कानो सूनी सो झूठ सब-(दरिया)
रंजी सास्तर ग्यान की
प्रवचन: दूसरा
दिनांक १२.७. १९७७
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्न सार
1--गैर-पढ़े लिखे लोगों के मन पर शास्त्रों की धूल कैसे जमती है?
2--गुरु के निकट अपना हृदय खोलना इतना कठिन क्यों मालूम पड़ता है?
3--राम सदा कहत जाई, राम सदा बहत जाई?
4--क्या दादू की तरह आप भी सौ साल बाद की भविष्यवाणी करेंगे?
पहला प्रश्न: दरिया साहब पंडित नहीं थे, पढ़े लिखे भी नहीं थे फिर उन
पर शास्त्रों की धूल कैसी जमी, कि गुरु को उसे उड़ाना पड़ा?
पहली
बात, यह जन्म ही तुम्हारी सारी कथा नहीं है। इस जन्म के पीछे बहुत
जन्मों की धूल है। दरिया पढ़े-लिखे नहीं थे यह इस जन्म की बात हुई। लेकिन
जन्मों-जन्मों में न मालूम कितने कितने शास्त्र जाने होंगे, न मालूम कितने शब्द सुने
होंगे। तो एक तो,
जब भी
हम एक जन्म की बात कर रहे हैं तो भूल मत जाना कि इस जन्म के पीछे कतार है, पंक्तिबद्ध जन्म खड़े हैं; पर्त पर पर्त संस्कारों की
है।
तो
छोटा सा बच्चा भी पूरा-पूरा निर्दोष थोड़े ही होता है! सब तरह के दोष भीतर इकट्ठे
पड़े हैं। समय पाकर प्रगट होंगे। अभी बीजरूप हैं, तो दिखाई नहीं पड़ते। जब
अंकुरित होंगे,
और
शाखाएं और पत्ते फैलेंगे तब दिखाई पड़ेंगे। छोटे से छोटा बच्चा भी, जिसकी आंख में अभी कोई धूल
नहीं दिखाई पड़ती वह भी बड़ी आंधियां लिए बैठा है। बड़ी आंधियां भीतर तैयार हो रही
हैं। अभी आंख खाली मालूम पड़ती है। अभी पर्दा खाली मालूम पड़ता है। तैयार हो रहा है।
जल्दी हमले शुरू हो जाएंगे। उसके भीतर छिपे हुए संस्कारों की भीड़ प्रगट होगी।
जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होगा वैसे-वैसे भीड़ उमगेगी, आंधियां उठेंगी, अंधड़ घेरेगा। इसलिए निर्दोष
तो छोटा बच्चा भी नहीं है। लगता है।
निर्दोष
तो केवल संत ही होता है, जिसने
सारे जन्मों की धूल पोंछ डाली। जिसने धूल मात्र पोंछ डाली। जिसका कुछ पीछा न रहा
और जिसका कुछ आगा भी न रहा। जिस दिन पीछा नहीं रह जाता उसी दिन आगा भी नहीं रह
जाता। क्योंकि पीछे से ही आगा पैदा होता है। अतीत ही भविष्य का निर्माता है, निर्माता है। अतीत ही भविष्य
की कुंजी है।
तुम जो
रहे हो पहले और तुमने जो संग्रहीत कर लिया है वही तुम्हारे भविष्य को भी प्रभावित
करता रहेगा। जिस दिन अतीत से पूरा छुटकारा हो जाता है उसी दिन व्यक्ति भविष्य से
भी छूट गया। जिस दिन पुराने सारे संस्कारों की धूल विदा हो गई उस दिन करने को कुछ
भी न बचा;
दर्पण
खाली हो गया।
इसको
भी हम ठीक-ठीक बचपन कहते हैं। संत ही बालक होता है। बालक बालक नहीं है, बालक तो केवल बड़े होने की
तैयारियां हैं। बालक तो प्रतीक्षा कर रहा है कि कब तैयार हो जाए, कब कूद पड़े संसार में। बालक
तो संसार के किनारे खड़ा प्रशिक्षण ले रहा है संसार का।
जो
संसार में उतर चुका, बहुत
बार उतर चुका,
ऊब
चुका, हार चुका, हताश हो चुका, जिसने देख लिया संसार सब
कोनों से;
सब तरफ
से पहचान लिया और पाया कि व्यर्थ है, कूड़ा करकट है। सोना इसमें है ही नहीं। हीरे
यहां पाए ही नहीं जाते। जिसने असफलता को परिपूर्णता से पहचान लिया, जिसकी हार आखिरी हो गई, वह आदमी संसार की आंधियों के
बाहर निकल आता है। तब सच्चे अर्थों में बच्चा हुआ।
इसको
ही हम द्विज कहते हैं क्योंकि यह दूसरा जन्म हुआ। एक जन्म मां-बाप से मिला था; मन तो पुराना ही रहा था। बोतल
बदल गई थी,
शराब
तो पुरानी ही रही थी। पुरानी शराब को भी नई बोतल में रखो तो भ्रम पैदा होता है कि
शराब नई है। बच्चे ही देह नई है, बच्चे
का संस्कार थोड़े ही नया है! बच्चे के प्राण तो बड़े प्राचीन हैं। उतने ही प्राचीन
हैं जितना यह संसार प्राचीन है। हम सदा से चल रहे हैं इस संसार में। हमने न मालूम
कितनी यात्राएं की हैं। हमने न मालूम कितने-कितने मार्गों पर भीख मांगी है। और
हमने न मालूम कितने-कितने दुख झेले हैं, कितने विषाद पाए हैं, कितनी चिंताओं से गुजरे हैं।
और हमने बहुत बार शास्त्र भी पढ़े हैं। अगर खुद भी न पढ़े हों तो सुने हैं।
और
शास्त्र तो हवा में तैर रहे हैं। कोई पढ़ा-लिखा होना थोड़े ही जरूरी है! शास्त्रों
की धूल तो हवाओं में उड़ रही है। शब्द तो हवा में तैर रहे हैं। संस्कार को पकड़ने के
लिए पढ़ना-लिखना ही थोड़ी आवश्यक है। संस्कार से मुक्त होने के लिए दूसरे से मुक्त
होना जरूरी है,
सिर्फ
शास्त्र से मुक्त होने से न चलेगा। लोगों की बात तो सुनते हो!
बच्चा
बड़ा होगा तो मां-बाप की बात सुनेगा, परिवार की बात तो सुनेगा, आस-पास की बात, खबरें तो सुनेगा, मंदिर का घंटा नाद तो सुनेगा।
मंदिर में होती पूजा तो देखेगा। पंडित दोहराएगा शास्त्र, तोते गुनगुनाएगे शास्त्र, बच्चा सुनेगा। संस्कार पड़ने
लगे। पढ़ने से थोड़े ही संस्कार पड़ते हैं! अगर पढ़ने से ही संस्कार पड़ते होते तो गैर
पढ़े-लिखे तो सभी मुक्त हो जाते।
गैर
पढ़ा-लिखा ही संस्कार इकट्ठे करता है। उसके संस्कार इकट्ठे करने के ढंग जरा पुराने
ढंग के हैं। वह नए ढंग से इकट्ठा नहीं करता; निजी ढंग से शास्त्रों में नहीं जाता। कोई
दूसरा शास्त्रों में गया है, उसकी
सुन लेता है।
तो
पहली तो बात: एक जन्म के पीछे अनंत जीवन कतारबद्ध है।
दूसरी
बात। अगर न भी पढ़े-लिखे हो, कुछ
भेद नहीं पड़ता। शास्त्र तो सब तरफ तैर रहे हैं। उनकी गूंज हो रही है। मस्जिद के
पास निकलोगे तो अल्लाह का नाम सुनाई पड़ जाएगा। मंदिर के पास से निकालोगे तो राम का
नाम सुनाई पड़ जाएगा। सुन लिया कि संस्कार बना। मां को पूजा करते देखोगे, पिता को पूजा करते देखोगे, झुकते देखोगे कहीं मंदिर में।
संस्कार
बहुत-बहुत रूपों में चारों तरफ से आते हैं। असंस्कारित रह जाना असंभव है। कोई उपाय
नहीं है। किसी न किसी तरह का संस्कार तो पड़ेगा ही। असंस्कारित होने का तो एक ही
उपाय है कि किसी दिन जागकर तुम सारे संस्कारों को, संस्कारों में हुए
तादात्म्यों को तोड़ दो। किसी दिन जागकर पोंछ डालो सारी धूल।
सोए-सोए
तो धूल इकट्ठी होती ही है। ऐसा मत सोचना कि हम सोए थे तो कैसे धूल इकट्ठी होगी? सपनों में धूल उड़ती रहेगी।
रात तुम सो जाओ तो भी हवा में धूल है, तुम्हारे कपड़ों पर जमती रहेगी। सुबह तुम
पाओगे,
कपड़े
थोड़े गंदे हो गए। तुम तो सोए ही रहे थे, तुमने कुछ भी न किया था। धूल तो चल ही रही
है।
और
जितने तुम सोए हुए हो उतनी जल्दी धूल जम जाती है। क्योंकि झाड़ने वाला तो मौजूद
नहीं है। जागो तो झाड़ने वाला तैयार होता है। प्रतिपल पड़ती धूल को झाड़ता जाता है, इकट्ठी नहीं होने देता। बहुत
पत्ते इकट्ठी नहीं होने देता।
वह जो
दरिया ने कहा कि शास्त्रों की जो धूल मुझ पर जमी थी गुरु ने एक फूंक मार दी, एक शब्द से सब उड़ गई। क्या
अर्थ होगा इसका?
इतने
संस्कारों की पुरानी और एक शब्द से उड़ गई! जंचती नहीं बात। गणित की नहीं मालूम
होती, बेबूझ लगती है। लेकिन जरा भी
बेबूझ नहीं है;
गणित
की है।
जैसे
कि किसी कमरे में हजारा साल से अंधेरा हो और तुम दिया ले आओ तो क्या तुम सोचते हो
कि अंधेरा कहेगा,
मैं
हजार साल पुराना हूं, इतनी
आसानी से हटूंगा नहीं। हजार साल पुराना हो कि करोड़ साल पुराना हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? आया दिया, कि गया
अंधेरा। आते ही गया। एक क्षण भी झिझक नहीं सकता। एक क्षण भी यह नहीं कह सकता कि
मैं कोई नया वासी नहीं हूं इस कमरे का। कोई ऐसा नहीं कि कल ही रात आकर ठहर गया
हूं। यह कोई धर्मशाला नहीं है, यह
मेरा घर है। यहां मैं हजारों-करोड़ों साल से रहा हूं। और ऐसे तुम आ जाओ और मुझे अलग
कर दो,
यह
नहीं चलेगा। नहीं,
अंधेरा
कुछ भी नहीं कर सकता। अंधेरा नपुंसक है। बल ही नहीं है अंधेरे में। अंधेरा का कोई
अस्तित्व ही नहीं है। जरा सी किरण, दिए की जरा सी लपट, और बड़े पुराने अंधेरे को तोड़
देती है।
ऐसा ही
होता है गुरु के पास। वह सत्य की जो छोटी सी किरण है, पर्याप्त है, सारे शास्त्रों की धूल को झाड़
देने के लिए। क्यों पर्याप्त है? क्योंकि
जो तुमने शब्द से पकड़ा है, सुन कर
पकड़ा है वह तुम्हारा तो नहीं है। जो तुम्हारा नहीं है वह झूठ है।
मुझे
इसे दोहराने दो। इसे तुम गांठ बांध लेना: जो तुम्हारा नहीं है वह झूठ है। झूठ का
और कोई अर्थ नहीं होता। झूठ का यह अर्थ नहीं होता कि तुम जो कह रहे हो वह झूठ है। वह हो सकता है कि झूठ
न हो, क्योंकि वही किसी संत ने कहा
हो। लेकिन जब संत ने कहा था तो सच था, जब तुमने दोहराया तो झूठ हो गया। तुम्हारा
दोहराना तो तोता-रटंत है। तोता-रटंत में कैसे सच हो हो सकता है?
