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शुक्रवार, 3 मार्च 2017

ज्‍योति से ज्‍योति जले-(सूंदर दास)--प्रवचन-04



ज्‍योति से ज्‍योत जले-

प्रवचन—चौथा
पहला प्रश्नः त्याग क्या है?

जीवन का परमभोग है त्याग। जीवन के रस में डूबना है त्याग। रस-विमुग्ध होना है त्याग।
"त्याग' शब्द से उलझन में मत पड़ जाना। वह भोग का परम रूप है-- भोग की पराकाष्ठा। त्याग इसलिए कहते हैं ताकि जिसे तुमने भोग समझ लिया, उस में उलझे न रह जाओ। तुम्हारे तथाकथित भोग को भिन्न करने की दृष्टि से, भेद करने की दृष्टि से त्याग को त्याग कहते हैं, अन्यथा कहना तो चाहिए परम भोग।
तुमने भोगा क्या है? तुमने सिर्फ दुःख भोगा है। तुमने जाना क्या है? --सिवाय चिंताओं के, सिवाय संतापों के। तुमने पहचाना क्या है?
अमावस की रात, दीया भी तो नहीं जला। पूर्णिमा तो बहुत दूर। इसे भोग कहोगे? यह कांटों से छिदा हुआ हृदय, और इन चिंताओं से उलझी हुई तुम्हारी चित्त की दशा। और यह नरक जो तुमने अपने चारों तरफ निर्मित कर लिया है-- जिससे तुम घिरे हो, जिससे तुम भरे हो-- इसे भोग कहोगे? मगर इसी को तुमने भोग कहा है। इसलिए मजबूरी में ज्ञानियों को इसके विपरीत शब्द चुनना पड़ा--त्याग; ताकि तुम्हें याद दिलाया जा सके कि तुम जो हो यह तुम्हारी नियति नहीं है, तुम्हें कुछ और होना है।
तुम बाहर ही बाहर दौड़ते रहे! और बाहर सिवाय दरिद्रता के और कुछ न कभी मिला है, न मिल सकता है। तुम मांगते ही रहे। पैदा हुए थे सम्राट् की भांति और भिखमंगे होकर ही समाप्त हुए जा रहे हो। सिर पर तुम्हारे राजमुकुट है, लेकिन उसकी तुम्हें याद नहीं। उसकी तुम्हें पहचान नहीं। हाथों में तुम्हारे भिक्षापात्र हैं। वही तुम्हें दिखाई पड़ता है। उस भिक्षापात्र की न कभी पूर्ति हुई है, न कभी होगी। तुम मांगते-मांगते ही मर जाओगे। जीवन बहुत पास है मगर तुम परिचित न हो पाओगे। क्योंकि जीवन से परिचित होने की जो प्रक्रिया है उससे तुम विपरीत चल रहे हो।
जीवन से परिचित होने की पहली प्रक्रिया है कि मैं भीतर चलूं। उसे तो पहचान लूं जो मैं हूं। फिर किसी और यात्रा पर निकलूं।
पहली यात्रा तो अंतर्यात्रा ही होनी चाहिए। अपने को बिना जाने जो चल पड़ा, वह पहुंचेगा कहां ? उसके पहुंचने का सार भी क्या होगा? और जो अपने को भी नहीं जानता वह कैसे तय करेगा-- "किस दिशा में जाऊं? कहां मेरी नियति है? कौनसा मार्ग अनुसरण करूं? कहां होगी मेरी संतुष्टि?'  जिसे अपने स्वभाव का पता नहीं वह जो भी करेगा, गलत करेगा।
तो त्याग का पहला तो अर्थ है कि भीतर जाऊं। अपने में उतरूं। भूल ही जाउं कि बाहर कोई जगत् है।
भीतर, और भीतर, और भीतर, सीढ़ी-दर-सीढ़ी आदमी भीतर उतर सकता है; क्योंकि आदमी एक गहरा कुआं है, और वहां अमृत के जल-स्रोत हैं। उतरोगे तो पाओगे।
जो व्यक्ति भीतर उतरना शुरू करता है, बाहर दौड़नेवालों को लगता है कि बेचारा! सब छोड़ दिया! जो भीतर उतर रहा है, सब पाने की दशा में चला है। जो बाहर दौड़ रहे हैं, वे कुछ भी न पाएंगे।
. . . तो त्याग एक विराट सपना है--स्वयं को जानने का। एक अदम्य अभीप्सा है--स्वयं से परिचित होने की। और उस परिचय से सब बदल जाता है, सब रूपांतरित हो जाता है। जीवन के सारे मूल्य नए हो जाते हैं। कल तक जो मूल्यवान था, दो कौड़ी का हो जाता है, क्योंकि स्वभाव से मेल नहीं खाता! कल तक जिस पर ध्यान भी न दिया था, अचानक वही हीरे-जवाहरात हो जाते हैं, क्योंकि स्वभाव से मेल खाते हैं।
एक बार स्वयं से परिचित होने की ज़रा-सी भी संभावना बनी, एक किरण भी पैदा हुई, कि तुम्हारा सारा जीवन और हो जाएगा। उसे फिर से नियोजित करना होगा। सार असार हो जाएगा, असार सार हो जाएगा। इस घटना का नाम संक्रांति है। इस घटना का नाम संन्यास है।

सपनों में विश्वास करो हे!

मन को तरल करो, सपनों की अमर पड़े उनमें परछांई

सत्य उसे कर सको कि भीतर से उठकर जो आयी झांईं

यह कि अनाहद भी तारों में कंपन का मृदुहास भरो हे

सपनों में विश्वास करो हे


आते हैं दिन-रात दिशाओं में संदेश-सजीले बादल

इनकी रिमझिम इनका गर्जन व्यर्थ न जाने पाए पागल

किसी रामगिरी पर रहकर भी इनमें अपनी आस भरो हे


सपनों में विश्वास करो हे

अगम हिमाचल पर दौड़ा दो तुम अपने भीतर की भाषा

सुरसरि के छंदों से मिलकर हो पुनीत हर शापित आशा

और मेघ की तरह स्वयं तुम धरती पर उल्लास भरो हे

सपनों में विश्वास करो हे!
त्याग इस बात के स्वप्न से भर जाना है, कि मैं जान लूं कि मैं कौन हूं? यह इस जगत् का सबसे बड़ा स्वप्न है। क्योंकि यह इस जगत् के सबसे बड़े सत्य के करीब ले जाता है। यह ऐसा स्वप्न है कि जिसने नहीं देखा वह सत्य से सदा के लिए वंचित रह जाएगा।

मन को तरल करो, सपनों की अमर पड़े उनमें परछांई

सत्य उसे कर सको कि भीतर से उठकर जो आयी झांई

यह कि अनाहद भी तारों में कंपन का मृदुहास भरो हे!
एक वीणा अहर्निश बज रही है भीतर--लेकिन तुम सुनो तब, तुम गुनो तब, तुम रुको तब, तुम जरा ठहरो तब। कभी विश्राम के क्षण में, कभी द्वार-दरवाजे करके, कभी बाहर की आपा-धापी छोड़कर--अपने में डुबकी मारोबंद-- तो सुनायी पड़े अनाहद का नाद। और वह नाद तुम्हें नया कर जाए, तुम्हें पुर्नजीवीत करें, तुम्हें नहलाए।
त्यागी सद्यःस्नात मालूम होता है--सदा नहाया हुआ--अभी-अभी-जैसे नहाया हो! ऐसी उसकी ताजगी, ऐसा उसका कुंवारापन होता है। लेकिन बाहर से ऊर्जा को थोड़ा भीतर लेना पड़े। सारी ऊर्जा बाहर ही दौड़ती रहे, तो कौन जाए भीतर! कौन परिचित हो स्वयं से!
दूसरी बातः त्याग इस जगत् का सबसे बड़ा चमत्कार है। चमत्कार इसलिए कि जो सारे जगत् को मूल्यवान मालूम पड़ता है, वह संन्यस्त को मूल्यहीन मालूम पड़ने लगता है। जो सारे जगत् को संग्रहणीय मालूम होता है वह संन्यस्त को व्यर्थ मालूम होने लगता है।
बुद्ध ने घर छोड़ा। साधारण घर न था--महल था। सब सुख-सुविधा थी। राज्य था, संपत्ति थी, सुरक्षा थी। जब रात उन्होंने अपने राज्य की सीमा पार की, और अपने सारथी को वापिस भेजा, तो सारथी बूढ़ा था, उसने कहाः सुनो! यद्यपि मैं आपका नौकर-चाकर, मुझे कोई हक नहीं कि आपको कुछ कहूं, लेकिन मेरी उम्र उतनी है जितनी तुम्हारे पिता की। उम्र के अधिकार से कहता हूं, यह क्या पागलपन कर रहे हो? दुनिया में हर आदमी महलों की तरफ दौड़ता है, तुम महल छोड़कर जा रहे हो? पछताओगे! मैं बूढ़ा आदमी जीवनभर के अनुभव से कहता हूं। जा कहां रहे हो? वापिस लौट चलो! अभी तुम्हारी उम्र कच्ची है। अभी तुम्हारा अनुभव कच्चा है। पीछे लौटकर देखो, तुम्हारे राजमहल के शिखर अभी भी पूरे चांद में झलक रहे हैं। इनसे सुंदर और कहां, क्या पाओगे? तुम्हारी सुंदर पत्नी अब भी इस आशा में सोयी है कि तुम पास ही हो। तुम्हारा नया-नया पैदा हुआ बेटा रोएगा, तड़पेगा, तुम्हारी प्रतीक्षा करेगा। यह धोखा मत दो। तुम्हारा बूढ़ा बाप, जिसने जीवनभर बड़ी आशा से तुम्हें पाला है, तुम उसकी आंख के तारे हो। तुम उसके सब कुछ हो। उसके बुढ़ापे की लकड़ी हो। तुम जा कहां रहे हो?
बुद्ध ने पीछे लौटकर देखा-- कहानियां कहती हैं-- और उन्होंने कहाः मुझे कोई महल दिखाई नहीं पड़ता, मुझे तो सिर्फ आग की लपटें दिखाई पड़ती हैं। और मुझे, कोई जीवन दिखायी नहीं पड़ता। मुझे तो चारों तरफ धू-धू कर जलते हुए चिंताएं दिखायी पड़ती हैं। मुझे तो सिर्फ मृत्यु दिखायी पड़ती है वहां। मैं जीवन की खोज में जा रहा हूं।
ये दोनों भाषाएं कहीं ताल-मेल नहीं खातीं। जिसे तुम जीवन कहते हो, ज्ञानी उसे मृत्यु कहता है। तुम जिसे धन कहते हो, ज्ञानी उसे निर्धनता कहता है। तुम जिसे पद कहते हो, ज्ञानी उसे छलावा कहता है। ज्ञानी जिसे धन कहता है, उसका तुम्हें कोई अनुभव नहीं। ज्ञानी जिसे रस कहता है, उसकी एक बूंद तुम्हारे कंठ में उतरी नहीं।
चमत्कार है त्याग।

