सबै सयाने एक मत-(संत दादू)
दिनांक : 13 सित्म्बर, सन् 1975,
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
तीसरा -प्रवचन
मेरे आगे मैं खड़ा
जीवत माटी हुई रहै, साईं सनमुख होई।
दादू पहिली मरि रहै, पीछे तो सब कोई।।
(दादू) मेरा बैरी मैं मुवा, मुझे न मारै कोई।
मैं ही मुझको मारता, मैं मरजीवा होई।।
मेरे आगे मैं खड़ा, ताथैं रह्या लुकाई।
दादू परगट पीव है, जे यहु आपा जाई।।
दादू आप छिपाइए, जहां न देखै कोई।
पिव को देखि दिखाइए, त्यों-त्यों आनंद होई।।
(दादू) साईं कारण मांस का, लोहू पानी होई।
सूकै आटा अस्थि का, दादू पावै सोई।।
एक
प्राचीन कथा है। एक बहुत बड़े सम्राट को राज्य के सुदूर कोने से खबर आई कि वहां की
जनता अत्यंत दुखी है, नरक
में जी रही है। लोग एक-दूसरे के विरोध में हैं। सतत कलह और संघर्ष है। लोग एक ही
सुख जानते हैं;
वह है, दूसरों को दुख देना। जीवन
असंभव हो गया है। लूट-पाट, हिंसा, आगजनी, हत्या, आत्महत्या, इन्हीं के बादलों से आकाश भर
गया है।
सम्राट
ने सोचा;
फिर
उसने अपने वजीर को बुलाया और उसे एक दर्पण दिया। वह दर्पण किसी जादूगर ने सम्राट
को भेंट किया था। उस दर्पण की खूबी थी कि जो भी उसमें देखेगा, उसे चीजें वैसी दिखाई पड़ने लगेंगी, जैसी वे हैं। वैसी नहीं, जैसी उसने कल्पना में मान रखी
हैं; वैसी नहीं, जैसा उसने भ्रम पाल रखा है; वैसी नहीं, जैसा उसका पक्षपात है; वरन वैसी, जैसी कि वे अपने आप में हैं।
उसे यथार्थ दिखाई पड़ने लगेगा। और यथार्थ दिखाई पड़ जाए तो जीवन रूपांतरित हो जाता
है। जो भी उस दर्पण में झांक लेगा, फिर वह वही आदमी नहीं रह जाएगा जो कल तक था।
वजीर
उस जादुई दर्पण को लेकर उस दूर के नगर में पहुंचा। वजीर जानता था लोगों को
भलीभांति। सम्राट तो महलों में ही रहा है। उसे दर्पण की खूबी का पता होगा, लोगों की खूबी का पता नहीं
है। वजीर जानता था क्या हश्र होगा, क्या परिणाम होगा। पर राजा की आज्ञा थी, पूरी करनी थी। उसने जाकर उस
अनूठे दर्पण को गांव के बीच चौराहे पर खड़ा कर दिया, डुंडी पिटवा दी--कि यह दर्पण
अनूठा है;
सम्राट
ने भेंट भेजा है। इस दर्पण को हम यहीं छोड़ जा रहे हैं। इसकी सुरक्षा करना और इसका
उपयोग करना। जब भी किसी के चित्त में बेचैनी, अशांति, घृणा का रोग पकड़े, इसमें झांकना। तुम्हें चीजें
वैसी ही दिखाई पड़ने लगेंगी, जैसी
हैं।
जैसे
कि तुम सोचते हो,
लोग
तुम्हारा अपमान कर रहे हैं। दर्पण में देखना, स्थिति उलटी ही पाओगे। कोई तुम्हारा अपमान
करने को उत्सुक नहीं है। तुम ही जरूरत से ज्यादा सम्मान मांग रहे हो। दर्पण में
देखते ही दिखाई पड़ जाएगा कि तुमने अपने अहंकार का गुब्बारा इतना बड़ा कर लिया है कि
तुम जहां भी जाते हो, तुम ही
लोगों से टकरा जाते हो। कोई तुमसे टकराने को उत्सुक नहीं।
अगर
तुम्हें लगे कि लोग तुम्हें दुख दे रहे हैं, तो दर्पण में देखने से पता चल जाएगा कि कोई
इस संसार में किसी को दुख दे नहीं सकता। तुम हजार-हजार मार्गों से दुख पाने के
उपाय करते हो। फिर जब उपाय पूरे हो जाते हैं, तब तुम रोते, चीखते, चिल्लाते हो। तुम्हें लगे जब
भी कुछ पीड़ा,
परेशानी, बेचैनी, तो दूसरे पर उत्तरदायित्व मत
फेंकना;
पहले
दर्पण में झांक लेना।
डुंडी
पीट दी गई। वजीर कुछ दिन रुका भी रहा देखने कि क्या होता है। उसे पता था कि क्या
होगा।
एक
वर्ग था गांव में पंडितों का, मौलवियों
का, शास्त्रियों का, जानकारों का, तथाकथित ज्ञानियों का।
उन्होंने कहा,
वस्तुएं
हमें वैसी ही दिखाई पड़ती हैं, जैसी
हैं। हम इस दर्पण में क्यों देखें? क्या हम नासमझ हैं कि हमें वस्तुएं उनके
यथार्थ में दिखाई नहीं पड़तीं? क्या
हम पागल हैं?
अब तक
हम क्या धूप में बाल पकाते रहे? उस
दर्पण के पास वे ही जाएं जिनको अपनी बुद्धि पर भरोसा न हो। हमें भरोसा है। न केवल
वे स्वयं नहीं गए,
उन्होंने
गांव में हवा पैदा की कि कोई जा न सके। उन्होंने खबर की कि जो पागल होंगे वही
जाएंगे। दर्पण होगा खूबी का, लेकिन
पागलों के ही काम का है, बीमारों
के काम का है। हम तो स्वस्थ हैं। और हमें तो चीजें यथार्थ रूप में दिखाई ही पड़ती
हैं। दर्पण का प्रयोजन क्या है?
दूसरा
वर्ग था एक गांव में सीधे-सादे लोगों का, लेकिन कायरों का। उन्होंने कहा कि दर्पण में
देखो न देखो,
लेकिन
सम्राट ने भेजा है, सम्मान
तो देना जरूरी है। तो उन्होंने एक छोटा सा मंडप तैयार कर दिया, फूलऱ्हार सजा दिए। यद्यपि
उन्होंने भी ध्यान रखा कि फूलऱ्हार लगाते वक्त, दीप जलाते वक्त, धूप बालते वक्त, कहीं भूल से दर्पण में चेहरा
न दिख जाए। क्योंकि कौन जाने ठीक ही हो! तो सब अस्तव्यस्त हो जाएगा। जीवन बंधा है
एक ढांचे में;
कहीं
कुछ और दिखाई पड़ने लगा तो कहीं के न रहेंगे। एक सुरक्षा है बंधे-बंधाए जीवन की
धारा में। कायर उसे बदलने से डरता है। तो उन्होंने पूजा की, इस भय से कि कहीं भूल-चूक से
भी दर्पण में चेहरा दिखाई पड़ गया तो क्रांति हो जाएगी। उन्होंने बहुमूल्य मखमल का
एक परदा भी दर्पण पर टांग दिया। कहा उन्होंने यही कि यह दर्पण का सम्मान किया जा
रहा है,
पूजा
की जा रही है। लेकिन गहरे में सुरक्षा की तैयारी थी।
गांव
में एक तीसरा वर्ग भी था, जिन्होंने
न केवल विरोध किया, बल्कि
गांव में यह हवा भी पैदा की कि यह दर्पण हमारे अपमान का सूचक है। किसी और नगर में
ऐसा दर्पण नहीं है; हमारे
नगर में ही सम्राट ने भेजा है। यह भयंकर अपमान है। इसका मतलब है--हम पागल हैं, मूढ़ हैं; हमें चीजें गलत दिखाई पड़ती
हैं; हमारे पास आंखें नहीं हैं; हम अंधे हैं! इस दर्पण को
उखाड़ कर फेंकना है। इसे यहां टिकने न देंगे।
कुछ एक
चौथा वर्ग भी था,
बहुत
छोटे लोगों का,
जैसे
डाक्टर फणनीस,
स्वभाव, सोहन, पुंगलिया, बागमार; ऐसे थोड़े से लोग थे। उन्होंने
हिम्मत जुटा कर दर्पण में झांक कर देखा, रूपांतरित हुए। तो लोगों ने कहा, ये हिप्नोटाइज्ड हो गए हैं।
ये सम्मोहित हो गए हैं। लोग जैसा दर्पण से बचते थे, वैसा ही इन लोगों से भी बचने
लगे। क्योंकि इनमें भी दर्पण की कुछ खूबी आ गई। इनकी आंखों में भी जो झांकता, उसे भी चीजें वैसी दिखाई पड़ने
लगतीं,
जैसी
कि थीं।
अंततः
लोगों ने दर्पण नष्ट कर दिया, क्योंकि
वह बहुत उपद्रव था। न केवल उन्होंने यह किया कि दर्पण नष्ट कर दिया, जिन्होंने दर्पण से देखा था
उनका जीवन दूभर कर दिया। और ऐसा नहीं कि दुश्मनों ने किया, घर के लोगों ने भी कर दिया, परिवार के लोगों ने भी कर
दिया, क्योंकि अब उनकी आंखें झेलना
मुश्किल हो गईं।
ऐसी ही
कथा है सारे धर्मों की। हर धर्म एक दर्पण लाता है तुम्हारे नगर में। और हर धर्म की
चेष्टा है कि उस दर्पण में तुम वैसा देख लो जैसा सत्य है। और ये प्रतिक्रियाएं हैं
जो आदमी करता है।
कायर
होकर पूजा करने से कुछ लाभ न होगा। कायर के साथ पूजा का कोई संबंध ही नहीं। पूजा