दरिया
ने कुछ कहा--सच। कहा दिया, अब तो
शब्द तुम्हें मालूम है, तुम
याद कर लो,
दरिया
के पद कंठस्थ कर लो। और हो सकता है तुम्हारा कंठ दरिया से बेहतर हो। और हो सकता है
तुम दरिया से ज्यादा शुद्ध भाषा का उच्चार कर सको। हो सकता है दरिया भी तुम्हारे
सामने शब्द दोहराएं तो तुम्हारा शब्द ज्यादा बलशाली मालूम पड़े।
अंधों
की इस दुनिया में बड़ी अड़चन है। यहां कभी-कभी तो झूठ बड़ा बलशाली मालूम पड़ता है
क्योंकि झूठ हजार तर्क जुड़ा लेता है। कभी-कभी सच यहां बिलकुल ही शक्तिहीन मालूम
पड़ता है। क्योंकि सच तर्क तो जुटाता नहीं। सच कोई प्रमाण तो इकट्ठे नहीं करता। सच
तो बड़ा नग्न होता है। आभूषण भी नहीं होते, वस्त्र भी नहीं होते, सजावट भी नहीं होती। और तुम
आभूषण,
वस्त्रों
और सजावट में इतने उलझ गए हो, कि जब
कोई सत्य नग्न खड़ा हो जाए तो तुम पहचान ही न सकोगे।
मैंने
सुना, दो छोटे बच्चे एक न्यूडिस्ट
कैम्प के पास से निकल रहे थे। नंगों की बस्ती थी। दीवाल से झांककर दीवाल में छेद
थे--नाली का छेद--उसमें से दोनों ने भीतर देखा, वहां सभी लोग नग्न थे। स्त्रियां भी नग्न
थीं, पुरुष भी नग्न थे। दोनों
छोटे-छोटे बच्चे होंगे छह-सात साल के, अपना बस्तर लटकाए स्कूल से
लौटते थे। दोनों बड़े विचार में पड़ गए कि कौन स्त्री है, कौन पुरुष? क्योंकि उन्होंने कभी नंगी
स्त्री,
और
नंगे पुरुष देखे नहीं थे वे तो एक ही फर्क जानते थे कि साड़ी पहने हो तो स्त्री, और साड़ी न पहने हो तो पुरुष।
आज बड़ी मुश्किल में पड़ गए। घर लौटकर आए तो उन्होंने अपने मां-बाप को कहा कि हम
नंगों की बस्ती से गुजरते थे, हमने
देखा झांककर। तो मां ने पूछा कि कौन थे वहां, आदमी था कि औरतें? उन्होंने कहा, अब हम कैसे बताएं? वस्त्र तो पहने ही नहीं थे।
उन
बच्चों की बात समझे? बच्चों
की पहचान तो वस्त्रों की पहचान है। मगर तुम्हारी पहचान भी वस्त्रों से ज्यादा कहां
है सत्य अगर नग्न खड़ा होगा, तुम न
पहचान सकोगे। तुम तो सत्य के वस्त्र पहचानते हो। अगर हिंदू के वस्त्र पहने खड़ा है
और तुम हिंदू के घर में पैदा हुए हो तो, तो पहचान लोगे कि हां, ठीक है। यही तो लिखा है
रामायण में;
यही तो
गीता कहती है। और अगर तुम इस्लाम के परिवार में पैदा हुए हो तो शायद न पहचाना पाओ
क्योंकि यह वस्त्र अपरिचित है। तुम तो कुरान की आयत होगी तो पहचान पाओगे।
मगर
सत्य क्या कुरान से बंधा है कि गीता से बंधा है? सत्य के क्या कोई वस्त्र हैं? सत्य तो निर्वस्त्र है। वस्त्र तो हमने ओढ़ा दिए। वस्त्र तो हमने
लगा दिए। वस्त्र तो हमारा दान है सत्य को।
तो खयाल
रहे, कभी-कभी तुम ठीक वे ही शब्द
उपयोग करते हो जो संतों ने किए, फिर भी
तुम्हारे शब्द झूठे होते हैं और संतों के सच। सच का शब्दों से कुछ नाता नहीं है, अनुभव से नाता है। तुम्हारे
अनुभव से जो आए,
सत्य; उधार जो हो, बासा जो हो, झूठ। यही कसौटी है।
तो
शास्त्रों से जो सुना था वह झूठ था। खयाल रखना, फिर दोहरा दूं। ऐसा मत समझ लेना कि
शास्त्रों में जो लिखा है, वह झूठ
है। शास्त्रों को दोहराओगे तो झूठ हो जाएगा। शास्त्रों में जो लिखा है, अगर तुम्हारा भी अनुभव हो जाए
तो सच हो जाएगा।
तो
दरिया कहते हैं कि धूल बहुत जमी थी शास्त्रों की, गुरु ने एक फूंक मार दी और उड़
गई। सत्य की एक किरण आई और जन्मों-जन्मों का अंधेरा, झूठ का अंधेरा टूट गया। झूठ
अंधेरे जैसा है,
सत्य
प्रकाश जैसा। फिर एक ही किरण काफी है कोई पूरे सूरज को थोड़े ही घर में लाना पड़ता
है! एक छोटा सा दिया काफी है। इसलिए कहा, एक शब्द से।
सच तो
यह है कि शब्द कि भी शायद जरूरत न पड़ी होगी। यह सब कहने की बात है। गुरु की
मौजूदगी काफी हो गई होगी। वह मौजूदगी का संस्पर्श, वह मौजूदगी की चोट, वह गुरु की उपस्थिति, वह आघात तोड़ गया होगा अंधेरे
को। शास्त्रों की धूल झड़ गई।
जिस
दिन शास्त्रों की धूल झड़ जाती है उसी दिन तुम्हें अपने भीतर का शास्त्र उपलब्ध
होता है। उसी दिन फिर तुम बासे नहीं रह जाते। अब तुम स्वयं जानते हो। अब ये बातें
तुम्हारी मान्यता की नहीं है, अब यह
तुम्हारा अपना अनुभव, अपनी
प्रतीति,
अपना
साक्षात्कार,
अब तुम
स्वयं गवाह हो। अब तुम यह न कहोगे, गीता कहती है इसलिए सच। अब तुम कहोगे मैं
कहता हूं। अब तुम इसलिए नहीं कहोगे सच, कि कुरान में लिखा है। अब तुम कहोगे कि वह
कुरान सच है क्योंकि मेरे अनुभव में आ गया है। पहले तुम कहते थे मेरी मान्यता ठीक
है क्योंकि कुरान में लिखी है। कुरान प्रथम था, तुम द्वितीय थे। अब तुम प्रथम हुए, कुरान द्वितीय हुआ।
जिस
दिन शास्त्र नंबर दो हो जाता है, जिस
दिन तुम प्रथम हो जाते हो, जिस
दिन तुम अपनी छाती पर हाथ रखकर कह सकते हो यह मेरा अनुभव, जिस दिन तुम कह सकते हो कि
मैंने भी जाना जो शास्त्र में लिखा है, उस दिन शास्त्र को पकड़े रहने की कोई जरूरत
नहीं रह जाती। क्या जरूरत रही? जिसके
पास अपनी अनुभूति की संपदा है वह शास्त्र को भूल जाए।
और मजा
यह है कि जो शास्त्र को भूल सकता है वही शास्त्र का सबसे बड़ा व्याख्याकार है। यह
विरोधाभास है। जो शास्त्र की धूल से मुक्त हो गया, वही शास्त्रज्ञ है। उसने ही
जाना, उसने ही पहचाना। वही जो कहेगा, फिर शास्त्र बन जाएगा। दरिया
की वाणी शास्त्र बन गई। धूल झाड़ दी गुरु ने दरिया की, और दरिया की वाणी शास्त्र बन
गई। समझने की बात इतनी ही है, शास्त्रों
में जो लिखा है,
जिन्होंने
लिखा था सच ही जानकर लिखा था; लेकिन
लिखे हुए को जब तुम मान लेते हो तो तुम्हारे पास आकर सब झूठ हो जाता है।
मैंने
प्रेम किया,
मैंने
प्रेम जाना,
मैंने
तुमसे प्रेम की बात कही। तुमने न कभी प्रेम किया, न कभी प्रेम जाना, बात सुनी, पकड़ ली, दोहराने लगे। तुम्हारे लिए
बात सब झूठी-झूठी है; थोथी, उथली-उथली है। तुम स्वयं उसके
गवाह नहीं हो। आंख देखी नहीं है, कानों
सुनी है: कानों सुनी सो झूठ सब। अपनी देखी हो।
इसीलिए
तो हम द्रष्टा को मूल्य देते हैं, श्रोता
को नहीं। क्यों द्रष्टा को मूल्य देते हैं? आंख से देखी हो। परमात्मा आंख के सामने देखा
गया हो। कान से सुना गया हो, फिर
किसी की कही हुई बात अफवाह है। कौन जाने ठीक हो। कौन जाने न ठीक हो। भरोसे की बात
है। जब तुम किसी पर भरोसा करते हो तो यह कभी पूर्ण श्रद्धा तो हो ही नहीं सकती।
पूर्ण श्रद्धा तो सिर्फ अपने ही अनुभव पर होती है, निज अनुभव पर होती है। दूसरे
पर तो थोड़ा न बहुत शक बना ही रहता है, कि कौन जाने। आदमी तो भला है, भरोसे योग्य है। न चोरी की
कभी न किसी को धोखा दिया है, न
बेईमानी की है,
तो ठीक
ही कहता होगा मगर कौन जाने! यह भी तो हो सकता है कि खुद ही भ्रम में पड़ गया हो।
झूठ भी कहता हो मगर खुद ही भ्रम में पड़ गया हो। खुद ही धोखा खा गया हो। यह भी तो
हो सकता है क्योंकि मृग-मरीचिकाएं भी तो होती हैं।
रेगिस्तान
से एक आदमी आए--सत चरित्र, सब तरह
से परखा जोखा,
और कहे
कि मैंने एक मरूद्यान देखा। दूर मैंने एक मरूद्यान देखा। इसकी बात झूठ नहीं होगी
क्योंकि यह झूठ बोलने का आदी नहीं है। तुम मान ले सकते हो ठीक कहता है लेकिन दूर
देखा मरूद्यान हो सकता है मृग-मरीचिका रही हो। मरीचिका भी होती है। फिर जो आदमी आज
तक झूठ नहीं बोला वह आज झूठ बोल सकता है। ऐसी अड़चन क्या है? जो आज तक झूठ बोलता रहा वह आज
सच बोल सकता है। एक क्षण में रूपांतर हो सकते हैं। कहावत है, हर संत का अतीत है, और हर पापी का भविष्य। अगर जो
आदमी आज तक झूठ बोला है, कभी सच
बोल ही न सके,
फिर तो
कोई आशा ही न रही;
फिर तो
कोई संभावना ही न रही। जो आदमी आज तक पाप ही करता रहा है, हत्यारा है, झूठा है, चोर है, बेईमान है वह भी तो किसी दिन
बाल्या भील की तरह वाल्मीकि बन जाता है।
तो कौन
जाने, जो आदमी बिलकुल झूठ बोलता रहा
हो वह आज सच बोल रहा हो। और कौन जाने, क्योंकि संत भी भ्रष्ट हो जाते हैं, पतित हो जाते हैं। योगभ्रष्ट
शब्द है हमारे पास। गिर जाते हैं ऊंचाइयों से। सच तो यह है, जो ऊंचाइयों पर होता है वही
गिर सकता है। जो नीचाइयों पर होता है वह गिरेगा कैसे? इसलिए भोग भ्रष्ट शब्द हमारे
पास नहीं है,
योगभ्रष्ट।
भोगी तो कैसे भ्रष्ट होगा? कहां
भ्रष्ट होगा?
अब
गिरने को और जगह कहां है? गिरा
ही हुआ है। आखिरी जगह तो पहले से ही है।अब इसके पार और कहां गिरेगा? स्वर्ग से लोग गिरते हैं, नर्क से नहीं गिरते। नर्क से
कहां गिरेंगे?
नर्क
से गिरे तो सौभाग्य। क्योंकि नर्क से गिरेंगे तो कहीं न कहीं पर ऊपर ही गिरेंगे, नीचे तो और बचा नहीं कुछ।
तो जो
आदमी आज तब सच्चा था, ईमानदार
था, सब तरह से ठीक था, वह आज झूठ हो सकता है। भरोसा
कैसे करोगे दूसरे पर?
और फिर
शास्त्र जिसने लिखा हो वह कब हुआ इसका भी पता नहीं, कौन था इसका भी पता नहीं।
किसी जाननेवाले ने लिखा कि दूसरों के उधार, उच्छिष्ट को इकट्ठा करके लिख दिया! सभी
किताबें अनुभव से तो नहीं लिखी जातीं। सौ में से एकाध किताब कभी अनुभव से लिखी
जाती है। निन्यानबे किताबें तो सब उधार और बासी होती हैं।
तो
कैसे भरोसा करोगे?
इसलिए
संदेह तो बना ही रहेगा। अनुभव से ही जाता है संदेह--समग्रीभूत। और जब तुम्हें अपने
पर अनुभव आ जाता है, अपने
पर भरोसा आ जाता है, अपनी
में प्रतीति हो जाती है, उस दिन
तुम्हारे लिए सारे शास्त्रों में--ध्यान रखना सारे शास्त्रों में;फिर ऐसा नहीं होता कि हिंदू
शास्त्र ठीक हो गए और जैन शास्त्र गलत हो गए और मुसलमान शास्त्र गलत हो गए। नहीं, जिस दिन तुम्हें अपना अनुभव
होता है,
उस दिन
तुम पाते हो कि अल्लाह के नाम से जिसको पुकारा गया है वह यही है। और राम के नाम से
जिसको पुकारा गया है वह भी यही है। उस दिन सारे शास्त्र, सारे पृथ्वी के शास्त्र सत्य
हो जाते हैं। तुम्हारा एक छोटा सा अनुभव सारे जगत के मनीषियों के लिए गवाही बन
जाता है। तुम प्रमाण हो जाते हो। और कोई प्रमाण नहीं है। परमात्मा का और कोई
प्रमाण नहीं है। जब तक तुम ही प्रमाण न हो जाओ तब तक कोई प्रमाण नहीं है।
रामकृष्ण
से किसी ने पूछा है कि आप ईश्वर का कोई प्रमाण दें। रामकृष्ण ने कहा, मैं मौजूद हूं। तुम देखो मेरी
आंखों में। तुम पकड़ो मेरा हाथ। तुम नाचो मेरे साथ। तुम बैठो प्रार्थना में मेरे
निकट, मैं मौजूद हूं। वह आदमी थोड़ा
तिलमिला गया। उसने कहा कि यह तो ठीक है, आप मौजूद हैं वह मुझे पता है। मैं प्रमाण
मांगता हूं परमात्मा का। अब और क्या प्रमाण हो सकता है? रामकृष्ण कहते हैं, झांको मेरी आंखों में, पकड़ो मेरा हाथ, चलो मेरे साथ, उठो-बैठो मेरे पास, डूबो। मैं प्रमाण हूं। लेकिन
वह आदमी तो राजी नहीं होता। वह कहता है, हम प्रमाण मांगने आए हैं, आपको थोड़े ही मांगते हैं।
आपसे क्या होता है?
