ज्योति से ज्योति जले-
(सूंदर दास)-प्रवचन-सातवां
सारसूत्र-
मारग
जोवै बिरहनी,
चितवे
पिय की वोर।
सुंदर
जियरे जक नहीं,
कल न
परत निस भोर।।
सुंदर
बिरहिनी मरि रही,
कहूं न
पइए जीव।
अमृत
पान कराइकै,
फेरी
जिवावै पीव।।
बिरह-बघूरा
ले गयौ,
चित्तहि
कहूं उड़ाय।
सुंदर
आवै ठौर तब,
पिय
मिलै जब आए।।
बिरहा
दुःख दाई लग्यौ,
मारै
ऐंठी मरोरि।
सुंदर
बिरहनि क्यों जिवै, सब तन
लियो निचोरि।।
सुंदर
बिरहनि अधजरी,
दुक्ख
कहै मुख रोइ।
जरि
बरिकै भस्मी भई,
धुआं न
निकसै कोई।।
सब कोई
रलियां करै,
आयो
सरस बसंत।
सुंदर
बिरहनि अनमनी,
जाको
घर नहिं कंत।।
सांई
तूं ही तूं करौं,
क्यौं
ही दरस दिखाव।
सुंदर
बिरहिनी यौं कहै,
ज्यौंही
त्यौंही आव।।
जिस
विधि पीव रिझाइए,
सो
विधि जानि नांहि।
जोवन
जाय उतावला,
सुंदर
यहु दुःख मांहि।।
लालन
मेरा लाड़िला,
रूप
बहुत तुझ मांहिं।
सुंदर
राखै नैन में,
पलक
उघारै नाहिं।।
सुंदर
बिगसै बिरहनी,
मन में
भया उछाह।
फूल
बिछाऊं सेजरी,
आज
पधारैं नाह।।
सुंदर
अंदर पैसिकरि,
दिल
मौं गोता मारि।
तौ दिल
ही मौं पाइए,
सांई
सिरजनहार।।
जिस
बंदे का पाक दिल,
सो
बंदा माकूल।
सुंदर
उसकी बंदगी,
सांई
करै कबूल।।
हर दम
हर दम हक्क तूं,
लेइ
धनीं का नांव
सुंदर
ऐसी बंदगी,
पहुंचावै
उस ठांव।।
मुखसेती
बंदा कहै,
दिल
में अति गुमराह।
सुंदर
सो पावै नहीं,
सांई
की दरगाह।।
मैं ही
अति गाफिल हुई,
रही
सेज पर सोइ।
सुंदर
पिय जागै सदा,
क्यौं
करि मेला होइ।
जौ
जागै तो पिय लहै,
सोए
लहिए नांहिं।
सुंदर
करिए बंदगी,
तौ
जाग्या दिल मांहिं।।
शहर की
रात और मैं नाशादो-नाकारा फिरूं,
जगमगाती-जागती
सड़कों पे आवारा फिरूं,
गैर की
बस्ती है,
कब तक
दरबदर मारा फिरूं?
ऐ
गमे-दिल क्या करूं, ऐ
वहिशते-दिल क्या करूं?
झिलमिलाते
कुमकुमों की राह में जंजीर सी,
रात के
हाथों में दिल की मोहनी तस्वीर सी,
मेरे
सीने पर मगर दहकी हुई शमशीर सी,
ऐ
गमे-दिल क्या करूं, ऐ
वहिशते-दिल क्या करूं?
ये
रूपहली छांव ये आकाश पर तारों का जाल,
जैसे
सूफी का तसव्वुर,
जैसे
आशिक का खयाल,
आह
लेकिन कौन जाने,
कौन
समझे जी का हाल,
ऐ
गमे-दिल क्या करूं, ऐ
वहिशते-दिल क्या करूं?
रात
हंस-हंस के ये कहती है कि मैखाने में चल,
फिर
किसी शहनाजे-लालारुख के काशाने में चल,
ये
नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल,
ऐ
गमे-दिल क्या करूं, ऐ
वहिशते-दिल क्या करूं?
रास्ते
में रुक के दम ले लूं मेरी आदत नहीं,
लौटकर
वापस चला जाऊं मेरी फितरत नहीं
और कोई
हम-नवा मिल जाए ये किस्मत नहीं,
ऐ
गमे-दिल क्या करूं ऐ वहिशते-दिल क्या करूं?
दिल
में एक शोला भड़क उट्ठा है आखिर क्या करूं?
मेरा
पैमाना छलक उट्ठा है आखिर क्या करूं?
जख्म
सीने का महक उट्ठा है आखिर क्या करूं?
ऐ
गमे-दिल क्या करूं, ऐ
वहिशते-दिल क्या करूं?
परमात्मा
के बिना,
आदमी
इस जमीन पर आवारा है। उस प्यारे के बिना हम यहां अजनबी हैं। फिर यह घर नहीं, धर्मशाला है। उससे जोड़ हो तो
घर बने। उससे मिलन हो तो अस्तित्व से संबंध बने। फिर हम अजनबी नहीं, फिर हम पराए नहीं। फिर यह
सारा अस्तित्व,
इस
अस्तित्व का सारा आनंद, इस
अस्तित्व की सारी संपदा हमारी है।
और जब
तक ऐसा न हो जाए,
तब तक
जीवन से संताप नहीं मिटता। लाख तुम धन इकट्ठा करो, लाख तुम पद-प्रतिष्ठा इकट्ठी
करो, तुम खाली हो, खाली रहोगे। भरता तो सिर्फ
आदमी परमात्मा से है। मेरी तो परमात्मा की परिभाषा यही है--जो भर दे।
और
संसार की परिभाषा?--जो भरने का आश्वासन दे, लेकिन भरे कभी नहीं; जो दौड़ाए बहुत, चलाए बहुत, लेकिन पहुंचाए कभी नहीं।
परमात्मा
न तो दौड़ाता,
न
चलाता। सिर्फ प्रेम से भरी हुई प्रार्थना उठे तो तुम जहां हो वहीं मिलन हो जाता
है। जिन्होंने जाना है उन्होंने ऐसा नहीं जाना है कि आदमी परमात्मा से मिलने जाता
है; उन्होंने ऐसा जाना है कि
परमात्मा आदमी से मिलने आता है। पुकार होनी चाहिए, पीड़ा होनी चाहिए, विरह की धू-धू जलती हुई आग
होनी चाहिए। जिसने विरह की चिता बना ली, उस पर अमृत की वर्षा निश्चित हुई है, निश्चित होती है। निरपवाद है
यह बात,
लेकिन
वहीं हम डर जाते हैं।
बीज
टूटे न भूमि में,
तो
अंकुरित न होगा। मगर बीज का डर भी समझ में आता है--क्या पता, टूटकर अंकुरित होऊंगा या
नहीं! बूंद सागर में न गिरे तो सागर नहीं हो सकती। मगर बूंद सागर में गिरे तो
चिंता तो पकड़ेगी,
भय तो
आएगा मन में--कि कहीं खो ही न जाऊं; कहीं ऐसा न हो कि हाथ तो कुछ भी न लगे और जो
पास था वह भी चला जाए! यही सभी संसारियों की चिंता है। इसलिए परमात्मा की बात तो
चलती है लेकिन खोजने लोग नहीं निकलते। नाम ले लेते हैं ओंठों पर, प्राणों में गूंज नहीं होती।
फिर अगर जीवन में दर्द जमती है और जीवन उदास हो जाता है और जीवन थका-हारा और
सर्वहारा हो जाता है, तो कुछ
आश्चर्य नहीं है।
शहर की
रात और मैं नाशादो-नाकारा फिरूं,
जगमगाती-जागती
सड़कों पे आवारा फिरूं,
गैर की
बस्ती है कब तक दरबदर मारा फिरूं?
ऐ गमे दिल
क्या करूं,
ऐ
वहिशते-दिल क्या करूं?
जब तक
परमात्मा से मिलन नहीं हुआ, यह
बस्ती गैर की है,
अपनी
नहीं। इसे अपनी बस्ती बनाना है। इसके साथ नाता जोड़ना है। इसके साथ हमारे सारे नाते
टूट गए हैं। जैसे कि वृक्ष को उखाड़ लिया हो भूमि से और उसकी जड़ें उखड़ गयी हों और फिर
वृक्ष कुम्हलाने लगे, तो फिर
आश्चर्य क्या?
फिर
वृक्ष की हरियाली खोने लगे, तो
आश्चर्य क्या? फिर वृक्ष में कलियां न आएं और फूल न लगें, तो आश्चर्य क्या? ऐसा ही आदमी है--उखड़ा हुआ!
परमात्मा
हमारी भूमि है। हम उसमें समा जाएं, हमारी जड़ें उसमें फैलें, तो ही हमारे जीवन में आनंद, उत्सव, नृत्य और गीत का जन्म होता
है। फिर हम आवारा नहीं हैं। फिर यह गैर की बस्ती नहीं है। फिर यह अपना घर है। फिर
हम परमात्मा के हैं, और
परमात्मा हमारा है। फिर यह सारा अस्तित्व, यह सारा साम्राज्य हमारा है।
परमात्मा
की खोज कोई दार्शनिक खोज नहीं है। परमात्मा की खोज कोई सैद्धांतिक खोज नहीं है।
प्राणों की पुकार है। जैसे प्यासा तड़फता पानी के लिए, ऐसी तड़फ है। जैसे भूखा भूख से
पीड़ित मरता हो,
ऐसी
मरण की प्रक्रिया है।
किताबों
को पढ़-पढ़ कर,
सुंदर-सुंदर
शब्दों को कंठस्थ करके तुम परमात्मा तक न पहुंचोगे। कीमत चुकानी होगी। और विरह
कीमत है।
सुंदरदास
के आज के सूत्र समझो--
मारग
जोवै बिरहनी चितबै पिय की वोर। जिसको यह दिखाई पड़ गया कि हमारी जड़ें उखड़ी हैं, फिर और सब काम गौण हो गए; फिर एक ही काम अर्थपूर्ण है
कि कैसे हमारी जड़ें वापिस जम जाएं। जिसे यह समझ में आ गया कि हम अपने घर से भटक गए
हैं, उसकी सारी खोज फिर एक ही होगी, कि कैसे हम वापिस अपने घर से
संयुक्त हो जाएं!
जैसे
छोटा-सा बच्चा मेले में भटक गया हो, मजे से घूम रहा हो, जादूगरों के खेल देख रहा हो, नटों के खेल देख रहा हो--तब
तक देखता रहे जब तक उसे यह खयाल नहीं है कि मां का हाथ छूट गया है। मां का हाथ छूट
गया है,
भीड़
में अकेला है;
लेकिन
अभी उलझा है जादूगरों के खेल में, कि
नटों के खेल में,
कि और
हजार रंगबिरंगी दुनिया है मेले की, मस्त है! लेकिन जैसे ही यह याद आएगी--मां
कहां? हाथ मेरा छूट गया है--फिर
जादू सब फीके हो जाएंगे। फिर सब रंगनी मेले की खो जाएगी। आंखें आंसुओं से भर
जाएंगी,
एक ही
पुकार हो जाएगी फिर--मां कहां है? खोजने
निकल पड़ेगा। रोएगा, चिल्लाएगा।
अब मेले में कुछ रस न रहा।
ऐसी ही
दशा भक्त की है। बाजार रंगीन है, माना; और वहां खूब जादू भी चल रहा
है, माना। रुपए का जादू है। और
वहां बड़े नट हैं और उन्होंने बड़े खेल रचा रखे हैं! और खेल मनमोहक हैं। और बाजार
में बड़ा मनोरंजन हो रहा है और लोग खूब उलझे हैं और भीड़ें लगी हैं। और तुम भी वहां
खड़े हो। ज़रा गौर से तो देखो, तुम्हारा
हाथ परमात्मा के हाथ में है या नहीं? अगर तुम्हारा हाथ परमात्मा के हाथ में नहीं
है, उसी क्षण सब व्यर्थ हो गया, सब बाजार खो गए, सब रंगीनियां खो गयीं। उसी
क्षण तुम्हें पता चलेगा तुम आवारा हो; तुम्हारी जड़ें उखड़ गयी हैं; तुम अजनबी हो। यहां तुम क्या
कर रहे हो?