तो दुस्साहस है। क्योंकि पूजा तो स्वयं को बदलने की तैयारी है। पूजा तो क्रांति
में उतरना है। स्वर्ण को अग्नि में डालना है, ताकि वह निखर सके।
और जो
भी क्रांति की तरफ चलता है, उसे
अपने को मिटाना ही होगा। रत्ती-रत्ती मिटाना होगा। क्योंकि तुम्हारे और यथार्थ के
बीच तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी नहीं खड़ा है। तुम्हारी बंधी हुई बुद्धि की धारणाएं, पक्षपात, शास्त्र, सिद्धांत, हिंदू, मुसलमान, जैन, ईसाई, सब तुम्हें रोकेंगे। वे
कहेंगे,
तुम तो
जानते ही हो! जानने को बचा क्या है? तब सावधान होना जरूरी होगा।
अगर
तुम जानते ही थे,
तो एक
कसौटी सदा कस लेना कि जो जानता है वह आनंदित होगा। जानने का और कोई अर्थ नहीं है।
जो ज्ञान आनंद तक न ले आए वह ज्ञान नहीं है। ज्ञान हो नहीं सकता। जिस भोजन से भूख
ही न मिटती हो,
उसे
भोजन क्या कहना! वह भोजन की चर्चा होगी, भोजन नहीं हो सकता। हो सकता है पूरा
पाकशास्त्र तुम्हारे हाथ में हो, तो भी
तुम भूखे ही रहोगे। पाकशास्त्रों से कहीं भूख मिटी है? रूखी-सूखी रोटी भी मिटा देती
है। बड़ा बहुमूल्य पाकशास्त्र, स्वर्ण
की जिल्दों में बंधा हो तो भी, हीरे-जवाहरातों
से जड़ा हो तो भी किसी भी काम नहीं आता। भूख मिटाने का उससे कोई संबंध नहीं।
तुम्हारे
वेद, तुम्हारी गीताएं, तुम्हारे कुरान, पाकशास्त्र हैं। बड़े बहुमूल्य
होंगे,
उनमें
बड़ी विधियां लिखी हैं। लेकिन तुम उनकी पूजा कर रहे हो। और तुमने उन पर भी काफी
मखमल के परदे डाल दिए हैं, ताकि
कहीं भूल-चूक से भी तुम्हें अपनी झलक न मिल जाए।
जब भी
कोई धर्म जन्मता है तब तो एक दर्पण होता है। जब किसी संत का आविर्भाव होता है, तब वह एक दर्पण होता है। उस
दर्पण में तुम झांकोगे तो ही! झांकने के पहले तुम्हें साहस जुटाना होगा। झांकने के
पहले तुम्हें यह बात तय कर लेनी होगी कि तुम जानते नहीं हो।
सूफी
कहते हैं कि जिस व्यक्ति को यह खयाल आ गया कि मुझे पता नहीं है, वह द्वार पर खड़ा हो गया।
जिसको यह खयाल है कि मुझे पता है ही, वह दर्पण के पास से भी आंख बंद किए गुजर
जाएगा। क्योंकि क्यों देखूं दर्पण में?
और तुम
अपनी जीवन-व्यवस्था को अगर बचाव करने में लगे हो; यद्यपि उससे तुमने दुख पाया
है, पीड़ा पाई है, नरक पाया है, लेकिन फिर भी तुम उसके आदी हो
गए हो। कारागृह में कैदी जंजीरों का भी आदी हो जाता है। उनको भी छोड़ने का मन नहीं
करता।
बीमार
आदमी अपनी बीमारी को भी पकड़ता है। पहचान हो जाती है, पुराने नाते हो जाते हैं। आज
अचानक बीमारी छोड़ कर चली जाएगी, तुम्हें
समझ में ही न आएगा, अब
क्या करें?
कल तक
तो एक योजना थी। सुबह से उठ कर डाक्टर के घर जाते थे, दवा लाते थे, दवा लेते थे, लेटते थे, लोगों से दुख की चर्चा करते
थे, लोगों की सहानुभूति जुटाते थे; सभी मित्र, परिचित, अपरिचित प्रेम प्रकट करते
थे--एक ढांचा था। आज अचानक बीमारी चली गई। आज न डाक्टर के घर जाना है, न दवा खरीदनी है, न आज पत्नी उतना प्रेम करती
मालूम पड़ती है,
न
मित्र उतनी दया करते मालूम पड़ते हैं। दुनिया अचानक रूखी-सूखी मालूम पड़ने लगी, एक मरुस्थल फैल गया। कल तक
हरियाली थी। बीमारी के साथ बड़ा गहरा संबंध हो गया। अब तुम बीमारी छोड़ना न चाहोगे।
दुख भी
तुम छोड़ना नहीं चाहते। संत इतना ही कहते हैं कि तुम दुख छोड़ दो; आनंद तो मिला ही हुआ है। तुम
गलत को छोड़ दो,
ठीक तो
उपलब्ध ही है। सिर्फ गलत हाथ में न हो तो ठीक हाथ में आ जाए। गलत आंख में न हो तो
ठीक आंख में आ जाए। इतना ही दर्पण है।
ये
दादू के वचन तुम्हारे जीवन को बदल सकते हैं। इनमें छिपा है दर्पण। इन वचनों को गौर
से समझने की कोशिश करना। और ऐसे समझने की कोशिश करना जैसे कि तुम कुछ जानते नहीं
हो; तो ही समझ पाओगे। जानने वालों
का दुर्भाग्य है। वे नहीं समझ पाते। वे जानने के पहले ही जानने से भरे हैं। जानने
को हटा देना। सुनना सरलता से, जैसे
छोटे बच्चे सुनते हों।
जीवत
माटी हुई रहै,
साईं
सनमुख होई।
जो
परमात्मा के सामने जाने का साहस करेगा, वह जीते जी मिट्टी हो जाएगा।
परमात्मा
को तो खोजने बहुत लोग निकलते हैं, लेकिन
जीते जी मिट्टी होने की क्षमता कभी विरले व्यक्तियों में होती है। इसलिए खोजते
बहुत हैं,
पाते
बहुत कम हैं। इसमें परमात्मा का कोई कसूर नहीं है। तुम जब तक न मिटो, तब तक उसके लिए जगह ही नहीं
है तुम्हारे पास। तुम ही अपने अंतर्गृह में इस बुरी तरह भरे हो कि वहां स्थान नहीं
है, अवकाश नहीं है कि परमात्मा
प्रवेश कर जाए। वहां तुमने बूंद भर जगह नहीं छोड़ी है।
तुम्हारी
हालत ऐसी है जैसे मैंने सुना है कि मथुरा का एक पंडा था; उसकी बड़ी ख्याति थी भोजन के
संबंध में। किसी के घर आमंत्रण था, भोजन करने के बाद--भोजन तो वह करता ही
गया--उसे भेजने के लिए भी बैलगाड़ी पर रख कर घर वापस ले जाना पड़ा। चलने की भी
स्थिति न रही। घर पहुंच कर उसकी पत्नी ने उससे कहा, यह गोली एक दवा की खा लो, क्योंकि यह तो तुमने हालत
खराब कर ली। उसने आंख खोली। उसने कहा, नासमझ! अगर गोली ही खाने की जगह होती तो एक
लड्डू ही और न खा लेते? वह जगह
तो पहले ही नहीं बची है।
वैसी
तुम्हारी दशा है। परमात्मा के लायक अगर जगह होती, तो तुम थोड़ा फर्नीचर और खरीद
लाते, थोड़ा धन और जुटा लेते, थोड़े पद-प्रतिष्ठा के मानपत्र
और इकट्ठे कर लेते। तुम थोड़ा कूड़ा-करकट और भर लेते। जगह है ही नहीं। वह तुमने छोड़ी
ही नहीं है। और तुम्हारे भीतर जब तक ऐसी जगह न हो कि पूरा आकाश हो जाए, तब तक परमात्मा का आना नहीं
हो सकता।
विराट
को बुलाते हो,
शून्य
बनाना पड़ेगा। असीम को बुलाते हो, सीमारहित
शून्यता भीतर घनीभूत करनी पड़ेगी। ध्यान कुछ और नहीं, समाधि कुछ और नहीं, तुम्हारे मिट जाने का नाम है।
तुम थोड़े ही ध्यान करोगे! तुम मिटोगे तब ध्यान होगा। तुम थोड़े ही समाधिस्थ हो
जाओगे! तुम खो जाओगे तब समाधि होगी। तुम्हारा और समाधि का कभी कोई मिलना न होगा।
यहां तुम गए,
वहां
समाधि आई। तुम रहे, समाधि
न आ पाएगी। समाधि का कुल इतना अर्थ है कि तुम्हारे भीतर खाली शून्य स्थान हो गया।
अब तुम्हारे भीतर कुछ भी नहीं है। उस शून्यता में, उस पवित्रता में, उस कुंवारेपन में ही परमात्मा
अवतरित होता है।
जीवत
माटी हुई रहै,
साईं
सनमुख होई।
परमात्मा
के सामने जो आया,
वह
जीते जी मिट्टी हो गया। या: जीते जी जो मिट्टी हो गया, उसके सामने परमात्मा आ गया।
ये दोनों बातें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जीवित माटी हो रहो! परमात्मा की
फिक्र ही मत करो। तुम जीते जी मर जाओ।
इन
शब्दों को ठीक से समझ लेना। क्योंकि इन छोटे से शब्दों में धर्म की सारी कला
समाहित है: जीते जी मर जाओ। मरते तो सभी हैं, आज नहीं कल। भक्त मरने के पहले मर जाता है।
वह कहता है,
जब
मरना ही है,
तो मौत
की क्या प्रतीक्षा करनी! हम खुद ही मिटे जाते हैं।
जीवत
माटी हुई रहै...
