कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 2 मार्च 2017

नेति-नेति-(सत्‍य की खोज)-प्रवचन-22



नेति-नेति-(सत्य की खोज)-ओशो  
प्रवचन-बाईस्‍वां

मेरे प्रिय आत्मन,
कर्म के योग पर आज थोड़ी बात करनी है।
बड़ी से बड़ी भ्रांति कर्म के साथ जुड़ी है। और इस भ्रांति का जुड़ना बहुत स्वाभाविक भी है।
मनुष्य के व्यक्तित्व को दो आयामों में बांटा जा सकता है। एक आयाम है--बीइंग का, होने का, आत्मा का। और दूसरा आयाम है--डूइंग का, करने का, कर्म का। एक तो मैं हूं। और एक वह मेरा जगत है, जहां से कुछ करता हूं।
लेकिन ध्यान रहे, करने के पहले "होना' जरूरी है। और यह भी खयाल में ले लेना आवश्यक है कि सब करना, "होने' से निकलता है। करना से "होना' नहीं निकलता। करने के पहले मेरा "होना' जरूरी है। लेकिन मेरे "होने' के पहले करना जरूरी नहीं है।

कर्म जो है, वह परिधि है। अस्तित्व जो है, वह केंद्र है।
अस्तित्व आत्मा है।
कर्म हमारा जगत के साथ संबंध है।
ऐसा समझें, एक सागर पर बहुत लहरें हैं। सतह पर बहुत हलचल है। लहरें उठती हैं, गिरती हैं। इन लहरों का जो फैला हुआ जाल है, यह कर्म का जाल है। सागर सतह पर बड़ा कर्मरत है, लेकिन नीचे उतरें तो सन्नाटा है। और नीचे जायें तो बिलकुल सन्नाटा है। और नीचे जायें तो कोई लहर नहीं, कोई हलचल नहीं। गहरी चुप्पी है। सागर की लहरों के नीचे सागर का "होना' है।
"होना' गहरे में है। कर्म का जाल, लहरों का जाल ऊपर परिधि पर है।
प्रत्येक व्यक्ति की परिधि पर, सर्कमफरेंस पर, कर्म का जाल है। और प्रत्येक व्यक्ति के केंद्र पर होने का सागर है।
लेकिन जब हम किसी व्यक्ति को देखते हैं तो उसका "होना' दिखायी नहीं पड़ता, उसका करना ही दिखायी पड़ता है! "होना' दिखायी पड़ भी नहीं सकता।
सागर के पास जब आप जाते हैं तो आप कहते हैं कि सागर दिखायी पड़ रहा है। सागर दिखायी नहीं पड़ता, दिखायी पड़ती हैं सिर्फ लहरें। सागर आपको कभी दिखायी नहीं पड़ा होगा। लहरें ही दिखायी पड़ी होंगी। लहरें सागर नहीं हैं, क्योंकि कोई लहर सागर के बिना अस्तित्व में नहीं हो सकती। अगर हम लहर को सागर से अलग बचाना चाहें तो लहर मर जायेगी। लेकिन सागर बिना लहर के हो सकता है। सागर बिना लहर के मर नहीं जायेगा। इसलिए मूल सागर है, लहर बाइ-प्रोडक्ट है, लहर उप-उत्पत्ति है। इसलिए लहर नहीं हो सकती सागर के बिना। सागर बिना लहर के हो सकता है।
कर्म नहीं हो सकता बिना आत्मा के। लेकिन आत्मा बिना कर्म के हो सकती है। अगर मैं नहीं हूं तो मेरे सब कर्म खो जायेंगे। लेकिन मेरे सब कर्म खो जायें तो भी मैं नहीं खो जाता हूं।
इस बुनियादी भेद को सबसे पहले समझ लेना जरूरी है। लेकिन फिर भी जो मैं हूं, वह आपको दिखायी नहीं पड़ता। आप जो हैं, वह मुझे दिखायी नहीं पड़ते। आप जो करते हैं, वही दिखायी पड़ता है! मैं जो करता हूं, वही दिखायी पड़ता है! करना दिखायी पड़ता है। "होना' छिपा है। करना दृश्य है, "होना' अदृश्य है। करना ज्ञात है, "होना' अज्ञात है।
हमारे भीतर ये दो दिशाएं हैं एक "करने' की, दृश्य की, लहरों की--जो दूसरों को दिखायी पड़ सकेगा, ज्ञात हो सकेगा। और एक "होने' की, जो किसी को ज्ञात नहीं हो सकेगा, किसी को भी दिखायी नहीं पड़ सकेगा, जो सदा छिपा है, सदा पीछे है गहरे में, दी हिडेन, वह सदा पीछे छुपा है--गूढ़।
ये दो हमारी दिशायें हैं "होने' की, अस्तित्व की; और "करने' की। इन दोनों दिशा में कौन मूल है, इसे अगर हम न पहचान पायें तो बहुत भूल हो जायेगी। क्योंकि यह बड़े नियम की बात है कि गौण के द्वारा मूल को नहीं पाया जा सकता। मूल के द्वारा गौण को पाया जा सकता है।
जैसे कि हम गेहूं को बो देते हैं। फिर गेहूं की फसल आती है और गेहूं के साथ भूसा भी आता है। भूसा मूल नहीं है, परिधि है, बाहर का खोल है। गेहूं मूल है--भीतर का छिपा हुआ हिस्सा है। गेहूं के साथ भूसा पैदा होता है। लेकिन आप भूसा बो दें तो गेहूं पैदा नहीं होगा। गेहूं बो दें, भूसा आ जायेगा। अपने आप आ जायेगा। लेकिन भूसा बो दें तो गेहूं आयेगा ही नहीं, भूसा भी नष्ट हो जायेगा।
मनुष्य का कर्म जो है, वह भूसे की तरह है। और मनुष्य का "होना' जो है, वह गेहूं की तरह है। अगर भीतर "होना' है तो कर्म बदल जायेगा। जैसा "होना' होगा, वैसा कर्म हो जायेगा। लेकिन बाहर से कर्म बदलता है तो वैसा "होना' नहीं बदल जाता।
मेरा जोर "होने' पर है, बीइंग पर। लेकिन कर्मयोग का जोर "कर्म' पर है, "होने' पर नहीं, बीइंग पर नहीं। कर्मयोग कहता है करो--ऐसा करो! ऐसा करोगे तो ऐसे हो जाओगे। गलत है यह बात।
"ऐसे' हो जाओगे तो "ऐसा कर्म' हो सकता है। लेकिन ऐसा न करोगे तो ऐसे नहीं हो जाओगे। लेकिन दिखायी कर्म पड़ता है, इसलिए भ्रांति हो जाती है।
कोई महावीर हमारे बीच से निकलें तो दिखायी पड़ेगा कि महावीर नग्न हो गये! कर्म है। वस्त्र पहनना एक कर्म है। नग्न हो जाना एक कर्म है। महावीर नग्न हो गये, ऐसा हमें दिखायी पड़ेगा। और फिर दिखायी पड़ेगी महावीर की शांति और महावीर का आनंद और उनके चारों तरफ रहस्य की बहती हुई हवायें और उनकी आंखों में गहराई। वह सब दिखायी पड़ेगा। और दिखायी पड़ेगा यह कर्म कि महावीर नग्न हो गये! हमारे मन में भी खयाल हो सकता है कि अगर मैं भी नग्न हो जाऊं तो जो महावीर को मिला था, वह मुझे भी मिल जायेगा!
हम भूसे से गेहूं की तरफ चले। पकड़ लिया हमने कर्म को। महावीर क्या खाते हैं, क्या पीते हैं--यह कर्म है। देखा कि क्या खाते हैं,क्या पीते हैं? कब खाते हैं, कैसे खाते हैं? कब नहीं खाते हैं? कैसे चलते हैं? कैसे उठते हैं? ये कर्म हैं। कैसे बोलते हैं? कैसे नहीं बोलते हैं? यह सब हमने देखा। हमने परिधि को पूरा जांच लिया। हमने कहा कि यह परिधि हम भी पूरी कर लें तो जो इस आदमी के भीतर घटा है, वह हमारे भीतर भी घट जायेगा!
