
हो गये। लेकिन क्या आप बदल गये हैं? अगर आप ही बदल गये होते तो यह खयाल ही पैदा
होना मुश्किल था कि मैं कभी बच्चा था। मैं बच्चा था इस बात की स्मृति--इस बात का
सबूत और गवाह है कि मैं "मैं' ही था। जब बच्चा था, तब शरीर को मैं जानता था कि
बच्चा है और जवान हुआ तो जानता हूं, कल बूढ़ा हो जाऊंगा तो जानूंगा। जो और भी
गहराई से जानते हैं, वे
मरते क्षण में भी जानते हैं कि मैं वही हूं, शरीर मर रहा है।
सिकंदर
हिंदुस्तान से लौटा। जब वह हिंदुस्तान की तरफ आया था तो उसके मित्रों ने यूनान में
उससे कहा था कि हिंदुस्तान से बहुत चीजें लाओगे, एक संन्यासी भी ले आना!
संन्यासी हिंदुस्तान में ही पाये जाते हैं बहुत दिनों से! हिंदुस्तान के बाहर तो
सब एक्सपोर्टेड हैं--हिंदुस्तान से गये हुए संन्यासी हैं, या यहां से गयी हुई हवाएं हैं, या यहां से गये हुए विचार-बीज
हैं। सिकंदर के मित्रों ने कहा था, एक संन्यासी को भी ले आना! हम देखना चाहते
हैं, संन्यासी कैसा होता है?
सिकंदर
सब लूटकर जब वापिस लौटता था, तब
पंजाब के एक गांव में ठहरा। उसे खयाल आया, उसने पुछवाया गांव में कि खबर करो कोई
संन्यासी यहां मिल जाये तो मैं उसे अपने साथ ले जाना चाहता हूं शाही सम्मान के
साथ।
गांव
के लोगों ने कहा,
एक
संन्यासी है,
लेकिन
ले जाना बहुत मुश्किल है।
सिकंदर
ने कहा,
इसकी
तुम फिक्र मत करो। एक साधारण संन्यासी को, एक फकीर को ले जाने में मुझे क्या मुश्किल
हो सकती है?
मैं ले
जाऊंगा,
क्या
ताकत हो सकती है एक गरीब संन्यासी की?
उस
गांव के लोग हंसने लगे। उन्होंने कहा, शायद आपको पता नहीं कि संन्यासी की क्या
ताकत होती है?
संन्यासी
को आप नहीं ले जा सकेंगे। संन्यासी को मार डालना आसान है, लेकिन संन्यासी को इंच भर
हिलाना मुश्किल है।
सिंकदर
की कुछ समझ में नहीं पड़ा। वह तलवार का विश्वासी, उसे क्या यह सब बात समझ में
पड़ती? तलवार के विश्वासियों को
संन्यासी कभी समझ में नहीं आता और कभी नहीं आयेगा। सिकंदर तलवार नंगी लेकर उस
संन्यासी की खोज में गया नदी के पास। उसके दो सिपाहियों ने जाकर पहले खबर की उस
संन्यासी को कि महान सिकंदर आपसे मिलने आ रहा है।
उस
संन्यासी ने कहा,
महान
सिकंदर! क्या वह खुद भी अपने को महान समझता है?
उन
सिपाहियों ने कहा,
निश्चित, वह यही सिद्ध करने निकला है
दुनिया में कि मैं महान हूं।
वह
संन्यासी हंसने लगा। उसने कहा, उस
पागल से कह देना,
महान
कभी अपने को महान सिद्ध करने नहीं निकलते। और जो महान सिद्ध करने निकलता है, वह यह जानता है कि वह छोटा
आदमी है,
इसलिए
महान सिद्ध करने की कोशिश कर रहा है।
सिंकदर
सुनकर क्रोध से भर गया। उसने तलवार खींच ली और उसने कहा कि मेरे साथ चलना है
तुम्हें,
मैं
आज्ञा देता हूं।
संन्यासी
ने कहा,
पागल
हो गये हो?
हमने
किसी की भी आज्ञा मानना बंद कर दिया है, इसलिए तो हम संन्यासी हैं। हम किसी की आज्ञा
नहीं मानते। आज्ञा जो मानते हैं, वे और
लोग हैं। हम अपनी मौज से जीते हैं। जैसे हवाएं अपनी मौज से चलती हैं, ऐसे ही हम अपनी मौज से चलते
हैं। हम पर आज्ञाएं नहीं चलती हैं। तुम्हें संन्यासियों से बात करने का ढंग नहीं
मालूम!
सिकंदर
ने कहा कि मैं यह सुनने को राजी नहीं हूं। मैंने कभी अपनी आज्ञा का उल्लंघन नहीं
सुना। आज्ञा के टूटने का एक ही मतलब होगा। यह तलवार तुम्हारी गर्दन को अलग कर
देगी।
उस
संन्यासी ने कहा,
पागल, तुझे पता नहीं कि जिस गर्दन
को तू अलग करने की बात कर रहा है, उससे
हम बहुत पहले से अलग हैं, ऐसा
जान चुके हैं। और इसलिए अब उसे हमसे अलग करना, न-करना सब बराबर है। अगर तू गर्दन काटेगा तो
जिस तरह तू देखेगा कि गर्दन गिर गयी जमीन पर, उसी तरह हम भी देखेंगे, कि गर्दन गिर गयी जमीन पर! हम
भी देखेंगे,
तुम भी
देखोगे। लेकिन इस खयाल में मत रहना कि तुम मुझे काट दोगे। तुम जिसे काट सकोगे, वह मैं नहीं हूं। और यही तो, यही अनुभव करने के लिए तो, इस जीवन की खोज में निकला था।
वह अनुभव पूरा हो गया।
सिंकदर
ने कहा यूनान में जाकर कि एक आदमी मिला था, जिसे लोग संन्यासी कहते थे। लेकिन उस पर
मेरा कोई बस न चल सका, क्योंकि
वह आदमी मरने से नहीं डरता था!
और जो
मरने से नहीं डरता, उस पर
किसी का कोई भी बस नहीं चल सकता। हम मरने से डरते हैं, इसलिए बस चल जाता है। पर हम
मरने से डरते क्यों है? हम
मरने से डरते इसलिए हैं कि जो हमें दिखाई पड़ता है, उसी को हम सब समझ लेते हैं।
वह मरणधर्मा है,
इसलिए
मरने से डर लगता है।
लेकिन
जो उसको खोज लेते हैं, जो
नहीं दिखाई पड़ता,
वह जो
अमृत है,
वे
मृत्यु के ऊपर उठ जाते हैं।
उसका
मूल्य क्यों है--पूछते हो? उसका
मूल्य इसलिए है कि वही जीवन है, वही
अमृत है,
वही
सत्य है। इस शरीर का कोई भी मूल्य नहीं है। इस शरीर का उतना ही मूल्य है, जितना एक मकान के मालिक का
होता है। लेकिन मकान के मालिक? मकान
के मालिक के मूल्य की बात अलग है। लेकिन कई ऐसे नासमझ हैं कि मकान के मालिक को बेच
देते हैं और मकान को बचा लेते हैं! कई ऐसे नासमझ हैं कि मकान को सब समझ लेते हैं
और खुद को भूल जाते हैं!
स्वामी
राम जापान गये हुए थे। टोकियो के एक बहुत बड़े मकान में आग लग गयी थी। स्वामी राम
उस रास्ते से गुजरते थे। वह भी उस भीड़ में खड़े हो गये। न मालूम कितना कीमती महल आग
की लपटों में जल रहा था। सैकड़ों लोग महल के भीतर जाकर सामान बाहर ला रहे थे। महल
का मालिक बाहर खड़ा हुआ था। बेहोश हालत में था, लोग उसको संभाले हुए थे। तिजोरियां बाहर
निकाली जा रही थीं। कीमती वस्त्र बाहर निकाले जा रहे थे। कीमती फर्नीचर बाहर
निकाला जा रहा था। बहुमूल्य चित्र बाहर निकाले जा रहे थे। फिर सारा सामान बाहर
निकल गया। अंदर से लोगों ने आकर उस मकान के मालिक से कहा और कुछ बचा हो तो हमें बता
दें, एक बार और मकान के भीतर जाया
जा सकता है। फिर लपटें पूरी तरह पकड़ लेंगी। फिर भीतर जाना असंभव होगा। कोई
बहुमूल्य चीज बची हो तो बता दें।
मकान
के मालिक ने कहा,
मेरा
इकलौता बेटा! जो इस सब सामान का मालिक है, वह कहां है? लोगों ने कहा, भूल हो गयी। हम सामान के बचाने
में लग गये और मकान मालिक का इकलौता बेटा, जो कि सारे सामान का मालिक था, वह भीतर ही रह गया और जल गया!
अब हम उसकी लाश लेकर आये हैं! अब हम रो रहे हैं कि हमने आपका सामान व्यर्थ बचाया, क्योंकि जिसके लिए वह सामान
था, वही खत्म हो गया!
