प्रवचन-इक्कीसवां
मेरे
प्रिय आत्मन,
मनुष्य
के मन की बड़ी शक्ति है--भाव। लेकिन शक्ति बाहर जाने के लिए उपयोगी है, भीतर जाने के लिए बाधा। भाव
के बड़े उपयोग है,
लेकिन
बड़े दुरुपयोग भी हैं।
गहरे
अर्थों में भाव का मूल्य होता है--स्वप्न देखने की क्षमता। वह भावना है, जो हमारे भीतर स्वप्न निर्माण
की प्रक्रिया है।
स्वप्न
देखने के उपयोग हैं। स्वप्न देखने का सबसे बड़ा उपयोग तो यह है कि स्वप्न हमारी
नींद को सुविधापूर्ण बनाता है, बाधा
नहीं डालता। इसे थोड़ा समझना उपयोगी है।
साधारणतः
हम सोचते हैं कि रात में स्वप्न आता है तो उससे नींद में बाधा पड़ती है। यह बात गलत
है। स्वप्न से नींद में बाधा नहीं पड़ती। स्वप्न नींद को चलाने का ढंग है। अगर
स्वप्न न हों तो नींद में बहुत जल्दी बाधा पड़ सकती है।
जैसे
आप भूखे सो गये है तो भूख बार-बार नींद तोड़ने की कोशिश करती है कि उठो, भूख लगी है। स्वप्न इंतजाम
करता है--स्वप्न कहता है, भोजन
कर लो,
उठने
की क्या जरूरत है?
स्वप्न
भोजन का इंतजाम करा देता है! स्वप्न झूठे भोजन का इंतजाम करा सकता है। आप स्वप्न
में भोजन करने लगते हैं और नींद अपने रास्ते पर चलती रहती है। आपको प्यास लगी है
और अगर स्वप्न न हो तो नींद टूट जाये। लेकिन स्वप्न इंतजाम करता है कि यह सरिता बह
रही है,
मन
भरकर पानी पी लो।
आपने
एलार्म घड़ी लगा रखी है और चार बजे सुबह उठना है। अब वह एलार्म घड़ी नींद को तोड़
देगी। स्वप्न एलार्म घड़ी नहीं सुनता--सुनता है कि मंदिर की घंटियां बज रही हैं, पूजा हो रही है! स्वप्न नींद
को बचाने की तरकीब है, सेफ्टी
मेजर है। नींद टूट न जाये, इसका
इंतजाम है। साधारणतः नींद को बचाता है स्वप्न।
एक और
बड़ी नींद है,
जिसको
आध्यात्मिक नींद कहें, जिसमें
हम चौबीस घंटे सोये हुए हैं! उसको बचाने के लिए बहुत स्वप्नों की जरूरत है। भविष्य
के स्वप्न हम इसीलिए देखते हैं। आज दुख है तो मैं कल के सपने देखता रहता हूं कि कल
सब ठीक हो जायेगा। आज नौकर हूं तो कल के सपने देखता रहता हूं कि कल मालिक हो
जाऊंगा। थोड़ी देर की बात है, थोड़ी
प्रतीक्षा की बात है।
मैंने
सुना है,
एक
फकीर मर गया था। और जब वह भगवान के सामने पहुंचा तो उसने भगवान से पूछा कि मैं
बहुत हैरान हूं कि लोग जिंदा क्यों हैं? उनके जिंदा रहने का कारण क्या है? क्योंकि लोग इतने दुखी हैं, मर क्यों नहीं जाते?
तब
भगवान ने कहा,
आशा के
कारण! आज दुख है तो कल सब ठीक हो जायेगा!
जिंदगी
में एक गहरी नींद भी है। जो हम रोज सोते हैं, वह तो बहुत साधारण नींद है। शरीर की जरूरत
है। एक और गहरी नींद है, जिसमें
हम जन्म से ही सोये रहते हैं! और बहुत कम सौभाग्यशाली हैं, जो मृत्यु के पहले उस नींद से
जागते हैं। उस नींद को चलाने में भी सपने बड़े महत्वपूर्ण हैं। वे आशा बंधाये रखते
हैं।
एक बार
ऐसा हुआ कि इजिप्त की एक मॉनेस्ट्री में, एक आश्रम में--फकीरों के आश्रम में एक आदमी
मर गया,
एक
फकीर मर गया। उस आश्रम में नियम था कि आश्रम के नीचे ही कई मील की खंदक खोद रखी थी, जिसमें मुर्दों को नीचे डाल
देते थे। फकीर मर गया था, चट्टान
खोली गयी और फकीर को मरघट में नीचे डाल दिया गया। चट्टान बंद कर दी गयी।
लेकिन
भूल हो गयी। वह फकीर मरा न था, सिर्फ
बेहोश था! चट्टान बंद हो गयी। और फकीर होश में आ गया!
ऐसी
भूल बहुत बार हो जाती है। जिंदा आदमियों को बहुत बार हम मरे हुए समझ लेते हैं और
बहुत बार मरे हुए आदमी को जिंदा समझ लेते हैं!
हम सब
मरे हुए आदमी हैं और अपने को जिंदा समझते हैं!
अभी
सुबह ही मैं कह रहा था कि हम मरते कभी हैं और दफनाया कभी जाते हैं! मर तो जाता है
आदमी बहुत जल्दी--कोई बीस साल में, कोई पंद्रह साल में, कोई दस साल में, कोई पांच साल में! और दफनाया
जाता है सत्तर साल में, पचहत्तर
साल में,
अस्सी
साल में! बाकी का जो अंतराल है बीच का--मरने और दफनाया जाने का, उसमें हम मरे हुए जीते हैं!
तो कुछ आश्चर्यजनक नहीं है कि मरे हुए लोगों को हम जिंदा समझते हैं और जिंदा आदमी
को मरा हुआ समझते हैं!
वह
आदमी होश में आ गया, उसकी
मुसीबत हम समझें। वहां सिवाय लाशों के और कोई भी न था। अंधेरा था, कीड़े-मकोड़े थे। जो लाशों में
पलते थे,
ऐसे
छोटे कीड़े-मकोड़े पैदा हो गये थे। बदबू थी, दुर्गंध थी। उस आदमी ने आत्महत्या कर ली
होगी? नहीं की! आशा ने उसे जिलाये
रखा! उसने सोचा,
हो
सकता है,
कल कोई
मर जाये! उसने सोचा, हो
सकता है कि कोई मर जाये और चट्टान खुले! चट्टान तो तभी खुलती थी, जब कोई मरता था। वह बहुत
चिल्लाया! मालूम था उसे की चट्टान के बाहर आवाज नहीं जायेगी, लेकिन फिर भी चिल्लाया!
आशा सब
कुछ करवा देती है--शायद कोई सुन ले!
जानता
था कि कोई नहीं सुनेगा। आश्रम दूर था चट्टान से। और चट्टान सख्ती से बंद हो जाती
थी। कई बार उसने चट्टान बंद की थी। जब कोई आदमी मर जाता था तो नीचे जाकर दफनाकर
बंद कर देते थे। जानता था कि नहीं कोई सुनेगा, लेकिन आशा ने कहा, चिल्ला लो, शायद कोई सुन ले! कोई निकलता
हो, कोई गुजरता हो, कोई पास आया हो! नहीं किसी ने
सुना, लेकिन तब भी आशा ने उसे जिंदा
रखा--कि हो सकता है कि कल कोई मर जाये, सांझ कोई मर जाये, परसों कोई मर जाये!
वह
आदमी सात साल तक वहां जिंदा रहा! कैसे जिंदा रहा होगा?
पहले
एक दो दिन तो उसने भूख में गुजार दिये। लेकिन भूखा आदमी कब तक रह सकता था--फकीर
था--कभी मांस नहीं खाया और कभी सोचा भी नहीं था कि मांस खा लूंगा। और वह भी मरे
हुए मुर्दों का मांस खा लूंगा, यह तो
कभी सोचा नहीं था! असल में सुविधा में कभी भी पता नहीं चलता कि हम क्या कर सकते
हैं? वह तो असुविधा में पता चलता
है।
कब उसने
मांस खाना शुरू कर दिया--सड़ी हुई लाशों का, पता भी नहीं चला! उसने कीड़े-मकोड़े खाने शुरू
कर दिये,
क्योंकि
जिंदा रहना जरूरी था! मरघट की दीवारों से नालियों का पानी रिस-रिसकर भीतर आता था, वही वह चाट-चाटकर पीने लगा, क्योंकि जिंदा रहना जरूरी था!
दो-चार दिन की ही तो बात है। कभी न कभी तो कोई मरेगा, चट्टान खुलेगी और बाहर निकल
जाऊंगा!
और वह
फकीर, जिसने सबके लिए प्रार्थना की
थी--भगवान,
सबको
लंबी उम्र दे। वह फकीर अब भी प्रार्थना करता था, लेकिन वह यही कहता है कि
आश्रम में कोई एक आदमी मर जाये, नहीं
तो यह कब्र कैसे खुलेगी! हे भगवान, किसी तरह एक आदमी को मार!
सात
साल बहुत लंबा वक्त था, उस
अंधेरे में,
उस
मरघट में सात साल बाद कोई मरा, वह
चट्टान खुली। वह आदमी बाहर आ गया!
