असंभव क्रांति-(ओशो)
साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 19-10-1967 रात्रि
(अति-प्राचिन प्रवचन)
प्रवचन-दूसरा-(आत्मा के फूल)
ज्ञान
की कोई भिक्षा संभव नहीं हो सकती। ज्ञान भीख नहीं है। धन तो कोई भीख में मांग भी
ले, क्योंकि धन बाहर है। लेकिन ज्ञान? ज्ञान स्थूल नहीं
है, बाहर नहीं है, उसके कोई सिक्के
नहीं हैं, उसे किसी से मांगा नहीं जा सकता। उसे तो जानना ही
होता है। लेकिन आलस्य हमारा, प्रमाद हमारा, श्रम न करने की हमारी इच्छा, हमें इस बासे उधार
ज्ञान को, जो कि ज्ञान नहीं है, इकट्ठा
कर लेने के लिए तैयार कर देती है।
इससे
बड़ा मनुष्य का और कोई अपमान नहीं है कि वह ज्ञान मांगने किसी के द्वार पर जाए।
इससे बड़ा कोई अपमान नहीं है। इससे बड़ा कोई पाप नहीं है। लेकिन इस बात को तो धर्म
समझा जाता रहा है। जिसे मैं पाप कह रहा हूं। जो आदमी जितना शास्त्रों से, शास्ताओं
से ज्ञान इकट्ठा कर लेता है, उतना धार्मिक समझा जाता है।
उससे ज्यादा पापी मनुष्य दूसरा नहीं है। क्योंकि जीवन में सबसे बड़ा पाप वह कर रहा
है--वह यह कि वह ज्ञान उधार मांग रहा है, भीख मांग रहा है,
जो कि कभी मिल ही नहीं सकता। जैसे ही कोई देता है ज्ञान, देते ही झूठा हो जाता है।
एक
युवक समुद्र के किनारे घूमने गया था। बहुत सुंदर, बहुत शीतल, बहुत ताजगी देने वाली हवाएं उसे वहां मिली। वह एक युवती को प्रेम करता था,
जो दूर किसी अस्पताल में बीमार थी। उसने सोचा इतनी सुंदर हवाएं,
इतनी ताजी हवाएं--क्यों न मैं अपनी प्रेयसी को भेज दूं।
उसने
एक बहुमूल्य पेटी में उन हवाओं को बंद किया और पार्सल से अपनी प्रेयसी के लिए
भिजवा दिया। साथ में एक प्यारा पत्र लिखा कि बहुत शीतल, बहुत
सुगंधित, बहुत ताजी हवाएं तुम्हें भेज रहा हूं, तुम बहुत आनंदित होगी।
पत्र
तो मिल गया, लेकिन हवाएं नहीं मिलीं। पेटी खोली, वहां तो कुछ भी
न था। वह युवती बहुत हैरान हुई। इतनी बहुमूल्य पेटी में भेजा था उसने उन हवाओं को,
इतने प्रेम से। पत्र तो मिल गया, पेटी भी मिल
गई, लेकिन हवाएं--हवाएं वहां नहीं थीं।
समुद्र
की हवाओं को पेटियों में भरकर नहीं भेजा जा सकता। चांद की चांदनी को भी पेटियों
में भरकर नहीं भेजा जा सकता। प्रेम को भी पेटियों में भरकर नहीं भेजा जा सकता।
लेकिन परमात्मा को हम पेटियों में भरकर हजारों साल से एक-दूसरे को भेजते रहे हैं।
पेटियां मिल जाती हैं--बड़ी खूबसूरत पेटियां हैं, साथ में लिखे पत्र भी मिल
जाते हैं--गीता के, कुरान के, बाइबिल
के लेकिन पेटी खोलने पर सत्य नहीं मिलता है। जो ताजी हवाएं उन लोगों ने जानी होंगी,
जिन्होंने प्रेम में ये पत्र भेजे, वे हम तक
नहीं पहुंच पाती हैं।
समुद्र
की ताजी हवाओं को जानना हो तो समुद्र के किनारे ही जाना पड़ेगा, और कोई
रास्ता नहीं है। कोई दूसरा उन हवाओं को आपके पास नहीं पहुंचा सकता है। आपको खुद ही
समुद्र तक की यात्रा करनी होगी।
सत्य
की ताजी हवाएं भी कोई नहीं पहुंचा सकता। सत्य तक भी हमें स्वयं ही यात्रा करनी
होती है।
इस
पहली बात को बहुत स्मरण-पूर्वक ध्यान में ले लेना जरूरी है। इस बात को ध्यान में