जब कोई आदमी सहज भाव से 

किसी बड़ी चीज को छोड़ देता है

तो वह जैसे अनायास ही

अपने को किसी ऐसी शक्ति से जोड़ लेता है

जो जगह बदल देती है चीजों की

बना देती है जो छोटी चीजों को बड़ा

कठोर को कोमल, कोमल को कड़ा
ऐसा चमत्कार है त्याग! जादू है! जीवन को रूपांतरित करने की कीमिया है।
तुम सोचते हो त्यागी जंगल भाग जाता है? वह तो केवल ऊपर का आयोजन है। वह तो केवल ऊपर की अभिव्यक्ति है। त्यागी अपने भीतर जाता है। अगर असंभव हो जाता है बाजार में बैठकर भीतर जाना तो जंगल जाता है। मगर जंगल जाना प्रयोजन नहीं है-- स्वयं में जाना प्रयोजन है। जहां भी तुम बैठे हो वहीं अगर स्वयं में जा सको तो त्याग फलित हो गया। और मेरे देखे जंगल में जो भागता है शायद उसे अभी ठीक-ठीक स्वयं में उतरने की कला का कुछ पता नहीं है। नहीं तो तुम जहां हो वहीं भीतर जा सकते हो। क्योंकि भीतर तो सदा तुम्हारे भीतर ही मौजूद है। जंगल में मौजूद हो जाएगा, बाजार में खो जाएगा--ऐसा तो नहीं है। अब आंख बंद करोगे, जब श्वास शिथिल होगी, जब मन निर्विचार होगा तभी तुम जब अपने भीतर हो जाओगे। मन के बाजार से जरूर हटना होगा।
मैं तुम्हें अपना बसंत देता हूं
और पतझड़ मांगता हूं
उदारता नहीं  है इसमें कोई
एक खोई-खोई सी धुन है मेरा बसंत मेरे लिए
मैं कभी इसके मारे पल भर उदास नहीं रह पाया
उदासी के मौसम में भी हंसता फिरा हूं
पकड़ कर हवा का आंचल
धरती के इस छोर से धरती के उस छोर तक
शाम से भोर तक
सिवाय खिलने के कुछ सोच नहीं पाया
और भोर जब आया,
कर नहीं पाया कुछ और सिवाय खिलने के
सुख से गले मिलने के जितने प्रकार हो सकते हैं
मुझे भोगने पड़े हैं
प्रतिपल चुंबन जड़े हैं मैंने अलस-सौंदर्य के भाल पर
काल के राजपथ को मैं प्रतिपल फूलों से भरता रहा हूं
सुगंध ही झरता रहा हूं रात-दिन वातावरण में
चुपचाप किसी चरण में
पड़े रहने का समय ही नहीं मिला
मैं व्याकुल हूं अब वैसे पलों के लिए
अपना बसंत उतार कर रख देना चाहता हूं
बल्कि दे देना चाहता हूं तुम्हें
क्योंकि तुम अपने पतझड़ की शिकायत कर रहे थे
मैं तुमसे तुम्हारा पतझड़ मांगता हूं
उदारता नहीं है इसमें क्योंकि
इस तरह मैं फूल-पंखुड़ी देकर रस खींचने वाली जड़ मांगता हूं
पतझड़ पाकर शीर्ण होना सीखूंगा
विलास-विकीर्ण अपना जीवन समेट लूंगा जड़ में
और फूल-पात की गरिमा से हीन
विलीन किसी रूप की शोभा समझूंगा
कुहरे से लदी हवा की सांस को
अपने फेंके हुए पत्तों से
थोड़ा और तेज करूंगा
ऊपर-ऊपर से मरूंगा
जिऊंगा भीतर-भीतर सिमट कर अपने प्राण से
राशि-राशि फूल और गंध
और गान से छूटकर और खुलकर हलका हो जाऊंगा
ठीक सिमटते और सटते बनेगा इस तरह
बहुत अधिक सुख की भीड़-भाड़ से
हटते बनेगा इस तरह
पेड़ की गहरी जड़ के छोर तक
रात से भी अंधेरे और ठंडे पानी की तहें
अब मेरी सांसों में रहें
ऐसा जी हो रहा है और मैं तुम्हें बसंत देता हूं
पतझड़ मांगता हूं
उदारता कुछ नहीं है इसमें
क्योंकि इस तरह मैं पंखुरी देता हूं, जड़ मांगता हूं।
त्याग ऊपर-ऊपर के फूल-पत्तों को छोड़कर अपनी जड़ों में उतर जाने की प्रक्रिया है, कीमिया है।

उदारता कुछ नहीं है इसमें

क्योंकि इस तरह मैं पंखुरी देता हूं, जड़ मांगता हूं
महावीर ने अपना सब बांट दिया--अपना बसंत बांट दिया। लेकिन खयाल रखना -- उदारता नहीं है इसमें! वे अपनी जड़ों की खोज में चल पड़े।
पतझड़ के दिनों में, तुम्हें पता है क्या हो जाता है! वृक्ष अंतर्मुखी हो जाता है; बसंत में बहिर्मुखी हो जाता है। बसंत में रस बाहर की तरफ बहने लगता है। पत्ते आते, फूल आते, शाखाएं फैलतीं --दूर आकाश की यात्रा पर वृक्ष निकल पड़ता है। सब दिशाओं में फैलने लगता है। बसंत में वृक्ष संसार हो जाता है। भूल ही जाता है कि जड़ें भी हैं। जब ऐसे रंगीन फूल आएं हों और पत्ते ऐसे हरे हो गए हों, और पक्षियों का ऐसा गुंजन हो रहा हो, और सूरज निकला हो, और हवाएं हों, और चारों तरफ रास-रंग हो-- तो वृक्ष भूल न जाएं तो क्या करे! भूल ही जाता है। दुल्हन की तरह सजा, दिन और रात बाहर की मस्ती में डूबा रहता है। भूल ही जाता है कि जड़ें भी हैं; यद्यपि जड़ें ही असली हैं। सब फूल-पत्ते कुम्हला जाएंगे जड़ों के टूटते ही।
सब फूल-पत्ते जड़ों से बंधे हैं। सब फूल-पत्ते जड़ों से रस पा रहे हैं। जड़ों के बिना उनका कोई जीवन नहीं है। एक बात खयाल रखना, जड़ें हो सकती हैं बिना फूल-पत्तों के -- फूल-पत्ते नहीं हो सकते हैं बिना जड़ों के। इसीलिए तो उनको जड़ कहते हैं। और यह भी खयाल रखना, फूल-पत्ते दिखाई पड़ते हैं, जड़ें दिखायी नहीं पड़तीं। जो भी मूल्यवान है वह अदृश्य में छिपा होता है। जो भी साधारण है वह दृश्य होता है। दृश्य सदा ही गौण है। अदृश्य सदा ही प्रधान है।
इसलिए तो संसार दिखायी पड़ता है, परमात्मा दिखायी नहीं पड़ता। और जो पूछने चले आते हैं कि परमात्मा दिखला दो, वे पागल हैं। उन्हें यह पता ही नहीं है कि परमात्मा जड़ है; दिखलाया नहीं जा सकता । संसार ही दिखलाया जा सकता है। हां, लेकिन संसार असंभव है परमात्मा के बिना।
त्याग में, संन्यास में अंतर्यात्रा शुरू होती है। पतझड़ जैसा है त्याग। वृक्ष भूल जाता है पत्तों को। थक जाता है--पत्तों से, आपा-धापी से, भाग-दौड़ से, हवाओं से, सूरज से, चांदत्तारों से --ऊब जाता है सब से। सिकोड़ लेता है अपने को--ले लेता है रसधार वापिस। फूल विदा हो जाते हैं, पत्ते झड़ जाते--नग्न हो जाता वृक्ष-- दिगंबर हो जाता। सब वस्त्र-परिधान--सब भूल जाता है। बाहर की सब सजावट छोड़ देता है। अब जैसे बाहर से कुछ लेना-देना नहीं है। उतर जाता है अपनी जड़ों में। पतझड़ में वृक्ष अपनी जड़ों की खोज करता है। ध्यानस्थ हो जाता है।
पतझड़ में खड़े वृक्ष का सौंदर्य देखा है! वह ध्यानी का सौंदर्य है। पतझड़ में खड़े वृक्ष की नग्न शाखाएं देखीं। वैसे ही एक दिन महावीर खड़े हो गए थे। वह नग्नता पतझड़ के वृक्ष की नग्नता है। खुले आकाश में पतझड़ में खड़े वृक्ष की शाखाओं का सौंदर्य देखा है। उसका भी अपना एक सौंदर्य है। उसका एक अपना अलग ही सौंदर्य है। क्योंकि उस सौंदर्य में एक पवित्रता है, एक सरलता है, विनम्रता है।
बसंत में वृक्ष खूब सुंदर होता है, पर उसमें एक उलझन है --लदा-फदा होता है, भारी होता है, आवृत होता है, ढका होता है, बड़े प्रसाधन में होता है। पतझड़ में वृक्ष कहां चला जाता है! कहां चले जाते हैं फूल! कहां चले जाते हैं पत्ते! कहां समा जाती है सारी रसधार!-- अपने में डूब जाती है। अपने ही मूल-स्रोत में उतर जाती है।
ऐसे ही मनुष्य के जीवन की दो यात्राएं हैं--एक, जिसे हम साधारणतः भोग कहते हैं; एक, जिसे हम त्याग कहते हैं। भोग है बहिर्यात्रा, त्याग है अंतर्यात्रा। भोग में हम फूल बनते हैं, त्याग में हम जड़ों की तलाश करते हैं। भोग में हम जड़ों से दूर जाते हैं --इसलिए सत्य से दूर जाते हैं; इसलिए परमात्मा से दूर जाते हैं। त्याग में हम जड़ों के करीब आते हैं,अपनी भूमि को पाते, अपने प्राणों का मूल रस खोजते-- परमात्मा के निकट आते हैं।
लेकिन मैं तुम्हें यह फिर याद दिला दूंः त्याग परमभोग है। पतझड़ में दूसरे रस लेते होंगे वृक्ष का, लेकिन वृक्ष तो केवल बेचैन होता है, परेशान होना है। बसंत में दूसरे रस लेते होंगे वृक्ष का, दूसरे देखकर प्रसन्न होते होंगे। दिखावा है, नाटक है। लेकिन पतझड़ में वृक्ष स्वयं रस लेता है, रस-विमुग्ध होता है, अपने में डुबकी मारता है। अपने अंतस्तल में उतरता है। ऐसा ही त्याग है।
त्याग परमभोग है। त्याग अपना ही स्वाद है। और अपना जिसने स्वाद लिया उसने सब जान लिया। उसे जानने को फिर कुछ बच नहीं रहता।
सुकरात ने कहा हैः जो दूसरों को जानें, वे बुद्धिमान, विद्वान; जो अपने को जानें, वे ज्ञानी, वे प्रज्ञावान।
बसंत में दूसरों की जानकारी होती है, परिचय होते हैं, संबंध होते, मित्रता बनती। पतझड़ में आत्म-परिचय होता है। भोग में हम संबंध बनाते हैं, त्याग में हम असंग हो जाते हैं। त्याग में हम पहली बार अपने आमने-सामने होते हैं।
और ध्यान रखनाः त्याग के बाद, आत्म-परिचय के बाद आदमी उठे, बैठे, चले, बाहर अनंत-अनंत यात्राएं करे, तो भी भीतर से फिर संबंध नहीं छूटता। फिर बाहर होकर भी भीतर बना रहता है। फिर बसंत आते रहें, जाते रहें, अपनी जड़ों से संबंध नहीं टूटता।
कोई बसंत से विरोध नहीं है--कम से कम मेरा तो कतई नहीं है। मैं बसंत का बिल्कुल पक्षपाती हूं। लेकिन तुम्हारा बसंत महाबसंत हो जाएगा--अगर तुम अपनी जड़ों से परिचित हो, अपनी जड़ों से जुड़े हो।
पुराना संन्यास बसंत के विपरीत था, पतझड़ का पक्षपाती था, जिसे मैं नव संन्यास कह रहा हूं, वह पतझड़ का पक्षपाती था, लेकिन बसंत का विरोधी नहीं। जड़ों से संबंध तुम्हें और महाबसंत लाने की योग्यता देगा, पात्रता देगा।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूंः त्याग महाभोग का द्वार है।
उपनिषद कहते हैंः तेन त्यक्तेन भुंजिथाः। जिन्होंने छोड़ा उन्होंने ही भोगा। अद्भुत उद्घोषणा है! "जिन्होंने छोड़ा उन्होंने ही भोगा'! क्योंकि उन्होंने ही जाना जीवन का सार। तुम तो ऊपर-ऊपर कचरा बीन रहे हो! उन्हें हीरों की खदानें हाथ लग गयीं। तुम मरोगे तो कुछ ठीकरे छोड़ जाओगे। और क्या होगा तुम्हारे पास! फिर ठीकरे पीतल के हों कि सोने के , क्या फर्क पड़ता है! ठीकरे, ठीकरे हैं। तुम मरोगे तो खाली हाथ जाओगे। फिर जिंदगीभर तुम्हारे हाथ सोने से भरे थे कि पीतल से, इससे क्या फर्क पड़ता है! मरते वक्त खाली हाथ जाओगे।
त्यागी भरा जीता है, भरा मरता है। उसका भरापन। उसका घड़ा कभी खाली नहीं है।
इसलिए मैं तुम्हें संन्यास सिखा रहा हूं। लेकिन एक ऐसा संन्यास जिसमें संसार समाविष्ट है। मैं तुम्हें एक ऐसा त्याग सिखा रहा हूं जो भोग के विपरीत नहीं है, वरन महाभोग है--जिसके समक्ष भोग फीका पड़ जाता है, पीला पड़ जाता है, नाकुछ हो जाता है।
मेरा सूत्र यही है कि तुम्हें सत्य मिले तो असत्य अपने से छूट जाता है; सार मिले, असार अपने से छूट जाता है।
मैं तुमसे कुछ छोड़ने को नहीं कहता-- सिर्फ अपने को जानने को कहता हूं। उस जानने से क्रांति अपने-आप चल पड़ती है, अपने-आप होने लगती है।