लोग तो
भूल चुके थे। लोग तो पहचान नहीं सके पहले, तो लोग भाग खड़े हुए। समझे कि कोई भूत-प्रेत
है! कौन निकला इस मरघट से? इस
आदमी के बाल बड़े हो गये थे। उसकी आंख की पलकें इतनी बड़ी हो गयी थीं कि आंख नहीं
खुलती थीं! और आश्चर्य यह कि अपने साथ वह आदमी सामान लेकर बाहर निकला!
इजिप्त
में रिवाज है कि मुर्दों को नये कपड़े पहना देते हैं। और एक-दो जोड़ी कपड़े भी रख
देते हैं। उनके साथ कुछ पैसे भी रख देते हैं! उसने सब मुर्दों के पैसे , सब मुर्दों के कपड़े इकट्ठे कर
लिए! इस आशा से कि कभी बाहर निकलूंगा तो काम पड़ जायेंगे! और जब उसने कहा, भागो मत, मैं वही आदमी हूं, जिसे तुम सात साल पहले दफना
गये थे। और डरो मत, मैं मर
नहीं गया था,
मैं
जिंदा था।
उन्होंने
कहा कि तुम मर नहीं गये थे, तुम
जिंदा थे,
यह
इतना आश्चर्य नहीं। सात साल इस मरघट में जिंदा कैसे रहे?
उस
आदमी ने कहा,
आशा के
सहारे! सोचा कल,
सोचा
कल और दिन गुजरते गये। और जो गुजर गया, वह मैं भूल गया। और कल की आशा फिर बंधी रही
कि कल और देखो। मेरी आशा सफल हो गयी। आखिर मरघट खुल गया और मैं बाहर आ गया।
जिंदगी
भर हम सपने देखते रहते हैं, कल के।
और कल का सपना,
हमें
आज जिंदा रहने में सहयोगी हो जाता है। और कल का सपना, आज की नींद नहीं टूटने देता।
आज के दुख को हम झेल लेते हैं और सोये रहते हैं!
भाव की
शक्ति का,
कल्पना
की शक्ति का,
स्वप्न
की शक्ति का उपयोग है, लेकिन
आध्यात्मिक उपयोग नहीं है। अत्यंत गैर-आध्यात्मिक उपयोग है। इस शक्ति का कुछ लोग
उपयोग करते हैं! भगवान को खोजने के लिए! इसी शक्ति का, यह जो कल्पना की प्रगाढ़ शक्ति
है, इसी शक्ति का उपयोग करते हैं!
और वे इसे भक्ति कहते हैं! वे कहते हैं, हम अपनी कल्पना से ही भगवान में जीयेंगे! हम
भगवान की इतनी कल्पना करेंगे, इतना
भाव करेंगे तो वह कैसे न आयेगा?
वह आ
जाता है। लेकिन वह असली भगवान नहीं होता, वह हमारी कल्पना का रूप होता है। कल्पना
प्रगाढ़ हो तो हम अपने भगवान को निर्मित कर सकते हैं। जैसे भगवान को चाहें, वैसे निर्मित कर सकते हैं। और
कल्पना की इतनी शक्ति है कि जितनी वस्तुतः आदमी सामने खड़ा हो, वह आदमी भी फीका मालूम पड़े और
कल्पना का आदमी ज्यादा सच्चा मालूम पड़े! रोज ही जिंदगी में हम ऐसा करते हैं।
मजनूं
किसी स्त्री के प्रति मोहित हो गया। सारा गांव कहता है कि वह पागल हो गया है! वह
स्त्री साधारण है। लेकिन उस आदमी को दिखायी नहीं पड़ता है! उसे कुछ और ही दिखाई
पड़ता है। उसने अपनी कल्पना की स्त्री को उस स्त्री के ऊपर उढ़ा दिया है! वह स्त्री
जिसे गांव वाले पहचानते हैं, सिर्फ
खूंटी का काम कर रही है। वह असली स्त्री नहीं है। असली स्त्री तो उसके दिमाग की है, जिसको उसने उस खूंटी के ऊपर
उढ़ा दिया है।
मजनूं
को बुलाया उसके गांव के राजा ने। और उसने कहा कि तू पागल हो गया है! क्योंकि जानकर
आपको हैरानी होगी कि लैला एक बदशक्ल औरत थी! उस राजा ने कहा, तू पागल हो गया, एक बदसूरत औरत के लिए? उससे बहुत सुंदर लड़कियां हम
तुझे दे सकते हैं,
छोड़
उसकी बात। उसने गांव की दस-बारह सुंदर लड़कियां बुलायी थीं और मजनूं से कहा, देख, इन लड़कियों को देख?
मजनूं
ने देखा और उसने कहा, "मुझे लैला के सिवा और कोई दिखायी ही नहीं पड़ती।
उस
राजा ने कहा,"तू पागल तो नहीं हो गया है!
मजनूं
ने कहा,
"हो
सकता है,
लेकिन
अभी तो मुझे आप पागल मालूम पड़ते हैं, जो लैला को कह रहे हैं कि वह बदशक्ल है!
लैला को देखा है आपने?
उस
राजा ने कहा,
पागल!
भली-भांति देखा है। मेरे दरवाजे से रोज निकलती है। सारे गांव ने देखा है। सारा
गांव हंस रहा है। सारा गांव कह रहा है कि मजनूं पागल हो गया है एक साधारण-सी औरत
के लिए! उसे बहुत अच्छी स्त्री मिल सकती है। राजा कहता है, छोड़ तू उसकी फिक्र।
मजनूं
ने कहा,
मेरी
आंख से आपने लैला को नहीं देखा! आप लैला को नहीं जानते। लैला को जानना हो तो मजनूं
की आंख चाहिए। मेरी आंख ही सिर्फ उसको देख सकती है!
असल
बात यह है कि लैला जो है, वह
मजनूं का क्रिएशन है, मजनूं
का सृजन है। उसने अपनी कल्पना की स्त्री को लैला के ऊपर थोप दिया है। इसलिए
प्रेयसी जितनी सुंदर दिखायी पड़ती है, उतनी पत्नी नहीं दिखायी पड़ती। प्रेयसी ही
पत्नी हो जाये तो भी दिखायी नहीं पड़ती, क्योंकि पत्नी होने से वह जो कल्पना की
स्त्री थी,
वह
धीरे-धीरे खूंटी से उतरती चली जाती है। फिर खूंटी ही रह जाती है। और तब पता चलता
है, कोई बड़ी भूल हो गयी, यह तो बड़ी गलती हो गयी!
वे
प्रेमी सुखी रहते हैं, जिनको
उनकी प्रेयसी कभी नहीं मिलती, क्योंकि
उनकी कल्पना सदा जागी रहती हैं। लेकिन जिनको प्रेयसी मिल जाती है, उनकी कल्पना टूट जाती है।
मैंने
सुना है,
एक
पागलखाने में एक मनोवैज्ञानिक गया था, पागलों का अध्ययन करने। पागलखाने का जो
प्रधान था,
उसने
एक पागल को दिखाते वक्त कहा, देखते
हो इस आदमी को,
जो
सींकचे में बंद है? यह एक
यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर था।
यूनिवर्सिटी
के प्रोफेसर को सदा सावधान रहना चाहिए, वह कभी भी पागल हो सकता है। यूनिवर्सिटी
पागलखाने की तैयारी है। वहां से खतरा सदा है। आन दी वर्ज, वहां बिलकुल किनारे पर खड़े
हैं लोग,
जरा-सा
धक्का लगे तो जायें।
यह एक
विश्वविद्यालय का अध्यापक है, यह
पागल हो गया है। उस अध्ययन करने वाले आदमी ने पूछा, इसके पागल होने का कारण?
उसने
कहा, देखिये वह हाथ में जो तस्वीर
लिए हुए है,
वह औरत
उसके पागल होने का कारण है। यह इस औरत को प्रेम करता था, और नहीं पा सका और पागल हो
गया!
फिर वे
आगे बढ़े। दूसरे सींकचे में बंद एक दूसरे आदमी को बताते हुए, उस प्रधान ने कहा, देखते हैं इस आदमी को? यह भी पागल हो गया, उसका ही मित्र है!
इसके
पागल होने का क्या कारण है?
उसने
कहा, वह जो फोटो दिखायी थी तुम्हें
उस पागल के पास,
यह भी
उस औरत को प्रेम करता था। यह औरत इसको मिल गयी! उसका विवाह हो गया, उसकी वजह से यह पागल हो गया!
एक
आदमी न मिलने से पागल हो गया, एक
आदमी मिलने से पागल हो गया !
फिर भी
उसने कहा कि वह जो न मिलने से पागल हुआ, वह बड़ा सुखी है, क्यों कि अभी वह सोचता है, कभी मिलना होगा! और यह जो
मिलने से पागल हो गया, वह बड़ा
दुखी है,
क्योंकि
अब इसको कोई आशा नहीं है।
पुरुष
स्त्रियों पर कल्पनायें थोप रहे हैं, स्त्रियां पुरुषों पर कल्पनायें थोप रही
हैं! बाप अपने बेटों पर कल्पनायें थोप रहे हैं, बेटे अपने बापों पर कल्पनायें थोप रहे हैं!
