प्रवचन-पंद्रहवां
सारसूत्र-
हारो और पुकारो
करै हरै पालै सदा, सुंदर समरथ राम।
सबही तैं न्यारौ रहै, सब मैं जिन कौ धाम।।
अंजन यह माया करी, आपु निरंजन राइ।
सुंदर उपजत देखिए, बहुरयौ जाइ बिलाइ।।
सूरति तेरी खूब है कौ करि सकै बखान।
बानी सुनि सुनि मोहिया, सुंदर सकल जिहान।।
प्रीतम मेरा एक तूं, सुंदर और न कोइ।
गुप्त भया किस कारनै, काहि न परगट होइ।
ऐसी तेरी साहिबी, जानि न सक्कै कोइ।
सुंदर सब देखै सुनै, काहू लिप्त न होइ।।
वचन तहां पहुंचै नहीं, तहां न ज्ञान न ध्यान।
कहत कहत यौंहि कहयौ, सुंदर है हैरान।।
लौन-पूतरी उदधि मैं, थाह लैन कौं जाइ।।
सुंदर थाह न पाइए, बिचिही गई बिलाइ।।
माइ हो हरि दरसन की आस।
कब देखौं मेरा प्रान-सनेही, नैन मरत दोऊ प्यास।
पल छिन आध घरी नहिं बिसरौं, सुमिरत सास उसास।
घर बाहरि मोहि कल न परत है, निसदिन रहत उदास।।
यहै सोच सोचत मोहि सजनी, सूके रगत स मांस।
सुंदर बिरहिन कैंसे जीवै, बिरहबिथा तन त्रास।।
धर्म
का प्रारंभ,
मनुष्य
के विसर्जन में है। जब तक मनुष्य है, तब तक परमात्मा नहीं। किसी मनुष्य ने कभी
परमात्मा का दर्शन नहीं किया और न कोई मनुष्य किसी परमात्मा का दर्शन कभी करेगा।
वह असंभव है। इसलिए असंभव है कि दर्शन की प्राथमिक शर्त यही है कि मनुष्य मिटे, शून्य हो जाए, नकार हो जाए। मनुष्य हटे, द्वार दे, तो परमात्मा का आगमन हो।
जैसे
अंधेरे का और प्रकाश का कभी मिलन नहीं होता, वैसे ही मनुष्य का और परमात्मा का भी मिलन
नहीं होता। अंधेरा है तो प्रकाश नहीं और प्रकाश आया कि अंधेरा नहीं।
मनुष्य
एक अंधकार है,
क्योंकि
मनुष्य एक अहंकार है। अहंकार और अंधकार आध्यात्मिक अर्थों में पर्यायवाची हैं।
अहंकार आध्यात्मिक अंधकार का नाम है। और जहां अंधकार है वहां अंधापन है। क्योंकि
अंधकार में दिखाई नहीं पड़ता, सूझता
नहीं। आदमी जीता है, टटोलता-टटोलता
। किसी तरह जीता है, जैसे
अंधा आदमी जीता है, चलता
है। दिखाई कुछ भी नहीं पड़ता। कहां से आते हैं, दिखाई नहीं पड़ता। कहां जा रहे हैं, दिखाई नहीं पड़ता। क्यों आए
हैं, दिखाई नहीं पड़ता। क्यों हैं, दिखाई नहीं पड़ता। यही तो
विडंबना है कि कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता, फिर भी जीना पड़ता है। यही तो मनुष्य की
व्यथा है,
पीड़ा
है, संताप है। और दिखाई तब तक
नहीं पड़ सकता जब तक प्रकाश न हो। लेकिन प्रकाश होते ही अंधकार नहीं बचेगा।
या तो
परमात्मा होगा,
या
मनुष्य होगा। तो जो उसे खोजने चले हैं, एक बात ठीक से समझ लें कि खोज में अगर अपने
को गंवाने की तैयारी हो, तो ही
खोज पूरी होगी। अगर अपने को बचाया तो तुम व्यर्थ ही खोज रहे हो। जैसे-जैसे बचाओगे, जितना बचाओगे उतनी ही खोज
व्यर्थ है,
असंभव
है। एक शर्त पूरी करनी पड़ेगी--मिटने की शर्त!
इसलिए
तुमसे कहता हूं ः धन्यभागी हैं वे जो मिटने को तैयार हैं।
आध्यात्म
आत्मघात है। अपने को पोंछ कर मिटा डालना है। कोई बचे ही न भीतर। जरा-सी भी आहट न
रह जाए तुम्हारी। किसी कोने-कातर में भी तुम दबे न रह जाओ। बस उसी क्षण, तत्क्षण, भीतर शून्य पूरा हुआ कि पूर्ण
का आगमन हुआ। एक तरफ से शून्य का पूरा होना दूसरी तरफ से पूर्ण का आना युगपत घटते
हैं, एक ही साथ घटते हैं।
लेकिन
मनुष्य की चाह कुछ और है। मनुष्य चाहता है परमात्मा को पा लूं और और मैं भी रहूं।
मनुष्य की चाह असंभव की है। मनुष्य चाहता है अंधेरा भी रहे और रोशनी भी हो जाए; अहंकार भी बचे, और ब्रह्म-बोध भी हो जाए। यह
नहीं हो सकता। यह वस्तुओं का स्वभाव नहीं है।
अस्वाभाविक
को मत मांगना,
अन्यथा
धर्म के नाम से तुम कुछ और करते रहोगे। धर्म तो बस अपने को मिटाने की प्रक्रिया है, अपने को गलाने की
प्रक्रिया--धर्म अपने को बनाने की प्रक्रिया नहीं है, अपने को सजाने की प्रक्रिया
नहीं है। नहीं तो तुम्हारे पुण्य, तुम्हारे
दान, तुम्हारे त्याग, व्रत, उपवास, नियम, तुम्हें सजाएंगे, तुम्हें और भारी कर जाएंगे।
तुम परमात्मा से और दूर हो जाओगे!
अकसर
ऐसा मैंने देखा है कि पापी उससे करीब और पुण्यात्मा उससे दूर; और अज्ञानी उसके करीब, और ज्ञानी उससे दूर; और भोगी उसके करीब, और त्यागी उससे दूर। ऐसा मेरा
हजारों व्यक्तियों के जीवन में देखने का परिणाम है, निष्कर्ष है। क्योंकि अज्ञानी
को तो अकड़ नहीं होती। अज्ञानी तो कहता है ः "मैं अज्ञानी, मैं कहां जान सकूंगा? मैं कैसे जान सकूंगा? बड़े-बड?े ज्ञानी पड़े हैं, वे नहीं जान पाते, मेरी क्या बिसात! बस इसी में
उसकी बिसात है। इसी में उसका बल है। पापी तो रोता है। उसके पास तो आंसुओं के
अतिरिक्त और कोई संपदा नहीं है। प्रार्थना कर सकता है, लेकिन पुण्य का कोई दावा नहीं
है।'
और
प्रार्थना रुदन के अतिरिक्त और है क्या? प्रार्थना व्यवस्थित ढंग से रोना ही तो है।
अज्ञात के चरणों में अपने आंसू गिराना ही तो है! लेकिन दावा नहीं हो सकता।
इसलिए
अकसर पापी उसके करीब होता है, पुण्यात्मा
से। पुण्यात्मा दावेदार होता है--इतना मैंने किया है! उसके खाते-बही में
हिसाब-किताब है। उसके पास गणित है। झुकने की उसकी तैयारी नहीं है। हकदार की तरह
मांग करने आया है।
इसलिए
जीसस ने ठीक ही कहा है ः जो अंतिम हैं वे प्रथम हो जाएंगे और जो प्रथम हैं वे
अंतिम रह जाएंगे!
बेबूझ-सा
लगनेवाला यह वचन बड़ा अर्थपूर्ण है। पापी उसके करीब हो जाते हैं, पुण्यात्मा उससे दूर हो जाते
हैं।
और
ध्यान रखना,
मैं
तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम पाप करो। मैं तुमसे कह रहा हूं ः पुण्य करो, लेकिन पुण्य का दावा न हो।
मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि अज्ञानी रहो। मैं तुमसे कह रहा हूं ः जानो, लेकिन जानने को दावा मत बनने
दो। जानना तुम्हारे निर्दोषपन को विकृत न कर पाए। ज्ञान तुम्हारी छाती पर बोझ की
तरह होकर न बैठ जाए। ज्ञान तुम्हें अकड़ाए न।
जीना अलग है
जानकारी के पीपे पर पीपे पीना अलग है
चतुर और पढ़े और लिखे
हमने जिस तरफ देखा
उसी तरफ हमें दिखे
मगर अपने जाने हुए के मुताबिक रहते हुए
याने शरीर के हुकुम पर न बहते हुए कम ही
दिखे
इसलिए भाई, पढ़े भाई, लिखे भाई, अकड़ो मत
कोरे शब्दों की फांसी में अपने को जकड़ो मत
शास्त्र
सुंदर है;
छाती
पर नहीं बैठ जाना चाहिए। गीता को पढ़ो एक काव्य की तरह। वेद को गुनगुनाओ गीतों की
भांति। कुरान को उठने दो संगीत की भांति। लेकिन ध्यान रखना, ज्ञान का दावा न आए। ज्ञान का
दावा अटकाता है।
तुम बंजर हो जाओगे
यदि इतने व्यवस्थित ढंग से रहोगे
यदि इतना सोच-समझकर
बोलोगे-चलोगे,
कभी मन की नहीं कहोगे
सच को दबाकर झूठे प्रेम के गाने गाओगे
तो मैं तुमसे कहता हूं तुम बंजर हो जाओगे।
ज्ञानी
बंजर हो जाते हैं। फिर उनके जीवन में न कोई फूल लगते न फल। और पुण्यात्मा भी बंजर
हो जाते हैं। और तुम्हारे महात्माओं में सिवाय दावे के और कुछ नहीं बचता। एक थोथी
अकड़ बचती है।
धर्म
की राह पर चलने वाला सच्चा आदमी पापी जैसा विनम्र होगा, अज्ञानी जैसा निर्दोष होगा।
और जहां पापी जैसी विनम्रता, अज्ञानी
जैसा निर्दोषपन है, वहां
मिटने की यात्रा शुरू हो गयी। वहां तुम्हारी बर्फ पिघलने लगी, तुम गलने लगे; सूरज उगने लगा, सुबह होने लगी। जल्दी ही तुम
पाओगे सूरज सारे आकाश पर छा गया है, और तुम्हारा कहीं कोई पता भी नहीं है।
ऐसे ही
एक दिन पाया जाता है कि परमात्मा ने तुम्हें सब ओर से घेर लिया है। इतना घेर लिया
कि तुम बचे ही नहीं हो। बाहर भी वही है, भीतर भी वही है, रग-रग रोएं-रोएं में वही है, श्वास-प्रश्वास में वही है।
भक्त जब खो जाता है, इतना
खो जाता है,
तब
भगवान् की उपलब्धि है।
आज के
सूत्र --
करै
हरै पालै सदा,
सुंदर
समरथ राम।
ये
सूत्र तुम्हें मिटाने के लिए हैं। ये सूत्र इशारे हैं, कैसे मिटो?