दूसरा प्रश्नः मैं आपका शिष्य हूं, आप हैं मेरे गुरु--इसे सारे जगत् से कहना चाहता हूं पर कह नहीं पाता हूं। क्या करूं?

ङ इसे मौन अनुभव ही रहने दो। इसे कहने की कोई जरूरत भी नहीं है। नहीं तो अहंकार उपजेगा। क्यों कहना चाहते हो? क्या प्रयोजन है? अगर तुम शिष्य हो तो जगत् जान ही लेगा।
फूल खिलते हैं, सुगंध पहुंच ही जाती है नासापुटों तक। सूरज निकलता है-- बिना किसी दुदुंभि के, बिना किसी घोषणा के, बिना किसी विज्ञापन के --पक्षी जग जाते हैं। नींद में भी खबर हो जाती है कि सूरज निकल आया।
तुम्हारा गीत फूटेगा, बस उसी से खबर होगी। तुम्हारी गंध उड़ेगी, बस उसी से खबर होगी। और अतिरिक्त खबर देने की कोई जरूरत नहीं है। अहंकार की यात्राओं से सावधान रहो। अहंकार बड़ा कुशल, बड़ा चालबाज है, बड़ा चालाक है। हर तरह से अपने को बड़ा करने की चेष्टाएं खोजने लगता है। धन हो, पद हो, प्रतिष्ठा हो-- ठीक, चढ़ बैठता है, सवारी कर लेता है। इतना ही नहीं, ज्ञान हो, ध्यान हो, त्याग हो, संन्यास हो--वहां भी चढ़ बैठता है। वहां भी सवारी करने लगता है। रस को विषाक्त न करो। अहंकार विषाक्त कर देगा। चुप ही रहो।
चुप्पी भी कहती है। और चुप्पी खूब जोर से कहती है। कभी-कभी बड़े जोर से कहना भी इतने जोर से नहीं होता जितना मौन कह जाता है। मौन की क्षमता भी समझो।
तो पहली तो बातः कहने की कोई जरूरत नहीं है। तुम मेरे शिष्य हो, यह मुझसे कह दिया, काफी है। हालांकि मैं तुम्हारे भाव को समझ रहा हूं। तुम्हारा भाव बुरा भी नहीं है। लेकिन अहंकार बड़ा कुशल है, अच्छे भावों पर भी सवारी कर जाता है। इसलिए सावधान करना भी जरूरी है। अहंकार इतना कुशल है कि साधुता के पीछे भी छिपकर खड़ा हो जाता है; सरलता में से भी रास्ता निकाल लेता है; विनम्रता में भी दावेदार बन जाता है।
तुम्हारा भाव मैं समझा हूं। भाव तो सुंदर है। जब भी हमारे जीवन में कुछ आनंद घटता है, हम बांटना चाहते हैं। जिन्हें हम प्रेम करते हैं उन्हें भी खबर पहुंचाना चाहते हैं। जिन्हें हमने चाहा है, जिन्हें हमने पहचाना है, चाहते हैं कि वे भी इस संमार्ग पर चलें, उन्हें भी यह प्रकाश मिले। तुम तृप्त होते हो किसी बात से , तो स्वभावतः तुम चाहते हो तुम्हारी पत्नी भी तृप्त हो, तुम्हारा पति भी तृप्त हो, तुम्हारे बच्चे भी तृप्त हों, तुम्हारे मित्र भी, तुम्हारे प्रियजन भी। तुम कहना चाहते हो।
तुम्हारा भाव बुरा नहीं है। लेकिन अहंकार अगर पीछे छिपा आया तो तुम चाहोगे कुछ, होगा उसके विपरीत। पति पत्नी को संन्यास में लाना चाहे तो मुश्किल पड़ जाती है, फिर पत्नी आती नहीं। जितना पति चेष्टा करता है उतनी ही कठिनाई हो जाती है। पत्नी चाहती है कि पति आए, मुझे सुने, समझे, ध्यान करे --बस मुश्किल हो जाती है। बहुत मुश्किल हो जाती है। क्योंकि जिनसे तुम्हारे संबंध हैं, नाते हैं, वे कोई भी यह मानने को तैयार नहीं होते कि तुम उनसे ज्यादा बुद्धिमान हो। उनके अहंकार को चोट लगती है। वे कोई भी यह मानने को राजी नहीं होते। कोई पत्नी मान सकती है, कि मेरा पति और बुद्धिमान! ऐसा कभी हुआ है? कोई पति मान सकता है कि मेरी पत्नी और कभी कोई ऐसा काम करे जिसमें बुद्धि का लक्षण हो!
जिनसे हमारे नाते-रिश्ते हैं, उन सबको हम सोचते हैं कि उनमें कुछ समझ नहीं है। ऐसा ही वे भी तुम्हारे संबंध में सोचते हैं। इसलिए तो इतनी कलह होती है, इतने उपद्रव होते रहते हैं। संबंधों में सिवाय कलह के और कुछ होता दिखायी नहीं पड़ता। हर छोटी-छोटी बात पर कलह हो जाती है। छोटी-छोटी बात पर विवाद हो जाता है। व्यर्थ की बातों में से बातें निकल आती हैं।
तो तुम इस भ्रांति में मत रहना कि अपनी पत्नी को कहोगे कि मुझे बड़ा आनंद मिल रहा है, तो वह मानेगी। वह दुनिया में किसी के भी चरण छू सकती है। कोई भी ऐरा-गैरा-नत्थू उसके गांव में आ जाए, तो वह महाराज के चरण छू सकती है, कि बड़े ज्ञानी का आगमन हुआ है। मगर पति! यह तो आखिरी मामला है। अगर पत्नी पति को बुद्धिमान मान ले तो समझो क्रांति हुई। यह बिल्कुल मुश्किल है। यह बहुत कठिन है।
जिनके साथ तुम बचपन से बड़े हुए हो वे तुम्हें ज्ञानी नहीं मान सकते। तुम्हारी तो बात ही छोड? दो, उन्होंने बड़े-बड़े ज्ञानियों को ज्ञानी नहीं माना। जीसस अपने ही गांव में नहीं पूजे गए। जीसस की प्रसिद्ध उक्ति है कि पैगंबर को उसके ही गांव में नहीं पहचाना जाता। गांव के लोगों ने जीसस को बड़े होते देखा, उसी गांव में बड़े होते देखा, उसी गांव में रास्ते पर खेलते देखा। गांव के लोग जीसस को जानते भी थे, जीसस के बाप को जानते, बाप के बाप को जानते--सबको जानते थे। अचानक यह बेटा ईश्वरीय हो गया! यह असंभव है। यह बात भरोसे की नहीं होती। यह कैसे हो सकता है कि हम सब नहीं हो पाए ईश्वर और यह बेटा ईश्वर हो गया है! और यहीं लकड़ी ढोता था। क्योंकि बढ़ई का बेटा था। यहीं लकड़ी काटता था। इसके हाथ की बनाई हुई टेबल-कुर्सियां लोगों के घरों में हैं। और यह ईश्वर को पा गया! या तो पागल है, विक्षिप्त हो गया है; या धोखेबाज है, झूठे दावे कर रहा है। कौन मानेगा इसे!
बहुत कठिन हो जाता है। अहंकार को भारी चोट लगती है। इसलिए तो मुर्दा गुरुओं की दुनिया में प्रतिष्ठा रहती है। जिंदा गुरु की प्रतिष्ठा नहीं होती। जिंदा गुरु को पत्थर पड़ते हैं, गालियां पड़ती हैं। मुर्दा गुरु पर फूल बरसते हैं। क्यों, मुर्दा गुरु के साथ तुम्हारा इतना प्रेम कैसे हो जाता है एकदम से? मुर्दा गुरु से तुम्हारे अहंकार की कोई टक्कर नहीं होती। अब बुद्ध से तुम्हारी क्या टक्कर है? रहे होंगे बुद्धिमान तो रहे होंगे। कौन झंझट करे! रहे ही होंगे। दो फूल चढ़ाओ और छुटकारा पाओ। जीसस रहे होंगे बुद्धिमान, कृष्ण रहे होंगे ईश्वर के अवतार। लेकिन तुम्हारे सामने कोई बैठा हो, तुम्हारे घर में कोई बैठा हो, तुम्हारे समसामयिक हों तुम्हारा संबंधी हो, तुम्हारा बेटा हो, तुम्हारी बेटी हो, तुम्हारा पति हो, पत्नि हो,  तुम्हारा पिता हो, तुम्हारा मित्र हो-- बहुत कठिन हो जाती है बात, असंभव हो जाती है बात। बड़ी बोध की क्षमता चाहिए तो कोई सुनेगा, समझेगा।
तुम कहना चाहते हो, ठीक; लेकिन सुनेगा कौन, मानेगा कौन! और फिर एक तीसरी कठिनाई, कुछ बातें हैं जो कही जा सकती नहीं। उन बातों में एक बात यह भी है--प्रेम अनिर्वाच्य है। और शिष्य और गुरु के बीच जो प्रेम घटता है वह सर्वाधिक अनिर्वाच्य है, क्योंकि वह प्रेम की पराकाष्ठा है।
तीन तरह के प्रेम होते हैं। क्योंकि मनुष्य के भीतर जीवन के तीन तल हैं। एक तो शरीर का प्रेम होता है। उसे भी बताना कठिन होता है, लेकिन फिर भी इतना कठिन नहीं होता, क्योंकि स्थूल है; स्थूल स्थूल का नाता है। फिर दूसरा प्रेम मन का प्रेम होता है। उसे बताना और कठिन हो जाता है। क्योंकि मन को देखा किसने है! देखा नहीं, कल सुंदरदास कहते थे-- न उसका माथा है, न उसका सिर है, न उसका शरीर है! अशरीरी है। इस मन के प्रेम को कैसे प्रकट करो! और कोई अगर इनकार करे तो सिद्ध न कर पाओगे। शरीर का प्रेम दिखलाने के तो उपाय हैं। किसी को छाती से लगा लो, तो शरीर का प्रेम पता चलता है।
मन के प्रेम को क्या करोगे? कैसे प्रकटाओगे? हां, जिससे प्रेम है उसे शायद समझ में आ जाए। वह शायद तुम्हारी भावभंगिमा में पहचान ले, तुम्हारी मुद्रा में पहचान ले। तुम्हारे शब्दों में छिपा हुआ रस, तुम्हारे उठने-बैठने में, तुम्हारी आतुरता में, तुम्हारी आंखों में--उसे थोड़ी झलक मिल जाए शायद--वह भी शायद! क्योंकि जिनसे हमारा प्रेम है उनसे भी हमें कहना पड़ता है; कहना पड़ता है, तो शायद उनकी समझ में आता है। अगर तुम न कहो तो उनकी समझ में नहीं आता। कहने का मतलब है कि मन को शरीर तक लाना पड़ता है। जो कही गयी है बात, वह तो शरीर की हो जाती है। शब्द तो शरीर से पैदा होते हैं। मन की बात तो मन में रहती है। मन की बात तो मौन में होती है। लेकिन कभी-कभी प्रेमी इस ऊंचाई पर आ जाते हैं कि शब्दों की जरूरत नहीं होती। साथ बैठे होते हैं--चुप। नहीं कुछ कहा जाता। नहीं कुछ बोला जाता। नहीं कुछ लिया-दिया जाता। मगर एक संवाद चलता है। ऊर्जा से ऊर्जा कहती है। शक्ति की तरंगें एक-दूसरे तक पहुंचती हैं। एक उल्लास होता है। सिर्फ मौजूदगी काफी होती है।
लेकिन, अगर दूसरे को समझाने जाओगे तो मुश्किल हो जाएगी। लेकिन शायद कोई काव्य में कह दे, कोई बांसुरी में बजा दे, कोई वीणा पर तारों में झंकृत कर दे। इसी से काव्य पैदा हुआ, संगीत पैदा हुआ, नृत्य पैदा हुआ। यह जो मन का प्रेम है उसे प्रकट करने के उपाय खोजे गए।
लेकिन फिर एक तीसरा प्रेम है-- आत्मा से आत्मा का। वही शिष्य और गुरु का प्रेम है। उसको कहने के लिए न तो संगीत समर्थ है, न काव्य समर्थ है। उसे कहने का कोई उपाय ही नहीं है। वह तो इतना गूढ़ है कि सब अभिव्यक्तियों के पार हैं। उसे तो गुरु समझता है, शिष्य समझता है। वह तो बिल्कुल चुप-चुप है। कोई निवेदन भी करने का कारण नहीं होता वहां। उसे तुम दूसरों को समझाना चाहोगे, तो बहुत मुश्किल में पड़ोगे। न समझा पाओगे। वह तो एक अंतःसलिला है, एक भीतर की गंगा है।