यह
अंधा आदमी है। रामकृष्ण का जवाब एकमात्र जवाब है; और जवाब हो भी नहीं सकता। तुम
प्रमाण हो सकते हो, तुम
प्रमाण दे नहीं सकते।
जिस
दिन शास्त्रों की धूल झड़ गई होगी दरिया की, उस दिन दरिया स्वयं शास्त्र बने। उस दिन
उनकी वाणी वेद हो गई। उस दिन उनकी वाणी में उपनिषद का सार आ गया। उस दिन उनकी वाणी
में कुरान का गीत आ गया। ये मुसलमान; लेकिन उस दिन से फिर न मुसलमान रहे न हिंदू
रहे। उस दिन से तो बस धार्मिक हो गए। धार्मिक आदमी न हिंदू होता है, न मुसलमान है, न ईसाई। धार्मिक आदमी तो बस
धार्मिक होता है। और सारे जगत की संपदा उसकी अपनी होती है।
दूसरा प्रश्न: शिष्य गुरु के निकट हो और अपना हृदय खोले, इसका क्या तात्पर्य है? कृपया अच्छी तरह से समझाएं।
और आखिर यह इतना मुश्किल क्यों है और भय क्यों होता है?
तात्पर्य
में गए तो भटके। बात सीधी साफ है, उलझाओ
मत। शिष्य गुरु के निकट हो। निकट होने का अर्थ होता है शिष्य अपी रक्षा न करे।
तुम
सदा अपनी रक्षा कर रहे हो। तुम अगर गुरु के पास भी जाते हो तो बस एक सीमा तक जाते
हो--जहां तक तुम्हें लगता है खतरे के बाहर हो। तुम गुरु से भी अपनी रक्षा करते हो।
तुम बड़े भयभीत हो। तुम डरे रहते हो कि कहीं कुछ ऐसा न गुरु कर दे, जो मेरे खिलाफ है। क्योंकि
तुम झूठ हो,
इसलिए
गुरु को ऐसा तो करना ही पड़ेगा जो तुम्हारे खिलाफ जाएगा। तुम जैसे हो इसे तो मिटाना
ही होगा;
तुम
जैसे हो ऐसे तो तुम्हें मारना ही होगा; तो ही तुम्हारा नया जन्म होगा।
शिष्य
का निकट होने का एक ही अर्थ होता है, वह अपने शस्त्र रख दे। वह कह दे कि अब मैं
निरस्त्र हुआ। यह मैंने छोड़ दी मेरी तलवारें और कवच, और ढाल और तीर-कमान, ये सब मैंने छोड़ दिए। अब मैं तुमसे लडूंगा नहीं। अब
तुम्हें मुझे मारना हो तो मार डालो, बचाना हो तो बचा लो। अब तुम्हें जो करना हो, जैसी तुम्हारी मर्जी।
निकट
होने का अर्थ है,
आज मैं
अपनी मर्जी से छोड़ता हूं। यही संन्यास का अर्थ है, यही शिष्य का अर्थ है, यही दीक्षा का अर्थ है कि आज से मैं अपनी मर्जी छोड़ता हूं।
अपनी मर्जी से रहकर मैंने देख लिया। भटका, दुख पाया, कहीं पहुंचा नहीं। अपनी मर्जी
के सब आयोजन कर लिए, सब तरफ
विफलता हाथ लगी,
अपने
से जो मैंने किया,
गलत
गया।
अहंकार
के साथ लंबी यात्रा कर-करके आए हो तुम। गौर से देख लो अपनी अहंकार की यात्रा को।
कहां पहुंचे हो?
अगर
कहीं पहुंच रहे हो तब तो कोई जरूरत नहीं है गुरु की। अगर तुम्हें लग रहा है कि
यात्रा बिलकुल ठीक चल रही है, तुम
मार्ग पर हो,
चित्त
में सुगंध बढ़ रही है, शांत
बढ़ रही है,
आनंद
की वर्षा हो रही है, मेघ
घिर रहे हैं,
और भी
वर्षा होगी। ऐसी तुम्हें प्रतीति होती है तो गुरु की कोई जरूरत नहीं है, दीक्षा की कोई जरूरत नहीं है।
तुम ठीक रास्ते पर हो। तुम चले जाओ, चलते जाओ। फिर न कोई समर्पण चाहिए, न किसी के निकट होने की कोई
आवश्यकता है।
लेकिन
अगर ऐसा मालूम न पड़ता हो, लगता
हो कि हाथ खाली के खाली हैं। और जिन चीजों को भी संपदा समझा आखिर में पाया कि वह
सब ठीकरे सिद्ध हुए। स्वर्ण समझ कर गए थे लेकिन केवल पीतल को चमकता हुआ पाया।
हीरे-जवाहरात समझकर जिस इकट्ठा किया था वे केवल कांच के टुकड़े थे। अगर हर जगह विफलता
हाथ लगती हो,
और हर
जगह हार हाथ लगती हो, और ऐसा
लगता हो कि जीवन विषाद से विषादमय होता जा रहा है, और तुम नरक की यात्रा पर हो, तो फिर जरूरत है कि तुम किसी
का हाथ हो;
तुम
किसी के चरणों में गिरी और तुम कह दो कि अब आपकी मर्जी मेरी मर्जी होगी।
निकट
होने का अर्थ है,
तुमने
अपना संकल्प छोड़ा। संकल्प का त्याग है निकटता। अगर कहीं भीतर तुम अपने संकल्प को
अभी बचाए हुए हो,
अगर
तुमने गुरु के पास दीक्षा भी ली है, संन्यस्त भी हुए हो, और यह भी तुम्हारा ही संकल्प
है, तो तुम चूकोगे; तो तुम दूर रहोगे। तुमने कहा
कि यह मेरा निर्णय है कि मैं संन्यास लेता हूं। संन्यास भी ले लोगे और चूक भी
जाओगे,
क्योंकि
तुम्हारा निर्णय?
तो फिर
तुम्हारी अभी पुरानी मर्जी कायम है। अभी पुरानी अकड़ कायम है। रस्सी जल गई, अकड़ नहीं गई। अब तुम आखिर
अवस्था में भी अपनी अकड़ को बचाने की कोशिश कर रहे हो। तुम कहते हो, मैंने संन्यास लिया। मैंने
दीक्षा ली। अभी भी मैं बचा है, अभी भी
मैं बोल रहा है। अभी भी मैं काफी मुखर है तो चूक गया। तो तुम चरण पकड़कर भी बैठ जाओ
तो भी तुम हजारों कोस दूर हो।
और अगर
तुमने मैंने लिया है ऐसे भाव से नहीं, वरन इस अनुभव से कि मैं तो हार चुका--हारे
को हरिनाम;
मैं तो
हार चुका,
अब मैं
क्या लूंगा?
अब तो
अपनी हार में इन चरणों में गिर जाता हूं। तब तुम्हारी प्रतीति बड़ी भिन्न होगी।
तुम्हारी प्रतीति ऐसी होगी, गुरु
ने दीक्षा दी। तुमने ली ऐसा नहीं, गुरु न
दीक्षा दी;
तुम्हें
प्रसाद दिया। और उसी घड़ी से तुम पास होने लगे। फिर तुम हजार कोस दूर भी रहे गुरु
से तो कुछ भेद नहीं पड़ता। तुम निकट हो।
निकट
का अर्थ भौतिक निकटता नहीं। निकट का अर्थ शारीरिक निकटता नहीं। निकट का अर्थ है, आत्मिक निकटता। और आत्मिक
निकटता तभी होती है जब तुम्हारा अहंकार, संकल्प, तुम्हारी पुरानी अकड़ खो जाए। तुम एक ढेर की
तरह होकर गिर जाओ चरणों में।
शिष्य
गुरु के निकट हो और अपना हृदय खोले इसका क्या तात्पर्य?
और
हृदय खोलने का अर्थ होता है, तुम
कुछ छिपाओ मत। तुमने सब से छिपाया है, तुमने अपने प्रेमी से भी छिपाया है। तुमने
अपने राज कायम रखे हैं। तुमने अपनी पत्नी से भी पूरी बात नहीं कही है। तुमने अपने
पति से भी पूरा राज नहीं कहा है। तुमने कुछ बातें छिपा रखी हैं। तुम रोज छिपाते
हो। तुमने कभी भी कही अपने हृदय को पूरा
नहीं खोला है। खोल भी नहीं सकते थे। तुम्हें मैं दोष भी नहीं देता, क्योंकि जिनके भी सामने तुम
पूरा हृदय खोलते वे वही तुम्हारे खिलाफ हो जाते।
तो
तुम्हारा डर नैसर्गिक है। अगर तुम अपनी पत्नी से आकर कह देते कि आज रास्ते पर एक
सुंदर स्त्री को गुजरते देखकर मेरा मन ऐसा हो आया कि काश में इससे विवाह कर लूं, तो अड़चन ही खड़ी होगी। इसकी
बहुत कम संभावना है कि तुम्हारी पत्नी समझे। पत्नी सिर पीटने लगेगी, हाथ-पैर मारने लगेगी, रोने लगेगी, धुवा-उपद्रव मचा देगी, पास पड़ोस के लोगों को इकट्ठा
कर देगी। और तुम्हें कभी क्षमा नहीं कर पाएगी। और उस दिन से तुम पर ज्यादा पाबंदी
और ज्यादा इंतजाम शुरू हो जाएंगे। तुम्हें कहीं अकेला भी न जाने देगी। किसी स्त्री
की तरफ आंख उठाकर देखोगे तो तुम्हें अपराध के भाव से भर देगी।
तो कह
भी नहीं सकते हो। इसे तो सरकाकर रख देना होगा। इसे छिपाना होगा। इसे प्रगट नहीं
किया जा सकता। हृदय को खोला नहीं जा सकता। क्योंकि तुम्हारे चारों तरफ लोग हैं, जो चाहते हैं तुम्हें, एक खास ढंग का जीवन तुम
बिताओ। चुनाव करते हैं जो। कहते हैं, ऐसे होना तो स्वीकार हो; अगर ऐसे हुए तो अस्वीकार हो
जाओगे। तुमने अगर अपनी कमजोरियां प्रगट कीं तो तुम निंदित हो जाओगे। तुमने अपने
हृदय को खोलकर अगर वैसा ही रख दिया जैसा तुम्हारे भीतर है--कच्चा बिना रंग-रोगन
लगाए, बिना टच-अप के, जैसा है कच्चा; सुंदर तो सुंदर, कुरूप तो कुरूप, अनगढ़, बेबना--ऐसा का ऐसा रख दिया तो
तुम्हें कोई भी सम्मान न देगा। सम्मान तो तुम्हारे पाखंड को मिलता है। तो जितना
बड़ा पाखंडी उतना सम्मानित हो जाता है।
तो
तुम्हें दिखाना पड़ता है--चाहे तुम महात्मा हो या न हो--तुम्हें दिखाना पड़ता है कि
महात्मा तुम हो। तुम आखिरी दम तक दिखाने की कोशिश करते हो कुछ, जो तुम नहीं हो। और छिपाने की
कोशिश करते हो वह,
जो तुम
हो।
यह
तुम्हारे जीवन की प्रक्रिया है। इसी प्रक्रिया को गुरु के पास ही रखोगे जारी तो
फिर तुम्हें गुरु मिला ही नहीं। और फिर जिस गुरु से डरना पड़े तुम्हें वैसा ही, जैसे तुम पत्नी से डरते हो, पति से डरते हो पिता से, मां से डरते हो, मित्र से डरते हो, ग्राहक से डरते हो, मालिक से डरते हो, नौकर से डरते हो अगर ऐसा ही
तुम्हें गुरु से भी डरना पड़े तो यह गुरु भी सांसारिक है। समझना: गुरु तभी सांसारिक
नहीं है,
जिसके
सामने तुम सब खोलकर रख दो और उसकी आंख में जरा सा भी निंदा का भाव न उठे। निंदा का
भाव जिसकी आंख में उठ आए, वह
गुरु नहीं है।
इसलिए
तुम्हारे सौ गुरुओं में से निन्यानबे तथाकथित हैं, सांसारिक हैं। तुम्हें डराए
हुए हैं वे। उतना ही डराए हुए हैं जितना कोई और डराए हुए है। सच तो यह है कि तुम
अपने तथाकथित महात्माओं के पास और भी ज्यादा डर जाते हो, जितना तुम और कहीं डरते हो।
अपने महात्मा से तुम यह भी नहीं कह सकते कि मैं चाय पीता हूं। क्योंकि चाय यानी
पाप। तुम अपने महात्मा से यह भी नहीं कह सकते कि मुझे जरा धूम्रपान की आदत है।
धूम्रपान यानी नर्क जाने का सुनिश्चित उपाय। छोटी-छोटी बातें, उनको भी तुम
खोल नहीं सकते। क्योंकि वह जो आदमी वहां बैठा है, तत्क्षण तुम्हारी गरदन पकड़
लेगा कि तुम और ऐसा करते हो? त्याग
करो इसका इसी वक्त। और तुम सदा के लिए अप्रतिष्ठित हो जाओगे उसकी आंखों में। पाखंड
की प्रतिष्ठा है। जब तक कोई व्यक्ति तुमसे अपेक्षाएं कर रहा है कि तुम्हें ऐसा
होना ही चाहिए तब तक तुम कैसे अपने हृदय को खोलोगे? इसलिए संसार में चलता
निन्यानबे गुरु,
गुरु
नहीं हैं।
गुरु
कि परिभाषा यही है, सदगुरु
की परिभाषा यही है कि जिसके पास जाकर तुम सब खोल सको। जो तुम्हें ऐसी सुगमता दे, जो तुम्हें ऐसा अवसर दे कि
तुम बिना निंदा-स्तुति के, बिना
डरे अपने हृदय को खोलकर रख सको। तुम कह सको कि मैं ऐसा हूं। क्योंकि जब तक गुरु
तुम्हें वैसा ही न जान ले जैसे तुम हो, तो काम ही शुरू न होगा।
गुरु
से छिपाना तो ऐसे ही है जैसे डाक्टर के पास गए और बीमारी छिपा रहे हो। मरे जा रहे
हो, मगर बीमारी डाक्टर से छिपा
रहे हो। और गए हो डाक्टर के पास। किसलिए गए हो? इलाज के लिए गए हो, निदान के लिए गए हो, की डाक्टर पकड़ ले कि बीमारी
क्या है तो निदान कर दे।
डाक्टर
के पास तुम अपनी बीमारी नहीं छिपाते न? तुम डरते तो नहीं कि डाक्टर को कह देंगे कि
मुझे खांसी आती है, और
खांसी में कभी-कभी खून भी आ जाता है तो डाक्टर एकदम मेरे खिलाफ हो जाएगा और कहेगा
कि अरे पापी! कि कहीं नौकरी से निकलवा दे, कि सबको पता हो जाए। सब ठीक ठाक चल रहा है, चुनाव में खड़े हुए हैं, पता चल जाए वोटरों को कि
खांसी आती है,
और खून
भी गिरता हो तो कौन वोट देगा?