इतना
समय तुमने कैसे गंवाया? अब तो
बस सारे प्राण एक ही खोज में लग जाएंगे।
मारग
जोवै बिरहनी चितवे पिय की वोर।
भक्ति
का ऐसे उदय होता है, जब पता
चल जाता है कि मेरा हाथ परमात्मा के हाथ से छूट गया है। तब एक प्रगाढ़ अभीप्सा उठती
है--उस हाथ को फिर पा लेने की, क्योंकि
उस हाथ के बिना न तो जीवन में कोई रस हो सकता है, न जीवनी में कोई अर्थ हो सकता
है।
परमात्मा
के बिना जीवन ऐसी बांसुरी है, जो बजी
नहीं।
परमात्मा
के बिना जीवन ऐसा बीज है, जो
फूटा नहीं,
अंकुरित
नहीं हुआ।
परमात्मा
के बिना हृदय ऐसा है, जिसमें
कोई धड़कन नहीं।
परमात्मा
के बिना जीवन एक लाश है! जीवन नहीं है--जीवन का धोखा है।
तुम
जिसे जीवन कहते हो, जीवन
नहीं है। अगर तुम्हारा जीवन जीवन है, तो फिर कबीर का, नानक का और सुंदरदास का जीवन
क्या है?
तुम्हारा
जीवन जीवन नहीं है। कहीं फूल खिलते दिखाई पड़ते नहीं। तुम्हारे पैरों में नृत्य भी
मालूम नहीं होता,
तुम्हारे
भीतर कोई रसधार भी नहीं बहती दिखायी पड़ती।
सोचो!
ज़रा तलाशो! तुम्हारी जड़ें अस्तित्व से उखड़ गई हैं। इन जड़ों को वापिस भूमि देनी है।
धर्म अगर कुछ है तो परमात्मा में अपनी जड़ों की फिर से तलाश है।
सुनते
हैं कि कांटे से गुल तक हैं राह में लाखों वीराने
कहता
है मगर ये अज्मे-जुनूं सहरा से गुलिस्तां दूर नहीं
बुद्धि
से सोचोगे तो,
तो
लगेगा--कहां खोजें? कैसे
खोजें?
कहां
है परमात्मा?
उसका
पता क्या?
उसका
ठिकाना क्या?
उसका
रूप क्या,
उसका
रंग क्या?
खोजने
जाएं तो कहां जाएं? पूछें
तो किससे पूछें?
कौन है
मार्गदर्शक,
कौन है
गुरु? किस शास्त्र पर भरोसा करें? अनंत-अनंत शास्त्र हैं। किस
सिद्धांत की शरण पकड़ें? बड़ी
उलझन है!
अगर
बुद्धि से पूछा है तो उलझन घटेगी नहीं, बढ़ेगी। अगर बुद्धि से पूछा तो शायद तुम थक
कर बैठ ही जाओगे। शायद बुद्धि तुम्हें भरोसा ही दिला देगी कि न कोई परमात्मा है, न कोई सत्य है, न कोई जीवन में अर्थ है।
बुद्धि के अंतिम निष्कर्ष यही हैं कि जीवन व्यर्थ है, एक दुर्घटना मात्र है, संयोग मात्र है। ऐसे ही बन गए
हो मिट्टी से,
ऐसे एक
दिन मिट्टी में बिखर जाओगे। यहां कोई गीत न जन्मा है कभी, न कभी जन्मेगा।
बुद्धि
की मानी तो बुद्धि के निष्कर्ष बड़े उदासी से भरे हैं। क्योंकि बुद्धि के पास कोई
उपाय नहीं है रसस्रोत को खोजने का।
जब
छोटा बच्चा मेले में खो जाए तो बैठकर विचार नहीं करता कि अब मां को कैसे खोजूं, किससे पूछूं? गणित नहीं बिठाता--बस रोने
लगता है,
चीखने
लगता है,
दौड़ने
लगता है। उसी चीख-पुकार, उसी दौड़ने
का नाम भक्ति है। आकुल हो जाता है, व्याकुल हो जाता है। उस आकुलता-व्याकुलता का
नाम विरह है। और तब--
कहता
है मगर ये अज्मे-जूनूं सहरा से गुलिस्तां दूर नहीं
बुद्धि
तो कहती है कि मरुस्थल से उपवन तक जाना असंभव है, रास्ता बहुत लंबा है; या शायद अनंत है, या शायद गुलिस्तां होता ही
नहीं! लेकिन हृदय बड़ा पागल है, असंभव
को मान लेता है! हृदय कहता है--दूर नहीं है। सहरा से गुलिस्तां दूर नहीं!
मरुस्थल
के बिल्कुल करीब है। दिल का पागलपन तो यह भी कहता है कि अगर तेरी प्यास गहरी हो, तेरी पुकार गहरी हो, तो मरुस्थल ही गुलिस्तां है।
यहीं फूल खिल उठेंगे। ज़रा तेरे आंसू गिरने दे, यहीं हरियाली हो जाएगी। यहीं मरुस्थल बन
जाएंगे।
धर्म
तो पागलों की बात है।
बुद्धि
तो कूड़ा-करकट है। कामचलाऊ है। बाजार में, दुकान में, और व्यवसाय में उपयोगी है।
लेकिन जब कोई विराट की तलाश में चले तो वहां पागल होने से कम में काम नहीं चलता।
वहां सिर्फ दीवाने पहुंचते हैं। और बहुत बार लगेगा ऐसा कि किस भूल में पड़ गए, हृदय की मान ली! क्योंकि
बुद्धि तो अड़चनें डालती ही चली जाएगी। बुद्धि तो प्रश्न उठाती ही चली जाएगी।
तुझे
अपना समझ बैठे हैं फिर हम
हमीं
से भूल होकर रह गयी है।
बहुत
बार बुद्धि कहेगी कि किस झंझट में, किस उपद्रव में . . .! काम के आदमी थे, बेकाम हुए जा रहे हो। किस
परमात्मा को खोजने चले हो? किस
धुएं की लकीर को पकड़ने चले हो? हवाई
हैं बातें ये सब,
यथार्थ
नहीं हैं कुछ इन में।
बुद्धि
तो पदार्थ को स्वीकार करती है, परमात्मा
को अस्वीकार करती है। हृदय परमात्मा को स्वीकार करता है, पदार्थ को अस्वीकार करता है।
बुद्धि तो क्षुद्र पर भरोसा करती है, क्योंकि क्षुद्र प्रकट है, स्थूल है। और जो बुद्धि से
घिरे रह जाते हैं,
उनसे
बड़े बुद्धू इस जमीन पर दूसरे नहीं हैं। वे व्यर्थ की बातों में ही जीवन गंवा देते
हैं। और बुद्धि बड़ी कुशल है। व्यर्थ की बातों में उसकी कुशलता अप्रतिम है, अतुलनीय है।
धन्यभागी
तो वे थोड़े-से लोग हैं, जो
हृदय की सुन लेते हैं। बड़ा साहस चाहिए हृदय की सुनने के लिए! क्योंकि हृदय प्रेम
की भाषा बोलता है--और प्रार्थना की। और प्रेम और प्रार्थना, सभी में विरह का रंग है, और सभी में बड़ी पीड़ा है।
बुद्धि
सुविधा जुटाती है। बुद्धि, जीवन
को कितनी सुविधाओं से भर दिया जाए, इसका इंतजाम करती है। और हृदय ? हृदय जीवन में आग लगाता है।
सांत्वना थोड़ी रही भी हो पहले, वह भी
छिन जाती है। थोड़ी-बहुत सुरक्षा रही हो, वह भी उखड़ जाती है। हृदय तो भस्मीभूत कर
देता है। लेकिन उसी भस्म से एक नए जीवन का आविर्भाव होता है। उसी जीवन से पैदा
होते हैं संत! उसी राख से बुद्धों का जन्म हुआ है।
हृदय
तो गणित नहीं जानता, तर्क
नहीं जानता--प्रेम ही जानता है। वही उसका गणित , वही उसका तर्क।
मोहब्बत
में मेरी तनहाइयों के हैं कई उनवां
तेरा
आना, तेरा मिलना, तेरा उठना, तेरा जाना।
बस तो
प्रेम एकबारगी,
एकजुट, एकाग्र होकर परमात्मा पर लग
जाता है। तेरा आना, तेरा
मिलना,
तेरा
उठना, तेरा जाना!
हृदय
तो बस एक को मानता है। बुद्धि वेश्या है। हृदय सती है। बुद्धि तो अनेक को मानती है; द्वार-द्वार भीख मांगती है।
हृदय एक को पहचानता है और उस एक से भीख नहीं मांगता। अपने को समर्पित करता है।
मांगना क्या है?
देना
है। बुद्धि मांगती है, हृदय
देता है। और जो देना जानते हैं, उन्हें
सब मिल जाता है। और जो मांगते ही रहते हैं, उनका सब खो जाता है।
प्रेम
की भाषा सीखो,
तो ही
सुंदरदास को समझ पाओगे!
मारग
जौवै विरहनी! वह जो प्रेम में पीड़ित है, वह जो विरहनी है, जो विरह की ज्वालाओं में दग्ध
है, उसके तो सारे प्राण आंखों में
अटके होते हैं। राह देखी जा रही है प्रीतम की।
और
ध्यान रखना यह भी कि परमात्मा को सत्य कहो तो परमात्मा में बहुत कुछ कमी हो जाती
है। सत्य रूखा-रूखा शब्द है। कांटे जैसा है, फूल जैसा नहीं है! मरुस्थल जैसा है, मरुद्यान जैसा नहीं है। सत्य
गणित और तर्क की दुनिया का शब्द है। जिन्होंने उसे पहचाना है, उन्होंने उसे प्रीतम कहा, उसे प्यारा कहा है। उसके ही
नाम हैं। बुद्धि से सोचनेवाला उसको सत्य कहता है। हृदय से डूबनेवाला उसे प्रीतम
कहता है,
प्यारा
कहता है। महबूब ! फर्क काफी गहरा है।
सत्य
से हमारा क्या संबंध जुड़ता है? सत्य
और हमारे बीच नाता नहीं बनता। सत्य और हमारे बीच कोई रसधार नहीं बहती। सत्य शब्द
को सुनकर तुम्हारे हृदय की वीणा छिड़ती है? तारों में स्वर उठते हैं? सत्य शब्द को सुनकर नाचने की
उमंग आती है?