इसलिए ये सब पीछे परेशान हो जाते हैं। क्योंकि जब असली आदमी प्रगट होता है तो लगता
है, यह कैसा बेटा! इसको मैंने
पाल-पोसकर बड़ा किया? जिसको
पाल-पोसकर बड़ा किया था, वह
आपकी इमेजिनेशन थी, वह
आपकी कल्पना थी। वह असली आदमी नहीं था। जो अब सामने प्रगट हुआ, यही असली आदमी है।
मां
कहती हैं,
मैंने
तुझे नौ महीने पेट में रखा! जिसको उसने पेट में रखा था, वह कभी पैदा नहीं होगा, वह उसकी कल्पना थी। जो पैदा
होता है,
वह कोई
और है। और जब वह पैदा होता है, तब भी
मां कल्पना थोपती जाती है! अभी छोटा बच्चा है। रोक भी नहीं सकता कि कल्पना मत
थोपो। मां थोपे चली जाती है--नेपोलियन बनोगे, विवेकानंद बनोगे, कृष्ण बनोगे! न मालूम
क्या-क्या बना लेती है कल्पना में! जब वह लड़का बड़ा होकर खुद बनता है, तब सब कल्पनाएं टूट जाती हैं।
खूंटी सामने आ जाती है। मां बहुत दुखी हो जाती है। इस बेटे को तो जन्म न दिया होता
तो अच्छा होता! यह बेटा कहां से आ गया?
हम
चौबीस घंटे कल्पनाओं में जी रहे हैं! इन्हीं कल्पनाओं के आधार पर कुछ लोग भगवान को
भी पाना चाहते हैं! कुछ ने पा भी लिया है! लेकिन वह भगवान हमारी कल्पनाओं के भगवान
हैं। फिर व्यवस्थित रूप से अगर कोई कल्पना करे तो कोई भी कल्पना साकार हो सकती है।
टॉल्सटॉय
के संबंध में मैंने सुना है कि वह एक सीढ़ियों पर चढ़ रहा था, एक लाइब्रेरी में। संकरी
सीढ़ियां थीं और उसके साथ एक औरत चल रही थी! असली औरत नहीं थी! कवियों के साथ असली
औरत अकसर नहीं होतीं! उनके साथ तो उनकी कल्पना की औरत होती है!
टॉलस्टॉय
के साथ एक औरत चल रही थी, जो
उसके किसी उपन्यास की पात्र थी। वह उपन्यास लिख रहा था, उसमें वह एक पात्र थी। वह
उसके साथ चल रही थी। वह उससे बातचीत करता हुआ सीढ़ियां चढ़ रहा था! टॉल्सटॉय को ही
पता था उस स्त्री का और किसी को पता नहीं था! रास्ता संकरा था। ऊपर से एक आदमी उतर
रहा था। वहां सिर्फ दो की ही जगह थी। और वह तीसरी औरत, बीच में जो थी, कहीं उसको धक्का न लग जाये!
१९१७ के पहले की बात है। अब रूस में कोई स्त्री के धक्के से न डरता है, न चिंता करता है। कहीं उसको
धक्का न लग जाये,
टॉल्सटॉय
सरका और सीढ़ियों से नीचे गिर पड़ा!
उस
दूसरे आदमी ने नीचे आकर टॉल्सटॉय को कहा कि आप क्यों सरके? हम दो के लिए काफी जगह थी।
टॉल्सटॉय ने कहा,
दो
होते तो मैं भी क्यों सरकता? यह तो
घुटना टूटने पर पता चला कि दो ही थे। मैं तीन का सोच रहा था! एक औरत से बातें कर
रहा था। उसने कहा,
कौन
औरत? कोई औरत दिखायी नहीं पड़ती!
टॉल्सटॉय
ने कहा,
अब तो
मुझे भी दिखायी नहीं पड़ती। लेकिन इसके लिए पैर टूट जाना जरूरी था। पैर टूटा, तब पता चला कि गलती हो गयी।
अब
टॉल्सटॉय अगर भगवान का दर्शन करना चाहे तो उनको कोई कठिनाई नहीं। तब इस औरत की जगह
भगवान चलने लगेंगे, बांसुरी
बजाने वाले भगवान से बातें होने लगेंगी! धनुर्धारी भगवान से बातें होने लगेंगी!
यह
टॉल्सटॉय के लिए बिलकुल सरल है। क्योंकि वह जो फैकल्टी, वह जो दिमाग की व्यवस्था है, वह जो स्वप्न देखने की
व्यवस्था है,
यह
उसका खेल है। हम इतना तीव्र स्वप्न देख सकते हैं कि जो मौजूद नहीं है, वह हमारे पास मौजूद मालूम
होने लगे! हम उससे बात करने लगें! उसके साथ जीने लगें!
यह जो
भाव की सामर्थ्य है--इस भाव की सामर्थ्य का नाम भक्ति है। यह भाव की सामर्थ्य, जब भगवान की तरफ लगा दी जाती
है तो उसका नाम भक्ति है! यह भाव की सामर्थ्य, यह स्वप्न देखने की क्षमता, जब हम भगवान के प्रति लगा
देते हैं तो भक्ति बन जाती है! भक्त चौबीस घंटे भगवान के साथ रहने लगता है!
लेकिन
ध्यान रहे,
भाव
सपना पैदा करता है और सपने सदा प्राइवेट होते हैं। सपने कभी पब्लिक नहीं होते। सपने
का एक गुण है कि मैं और आप कितनी ही कोशिशें करें, एक ही सपना दोनों नहीं देख
सकते। सपने की एक पहचान है। जिस चीज को पब्लिक न किया जा सके, जिस चीज को दो आदमी भी साथ न
देख सकें,
वह
स्वप्न है। जिस चीज को दस आदमी साथ देख लें, वह सत्य है।
सपना
जो है,
मैं
अपना ही देखूंगा,
आप
अपना ही देखेंगे। सपने के संबंध में समाजवाद कभी नहीं लाया जा सकता। कभी ऐसा नहीं
हो सकता कि सब एक से सपने देखें। सब एक-सा सपना देखें, यह कभी भी नहीं हो सकता, क्योंकि सपना मेरी निजी बात
है, आपकी अपनी निजी बात है। और
अगर मैं आपके सामने मौजूद भी हो जाऊं तो वह सपने में ही रहूंगा, मैं मौजूद नहीं हो सकूंगा।
भगवान
भी भक्तों के बिलकुल निजी अनुभव हैं--एकदम प्राइवेट! वे भी पब्लिक नहीं हैं!
अगर हम
एक ही मकान में मीरा को, फ्रांसिस
को और तुलसीदास को बंद कर दें तो उस कमरे में बड़ा उपद्रव हो जायेगा रात को। क्योंकि
मीरा अपने कृष्ण को देखती रहेगी, तुलसीदास
अपने राम को देखते रहेंगे, फ्रांसिस
जीसस को देखता रहेगा। और सुबह तीनों में विवाद हो जायेगा। गलत कह रहे हो आप, कहां थे कृष्ण यहां? फ्रांसिस कहेगा, कोई कृष्ण की खबर नहीं मिली, रात भर जीसस खड़े रहे! और मीरा
कहेगी,
किस
जीसस की बातें कर रहे हैं! आपको सुनायी नहीं पड़ी बांसुरी की आवाज! रात भर नृत्य
होता रहा! तुलसीदास हंसेंगे कि तुम दोनों पागल तो नहीं हो गये हो? न यहां नृत्य हुआ है, न कोई सूली पर लटका है, यहां तो राम धनुष बाण लेकर
पहरा देते रहे!
हम
अपने भगवान पैदा कर लेते हैं! हम अपने भगवान पैदा कर सकते हैं और पूरा जीवन गंवा
सकते हैं! बहुत जीवन गंवा सकते हैं, स्वप्न के भगवान के साथ! वैसे स्वप्न के
भगवान में एक सुविधा है कि आप जैसे हैं, वैसे ही बने रहते हैं! भगवान आपमें कुछ
रद्दोबदल नहीं कर सकता है, क्योंकि
आपके ही मन से पैदा हुए हैं! भगवान आपमें कोई फर्क नहीं ला सकता। असली भगवान की
तरफ जाना हो तो आपको मिटना पड़ेगा और नकली भगवान की तरफ जाना हो तो भगवान को बनाना
पड़ेगा।
इस
फर्क को समझ लें कि असली भगवान की तरफ जाना हो तो मुझे मिटना पड़ेगा। जैसा भी मैं
हूं, मुझे मिट जाना पड़ेगा। तभी मैं
असली भगवान को जान सकूंगा। और अगर नकली भगवान को जानना हो तो मैं जैसा हूं, वैसा ही रहूंगा और भगवान को
बनाना पड़ेगा। मैं उसको बना लूंगा। जैसा मुझे बनाना है, वैसा मैं उन्हें बना लूंगा और
मैं उन्हें देख लूंगा!