वह
जीता है इस अर्थों में कि श्वास चल रही है। मर जाता है इस अर्थों में कि मैं का
कोई भाव नहीं रह जाता। जीता है इस अर्थों में कि भूख लगती है, प्यास लगती है, भोजन भी मांग लाता है, पानी भी पी लेता है। मर जाता
है इस अर्थों में कि अब जीने की कोई आकांक्षा नहीं रह जाती। तुम्हारी जीने की
आकांक्षा ही,
जीवेषणा--जीता
रहूं, सदा जीता रहूं, मैं बना रहूं, मिट न जाऊं कहीं, खो न जाऊं कहीं--उस जीवन को
वह छोड़ देता है।
वह
जीता है,
अगर
परमात्मा जिलाए जा रहा है; श्वास
लिए जा रहा है। तो संत कोई आत्महत्या नहीं कर लेता है। वह कहता है, तेरी मर्जी। जिलाए तो ठीक, मारे तो ठीक। अपनी तरफ से हम
मरे हुए हैं। हमने अपने को तो अपनी तरफ से मिटा दिया, अब तेरी जो इच्छा।
जीवत
माटी हुई रहै,
साईं
सनमुख होई।
दादू
पहिली मरि रहै,
पीछे
तो सब कोई।।
दादू
पहले ही मर जाओ। पीछे तो सभी मरते हैं।
दादू
पहिली मरि रहै,
पीछे
तो सब कोई।।
सभी
मरते हैं पीछे तो। धार्मिक पहले ही मर जाता है। वह मृत्यु को इतना कष्ट भी नहीं
देता। वह अपने को पहले ही समेट लेता है। वह अपने को बढ़ाता ही नहीं। वह अपने को
बनाता ही नहीं। वह अपने को सम्हालता ही नहीं। वह एक भीतर शून्य को जीने लगता है।
देह होती है,
मन
नहीं होता। श्वास चलती है, चलाने
वाला नहीं होता। उठना-बैठना होता है, भीतर का कर्ता खो जाता है।
ये
सारे कृत्य निसर्ग से चलते हैं। इनको चलाने की कोई जरूरत नहीं।
तुम
श्वास थोड़े ही लेते हो, श्वास
चलती है। तुम कुछ भी न करो तो चलती है। तुम गहरे सोए रहो तो चलती है। तुम
मूर्च्छित पड़े हो तो चलती है। शराब पी ली है, नाली में गिर गए हो, तो चलती है। चलाने में
तुम्हारा कोई हाथ नहीं है।
तो जो
अपने आप चलता रहता है वह चलता रहता है। भूख लगती है, प्यास लगती है।
झेन
फकीरों ने बहुत बार कहा है। जब भी उनसे पूछा गया कि निर्वाण को पा लेने के बाद, समाधिस्थ हो जाने के बाद अब
आप क्या करते हैं?
तो वे
कहते हैं,
भूख
लगती है,
तब
खाना खा लेते हैं। प्यास लगती है, तब
पानी पी लेते हैं। नींद आती है, तब सो
जाते हैं। और कुछ भी नहीं करते। अपनी तरफ से कुछ नहीं करते। जो हो रहा है निसर्ग
से, वह ठीक है।
दादू
पहिली मरि रहै,
पीछे
तो सब कोई।।
यही
धार्मिक-अधार्मिक का फर्क है। अधार्मिक, जब मौत आती है तब भी मरने को राजी नहीं
होता। लड़ता है;
सब तरह
की चेष्टा करता है, और
थोड़ी देर रुक जाए। नाव भी लग गई किनारे पर, तब भी वह किनारे को जकड़े रहता है। उसे
जबरदस्ती ले जाना पड़ता है।
यमदूत
मृत्यु के कारण नहीं आते, यमदूत
तुम्हारी पकड़ के कारण आते हैं। सारे संसार में कथाएं हैं इस बात की कि मरते वक्त
परमात्मा को भेजने पड़ते हैं लोग--बड़े दुष्ट प्रकृति के लोग, बड़े शक्तिशाली पहलवान जैसे, भैंसों पर सवार होकर। वह कोई
मृत्यु के कारण नहीं; वह
तुम्हारी जबरदस्ती है रुके रहने की। तुम अगर जाने को राजी हो तो बात ही अलग हो जाती
है। यमदूत आते ही नहीं। अगर बहुत गहरे में तुम देख पाओ तो समझ लोगे कि मृत्यु भी
नहीं आती। क्योंकि वह तो तुम काम पहले ही निपटा चुके। वह मरने का काम तो हो ही
गया। तुम एक हवा के झोंके की तरह चले जाते हो। कोई ले जाता नहीं।
बुद्ध
का एक नाम है तथागत। तथागत का अर्थ होता है, हवा के झोंके की तरह जो चला गया। पता भी न
चला कब आया,
पता भी
न चला कब चला गया। जिसके जाने में जरा भी शोरगुल न था; जिसका जाना ऐसे हो
गया--चुपचाप;
कानों-कान
खबर न पड़ी। कोई यमदूतों ने बुद्ध को नहीं छुड़ाया संसार से, उस संसार को पहले ही छोड़ दिया
था।
बुद्धपुरुष
ऐसा है जैसे किनारे से सब जंजीरें तोड़ कर नाव की प्रतीक्षा में खड़ा है। नाव आए, वह सवार हो जाए। साधारण
संसारी ऐसा है कि नाव पास आती देख कर मौत की, वह और खूंटियां गाड़ लेता है किनारे पर।
हाथ-पैर भी जकड़ देता है। सब तरह से बंध कर अपने को पकड़ कर रह जाता है।
मित्र-प्रियजनों को बुला लेता है कि सब तरफ से पकड़ लो, कहीं से जा न सकूं।...ले जाया
जाता है। उसकी मौत एक बेहूदी घटना बन जाती है। उसकी मौत एक कुरूप कृत्य हो जाती
है।
और
ध्यान रखना,
जो मर
भी नहीं सकता शांति से, वह जी
नहीं सका होगा शांति से। क्योंकि मौत तो महाशांति है। वह तो परम विश्राम है। वह तो
थके हुए तत्वों का वापस लौट जाना है; और कुछ भी नहीं है। शरीर थक गया, सत्तर साल तक काम करता रहा, भयंकर लंबी यात्रा थी, दूभर चढ़ाई थी। हृदय धड़कता रहा, श्वास चलती रही; खून साफ करता रहा सत्तर-अस्सी
साल तक। और बिना किसी विशेष आयोजन के यह महान यंत्र काम करता रहा। यह थक गया। इसके
तत्व अब वापस लौट जाना चाहते हैं। मिट्टी मिट्टी में विश्राम करना चाहती है; जल जल में जाना चाहता है; आकाश आकाश में खो जाना चाहता
है। मृत्यु तो विश्राम है। जैसे रोज नींद विश्राम है। हर दिन के बाद, हर दिन के श्रम के बाद रात है
विश्राम के लिए;
ऐसे हर
जीवन के बाद रात है मौत की, सो
जाने के लिए। विश्राम से कोई घबड़ाता है?
अज्ञानी
तड़फता है कि मर जाऊंगा। अशांति से मरता है। जो अशांति से मरता है वह जी तो सकता ही
नहीं शांति से। जिसकी नींद तक अशांत है, उसका जागरण तो महा अशांत होगा। मृत्यु कसौटी
है। कैसे तुम मरोगे, उससे
तुम्हारे पूरे जीवन के संबंध में निर्णय मिल जाएगा। मृत्यु तुम्हारे पूरे जीवन के
संबंध में वक्तव्य दे जाएगी--तुम कैसे जीए।
जो
आनंद से जीया था,
वह
आनंद से मरेगा;
महा
आनंद से मरेगा। जो प्रेम से जीया था, वह प्रेम से ही लीन हो जाएगा। जो अहोभाव से
नाचा था,
वह
नाचते हुए ही विदा होगा। संघर्ष नहीं होगा। बचने की क्षण भर के लिए आकांक्षा नहीं
होगी। वह स्वयं तत्पर होगा। यमदूत उसे खींचेंगे नहीं; वह खुद ही नाव पर सवार हो
जाएगा।
एक झेन
फकीर हुआ बोकोजू। जब वह मरने लगा, तो
उसने सबको खबर कर दी कि आज मैं मर जाऊंगा। मित्र, अनुयायी, प्रेमी इकट्ठे हो गए। लाखों
की भीड़ थी। बोकोजू झोपड़े के बाहर आया, अपने प्रार्थनागृह से निकला और मरघट की तरफ
चलने लगा। लोगों ने कहा, आप
कहां जाते हैं?