लेते ही शास्त्र व्यर्थ हो जाएंगे। परंपराओं से भेजी गई खबरें हंसने की बातें हो
जाएंगी। और आपका चित्त नए होने के लिए तैयार हो सकेगा। आलस्य है, जो इस
सत्य को नहीं देखने देता।
दूसरी
बात। परंपरागत ज्ञान के साथ जीने में एक तरह की सुरक्षा, एक तरह की
सिक्योरिटी है। सभी लोग जिस बात को मानते हैं, उसे मान लेने
में एक तरह की सुरक्षा है। राजपथ पर चलने जैसी सुरक्षा है। एक बड़ा राजपथ है,
हाइवे है, उस पर हम सब चलते हैं
सुरक्षित...कोई भय नहीं, बहुत लोग चल रहे हैं। लेकिन
पगडंडियां हैं, अकेले रास्ते हैं, जिन
पर यात्री मिले या न मिले। कोई साथी, सहयोगी हो या न हो।
अकेले जंगलों में भटक जाने का डर है। अंधेरे रास्ते हो सकते हैं--अनजान, अपरिचित, अननोन--उन पर जाने में भय लगता है।
इसलिए
हम सब सुरक्षित बंधे हुए रास्तों पर चलते हैं...ताकि वहां सभी लोग चलते हैं, वहां कोई
भय नहीं है, रास्ते पर और भी यात्री हैं, आगे भी यात्री हैं, पीछे भी। इससे यह विश्वास मन में
प्रबल होता है कि जब आगे लोग जा रहे हैं तो ठीक ही जा रहे होंगे। पीछे लोग जा रहे
हैं तो ठीक ही जा रहे होंगे। मैं ठीक ही जा रहा हूं, क्योंकि
बहुत लोग जा रहे हैं। और हर आदमी को यही खयाल है कि बहुत लोग जा रहे हैं। यह एक
म्युचुअल फैलसी है, यह एक पारस्परिक भ्रांति है। बहुत लोग एक
तरफ जा रहे हैं तो प्रत्येक यह सोचता है, इतने लोग जा रहे
हैं तो जरूर ठीक जा रहे होंगे। सभी लोग गलत नहीं हो सकते। और हर एक यही सोचता है!
भीड़
एक भ्रम पैदा कर देती है। तो हजारों वर्षों की एक भीड़ चलती है एक रास्ते पर। एक
नया बच्चा पैदा होता है,
वह इतना अकेला, इस भीड़ से अलग हटकर कैसे जाए?
उसे विश्वास नहीं आता है कि मैं ठीक हो सकता हूं, उसे विश्वास आता है इतने लोग ठीक होंगे।
ज्ञान
की दिशा में यह डेमोक्रेटिक खयाल सबसे बड़ी भूल साबित हुई है। ज्ञान कोई लोकतंत्र
नहीं है। यहां कोई हाथ उठाने और भीड़ के साथ होने का सवाल नहीं है।
अक्सर
तो उलटा हुआ है,
भीड़ गलत साबित हुई है। इकहरे, इक्के-दुक्के
व्यक्ति सही साबित हुए हैं। अगर भीड़ ही सही होती तो दुनिया बहुत दूसरी होनी चाहिए
थी। दुनिया एकदम गलत है, भीड़ गलत होगी। कभी इक्का-दुक्का
आदमी तो सही हुआ है, लेकिन भीड़ सही नहीं हुई है। लेकिन भीड़
को एक सुविधा है यह भ्रम पाल लेने की पोस लेने की, कि सभी
लोग साथ हैं। जहां बहुत लोग साथ हैं, वहां सत्य होगा ही।
सत्य
के लिए ऐसी काई गारंटी और कसौटी नहीं है। बल्कि सच्चाई तो यह है कि सत्य की शुरुआत
ही नहीं हो पाती इस विश्वास के कारण कि दूसरे लोग बहुत होने की वजह से सही होंगे
और मैं अकेला होने की वजह से कहीं गलत न हो जाऊं।
ज्ञान
मुझे खोजना है,
सत्य मुझे पाना है, जीवन मुझे जीना है,
और मुझे स्वयं पर कोई विश्वास नहीं है! भीड़ पर, अन्यों पर विश्वास है! तो फिर यह यात्रा कैसे हो सकती है? मुझे होना चाहिए स्वयं पर विश्वास। है मुझे अन्य पर, भीड़ पर विश्वास! भीड़ जो कह देती है, उसी को मैं मान
लेता हूं। भीड़ अगर हिंदुओं की है, तो मैं एक बात मान लेता
हूं। भीड़ जैनियों की है, दूसरी बात मान लेता हूं। भीड़
कम्युनिस्टों की है, तीसरी बात मान लेता हूं। भीड़ आस्तिकों