तो हम भी उठने लगें ब्रह्ममुहूर्त में! हो जायें नग्न। यह खायें, यह न खायें। ऐसे चलें, ऐसे न चलें। यह हम सब कर लें पूरा। ठीक महावीर जितना करते थे, उतना कर लें। पूरा, इंच भर भी कमी न रह जाये। तो भी भीतर वह पैदा नहीं होगा, जो महावीर के भीतर पैदा हुआ, क्योंकि हम उलटे चल पड़े। घटना को हमने उलटा देखा। महावीर के भीतर--पहले कुछ भीतर भरा हुआ है, तब फिर बाहर फैला है। हमने बाहर से पकड़ा और भीतर चले! भीतर से बाहर की तरफ आ सकते है, बाहर से भीतर की तरफ नहीं जा सकते। बाहर भूसा है, भीतर गेहूं है।
महावीर की आंखों में जो शांति दिखायी पड़ती है, महावीर के अस्तित्व में जो निर्मलता दिखायी पड़ती है उनके होने में जो एक इनोसेंस--एक निर्दोष साधक है, वह पहले है। क्योंकि भीतर एक निर्दोष होने का जन्म हो गया है, इसलिए बाहर वे नग्न हो सके। भीतर की निर्दोषता बाहर की नग्नता बन सकी। लेकिन बाहर की नग्नता भीतर की निर्दोषता नहीं बन सकती।
इसे जितना हम ठीक से समझ लें, उतना ही सत्य की दिशा में गति करना आसान हो जाये। बड़े से बड़े उलझाव इससे पैदा होते हैं। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, हम क्या करें? कभी भी नहीं पूछते कि हम क्या हो जायें! वे पूछते हैं, हम क्या करें?
मैं अभी एक गांव में ठहरा था। गांव का कलेक्टर मुझसे मिलने आया और उसने कहा, अगर मैं भी आप जैसी चादर पहन लूं तो कुछ लाभ होगा? कुछ भी लाभ नहीं होगा। चादर को थोड़ा-बहुत नुकसान हो जायेगा!
वह कहने लगे, नहीं, आप मजाक करते हैं। मुझे ठीक से बतायें। आप उठते कब हैं? आप खाते क्या हैं? मैं भी वैसा ही करूं!
वह आदमी जिज्ञासु है, खोजता है। गलत छोर से खोजता है।
लेकिन हजारों साल से मनुष्य-जाति गलत छोर से खोज रही है। वही आदमी कसूरवार नहीं है। और स्वाभाविक ही है यह भूल। यह इसलिए स्वाभाविक है कि कर्म दिखायी पड़ता है, होना दिखायी नहीं पड़ता। करे भी क्या कोई! जो दिखायी पड़ता है, उसी से चलने की बात खयाल में आती है। जो नहीं दिखायी पड़ता, वहां से चलें कैसे?
लेकिन मैं आपको कहना चाहता हूं कि अगर यह हमारी समझ में आ जाये कि जो दिखायी पड़ता है, वे तरंगें हैं--बाहर की। और भीतर सागर है, जहां तरंग ही नहीं, निस्तरंग है। वहां से ही सारी गति है, वहां से ही सारा होना है। हमारा सारा व्यक्तित्व भीतर से फैलता हुआ है। हम निरंतर भीतर से फैलते चले जाते हैं। एक छोटा-सा बीज हम बोते हैं, फिर वह अंकुरित होता है। बड़ा वृक्ष होता चला जाता है। एक छोटा-सा बीज भीतर से बाहर की तरफ फैलता है--फैलता है, फैलता चला जाता है। मां के पेट में एक छोटा-सा अणु आता है, जिसे आंख से देखा नहीं जा सकता। फिर वह अणु फैलता है फैलता है--फैलता है और एक व्यक्ति निर्मित हो जाता है! सब भीतर से बाहर की तरफ फैल रहा है।
अभी वैज्ञानिकों ने एक नवीनतम खोज की है, वह बड़ी महत्वपूर्ण है। वह है एक्सपैंडिंग यूनिवर्स! पहले हम सोचते थे, जगत जैसा है, वैसा ही है। वही है। ठहरा हुआ है। लेकिन नवीनतम अनुभव ने बड़ी हैरानी कर दी। जगत फैल रहा है, जैसे की कोई गुब्बारे में हवा भर रहा हो और गुब्बारा बड़ा होता जाता हो! फैलता जा रहा हो, फैलता जा रहा हो। जगत फैल रहा है! और प्रतिपल करोड़ों मील की रफ्तार से तारे दूर भागे जा रहे हैं--परिधि की तरफ फैलते जाते हैं, केंद्र से हटते जा रहे हैं!
जगत जो है, एक्सपैंडिंग है। आज से दो करोड़ वर्ष पहले जगत छोटा था। तारे करीब-करीब थे। आज जगत बड़ा है, कल और बड़ा होगा! और अंतहीन फैलाव है!
हमारे पास एक शब्द है ब्रह्म। ब्रह्म बहुत कीमती शब्द है। और आज नहीं कल, विज्ञान को इस शब्द को स्वीकार कर लेना होगा। इसको इसलिए स्वीकार कर लेना होगा कि ब्रह्म का मतलब होता है दी एक्सपैंडिंग, जो फैल रहा है, फैल रहा है, फैलता ही जा रहा है! ब्रह्म का मतलब होता है, जो विस्तीर्ण हो रहा है, जो फैलता जा रहा है! जिसके फैलाव का कोई अंत नहीं है! जो कहीं रुकेगा नहीं, फैलता ही चला जायेगा!
इस बात को समझा जा सकता है कि कभी सारा जगत जैसे एक छोटा-सा बच्चा मां के पेट में एक अणु होता है, और एक छोटा-सा बीज एक बड़े वृक्ष का एक जरा-सा बीज होता है! आश्चर्य नहीं, निश्चित ही ऐसा हुआ होगा। कभी यह सारा, इतना बड़ा जगत एक छोटा-सा बीज रहा होगा। फैलता गया, फैलता गया। आज इतना बड़ा है, कल और बड़ा-- कल और बड़ा! भीतर से बाहर की तरफ फैलाव है। भीतर से शक्ति के स्त्रोत हैं, वे फूटते जाते हैं और बाहर की तरफ फैलते जाते हैं।
लेकिन मनुष्य के जीवन में एक भूल हो जाती है। और वह भूल यह हो जाती है, हम बाहर देखते हैं और सोचते हैं कि बाहर से भीतर की तरफ चलें!
कर्मयोग बाहर से भीतर की तरफ चलने की भ्रांति है।
कर्मयोग की मान्यताएं हैं कि कुछ करो। करोगे तो हो सकोगे। कर्मयोगी कहता है, बैठ मत जाना, विश्राम मत करना। बैठ जाओगे, विश्राम करोगे, तो पहुंच न सकोगे। कुछ करो और ठीक करो, क्योंकि गलत किया तो भटक जाओगे। इसलिए कर्मयोग गहरे में शुभ और अशुभ का चुनाव है, एक च्वाइस है--यह है ठीक, यह है गलत! गलत को छोड़ो और ठीक को करो। गलत को छोड़ते जाओ और ठीक को करते जाओ। एक दिन ऐसा आयेगा कि गलत छूट जायेगा और ठीक ही ठीक शेष रह जायेगा। जिस दिन ठीक ही ठीक शेष रह जायेगा, उसी दिन परमात्मा उपलब्ध हो जायेगा। ऐसा कर्मयोग मानता है।
यह मानना बिलकुल ही गलत है। बिलकुल ही गलत इसलिए है कि इसमें बहुत से इंप्लीकेशन्स हैं, बहुत-सी छिपी हुई बातें हैं। उसे खोलकर देख लेनी चाहिए। पहली तो बात यह है कि क्या है शुभ और अशुभ?
जब तक किसी ने स्वयं को नहीं जाना, तब तक वह यह जान ही नहीं सकता कि क्या है शुभ और क्या है अशुभ?