कुछ भौतिक कुछ मानसिक से तुम

कुछ किरन कुछ कुंकुम

बैठे हो हिले बिना मन में मेरे

जैसे गुलाब कोई खिले बिना

घेरे हो वातावरण अपनी सुगंध से

जैसे विचार कोई गीत बने बिना

रच जाए भीतर प्राणों में हिना
अव्यक्त!. . .

कुछ भौतिक कुछ मानसिक से तुम

कुछ किरन कुछ कुंकुम

बैठे हो हिले बिना मन में मेरे

जैसे गुलाब कोई खिले बिना

घेरे हो वातावरण अपनी सुगंध से

जैसे विचार कोई गीत बने बिना

रच जाए भीतर प्राणों में हिना।
सब चुपचाप हो जाता है। न फूल खिलता है, और गंध बिखर जाती है। न गीत जगता है, लेकिन काव्य फैल जाता है। व वीणा बजती है, न वीणा के तार छेड़े जाते हैं--और संगीत का सागर लहराता है।
            कुछ किरन कुछ धूप
            कुछ पकड़ में आने लायक रूप
            कुछ जड़ कुछ जंगम
            यह सरस्वती संगम किसको समझाऊं
            जो बह रहा है भीतर-भीतर
            ओंठों पर कैसे लाऊं आकृति वह झुटपुटे में पड़ी हुई
            जाग्रति में जड़ जिसकी
            सपने में बड़ी हुई
            चकित क्यों करूं अब उसे
            खींच कर चकाचौंध में
            क्यों पंखुरी दूं सौरभ ही सौरभ को
            अतिचेतन को क्यों प्राण दूं
            अंतःसलिला तुम्हारी स्मृति को
            क्यों गंगा-जमुनी परिधान दूं!
नहीं, शब्द नहीं काम आएंगे। यह तो निःशब्द की लीला है। यह तो मौन का संगम है। यह तो बड़ी झुटपुटे में हुई बात है। न दिन न रात-- सांझ की घड़ी में घटी बात है।
            कुछ किरन कुछ धूप
            कुछ पकड़ में जाने लायक रूप
            कुछ जड़ कुछ जंगम
            यह सरस्वती संगम किसको समझाऊं
तुमने देखा! हमारी प्रतीक-कथा है कि प्रयाग के महातीर्थ पर तीन नदियां आकर मिलती हैं। गंगा है, यमुना है और सरस्वती है। दो तो दिखायी पड़ती हैं, तीसरी दिखायी पड़ती नहीं। वह तीसरी ही प्रेम की अंतिम ऊंचाई है। वही सरस्वती है।
            कुछ जड़ कुछ जंगम
            यह सरस्वती संगम किसको समझाऊं
तो गंगा भी बतायी जा सकती है, यमुना भी बतायी जा सकती है, मगर सरस्वती को बताने चलोगे तो मुश्किल में पड़ोगे। कोई बता नहीं सका। उसे अदृश्य ही रखा है। दुनिया में बहुत संगम हैं, लेकिन जैसा महातीर्थ हमने बनाया है--एक अदृश्य नदी के साथ जोड़कर, वैसा किसी ने कहीं बनाया नहीं है। दो दृश्य हैं, एक अदृश्य है। और जो अदृश्य है वह सारे दृश्यों का आधार है। सब दृश्य उसी से जन्मते और सब दृश्य उसी में एक दिन लीन हो जाते हैं।
            जो बह रहा है भीतर-भीतर
            ओंठों पर कैसे लाऊं
लाया जा सकता नहीं। लाओगे तो बहुत पछताओगे। क्योंकि जो आएगा वह कुछ का कुछ होगा। जो कहने चले थे, न कहा जाएगा। कुछ और निकल आएगा।
लाओत्सु का प्रसिद्ध वचन है--सत्य कहा जा सके तो सत्य नहीं। जो सत्य बोला जा सके, असत्य हो जाता है--बोलते ही असत्य हो जाता है। तब तो सारे शास्त्र असत्य हो गए। और लाओत्सु ठीक ही कहता है। सारे शास्त्र चेष्टाएं हैं उसको कहने की, जो नहीं कहा जा सकता। और सब हार गए हैं, और हारते ही रहेंगे।
और यह हमारा सौभाग्य है कि शास्त्र जीते नहीं। अगर शास्त्र जीत जाते, शब्द कूड़ा-कचरे जैसे हैं, सत्य भी कूड़ा-कचरा हो जाता। अच्छा है कि शास्त्र हारते रहे और शास्त्र हारते रहेंगे। अच्छा है कि न कभी सत्य कहा गया और न कभी कहा जाएगा। खोजना पड़ता है। स्वयं ही जानना पड़ता है। अंतःप्रज्ञा होती है उसकी। एक-एक को अपना-अपना सत्य खोजना होता है। एक-एक को अपना-अपना सत्य जानना होता है। उधार सत्य काम नहीं आते। दूसरे के कहे सत्य काम नहीं आते।
            ओंठों पर कैसे लाऊं आकृति वह झुटपुटे में पड़ी हुई
            जागृति में जड़ जिसकी
            सपने में बड़ी हुई
जो फैली है सारे जीवन में--जागृति से लेकर स्वप्न तक, स्वप्न से लेकर जाग्रत तक। जब प्रेम तुम्हें सघनता से पकड़ता है तो तुम्हारे जीवन के सब तलों पर फैल जाता है। तुम जाग्रत में भी प्रेमी को याद रखते हो। हजार कामों में लगे रहते हो और प्रेम की धुन बनी रहती है। हजार काम में उलझे रहते हो, मगर भूल नहीं होती। एक अंतःसलिला बहती रहती है। रात सपने में भी प्रेमी की छाया पड़ती है। और जो जानते हैं और जो जागे हैं, उन्होंने पाया है कि गहरी से गहरी निद्रा में भी जब स्वप्न भी शांत हो जाते हैं, तब भी प्रेम की अंतःसलिला बनी रहती है।
प्रेम जगता है तो तुम्हारे चौबीसों घंटों को घेर लेता है। तुम्हारी हर घड़ी फूल जैसी टंग जाती है माला में। और तुम्हारे सब फूलों के भीतर प्रेम का धागा अनस्यूत होता है।
            चकित क्यों करूं अब उसे
            खींच कर चकाचौंध में
क्यों फिक्र करते हो? जो हुआ है, उसे संभालो। उसे चकाचौंध में खींच कर लाभ भी क्या होगा? उसे किसी से कहने जाओगे, कह भी न पाओगे। उलझन में भी पड़ोगे, संकोच भी खाओगे, हाराहारापन भी मालूम होगा। फिर ठीक न कह पाओगे तो अपराध भी जगेगा, कि कुछ कहने गए, कुछ कह गए। विवाद में जीत भी न सकोगे, सिद्ध भी न कर पाओगे, क्योंकि ये बातें सिद्ध करने की नहीं।
            चकित क्यों करूं अब उसे
            खींच कर चकाचौंध में
            क्यों पंखुरी दूं  सौरभ ही सौरभ को
जो सुगंध ही सुगंध है, जो सौरभ ही सौरभ है, उसे क्यों खींच कर पंखुरी बनाओ? जो इत्र ही इत्र है, अब उसे क्यों फिर वापिस फूल बनाओ? उसे क्यों शब्द में लाओ? उसे क्यों प्रकट करो? उसे अप्रकट ही रहने दो। और मैं तुमसे कहता हूंः जितना तुम उसे अप्रकट रहने दोगे, उतना ही गहन होगा, उतना ही सघन होगा, उतना ही प्रगाढ़ होगा। और एक ऐसी घड़ी आती है कि उसकी प्रगाढ़ता ही औरों को चकित करेगी। उसकी प्रगाढ़ता ही दूसरों के तार झनझना जाऐंगी। लोग तुमसे पूछने लगेंगेः " क्या हुआ तुम्हें? कैसे हुआ तुम्हें?' तुम्हारी मौजूदगी एक ठंडक लाएगी। तुम किसी के पास बैठोगे तो उस आदमी के भीतर की तरंगें बदल जाएंगी। मगर इतना इकट्ठा होने दो। इतना इकट्ठा होने दो कि जो भी तुम्हारे पास आए वह आंदोलित हो उठे, संक्रमित हो जाए। ये बातें कहने की नहीं हैं-- संक्रमित होने की हैं।
            चकित क्यों करूं अब उसे
            खींचकर चकाचौंध में
            क्यों पंखुरी दूं सौरभ ही सौरभ को
            अतिचेतन को क्यों प्राण दूं
            अंतःसलिला तुम्हारी स्मृति को