तो
नेतागण अपनी बीमारी की खबर अखबारों में नहीं छपने देते। अखबारों पर बड़े नाराज हो
जाते हैं अगर उनकी बीमारी की कोई खबर छाप दे। मरते दम तक नेता दुनिया को यही
दिखलाता रहता है कि मैं परम स्वस्थ हूं। क्यों? क्योंकि नहीं तो वोट कौन देगा? मुर्दों को तो कोई वोट नहीं
देता। मरते दम तक नेता यही कहता रहता है कि कोई मुझे खराबी नहीं, सब तरह से ठीक हूं। यह उसे
दिखाना ही पड़ता है। तो नेता अपने डाक्टर को भी छिपाकर रखता है।
यह तो
बहुत बाद में पता चला कि स्टेलिन बहुत बीमार था। यह तो बहुत बाद में पता चला हिटलर
के हार जाने के बाद कि हिटलर बहुत बीमारियों से रुग्ण था। लेकिन यह कभी पता नहीं
चला जब हिटलर ताकत में था। किसी को कभी पता नहीं चला। बहुत बीमारियों से परेशान
था। मिरगी की भी बीमारी थी। और भी तरह से रोग थे, जो खतरनाक थे। अगर पता चल
जाता तो हिटलर एक दिन सत्ता में नहीं रह सकता था। इन सब को छिपाकर रखना पड़ता है।
जनता के सामने एक चेहरा बताना पड़ता है।
स्टेलिन
के फोटो बिना सरकारी आज्ञा के छपते नहीं थे क्योंकि उसके मुंह पर चेचक के दाग थे।
सिर्फ एक फोटो में भूल से पकड़े गए हैं, बाकी कभी किसी फोटो में नहीं पकड़े जा सके।
चेचक के दाग से भी इतना बचना पड़ता है। नेता को ऐसा होना चाहिए कि सर्वांग-सुंदर।
चेचक के दाग और नेता में जरा जंचते नहीं। तो किसी चित्र में छपने नहीं दिए गए हैं।
सब चित्र टच-अप किए गए हैं। पहले टच-अप हो जाएंगे तब छपेंगे। माओ के हाथ-पैर कंपते
थे लेकिन यह बात अखबारों तक नहीं पहुंच पाती थी। बोलता था तो ठीक से बोल नहीं सकता
था, जबान लड़खड़ाती थी। उम्र हो गई
थी। लेकिन यह बात जब तक माओ मर नहीं गया तब तक जाहिर नहीं हो सकी।
तो हो
सकता है,
तुम
चुनाव में खड़े हो,
हो
सकता है कि तुम कहीं नौकरी के लिए आवेदन किए हो, और पता चल जाए। हो सकता है कि
तुम किसी स्त्री से विवाह का निवेदन किए हो और और पता चल जाए कि खांसी आती है और
खून के कतरे भी गिरते हैं; तो डर
से तुम डाक्टर को न बताओ तो फिर इलाज कैसे होगा? फिर गए ही किसलिए? डाक्टर के पास तो तुम खोल
देते हो। यह तो डाक्टर की नीति का हिस्सा है कि अपने मरीज की बीमारी किसी को न
बताए। अपने मरीज के संबंध में एक शब्द भी
कहीं न कहे,
यह
डाक्टर की नीति का हिस्सा है। यह मारल कोड है। इसलिए तुम डाक्टर के पास जाकर बता
भी देते हो और फिर बीमारी से तुम छूटना चाहते हो।
गुरु
के पास जब तुम आते हो तुम और भी बड़ी बीमारियां लेकर आए हो। वह क्षय रोग का मामला
नहीं है,
और न
कैंसर का मामला है। जन्मों-जन्मों की आध्यात्मिक बीमारियां हैं। तुम इन्हें
छिपाओगे?
तुम
गुरु से छिपाओगे?
तब तो
फिर ऐसा ही हो गया, तुम
अपने को औषधि से ही बचा रहे हो। गुरु तो वैद्य है; उससे छिपाया नहीं जा सकता।
उसके सामने तो सब खोलकर रख देना होगा। पाप का, पुण्य का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख देना होगा।
सब बुरा भला खोलकर रख देना होगा। और तुम एक उपद्रव हो भीतर, जहां हर तरह के पाप दबे पड़े
हैं। जहां डर तरह की बुराई दबी पड़ी है। निसंकोच छोड़ देना होगा अपने को। इसलिए
मैंने कहा,
हृदय
खोलकर गुरु के सामने रखना होता है।
हृदय
खोलने का अर्थ है,
तुम
गुरु के सामने अपनी किसी भी तरह की प्रतिमा बचाने की कोशिश मत करना। तुम कहना, जैसा मैं हूं, यह हूं--बुरा-भला। और सदगुरु
वही है कि तुम जब अपने प्राणों की सारा का सारा मवाद भी खोलकर उसके सामने रख दो, तब भी तुम्हारे बुद्धत्व में
उसे जरा भी शक पैदा न हो। तुम्हारे परमात्म-स्वरूप में उसे जरा भी शंका न आए; वही तो सदगुरु है। यह सारी
बीमारियां ठीक हैं, इन
सबके बावजूद भी तुम हो तो परमात्मा। इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। तुमने हजारों पाप किए
हों तब भी तुम्हारा परमात्म-स्वरूप नष्ट नहीं होता। तुम कितने ही अंधेरे में भटके
हो तो भी तुम्हारा स्वभाव चिन्मय है। सदगुरु तो वही है, जिसने अपने चिन्मय को देख
लिया, वह तुम्हारे चिन्मय को भी देख
रहा है। वह तुमसे कहेगा ठीक है, यह
कबाड़-खाना ठीक है,
मगर यह
तुम नहीं हो। फिक्र मत करो। मगर यह अवस्था--वह तुम्हें सजग कर सके कि यह तुम नहीं
हो--तभी बनेगी जब तुम खोल दो अपना हृदय पूरी तरह।
और
आखिर यह इतना मुश्किल क्यों है और भय क्यों होता है?
मुश्किल
है क्योंकि जब भी कहीं हृदय खोला तभी घाव लगा। इसलिए मुश्किल है। अनुभव के कारण
मुश्किल है। जब भी कहीं सच्ची बात कही तभी नुकसान हुआ है। लोग कहते हैं कि सत्यमेव
जयते। अनुभव उलटा ही है: जहां सच बोले वहीं हारे। कभी-कभी झूठ तो जीता, सच कभी जीतता हुआ अनुभव में
नहीं आया। जहां ईमानदारी बरती, वहीं
नुकसान हुआ। जहां बेईमानी की, कभी-कभी लाभ भी हुआ। बेईमानी
से कभी नुकसा नहीं हुआ, पकड़ी
गई तो नुकसान हुआ। इसलिए तुम्हारे समस्त जीवनों का अनुभव यह है कि बेईमानी से
नुकसान नहीं होता,
पकड़े
जाने से नुकसान होता है। पकड़े भर मत जाओ, और फिर करो बेईमानी जितनी करनी है, लाभ भी लाभ है।
सत्य
नहीं हारता,
न सत्य
जीतता--तुम्हारा अनुभव यह है। तुम अगर झूठ को भी सत्य की तरह सिद्ध कर सको तो जीत
हो जाती है। पकड़े भर न जाओ। तो तुम संत हो, अगर पकड़े न जाओ। पकड़े गए तो पापी।
तो
असली सवाल पकड़े न जाने का है। तो कैसे हृदय खोलो? हृदय खोला तो अपने ही हाथ से
पकड़े गए। यह तो अपने ही हाथ से जाकर और समर्पण कर दिया। इसलिए सारे जीवन तुम्हारा
अनुभव यह है कि कहो मत, सचाई
क्या है। जितना बन सके, झुठलाओ। और फिर जिससे भी
तुमने कहा उसी से हानि हुई। अगर मित्र को कह दी सच्ची बात तो मित्र शत्रु हो गया।
फ्रायड
ने कहा है,
अगर
सभी मित्र एक दूसरे के संबंध में सच बातें कह दें तो दुनिया में तीन मित्रताएं भी
न बचें। तुम जो मित्र के संबंध में सच-सच सोचते हो अगर वही कह दो तो मित्रता बचनी
बहुत मुश्किल है। लोग झूठ में जी रहे हैं। लोग झूठ में पगे हैं।
राह पर
कोई मिल जाता है,
तुम
कहते हो,
बड़ी
दुआ--सलाम कहते हो, गले
मिलते हो,
कहते
हो बड़ा सौभाग्य,
दर्शन
हो गए। शुभ मुहूर्त में घर से निकलते ही दर्शन हो गए। बड़े दिनों बाद दर्शन हुए। और
भीतर सोच रहे हो कि दुष्ट का चेहरा कहां से दिखाई पड़ गया। अब पता नहीं दिन कैसा
जाए! भीतर तुम यह सोच रहे हो, कि यह
महाराज कहां से मिल गए। शुभ काम करने निकले थे और यह सज्जन बीच में ही मिल गए। मगर
इनसे तुम यही कह रहे हो कि बड़ी कृपा की।
घर में
मेहमान आते हैं,
तुम
कहते हो आओ। पलक-पांवड़े बिछाए हैं। और भीतर रो रहे हो कि फिर आ गए! अब पता नहीं कब
जाएंगे। पता नहीं कितनी देर पेरेंगे, परेशान करेंगे। ऊपर से कह रहे हो, अतिथि देवता है और भीतर से
तुम जानते हो,
कि
अतिथि से ज्यादा शैतान और कोई भी नहीं।
तो तुम
दो तल पर जीते हो। यह दो तल पर जीना इतना तुम्हें रास आ गया है, इतना सघन हो गया है, इसलिए कठिनाई है। इसलिए गुरु
के पास भी आते हो तो पुरानी आदतें एकदम कैसे छुप जाएं? कुछ का कुछ दिखलाने लगते हो, कुछ का कुछ कहने लगते हो।
मैं
रोज अनुभव करता हूं। लोग कुछ प्रश्न पूछने आते हैं और कुछ पूछने लगते हैं। मैं देख
रहा हूं कि उनका प्रश्न कुछ और है। मुझे उन्हें लाना पड़ता है फुसला-फुसलाकर असली
प्रश्न पर। मगर जब प्रश्न पूछते हैं लोग, तब भी झूठ कर जाते हैं। क्यों? क्योंकि प्रश्न भी ऊंचा पूछना
चाहिए। उसका प्रभाव पड़ता है। हो सकता है उसकी समस्या हो कामवासना की लेकिन प्रश्न
उठाएंगे राम का। काम का होगा प्रश्न और उठाएंगे राम की बात। कहेंगे कि परमात्मा से
कैसे मिलें?