असंभव है जानना--शुभ क्या है? किस चीज को ठीक कहें? महावीर कहते हैं कि चींटी न मर जाये! चींटी मर गयी तो बहुत अशुभ हो जायेगा! कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, बेफिक्री से मार, क्योंकि कोई मरता ही नहीं! तू मारेगा भी तो भी कोई मरने वाला नहीं! क्या है शुभ?
कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, मार। बेफिक्री से मार। कोई चिंता मत कर। क्योंकि कभी कोई मरता ही नहीं। आत्मा अमर है। तू तलवार चला। कुछ कटता ही नहीं है। शस्त्र से कटता ही नहीं है कुछ। तू काट, तू भ्रम छोड़ दे कि कोई मरता है। कोई मरता ही नहीं। आत्मा अमर है।
महावीर कहते हैं, फूंककर पैर रखना, चींटी न दब जाये, हिंसा न हो जाये, अन्यथा पाप हो जायेगा!
क्या है शुभ? महावीर कहते हैं, वह शुभ है! कि कृष्ण कहते हैं, वह शुभ है!
महावीर के मानने वालों ने कृष्ण को नर्क में डाल रखा है, इसी शुभ-अशुभ की झंझट की वजह से, क्योंकि कृष्ण तो बड़ी अशुभ बात कह रहे हैं। वह कह रहे हैं, काटो!
महाभारत शायद बच भी जाता, अर्जुन अगर भाग जाता और संन्यासी हो जाता। होने की स्थिति पैदा हो गयी थी! भागने की तैयारी पूरी थी! लेकिन कृष्ण ने कहा, कहां भागकर जायेगा?
तो महावीर को मानने वाले ने कृष्ण को डाल दिया नर्क में। इस कल्प में नर्क से उनका छुटकारा नहीं होगा, क्योंकि उन्होंने इतनी हिंसा कर डाली। लेकिन कृष्ण के मानने वाले कहते हैं, कृष्ण से पूर्ण अवतार कभी भी नहीं हुआ है! कौन है शुभ? कौन है अशुभ? नहीं, कर्म की परिधि पर तय ही नहीं किया जा सकता।
लेकिन आप कहेंगे कि अगर आत्मा की परिधि पर महावीर पहुंच गये और कृष्ण भी पहुंच गये तो फिर यह फर्क क्यों है? वे आत्मा में पहुंच गये, होने में पहुंच गये तो फिर यह फर्क क्यों है? जिस दिन आप पहुंचेंगे, तब आप पायेंगे, फर्क नहीं है। वे दोनों एक ही बात को दो तरफ से कह रहे हैं।
महावीर कहते हैं, पैर फूंककर रख कि चींटी न दब जाये। महावीर भी जानते हैं कि कुछ नहीं मरेगा, चींटी भी नहीं मरेगी। कुछ मरने वाला नहीं है। आत्मा अमर है, इसे वे भी जानते हैं। फिर वे कहते हैं, मार मत! यह क्यों कहते हैं? वे इसलिए कहते हैं कि मरेगा तो कुछ भी नहीं, लेकिन तेरा यह खयाल कि मैंने मारा, वह बहुत कठिनाई में डाल देगा। मरेगा तो कुछ भी नहीं। सवाल मरने का है ही नहीं। सवाल तेरे इस खयाल का है कि मैंने मार डाला। यह खयाल तुझे दिक्कत में डाल देगा। तुझे तो पता नहीं कि कुछ नहीं मरेगा।
वे एक छोर से बात कर रहे हैं। जिनसे वे बात कर रहे हैं वे उन्हीं लोगों से बात कर रहे हैं, जो मारने में उत्सुक हैं। वे अर्जुन से बात नहीं कर रहे हैं, जो न मारने में उत्सुक हो। महावीर उनसे बात कर रहे हैं, जो मारने में उत्सुक हैं! जो चाहते हैं कि कोई समझा दे कि कुछ भी नहीं मरता, तो अच्छी तरह मारे। महावीर उनसे बोल रहे हैं, जो मारने में उत्सुक हैं। तो महावीर कहते हैं, फूंककर पैर रखना, क्योंकि जो तेरी मारने की उत्सुकता है, वह तुझे दिक्कत में डाल देगा। मरेगा कुछ भी नहीं, लेकिन तूने मारा, यह खयाल तेरे लिए उपद्रव का कारण हो जायेगा।
कृष्ण बिलकुल दूसरे आदमी से बात कर रहे हैं। वे उस आदमी से बात कर रहें हैं, जो न मारने में उत्सुक हो गया है। वह कहता हैं, मैं न मारूंगा। वह क्यों उत्सुक हो गया है? वह कहता है, मारने से पाप लग जायेगा!
महावीर जिसको समझा रहे हैं, उसका गलत खयाल यह है कि मैंने मारा, मैं मार रहा हूं! यह उसका गलत खयाल है।
अर्जुन का गलत खयाल यह है कि कोई मर जायेगा तो मुझे पाप लग जायेगा! उसका यह खयाल नहीं है कि मेरे मारने से पाप लग जायेगा। उसका खयाल है, कोई मर जायेगा तो मुझे पाप लग जायेगा! कृष्ण उसे कहते हैं, कोई मरता ही नहीं, तू बेफिक्री से मार।
ये दोनों आदमी एक ही बात कहते हैं! ये दोनों अलग बातें नहीं कहते! लेकिन परिधि पर देखने से ये बातें इतनी अलग हैं, जितनी हो सकती हैं। इनके बीच कोई मेल नहीं हो सकता।
असल में अगर हम एक बिंदु रखें, फिर बिंदु के ऊपर परकाल रखकर एक वृत्त खींचें, एक सर्कल बनायें, सर्कल पर पचास बिंदु बनाकर बीच के बिंदु की तरफ रेखायें खींचें, तो परिधि पर दो रेखाओं में फासला होगा और जैसे-जैसे केंद्र की तरफ चलने लगेंगे तो फासला कम होगा। और जब दो रेखायें--जबकि परिधि पर बहुत दूर-दूर थीं, जब केंद्र पर आयेंगी तो एक ही बिंदु पर खड़ी हो जायेंगी।
जो लोग बीइंग पर पहुंचे हैं, जिन लोगों ने आत्मा को जाना हो, वहां कोई फर्क नहीं रह जाता। लेकिन परिधि पर बहुत फर्क हैं, क्योंकि सारे धर्म परिधि को देखकर बने हैं, इसलिए धर्म में फर्क हैं!
अगर किसी दिन आत्मा को देखकर धर्म का जन्म होगा तो दुनिया में एक ही धर्म हो सकता है, बहुत धर्म नहीं हो सकते।
लेकिन मोहम्मद की परिधि अलग है, महावीर की परिधि अलग है, कृष्ण की परिधि अलग है। होगी ही। हर लहर अलग होगी। एक ही सागर पर उठने वाली दो लहरें भी एक जैसी नहीं होंगी। सब लहरें अलग होंगी। लहरें अलग होंगी ही।
लेकिन लहरों के नीचे एक ही सागर है और वहां हमारा ध्यान नहीं जाता। फिर हम लहरों को पकड़कर चलना शुरू कर देते हैं! कोई महावीर का आचरण देखकर चलता है तो जैन हो गया! कोई बुद्ध का आचरण देखकर चलता है तो बौद्ध हो गया! कोई कृष्ण का आचरण देखकर चलता है तो हिंदू हो गया! कोई जीसस का आचरण देखकर चलता है तो ईसाई हो गया! सब आचरण को देखकर चलने वाले लोगों के बनाये हुए धर्म हैं!
सारी दुनिया में कर्मवाद है। कर्म को देखकर हम चल रहे हैं, इसीलिए इतना उपद्रव है। शुभ और अशुभ का निर्णय कैसे करियेगा? कैसे जानियेगा कि क्या शुभ है, और क्या अशुभ है? नहीं जान सकते। जिसने अभी अपने को ही नहीं जाना, वह नहीं जान सकता कि शुभ क्या है, अशुभ क्या है? लेकिन कर्मयोग कहता है कि शुभ और अशुभ को देखकर चलो! कौन तय करेगा? कैसे तय करियेगा कि क्या शुभ और क्या अशुभ?