की है...चौथी...नास्तिकों की है...पांचवीं...! भीड़ जो कहती है, वह मैं मान लेता हूं। भीड़ मेरे प्राणों को जकड़े हुए है।
यह
जो कलेक्टिव माइंड है,
यह जो समूह का मन है, यह व्यक्ति के मन को
सत्य तक नहीं पहुंचने देता है। तो कलेक्टिव माइंड, यह समूह
का जो मन है, हजारों-हजारों साल में जो निर्मित होता है,
यह जो बासा मन है, यह हमें जकड़े हुए है। और आप
जब तक इस कलेक्टिव माइंड, इस सामूहिक मन के घेरे में बंद हैं,
तब तक आप भूल में हैं कि आप एक व्यक्ति हैं, आप
एक इंडीवीजुअल हैं।
अभी
आपके भीतर इंडीवीजुअल का जन्म नहीं हुआ है। अभी आप व्यक्ति कहने के हकदार नहीं हैं
अपने को। व्यक्ति तो वही कह सकता है अपने को, जिसने भीड़ से अपने स्वयं के मन को
मुक्त कर लिया। जिसने राजपथ छोड़ दिया और सत्य की अनजानी पगडंडियों की यात्रा शुरू
की है। और जो व्यक्ति ही नहीं बन सकता, वह आत्मा को जान
सकेगा?
इंडीवीजुअल
होना, व्यक्ति होना, आत्मा की खोज का पहला सोपान है। आत्मा
को आप कभी नहीं पहुंच सकते हैं, जब तक आप व्यक्ति ही नहीं
हैं। अभी तो आप भीड़ के एक हिस्से हैं। अभी तो आप भीड़ के एक अंश हैं। अभी आपका अपना
होना, आपका बीइंग, अभी नहीं है। अभी आप
एक बड़ी मशीन के कल-पुर्जे हैं। वह बड़ी मशीन जैसी चलती है, वैसे
आप चलते हैं। अभी आपकी अपनी कोई निजी सत्ता नहीं है। तो जीवन और ताजगी कहां से
संभव हो सकती है? अभी हम एक यंत्र के हिस्से हैं, हम यांत्रिक हैं। अभी हम मनुष्य भी अपने को नहीं कह सकते हैं।
मनुष्य
होने की पहली शुरुआत भीड़ से मुक्ति है।
बचपन
से भीड़ पकड़ना शुरू कर देती है। बच्चा पैदा होता है और भीड़ उसे पकड़नी शुरू कर देती
है। वह जो क्राउड है हमारे चारों तरफ, वह डरती है कि बच्चा कहीं छिटक न
जाए, उसके फोल्ड से, उसके घेरे से। वह
उसको शिक्षा देनी शुरू कर देती है--धर्म, शिक्षा और जमानेभर
की शिक्षाएं! और उसे अपने घेरे में बांध लेने के सब प्रयास करती है। इसके पहले कि
उस बच्चे में सोच-विचार पैदा हो, भीड़ उसके चित्त को सब तरफ
से जकड़ लेती है। फिर जीवनभर उसी भीड़ के शब्दों में वह बच्चा सोचता है, और जीता है। अर्थात वह कभी भी नहीं सोचता और कभी भी नहीं जीता। उसके भीतर
स्वयं का चिंतन, स्वयं का विचार, स्वयं
का अनुभव, जैसा कुछ भी नहीं रह जाता है।
क्या
यह हम सोचेंगे नहीं कि हम भीड़ के एक हिस्से हैं?
जब
आप कहते हैं मैं जैन हूं,
तो आप क्या कहते हैं? जब आप कहते हैं, मैं मुसलमान हूं, तो आप क्या कहते हैं? जब आप कहते हैं मैं कम्यूनिस्ट हूं, तो आप क्या कहते
हैं? आप यह कहते हैं, मैं नहीं हूं,
एक भीड़ है, जिसका मैं हिस्सा हूं। और क्या
कहते हैं आप? आप इनकार करते हैं अपने होने को और भीड़ के होने
को स्वीकार करते हैं। कहते हैं--मैं हिंदू हूं, ईसाई हूं,
पारसी हूं। आप क्या कह रहे हैं? इससे ज्यादा
अपमान की कोई और बात हो सकती है कि आप पारसी हैं, हिंदू हैं,
ईसाई हैं। आदमी नहीं हैं--आप आप नहीं हैं। आप एक भीड़ की, भीड़ के एक हिस्से हैं। और बड़े गौरव से इस बात को कहते हैं कि मैं वह भीड़
हूं। और वह भीड़ जितनी पुरानी होती है आप और गौरव से चिल्लाते हैं कि मेरी भीड?