सत्य
शब्द को सुनकर तुम्हारी आंख से आंसू बहते हैं? कुछ भी नहीं होता। सत्य शब्द ऐसे ही आता , ऐसे ही चला जाता है।
कोरा-कोरा है।
इसलिए
भक्तों ने सत्य शब्द का प्रयोग नहीं किया। परमात्मा को प्यारा कहा है। और जब
परमात्मा को प्यारा कहा है तो स्वभावतः थोड़े-से ढंग हो सकते हैं। इस देश में
परमात्मा को प्यारा कहा है, कृष्ण
कहा है। और भक्त प्रेयसी बन जाता है। यह एक उपाय है। सूफियों ने ठीक उल्टा किया
है--परमात्मा को प्रेयसी कहा है; तब
भक्त प्रेमी हो जाता है। लेकिन दोनों बातों का फर्क भी साफ है। वही फर्क जो पुरुष
और स्त्री में होता है। समझना इसे।
स्त्री
पहल नहीं करती--प्रेम में पहल नहीं करती। स्त्री जाकर किसी से निवेदन नहीं करती।
अगर स्त्री के हृदय में प्रेम भी उठे तो प्रतीक्षा करती है। आक्रामक नहीं होती।
राह देखती है,
राह
देखती है,
राह
देखती है। हृदय के भाव को घना होने देती है, और भरोसा रखती है कि अगर हृदय का भाव घना
होगा तो प्रेमी एक दिन द्वार पर आकर दस्तक देगा। पुरुष पहल करता है। स्त्री से
निवेदन करता है प्रेम का; चेष्टा
करता है,
यत्न
करता है।
इस देश
ने ठीक किया,
जो
हमने परमात्मा को पुरुष कहा और भक्त को स्त्री। क्योंकि हम कहां जाएं खोजने उसे? उसका पता ही होता तो फिर
खोजने की जरूरत ही क्या थी? अड़चन
तो यही है कि उसका पता नहीं है, और
खोजना है। तो फिर कुछ ऐसा करना होगा कि वही खोजता हुआ आ जाए। हमें पहल न करनी पड़े, हम प्रार्थना करेंगे। हम
आंसुओं से भरेंगे। हम रोएंगे, पुकारेंगे--मगर
आए वही! आना पड़े उसे!
इसलिए
जैसे ही भक्त परमात्मा की बात करता है, वह सदा अपने को स्त्री-रूप में मानकर बात
करता है।
मारग
जोवै बिरहन,
चितवे
पिय की वोर।
बस आंख अटकी है प्यारे की तरफ। उस अज्ञात की तरफ
बाट लगी है। आहट की भी प्रतीक्षा है कि ज़रा आहट हो जाए। मगर जाओ कहां, खोजो कहां, और अगर वह न आए तो इसका केवल
इतना ही अर्थ है कि अभी तुमने पुकारा नहीं। अगर उसकी आहट सुनायी न पड़े, उसकी पगध्वनि पास न आए, तो इसका केवल एक ही अर्थ हैः
तुम्हारी प्रार्थना अभी आंसुओं में भीगी नहीं, अभी सूखी-सूखी है।
बजा ये
जब्ते-गम लेकिन,
मुहब्बत
में कभी रो ले
दबाने
के लिए हर दर्द ओ नादां! नहीं होता
भक्त
को रोना सीखना पड़ता है। यह संसार तो हमें रोने नहीं देता। यह संसार तो सिखाता
है--"रोना मत! रोना कमजोरी है।' यह संसार तो सिखाता है कि रोना निर्बलता है।
लेकिन भक्ति का शास्त्र कहता है कि रोने में ही सारी सबलता है। क्योंकि जितना
तुम्हारा गहरा रुदन होगा, उतना
ही तुम परमात्मा को अपने पास खींच लोगे। यही अदृश्य धागे तुम्हारे आंसुओं के, उसे तुम्हारे पास ले आएंगे।
खोते
हैं अगर जान तो खो लेने दे
जो ऐसे
में हो जाए वो हो लेने दे
एक
उम्र पड़ी है सब्र भी कर लेंगे
इस
वक्त तो जी भर के रो लेने दे
तो
भक्त करता क्या है? उसकी
प्रार्थना क्या है? उसकी
पूजा क्या है?
उसकी
उपासना क्या है?
भक्त
उठता कैसे,
बैठता
कैसे? जागता कैसे, सोता कैसे?
भक्त
आंसुओं में डूबा रहता है। भत्त का हृदय आंसुओं से गीला रहता है। सूरज को भी देखता
है तो राह "उसकी'; और चांद को भी देखता है तो बाट "उसकी'; और फूल भी खिलते हैं तो
प्रतीक्षा "उसकी'। मोर
नाचता है तो वह उसी मोर मुकुट वाले की राह देख रहा है। कहीं कोई बांसुरी बजती है
तो वह चौकन्ना हो उठता है--"उसकी' ही होगी! क्योंकि सब बांसुरी उसकी हैं। और
सब नृत्य उसके हैं। लेकिन यह तत्त्व समझने जैसा है कि भक्त को हमने इस देश में
स्त्रैण रूप दिया है, ताकि
पहल उसे न करनी पड़े।
तुमने
कभी खयाल किया,
जो
स्त्री पहल करती है प्रेम का, उसमें
स्त्रैण तत्त्व कम होता है! कोई स्त्री एकदम राह में तुम्हारा हाथ पकड़ ले और कहे
कि मुझे तुमसे प्रेम है तो एक बात पक्की है कि तुम भाग जाओगे। स्त्री से यह
अपेक्षा नहीं की जाती। यह उसके प्रसाद के अनुकूल नहीं। यह उसकी गरिमा के अनुकूल
नहीं! यह उसके सौंदर्य के अनुकूल नहीं! ऐसी आक्रामकता हिंसा है। स्त्री अनाक्रमक
होती है। और बड़ा रहस्य यह है कि बिना पुकारे, बिना आवाज दिए बुला लेती है। उसके भीतर जो
प्रेम पकता है,
उसका
ही बल है।
मारग
जोवै विरहनी,
चितवे
पिय की वोर।
सुंदर
जियरै जक नहीं,
कल न
परत निस-भोर।।
एक
क्षण को भी चैन नहीं है! सुंदर जियरे जक नहीं! हृदय में एक क्षण को भी चैन नहीं! .
. . कल न परत निस-भोर। दिन हो कि रात, सांझ हो कि सुबह, कल नहीं पड़ती। एक विकलता है।
एक विकलता चौबीस घंटे घेरे रहती है--कैसे हो मिलन, कब हो मिलन, कब वह प्यारा आए और द्वार पर
दस्तक दे! भत्त चौबीस घंटे एक ही हवा से आंदोलित रहता है, एक ही वातावरण में जीता है।
तारों
का गो शुमार में आना मुहाल है
लेकिन
किसी को नींद न आए तो क्या करे?
तारे
गिनता रहता है। नींद खो जाती है। कब आ जाए प्रेमी, पता नहीं!
हसीद
फकीर, झुसिया जब रात सोता था, (कम ही सोता था-- कोई तीन-चार
घंटे मुश्किल से) लेकिन जब सोता था तो अपने शिष्यों को कह देता ः अगर "वह' आ जाए तो मुझे जल्दी से उठा
देना! रात में भी एक-आध बार उठकर पूछ लेता कि "वह' आ तो नहीं गया? सुबह उठते ही खिड़की पर जाकर
बाहर झांकता कि वह आ तो नहीं गया? जिंदगीभर
यह बात रही। ऐसी प्रतीक्षा का नाम विरह है। सुंदर विरहनी मरि रही, कहूं न पइए जीव।
अमृत
पान कराइ कै फेरि जिवावै पीव।।
विरह
में गलता है भक्त,
जलता
है, मरता है। साहसियों का काम है, दुस्साहसियों का काम है--अपने
को गलाना-पिघलाना!
सुंदर
बिरहनी मरि रही,
कहूं न
पइए जीव।
जीवन
के कहीं उसे आसार नहीं दिखायी पड़ते। उस प्यारे के बिना जीवन है भी कहां? उसका संस्पर्श हो तो जीवन
जगे। अभी जिसको हमने जीवन समझा है, वह सिर्फ नाममात्र का जीवन है। जन्म और
मृत्यु के बाद,
बीच
में तुमने जिसे जीवन समझा है, वह है
क्या? आपाधापी है। और तुम्हारा जीवन
अंततः तो मृत्यु में ही समाप्त होता है। यह भी कोई जीवन हुआ? जो जीवन अंततः मृत्यु में ही
ले जाता हो,
उसे
जीवन कहना,
शब्द
के साथ ज्यादती है।
जीसस
ने कहा है ः जीवन तो वह है जो महाजीवन में ले जाए! यह बात समझ में आती है। सीधी
साफ है। दो और दो चार जैसे होते हैं, इतनी साफ है। जीवन तो वही जो महाजीवन में ले
जाए! यह भी कोई जीवन है जो मृत्यु में ले जाता है? जरूर कहीं हम धोखा खा गए हैं!
हमने जन्म को जीवन समझ लिया है। जन्म केवल एक अवसर है। जीवन हो भी सकता है, न भी हो। अगर परमात्मा का
संस्पर्श हो जाए तो जन्म जीवन बन जाता है, फिर कोई मृत्यु नहीं है। हां, देह गिरेगी सो गिरेगी। औरों
को मृत्यु मालूम पड़ेगी सो पड़ेगी। मगर जिसका जीवन जाग गया है, जिसने उस महाजीवन को पहचान
लिया है,
उसकी
फिर कोई मृत्यु नहीं है।
रमण
महर्षि से मृत्यु के क्षण किसी ने पूछा ः आप हमें छोड़कर जा रहे हैं, कहां जा रहे हैं? रमण ने आंख खोली और कहा ः
जाऊंगा कहां?
यहीं
हूं, यहीं रहूंगा। यहीं था। सदा से
हूं। जाना कहां है?
रामकृष्ण
मरते थे। शारदा ने, उनकी
पत्नी ने,
उनसे आखिरी
समय में कहा कि मेरे लिए कोई आदेश? तो रामकृष्ण ने आंख खोली और बड़ा अजीब आदेश
दिया। कहाः चूड़ियां मत फोड़ना, क्योंकि
मैं रहूंगा! तू विधवा नहीं होनेवाली है।
शायद
भारत में शारदा अकेली स्त्री थी जिसने चूड़ियां नहीं फोड़ी। और ऐसा ही नहीं कि ऊपर
ही ऊपर नहीं फोड़ीं, शारदा
उसी कोटि की आत्मा थी जिस कोटि के रामकृष्ण । हंसने लगी--जब रामकृष्ण ने कहा कि
चूड़ियां मत तोड़ना,
तेरा
सुहाग कायम रहेगा,
मैं
जानेवाला नहीं हूं। यह देह गिरेगी, मगर मैं देह कभी था भी नहीं। वस्त्र बदले
जाएंगे,
परिधान
बदलेंगे,
जीर्ण-शीर्ण
हो गयी देह . . . मैं रहूंगा!
शारदा
ने जीवनभर इसको ऐसे ही जिया, जैसे
रामकृष्ण हों। रोज उनका बिस्तर लगाती, मसहरी लगाती। झांककर मसहरी में देखती कि कोई
मच्छर इत्यादि भीतर तो नहीं रह गया है। अन्य शिष्य रोते, सोचते कि शारदा पागल हो गयी
है। भोजन बनाती,
जैसा
सदा बनाती थी। थाली लगाती, जाकर
कहती, रामकृष्ण परमहंस जहां बैठते
थे जिस कमरे में--कि परमहंसदेव! भोजन तैयार हो गया है, चलें! आगे-आगे चलती वैसे ही
जैसे सदा चली थी। बिठा देती, पंखा
झलती।
निश्चित
ही लोग कहेंगे,
पागल
हो गयी। मगर इस पागलपन की भी अपनी एक प्रज्ञा है। एक आंसू न टपका उसकी आंख से।
सुहाग उसका नहीं मिटा।
जब
शारदा मरती थी,
किसी
ने पूछाः कहां जा रही है? तो
उसने कहा ः अब परमहंस देव में समाविष्ट हो जाऊंगी। काफी दिन वे बिना देह के रहे, मैं देह में रही, इतना-सा फासला था, अब वह फासला भी गिरेगा। वह
प्रतीक्षा की घड़ी आ गयी। आनंद-मग्न हो, जैसे कोई प्यारे को मिलने जाता है, ऐसे ही मृत्यु में गयी।
जिन्होंने
जीवन जाना है,
उनके
लिए मृत्यु मिट ही जाती है। मृत्यु उनके लिए द्वार है--और नए जीवन का--और महाजीवन
का!