भक्ति
भगवान का सृजन है--स्वप्न-सृजन! क्योंकि भगवान का सृजन हम कैसे कर सकते हैं? भगवान तो वह है, जिसने हमारा सृजन किया है। और
भक्त का भगवान वह है, जिसका
भक्त ही सृजन करता है।
भगवान
तो वह है,
जो जब
हम नहीं थे,
तब भी
था; जब हम नहीं होंगे, तब भी होगा।
भक्तों
का भगवान वह है,
जो
भक्त ने पैदा किया है। वह भक्त के साथ ही है, और भक्त के विदा होते ही विदा हो जायेगा।
भक्त का भगवान,
भगवान
नहीं है,
लेकिन
सुखदायी हो सकता है,आनंददायी
हो सकता है।
सुखद
सपने होते हैं। और भगवान तो व्यवस्थित सपना हैं भक्त का! वह अपने सुख की कल्पना कर
लेता है। वह जब चाहता है भगवान को, तब उन्हें मुस्कुराना पड़ता है! जब चाहता है, उन्हें नाचना पड़ता है! जब
चाहता है,
तब
उसके ऊपर रोशनी डालनी पड़ती है! भगवान से वह जो चाहता है, करवा लेता है!
और बड़ा
प्यारा सपना है,
क्योंकि
वहां खूंटी है ही नहीं, सिर्फ
सपना फैला हुआ पड़ा है। इसलिए कभी कठिनाई नहीं आती। सिर्फ सपना ही है और सपना अपने
हाथ में है। भगवान को नचाना भी अपने हाथ में है! तो भक्त अपने भगवान को नचाये
फिरता है! भक्त भागते हैं आगे-आगे, पीछे उनके भगवान उनको मनाने के लिए भी भागते
हैं! वह अपने ही भगवान हैं, अपनी
ही कल्पना से पैदा हुए। भक्ति से कोई कभी भगवान तक नहीं पहुंचा। भक्ति के कारण
जितने लोग भगवान तक पहुंचने से रुके हैं, उतने शायद ही किसी और बात से रुके हों।
लेकिन सुखद है। और आदमी भगवान को कम चाहता है, सुख को ज्यादा चाहता है। भगवान को चाहना
किसको है?
एक
मित्र ने पूछा है। एक प्रश्न पूछा है उन्होंने। उन्होंने लिखा है, हमें क्या मतलब है भगवान से, अगर हमें कल्पना का भगवान भी
सुख दे सकता हो! तो हम सुख चाहते हैं। हमें क्या मतलब है भगवान से? हम सुख चाहते हैं!
यह
सवाल महत्वपूर्ण है। यह महत्वपूर्ण इसलिए है कि यह किसी एक व्यक्ति का सवाल नहीं
है। हजारों लोगों का यही सवाल है। सुख मिलना चाहिए।
लेकिन
ध्यान रहे,
जो सुख
हमने निर्मित किया है, वह सुख
झूठा है। वह आनंद नहीं है। आनंद वह है, जो हमने निर्मित नहीं किया। इसलिए जो सुख
हमने निर्मित किया है, वह
खोता रहेगा। बार-बार खोता रहेगा।
रामकृष्ण
को समाधि लग जाती थी। जब समाधि टूट जाती थी तो छाती पीट-पीटकर रोते थे कि अब मुझे
फिर समाधि दे,
हे
मां! मुझे समाधि दे! अब फिर दर्शन दे! तू कहां खो गयी?
असल
में सपने को कितनी देर तक पकड़कर रखियेगा! सपना बीच-बीच में खोयेगा और सपना जब
खोयेगा,
तब दुख
होगा ही। तो यह सपने का जो सुख है, शराब जैसा सुख है। एक आदमी शराब पी लेता
है--फिर होश आता है, फिर वह
कहता है,
शराब
दो, क्योंकि मैं दुख में पड़ गया!
फिर और शराब पीता है! फिर जब तक होश नहीं रहता, तब तक ठीक। फिर होश आता है, फिर वह कहता है, मुझे और शराब दो! बेहोशी में
उसे सुख मालूम पड़ता है, होश
में उसे दुख मालूम पड़ने लगता है!
जो
सपने में सुख पाता रहेगा, वह
बार-बार दुख भी पाता रहेगा, क्योंकि
सपना टूटता रहेगा। सपना बार-बार टूटेगा। सपना स्थायी नहीं हो सकता। सपना शाश्वत
नहीं हो सकता। सपना तो टूटेगा। और जब टूटेगा तो बहुत दुख दे जायेगा। फिर सपने को
बनाना पड़ेगा।
सपने
से सुख मिल सकते हैं, लेकिन
वे सुख वास्तविक नहीं हैं, क्योंकि
उसके पीछे निरंतर दुख प्रतीक्षा कर रहा है। नहीं, आनंद कुछ बात और है। आनंद
हमारे द्वारा पैदा किया हुआ सुख नहीं है।
आनंद
वह क्षण है,
आनंद
वह स्थिति है,
जब सुख
और दुख दोनों जा चुके हैं। जो हमने बनाया था, वह सब जा चुका--दुख भी गया, सुख भी गया। हमने बनाये थे
नर्क, वे भी गये। हमने बनाये थे
स्वर्ग,
वे भी
गये। अब तो सिर्फ वही रह गया, जो सदा
है। वहां आनंद है।
भक्त
आनंद को उपलब्ध नहीं होता, सुख को
उपलब्ध होता है। क्योंकि सपने सुख के बाहर नहीं ले जाते। और जो सपना सुख देता है, उसके पीछे ही दुख देने वाला
सपना प्रतीक्षा करता है। वह कहता है, ठीक है, तुम चुक जाओ, तब मैं आ जाऊं। तो सब भक्त
रोते हुए भी दिखायी पड़ेंगे! जब उन्हें भगवान की झलक मिल जायेगी, तब वे बड़े प्रसन्न होंगे! और
जब झलक नहीं मिलेगी, सपना
नहीं बन सकेगा,
तब वे
छाती पीटेंगे,
रोयेंगे
और विरह की अग्नि उनको सतायेगी! वह प्रेमियों की ही पुरानी कथा है। सिर्फ प्रेम का
ऑब्जेक्ट,
विषय
बदल गया। भगवान को उन्होंने प्रेम का विषय बना लिया! लेकिन इससे फर्क नहीं पड़ जाता
है।
जिन
मित्र ने पूछा है कि हमें सुख की जरूरत है! अगर आपको सुख की ही जरूरत है तो आप दुख
से कभी छुटकारा नहीं पा सकते। सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो सुख की
आकांक्षा करता है,
वह दुख
में बार-बार गिरता रहेगा। क्योंकि जब वह सुख के सिक्के को उठायेगा तो उसी सिक्के
का दूसरा पहलू भी साथ चला आयेगा। थोड़ी देर में सिक्का बदलेगा और जो नीचे था, वह ऊपर हो जायेगा। इसलिए हर
सुख के पीछे दुख छिपा है, हर दुख
के पीछे सुख छिपा है। यह वैसे ही है, जैसे हर दिन के बाद रात है और हर रात के बाद
दिन है। यह ठीक ऐसा ही बदलता रहता है। जो सुख मांगता है, वह दुख से कभी बाहर नहीं हो
सकता।
लेकिन
आनंद कुछ बात और है। आनंद परमात्मा या सत्य को पाने का अनुभव है। फिर उसका कोई अंत
नहीं है,
फिर वह
अनंत है। फिर उसमें दूसरा कोई पहलू नहीं है। फिर उसके पीछे कोई भी नहीं छिपा।
आनंद
से विपरीत शब्द कभी सुना है? यह बड़े
आश्चर्य की बात है, आनंद
के विपरीत कोई शब्द ही नहीं है! सुख के विपरीत तो दुख है। शांति के विपरीत अशांति
है! लेकिन आनंद के विपरीत कोई भी शब्द नहीं है! आनंद का दूसरा पहलू नहीं है। आनंद
को बदलने का उपाय नहीं है। आनंद बस आनंद है। उसके पीछे तो कुछ भी नहीं है। उसमें
कितने ही गहरे जायें तो बस आनंद ही आनंद है। जैसे हम समुद्र के पानी को कहीं से भी
चखें तो खारा है। खारा ही खारा है। और कितने ही गहरे जायें, वह खारा है। ऐसे ही आनंद के
सागर को हम कहीं से भी चखें, हम
किसी दिशा से जायें, कितने
ही गहरे जायें तो वहां सिर्फ आनंद है। आनंद ही आनंद है।
लेकिन
सुख की बात ऐसी नहीं है। सुख को अगर हमने ठीक से चखा तो दुख मिल जायेगा। दुख को भी
अगर ठीक से गहराई में खोजो तो सुख मिल जायेगा, क्योंकि वे एक ही चीज के दो पहलू हैं। सुख
की आकांक्षा में जो डूबा है, वह