बड़ी प्राचीन है; मेरी संस्कृति, मेरा धर्म बड़ा पुराना है। मेरी भीड़ की संख्या बहुत ज्यादा है। और आपको पता
भी नहीं चलता कि आप अपना आत्मघात कर रहे हैं, आप स्युसाइड कर
रहे हैं।
जो
आदमी भीड़ का हिस्सा है,
वह आत्मघाती है।
आपको
स्मरण होना चाहिए--आप आप हैं। आप एक व्यक्ति हैं। आप एक चेतना हैं, और चेतना
किसी का हिस्सा नहीं होती, और न हो सकती है। यंत्र, जड़ता हिस्सा होता है। चेतना किसी का हिस्सा नहीं होता। चेतना एक स्वतंत्रता
है। लेकिन सुरक्षा के पीछे हम स्वतंत्रता को खो देते हैं।
तो
दूसरी चीज जो हमें बांधे हुए है, हमारे चित्त को नया नहीं होने देती, ताजा नहीं होने देती--वह है सुरक्षा का अतिभाव, साहस
की बहुत कमी।
एक
ईसाई धर्मगुरु,
कुछ छोटे से बच्चों के स्कूल में उन्हें नैतिक साहस की शिक्षा देता
था, मारल करेज के बाबत कुछ बातें सिखाता था। तीस बच्चे थे।
उस धर्मगुरु ने कहा कि नैतिक साहस होना चाहिए। एक बच्चे ने पूछा, हम समझते नहीं हैं नैतिक साहस क्या है, आप हमें
समझाएं?
तो
उसने कहा, समझ लो, तुम तीस ही बच्चे एक रात एक जंगल में पिकनिक
के लिए गए हो। फिर दिनभर की भाग-दौड़ के बाद, घूमने-फिरने के
बाद रात में सराय में रुके हो। थक गए हो। उन्तीस बच्चे--सर्द रात है, अपने कंबलों को ओढ़कर सो जाते हैं। लेकिन उनमें से एक बच्चा एक कोने में
बैठकर रात की प्रार्थना करता है। तीस बच्चे--सर्दी है कड़कड़ाती हुई, दिनभर के थके हुए; उन्तीस बच्चे जाकर अपने कमरे में
कंबल ओढ़ लेते हैं, सो जाते हैं बिना प्रार्थना किए रात्रि की,
लेकिन एक बच्चा उस सर्द रात में थका हुआ भी, घुटने
टेककर परमात्मा से रात की प्रार्थना करता है। उस बच्चे में मारल करेज है, उस बच्चे में नैतिक साहस है। उस वक्त कितनी तीव्र टेंपटेशन है उसे--सब
सोने जा रहे हैं, सर्द रात है, लेकिन
वह अकेला होने की हिम्मत करता है।
महीने
भर बाद वह पादरी फिर वापस लौटा। उसने उन बच्चों से कहा, मैंने
नैतिक साहस के संबंध में तुम्हें समझाया था, क्या तुम मुझे
बता सकोगे कि नैतिक साहस क्या है?
एक
बच्चे ने कहा,
समझ लें, आप जैसे तीस पादरी एक रात एक ही सराय
में ठहरते हैं। उन्तीस पादरी प्रार्थना कर रहे हैं, एक पादरी
कंबल ओढ़कर शान से सो जाता है। उसको हम नैतिक करेज, उसको हम
नैतिक साहस कहते हैं।
मुझे
पता नहीं इन दोनों में से कौन सा नैतिक साहस है। लेकिन एक बात जरूर पता है, भीड़ से
पृथक होने की हिम्मत जरूर नैतिक साहस है। हमेशा भीड़ के समक्ष झुक जाना--नैतिक
कमजोरी है, नैतिक अशक्ति है, बलहीनता
है, पुरुषार्थ का अभाव है। हमेशा-हमेशा भीड़ के समक्ष झुक
जाना, हर बात में भीड़ के समझ झुक जाना, चित्त के आंतरिक तलों पर।
बाहर
के तलों की बातें नहीं कह रहा हूं कि सारा मुल्क बाएं चलता है तो आप दाएं चलने
लगें। कि सारा मुल्क सड़क के किनारे चलता है तो आप बीच में चलने लगें--यह मैं नहीं
कह रहा हूं। जीवन के बाहर के जो औपचारिक नियम हैं, उनमें तो सिर्फ नासमझ लोग
साहस करते हैं।
सोवियत
रूस में क्रांति हुई,
उन्नीस सौ सत्तरह में। मास्को मुक्त हो गया, जार