सुंदर
विरहनी मरि रही कहुं न पइए जीव।
अमृत
पान कराइकै फेर जिवावै पीव।।
सुंदरदास
कहते हैं कि अब तो तुम ही आओ और पिलाओ अमृत, ढालो अपना प्रेम, बहाओ अपने प्रेम की सुधा, तो ही मैं जीवित हो सकूं, अन्यथा अपनी तरफ से मैं मर
रही हूं। यह विरह मुझे मारे डाल रहा है। और इस जगत् में मुझे कहीं जीवन नहीं
दिखायी पड़ता। तुम हो तो जीवन है। तुम नहीं हो तो जीवन नहीं है। तुम्हारे होने में
ही जीवन है।
उमीदे-मर्ग
कब तक,
जिंदगी
का दर्दे-सर कब तक?
ये
माना सब्र करते हैं मुहब्बत में, मगर कब
तक?
दियारे-दोस्त
हद होती है यूं भी दिल बहलने की!
न याद
आएं गरीबों को तेरे दीवारो-दर कब तक?
ये
तदबीरें भी तकदीरे-मुहब्बत बन नहीं सकतीं।
किसी
को हिज्र में भूले रहेंगे हम मगर कब तक?
इनायत
की, करम की, लुत्फ की आखिर कोई हद है!
कोई
करता रहेगा चारा-ए-जख्मे-जिगर कब तक?
किसी
का हुस्न रुसवा हो गया पर्दे ही पर्दे में।
न लाए
रंग आखिरकार तासीरे-नजर कब तक?
कब तक
भक्त पुकारता रहे?
कब तक
रोता रहे?
बहुत
बार विरह में ऐसी घड़ियां आती हैं कि भक्त सोच लेता है लौट ही पड़ूं; शायद मैं किसी व्यर्थ की दिशा
में चला गया हूं!
उमीदे-मर्ग
कब तक,
जिंदगी
का दर्दे-सर कब तक?
ये
माना सब्र करते हैं मुहब्बत में, मगर कब
तक?
विरह
जब जलाता है,
और जलाता
ही जलाता है,
और
मरुस्थल का कोई अंत आता मालूम नहीं पड़ता; उपवनों की तो बात दूर, कहीं एक घास की पत्ती भी हरी
दिखाई नहीं पड़ती;
परमात्मा
के मिलन की बात तो दूर, संसार
तो छूटने लगता है और परमात्मा की कोई खबर नहीं मिलती--तो घबड़ाहट होती है। तो
बेचैनी होती है।
उमीदे-मर्ग
कब तक,
जिंदगी
का दर्दे-सर कब तक?
ये
माना सब्र करते हैं मुहब्बत में, मगर कब
तक?
इनायत
की, करम की, लुत्फ की आखिर कोई हद है!
कोई
करता रहेगा चारा-ए-जख्मे-जिगर कब तक?
कब तक
कोई अपने घावों का इलाज करता रहे?
घड़ियां
आती हैं भक्त को,
जब बड़ा
विषाद घेर लेता है, बड़ी
उदासी घेर लेती है, लौट
पड़ने की आकांक्षा पकड़ती है। उन्हीं घड़ियों में, उन्हीं क्षणों में सद्गुरु की जरूरत है--जो
तुम्हें लौटने न दे; जो कहे
बस, दो कदम और।
बुद्ध
एक गांव से जा रहे हैं--एक दूसरे गांव को। सांझ होने के करीब आ गई है और आनंद ने
पास खेत में काम करनेवाले किसानों से पूछा, गांव कितनी दूर है? उन्होंने कहा, बस दो कोस। सूरज भी ढल गया, दो कोस भी चल लिए, फिर किसी से पूछा कि भई गांव
कितनी दूर है?
उन्होंने
कहा, दो कोस। दो कोस भी पूरे हो गए, अब तो आकाश में चांद भी निकल
आया और फिर किसी से पूछा कि भई गांव कितनी दूर है? उन्होंने कहा, दो कोस। तो आनंद क्रोध से भर
गया और उसने कहा,
हद हो
गयी! झूठ की भी कोई सीमा होती है! बुद्ध से उसने कहा, ये किस तरह के लोग हैं? ये इलाका झूठ बोलनेवाले लोगों
से भरा है।
बुद्ध
ने कहा ः तू नाराज न हो। मैं उनकी बात समझा। यही तो मुझे करना पड़ता है। . . . बस
दो कोस! ये भले लोग हैं। ये झूठे नहीं हैं। ये बड़े प्यारे लोग हैं। दो-दो कोस कहकर
छः कोस चला दिया,
यह तो
सोच! आशा बंधाए रखी । अब देख, गांव
के दीए पास दिखाई पड़ने लगे। मैं भी तुझ से कहता हूं कि बस दो कोस और। अब ज्यादा
दूर नहीं है मंजिल!
ऐसी
घड़ियां आती हैं भक्त को जब संसार छूट जाता है और परमात्मा नहीं मिलता! तभी सद्गुरु
के हाथ की जरूरत होती है। तभी कोई चाहिए जो कहे दो कोस और, बस ज़रा देर और, बस अब आए कि आए, कि देख, दूर गांव के दीए दिखाई पड़ने
लगे, कि देख गांव के मंदिर का
स्वर्ण कलश झलकने लगा है।
और
भक्त को कुछ दिखाई भी नहीं पड़ता--न दूर गांव के दीए दिखाई पड़ते, न मंदिर का कलश दिखाई पड़ता!
लेकिन गुरु की आंखों में आश्वासन दिखाई पड़ता है। आशा के दीए जलते दिखायी पड़ते हैं।
गुरु के वचन में श्रद्धा ही एकमात्र सहारा रह जाती है।
सुंदर
बिरहनी मरि रही,
कहूं न
पइए जीव।
अमृतपान
कराइकै फेर जिवावै पीव।।
आ जाओ, सुंदर कहते हैं। मैं तो मर
रहा हूं,
कहीं
ऐसा न हो कि मैं मर ही जाऊं और तुम्हारे आने में देर हो जाए; कि तुम आओ जब मरीज मर ही जाए।
लेकिन
परमात्मा आता ही तब है जब तुम मर ही जाते हो, इसके पहले नहीं आ सकता! जब तक तुम्हारा
अहंकार थोड़ा-सा भी जीवित है तब तक बाधा है। तुम्हारी मृत्यु में ही उसका आगमन है।
तुम्हारे मिटने में ही उसका अवतरण है। तुम मिटो कि वह आया। तुम खाली कर दो अपने
भीतर के भवन को कि वह भर देगा। तुम्हारी शून्यता में उसकी पूर्णता उतरती है।
शून्य
होना शर्त है;
जो उसे
पूरी कर देता है,
जब
पूरी कर देता है,
तभी
परमात्मा उतर आता है। मगर ये काम बुद्धि के नहीं हैं, ये काम तो दीवानगी के हैं।
हो गया
जब इश्क हम-आगोशेत्तूफाने-शबाब।
अक्ल
बैठी रह गयी साहिल पे शरमाई हुई।।
साधारण
जीवन में भी जिसको तुम प्रेम कहते हो, वह भी बुद्धि से नहीं चलता। यह तो असाधारण
प्रेम है! साधारण जीवन में भी. . .
हो गया
जब इश्क हम-आगोशेत्तूफाने-शबाब। जब यौवन के तूफान पर प्रेम सवार हो जाता है . . .
अक्ल
बैठी रह गयी साहिल पे शरमाई हुई।।
इससे
भी बड़ी हिम्मत चाहिए। लोग तो साधारण प्रेम करना भी भूल गए हैं, क्योंकि लोग दांव लगाना ही
भूल गए हैं। अब मजनू कहां होते हैं? अब फरिहाद कहां होते हैं? अब तो लोगों ने साधारण प्रेम
का दांव लगाना भी छोड़ दिया है। दुनिया खाली हो गयी है। और इस परमात्मा की खोज में
तो मजनूओं का ही काम है, फरिहादों
का ही काम है। वे जो अपने को सब तरह गंवाने को राजी हैं!
प्रेम
हो तो ही पता चले। परमात्मा तो सदा मौजूद है और पास ही मौजूद है। दो कोस भी नहीं, मैं तुमसे कहता हूं। उसी में
तुम श्वास ले रहे हो। उसी में तुम्हारा हृदय धड़क रहा है। मगर प्रेम हो तो पता चले।
जैसे सोने को कसते हैं न कसौटी पर, कसो तो पता चले। ऐसे प्रेम की कसौटी पर ही
परमात्मा की मौजूदगी अंकित होती है, नहीं तो अंकित नहीं होती।
कहीं
मजाके-नजर को करार मिल न सका
कभी
चमन से भी कहकशां से गुजरा हूं
तेरे
करीब से गुजरा हूं इस तरह कि मुझे
खबर भी
हो न सकी कि मैं कहां से गुजरा हूं!
खबर भी
हो न सकी कि मैं कहां से गुजरा हूं!
तेरे
करीब से गुजरा हूं इस तरह कि मुझे
पता भी
न चल सका! हम रोज ही उसके करीब से गुजर रहे हैं। हम उसी में जी रहे हैं, जैसे मछली सागर में जी रही
है। हम उसी में पैदा हुए हैं, उसी
में लीन हो जाएंगे। लेकिन प्रेम तड़फे तो पहचान हो। विरह जगे तो अनुभूति हो।
विरह
बघुरा लै गयौ चित्तहि कहूं उड़ाइ।
सुंदर
आवै ठौर तब पीय मिलै जब आइ।।
सुंदरदास
कहते हैं--विरह बघुरा लै गयौ, चित्तहि
कहूं उड़ाइ।
यह जो
विरह का बवंडर उठा है इसमें मेरा चित्त, मेरा होना सब कहां उड़ गया, पता नहीं! अब मैं हूं भी कि
नहीं, यह भी पता नहीं। यह बवंडर सब
ले गया।
यह
बवंडर जब उठे तो डरना मत। यह तूफान जब आए तो स्वीकार कर लेना चुनौती। यह सिर्फ
धन्यभागियों के जीवन में तूफान आता है। यह बहुत थोड़े-से विरले लोगों के जीवन में
तूफान आता है। आना तो सबके जीवन में चाहिए, परमात्मा की तरफ से तो हर-एक के जीवन में
आने की तैयारी है,
मगर
हमारी तरफ से कभी तैयारी नहीं होती। हम पुकारते ही नहीं।
विरह
बघुरा लै गयौ चित्तहि कहूं उड़ाइ।
अगर
विरह की अग्नि पूरी-पूरी जले तो भक्त को ध्यान नहीं करना पड़ता। इस सत्य को खूब
खयाल से समझ लेना। भक्त को ध्यान नहीं करना पड़ता। उसके विरह की अग्नि ही उसके
चित्त को जला देती है। ध्यान में भी चित्त को जलाना पड़ता है, मिटाना पड़ता है। ध्यान में
उपाय करने पड़ते हैं चित्त को विसर्जित करने के। लेकिन विरह में तो चित्त अपने-आप
जल जाता है,
अपने-आप
राख हो जाता है।
विरह
बघुरा लै गयौ चित्तहि कहुं उड़ाइ।
सुंदर
आवै ठौर तब . . . ।।
अपने
तरफ से तो मिट ही गया हूं। अब तो पता नहीं कि मैं कौन हूं, कहां हूं, क्या हूं। अब तो कोई
ठौर-ठिकाना न रहा। अब तो तुम जब आओ तब फिर से पता चले कि मैं कौन हूं!