स्वामी
राम ने अपनी डायरी में लिखा कि आज मैंने एक बड़ी अदभुत घटना देखी, लेकिन बड़ी सच्ची। मैंने आज एक
मकान देखा,
जिसमें
मकान का मालिक जल गया और सामान बचा लिया गया! और मैं यह घटना देखकर इस नतीजे पर
पहुंचा कि ऐसा ही सारी दुनिया में हो रहा है। हर आदमी मकान के मालिक को जलने दे
रहा है और सामान को बचा रहा है! वह सामान दिखाई पड़ता है इसलिए, और मकान का मालिक दिखाई नहीं
पड़ता है इसलिए।
लेकिन
जो नहीं दिखाई पड़ता, वह भी
है ही। और जो दिखाई पड़ता है, वह भी
उसके ही सहारे है। जो नहीं दिखाई पड़ता, वही बुनियाद है। जो दिखाई पड़ता है, वह बुनियाद नहीं है। वह दिखाई
पड़ने वाला भवन,
न
दिखाई पड़ने वाले के आधार पर खड़ा है। लेकिन यह बड़ी उलटी बात मालूम पड़ती है कि जो
नहीं दिखाई पड़ता,
वह
बुनियाद हो। हम तो सोचते हैं, जो
दिखाई पड़ता है,
वही
बुनियाद होता है। लेकिन जिंदगी बड़ी पहेली है, यहां चीजें बड़ी उलटी हैं। इन उलटी चीजों से
ही सारी चीजें बनी हैं।
एक
पत्थर उठाकर आप देखते हैं, आपने
कभी सोचा कि यह पत्थर उन चीजों से बना हुआ है, जो दिखाई नहीं पड़ती हैं! अभी जाकर वैज्ञानिक
से पूछें। वह कहेगा, एटम
दिखाई नहीं पड़ता है। और उसे पूछें पत्थर किससे बना है? वह कहेगा, पत्थर एटम से बना है, एटम के जोड़ से बना है।
बड़ा
पागल है यह आदमी। जब एटम दिखाई नहीं पड़ते, तब उनका जोड़ कैसे दिखाई पड़ सकता है? कोई एटम दिखाई नहीं पड़ता।
लेकिन यह पत्थर सिर्फ एटम का जोड़ है। यह जो दिखाई पड़ रहा है, यह भी सब न दिखाई पड़ने वाले
अणुओं का जोड़ है! कोई अणु दिखाई नहीं पड़ता और उन न दिखाई पड़ने वाले अणुओं का जोड़
दिखाई पड़ रहा है!
कभी
आपने खयाल किया होली के वक्त। अभी होली करीब आती है। कुछ बच्चे आग लगाकर जोर से
हाथ को घुमायेंगे। आपने देखा एक लकड़ी में आग लगाकर? कोई जोर से घुमाये तो एक आग
का वृत्त,
एक
फायर सर्किल बन जाता है। एक मशाल को हाथ में लेकर जोर से घुमाइये तो एक चक्कर
दिखाई पड़ने लगता है। वह चक्कर है कहीं? नहीं सिर्फ दिखाई पड़ता है! है तो सिर्फ एक
मशाल, जो जोर से घूमती है और चक्कर
बन जाती है। वह चक्कर है नहीं, लेकिन
दिखाई पड़ता है! वह चक्कर इसलिए दिखाई पड़ता है कि मशाल इतने जोरों से घूम रही है कि
हमें दिखाई नहीं पड़ता कि बीच में खाली जगह भी निकल रही है। मशाल बहुत तेजी से
घूमने की वजह से एक चक्र बन जाता है।
वैज्ञानिक
कहते हैं,
एटम
इतनी तेजी से घूम रहे हैं कि वे दिखाई नहीं पड़ते। लेकिन उनके तेजी से घूमने की वजह
से हमें पत्थर दिखाई पड़ता है। सारी दुनिया दिखाई पड़ रही है। और जिन चीजों से मिलकर
बनी है,
वे
दिखाई पड़ने वाली चीजें नहीं हैं!
आत्मा
ही नहीं,
जगत की
सारी चीजें न दिखाई पड़ने वाली चीजों से बनी हैं और दिखाई पड़ रही हैं! यह चमत्कार
है।
पदार्थ
हम उसको कहते हैं,
जो
दिखाई पड़ता है। शायद, आपको
खयाल न हो,
अब जो
जानते हैं,
वे
कहते हैं,
पदार्थ
है ही नहीं,
मैटर
जैसी कोई भी चीज नहीं है!
नीत्शे
ने कोई साठ-सत्तर साल पहले, अस्सी
साल पहले यह कहा था--गाड इज डेड, ईश्वर
मर गया। लेकिन ईश्वर तो नहीं मरा। अब पूरा विज्ञान यही कहता है मैटर इज डेड, पदार्थ मर गया! पदार्थ है ही
नहीं, मैटर जैसी कोई चीज दुनिया में
नहीं है! जो भी दिखाई पड़ता है, वह
भ्रम है। लेकिन हम कहेंगे, जो
हमें दिखाई पड़ता है, वह
कैसे भ्रम हो सकता है?
उस
आकाश की तरफ देखें, वहां
तारे दिखाई पड़ रहे हैं आपको, और
आपको शायद पता नहीं होगा कि जहां यह आपको तारा दिखाई पड़ रहा है, वहां कोई भी तारा नहीं है। वह
सिर्फ दिखाई पड़ रहा है। आप कहेंगे, अगर नहीं है तो दिखाई कैसे पड़ रहा है? वह दिखाई इसलिए पड़ रहा है कि
वहां तारा कभी था। जिस जगह आपको तारा दिखाई पड़ रहा है, वहां साठ साल पहले तारा रहा
होगा। साठ साल में बहुत आगे बढ़ गया। साठ साल पहले उसकी चली हुई किरण अब हमारी जमीन
पर पहुंच पायी है! इसलिए हमको वहां दिखाई पड़ रहा है। हो सकता है इस बीच वह खत्म हो
गया हो,
हो भी
न, लेकिन वह दिखाई पड़ रहा है! वह
साठ साल तक आगे भी दिखाई पड़ता रहेगा।
सारा
आकाश झूठा है। जो तारे दिखाई पड़ते हैं, वे कोई भी वहां नहीं हैं! और जहां वे हैं, वहां आपको दिखाई नहीं पड़ रहे
हैं! और जहां हैं,
वहां
कभी दिखाई नहीं पड़ेंगे! और सदा वहीं दिखाई पड़ते रहेंगे, जहां वे नहीं हैं! क्योंकि
उनसे किरणों के आने में वर्षों लग जाते हैं।
जिंदगी
बहुत अदभुत है। यह जो पदार्थ हमें दिखाई पड़ता है, वह भी नहीं है। यह जो शरीर
हमें दिखाई पड़ता है, बहुत
ठोस मालूम पड़ता है, यह भी
न दिखाई पड़ने वाले अणुओं का जोड़ है!
और
इसके भीतर सबसे महत्वपूर्ण और सबसे रहस्य की जो बात छिपी है, वह है चेतना, वह है कांशसनेस, जिसके ऊपर सारा खेल है; वह बिलकुल ही दिखाई नहीं
पड़ती!
और
उसकी जितनी खोज कीजियेगा, जितनी
उसकी खोज में जाइयेगा, वह
उतनी ही पीछे सरकती चली जाती है! क्योंकि कौन उसको खोजेगा? आप ही तो वही हैं।
अगर एक
चिमटे से हम किसी भी चीज को पकड़ना चाहें तो पकड़ लेंगे। लेकिन उसी चिमटे से अगर उसी
चिमटे को पकड़ने की कोशिश की तो फिर बहुत मुश्किल हो जायेगी। फिर वह पकड़ में नहीं आ
सकेगी। क्योंकि चिमटा खुद अपने को कैसे पकड़ सकता है? और जब आत्मा की खोज में कोई
जाता है तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। क्योंकि आत्मा और सबको देख सकती है, खुद को कैसे देख सकती है? और इसलिए कठिनाई शुरू हो जाती
है।
लेकिन
आत्मा को अनुभव किया जा सकता है। उसे अनुभव किया गया है, उसे आज भी अनुभव किया जा सकता
है। लेकिन उसे अनुभव वे ही करेंगे, जो देखने पर न रुक जायें, दृश्य पर न रुक जायें और
अदृश्य की खोज में संलग्न हों।
इन तीन
दिनों में हमने उसी सत्य की खोज के संबंध में कुछ सूचक, कुछ संकेतों पर, कुछ सूत्रों पर बात की है।
उसका मूल्य है,
जो
दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए उसकी बात की जाती है। जिस दिन यह शरीर गिर जायेगा, उस दिन वही बच रहता है, जो नहीं दिखाई पड़ता है। इसलिए
उसकी बात करना बहुत जरूरी है, बहुत
उपादेय है। उसकी खोज करना भी बहुत जरूरी है, बहुत उपादेय है। और धन्य हैं वे लोग, जो उसकी खोज में संलग्न हो
जाते हैं। और अभागे हैं वे लोग, जो
दिखाई पड़ता है,
उसी पर
रुक जाते हैं और समाप्त हो जाते हैं!
एक
मित्र ने पूछा है कि क्या मैं संयम का विरोधी हूं?
मैं
निश्चित ही संयम का विरोधी हूं, उस
संयम का जो आदमी जबरदस्ती अपने ऊपर थोप लेता है। मैं संयम का बहुत पक्षपाती हूं, लेकिन उस संयम का जो समझ के
परिणामस्वरूप मनुष्य को सहज उपलब्ध होता है। इन दोनों बातों को ठीक से समझ लेना
उपयोगी है। एक तो ऐसा संयम है, जो
आदमी जबरदस्ती अपने ऊपर थोपता है। भीतर कुछ होता है, ऊपर से कुछ और हो जाता है। और
अधिकतर संयमी इसी तरह के लोग होते हैं। भीतर हिंसा होती है, ऊपर से आदमी अहिंसक हो जाता
है--पानी छानकर पीता है, रात
खाना नहीं खाता है! ये सारे इंतजाम कर लेता है। और सोचता है कि मैं अहिंसक हो गया!