            क्यों गंगा-जमुनी परिधान दूं!
सरस्वती को सरस्वती ही रहने दो। उसे न गंगा बनाओ न जमुना बनाओ। उसे वस्त्र न पहनाओ शब्दों के। उसे निर्वस्त्र, शून्य रहने दो। उसमें बल होगा, तो जो जान सकते हैं, जिनमें जानने की पात्रता है, वे जान लेंगे। और उसमें बड़ा बल है।
तुमने देखा? किसी ने कभी सोचा था कि पदार्थ के सबसे छोटे हिस्से अणु में, जो आंखों से दिखायी नहीं पड़ता, जो इतना छोटा है कि जिसे अभी यंत्रों से भी देखा नहीं गयाः जिसे किसी ने नहीं देखा है, जिसके छोटेपन का अंदाज तुम ऐसा लगा सकते हो कि अगर एक अणु के ऊपर दूसरा अणु, दूसरे के ऊपर तीसरा, ऐसे एक लाख अणु के ऊपर एक रखे जाएं तो आदमी के बाल के बराबर उनकी मोटाई हो-- उस एक छोटे-से अणु में कितनी शक्ति का आविर्भाव हुआ है! उसका विस्फोट. . . तो उसकी कथा नागासाकी और हिरोशिमा में लिखी है। उसका विस्फोट--और एक लाख आदमी क्षण में राख हो गए। अगर पदार्थ के एक अणु की इतनी क्षमता है तो चैतन्य के एक अणु की कितनी क्षमता न होगी! अगर पदार्थ के एक अणु का विस्फोट होता है, लाखों लोग मर जाते हैं-- तो क्या तुम सोचते हो जब एक बुद्ध का विस्फोट होता होगा तो करोड़ों लोग जीवित न हो जाते होंगे! जिन्होंने जीवन कभी न जाना था, जिनकी शाखाओं पर कभी पत्ते न खिले थे, कभी फूल न लगे थे, उनकी शाखाओं पर पत्ते-फूल न लग जाते होंगे! जिन रेगिस्तानों में कभी धारा न बही थी जल की--क्या उनमें जल-धाराएं न बह उठती होंगी?
बुद्धत्व चैतन्य का विस्फोट है। चैतन्य का विस्फोट कहो या प्रेम का विस्फोट, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। एक ज्ञानी का ढंग है एक प्रेमी का ढंग है। एक भक्त का, एक ध्यानी का।
तुम कहते होः मैं आपका शिष्य हूं, आप हैं मेरे गुरु-- इसे सारे जगत् से कहना चाहता हूं, पर कह नहीं पाता।
चुप रहो! यह अपने से कहा जाएगा। तुम साधो इसे। तुम इसे गहराते जाओ। तुम सींचो इसकी जड़ों को। तुम अपने पूरे प्राण से इसे सींचो। तुम फिक्र ही छोड़ शेष सब। जिस दिन होता है, अभिव्यक्ति उस दिन होगी।
            कौन है जो मौन है मन में मेरे
            और मुस्कराता है
            आंख करना चाहता हूं चार
            वह आगे न आता है
            हर सुबह में जब उघड़ती आंख
            लगता है बैठा था सिरहाने
            हर निशा में जब झपकती आंख
            लगता है कि आया है सुलाने
            हर उदय में शक्ति देता
            यामिनी में गीत गाता है
            किसी क्षण में, अभी यह लगता है
            कि जैसे बरजता है, यह न कर
            किसी क्षण में धीर देता जान पड़ता है
            कि इसको कर, न डर
            किसी क्षण में हर द्विधा से हीन करता
            प्राण को ऊपर उठाता है
            कौन है, जो मौन है मन में मेरे
            और मुस्कराता है!
शिष्य होने का अर्थ हैः गुरु को अपने हृदय में बिठा लेना। शिष्य होने का अर्थ है, अब अपने से नहीं जिएंगे, अब उसकी आवाज से जिएंगे। अब उसकी प्रेरणा ही हमारे जीवन की व्यवस्था, हमारे जीवन का अनुशासन होगी। और तब निश्चित ही तुम्हारे अंतःकरण से उसकी आवाज आने लगती है।
ऐसे मैं तुमसे बाहर से बोल रहा हूं, लेकिन जिन्होंने मुझे भीतर लिया है, उनसे मैंने भीतर से बोलना शुरू कर दिया है।
            कौन है जो मौन है मन में मेरे
            और मुस्कराता है।
कभी जब मैं तुम्हारे भीतर मुस्कराऊं तो घबड़ाना मत! क्योंकि तब तुम्हें मुस्कराहट पागल जैसी मालूम पड़ेगी, क्योंकि तुम तो नहीं मुस्करा रहे हो। और कभी जब मैं तुम्हारे भीतर रोऊं, चिंतित मत हो जाना, व्यथित मत हो जाना। क्योंकि आंसू तो गिरेंगे और तुम्हें कारण कुछ भी न दिखायी पड़ेगा। कारण तो धीरे-धीरे समझ में आएगा। धीरे-धीरे, बहुत धीरे-धीरे! एक दिन तुम पहचानोगे--कौन हंसा था, कौन रोया था?
            आंख करना चाहता हूं चार
            वह आगे न आता है
            हर सुबह में जब उघड़ती आंख
            लगता है कि बैठा था सिरहाने
शिष्य और गुरु का नाता कुछ ऐसा-वैसा नाता नहीं है कि बने और मिट जाए। बनता है तो मिटता ही नहीं। और मिट जाए, तो समझना कि बना ही नहीं था। तुम भ्रांति में पड़े होओगे। तुमने मान लिया होगा।
            हर सुबह में जब उघड़ती आंख
            लगता है कि बैठा था सिरहाने
            हर निशा में जब झपकती आंख
            लगता है कि आया है सुलाने
            हर उदय में शक्ति देता
            यामिनी में गीत गाता है
            किसी क्षण में अभी यह लगता है
            कि जैसे बरजता है, यह न कर
            किसी क्षण में धीर देता जान पड़ता है
            कि इसको कर, न डर
            किसी क्षण में हर द्विधा से हीन करता
            प्राण को ऊपर उठाता है
            कौन है जो मौन है मन में मेरे
            और मुस्कराता है
 इसे धीरे-धीरे भीतर-भीतर साधे जाओ। इसे धीरे-धीरे भीतर-भीतर बांधे जाओ। बड़ा बांध बनाओ। जल्दी न करो इसे कह देने की। यह अपनी ही ऊर्जा से किसी दिन प्रकट होगा। तुम इसे प्रकट न कर पाओगे। जब प्रकट होगा, अपनी ही ऊर्जा से प्रकट होगा, तुम इसे प्रगट न कर पाओगे। जब प्रगट होगा अपनी ही ऊर्जा से प्रगट होगा। फिर तुम रोक न पाओगे। तुम्हारे किये प्रगट भी नहीं होगा, तुम्हारे किए रोका भी न जा सकेगा।
और तब एक सौंदर्य है, तब एक अनूठा सौंदर्य है! जब तुम नहीं करते और अपने से होता है! जब गीत अपने से फूटता है, नाच अपने से उठता है! तुम सिर्फ दर्शक होते हो, या कि दर्शक भी नहीं होते! तुम साक्षी-मात्र होते हो, या कि साक्षी भी नहीं होते! सब मिट गया होता है, तुम होते ही नहीं।
जिस दिन शिष्य बिल्कुल नहीं बचता, उस दिन जो बात फूटनी शुरू होती है वही जगत् को खबर ले जा सकती है।

तीसरा प्रश्नः भगवान्! बहुत मुद्दत से आपको मिलने की तमन्ना थी। सो मैं रोहतक से दस दिनों के शिविर के लिए आपके आश्रम में आया हूं। कल मां योग लक्ष्मी से मिलकर आपसे मिलने की प्रार्थना की थी। मगर उन्होंने कहा कि कोई गैर-संन्यासी आपसे नहीं मिल सकता; अगर संन्यास लो तो मिल सकते हो। क्या मैं यह जान सकता हूं कि गैर-संन्यासी के जज़बात को क्यों ठुकराया जाता है, जबकि वह इतनी दूर से, इतनी उम्मीद और श्रद्धा के साथ भगवान् से मिलने आया है?