करै
हरै पालै सदा,
सुंदर
समरथ राम।
सुंदरदास
कहते हैं,
तुम
मुफ्त नाहक ही कर्ता बन बैठे हो। कर्ता अहंकार का भोजन है--मैंने यह किया, मैंने वह किया! तो जो आदमी
जितना करने का फैलाव कर लेता है उतना ही अकड़ जाता है। जिसने कुछ भी नहीं किया, जिसके पास कहने को कुछ भी
नहीं है कि मैंने यह किया, उसका
अहंकार भी उतना ही छोटा होता है। कर्ता का विस्तार ही अहंकार का भाव है। तुमने एक
किताब लिखी,
कि
तुमने एक मंदिर बनाया, कि
तुमने उपवास किया,
कि
तुमने घर त्याग दिया, कि
तुमने एक बहुत बड़ा महल खड़ा कर लिया, कि इतना धन कमाया . . . तुमने कुछ किया और
अहंकार भरा! जड़ से काट डालो इसे!
करै
हरै पालै सदा,
सुंदर
समरथ राम।
सुंदरदास
कहते हैं ः कर्ता भी वही हर्ता भी वही! वही बनाता , वही मिटाता। वही संहारता। तुम
बीच में मत आओ। राम परिपूर्ण रूप से समर्थ है। कुछ कमी नहीं है कि तुम्हें कुछ
करना पड़े। इसी बात को अलग-अलग फकीरों ने अलग-अलग ढंग से कहा है।
अजगर
करै न चाकरी,
पंछी
करै न काम,
दास
मलूका कह गए,
सबकै
दाता राम!
--मलूक कहते हैं ः ज़रा देखो तो
आंख उठाकर! अजगर भी पड़ा रहता है अपनी जगह पर तो भी भोजन मिल जाता है। पक्षी
नौकरी-चाकरी करने नहीं जाते, एम्लायमेंट-दफ्तर
के सामने क्यू लगाकर खड़े नहीं होते, फिर भी भोजन मिल जाता है, फिर भी जीते हैं। तुमसे कुछ
कम जीते हैं?
सच तो
यह है,
तुमसे
ज्यादा जीते हैं। आदमी जमीन पर सबसे कम जी रहा है। करने-धरने से फुर्सत नहीं मिल
पाती, जिए कैसे? पहले इंतजाम तो जुटाए, तब जिए। इंतजाम जुटाते-जुटाते
ही जिंदगी चूक जाती है। आदमी कहता है ः आज धन इकट्ठा कर लूं, कल जीऊंगा; आज मकान बना लूं, कल रहूंगा। कल आता नहीं। मकान
बनते-बनते आदमी के जाने का दिन आ जाता है। किसका मकान कब पूरा बन पाया है? सभी को तो अधूरा छोड़कर जाना
पड़ता है। किसकी यात्रा कब पूरी होती है? सभी को तो बीच से उठ जाना होता है।
तुम
देखते नहीं,
रोज
लोगों को गिरते और मरते! तुम सोचते हो उनका काम पूरा हो गया? तुम सोचते हो उनके मकान पूरे
बन गए थे?
तुम
सोचते हो उनकी दुकान पूरी जम गयी थी? तुम सोचते हो वह घड़ी आ गयी थी जब वे जीना
शुरू कर सकते थे?
अभी
नहीं आयी थी।
इसीलिए
तो मृत्यु में इतना दुःख होता है। मृत्यु का दुःख मृत्यु के कारण नहीं होता है।
मृत्यु का दुःख तो इसलिए होता है कि जीवन तो जुटाने में बीत गया, जीए तो कभी थे ही नहीं और अब
मौत आ गयी। जीवन हाथ में था, जिए
नहीं, क्योंकि जुटाने में लगे रहे
साधन; अब मौत आ गयी, अब जीने का कोई समय नहीं बचा।
ऐसे ही
समझो कि एक आदमी सदा यात्रा की तैयारी करता हो, बिस्तर बांधता हो, संदूक सजाता हो, बस यात्रा की तैयारी ही करता
हो, यात्रा पर कभी भी जाता न हो!
और जब यात्रा की तैयारी करीब-करीब पूरी होने को आ जाए तो मौत की घड़ी आ जाए। . . .
तुम्हारी जिंदगी ऐसी ही है। तुम इंतजाम करते हो। लोग कहते हैं ः आज मेहनत कर लें, कल भोगेंगे! आज कैसे भोग सकते
हैं? आज तो मेहनत कर लेंगे तो कल
कुछ बचेगा तो भोगेंगे। फिर कल भी यही होता है और परसों भी यही होता है। क्योंकि जब
भी दिन आता है आज की तरह आता है। और तुम्हारी एक आदत बन गयी होती है कल पर स्थगित
कर देने की। तुम टालते ही चले जाते हो। एक दिन मौत आ जाती है।
आदमी
जमीन पर सबसे कम जीता है और सबसे ज्यादा जीने के आयोजन जुटाता है। पशु-पक्षियों को
ज़रा गौर से देखो,
उनसे
कुछ सीखो!
जीसस
से किसी ने पूछा कि आपके संदेश का सार क्या है? तो तुम चौंकोगे, जीसस ने जो जवाब दिया! जीसस
ने कहा ः पक्षियों से पूछ लो, पौधों
से पूछ लो,
मछलियों
से पूछ लो। ज़रा जिंदगी को गौर से देख लो, मेरा संदेश तुम्हारी समझ में आ जाएगा। देखते
हो खेत में खिले हुए लिली के फूलों को, न श्रम करते न मेहनत और सम्राट् सोलोमन भी
अपनी पूरी सजावट में इतना सुंदर नहीं था! सोलोमन भी अपने समग्र वैभव में इतना
गरिमापूर्ण नहीं था, जितना
ये लिली के फूल हैं। गरीब लिली के फूल खेत में खड़े हैं। न इनके पास धन है, न पद है न प्रतिष्ठा है, कुछ भी नहीं है। मगर इनका
सौंदर्य देखते हो! इन्हीं से पूछ लो! पक्षियों से पूछ लो, कि मछलियों से पूछ लो!
जीसस
क्या कह रहे हैं?
जीसस
कह रहे हैं कि ज़रा आंख खोलकर प्रकृति को तो देखो। सारी प्रकृति जी रही है। पौधे भी
तुमसे ज्यादा जी रहे हैं, तुमसे
ज्यादा रस पी रहे हैं। आदमी सूखता ही चला जाता है। और उसके सूखने की जड़ कहां है? उसे यह अकड़ आ गयी है कि मेरे
किए कुछ होता है,
कि मैं
कुछ करूंगा तो होगा।
तुम
मां के पेट में थे नौ महीने तक, किसने
तुम्हें भोजन दिया था? मां के
पेट में तुम थे,
तब तुम
श्वास भी नहीं ले सकते थे। किसने तुम्हें श्वास दी थी? कैसे तुम मां के पेट में नौ
महीने तक बड़े हुए?
कौन
तुम्हें बड़ा करता रहा? किसका
सहारा था तुम्हें?
तुम तो
बिल्कुल असहाय थे,
फिर
कौन तुम्हें गर्भ के बाहर ले आया? और तुम
गर्भ के पहले आओ बाहर कि मां के स्तन दूध से भर गए थे। किसने मां के स्तनों को दूध
से भर दिया था?
जैसे
तुम्हारे आने के पहले तुम्हारे लिए सारा इंतजाम कोई जुटा रहा है--कोई अदृश्य हाथ
तुम्हें संभाले हुए है! हाथ तो प्रतीक है। कोई अदृश्य नियम--उस नियम का नाम ही
धर्म है--तुम्हें संभाले हुए है। प्रेम की भाषा में कहो तो उस नियम का नाम
परमात्मा है। उसके हमने चार हाथ बनाए, ताकि चारों दिशाओं से तुम्हें संभाल ले।
उसके हमने हजार हाथ बनाए, ताकि
ऐसा न हो,
हजारों
लोग हैं,
उसके
हाथ कहीं एक जगह उलझे हों और कोई दूसरे को जरूरत पड़ जाए और हाथ खाली न हो!
कल मैं
एक कविता पढ़ रहा था। . . .लोगों के देखने के ढंग! जिनने कविता लिखी है उन्होंने
लिखा है कि बेईमानी शुरू से ही हो गयी; खुद के तो चार हाथ बना लिए और आदमी को दो
दिए। एक महत्त्वपूर्ण प्रतीक को आलोचना का कारण बना लिया--खुद के चार बना लिए और
आदमी को दो दिए। धोखा पहले से ही शुरू हो गया! स्वार्थ की शुरुआत हो गई। ईश्वर भी
स्वार्थी है!
उसके
हाथ तुम्हारे लिए हैं। तुम्हारे हाथ भी जिस दिन उसके लिए हो जाएंगे उसी दिन मिलन हो
जाएगा। उसके हजार हाथ भी तुम्हारे लिए हैं, तुम्हारे दो हाथ भी उसके लिए नहीं हैं। तुम
अपनी अलग अकड़ लेकर खड़े हो गए हो। और तुम अलग हो नहीं, इसलिए अकड़ तुम्हारी भ्रांत
है। कोई मनुष्य अकेला होकर जी नहीं सकता। मनुष्य को एक व्यक्ति की तरह देखने में
ही भूल हो रही है। मनुष्य एक संबंध है--व्यक्ति नहीं! एक रिलेशनशिप, एक व्यक्ति नहीं।
और जब
मैं कहता हूं कि मनुष्य एक संबंध है तो मेरा मतलब क्या? अगर श्वास न आए तो तुम समाप्त
हुए। चारों तरफ जीवन-वायु का सागर चाहिए, तो ही तुम जी सकते हो। सूरज न आए, तुम समाप्त हुए। सूरज से आनेवाली
जीवनदायी किरणें होनी चाहिए, तो ही
तुम जी सकते हो। पानी न मिले, तुम
समाप्त हुए। आकाश चाहिए, तो ही
तुम जी सकते हो। पानी न मिले, तुम
समाप्त हुए। आकाश चाहिए, हवाएं
चाहिए,
सूरज
चाहिए,
चांदत्तारे
चाहिए,
जल
चाहिए,
पृथ्वी
चाहिए। ये सब हैं,
तो तुम
जीते हो। इन सबके बीच तुम एक संबंध मात्र हो! इन पांचों तत्त्वों के तुम एक जोड़ हो, एक संबंध, एक संयोग। इस संयोग के भीतर
एक कुछ ऐसा भी है जो संयोग नहीं है। उसको हमने परमात्मा कहा है। वह तुम नहीं हो।
तुम तो संयोग-मात्र हो। मिट्टी, आकाश, वायु, अग्नि, इनका जोड़ हो।
लेकिन तुम्हारे
भीतर एक है,
जो तुम
नहीं हो। उसको जानने के लिए तुम जब नहीं हो जाओगे, पूरे तभी संभावना का द्वार
खुलेगा!
रूप?
कहा माटी ने
वह तो मेरा ही है।
रंग?
किरण बोली
वह मैं ही सबको देती।
रस?
मैं ही बरसाता सब पर,
बोला बादल।
प्राण?
वात बोली
मुझको ही नहीं जानते?