उसने
कहा कि मैं किसी के कंधे पर सवार होकर जाना पसंद न करूंगा। अभी तो चल सकता हूं। यह
मेरी आदत नहीं है।
अकेला
आदमी है पूरे संसार के इतिहास में, जो मरघट पर जाकर अपनी कब्र खोद कर लेट गया
और मर गया। लेटा और शांत हो गया। कब्र भी उसने किसी और को न खोदने दी। उसने कहा, यह बात ही क्या करनी! जब तक
जीवित हूं,
यह सब
कर देता हूं। यह कहने को न रह जाए कि मुझे ले जाया गया। मैं गया! मैं उन बुद्ध का
अनुयायी हूं,
जिनका
नाम तथागत है;
जो ऐसे
चले गए।
वह
बुद्ध से भी सुंदर ढंग से गया। उसके जाने की कहानी बड़ी अनूठी है। अपने हाथ से गया।
और जो मौत में ऐसे जाता हो--नाचते हुए, हंसते हुए, सुबह के सूरज में जब फूल खिले
हों, पक्षी गीत गाते हों--ऐसे
स्वागत से जाता है, इतनी
सरलता से जाता है,
वह
इतनी ही सरलता से जीया भी होगा। क्योंकि मौत तो निचोड़ है। जीवन के सारे फूलों का
निचोड़ है,
इत्र
है।
अगर
जीवन के फूल गंदे और कड़वे और दुर्गंधऱ्युक्त रहे हैं, तो मौत सुगंधऱ्युक्त नहीं हो
सकती। अगर सारे जीवन फूलों की खेती की है, सुंदर फूलों की, सौंदर्य से भरे फूलों की, सुगंध भरे फूलों की, तो मौत में एक सुगंध होगी।
व्यक्ति तो खो जाएगा, सुगंध
तैरती रह जाएगी।
इसलिए
बुद्ध मर जाते हैं, सुगंध
तैरती रह जाती है। बुद्ध का खोना हो गया, लेकिन बुद्ध का गीत गूंजता रहता है। वह
गूंजता ही रहेगा। उसके मिटने का कोई उपाय नहीं है।
दादू
पहिली मरि रहै,
पीछे
तो सब कोई।।
दादू
मेरा बैरी मैं मुवा, मुझे न
मारै कोई।
मैं ही
मुझको मारता,
मैं
मरजीवा होई।।
दादू
मेरा बैरी मैं मुआ! कि मेरा दुश्मन मैं ही हूं। मुझे न मारै कोई। मुझे कोई और नहीं
मारता।
महावीर
ने कहा है,
तुम ही
हो अपने मित्र,
तुम ही
हो अपने शत्रु। जो अपने शत्रु हैं, वे ही सांसारिक हैं। जो अपने मित्र हैं, वे ही धार्मिक हैं। तुम
कूड़ा-करकट इकट्ठा कर लेते हो, आत्मा
को बेच डालते हो। तुम क्रोध, घृणा, वैमनस्य में जीने लगते हो; प्रेम, आनंद, अहोभाव, करुणा तिरोहित हो जाते हैं।
तुम अपने ही मित्र कैसे अपने को कह सकोगे?
किसी
और ने तुम्हें नहीं मारा है, किसी
और ने तुम्हें नहीं लूटा है, तुम ही
अपने को काटते रहे हो, अपने
को जहर देते रहे हो। तुम्हारे जीवन में अगर घाव हैं, तो उनमें तुम्हारे ही
हस्ताक्षर हैं। और तुम्हारे हृदय में अगर पीड़ाओं के घनीभूत मेघ हैं, तो वह तुमने अर्जित किया है
जन्मों-जन्मों में। तुम जो हो, वह
तुम्हारे कृत्यों का फल हो।
दादू
मेरा बैरी मैं मुवा...
मैं ही
अपना शत्रु हूं।
...मुझे न मारै कोई।
कोई
मुझे मारता थोड़े ही है! अब यह बड़ी सूक्ष्म बात है। दादू यह कह रहे हैं कि मौत
तुम्हें नहीं मारती; जीवित
रहने की आकांक्षा तुम्हें मारती है।
इसीलिए
मैंने दर्पण की कथा तुमसे कही, ताकि
तुम्हें तथ्य दिखाई पड़ने लगे। तुम सोचते हो, मौत आती है और तुम्हें मारती है। नहीं; तुम जितनी मात्रा में जीवन को
जकड़ रखना चाहते हो, उतनी
ही बड़ी मात्रा में मौत आती है। तुम्हारी जितनी पकड़ होती है जीवन पर, उतने ही जोर से मौत के दूतों
को तुम्हें जीवन से छुड़ाना पड़ता है। अगर तुम्हारी कोई भी पकड़ न हो, पकड़ ही न हो, तो मौत आती ही नहीं। मौत के
समय अधिक लोग बेहोश हो जाते हैं, क्योंकि
बड़ी छीना-झपटी होती है। सिर्फ संत पुरुष होश में मरते हैं, क्योंकि छीना-झपटी कुछ है ही
नहीं।
वस्तुतः
सच्चाई तो यह है कि जो लोग सम्यकरूपेण जीए हैं, सम्यकरूपेण मरते हैं। मौत के आखिरी क्षण में
उनकी सजगता अपनी चरम उत्कृष्ट कोटि पर होती है, आखिरी कोटि पर होती है। जैसे बुझने के पहले
दीये में लपट आखिरी आ जाती है, वैसे
ही उनके जीवन में सारे जीवन के बोध का सार-संचित घटित होता है। मृत्यु के क्षण में, जब सब मर रहा होता है, उनके भीतर जो अमृत ज्योति है, वह बड़ी प्रगाढ़ता से जलती है।
यह ठीक
भी है। क्योंकि विपरीत में ही चीजें प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ती हैं। अब तक तो
मिले-जुले थे शरीर से, कोई
भेद-फासला न था ज्यादा। अब शरीर दूर पड़ने लगा; चेतना अलग हटने लगी; मिश्रण टूट रहा है। इस घड़ी
में बोध परिपूर्ण होगा। इस घड़ी में चेतना शुद्ध होगी। शरीर की कण भर भी छाया उस पर
न रह जाएगी। मन के विचार की क्षण भर भी विकृति न पड़ेगी। दर्पण बिलकुल शुद्ध होगा।
मृत्यु
के क्षण में संत पुरुष--जिसने अपने को पहले ही मार डाला है, अहंकार का त्याग कर दिया
है--वह बड़ी प्रगाढ़ ज्योति को उपलब्ध होता है। वह अनुभव करता है कि मैं तो जीवन हूं, मृत्यु कैसे हो सकती है? तब वह देखता है: मृत्यु
आस-पास घट रही है,
मुझमें
नहीं। मेरे पास घट रही है, मुझमें
नहीं।
तुम
देखोगे: तुम्हारे भीतर घट रही है। क्योंकि तुम्हें अपना तो पता ही नहीं है। और
जिसे तुमने अपना आपा समझ रखा है, वह
सिर्फ एक झूठी धारणा है अहंकार की, नाम-रूप की, माया की।
दादू
मेरा बैरी मैं मुवा, मुझे न
मारै कोई।
यह
उलटा लगेगा,
विरोधाभासी
लगेगा,
लेकिन
इसे समझ लेना।
अगर
तुम बहुत सम्मान चाहते हो, तो
तुम्हारा अपमान होगा। अगर तुम अतिशय सफलता चाहते हो, तो तुम्हें विफलता मिलेगी।
अगर तुम बहुत धनी होना चाहते हो, तो तुम
निर्धन मरोगे। अगर सम्राट होने की आकांक्षा है, तो भिखारी होना तुम्हारी नियति होगी। तुम जो
भी अतिशय से चाहोगे, उससे
उलटा परिणाम होगा।
इसलिए
तो लाओत्सु कहता है, समझदार
पहले से ही सफलता की दौड़ में सम्मिलित नहीं होते। उन्हें तुम हरा न सकोगे। वे पहले
से ही पीछे खड़े होते हैं। तुम उन्हें गिरा न सकोगे। वे मांगते ही कुछ नहीं। तुम
उनसे छीन न सकोगे।
यह जो
लाओत्सु कह रहा है, यह
सारे धर्म का सार-संचय है। तुम्हें अगर बचना हो, तो अपने को बचाना ही मत।
जीसस
ने कहा है,
बचाओगे, और मिटोगे। मिटोगे, बच जाओगे।
धर्म
को विरोधाभास की भाषा बोलनी पड़ती है। क्योंकि तुम्हारा जीवन इतने अंधेरे में है कि
किसी और तरह से खबर पहुंचाई नहीं जा सकती। सीधी बात भी कहनी हो तो तिरछी करके
पहुंचानी पड़ती है,
क्योंकि
तुम बड़ी तिरछी हालत में पड़े हो। लाओत्सु ने बार-बार कहा है कि सीधी-सादी मेरी
बातें हैं,
लेकिन
तिरछी लगती हैं। क्योंकि तुम तिरछे हो। तुम्हारे भीतर जाकर तिरछी हो जाती हैं।
अब यह
बात सीधी-सादी है। अगर तुम मान ही न चाहो, तो क्या तुम्हारा कोई अपमान कर सकेगा? कैसे करेगा? अगर तुम सफलता न चाहो, तो तुम विफल हो सकते हो? कैसे होओगे? अगर तुमने जीतना ही न चाहा हो, तो तुम्हें कोई हरा सकता है? तो तुम्हारी ही जीतने की
आकांक्षा हराती है। और तुम्हारी ही जीने की अतिशय आकांक्षा मारती है। तुम्हारी ही
पकड़ के कारण तुम से छुड़ाया जाता है।
...मुझे न मारै कोई।
मैं ही
मुझको मारता,
मैं
मरजीवा होई।।
मैं ही
अपने को मारता हूं और मैं ही चाहूं तो मैं अमृत को उपलब्ध हो सकता हूं--मरजीवा! मर
कर भी जीया हुआ हो सकता हूं। मरजीवा शब्द बड़ा अच्छा है। मरूं भी एक अर्थ में और
जीता भी रहूं।
मैं ही
मुझको मारता,
मैं
मरजीवा होई।।
मर भी
जाऊंगा,
फिर भी
न मरूंगा। क्योंकि मैं जागता रहूंगा और देखता रहूंगा कि मैं तो हूं। मेरे होने की
शुद्धि बढ़ेगी,
घटेगी
नहीं। जो मरने को राजी है, वह
अमृत को उपलब्ध हो जाता है। अमृत को पाने की कला है: स्वेच्छा से मरने को राजी हो
जाना। मरते सभी हैं।
दादू
पहिली मरि रहै,
पीछे
तो सब कोई।
मरते
सभी हैं अनिच्छा से। ध्यान में, समाधि
में व्यक्ति स्वेच्छा से मर जाता है। छोड़ देता है। मरजीवा हो जाता है।
मेरे
आगे मैं खड़ा...