अब मैं
उनको देख रहा हूं कि यह परमात्मा की कोई चाह ही कहीं दिखाई नहीं पड़ती उनके..उनकी
ऊर्जा में,
उनको
आभा में,
कहीं
परमात्मा से कोई मतलब नहीं दिखाई पड़ता। पूछते हैं परमात्मा कैसे मिले? मुझे उन्हें फुसलाना पड़ता है, समझाना पड़ता है कि आओ, असली पर आओ। धीरे-धीरे धीरे
बामुश्किल वे असली पर आते हैं; वह भी
बड़ी बेचैनी से आते हैं। और असली को ही सुधारा जा सकता है, नकली को तो कुछ किया नहीं जा
सकता।
अगर
तुमने प्रश्न ही झूठा पूछा तो मेरे उत्तर का क्या होगा? क्या करोगे उस उत्तर का? मैं जो तुम्हें दवा बता दूंगा
वह किस काम आएगी?
वह
बीमारी ही तुम्हारी नहीं। अपनी बीमारी छिपा गए, किसी और की बात बता दी।
एक
सज्जन आए,
वे
कहने लगे कि मेरे एक मित्र हैं, बड़ी
कामी हैं। उनका मन बस कामवासना ही से भरा रहता है। उनके लिए कुछ उपाय बताएं। मैंने
कहा, मित्र को ही भेज देते और वे
मुझसे कह देते कि मेरे एक मित्र हैं। इतनी काहे को झंझट की? तब वे थोड़े चौंके। चौंककर
चारों तरफ देखा कि...। लेकिन आदमी हिम्मतवर थे, कहा कि आपने पकड़ लिया। बात तो यही है। यह
उपद्रव तो मेरा ही है। लेकिन मैंने यह सोचा कि सीधा यह पूछता कि मैं बहुत कामी
हूं...मैंने सोचा,
एक
मित्र के बहाने पूछ लूं। जो आप बताएंगे वह मैं कर लूंगा।
मगर
मित्र का प्रश्न मित्र का प्रश्न है। और कभी-कभी बीमारी भी एक जैसी हो तब भी दो
आदमियों को दो तरह की दवाएं लगती हैं। ऐसा मत सोचना कि तुम्हारी बीमारी भी
तुम्हारे मित्र जैसी बीमारी है तो एक ही दवा दोनों को काम कर जाएगी। तुम्हारा
मित्र अनंत जन्मों से अलग तरह की यात्रा कर रहा है। उसके सारे-व्यक्तित्व की
संरचना भिन्न है,
तुम्हारी
संरचना भिन्न है। एक ही औषधि काम न पड़ेगी। मित्र के लिए जो औषधि बताई जाएगी वह तुम
लेकर और झंझट में पड़ जाओगे। बीमारी तो बनी ही रहेगी, औषधि शायद और नई बीमारियां ले
आए। तो अनेक बार तुम्हारी औषधियों ने तुम्हें और बीमार बनाया है।
इसलिए
कहता हूं,
हृदय
को खोलना। कठिनाई है। तुमने जब भी हृदय खोला तभी हानि हुई। कहते हैं न, दूध का जला छाछ भी
फूंक-फूंककर पीने लगता है। ऐसी तुम्हारी अवस्था है। तुम इतनी बार जल गए हो। किसी
से भी सच कहा कि मुश्किल हुई। किसी से भी सच कहा कि मुश्किल हुई। यह सारा संसार
झूठ का संसार है। यहां सच बोलने से चलता ही नहीं। यहां झूठ ही यात्रा का पाथेय है, वही कलेवा है। उसी के सहारे
सब चलता है। यहां हम झूठ से बंधे हैं एक-दूसरे से।
तुम्हें
पत्नी से रोज-रोज कहना ही पड़ता है, मैं खूब प्रेम करता हूं तुम्हें। तुम्हारे
बिना एक क्षण न रह सकूंगा। तुम न होओगी तो मेरा क्या होगा? मैं रह न सकूंगा एक दिन। और
तुम भलीभांति जानते हो कि पत्नी न रह जाएगी तो ऊपर तुम कितना ही रोओ, भीतर तुम प्रसन्न होओगे कि
चलो झंझट मिटी,
उपद्रव
मिटा। चलो फिर स्वतंत्र हुए। चलो फिर कोई स्त्री खोज लें।
मुल्ला
नसरुद्दीन की पत्नी मर रही थी। वह बैठा है खाट के पास। जैसा उदास पतियों को बैठना
पड़ता है वैसे ही। गुणत्तारे तो और बिठा रहा है भीतर, वह बात अलग। वह तो किसी से
कहनी ही नहीं है। पत्नी भी मरते वक्त...पत्नियां भी खूब हैं, मरते दम तक ऐसे सवाल उठा देती
हैं। पत्नी ने मरते-मरते आंखें खोलीं, और कहा कि एक बात पूछनी मुल्ला। मैं मर
जाऊंगी,
तो फिर
तुम क्या करोगे?
मुल्ला
ने कहा,
क्या
करूंगा?
मर
जाऊंगा। क्या करूंगा! एक क्षण जी न सकूंगा, क्या करूंगा! तेरे बिना सोच ही नहीं सकता।
पत्नी ने कहा,
छोड़ो
जी! ये सब बातें छोड़ो। किससे बातें कर रहे हो, ये बातें छोड़ो यह मुझे बताओ, विवाह तो तुम करोगे ही। कभी
नहीं, मुल्ला ने कहा, कभी नहीं । कसम खाता हूं कभी
नहीं। तेरी कसम खाता हूं।
पत्नी
ने कहा,
मेरी
कसम मत खाओ,
क्योंकि
मैं तो मरी ही जा रही हूं। एक ही मेरी प्रार्थना है--वह मुझे पता है, इधर मैं मरी नहीं, इधर मेरा जनाजा उठा नहीं, कि उधर तुम विवाह का इंतजाम
कर लोगे। एक ही मेरी प्रार्थना है कि विवाह तो तुम करके लाओगे ही, इतना ही खयाल रखना कि जिस
स्त्री को तुम लेकर आओ, वह
मेरे कपड़े न पहने,
मेरे
जेवर न पहने। इससे मेरी आत्मा को बड़ा कष्ट होगा। मुल्ला ने कहा, तू उसकी फिक्र ही मत कर, गुलाबों को तेरे कपड़े आएंगे
ही नहीं--गुलाबी से चल ही रहा है!--उसकी तू फिक्र ही मत कर।
समझदार
आदमी पहले ही से इंतजाम बना लेता है। ऐसा थोड़ी है कि पत्नी मरेगी, फिर इंतजाम करेंगे। अब पत्नी
तो मर ही रही है...।
एक जगत
है हमारा,
जहां
झूठ ही हमारी व्यवस्था है। जहां झूठ ही हमारे संबंधों का सारा सार सूत्र है। गुरु
के साथ भी ऐसा ही संबंध बनाओगे क्या? तो फिर गुरु भी तुम्हें इस संसार के बाहर न
ले जा सकेगा। गुरु का अर्थ है, जो
तुम्हें इस झूठ के जाल के बाहर ले जाए। तो उसके पास तो तुम्हें ये पुराने अनुभव सब
छोड़ देने पड़ेंगे। और जिसके पास तुम छोड़ सको निसंकोच, वही तुम्हारा गुरु है। नहीं
तो तुम्हारा गुरु नहीं। फिर तुम खोजो, अभी भी गुरु खोजो, कहीं न कहीं कोई आदमी तुम खोज
पाओगे,
जिसके
पास तुम सब निसंकोच छोड़ दोगे। कहीं तो कोई आदमी तुम्हें मिल जाएगा जिसकी आंखों में
तुम्हारी निंदा न होगी। और जिससे सच कहकर भी तुम हारोगे नहीं बाजी। जिससे सच कहकर
ही जीतोगे।
सतगुरु
का यही अर्थ होता है। सतगुरु में निंदा तो होती नहीं। तुमने क्या किया है इसके
प्रति अपरंपार करुणा होती है। तुमने पाप किया है उसके प्रति भी करुणा होती है, ध्यान रखना। तुम्हारे पाप को
भी वह समझता है कि मनुष्य की कमजोरियां हैं, क्योंकि वह खुद भी उन्हीं कमजोरियों से
गुजरा है। खुद भी उन्हीं गङ्ढों में गिरा है, खुद भी उन्हीं कंटकाकीर्ण मार्गों से निकला
है, खुद भी उसने...वे कांटे चुभे
हैं उसे,
वह
जानता है,
भलीभांति
जानता है। सदगुरु का अर्थ है कि जो कल तक तुम्हारे ही जैसा था। आज भूल नहीं गई है
बात। अब तो और भी ठीक से समझ में आती है।
सदगुरु
के मन में अपरंपार करुणा होती है। तुमने कितना ही गहन पाप किया हो तुम सदगुरु के
पास सिवाय क्षमा के और कुछ भी न पाओगे। और अगर कुछ और मिले तो समझ लेना कि यह
सदगुरु नहीं है। तुम बचो। यह तुम्हारे झूठे जंजाल का ही हिस्सा है। यह होगा पंडित
होगा, पुजारी होगा, तथाकथित महात्मा होगा, लेकिन अभी इसे खुद भी नहीं
मिला है।
एक बात
समझना--बहुत मनोवैज्ञानिक--अगर तुम किसी गुरु के पास जाकर कहो कि मैं बहुत क्रोधी
हूं और वह तुम से तब कहने लगे कि क्रोध पाप है, और नरक में सड़ोगे, और ऐसा-वैसा तुम्हें डराने
लगे, धमकाने लगे। तुम कहो कि मैं
कामी हूं और वह एकदम क्रुद्ध हो जाए, कि कामी हो तो यहां किसलिए आए? ब्रह्मचर्य का पालन करो नहीं
तो सड़ोगे नर्क में, कीड़े
काटेंगे और कड़ाहों में जलाए जाओगे और एकदम आगबबूला होने लगे तो एक बात पक्की है कि
वह अभी कामवासना से मुक्त नहीं हुआ, अभी क्रोध से मुक्त नहीं हुआ।
इसे
तुम समझो। तुम नाराज उसी बात पर हो जाते हो जो बात तुम्हें अभी भी सताती है। नहीं
तो नाराजगी क्या है? एक समझ
होती है,
शांत, शीतल। नाराजगी की बात क्या है?
संत
राबिया के पास एक फकीर हसन ठहरा। दोनों बैठे थे; एक आदमी आया, इस आदमी ने हसन के चरणों में
अशर्फिया रखीं-सोने की अशर्फिया रखीं, हसन तो एकदम नाराज हो गया। उसने कहा, तू यह--सोना लेकर यहां क्यों
आया? सोना मिट्ठी है,धूल है। हटा यहां से सोने को।
राबिया
हंसी। हसन ने पूछा, क्यों
हंसती हो?
राबिया
ने कहा,
हसन, तो तुम्हारा सोने से मोह अभी
तक गया नहीं?
सोने
से मोह! हसन ने कहा, मोह
नहीं है इसलिए तो मैं इतना चिल्लाया कि हटा यहां से।
राबिया
ने कहा,
मोह न
होता तो चिल्लाते ही क्यों? अगर
मिट्टी ही है सोना, तो
मिट्टी तो बहुत पड़ी है तुम्हारे आसपास, तुम नहीं चिल्ला रहे हो। यह आदमी थोड़ी
मिट्टी और ले आया,
क्या
चिल्लाना है?