अभी
तुम्हें पता है कि तुम कौन हो। तुम्हारा नाम, तुम्हारा ठिकाना, तुम्हारा पद, तुम्हारी प्रतिष्ठा, धन, परिवार, गांव. . .अभी तुम्हें पता है
कि तुम कौन हो। विरह इस सब को जला देगा। तुम एकदम लापता हो जाओगे। बीच में वह घड़ी
आएगी लापता होने की, जब
तुम्हें समझ में भी न आएगा कि तुम कौन हो, तुम्हारा नाम क्या है, तुम किस देश के वासी हो, तुम किस धरम के माननेवाले हो, तुम किस घर में पैदा हुए हो? सब अस्तव्यस्त हो जाएगा।
तुम्हारा सारा तादात्म्य टूट जाएगा। उस घड़ी में फिर सद्गुरु की जरूरत होगी, कि कोई तुम्हें संभाल ले, अन्यथा तुम बिखर सकते हो।
तुमने
देखा, बहुत-से लोग धर्म की साधना
में विक्षिप्त हो जाते हैं। उसका कारण यही है। पुराना ढंाचा उखड़ गया और नए ढांचे
का कुछ पता ही नहीं चल रहा है। बीच में वह जो थोड़ी-सी संधि आती है, उसी में बिखर जाते हैं, विक्षिप्त हो जाते हैं। कोई
संभालनेवाला चाहिए, जो
तुम्हें बांधे रखे। किसी की श्रद्धा का सूत्र "किसी का आशीर्वाद तुम्हें
बांधे रखे।'
मुझसे
लोग रोज पूछते हैं कि क्या बिना संन्यास के साधना नहीं हो सकती? साधना तो हो सकती है। साधना
में कोई अड़चन नहीं है। लेकिन जब साधना में बाधाएं आना शुरू होंगी, तब तुम्हारे पास बांधनेवाला
कोई श्रद्धा का सूत्र नहीं होगा। जब तुम खोने लगोगे, पुराना ठौर उखड़ने लगेगा और नए
ठौर का कुछ पता न चलेगा, तब कौन
हाथ तुम्हें संभालेंगे? तब कौन
तुम्हें रोके रखेगा? तब
अड़चन होगी।
संन्यास
के बिना साधना बिल्कुल हो सकती है। साधना में उतने गुरु की जरूरत नहीं है जितने जब
साधना की संकट की घड़ियां आती हैं तब जरूरत है। साधना तो शास्त्र को पढ़कर भी हो
सकती है। सब सूत्र किताबों में लिखे हैं। मगर किताबें तुम्हें संभाल न सकेंगी।
किताब क्या करेगी?
तुमने
किताब में जो पढ़ा था, वैसा-वैसा
कर लिया,
सब
ठीक-ठीक कर लिया;
लेकिन
जब यह घड़ी आएगी,
जब
पुराना अहंकार अस्त हो जाएगा और नए सूरज का जन्म अभी होने में देर है, तब यह संध्याकाल आएगा--तब तुम
क्या करोगे?
तब तुम
बिखर जाओगे। तब तुम खंड-खंड हो जाओगे। तब तुम न घर के रह जाओगे न घाट के रह जाओगे।
दुविधा में दोनों गए, माया
मिली न राम!
तब कोई
एक ऐसा प्रबल श्रद्धा का सूत्र चाहिए--इतना प्रबल, इतना अखंड, इतना अटूट!-- जो तुम्हें
बांधे रखे। इसलिए सारे सद्गुरुओं ने श्रद्धा पर जोर दिया है। श्रद्धा कीमिया है।
विरह
बघुरा लै गयो चित्तहि कहुं उड़ाइ।
सुंदर
आवै ठौर तब पीय मिलै जब आइ।।
अब तो
ठौर तभी होगा,
चैन
तभी होगी,
जब
प्यारा मिल जाए। इस बीच तुम्हें कौन छाती से लगाए इन विरह की प्रगाढ़ घड़ियों में, इन विरह की प्रगाढ़ संकट की
घड़ियों में,
कौन
तुम्हारे हाथ को पकड़े रहे? कौन
तुमसे कहे कि दो कोस, और कि
बस अब पहुंचे,
कि अब
पहुंचे ही जाते हैं?
विरहा
दुखदाई लग्यौ,
मारै
ऐंठि मरोरि।
विरह
तो काटता है,
टुकड़े-टुकड़े
कर देता है।
विरहा
दुःखदाई लग्यौ,
मारे
ऐंठि मरोरि।
सुंदर
बिरहनी क्यूं जिवै, सब तन
लियौ निचोरि।।
अब
जीने का कोई कारण समझ में नहीं आता। विरह सारे जीवन को निचोड़ डालता है। और तुम कहो
या न कहो,
तुम
किसी को बताओ या न बताओ, भीतर
कुछ मरने लगता है।
"जिगर' मैंने छुपाया लाख अपना
दर्दो-गम लेकिन
बयां
कर दी मेरी सूरत ने सब कैफियतें दिल की
तो
आंखों में दिखने लगता है। चेहरे पर आने लगता है। उठने-बैठने में साफ होने लगता है।
तुम एकदम उखड़े-उखड़े हो जाते हो। तुम्हारा कोई सहारा नहीं रह जाता। कल तक घर को
पकड़ा था,
पत्नी
को पकड़ा था,
बेटे
को पकड़ा था,
बेटी
को पकड़ा था,
प्रतिष्ठा
थी, काम-धाम था, उलझे थे; आज सबसे हाथ छूट गया।
इसलिए
तुमसे कहता हूं ः अगर सद्गुरु मिल सके तो अवसर मत चूकना। जब सब हाथ छूट जाएंगे तब
उसका हाथ तुम्हारे हाथ में होगा। उसका हाथ भी तभी छूटेगा; लेकिन उसका हाथ तभी छूटेगा जब
परमात्मा का हाथ तुम्हारे हाथ में आने लगता है। तब चुपचाप सद्गुरु अपना हाथ खींच
लेता है।
भक्त
के पास भगवान् को चढ़ाने के लिए कुछ भी नहीं होता। विरह में सब टूट जाता है, अस्तव्यस्त, खंडित हो जाता है। घाव ही घाव
रह जाता है।
निसार
करने को तुझ पर कहां से लाएं खुशी
यही है
इश्क के कुछ गम बचाए हुए
फिर
इन्हीं घावों को चढ़ाना पड़ता है। लेकिन यही घाव स्वीकृत होते हैं। तुम जो वृक्षों
से तोड़कर फूल मंदिर में चढ़ा आते हो, तुम व्यर्थ श्रम कर रहे हो; वे फूल स्वीकार नहीं होंगे।
विरह के घाव स्वीकृत होते हैं, क्योंकि
वे ही असली फूल हैं।
सुंदर
विरहनि अधजरी,
दुक्ख
कहै मुख रोइ।
जारि-बारि
कै भस्म भई धुवां न निकसै कोइ।।
यह
विरह की घड़ियों का बहुत महत्त्वपूर्ण वर्णन है। यह घड़ी तुम सबको आए, ऐसी प्रार्थना करना। इसे
समझो। समझोगे तो जब यह घड़ी आनी शुरू होगी तो तुम सजगता से उसे झेल सकोगे।
सुंदर
बिरहनि अधजरी . . .।
एक
अत्यंत उलझनपूर्ण अवस्था हो जाती है, जैसे कि अध-जली लकड़ी--न तो पूरी जल ही गयी
है कि मिट ही जाए,
न पूरी
बची है। विरह में भक्त आधा-आधा हो जाता है। एक पैर उठ जाता है परमात्मा की तरफ, एक पैर जमीन पर रह जाता
है--त्रिशंकु की भांति अटक जाता है।
सुंदर
विरहनि अधजरी,
दुक्ख
कहै मुख रोइ।
और
अपने दुःख को कितना ही रोओ, कितना
ही कहो,
कोई
समझनेवाला नहीं मिलता। क्योंकि इस दुःख तक पहुंचनेवाले लोग ही बहुत विरले हैं। इसलिए
इस दुःख को रो-रो कर किसी से कहना भी मत। लोग समझेंगे नहीं, लोग हंसेंगे।
आज
पश्चिम में ऐसा हुआ है कि न मालूम कितने भक्त, न मालूम कितने साधक पागलखानों में पड़े हैं, क्योंकि पश्चिम में अब कोई
उपाय नहीं रहा उनको स्वीकार करने का। पश्चिम के पास कोई मापदंड नहीं रहे उनको
परखने के। पश्चिम के पास सद्गुरु नहीं रहे। तो जब ऐसी घड़ी किसी की आ जाती है तो
पश्चिम में क्या करेगा कोई? ले चले
उसको चिकित्सक के पास, मनोचिकित्सक
के पास,
लगाओ
उसे बिजली के शॉक,
इंशुलिन
के शॉक। दो उसे शामक दवाएं। कर दो उसे बेहोश। उसके मस्तिष्क को अस्तव्यस्त करो।
क्योंकि वह विक्षिप्त हो गया है।
यह
विक्षिप्तता साधारण विक्षिप्तता नहीं है। यह विक्षिप्तता बड़ी असाधारण विक्षिप्तता
है।
और ऐसा
मैं नहीं कह रहा हूं, पश्चिम
के कुछ मनोवैज्ञानिक भी इस नतीजे पर पहुंच रहे हैं, कि हमारे पागलखानों में कुछ
लोग बंद हैं जो पागल नहीं हैं। लेकिन उनके सौभाग्य को समझने की भाषा खो गयी है। और
उनके सौभाग्य को समझने वाले लोग खो गए हैं।
ऐसा ही
समझो, अंधों की बस्ती में किसी को
अचानक आंखें आ जाएं, तो
अंधे क्या करेंगे?
कुछ
गड़बड़ हो गयी। वे उसकी आंखें फुड़वा देंगे। ऐसा न कभी हुआ, न कभी होता है; यह घटना स्वीकार नहीं की जा
सकती।
जो
पश्चिम में हुआ है वह जल्दी ही पूरब में भी हो जाएगा। हो ही रहा है। धीरे-धीरे हवा
पश्चिम की पूरब पर छाती जा रही है।
मेरे
एक मित्र ने मुझे लिखा। संन्यास लेकर गए, मस्ती में गए, नाचते हुए गए। स्टेशन पर घर
के लोग लेने आए थे, उनको
तो भरोसा ही नहीं आया कि क्या हो गया! पढ़े-लिखे आदमी हैं, डॉक्टर हैं। कभी किसी ने
नाचते तो देखा ही नहीं था और जब उतरकर स्टेशन पर जब उन्होंने सब के पैर छुए--पत्नी
के भी! तो हद हो गयी। बात साफ हो गयी कि पागल हो गए। जल्दी गाड़ी में बिठाकर घर ले
गए। कहा कि सोओ,
आराम
करो। वे मुझे पत्र लिखे कि मुझे बड़ी हंसी आए, कि उन सबको मैं चिंतित देख रहा हूं, मैं तो इतना मस्त हूं, इतना खुश, इतना प्रसन्न मैं कभी जीवन
में था नहीं! जैसे बाढ़ फूट गयी हो आनंद की! जैसे सब दबा रखा था, वह प्रकट हो गया हो! तो मैं
तो उठ-उठकर बैठ जाऊं और वे मुझे लिटा-लिटा दें। फिर डॉक्टर को बुला लाए। वह डॉक्टर
भी मित्र उनके। लेकिन मित्र ने भी कहा, कुछ गड़बड़ हो गयी है। क्या हो गया आपको?
तो वे
मुझे लिखे हैं कि मुझे इतनी हंसी आए. . .!