निश्चित ही उसी भगवान को पैदा करेगा, जो सपने का भगवान है, क्योंकि सपने का भगवान सुख दे
सकता है। लेकिन सपने का भगवान दुख भी देगा।
भक्ति
सपने के ऊपर नहीं उठ पाती।
और भी
एक बात ध्यान में रख लेनी जरूरी है कि सपने में सदा द्वैत है। सपने में सदा दो
हैं। और सत्य में सदा अद्वैत। सत्य में सदा एक है। सपने में दो हैं--सपना देखने
वाला और सपना।
भक्ति
में भी सदा दो है--भक्त है और भगवान है। देखने वाला है और दिखायी पड़ने वाला है।
लेकिन
सत्य की अनुभूति में दो नहीं हैं। अनुभूति और अनुभोक्ता एक हैं। वहां कोई देखने
वाला और दिखायी पड़ने वाला, ऐसे दो
नहीं हैं। इसलिए भक्त सदा डरा रहता है। वह भगवान से प्रार्थना करता रहता है कि कभी
छोड़कर मत चले जाना! मुझे छोड़ मत देना! वह सदा यही प्रार्थना करता है कि तुम्हारा
सत्संग बना रहे,
तुम्हारे
पास बैठा रहूं,
तुम्हारे
चरण दबाता रहूं। भक्त कभी द्वैत के बाहर नहीं उठ पाता। द्वैत के बाहर उठ भी नहीं
सकता है,
क्योंकि
द्वैत के बाहर तभी उठ सकता है, जब
भक्ति टूटे,
भाव
टूटे, मन टूटे। तब द्वैत के बाहर उठ
सकता है।
भक्त
सदा द्वैत में जीता है।
भक्त
कभी यह सोच भी नहीं सकता कि एक ही रह जाये, क्योंकि एक ही रह जाये तो भगवान कहां होगा, भक्त कहां होगा? इसलिए भक्त की आकांक्षा एक के
रह जाने की नहीं है! लेकिन जो है, वह एक
ही है। फिर व्यवस्थित स्वप्न, प्लांट
ड्रीमिंग देखने की प्रक्रिया है--योग है, साधना है। उसके दोत्तीन सूत्र खयाल में ले
लेना चाहिए तो भक्ति की पूरी बात साफ हो सकेगी।
अगर
आपको व्यवस्थित स्वप्न देखना है...क्योंकि भक्त व्यवस्थित सपने देखता है। ऐसे
साधारणतः स्वप्न तो हम रोज ही देख रहे हैं, लेकिन वे अव्यवस्थित हैं, अराजक हैं। हमें पता नहीं
कौन-सा सपना हमारे भीतर उतर आयेगा। भक्ति जो है, वह व्यवस्थित स्वप्न है, प्लांट है। हमें जो सपना
देखना है,
वही
हमें देखना है। और फिर की अंतिम आकांक्षा यह है कि आंख बंद करके ही नहीं देखना है, खुली आंख से देखना है! तो
भक्त को फिर स्वप्न के लिए व्यवस्था करनी पड़ती है।
स्वप्न
की व्यवस्था के लिए तीन सूत्र बड़े जरूरी हैं। पहला सूत्र, तो यह जरूरी है...पहला सूत्र
कि संदेह न हो! जरा भी संदेह होगा, स्वप्न भंग हो जायेगा। श्रद्धा हो, पूर्ण श्रद्धा हो। जरा भी
संदेह हुआ तो स्वप्न भंग हो जायेगा। संदेह स्वप्न तोड़ने वाली बहुत अदभुत चीज है।
इसलिए संदेह जरा भी भक्ति की दुनिया में प्रवेश नहीं पा सकता। संदेह के लिए वहां
उपाय नहीं। वहां अंधी श्रद्धा चाहिए। बिलकुल अंधी श्रद्धा चाहिए। अंधी श्रद्धा का
मतलब, जहां संदेह का कोई उपाय ही
नहीं छोड़ा। मेरे पास आंखें हैं, तो मैं
कितनी ही आंखें बंद करूं, यह डर
है कि कहीं थोड़ा-सा खोलकर देख न लूं? आंखें होनी ही नहीं चाहिए। तब डर बिलकुल
समाप्त हो जायेगा।
अंधी
श्रद्धा,
ब्लाइंड
बिलीफ भक्ति का पहला सूत्र है।
आंख
बंद करके स्वीकार कर लो, तब
सपना पूरा हो सकता है। तब सपने पर संदेह नहीं आयेगा। कि जो मैं देख रहा हूं, यह कहीं सपना तो नहीं है? इतना भी आ गया तो सब बात
खंडित हो जायेगी। इसलिए भक्ति का पहला सूत्र है: पूरी तरह विश्वास।
और अगर
भगवान खड़े न हों तो भक्ति के समझने वाले लोग कहेंगे, तुम्हारा विश्वास पूरा नहीं
है! तुम्हारे विश्वास में कभी है।! विश्वास पूरा हो जाना चाहिए। विश्वास पूरा होने
का मतलब यह है कि सपने पर भी...सपना है, ऐसा संदेह नहीं रह जाना चाहिए। तभी सपना
सत्य मालूम पड़ सकता है।
इसलिए
भक्त हजारों साल से लोगों को समझा रहे है--श्रद्धा करो। पूरी श्रद्धा, पूरा समर्पण करो। जरा भी अपने
को पीछे मत रखना सोचने के लिए कि मैं भी हूं। सब सोच-विचार, सब संदेह, सब तर्क छोड़ दो, तब भक्ति पूरी हो सकती है
निश्चित ही।
अगर
किसी सपने को सत्य मानना हो तो अंधी श्रद्धा पहला सूत्र है।
अगर
किसी सपने को तोड़ना हो तो आंख खोलना पहला सूत्र है।
संदेह
पहला सूत्र होगा। अंधी श्रद्धा से शुरू होती है भक्ति। फिर अगर अपने को पूरी तरह
देखना हो,
पूरी
तरह देखना हो तो उसमें जरा भी असलियत में और सपने में फर्क न रह जाये। तो थ्री
डायमेंशनल,
तीन
आयामी सपना देखना हो तो उसमें लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई सब दिखाई पड़ने लगें, वह बिलकुल पूरा दिखाई पड़ने
लगे, तो उसके लिए चित्त कमजोर
चाहिए और चित्त स्त्रैण चाहिए। इसलिए पुरुष-चित्त के भक्त होने की बड़ी कठिनाई है।
पुरुष-चित्त--पुरुष
की नहीं कह रहा हूं। क्योंकि बहुत से पुरुष हैं, जिनके पास स्त्री का चित्त है
और बहुत-सी स्त्रियां हैं, जिनके
पास पुरुष का चित्त है। पुरुष-चित्त सपना नहीं देख सकता ठीक से, क्योंकि पुरुष-चित्त में
पुरुष की जो मनःस्थिति है,उसमें
आक्रमण है। वह एक्टिव, सक्रिय
है। और सपने के लिए जरूरी है पैसिव, निष्क्रिय होना, ग्रहण करने वाला होना।
स्त्री-चित्त
सपना देखने में ज्यादा समर्थ है। वह सिर्फ स्वीकार करती है। इसलिए भक्तों ने सब
स्त्रैण उपाय स्वीकार कर रखे हैं! अगर कोई ठीक भक्त आपको मिल जाये तो आपको लगेगा
कि वह कुछ पुरुष से स्त्री की यात्रा पर निकल गया है। उसमें सब स्त्रैण बातें
प्रकट होने लगेंगी! उसने चित्त पैसिव--स्त्री का पकड़ लिया है!
ऐसे
भक्त भी हैं,
जो
अपने को स्त्री ही मानने लगे हैं। वे कहते हैं, हम तो सखियां हैं कृष्ण की! और साधारणतः
वहीं मानते हैं वे! अगर उसकी पूरी व्यवस्था समझेंगे तो बड़ी हैरानी होगी। लेकिन वह
व्यवस्था बिलकुल ठीक है। उसके बिना हो भी नहीं सकता। वे इतने दूर तक निकल गये उस
यात्रा पर कि रात कृष्ण को लेकर सोते भी हैं बिस्तर पर!
और
यहीं तक मामला नहीं है। वे जो असली भक्त हैं इस तरह के, जिन्होंने सभी स्त्री-भाव
स्वीकार कर रखे हैं कि कृष्ण ही वह पुरुष है; हम स्त्री हैं, या उसकी स्त्रियां हैं। उनको
मासिक-धर्म भी होता है! चार दिन वे उससे भी रुकते है! हो तो नहीं सकता मासिक-धर्म।
पर कुछ आश्चर्य भी नहीं कि अगर बहुत आटो-हिप्नोसिस हो तो हो भी जाये। ऐसे वह भी
बहुत आश्चर्य नहीं। लेकिन चार दिन, जैसे स्त्रियां सब चीजों से दूर रहेंगी, वैसे वे भी दूर रहेंगे! चार
दिन उनका मासिक-धर्म आ जायेगा! ये असली भक्त हैं, जो कि लाजिकल, तर्कगत अंत तक पहुंच गये
बिलकुल! जिन्होंने अपने को बिलकुल स्त्री मान रखा है!