उपनिषद
फीके हो जाएं। वेद-वचन छोटे मालूम पड़ते हैं।
मेरे
आगे मैं खड़ा,
ताथैं
रह्या लुकाई।
मैं ही
अपने आगे खड़ा हूं,
इसलिए
तू छिप गया;
अन्यथा
तू तो सामने ही है।
मेरे
आगे मैं खड़ा,
ताथैं
रह्या लुकाई।
इसलिए
वह छिप गया है जो कभी छिपा ही नहीं, जो कभी छिप ही नहीं सकता। मैं ही उस पर परदा
होकर पड़ गया हूं।
दादू
परगट पीव है,
जे यहु
आपा जाई।।
और वह
प्यारा तो सदा प्रकट है; बस यह
जरा आपा हट जाए,
यह
मेरा होना हट जाए। यह मेरी पकड़ होने की, यह अहंकार की घोषणा कि मैं हूं, यह हट जाए।
मेरे
आगे मैं खड़ा...
इसे
तुम मंत्र की तरह अपने भीतर गूंज जाने दो। इसे कभी-कभी एकांत क्षण में मंत्र की
तरह ही दोहराना,
ताकि इसका
स्वाद ले सको। समझने की बात कम, स्वाद
लेने की बात ज्यादा। ताकि इसकी मिठास तुम्हारे कंठ में उतर जाए, हृदय में चली जाए, तुम्हारे खून-मांस-मज्जा में
समा जाए।
मेरे
आगे मैं खड़ा,
ताथैं
रह्या लुकाई।
इसीलिए
तू छिप गया है।
दादू
परगट पीव है...
प्यारा
तो प्रकट है।
...जे यहु आपा जाई।।
बस जरा
मैं हट जाऊं बीच से। कौन तुम्हें रोके है? परमात्मा सब ओर है, कण-कण में है, हवा की लहर-लहर में है। सब
तरफ से उसने ही तुम्हें घेरा है। बाहर-भीतर वही दिखाई पड़ रहा है, वही देख रहा है। उसके
अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। उससे ज्यादा प्रकट कुछ कैसे हो सकता है? क्योंकि जो भी प्रकट है, वही प्रकट है। फिर भी लोग
पूछते हैं--परमात्मा कहां है? फिर भी
लोग खोजते हैं काशी में, काबा
में--परमात्मा कहां है?
परमात्मा
को खोजा कि तुम गलत रास्ते पर निकल गए। तुमने पहले तो यह मान ही लिया कि यहां नहीं
है। वहीं भूल हो गई। तुम जहां भी रहोगे, वहीं तो "यहां' होगा। तुम्हें यहां दिखाई न
पड़ा--इन वृक्षों में दिखाई न पड़ा, इन
पत्थरों में दिखाई न पड़ा, इन
लोगों में दिखाई न पड़ा जो यहां मौजूद हैं। तुम पूछते हो, परमात्मा कहां है? तुम काशी जाओगे, वहां दूसरे लोग होंगे, दूसरे वृक्ष होंगे, दूसरी चट्टानें होंगी, मगर वहां पहुंचते ही वे
तुम्हारे चारों तरफ घेरने वाला वातावरण बन जाएंगी। काशी "यहां' हो जाएगा, काबा भी "यहां' हो जाएगा। तुम जहां जाओगे
वहीं तो "यहां' हो
जाएगा। और परमात्मा तुम्हें यहां दिखाई न पड़ा, तो कहीं भी दिखाई न पड़ेगा।
जो
खोजने निकलता है परमात्मा को, वह कभी
उसे खोज नहीं पाता। क्योंकि उसने बुनियादी भूल तो स्वीकार कर ली कि वह यहां नहीं
है। गणित वहीं भूल से हो गया। बस अब आगे गणित कभी भी ठीक न हो सकेगा। अगर तुमने
कभी भी गणित किया हो, तो
पहले कदम पर बहुत सावधानी की जरूरत है। क्योंकि पहले कदम पर आखिरी निष्कर्ष निर्भर
है। पहला कदम आधी मंजिल है। वहां जो चूक गया, वह कभी ठीक जगह पहुंच ही नहीं सकता।
परमात्मा
ही है। वह यहां दिखाई नहीं पड़ता। जाहिर है कि तुम्हारी आंख पर कोई परदा है। वृक्ष
दिखाई पड़ता है,
परमात्मा
दिखाई नहीं पड़ता। चट्टान दिखाई पड़ती है, परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। मैं तुम्हें
दिखाई पड़ता हूं,
परमात्मा
दिखाई नहीं पड़ता। तुम्हारा पड़ोसी दिखाई पड़ता है, परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता।
कुछ आंख पर परदा है। उस परदे को हटाने की बात है, परमात्मा को खोजने की बात
नहीं। कोई बड़ा सूक्ष्म परदा होगा, क्योंकि
आंख तुम्हारी खुली मालूम पड़ती है। लेकिन कोई धीमी धुंध होगी। कोई सपने की तरह
तुम्हारी आंखों को घेरे हुए है।
रूस
में उन्होंने पिछले कुछ दस वर्षों में एक प्रयोग किया है। उन्होंने विद्युत से
निद्रा पैदा करने के प्रयोग किए हैं। बड़े कीमती यंत्र उन्होंने बनाए हैं। आधा घंटे
तक विद्युत की लहरें मस्तिष्क के भीतर चलाई जाती हैं। जिनको नींद नहीं आती, कठिन से कठिन मरीज को भी
अनिद्रा के,
आधा
घंटे के बाद बड़ी गहन नींद आती है। नींद इतनी गहन होती है आठ घंटों के लिए कि सपने
का एक टुकड़ा भी नहीं होता उस नींद में। वह साधारण नींद से बहुत गहरी होती है।
क्योंकि साधारण नींद में तो रात में कम से कम आठ सपने आते ही हैं, आठ बार सपने चलते हैं। खाली, बिना सपने के नींद तो बहुत
थोड़ी सी होती है। अगर कुल मिला-जुला लें तो घंटे डेढ़ घंटे से ज्यादा नहीं आठ घंटे
में। बाकी समय सपने चलते होते हैं। वह आठ घंटे की पूरी गहरी नींद होती है।
लेकिन
एक बड़ी अनूठी बात पता चली। जो मरीज अनिद्रा का--उस तरह की चिकित्सा दी जाती है, आठ-दस दिन के बाद एक नई घटना
घटती है,
वह
खुली आंख सपना देखने लगता है। चलता है और सपना देखने लगता है। रास्ते पर धुंधलका
हो जाता है। आंख खुली है, सामने
से बस जाती भी दिखाई पड़ रही है, और बीच
में सपना खड़ा है।
तब
वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे कि सपना भी एक गहरी जरूरत है शरीर की। वह यंत्र की
नींद की वजह से सपना रात में आ नहीं पाया। और सपना भी जरूरत है। उसके बिना भी आदमी
पागल हो जाएगा। वह भी होना चाहिए। वह तुम्हारे पागलपन का निकास है, सेफ्टी वाल्व है।
जैसे
कि रेल के इंजन में भी ज्यादा भाप हो जाए तो निकालने के लिए वाल्व लगा होता है।
जैसे ही भाप ज्यादा हुई, वाल्व
से भाप बाहर फिंकने लगती है। जैसे कुकर पर वाल्व लगा होता है। भाप ज्यादा हो जाए
तो वाल्व फिंक जाता है, भाप
बाहर निकल जाती है।
आदमी
के भीतर इतनी बेचैनी है कि सपने से उसकी भाप निकलती है। अगर वह न निकल पाए तो आदमी
पागल हो जाएगा। तुम सोचते होओगे कि सपने देखने के कारण तुम पागल हो। तुम गलती में
हो। सपना ही तुम्हें बचा रहा है, नहीं
तो तुम कभी के पागल हो जाते। क्योंकि सपने में तुम्हारा सब पागलपन निकल जाता है।
हत्या करनी है,
मार
डालना है,
पहाड़ों
पर चढ़ना है,
आकाश
में उड़ना है,
जो भी
तुम्हें पागलपन करना है, तुम सब
सपने में कर लेते हो और राहत मिल जाती है। सिर्फ बुद्धपुरुषों को स्वप्न नहीं होते, क्योंकि पागलपन ही नहीं बचा, अब सपने की कोई जरूरत नहीं
है।
ये जो
रूस में प्रयोग हुए, वैज्ञानिकों
ने किए,
वे बड़े
हैरान हुए इस नतीजे को देख कर। बड़ा खतरनाक था प्रयोग। यह बंद करना पड़ा प्रयोग।
क्योंकि नींद न आए, यह
इतना खतरनाक न था। लेकिन राह चलते वक्त सपना आने लगे, या दुकान पर काम करते वक्त
सपना आने लगे,
या तुम
गाड़ी चला रहे हो,
कार
चला रहे हो और सपना आने लगे, तो बड़ी
खतरे की बात है। और उस सपने को रोका नहीं जा सकता। वह खुली आंख में भी आ जाता है।
तो यहां यथार्थ भी होता है बाहर, बीच
में सपने की एक दीवाल खड़ी हो जाती है।
अहंकार
सपने की एक दीवाल है। दिखाई नहीं पड़ती, पारदर्शी है, जैसे कांच की हो, शुद्ध कांच की हो। दिखाई नहीं
पड़ता, आर-पार दिखाई पड़ता है, लेकिन पूरे वक्त आंखों पर पड़ी
है। तुम जब भी कुछ देखते हो, तुम्हारा
मैं भीतर खड़े होकर देखता है। तुम एक फूल को देखते हो, मैं बीच में आ गया। तुम्हारा
मन, तुम्हारे विचार बीच में आ गए।
फूल और तुम्हारे बीच फासला हो गया।
फूल को
तो तुम वस्तुतः उसी दिन देख पाओगे, जिस दिन तुम्हारे और फूल के बीच कोई विचार
की धारा न होगी,
कोई
मैं का भाव ही न होगा। तुम होओगे, लेकिन
मैं बिलकुल न होगा। एक शून्य, एक
शांत गहरी झील,
जिस पर
एक लहर भी नहीं उठती। एक निराकार आकाश! उस क्षण फूल में तुम्हें ब्रह्म दिखाई पड़
जाएगा। ब्रह्म तो गहराई है यथार्थ की। तुम जितने शांत होते जाओगे उतनी गहराई की
प्रतीति होने लगेगी।
मेरे
आगे मैं खड़ा,
ताथैं
रह्या लुकाई।
इसलिए दादू
कहते हैं कि तू छिपा है, ऐसा हम
कहते नहीं। मैंने ही तुझे छिपाया है। मैं ही अपने आगे खड़ा हो गया हूं और अब रोता
हूं, चिल्लाता हूं कि तेरे दर्शन
नहीं होते। आंख बंद किए हूं और रोता हूं, चिल्लाता हूं कि तू दिखाई नहीं पड़ता। प्रमाण
पूछता हूं लोगों से कि परमात्मा है तो उसका प्रमाण क्या?