अस्पताल
से लिखा है कि मुझे अस्पताल में भर्ती करवा दिया है। वे वहां भी हंस रहे हैं, मस्त हो रहे हैं; मगर जितने मस्त होंगे उतनी ही
मुश्किल में पड़ेंगे। मैंने उनको खबर भिजवायी कि मस्ती बंद करो। भीतर-भीतर रखो।
ऊपर-ऊपर से फिर उदास हो जाओ। यह उदासों की दुनिया है। यहां मस्तियां बरदाश्त नहीं
की जा सकतीं। ऊपर-ऊपर से ढौंग करो कि तुम वही हो--वैसे ही उदास, वैसे ही परेशान, वैसे ही चिंतित।
देखते
हैं आदमी की कैसी दशा है! चिंतित आदमी ठीक मालूम होता है; नाचने लगे, गैर ठीक मालूम होने लगता है!
उदास हो,
परेशान
हो, स्वीकार है। मस्त हो जाए, अहोभाव से भर जाए, संदेह पैदा होने लगता है। ऐसा
कहीं होता है। हम भूल ही गए भाषाएं कुछ।
मैंने
उनको खबर भेजी कि तुम जल्दी से नाटक करना सीखो। जिंदगीभर जो किया था, उसी नाटक को जारी रखो। जब कोई
कमरे में न हो तब नाच लिए, हंस
लिए, प्रसन्न हो लिए; अन्यथा प्रकट मत करो। लोग
नहीं समझेंगे और लोग गलत समझेंगे।
यही
मौलिक अर्थ था आश्रमों का, कि
वहां जाकर तुम एक अलग ही हवा में जी सकोगे--जहां सब स्वीकार होगा; जहां सब अंगीकार होगा; जहां तुम्हारा आनंद
विक्षिप्तता न समझा जाएगा; जहां
तुम्हारा आनंद स्वाभाविक स्वीकृत होगा। मगर वे स्थल खोते जा रहे हैं। वे लोग खोते
जा रहे हैं। जगत् निश्चित ही परमात्मा से रोज-रोज दूर होता जा रहा है।
सुंदर
विरहनि अधजरी दुःख कहे मुख रोइ।
जारि-बारि
कै भस्म भई,
धुआं न
निकसै कोइ।
और यह
घटना घटती है। इसे समझो। जब विरह में कोई भक्त जलता है तो धुआं नहीं निकलता। धुआं
निकलता ही क्यों है? जब तुम
आग जलाते हो,
लकड़ी
जलाते हो,
तो
धुआं निकलता क्यों है? धुआं
लकड़ी के कारण नहीं निकलता; धुआं
तो लकड़ी में पानी छिपा होता है उसके कारण निकलता है, गीलेपन के कारण निकलता है।
लकड़ी अगर बिल्कुल सूखी हो तो धुआं नहीं निकलेगा। जितनी गीली हो उतना धुआं निकलता
है।
अगर
भक्त अभी संसार की कामवासनाओं में लिप्त हो, गीला हो, अभी धन से, पद से, मोह हो तो धुआं निकलेगा। अगर
भक्त के मन में अब कोई लोभ न हो, कोई
मोह न हो;
देख
लिया सब संसार और देख ली इसकी असारता, ऐसी प्रतीति हो गयी हो--तो धुआं नहीं
निकलता। आग जलती है--स्वच्छ आग, निर्धूम
अग्नि!
जारि-बारि
कै भस्म भई धुवां न निकसै कोइ।
सब कोई
रलियां करैं,
आयौ
सरस बसंत।
सुंदर
विरहनि अनमनी,
जाकौ
घर नहिं कंत।।
एक
उलझन शुरू होती है जो दुनिया को मनोरंजन लगता है, वह अब भक्त को व्यर्थ लगता
है। जो भक्त को आनंद लगता है, वही
दुनिया को व्यर्थ लगता है। एक भेद पड़ना शुरू होता है। एक फासला पड़ना शुरू होता है।
सब कोई
रलियां करैं,
आयौ
सरस बसंत।
बसंत आ
गया। झूले पड़ गए। राग-रंग शुरू हुए। मगर भक्त को कोई फर्क नहीं पड़ता।
जब कफस
की जिंदगी अपना मुकद्दर हो गयी
फस्ले-गुल
आयी तो क्या,
दौरे-खिजां
आया तो क्या?
अब कुछ
फरक नहीं पड़ता,
बसंत
हो कि पतझड़। भक्त को तो अब एक ही बसंत है--कंत का आना! अब तो उस प्यारे से मिलन हो
तो बसंत है। इस पृथ्वी के बसंत और पतझड़ सब बराबर हो गए।
ढोल
बजते हैं दनादन की सदा आती है,
फसल
कटती है,
लचकती
है, बिछी जाती है,
नौजवां
गाते हैं जब सांवले महबूब का गीत,
एक
दोशीजा ठिठक जाती है शरमाती है।
अगर
कोई प्रेमी के गीत गा रहा हो तो तुम्हें भी अपने प्रेमी की याद आने लगती है। लेकिन
जिसने परमात्मा को अपना प्रेमी बना लिया है, उसे अपने परमात्मा की याद आने लगती है।
ढोल
बजते हैं,
दनादन
की सदा आती है
कहीं भी
ढोल बजें,
कहीं
भी मृदंग पर थाप पड़े, मगर
उसके हृदय पर परमात्मा की ही याद आती है।
फसल
कटती है,
लचकती
है, बिछी जाती है
लोग
फसल काट रहे हैं . . .।
नौजवां
गाते हैं जब सांवले महबूब का गीत
वे
अपनी प्रेयसियों के गीत गा रहे होंगे, कि अपने प्रेमियों के गीत गा रहे होंगे।
लेकिन भक्त को तो अपने सांवले की याद आनी शुरू हो जाती है।
एक
दोशीजा ठिठक जाती है, शरमाती
है।
भक्त
को इस जगत् में सब तरफ से परमात्मा की ही सुधि आने लगती है। फूल खिलें कि गीत जगे, कि बांसुरी बजे, कि आकाश में मेघ मल्हार करे, कि दीया रोशन हो, कि कोई आंख से आंसू टपके, कि किसी ओंठ पर मुस्कराहट हो, कुछ भेद नहीं पड़ता! कोई मृदंग
बजाए कि कोई घूंघर बांधकर नाचे, कुछ
फर्क नहीं पड़ता। हंसो कि रोओ, हर तरफ
से उसे भगवान् की याद आनी शुरू हो जाती है। और ऐसी जब याद आती है तभी स्मरण अखंड
है। यह कोई राम-राम जपने की बात नहीं है कि बैठ गए और चौबीस घंटे राम-राम जपते
रहे। ये तो मूढ़ता के लक्षण हैं। यह भाव-दशा की बात है।
मुझे
खबर नहीं ऐ हमदमों सुना ये है
कि
देर-देर तक अब मैं उदास रहता हूं
यह
दूसरे ही उसको बताते हैं कि तुम खो जाते हो, कहां खो जाते हो? तुम्हारी आंखें किसी और लोक
में चली जाती हैं। तुम कहां चले जाते हो?
मुझे
खबर नहीं ऐ हमदमों सुना यह है
कि
देर-देर तक अब मैं उदास रहता हूं
बाहर
से उदासी दिखाई पड़ने लगती है, क्योंकि
उसकी सारी जीवन-ऊर्जा भीतर की तरफ बहने लगती है। बाहर अब कुछ अर्थ नहीं दिखाई
पड़ता। बाहर के रागरंग सब फीके हो गए। बाहर के सब राग-रंग भीतर के ही रंगों की खबर
लाते हैं। बाहर की हर घटना उसे भीतर फेंक देती है।
सब कोई
रलियां करै आयौ सरस बसंत।
सुंदर
बिरहनि अनमनी जाकौं घर नहीं कंत।।
लेकिन
उसे बस एक ही याद आती है कि सबके प्यारे तो घर आ गए, मेरा प्यारा कब आएगा? और उसका प्यारा ऐसा नहीं है, जो परदेश गया हो, चिट्ठी-पाती लिखे। उसका
प्यारा ऐसा नहीं है, जो
परदेश से गहने और आभूषण लेकर आ जाएगा--उसका प्यारा ऐसा है जो यहीं मौजूद है! अपनी
ही आंख अंधी है। इसलिए प्यारे को दोष भी नहीं दिया जा सकता। अपनी ही पुकार अधूरी है।
अपनी ही प्रार्थना अभी लचर और कमजोर और नपुंसक है। साईं तूं ही तूं करौ क्यौं ही
दरस दिखाव।
बस एक
ही भाव उठता रहता है भक्त में कि अब तू ही तू बच, मुझे पूरा मिटा।
साईं
तूं ही तूं करौ,
क्यों
ही दरस दिखाव।
और
किसी भी तरह हो,
अब
दर्शन हो। मैं मिटूं तो भी तैयार हूं। मैं न बचूं तो भी तैयार हूं। दर्शन करनेवाला
न भी बचे तो भी चलेगा, मगर
दर्शन हो।
सुंदर
बिरहनि यौं कहै,
ज्यौंही-त्यौंही
आव।
अब
जैसे बन सके,
अब
जैसे हो सके,
आओ!
भक्त तो सिर्फ पुकार सकता है कि आओ। और सब अर्थों में अवश है, असहाय है पर यह असहाय अवस्था भक्त
का बल है। निर्बल के बलराम!
जितनी
यह निर्बलता होती जाती है उतना ही राम करीब आने लगता है। तुम्हारी अकड़ बाधा है।
इसलिए भक्त न तो व्रत में भरोसा करता है, न उपवास में, न योग में, न त्याग में, न विधि में, न विधान में। क्योंकि ये सारे
योग, तप , त्याग तुम्हारी अकड़ को और
मजबूत कर जाते हैं, और धार
रख जाते हैं तुम्हारे अहंकार पर। तुम्हें और सजा जाते हैं। तुम्हारी अस्मिता और
प्रगाढ़ हो जाती है। भक्त का तो एक ही भरोसा है कि मेरे किए कुछ भी न हो सकेगा।
सुंदर
बिरहनि यौं कहै ज्यौंही-त्यौंही आव
साईं
तूं ही तूं करौ क्यौं ही दरस दिखाव।।
जिस
विधि पीव रिझाइए सो विधि जानी नाहिं।
भक्त
कहता है ः कैसे तुम्हें रिझाऊं, इसकी
विधि का मुझे कुछ पता नहीं।
जिस
विधि पीव रिझाइए सो विधि जानी नाहिं।
जीवन
जाई उतावला,
सुंदर
यहु दुःख माहिं।।
बस एक
ही दुःख है कि जीवन हाथ से बहा जाता है। और कैसे तुम्हें रिझाऊं, इसकी कुछ विधि मुझे पता नहीं।
यही
विधि है भक्त की--यही रोना, यही
आंसू, यही आकाश की तरफ अटकी हुई
आंखें!
मारग
जोवै बिरहनी,
चितवै
पिय की वोर।
सुंदर
जियरे जक नहीं,
कल न
परत निस भोर।।
भक्त
की क्या है साधना?
यही
साधना है कि मैं असहाय हूं, कि
मेरे हाथ कुछ भी नहीं, कि
मेरे किए न कभी कुछ हुआ है न कभी कुछ होगा। मैं हार गया, मैं थक गया!... हारे को हरि
नाम! उस हार से जब हरि का नाम उठता है तो फिर देर नहीं होती!