लेकिन
भक्त होने के लिए स्त्रैण चित्त अनिवार्य शर्त है। उसका कारण यह है उसका कारण यह
है कि स्त्री का जो चित्त है-- स्त्रैण-चित्त, वह भावनापूर्ण है, पैसिव है। वह तर्कपूर्ण नहीं
है।
इसलिए
स्त्रियों ने कोई बहुत बड़े पंडित पैदा नहीं किये। जैसे मैंने कहा, ज्ञानयोगी स्त्रियों ने पैदा
नहीं किये। उनके मन का वह हिस्सा उतना बलशाली नहीं है। स्त्रियों ने मीरा पैदा की
है, थेरेसा पैदा की है और कुछ लोग
पैदा किये हैं। लेकिन स्त्रियों में पंडित और शास्त्र निर्माण करने
वाले--शास्त्र-निर्माता और सिस्टम मेकर्स, और दार्शनिक नहीं पैदा किये! कपिल, कणाद या महावीर या बुद्ध इस
तरह के लोग स्त्रियां पैदा नहीं कर सकतीं। स्त्रियों ने पैदा किये हैं भक्त। और
पुरुष में भी जो लोग स्त्रैण-चित्त के हैं वे भी, ज्ञान उनके लिए मार्ग नहीं रह
जाता है। भक्ति उनके लिए मार्ग है। वे भगवान को पति मानकर उसके आसपास जीने लगते
है!
दूसरी
शर्त है स्त्रैण-चित्त, कमजोर
संकल्पहीनता। संकल्प पूरा छूट जाना चाहिए। आक्रमण का भाव छूट जाना चाहिए। बस सिर्फ
जस्ट ए पैसिव अवेटिंग, एक
प्रतीक्षा निष्क्रिय--कि आओ, आओ।
पुकारना,
रोना, छाती पीटना--कि आओ! अगर कोई
आदमी ज्यादा दिन नहीं, आप
प्रयोग करके देखें, सिर्फ
इक्कीस दिन काफी हैं। इस तरह के भगवान का दर्शन करने के लिए। इससे ज्यादा की जरूरत
नहीं है। इक्कीस दिन के लिए पूरे अंधे होकर स्वीकार कर लें और इक्कीस दिन के
लिए--सिर्फ प्यास,
पुकार, चिल्लाना, रोना, गाना, छाती पीटना जारी रखें। सुबह
से सांझ हो जाये,
सांझ
से सुबह हो जाये। बस एक ही धुन लगाये रखें कि हे भगवान दर्शन दो, हे भगवान दर्शन दो! भगवान की
मूर्ति स्पष्ट कर लें। मन में मूर्ति को लेकर बैठ जायें। उसी के साथ-साथ--उसी के
साथ जागें। उस मूर्ति को खाना खिलायें, भोजन करवायें, स्नान करवायें! उस मूर्ति को
जिंदा मान लें और उस मूर्ति के आसपास अपने भावों को रचते चले जायें। और
श्वास-श्वास उसी में रंग जाये तो इक्कीस दिन से ज्यादा जरूरत नहीं। इक्कीस दिन
काफी हैं।
और
इक्कीस दिन में आप पायेंगे कि भगवान के दर्शन होने शुरू हो गये! उसका मतलब है, आप पागल होने की सीमा पर
पहुंच गये। आप पागल हो गये। आपका दिमाग खराब हो गया। इससे खराब करना हो तो, और जल्दी करना हो खराब तो
उपवास कर लेना बहुत अच्छा है। इक्कीस दिन उपवास भी कर लें, क्योंकि जितने कमजोर हो
जायेंगे,
उतने
ही सपने प्रबल हो जायेंगे! उपवास कर लें। बहुत आसानी हो जायेगी नींद खो जायेगी
उपवास करने से। इसलिए नींद में जो वक्त चला जाता है और रटन नहीं हो पाती भगवान की, वह भी जारी हो जायेगी। तो
नींद में भी रटन होनी चाहिए। नींद में भगवान-भगवान--जो भी आपके भगवान हों, उनकी रटन जारी रहनी चाहिए।
नींद कम हो जायेगी--रटन जारी रखें भूखे! उपवास में भूख को भुलाने के लिए भी रटन
जारी रखनी पड़ेगी!
जिस
दिन कोई उपवास करता है, वह
मंदिर में बैठ जाता है, क्योंकि
घर में हो तो भूख की याद आ जाती है! मंदिर में भूख की याद नहीं आती! वहां लगते हैं
झांझ-मंजीरा पीटने तो वहां भूख का पता नहीं चलता! भूख दब जाती है! और भूखा जो मन
है--भूखा जो मन है, जितना
भूख मन है जितना भूखा मन है, उतनी
ही कल्पना प्रबल हो जाती है! उतनी ही कल्पना हो जाती है, उसकी ही कल्पना की शक्ति बढ़
जाती है। और एकांत में चले जायें। भीड़-भाड़ सपने देखने में बाधा डालती है। एकांत
में चले जायें। एकांत में हमारे स्वप्न देखने की क्षमता में स्फुरणा होती है।
जैसे
हम यहां इतने लोग बैठे हैं। अगर रात हम सारे लोग यहां सो जायें तो कोई बात नहीं।
लेकिन इस जगह एकाध आदमी, इधर
रात अंधेरे में सो जाये जरा-सा पत्ता खड़कता है तो उसे लगता है कोई जाता है, किसी के पैर की आवाज सुनायी
पड़ी! खुद ही शाम को स्नान करके पैंट टांग दिया है रस्सी पर और रात में घर में
अकेला है तो ऐसा लगता है कि कोई आदमी खड़ा है! दो टांगें मालूम पड़ रही हैं! खुद ही
टांगा है शाम को यह पैंट!
अकेला
आदमी रह जाये तो उसकी कल्पना प्रगाढ़ हो जाती है। वह कल्पना काम करने लगती है।
दूसरा आदमी मौजूद हो तो कल्पना पर रुकावट होगी। इसलिए भक्त को एकांत चाहिए। एकांत
मिल जाये और वह रह जाये, उसका
भगवान रह जाये तो बस फिर ठीक है। बहुत जल्दी मस्तिष्क रुग्ण हो सकता है।
भक्तों
ने और भी इस तरह के उपाय किये हैं, जिनसे मस्तिष्क की, भाव की क्षमता तीव्र हो
जाये--गांजा पिया है, अफीम
खायी है,
चरस
पिया है। और अब अमेरिका में नये वैज्ञानिक साधन खोज लिए हैं। एल. एस. डी. मेस्कलीन, मारीजुआना--और भी नयी चीजें
खोज ली हैं! वे चीजें और भी अच्छी हैं। अगर किसी को भक्ति में जल्दी जाना हो तो
वैज्ञानिक विधियां और अच्छी हैं, क्योंकि
वैज्ञानिक विधि का इतना ही मतलब होता है-- अवैज्ञानिक विधि बैलगाड़ी के ढंग से चलती
है, वैज्ञानिक विधि जेट प्लेन की
तरह चलती है,
तेजी
से चलती है।
एल्डुअस
हक्सले ने एक किताब लिखी है--"डोर्स आफ न्यू परसेप्शन', "नये दर्शन के द्वार' या "दर्शन के ९द्वार' और उसमें उसने एक सलाह दी है
कि अब कोई मीरा और कबीर की तरह मेहनत करने की जरूरत नहीं है। एल.एस.डी.का. उपयोग
कर लेने से,
लाइसर्जिक
एसिड डायथेलामाइड को ले लेने से फौरन आदमी भक्ति की अवस्था में पहुंच जाता है! फिर
जो भी देखना चाहे,
वह देख
लेता है! जो भी देखना चाहे! और जो भी मान ले, वह सत्य हो जाता है! क्योंकि ये जो केमिकल
ड्रग्ज हैं,
ये
मस्तिष्क में जाकर तत्काल उसे आक्रांत कर देते हैं। समस्त तर्कबुद्धि श्रद्धापूर्ण
हो जाती है! ये परिवर्तन समस्त विचार को क्षीण कर देते हैं। संदेह नष्ट हो जाता
८है। और जैसे रात में हम सपना देखते हैं, ऐसा ही मन उस हालत में आ जाता है, जब वह चित्र पैदा करने लगता
है।
जिस
लोगों ने एल. एस. डी. लिया है--अब तो लाखों लोगों ने, करोड़ों लोगों ने लिया
है--उनकी अगर बात आप सुनें, अगर
पढ़ें तो हैरानी होगी। उन्हें ऐसे रंग दिखायी पड़ने लगते हैं, जो हमें कभी दिखायी नहीं पड़े!
उन्हें ऐसी प्रतिमाएं दिखायी पड़ने लगती हैं, जो हमें कभी दिखायी नहीं पड़ती! उन्हें ऐसे
पक्षी उड़ते मालूम होने लगते हैं, जो कभी
नहीं उड़े! उन्हें ऐसी ध्वनियां सुनायी पड़ने लगती हैं, जो हमने कभी नहीं सुनीं!