प्रमाण
कुछ भी नहीं हो सकता। जब तक आंख पर मैं का परदा पड़ा हो, कोई प्रमाण सिद्ध नहीं कर
सकता कि परमात्मा है। क्योंकि परमात्मा तो केवल अनुभव से ही सिद्ध हो सकता है। यह
तो ऐसा ही है,
जैसे
बुखार के बाद तुम्हारा स्वाद खो जाता है। तुमने कभी खयाल किया कि बुखार के बाद कुछ
भी भोजन करो,
बेस्वाद
मालूम पड़ता है। तुम्हारी जीभ पर और भोजन के बीच एक परदा है। एक पतली सतह जम गई
बुखार की,
बीमारी
की। तुम्हारे जीभ के संवेदन-अणु थक गए हैं, उदास पड़े हैं, कोई उत्साह नहीं है। तुम भोजन
को लील भी जाते हो, पर
स्वाद नहीं आता।
जैसे
भोजन में स्वाद है, ऐसा सब
में छिपा परमात्मा है। लेकिन स्वाद की क्षमता तो चाहिए। तुम जब स्वस्थ हो जाते हो, स्वाद की क्षमता लौट आती है।
तब साधारण सी रूखी-सूखी रोटी में भी बहुत स्वाद आता है। नहीं तो अत्यंत बहुमूल्य
मिष्ठान्न भी कचरे की तरह तुम भीतर डाल ले सकते हो, लेकिन स्वाद न आएगा।
तुम्हारा
भीतरी स्वास्थ्य ही स्वाद की संभावना को पैदा करता है। तुम जब भीतर से लयबद्ध होते
हो तब तुम्हें बाहर का संगीत सुनाई पड़ता है। तुम्हारी जितनी लयबद्धता बढ़ती जाती है, उतने ही तुम गहरे अस्तित्व
में उतरने लगते हो। पत्ती-पत्ती में अनंत सागर है जीवन का। पत्थर-पत्थर में अनंत
सागर है जीवन का।
मेरे
आगे मैं खड़ा,
ताथैं
रह्या लुकाई।
यह
धार्मिक व्यक्ति की भावदशा है। वह यह नहीं कहता कि तू छिपा है। तुमने सुना होगा
पंडितों को समझाते कि परमात्मा अदृश्य है। इससे झूठी कोई बात नहीं हो सकती।
परमात्मा और अदृश्य! तो फिर दृश्य क्या होगा? परमात्मा दृश्य है। वस्तुतः परमात्मा ही
दृश्य है। सभी दृश्य परमात्मा के हैं। वही दिखाई पड़ रहा है अनेक-अनेक रूपों में।
उसे अदृश्य मत कहो; वहीं
भूल हो जाती है। इतना ही कहो कि मेरी आंख पर परदा है।
दादू
वह भूल नहीं करते। बेपढ़े-लिखे आदमी हैं, शास्त्रों का कुछ पता नहीं है, लेकिन जीवन की गति पकड़ ली, जीवन की कुंजी हाथ में आ गई।
मेरे
आगे मैं खड़ा,
ताथैं
रह्या लुकाई।
दादू
परगट पीव है,
जे यहु
आपा जाई।।
बस
इतनी सी बात है कि यह मेरा होना चला जाए, कि तू प्रकट ही है। तेरे ऊपर मैं एक परदा
हूं; और तेरे ऊपर कोई परदा नहीं
है।
दादू
आप छिपाइए,
जहां न
देखै कोई।
इस मैं
को ऐसी जगह छिपा दो, जहां
कोई भी न देख सके। यह तो प्रतीकात्मक बात है। दादू यह कह रहे हैं, इस मैं को मिटा दो। क्योंकि
कहीं भी छिपाओगे,
कोई न
कोई देख ही लेगा।
एक
सूफी कहानी है। दो युवक एक गुरु के पास आए। वे दीक्षित होना चाहते थे। उस सूफी
फकीर ने कहा,
दीक्षा
तो बाद में दूंगा,
पहले
तुम्हारी परीक्षा होगी। ये दो कबूतर हैं, ये तुम ले जाओ। एक-एक कबूतर दोनों को दे
दिया और कहा,
ऐसी
जगह जाकर मार डालना कबूतर को, जहां
कोई देखने वाला न हो।
पहला
युवक गया। मिनट भी नहीं लगे होंगे कि वापस लौट आया मार कर कबूतर को। गुरु ने पूछा, मार लाए? ऐसी जगह इतनी जल्दी खोज ली, जहां कोई न देखे?
उसने
कहा, बगल की गली में ही कोई नहीं
था। गया,
मारा, आ गया।
दूसरा
युवक महीनों तक न लौटा। साल पूरा होने लगा, तब वह आया--बदहवास, थकाऱ्हारा, लेकिन एक नई ज्योति उसकी
आंखों में। सूख कर कांटा हो गया था, लेकिन कुछ घटा था। गुरु ने उसकी आंख में
जलते दीयों को देख कर ही पहचान लिया। कबूतर अब भी जिंदा था। उसने कहा, अरे! साल भर बाद लौटे और
कबूतर को मार कर न आए?
उसने
कहा, ऐसी कोई जगह ही न खोज सका।
बहुत खोजी। भीड़-बाजार से दूर हट गया, एकांत जंगल में गया। वहां भी देखा कि पक्षी
हैं, और पक्षी देख रहे हैं। एक
अंधेरी गुफा में गया, गहन
अंधकार था,
कोई भी
न देखता था। जैसे ही मैंने उसकी गर्दन पर हाथ रखा, मुझे याद आया कि मैं तो देख
ही रहा हूं! फिर मैंने ऐसा उपाय किया कि अपने दोनों हाथ पीछे करके अपनी पीठ की तरफ
मारना चाहा कि वहां तो मैं नहीं देख रहा। तब मुझे खयाल आया, कम से कम कबूतर तो देख ही रहा
है! फिर मुश्किल हो गया। सब उपाय करके आ गया हूं। यह आपने बात ही ऐसी कठिन बता दी--जहां
कोई न देखे! कबूतर तो कम से कम देखेगा ही। तब मैं हार गया। मैंने कहा कि अब मामला
नहीं है। अपने को भी बचा लिया, सारी
दुनिया से दूर हट गया, गहन
अंधकार में उतर गया, गुफाएं
खोज लीं,
सब
इंतजाम कर डाला,
लेकिन
अब इसका क्या इंतजाम करूंगा? यह
कबूतर,
टक-टक
इसकी आंख देख रही है! और आपने कहा था, जहां कोई न देखे।
दादू
का वही अर्थ है: दादू आप छिपाइए, जहां न
देखै कोई।
कहां
छिपाओगे लेकिन?
कम से
कम तुम तो जानोगे ही, कहां
छिपाया है। तुम तो देखते ही रहोगे। कोई न देखे, कबूतर तो देखेगा। तुम तो देखोगे। तो दादू यह
कह रहे हैं कि इसे तो छिपाने से काम न चलेगा। इसको तो मिटाना ही पड़ेगा, शून्य ही करना पड़ेगा।
दादू
आप छिपाइए,
जहां न
देखै कोई।
पिव को
देखि दिखाइए,
त्यों-त्यों
आनंद होई।।
और
जैसे-जैसे तुम इसको छिपाने लगोगे, जहां
कोई न देखे,
जिस-जिस
मात्रा में यह छिपने लगेगा, खोने
लगेगा,
मिटने
लगेगा,
इसके
गवाह न रह जाएंगे,
वैसे-वैसे
प्यारा प्रकट होने लगेगा।
पिव को
देखि दिखाइए...