कबीर के घर बहुत लोग इकट्ठे होते थे और जब लोग जाने लगते थे--सुबह भजन-कीर्तन समाप्त होता, मिलना-जुलना बंद होता--तो कबीर कहते, भोजन करते जाना!
कबीर का लड़का परेशान हो गया, क्योंकि कहां से लाये इतना? कभी दो सौ लोग इकट्ठे होते, कभी पांच सौ लोग इकट्ठे होते! इन सबको भोजन कहां से हम कराये रोज-रोज? कबीर से उसने बहुत बार कहा कि अब कल से कभी मत कहना लोगों से जाते वक्त कि भोजन कर लो, क्योंकि मैं कहां से लाऊंगा इतना? मैं कैसे यह इंतजाम करूं? हम गरीब आदमी हैं, आप भूल क्यों जाते हैं?
कबीर बार-बार भूल जाते! क्योंकि जिसको भीतर की संपत्ति दिख गयी हो, उसको गरीबी का खयाल नहीं रह जाता। वह रोज भूल जाता है।
बेटा रोज सांझ गरदन पकड़ लेता है कि तुम आदमी कैसे हो! हम गरीब आदमी हैं, हम भूखे मर रहे हैं। हम कहां से लोगों को खिलाये? कर्ज हुआ जाता है। लोगों से मांग-मांग कर परेशान हो गये। अब गांव में कोई देने को भी तैयार नहीं! सुबह जब लोग आते तो कबीर कहते, कहां चले, भोजन तो करते जाओ!
वह जिसको भीतर की संपत्ति दिख गयी हो, उसको बाहर की दरिद्रता को याद रखना मुश्किल हो जाता है। कितनी ही कोशिश करे, छूट-छूट जाता है। जिसको भीतर की संपदा नहीं मिली, उसको बाहर की कितनी ही संपदा मिल जाये, उससे दरिद्रता नहीं मिटती। वह भीतर का दरिद्र कह देता है कि अभी कुछ नहीं है, अभी कुछ नहीं है। अभी कुछ मिला ही क्या है? अभी तो और मिल जाये! वह भीतर आदमी दरिद्र बना रहता है। बाहर की संपत्ति दरिद्रता नहीं मिटा पाती। इसलिए अकसर ऐसा होता है, जितनी संपत्ति उतना दरिद्र आदमी, उतना भीतर दीन-हीन!
आखिर एक दिन कबीर के लड़के ने कबीर से कहा, बहुत हो गया, अब अंतिम, जिसको अल्टिमेटम कहते हैं, आखिरी निर्णय हो जाना चाहिए, कल से इस घर में मैं नहीं रहूंगा। क्या मैं चोरी करने लगूं? उसने तो क्रोध में कहा था कि कबीर को कोई बुद्धि आ जाये! लेकिन जो निर्बुद्धि के बाहर चले गये हों, वे बड़े निर्बुद्धि हो जाते हैं। एक तो नीचे जो रहते हैं, वे भी निर्बुद्धि हैं। और बुद्धि के ऊपर जो चले जाते हैं, वे भी निर्बुद्धि हो जाते हैं। लेकिन दोनों में बड़ा फर्क होता है। करीब-करीब एक जैसे होते हैं। एकदम से पहचानना मुश्किल है।
कबीर ने कहा, मूर्ख, तुझे पहले क्यों नहीं सूझा? अरे चोरी करनी थी तो मुझे इतने दिन से परेशान क्यों करता रहा? कर लें!
लड़का तो बहुत चौंका। उसने कहा, आप यह कह रहे हैं कि चोरी कर लूं! आप यह कह रहे हैं! शुभ-अशुभ का कोई खयाल नहीं? चोरी अशुभ है। कबीर ने कहा, चोरी अशुभ है! वह आंख बंद करके कुछ सोचने लगे। कहने लगे कि कुछ समझ में नहीं आता।
लड़के ने कहा कि परीक्षा पूरी ही कर लेनी चाहिए। उसने कहा, उठिये फिर। मैं ही चोरी क्यों करूं, आप भी साथ चलिये।
कबीर ने कहा, चलता हूं, लेकिन देख ज्यादा सामान मैं नहीं उठा पाऊंगा, बुङ्ढा आदमी हूं! कबीर पीछे, बेटा आगे--वे चोरी करने गये!
लड़के ने भी बड़ी हिम्मत की। कमाल, उनका लड़का बहुत हिम्मतवर था। उसने कहा, आखिरी क्षण तक देख लेना चाहिए--यह आदमी क्या बात कर रहा है, जिसको शुभ-अशुभ का भी बोध नहीं है! सुरंग, लगायी, दीवार तोड़ डाली। कबीर से कहा, क्या इरादा है?
कबीर ने कहा, घुसो! उसने सोचा कि क्या अब चोरी करनी ही पड़ेगी! लडका भीतर घुस गया। एक बोरा गेहूं खींचकर लाया। कबीर से कहा, सहायता करिये। कबीर ने सहायता की। लड़के ने कहा, अब क्या इरादा है-- ले चलें घर?
कबीर ने कहा, इतनी मेहनत किसलिए की? लेकिन घर के लोगों को बता आये न? कबीर ने कहा, घर के लोगों को बता आये न!
उस लड़के ने सिर ठोंक लिया। उसने कहा, चोरी कर रहे हैं, यह भी घर के लोगों को बताने की बात है?
कबीर ने कहा, नहीं, यह ठीक नहीं मालूम होता है। जरा घर के लोगों को कह आओ कि हम चोरी कर रहे हैं! एक बोरी गेहूं ले जा रहे हैं!
उस लड़के ने कहा, तो यह कैसी चोरी हुई! तुम्हें समझ में नहीं आता कि चोरी बुरी चीज है?
कबीर ने कहा कि अब मैं सोचता हूं, जब तुम नहीं कह आये घर के लोगों से तो कुछ गड़बड़ बात है। लेकिन मुझसे इसलिए भूल हो गयी कि बहुत दिनों से मुझे अपने-पराये का भेद नहीं रहा। मेरी समझ में ही नहीं आया कि चोरी किसकी! चोरी किसकी? कौन करेगा? और किसकी होगी? सभी "उसका' है। हम भी उसके हैं, वे भी उसके हैं, सामान भी उसका है। सब परमात्मा का है। नहीं--नहीं, लेकिन खबर करके आओ। खबर तो कर दो, क्योंकि वे बिचारे सुबह खोजें घर में और बोरा न मिले तो तकलीफ में पड़ेंगे। कहां खोजें?
उस लड़के ने कहा, हो गयी चोरी। वापस चलिये। ऐसे चोरी नहीं होती। अगर खबर करनी ही है तो घर वापस चलिये।
यह जो कबीर है--क्या है शुभ? क्या है अशुभ--वह कह रहा है कि सब "उसका' है। कैसी चोरी! चोरी के लिए अपने-पराये का भेद होना तो जरूरी है।
संपत्ति किसकी है? मेरी नहीं है। जिसको यह बोध है, उसको यह भी बोध होगा कि यह संपत्ति मेरी है किसी की नहीं। जिसको यह बोध होगा कि किसी की चोरी न करूं, उसको यह भी बोध होगा कि मेरी कोई चोरी न कर ले। लेकिन एक जगह है, जहां संपत्ति किसी की नहीं--जहां हम ही नहीं रह गये। जहां सब "उसी'का रह गया। वह क्या होगा, कैसे तय करियेगा? शुभ क्या है, अशुभ क्या है? शुभ और अशुभ का निर्णय परिधि पर नहीं हो सकता, गहरे में होगा।
मैं मानता हूं, कि कबीर का बेटा जब कह रहा था कि चोरी अशुभ है, तब वह इसलिए कह रहा था, क्योंकि संपत्ति की मालकियत को वह मानता था। तभी अहंकार जिंदा था। और अहंकार अशुभ है, चोरी अशुभ नहीं। अहंकार ही वजह से चोरी अशुभ मालूम पड़ेगी।
और कबीर का अहंकार ही खो गया। उनको पता ही नहीं चलता कि कौन किसका है? क्या कौन है? यह आदमी अशुभ है? क्या आप कहेंगे कि कबीर का चोरी करने जाना अशुभ था? मैं नहीं कह सकता। मेरे लिये कहना मुश्किल है, क्योंकि कबीर चोरी करने को गये ही नहीं। क्योंकि चोरी को तो तभी जाया जा सकता है, जब संपत्ति किसी की हो और अहंकार में हमने जगत को बांटा है।
कबीर चोरी करने को गये ही नहीं। कबीर किसी दूसरी दिशा में यात्रा कर रहे हैं। बेटा किसी और दिशा में यात्रा कर रहा है। वे दोनों साथ गये ही नहीं! साथ दिखायी पड़े। कर्म की दुनिया में , इसलिए दिक्कत हो जाती है। वे साथ गये ही नहीं। वे कहीं और जा रहे थे। वे भगवान के घर जा रहे थे। जैसा यह घर है वह वैसा, घर है। उधर से उठा लाओ! लेकिन घर में जो लोग पहरा देते हैं, उनको खबर कर दो कि चोरी करके जा रहा हूं!