अति परिचय परिणाम अवज्ञा।
शब्द?
शब्द?
ध्वनि के अपार सागर की
सीमित एक लहर भी
जो कंठस्थल से टकरा कर टूट गई
है,
तरहत्तरह से तुम जिसको जोड़ा
करते होः
बोला अंबर।
संपुजंन?
संघात?
सिर्फ संग्रह भर मैं हूं?
बोला अज्ञात, नहीं!
तुम वह
जिसने ली "मैं' की संज्ञा
संग्रह तुम हो नहीं, संग्रही;
संग्रह मात्र अगर बन पाते
तो न इस तरह से घबराते,
और न ऐसे प्रश्न उठाते।
एक
तुम्हारे भीतर इस सारे संग्रह का साक्षी बैठा है--जो मिट्टी नहीं है; जो आकाश नहीं है; जो अग्नि नहीं। एक चैतन्य का
आवास तुम में है। लेकिन उस चैतन्य में तुम्हारा अहंकार बिल्कुल नहीं है। व्यक्ति
की तरह तुम वहां नहीं हो, वह
चैतन्य तो सच्चिदानंद है। मेरा चैतन्य और तुम्हारा चैतन्य अलग-अलग नहीं है। हम
सबका चैतन्य एक ही है। देहें हमारी अलग, आत्मा एक है। वाणी हमारी अलग, शून्य हमारा एक है। बोलें तो
हम भिन्न-भिन्न,
हमारी
बोलियां अलग,
लेकिन
मौन हो जाएं तो मौन थोड़े ही भिन्न-भिन्न होता है!
यहां
कितनी भाषाएं जाननेवाले लोग मौजूद हैं, करीब-करीब दुनिया की सारी भाषाओं को
जाननेवाले लोग यहां मौजूद हैं। बोलेंगे तो सब भिन्न-भिन्न हो गए। लेकिन सब चुप
होकर बैठ जाएं,
शांत, मौन, तो क्या जर्मन मौन अलग होगा
जापानी मौन से?
हिंदुस्तानी
मौन अलग होगा चीनी मौन से? मौन तो
एक ही होगा!
भीतर
शब्द के ,
रूप के, रंग के पार भी कुछ है। ज्ञात
के पार कुछ है। उसका ही नाम परमात्मा है। वही कर्ता है वही हर्ता, वही लेता वही देता। सारा खेल
उसका है। लेकिन तुम व्यर्थ ही बीच में आ जाते हो। और तुम्हारे बीच में आने से बड़ा
उपद्रव हो जाता है। कुछ उसका नुकसान नहीं होता, लेकिन तुम जीवन से वंचित हो जाते हो।
धर्म
है जीवन को उसकी विराटता में जीना! और तुम क्षुद्र रह जाते हो! धर्म है जीवन को
सागर की भांति जीना! और तुम बूंद ही रह जाते हो। तुम नाहक सीमा में आबद्ध हो जाते
हो! तुम अपने कारागृह खुद ही निर्मित कर लेते हो! तुम कारागृह बनाने में इतने कुशल
हो कि दीवालें पर दीवालें उठाए चले जाते हो! तुम्हें दीवालों से इतना राग है . . .
पहले दीवाल उठा लोगे कि यह भारत, यह अलग
हो गया चीन से,
यह अलग
हो गया अफगानिस्तान से; फिर
भारत में सीमाएं उठा लोगे कि यह हिंदू, यह मुसलमान। फिर हिंदू हजार सीमाएं उठा लेगा
कि यह ब्राह्मण,
यह
शूद्र। फिर अब ब्राह्मण भी सीमाएं उठा लेगा कि कौन कानकुब्ज और कौन कौन है। कोई
चतुर्वेदी,
कोई
त्रिवेदी,
कोई
द्विवेदी। फिर उठती जाएंगी सीमाएं। और तुम देख रहे हो, तुम क्या कर रहे हो? तुम छोटे होते जा रहे हो।
आखीर में बचते हो तुम --एक थोथा अहंकार, जिसमें कुछ भी नहीं बचा।
विराट
करो अपने को! सीमाएं तोड़ो! नहीं तुम ब्राह्मण हो, नहीं तुम शूद्र, नहीं तुम हिंदू, नहीं तुम मुसलमान। नहीं तुम
भारतीय,
नहीं
तुम अफगानी। छोड़ो सीमाएं, तोड़ो
सीमाएं--उठो पार! जितने ही तुम विराट होते चलो, उतने ही परमात्मा के निकट होते चलो।
विराट
होने से डरते क्यों हो? क्योंकि
विराट होने में एक ही खतरा हैः अहंकार नहीं बचता। अहंकार को बचाना हो तो सीमाएं
खड़ी करनी पड़ती हैं। अगर ब्राह्मण हो तो अकड़ सकते हो, हिंदू हो तो अकड़ सकते हो। अगर
न हिंदू न ब्राह्मण न मुसलमान न ईसाई न भारतीय न पाकिस्तानी, फिर अकड़ोगे कैसे? अकड़ को बचेगा क्या? आधार न रह जाएगा अकड़ का।
इस
आधार को तोड़ने के लिए पहला सूत्र--
करै
हरै पालै सदा,
सुंदर
समरथ राम।
सबही
तैं न्यारौ रहै,
सब मैं
जिनकौ धाम।।
और वह
सबके भीतर बैठा है, और फिर
भी न्यारा होकर बैठा है। मिट्टी भी नहीं है वह, अग्नि भी नहीं है, वायु भी नहीं है; सबके भीतर बैठा है, और सब से भिन्न होकर बैठा है।
द्रष्टा है सबका,
साक्षी
है सबका। देखनेवाला है सबका। तुम तो नाटक में भी जाते हो तो भूल जाते हो कि देखने
आए हो। फिल्म देखने जाते हो, पर्दे
पर कुछ भी नहीं होता, भलीभांति
तुम्हें मालूम है कि पर्दे पर कुछ नहीं है, कोरा पर्दा है। धूप-छाया का खेल हो रहा है।
लेकिन आंखें गीली हो जाती हैं, आंसू आ
जाते हैं,
हंसने
लगते हो। कभी कोई बहुत उत्तेजक दृश्य आ जाता है तो एकदम कुर्सी पर उठंग हो जाते
हो। एकदम रीढ़ सीधी करके बैठ जाते हो। हंस लेते रो लेते, खुश हो लेते, उदास हो लेते, सब कर लेते। और मालूम है कि
पर्दे पर कुछ भी नहीं है। धूप-छाया का खेल है।
नाटक
में भी भूल जाते हो कि तुम द्रष्टा हो, तो जिंदगी के बड़े नाटक में अगर भूल गए तो
कुछ आश्चर्य नहीं! यह बड़ा मंच है। इस पर बड़ा विराट अभिनय चल रहा है। इसमें सब
अभिनेता हैं,
सबने
स्वांग रचा है। कोई राजा बना है कोई भिखारी बना है, कोई आदमी है कोई स्त्री है।
अनेक-अनेक रंग हैं, अनेक-अनेक
रूप हैं,
लेकिन
भीतर एक ही निराकार बैठा हुआ है। जब सब पर्दे गिर जाएंगे तब तुम अचानक हैरान होओगे, तब तुम चौंकोगे कि भेद था ही
नहीं।
जो इस
अभेद को चलते खेल में पहचान लेते हैं, उनको जीवन-मुक्त कहा गया है। जीते-जी मुक्त!
और जो जीते-जी मुक्त है, वही
मृत्यु में भी मुक्त है। जो जीते-जी मुक्त नहीं हो पाया, वह मृत्यु में मुक्ति को नहीं
जान सकेगा। उसे फिर वापिस जीवन में आ जाना पड़ेगा। उसने पाठ ही न सीखा। उसको फिर
उसी कक्षा में वापिस आ जाना पड़ेगा।
जीवन पाठशाला है। पाठ क्या है सीखना? एक ही पाठ सीखने का है, कि जहां सब अभिनय है और हमारे
भीतर द्रष्टा बैठा है जो सिर्फ देखता है!
सब ही
तैं न्यारौ रहै,
सब मैं
जिनको धाम।
अंजन
यह माया करी आपु निरंजन राइ। इतने रंग-रूप भरी यह माया बना दी, इतना बड़ा नाटक रचा और आप दूर
खड़ा देख रहा है निरंजन। ज़रा भी लिप्त नहीं! रंग उस पर लगा नहीं। रंग सब ऊपर-ऊपर
है। खूब होली खेली जा रही है। खूब रंग गुलाल उड़ाई जा रही है। फिर घर जाते हो, नहा-धो लिए, सब साफ हो गया। तुम तो नहीं
पाते, तुम तो निरंजन हो। जब तुम पति
बने, तब भी तुम पति बने नहीं हो।
जब तुम बूढ़े हुए,
तब भी
तुम्हारे भीतर जो है वह बूढ़ा नहीं हुआ है। जब तुम हारे तब भी तुम्हारे भीतर जो है
वह नहीं हारा है। ये सब घटनाएं हैं जो बाहर घट रही हैं। ये रंग होली के हैं; उड़ाओ गुलाल, लगाओ रंग, मगर भीतर बैठा है निरंजन!
अंजन
यह माया करी,
आपु
निरंजन राइ।
सुंदर
उपजत देखिए,
बहुरयौ
जाइ बिलाइ।।
कैसी
अद्भुत दुनिया बनायी! क्षण में चीजें बनती हैं, क्षण में बिखर जाती हैं! मगर फिर भी हम अंधे
हैं; क्षणभंगुर को पकड़ लेते हैं, रोते-चिल्लाते हैं। बबूलों से
राग लगा लेते हैं,
फिर
बबूले फूटते हैं तो पीड़ित होते हैं।
सुंदर
उपजत देखिए,
बहुरयौ
जाइ बिलाइ। फिर तुरंत ही तो सब बिला जाता है, देर कहां लगती है! सपने जैसा उठता है और
विलीन हो जाता है। कितने लोग आए और कितने लोग गए! हम भी हैं, हम भी चले जाएंगे। हमारे बाद
और लोग आते रहेंगे आते रहेंगे। सदियों के बाद किसी को पता भी नहीं होगा कि तुम भी
कभी थे। मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी, पानी-पानी में खो जाएगा।
लेकिन
अभी तुमने कितना शोरगुल मचा रखा है! अभी तुमने कितना बोझ ले रखा है! सब मिट जाएगा
और तुम कितने चिंतातुर होकर बैठे हो कि कहीं कुछ मिट न जाए, कि वर्षा आ गयी है, कहीं मकान गिर न जाए! सब गिर
जानेवाले हैं। किसी ने ज़रा-सी बात कह दी और तुम इतने पीड़ित हो गए कि रात-भर सो न
सके। न तुम बचोगे न वह बचेगा। कितने लोग इस जमीन पर रहे; लड़े-झगड़े, एक-दूसरे को काटा-पीटा, विदा हो गए! किसी की याद है
तुम्हें?