के हाथों से। तो एक बूढ़ी औरत बीच सड़क पर खड़ी होकर गपशप करने लगी। एक ट्रेफिक के
पुलिस मैन ने उसको कहा कि यह सड़क का चौराहा है, यहां यह गपशप
करने की जगह नहीं, तुम भीड़ को बाधा दे रही हो। उसने कहा,
छोड़ो, अब हम स्वतंत्र हैं। अब जहां हमको खड़ा
होना होगा, वहां हम खड़े होंगे; और जहां
हमें बात करनी होगी, हम बात करेंगे। अब कोई बंधन नहीं।
यह
औरत नासमझ है। जीवन का,
बाहर का जो जगत है, बाहर का जगत भीड़ का जगत
है। वहां आप एक इंच भी चलते हैं तो चारों तरफ भीड़ के बीच में आपको रास्ता बनाना
है। बाहर के जगत के नियम भीड़ के नियम ही होंगे, व्यक्ति के
नियम नहीं हो सकते।
लेकिन
भीतर के जगत में कोई भीड़ नहीं है। वहां कोई आपके सिवाय मौजूद नहीं है। वहां के जो
नियम होंगे, उनके नियमों का, भीड़ का होना कतई जरूरी नहीं है।
भीतर के जगत में आप व्यक्ति हो सकते हैं। बाहर के जगत में तो आपको समाज का सदस्य
होना पड़ेगा। लेकिन भीतर के जगत में समाज के सदस्य होने की कोई अनिवार्यता नहीं है।
बाहर कानून होगा, सड़क के नियम होंगे, समाज
के नियम होंगे, वे ठीक हैं। बाहर आप समाज के एक सदस्य हैं।
लेकिन भीतर--भीतर आपको अगर परमात्मा का एक साथी होना है तो समाज का सदस्य आपको
नहीं रह जाना पड़ेगा। भीतर के जगत में आपको भीड़ से मुक्त हो ही जाना चाहिए, तो ही आपका मन ताजा हो सकता है।
तो
मेरी बात को आप गलत नहीं लेंगे। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप उच्छृंखल हो जाएं।
और आपको जहां से चलना हो,
वहां से चलने लगें।
नहीं, मैं आपसे
यह कह रहा हूं कि एक तल है चेतना का भीतर, वहां किसी समाज के
नियम की कोई भी जरूरत नहीं। वहां आपको हिंदू और मुसलमान, ईसाई
और जैन होने की कोई भी जरूरत नहीं है। और वहां आप जब तक हिंदू, जैन, मुसलमान, ईसाई बने रहेंगे,
तब तक--तब तक आप जो है, उसे कभी नहीं जान
सकते। भीड़ ने आपके भीतर अपने पंजे फैला दिए हैं, और आपकी
आत्मा को पकड़ लिया है। और आप राजी हैं, इसलिए यह बंधन पैदा
हुआ है। आप गैर-राजी हो जाएं, यह बंधन इसी क्षण गिर जाता है।
आपके
सहयोग के बिना कोई आपको मानसिक रूप से गुलाम नहीं बना सकता। शारीरिक रूप से बना
सकता है। शारीरिक रूप से आप गुलाम बनाए जा सकते हैं, आपके बिना सहयोग के। लेकिन
मानसिक, वह जो मेंटल स्लेवरि है, वह जो
मानसिक दासता है, वह आपके सहयोग के बिना कोई कभी खड़ी नहीं कर
सकता। क्योंकि आपके सिवाय आपके मन में किसी की कोई गति नहीं है। जब आप राजी होते
हैं तो आपका चित्त गुलाम होता है, अन्यथा गुलाम नहीं होता
है।
क्या
आप उस तल पर गैर-राजी होने को तैयार हैं? क्या उस तल पर आप इनकार करने की
हिम्मत रखते हैं? क्या वहां आप नो कह सकते हैं? हम सब यस-शेअर हैं, हमेशा हां कहने वाले लोग हैं।
हममें से नो-शेअर कोई भी नहीं है, जो कह सके नहीं। और जो
आदमी भीतर के तल पर नहीं, नहीं कह सकता, वह कभी स्वतंत्र नहीं हो सकता। हम हमेशा हां कहने को तैयार हैं। हमारे इस
हां कहने ने हमारे मन को बासा, गुलाम, दास,
पुराना और जीर्ण-जर्जर बना दिया है।
तो
पहला सूत्र आज की सुबह आपसे कहना चाहता हूं: आप इनकार करने में समर्थ होने चाहिए