कबीर चोरी करने को गये ही नहीं, सिर्फ बेटा ही चोरी करने गया! और बेटे को शुभ अशुभ का बोध है। और कबीर को उसका बोध ही नहीं! परिधि पर निर्णय करेंगे?
अगर हम सारे जगत में नीति के, शुभ कैसे निर्णय करियेगा? अशुभ के भेद देखें तो बहुत हैरान हो जायेंगे। जो यहां शुभ है, वह पचास मील बाद में अशुभ हो सकता है! जो पचास मील दूर अशुभ है, वह यहां शुभ हो सकता है!
मेरे एक प्रोफेसर, पेशावर में प्रोफेसर थे। विभाजन के पहले वे पेशावर थे। मैं उनसे एक दिन बात करता था। तो उन्होंने मुझसे कहा कि तुम जो कहते हो शायद--एक घटना मेरे जीवन में घटी--उससे तुम्हारी बात मुझे ठीक लगती है।
मैं पेशावर में था और मेरे पास पहली दफे एक पख्तून लड़का ग्रेजुएट हुआ। मैंने ही मेहनत करके उस पख्तून को पढ़ाया। पख्तूनों में पहला ग्रेजुएट था, पहला ही स्नातक था। बड़ी मुश्किल से तो पढ़ पाया। थर्ड क्लास में बड़ी मुश्किल से पास हुआ। लेकिन पख्तूनों में बड़ी खुशी फैल गयी! जिस दिन उसके पास होने की खबर आयी तो आठ-दस पख्तून सरदार, बूढ़े--बड़े भोले और सरल लोग, नंगी तलवार लेकर मेरे पास आये। मैं तो डर गया कि यह क्या मामला है! उन्होंने आकर तलवार मेरे सामने रख दी और मेरे पैर छुए और कहा कि आपका कोई दुश्मन हो तो नाम बता दें!
मेरे दुश्मन का क्या करियेगा?
उन्होंने कहा, हम गरीब पख्तून और क्या सेवा कर सकते हैं--गर्दन काटकर ला देंगे! आपने बड़ी कृपा की, हमारा पहला लड़का स्नातक हो गया। हम बड़े गरीब लोग हैं, हम और क्या कर सकते हैं? आप देर न करिये, नाम दीजिये। सांझ होने के पहले गर्दन दरवाजे पर लटकेगी!
और वे बड़े भोले लोग हैं, एकदम भोले लोग हैं। भले लोग नहीं हैं, हम कहेंगे! कि गर्दन काटने वाले लोग भले लोग होंगे? इतने भोले लोग हैं, वे इतनी सरलता से पैर पकड़कर कहने लगे कि नहीं नहीं आप कृपा करके नाम दीजिये। एकाध नाम बता दीजिये, सांझ होने के पहले गर्दन दरवाजे पर लटकेगी! हम गरीब पख्तून और क्या कर सकते हैं! हम कैसे धन्यवाद दें!
उन्होंने कहा, इतनी ही कृपा करना कि कभी मेरी ही गर्दन न कटवा देना। तुम जाओ, कोई हमारा ऐसा दुश्मन नहीं, जिसकी गर्दन कटवानी हो! लेकिन वे बार-बार आते रहे! वे कई बार आये और कहा कि आप हम पर खुश नहीं? आप नाम तो बता दें। नाम ही तो बताने की जरूरत है, बाकी सब हम कर लेंगे, कुछ देर नहीं लगेगी!
वे मुझसे कहते थे, उनकी आंखों में मैं देखता हूं तो बड़े सरल लोग हैं। और वे जो कह रहे थे कि गर्दन काट लायेंगे, वह बड़ी कठिन बात मालूम पड़ती है! लेकिन पख्तून में गर्दन काटना अशुभ नहीं है, गर्दन कटवा देना अशुभ है। गर्दन काटने से भागना या कटवाने से भागना अशुभ है!
ऐसी कौमें हैं सारी जमीन पर कि अगर उनके शुभ-अशुभ का निर्णय करने जायें तो बहुत हैरानी हो जाये कि क्या शुभ है, क्या अशुभ है?
अंग्रेज हिन्दुस्तान में आये, तब हिमालय के पास ढेर आदिवासियों के कबीले थे--कि उनके घर में अगर मेहमान हो, तो सारी सेवा करेंगे और रात अपनी पत्नी भी दे देंगे! क्योंकि घर मेहमान आया है, उसको पत्नी भी दिजियेगा! कैसा अतिथि-सत्कार होगा! वे अपनी पत्नी भी दे देंगे रात में।
बड़े सीधे लोग थे अंग्रेज उनके घर जाकर ठहरने लगे, क्योंकि उनकी सुंदर पत्नियों ने उन्हें बहुत आकर्षित किया!
अब पूछने जैसा है कि अशुभ कौन कर रहा है? वे अशुभ कर रहे थे, जो कि इतने भोले थे, जो कहते थे कि जब घर में मेहमान आये और रात में उसको पत्नी की याद आये, स्त्री की याद आये तो वह क्या करेगा? इसलिए कि वह हमारे घर मेहमान हुआ तो हमारी पत्नी मिलनी चाहिए! और पत्नी सरलता से रात उसके पास जाकर सो जायेगी, क्योंकि घर मेहमान आया है--देवता है!
वे गलत कर रहे थे, अशुभ कर रहे थे? या वह आदमी जो सिर्फ इसलिए घर में आकर मेहमान हो गया था कि उसकी औरत पर नजर थी उसकी? इसलिए आज वह घर में मेहमान हो गया!
फिर धीरे-धीरे उस कबीले को समझ लानी पड़ी, कबीला चालाक हुआ, कनिंग हुआ, फिर उसने कहा कि यह बात गलत है! मेहमान को पत्नी देना गलत है। यह अशुभ है। लेकिन चालाक हुआ तब। चालाकी अशुभ है? या उसका वह निर्दोष भाव अशुभ था? तय करना मुश्किल है।
परिधि पर कुछ भी तय नहीं होता। परिधि पर कुछ भी तय नहीं हो सकता। लेकिन कर्मवादी कहता है, परिधि पर निर्णय कर लो--यह ठीक और यह गलत! और ठीक डिवीजन कर लो, कंपार्टमेंट बांट लो! दीवारें खड़ी कर दो कि यह हम करेंगे और यह हम न करेंगे! इसलिए कर्मवादी जड़ हो जाता है। जड़ हो जाता, है इसलिए, क्योंकि उसकी यह जो फ्लेग्जेबिलिटि है व्यक्तित्व की, यह जो तरलता है, वह खो जाती है। यह ठीक और यह गलत--बस वह ऐसा करेगा!