क्या
तुम सोचते हो तुम्हें ही पहली दफे गाली दी गयी है? जिनको गालियां दी गयी थीं, अपमान हुए थे, लड़े थे झगड़े थे, वे सब कहां हैं? आज मिट्टी में तलाश करोगे तो
पता लगा पाओगे,
कि
कौन-सी मिट्टी हारे हुए की है, कौन-सी
मिट्टी सिकंदर की है और कौन-सी मिट्टी गुलाम की है? मिट्टी तो सब मिट्टी है। राख
तो बस राख है।
जहां
सब उठता है और गिर जाता है, वहां
हम छोटी-छोटी चीजों को कितने जोर से पकड़ते हैं! उसी जोर से पकड़ने में हम पीड़ित
होते हैं,
परेशान
होते हैं! और जब कोई लहरों को पकड़ेगा तो दुःखी होगा ही, क्योंकि लहरें पकड़ में नहीं
आतीं। क्षणभंगुर को पकड़ेगा तो बेचैन होगा ही, क्योंकि क्षणभंगुर तुम्हारी पकड़ के कारण
शाश्वत नहीं हो सकता! और हमारी यही असंभव चेष्टा चल रही है कि क्षणभंगुर शाश्वत हो
जाए। हम क्षण को शाश्वत बनाना चाहते हैं। जहां परिवर्तन ही सत्य है, वहां हम चीजों को थिर करना
चाहते हैं,
ठहराना
चाहते हैं। और यहां कुछ भी ठहरता नहीं। इससे हम इतने दुःखी हैं, इतने पीड़ित हैं! आज धन है, कल चला जाएगा। तुम पकड़ रखना चाहते हो कि रहना ही
चाहिए। आज तुम सफल हो, कल
असफल हो जाओगे। आज तुम्हारे गले में विजय की माला है, कल ये फूल कुम्हला जाएंगे। यह
माला किसी और के गले में होगी। तब तुम पीड़ित होओगे, तब तुम दुःखी होओगे।
सुंदरदास
इशारा क्या कर रहे हैं? वे कह
रहे हैं ः देखो सब, किसी
भी चीज से जकड़ो मत। जो आए आने दो, जो जाए
जाने दो।
यहूदी
फकीर झुसिया का बेटा मर गया। तो वह नाचता हुआ उसे मरघट विदा करने गया! लोगों ने
समझा, पागल हो गया। लोगों को शक था
ही पहले से,
कि
झुसिया पागल है। क्योंकि जब वह प्रार्थना भी मंदिर में करता था तो बाकी लोगों को
मंदिर से हट जाना पड़ता था। क्योंकि इतनी उछल-कूद मचा देता था, टेबल कुर्सियां गिरा देता, सामान तोड़-फोड़ देता। उसकी
प्रार्थना क्या थी, पागलपन
था! मगर सचाई यह थी कि जब वह प्रार्थना में डूबता था तो वह अपने में रह ही नहीं
जाता था। फिर परमात्मा जो करवाता वही होता। लोग भागकर बाहर हो जाते थे मंदिर के, कि जो उसके बीच में आ जाए वही
झंझट में पड़ जाए। और उसमें ऐसी शक्ति आ जाती थी, जब वह प्रार्थना करता था, कि दस आदमियों को अकेला हरा
दे। कई बार पकड़ने की कोशिश की थी लोगों ने, तो भीड़ की भीड़ को अकेला हरा दे। लोग सोचते
ही थे कि यह पागल है।
अकसर
ज्ञानी दीवाने मालूम पड़े हैं। ज्ञान की बाढ़ आती है तो दीवानापन भी आता है।
और जब
बेटे को विदा करने चला, जवान
बेटा मर गया,
और
नाचने लगा,
तो
लोगों ने कहा ः यह पागल है, हम
जानते हैं। लेकिन वह परमात्मा से कह रहा था, कि तूने भेंट दी थी, आज तूने वापिस ले ली। इतने
दिन जितनी तरह संभाल हो सकी, मैंने
की। कुछ भूल-चूक हुई हो, तो
क्षमा करना। लेकिन तूने मुझे इस योग्य माना था कि इतने दिन के लिए यह अमानत रखने
को दी थी,
उसका
धन्यवाद तो दूं! इसलिए नाचता हूं। तूने मुझे किसी योग्य तो समझा! अपने किसी प्यारे
को इतने दिन के लिए मेरे पास भेज दिया था। खुश हूं कि जैसा तूने भेजा था वैसा ही
वापस कर रहा हूं,
ज़रा भी
बिगाड़ नहीं हुआ है। और खुश हूं कि ज़रा भी मेरा लगाव नहीं है। और ऐसा भी नहीं था कि
जब बेटा मेरे पास था तो मैंने उसकी चिंता-फिकर न ली हो।
लोग
जानते थे,
झुसिया
का बेटे से बड़ा प्रेम था। शायद कम पिताओं का अपने बेटों से ऐसा प्रेम होता है।
उसने इसे बहुत चाहा था, लेकिन
चाहत के भीतर एक निरंजन-भाव था, एक
साक्षी-भाव था। परमात्मा की भेंट है तो चाहा था, लेकिन पकड़ रखने का कोई आग्रह
न था। मेरा क्या है, अपना
क्या है?
सुंदर
उपजत देखिए,
बहुरयौ
जाइ बिलाइ।
यहां
चीजें बनती और गिरती रहती हैं। उठा पानी में बबूला और मिटा। उठते देखो, गिरते देखो। मजे से देखो! मगर
देखनेवाले हो,
इतना
स्मरण रखो। सूरति तेरी खूब है, कौ करि
सकै बखान।
बानी
सुनि सुनि मोहिया,
सुंदर
सकल जिहान।।
सुंदरदास
कहते हैं ः जब साक्षी-भाव को जाना तब तेरी सूरत पहचानी। वही उसकी सूरत है।
मूर्तियों में मत खोजो। मूर्तियों में तुम उसे न पाओगे। उसकी मूर्ति तुम्हारे भीतर
छिपी है। उसकी सूरत तुम्हारे भीतर छिपी है। उसकी सूरत साक्षी भाव है। अगर उसका
चेहरा देखना है तो साक्षी हो जाओ। अच्छा हो तो, बुरा हो तो; सुदिन आएं तो, दुर्दिन आएं तो; सफलता तो, असफलता तो; सुख-दुःख जीवन-मरण--जो भी आए, उसे तुम निसंग भाव से देखते
रहो। तुम्हें उसकी सूरत पहचान में आ जाएगी, क्योंकि वह साक्षी-रूप है।
सूरति
तेरी खूब है!
और
सुंदरदास कहते हैं ः जब देखा, कर्तापन
से अपना भाव हटाया और साक्षी पन में डूबा, तब तेरी सूरत पहचानी। और तेरी सूरत खूब है!
खूब चमत्कार किया है कि इतने पास बैठा है और ऐसा लगता है कि करोड़ों मील दूर है! और
तेरी सूरत खूब है कि न रंग है न रूप है, फिर भी है! तेरा चेहरा खूब है, किसी दर्पण में इसकी छाया
नहीं बनती,
कोई
इसका चित्र नहीं बना सकता!
सूरति तेरी खूब है कौ करि सकै बखान।
आज तक कोई भी उसका वर्णन नहीं कर पाया।
तुम मुझे शब्दार्थ बनाना चाहते हो?
नहीं, यह संभव नहीं, कभी नहीं;
विवश मत करो
लहरों के सीपों में बंद होने के लिए
मंत्र तो स्वयंद्रष्टा है
फिर प्रश्नचिन्ह उसकी पूर्णता पर लगाना
क्या पराभव नहीं उसकी पवित्रता का?
मुक्तमना सरल विहग से उसका आकाश मत छीनो,
युगों की अनुभूति को पलभर में मत बीनो;
क्या मैं एक संपूर्ण बोधमय क्षण नहीं
जो तुम निर्मम हो त्रिकाल में
बार-बार विभक्त करते हो
और
अव्यक्त की गरिमा को खंडित और व्यक्त करते हो। वह अव्यक्त है। उसकी गरिमा की
व्यक्त करके खंडित मत करो। और वह आकाश की तरह है। तुम उसे मुट्ठियों में बंद न कर
सकोगे।
विवश मत करो।
लहरों के सीपों में बंद होने के लिए
तुम
सागर की लहरों को सीपों में बंद नहीं कर सकते। कर भी लोगे तो वे सागर की लहरें न
रह जाएंगी। तुम इस विराट आकाश को मुट्ठी में बंद नहीं कर सकते। जैसे-जैसे मुट्ठी
बंधेगी,
आकाश
बाहर हो जाएगा। परमात्मा पारे जैसा तरल है। बांधोगे, नहीं पकड़ पाओगे!
शब्द-बद्ध
तुमको करने का
मैं दुःसाहस नहीं करूंगा।
तुमने
अपने अंगों से
जो गीत लिखा है--
विगलित लयमय
नीरव स्वरमय
सरस रंगमय
छंद-गंधमय
उसके आगे
मेरे शब्दों का संयोजन--
अर्थ-समर्थ बहुत होकर भी--
मेरी क्षमता की सीमा में
एक नयी कविता-सा केवल
जान पड़ेगा--
लयविहीन
रसरिक्त,
निचोड़ा,
सूखा, भौंडा।
ओ माखन-सी
मानस हंसिनि,
गीत तुम्हारा जब मैं फिर सुनना चाहूंगा,
अपने चिर-परिचित शब्दों से
नहीं सहारा मैं मांगूंगा।
कान रूंध लूंगा,
मुख अपना बंद करूंगा,
पलकों में पर लगा
समय आकाश पार कर
क्षीर-सरोवर तीर तुम्हारे
उतर पड़ूंगा
तुम्हें निहारूंगा
नयनों से
जल-मुक्ताहल तरल झड़ूंगा।
शब्दों
से उसे कहा नहीं जा सकता। चित्र उसके बनाए नहीं जा सकते।
तुमने
किसी नर्तकी को नाचते देखा? उसके
नृत्य को तुम कैसे शब्दों में वर्णन करोगे? नहीं, कठिनाई है।
तुमने
अपने अंगों से
जो गीत लिखा है--
विगलित लयमय,
नीरव स्वरमय
सरस रंगमय,
छंद गंधमय--
उसके आगे
मेरे शब्दों का संयोजन--
अर्थ-समर्थ बहुत होकर भी--
मेरी क्षमता की सीमा में
एक नयी कविता-सा केवल जान पड़ेगा
लयविहीन,
रसरिक्त,
निचोड़ा,
सूखा, भौंडा।
ऐसा
नहीं है कि मनुष्य ने प्रयास नहीं किया है परमात्मा के संबंध में उसे अभिव्यक्ति
देने का। सारे शास्त्र इसी चेष्टा के परिणाम हैं। लेकिन कौन उसे कह पाया? शब्द बहुत छोटे हैं। शब्द अति
क्षुद्र हैं। उस विराट को शब्द में लाने की सब चेष्टाएं हारती रही हैं, हारती रहेंगी। कभी मनुष्य
समर्थ नहीं हो पाएगा।
सूरति तेरी खूब है कौ करि सकै बखान।
बानी-सुनि-सुनि मोहिया, सुंदर सकल जिहान।।
लेकिन अगर कोई भीतर डुबकी मारे तो देख सकता
है।
ओ माखन-सी
मानस हंसिनि
गीत तुम्हारा
जब मैं फिर सुनना चाहूंगा,
अपने चिर-परिचित शब्दों से
नहीं सहारा मैं मांगूंगा
कान रूंध लूंगा
मुख अपना बंद करूंगा
पलकों में पर लगा
समय आकाश पार कर
क्षीर सरोवर तीर तुम्हारे
उतर पड़ूंगा
तुम्हें निहारूंगा,
नयनों से
जल-मुक्ताहल तरल झड़ूंगा।
जब उसे
जानना हो तो आंखें बंद कर लेना, कान
रूंध लेना। बोलना खो जाए। शब्द विदा हो जाएं। मन शून्य हो जाए। और तत्क्षण उसका
अनाहद नाद सुना जाता है। उसका अरूप रूप प्रकट होता है। उसका निराकार आच्छादित कर
लेता है तुम्हें। उसका अनिर्वचनीय रूप तुम्हारे प्राणों में रस होकर बरसता है, छंद होकर जगता है। उसे सुना
जा सकता,
उसे
देखा जा सकता। उसकी वाणी भीतर सुनी जा सकती है।
इस
भीतर की वाणी को संतों ने "सबद' कहा है। सबद का अर्थ हैः तुम्हारे उपयोग में
आनेवाले शब्द नहीं। सबद का अर्थ है ः तुम्हारा शब्द नहीं। उसका! उसे ओंकार का नाद
कहा है। अगर तुम चुप हो जाओ तो वह बोलो। अगर तुम बिल्कुल नीरव हो जाओ तो उस नीरवता
में ही उसके सूक्ष्म स्वर पकड़े जा सकते हैं।
उसके
संगीत की लहरें इस क्षण भी मौजूद हैं। मगर तुम्हारा कोलाहल इतना है, जैसे कोई बीच बाजार में
धीमे-धीमे बांसुरी बजाता हो। किसको सुनायी पड़े?