इतने
आगबबूला क्यों हो गए? इतने
उत्तेजित क्यों हो आए? यह
उत्तेजना बताती है कि अभी भीतर डर है। यह उत्तेजना बताती है कि दबा लिया है। सोने
के मोह को,
मिटा
नहीं है। नहीं तो क्या इसमें उत्तेजित होने की बात है? इस आदमी को तो देखो। इस आदमी
को तो देखो। यह बेचारा गरीब है, इसके
पास सोने के सिवाय कुछ भी नहीं है। यह बहुत गरीब है। इस गरीब को ऐसे मत दुतकारो।
यह इतना गरीब है और कुछ देना चाहता है। इसका तुमसे लगाव है, और सोने के अलावा इसके पास
कुछ भी नहीं है।
ऐसा
हुआ, मैं जयपुर में था और एक बहुत
अपूर्व आदमी थे सोहनलाल दुगड़। जुआरी थे ऐसे तो वे, सटोरिया थे, भारत के सबसे बड़े सटोरिया थे।
मगर बड़े हिम्मत के आदमी थे। सटोरिया थे, हिम्मत के होने ही चाहिए। एक झोले में भरकर
बहुत से नोट ले आए। पहली दफा मुझे सुना था, दूसरे दिन आए और पूरा झोला नोट से भरा हुआ
मेरे पैरों पर उलटा दिया। मैंने उनसे कहा कि इनको संभालकर रख लें, जब मुझे जरूरत होगी, मैं खबर करूंगा। अभी जरूरत
नहीं है। जरूरत जरूरत कभी हो सकती है। तो यह मेरी तरफ से रख लें अमानत आपके पास।
वे
रोने लगे। मैंने सोचा नहीं था कि कोई आदमी रोने लगेगा। वे रोने लगे। उन्होंने कहा
कि नहीं,
मैं
सटोरिया हूं। आज है, कल
नहीं है। यह झंझट मुझे मत दें। आपकी झंझट आप जानो, मैं नहीं रखूंगा। मैं जुआरी
आदमी! कभी मेरे पास लाखों होते हैं, कभी करोड़ों भी होते हैं, और कभी मेरे पास कौड़ी नहीं
होती। तो यह मैं नहीं रख सकता। आप किसी और को दे दो। तो मैंने कहा, कोई फिकर न करें। नहीं होंगे
उस समय तो कोई मैं मुकदमा नहीं चलाऊंगा। मैं भी सटोरिया हूं। गए तो गए। तुम रखो।
वे तो
रोने लगे। वे कहने लगे कि नहीं, मैं वापिस
न ले जा सकूंगा। मैं बहुत गरीब आदमी हूं क्योंकि मेरे पास सिवाय रुपयों के और कुछ
भी नहीं है। और मैं कुछ देना चाहता हूं और मैं क्या दूं? मेरे पास और कुछ है ही नहीं।
प्रेम मैं जानता नहीं, समर्पण
का मुझे कुछ पता नहीं है, आत्मा
मैंने देखी नहीं है। ये सब बातें हैं, मैंने सुना हैं, लेकिन मेरे पास कुछ हैं नहीं।
मेरे पास सिवाय रुपयों के और कुछ भी नहीं है। मैं बहुत गरीब आदमी हूं।
सुनते
हो उनकी परिभाषा गरीब आदमी की? कि
मेरे पास सिवाय रुपयों के और कुछ भी नहीं है। मैं बहुत गरीब आदमी हूं। मैं बहुत
गरीब आदमी हूं। मैं कुछ देना चाहता हूं। अगर रुपया आप न लेंगे तो मेरे हृदय को बड़ी
चोट पहुंचेगी। मुझे लगेगा कि मैं इतना दीन कि कुछ भी न दे सका।
राबिया
ने हसन से कहा कि उस गरीब को देख, वह किस
भाव से लेकर आया है। और हसन ने कहा कि राबिया तूने मुझे खूब चेताया। बात मेरे समझ
में आ गई। मैंने यह कांचन का जो मोह है, दबा लिया है, यह मिटा नहीं।
सदगुरु
वही है,
जो सच
में जाग गया है। जो जाग गया है, तुमने
क्या किया है इससे कोई निंदा उसके मन में पैदा नहीं होगी। और न ही तुम्हारे लिए
नर्क भेज देगा,
न
तुम्हें डराएगा। क्योंकि सदगुरु तुम्हें देखता है, तुम्हारे कृत्यों को नहीं।
कृत्यों का कोई मूल्य नहीं है। कृत्य तो माया है। तुमने जो किया, उसका कोई मूल्य नहीं है, तुम जो हो वही मूल्यवान है।
और तुम जो हो वह तो साक्षात परमात्मा है। जिसने अपने भीतर के परमात्मा को देख लिया
उसने सारे जगत में छिपे परमात्मा को देख लिया। फिर तुम लाख छिपाओ परमात्मा को चोर
के भीतर,
तो भी
सदगुरु देखता है। पापी के भीतर, तो भी
देखता है;
हत्यारे
के भीतर तो भी देखता है। तुम सदगुरु से छिपा नहीं सकते अपने परमात्मा को।
तो जब
तुम अपने सारे पापा खोलकर रख देते हो--अच्छा बुरा जो भी है, जैसा भी है--सदगुरु के पास
खोलकर रखने में ही तुम्हें पहली दफा कर्मों से छुटकारा मिलता है। यह कर्म-मुक्ति
का उपाय है। जब तक तुम दबाते हो, बंधे
रहते हो;
छिपाते
हो, अटके रहते हो। कहीं तो कोई
जगह होनी चाहिए,
जहां
तुम सब खोलकर रख दो। उसको खोलकर रखते ही तुम्हें एक बात दिखाई पड़ती है कि मैं तो
पृथक हूं--साक्षी मात्र; मैं तो
द्रष्टा मात्र हूं। न तो कृत्य का कोई मूल्य है, न विचार का कोई मूल्य है। ये
सब सपने की बातें हैं। कुछ सपने आंख बंद करके देखते हैं हम, कुछ सपने आंख खोलकर देखते हैं
हम। लेकिन तुम्हारी अड़चन मैं जानता हूं। तुमने जब भी हिम्मत की, तभी अड़चन आई।
बदलों
के पास आना नहीं
दे नयन
में नयन मुस्काना नहीं
है
अंधेरी रात,
मैं
भटकी हुई
और सिर
से पांव तक अटकी हुई
भाल पर
की रेख सी अंधी हुई
पायलों
सा और तड़पाना नहीं
दे नयन
में नयन मुस्काना नहीं
फिर
मुझे इस बार भी भ्रम हो गया
यूं
छला जाना सहज क्रम हो गया
आस के
उस गांव से आना नहीं,
कभी
तुमने इतने-इतने आंखों में आंखें डालीं, सदा दुख पाया। तुम इतने डर जाते हो कि
परमात्मा से भी कहते हो कि:
आस के
उस गांव से आना नहीं
दे नयन
में नयन मुस्काना नहीं
बादलों के पास से आना नहीं
दे नयन
मग नयन मुस्काना नहीं
है अंधेरी रात, मैं भटकी हुई
और सिर
से पांव तक अटकी हुई
भाल पर
की रेख सी अंधी हुई
पायलों
सा और तड़पाना नहीं
दे नयन
में नयन मुस्काना नहीं
जब भी
तुमने किसी की आंख में आंखें डालीं और अपनी सचाई को खोला, तभी तुमने कष्ट पाया, तभी चोट पाई, तभी कांटा चुभा, तभी घाव बना। वे घाव बढ़ते चले
गए। वे घाव भरे नहीं। वे घाव सब हरे हैं। तो तुम डरते हो, परमात्मा तक से डरते हो कि
कहीं वह फिर तुम्हें किसी नए प्रेम में न उलझा दे, फिर कहीं आंख में आंख डालकर
तुम्हें किसी और झंझट में डाल दे।
आस के
उस गांव से आना नहीं
दे नयन
में नयन मुस्काना नहीं
फिर
मुझे इस बार भी भ्रम हो गया
यूं
छला जाना समझ क्रम हो गया
जिंदगी
का व्यर्थ सब श्रम हो गया
हर बार
जब भी तुमने किसी की आंख में आंख डाली तभी भ्रम हुआ, तभी छल हुआ। तो तुम गुरु के
पास भी जाकर आंख में डालकर नहीं देखते हो। इधर उधर देखते हो। आसपास देखते हो।
तुमने प्रेम से इतने धोखे खाए हैं कि तुम गुरु के प्रेम में भी पूरे नहीं उतरते
हो। वहां भी तुम सुरक्षा रखते हो। वहां भी तुम आयोजन रखते हो कि अगर जरूरत पड़े तो
अपनी रक्षा कर सको। वहां भी तुम अरक्षित नहीं छोड़ते अपने को। वहां भी समर्पण पूरा
नहीं होता।
तुम्हारी
अड़चन मैं समझता हूं। तुम्हारे प्राचीन
अनुभव,
सनातन
के अनुभव इसी बात के लिए तुम्हें तैयार किए हैं। लेकिन अगर तुम इसी में उलझे रहे, तो तुम चूक जाओगे। कभी तो
हिम्मत करो। क्या होगा? ज्यादा
से ज्यादा एक धोखा और होगा, यही न!
इतने धोखे खाए,
एक
धोखा और सही। खोने को क्या है तुम्हारे पास? लुट तो गए हो। लुटे खड़े हो, सर्व हारा हो। चलो, यह आदमी और थोड़ा लूट लेगा, और क्या होगा? तुम्हारी लुटाई इतनी हुई है
कि अब और थोड़े लुट गए तो क्या फर्क पड़ जाएगा? इसलिए हिम्मत करो।
इसलिए
अगर कभी किसी के प्रेम में उतर रहे हो, भी किसी की पुकार तुम्हें सुनाई पड़ती हो और
कभी किसी के आसपास परमात्मा की किरण दिखाई पड़ती हो तो चूक मत जाना अवसर। खोने को
क्या है?
एक
भ्रम और होगा इतना ही ना! चलो ठीक, एक भ्रम और सही। करोड़ों भ्रम में एक भ्रम
जुड़ जाएगा तो क्या अड़चन होनेवाली है? इतने कांटे गड़े, एक कांटा और गड़ जाएगा। इतने
लोगों ने धोखा दिया, एक
आदमी और धोखा दे जाएगा।
इसको
मैं साहस कहता हूं। साहस का अर्थ है, एक बार और प्रयोग करें। साहस का अर्थ है, अतीत के अनुभव को ही सब कुछ न
मान लें। संभव है,
कुछ और
हो, नया हो। नया हो सकता है, इस बात का भरोसा ही श्रद्धा
है। जो अब तक हुआ है वही सदा होता रहेगा ऐसा मान लेना तो फिर विषाद में घिर जाना
है, निराश हो जाना है। सच, बहुत मार्गों पर तुम गए, कोई मार्ग कहीं नहीं ले गया
इससे कुछ घबड़ाने की बात नहीं है।
मैंने
सुना है,
अमरीका
का प्रसिद्ध वैज्ञानिक एडीसन एक प्रयोग कर रहा था। सात सौ बार हार गया। रोज प्रयोग
चलता सुबह से सांझ तक, और रोज
हार होती। वह प्रयोग सफल होता न मालूम होता। सात सौ बार काफी होता है। कोई तीन साल
बीत गए। चौथा साल बीतने लगा। उसके सहयोगी तो थक मरे। आखिर उसके सहयोगियों ने एक
दिन इकट्ठा होकर कहा कि बहुत हो गया। कुछ और करना है कि जिंदगी भर इसी को करते
रहना है?
और यह कुछ होता दिखाई पड़ता नहीं। और आपसे हम घबड़ा
गए हैं क्योंकि आप रोज सुबह आ जाते हैं फिर उत्साह से भरे, फिर उमंग से भरे, फिर शुरू कर देते हैं। आप
थकते ही नहीं। क्या जिंदगी भर यही करना है?
एडीसन
ने कहा,
अब
रुकने की जरूरत है? सात सौ
रास्ते हम देख चुके, गलत
सिद्ध हो गए,
अब ठीक
रास्ता करीब ही आता होगा। आखिर कितने गलत होंगे? समझो कि हजार रास्ते हैं अगर
कुल मिलाकर,
तो सात
सौ तो हमने जांच लिए, अब तीन
सौ ही बचे। जीत रोज करीब आ रही है पागलों, किसने तुमसे कहा कि हार हो रही है? जीत रोज आ रही है। हर हार जीत
की तरफ एक कदम है। और यह तो ठीक ही है, एडीसन ने कहा कि ठीक रास्ता एक ही होगा। गलत
नौ सौ निन्यानबे हो सकते हैं। ठीक तो एक ही होगा। तो नौ सौ निन्यानबे से गुजरना तो
होगा ही। उसके बिना कोई उपाय नहीं है उस एक तक पहुंचने का।
हिंमतवर
आदमी का यह लक्षण है। उसकी आशा नहीं टूटती। उसका भरोसा नहीं खोता। वह कहता है इतने
धोखे खा लिए,
इतने
आदमी जांच लिए,
इतने
प्रेम परख लिए,
इतने
संबंध टटोल लिए अब तो ठीक संबंध करीब आता ही होगा। अब कब तक दूरी रहेगी? अब घड़ी करीब आती ही होगी।
इतने-इतने जन्मों तक भटके, अब और
कब तक भटकना होगा?
इसलिए
अब ठीक के करीब आते हैं। और हिम्मत करें, और
साहस करें और उमंग, और
उत्साह।
खयाल
रखना, इस संसार में और सब तो
तुम्हारे विरोध में हैं, इसलिए
उनके साथ अगर तुम सच खोलोगे तो अड़चन में पड़ोगे। वे तुम्हारा सब शोषण करेंगे। इस
जगत में सब तुम्हारे प्रतिस्पर्धी हैं, सब तुम्हारे प्रतियोगी हैं। उन्हें तो
तुम्हें कुछ का कुछ बताना पड़ेगा।
मैंने
सुना है कि दो दलाल--शेयर मार्केट बंबई के दो दलाल--ट्रेन में मिले। पहले ने दूसरे
से पूछा,
कहां
जा रहे हो?
दूसरे
ने कहा,
पूना
जा रहा हूं। पहले ने कहा, बनो
मत। तुम मुझसे झूठ मत बोलो। मुझे पक्का पता है कि तुम पूना जा रहे हो, तुम मुझसे झूठ मत बोलो। वह
पहला बहुत हैरान हुआ। उसने कहा कि मैं ही तो कह रहा हूं कि पूना जा रहा हूं। वह
दूसरा बोला,
तुम
मुझसे झूठ मत बोलो, मुझे
पक्का पता है। मैं तुम्हारे आफिस से पता लगाकर आ रहा हूं कि तुम पूना ही जा रहे
हो।
मतलब
समझे आप?