लेकिन जिंदगी बहुत तरल है। उसमें ठीक--सुबह जो ठीक था, वह सांझ गलत हो जाता है! जो सांझ गलत था, वह सुबह ठीक हो जाता है। जो घड़ी भर पहले ठीक था, वही घड़ी भर में गलत हो जाता है। इसलिए सवाल ठीक और गलत तय करने का नहीं है। सवाल ठीक और गलत को हर एक स्थिति में पहचानने का है। लेकिन वह कौन पहचानेगा? वह बीइंग पहचानेगा। वह भीतर की आत्मा जाग्रत हो तो पहचान सकती है कि क्या है ठीक और क्या है गलत।
ठीक और गलत की कोई निर्णायक स्थिति नहीं है कि हम लेबल लगा दें कि यह ठीक और यह गलत। किसी क्षण में अहिंसा ठीक हो सकती है। किसी क्षण में गलत हो सकती है। किसी क्षण में हिंसा ठीक हो सकती है। किसी क्षण में अहिंसा ठीक हो सकती है। लेकिन ये जो कर्मवादी हैं, वे कहते हैं, अहिंसा सदा ठीक और हिंसा सदा गलत!
जिंदगी इतनी पथरीली नहीं है, जिंदगी बहुत तरल है। जैसे नदी बहती है--कभी बांये बहती तो कभी दांये बहने लगती। कभी इधर जाती, कभी उधर जाती। जिंदगी ऐसी ही है। रेल की पटरियों की तरह नहीं कि बस चली जा रही है। इसलिए जिंदगी के मामले में जिसने ऐसे सख्त नियम लिए, वे बहुत मुश्किल में पड़ जाते हैं।
अगर अहिंसा सदा सही है तो फिर बहुत-सी गलत बातें सही हो जायेंगी। अगर अहिंसा सदा सही है तो कोई मुझे गुलाम बनाने आये, आपको गुलाम बनाने आये तो अहिंसा क्या करेगी? फिर अहिंसा सदा सही है तो गुलामी भी सही हो जायेगी! लेकिन गुलामी कैसे सही हो सकती है? और गुलाम अहिंसक हो सकता है? जो आत्मा बेचने को तैयार हो गया, वह अहिंसा को कितने दिन तक बचायेगा? अहिंसा भी बिक जायेगी, इसलिए कहना मुश्किल है।
एक छोटी-सी कहानी मुझे याद आती है। एक फकीर हुआ नसरुद्दीन। उसके गांव के राजा ने तय कर लिया कि हम अपने राज्य से असत्य को उखाड़कर फेंक देंगे! उसने फकीर को बुलाया और उससे कहा कि तुमसे मैं सलाह लेना चाहता हूं। मैंने तय किया है कि असत्य को मैं उखाड़ फेंक दूंगा। फकीर ने कहा, पहले पक्का पता लगाओ कि असत्य क्या है? क्योंकि असत्य रोज अपने को सत्य में बदल लेता है।
उसने कहा, इसीलिए तो आपको बुलाया कि आप मुझे बता दें कि असत्य क्या है? मैंने यह तय किया है कि कल से राज्य में एक आदमी को हर रोज सूली पर लटकाऊंगा--चौरस्ते पर राजधानी के। जो झूठ बोलेगा, वह सूली पर लटकेगा, ताकि बाकी लोग देख लें और समझ जायें कि यह हालत है झूठ बोलने वालों की।
उस फकीर ने पूछा, किस जगह सूली बनवायी है?
राजा ने कहा, गांव का जो बड़ा द्वार है उस पर।
तो उस फकीर ने कहा, कल सुबह द्वार पर मिलूंगा और वहीं पर मुलाकात होगी।
राजा ने कहा, मतलब क्या है? मैंने तुम्हें पूछने को बुलाया है!
वहीं बता देंगे, उसने कहा, सूलीपर तैयार रखना!
सूली तैयार रखी गयी। सुबह जब दरवाजा खुला नगर का तो फकीर ने पहला प्रवेश किया। अपने गधे पर बैठा हुआ, वह अंदर घुसा।
राजा ने पूछा, कहां जा रहे हो?
उस फकीर ने कहा, सूली पर चढ़ने!
राजा ने कहा, सरासर झूठ बोल रहे हो। तुम्हें कौन सूली पर चढ़ायेगा।
उस फकीर ने कहा, अगर झूठ बोल रहा हूं तो सूली पर चढ़ा दो--सूली तैयार है।
उस राजा ने कहा, बड़ी मुश्किल में डाल दिया। अगर मैं तुम्हें सूली पर चढ़ा दूं तो लोग कहेंगे, एक सच बोलने वाले, को सूली पर चढ़ा दिया क्योंकि जो कह रहा था कि सूली पर चढ़ने जा रहा हूं, उसको सूली पर चढ़ा दिया! और अगर मैं तुम्हें छोड़ दूं तो सूली पर नहीं चढ़ोगे, तो झूठ हो जायेगा।
तो उस फकीर ने कहा कि मैं रुका हूं, तुम तय कर लो, क्या करना है? अगर तय हो जाये तो सूली पर चढ़ा दो, अगर तय हो जाये तो छोड़ दो।
राजा ने कहा, बहुत मुश्किल में डाल दिया।
उस फकीर ने कहा, जिंदगी सभी को मुश्किल में डाल देती है। उन सभी को, जो जिंदगी में तय कर लेता है कि बस यह सच है और यह झूठ है।
जिंदगी बहुत तरल है। परिधि पर तय नहीं हो सकता कि क्या ठीक है और क्या गलत है? और जो आदमी परिधि पर तय करने में लगेगा, वह नष्ट हो जायेगा। वह ज्यादा से ज्यादा धोखा पैदा कर सकता है नैतिक होने का, लेकिन कभी धार्मिक नहीं हो सकता। उसे जिंदगी में रोज मौके आयेंगे, जो मुश्किल में डालते रहेंगे कि क्या करूं, क्या न करूं? फिर धीरे-धीरे वह जिंदगी की तरलता को देखना बंद कर देगा। अपने ठोस और सख्त ढांचे में, पैटर्न में जीने लगेगा कि बस यही ठीक है! वह आंख बंद करके वही करता रहेगा! और वह आदमी तो गलत ही होगा, क्योंकि भीतर तो कोई परिवर्तन ही नहीं हुआ है!
गलत आदमी पर ठीक बात जुड़ जाती, तो ठीक बात भी गलत का सहारा बन जाती है।
जैसे कि महावीर को लोगों ने देखा और लोगों ने समझा कि अहिंसा ठीक है। तो महावीर को मानने वालों ने खेती बंद कर दी! इसलिए जैन खेती नहीं करता रहा है। उसने खेती बंद कर दी, क्योंकि खेती में हिंसा मालूम पड़ी। पौधे काटने पड़ेंगे, पौधों में प्राण हैं।
महावीर को एक अनुभव हुआ है कि पौधों में प्राण हैं। प्राण हैं! महावीर ने जो जाना है, वह फिर जगदीशचंद्र ने बहुत बार सिद्ध किया विज्ञान से कि पौधों में प्राण है, आत्मा है! अब तो महावीर की बात बहुत वैज्ञानिक है कि पौधे में प्राण हैं। एक आदमी गेहूं की फसल काटेगा, हजारों पौधे काटेगा तो हजारों प्राण कट जायेंगे, हजारों की हत्याएं हो जायेंगी। तो जैनों ने खेती बंद कर दी!
लेकिन खेती बंद करने से क्या हो सकता था। कोई तो खेती करेगा, गेहूं तो खाना पड़ेगा। मैं खेती न करूं तो आप खेती करेंगे। गेहूं मैं खाऊंगा, हिंसा आपको लगेगी! बहुत मजेदार नियम हुआ--गेहूं मैं खाऊंगा और हिंसा आपको लगेगी! तो खेती दूसरों पर छोड़ दी! लेकिन वह अहिंसक आदमी भीतर तो हिंसक ही रहा!