ङ यश शर्मा! रोहतक और पूना के बीच की दूरी पार करने से कुछ भी न होगा। तुम्हारे और मेरे बीच की दूरी पार करनी पड़ेगी। उस दूरी को पार करने का नाम ही संन्यास है।
संन्यास कोई औपचारिक क्रिया-कांड नहीं है--दो अंतरों को जोड़ देने की प्रक्रिया है।
मैं समझा, तुम्हें तकलीफ हुई होगी। तुम इतनी दूर से आए। लेकिन तुम्हें पता है, यहां लोग बहुत-बहुत दूर से आए हैं! रोहतक तो बहुत करीब है। यहां, दुनिया का ऐसा कोई कोना नहीं है, जहां से लोग नहीं आए हैं। रोहतक तो ऐसा समझो कि पूना का गली-कूचा है कोई। कोई बहुत दूर नहीं है। अगर दूरी के हिसाब से मिलना हो, तो तुम कभी मिल ही न पाओगे। अगर दूरी के हिसाब से मिलने का यहां इंतजाम हो, कि जो जितनी दूर से आया है वह पहले मिलेगा, तो तुम्हारा नंबर लगने वाला नहीं। भूलो, बात ही भूल जाओ फिर।
दूरी से आए हो, इस दावे से काम नहीं चलेगा। एक और दूरी है, जो मिटाओ। और तब तुम रोहतक से न भी आओ तो भी मिलना हो जाएगा। मैं चलकर आ जाऊंगा। मगर दूरी मिटाओ। दूरी मिटनी चाहिए। और दूरी भौतिक नहीं है कि ट्रेन में सवार हुए, चल पड़े और मिट गई। काश, इतना आसान होता! प्रेम से मिटेगी।
सुना, सुंदरदास ने क्या कहा? भाव जब भगति बने, तब मिटेगी। तुमने पूछाः "बहुत मुद्दत से आपको मिलने की तमन्ना थी।' सच में तमन्ना थी? तो इतना और करो। तमन्ना थी, तो कुछ कीमत भी चुकाओ। नहीं तो तमन्ना "तमन्ना' नहीं थी--एक खयाल, एक जिज्ञासा रही होगी, एक कुतूहल रहा होगा, कि चलें देखें। तमन्ना ज़रा गहरा शब्द है। तमन्ना का मतलब होता है--अभीप्सा, ऐसी प्रबल आकांक्षा, कि जरूरत पड़े तो कुछ दांव पर भी लगा देंगे। कुतूहल का मतलब यह होता है कि ऐसे ही मिल जाए तो ठीक, मुफ्त हो जाए तो ठीक।
यहां जो मेरे पास आएं, वे खयाल रखकर आएं, तमाशबीनों के लिए कोई स्थान नहीं है। तमन्ना है तो सबूत दो। रोहतक से आना सबूत नहीं है।
पूछा तुमने कि मां योग लक्ष्मी ने कहा कि कोई गैर-संन्यासी आपसे नहीं मिल सकता।
ऐसा कुछ नहीं है। गैर-संन्यासी मिल सकता है, मगर मिलना हो नहीं पाता। तुम बहुत ही आग्रह करोगे, तो मैं लक्ष्मी को कहूंगाः मिला दो। तुम्हें दुःखी जाने देने का कोई कारण नहीं है, मगर मिलना हो नहीं पाएगा। लक्ष्मी सिर्फ तुम्हें साथ दे रही है सहारा दे रही है कि मिलना हो ही जाए; कि ऐसा न हो कि मिलना हो भी और भी न भी हो पाए। ऐसा कुछ भी नहीं है, गैर-संन्यासी भी कभी आ जाते हैं, जिद में पड़ जाते हैं तो मिलता हूं। मगर खाली आते हैं, खाली जाते हैं। किसी को दुःख देने का कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन अगर मिलने से ही कुछ होने वाला होता, तब तो बड़ी आसान बात थी।
वर्षों तक मैं देशभर में घूमता रहा। लाखों से मिला हूं। फिर जान कर रुक गया। क्योंकि देखा, उस मिलने से कुछ भी न होगा। अब किसी और तल पर मिलना होगा, तो ही कुछ काम बनेगा। अब गहराई से गहराई मिले, आत्मा से आत्मा मिले। अब मैं तुम्हें कुछ देना ही चाहता हूं, खाली हाथ नहीं लौटाना चाहता। लेकिन देने के लिए तुम्हें लेने को राजी होना पड़े।
संन्यास का उतना ही अर्थ है कि मैं लेने को राजी हूं, कि मेरे द्वार खुले हैं, कि मैंने अपनी अंजुली आपके सामने फैलायी, कि मेरे हृदय को भर दें। संन्यास का इतना ही अर्थ है। यह तो केवल शब्द एक प्रतीक है। इसमें बहुत कुछ छिपा है। इसमें यह छिपा है--कि मैं लेने को राजी हूं, कीमत कोई भी चुकानी पड़े; कि मैं खोज पर निकला हूं; कि मैंने संसार देख लिया बहुत, कुछ भी नहीं पाया। अब कुछ और देखना चाहता हूं,जो संसार नहीं है। अब अदृश्य से रस लगा है। अब परमात्मा की खोज जगी है।
नहीं तो लोग हैं, जो घूमते ही रहते हैं। जहां उनको खबर मिली, वहीं गए। कुछ लोगों का जिंदगीभर यही धंधा रहता है--तीर्थयात्रा करनी, साधु-सत्संग करना, मगर कहीं टिकते नहीं। और टिकते नहीं तो जड़ें नहीं जमतीं। आए दो-चार दिन के लिए, गए।
संन्यास का अर्थ है कि जड़ों को जमा लो, जुड़ ही जाओ, ताकि जो मुझे हुआ है, वह तुम्हें भी हो सके; ताकि यह ऊर्जा तुम्हारे बुझे दीए को जला दे। तुम सस्ते में ही लौट जाना चाहते हो। लक्ष्मी की कोशिश यह है कि तुम भर कर लौटो। मगर तुम समझे नहीं। तुम समझे कि जज़बात ठुकराए जा रहे हैं। यहां तो जज़बात जगाए जा रहे हैं, ठुकराएगा कौन?
तुम कह रहे हो कि क्या आप से केवल संन्यासी ही मिल सकते हैं?
संन्यासी ही मिल पाते हैं! और लोग मिलते हैं, मिल नहीं पाते। बैठ भी जाते हैं पास आकर, दो बात भी कर लेते हैं, मगर व्यर्थ होती है वह बात, औपचारिक होती है। कुशल-क्षेम पूछ लेते हैं, पुछवा लेते हैं। विदा हो जाते हैं। जैसे आए, वैसे गए।
यह कोई साधारण धर्म-स्थल नहीं है। यहां हम कुछ करने पर उतारू हैं। यह एक आध्यात्मिक प्रयोगशाला है। यहां चीर-फाड़ चल रही है। यहां यश शर्मा, अगर हिम्मत है तो टेबल पर लेटना ही पड़ेगा--सर्जरी होगी। संन्यास यानी सर्जरी की शुरुआत।
सर्जरी में देखते हो न, ले जाते हैं, मरीज को, फिर कपड़े बदल दिए, और पहना दिया चोगा इत्यादि और लिटा दिया। और वह कहे हम चोगा नहीं पहनेंगे, हम तो सिर्फ दर्शन के लिए चले आए. . . हमारे जज़बात ठुकराए जा रहे हैं।
यह गेरुआ वस्त्र इत्यादि तो बस टेबल पर लिटाने की तैयारी है। ये तो इशारे हैं कि धीरे-धीरे तुम राजी हो रहे हो, अब टेबल पर जाओगे। कुछ काटा जाना है। तुम्हारे भीतर बहुत कुछ व्यर्थ, जो तोड़ा जाना है। तुम्हारे सिर पर हथौड़े गिरने ही चाहिए। तुम्हारे हृदय में बहुत चीर-फाड़ करने की जरूरत है, तो ही तुम नए हो सकोगे। तुम मिटो, मरो, तो ही तुम्हारा पुनरुज्जीवन हो।
तुम कहते होः क्या मैं जान सकता हूं कि गैर-संन्यासी के जज़बात को क्यों ठुकराया जाता है?
जज़बात ठुकराए नहीं जा रहे हैं, जज़बातों को सम्मान दिया जा रहा है। कहा जा रहा हैः जब जज़बात ही हैं, तो अब क्या पीछे लौटना! अब बढ़ो। अब यहां तक आ गए, तो थोड़े और चलो। बाहर की यात्रा कर ली, थोड़ी भीतर की यात्रा भी करो।


पांव मत मोड़े कि पथ पर आ गया है

बरस ही पड़ जब घुमड़ कर छा गया है!

तू नहीं बिजली कि जलकर बुझ रहेगा

देश का सावन है धरती-भर बहेगा

समय अपने बोल तुझ में पा गया है

पांव मत मोड़े कि पथ पर आ गया है!


जान देना सीख जीवन ला सकेगा

खींच शिव सांसों में विष भी खा सकेगा

पुण्य तेरे पास चलकर आ गया है

बरस ही पड़ जब घुमड़ कर छा गया है।

नाच लहरों पर प्रलय की ताल देकर

प्राण अपने मरण-स्वर में ढाल देकर

तांडव का छंद तेरे पोर-पोर समा गया है

पांव मत मोड़े कि पथ पर आ गया है!

लीक-लीक न सांस यदि लीका करेगा

काल तेरे भाल पर टीका करेगा

नए युग का गीत यह दिन गा गया है

बरस ही पड़ जब घुमड़कर छा गया है!

पांव मत मोड़े कि पथ पर आ गया है

बरस ही पड़ जब घुमड़कर छा गया है।
इतनी दूर चले आए, तो अब बरसो। अब रुको मत। अब कंजूसी मत करो।
कह रहे हो कि जब वह इतनी दूर से, इतनी उम्मीद और श्रद्धा के साथ भगवान् के पास आया, तो क्यों उसके जज़बात ठुकराए जाते हैं?
तुम शब्दों का ही उपयोग कर रहे हो। शब्दों का तुम्हें अर्थ भी शायद ठीक-ठीक साफ नहीं है। श्रद्धा का मतलब समझते हो? श्रद्धा तो "हां' कहना जानती है। "ना' उसकी भाषा में होता नहीं। इतना ही श्रद्धा का अर्थ है कि श्रद्धा कहती है "हां' तो अब "हां' कहो। सबूत दो कि श्रद्धा है। कहने से तो सबूत नहीं होता। कुछ करो कि सबूत मिले। श्रद्धा के लिए प्रमाण दो।
संन्यास श्रद्धा का प्रमाण है। लेकिन फिर भी तुम मिलना चाहो बिना संन्यासी हुए, तो जरूर मिल सकोगे। लेकिन वह सिर्फ मिलने का अभिनय होगा। तुम्हारी जैसी मर्जी।

अंतिम प्रश्नः शास्त्रों और सिद्धांतों से छुटकारा कैसे हो? उन्होंने ऐसा पकड़ा है कि छूटने का कोई उपाय ही नहीं दिखता है।