जहां
कोलाहल भारी हो,
वहां
वेणू के स्वर खो जाएंगे! लेकिन अगर कोई सुनना चाहे बीच बाजार में भी शांत होकर तो
उतने कोलाहल में भी वेणू के छोटे-छोटे धीमे-धीमे स्वरों को पकड़ पाएगा। तुम्हारा
ध्यान जाना चाहिए-- एकाग्र होकर, एक
दिशा में।
जो
भीतर की दिशा में जाता है वह पाता है। उसकी सूरत भी, उसकी मूरत भी, उसकी वाणी भी, शास्त्रों का शास्त्र उपलब्ध
होता है। उस स्वर में स्नान करके ही पवित्रता उपलब्ध होती है। उस स्वर में स्नान
किया कि पुण्य हुआ! वही है गंगा असली! क्या करें ?
जब जिस क्षन मैं हारा
हारा, हारा, हारा,
मैंने तुम्हें पुकारा
तुम आए
मुस्कराए,
मुझको रहे देखते
मुझको मिला सहारा
जब जिस क्षण मैं
हारा, हारा, हारा,
मैंने तुम्हें पुकारा!
हारो और पुकारो!
जब जिस क्षण मैं
हारा, हारा, हारा
मैंने तुम्हें पुकारा
तुम आए
मुस्काए
मुझको रहे देखते
मुझको मिला सहारा
जब जिस क्षण मैं
हारा, हारा, हारा
मैंने तुम्हें पुकारा
पुकारो
उसे हार कर! पुण्य की अकड़ से नहीं। ज्ञान की अकड़ से नहीं। अज्ञान के बोध से, पाप की प्रतीति से। असहाय
होकर पुकारो उसे। उसी पुकार में, सारा
कोलाहल खो जाएगा! उस पुकार का ही नाम प्रार्थना है।
लेकिन
ध्यान रखना,
प्रार्थना
तभी होती है जब तुम हारकर पुकारते हो। ज़रा भी अकड़ न हो, ज़रा भी दावा न हो, ज़रा भी शिकायत न हो, ज़रा भी आकांक्षा न हो, मांग न हो। सिर्फ इतना ही हो
कि मैं भी हूं--यहां दूर परदेस में पड़ा और तेरे अतिरिक्त मेरा कोई सहारा नहीं।
मैंने सब करके देख लिया, कुछ
होता नहीं। अब तुझे पुकारता हूं।
जैसे
कोई डूबता हो सागर में और पुकारे, ऐसे
हारे होकर पुकारो!
बानी
सुनि सुनि मोहिया सुंदर सकल जिहान।
और
जिसने उसकी वाणी सुन ली, सबद
सुना--एक ओंकार सतनाम! जिसने उस एक ओंकार को सुना, वह मोह गया! वह सदा के लिए
उसका हो गया।
तुमने
बीन बजानेवाले के सामने सर्पों को नृत्य करते देखा? वह कुछ भी नहीं है। भीतर की
बीन जब बजती है और तुम सुन लेते हो तो जो नृत्य पैदा होता है वह शाश्वत है। समय और
आकाश की सब सीमाओं को तोड़कर बहता जाता है। एक बार शुरू होता है तो फिर उसका कोई
अंत नहीं। आदि तो है, अंत
नहीं।
प्रीतम
मेरा एक तूं,
सुंदर
और न कोइ।
बस एक
बार उसकी शकल झलक जाए, एक बार
उसका प्रतिबिंब बन जाए भीतर. . .।
प्रीतम
मेरा एक तूं,
सुंदर
और न कोइ।
.
. . फिर बस
वही एक प्यारा है,
और फिर
कोई भी नहीं! फिर सब दृश्य खो जाते हैं, सब दृश्य विदा हो जाते हैं। फिर एक ही भाव
सतत पकड़े रहता है।
गुप्त
भया किस कारनै,
काहि न
प्ररगट होइ।
सुंदरदास
कहते हैं ः मैं तुझसे पूछता हूं कि जैसा तू मेरे सामने प्रकट हो गया है ऐसा तू सभी
के सामने प्रकट क्यों नहीं हो जाता? तू गुप्त होकर क्यों बैठा है?
परमात्मा
गुप्त होकर नहीं बैठा है, हम आंख
बंद किए बैठे हैं। उसकी तरफ ही व्यंग्य कर रहे हैं। परमात्मा तो मौजूद है, प्रकट है, मगर हम अंधे हैं। उस पर कोई
पर्दा नहीं है,
हमने
अपनी आंखों पर पर्दा डाल रखा है। उससे मेल हो तो कैसे हो।
तुमने
कभी खयाल किया,
अगर
कोई व्यक्ति अपनी आंखों पर काला चश्मा लगाकर बात करता हो तो उससे बात करने में
कठिनाई होती है। तुमने खयाल किया इस बात का? राजनीतिज्ञ अकसर लगा लेते हैं।
राजगोपालाचार्य लगाए रखते थे काला चश्मा--दिन में भी, रात भी। वे इस देश के आधुनिक
चाणक्य थे। अगर कोई आदमी काला चश्मा लगाए बैठा हो और तुमसे बात करे, तो तुम्हें थोड़ी अड़चन होगी।
बात करनी मुश्किल होगी। उसकी आंख नहीं दिखाई पड़ती। आंख बिना देखे पता ही नहीं चलता
, वह जो कह रहा है सच में कह
रहा है कि नहीं?
उसकी
आंख के भावों का पता नहीं चलता। वह कह कुछ और रहा हो, सोच कुछ रहा हो।
आंख
झूठ नहीं बोलती। ओंठ तो झूठ बोल देते हैं। ओंठों पर आदमी का कब्जा है, आंख पर आदमी का कब्जा नहीं।
इसलिए कूटनीतिज्ञ काला चश्मा चढ़ाए रखते हैं। लेकिन अगर कोई आदमी काला चश्मा चढ़ाए
बैठा हो तो उससे बात करना मुश्किल होती है, कुछ अड़चन मालूम होती है। उसका काला चश्मा
उतर जाए,
बात
सुगम हो जाती है।
परमात्मा
तुम से बोलना चाहता है, लेकिन
तुम्हारी आंखों पर तो बड़ा काला चश्मा है! परमात्मा गुप्त नहीं है, तुम्हारी आंखों पर अंधकार का
चश्मा है। और तुम अंधकार को जोर से पकड़े हुए हो। तुमने अंधकार को संपत्ति समझा है।
तुमने अहंकार को अपना समझा है। और जब तक तुमने अहंकार को अपना समझा है तब तक
परमात्मा की वाणी तुम्हें सुनाई नहीं पड़ सकती। सुन भी लोगे तो कुछ का कुछ अर्थ
करोगे।
गुप्त
भया किस कारनै,
काहि न
परगट होइ।
ऐसी
तेरी साहिबी,
जानि न
सक्कै कोइ।।
जब कोई
देख लेता है उस मालिक को तब पहचानता है कि ऐ मालिक ... ऐसी तेरी साहिबी जानि न
सक्कै कोई! भीतर छुपा है। सारा अस्तित्व तेरा है। तू ही फूलों को खिलाता है, तू ही सूरजों को उगाता है। तू
ही बनाता है,
तू ही
मिटाता है।
करै
हरै पालै सदा,
सुंदर
समरथ राम।
और पता
नहीं चल रहा है तेरा, किसी
को कानों-कान खबर नहीं हो रही कि इतना बड़ा विराट आयोजन तू कर रहा है। लोग तो
छोटा-मोटा आयोजन करते हैं तो शोरगुल मचा देते हैं, बैंड-बाजा बजा देते हैं, लाउडस्पीकर लगा देते हैं।
अखंड कीर्तन करवा देते हैं! कीर्तन होता है, कीर्तन नहीं। न खुद सोते न मुहल्ले वालों को
सोने देते हैं। ज़रा-सा कुछ हुआ कि लोग उपद्रव मचा देते हैं। तू इतना विराट आयोजन
कर रहा है और तेरा किसी को पता भी नहीं!
लाओत्सु
का प्रसिद्ध वचन है, कि
सम्राट् अगर सच में सम्राट् हो तो लोगों को पता ही नहीं होता है कि वह है। उसकी
मौजूदगी ही पता नहीं चलती। फिर कुछ कम हो, थोड़ा एक कोटि नीचे हो, तो लोगों को पता चलता है कि
सब वही कर रहा है। फिर अगर और एक कोटि नीचे हो तो लोगों को शिकायत होती है कि बुरा
भी वही कर रहा है। और अगर एक कोटि नीचे हो, तो लोग उसको मारने-मिटाने को राजी, तत्पर हो जाते हैं। बगावतें
पैदा होती हैं,
क्रांतियां
होती हैं।
परमात्मा
की मालकियत ऐसी है कि उसका पता ही नहीं चलता। असल में मालकियत दिखानी तभी पड़ती है
जब तुम्हें खुद ही शक हो। तुम्हें उसकी घोषणा करनी पड़ती है। नहीं तो कौन मानेगा? जब शक हो ही न अपनी मालकियत
में तो घोषणा नहीं करनी पड़ती।
इसलिए
जो सच में ही महान् व्यक्ति होते हैं उनके पास जाकर तुम्हें ऐसा नहीं लगता है कि
तुम छोटे हो;
उनके
पास जाकर तुमको लगता है तुम भी महान् हो। जो झूठे बड़े लोग होते हैं, उनके पास जाकर तुम्हें निरंतर
लगेगा कि तुम छोटे हो गए; वे
तुम्हें छोटा करने में आतुर होते हैं। तुम्हें छोटा करके ही वे बड़े बने रहते हैं।
सच्ची महानता का लक्षण यही है कि ऐसे व्यक्ति की मौजूदगी में, ऐसे व्यक्ति के साथ तुम्हें
पता ही नहीं चलेगा कि वह तुमसे विशिष्ट है। वह तुम्हें अपने साथ उठा लेगा-- अपनी
ऊंचाइयों पर उठा लेगा। वह तुम्हें गौरव देगा, सम्मान देगा, समादर देगा।
परमात्मा
ने इस पूरे अस्तित्व को ऊंचाई पर उठाया हुआ है। यहां छोटी-से-छोटी चीज का उतना ही
सम्मान है जितना बड़ी से बड़ी चीज का है। एक ओस की बूंद की उतनी ही चिंता है जितनी
बड़े से बड़े सागर की।
कितनी बार
विचार उठा है
पारावार अगर दुनिया है
तो मैं नन्हीं एक बूंद से
ज्यादा क्या कहूं!