यह बड़े मजे की बात है कि किसान कम हिंसक होते हैं। कम हिंसक इसलिए होते हैं कि काटने-पीटने काटने-पीटने की बहुत-सी वृत्ति तृप्त हो जाती है। एक आदमी वृक्ष काट रहा है, लकड़ी काट रहा है, कुल्हाड़ी चला रहा है, तलवार चला रहा है। तो जिस आदमी ने सुबह तीन घंटे वृक्षों पर कुल्हाड़ी मारी है, उस आदमी को किसी की गरदन पर कुल्हाड़ी मारने में रस नहीं आयेगा। उसकी तृप्ति हो गयी--काटने की, मारने की।
किसान कम हिंसक होता है। लेकिन जब किसानी बंद कर दी महावीर के मानने वालों ने--और लड़ तो सकता नहीं था युद्ध के मैदान में, इसलिए क्षत्रिय तो नहीं हो सकता था। और क्षत्रिय ही थे मानने वाले! महावीर तो खुद क्षत्रिय थे! मानने वाले सब क्षत्रिय थे! तो वे लड़ भी नहीं सकते थे युद्ध के मैदान में। उन्होंने युद्ध भी बंद कर दिया और किसानी भी बंद कर दी! तो अब दो ही विकल्प थे--या बनिये हो जायें या भंगी हो जायें। भंगी होना नहीं चाहा उन्होंने, तो वे बनिये हो गये!
लेकिन ध्यान रहे, बनिया बहुत हिंसक हो सकता है। और हुआ। इसलिए उसने बहुत संपत्ति इकट्ठी कर ली। संपत्ति, बिना हिंसा के इकट्ठी नहीं हो सकती! लेकिन तब उसने काटना-पीटना बंद कर दिया था। उसने फिर सूम तरकीबें काटने-पीटने की निकालीं! एक आदमी की गर्दन मत काटो, जेब काटो! जेब काटने से गर्दन कट जाती है! बल्कि एक दफा गर्दन काटना शायद ज्यादा दयापूर्ण हो, जेब काटना ज्यादा हिंसापूर्ण हो जाता है। क्योंकि गर्दन कट जाती तो निपट गया मामला। जेब कट जाये तो गर्दन भी रहती है! जेब भी कट गयी और जिंदा भी रहना पड़ता है! और मरे हुए जिंदा रहना पड़ता है!
तो वह जिन लोगों ने गर्दन काटने से अपने को परिधि पर रोक लिया, उन्हें फिर उन्होंने काटने की नयी तरकीबें ईजाद कीं! इसलिए हिंदुस्तान में महावीर के मानने वालों के पास सबसे ज्यादा पैसे इकट्ठे हुए। उसका कारण था कि उनकी सारी हिंसा कान्सनट्रेटिड हो गयी! उनकी सारी हिंसा सब तरफ से रुक गयी। लड़ना, हिंसा सब तरफ से रुक गयी। एक ही दिशा रह गयी--पैसा! तो पैसे के लिए उन्होंने पूरी--पूरी हिंसा कर दी!
बहुत थोड़ी संख्या है महावीर के मानने वालों की। पच्चीस लाख से ज्यादा नहीं होगी। लेकिन संपत्ति बहुत ज्यादा है! यह संपत्ति कैसे आयी? अगर भीतर से यह बोध आया होता, अगर प्राणों में यह बात लिखी होती तो यह असंभव था कि यह नयी तरह की हिंसा विकसित होती। लेकिन भीतर से कुछ नहीं आया। यह किसी एक की बात नहीं है, सबकी ही बात है। सब तरफ ही यही बात है।
मैंने सुना है एक पादरी है जीसस का। उसने बाइबिल में पढ़ा है कि दुश्मन एक गाल पर चांटा मारे तो दूसरा गाल सामने कर दो। दुश्मन किसके नहीं हैं? एक दुश्मन ने उसको चांटा मारा। और दुश्मन ने चांटा इसलिए मारा कि दुश्मन ने उसी दिन चर्च में उसका भाषण सुना था। और चर्च के भाषण में उसने कहा था कि जीसस कहते हैं कि जो तुम्हारे बांये गाल पर चांटा मारे तो दांया गाल सामने कर दो!
चर्च के बाहर वह पादरी निकला तो दुश्मन ने उसके बांये गाल पर जोर से चांटा मारा! भीड़ इकट्ठी थी, पादरी एकदम से गड़बड़ भी नहीं कर सकता था, क्योंकि अभी चर्च के भीतर से आया था। और कहा था कि दांया गाल सामने कर दो तो पादरी ने दांया गाल सामने कर दिया! उसने उस पर भी एक करारा चांटा मारा। तब पादरी ने उठाकर लकड़ी, उसका सिर फोड़ दिया! तब उस आदमी ने कहा, यह तुम क्या कर रहे हो?
पादरी ने कहा कि जीसस ने कहा है कि बांये गाल पर कोई मारे तो दांया सामने करो। लेकिन दांये पर कोई मारे तो कुछ भी करने को नहीं कहा है! दांये पर कोई मारेगा तो निर्णय हम करेंगे! उसके आगे कुछ लिखा हुआ नहीं है। तुम बांये को मारकर चले गये होते तो बात खत्म हो गयी होती।
तब तो फिर जीसस भी क्या करते? क्या कर सकते हैं? उसने कहा, दांया और बांया दो ही तो होते हैं। एक मारा तो दूसरा कर दिया, तीसरा तो है नहीं! अब तीसरा तो आपके पास है।
होता यह है, और होने वाला ही यह है! परिधि पर जो निर्णय होते हैं, वे ऐसे ही होंगे। कर्म से जो नीति और धर्म पैदा हुआ, वह परिधि पर ही पैदा हुआ है। लेकिन क्या करें? हमारी तकलीफ यह है कि परिधि हमें दिखायी पड़ती है। क्या करें, क्या न करें--वही हमारे सवाल हैं।
मेरी अपनी समझ है कि करने की बात की फिकर मत करें। फिकर उसकी करें कि करने वाला कौन है। वह कौन है भीतर, जो बांये गाल की तरह दांया गाल करता है? वह कौन है, जो हाथ उठाकर तीसरे गाल पर मारता है? वह कौन है, जो खेत पर हिंसा करता है? वह कौन है, जो दुकान पर बैठकर गर्दन काटता है? वह कौन है भीतर? करने वाला कौन है? कर्म नहीं, करने वाला कौन है--उसकी तलाश।र् कत्ता कौन है--उसकी तलाश।
जब मैं उठता हूं तो उठने की फिक्र छोड़ दें। उठता कौन है? जब मैं भोजन करता हूं तो उसकी फिक्र छोड़ दें कि क्या भोजन करता हूं? इसका सवाल है कि भोजन करता कौन है? जब मैं बोल रहा हूं तो यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है कि मैं क्या बोल रहा हूं? सवाल महत्वपूर्ण यह है कि कौन बोल रहा है? कौन है भीतर? प्रत्येक कर्म के भीतर कौन है? हर कर्म के भीतर कौन है?
और ध्यान रहे, कर्म के भीतर जो छिपा है, वह बिलकुल अकर्म है। वह कर्ममुक्त है। और तभी कर्म के भीतर हो सकता है।
बैलगाड़ी का चाक चलता है। चाक चलता है, एक कील बीच में खड़ी रहती है, वह नहीं चलती! उसी कील पर चाक चलता है!
कर्म का जो चाक है, वह अकर्म आत्मा पर चलता है! लेकिन कर्म स्वयं चल नहीं सकता । कर्म के चलने के लिए अकर्म का होना जरूरी है केंद्र में।
भीतर उस केंद्र को पकड़ने की कोशिश करें। चाक नहीं, कील। कर्म नहीं, अकर्म। करना नहीं, होना। वह मैं कौन हूं, जो उठते वक्त उठता है, चलते वक्त चलता है, खाते वक्त खाता है, बोलते वक्त बोलता है, चुप होने के वक्त चुप हो जाता है?