जोवन
जाई उतावला,
सुंदर
यहु दुःख माहिं।
बस एक
ही दुःख है कि जीवन चला जा रहा है। यह जीवन की गंगा बही जाती है, और तुम्हारे दरस नहीं हुए और
तुम्हारा परस नहीं हुआ। क्या मैं लोहा का लोहा ही रह जाऊंगा? तुम न छुओगे? क्या तुम्हारा परस, तुम्हारा पारस-पत्थर स्पर्श
देकर मुझे सोना न बना लेगा? लोहे
का क्या बस है सोना बने--पारस-पत्थर को पुकारता है। अगर पुकार मजबूत हो, गहरी हो, सच्ची हो, तो घटना घटती रही है, घटती है, घटेगी।
अलग
बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर।
अगर है
तिश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएंगे।।
हम तो
पा-ए-जाना पर कर भी आए इक सजदा।
सोचती
रही दुनिया कुफ्र है कि ईमां है।।
लोग
बैठे-बैठे यही सोच रहे हैं कि क्या धर्म अधर्म ?
हम तो
पा-ए-जाना पर कर भी आए इक सजदा।
हम तो
प्यारे के चरणों में सिर भी झुका आए।
सोचती
रही दुनिया कुफ्र है कि ईमां हैं।।
अलग
बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर
प्यास
होनी चाहिए,
फिर
तुम कहीं भी हो,
उसकी
आंख तुम पर पड़ेगी।
अलग
बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर।
अगर है
तिश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएंगे।।
अगर
प्यास पूरी है तो ढलेगी शराब, तो रस
बहेगा। एक शर्त पूरी कर दो --तिश्नगी कामिल हो! पूरी हो! कच्ची-कच्ची प्यास न हो, ऐसी-ही-ऐसी न हो, ऊपर-ऊपर न हो; कहने भर की न हो!
विवेकानंद
अमरीका में बोलते थे। उन्होंने जीसस का वचन उद्धृत किया कि श्रद्धा पहाड़ों को हटा
देती है। फेथ कैन मूव माऊंटेंस। एक बुढ़िया भी बैठी सुन रही थी। वह बड़ी खुश हो गयी, उसके मकान के पीछे ही पहाड़
था। और उस पहाड़ की वजह से उसके घर में अंधेरा भी रहता था, सूरज का भी पता नहीं चलता था।
और वह बूढ़ी भी हो गयी थी, सर्दी
भी ज्यादा रहती थी। उसने कहा ः यह अच्छा हुआ, यह मैंने खयाल ही नहीं किया। आज ही जाकर
पहाड़ को हटाए देती हूं।
बुढ़िया
गयी। आखिरी बार उसने खिड़की खोल कर पहाड़ देखा, क्योंकि फिर तो देखने को मिलेगा नहीं। आखिरी
बार देखा,
खिड़की
बंद की,
बैठी
वहां और कहा ः "हे प्रभु! हटा पहाड़!' भूल-चूक न हो जाए, इस लिए तीन बार कहा। फिर
खिड़की खोली,
पहाड़
जहां था वहीं था। हंसने लगी। . . . उसने कहा ः मुझे पहले से ही पता था। कहीं पहाड़
इत्यादि हटे हैं?
अगर
पहले से ही पता था कि पहाड़ इत्यादि नहीं हटते तो श्रद्धा कहां? शर्त ही चूक गयी। शर्त वही थी
कि श्रद्धा पहाड़ हटा सकती है। श्रद्धा ही न हो तो ऊपर-ऊपर से तुम चेष्टा करते रहो, वह व्यर्थ चली जाएगी।
अलग
बैठे थे फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर
अगर है
तिश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएंगे।
बस
अपनी प्यास को बढ़ाए चले जाओ। प्यास को गहन करते चले जाओ। प्यास ही प्यास हो जाओ।
लालन
मेरा लाड़िला रूप बहुत तुम मांहिं।
सुंदरदास
कहते हैं ः तुम बड़े प्यारे हो। तुम्हारे बहुत रूप हैं! अनंत तुम्हारे रूप हैं!
लालन
मेरा लाड़िला रूप बहुत तुम मांहिं।
मेरे
मन में तुम्हारे सब रूप बसे हैं। ये सारे रूप उसी के हैं। ये सारे लोग जो तुम्हारे
पास बैठे हैं,
ये
वृक्ष जो हमें घेरे खड़े हैं, ये
पक्षी जो आवाज कर रहे हैं--ये सारे रूप उसके हैं। ये कृष्ण, ये मुहम्मद, ये बुद्ध, ये महावीर, ये जरथुस्त्र, ये सभी रूप उसके हैं।
कितने-कितने रूपों में वह प्रकट हुआ है!
लालन
मेरा लाड़िला रूप बहुत तुम मांहिं।
सुंदर
राखै नैन मैं पलक उघारै नांहिं।।
सुंदरदास
कहते हैं ः लेकिन मैं डर के मारे अपनी पलक नहीं खोलता कि कहीं तुम्हारा रूप न खो
जाए! किसी-किसी तरह तुम्हें अपनी आंखों में बसाता हूं। पलक बंद रखता हूं।
देखते
हो मजा,
फर्क
देखते हो?
ज्ञानी, ध्यानी भी आंख बंद करता है, भक्त भी आंख बंद करता है; लेकिन दोनों के आंख बंद करने
का फर्क और भेद साफ है। ध्यानी आंख बंद करता है, ताकि संसार न दिखे। भक्त आंख
बंद करता है,
क्योंकि
जो दिख रहा है कहीं चूक न जाए! ध्यानी का आंख बंद करना नकारात्मक है। वह सिर्फ
इसलिए आंख बंद करता है कि लोग न दिखायी पड़े, संसार न दिखायी पड़े, थोड़ी देर को यह संसार भूल जाए
किसी तरह से। उसकी प्रक्रिया नकारात्मक है। वह संसार का निषेध करने पर उतारू है।
भक्त भी आंख बंद करता है। लेकिन भक्त आंख इसलिए बंद नहीं करता कि संसार न दिखे।
संसार तो दिखायी पड़ना बंद हो चुका है। तभी तो भक्ति का आविर्भाव हुआ है। संसार में
देखने-योग्य कुछ है भी नहीं, पाया
भी नहीं,
इसीलिए
तो भक्ति का उदय हुआ है। सब संसार में प्यार से ढंग देख लिए और प्यारा नहीं मिला; अब वह आंख बंद करके प्यारे को
देखता है,
तो
खोलने में डरता है कि कहीं आंख खोलूं तो प्यारा छिटक न जाए, आंख से निकल न भागे!
तुमने
देखा, स्त्रियां प्रेम के क्षण में
अकसर आंख बंद कर लेती हैं! भक्त स्त्रैण है। स्त्रियां क्यों प्रेम के क्षण में
आंख बंद कर लेती हैं? अगर
उनका प्रेमी उन्हें गले से लगाए है तो प्रेमी आंख बंद नहीं करता, प्रेयसी आंख बंद कर लेती है।
क्योंकि जो अपूर्व घट रहा है, वह उसे
अपने भीतर समा लेना चाहती है। आंख खोलकर क्या देखना है? आंख खोलकर तो जो दिखेगा वह
ऊपर-ऊपर होगा,
क्षुद्र
होगा, स्थूल होगा। वह आंख बंद करके
सूक्ष्म के दर्शन करती है।
प्रेम
के क्षण में स्त्री की भी आंख बंद हो जाती है। भक्त की भी आंख बंद हो जाती है। आंख
बंद करके भी देखने के ढंग हैं। और जीवन में जो भी गहन है, वह आंख बंद करके ही देखा जाता
है।
स्त्रियों
से कुछ सीखो,
क्योंकि
भक्त का मार्ग स्त्री का मार्ग है।
सुंदर
राखै नैन में पलक उघारै नांहिं।
सुंदर
विगसै बिरहनी मन मैं भया उछाह।
और
जैसे-जैसे यह आंख संभलने लगती है और यह आंख बंद होने लगती है और भीतर उसका रूप
निखरने लगता है,
प्रकट
होने लगता है,
भीतर
उसके रूप का कमल खिलने लगता है।
सुंदर
विगसै बिरहिनी . . . ।
जैसे-जैसे
उसका रूप खिलता है, वैसे-वैसे
बिरहनी खिलती है। जैसे-जैसे उसका रूप स्पष्ट होता है वैसे-वैसे भक्त का हृदय भी
आंदोलित होता है,
रसमग्न
होता है।
सुंदर
बिगसै बिरहनी मन मैं भया उछाह।
बड़ा
उत्साह जन्मता है। बड़ी ऊर्जा अभिव्यक्त होती है।
फूल बिछाऊं
सेजरी आज पधारैं नाह।
स्वामी
आज आ गए,
मालिक
आज आया,
तो आज
फूल बिछाऊं सेज पर । भीतर की सेज की बात है।
फूल
बिछाऊं सेजरी,
आज
पधारैं नाह।।
ये
भीतर की बातें हैं। बाहर से इनका कोई संबंध नहीं। लेकिन यह सदी बड़ी मूढ़ है। अगर
तुम सिंग्मंड फ्रायड और उसके अनुयायियों से पूछोगे--और उसके अनुयायी इस देश में भी
हैं . . . अगर तुम विश्वविद्यालय में जाकर मनोविज्ञान के अध्यापक से पूछोगे तो वह
भी कहेगा कि ये सब कामवासना के प्रतीक हैं--सेज बिछाना-फूल बिछाना . . . । यह
मीरां का कहना बार-बार कि मेरी सेज खाली पड़ी है, तुम कब तक आओगे--ये सब
कामवासना के ही रोग हैं। ये कामवासना को ही नए-नए ढंग देना है। यह अध्यात्म के नाम
से कामवासना का ही खेल है।
कुछ
ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण हुआ है इस सदी में . . . कि हमने सदा अतीत में कीचड़ को कमल से
समझाया था;
अब हम
कमल को कीचड़ से समझा रहे हैं।
मेरा तुमसे
निवेदन है। मेरी मौलिक धारणाओं में, मान्यताओं में एक मान्यता यह भी है कि
क्षुद्र में विराट् को देखो, लेकिन
विराट को क्षुद्र मत बनाओ। कामवासना में भी राम की वासना छिपी है, यह सच है; मगर राम की वासना में कहां
कामवासना?
कमल
कीचड़ से पैदा होता है, यह सच
है; लेकिन कमल में कहां कीचड़?
लेकिन
इस सदी में कुछ मनुष्य का मन बड़ा रुग्ण हुआ है--हर चीज को नीचे खींच लाओ! आदमी का
अध्ययन करना हो तो चूहों का अध्ययन कर रहे हैं लोग। चूहे को समझ लिया तो आदमी को
समझ लिया। यह भी हद हो गयी!
आदमी
का अध्ययन करना हो तो बंदरों का अध्ययन चल रहा है। बंदर को समझ लिया तो आदमी को
समझ लिया!
जैसे
कोई एक छोटे बच्चे को समझकर बूढ़े को समझना चाहे, गलत है यह बात। हां, बूढ़े को समझ लो तो छोटा बच्चा
भी समझ में आ जाएगा, क्योंकि
बूढ़े में छोटा बच्चा भी समाविष्ट है। लेकिन छोटे बच्चे में बूढ़ा आदमी समाविष्ट
नहीं है। अभी छोटे बच्चे को बूढ़ा होना है। कली को समझ कर फूल समझ में नहीं आएगा।
अभी फूल घटा नहीं। लेकिन फूल को समझ लो तो कली जरूर समझ में आ जाएगी, क्योंकि फूल में कली समाविष्ट
है। वृक्ष को समझो तो बीज समझ में आता है; बीज को समझने से तो वृक्ष समझ में नहीं आता।
धर्म
और विज्ञान की यह बुनियादी धारणा का भेद है। विज्ञान हमेशा स्थूल से सूक्ष्म को
समझने की कोशिश करता है। वहीं चूक जाता है। दृश्य से अदृश्य को समझाना चाहता है, वहीं चूक जाता है।
सुंदर
बिगसै बिरहनी मन में भया उछाह।
फूल
बिछाऊं सेजरी,
आज
पधारैं नाह।।
और वह
मालिक बंद आंख में ही आता है। संसार देखना हो, आंख खोलकर देखो। उस प्यारे को देखना हो, आंख बंद करके देखो।
भटक
जाए कोई कमसिन हसीना जैसे जंगल में
खुशी
यूं मेरे दिल में लर जबर अंदाम आती है।
आंख
बंद करो और लरजती है, सिहरती
है, नाचती है। खुशी तुम्हारे भीतर
आनी शुरू हो जाती है। आंख बंद करने की कला सीखो। यही तो सुंदरदास बार-बार कह रहे
हैं। आंखें उलटाओ! बहुत देख लिए बाहर, अब भीतर देखो।
सुंदर
अंदर पैसिकर दिल मौं गोता मारि। अब उतरो भीतर! अब बैठो भीतर! अब वहीं गोता मारो!