ङ शास्त्रों और सिद्धांतों से छुटकारा कैसे हो--ऐसे प्रश्न पूछने से लगता है कि उन्होंने तुम्हें पकड़ा है। पकड़ा तुमने उन्हें है। शास्त्र और सिद्धांत तुम्हें कैसे पकड़ सकते हैं? मुर्दा शास्त्र तुम जीवित को कैसे पकड़ सकते हैं। तुमने पकड़ा है।
अब मेरी बातें सुन-सुन कर छोड़ने की वासना भी जग रही है। तो तुम एक द्वंद्व में पड़ गए हो। तुम्हारे भीतर एक दुविधा हो गयी है। शास्त्र को पकड़े भी रखना चाहते हो क्योंकि सदा तुम से कहा गया है कि शास्त्र को ही पकड़कर रखोगे, तो ही पहुंच पाओगे। और मैं तुमसे कहता हूं कि शास्त्र को पकड़ा, तो कभी नहीं पहुंच पाओगे। अब तुम दुविधा में पड़े। अब तुम्हारे मन में बड़ी मुश्किल आयी। पहुंचना तुम्हें है। सुना तुमने अब तक यही है, कि शास्त्र को पकड़ो, तो पहुंचोगे। तो एक मन कहता है--पकड़े रहो। और मैं तुमसे कहता हूं, शास्त्र को पकड़ा, तो कभी नहीं पहुंचोगे। मेरी बात भी तुम्हें जंचने लगी है। कम से कम बुद्धि की समझ में आने लगी है--कि स्वानुभव चाहिए, परानुभव से कुछ भी न होगा। और शास्त्र तो दूसरों के अनुभव हैं।
मैं क्या कहता हूं, इसे पकड़ लेने से तुम्हें कुछ भी लाभ नहीं; जब तक कि तुम भी वहां न पहुंच जाओ जहां मैं हूं। जब तक तुम भी वैसे न हो जाओ जैसे कि कृष्ण हैं, गीता को न समझ पाओगे। गीता को पकड़ने से कुछ भी न होगा। कृष्ण-चेतना का जन्म होना चाहिए।
मेरी बात भी तुम्हें समझ में आने लगी है। पुराना लोभ भी पकड़े हुए हैं। तुम दुविधा में पड़ गए। इस कारण अड़चन हो रही है। शास्त्र तुम्हें क्या पकड़ेंगे? शास्त्रों ने तुम्हें पकड़ा नहीं है। और शास्त्रों को छोड़ने के लिए कोई जाकर उनको आग लगाना, या कुएं में फेंक आने की भी जरूरत नहीं है। क्योंकि बेचारे शास्त्रों का क्या कसूर है? प्यारे हैं, जैसे हैं।
एक युवक मेरे पास आता था। दीवाना था बिल्कुल श्रीमद्भगवद्गीता का। पूजा करे, पाठ करे किताब का, फूल चढ़ाए, घंटों घंटी बजाए, नाचे। पूरी गीता उसे कंठस्थ थी। मेरी बातें सुनते-सुनते सुनते-सुनते. . . आखिर पत्थर को भी सुनते-सुनते. . . रसरी आवत जात है, सिल पर पड़त निशान! वह था तो बिल्कुल पत्थर, नहीं तो काहे को किताब की पूजा करता। मगर रस्सी आती रही, जाती रही...। सुनने तो वह मेरे पास गीता ही आया था। मैं गीता पर बोल रहा था उन दिनों। फिर फंस गया। आया था गीता सुनने, फिर फंस गया। इसलिए तो गीता पर बोलता हूं, कभी बाइबिल पर बोलता हूं--कि पता नहीं कौन फंस जाए, इसी बहाने चलो! फिर सुनते-सुनते उसे बात तो जंच गयी। एक दिन गया, बड़े जज़बात में आ गया होगा, बांध-बूंध कर गीता की किताबें कुएं में फेंक दीं, फिर घबड़ाहट भी आयी, पसीना-पसीना हो गया। हृदय का दौर जैसे पड़ गया हो, ऐसी हालत हो गयी। वहीं घाट पर ही गिर पड़ा कुंए के। लोग उसे उठाकर घर लाए। क्योंकि बीस साल से पूजा करता था; अब डरा कि कहीं कृष्ण महाराज नाराज न हो जाएं। यह मैंने क्या किया!
मुझे खबर आयी। उसे लेकर लोग मेरे पास आए। वह रो रहा है कि मुझसे बड़ी भूल हो गई।
"तुमसे कहा किसने?'
कहाः आप ही ने तो कहा था।
"मैंने तो कभी नहीं कहा कि तू कुएं में फेंक आना।
मगर मूढ़ता एक अति से दूसरी अति पर चली जाती है। पहले पूजा करता था, अब कुएं में फेंक आया। हिंदू हैं, मूर्ति की पूजा करते हैं, मुसलमान मूर्ति को तोड़ आते हैं। ये मूढ़ता के दो ढंग हैं। इसमें कुछ भेद नहीं है। दोनों का दिमाग मूर्ति में अटका है। ये विपरीत दिखाई पड़ते हैं ऊपर-ऊपर से, इनमें ज़रा भी भेद नहीं।
मैंने उससे कहाः तूने फेंका क्यों? गीता का क्या कसूर है। उसको कुएं में फेंकने की क्या जरूरत है? तू मुझे दे गया होता। मेरे कुछ काम पड़ती। उसने कहा, आप क्या कह रहे हैं। आपने ही समझाया कि शास्त्र में कोई सार नहीं है।
मैंने कहाः निश्चित मैंने समझाया कि शास्त्र में कोई सार नहीं है। और शास्त्र का पूजन करना तो बिल्कुल ही मूढ़तापूर्ण है। लेकिन अगर तू समझ गया था तो गीता की किताब को उठाकर अलमारी में रख देता, जैसी और किताबें रखी हैं। न पूजा की जरूरत है, न कुएं में फेंक आने की जरूरत है।
समझ हमेशा मध्य में होती है; अतियों पर नासमझी होती है।
मेरे एक अध्यापक थे। उनके घर कभी-कभी मैं रुकता था। एक बार उनके घर रुका। सर्दी के दिन थे। उन दिनों मैं कुरान पढ़ रहा था। उनकी बूढ़ी मां आयीं। उन्होंने मुझसे पूछाः बेटा! क्या पढ़ रहे हो? मैंने कहाः यह कुरान-शरीफ पढ़ रहा हूं। वह पक्की हिंदू थीं! उन्होंने किताब छीनकर मेरे हाथ से एकदम बाहर फेंक दी। और कहा कि मेरे घर में और कुरान -शरीफ! और तुम्हें कोई और सद्ग्रंथ नहीं मिला पढ़ने को? इतने शास्त्र पड़े हैं! मेरे पूजा-घर में ही कितने शास्त्र रखे हैं! जो चाहो पढ़ो! कुरान-शरीफ मिला तुम्हें पढ़ने को?
मैंने उनसे कहाः कि आप सोचती हों कि आप हिंदू हैं, मेरे हिसाब से आप मुसलमान हैं। उन्होंने कहाः मतलब तुम्हारा? मैंने कहाः यह काम कोई मुसलमान ही कर सकता है--फेंकने का। यह कोई हिंदू का ढंग है?
और मैंने कहा, तुम्हारी सब पूजा इत्यादि सब झूठी और बकवास है।
मगर अकसर यह हो जाता है, पूजा करने वाला आदमी फेंकने पर उतारू हो सकता है। एक मूढ़ता दूसरी मूढ़ता में जाने में ज़रा भी देर नहीं करती। मैंने उन बूढ़ी महिला को कहा, कि तुमने सुनी होगी कहानी कि जब एक मुसलमान खलीफा ने एलेग्जेंड्रिया को जीता, तो एलेग्जेंड्रिया में दुनिया की सबसे बड़ी लायब्रेरी थी। सदियों-सदियों की बड़ी बहुमूल्य संपदा और ग्रंथ वहां संग्रहीत थे। मुसलमान खलीफा जब उस पुस्तकालय में गया, तो एक हाथ में उसने कुरान ली और एक हाथ में मशाल, और उसने पुस्तकालय के अध्यक्ष को पूछा कि इस पुस्तकालय में जो ये लाखों किताबें हैं (वे सब हस्तलिखित ग्रंथ थे) इनमें जो लिखा है, क्या वह वही है जो कुरान में लिखा है? अगर वह वही है, तो इनकी कोई जरूरत नहीं। तो मैं आग लगाने आया हूं। और अगर तुम यह कहो कि इनमें कुछ ऐसा भी है जो कुरान में नहीं है, तब भी मैं आग लगाने आया हूं क्योंकि तब तो इनकी बिल्कुल ही जरूरत नहीं है। ऐसी कोई चीज इनमें अगर है जो कुरान में नहीं है, तो वह गलत ही होगी। क्योंकि जो भी सही है वह तो कुरान में है।
ऐसा कुरान की कसम खाकर उसने पुस्तकालय को आग लगा दी। पुस्तकालय इतना बड़ा था, कि कहते हैं कि छह महीने आग बुझने में लगे। और कहते हैं संसार की सबसे बड़ी संपदा नष्ट हो गई। उसके कारण उसके पहले का सारा इतिहास खो गया। लाखों बातें बहुमूल्य थीं, जो खो गयीं, जिनको शायद आदमी अभी भी नहीं खोज पाया है; जिनको शायद और लाखों वर्ष लगेंगे खोजने में। उनमें मनुष्य-जाति का सारा अतीत था। इस एक मूढ़ आदमी ने आग लगा दी। और मजा यह कि कुरान की कसम खाकर आग लगायी।
तो मैंने उस बुढ़िया को कहा कि तू ठीक उसी खलीफा का अवतार मालूम होती है। मुसलमान है तू पक्की, हिंदू तो ज़रा भी नहीं। मगर हिंदू और मुसलमान में भेद कहां होता है! वे सब एक ही जैसे हैं। एक एक अति को पकड़ लेता है, दूसरा दूसरी अति को।
इस युवक को मैंने कहा कि तूने फेंका, यह तो ज्यादती हो गयी। फेंकने का सवाल नहीं है।
तुम पूछते होः शास्त्र और सिद्धांतों से छुटकारा कैसे हो? समझ स्वतंत्रता है--मात्र समझ। इतनी छोटी-सी बात तुम्हारी समझ में आ जाए, कि अगर तुम भूखे हो तो रोटी पकाने से काम चलेगा, पाकशास्त्र की पूजा करने से नहीं. . .। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि पाकशास्त्र को आग लगा दो। और अगर तुम प्यासे हो तो पानी से काम चलेगा। कोई वैज्ञानिक तुम्हें कागज पर पानी का फार्मूला लिख कर दे दे कि "एच०टू०ओ०' इसको तुम घोंटकर पी जाना, प्यास नहीं बुझेगी। और फार्मूला गलत नहीं था। फार्मूला ठीक ही था। लेकिन फार्मूलों से थोड़े ही प्यास बुझती है। एच०टू०ओ० के फार्मूले से न तो प्यास बुझती है, न उसमें नाव चला सकते हो, न पानी सींचकर झाड़ लगा सकते हो--उससे कुछ भी नहीं कर सकते, फिर भी सच है।
शास्त्रों में जो लिखा है वह सच है, लेकिन तुम्हारे स्वांतः अनुभव के बिना उस सत्य की गवाही कौन है? शास्त्र पढ़ने से सत्य नहीं मिलता, सत्य को जान लेने से शास्त्र समझ में आते हैं। सत्य को जान लेने से सारे शास्त्र समझ में आ जाते हैं। जो पढ़े, वे भी समझ में आ जाते हैं, जो नहीं पढ़े, वे भी समझ में आ जाते हैं।
मुझसे लोग पूछते हैं कि आप इतने संतों पर बोलते हैं, क्या आपने इन सबको पढ़ा? कौन झंझट में पड़ता है! मगर जो मुझे समझ में आ गया है, वह इन संतों के सिरों पर बिठा देता हूं। जो मुझे समझ में आ गया है, वही उनको समझ में आया था। अब समझ लो कि सुंदरदास अगर यहां मौजूद हों. . . कभी-कभी आते हैं देखने कि मेरी क्या हालत की जा रही है. . . अगर वे जिद भी करें कि मेरा यह मतलब नहीं, तो भी मैं मानने को राजी नहीं हूं। मेरा खुद का अनुभव है। यह अर्थ ऐसा ही होना चाहिए।
तुमने प्रसिद्ध कहानी सुनी है, कि रामदास रामायण लिखते थे? खबर हनुमान को लग गई। खबर आयी कि बड़ी मीठी कथा कही जा रही है। तो सुनने आते थे, हनुमान भी छिपकर कंबल-वंबल ओढ़कर, पूंछ वगैरह को छिपाकर, भीड़ में बैठ जाते होंगे। अगर सुंदरदास भी बैठे हों, तुम थोड़े पहचानोगे कि किस ढंग से छिपे हैं, बैठे सुनते हैं। बड़े मस्त होते, मगन हो जाते। सीधे-सादे। कहानी बड़ी प्यारी चल रही थी। पुरानी याद्दाश्तें ताजी हो रही थीं। उन्होंने तो उस अनुभव को देखा ही था। उस सारी कथा में वे हिस्सेदार थे। उसको रामदास के मुंह से सुनकर चकित भी होते थे कि यह आदमी वहां था भी नहीं, इसको कुछ पता भी नहीं होना चाहिए, मगर ऐसे कह रहा है जैसे आंखों देखी बात कहता हो!