तो ही आपके भीतर धार्मिक आदमी पैदा हो सकेगा। क्योंकि धार्मिक आदमी गुलाम आदमी
नहीं है, धार्मिक आदमी परिपूर्ण स्वतंत्र है। धार्मिक आदमी से ज्यादा स्वतंत्र कोई
मनुष्य नहीं होता।
लेकिन
हम देखते हैं कि धार्मिक आदमी से ज्यादा गुलाम आदमी दिखाई नहीं पड़ता दुनिया में।
होना उलटा था। धार्मिक आदमी स्वतंत्रता की एक प्रतिमा होता, धार्मिक
आदमी स्वतंत्रता की एक गरिमा लिए होता, धार्मिक आदमी के जीवन
से स्वतंत्रता की किरणें फूटती होतीं, वह एक मुक्त पुरुष
होता, उसके चित्त पर कोई गुलामी न होती। लेकिन धार्मिक आदमी
सबसे ज्यादा गुलाम है, इसीलिए धर्म सब झूठा सिद्ध हो गया है।
इस
सच्चाई को मेरे कहने से आप स्वीकार कर लें तो आप यस-शेअर हो गए, आप हां
कहने वाले हो गए। फिर मैं आपको गुलाम करने का एक कारण हो जाऊंगा। मेरे कहने से आप
स्वीकार कर लेंगे तो इससे गुलामी तो बदलेगी, लेकिन गुलामी
समाप्त नहीं होगी। क्योंकि तब कोई दूसरे बंधन हटेंगे, मेरे
बंधन आपको पकड़ ले सकते हैं।
मेरे
कहने से आपको स्वीकार नहीं करना है। सोचना है, देखना है। मैंने जो कहा, उसे अपने भीतर खोजना है कि क्या मेरी कही बात आपके भीतर तथ्यों से मेल
खाती है, क्या वह फेक्टस से मेल खाती है? क्या आप भीतर के तल पर एक गुलाम आदमी हैं? क्या भीतर
के तल पर आप भीड़ के एक सदस्य हैं? क्या भीतर के तल पर आपकी
कोई निजी हैसियत, आपका कोई अपना होना है या नहीं है?
मैं
जो बातें कह रहा हूं,
मेरे साथ ही साथ अगर आप भीतर उनकी तौल करते चलें और देखते चलें,
क्या यह सच है और अगर आपको अपने भीतर के तथ्यों से मेल दिखाई पड़ जाए
तो फिर मेरे कहने से आपने नहीं माना, आपने खोजा और पाया। तब
फिर--तब फिर आप अपनी गुलामी को खुद देखने के कारण अगर उससे मुक्त होते हैं तो वह
मुक्ति एक नई गुलामी की शुरुआत नहीं होगी।
नहीं
तो हमेशा यह हुआ है,
एक से लोग छूटते हैं तो दूसरे से बंध जाते हैं...कुएं से बचते हैं
तो खाई में गिर जाते हैं। एक गुरु से बचते हैं तो दूसरा गुरु मिल जाता है। एक बाबा
से बचते हैं, दूसरा बाबा मिल जाता है। एक मंदिर से बचते हैं,
दूसरे मंदिर में आ जाते हैं। लेकिन बचना नहीं हो पाता। बीमारियां
बदल जाती हैं, लेकिन बीमारियां जारी रहती हैं। थोड़ी देर को
राहत मिलती है, क्योंकि नई गुलामी थोड़ी देर को स्वतंत्रता का
खयाल देती है। क्योंकि पुरानी गुलामी का बोझ हट जाता है, नई
गुलामी का नया बोझ...।
लोगों
को मरघट पर अर्थी ले जाते मैं देखता हूं, तो कंधे बदलते रहते हैं रास्ते
में। इस कंधे पर रखी थी अर्थी फिर उस कंधे पर रख लेते हैं। कंधा बदलने से थोड़ी
राहत मिलती होगी। इस कंधे पर वजन कम हो जाता है, यह थक जाता
है तो फिर दूसरा कंधा। थोड़ी देर बाद फिर उनको मैं कंधे बदलते देखता हूं, फिर इस कंधे पर ले लेते हैं। कंधे बदल जाते हैं, लेकिन
आदमी के ऊपर वह अर्थी का बोझ तो तैयार ही रहता है...इससे क्या फर्क पड़ता है कि
कंधे बदल लिए। थोड़ी देर राहत मिलती है, दूसरा कंधा फिर तैयार
हो जाता है।
इसी
तरह दुनिया में इतने धर्म पैदा हो गए हैं...कंधे बदलने के लिए। नहीं तो कोई और