भीतर हिंसा की लपटें, भीतर
हिंसा की आग जलती रहती है, भीतर
वासना सुलगती रहती है--ऊपर ब्रह्मचर्य और संयम के पाठ लेकर बैठ जाता है! भीतर
क्रोध जलता है,
ऊपर
मुस्कुराहटें सीख लेता है! भीतर कुछ होता है, ऊपर बिलकुल उलटा हो जाता है। ऐसा संयम बहुत
खतरनाक है। और ऐसा संयम अपने आपको ज्वालामुखी पर बिठाने के समान है।
मैंने
सुना है एक गांव में एक बहुत क्रोधी आदमी था। वह इतना क्रोधी था कि उसने अंततः
अपने क्रोध में अपनी पत्नी को धक्का दे दिया एक कुएं में। उसकी पत्नी गिर गयी और
मर गयी! तब उसे बहुत पश्चात्ताप हुआ।
सभी
क्रोधियों को पश्चात्ताप होता है। लेकिन पश्चात्ताप से क्रोधियों को कोई अंतर नहीं
पड़ता। वे फिर तय कर लेते हैं कि अब ऐसा नहीं करेंगे। और कल फिर वही करते हैं, जो उन्होंने तय किया था कि
नहीं करेंगे!
पश्चात्ताप
में वह बहुत दुखी हो उठा। गांव में एक संन्यासी, एक मुनि आये थे। मित्रों ने
उसे सलाह दी कि तुम इस तरह नहीं बदलोगे। वह मुनि आये हैं, उनके पास जाओ। शायद वह कोई
रास्ता बता सकें। वह क्रोधी आदमी पश्चात्ताप के क्षणों में मुनि के पास जाकर, हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और उसने
कहा कि मैं क्रोध से जल रहा हूं। मैंने अपनी पत्नी को धक्का दे दिया। अब मैं बहुत
घबरा गया हूं। मैं कैसे अपने क्रोध पर विजय पा सकता हूं?
मुनि
ने कहा,
साधारण
गृहस्थ रहते हुए क्रोध को जीतना मुश्किल है! इसके लिए संयम की साधना करनी पड़ेगी, संन्यास लेना पड़ेगा। अगर तुम
दीक्षा ले लो तो कुछ हो सकता है। वे मुनि नग्न थे।
उस आदमी
ने फिर आव देखा न ताव, वस्त्र
फेंककर नग्न खड़ा हो गया! उसने कहा कि दीक्षा दें, इसी वक्त दीक्षा दें!
मुनि
बहुत चकित हुए! मुनि ने कहा, बहुत
लोग मैंने देखे हैं, इतना
संकल्पवान आदमी,
इतना
विल पावर का आदमी मैंने नहीं देखा! संकल्प कुछ भी न था। वह आदमी क्रोधी था। जैसे
एक क्षण में उसने धक्का देकर पत्नी को कुएं में गिरा दिया था, उसी तरह एक धक्का देकर अपने
को दीक्षा में गिरा दिया। वही क्रोध था, कोई फर्क न था दोनों बातों में। लेकिन मुनि
समझे कि बहुत संकल्पवान है!
क्रोधी
लोग अकसर तपस्वी हो जाते हैं, क्योंकि
क्रोध बड़ी तपश्चर्या करवा सकता है। क्रोध बड़ी खतरनाक ताकत है। क्रोध दूसरे को भी
सता सकता है,
क्रोध
खुद को भी सता सकता है। क्रोध को मजा सताने में आता है। सौ में से अंठानवे प्रतिशत
तपस्वी और संन्यासी लोग क्रोधी लोग होते हैं। और जो क्रोध दूसरों को कष्ट देता है, उस क्रोध को अपनी तरफ मोड़
लेते हैं और खुद को कष्ट देना शुरू कर लेते हैं!
दुनिया
में दो तरह के सताने वाले लोग होते हैं। दो तरह की वायलेंस होती है, हिंसा होती है। एक हिंसा होती
है दूसरे के प्रति, जिसको
अंग्रेजी में सैडिज्म कहते हैं--परपीड़न! और एक हिंसा होती है, जिसे अंग्रेजी में मैसोचिज्म
कहते हैं--आत्मपीड़न! खुद को सताने में भी उतना ही मजा आने लगता है!
उस
आदमी ने वस्त्र फेंक दिये और खड़े होकर कहा, मैं दीक्षा लेने को तैयार हूं। मुनि ने कहा, तू बड़ा धन्यभागी है। तूने
इतना महान कार्य किया कि एक क्षण में तूने संकल्प ले लिया!
और
दूसरे दिन से उस आदमी के महान संकल्प के अनेक प्रमाण मिलने शुरू हो गये। वह इतनी
कठिन तपश्चर्या में लग गया कि मुनि के सारे शिष्य पीछे पड़ गये। वह सबसे आगे निकल
गया, जो सबसे पीछे आया था। उसके
गुरु ने उसे मुनि शांतिनाथ का नाम दिया, क्योंकि उसने क्रोध पर विजय करने की साधना
शुरू की थी।
वर्ष
बीतते-बीतते वह आदमी जगत में ख्याति प्राप्त हो गया। जगह-जगह से उसकी पूजा के
समाचार आने लगे। जब दूसरे साधु छाया में बैठते तो वह धूप में खड़ा रहता! जब दूसरे
साधु बंधे हुए रास्तों पर चलते तो वह कांटों से भरी पगडंडियों पर चलता! जब दूसरे
साधु दिन में एक बार भोजन करते, वह तीन
दिन में एक बार भोजन लेता! उसने सारे शरीर को सुखाकर कांटा कर दिया! फिर जितना आदर
मिलने लगा,
उतना
ही वह क्रोधी आदमी अपना दुश्मन होने लगा! उसने हजार-हजार तरकीबें निकाली खुद को
सताने की! उसकी ख्याति बढ़ती चली गयी।
वह देश
की राजधानी में पहुंचा। देश की राजधानी में उसकी ख्याति पहुंच गयी थी। उसका एक
मित्र राजधानी में रहता था। वह बहुत चकित हुआ यह जानकर कि उसका क्रोधी दोस्त साधु
हो गया है,
मुनि
शांतिनाथ हो गया है! यह कैसे हो गया! यह उसे विश्वास नहीं पड़ा। वह आदमी अपने मित्र
को, संन्यासी को देखने आया।
संन्यासी
बड़े मंच पर आसीन था। हजारों लोग उसके दर्शन करने को आये थे!
जो
आदमी बड़े मंचों पर आसीन हो जाते हैं, वे नीचे बैठने वालों को नहीं पहचानते! वह
मंच चाहे मिनिस्टर का हो और चाहे संन्यासी का हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मंच
ऊंचा होना चाहिए। फिर कोई किसी नीचे वाले को नहीं पहचानता। इसी मजे के लिए कि किसी
को पहचानना न पड़े,
आदमी
बड़े मंचों की यात्रा करता है! दुनिया उसको पहचाने और वह किसी को न पहचाने, यही तो मजा है अहंकार का।
मित्र
को देख तो लिया संन्यासी ने, लेकिन
पहचाना नहीं! मित्र को भी समझ में तो आ गया कि वह पहचान गया है, फिर भी पहचानना नहीं चाह रहा
है! तभी उसे खयाल आ गया कि मुश्किल है इस आदमी ने क्रोध जीता हो। क्योंकि क्रोध और
अहंकार सगे भाई हैं। अगर एक आता है तो दूसरा अपने आप चला आता है।
वह
मित्र पास आकर बैठ गया। और उसने कहा कि महाराज, आपका बड़ा नाम सुना है, आपकी बड़ी कीर्ति सुनी है, लेकिन मुझे पता नहीं कि आपका
ठीक-ठीक नाम क्या है। क्या मैं पूछ सकता हूं कि आपका क्या नाम है? मुनि को तो क्रोध आ गया, क्योंकि वह भली-भांति जानता
है, वह मुझे बचपन से जानता है और
अब नाम पूछने आया है!
उसने कहा, अखबार नहीं पढ़ते हो? रेडियो नहीं सुनते हो? मेरे नाम की सारे जगत में
चर्चा है! मेरा नाम है मुनि शांतिनाथ, ठीक से सुन लो!
मित्र
ने कहा,
भगवान, आपने बड़ी कृपा की, जो नाम बता दिया। फिर मुनि
कुछ दूसरी बातों में लग गये।
दो
मिनिट बाद उस मित्र ने कहा कि ठहरिये, ठहरिये मैं भूल गया, आपका नाम क्या है?
मुनि
के भीतर क्रोध जग गया! कहा, आदमी
हो या पागल,
मेरा
नाम मैंने अभी बताया था--मुनि शांतिनाथ।
मित्र
ने कहा,
धन्यवाद, आपने फिर बता दिया, मैं भूल गया था क्षमा करें।
दो मिनिट बाद दूसरी बात चली होगी कि उस आदमी ने फिर पैर को हाथ लगाया और कहा मुनि
जी मैं भूल गया,
नाम
क्या है आपका?
मुनि
ने अपना डंडा उठा लिया और कहा सिर तोड़ दूंगा! मेरा नाम है मुनि शांतिनाथ--बुद्धि
है तेरे पास या नहीं?