मगर एक दिन झंझट हो गई। रामदास ने कहा कि हनुमान अशोक-वाटिका में गए और उन्होंने देखा कि चारों तरफ सफेद ही सफेद फूल खिले हैं। हनुमान ने कहा, यहां गलती कर रहा है यह आदमी। भूल ही गए कि हम यहां छिपे हुए बैठे हैं, पूंछ वगैरह को दबाए। कोई देख-दाख ले और झंझट हो जाए, शोरगुल मच जाए। खड़े हो गए। हनुमानजी ही तो ठहरे! कंबल-वंबल फेंक दिया, कहा कि बंद करो यह बकवास! अब तक तो ठीक चला, मगर फूल वहां लाल थे, सफेद नहीं थे। सुधार कर लो।
लेकिन रामदास जैसे आदमी सुधार इत्यादि करने में मानते हैं? रामदास ने कहा, बैठ जाओ चुपचाप। ओढ़ो कंबल, छिपाओ पूंछ, बैठो अपनी जगह पर। तुमसे पूछ कौन रहा है? और जो मैंने कह दिया, सो कह दिया। फूल सफेद थे और सफेद ही रहेंगे, और सफेद ही लिखे जाएंगे।
पर हनुमान ने कहाः यह हद हो गई! मैं हनुमान हूं। मैं गया था अशोक- वाटिका। मैंने देखे थे फूल। तुम वहां मौजूद नहीं थे। तुम चश्मदीद गवाह भी नहीं हो। सैकड़ों साल बीत गए कहानी हुए। अब तुम कहानी लिखने बैठो हो। और यह तो हद की बात हो गई कि तुम मुझसे कह रहे हो कि चुपचाप बैठ जाओ! बदलाहट करनी पड़ेगी।
रामदास ने कहाः बदलाहट नहीं होने वाली। फूल सफेद थे और सफेद ही लिखे जाएंगे।
झगड़ा यहां तक बढ़ गया, कि कहानी कहती है कि हनुमान ने कहाः तुम बैठो मेरे कंधे पर, मैं तुम्हें रामचंद्र जी के पास ले चलता हूं। सीता जी भी वहां मौजूद हैं। सीता जी भी बता देंगी कि फूल कैसे थे। और फिर रामचंद्र जी जो कह दें, वह तो मानोगे?
रामदास ने कहाः अगर मेरी बात से मेल खाएगा तो जरूर मानूंगा। सत्य का जब अनुभव होता है तो उसके साथ स्वभावतः यह बात होती है। स्वतः प्रमाण होता है सत्य। मेरे से बात मेल खाएगी तो मान लूंगा। चला चलता हूं।
हनुमान ने सारा मामला उपस्थित किया। राम ने कहाः हनुमान! एक तो तुम्हें वहां जाना नहीं था। तुम वहां क्या कर रहे थे? तुम्हें और कोई काम नहीं है? फिर गए थे तो चुपचाप बैठे रहते। यह शोभा देता है कि बीच में खड़े हो गए, सत्संग खंडित कर दिया। फिर यह बेचारे रामदास को इतनी दूर तक आना पड़ा। रामदास ठीक कहते हैं, फूल सफेद थे।
हनुमान तो दंग हो गए। हनुमान ने कहाः यह तो हद हो गई! आप भी वहां नहीं थे। अन्याय की एक सीमा होती है! मैं गवाह हूं सिर्फ, और सीता गवाह हैं।
सीता ने भी कहा कि हनुमान! तुम चुप ही रहो। और रामदास जो कहते हैं, ठीक ही कहते हैं। फूल सफेद थे।
हनुमान ने कहाः मुझे इसका पूरा-पूरा ब्यौरा चाहिए कि यह क्यों ऐसी बात कही जा रही है।
राम ने कहाः बात सीधी-साफ है हनुमान, तुम इतने क्रोध में थे, कि तुम्हारी आंखें खून से भरी थीं। इसलिए तुम्हें फूल लाल दिखाई पड़े थे। फूल सफेद ही थे। तुम पागल हो रहे थे। तुम विक्षिप्त थे। तुम होश में कहां थे! तुम्हारे भीतर आग की लपटें उठ रही थीं। तुम मरने-मारने को उतारू थे। तुम्हें फूल देखने की फुर्सत कहां थी। फिर तुम्हारी आंखों में खून झलक रहा था, उस खून की वजह से तुम्हें फूल लाल दिखाई पड़े थे। रामदास ठीक कहते हैं। फूल सफेद ही थे।
एक जीवंत अनुभव हो, फिर सारे शास्त्र उसके साथ हो जाते हैं। फिर राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, मुहम्मद, सब उसके साथ हो जाते हैं। होना ही पड़ेगा। उसके सिवाय कोई उपाय नहीं है।
तो मुझसे जब कोई पूछता है कि क्या आप इन सब संतों को पढ़े हैं. . .? पढ़ने की कोई खास जरूरत नहीं है। एक नजर डाल लेता हूं कि इन्होंने क्या कहा है। फिर जो मुझे हुआ है, उसे कह देता हूं। ऐसा ही चाहता हूं कि एक दिन तुम्हारे जीवन में भी घटे। यह बात छोड़ने की नहीं है, यह बात समझने की भर है।
शास्त्र छोड़ने नहीं हैं। मैंने कहां छोड़े? जितना सम्मान मैंने शास्त्रों को दिया है, किसी और ने दिया है? तो मैं कैसे कह सकता हूं तुमसे कि छोड़ दो? कुछ और कह रहा हूं। यह कह रहा हूं कि शास्त्रों से तब तक कोई भी तुम्हारा प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं, जब तक तुम्हारी अपनी समाधि न लग जाए। समाधि को मूल्य देने के लिए कह रहा हूं कि शास्त्र छोड़ दो, नहीं तो तुम शास्त्र को ही पकड़े बैठे रहोगे, समाधि से चूकते चले जाओगे।
मैंने सुना है, एक युवक ने अमरीका के बहुत बड़े करोड़पति, मॉर्गन के पास जाकर कहा, कि मैंने यह किताब लिखी है। यह किताब ऐसी अद्भुत है कि इसकी करोड़ों प्रतियां बिकेंगी और करोड़ों लोग लाभांवित होंगे। आप इसे छपवाएं। मॉर्गन ने पूछा, बिना किताब हाथ में लिए, कि इस किताब का नाम क्या है? तो उस युवक ने कहाः इस किताब का नाम है--"धन कमाने के सौ तरीके'। मॉर्गन ने नीचे से ऊपर तक युवक को देखा. . . फटी हालत। पूछा कि आए कैसे? बस से आए, कार से आए। आए कैसे?
उसने कहाः पैदल आया।
"ये कपड़े कब से नहीं धुले? भोजन कब से ठीक से नहीं मिला? "धन कमाने के सौ तरीके' किताब लिखी है, और यह हालत तुम्हारी! ले जाओ अपनी किताब! तुम्हारी किताब में होगा क्या?'
उदास युवक, अपनी किताब लेकर चला गया। कोई पांच-सात दिन बाद, मॉर्गन घूमने निकला था शाम को, उसने देखा कि राह के किनारे खड़ा वह युवक भीख मांग रहा है। मॉर्गन ने कहाः मेरे भाई! जहां तक मुझे याद पड़ता है, तुम वही सज्जन हो जिन्होंने "धन कमाने के सौ तरीके' किताब लिखी है। क्या हुआ? भीख क्यों मांगने लगे? एक-आध तरीका अपनाते क्यों नहीं?
उस युवक ने कहाः यह उसमें सौवां तरीका है। यह आखिरी तरीका है, जब और कोई तरकीब काम में न आए तो मैंने आखिरी तरीका. . . यही तो सौवां तरीका है उस किताब में। आपने किताब देखी ही नहीं। जब और निन्यानबे तरीके हार जाएं, तो यह सौवां तरीका है।
इस दयनीय अवस्था को देखते हो? यही दयनीय अवस्था है लोगों की। कृष्ण उनके मुंह पर बैठे हैं, वेद की ऋचाएं उन्हें याद हैं, कुरान की आयतें दोहरा सकते हैं, तोतों की भांति। मगर तुम्हारी भीतर की संपदा की कोई खबर तो मिलती नहीं। भीतर घना अंधकार है, दीए की बातें हो रही हैं। लेकिन दीयों की बातों से कहीं अंधेरा मिटता है! काश, दीए की बातों से अंधेरे मिटते होते, तो कितना आसान होता जगत्, जीवन कितना सरल होता!
जब मैं तुमसे कहता हूं शास्त्रों से मुक्ति ले लो, तो मेरा इतना ही अर्थ है कि ध्यान की तरफ मुड़ो। ज्ञान में शक्ति को मत नष्ट करो। कितना ही ज्ञान इकट्ठा कर लो, कुछ काम न आएगा। पहाड़-भर ज्ञान रत्ती-भर ध्यान के मुकाबले में किसी काम का नहीं है। रत्ती-भर ध्यान काफी है क्योंकि रत्ती-भर ध्यान आज नहीं कल पहाड़-भर ज्ञान बन जाएगा। और पहाड़-भर ज्ञान दो कौड़ी का है। मरोगे उसके नीचे दबकर। लाश दबेगी उसके नीचे, कब्र बनेगी उसके नीचे, और कुछ भी नहीं होगा।
तुम पूछते होः शास्त्रों और सिद्धांतों से छुटकारा कैसे हो?
"छुटकारा कैसे' का सवाल नहीं है। कोई विधि थोड़े ही करनी पड़ेगी, कोई अभ्यास थोड़े ही करना पड़ेगा। इतनी बात देखने की है, सिर्फ देखने की--इतनी दृष्टि, कि जो मेरा नहीं है, वह मुझे मुक्त नहीं कर सकेगा। मेरा अनुभव ही मेरी मुक्ति है। और अनुभव ध्यान से होगा। ज्ञान का कचरा मैं इकट्ठा भरता चला जाऊं, तो ध्यान का होना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि जितना तुम्हारे मन में विचार होंगे, उतना ही ध्यान मुश्किल हो जाएगा।
ध्यान का अर्थ है--निर्विचार। तो निर्विचार होने के लिए तो सारे विचार जाने दो --बाजार के भी, मंदिर-मस्जिद के भी, शास्त्र के भी--सब विचार जाने दो। जब चित्त बिल्कुल निर्विकार होगा, जब तुम जागोगे, तब तुम जानोगे, तब ज्ञान की ज्योति जलेगी। और उस ज्योति के प्रकाश में तुम पाओगे--सारे शास्त्र प्रमाणित हो गए।
ज्ञान से मुक्ति कठिन नहीं है, अत्यंत सरल है। शास्त्र से मुक्ति कोई साधना नहीं मांगती--सिर्फ सूझ, थोड़ी-सी समझ थोड़ी-सी आंख का खुलना। उधार काम नहीं आता, निजता में ही कुछ घटता है तो काम आता है। न तो तुम मेरी आंख से देख सकते हो, और न तुम मेरे पैर से चल सकते हो, न ही मेरा ध्यान तुम्हारा ध्यान बन सकता है न मेरी समाधि तुम्हारी समाधि बन सकती है। फिर मुझे सुनने से लाभ क्या? इतना ही लाभ है, कि जहां से ये शब्द आ रहे हैं, उस स्रोत को जगाने की तुम्हारे भीतर एक प्रबल कामना पैदा हो जाए। कृष्ण के शब्द सुनकर तुम्हारे भीतर एक अदम्य वासना जगे--कि ऐसी चेतना मेरे भीतर भी हो, जहां ऐसे फूल खिलते हैं। बुद्ध के साथ बैठकर तुम्हारे भीतर यह भाव जगे, उमगे, कि कब मेरे भीतर बुद्धत्व होगा।
मैं अपना इशारा, तुम्हें चांद की तरफ उठा रहा हूं अंगुली, कि देखो चांद। मेरी अंगुली को मत पकड़ लेना। अंगुली शास्त्र है। अंगुली को जाने दो, चांद को देखो। चांद न मेरा है न तुम्हारा। न चांद किन्हीं अंगुलियों से बंधा है। न सुंदर अंगुलियां न कुरूप अंगुलियां, न ये अंगुलियां, न वे अंगुलियां। चांद सभी अंगुलियों से मुक्त है।
सत्य कुरान, बाइबिल, वेद, धम्मपद--सबसे मुक्त है। और यद्यपि सारी अंगुलियां उसी सत्य की तरफ इशारा कर रही हैं, मगर अंगुलियों को मत पकड़ लेना।
लोग बच्चों जैसे हैं, वे अंगुलियों को चूस रहे हैं। सोचते हैं, अंगुलियां चूसने से पोषण मिलेगा! उठाओ आंखें चांद की तरफ--पोषण बरस रहा है, अमृत बरस रहा है। खोलो आंखें चांद की तरफ। चांद से जुड़ो। चांद को उतरने दो तुम्हारे भीतर, झलकने दो तुम्हारे भीतर। और चांद झलक सके, इसके लिए अपने भीतर निर्विचार करो। अपने भीतर से धूल झाड़ो। दर्पण को साफ करो। मन का दर्पण साफ--अर्थात् ध्यान। मन के दर्पण में चांद का प्रतिबिंब बन गया--अर्थात् साक्षात्कार।

आज इतना ही।


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