तौ दिल
ही मौं पाइए सांई सिरजनहार।
तो वहीं
पाओगे उस मालिक को जिसे बाहर खोजा और नहीं पाया। मालिक तुम्हारे भीतर छिपा है। और
तुम सारी दुनिया में तलाश कर रहे हो। तुम खूब दौड़ चुके! कहां-कहां नहीं दौड़े! सब
चांदत्तारे तुमने खोज डाले। मगर एक छोटी-सी जगह बिना खोजे छोड़ दी--अपने भीतर का
आकाश।
सुंदर
अंदर पैसिकरि दिल मौं गोता मारि।
तौ दिल
ही मौं पाइए सांई सिरजनहार।।
जिस
बंदे का पाक दिल सो बंदा माकूल ।
और
जिसके हृदय में निर्दोष भाव है, वही
योग्य है उसे पाने का। ध्यान से नहीं मिलता वह, निर्दोषता से मिलता है। छोटे बच्चे जैसा
निर्दोष भाव चाहिए। पंडित का ज्ञान नहीं, भोले-भाले बच्चे का भाव!
जिस
बंदे का पाक दिल सो बंदा माकूल।
सुंदर
उसकी बंदगी सांई करैं कबूल।।
छोटे-छोटे
बच्चों की प्रार्थनाएं स्वीकृत हो जाती हैं। तुम भी जिस दिन छोटे बच्चे की भांति
उसे पुकारोगे,
तुम्हारी
प्रार्थना स्वीकृत हो जाएगी। अकड़कर मत पुकारो। दावेदार बन कर मत पुकारो। असहाय
छोटे बच्चे की भांति पुकारो। जैसे छोटा बच्चा अपनी मां को पुकारता है; न तो उठ सकता है झूले से, न बैठ सकता, न चल सकता। भूख लगी है, प्यास लगी है। रोता है। वही
विधि है भक्त की। इसे मैं जितनी बार दोहराऊं, उतना कम है। रुदन भक्ति का योगशास्त्र है।
और जो रोने में कुशल हो जाता है, जो
रोने में मस्त हो जाता है, जिनके
आंसुओं में जिनके हृदय का विरह बहने लगता है--उनके पाने में देर नहीं है।
जिस
बंदे का पाक दिल सो बंदा माकूल। और आंसू तुम्हारी आंखों को ही स्वच्छ नहीं कर जाते, तुम्हारे हृदय को भी पाक कर
जाते हैं,
तुम्हारे
हृदय को भी स्वच्छ कर जाते हैं।
सुंदर
उसकी बंदगी,
सांई
करै कबूल।
हरदम
हरदम हक्क तूं,
लेइ
धनी का नांव।
सुंदर
ऐसी बंदगी,
पहुंचावै
उस ठांव।।
धड़कन-धड़कन
में उसके नाम को गूंजने दो। श्वास-श्वास में उसकी याद उठने दो,। मुखसेती बंदा कहै दिल मैं
अति गुमराह। ऊपर-ऊपर मत कहो। मुंह की बातें मत कहो। व्यर्थ समय मत गंवाओ।
मुखसेती
बंदा कहै,
दिल
मैं अति गुमराह।
प्रार्थना
तो ओंठों से हो रही है और दिल में कुछ और चल रहा है।
सुंदर
सौ पावै नहीं सांई की दरगाह। उसको उस मालिक का मंदिर न मिलेगा मैं ही अति गाफिल
हुई रही सेज पर सोइ।
यही
गाफिलता है,
यही
बेहोशी,
यही
मूर्च्छा है,
कि तुम
परमात्मा तक को धोखा देने को तैयार हो। तुमने मंदिरों में प्रार्थनाएं की हैं; मस्जिदों में आवाजें दी हैं, लेकिन वे सब झूठी हैं। नहीं
तो सुन ली गयी होतीं। नहीं सुनी गयीं, यह पर्याप्त प्रमाण है कि वे झूठ थीं। तुमने
ऊपर-ऊपर कह दिया,
तुमने
ऐसे ही कह दिया,
कि
देखो शायद कुछ हो जाए।
लेकिन
"शायद'
के साथ
प्रार्थना नहीं होती। जहां शायद है वहां प्रार्थना कैसी? जहां किंतु-परंतु हैं, वहां प्रार्थना कैसी? या तो प्रार्थना का अर्थ होता
है हां या प्रार्थना का अर्थ होता है ना; इन दोनों के बीच में कोई स्थान नहीं होता।
लेकिन तुम्हारी सब प्रार्थनाएं किंतु-परंतु वाली हैं। तुम कहते हो--देखें, शायद, कौन जाने हो ही जाए! हर्ज भी
क्या है?
सुबह
उठकर थोड़ी प्रार्थना कर ली तो बिगड़ेगा भी क्या?
सुंदर
सो पावै नहीं सांई की दरगाह।
मैं ही
अति गाफिल हुई रही सेज पर सोइ।
सुंदर
पिय जागै सदा क्यौं करि मेला होई।।
बड़ा
प्यारा वचन है कि वह प्यारा तो सदा जाग रहा है और मैं सो रही हूं, तो मिलन कैसे हो? सोनेवाले का और जागनेवाले का
मिलन कैसे हो?
तुम्हारे
पास ही कोई सोया हो और तुम उसके पास ही जागे बैठे हो, मिलन कैसे हो? सोने और जागने में मेल कैसे
हो? सोनेवाला जागे तो ही मेल हो
सकता है। तुम भी सो जाओ तो भी मेल नहीं होगा। दो सोनेवालों में भी मेल नहीं होता, अलग-अलग सोते हैं। एक जागे, एक सोए, तो भी मेल नहीं होता; दोनों जागे तो ही मेल है।
जागरण में ही मिलन है।
किसी
सूरत नमूदे-सोजे-पिनहानी नहीं जाती।
बुझा
जाता है दिल चेहरे की ताबानी नहीं जाती।।
मुहब्बत
में एक ऐसा वक्त भी दिल पर गुजरता है।
कि
आंसू खुश्क हो जाते हैं तुगियानी नहीं जाती।
जिसे
रौनक तेरे कदमों ने देकर छीन ली रौनक।
वो लाख
आबाद हो उसके घर की वीरानी नहीं जाती।।
वो यूं
दिल से गुजरते हैं कि आहट तक नहीं होती।
वो यूं
आवाज देते हैं कि पहचानी नहीं जाती।।
बड़ी
बेहाशी है! आवाज भी उसकी आती है, तुम
आवाज न भी दो तो कोई हर्ज नहीं!
उसकी
आवाज सुनो। मगर बड़ी बेहोशी है।
वो यूं
दिल से गुजरते हैं कि आहट तक नहीं होती।
वो यूं
आवाज देते हैं कि पहचानी नहीं जाती।
मैं ही
अति गाफिल हुई रही सेज पर सोइ।
सुंदर
पिय जागै सदा क्यौं करि मेला होइ।।
जौ
जागै तौ पी लहै,
सोए
लहिए नाहिं।
सुंदर
करिए बंदगी तौ जाग्या दिल मांहि।।
जागो
तो प्रार्थना। भीतर जागो तो पूजा। जागो तो अर्चना। क्योंकि जागते ही जो तुम्हारे
भीतर सदा से जागा बैठा है, उससे
मिलन हो जाता है। एक क्षण की देरी नहीं होती। अमृत की वर्षा हो उठती है।
मैखाना-ए-हस्ती
में अकसर हम अपना ठिकाना भूल गए।
या होश
से जाना भूल गए,
या होश
में आना भूल गए।।
असबाब
तो बन ही जाते हैं तकदीर की जिद को क्या कहिए।
इक जाम
तो पहुंचा था हम तक, हम जाम
उठाना भूल गए।।
आए थे
बिखेरे जुल्फों के, इक रोज
हमारे मरकद पर।
दो
अश्क तो टपके आंखों से दो फूल चढ़ाना भूल गए।।
चाहा
था कि उनकी आंखों से कुछ रंगे-बहारां ले लीजै।
तकरीब
तो अच्छी थी लेकिन , वो आंख
मिलाना भूल गए।।
मालूम
नहीं कि आईने में चुपके से हंसा था कौन "अदम'।
हम जाम
उठाना भूल गए वो साज बजाना भूल गए।।
मैखाना-ए-हस्ती
में अकसर हम अपना ठिकाना भूल गए।
या होश
से जाना भूल गए या होश में आना भूल गए।।
असबाब
तो बन ही जाते हैं तकदीर की जिद की क्या कहिए।
एक जाम
तो पहुंचा था हम तक हम जाम उठाना भूल गए।।
रोज ही
उसकी खबर आती है। रोज ही उसका हाथ तुम तक फैलता है। रोज ही तुम्हारे हृदय को वो
जगाने की चेष्टा करता है कि उठो, सुबह
हो गयी,
भोर
हुआ। मगर न उसकी आवाज तुम तक पहुंचती , न उसका जाम तुम तक पहुंचता। तुम गाफिल हो।
तुम बेहोश हो!
इन
वचनों पर ध्यान करना! ध्यान ही नहीं, इन वचनों को अपने भीतर तीर की तरह चुभ जाने
दो।
मैं ही
अति गाफिल हुई रही सेज पर सोइ
सुंदर
पिय जागै सदा क्यौं करि मेला होइ।।
जो
जागै तो पिय लहै,
सोए
लहिए नाहिं।
सुंदर
करिए बंदगी तौ जाग्या दिल मांहि।।
प्यारा
बहुत करीब है। जागो तो करीब कहना भी शायद ठीक नहीं, तुम और प्यारा दो नहीं। सोओ
तो बहुत फासला है,
अनंत
फासला है! फिर भटकते रहो सोए-सोए, कभी
मिलना न हो सकेगा।
ध्यानी
जागता है ध्यान से; भक्त जागता है विरह से। विरह
में कहां सोओगे,
कैसे
सोओगे?
नींद
आए कैसे?
ध्यानी
जागता है विधि से,
उपाय
से; भक्त जागता है असहाय आंसुओं
से।
रोओ!
पुकारो! जागो! तो ही उससे मिलना हो सके। क्योंकि वह सदा जागा हुआ है।
जीवन
तब तक व्यर्थ है जब तक उस जागे तत्त्व से संबंध नहीं हुआ। और जीवन तब तक अंधेरी
अमावस है,
जब तक
भीतर जागरण का दीया न जला हो। जलाना ही है यह दीया। सब दांव पर लगाना है इस दीए के
लिए। कुछ भी बचाना मत, क्योंकि
बचानेवाले पीछे बहुत पछताते हैं।
तुम
कुछ ऐसा करो कि इस जीवन से जब विदा होओ तो मृत्यु से मिलना न हो अमृत का द्वार
खुले। अमृत के उसी द्वार के लिए तुम्हें पुकार रहा हूं।
आज
इतना ही।
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