वह यह
कह रहा है। कि दलाल तो ऐसा झूठ बोलते हैं। पूना जा रहा हूं मतलब तुम कहीं और जा
रहे हो;
तुम्हारा
प्रयोजन यह है। पूना की कह रहे हो तो कहीं और जा रहे हो इतना पक्का। इगतपुरी जा
रहे, कि कल्याण जा रहे, कि उल्हास नगर; मगर पूना नहीं जा रहे इतना तो
पक्का है। इसलिए वह दूसरा कहता है कि तुम मुझसे झूठ मत बोलो कि पूना जा रहे हो, तुम पूना ही जा रहे हो।
ऐसी
दुनिया है। यहां सब ऐसा ही चल रहा है। यहां बड़ी प्रतिस्पर्धा है।
मुल्ला
नसरुद्दीन अपने एक मित्र को शिकार के किस्से बता रहा था। तब उसके मित्र ने पूछा, बड़े मियां, अगर आप जंगल में निहत्थे हो
और शेर आपका पीछा करना शुरू कर दे तो आप क्या करेंगे? मुल्ला ने उत्तर दिया, अगर वहीं कोई नदी पास में
होगी तो उसमें कूद जाऊंगा। मित्र बोला, अगर शेर भी नदी में कूद जाए तो? मुल्ला ने कहा, मैं नदी पार कर जाऊंगा। मित्र
ने कहा,
अगर
शेर भी नदी पार कर जाए तो? तब मैं
पेड़ पर चढ़ जाऊंगा,
मुल्ला
ने कहा। मित्र ने फिर कहा, शेर भी
अगर पेड़ पर चढ़ जाए तो? अब की
बार मुल्ला झुंझला गया और बोला कि यार, पहले यह तो बता दो कि तुम मेरी तरफ हो कि
शेर की तरफ?
यही
अड़चन है। यहां संसार में कोई तुम्हारी तरफ तो है नहीं। इसलिए सच बोलना खतरे से
खाली भी नहीं है।
लेकिन
सदगुरु का तो अर्थ ही होता है कि यह आदमी तुम्हारी तरफ है। इससे तुम्हारा क्या
विरोध हो सकता है! यह तुम्हें किस भांति की हानि पहुंचा सकता है? इससे तुम्हारी किसी भी तरह की
प्रतिस्पर्धा की संभावना कहां है? तुम्हारे
पास जो हैं उसमें इसकी उत्सुकता नहीं है। तुम्हारी जो आकांक्षाएं हैं वे इसकी
आकांक्षाएं नहीं हैं। अगर तुम घन पाने में लगे हो, यह ध्यान पाने में लगे हो।
अगर तुम पद पाने में लगे हो, यह
परमात्मा पाने में लगा है।
और एक
मजा कि अगर घन पाने में दो आदमी लगे हों तो दुश्मन हो ही जाएंगे, क्योंकि धन सीमित है। और अगर
ध्यान पाने में दो आदमी नहीं, दो
करोड़ आदमी लगे हों तो भी कोई दुश्मनी का कारण नहीं है। क्योंकि ध्यान असीम है। अगर
मुझे ध्यान उपलब्ध हो गया तो इसका यह अर्थ थोड़े ही है कि अब तुम्हारे लिए कुछ कम
बचा दुनिया में। अब तुम क्या करोगे? अगर कोई दो आदमी पद पाने में लगे हों तो एक
ही पा सकेगा,
दोनों
न पा सकेंगे। लेकिन कोई अगर परमात्मा को पाने में लगा हो किसी से कोई स्पर्धा ही
नहीं है।
मैं
परमात्मा को पा लूं इससे में तुम्हारा दुश्मन थोड़े ही हूं! इससे कुछ परमात्मा
तुम्हारे लिए कम थोड़े ही बचा! कि अब तुम पाओगे तो थोड़ा तो पहले ही कोई ले जा चुका
है, अब तुमको अधूरा ही मिलेगा।
आश्चर्य की बात तो यही है कि अगर किसी एक व्यक्ति ने परमात्मा को पा लिया तो तुम्हारे
पाने की संभावना बढ़ गई। घटी नहीं, बढ़ गई।
और अगर किसी एक व्यक्ति ने पद पा लिया तो तुम्हारे पाने की संभावना समाप्त हो गई।
अब या तो मोरारजी बैठ जाएं या इंदिरा बैठा जाए। एक ही बैठ सकते हैं। दूसरा या तो
जेल होगा या जेल के बाहर, जेल से
भी बदतर हालत में होगा। जहां पद का संघर्ष है, वहां तो स्पर्धा है; वहां तो दुश्मनी है, वहां मैत्री कैसी?
तो
राजनीतिज्ञ मित्र हो ही नहीं सकते। मित्र भी जो दिखाई पड़ते हैं, वे भी मित्र नहीं होते। जो एक
ही पार्टी में होते हैं, वे भी
मित्र नहीं होते। कैसे हो सकते हैं? मित्रता सब दिखवा है, ऊपर-ऊपर है, धोखा है। मित्रता सब औपचारिक
है। भीतर दुश्मनी चल रही है। भीतर एक-दूसरे को काटने के सब उपाय चल रहे हैं।
राजनीति
में मित्रता होती ही नहीं, धर्म
में शत्रुता नहीं होतीं। हो कैसे सकती है? अगर मुझे कुछ मिल गया है, तो इससे तुम्हारे मिलने की
संभावना कम नहीं हुई, बढ़ गई।
अगर आदमी को मिल सकता है, तो
तुम्हें भी मिल सकता है यह भरोसा आ सकता है। अगर तुम जैसे ही हड्डी-मांस-मज्जा के
आदमी को मिल सकता है तो तुम्हें क्यों नहीं मिल सकता? तुम्हारी हिम्मत जगेगी। तुम
अपने खोए उत्साह को पुनः पा लोगे। तुम्हारा आत्म-विश्वास पैदा होगा।
सदगुरु
का अर्थ है,
उसने
कुछ ऐसे जगत में पाया है जहां प्रतिस्पर्धा होती ही नहीं। उसने ध्यान पाया, समाधि पाई, परमात्मा पाया, धर्म पाया। एक तो तुम्हारी
आकांक्षा नहीं है इन बातों की, अगर
तुम्हारी आकांक्षा है तो भी कोई स्पर्धा
नहीं है। तुम सदगुरु के सामने सब खोलकर रख सकते हो। तुम्हें अपने ताश के पत्ते
छिपाने की जरूरत नहीं है; ट्रम्प
कार्ड भी छिपाने की जरूरत नहीं है। तुम सारे पत्ते खोलकर रख सकते हो। अच्छा यही
होगा कि तुम सारे पत्ते खोल दो तो सदगुरु तुम्हें ठीक-ठीक से रास्ते पर ले चले।
तुम्हारा हाथ पकड़ ले। तुम्हारे सारे पत्ते खोलकर रख देने में ही तुमने अपना हाथ
सदगुरु के हाथ में रख दिया। उसके पहले तुम रखोगे नहीं। उसके पहले तुम मुट्ठी बांधे
हुए हो। कुछ छिपाये हुए हो। बचाना है, ज्यादा करीब न आओगे, जरा दूर-दूर रहोगे, दीवाल रखोगे, ओट रखोगे, परदा रखोगे, क्योंकि कहीं सब बात खुल न
जाए। सब बात खोल ही दो, ताकि
बचाने को कुछ न रहे। जब बचाने को कुछ न रहेगा, कुछ राज न रहेगा, कुछ रहस्य न रहेगा, तो फिर किसलिए ओट करोगे? फिर किसलिए परदे डालोगे? फिर सब ओट मिट जाएगी। और जहां
ओट मिटती है वहीं कांति घटती है।
तीसरा प्रश्न: राम राम करत काही राम ऐसे मिलत नाहीं,
राम सदा कहत जाई, राम सदा बहत जायी,
कहत पकड़ो राम नाहीं, चलत पकड़ो राम नाहीं,
राम सदा विराजत मांही सब दिशत राम सही
सुंदर
वचन हैं। लेकिन इनको प्रश्न क्यों बनाया? इनमें उत्तर है। सीधे-सरल वचन है। इनकी
व्याख्या की भी जरूरत नहीं है। इससे सीधा, सरल और क्या होगा?
राम-राम
कहत काही?
राम-राम
किसलिए कहते हो?
कहने
की बात नहीं है राम। हृदय में संभालने की बात है राम कहना किसको है? पुकारना किसको है? चीखना-चिल्लाना किसको है। राम
कहीं दूर थोड़े ही है!
कबीर
कहते हैं,
क्या
बहरा हुआ खुदा है?
क्या
तेरा खुदा इतना बहरा हो गया है, जो
इतने ऊंचे मीनार पर चढ़कर चिल्ला रहा है? राम शब्द को भी दोहराने की क्या जरूरत है? भाव को गहो। भाव को संभालो
हृदय में। जैसे गर्भवती स्त्री अपने बच्चे को संभालती है गर्भ में, ऐसे राम के भाव को संभालो।
राम
राम कहत काही,
राम
ऐसे मिलत नाहीं
ऐसे
बोलने से,
राम-राम
दोहराने से,
राम-नाम
की चदरिया ओढ़ने से राम मिलते होते तो बड़ा सस्ता हो जाता। फिर तो तोतों को भी मिल
जाते।
राम
सदा कहत जाई...सुंदर वचन है कि तुमने कहा राम कि गए राम, हाथ से चूके। कहे कि चूके। यह
शब्द की बात नहीं है, निशब्द
में संभालना है। शून्य में, मौन
में पकड़ना है। शब्द बना कि तुम राम से दूर हो गए। शब्द बना कि मन बन गया। जहां मन
आया, राम दूर हो गए। जहां मन नहीं
होता वहां राम विराजमान है। राम कोई नाम थोड़े ही है! यह तो प्रतीक है नाम। भाव की
बात है।
इसीलिए
तो कहते हैं वाल्मीकि मरा-मरा जपते-जपते भी राम को पा गया। भाव की बात है। गंवार
थे, पढ़े-लिखे न थे। गुरु तो कह
गया कि राम-राम जपना; भूल
गए। सीधे-सादे आदमी थे। इसलिए कभी-कभी गंवार पहुंच जाते हैं मगर पंडित कभी पहुंचे
हों ऐसा सुना नहीं। पंडित बिलकुल शुद्धोच्चारण की बात थोड़े ही है! यह कोई भाषा की
बात थोड़े ही है,
भाव की
बात है।
भूल
गए। राम-राम कहते-कहते कहते--जल्दी-जल्दी दोहरा रहे होगे: राम राम राम राम, वह मरा-मरा हो गया। तो वे उसी
को दोहराते रहे। उसी को दोहराते-दोहराते पा गए। जब गुरु वापिस आया और देखा कि
बाल्याता वाल्मिकि हो गया है, अपूर्व
शांति में विराजा है। आनंद झर रहा है, अमृत बरस रहा है। तो गुरु ने पूछा, मिल गया? राम-राम जपते-जपते मिला? तब कहीं बाल्या को याद आया।
उसने कहा,
अरे, बड़ी भूल हो गई। राम-राम कहा
था। मैं तो मरा-मरा जपता रहा। मगर मिल गया।
तो न
तो राम जपने की बात है, न राम
शब्द से कुछ लेने-देने की बात है।
यहां
पुष्पा बैठी है। वह यहां नाद का प्रयोग करती है। एक छोटा सा संन्यासियों का समुदाय
उसके पास बैठकर नाद का प्रयोग करता है, नाद में डूबता है। पुष्पा हॉलेन्ड से आई है, संस्कृत जानती नहीं। तो कुछ
संस्कृत की भूल-चूक हो जाती होगी।
फिर
यहां तो संस्कृत जानने वाले भी आ जाते हैं। आना तो नहीं चाहिए, मगर आ जाते हैं। तो किसी
संस्कृत जाननेवाले ने ऐतराज उठाया होगा, पुष्पा को समझाया-बुझाया कि इस तरह का नहीं, ठीक-ठीक उच्चारण होना चाहिए।
नाद का ठीक स्वर होना चाहिए, ठीक
व्याकरण होना चाहिए। तो बेचारी पुष्पा बात में पड़ गई।
जब यह
हमेशा अपने समूह को लेकर आती थी तो परम आनंद की घटना घटती थी। वे खूब गहरे डूबते
थे। इस बार जब आई मेरे पास और उसके समूह ने जब नाद का उच्चारण किया तो उच्चारण तो
सही था,
बाकी
सब खो गया। व्याकरण बिलकुल ठीक हो गई, मगर न भाव था, न रस था, न डुबकी थी। डर दूसरा लगा था।
डर यह लगा था कि कहीं कोई भाषा की भूल-चूक न हो जाए! तो गौण तो पकड़ में आ गया, मूल खो गया।
मैंने
उससे बुलाकर पूछा कि तू जरूर किसी संस्कृत जाननेवाले के चक्कर में आ गई। उसने कहा
कि हां,
कुछ
गलती हुई?
मैंने
कहा, सब गड़बड़ हो गया, गलती नहीं हुई। यह ऐसे ही हुआ, जैसे कि बाल्या मरा-मरा जप
रहा था,
वह तो
संयोग की बात है,
प्रभु
ने बड़ी कृपा की कि कोई पंडित नहीं भेजा इस वक्त, नहीं तो वाल्मीकि अभी तक
भटकते। पहुंचते ही नहीं। कोई पंडित आकर ठीक कर देता कि यह क्या कर रहे हो--मरा-मरा? राम-राम कहो। और याद रखना, इस तरह की भूल-चूक न हो। तो
फिर डर पैदा हो जाता है। और डर में कहां प्रेम! जहां भय आया, संकोच आ गया सिकुड़ गया आदमी!