और बड़े जो माने जाते
वे भी छोटी एक बूंद से
क्या ज्यादा हैं!
पर आंखों के आगे
दुनिया का यह रूपक
बहुत देर तक नहीं ठहरता
सागर गायब हो जाता है
बूंदें-बूंदें रह जाती हैं
तुलना करती हुई परस्पर
कोई बनती बड़ी,
बड़ी होकर अभिमानी,
कोई छोटी अनुभव करके
शर्माती है।
ओ मेरी चिर-चपल चेतने,
मुझे सर्वदा
इस जगती के सिंधु तीर पर
सुस्थिर रक्खो,
मैं सागर-सापेक्ष दृष्टि से
अपने को देखूं,
देखूं प्रत्येक बिंदू को--
नहीं किसी से बड़ा,
न छोटा-हीन किसी से
सजल, तरल, साधारण
सबके साथ बराबर,
सबके प्रति अर्पित संवेदन, स्नेह समादर!
उसकी
आंखों में तो सागर और बूंद में भी कोई फर्क नहीं है। और यहां तो कोई बूंद ज़रा-सी
बड़ी हो तो छोटी बूंदों के सामने अकड़ कर खड़ी हो जाती है। छोटी बूंदों को छोटा
दिखलाने लगती है। यह क्षुद्रता का लक्षण है।
परमात्मा
की मालकियत ऐसी है, उसकी
साहिबी ऐसी है . . .ऐसी तेरी साहिबी जानि सक्कै न कोइ। किसी को पता ही नहीं चलने
देता। लोग अकड़ जाते हैं। कर्ता तू है, लोग समझते हैं वे कर रहे हैं। फिर भी तू
नहीं कहता कि यह तुम क्या कह रहे हो--मैंने किया! तू उन्हें अकड़ने देता है। ऐसी
तेरी साहिबी! यह तेरी साहिबी का असली रूप!
यही
महानता का,
यही
विराटता का असली अर्थ है।
लाओत्सु
के वचन में यह भी कहा गया है कि सच्चा सम्राट् करता तो खुद है, लेकिन प्रजा समझती है हम कर
रहे हैं। और वह प्रसन्न होता है।
सच्चा
सद्गुरु करता है बहुत कुछ, लेकिन
शिष्यों को एहसास होने देता है वे ही कर रहे हैं। पता ही नहीं चलना चाहिए! असली
साहिबी का पता नहीं चलता। उसकी कोई बाजार में नुमाइश नहीं करनी होती है।
ऐसी
तेरी साहिबी,
जानी
सक्कै न कोइ।
सुंदर
सब देखै सुनै,
काहू
लिप्त न होइ।।
और तू
सब देखता रहता है,
सब
सुनता रहता है --और किसी बात में लिप्त नहीं होता!
वचन
तहां पहुंचै नहीं,
तहां न
ज्ञान न ध्यान।
वहां
वचन तो पहुंचता ही नहीं। जानना भी नहीं पहुंचता वहां। वहां तो प्रीति पहुंचती है, जानना नहीं, ज्ञान नहीं। वहां तो प्रेम
पहुंचता है। वहां ध्यान भी नहीं पहुंचता। जब तक ध्यान है तब तक अभी वहां नहीं
पहुंचे। वहां पहुंचते ही ध्यान विदा हो जाता है। और ध्यान जहां विदा हो जाता है उस
अवस्था का नाम समाधि है।
खयाल
रखना, समाधि न तो जानने का नाम है।
समाधि में न कोई जानने वाला बचा न जाना जाने वाला; न कोई ज्ञाता न कोई ज्ञेय; न कोई द्रष्टा न दृश्य! ध्यान
में दो होते हैं--ध्यान करनेवाला और जिस पर ध्यान कर रहा है। ध्यान में भेद होता
है। ज्ञान में भी भेद होता है; कोई
जान रहा है।
सुंदरदास
कहते हैं ः वहां न ज्ञान पहुंचता है न ध्यान। वहां तो सिर्फ प्रेम पहुंचता है, प्रीति पहुंचती है।
कभी-कभी
जब मैं
चुप हो जाता हूं
तो पाता हूं
अनछुई गहराइयों तक
खोलती है
चुप्पी मुझे
पूर्ण विराम तक
बोलती है।
जब
तुम्हारे भीतर सब चुप हो जाता है तब पूर्ण बोलता है। और प्रेम में ही सब चुप होता
है। प्रेम मौन की एक अवस्था है। प्रेम को बोलना नहीं पड़ता। प्रेम तो बिना बोले ही
अपनी बात कह जाता है। जब दो व्यक्ति प्रेम में होते हैं तो चुपचाप उनका पास बैठना
काफी होता है। बात तो तब करनी होती है जब चुपचाप बैठना काटता है। प्रेमी चुप बैठते
हैं, पति-पत्नी बात करते हैं।
पति-पत्नी बात न करें तो उनको अड़चन होती है कि फिर करें क्या? फिर कुछ न कुछ बात करनी होती
है, कम से कम बातबीच में बनी रहती
है। अगर बात बीच में न हो तो टूट गए--पति वहां दूर, पत्नी वहां दूर, बीच में कोई सेतु न रहा।
प्रेमी
चुप बैठते हैं। हाथ में हाथ लिए बैठे होंगे, चुप बैठे रहेंगे घंटों। चुप्पी काफी है।
प्रेम चुप्पी में भी बहता है। चुप्पी में ही बहता है!
ऐसे ही
भक्त परमात्मा के पास चुप बैठ जाता है। कभी गाता है, मगर उसका गाना भी कुछ कहना तो
नहीं है। कभी रोता है, मगर
उसका रोना भी कुछ कहना तो नहीं है। क्योंकि वचन तो वहां पहुंचते नहीं।
वचन
तहां पहुंचै नहीं तहां न ज्ञान ध्यान।
कहत
कहत यौंहि कहयौ,
सुंदर
है हैरान।।
बड़ी
प्यारी बात कही है! सुंदर कहते हैं ः मैं ये इतनी बातें कहते-कहते कह गया, अब मैं हैरान हूं कि काहे को
कहीं, किसलिए कहीं! वचन तो वहां
पहुंचते नहीं।
कहत-कहत
यौंही कहयौ,
सुंदर
है हैरान।
--अब मैं बड़ा चकित हूं कि मैं
क्यों ये बातें कहे जा रहा हूं?
समस्त
बुद्धों को यह अनुभव हुआ है। जानते हैं कि कहा नहीं जा सकता और कह रहे हैं। रोज कह
रहे हैं। सुबह कह रहे, सांझ
कह रहे,
उठते-बैठते
कह रहे--और जानते हैं कहा नहीं जा सकता! क्यों कह रहे हैं? इतना तो पक्का है कि उसे नहीं
कहा जा सकता। लेकिन फिर इस कहने का क्या प्रयोजन होगा? इसका प्रयोजन कुछ और है।
जिन्हें उसकी कोई खबर नहीं है, उनके
कान में भनक ही पड़ जाए, इतना
इशारा भी पड़ जाए कि ऐसा कुछ होता है! ऐसी तेरी साहिबी! शब्द भी कान में पड़ जाए, समझ में भी न आए।
करै
हरै पालै सदा सुंदर समरथ राम।
बीज की
तरह शब्द पड़ा रह जाएगा; कब काम
में आ जाएगा,
कुछ
कहा नहीं जा सकता।
और फिर
. . . कहत-कहत यौंही कहयौ! सुंदरदास कहते हैं कि अब तो मेरा कहनेवाला भी मेरे भीतर
न रहा,
अब तो
तू ही है। तूने ही कहलवा दिया होगा, इसलिए मैं हैरान हो रहा हूं कि मामला क्या
है! यह कौन मेरे भीतर बोल गया, मुझे
बुला गया! जैसी तेरी मर्जी!
"कहत-कहत यौंहीं कहयौ सुंदर है
हैरान।'
न
सताइश की तमन्ना न सिले की परवाह
गर
नहीं है मेरे अशआर में मानी न सही
गालिब
के इन प्रसिद्ध शब्दों को समझो। न सताइश की तमन्ना . . .न तो प्रशंसा की कोई इच्छा
है, न सिले की परवाह . . .न
पुरस्कार की कोई आकांक्षा है। गर नहीं है मेरे अशआर में मानी न सही। और अगर मेरे
गीतों में कुछ अर्थ भी न हो, तो भी
चलेगा। न होने दो अर्थ। मगर अब कोई गा रहा है, कोई भीतर उठा रहा है। मेरे बस के बाहर है।
किसी ने तार छेड़े हैं, गीत
उठेंगे। न मिले प्रशंसा, न हो
पुरस्कार,
इतना
ही नहीं मेरे शब्दों में अर्थ भी किसी को मालूम न पड़े, तो भी मजबूरी है।
कहत-कहत
यौंहीं कहयौ सुंदर है हैरान!
लौन-पूतरी
उदधि मैं,
थाह
लैन कौं जाइ।
सुंदर
थाह न पाइए,
बिचिही
गई बिलाइ।।
सुंदर
कहते हैं ः मेरी हालत तो उस लोन की पूतरी की तरह है, नमक की पुतली की तरह है जो
सागर की थाह लेने गई थी। मैं भी तेरी थाह लेने चला था। ऐ मेरे मालिक! ऐसी तेरी
साहिबी! कि मैं भी तेरी थाह लेने चला था, मैं भी खोजने चला था कि तू कौन है, क्या है, कहां है? मेरी वही दशा हुई जो नमक के
पुतले की हुई थी। मैं तो खो ही गया। अब तू मिला है, जब मैं नहीं हूं।
आ गए तुम आज
इतने दिन बिताकर आज
आओ
बहुत दिन मैंने तुम्हारी राह देखी
बहुत दिन मैंने तुम्हारा दिन गिना है
बहुत दिन मुख से प्रेम से चुपचाप मैंने
बहुत दिन तन्मय तुम्हारा गुण सुना है
राह वह बदली कहां से कहां पहुंची
जहां प्रायः मैं प्रतीक्षा किया करता था
दिन गए, आए, गए, आए--अनेक
क्या कहूं--पावस, शरद, ऋतुराज कितने खो गए
गुण तुम्हारा इस तरह मैंने गुना
कि मैं केवल तुम्हारा गुण रह गया
आज जब मैं मैं नहीं हूं
आ गए तुम आज
इतने दिन बिताकर आज
आओ!