अनाहद नाद वगैरह बहुत सुनायी पड़ता है, एल. एस. डी. लेने से! बड़े अदभुत संगीत
सुनायी पड़ने लगते हैं! अदभुत फूल खिलने लगते हैं! और अगर कोई भगवान का भक्त हो तो, भगवान तत्काल मौजूद हो जाते
हैं। एल. एस. डी. पूर्ण श्रद्धा दे देता है। चित्त को स्त्रैण बना देता है, और समस्त विचार की शक्ति को
छीन लेता है। यह केमिकल ड्रग है।
लेकिन
अब जो खोजबीन हो रही है, वह यह
बताती है कि लंबे उपवास से भी मनुष्य के मन में भी इसी तरह का रासायनिक परिवर्तन
होता है।
लंबे
उपवास से भी मनुष्य में रासायनिक परिवर्तन होता है। और एल. एस. डी. लेने से भी
रासायनिक परिवर्तन होता है। ब्रह्मचर्य को बहुत जोर से, जबरदस्ती से साधने से भी
रासायनिक परिवर्तन होता है। और प्राणायाम करने से भी रासायनिक परिवर्तन होता है।
उस पर जो खोजें चल रही हैं, वे
बहुत घबराने वाली हैं। वे यह कहती हैं कि ये सब केमिकल चेंजेस हैं, रासायनिक परिवर्तन हैं।
एक
आदमी जो बहुत जोर से श्वास लेकर प्राणायाम करता है तो उसके शरीर का पूरा केमिकल
बैलेंस,
रासायनिक
संतुलन बदल जाता है, क्योंकि
आक्सीजन ज्यादा हो जाती है और कार्बन-डाय-आक्साइड कम हो जाती है। और उसके
व्यक्तित्व का भीतर से सारा रासायनिक संतुलन बिगड़ जाता है। वह रासायनिक संतुलन
बिगड़ जाये तो चित्त के सपने देखने की क्षमता बहुत तीव्र हो जाती है।
यह जो
नयी केमिकल रिवोल्यूशन, रासायनिक
क्रांति हो रही है, सारी
दुनिया में--क्रांति की एक नयी धारणा आ रही है कि भगवान से मिलने के लिए एल. एस.
डी. का इंजेक्शन ले लेने की जरूरत है, या एक गोली खा लेनी की जरूरत है, या मारीजुआना ले लेने की
जरूरत है! कोई जरूरत नहीं है साधना करने की!
अगर
भक्ति साधना है तो अब भविष्य में भक्ति कोई नहीं करेगा। भविष्य में तो केमिकल्स की
टेबलेट मिल जायेगी केमिस्ट की दुकान से, जिसको लेकर आप खा लेंगे और भक्त हो जायेंगे!
नाचने लगेंगे,
गाने
लगेंगे! और एकदम भगवान दिखायी पड़ने लगेंगे! अपने-अपने भगवान दिखायी पड़ेंगे। ईसाई
को क्राइस्ट दिखायी पड़ेगा,कृष्ण
वाले को कृष्ण दिखायी पड़ेगा, राम
वाले को राम दिखायी पड़ेगा!
अभी एक
आदमी ने न्यूयार्क में एल. एस. डी. लिया। अपनी चालीसवीं मंजिल के मकान में सोया।
उसको सदा सपना आता था कि वह आकाश में उड़ता है।
कई
लोगों को आते हैं । जमीन पर रहने वालों को आकाश में उड़ने का सपना आये, यह कोई आश्चर्यजनक नहीं, आयेगा ही। किसके मन में इच्छा
नहीं होती कि उड़ जाये। महत्वाकांक्षी चित्त को उड़ने का सपना आता है! वह एम्बीशन का
प्रतीक है। वह इस बात का प्रतीक है कि हम सब नीचे की चीजों से ऊपर उड़ गये! सब नीचे
छूट गये,
हम ऊपर
उड़ रहे हैं!
उसको
भी सपना आता था कि वह आकाश में उड़ता है। एल. एस. डी. लेकर बड़ी मुश्किल हो गयी। एल.
एस. डी. लेकर उसकी आंखों में फौरन दिखायी पड़ा कि मैं पक्षी हो गया हूं। और वह अपनी
चालीसवीं मंजिल के मकान से निकलकर उड़ गया! हड्डी-पसली नहीं मिली! क्योंकि एल. एस.
डी. इतना भ्रम दे देता है कि जो भी मालूम पड़ता है, वह सच मालूम पड़ता है। उसमें
संदेह होता ही नहीं, क्योंकि
चित्त बिलकुल संदेह से मुक्त हो जाता है। उसे एक बार भी खयाल नहीं आया कि मैं
पक्षी कैसे हो सकता हूं!
सपने
में आपको खयाल आया है? जब आप
सपने में पक्षी हो जाते हैं, तब
आपको खयाल आया है कि यह मैं क्या देख रहा हूं! सपने में मैं पक्षी कैसे हो सकता
हूं? नहीं, सपना पूर्ण विश्वास से भरा
होता है। सपने में कभी शक नहीं आता कि मैं पक्षी कैसे हो सकता हूं? हां, जागने पर आता है। सुबह जागकर
आप सोचते हैं कि क्या फिजूल की बात मैंने देखी कि मैं पक्षी हो गया था! कि घोड़ा हो
गया था! कि यह हो गया था, कि वह
हो गया था!
और मजा
यह है कि सपने में, इतनी
असंदिग्ध अवस्था होती है कि अगर पक्षी से एकदम घोड़ा हो जाये तो भी खयाल नहीं आता
कि अभी पक्षी था तो घोड़ा कैसे हो गया? नहीं, सपने में संदेह होता ही नहीं। इसलिए मैंने
कहा कि सपना देखने के लिए संदेह छोड़ना पहली शर्त है। पूर्ण श्रद्धा पहली शर्त है।
एल. एस. डी्र श्रद्धा पैदा कर देती है!
वह
आदमी उड़ गया। उड़ तो गया, लेकिन
पक्षी तो वह था नहीं, आदमी
था। गिरा और मर गया! लेकिन हो सकता है कि मरते वक्त वह यही समझ रहा हो कि पक्षी ही
मर रहा हूं,
क्योंकि
वह तो एल. एस. डी. की हालत में था।
साधुओं
ने, भक्तों ने, बहुत पुराने जमाने से, वेद के युग से लेकर आज
तक--वेद में जिसे सोमरस कहते हैं, वह आज
के वैज्ञानिक एल. एस. डी. मेस्कलिन से भिन्न नहीं है! सोमरस से लेकर एस. एस. डी.
तक भगवान को खोजने वाले ने सब तरह के नशों का उपयोग किया है! और सब तरह के नशों
में उसने और सूक्ष्मतम नशे जोड़े हैं, सूक्ष्मतम नशे जोड़ता गया है!
संगीत
भी नशा लाने में उपयोगी है!
अगर
जोर से झांझ-मंजीरा पीटा जाये, बीस
घंटे आपके चारों तरफ, तो
आपका सिर घूमने लगेगा। उसको तो करके देख सकते हैं। इसे करने में कोई कठिनाई नहीं।
और अगर बीस आदमी नाच रहे हों तो इक्कीसवां आदमी कितनी देर तक बिना नाचे बैठा रहेगा? थोड़ी देर में उसके हाथ-पैर
फड़फड़ाने लगेंगे। उस आदमी में केमिकल चेंज, रासायनिक परिवर्तन होना शुरू हो गया! उसको
नशा पकड़ने लगा! जहां बीस आदमी झांझ-मंजीरा पीट रहे हों, उसके कानों में झांझ-मंजीरा
पड़ रहा हो तो बुद्धि कुंठित हो जाती है, तर्क खो जाता है! वह आदमी भी नीचे लग गया और
तब पैर फड़कने लगते हैं, और नाच
शुरू हो जाता है! और सपने दिखायी पड़ने लगते हैं और सब शांत हो जाता है!
संगीत
का उपयोग किया गया है। भक्तों ने बड़ा उपयोग किया है संगीत का, क्योंकि संगीत बहुत मादक है! संगीत
बहुत शराब के निकट है! ध्वनियों के निरंतर आघात से कान पर नशा पैदा किया जा सकता
है।
भक्तों
ने सौंदर्य का उपयोग किया है! सौंदर्य भी बहुत मादक हो सकता है!
सुगंध
का उपयोग किया है,
भक्तों
ने! वह भी बहुत मादक हो सकता है!
भक्तों
ने उन सब चीजों का उपयोग किया है, जो
चित्त को नशे में ले जाये और चित्त की तर्क-प्रतिभा को नष्ट कर दे! सोचने-विचारने
को मिटा दे! और ऐसी हालत आ जाये कि जहां जो हो रहा है, उस पर पक्का भरोसा और विश्वास
हो जाये! बस फिर भगवान के दर्शन होने में कठिनाई नहीं।
मैं
आपसे कहना चाहता हूं, भक्ति
से कोई कभी भगवान तक नहीं पहुंचा। भक्ति से उस भगवान तक लोग पहुंच गये हैं, जिस तक उन्होंने पहुंचना चाहा
था! उस भगवान तक नहीं, जो है।
भाव
छोड़ देना पड़ेगा। भक्ति भी छोड़ देनी पड़ेगी, क्योंकि भक्ति और भाव मन का ही एक हिस्सा
है।
मन के
पार जाना पड़ेगा। मन के ऊपर उठना पड़ेगा। मन को ट्रांसेंड किए बिना, मन के ऊपर उठे बिना, सत्य का कोई अनुभव नहीं हो
सकता।
एक
मित्र ने पूछा कि आप कहते हैं, सत्य
को शब्द में नहीं कहा जा सकता?
नहीं
कहा जा सकता। उसको जिसे हम मन के ऊपर उठकर जानें, उसे कहने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि कहने के लिए मन की
जरूरत पड़ती है। मन के माध्यम से जिसे नहीं जाना, उसे मन के माध्यम से कहना भी
संभव नहीं है।
लेकिन
उन्होंने पूछा है कि दो ओर दो चार होते हैं, यह तो सत्य है, यह तो आप कह ही सकते हैं?