फिर वह पूरे वक्त खयाल रखते हैं कि कहीं मरा तो नहीं हो रहा है। फिर तो नहीं हो
रहा है मरा। बस चूक जाते। फिर लीनता ही न बसती, फिर तल्लीनता ही न तो पैदा होती।
तो
मैंने उनसे कहा,
भूल सब
भाषा-व्याकरण। यहां कोई मैं भाषा-व्याकरण थोड़े ही सिखाने को बैठा हूं। यहां असली
की बात चल रही है,
नकली
की बात मत करा। भूल सब। कोई भी शब्द काम देगा। अपना ही नाम अगर दोहरा लो, तो भी हो जाएगा। यह प्रश्न ही
शब्दों का नहीं है।
इसलिए
कहते हैं,
राम
सदा कहत जाई। कहा कि चूके, कहा कि
गया। राम सदा बहत जाई।
और राम
तो प्रवाह है। तुमने पकड़ने की कोशिश की कि चूका। मुट्ठी बांधी कि गया। राम के साथ
बहो। यह प्रवाह है, जीवंत
प्रवाह है। यह कोई मुर्दा चीज नहीं है कि बांध ली गांठ और रख ली संभालकर पोटली
में। यह कोई हीरा नहीं है, यह नदी
है, बहती हुई है, यह सरित-प्रवाह है।
...राम सदा बहत जाई
कहत
पकड़ो राम नाहीं
और
तुमने कहकर पकड़ लिया राम--चूके। राम बह रहा है, तुम भी उसके साथ बहो। बहो धारा के साथ। यही
समर्पण का अर्थ है।
चलत
पकड़ो राम नाहीं,
राम
सदा बिराजत मांही
और राम
तुम्हारे भीतर बैठा है, बुला
किसको रहे हो?
बुला
कौन रहा है?
जो
बुला रहा है वही राम है। अब राम से ही राम-राम कहलवा रहे हो। काहे को कष्ट दे रहे
हो? राम से राम-राम कहलवा के क्या
सार होगा?
जो
भीतर पुकार रहा है उसमें ही डुबकी ले लो।
सब
दिशत राम सही
जब
भीतर राम दिखने लगेगा तो तुम पाओगे, सब दिशाओं में राम है।
चौथा प्रश्न: आपने कल महंमद गझनी और उसके गुलाम के प्रेम की कहानी
कही,
लेकिन
मुझे एक सत्य घटना मालूम है। जिसमें गुरु के शिष्य के प्रति ऐसा भाव प्रगट किया।
आप अपनी अमृतसर की एक यात्रा में लगातार तीन दिनों तक कड़वा रस पीते रहे और शिष्य
को इसकी खबर नहीं होने दी। इसे समझाने की अनुकंपा करें।
पूछा
है चमनलाल भारती ने। उन्हीं के घर की बात है, इसलिए वे ठीक ही कहते हैं। सब ही है बात।
लेकिन इतने प्रेम से पिला रहे थे...। मैं बहुत घरों में रुका हूं। पत्नियां तो
मुझे बहुत अनेक घरों में मिलीं जिन्होंने बड़े प्रेम से सेवा की, लेकिन जहां तक पतियों का
संबंध है,
चमनलाल
अनूठे हैं। खुद ही सारी देखभाल करते। रात बारह बजे मुझे विदा करके फर सुबह का
इंतजाम करने में खुद लग जाते। चार बजे उठकर फिर सुबह का इंतजाम। रस भी खुद लाते, पानी भी खुद लाते, भोजन भी खुद लाते।
इतने
प्रेम से सेवा कर रहे थे कि कडुवे रस की बात उठानी ठीक नहीं थी। और उनका क्या कसूर
था? कुछ कडुवे फल आ गए होंगे।
इतना प्रेम डाला था कुछ कडुवे फल आ गए होंगे। इतना प्रेम डाला था उसमें कि वह
कडवाहट कडवाहट नहीं रही थी। जीभ तो जानती थी कि कडुवा रस है, लेकिन मैं तो कुछ और भी देख
रहा था जो उसके साथ बह रहा है। वह इतना ज्यादा था कि उसने उस कडुवेपन को ढांक दिया
था। कभी-कभी तो बेमन से कोई मीठा रस भी पिला दे
तो कडुवा हो जाता है। और कभी कोई पूरे हृदय से कडुवा रस भी पिला दे मीठा हो
जाता है। एक और भी मिठास है--प्रेम की।
आखिरी प्रश्न: संत दादू ने अपने शिष्यों की पीड़ा समझकर भविष्यवाणी
की थी कि सौ साल बाद एक संत प्रगट होगा। वही पीड़ा मेरे समेत आपके सभी शिष्यों में
मौजूद है। लगता है कि आपकी अनुपस्थिति हमें अनाथ बना देगी। हमारे अंदर भी यही गहरी
आकांक्षा जगती है। कि हमें भी कोई सौ साल बाद संभालनेवाला हो। कृपा कर प्रकाश
डालें।
पहली
तो बात,
मेरे
रहते तुम सनाथ क्यों नहीं हो जाते हो? तुम्हारे इरादे अनाथ रहने के ही हैं? मैं तैयार हूं तुम्हें सनाथ
करने को,
और तुम
कह रहे हो कि जब आप चले जाएंगे। अगर तुम एक बार सनाथ हो गए तो सनाथ हो गए; फिर अनाथ नहीं होते। अनाथ वे
ही हो जाएंगे मेरे जान के बाद, जो
मेरे होते हुए भी अनाथ थे। इसे खूब खयाल में ले लेना।
अगर
मुझसे संबंध जुड़ गया तो परम से संबंध जुड़ गया। वही नाथ है उसके बिना तो अनाथ ही
रहोगे। और अगर मुझे चूक गए तो सौ साल बाद अगर कोई आ भी जाए तो उसको भी चूक जाओगे।
सौ साल में चूकने की आदत और मजबूत हो जाएगी। सौ साल अभ्यास कर लोगे न चूकने का! सौ
साल के बाद की फिक्र कर रहे हो। मैं अभी मौजूद हूं, दरवाजा अभी खुला है। तुम कहते
हो, जब दरवाजा बंद हो जाएगा, सौ साल बाद कोई दरवाजा खुलेगा
कि नहीं?
अभी
दरवाजा खुला है। तुम्हें सौ साल के बाद ही प्रवेश करना है? सौ साल और संसार में रहना है? अभी थके नहीं? अभी ऊबे नहीं?
जो अभी
हो सकता है उसे कल पर मत टालो। और अगर अभी न कर सके तो कल कैसे कर सकोगे? करना है तो इस क्षण हो सकता
है।
इसलिए
मैं सौ साल के बाद की कोई भविष्य-वाणी न करूंगा। मैं भविष्य की तरफ तुम्हें उन्मुख
ही नहीं करना चाहता। वर्तमान मेरे लिए सब
कुछ है,
यही
क्षण सब कुछ है। कल न तो आता है, न कभी
आएगा, न कभी आया है। कल की आशा ही
संसार है। आज में प्रवेश कर जाना ही धर्म है। धर्म बिलकुल नगद बात है। उधारी की
बातें करो।
मैंने
सुना, मुल्ला नसरुद्दीन एक दुकान पर
गया। देखा कि दुकानदार एक तख्ती लगा रहा है। तो मुल्ला ने पूछा कि बड़ी प्यारी
तख्ती है। उसने कहा, पढ़ो भी
तो क्या लिखा है! वह मुल्ला जैसे आदमियों के लिए ही तख्ती लगा रहा था, तख्ती पर लिखा था आज नगद कल
उधार। मुल्ला थोड़ी देर चुप बैठा रहा फिर बोला, अच्छा भाई चलते हैं। तो दुकानदार ने कहा, कैसे आए, कैसे चले? उसने कहा कि अब जैसे आए
थे...यह तख्ती देखकर जा रहे हैं। अब कल आएंगे। आज नगद कल उधार--तो जिस हिसाब से आए
थे, अब वह तो आज चलेगा नहीं। कल
आएंगे। उधार लेने आए थे।
मगर कल
फिर आज की तरह आएगा न! कल जब आओगे, फिर तख्ती
पर फिर लिखा होगा: आज नगद कल उधार।
ऐसी
जिंदगी तख्ती है,
जिस पर
लगा है: आज नगद कल उधार। तुम कल के लिए प्रतीक्षा कर रहे हो, कल कभी आता है? आज ही आता है। जो आता है वह
आज है। द्वार खुला है। हिम्मत हो, प्रवेश
कर जाओ। क्या हिसाब रख रहे हो? सौ साल
बाद जब जो होगा,
होगा।
अगर हिम्मत होगी तो उस दिन भी दरवाजे मिल जाएंगे। हिम्मतवर को सदा दरवाजा है। अगर
हिम्मत न होगी,
तो
कायर को कभी भी दरवाजा नहीं है। दरवाजे कभी समाप्त नहीं होते। कहीं न कहीं दरवाजा
बंद होता है,
कहीं न
कहीं दरवाजा खुल जाता है। ऐसा तो कभी नहीं होता कि परमात्मा तक पहुंचने का कोई
उपाय न हो। सदा उपाय है। परमात्मा किसी न किसी रूप में, किसी न किसी द्वार से तुम्हें
पुकारता ही रहता है। तुममें भर हिम्मत होनी चाहिए।
अब तुम
कह रहे हो कि सौ साल बाद आप की अनुपस्थिति हमें अनाथ बना देगी। मेरी उपस्थिति
तुम्हें सनाथ बना रही है? अगर
मेरी उपस्थिति तुम्हें सनाथ बना रही है तो अनाथ होने का फिर कोई उपाय नहीं रहा।
बात ही खतम हो गई। फिर तुम अनाथ कभी नहीं हो सकोगे। यह नाता कोई दिन दो दिन का
नहीं है। यह नाता फिर शाश्वत है। जो तुम्हें चाहिए वह मैं तुम्हें देने को तैयार
हूं, तुम भर लेने को तैयार हो जाओ।
तुम भर अपना हृदय खोला।
मैथिली
में एक लोककथा है। गोनू झा का नाम बिहार में खूब प्रचलित है। मुल्ला नसरुद्दीन
जैसा आदमी रहा होगा गोनू झा। गोनू झा मेले से सुंदर बछड़ा मोल लेकर अपने गांव लौट
रहे थे। अभी वे गांव की सीमा में प्रवेश कर रहे थे। कि एक चरवाहे ने पूछा कि पंडित
जी, बछड़ा तो बहुत सुंदर है, कितने में मोल लिया? पचहत्तर रुपए में, गोनू झा ने उत्साह से उत्तर
दिया और आगे बढ़े। वे गांव में प्रवेश कर चुके थे कि पाठशाला में जाता हुआ एक छात्र
पूछ बैठा बाबा,
बछड़ा
तो बहुत सुंदर है,
कितने
में मोल लिया?
पचहत्तर
रुपए में,
गोनू
झा ने झलाकर कहा। आगे गांव का कुंआ था जिस पर एक पनिहारन पानी भर रही थी। पनिहारन
भी पूछ बैठी,
पंडित
जी, महाराज, बछड़ा तो बड़ा सुंदर है...और
अभी वह इतना ही कह पाई थी कि गोनू झा बछड़े को वहीं छोड़कर झप से कुएं में कूद पड़े।
पनिहारिन
के शोर मचाते ही बात ही बात में समूचा गांव इकट्ठा हो गया और एक रस्सी डालकर गोनू
झा को किसी तरह बाहर निकला गया। बाहर निकालते ही गोनू झा जोर से चिल्लाए, पचहत्तर रुपए।
क्यों
गोनू, दिमाग तो ठिकाने है? एक अत्यंत वृद्ध व्यक्ति ने
पूछा।
बिलकुल
होश में हूं।
तो यह
क्या बक रहे हो?
पचहत्तर
रुपए और कुएं में कूदने से क्या लेना-देना? और कुएं में कूद ही क्यों थे?
ताकि
सभी गांव वालों के प्रश्न का एक ही बार में उत्तर देकर छुट्टी पा लूं अब एक-एक
आदमी को अलग-अलग उत्तर देते फिरना, और गांव भर पूछेगा कि बाबा, बछड़ा बड़ा सुंदर है। पचहत्तर
रुपए तो गोनू झा ने ठीक उपाय किया, कूद पड़े कुएं में। सारा गांव अपने आप इकट्ठा
हो गया,
एक दफा
पचहत्तर रुपया छुटकारा पा लिया।
जो
प्रश्न तुमने पूछा है, वह
प्रश्न औरों के मन में भी हो सकता है। वह प्रश्न किसी एक का नहीं है। वह मैं
बहुतों की आंखों में देखता हूं। अलग अलग उत्तर देने की जरूरत नहीं है। मैं इकट्ठा
ही कह देता हूं: पचहत्तर रुपए!
दरवाजा
खुला है। आज नगद है और कल उधार हो जाएगा। नगद को स्वीकार कर लो। हिंमत करो। चुनौती
लो। अपने को खोलोगे तो ही सनाथ हो सकोगे।
स्वयं
मिटे बिना कोई सनाथ नहीं होता। क्योंकि जब अहंकार मिटता है तब परमात्मा प्रवेश
करता है।
आज इतना ही।
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