आता ही
परमात्मा तब है,
जब
भक्त उसके गुण गाते-गाते ही विलीन हो जाता है।
लौन-पूतरी
उदधि मैं,
थाह लैन
को जाइ।
सुंदर
थाह न पाइए,
बिचिही
गई बिलाइ।।
तेरी
थाह तो न मिली,
खुद ही
खो गए। यह भी खूब सौदा हुआ! पाने चले थे। तू तो जैसा अथाह था वैसा ही अथाह अब भी
है। जैसा रहस्यपूर्ण पहले था वैसा ही रहस्यपूर्ण अब भी है। जितना अज्ञात, और अज्ञेय पहले था उतना ही
अज्ञात और अज्ञेय अब भी है। और यह सौदा खूब हुआ, बीच में हम खो गए! तू तो पकड़
में आया नहीं,
हम भी
हाथ से गए। मगर यह घड़ी आनंद की घड़ी है क्योंकि यही उसका तुम्हारे भीतर आने का ढंग
है।
आ गए तुम आज
इतने दिन बिताकर आज
आओ
बहुत दिन मैंने तुम्हारी राह देखी
बहुत दिन मैंने तुम्हारा दिन गिना है
बहुत मुख से प्रेम से चुपचाप मैंने
बहुत दिन तन्मय तुम्हारा गुण सुना है।
राह वह बदली कहां से कहां पहुंची
जहां प्रायः मैं प्रतीक्षा किया करता था।
दिन गए, आए, गए, आए--अनेक
क्या कहूं--पावस, शरद, ऋतुराज कितने खो गए
गुण तुम्हारा इस तरह मैंने गुना
कि मैं केवल तुम्हारा गुण रह गया
आज जब मैं मैं नहीं हूं
आ गए तुम आज
इतने दिन बिताकर आज
आओ!
वह आता तभी है
माई हो हरि दरसन की आस!
इसलिए
जिन्हें उसको पाने की आकांक्षा हो, वे मिटने के लिए तैयार हो जाएं, इससे सस्ते में मिलन नहीं
होता। इतनी कीमत चुकानी ही पड़ेगी और यह कोई बड़ी कीमत नहीं है। क्योंकि तुम हो क्या? तुम्हारे पास खोने को है भी
क्या? एक भ्रांति है। एक छाया हो
तुम। एक माया हो तुम। मिट्टी-पानी का एक जोड़। यह खो भी जाएगा तो कुछ खोया नहीं।
तुम खोकर भी कुछ खोओगे नहीं। तुमने अपने को बचाकर ही सब खो दिया है। तुम अपने को
खो दोगे तो सब पा लोगे!
माई हो
हरि दरसन की आस।
कब
देखौं मेरा प्रान-सनेही, नैन
मरत दोऊ प्यास।
प्रार्थना
ऐसी हो जानी चाहिए, कि
आंखें जलते हुए अंगारे हो जाएं, प्यास
की लपटें हो जाएं।
कब
देखौं मेरो प्रान-सनेही . . .वह प्राण प्यारा कब मिले! . . .नैन मरत दोऊ प्यास।
आंखें धुंधली होने लगें, आंखें
मरने लगें,
आंखों
की ज्योति खोने लगे, उसकी
राह देखते-देखते आंखें पथरा जाएं!
ऐ
दीदए-गिरयां! क्या कहिए इस प्यार भरे अफसाने को
एक शमअ
जली बुझने के लिए इक फूल खिला मुरझाने को
मैं
अपने प्यार का दीप लिए आफाक में हरसू घूम गया
तुम
दूर कहीं जा पहुंचे थे आकाश पे जी बहलाने को
वो
फूल-से लम्हे भारी हैं अब याद के नाजुक शानों पर
जो
प्यार से तुमने सौंपे थे आगाज में इस दीवाने को
इक साथ
फना हो जाने से इक जश्न तो बरपा होता है
यूं
तन्हा जलना ठीक नहीं समझाए कोई परवाने को
ऐसे भी
हम जल रहे हैं। ऐसे भी हम चिता पर रखे हैं। ऐसे भी हमारा जीवन लपटों के अतिरिक्त
और क्या है?
जलने
की कला सीखो! जलना है तो उसके साथ जलो, उसके लिए जलो।
इक साथ
फना हो जाने से इक जश्न तो बरपा होता है
उसके
साथ जलने से,
उसके
लिए जल जाने से एक उत्सव तो घटता है।
इक साथ
फना हो जाने से इक जश्न तो बरपा होता है
यूं
तन्हा जलना ठीक नहीं समझाए कोई परवाने को
ऐसे
अकेले-अकेले जलने में कोई सार नहीं है। उसकी ज्योति में मिला दो अपनी ज्योति, उसके साथ जलो।
ऐ
दीदए-गिरयां! क्या कहिए इस प्यार भरे अफसाने को
इक समअ
जली बुझने के लिए इक फूल खिला मुरझाने को
ये सब
फूल मुरझा ही जाएंगे। ये सब शमाएं बुझ ही जाएंगी। मौत तो आनी ही है। इस फूल को चढ़ा
दो उसके चरणों पर। इस दीए को चढ़ा दो उसके सागर में। और तुम पाओगे कि चढ़ाते ही फूल
अमर हो गया;
फिर
नहीं कुम्हलाएगा;
फिर
नहीं मुरझाएगा। और दीए का निर्वाण किया उसके सागर में कि बस दीया शाश्वत हो गया।
फिर इसकी ज्योति बुझने वाली नहीं। बिन बाती बिन तेल! फिर वह जलेगी, जलती रहेगी।
माई हो
हरि दरसन की आस।
कब
देखौं मेरा प्रान-सनेही, नैन
मरत दोऊ प्यास।।
पल छिन
आध घटि नहीं बिसरौं, सुमिरत
सांस उसास।
जब
श्वास में प्रश्वास में, आती
श्वास में जाती श्वास में उसका ही स्मरण समा जाता है।
जब पल
छिन आध घरी नहिं बिसरौं! और जब एक क्षण को भी भूलना नहीं होता, जब भूलना होता ही नहीं, भूलना भी चाहो तो भूलना जब
नहीं होता,
भूलने
की चेष्टा करो तो भी उसकी याद ही आती है . . .।
दास्ताने-शबे-गम
किस्साएत्तूलानी है।
मुख्तसर
ये है कि तूने मुझे बरबाद किया।।
हो न
हो दिल की तेरे हुस्न से कुछ निसबत है
जब उठा
दर्द तो क्यों मैंने तुझे याद किया।।
चौबीस
घंटे याद भी उठेगी, दर्द
भी उठेगा। और दर्द मीठा है। और दर्द बड़ा प्यारा है। उसके विरह में भी बड़ा सुख है।
और संसार के मिलन में बड़ा दुःख है। संसार में सफल हो जाने में भी कुछ नहीं मिलता।
और उसके साथ विफल हो जाने में भी सब कुछ मिल जाता है।
सखि, कितने दिन और?
नाचेंगे यों ही--बिना मेघ मोर
सखि, कितने दिन और?
धरती है गूंगी
बहरा आकाश
संशय के द्वारे
बैठा विश्वास
रातों के घर में सोएंगे भोर!
सखि, कितने दिन और?
अजगर से पथ के
चंगुल में गांव,
सहमे से मृग के
छौने से पांव,
अधरों की चुप ने गीत लिए चोर!
सखि, कितने दिन और?
बैठ गयी सर के
गहरे में प्यास
कहती है तट से
लहरें उदास
हम तुम को बांधे किस्मत की डोर!
सखि, कितने दिन और?
नाचेंगे यों ही--बिना मेघ मोर!
सखि कितने दिन और?
प्रतिपल
याद सघन होती चले,
श्वास-श्वास
में समाविष्ट होने लगे!
शेख
फरीद के जीवन की प्रसिद्ध घटना है ः स्नान करने नदी जाते थे, एक जिज्ञासु ने राह में पूछ
लिया--परमात्मा कैसे मिले? फरीद
ने कहा ः आ मेरे साथ, नदी पर
स्नान करेंगे। जहां तक तो बनेगा स्नान करने में ही बता देंगे, नहीं तो फिर पीछे स्नान के
बाद घाट पर बैठ कर समझा देंगे।
आदमी
थोड़ा डरा। "स्नान करने में बता देंगे!'--यह आदमी पागल तो नहीं है! फिर सोचा, फकीरों की बातें तो ऐसी ही
होती हैं रहस्यपूर्ण, होगा
कुछ मतलब। चला गया। दोनों स्नान करने उतरे, जैसे ही उसने डुबकी मारी, जिज्ञासु ने, कि फरीद उसके सिर पर सवार हो
गया। उसे दबाए पानी में, उसे
निकलने न दे। फरीद तो मस्त फकीर था। मजबूत आदमी था। जिज्ञासु तो जैसा जिज्ञासु
होता है वैसा ही होगा! दार्शनिक चित्त का रहा होगा। चिंता-फिक्र में वैसे ही दुबला
रहा होगा। लेकिन जब जान पर बन आए तो दुबले-पतले आदमी में भी बड़ी ताकत आ जाती है।
जीवन-मरण का सवाल था। लगायी पूरी ताकत उसने। और अंततः फरीद को फेंक दिया दूर। जैसे
ही बाहर निकला,
तमतमाया
चेहरा! आंखों में खून क्रोध का! फरीद ने कहाः कुछ समझे? उत्तर समझ में आया?
उसने
कहा ः कहां का उत्तर? यह
उत्तर है?
शक
मुझे पहले ही हुआ था। तुम हत्यारे मालूम होते हो। लोग समझते हैं तुम पहुंचे हुए
परमहंस हो।
फरीद
ने कहा ः ये बातें पीछे कर लेंगे, पहले
यह बता--कहीं भूल न जाए तू-- जब मैं तुझे नीचे पानी में दबाया था तो कितने विचार
तेरे भीतर थे?
उसने
कहा ः कितने विचार! यह कोई मौका है विचार करने का? एक ही विचार था कि किसी तरह
एक श्वास कैसे ले लें!
फरीद
ने पूछा ः यह विचार भी कितनी देर टिका?