कारण नहीं था कि ईसाई हिंदू हो जाता, हिंदू ईसाई हो जाता। एक पागलपन से
छूटता है, दूसरा पागलपन हमेशा तैयार है। दुनिया में तीन सौ
धर्म पैदा हो गए, कंधे बदलने की सुविधा के लिए, और कोई उपयोग नहीं है। जरा भी उपयोग नहीं है। और भ्रांति यह पैदा होती है
कि मैं एक गुलामी से छूटा, अब मैं आजादी की तरफ जा रहा हूं।
एक
हिंदू ईसाई होता है तो सोचता है मैं आजादी की तरफ जा रहा हूं। सिर्फ अपरिचित
गुलामी उसको आजादी मालूम पड़ गई! थोड़े दिनों बाद पाएगा कि फिर एक नई गुलामी में खड?ा हो गया।
पुराना मंदिर छूट गया, नया चर्च खड़ा हो गया। लेकिन वह नया
देखने को ही था। वह सबस्टीटयूट सिद्ध होता है...पुराने मंदिर की जगह फिर--फिर
दूसरा मंदिर उपलब्ध हो जाता है। एक गुलामी बदलती है, दूसरी
गुलामी शुरू हो जाती है।
मैं
आपको कोई नई गुलामी का संदेश देने को नहीं हूं। गुलामी से गुलामी की तरफ नहीं, गुलामी से
स्वतंत्रता की तरफ यात्रा करनी है। वह मेरी बात मानकर नहीं हो सकता है। इसलिए मेरी
बात मानने की जरा भी जरूरत नहीं है। मैं कहीं भी आपके रास्ते में खड़ा नहीं होना
चाहता हूं। मैंने निवेदन कर दी अपनी बात--वह सोचने-समझने की है। अगर वह फिजूल
मालूम पड़े तो उसे एकदम फेंक देना। क्योंकि जानकर आपने फेंकने में संकोच किया कि वह
आपको पकड़ लेगी। जरा ही आप डरे कि इसको न फेंकें, वह आपकी
गुलामी बन जाएगी। फिर वह आपके भीतर जड़ें फैलाना शुरू कर देगी। कल आप एक नई गुलामी
में फिर से आबद्ध हो जाएंगे। एक नया कारागृह फिर खड़ा हो जाएगा। अब तक के सभी गुरु,
सभी शास्ता मनुष्य के लिए कारागृह इसी तरह बन गए।
मैं
आपके लिए कोई कारागृह,
कोई इमप्रिजनमेंट नहीं बनना चाहता हूं। इसलिए मेरी बात मानने का जरा
भी मोह करने की जरूरत नहीं है। मैं कह रहा हूं...आप तथ्यों को विचार कर लें,
सोच लें, और अगर तथ्य दिखाई पड़ते हों तो क्या
मैं आपसे यह कहूं कि आपको फिर एक्ट करना पड़ेगा, आपको कुछ
करना पड़ेगा? तथ्य दिखाई पड़ेंगे तो आप कुछ करेंगे ही। तथ्य
दिखाई नहीं पड़ते, इसलिए कुछ नहीं करते।
रास्ते
पर सांप जाता आपको मिल जाए,
दिखाई पड़ जाए तो क्या आप पूछेंगे अब मैं क्या करूं? आप छलांग लगा जाएंगे, पूछेंगे नहीं। पूछने की सुविधा
और फुर्सत वहां आप नहीं पाएंगे। घर में आग लग जाए तो आप क्या पूछेंगे कि अब मैं
क्या करूं? आप बाहर निकल जाएंगे।
जिस
दिन आपको यह दिखाई पड़ जाए कि आपका मन हजारों साल से गुलामी में बंधा हुआ है, उस दिन
क्या आप किसी से पूछेंगे, मैं क्या करूं? नहीं आप गुलामी के बाहर कूद जाएंगे।
देखते
ही क्रिया होनी शुरू हो जाती है। आपने देखा नहीं, इसलिए क्रिया नहीं हो रही।
आपको पता चल जाए कि आपको केंसर हो गया है, आप फिर पूछेंगे
क्या करूं? आप फौरन चिकित्सा के लिए दौड़-धूप में लग जाएंगे।
आप केंसर के बाहर होना चाहेंगे।
केंसर
बहुत बड़ी बीमारी नहीं है। गुलामी उससे बहुत बड़ी बीमारी है। क्योंकि केंसर केवल
शरीर को नष्ट करता है,
गुलामी आत्मा को नष्ट कर देती है। और हम सब गुलाम हैं, इसलिए हमारी आत्माएं नष्ट हो गइ हैं।
इसलिए
नहीं आत्माएं नष्ट हो गइ हैं कि आप मंदिर नहीं जाते हो। क्या बेवकूफी की बातें
हैं। कोई मंदिर नहीं जाएगा...इससे आत्मा नष्ट हो जाएगी? इससे
आत्मा नष्ट नहीं हो गई कि आप रोज सुबह धर्म-ग्रंथ नहीं पढ़ते हो। धर्म-ग्रंथ पढ़ने
से आत्माएं बचती होतीं तो बहुत सरल नुस्खा था। इसलिए भी आत्मा नष्ट नहीं हो गई कि
आप यज्ञोपवीत नहीं पहनते, टीका नहीं लगाते, चोटी नहीं रखते। अगर इतना सस्ता मामला होता आत्मा को बचाने का, तब तो हमने दुनिया की आत्मा कभी की बचा ली होती।
आत्मा
इसलिए नष्ट नहीं हो गई,
आत्मा इसलिए नष्ट हो गई कि आप एक गुलाम हो। और गुलामी में आत्मा के
फूल नहीं खिलते हैं। आत्मा के फूल खिलते हैं स्वतंत्रता में, स्वतंत्रता की भूमि में। गुलाम आदमी के भीतर आत्मा नहीं विकसित हो सकती।
और
हम सब गुलाम हैं। क्या इस गुलामी को आप देखेंगे? मन होगा कि इसको देखें ना।
कुछ तरकीबें, कुछ तर्क सुझाकर इसको देखने से बच जाएं।
क्योंकि देखने के बाद फिर आपको परिवर्तन से गुजरना अनिवार्य हो जाएगा। तो आप अपने
मन को पच्चीस जस्टीफिकेशन खोजकर, न-देखने के लिए राजी करने
की कोशिश करेंगे कि न देखें। हमेशा आदमी उन चीजों से आंख बंद कर लेना चाहता है,
जिनको देखने से परिवर्तन का डर होता है।
शुतुरमुर्ग
अपने सिर को छिपा लेता है रेत में शत्रु को देखकर। जब शत्रु दिखाई नहीं पड़ता तो वह
सोचता है, जो दिखाई नहीं पड़ता वह है ही नहीं। लेकिन दिखाई न पड़ने से शत्रु नष्ट नहीं
होते।
तो
आप छिपा लेना चाहेंगे पच्चीस तरह के तर्क जाल में कि नहीं, मैं गुलाम
कहां हूं। कौन कहता है कि मैं गुलाम हूं? लेकिन इतनी जल्दी
छिपाने की कोशिश आप न करें। छिपाते रहे हैं गुलामी को अच्छे-अच्छे शब्दों में,
इसीलिए गुलामी आज तक शेष है। यह कभी की समाप्त हो जानी चाहिए थी।
इसके बचे रहने का कोई कारण नहीं है।
लेकिन
हम छिपाते हैं! और हम बहुत होशियार लोग हैं। आदमी मर जाता है तो सुंदर कपड़े से
ढांक देते हैं,
फूल रख देते हैं ऊपर। घर में कहीं गंदगी होती है, खूबसूरत पर्दा टांग देते हैं। शरीर सुंदर नहीं होता तो सुंदर कपड़ों से
ढांक लेते हैं।
हम, जहां-जहां
कुरूपता होती है, सुंदर से ढांक देते हैं। जहां-जहां असत्य
होता है, सत्य के शब्दों से ढांक देते हैं। सब तरफ से ढांक
देते हैं फिर वह चीज बची रह जाती है। फिर उससे छूटने को हम खुद ही भूल जाते हैं।
हम खुद ही भूल जाते हैं कि हमने कुछ छिपा रखा है। हम अपनी गुलामी को छिपाए हुए हैं
और हमने अच्छे-अच्छे शब्दों में उसे ढांक लिया है।
गुलामी
को छिपाएं न,
अच्छे-अच्छे शब्दों में उसे ढांकें न; उसे
देखें, ठीक से उसे देखें। देखने मात्र से वह न होना शुरू हो
जाती है। वह वस्तुतः है नहीं। आप देखते नहीं हैं, आप अंधे
हैं, इसलिए प्रतीत होती है। आप देखना शुरू करें, स्वतंत्रता अनुभूत होगी। स्वतंत्रता के साथ-साथ सत्य भी आएगा, आनंद भी आएगा। सत्य और आनंद स्वतंत्रता के ही परिणाम हैं।
आज
इतना ही। अब हम ध्यान के लिए बैठें।
आज इतना ही।
साधना-शिविर माथेरान दिनांक १९-१०-६७ सुबह
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