फिर
देखिए मजे से और दूसरों को भी दिखाइए मजे से। और--
...त्यों-त्यों आनंद होई।
और फिर
आनंद बढ़ता जाता है।
इसको
हम ऐसा समझें: जिस मात्रा में तुम्हारा अहंकार, उस मात्रा में नरक, उस मात्रा में दुख। अगर तुम
बहुत दुखी हो,
तो ठीक
से समझ लेना कि बहुत अहंकारी हो। क्योंकि और दूसरा कोई अर्थ नहीं होता। जिस-जिस
मात्रा में तुम आनंदित, उतने
तुम निरहंकारी। आनंद को सीधा घटाने-बढ़ाने का कोई उपाय नहीं। अहंकार की मात्रा
घटाओ-बढ़ाओ। जिस मात्रा में अहंकार घटता है, आनंद बढ़ता है। क्योंकि वही ऊर्जा जो अहंकार
में उलझी थी,
मुक्त
हो जाती है। जिस मात्रा में अहंकार बढ़ता है, उसी मात्रा में आनंद घटता है। क्योंकि वही
ऊर्जा जो आनंद देती है, अहंकार
में बंद होती चली जाती है। ये एक ही ऊर्जा के खेल हैं। इसलिए हमने ब्रह्म की
परिभाषा में आनंद को रखा है--सच्चिदानंद। आखिरी बात आनंद है ब्रह्म के जगत में।
इसलिए आनंद को आखिर में कहा है--सत, चित, आनंद। उसके पार फिर कुछ भी नहीं।
और बड़े
से बड़ा पाप है अहंकार; बड़े से
बड़ा दुख और नर्क। वहां कोई आनंद का फूल खिलता ही नहीं। दुख के ही कांटे लगते हैं।
मरुस्थल! जहां कोई छोटा मरूद्यान भी नहीं मिलता, जहां थोड़ी देर विश्राम कर
लें। धूपत्ताप,
आपाधापी, कष्ट, पीड़ा! सारे जीवन का सार
ना-कुछ। राख हाथ में रह जाती है।
दादू
कहते हैं: जहां न देखै कोई, दादू
आप छिपाइए।
हम
उलटा काम करते हैं, इसलिए
दुखी हैं। हम इस दादू के सूत्र से ठीक उलटा चलते हैं। हमारी पूरी आकांक्षा एक ही
होती है जीवन में कि सारे लोग हमें देख लें। आपे का पता चल जाए दुनिया भर को। हम
इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि अहंकार के पास बड़ा पद हो, तो ऊंचे चढ़ कर खड़े हो जाएं।
लाख देखते थे,
दस लाख
देख लें। और बड़ा पद हो, करोड़
देख लें,
दस
करोड़ देख लें। बहुत धन हो, तो लोग
देख लें। नाम हो,
प्रतिष्ठा
हो, चरित्र हो, त्याग हो, लोग देख लें। लेकिन सबके पीछे
एक ही खयाल रहता है कि यह जो अहंकार है, यह सबकी स्वीकृति बन जाए, सारा संसार इसके लिए गवाह हो
जाए। फिर हम नरक में पड़ते हैं, फिर हम
रोते हैं। क्योंकि यही तो नरक को पैदा करने की व्यवस्था है।
दादू
आप छिपाइए,
जहां न
देखै कोई।
पिव को
देखि दिखाइए,
त्यों-त्यों
आनंद होई।।
और
जैसे ही तुम इसे छिपाने में समर्थ हो जाओगे--छिपाने का अर्थ है मिटाने में; क्योंकि और तो छिपाना हो ही
नहीं सकता--तुम्हारी भी वही दशा होगी जो दूसरे युवक की हुई। आखिर में तुम दादू के
पास आकर कहोगे,
खूब
खेल किया! छिपाने से तो कुछ होता नहीं, मिटाना पड़ेगा। क्योंकि मैं भी देखता रहूं, एक भी इसका गवाह हो, तो भी यह टिमटिमाता रहता है, मिटता नहीं। जहां इसके गवाह
खो जाते हैं,
वहीं
इसकी ज्योति चुक गई। वहीं इसके तेल का अंत आ गया।
इसीलिए
तो तुम अहंकार के दीये में तेल भरने की जो कोशिश करते हो, वह एक ही है--ज्यादा लोग जान
लें, तुम कौन हो--कितने महान हो, कितने ज्ञानी, कितने गुणवान हो, कितने चरित्रवान, कितने त्यागी हो, कितने धार्मिक हो।
मंदिर
में भी आदमी प्रार्थना करता है, अगर
कोई न हो तो धीरे-धीरे करता है, जल्दी
करके चला आता है। अगर भीड़-भाड़ हो, लोग
देख रहे हों,
तो बड़ी
देर तक भक्तिभाव करता है, जोर-जोर
से करता है। क्योंकि भगवान से थोड़े ही कोई लेना-देना है! यह तो प्रार्थना, समाज में सम्मान पाने की एक
विधि है। और सम्मान एक ऐसी खतरनाक बात है कि तुम कुछ भी करने को राजी हो जाते हो।
एंडरसन
की एक कहानी है। एक सम्राट था, उसे
सम्मान की बड़ी आकांक्षा थी। वह बिलकुल पागल था। राज्य बहुत बड़ा था, फिर भी बेचैनी अंत नहीं आती
थी। और भी सीमाएं खाली थीं, जहां
राज्य नहीं पहुंचा था। और भी राज्य थे। और वह बड़े जुलूस निकालता और बड़े मुकुट
पहनता और बड़े साज-शृंगार से रहता, दिन
में दस दफा वस्त्र बदलता, सब तरह
के आयोजन करता था। उसने सिंहासन ऐसा बनवा लिया था जो जमीन को नहीं छूता था। उसमें
यंत्र लगा रखे थे पीछे से, कि
जैसे ही वह सिंहासन पर बैठता, सिंहासन
ऊपर उठ जाता। उसकी बड़ी चर्चा थी सारी दुनिया में कि उसके बैठते ही सिंहासन ऊपर उठ
जाता है। वह सिंहासन के कारण ऊपर नहीं है, सिंहासन उसके कारण ऊपर है। जब वर्ष के पहले
दिन पर उसकी फौजों की परेड होती थी तो उसने ऐसा इंतजाम कर रखा था, सारे सम्राटों को निमंत्रण
करता था,
बुलाता
था; और ऐसा इंतजाम कर रखा
था--फौजें बहुत बड़ी न थीं, लेकिन
इतनी बड़ी काफी थीं कि जो सामने से राजमहल का रास्ता जाता था, उस पर वे गुजरती रहतीं। और वे
ही सैनिक लौट-लौट कर पीछे से सम्मिलित होते जाते।
ऐसा
बहुत से सम्राटों ने किया है। यह कहानी है, लेकिन यह सत्य भी है। रोमन सम्राट यह करते
थे, हिटलर और स्टैलिन यह करते थे।
वे जो रेड स्क्वायर के आपने चित्र देखे हों--बड़े सैनिक जा रहे हैं, बड़े तोपखाने जा रहे हैं, टैंक जा रहे हैं, वे सब पीछे से लौट आते हैं।
जो देखने वाले हैं वे खड़े रहते हैं और यह चलता रहता है सिलसिला। अंत नहीं आता
इसका। सांझ आ जाती है और रोकना पड़ता है बीच में; क्योंकि फौजें इतनी हैं, सामान इतना है। और यह खासकर
विदेशी जो राजदूत खड़े हैं, उनको
दिखाने के लिए। ताकि याद करवा दो अपने घर कि झंझट मत लेना; ताकत बहुत बड़ी है।
उस
सम्राट के पास एक दिन एक चालबाज आदमी आया और उस चालबाज आदमी ने कहा, आपके पास वस्त्र तो अच्छे हैं, लेकिन दैवी वस्त्र नहीं हैं।
ये साधारण वस्त्र हैं, सभी
सम्राट पहनते हैं,
आपके
योग्य नहीं हैं। आप जैसा पुरुष कभी हुआ ही नहीं।
सम्राट
ने कहा,
तो
रास्ता बता,
देर न
कर। दैवी वस्त्र कहां से मिलेंगे? कहां
हैं दैवी वस्त्र?
मुझे
जाना पड़ेगा स्वर्ग तक, लेकिन
हो जाएगा। मेरा आना-जाना है, नाते-रिश्तेदारी
है। रिश्वत का नाता है, संबंध
है। सब नेतागण जो मर गए हैं भारत में, वे सब स्वर्गीय हो गए हैं। वे ही सब वहां
हैं। लेन-देन चल जाएगा, तुम
बिलकुल फिक्र मत करो।
सम्राट
ने कहा,
कितना
खर्च होगा?
उसने
कहा, करोड़ों का खर्च। खर्च की तो
बात ही मत करना। क्योंकि यह मामला कोई सस्ता नहीं है। पहली दफा स्वर्ग के वस्त्र
पृथ्वी पर आएंगे।
उसने
कहा, कोई फिक्र न कर। जितना लेना
हो ले। लेकिन देख,
धोखा
देने की कोशिश मत करना!
उसने
कहा, कोई जरूरत ही नहीं। मैं महल
के बाहर भी न जाऊंगा। मैं तो यहीं ध्यान लगाऊंगा। एक कमरा मुझे दे दिया जाए।
क्योंकि वहां जाने के लिए कोई इस शरीर से थोड़े ही जाना पड़ता है। सूक्ष्म देह! यह
तो आंख बंद करके मैं यहीं बैठा रहूंगा। तुमको समझ में भी नहीं आएगा कि यह गई
सूक्ष्म देह!