उस
मित्र ने कहा,
सब
अपनी जगह है महाराज। मेरे पास बुद्धि अपनी जगह है और आपका क्रोध अपनी जगह है। मैं
सिर्फ यही देखने आया था कि वह क्रोध चला गया या मौजूद है?
यह
सारा संयम उस क्रोध को भीतर दबाये हुए बैठा है। हिंसक, अहिंसक बन जाते हैं! क्रोधी
क्षमावान दिखाई पड़ने लगते हैं! कभी ब्रह्मचर्य की धारणा कर लेते हैं! यह सब हो
सकता है। लोभी त्यागी हो सकते हैं। लेकिन भीतर कोई अंतर नहीं पड़ता। ऊपर से थोपी
गयी बात,
भीतर
की आत्मा को रूपांतरित नहीं करती।
कोई भी
क्रांति बाहर से भीतर की तरफ नहीं होती। सारी क्रांतियां भीतर से बाहर की तरफ होती
हैं। आत्मा बदल जाये तो आचरण बदल जाता है। लेकिन आचरण भर बदलने से आत्मा नहीं बदलती।
मैं उस
संयम के विरोध में हूं, जो
सिर्फ आचरण पर बल देता है। मैं उस संयम के पक्ष में हूं, जो आत्मा से जन्मता है और
बाहर की तरफ फैलता है। इन दोनों की प्रक्रियाएं अलग हैं। बाहर से थोपा गया संयम
हमेशा दमन,
सप्रेशन
का फल होता है। अगर भीतर हिंसा है तो उसको दबा दो, अगर भीतर क्रोध है तो उसको
दबा दो। और दबाकर उससे उलटे को अपने ऊपर ले आओ। लेकिन वास्तविक संयम, जिसको मैं संयम कहता हूं, वह संयम दमन से नहीं आता।
हिंसा के दमन से अहिंसा नहीं आती, बल्कि
हिंसा की समझ से ,
हिंसा
को समझने से,
हिंसा
को पहचानने से,
भीतर
की हिंसा की खोज करने से, हिंसा
के प्रति जाग्रत होने से, धीरे-धीरे
हिंसा विसर्जित होती है। और फिर जो शेष रह जाता है, उसका नाम अहिंसा है।
दो तरह
की अहिंसा हुई। हिंसा को भीतर दबा दो और अहिंसक हो जाओ। या हिंसा भीतर से क्षीण हो
जाये और अहिंसा जन्मे।
लेकिन
अब तक हजार वर्षों से आदमियों के ऊपर थोपने वाले संयम के पाठ पढ़ाये गये। इसलिए
संयम के पाठ तो बहुत हैं, लेकिन
जीवन में असंयम पाठों से बहुत ज्यादा है! संयम की हजारों वर्षों से चर्चा चलती है, लेकिन मनुष्य संयमी नहीं हो
पाया! जितनी चर्चा हुई है, उतना
ही मनुष्य असंयमी होता चल गया है। यह क्या हुआ है? जिस देश में ब्रह्मचर्य की
जितनी बात होगी,
उस देश
में कामुक व्यक्ति उतने ही अधिक होंगे। यह बड़ी हैरानी की बात है। ब्रह्मचर्य की
इतनी बातचीत चले और आदमी सैक्सुअल होता चला जाये! इसके बीच कोई संबंध मालूम होता
है। और वह संबंध यह है कि हम जिस चीज को दबाते हैं, वही चीज हमारे प्राणों में
गहरी प्रविष्ट होकर बैठ जाती है।
दमन
मुक्त नहीं करता,
दमन
बांध देता है।
किसी
भी चीज को दबाकर देख लें और जिसको आप दबायेंगे, आप उसी के साथ बंध जायेंगे।
एक
फकीर का मुझे स्मरण आता है। नसरुद्दीन नाम का एक फकीर हो गया है। वह अपने घर से
सांझ निकल रहा था किन्हीं मित्रों से मिलने। जाने को निकला ही घर के बाहर कि उसका
एक मित्र आ गया और गले मिल गया। बीस वर्ष बाद वह मित्र आया था।
नसरुद्दीन
ने कहा कि वर्षों बाद तुम आये हो, बहुत
खुश हुआ तुम्हें मिलकर। लेकिन बड़ा दुख है, तुम्हें थोड़ी देर रुक जाना पड़ेगा। मैं अब
किन्हीं से मिलने जा रहा हूं। मैं थोड़ा मिल आऊं, जल्दी ही आ जाऊंगा। फिर तुमसे
बैठकर घंटों बात करेंगे। बीस वर्ष बाद तुम मिले हो। कितनी बातें हो गयीं, कितनी बातें करनी हैं।
इस बीच
उस मित्र ने कहा,
मुझे
तो क्षण भर खोने की हिम्मत नहीं है। मैं तो चाहता हूं कि तुम्हारे साथ ही चलूं।
लेकिन वस्त्र मेरे सब गंदे हो गये हैं। तुम्हारे पास कोई ठीक कोट कुर्ता हो तो मैं
डाल लूं और तुम्हारे साथ हो जाऊं।
फकीर
ने रख छोड़ा था एक कोट, जिसे
किसी सम्राट ने भेंट किया था। कोट था, पगड़ी थी, जूते थे। ताजे कपड़े थे, ले आया निकालकर। बहुत कीमती
कपड़े थे,
खुद
कभी नहीं पहने थे। इतने कीमती कपड़े थे कि पहनने की फकीर हिम्मत नहीं जुटा पाया था।
प्रतीक्षा करता था कि कभी पहनूंगा, वह मौका ही नहीं आया। आज खुश हुआ कि चलो
मित्र को पहनने के काम आ जायेंगे। मित्र को कपड़े दे दिये।
लेकिन
जब मित्र ने कपड़े पहने तो फकीर के मन मेंर् ईष्या पकड़ गयी, इतने सुंदर कपड़े थे। और उस
दिन सुंदर कपड़ों में वह मित्र बहुत सुंदर मालूम पड़ने लगा। उसके सामने नसरुद्दीन
बिलकुल नौकर दिखाई पड़ने लगा। खुद के ही कपड़े और आदमी नौकर हो जाये तो तकलीफ होगी।
दूसरे के कपड़े हों, तब भी
तकलीफ हो जाती है। यहां तो अपने ही कपड़े थे और उसके सामने ही नौकर दिखाई पड़ने लगे
थे!
लेकिन
मन को बहुत समझाया कि इन बातों में क्या रखा है। कपड़े अपने हुए या उसके हुए। मित्र
अपना है,
कपड़ों
में क्या रखा हुआ है? बहुत
समझाया अपने मन को, जैसा
संयमी लोग समझाते हैं। समझाने की बहुत कोशिश की कि सब बेकार बात है। रास्ते भर
मित्र से बात करता रहा ऊपर-ऊपर और भीतर अपने को समझता रहा कि इसमें क्या रखा हुआ
है? किसी ने अगर कपड़े पहन लिए तो
हर्ज क्या है?
लेकिन
सारे रास्ते पर जिसकी भी नजर गयी, मित्र
के कपड़ों पर गयी!
दुनिया
तो कपड़ों को देखती है, आदमी
को कोई देखता नहीं! जब भी किसी की नजर गयी कपड़ों पर गयी। नसरुद्दीन को किसी ने
देखा ही नहीं! उस दिन रास्ते भर बड़ी तकलीफ हो गयी, बड़ी पीड़ा हो गयी।
फिर
मित्र के घर गये। जहां मिलने गये थे, वहां जाकर कहा कि मेरे मित्र हैं, बहुत पुराने दोस्त हैं, बीस वर्षों बाद आये हैं, बहुत ही अच्छे आदमी हैं। और
रह गये कपड़े,
सो
कपड़े मेरे हैं! एक क्षण में यह बात निकल गयी मुंह से कि कपड़े मेरे हैं! फिर बहुत
दुखी हुआ। मित्र भी हैरान हुआ। जिसके घर गये थे, वे लोग भी चकित हुए कि कपड़ों
की बात कहने की क्या जरूरत थी?
बाहर
निकालकर मित्र ने कहा, क्षमा
करें, मैं अब आपके साथ नहीं जा
सकूंगा। यह क्या अपमान किया मेरा? अगर
यही था तो मैं अपने ही कपड़े पहने आता। वे गंदे थे, तब भी कम से कम अपने तो थे।
यह बताने की क्या जरूरत थी कि कपड़े आपके हैं? नसरुद्दीन ने कहा कि जबान धोखा दे गयी।
जबान
कभी धोखा नहीं देती है, ध्यान
रखना। भीतर जो होता है, वह कभी
भी जबान से निकल जाता है। जबान धोखा कभी नहीं देती, मन कभी धोखा नहीं देता है।
भीतर दबा हो,
वह कभी
भी फूट जाता है। जैसे केटली में भाप दबाकर रख दी हो तो केवल फूट सकती है। केटली
धोखा नहीं देती,
भाप
निकलना चाहती है,
केटली
फूट सकती है।
मित्र
ने कहा कि तुम कहते हो तो मान लेता हूं, लेकिन दूसरी जगह ध्यान रहे।
नसरुद्दीन
ने कहा,
बिलकुल
ध्यान है। न केवल ध्यान है, बल्कि
मैं कहता हूं,
ये
कपड़े अब तुम्हारे ही हुए। मैं सदा के लिए ये कपड़े तुम्हीं को दिये देता हूं, अब कपड़े तुम्हारे ही हैं, मेरा सवाल ही न रहा।
दूसरे
मित्र के घर गये। दूसरा मित्र, उसकी
पत्नी जैसे ही बाहर आये, उनकी
आंखें अटक गयीं उस मित्र के कपड़ों पर! फिर नसरुद्दीन के मन में हुआ कि यह मैंने
पागलपन कर दिया?
कपड़े
बिलकुल ही दे दिये। अब कभी मौका नहीं मिलेगा इनको पहनने का, चूक गया। मित्र ने पूछा, कौन हैं आप?
नसरुद्दीन
ने कहा,
बहुत
पुराने दोस्त हैं,
बड़े
प्यारे आदमी हैं,
बीस
वर्षों बाद मिले हैं। और रह गये कपड़े, कपड़े उन्हीं के हैं, मेरे नहीं हैं!
लेकिन
इसे कहने की क्या जरूरत थी? कपड़े
जब किसी के होते हैं, तब कोई
भी नहीं कहता कि उसी के हैं। फिर शक पैदा हो गया।
मित्र
ने बाहर निकलकर कहा, क्षमा
कर दो,
अब मैं
तुम्हारे साथ कदम नहीं रख सकता हूं। यह क्या पागलपन है?
नसरुद्दीन
ने कहा,
एक
मौका और दो,
नहीं
तो जिंदगी भर के लिए मेरे मन में दुख रह जायेगा। भूल हो गयी। शायद पिछली भूल के
कारण ही यह भूल भी हो गयी। पिछली बार मैंने कहा कि मेरे हैं तो मन में दुख समा गया
और लगा कि अपने मित्र को यही बता दूं। शायद इससे ही यह भूल हो गयी।
लेकिन
भूल का कारण दूसरा था। भूल का कारण था दमन, भूल का कारण था सप्रेशन--दबा रहा था भीतर कि
कपड़े! कपड़े कुछ भी नहीं है! और जिन चीजों को दबा रहा था, वे चीजें बाहर निकलने की
कोशिश कर रही थीं।
तीसरे
मित्र के घर,
वह अब
अपने को बिलकुल संयम साधकर भीतर प्रवेश कर रहा है। भीतर कपड़े ही कपड़े उठ रहे हैं
मन में! कपड़े ही कपड़े दिखाई पड़ रहे हैं! आंख खोलता है तो कपड़े हैं, आंख बंद करता है तो कपड़े हैं।
अपने को संभाल रहा है। किसी को पता नहीं है, इस बेचारे के भीतर क्या हो रहा है!
संयमी
आदमी के भीतर क्या होता है, किसी
को पता नहीं। संयमी आदमी बड़े खतरनाक होते हैं। जो बाहर नहीं दिखाई देता, वही उनके भीतर चलता रहता है!
वह
घबरा रहा है,
परेशान
हो रहा है। ऊपर से ठीक दिखाई पड़ रहा है, लेकिन भीतर वह बिलकुल पागल हालत में है। उसे
कपड़े ही दिखाई पड़ रहे हैं। पश्चात्ताप भी हो रहा है, दुख भी हो रहा है कि मैंने यह
क्या किया। कपड़ों की बात नहीं करनी थी। कपड़ों की बात ही नहीं करनी है।
और तभी
मित्र ने पूछा,
कौन
हैं आप?
फिर
वही कपड़े सामने आ गये! कहा कि मेरे मित्र हैं और रह गये कपड़े--सो कपड़े की कसम खा
ली है,
बात ही
नहीं करनी है,
किसी
के भी हों!
यह
दमित चित्त इसी तरह काम करता है। जिसको दबाता है, उसी से उलझ जाता है। किसी भी चीज
को दबायें,
उसी से
उलझ जायेंगे। चित्त रुग्ण हो जाता है, आब्सेशन पैदा हो जाता है।
संयम
का क्या अर्थ है?
संयम
का अर्थ दमन नहीं है। लेकिन संयम का अर्थ दमन ही प्रचलित रहा है! और आज भी जब कोई
संयम साधने जाता है तो दमन करने में लग जाता है, आत्म-दमन में लग जाता है! और
जिन-जिन चीजों को दबाता है, उन्हीं-उन्हीं
चीजों का रुग्ण आकर्षण सारे चित्त को पकड़ लेता है।
मैं एक
साध्वी के साथ समुद्र-किनारे पर बैठा हुआ था। साध्वी आत्मा-परमात्मा की, मोक्ष की बातें कर रही थी! हम
जिन चीजों की बातें करते हैं, अकसर
उनसे हमारा कोई संबंध नहीं होता। जिनसे हमारा संबंध होता है, उनकी हम शायद बात ही नहीं
करते हैं। साध्वी आत्मा-परमात्मा की बातें कर रही थी। मैं उसकी बात सुन रहा था। वह
बातों में जब कुछ बोल रहीं थीं, तभी
जोरों की हवा आयी,
तूफान
आया समुद्र की तरफ से, मेरा
चादर उड़ा और साध्वी को छू गया। साध्वी घबरा गयीं! मैंने कहा कि चादर छूने से आप
घबरा गयीं!
उस
साध्वी ने कहा,
पुरुष
का चादर छूने की वर्जना है, मनाई
है। मुझे उपवास करके प्रायश्चित्त करना पड़ेगा!
मैंने
उससे कहा,
अभी तो
तुम कह रही थीं कि तुम शरीर भी नहीं हो, आत्मा हो। और अब तुम्हारी बात से पता चलता
है कि चादर भी स्त्री और पुरुष हो सकते हैं! चादर भी स्त्री और पुरुष! पुरुष ने
चादर पहन-ओढ़ लिया तो पुरुष हो गया चादर भी! यह सप्रेस्ड सेक्सुअलिटि के लक्षण हैं।
यह दबायी हुई वासना, यह
दबाया हुआ चित्त,
यह
दबाया हुआ मन है। यह इतने जोर से दबाया गया है कि चादर भी प्रतीक बन गया! चादर से
क्यों घबरा गयी हो?
मैंने
उससे कहा,
अगर
तुम्हें यह पता चल गया कि आत्मा शरीर नहीं है, तब यदि शरीर भी पुरुष को छू जाये तो घबराने
की कोई बात नहीं,
क्योंकि
शरीर भी मिट्टी है। लेकिन नहीं, अगर
चित्त में दबाया गया है तो जिसे दबाया है, उसके प्रति बहुत सजगता, बहुत कांशसनेस हो जायेगी। और
जो दबाया है,
वह
नये-नये रूपों में पकड़ना शुरू कर देगा।
एक
साधु के पास मैं ठहरा हुआ था। वह सुबह-शाम दोत्तीन बार दिन में कहते थे कि मैंने
लाखों रुपयों पर लात मार दी है। मैंने उनसे पूछा कि लात मारी कब है? वे कहने लगे, कोई तीस-पैंतीस वर्ष हो गये।
मैंने कहा,
फिर
लात ठीक से लग नहीं पायी होगी। अन्यथा पैंतीस वर्षों तक याद रखने की जरूरत न थी।
लग गयी थी,
बात
खत्म हो गयी थी। वे लाखों रुपये अब तक पीछा क्यों कर रहे हैं?
लाखों
रुपयों पर लात मारी है, लेकिन
रुपये छूटे नहीं हैं! वे अपनी जगह कायम हैं! दमन किया गया है, त्याग नहीं हुआ। संयम किया
गया है,
संयम
आया नहीं। जब लाखों रुपये पास में रहे होंगे, तब भी अकड़कर चलते रहे होंगे कि मेरे पास
लाखों रुपये हैं। फिर लात मार दी, तब से
फिर अकड़कर चल रहे हैं कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी! और पहली अकड़ से दूसरी
अकड़ ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि पहली अकड़ बहुत स्थूल थी, दूसरी अकड़ बहुत सूम है। पहली
अकड़ पहचान में आ जाती है। दूसरी अकड़ पहचान में भी नहीं आयेगी। लेकिन यह संयम न हुआ, यह दमन हुआ। और इसी दमन को हम
संयम समझ लेते हैं! हम कहेंगे, यह
आदमी बड़ा त्यागी है!
मैं
जयपुर में ठहरा हुआ था। एक मित्र आये और मुझसे कहने लगे, एक बहुत बड़े महात्मा ठहरे हैं, आप भी मिलेंगे तो बड़े खुश
होंगे।
मैंने
उनसे कहा,
तुमने
किस तराजू पर तौलकर पता लगाया कि महात्मा बड़े हैं? महात्मा के बड़े होने का पता
कैसे चला?
मेजरमेंट
क्या है?
तौला
कैसे तुमने?
कौन-सा
फुट है,
जिससे
तुम्हें पता लग गया कि महात्मा बड़े हैं?
उन्होंने
कहा, इसमें तौलने की कोई जरूरत
नहीं है। खुद जयपुर महाराज उनके पैर छूते हैं।
तो
मैंने कहा,
फिर
जयपुर महाराज बड़े होंगे। महात्मा का बड़ा होना, इससे कहां सिद्ध होता है? जयपुर महाराज अगर पैर छूते
हैं किसी संन्यास के तो वह संन्यासी बड़ा हो गया और अगर जयपुर महाराज पैर नहीं
छुयेंगे तो संन्यासी छोटा हो जायेगा? मापदंड क्या है? मापदंड है-- जयपुर महाराज!
मापदंड धन है त्याग का भी! त्याग का भी मापदंड धन है!
कभी
आपने सोचा,
जैनों
के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के पुत्र हैं। एक भी गरीब आदमी का पुत्र नहीं है! बुद्ध
राजपुत्र हैं;
राम, कृष्ण सब राजपुत्र हैं!
हिंदुस्तान में जितने अवतार, जितने
तीर्थंकर,
जितने
बुद्ध पुरुष हुए,
सब
राजाओं के पुत्र हैं! कोई गरीब का बेटा तीर्थंकर नहीं हो सका! बात क्या है? क्या तीर्थंकर होने के लिए भी
अमीर होना जरूरी है?
तीर्थंकर
होने के लिए अमीर होना जरूरी नहीं है। गरीब के बेटे भी तीर्थंकर हुए हैं, लेकिन उनको तौलने का हमारे
पास कोई उपाय नहीं है। हम तौलेंगे तभी, जब धन छोड़कर कोई आयेगा। क्योंकि त्यागी का
पता भी धन छोड़ने से चलता है। कितना छोड़ा उससे त्याग का पता चलता है! तब तो यह
त्याग न हुआ,
यह धन
का ही दूसरा रूप हुआ। यह धन का ही इन्वेस्टमेंट हुआ, मोक्ष के लिए। यह धन की ही
दूसरी स्थिति हुई,
यह लोभ
की ही दूसरी प्रक्रिया हुई।
मैं
अहमदाबाद में था,
कोई दो
वर्ष हुए,
एक
संन्यासी का व्याख्यान हुआ। फिर मैं बोला। उस संन्यासी ने कहा कि अगर मोक्ष पाना
हो तो लोभ छोड़ना पड़ेगा। मैं उनके पीछे बोला। मैंने कहा कि इन्होंने बड़ी अदभुत बात
कही है। ये कहते हैं, अगर
मोक्ष पाना है तो पहले लोभ छोड़ना पड़ेगा! और मोक्ष पाने का लोभ पहले दे रहे हैं! और
कोई लोभी होगा तो बेचारा लोभ छोड़ने को तैयार हो जायेगा। क्योंकि मोक्ष का लोभ अगर
पैदा हो गया तो वह लोभ छोड़ने को राजी हो जायेगा। लेकिन मोक्ष का लोभ भी लोभ है, वह भी ग्रीड है।
जिंदगी
बहुत उलझी हुई है। इस उलझी हुई जिंदगी में संयम के नाम से, त्याग के नाम से, मोक्ष के नाम से उलटी चीजें
चलती हैं। उन उलटी चीजों के मैं विरोध में हूं। जिंदगी साफ, सीधी, और अखंड होनी चाहिए। उसमें
टुकड़े-टुकड़े नहीं चाहिए। भीतर कुछ उलटा हो, बाहर कुछ उलटा हो, ऐसा नहीं चाहिए। जिंदगी
इकट्ठी,
इंटीग्रेटेड--जिंदगी
एक इकाई चाहिए। जो भीतर हो, वही
बाहर हो।
लेकिन
हम बाहर की तरफ से भीतर को नहीं बदल सकते। हां, भीतर की तरफ से बाहर को बदला जा सकता है।
अगर किसी की जिंदगी में धन व्यर्थ हो जाये तो फिर वह धन को छोड़ा, ऐसा भी कभी नहीं कहेगा।
क्योंकि जो व्यर्थ हो गया, उसे
छोड़ने का कोई मतलब नहीं होता है। आप रोज अपने घर के बाहर कचरा फेंक आते हैं, लेकिन जाकर गांव में खबर नहीं
करते कि आज फिर कचरे का त्याग कर दिया। क्योंकि कचरे का त्याग नहीं किया जाता, कचरे का त्याग कर ही देना
होता है।
लेकिन
कोई आदमी कहता है कि मैंने धन का त्याग किया तो धन अभी उसके लिए कचरा नहीं हो गया।
अभी धन उसके लिए धन था। और धन था इसलिए त्यागा। त्याग के बाद भी उसे लग रहा है कि
वह धन है!
मैंने
सुना है,
एक
फकीर था गांव में। गरीब आदमी था, भिखमंगा
था। बहुत गरीब था,
लेकिन
कभी, न किसी से दान मांगा, न कभी किसी के सामने हाथ
फैलाया। भिखारी था एक अर्थों में। भीख नहीं मांगता था, लेकिन उसके पास कुछ भी न था।
उसकी पत्री थी और वे दोनों जंगल से लकड़ियां काट लाते थे बेच देते थे, जो बचता था, उसी से खा लेते थे। सांझ जो
बचता था,
उसको
बांट देते थे। सुबह फिर लकड़ियां काट लाते।
एक बार
बे-मौसम पानी गिरा। और पांच दिन तक वे लकड़ियां काटने न जा सके तो पांच दिन भूखे ही
रहे। बूढ़े थे दोनों। छठवें दिन सूरज निकला तो दोनों जंगल गये लकड़ियां काटने। जंगल
से लकड़ियां काटकर लौटते थे। आगे बूढ़ा था, पीछे बुढ़िया थी लकड़ी की मोरी लिए हुए। बूढ़े
ने पगडंडी के रास्ते पर देखा कि घुड़सवार आगे गया है, पैर के चिह्न हैं घोड़े के। और
पास ही पगडंडी के किनारे अशर्फियों की एक थैली पड़ी है। कुछ अशर्फियां बाहर हैं, कुछ थैली के भीतर हैं!
उस
बूढ़े को खयाल आया। संयमी आदमियों को इस तरह के खयाल बहुत आते हैं। उसे बूढ़े को
खयाल आया कि मेरी बुढ़िया जो पीछे आ रही है, कहीं उसका मन डांवाडोल न हो जाये। बुढ़िया का
मन धन पर डांवाडोल न हो जाये, यह
बूढ़े को खयाल आया! संयमी को दूसरों की बड़ी फिक्र होती है, कि किसका मन कहां डांवाडोल हो
रहा है! संयमी आदमी राम भर सोता नहीं बेचारा। पास-पड़ोस में कौन क्या कर रहा है, इसकी फिक्र रखता है! संयमी
आदमी इसका हिसाब रखता है कि किस-किस को नरक जाना पड़ेगा और नरक में क्या-क्या होगा!
इसकी वह सब फिक्र रखता है कि किस तरह जलाये जाओगे, किस तरह सड़ाये जाओगे।
संयमी
आदमी यह सब फिक्र क्यों रखता है? संयमी
आदमी के खुद के भीतर जो हो रहा है, वह दूसरों पर प्रोजेक्ट करता है, वह दूसरे पर थोपता है, जो उसके भीतर हो रहा है।
उस
बूढ़े ने सोचा कि कहीं बुढ़िया का मन डांवाडोल न हो जाये, डांवाडोल उसका मन खुद हो गया
था! अन्यथा बुढ़िया का उसे खयाल भी न आता। लेकिन कोई यह मानने को राजी नहीं होता कि
मेरा मन डांवाडोल हो गया है। उसने सोचा कि बुढ़िया का मन डांवाडोल न हो जाये! जल्दी
से उसने अशर्फियों को गङ्ढे में डालकर मिट्टी से ढंक दिया। बुढ़िया आ गयी, जब मिट्टी ढंक रहा था।
उस
बूढ़ी औरत ने पूछा कि आप क्या कर रहे हैं, कैसे रुक गये?
बूढ़े
ने कसम ली थी कि कभी झूठ नहीं बोलेंगे। संयमी आदमी थे, सत्य बोलने का नियम ले रखा
था!
संयमी
आदमी नियम लेकर चलते हैं। और जो भी आदमी नियम लेकर चलता है, ध्यान रखना, उसके भीतर उलटा हमेशा मौजूद
रहता है;
अन्यथा
नियम लेने की कोई जरूरत नहीं है। आप कभी यह नियम नहीं लेते कि हम दरवाजे से
निकलेंगे क्योंकि दरवाजा निकलने जैसा दिखाई पड़ता है। लेकिन अंधा आदमी यह भी कसम खा
सकता है कि कसम खाता हूं कि मैं दरवाजे से निकलूंगा, दीवाल से नहीं निकलूंगा।
अंधा
कसम खा कसता है,
आंख
वाला कभी कसम नहीं खायेगा। कसम की कोई जरूरत नहीं है। जिसे उलटा हो सकता है, वह कसम लेता है। जिसे उलटा
नहीं हो सकता,
वह
क्यों लेगा?
उस
बूढ़े ने कसम खायी थी कि झूठ नहीं बोलेंगे! कसम किसके खिलाफ खायी जाती है? अपने ही खिलाफ, वह जो झूठ बोलने का मन है, उसके खिलाफ। बुढ़िया ने पूछा
कि क्या कर रहे हो तो मजबूरी खड़ी हो गयी। सच बताना जरूरी हो गया।
उस
बूढ़े ने कहा कि क्या कर रहा हूं, मत
पूछो तो अच्छा है। लेकिन तुम पूछती हो तो मुझे कहना पड़ेगा। यहां अशर्फियां पड़ी थीं
सोने की। उनको गङ्ढे में डालकर दबा रहा हूं कि कहीं तेरा मन डांवाडोल न हो जाये!
वह
बूढ़ी खड़ी होकर हंसने लगी। उस जंगल में उसकी हंसी गूंजी; काश, आप भी वहां होते, वह हंसी सुनते! वह बूढ़ा पूछने
लगा हंसती क्यों हो?
उस
बुढ़िया ने कहा,
हे
भगवान! मैं समझती थी कि तुम्हारा धन से छुटकारा हो गया, लेकिन तुम्हें अभी धन दिखाई
पड़ता है। तुम्हें अशर्फियां दिखाई कैसे पड़ी? तुम अपन रास्ते जाते थे, तुम्हें अशर्फियां कैसे दिखाई
पड़ीं? अशर्फियां सोने की थी, यह तुम्हें कैसे दिखाई पड़ा? सोने और मिट्टी में तुम्हें
फर्क मालूम पड़ता है! और मैं धोखे में रही आज तक, मैं सोचती थी कि तुम मुक्त हो
गये। और आज तुम्हें मिट्टी पर मिट्टी डालते देखकर मैं शघमदा हो रही हूं। ये दरख्त
हंसते होंगे नम में कि मिट्टी पर यह आदमी मिट्टी डाल रहा है!
ये
दोनों संयमी है। बूढ़ा संयमी है उस तरह का, जिस संयम से सावधान रहना चाहिए। वह स्त्री
भी, बुढ़िया भी संयमी है, उन अर्थों में जिन अर्थों से
जीवन सत्य से रूपांतरित होता है। अगर यह दिखाई पड़ गया कि सोना मिट्टी है तो फिर इस
मिट्टी को मिट्टी से ढांकने की भी जरूरत नहीं रह जाती। न इसे छोड़ने और न इससे
भागने की जरूरत रह जाती है। न इसके त्याग की खबर दुनिया मैं फैलाने की जरूरत रह
जाती है। बात खत्म हो गयी, जैसे
सूखा पत्ता वृक्ष से नीचे गिर जाता है। न तो वृक्ष को पता चलता है, न सूखे पत्ते को पता चलता है, न हवाओं को खबर आती है कि
सूखा पत्ता टूट गया। टूटकर चुपचाप गिर जाता है।
लेकिन
कच्चे पत्ते को तोड़ें तो वृक्ष को भी पता चलता है। कच्चे पत्ते के भी प्राण कंप
जाते हैं और पीछे घाव छूट जाता है। कच्चे पत्ते पीछे घाव छोड़ जाते हैं क्योंकि
कच्चे पत्तों को तोड़ना पड़ता है, कच्चे
पत्ते टूटते नहीं हैं। और जो आदमी संयम को थोपता है, लादता है, चेष्टा करता है, वह सब कच्चे पत्ते तोड़ता है, उसके घाव छूट जाते हैं। और
घाव पीछे कष्ट देते हैं, तकलीफ
देते हैं,
दुख
देते हैं।
मैं उस
संयम के पक्ष में हूं, जो
सूखे पत्ते की तरह आता है। जिंदगी से कुछ चीजें गिर जाती हैं, अर्थहीन हो जाती हैं, झड़ जाती हैं और जिंदगी
रूपांतरित हो जाती है।
लेकिन
वे झड़ कैसे जायेंगी? आप
कहेंगे,
जब तक
हम उन्हें गिरायेंगे नहीं, ये
गिरेंगी कैसे?
गिरायेंगे
तो फिर कच्चे पत्ते टूट जायेंगे!
तो फिर
मैं क्या कहता हूं--गिराइये मत, समझिये।
जिंदगी में जो भी बुरा है, उससे
लड़ने मत लग जाइये,
उसे
जानिये,
उसे
पहचानिये। अगर क्रोध है, उदाहरण
के लिए,
तो
क्रोध से लड़िये मत; क्रोध
को जानिये,
क्रोध
को समझिये। और जब क्रोध पकड़ ले तो एक कोने मैं चले जायें, द्वारा बंध कर लें और क्रोध
के ऊपर ध्यान करें--मेडिटेट आन इट। क्रोध को देखें, कहां है क्रोध? पहचानें, क्या है क्रोध? कहां-कहां प्राण को घेरा रहा
है? चित्त में कहां-कहां क्रोध की
आग जल रही है,
इसे
देखें।
और आप
हैरान रह जायेंगे। जितना क्रोध को आप समझेंगे, उतना ही विलीन हो जायेगा। और आप जितने क्रोध
के प्रति जागेंगे,
क्रोध
विनष्ट हो जायेगा। और एक घड़ी आयेगी जीवन में कि क्रोध सूखे पत्ते की तरह गिर
जायेगा। फिर पीछे जो रह जायेगा, वह
शांति है।
क्रोध
दबाने से शांति उपलब्ध नहीं होती। क्रोध के चले जाने पर जो शेष रह जाता है, उसका नाम शांति है।
यह
ध्यान रहे,
हिंसा
की उलटी नहीं है अहिंसा। अहिंसा हिंसा का अभाव है, एब्सेंस है।
प्रेम
घृणा का उलटा नहीं है कि आप घृणा को दबाकर प्रेम को ले आयेंगे। प्रेम घृणा का अभाव
है। जब घृणा का अभाव हो जाता है तो जो शेष रह जाता है, वह प्रेम है।
यह ठीक
वैसा ही है,
जैसे
इस अंधेरी रात में हम एक दीया जलायें, दीया जलते ही अंधेरा विलीन हो जाये। क्योंकि
दीया जलते ही अंधेरा कहां टिक सकेगा? अंधेरा चला जायेगा।
लेकिन
कोई आदमी दीया न जलाये और अंधेरे को दूर करने में लग जाये, धक्के दे अंधेरे को, तलवारें ले आये, कुश्ती लड़े अंधेरे से, तो भी अंधेरा नहीं हारेगा।
लड़ने वाला ही हार जायेगा। अंधेरा नहीं हटाया जा सकता। हिंसा को भी नहीं हटाया जा
सकता। क्रोध को भी नहीं हटाया जा सकता। घृणा को भी नहीं हटाया जा सकता।
लेकिन
दीये जलाये जा सकते हैं। ज्ञान का दीया जलाया जा सकता है। और ज्ञान का दीया जलते
ही जो अंधकार है,
वह
विलीन हो जाता है। उसका कहीं खोजना भी मुश्किल है।
एक
छोटी-सी घटना,
और मैं
अपनी बात पूरी करूंगा।
मैंने
सुना है,
एक बार
अंधेरे ने भगवान के जाकर पैर पकड़ लिए और भगवान के पैर पर सिर पटकने लगा। उसकी
आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे। भगवान ने पूछा, हुआ क्या है? तुझे क्या हो गया है? कभी तू आया नहीं, आज क्या हो गया है?
उस
अंधेरे ने कहा,
बहुत
परेशान होकर आया हूं? मैं
बहुत घबरा हूं। करोड़ों वर्षों से तुम्हारा सूरज मेरे पीछे बुरी तरह से पड़ा है।
सुबह से उठता है और मुझे खदेड़ना शुरू कर देता है। सांझ तक मैं थक जाता हूं, हाथ-पैर टूट जाते हैं। किसी
तरह वह पीछा छोड़ता है। रात भर विश्राम पूरा भी नहीं हो पाता कि वह सुबह फिर मेरे
द्वार के सामने हाजिर है। फिर दौड़ शुरू हो जाती है। मैंने क्या बिगड़ा है तुम्हारे
सूरज का?
भगवान
ने कहा,
यह तो
बड़ी ज्यादती हो रही है, लेकिन
तुमने कहा क्यों नहीं अब तक! मैं सूरज को बुलाकर बात कर लेता हूं। भगवान ने सूरज
को बुलाया और कहा कि तू अंधेरे के पीछे क्यों पड़ा है? इसने क्या बिगाड़ा है तेरा?
सूरज
ने कहा,
अंधेरा!
मेरी तो अब तक मुलाकात भी नहीं हुई! अंधेरा है कहां? मेरी तो अब तक मुठभेड़ भी नहीं
हुई, रास्ते पर कभी मिलना भी नहीं
हुआ, कोई नमस्कार, कुछ भी नहीं हुआ! कहां है
अंधेरा?
मैं
क्यों सताऊंगा उसे, जिसे
मैं जानता भी नहीं हूं? क्योंकि
शत्रु बनाने के पहले भी तो मित्र बनाना जरूरी रहता है। बिना मित्र बनाये तो किसी
को शत्रु नहीं बनाया जा सकता। मेरी मित्रता ही नहीं है तो शत्रुता का सवाल ही नहीं
है। कहां है?
आप
बुला दें,
मैं
क्षमा भी मांग लूं और उसकी शक्ल को ठीक से पहचान लूं, ताकि कभी भूल-चूक से कोई गलती
न हो जाये।
इस बात
को हुए,
कहते
हैं अरबों वर्ष बीत गये। वह भगवान की फाइल में मामला दबा है! वह अंधेरे को सामने
नहीं ला सके अब तक सूरज के! वह कभी भी ला नहीं सकेंगे। क्योंकि अंधेरा सूरज का
उलटा नहीं है। अंधेरा सूरज का अभाव है। अभाव और उलटे के फर्क को समझ लेना चाहिए।
अंधेरा
अगर सूरज का उलटा हो तो हम एक बोरी भर अंधेरा एक दीये के ऊपर लाकर पटक सकते हैं।
दीया फौरन बुझ जायेगा। लेकिन आप बोरी भर अंधेरा लाकर दीये के ऊपर नहीं पटक सकते
हैं। अंधेरा अभाव है, एब्सेंस
है, प्रकाश की गैर-मौजूदगी है, प्रकाश का न-होना है। अंधेरे
का अपना कोई भी अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व है प्रकाश का। और जब प्रकाश का
अस्तित्व नहीं होता तो जो शेष रह जाता है, वह अंधेरा है। अंधेरे को दूर नहीं किया जा
सकता है। अंधेरे के साथ सीधा कुछ भी नहीं किया जा सकता। अगर अंधेरा लाना है तो
प्रकाश के साथ कुछ करना पड़ेगा।
ठीक
ऐसे ही जीवन में जो भी बुरा है, उसे
मैं अंधेरा मानता हूं। चाहे वह क्रोध हो, चाहे काम हो, चाहे लोभ हो। जीवन में जो भी
बुरा है,
वह सब
अंधकारपूर्ण है। उस अंधेरे से जो सीधा लड़ता है, उसको संयमी कहते हैं। मैं उसको संयमी नहीं
कहता। मैं उसे पागल होने की तरकीब कहता हूं या पाखंडी होने की तरकीब कहता हूं। और
पाखंडी हो जाइये,
चाहे
पागल--दोनों बुरी हालतें हैं।
अंधेरे
से लड़ना नहीं है,
प्रकाश
को जलाना है। प्रकाश के जलते ही अंधेरा नहीं है।
जीवन
में जो श्रेष्ठ है, वही
सत्य है।
उसका
अभाव विपरीत नहीं है, उलटा
नहीं है। उसका अभाव सिर्फ अभाव है।
इसलिए
अगर कोई हिंसक आदमी अहिंसा साध ले, तो साध सकता है, लेकिन भीतर हिंसा जारी रहेगी।
कोई भी आदमी ब्रह्मचर्य साध ले, साध
सकता है;
लेकिन
भीतर वासना जारी रहेगी। यह संयम धोखे की आड़ होगी, यह संयम एक डिसेप्शन होगा। इस
संयम के मैं विरोध में हूं।
मैं उस
संयम के पक्ष में हूं, जिसमें
हम बुराई को दबाते नहीं, सत्य
को, शुभ को जगाते हैं। जिसमें हम
अंधेरे को हटाते नहीं, ज्योति
को जलाते हैं। वैसा ज्ञान, वैसा
जागरण व्यक्तित्व को रूपांतरित करता है और वहां पहुंचा देता है, जहां सत्य के मंदिर हैं।
जो शुभ
में जाग जाता है,
वह
सत्य के मंदिर में पहुंच जाता है।
इन तीन
दिनों में सत्य की यात्रा पर ये थोड़ी-सी बातें कही हैं। लेकिन मेरी बातों से आपकी
यात्रा नहीं हो जायेगी। किसी की बातों से किसी की यात्रा नहीं होती। इसलिए अंतिम
बात, यह यात्रा आप करेंगे तो ही हो
सकती है। अगर मेरी बातें सुनकर आपकी यात्रा हो सके, तब बड़ी आसान है, तब तो दुनिया में सबकी यात्रा
कभी की हो गयी होती।
हमने
बुद्ध को सुना है,
महावीर
को सुना है। लेकिन सुनने से कभी किसी की यात्रा नहीं होती है। लेकिन कुछ लोग यह
सोचते हैं कि सुनने से ही यात्रा हो जाती है, तो वे भ्रम में भटक रहे हैं। यात्रा खुद
करनी पड़ती है।
कोई
दूसरा किसी के लिए यात्रा नहीं कर सकता है।
न मैं
आपके लिए श्वास ले सकता हूं, न आपके
लिए प्रेम कर सकता हूं, न आपकी
जगह चल सकता हूं,
न आपकी
जगह जी सकता हूं,
न आपकी
जगह मर सकता हूं। तो आपकी जगह सत्य को कैसे पा सकता हूं? कोई मनुष्य किसी दूसरे की जगह
कुछ भी नहीं पा सकता।
और
दूसरे की बात सुनकर कई बार यात्रा का भ्रम हो जाता है। कई बार ऐसा लगता है कि हम
उसे सुनकर वहां पहुंच गये, जो
हमने सुना। यह भ्रम बहुत खतरनाक है।
यह
भगवान न करे कि मेरी कोई बात भी किसी आदमी के मन में यह भ्रम पैदा करे कि वह कहीं
पहुंच गया है। कुछ लोगों को यह भ्रम पैदा हो जाता है। वे मुझे लिखते हैं कि हमने
आपकी बात सुनी और बड़ी शांति मिली। बात सुनने से शांति नहीं मिल सकती, सिर्फ मनोरंजन हो सकता है।
बात सुनने से सत्य नहीं मिल सकता, सिर्फ
शब्द मिल सकते हैं। सत्य और शांति तो तब मिलेगी, जब आप चलेंगे।
तो जो
मैंने कहा है,
वह सुनने
के लिए नहीं,
वह
चलने के लिए कहा है। अगर उसमें कोई बात भी ठीक मालूम पड़ती हो तो अपने विवेक का
थोड़ा प्रयोग करना,
एकाध
कदम उठाना।
हजार-हजार
शास्त्रों का उतना मूल्य नहीं है, जितना
अपने द्वारा उठाये गये एक कदम का मूल्य है।
और
इसकी फिक्र मत करना कि रास्ता बहुत लंबा है। क्योंकि लंबे से लंबे रास्ते भी एक-एक
कदम उठाकर पूरे हो जाते हैं।
गांधीजी
एक गीत पसंद करते थे। वह गीत बहुत अदभुत है। वह उनके आश्रम में रोज उसे गाते थे, गवांते थे। वह गीत हैः वन
स्टेप इज एनफ फार मी, आई डू
नाट लांग फार दी डिस्टेंट सीन--मैं दूर के दृश्य की कामना नहीं करता, मेरे लिए एक ही कदम पर्याप्त
है।
लेकिन
जो एक कदम चलता है, वह दूर
के दृश्य पर पहुंच जाता है। एक कदम से ज्यादा तो एक साथ कोई भी नहीं चल सकता। दो
कदम कभी किसी को एक साथ चलते देखा है? एक कदम ही कोई चल सकता है--बड़े से बड़ा आदमी
और छोटे से छोटा आदमी। इस मामले में हम सब बराबर हैं। बड़े से बड़ा आदमी भी एक ही
कदम चलता है और छोटे से छोटा भी। दुनिया का कोई बड़ा से बड़ा आदमी भी हो, वह दो कदम एक साथ नहीं चल
सकता। एक कदम ही चला जाता है एक बार में। लेकिन एक-एक कदम मिलकर हजारों मील की
यात्रा पूरी हो जाती है।
एक
गांव के बाहर एक युवक बैठा हुआ था, एक छोटी-सी लालटेन लिए हुए। उसे पहाड़ की
यात्रा करनी थी,
लेकिन
पहाड़ दूर था,
रात
अंधेरी थी और उसके पास छोटी लालटेन थी, जिससे दोत्तीन फीट के घेरे में प्रकाश पड़ता
था। उसने सोचा,
उसने
गणित लगाया--कुछ लोग गणित में बड़े कुशल होते हैं। उसने गणित लगाया कि इतना बड़ा
अंधकार है दस मील लंबा। इस दस मील के अंधकार को इस तीन फीट प्रकाश फेंकने वाली
लालटेन से भाग दिया! अंधकार कभी दूर नहीं हो सकता है इतनी छोटी-सी लालटेन से! कैसे
दूर होगा?
इतना
लंबा रास्ता कैसे प्रकाशित होगा? वह बैठ
गया! उसने कहा,
मेरा
जाना फिजूल है,
इतना
अनाप अंधेरा है,
इतनी-सी
लालटेन है,
एक कदम
पर रोशनी पड़ती है,
कैसे
पहुंचूंगा?
कैसे
दस मील पार करूंगा?
उसके
पीछे ही एक बूढ़ा भागता चला आ रहा है, वह भी छोटा-सा हाथ में कंदील लिए हुए है! उस
बूढ़े ने पूछा कि बेटे, तुम
बैठ क्यों गये हो?
उस
जवान लड़के ने कहा,
बैठ न
जाऊं तो क्या करूं? दस मील
लंबा अंधकार है और दोत्तीन फीट की रोशनी है मेरे पास। इस रोशनी से दस मील कैसे पार
करूंगा?
उस
बूढ़े ने कहा,
अरे
पागल, दस मील पार करना किसे है एक
साथ? तीन फीट पार कर ले, तब तक तीन फीट आगे रोशनी चली जायेगी।
फिर तीन फीट पार कर लेना। फिर तीन फीट पार कर लेना, फिर तीन फीट आगे रोशनी चली
जायेगी। रोशनी सदा आगे चलती है न, तो बस
फिर दस मील क्या,
हजार
मील का अंधकार भी कट जायेगा। लेकिन अंधकार चलने से कटता है।
एक
छोटा-सा पैर उठायें और जिंदगी उन दूर के दृश्यों पर पहुंच जायेगी, जो आज दिखाई नहीं पड़ते हैं।
लेकिन चलने से दिखाई पड़ सकते हैं। जो आज सिर्फ शब्दों के जाल मालूम पड़ते हैं, वही कल जीवन के सत्य बन सकते
है। जो आज सुनने में मधुर मालूम पड़ते हैं, काश, हम वहां पहुंच जायें तो वे कितने मधुर होंगे, इसे कहना कठिन है।
इन तीन
दिनों में ये सारी बातें इतने प्रेम और शांति से आपने सुनीं, इसके लिए अनुग्रही हूं। और
अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रमाण करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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