उस
आदमी ने कहा ः यह भी ज्यादा देर नहीं टिका! फिर यह विचार नहीं रहा, यह फिर रोएं-रोएं में समा
गया! फिर तो सारा प्राण यही बन गया, कि एक सांस कैसे मिले । और यह सवाल नहीं रहा
कि जिसको बैठकर हल किया जाता है; यह
जीवन-मरण की बात थी। पूरी ताकत लग गयी। और मैंने लगायी, ऐसा भी नहीं कह सकता--लग गयी।
फरीद
ने कहा ः बस यही मेरा उत्तर है। जिस दिन परमात्मा को पाने की ऐसी आकांक्षा होती है, जैसे कोई पानी में डुबाए और
एक सांस पाने की आकांक्षा उठे . . .।
और
खयाल तो करो ज़रा! मौत तुम्हें ऐसे ही तो पानी में दबा रही है। मौत तुम्हारी छाती
पर सवार है। तुम मौत के पंजे में ही। उसका पंजा, उसकी गिरफ्त तुम्हारी गर्दन
पर रोज गहरी होती जा रही है। मौत तुम्हें निचोड़ डालेगी। मौत रोज करीब आती जाती है।
जब भी कोई अर्थी निकलती है, तुम्हारी
ही अर्थी निकलती है। और जब भी मरघट पर कोई चिता जलती है, तुम्हारी ही चिता जलती है। आज
तुम किसी को ले गए हो मरघट, कल कोई
और तुम्हें ले जाएगा! ज़रा सोच लो।
यह
तुम्हें बोध साफ हो जाए कि जिंदगी मौत से घिरी है, यह जिंदगी क्षणभंगुर है और
चारों तरफ मौत ने घेरा डाला है और हार इस जिंदगी की सुनिश्चित है--इसके पहले कि यह
जिंदगी हारे,
किसी
और जिंदगी की जान लेना जरूरी है। यह जीवन इसके पहले कि मौत बुझाए, किसी शाश्वत जीवन की ज्योति
को पा लेना जरूरी है।
पल छिन
आध घरी नहिं बिसरौ सुमिरत सांस उसास।
घर
बाहरि मोहि कल न परत है निस दिन रहत उदास।।
यहै
सोच सोचत मोहि सजनी सूके रगत स मांस
सुंदर
बिरहिन कैसे जीवै बिरहबिथा तन त्रास।।
मेरा
सब सूख गया है। देह अस्थि-पंजर हो गयी है। मांस-सज्जा सूख गयी है।
सुंदर
बिरहिन कैसे जीवै,
बिरहबिथा
तन त्रास।
शरीर
के रोएं-रोएं में विरह की व्यथा छा गयी है।
इस जीवन
को कैसे जिएं?
यहां
जीवन तो है ही नहीं। जीवन तो उस प्यारे के साथ है। और मजा यह . . .ऐसी तेरी
साहिबी! . . .कि तू भीतर बैठा है। और मजा यह कि तू पास से भी पास है और हमने दूर
से भी दूर समझ लिया है। और मजा यह है कि हम व्यर्थ ही चिंतित हो रहे हैं और परेशान
हो रहे हैं। . . .करै हरै पालै सदा सुंदर समरथ राम। और तू सब कर रहा है।
हमारी
हालत वैसी ही है जैसे एक सम्राट् शिकार करके लौटता था राजमहल को, रास्ते में उसे एक बूढ़ा
लकड़हारा मिल गया। दया आ गयी सम्राट् को। बूढ़ा बिल्कुल थका-मांदा चल रहा था लकड़ी का
बोझ लिए। बिठा लिया अपने रथ में। बूढ़ा बहुत सकुचाया। बहुत सम्राट् ने कहा कि बैठ
जा, घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन स्वर्ण-रथ पर सवार होना . . .! उसने कहा कि नहीं-नहीं महाराज, आप कैसी बात करते हैं? आखिर मजबूरी में आज्ञा देनी
पड़ी सम्राट् को कि चढ़ता है बुङ्ढे कि नहीं, नहीं तो गरदन उतरवा दूंगा! तब कहीं वह चढ़ा।
मगर चढ़कर भी बैठा तो भी अपनी गठरी लकड़ियों की, अपने सिर पर रख कर बैठा रहा। रथ चला।
सम्राट् ने कहा कि यह गठरी नीचे क्यों नहीं रखता? उसने कहा कि नहीं मालिक, मुझे बिठाया वही क्या कम है!
अब और गठरी का बोझ भी आपके रथ पर डालूं! नहीं-नहीं, यह मुझसे न हो सकेगा।
तुम
बैठे हो,
गठरी
सिर पर रखे हो,
बोझ तो
रथ पर पड़ ही रहा है। जो हमें जिला रहा है, जो हमारी सांस चला रहा है, सब बोझ उसी पर है। तुम नाहक
बीच में बोझ लिए बैठे हो। यह गठरी उतार कर रख दो!
करै
हरै पालै सदा,
सुंदर
समरथ राम।
सबही
तैं न्यारौ रहैं,
सब मैं
जिनकौ धाम।।
वही कर
रहा है। तुम चिंता न लो। तुम निश्चिंत हो जाओ!
भक्त
ही जानता है निश्चिंता का रस।
आज की
दुनिया में जो इतनी चिंता दिखाई पड़ती है, उसका कारण तुम देखते हो? उसका कारण सिर्फ एक है ः
भक्ति खो गयी है,
श्रद्धा
खो गयी है,
परमात्मा
से नाता खो गया है। बैठे अब भी हम उस के ही रथ में हैं। लेकिन पहले भक्त बैठे थे, वे पोटली नीचे उतार कर रख
देते थे। हम भी उसके रथ में बैठे हैं, मगर हम रथ को मानते ही नहीं; पोटली को नीचे उतार कर कैसे
रखें? हम अपने सिर पर रखे हुए हैं।
पूरब से भी ज्यादा पश्चिम में चिंता और घनी हो गयी है, क्योंकि पश्चिम में परमात्मा
से संबंध और भी टूट गया है। निश्चिंत तो वही हो सकता है जिसे स्पष्ट यह बोध है कि
वह मालिक सब संभाल रहा है। मैं उसकी आज्ञा से जो करवाए किए जाऊं। उठाए तो उठूं, बिठाए तो बैठूं, चलाए तो चलूं। मुझे अपना भार
अपने ऊपर लेने की कोई भी जरूरत नहीं। जो चांदत्तारों को चला लेता है, वह मेरी छोटी-सी जिंदगी को
नहीं चला पाएगा?
इस
छोटी-सी प्रतीति के सघन होते ही तुम्हारे जीवन में क्रांति घट जाती है, विश्राम आ जाता है, विराम आ जाता है। चिंता गई।
चिंता की बदलियां छंट गयीं, निश्चिंतता
का सूरज निकल आया।
और जो
निश्चिंत है वही भोग सकता है जीवन के रस को। चिंता तो खाए जाती है। चिंता चिता बन
जाती है। नाच सकता है वही वृक्षों के साथ, तारों के नीचे, सूरज की किरणों में, पक्षियों के साथ। नाच सकता है
वही, जिसके ऊपर कोई बोझ नहीं है, जो निर्भार है।
परमात्मा
मनुष्य को निर्भार करने की प्रक्रिया है।
धर्म
मनुष्य को निश्चिंत करने का विज्ञान है। जैसे-जैसे धर्म खोया वैसे-वैसे आदमी बीमार
और रुग्ण हुआ! अब तो उसकी छाती में सिवाय रोगों के और कुछ भी नहीं बचा है। आदमी
बिल्कुल खोखला हो गया है। जुम्मेवारी किसी और की नहीं। तुम ज़रा ऐसे भी तो जी कर
देखो--
जब
आकाश घिरा हो और भयंकर लगता हो
जब
रह-रह कर कंप तुम्हारे मन में जगता हो
पांवों
के नीचे धरती खिसक रही सी हो
आसपास
की सारी दुनिया सिसक रही सी हो
ऐसे
समय अकेले ही तुम गा कर तो देखो
तूफानों
पर अपने स्वर को छाकर तो देखो
कंठ
खोल कर गाने से सब संभव होता है
हाहाकार
बदल कर बरबस कलरव होता है
जड़ में
चेतन में स्वर-अंकुर फूट फैलते हैं
और कि
उसके स्वर लद-लदकर टूट फैलते हैं
इतना
गलत प्रभात कभी भी उगा नहीं कहीं
जिसकी
संध्या में पंछी की स्वर-झंकार नहीं
ऐसे
समय अकेले भी तुम गा कर तो देखो
दुनिया
तो अधार्मिक है। अब तो तुम्हें गाना होगा तो अकेले गाना होगा।
जब
आकाश घिरा हो और भयंकर लगता हो
और ऐसा
आकाश भयंकर कभी भी नहीं लगता था, जैसा
आज लगता है।
जब
रह-रह करि कंप तुम्हारे मन में जगता हो।
और
आदमी कंपित हो रहा है। आदमी चिंतातुर है, आदमी संतापग्रस्त है।
जब
रह-रह कर कंप तुम्हारे मन में जगता हो
जब
आकाश घिरा हो और भयंकर लगता हो
पांवों
के नीचे की धरती खिसक रही सी हो
ज़रा
गौर तो करो,
पैर के
नीचे की धरती खिसक ही रही है, खिसक
ही गयी है। रेत पर तुमने महल बनाए थे, सब गिरने के करीब आ गए हैं।
आसपास
की सारी दुनिया सिसक रही सी हो
ज़रा
गौर से सुनो,
सबके
हृदय घावों से भरे हैं! सब के चित्त-प्राण दुःखी हैं। यहां कौन आज सुखी है? आज किसके कंठ में गीत है, किसके पैरों में नृत्य है? आज कौन है जो उत्सव मना रहा
है? गए वे दिन जब उत्सव थे। गए वे
दिन जब रास था,
रंग
था। गए वे दिन! अब आदमी जैसे आखिरी सांसें गिन रहा है, अपनी मरण-शैया पर पड़ा है।
जब
आकाश घिरा हो और भयंकर लगता हो
जब
रह-रह कर कंप तुम्हारे मन में जगता हो
पांवों
के नीचे की धरती खिसक रही सी हो
आसपास
की सारी दुनिया सिसक रही सी हो
ऐसे
समय अकेले ही तुम गाकर तो देखो
तूफानों
पर अपने स्वर को छाकर तो देखो
थोड़ा
भक्ति का उमगाओ रस। थोड़ी याद करो प्रभु की। थोड़ा भीतर टटोलो। साक्षी का संस्पर्श
हो जाए तो क्रांति हो जाती है, इसी
पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आता है। इसी देह में बुद्धत्व का अवतरण होता है। इसी देह
में! इसी माटी की देह में, अमृत
के दर्शन होते हैं? इसी
मृत्यु से भरे जगत् में शाश्वत का दीया जलता है।
इस
स्वर को उठाओ। इस गीत को जगाओ। इसके बिना जगाए मत जाना--इसको बिना गाए जाना।
अन्यथा प्रभु को क्या उत्तर दोगे? कैसे
उसके सामने खड़े होओगे?
इसके
पहले कि मौत आए जीवन में श्रद्धा आ जानी चाहिए! इसके पहले कि मौत तुम्हारे द्वार
पर दस्तक दे,
तुम्हारे
प्राणों में परमात्मा की दस्तक सुनायी पड़ जानी चाहिए।
किसी
भी कीमत पर हो,
परमात्मा
की तलाश जरूरी है,
क्योंकि
और सब तलाशें व्यर्थ हैं।
जीसस ने
ठीक ही कहा हैः तुम सारी दुनिया के साम्राज्य के मालिक हो जाओ, लेकिन अगर अपनी आत्मा खो दी
तो तुमने पाया क्या? और
तुमने अगर अपनी आत्मा पा ली और सब भी खो दिया, तो कुछ भी नहीं खोया है।
आज
इतना ही।
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