उनको
पता नहीं है कि दो ओर दो चार सत्य नहीं है, सिर्फ मान्यता है। सत्य नहीं है, सिर्फ हमारी मान्यता है। दो
और दो पांच भी हो सकते हैं। और दो और दो छह भी हो सकते हैं। हमारी मान्यता की बात
है। उनको शायद पता नहीं है गणित का बहुत। आइंस्टीन तीन ही संख्या का उपयोग करता
था--एक,
दो, तीन! वह कहता था कि दस तक की
संख्या मानने की कोई जरूरत नहीं है।
है भी
नहीं कोई जरूरत। आपने कभी सोचा है कि दस तक की संख्या ही क्यों होती है? फिर दस का ही फैलाव है! शायद
आपको खयाल ही न हो। दस तक की संख्या का कारण बहुत अदभुत है। कोई बहुत गणित का कारण
नहीं है। आदमी के हाथ में दस उंगलियां हैं, इतना ही कारण है! और कोई कारण नहीं है, क्योंकि आदमी ने उंगलियों से
गिनना शुरू किया तो पहले उसने दस की गिनती पकड़ ली! इसलिए सारी दुनिया में दस की
संख्या चलती है! क्योंकि सारी दुनिया में दस उंगलियां होती हैं। दस उंगलियां होना
कोई लेकिन उससे दस की संख्या बन गयी! दस की संख्या बनने की वजह से दो और दो चार
होते हैं!
आइंस्टीन
कहता था एक,
दो, तीन काफी हैं! अगर तीन की
संख्या मान ली जाये तो दो और दो चार कैसे होंगे? क्योंकि चार का तो अंक ही न
रहा। एक,
दो, तीन। तीन के बाद आयेगा; दस, ग्यारह, बारह, तेरह! तेरह के बाद आयेगा बीस, इक्कीस, बाईस, तेईस! दो और दो कितने होंगे? दस होंगे, अगर तीन की संख्या मान ली
जाये! यह सब मान्यता की बात है। इनका सत्य से कुछ लेना-देना नहीं।
गणित
बिलकुल मान्यता है। हमारा माना हुआ खेल है। संख्याओं का खेल है। हमने मान लिया है, वैसा चल रहा है।
भाषा
हमारा माना हुआ खेल है। लैंग्वेज बिलकुल ही खेल है। हमने मान रखा है, खेल चल रहा है। अगर एक आदमी
भी इनकार कर दे तो हम उसको राजी नहीं कर सकते। हम कहते हैं कि यह हाथ है। अगर एक
आदमी उसे कहे कि हम हाथ इसे क्यों मानें? तो दुनिया की कोई ताकत उसे नहीं समझ सकती कि
हाथ उसे मानना जरूरी है? वह
कहता है कि हम हैंड मानते हैं तो हैंड मानना पड़ेगा।
और वह
कहे कि हम यह भी नहीं मानते तो दुनिया में कोई हजारों भाषायें हैं। जिसमें हाथ के
लिए अपना-अपना खेल है। हजारों खेल हैं। सब भाषायें खेल हैं। कोई जबरदस्ती नहीं है
कि यह हाथ ही क्यों है? यह जो
है, वह है। बाकी सब आपका खेल है।
आप जो चाहें,
वह लगा
दें। इसमें कोई झंझट नहीं आती। हाथ कभी कहता नहीं कि मैं कौन हूं? आपकी जो मरजी, वह कहें। हम दस आदमी तैयार हो
जाते हैं कि हम इसको हाथ कहेंगे। हम दस के लिए यह भाषा कारगर हो जाती है।
भाषा
मान्यता है,
सत्य
मान्यता नहीं है।
इसलिए
जहां तक भाषा है,
वहां
तक सत्य का पता नहीं चलता। लेकिन मन के छूटते ही भाषा भी छूट जाती है। जहां तक
गणित है,
वहां
तक सत्य का पता नहीं चलता। लेकिन मन से छूटते ही गणित भी छूट जाता है। मन गया कि
सब गया। और तब जो शेष रह जाता है, वह
क्या है?
इसे
जानने के सिवा और कोई उपाय नहीं।
मेरे
कहने से कुछ पता नहीं चलेगा। किसी से कहने से कुछ पता नहीं चलेगा। हां, इतना ही पता चल सकता है कि
शायद कुछ है,
जो
हमारे घर की दीवारों के बाहर भी है। आप जायें घर के बाहर दीवार की तरफ--बाहर खड़े
हो जायें। मैं इतना ही कह सकता हूं, घर की दीवारों के भीतर नहीं है। इसलिए
परमात्मा के संबंध में जो भी कहा गया है, वह सदा निषेधात्मक , निगेटिव है। वह नेति-नेति है।
इतना ही कहा जा सकता है--यह भी नहीं है, वह भी नहीं है। इतना ही कहा जा सकता है--नाट
दिस, नाट दैट।
तो आप
पूछेंगे,
क्या
है? वह नहीं कहा जा सकता। इतना ही
कहा जा सकता है कि इस मकान की दीवार में भी नहीं है--इस दीवार में भी नहीं है।
इस
दीवार में भी नहीं है! आप पूछेंगे, तो फिर किस दीवार में है? तो मुझे चुप रह जाना पड़ेगा।
दीवार में नहीं है। दीवार के बाहर है। और आप सब दीवारों के बाहर चले जायें तो मिल
जाये।
इसलिए
सत्य की सारी खोज निषेध की खोज है।
परमात्मा
की सारी खोज निषेध की खोज है।
जो
आदमी सबको इंकार कर पाता है, अंततः
उसे उपलब्ध हो जाता है, "जो है'।
लेकिन
अगर आप इंकार करने में कमजोर हैं और आपने कहा, कैसे इंकार करूं? भक्ति को कैसे इंकार करूं? ज्ञान को कैसे इंकार करूं? कर्म को कैसे इंकार करूं? पूजा को, पंडित को कैसे इंकार करूं? तो आप ८पंडित, पूजा, भक्ति, ज्ञान की दीवारों के भीतर खड़े
रह जायेंगे। सत्य के पास नहीं पहुंच सकते। और ये सब खेल हैं।
भक्ति
खेल है भाव का।
और
ज्ञान खेल है विचार का।
और
कर्म खेल है मन के कर्म की पर्त का।
कल हम
उस तीसरी पर्त के बारे में विचार करेंगे कि यह कर्म का खेल क्या है? अगर आप सारे खेलों के बाहर हो
जायेंगे। हो सकते हैं। हैं ही। लेकिन आपको पता नहीं, खयाल नहीं, स्मरण नहीं। अगर बाहर हो
जायें तो जिसे आप जानेंगे--जिसके लिए कोई शब्द बताने वाला नहीं है। जिसके लिए कोई
चित्र बताने वाला नहीं है। जिसके लिए कोई मूर्ति बताने वाला नहीं है। जिसके लिए
कोई इशारा नहीं किया जा सकता कि वह रहा, क्योंकि इशारे में बड़ी गड़बड़ है।
अंतिम
बात कहूं। इशारे में बड़ी भूल है। अगर मैं कहूं, वह रहा, तो इशारा सदा सीमित कर देता है, क्योंकि इशारे के बाहर जो है, फिर वह कौन है? हम किसी सीमित चीज के संबंध
में इशारा कर सकते हैं कि वह रहा। कह सकते हैं, वह रहा, लेकिन फिर बाकी जो इशारे के बाहर रह गया, वह क्या?
परमात्मा
के संबंध में इशारा नहीं हो सकता उंगली बताकर। उसके संबंध में इशारा हो सकता है, मुट्ठी बांधकर कि यह रहा। यह
रहा का मतलब यह है कि हम कहीं इशारा नहीं कर सकते उसके लिए। इशारा करेंगे तो गड़बड़
हो जायेगा। अगर हमने कहा, "सम व्हेयर', तो फिर वह "एवरी व्हेयर' नहीं हो सकता। अगर हमने कहा, "वहां है' तो "सब जगह' कैसे होगा? जिसे सब जगह होना है, जिसे "एवरी व्हेयर' होना है, उसे "नो व्हेयर' होना पड़ेगा। जिसे "सब
जगह' होना है,उसे "कहीं भी नहीं' होना पड़ेगा। इसलिए कोई इशारा
काम नहीं करता। कोई संकेत काम नहीं करता। लेकिन फिर क्या रास्ता है?
सब
संकेतों को गिरा दें, सब
इशारों को गिरा दें।
एक
मित्र ने पूछा है। आप कहते हैं, ज्ञान
भी मार्ग नहीं,
भक्ति
भी मार्ग नहीं। कर्म भी मार्ग नहीं, तो आपका मार्ग क्या है?
मैं यह
कह रहा हूं,
मार्ग
ही नहीं है।
मेरा
मार्ग मत पूछें,
क्योंकि
मैं अपना मार्ग बता दूं तो वह चौथा मार्ग हो जायेगा। वह भी नहीं है। मार्ग ही नहीं
है। और जो आदमी समस्त मार्गों के बाहर खड़ा हो जाता है, वह "वहां' पहुंच जाता है। मार्ग के बाहर
होने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है।
मेरी
बातें इतनी शांति और प्रेम से सुनीं, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर
बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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