सम्राट
ने कहा,
बिलकुल
कर।
करोड़ों
रुपये उसको दिए गए। छह महीने का उसने वक्त मांगा। छह महीने बाद वह एक बड़ी सुंदर
काष्ठ की पेटी लेकर आ गया सम्राट के दरबार में। कई करोड़ रुपये उसने इस बीच राज्य
से लिए। सम्राट कभी-कभी संदेह से भी भरता था, लेकिन संदेह का कोई कारण न था। क्योंकि वह
आदमी तो महल में है। भाग सकता नहीं; चारों तरफ पहरा है। धोखा दे नहीं सकता।
लेकिन सम्राट को पता ही नहीं था।
वह आया
और उसने आकर सम्राट के पास कहा कि वस्त्र आ गए, लेकिन कान में एक बात कहनी है। देवताओं ने
कही है,
आपको
बता देनी जरूरी है। कान में उसने कहा कि ये वस्त्र साधारण वस्त्र नहीं हैं, पृथ्वी के नहीं हैं। ये
सूक्ष्म अदृश्य वस्त्र हैं। ये दिखाई नहीं पड़ते। ये तो सिर्फ उसी को दिखाई पड़ते
हैं, जो अपने ही बाप से पैदा हुआ
हो। जो भी संदिग्ध है, उसको
तो ये दिखाई पड़ेंगे नहीं।
सम्राट
ने कहा कि ठीक है। थोड़ा बेचैन तो हुआ।
उसने
कहा, आप एक-एक वस्त्र मुझे देते
जाएं। पगड़ी ले ली,
अंदर
हाथ डाला। असली पगड़ी तो अंदर डाल दी, क्योंकि वह भी सब कीमती सामान था, वह भी वह छोड़ नहीं जाना चाहता
था। अंदर से ऐसा सम्हाल कर हाथ बाहर निकाला, जैसे पगड़ी ला रहा हो। सम्राट के सिर पर रख
दी। उसमें कुछ भी न था हाथ में। सम्राट को दिखाई भी न पड़ी पगड़ी, सिर पर भी बोझ न मालूम पड़ा, लेकिन अगर सम्राट कहे कि
दिखाई नहीं पड़ती,
तो खुद
तो गए,
बाप तक
की प्रतिष्ठा गई। और दरबारियों को भी उसने कह दिया कि देखो भाई, यह इसका नियम है। यह सिर्फ
थोड़े लोगों को दिखाई पड़ेगी, जो
अपने ही बाप से पैदा हुए हों। सबको दिखाई नहीं पड़ेगी। जिसको न दिखाई पड़े वह हाथ
ऊपर कर ले।
कौन
हाथ ऊपर करे?
लोग
आगे-आगे बढ़-बढ़ कर प्रशंसा करने लगे कि ऐसी पगड़ी तो कभी देखी नहीं! अनूठी है!
इंद्रधनुष खिंचे हैं पगड़ी पर!
ऐसे
एक-एक वस्त्र सम्राट का ले लिया। सम्राट नंगा खड़ा है अब। सारे दरबारी देख रहे हैं
कि नंगा है। सम्राट भी देख रहा है कि नंगा है! लेकिन कोई कह नहीं सकता। सब
वस्त्रों की प्रशंसा कर रहे हैं।
उसने
कहा, अब जुलूस निकले। राजधानी में
करोड़ों लोग इकट्ठे हैं। यह घटना कभी घटी नहीं; ऐतिहासिक है। फिर कभी घटेगी भी नहीं।
सम्राट
डरने भी लगा। एक दफा मन भी हुआ कि कह दे कि यह क्या पंचायत है! क्या बेवकूफी है!
मगर इसमें बड़ी खतरे की बात है। और सब को दिखाई पड़ रहा है। इसलिए अब यह भी शक होने
लगा कि हो सकता है मुझको ही न दिखाई पड़ रहा हो। और प्रत्येक को यही शक हो रहा है
कि मुझको ही न दिखाई पड़ रहा हो। बाकी सब इतनी प्रशंसा कर रहे हैं, दिख ही रहा होगा। और लोग और
ज्यादा-ज्यादा प्रशंसा कर रहे हैं। क्योंकि ऐसा किसी को शक न हो जाए कि तुम चुप
क्यों खड़े हो?
कुछ
बोले नहीं! कुछ खतरा है? दिखाई
नहीं पड़ रहा?
जुलूस
निकला। गांव भर में उसने डुंडी पीट दी। सम्राट नंगा खड़ा है रथ पर और लोग वस्त्रों
की प्रशंसा कर रहे हैं।
कहते
हैं, सिर्फ एक छोटे बच्चे ने, जिसको बाप अपने कंधे पर बिठा
कर ले आया था,
उसने
अपने बाप से कहा कि पिताजी, राजा
नंगा है। उसने कहा, चुप
नासमझ! उम्र जब तेरी बड़ी हो जाएगी, तुझको भी वस्त्र दिखाई पड़ेंगे। ये अनुभव से
दिखाई पड़ते हैं। और दुबारा ऐसी बात मुंह से मत निकालना। सिर्फ एक छोटे बच्चे ने
सत्य कहा था,
वह भी
दबा दिया गया था। उससे भी कहा गया था कि तेरी भी जब उम्र बड़ी हो जाएगी, तू समझदार हो जाएगा, तब तुझे भी वस्त्र दिखाई
पड़ेंगे। ये वस्त्र अनुभव से दिखाई पड़ते हैं।
अहंकार
बिलकुल झूठे वस्त्र हैं। तुम कितना ही अपने को सजा कर खड़े हो जाओ, अहंकार में तुम नग्न खड़े हो।
लेकिन दूसरे भी तुम्हारा सहारा दे रहे हैं, क्योंकि वे तुमसे भी सहारा मांगते हैं।
पत्नी पति को कहती है, तुम
महाशक्तिशाली हो। तुम जैसा कोई पुरुष संसार में नहीं। पति पत्नी से कहता है, तू महासुंदरी है। तुझ जैसी
कोई स्त्री संसार में नहीं। ऐसा एक-दूसरे के वस्त्र जो नहीं हैं, उनकी हम प्रशंसा करते हैं।
क्योंकि अगर मैं चाहता हूं कि तुम मेरी प्रशंसा करो, तो मुझे तुम्हारी प्रशंसा
करनी पड़ेगी। एक ही उपाय है, अगर
मैं चाहता हूं कि तुम मेरे अहंकार को सजाओ, तो मुझे तुम्हारे अहंकार को सजाना पड़ेगा। यह
एक पारस्परिक लेन-देन है। और इस अहंकार के कारण ही, जो है वह दिखाई नहीं पड़ता और
जो नहीं है वह दिखाई पड़ रहा है।
अहंकार
नहीं है,
झूठे
वस्त्र हैं एंडरसन की कहानी के, पर
दिखाई पड़ रहे हैं। और परमात्मा है, लेकिन नहीं दिखाई पड़ रहा है। जिनकी आंखें, जो नहीं है उससे भर गईं, उन्हें वह नहीं दिखाई पड़ेगा
जो है।
दादू आप
छिपाइए,
जहां न
देखै कोई।
पिव को
देखि दिखाइए,
त्यों-त्यों
आनंद होई।।
दादू
साईं कारण मांस का, लोहू
पानी होई।
उस
परमात्मा को पाने जो चलता है, उस
महासंपदा को पाने जो चलता है, ये सब
छोटे कंकड़-पत्थर सब छूट जाते हैं। मांस का खून पानी हो जाता है।
सूकै
आटा अस्थि का,
दादू
पावै सोई।।
अस्थियों
में छिपी मज्जा सूख जाती है, तो ही
उस परमात्मा का मिलन होता है।
दूभर
है मार्ग। कठिन है यात्रा। संतों ने कहा: खड्ग की धार। क्योंकि जैसे ही तुम
रूपांतरित होना शुरू करोगे, तुम
कठिनाई में पड़ोगे। समाज तो तुम्हारे साथ नहीं बदलेगा। तुम अकेले पड़ जाओगे, तुम अजनबी हो जाओगे। अपनों के
बीच पराए। लोग तुम पर संदेह करने लगेंगे। तुम सच्चे हो रहे हो, तुम इन्हें गलत होते हुए
मालूम पड़ोगे;
क्योंकि
भीड़ गलत है। तुम्हारे जीवन में आनंद आ रहा है, लेकिन वे समझेंगे कि तुम पागल हो रहे हो।
तुम्हारे जीवन में रोशनी आ रही है, लेकिन वे समझेंगे कि तुम सम्मोहित हो गए हो।
तुम्हारे जीवन में शांति उतर रही है, लेकिन वे हंसेंगे। क्योंकि हंसी के द्वारा
ही वे अपनी आत्मरक्षा कर सकते हैं। वे तुम्हारा व्यंग्य करेंगे, क्योंकि व्यंग्य ही उनकी
सुरक्षा है। यद्यपि भीड़ उनकी है, बहुमत
उनका है। इसलिए वे जो भी कहेंगे, उसके
पीछे भीड़ का बल होगा। तुम अकेले पड़ जाओगे।
इस
संसार में अकेले पड़ जाना बड़ा कठिन काम है। एकाकी है यात्रा। रवींद्रनाथ ने गाया
है: एकला चलो रे। क्योंकि इस रास्ते पर दो तो चल ही नहीं सकते। अकेले चलना
होगा--असुरक्षित,
असहाय।
लेकिन
ध्यान रखना,
एक बार
तुमने हिम्मत कर ली इस भीड़ की नासमझी के बाहर होने की कि परमात्मा का बल तुम्हारे
साथ है। यह बल भी कोई बल है! यह धोखा है बल का। इसके लिए तो तुम निर्बल ही हो जाओ
तो अच्छा। क्योंकि संत कहते हैं: निर्बल के बल राम। इधर जो निर्बल हुआ, वहां परमात्मा का बल मिल जाता
है।
आज इतना ही।
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