और अगर उसकी थोड़ी-सी भी फिक्र की--आंख बंद कर, आंख खोल कर, ऐसे थोड़ा खो जायें तो एक अदभुत आनंद आपको उपलब्ध होगा। तभी आप उठते हैं। तभी आपके भीतर कोई है, जो उठता नहीं है। जब आप चलते हैं, तब कोई आपके भीतर है, जो चलता नहीं है। जब आप भोजन करते हैं, तब कोई आपके भीतर है, जो भोजन करता ही नहीं है। जब आप बोलते हैं, तब भी कोई आपके भीतर निरंतर अबोला है। जब आप जीते हैं, तब भी आपके भीतर कोई जीवन के बिलकुल पार खड़ा है। जब आप मरते हैं, तब भी कोई आपके भीतर नहीं मरता है।
आपके सारे कर्मों के भीतर बिलकुल अकर्म में ठहरा हुआ एक बिंदु है। वही बिंदु बीइंग, वही बिंदु आत्मा है। उस बिंदु की पहचान करनी जरूरी है।
कर्मयोग नहीं, अकर्म। वह जो अकर्ता, सब कर्म के बीच में खड़ा है।
रास्ते पर चल रहे हैं, जरा भीतर झांककर पता लगायें कि कोई है भीतर, जो चल रहा है? तो बहुत हैरान हो जायेंगे कि बाहर कोई चल रहा है और भीतर कोई भी नहीं चल रहा है! भीतर सन्नाटा है। भीतर कभी कोई चला ही नहीं!
जन्म से लेकर बूढ़े हो जायें आप--जवान होंगे, बीमार होंगे, स्वस्थ होंगे, बूढ़े होंगे, जन्मेंगे । और भीतर कोई है, जो न जन्मता है, न बूढ़ा होता है, न जवान होता है; न बीमार होता है, न स्वस्थ होता है, न मरता है!
वह जो भीतर का बिंदु है, जो सारी लहरों के भीतर शांत सागर है, उसकी पहचान एक क्षण को भी हो जाये तो जीवन दूसरा हो जाये। फिर दुबारा भूल असंभव है--बिलकुल असंभव है।
इन चार दिनों में मैंने तीन बातें कहने की कोशिश की है। ज्ञान नहीं--भीतर वह जो ज्ञान नहीं है, ज्ञाता है। भक्ति नहीं, भाव नहीं--भीतर वह जहां कोई भाव नहीं, सब निर्भाव है। कर्म नहीं--भीतर जहां कोई कर्म नहीं, सब अकर्म है।
निर्विचार, निर्भाव, अकर्म--अगर ये तीन बातें एक सेकेंड में इकट्ठी घट जायें, एक साथ। तो एक सेकेंड में आपके जीवन में वह बिंदु आ जायेगा--बुआइलिंग प्वाइंट, जहां पानी भाप हो जाता है।
मनुष्य की जिंदगी में भी वह बिंदु है, जो इन तीनों की जोड़ से फलित होता है। तब मनुष्य वाष्पीभूत हो जाता है। जहां पानी नहीं रह जाता, भाप रह जाती है। जहां हम नहीं रह जाते, परमात्मा रह जाता है। हम तो उड़ जाते हैं, एवोपरेट हो जाते हैं। "हम' तो फिर पाया ही नहीं जाता। पाया जाता है बस परमात्मा।
न तो ज्ञान ले जायेगा, न भक्ति ले जायेगी, न कर्म ले जायेगा। ज्ञान, भक्ति, कर्म तीनों मन के ही खेल हैं।
इन तीनों के पार जो जायेगा--वही अ-मन, नो-माइंड वही आत्मा, वही परमशक्ति, उसकी अनुभूति में ले जाता है।
तब मुझसे मत पूछें कि मार्ग क्या है? सब मार्ग मन के हैं। मार्ग छोड़ें, क्योंकि मन छोड़ना है।
कर्म छोड़ें, वह मन की बाहरी परिधि है। विचार छोड़ें, वह मन के बीच की परिधि है। भाव छोड़ें, वह मन की आखिरी परिधि है। तीनों परिधियों को एक साथ छोड़ें।
और उसे जान लें, जो तीनों के पार है, दी बियॉन्ड। वह जो सदा पीछे खड़ा है, बाहर खड़ा है, उसे जानते ही वह सब मिल जाता है, जो मिलने योग्य है। उसे जानते ही वह सब जान लिया जाता है, जो जानने योग्य है। उसे मिलने के बाद, मिलने को कुछ शेष नहीं रह जाता। उसे पाने के बाद, पाने को कुछ शेष नहीं रह जाता।
सब शास्त्र जिसके लिए रोते हैं, चिल्लाते हैं! सब ज्ञानी जिसकी तरफ इशारे उठाते हैं और इशारे नहीं हो पाते! सब शब्द जिसे कहते हैं और नहीं कह पाते। सब आंखें जिसे तलाशती हैं और नहीं देख पातीं! सब हाथ जिसको टटोलते हैं और नहीं पकड़ पाते हैं! वह इन तीनों के पार सदा मौजूद है। इन तीनों से जरा-सा द्वार खुल जाये तो वह उपलब्ध ही है।
मार्ग नहीं है--क्योंकि वह दूर नहीं है। क्योंकि वह निकट है, निकटतम है, निकट से भी निकटतम है। वही है।
मार्ग नहीं है, क्योंकि वह वहां नहीं है--यहां है। मार्ग नहीं है।
मार्ग नहीं है--क्योंकि वह कल नहीं है, अभी है--हियर एंड नाउ, अभी और यहीं।
इसलिए मार्ग में मत भटकें। सब मार्ग भटकाते हैं।
सब मार्ग छोड़ दें। खड़े हो जायें, एक सेकेंड को सिर्फ। खड़े होने का प्रयास करते रहें।
भाव के, विचार के, कर्म के--तीनों के ऊपर उठने का प्रयास करते रहें, करते रहें, करते रहें। आपके करने से ऐसा नहीं होगा कि धीरे-धीरे आप उठते जायेंगे। न, करते रहें। लेकिन करते-करते कभी वह टघनग-प्वाइंट आ जायेगा कि तीनों चीजें एक सेकेंड को ठहर जायेंगी और आप अचानक पायेंगे कि आप उठ गये।
९९ डिग्री तक भी पानी भाप नहीं बनता। बस कुनकुना गर्म होता है। गर्म होता है, गर्म होता रहता है--९८ डिग्री पर भी गर्म, ९७ डिग्री पर भी गर्म, ९० डिग्री पर भी गर्म, ९९ पर भी गर्म, ९९.५ पर भी गर्म--गर्म ही होता रहता है। ठीक १०० डिग्री पर पहुंचा कि एक सेकेंड में सब बदल जाता है! पानी नदारद, पानी गया और भाप हो गयी!
ठीक ऐसे ही करते रहें। भाव के बाहर, विचार के बाहर, कर्म के बाहर --खोजते रहें, खोजते रहें। अनजान है वह क्षण, कब आ जाये। किसी भी दिन अचानक आप पायेंगे कि सौ डिग्री पूरी हो गयी!
और अभी तक कोई थर्मामीटर नहीं है कि बाहर से बताया जा सके कि आपकी सौ डिग्री कब पूरी हो गयी। नहीं , आगे भी आशा नहीं है कि कोई थर्मामीटर हो सके। आपको भी पता नहीं है, मुझे भी पता नहीं है, किसी को भी पता नहीं है कि कब किस आदमी की सौ डिग्री पूरी हो जायेगी? किस क्षण में? और जिस क्षण पूरी हो जायेगी, उसी क्षण आप खो जायेंगे। और जो हो जायेगा, वही सत्य है, वही परमात्मा है।
मनुष्य परमात्मा से नहीं मिल पाता। पानी कभी भाप से नहीं मिल पाता? पानी कैसे भाप से मिलेगा? पानी जब मिटेगा, तब भाप होगा। इसलिए पानी कभी भाप से नहीं मिलता।
आदमी कभी परमात्मा से नहीं मिल पाता। आदमी जब राख हो जाता है, मिट जाता है, तब जो रह जाता है, वही परमात्मा है।
मिटें ताकि पा सकें, खो जायें ताकि खोज सकें।
बीज मिटता है तो वृक्ष हो जाता है, बूंद मिटती है तो सागर हो जाती है।
मेरी इन बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें