जिज्ञासा-पूर्ति:पांच--प्रवचन दसवां ,
दिनांक २०.७.१९७५, प्रातःकाल,
श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1— दादू और कबीर जिस गुरु-महिमा
की चर्चा करते हैं, उसे हम आप में पा लिए हैं।
2— सदगुरु भी मिल गए, फिर भी अगला कदम अस्पष्ट क्यों है?
3— जिस शोले को आपने मेरे भीतर
से कुरेदकर जला दिया....
4— भय से किया गया समर्पण
निर्भयता को कैसे उपलब्ध होगा?
5— प्रवचन के समय आपकी कोई कोई
ध्वनि सुनकर मैं कांप जाता हूं, डर जाता हूं।
6— अभी हम हैं आपके सामने, वह क्या एक लंबा सपना है?
पहला प्रश्न: दादू और कबीर जिस गुरु-महिमा की चर्चा करते हैं, उसे हम आप में पा लिए हैं।
किंतु जब लोग आपके विषय में आपकी तत्वचिंतना के विषय में पूछते हैं, तो हम अपने को असमर्थ पाते
हैं। और तत्व-चिंतना के विषय में बोलते हुए निरंतर डर लगता है कि कहीं तार्किक या
पंडित न हो जाएं। कृपया निर्देश दें कि हम लोगों से क्या कहें?
पहली
बात: जिस व्यक्ति को तुम प्रेम करते हो उसके संबंध में कुछ भी न कह सकोगे। प्रेम
के संबंध में वाणी सदा असमर्थ है। प्रेम नहीं कर सकते हो, नहीं करते हो, तब बोलना सदा आसान है। तब तुम
कुछ कह सकते हो--पक्ष में, विपक्ष
में; समर्थन में, विरोध में। लेकिन प्रेमी तो
गूंगा हो जाता है--"गूंगे केरी सरकार'। स्वाद तो उसे मिलता है लेकिन कह नहीं
पाता। और जितना गहन प्रेम होगा उतना ही मुश्किल हो जाता है। क्योंकि तब जो भी वह
कहता है,
पाता
है, वह थोड़ा है। उससे उसके प्रेमी
के संबंध में कुछ ठीक-ठीक पता नहीं चला, तो उसे अपराध की प्रतीति होती है। तब वह
सोचता है,
बेहतर
होता चुप ही रह जाते। कम से कम अधूरा तो न कहा होता।
तो यदि
तुम मेरे प्रेम में हो, तब तो
असमर्थ पाओगे ही। कोई उपाय नहीं है। तुम कुछ कह न सकोगे। पर कहने की कोई जरूरत भी
नहीं है।
तुम्हारा
होना ही तुम्हारा कहना होना चाहिए। तुम्हारे जीवन की सुगंध ही तुम्हारा वक्तव्य
होना चाहिए। अगर तुम्हारे होने में कुछ रूपांतरण हुआ है तो वही मेरी संबंध में खबर
होगी। अगर नहीं हुआ है तो कहकर भी क्या करोगे? कहने से भी क्या होगा? अगर तुम्हारा आनंद स्वयं
प्रमाण नहीं है,
और
तुम्हारी शांति की स्वयं कोई क्षमता नहीं है, और तुम्हारा ध्यान किसी तरह के संगीत को
पैदा नहीं किया है तो तुम कहकर भी क्या करोगे? कहोगे भी क्या? तुम जो कहोगे उसे ही तुम्हारा
होना गलत सिद्ध कर देगा।
कहने
की कोई जरूरत नहीं है, होने
की जरूरत है। और यहां तुम मेरे पास कहना सीखने को नहीं हो, होना सीखने को हो। जब भी ऐसी
घड़ी आए कि तुम्हें लगे कुछ कहना है, तब एक ही स्मरण करना कि अपने होने से ही
कहना। तुम्हारा मौन भी तब सार्थक हो जाएगा। तब तुम चुप भी रहोगे, तो तुम्हारी चुप्पी भी कुछ
कहेगी। और वह गुफ्तगू ज्यादा गहरी है। कोई चिल्लाकर थोड़े ही कहने की बात है। प्रेम
कोई बाजार तो नहीं है। प्रेम का कोई विज्ञापन थोड़े ही होता है। प्रेम को प्रमाणित
करने के लिए कोई भी तो तर्क संसार में नहीं है।
तुम
अगर एक स्त्री के प्रेम पड़ गए, या एक
पुरुष के प्रेम में पड़ गए, तो
क्या तुम दुनिया को समझा पाओगे, जो
तुम्हारे प्रेम की प्रतीति है? कोई भी
नहीं समझा पाया है; न मजनू
समझा पाता है,
न
फरिहाद समझा पाता है, न
रांझा समझा पाता है। कोई भी नहीं समझा पाता। प्रेमी सदा असमर्थ रहा है। क्योंकि
प्रेम शब्द से बड़ा है।
और जब
संसार का ही साधारण प्रेम शब्द में नहीं समाता, तो शिष्य का जो प्रेम गुरु के प्रति पैदा
होता है,
उसके
समाने का तो कोई भी उपाय नहीं है। वह तो सुगंध और लोक की है। वह तो रोशनी ही किसी
और लोक की है। इस संसार के किसी भी दीए में तुम उसे समा न सकोगे। समाने की कोशिश
में तुम हमेशा हारोगे।
और
अच्छा है कि तुम हारते हो; उससे
ज्योति का बड़ा होना सिद्ध होता है। जो लोग अपने गुरु के संबंध में कुछ कहने में
समर्थ हैं,
वे
शिष्य बड़े हैं,
गुरु
छोटा है। जो अपने गुरु के संबंध में कहने में सिर्फ असमर्थ पाते हैं, उनका गुरु बड़ा है। उन्हें
कठिनाई होती है।
शब्द
तो एक-आयामी है,
प्रेम
बहु-आयामी है। शब्द तो ऐसा है, जैसे
घर का आंगन;
और
प्रेम ऐसा है,
जैसे
मुक्त आकाश। माना कि घर के आंगन में भी आकाश ही है, लेकिन बड़ी सीमा में बंधा है।
और जिसने मुक्त आकाश जाना है वह इस सीमा की तरफ इशारा न करेगा।
तो तुम
अपने होने से ही खबर देना। अगर कोई मेरे संबंध में तुमसे पूछे, तो या तो मौन रहना--लेकिन वह
मौन तुम्हारा मुखर हो। वह मौन उदासी का न हो। वह मौन निषेधात्मक न हो। वह मौन न
बोलने जैसा न हो। वह मौन इतना गर्भित हो, वह चुप्पी इतनी गहरी हो, कि बोले। वह सन्नाटा इतना
परिपूर्ण हो,
कि इस
सन्नाटे की चोट हो, आवाज
हो। तुम चुप रह जाना। तुम आंख बंद कर लेना। तुम गीत गा सकते हो, तुम नाच सकते हो, लेकिन तुम कुछ होने से कहना।
और
शब्द की झंझट में तुम पड़ना मत, क्योंकि
सभी शब्द खंडित किए जा सकते हैं। तर्क में तुम पड़ना मत क्योंकि तर्क तो दुधारी
तलवार है। जिस तर्क से तुम सिद्ध करते हो, उसी तर्क से असिद्ध किया जा सकता है। तर्क
का कोई भी मूल्य नहीं है। तर्क देकर तो तुम झंझट में पड़ोगे। तर्क देने का मतलब ही
हुआ कि तुमने दूसरे को मौका दिया, कि वह
तुम्हें खंडित कर सकता है।
जिन्होंने
ईश्वर के लिए प्रमाण दिए हैं, वे
ईश्वर के जानने वाले लोग नहीं हैं। जो ईश्वर के संबंध में चुप रह गए हैं उन्होंने
ही एकमात्र प्रमाण दिया है, कि वह
है। क्योंकि जिन्होंने भी तर्क दिए हैं ईश्वर के होने के लिए, वे सभी तर्क नास्तिकों के हाथ
में सहारा बने हैं। जितने तर्क दिए गए हैं सभी खंडित कर दिए गए हैं। नास्तिक से
आस्तिक जीत नहीं पाता। अगर तर्क देता है तो निश्चित हार जाता है। क्योंकि तुम
अतर्क को समाने की कोशिश करते हो तर्क में। वहीं तुमने भूल कर दी।
तुम
कहते हो,
असीम
है परमात्मा;
और फिर
आंगन की तरफ बताते हो। तुम हारोगे। क्योंकि वह नास्तिक तुम्हें दीवार बता देगा, कि यह, कैसा असीम है तुम्हारा
परमात्मा! दीवार से घिरा है। तुमने तर्क दिया, कि तुम नास्तिक के हाथ में पड़े। इसलिए परम
ज्ञानियों ने परमात्मा के लिए तर्क नहीं दिया है।
एक
ईसाई फकीर हुआ,
तर्तूलियन
उसका नाम है;
वह
बेजोड़ है। उससे किसी ने पूछा कि तुम ईश्वर को क्यों मानते हो? उसने कहा, "बिकाज ही कैन नाट बी
प्रूव्ड--'क्योंकि उसे सिद्ध नहीं किया
जा सकता। उसने लिखा है, "आई बिलीव इन गाड बिकाज ही इज एब्सर्ड--' मेरा परमात्मा में भरोसा है
क्योंकि वह तर्कातीत है। यह भरोसा किसी अनुभव से आ रहा है। यह भरोसा किसी तर्क की
निष्पत्ति नहीं है।
यूनान
में महापंडित हुआ: प्लेटो। उसने अपने स्कूल के दरवाजे पर एक वचन लिख छोड़ा था। वचन
था, कि जो लोग तर्क नहीं जानते, गणित नहीं जानते हैं, वे कृपा करके यहां प्रवेश की
कोशिश न करें।
अगर
मुझे लिखना पड़े अपने द्वार पर कुछ, तो मैं लिखूंगा, "जो लोग गणित जानते हैं, तर्क जानते हैं, वे कृपया यहां आने की कोशिश न
करें।'
यह
द्वार उनके लिए नहीं है। यहां तो दीवानों की जमात है। यहां तो जो पागल हैं, उनका जलसा है। जो तर्क से ऊब
गए हैं और तर्क को देख लिया; जी
लिया और व्यर्थ पाया है, उनके
लिए निमंत्रण है। यह बुलावा हृदय के लिए है, मस्तिष्क के लिए नहीं।
कैसे
तुम कह पाओगे हृदय की बातें मस्तिष्क से? यह तो ऐसे ही होगा जैसे सोने को कसने का
पत्थर होता है,
उस पर
कोई फूल को कसने लगे। तो फूल तो सदा ही गलत सिद्ध होगा, क्योंकि फूल कोई सोना थोड़ी
है। तुम मस्तिष्क से ही तो कह सकोगे। हृदय की बात जब भी मस्तिष्क से कहोगे, फूल मस्तिष्क तक आते आते
कुम्हला जाता है,
जल
जाता है।
तो जहां
दो प्रेमी मिलें,
वहां
तुम चाहे मेरी चर्चा कर लेना, लेकिन
जहां तर्क की संभावना हो, वहां
तुम चुप रह जाना। प्रेम की चर्चा प्रेमियों के बीच हो सकती है। जहां दो प्रेमी मिल
बैठते हैं जहां दो मतवाले मिल बैठते हैं, वहां फिर वे अपनी चर्चा कर सकते हैं, क्योंकि उनकी चर्चा कोई तर्क
नहीं है। वह एक तरह का गुणगान है, वह एक
तरह का गीत है। वे दोनों उसमें सम्मिलित हैं। वे अकेले अकेले नहीं गा रहे हैं, इकट्ठे गा रहे हैं। वह एक
कोरस है।
और
मेरा कोई तत्वचिंतन है नहीं। मेरी कोई फिलासाफी नहीं है। इसलिए तुम मुश्किल में
पड़ोगे ही। अगर मेरी कोई सुनिश्चित तर्क-व्यवस्था होती, तो तुम कुछ कह भी सकते थे।
अगर तुम्हें महावीर के संबंध में कुछ कहना है, तो तुम निश्चित कह सकते हो। भला महावीर के
संबंध में न कह सको, लेकिन
महावीर के विचार के संबंध में कह सकते हो। वह साफ-सुथरा है। महावीर का विचार राजपथ
जैसा है। उस पर मील के पत्थर लगे हैं, नक्शा साफ है; भूल-चूक का उपाय नहीं है।
गणित की पूरी व्यवस्था से बात कही गई है।
अगर
तुम्हें जीसस के संबंध में कुछ कहना हो तो जीसस के संबंध में कहना मुश्किल हो, लेकिन जीसस के वचन सीधे-साफ
हैं। पतंजलि तो बिलकुल गणित जैसे हैं।
मेरे
संबंध में अड़चन आएगी क्योंकि मैं कोई सीधे साफ-सुथरे राजमार्ग पर नहीं चल रहा हूं।
यह रास्ता ऊबड़-खाबड़ है। यह रास्ता ही नहीं है; चलते हैं, उतना ही बनता है। पहले से
तैयार नहीं है। यह तो बीहड़ जंगल में प्रवेश है। यह तो अनछुई जमीन में जाना है। यह
तो कुंआरे लोक में प्रवेश है। इसलिए अड़चन है।
मैं
रोज बदल जाता हूं। तो मेरे तत्व-चिंतन के संबंध में कहोगे कैसे? तुम जो भी कहोगे वह बासा
मालूम पड़ेगा। जब तुम लौटकर मेरे पास आओगे, मैं जा चुका हूं। गंगा रोज बही जाती है। तुम
जहां उसे कल छोड़ गए थे, वहीं
तुम उसे आज न पाओगे।
हेराक्लतु
ठीक कहता है,
एक ही
नदी में दुबारा उतरना असंभव है। मुझसे भी तुम दुबारा नहीं मिल सकते। मुझसे तुम
दुबारा नहीं उतर सकते। कल भी तुम आए थे, तब रंग और था, तब सुबह ही और थी। आज भी तुम
आए हो,
आज रंग
और है। इसलिए तुम गणित न बिठा सकोगे। मैं रोज बदलता जाऊंगा। तुम कैसे पक्का कर
पाओगे,
कि जो
तुम कह रहे हो मैं उससे अब भी राजी हूं? नहीं, मुश्किल पड़ेगी।
और फिर
मैं बुद्ध पर बोलता, पतंजलि
पर बोलता,
लाओत्से
पर बोलता,
महावीर
पर, मोहम्मद पर बोलता, जीसस पर। इस जगत में
जिन्होंने भी जाना है उन सबके संबंध में बोलता हूं। उन सबकी विचार धाराएं बड़ी
भिन्न-भिन्न हैं। भिन्न-भिन्न ही नहीं, बड़ी विपरीत हैं। तो मेरे भीतर तो तुम बड़ी
असंगतियां पाओगे,
बड़े
विरोधाभास पाओगे। तुम मुझसे एक ही बात संगत पा सकते हो और वह मेरी असंगति। उसमें
मैं कभी नहीं चूकता। उस मामले में तुम हमेशा राजी रह सकते हो, कि यह आदमी असंगत है। खुद
कहता है,
खुद
गलत सिद्ध कर देता है।
करना
ही पड़ेगा मुझे। क्योंकि जब मैं पतंजलि पर बोल रहा हूं, तो कैसे महावीर को सही कह
पाऊंगा?
और जब
महावीर पर बोल रहा हूं, तो
कैसे बुद्ध को सही कह पाऊंगा? और जब
बुद्ध पर बोलूंगा तो कैसे महावीर को सही कह पाऊंगा? और वे सब सही हैं।
सत्य
सभी वक्तव्यों से बड़ा है। सत्य के संबंध में जो भी कहा गया है सत्य उस सबसे बड़ा
है। मैं तुम्हें सत्य के बहुत पहलू दिखला रहा हूं। और मेरा कोई चुनाव नहीं है।
मेरा कोई पक्षपात नहीं है। इसलिए जिस पहलू को मैं दिखलाता हूं, मैं तुम्हें पूरे हृदय से
दिखलाता हूं। उस क्षण मैं चाहता हूं कि तुम और सब पहलू भूल जाओ, ताकि इस पहलू को तुम पूरा जी
लो और पूरा जान लो। इस पहलू से पूरे परिचित हो जाओ। उस क्षण वही पहलू तुम्हें मैं
पूरे सत्य की तरह प्रगट करता हूं। लेकिन वह भी एक पहलू है। और जब तुम मेरी सारी
चर्चाओं को सुन लोगे, समझ
लोगे, तो तुम अड़चन में पड़ जाओगे, कि क्या मानना? इसमें से क्या चुनना? अगर तुम समझदार हो, तो तुम चुनोगे नहीं। अगर तुम
समझदार हो,
तो तुम
समझ लोगे,
कि इस
सबके पार हो जाना है। ये सभी दृष्टियां हैं। और दर्शन दृष्टियों के पार है। ये सभी
देखने के ढंग हैं। जो देखा गया है, वह किसी ढंग से बंधा नहीं है।
सुबह
ही सुबह एक आदमी--दुकानदार--बगीचे में आ जाता है। वह फूलों को देखता है--उन्हीं
फूलों को,
जिनको
दूसरे देखते हैं। लेकिन वह तत्काल सोचता है, कि इतने गुलाब अगर बेचे जा सकें, तो कितने पैसे मिलेंगे! गुलाब
तत्क्षण रुपयों में बदल जाता है। गुलाब नहीं लगते पौधों पर, रुपए लग जाते हैं। वह रुपए
गिनने लगता है।
मैं
जबलपुर वर्षों रहा, तो
मैंने बगीचे में बहुत फूल लगा रखे थे। जिनका बंगला था वे व्यवसायी थे। कभी-कभी आते
थे, तो वे मुझसे कहते, ये फूल देखो, झाड़ों पर कुम्हलाए जा रहे हैं, झाड़ों पर ही सूख जाते हैं।
इनको अगर तोड़कर बिकवा दो, तो
हजारों रुपए साल की आमदनी हो सकती है।
मगर
मैं उनसे कहता,
कि
फूलों के बेचने की हिम्मत मेरी नहीं होती बेचना हो, तो दुनिया में और बहुत चीजें
हैं। कम से कम फूल को तो छोड़ो बेचने के लिए काफी हैं चीजें। एक फूल को छोड़ दो
बाजार के बाहर।
लेकिन
उनकी समझ में न आती बात। वे कहते, लाखों
रुपए ऐसे ही गंवा जाएंगे। ये सब फूल तोड़कर बिकवा देने चाहिए। आखिर ये कुम्हला तो
जाते ही हैं। सांझ को गिर ही जाते हैं। जब गिर ही जाना है तो सुबह बेच ही लेना
चाहिए। कम से कम रुपया तो हाथ में रहेगा।
दुकानदार
बगीचे में भी आता है तो दुकान के बाहर नहीं जा सकता। उसकी अपनी दृष्टि है।
फिर एक
कवि आता है बगीचे में, तो उसे
फूलों में रुपए दिखाई नहीं पड़ते। वह फूलों में कभी अपनी प्रेयसी की आंखें देख लेता
है, कभी प्रेयसी की कोमल त्वचा
देख लेता है। वह प्रेयसी के गीत गाने लगता है फूलों को देखकर।
और फिर
एक संत अगर फूलों के बगीचे में आ जाए तो उसे हर फूल में परमात्मा के हस्ताक्षर
दिखाई पड़ते हैं।
और वे
सभी सही हैं। दुकानदार भी बिलकुल गलत तो नहीं है। उसकी बात में भी इतनी सच्चाई तो
है ही। फूल के संबंध में वे सभी दृष्टियां हैं।
एक
वैज्ञानिक आ जाए,
वनस्पतिशास्त्री
हो, तो वह फूल में न तो सौंदर्य
देखेगा,
न
प्रेयसी देखेगा,
न
परमात्मा देखेगा,
न रुपए
देखेगा। उसे फूल में तत्क्षण दिखाई पड़ेंगे--रस, द्रव्य, खनिज, किन-किन से मिलकर बना है। वह फूल को तोड़कर
ले जाना चाहेगा प्रयोगशाला में। जांचना चाहेगा, तोड़ना चाहेगा, कि ये फूल किन-किन रसों से
बना है,
किन
द्रव्यों से बना है। वह भी गलत नहीं है।
अगर
ठीक से तुम देखो,
तो इस
संसार में कोई भी गलत नहीं है। और कोई भी पूरा सही नहीं है। सभी थोड़े-थोड़े सही
हैं। और जिसने भी जिद की कि मेरा थोड़ा सा सच पूरा सच है, बस वही भ्रांत है। जिसने यह
जान लिया,
कि
मेरा थोड़ा सा सच थोड़ा सच है, उसने
यह भी जान लिया,
कि
मेरे से विपरीत जो है, उसके
लिए भी सत्य में जगह है। मैं भी समा जाऊंगा, विपरीत भी समा जाएगा। सत्य में सभी
विरोधाभास समा जाते हैं। सत्य विराट है।
जिस
दिन तुम मेरी सारी बातें सुनते जाओगे, तो मेरी चेष्टा ही यही है, कि तुम किसी दृष्टि से न जकड़
जाओ। इसके पहले कि तुम जकड़ने लगते हो, मैं दूसरी दृष्टि की चर्चा शुरू कर देता
हूं। अगर तुम मेरे आयोजन का अर्थ समझो, तो इतना ही है कि मैं तुम्हें सभी दृष्टियों
से मुक्त कर देना चाहता हूं। मेरा कोई तत्वदर्शन नहीं है। मैं तुम्हें तत्वदर्शनों
से मुक्त कर रहा हूं।
और एक
दिन जिस दिन तुम्हें समझ आएगी, तुम
हंसोगे। उस दिन तुम कहोगे, सभी
ठीक है। और कोई भी ठीक नहीं है। उस दिन तुम कहोगे कि किसी को गलत कहने की कोई
जरूरत नहीं है। लेकिन किसी को सही होने का दावा करने का भी कोई कारण नहीं है। उस
दिन तुम शब्दों के पार उठोगे और शब्दातीत सत्य को समझ पाओगे।
तत्वदर्शन
मेरा कोई भी नहीं है। मैं सत्य का सीधा साक्षात चाहता हूं। तुम सीधे सत्य के
आमने-सामने खड़े हो जाओ। तुम्हारी आंख पर कोई भी पर्दा न रहे, कोई भी धुआं न रहे। किसी
विचारधारा का,
किसी
संप्रदाय का,
किसी
शास्त्र का तुम्हारी आंख पर कोई भी धुआं न हो, कोई भी रंग न हो। तुम्हारी आंख नग्न हो, शुद्ध हो, स्वच्छ हो, कुंआरी हो। बस, इतनी मेरी चेष्टा है।
तुम्हारी आंख के सारे जाले कट जाएं। किसी की आंख पर जैन का जाला है, किसी की आंख पर बौद्ध का जाला
है, किसी की आंख पर हिंदू का जाला
है, वे सब जाले कट जाएं। तुम्हारी
आंख निर्मल हो जाए।
मैं
तुम्हें दर्शनशास्त्र नहीं दे रहा हूं। मैं तुम्हें देखने की क्षमता दे रहा हूं।
मैं तुम्हें कोई चश्मा नहीं दे रहा, मैं तुम्हारी आंख को स्वस्थ करने की चेष्टा
कर रहा हूं। इसलिए तुम मेरे दर्शनशास्त्र के संबंध में किसी से कुछ भी न कह पाओगे।
कोई जरूरत भी नहीं है। व्यर्थ की बातों में पड़ने का कोई प्रयोजन भी नहीं हूं।
तुम तो
हंसना। मैं चाहूंगा, कि
जिन्हें मुझसे प्रेम है वे उनकी हंसी से जाने जाएं। तुम मुस्कुराना, तुम नाचना, तुम गीत गाना। मैं चाहता हूं
कि जो मुझसे जुड़े हैं, वे
उनके गीत और उनके नृत्य से पहचाने जाएं। मैं चाहता ही यह हूं कि जो मुझसे जुड़े हैं, वे पागलों की तरह जाने जाएं, समझदारों की तरह नहीं।
क्योंकि समझदारों ने दुनिया को इतनी नासमझी में डाल दिया है, कि अब उनकी और कोई भी जरूरत
नहीं है।
शास्त्र
काफी हो गए,
अब तुम
उनकी होली मना लो। शब्दों का बोझ काफी है, तुम उसे पटको और भाग खड़े होओ और लौटकर मत
देखना।
और
इसकी बिलकुल फिक्र न करना कि दूसरे क्या सोचते हैं। जिसने यह फिक्र की, कि दूसरे क्या सोचते हैं, वह कभी आनंदमग्न न हो पाएगा।
वह दूसरों से डरा ही रहेगा। और दूसरों का डर इस जगत में बड़े से बड़ा डर है। मृत्यु
के बार वही सबसे बड़ा डर है। दूसरों का डर--कोई क्या कहेगा!
हम
यहां किसी की अपेक्षाएं पूरा करने को नहीं है। कोई भी किसी की अपेक्षाएं पूरा करने
को नहीं है। दूसरों का कोई प्रयोजन नहीं है। तुम किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं हो।
अगर परमात्मा तुम्हें किसी दिन मिलेगा तो वह यह न पूछेगा, कि दूसरे तुम्हारे संबंध में
क्या सोचते हैं?
वह
तुमसे पूछेगा,
कि तुम
अपने संबंध में क्या सोचते हो?
एक
यहूदी फकीर मर रहा था, उसका
नाम था झुसिया। मरते वक्त लोग इकट्ठे हो गए थे। गांव का जो पंडित था, जो रबी था, वह भी आ गया था। उस रबी ने
झुसिया को कहा,
"झुसिया, मोजेज के साथ अपनी सुलह कर ली?' --मोजेज--यहूदियों का पैगंबर, तीर्थंकर--उसके साथ सुलह कर
ली?
झुसिया
ने आंखें खोलीं और उसने कहा कि परमात्मा मुझसे यह न पूछेगा कि झुसिया, तू मोजेज क्यों न हुआ? वह मुझसे यही पूछेगा, कि ऐ झुसिया! तू झुसिया हो
सका कि नहीं?
मोजेज
से मेरा क्या लेना-देना! मोजेज का होना मोजेज और परमात्मा के बीच; मेरा होना मेरे और परमात्मा
के बीच। मैं मोजेज के प्रति उत्तरदायी नहीं हूं। परमात्मा मेरी तरफ देखेगा और
पूछेगा,
झुसिया
तू, झुसिया हो सका या नहीं?
यहां
प्रत्येक व्यक्ति स्वयं होने को है। तुम स्वयं होने का फिक्र करो। दूसरे क्या
सोचते हैं,
इसकी
चिंता छोड़ो। अगर तुमने उनकी चिंता रखी तो वे तुम्हें कभी मुक्त न होने देंगे। इस
जगत में सबसे बड़ी गुलामी है, वह है, दूसरों के विचारों की
गुलामी-कौन क्या सोचता है! और कई बार ऐसा होता है जिससे तुम डरे हो, वे तुमसे डरे हैं।
बहुत
अदभुत दुनिया है। तुम अपने पड़ोसियों से डरे हो, तुम्हारे पड़ोसी तुमसे डरे हैं। क्योंकि तुम
उनके पड़ोसी हो। वे तुमसे भयभीत हैं, कि ये क्या सोचेंगे। तुम उनसे भयभीत हो, कि वे क्या सोचेंगे।
दूसरे
के भय के कारण मत जीना। अपने आनंद से जीना। और तुम पाओगे कि आनंद इस जगत में इतनी
अनूठी घटना है,
कि आज
नहीं कल पड़ोसी उससे राजी हो जाते हैं। निश्चित ही पहले वे विरोध करेंगे। क्योंकि
कोई भी यह मान नहीं सकता, कि
उसके पहले तुम कैसे आनंदित हो गए? कोई भी
तुम्हें प्रतियोगिता में इतने आगे स्वीकार नहीं कर सकता।
फिर वे
तुम्हारी उपेक्षा करेंगे। अगर तुम्हारे विरोध से तुम्हारे आनंद को खंडित न कर पाए
तो फिर वे तुम्हारी उपेक्षा करेंगे, कि होगा। जैसे कुछ हुआ ही नहीं, टालो। अगर तुम उनकी उपेक्षा
से भी न मरे और उनकी उपेक्षा के पार भी जीते रहे, तो एक दिन वे ही तुम्हारी
पूजा करेंगे।
तीन
ढंग अख्तियार करते हैं पड़ोसी। पहले विरोध, फिर उपेक्षा, फिर पूजा। या तो वे पहले ही
हमले में तुम्हें मिटा देते हैं, जब
विरोध करते हैं। अगर उसमें न मिटा पाएं, तो दूसरे हमले में मिटा देते हैं। क्योंकि
विरोध से भी ज्यादा जहरीली बात उपेक्षा है। विरोध भी नहीं मारता है इतना, क्योंकि विरोधी भी तो कम से कम
रस तो लेता है। स्वीकार तो करता है, कि कुछ हुआ है तुम्हें। कुछ गड़बड़ी हो गई है
माना, लेकिन कुछ हुआ है। कुछ गलत
रास्ते पर चले गए,
लेकिन
कहीं गए हो। तुम पर ध्यान तो देता है। लेकिन उपेक्षा वाला ध्यान भी नहीं देता। वह
ऐसे गुजर जाना चाहता है जैसे तुम हो ही नहीं; जैसे तुम्हारे जीवन में कोई घटना ही नहीं
घटी। अगर तुम उपेक्षा से भी बच गए, तो यही व्यक्ति तुम्हारी पूजा करेंगे।
यह सदा
की कथा है। यही बुद्ध के साथ होता है, यही महावीर के साथ होता है, यही कबीर के साथ होता है, यही दादू के साथ होता है।
दूसरा प्रश्न: जीवन प्रतिपल बीत रहा है, ऐसा लगता है। सदगुरु भी मिल
गए,
फिर भी
अगला कदम अस्पष्ट क्यों है?
अगला
कदम है ही नहीं। अगले कदम की सोच क्यों रहे हो?
अगले
कदम की सोचने का अर्थ है, कि यह
कदम आनंदपूर्ण नहीं है, अगला
चाहिए। यह क्षण काफी नहीं है, अगला
चाहिए। आज पर्याप्त नहीं है, कल
चाहिए। वर्तमान में कहीं पीड़ा है, भविष्य
चाहिए।
अगला
कदम दुखी आदमी के मन की चिंतना है। सुखी आदमी के लिए यही कदम आखिरी कदम है। सुखी
आदमी के लिए मार्ग ही मंजिल है। अगर तुम प्रसन्न हो मेरे साथ, बात बंद कर दो अगले कदम की।
अगला कदम होता ही नहीं। अगला कदम रुग्ण चित्त की दशा से पैदा होता है। जब तुम आज
सुखी नहीं हो,
तब तुम
कल का विचार करते हो। आज के दुख को भुलाने के लिए कल का विचार करते हो, कल की आशा बांधते हो, कल का सपना संजोते हो, कल में तल्लीन हो जाते हो, ताकि आज का दुख भूल जाए।
ऐसे ही
तो तुमने जन्म-जन्म गंवाए हैं अगले कदम के पीछे। अब तुम कृपा करो। अब तुम अगले कदम
की बात मत उठाओ। यह कदम काफी नहीं है? यह क्षण पर्याप्त नहीं है? कमी क्या है? इस क्षण क्या है कमी? सब पूरा है। बस, इस क्षण की मौज में उतर जाने
की जरूरत है।
तो मैं
तुमसे कहता हूं,
एक ही
कदम है। और वह यही कदम है। दूसरा कोई कदम नहीं है। दूसरे की बात ही मन का जाल है।
मन या
तो सोचता है अतीत की, जो जा
चुका; या सोचता है भविष्य की, जो आया नहीं। मन कभी यहां और
अभी नहीं होता। और यही अस्तित्व है--अभी और यहां। जो बीत गया, वह जा चुका। जो आया नहीं, आया नहीं। यह छोटा सा संधि का
क्षण है,
संध्या
का काल है,
जहां
अतीत और वर्तमान मिलते हैं, जहां
वर्तमान और भविष्य मिलते हैं। इस बीच के मिलन-बिंदु पर ही अस्तित्व है। यहीं से
तुम अगर डूब सको,
तो डूब
जाओ। द्वार खुला है परमात्मा का। लेकिन अगर तुमने भविष्य की बात की, तुम चूक गए। फिर चूक गए।
तुम
कहते हो,
"जीवन
पल-पल बीत रहा है।' नहीं
तुमने सुन लिया होगा किसी को कहते हुए। अगर सच में तुम्हें ही लग गया है कि जीवन
पल-पल बीत रहा है,
तुम
फिर पलों का उपयोग करना शुरू कर दोगे। तुम फिर इस पल को पूरा का पूरा आत्मसात कर
लेना चाहोगे। तुम इस पल को इस तरह निचोड़ लेना चाहोगे, इस तरह जी लेना चाहोगे, जैसे कोई आम को चूस लेता है, फिर गुठली को फेंक देता है।
फिर तुम फिक्र करते हो गुठली की, कहां
गई?
अतीत
की तुम्हें याद आती है क्योंकि तुम आम ठीक से चूस नहीं पाए। गुठली में रस लगा रह
गया। अन्यथा कोई याद करता अतीत की! कल जा चुका है। अगर तुमने जी लिया था तो बात
खतम हो गई। लेकिन वह तुमने जीया नहीं। जब वह चल रहा था, तब तुम आज की सोच रहे थे। और
जब आज आ गया,
तो वह
जो कल बीत गया,
जो अब
हाथ में नहीं है,
जिसके
संबंध में अब कुछ भी नहीं किया जा सकता, अब तुम उसकी सोच रहे हो। तुम्हारी मूढ़ता की
कोई सीमा है!
संसार
में दो ही चीजें अनंत हैं, एक
परमात्मा और एक मूढ़ता। उनका कोई अंत नहीं आता मालूम पड़ता। जो भूल तुमने कल की थी, वही तुम आज कर रहे हो। फिर कल
जब "आज'
आ
जाएगा,
जब आने
वाला कल आज बन जाएगा तब तुम फिर पछताओगे। क्योंकि फिर गुठली में रस लगा रह गया।
ऐसे कब तक चूकते चले जाओगे आज ही है, जो कुछ है।
जीसस
ने अपने शिष्यों को कहा है, एक
जंगल के मार्ग में गुजरते हुए, कि
देखो लिली के फूलों को। ये कल की चिंता नहीं करते। इनका सौंदर्य कैसा अपरंपार है!
सोलोमन सम्राट भी अपनी महामहिम अवस्था में इतना सुंदर न था।
तुम भी
कल की चिंता मत करो। कल कल की फिक्र कर लेगा। तुम लिली के फूलों की भांति इसी क्षण
जी लो। और मैं तुमसे कहता हूं, जीने
के लिए और कोई योग्यता नहीं चाहिए। सिर्फ इतनी ही योग्यता चाहिए; कि तुम इसी क्षण में डूबने की
क्षमता जुटा लो,
बस!
यही ध्यान है,
यही
पूजा है। इसी को दादू कहते हैं--"सुख-सुरति सहजे सहजे आव।' इस क्षण में ही डूब जाना सहज
स्मरण है।
अगर
तुम इस क्षण में ठीक से डूब जाओ, तो तुम
इतने सिक्त हो जाओगे आनंद से, कि
परमात्मा के लिए धन्यवाद का स्वर अपने आप उठने लगेगा। वही प्रार्थना है। प्रार्थना
के लिए कोई मंदिर की जरूरत थोड़ी है। उसके लिए क्षण में प्रवेश पाने की जरूरत है।
उसके भीतर समय की धारा में डुबकी लगाने की जरूरत है। वहीं से उठता है अहोभाव और तब
तुम्हारे सारे जीवन के दिग-दिगंत को घेर लेता है।
नहीं, तुम यह पूछो ही मत, कि अगला कदम क्या है? अगला कदम है ही नहीं। एक ही
कदम है। अभी उठाओ यही कदम कल भी उठाओगे, यही कदम परसों भी उठाओगे। कल की राह मत
देखो। आज ही दिल खोलकर उठा लो। अगर आज का कदम ठीक उठ गया, तो इसी कदम से कल का कदम भी
निकलेगा। और कहां से आएगा?
तुमसे
ही तुम्हारा भविष्य निकलता है। जैसे बीज से वृक्ष निकलता है, ऐसे तुमसे तुम्हारा भविष्य
निकलता है। अगर इस क्षण में तुम आनंदित हो, तो आने वाला कल भी आनंदित होगा। फिक्र छोड़ो
उसकी। उसकी बात ही मत उठाओ। उसकी बात क्या करनी! उसकी बात में भी समय मत गंवाओ।
क्योंकि उतना समय गंवाया, उतना
ही आम अनचूसा रह जाएगा। फिर कल तुम पछताओगे।
पीते
हो जल,
पूरा
पी लो। भोजन करते हो, पूरा
कर लो। सोते हो,
दिल
खोलकर सो लो। सुनते हो, मनभर
के सुन लो। क्षण से यहां-वहां मत डांवाडोल होओ। घड़ी के पेंडुलम मत बनो। रुको। उस
रुकने का नाम ही ध्यान है।
क्या
कमी है इस क्षण में, मैं
पूछता हूं?
पक्षी
गीत गा रहे हैं,
तुम
नहीं गा पाते। क्योंकि पक्षियों को अगले कदम की चिंता नहीं है। फूल खिल रहे हैं, तुम नहीं खिल पाते। क्योंकि
फूलों को अगले कदम की चिंता नहीं है। आदमी को छोड़कर सब प्रसन्न मालूम पड़ता है।
आदमी विषाद में है। अगला कदम जान ले रहा है।
भविष्य
से मुक्त जो हो जाए, वही
संसार से मुक्त हो जाता है। वर्तमान में है, संन्यास; भविष्य में है संसार।
तो मैं
तुमसे नहीं कहता,
घर
द्वार छोड़कर भाग जाओ। मैं तुमसे कहता हूं, घर-द्वार में। यह छोड़कर भागने की बात ही फिर
भविष्य को बीच में ले आना है। तुम जहां हो--घर में हो, द्वार में हो, बाजार में हो--वहीं तुम उस
क्षण को पूरा जीना सीख जाओ। तुम तत्क्षण पाओगे घर भी गया, द्वार भी गया, संसार दूर रह गया, तुम परमात्मा में उतर गए।
संन्यास, संसार से भागना नहीं
है--संन्यास,
संसार
में परमात्मा को खोज लेना है।
तुम
समय की धार पर ऐसे ही बहते रहते हो, डुबकी नहीं लेते। और फिर धीरे-धीरे यह बहने
की आदत मजबूत हो जाती है। फिर तुम कभी भी डुबकी न ले पाओगे। फिर तुम हमेशा कल पर
टालते रहोगे। और एक दिन कल आएगा और मौत लाएगा; और कुछ भी न लाएगा। मौत से आदमी इसीलिए इतना
डरता है। मौत के डरने का और कोई कारण नहीं है।
पहली
तो बात,
मौत को
तुम जानते नहीं,
डरोगे
कैसे? डर उससे पैदा होता है जिसका
कोई अनुभव हो। मौत से तुम्हारा कोई अनुभव नहीं है। याद भी नहीं है, कभी अनुभव हुआ हो। हुआ भी हो, तो भी स्मृति नहीं है, तुम डरोगे कैसे? और कौन कह सकता है निर्णीत
रूप से कि मौत के बाद जीवन इससे बेहतर न होगा? कोई भी लौटकर तो खबर देता नहीं, कि जीवन मौत के बाद बुरा हो
जाता है। भय का कोई कारण नहीं है।
लेकिन
कारण कहीं दूसरा है। और वह दूसरा यह है, कि तुम कल पर स्थगित करके जीने की आदत बना
लिए हो। मौत कल को मिटा देगी। जिस दिन मौत आती है, उसके बाद फिर कोई कल नहीं है।
और तुम पूरे जीवन कल पर ही आधार बनाकर जीए हो। तुम्हारा जीवन सदा एक पोस्टपोनमेंट
था। और मौत सब पोस्टपोनमेंट तोड़ देती है। मौत कहती है, आ गई। और मौत हमेशा आज आती है, कल नहीं। मौत जब आएगी तब इस
क्षण में आएगी। फिर उसके बाद एक क्षण भी नहीं रहेगा। मौत एक ही कदम उठाती है, दो नहीं उठाती। उसका कोई अगला
कदम नहीं है।
और जो
मौत के संबंध में सही है, वही
जीवन के संबंध में सही है। जीवन भी एक ही कदम उठाता है--यही क्षण। तुम अगर टालते
रहे कल पर,
तो तुम
मौत से डरोगे क्योंकि मौत कहती है, अब कोई कल नहीं है। और तुम जिंदगीभर टालते
आए। तुम जीए ही नहीं। तुमने हमेशा सोचा, कल जीएंगे।
बंद
करो यह आदत। यह आदत ही संसार है। यह क्षण सब कुछ है। इस क्षण में सारी शाश्वतता
है। इस कदम में ही छिपी है मंजिल।
और अगर
तुम इसे समझ लो,
तो तुम
जिसे खोजने जा रहे हो, तुम
उसे अपने भीतर पा लोगे। खोजने वाले में ही छिपा है गंतव्य। फिर वह मिलता उसे है, जो अतीत और भविष्य की बात
छोड़कर क्षण में खड़ा हो जाता है। क्योंकि फिर अपने को देखने के सिवाय कोई उपाय नहीं
रहता। न तो भविष्य है सोचने को, न अतीत
है सोचने को। न कोई स्मृति है अतीत की, न कोई कल्पना है भविष्य की। तब तुम अपना
साक्षात्कार करते हो। वह आत्मसाक्षात्कार ही मुक्ति है।
एक ही
कदम है। मत पूछो,
कि
अगला कदम स्पष्ट क्यों नहीं है? है ही
नहीं। स्पष्ट होगा कैसे?
तीसरा प्रश्न: जिस शोले को आपने मेरे भीतर से कुरेदकर जला दिया, क्या वह संसार में वापिस जाने
पर फिर राख से नहीं ढंग जाएगा?
संसार
नहीं ढांकता है। अगर संसार ढांकता होता है, तब तो फिर कोई भी व्यक्ति संसार में ज्ञान
को कभी उपलब्ध न हो सकता था। मैं भी तुम्हारे बीच बैठा हूं, किसी हिमालय पर नहीं भाग गया
हूं।
नहीं, संसार नहीं ढांकता है, ढांकती है मूर्च्छा।
तो अगर
तुम्हें ऐसा लग रहा है कि वापिस लौटकर कहीं संसार ढांक तो न लेगा मेरी आग को; अंगारा कहीं छिप तो न जाएगा
राख में--तब तुम ठीक से समझ लो, अंगारा
जला ही नहीं है। जैसे अंगारा अपनी ही राख से ढांकता है, किसी और की राख नहीं
ढांकती--ऐसे ही तुम्हारी चेतना भी अपनी ही मूर्च्छा से ढंकती है, किसी और की मूर्च्छा तुम्हें
नहीं ढांकती लेकिन आदमी का मन सदा दूसरे पर जिम्मेदारी फेंकना चाहता है।
अब
तुम्हारी बेहोशी होगी तो भी संसार जिम्मेदार है। तुम्हारे तथाकथित साधु-महात्मा
संसार को गाली दिए चले जाते हैं; जैसे
संसार की कोई जिम्मेदारी है उनको भ्रष्ट करने में। कौन किसको भ्रष्ट करेगा? तुम भ्रष्ट होना चाहते हो, तो संसार आयोजन जुटा देता है।
तुम मुक्त होना चाहते हो, तो
संसार आयोजन जुटा देता है।
संसार
तो सिर्फ आयोजन है; उपयोग
तुम पर निर्भर है।
अगर
मेरी बातों से तुम्हारे भीतर की आग तुम्हें जलती हुई लग रही है, तो गलती हो रही है कहीं।
तुम्हारे ध्यान से जलती हुई होनी चाहिए मेरी बातों से नहीं। मेरी बातें तुम्हें
ध्यान पर ले जा सकती हैं। ध्यान से तुम्हारे भीतर का अंगारा जलेगा। लेकिन अगर
तुमने समझा कि मेरी बातों से तुम्हारे भीतर की आग जल रही है, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे।
किसी और की बातों से राख पड़ जाएगी। तब तुम मुझ पर निर्भर हो। मुझ पर निर्भर होने
का मतलब है,
तुम्हारी
निर्भरता तुमसे बाहर है। तब तो फिर संसार तुम पर राख जुटा देगा। तुम बुनियाद में
ही भूल कर गए।
मेरी
बातों से तुम्हारे भीतर की आग नहीं जलेगी। हां, मेरी बातों से तुम ध्यान को समझ लो। ध्यान
से जलने दो तुम्हारी आग को; फिर
तुम्हारी आग को कोई भी न बुझा सकेगा। तब तुम्हें आग को बुझाना हो तो ध्यान छोड़ना
पड़ेगा।
लेकिन
यह मेरा अनुभव है,
जिसने
एक बार ध्यान का रस जान लिया, उसने
कभी छोड़ा नहीं। रस को कोई कभी छोड़ता है? और जो छोड़ दे, समझना कि उसने रस नहीं जाना
है।
मेरे
पास लोग आ जाते हैं। भारत में तो लाखों लोग कभी न कभी ध्यान करते ही हैं। जिंदगी
में ऐसा मौका कम ही आता है, कम ही
लोग होंगे,
जिनको
कभी न कभी ध्यान की धुन न चढ़ी हो। आते हैं, वे कहते हैं, कि पंद्रह साल पहले ध्यान
करता था,
फिर-फिर
छूट गया। मैं उनसे पूछता हूं आनंद आ रहा था? वे कहते हैं, बड़ा आनंद आ रहा था। झूठ की भी
कोई सीमा है! आनंद कभी छूटता है? तो मैं
उनसे पूछता हूं,
छूट
कैसे गया?
वे
कहते हैं,
कि
घर-गृहस्थी,
काम-धाम।
मैं पूछता हूं,
घर-गृहस्थी
और काम-धाम में ज्यादा आनंद आ रहा है? वे कहते हैं, "आनंद कहां, महाराज! दुख ही दुख है।
बड़ी
आश्चर्य की बात है, कौन सा
गणित चल रहा है?
दुख के
कारण आनंद छूट गया है इनका। दुख के लिए आनंद छोड़ दिया, इनसे बड़े त्यागी तुम खोज सकते
हो कहीं?
इनको
आनंद कभी मिला नहीं। यह झूठ है। और हो सकता है इन्हें पता भी नहीं हो, कि ये झूठ बोल रहे हैं। झूठ
कभी-कभी इतना गहरा हो जाता है व्यक्तित्व में, कि सत्य जैसा मालूम पड़ता है। इनको पता भी न
हो, कि ये झूठ बोल रहे हैं। ये
सिर्फ एक सामाजिक धारणा बोल रहे हैं। ध्यान से आनंद मिलना चाहिए, सो इन्होंने ध्यान किया था; आनंद मिला होगा। और कैसे कहो, ऋषि-मुनियों के वचन गलत हैं, कि ध्यान से आनंद नहीं मिला।
यह तो निश्चित सिद्धांत है, कि
ध्यान से आनंद मिलता है। इसलिए उसमें तो शक-शुबा नहीं उठाते हैं।
इन्हें
ध्यान से आनंद मिला ही नहीं। इस जगत में आनंद जिसको मिल जाए जिस चीज से, वह छूटती ही नहीं। शराब नहीं
छूटती आदमी से,
अगर
उसे आनंद मिलने लगे। सारे चिकित्सक चिल्लाए जाते हैं, कि मरोगे, बीमार हो रहे हो, रुग्ण हो रहे हो। वह कहता है, सब ठीक है।
मुल्ला
नसरुद्दीन पीता है। अस्सी साल की उम्र, कान बहरे हुए जाते हैं, कुछ सुनाई नहीं पड़ता। डाक्टर
ने उससे कहा,
कि बड़े
मियां,
अब बंद
करो। अन्यथा बिलकुल कान से कुछ भी सुनाई न पड़ेगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने क्या कहा पता है? उसने
कहा, डाक्टर साहब, अस्सी साल का हो जाने के बाद
अब सुनने को बाकी भी क्या रह गया!
जीवन
खोता है आदमी,
लेकिन
शराब नहीं छोड़ता;
और
आनंद छोड़ देता है। ध्यान छोड़ देता है।
ऐसे
ऐसे नासमझ मेरे पास आते हैं, वे
कहते हैं,
समाधि
तक लग चुकी;
फिर
छूट गई। चमत्कारी पुरुष हैं ये। समाधि किसी की लगी और छूटी? तो फिर ऐसा कि मोक्ष पहुंच गए
लेकिन लौट जाए;
क्या
करें! संसार का दुख बुलाता रहा।
अपने
ध्यान पर ही भरोसा रखना, मेरे
वचनों पर नहीं। मेरे वचन का इतना ही उपयोग कर लेना, कि वे तुम्हें ध्यान में
लगाएं। लेकिन वहां भी मन बड़े धोखे देता है। मेरी बात सुनकर अच्छी लगती है। इससे
जरूरी नहीं है कि वह अच्छा लगना बहुत देर टिकेगा। वह तो तुम मुझे सुनते रहोगे, तो अच्छा लगता रहेगा।
वह तो
ऐसे ही है,
जैसे
की कोई वीणा बजा रहा है; अच्छा
लगता है। मगर वीणा बजाने से कहीं कुछ होने वाला है! घड़ी टल जाएगी मनोरंजन में, सुखपूर्वक, घर पहुंचकर तुम वही के वही हो
जाओगे। तो वीणा बजाने से कोई जीवन का संगीत थोड़ी ही पैदा हो जाएगा।
मैं
तुमसे बोल रहा हूं, एक
वीणा बजाता हूं,
एक गीत
गा रहा हूं,
वह
तुम्हें अच्छा लगता है। उसको सुनते सुनते तुम संसार की चिंता भूल जाते हो। थोड़ी
देर को बाजार विस्मृत हो जाता है। दुकानदारी, घर-गृहस्थी की उपद्रव है, वह भूल जाते हो। घड़ीभर को तुम
मेरी बातों में लीन हो जाते हो और तुम्हें लगता है, एक अलग लोक का प्रारंभ हुआ।
लेकिन
तुम फिर घर लौटोगे। मैं कोई चौबीस घंटे तुम्हें बात न करता रहूंगा। और अगर चौबीस
घंटे बात करता रहूं, तो वह
बात भी रसपूर्ण न रह जाएगी। तुम उससे भी ऊबने लगोगे। तुम उसके भी आदी हो जाओगे।
ऐसा
हुआ; एक यहूदी कथा है, कि वारसा में एक यहूदी रबी
था। बड़ा सरल हृदय था और इसलिए बड़ी मुसीबत में था। काफी यहूदियों की संख्या थी, बड़े उपद्रव थे और उनको हल
करना, और सुलझाना और संगठन और मंदिर
में पूजा और सबके लिए रुपया इकट्ठा करना, और मकान बनवाना, सब उपद्रव थे। वह बहुत परेशान
था। सो न सके,
काम ही
काम, चिंता ही चिंता--फिर उसे
हार्ट-अटैक हुआ,
तो
उसके डाक्टर ने कहा कि आप इतनी चिंता में पड़े हैं यहां। मैंने सुना है, कि एक दूसरे नगर में पोलैंड
में जगह खाली हुई है रबी की। छोटी जगह है, शांत एकांत स्थान है, आप वहां चले जाएं। यह उपद्रव
यहां का छोड़े। यह राजनीति, यह
चक्कर,
यह
सारा ज्यादा हो रहा है आपके सिर पर। आप सीधे-साधे आदमी हैं, आप वहां चले जाएं।
उस रबी
ने कहा,
तो
सुनो। मैं बहुत परेशान था, जब मैं
विद्यार्थी था और अपने गुरु के पास पढ़ता था, कि भगवान ने सात नर्क क्यों बनाए? एक से काम न चला? तो मैंने अपने गुरु से पूछा, कि भगवान ने सात नर्क क्यों
बनाए? तो मेरे गुरु ने कहा, कि ऐसा है, भगवान बहुत न्यायपूर्ण है।
कोई पाप करता है,
उसको
पहले नरक में डालता है। लेकिन महीने दो महीनों में वह उस नरक का आदी हो जाता है, फिर उसे तकलीफ ही नहीं होती
वहां, तो उसको फिर दूसरे नर्क में
डालता है। फिर नई जगह दो चार महीने तकलीफ पाता है, तब तक वह फिर आदी हो जाता है, फिर उसको तीसरे नर्क में
डालता है।
उस
डाक्टर ने कहा,
मैं
समझा नहीं कि यह बात आप मुझसे क्यों कह रहे हैं?
तो
उसने कहा,
कि
इससे क्या फर्क पड़ता है? इस
नर्क का--वारसा के नर्क का तो मैं आदी हो गया; अब तुम और पोलैंड के नर्क में मुझे भेज रहे
हो। इन दुष्टों से तो किसी तरह संबंध बन गया है, किसी तरह नाव चल रही है। जिंदा
तो हूं! माना कि हार्ट-अटैक हुआ है, मगर अब इस बुढ़ापे में इस कमजोर हालत को लेकर
नए नर्क में जाना! यही वहां दुहराया जाएगा। क्योंकि जहां आदमी है, वहां आदमी के उपद्रव हैं, वहां आदमी की राजनीति है।
अगर
मैं चौबीस घंटे,
तुमसे
बोलता रहूं,
तो तुम
उसके भी आदी हो जाओगे। शायद उससे तुम्हें नींद आने लगे। मोनोटोनस हो जाएगा, एकरस हो जाएगा। नहीं, उससे भी कोई हल नहीं होगा। और
तुम थोड़े ही उससे जागोगे। संभव है, तुम सो जाओ। मेरे बोलने पर इतना ज्यादा
भरोसा मत करना। मेरे बोलने का उपयोग करना, लेकिन मेरे बोलने को सब कुछ मत समझ लेना।
मेरे
पास बहुत लोग आते हैं। वे कहते हैं, आपको सुनकर ही काफी आनंद आता है, ध्यान वगैरह क्या करना! मुझे
सुनकर जो आनंद आता है वह मुझ पर निर्भर है, तुम पर निर्भर नहीं है। तुम्हें उसमें कुछ
भी नहीं करना पड़ रहा है, तुम
सिर्फ बैठे हो,
निष्क्रिय
हो। ध्यान में तुम्हें करना पड़ेगा। प्रमाद गहन है। उतना भी करने की आकांक्षा नहीं
है। तुम चाहते हो,
मैं
बोलता रहूं,
तुम
सुनते रहो,
लेकिन
उससे क्या हल होगा? उससे
कोई हल नहीं हो सकता।
ध्यान
रखो, अगर मेरे बोलने से तुम्हें
लगता है अग्नि जल गई, तो
झूठी अग्नि है। बोलने से कहीं सच्ची अग्नि जलती है! हां, बोलने से तो सिर्फ आयोजन का
पता चलता है कि मैं तुम्हें बता देता हूं, कि देखो ये चकमक पत्थर हैं, इनको रगड़ने से अग्नि जलती है।
तुम मेरे शब्दों की मत रगड़ना। उनसे नहीं जलेगी। बोलना तो फार्मूले की तरह है। जैसे
कि, कोई कह देता है, "एच टू ओ' से पानी बनता है। अब तुम एच
टू ओ को कागज पर लिखकर मत गटक जाना। उससे प्यास न बुझेगी।
मुल्ला
नसरुद्दीन अपने बेटे की परीक्षा ले रहा था। उसने कई सवाल पूछे, कोई सवाल का जवाब न आया। फिर
उसे अखीर में पूछा, अच्छा, अब मैं तुझ से आखिरी और रसायन
शास्त्र का सवाल पूछता है, "एच एन ओ थ्री' का
क्या मतलब होता है? वह
लड़का सिर खुजलाने लगा। उसने कहा, कि
बिलकुल पापा जबान पर रखा है। नसरुद्दीन ने कहा, कि नालायक! थूंक, जल्दी थूंक। नाइट्रिक एसिड है, मर जाएगा।
कोई
फार्मूले से थोड़ी मर जाता है! न कोई जीता है। मेरी बातों से आग को जला हुआ मत समझ
लेना। वह केवल बुद्धि में जलेगी, हृदय
में नहीं। वह केवल शब्दों की होगी। वह कितने दूर ले जाएगी। शब्दों की नाव से उस
पार जाने का सोचते हो? शब्दों
की नाव तो कागज की नाव है। कितनी ही नाव जैसी लगती हो, नाव नहीं है।
हां, कागज की नाव को देखकर तुम असली
नाव बना लेना। उससे यात्रा करना। कागज की नाव तो माडल है। उसको अगर तुम समझो, तो उसको देखकर तुम असली नाव
बना सकते हो। वह असली नाव तो ध्यान की होगी।
शब्द
तो इशारे हैं। असली नाव ध्यान की है। और उससे जो आग जलेगी, फिर उसे कोई संसार नहीं बुझा
सकता है।
चौथा प्रश्न: आपने कहा कि थोड़ी भी प्यास जगी हो और थोड़ा सा भी साहस
हो तो प्रभु को समर्पण कर दो। लेकिन भय से किया गया समर्पण निर्भयता को कैसे
उपलब्ध होगा?
पहली
तो बात,
समर्पण
ही जब कर दिया तो क्या उपलब्ध होगा, क्या न होगा यह हिसाब तुम क्यों रखोगे? यह भी उसी पर छोड़ दो। हिसाब
तुम रखोगे तो समर्पण हुआ ही नहीं।
और
समर्पण तो तुम जब भी करोगे, वह
अधूरे आदमी से ही निकलेगा। उसमें कुछ कमी तो रहेगी। क्योंकि अगर तुम पूरे ही आदमी
होते, तो समर्पण की जरूरत ही क्या
थी। तुम अधूरे हो,
कमियां
हैं, भय है, चिंता है, विषाद है, वासना है, सब है। इन सबके रहते ही यह
करोगे। तुम कोई परमात्मा से यह थोड़े ही कह रहे हो, कि मुझे स्वीकार करो। देखो, मैं बिलकुल निर्वासना से भर
गया; कि देखो मेरे भीतर अब कोई
तृष्णा नहीं है,
कि
देखो मेरे भीतर कोई भय न रहा, मैं
अभय को उपलब्ध हो गया!
नहीं, समर्पण करने वाला तो कहता है, कि देखो मेरे भीतर सारे संसार
की वासना है। देखो, मैं
मोह से भरा हूं,
लोभ से
भरा हूं,
पात्रता
मेरी कुछ भी नहीं है। तुम मुझे न स्वीकार करोगे, तो मैं शिकायत न करूंगा।
क्योंकि स्वाभाविक है, कि
मेरी पात्रता ही नहीं है। तुम मुझे स्वीकार कर लोगे, तो वह प्रसाद है। वह मेरी
पात्रता ही नहीं है। मेरी योग्यता नहीं है, मेरा दावा नहीं है। भय है, और यह समर्पण आधा-आधा है।
इसमें भी पूरा मेरा हृदय नहीं है। करना भी चाहता हूं, नहीं भी करना चाहता। यह मेरी
दशा है। इस मेरी रुग्ण चित्त-दशा को तुम स्वीकार करो।
समर्पण
कोई योग्यता का दावा थोड़ी है! समर्पण तो अपनी सहजता का--जैसे भी तुम हो, बुरे-भले, शुभ-अशुभ, वैसे के वैसे तुम प्रभु के
चरणों में अपने को रख देते हो। समर्पण का अर्थ है, कि मैंने तो अपने को बदलने की
सब चेष्टा कर ली,
कुछ
होता नहीं। सब उपाय देख लिए, निरुपाय
पाता हूं। सब तरफ से छलांग लगाई, कहीं
से भी कहीं पहुंचता नहीं। सब तरफ असफल हो गया हूं।
समर्पण
का अर्थ तो है,
निरुपाय, बेसहारा, असहाय अवस्था की स्थिति। तब
तुम कोई पात्रता का दावा थोड़े ही कर रहे हो! प्रभु स्वीकार कर लेगा तो तुम
धन्यभागी होओगे। अस्वीकार कर देगा तो तुम जानोगे, कि बिलकुल स्वाभाविक है। मैं
योग्य ही नहीं हूं, स्वीकार
करने की कोई जरूरत नहीं है।
और अगर
सोचते हो,
पहले
अपने को पूर्ण कर लेंगे फिर समर्पण करेंगे, तो फिर समर्पण की जरूरत क्या है? फिर तो तुम बिना उसके ही, पूर्ण हो गए। समर्पण का अर्थ
ही तुम नहीं समझ पा रहे हो। समर्पण का अर्थ, कि जैसा मैं हूं, वैसा का वैसा तेरे चरणों में
रखता हूं,
बिना
किसी दावे के।
और अगर
तुम पूरा का पूरा अपने को पूरा उघाड़ कर, नग्न, निर्वस्त्र होकर, कुछ भी न छिपाते हुए सारी दशा
को उघाड़कर रख दिए,
तो तुम
स्वीकृत हो जाते हो। क्योंकि स्वीकार का अर्थ केवल इतना ही होता है, जिसने अपना उपाय छोड़ दिया और
परमात्मा के हाथों में पूरी बागडोर सौंप दी।
रामकृष्ण
कहते थे,
नाव दो
ढंग से चल सकती है। एक तो पतवार से और एक पाल से। नासमझ पतवार से चलाते हैं, समझदार पाल से। समझदार तो पाल
को खोल देता है,
बैठ
जाता है। हवा ले चलती है। नासमझ को पतवार चलानी पड़ती है। नाहक मेहनत करनी पड़ती है।
परमात्मा
भी दो तरह से पाया जाता है, संकल्प
से और समर्पण से। संकल्प से पाना पतवार चलाना है। और नदी तो पार भी हो जाए, यह भवसागर का बड़ा विस्तार है।
इसमें पतवार चला चलाकर पार होना बड़ी मुश्किल है। इसमें डूबने की संभावना ज्यादा है, उबरने की संभावना कम है।
इसमें पहुंचने का उपाय कम है, समाप्त
हो जाने की संभावना ज्यादा है।
पाल
से--तुम पाल खोल देते हो। हवा का रुख देख लेते हो, पाल खोल खोल देते हो। बस, हवा का रुख देखने की कला आनी
चाहिए। फिर पाल पाल खोल दिया, नाव चल
पड़ती है। पतवार चलाने की जरूरत नहीं पड़ती। पर इसके लिए बड़ी बुद्धिमानी चाहिए, परख चाहिए, हवाएं किस तरफ बह रही हैं--बस, उतना ही काफी है। ध्यान
तुम्हें इतनी बुद्धिमानी दे देगा कि तुम पहचान लोगे हवा किस तरफ बह रही है। कब किस
तरफ बह रही है?
तब तुम
तनकर बैठे रहोगे,
जब तक
हवा विपरीत बह रही है। जब हवा अनुकूल हो जाती है, तुम पाल छोड़ देते हो। तुम
यात्रा पर निकल जाते हो।
समर्पण
कला है। और पूर्ण होने की कोई आकांक्षा समर्पित भाव में है ही नहीं। इसलिए तुम यह
तो सोचो ही मत,
कि अभी
मैं निर्बल हूं निर्बल न होते तो काहे के लिए समर्पण करते? मत सोचो, कि अभी भयभीत हूं; भयभीत न होते तो क्या समर्पण
की जरूरत थी?
अभय तो
तभी उपलब्ध होगा,
जब
परमात्मा उपलब्ध होगा। उसके पहले तो तुम भयभीत रहोगे ही। क्योंकि परमात्मा को बिना
पाए कैसे कोई व्यक्ति अभय को उपलब्ध हो सकता है? और सौभाग्य है, कि परमात्मा को बिना पाए कोई
अभय को उपलब्ध नहीं होता। नहीं तो फिर परमात्मा तक जाने की जरूरत ही समाप्त हो
जाएगी।
तुम
अधूरे रहोगे ही। यह तुम्हारे हित में है। तुम पूरे तो उससे मिलकर ही होओगे। तुम
छोटी नदी की धार रहोगे। जब तुम सागर से मिलोगे, तभी विराट शुरू होगा। लेकिन वह नदी जा सकती
है विराट तक,
और
समर्पित हो सकती है, सागर
में गिर सकती है।
अगर
तुम बहुत ज्यादा समझदारी बरते--नदी भी अगर समझदारी बरते, तो तालाब बन जाएगी, नदी नहीं रहेगी। क्योंकि
तालाब में अपना सब अपने पास है। कहीं जा नहीं रहा, कहीं कुछ खो नहीं रहे। लेकिन
यही तो दुनिया की बड़ी तकलीफ है, कि
यहां जो खोते हैं,
वे पा
लेते हैं और यहां जो बचाते हैं, वे
नष्ट हो जाते हैं।
तालाब
सड़ता रहता है। नदी रोज नई होती रहती है। नदी खोकर भी कहां समाप्त होती है। क्योंकि
रोज उसके बादल उसे भरते रहते हैं। तुम जितना समर्पण करोगे उतने ही पाओगे, तुम्हारे पास समर्पण करने को
आ गया। तुम जितना उलीचोगे उतना ही अपने को भरा हुआ पाओगे। और जितना अपने को बचाओगे, उतना ही तुम पाओगे कि सड़ गए।
कृपण की आत्मा सड़ जाती है।
उलीचो।
और इसकी फिक्र मत करो, कि हम
बहुत सुंदर होंगे तभी उसके सामने जाएंगे। तब तो तुम कभी भी न जा पाओगे। उसके
सौंदर्य के मापदंड को तो तुम कभी भी पूरा न कर पाओगे। योग्यता की बात ही छोड़ दो।
असहाय होओ। छोटा बच्चा है, प्यासा
है, भूखा है, चिल्लाता है, रोता है। मां दौड़ी चली आती
है। अगर वह छोटा बच्चा भी सोचने लगे, कि मेरी पात्रता है, योग्यता है? क्या मैं इस योग्य हूं, कि मुझे दूध पिलाया जाए? मुझे बचाया जाए, मुझे जीवन दिया जाए?--तो संकट में पड़ जाएगा।
मैंने
एक कहानी सुनी है,
कि
कृष्ण भोजन को बैठे हैं स्वर्ग में, बैकुंठ में। रुक्मिणी ने थाली लगाई है। वह
पंखा झलने बैठी है। उन्होंने एक या दो कौर ही लिए हैं, और एकदम उठकर खड़े हो गए और
भागे दरवाजे की तरफ। रुक्मिणी ने पूछा, "कहां जाते हैं? क्या हुआ?' लेकिन कुछ इतनी जल्दी है, कि उन्होंने हाथ से इशारा कहा, कि लौट कर--लेकिन दरवाजे पर
जाकर ठिठक गए। एक क्षण रुके, वापिस
लौटकर बैठ गए थाली पर, भोजन
करने लगे।
रुक्मिणी
ने कहा,
बेबूझ
हो गई बात। मेरी कुछ समझ में नहीं आती। क्यों भागे? क्या कारण था? दरवाजे पर कोई कारण नहीं है।
और फिर क्यों लौट गए? इतनी
तेजी में गए?
तो
कृष्ण ने कहा,
मेरा
एक प्रेमी एक राजधानी की सड़क से गुजर रहा है। लोग उसे पत्थर मार रहे हैं, लहूलुहान है। उसके सिर से खून
की धाराएं बह रही हैं, लेकिन
वह प्रसन्न है,
मस्त
है। और वह कहता है, मुझे
क्या फिक्र! जिसने दिया है शरीर, वही
चिंता करेगा। मैं कौन हूं बीच में आने वाला! तू जान, तेरा काम जान! तेरे ही हाथ उस
तरफ से पत्थर मार रहे हैं, तेरा
ही सिर इस तरफ टूट रहा है। तेरी जैसी मर्जी! वह खड़ा हंस रहा है, लोग पत्थर मार रहे हैं। तो
मुझे भागना पड़ा। जब किसी का समर्पण ऐसा हो, तो भागना ही पड़े। मैं उसे बचाने जा रहा था।
रुक्मिणी
ने कहा,
फिर आप
लौट क्यों आए?
फिर
क्या हुआ?
उसने
कहा, जब तक मैं द्वार पर पहुंचा, उसका भाव बदल गया। उसने अब
खुद पत्थर उठा लिया है। वह जवाब दे रहा है। मेरी कोई जरूरत न रही। वह अब खुद ही
समर्थ है।
समर्पण
का अर्थ है,
तुम
असहाय हो,
असमर्थ
हो। तुम उसके हाथों में छोड़ते हो अपनी नाव, वह जहां ले जाए। फिर तुम यह भी नहीं पूछते, कहां ले जा रहे हो? क्योंकि यह पूछने का मतलब हुआ, कि समर्पण किया ही नहीं। फिर
तुम यह भी नहीं पूछते, कि
क्या परिणाम होगा?
समर्पण
में सभी छोड़ दिया। वह डुबाए, तो वह
डूबना ही तट पर पहुंच जाना है। वह मिटाए, तो मिटाना ही सौभाग्य है। उसके हाथ में
बागडोर सौंप दी,
फिर
हिसाब-किताब तुम्हें अपना रखने की जरूरत नहीं।
संकल्प
कंजूस चित्त की चेष्टा है। समर्पण बड़ी भिन्न बात है। संकल्प तो अहंकार के आसपास
खड़ा होता है। और संकल्प से कभी-कभी एकाध व्यक्ति पहुंच पाया है। पहुंच जाता है
संकल्प से भी;
लेकिन
आखिरी क्षण में उसको अपने विराट अहंकार को गिराना पड़ता है। वह बहुत कठिन मामला है।
कोई
महावीर कभी सफल हो पाता है। इसलिए मैं कहता हूं, महावीर को महावीर नाम देना
ठीक है। क्योंकि मुश्किल से कभी उस यात्रा में कोई सफल होता है। बड़ी कठिन है। कठिन
इस लिहाज से है,
कि
पहले तुम अहंकार को निर्मित करते हो, शुद्ध करते हो। सब अपने हाथ में ले लेते हो
और आखिरी घड़ी में जब कि सब परिपक्व हो जाता है, अहंकार सूक्ष्मतम रूप से निर्मित हो जाता है, हीरे की तरह कठोर हो जाता है, कि सारी दुनिया की चीजें काट
दो और कोई चीज उसको न काट सके, उस
क्षण फिर तुम्हें समर्पण करना पड़ता है। उस क्षण फिर तुम छोड़ देते हो अस्तित्व में।
कोई बहुत ही बहुत प्रज्ञावान पुरुष ऐसा कर पाएगा। अधिक तो मध्य में ही खो जाएंगे।
अपने-अपने अहंकार का डेरा जमा लेंगे। परमात्मा तक नहीं पहुंच पाएंगे।
समर्पण
से बहुत लोग पहुंचे हैं। वह सरल उपाय है। वह सहज भाव है। मीरा नाचते हुए पहुंच
जाती है,
चैतन्य
गीत गाते हुए पहुंच जाते हैं। और जिनको भी चलना हो उस यात्रा पर, यही उचित है, कि पहले ही अहंकार छोड़ दो।
पहले बनाना,
फिर
छोड़ना--मुश्किल पड़ेगा।
छोड़ना
तो पड़ता ही है क्योंकि बिना अहंकार को छोड़े कोई कभी परमात्मा को उपलब्ध नहीं होता।
संकल्प वाला व्यक्ति अंत में छोड़ता है, समर्पण वाला पहले से छोड़ देता है; तुम्हारे हाथ में है। लेकिन
जो भी करो,
पूरा
पूरा करो।
अगर
संकल्प ही करना है, तो फिर
फिक्र ही छोड़ दो परमात्मा की। इसलिए महावीर ने तो कहा, परमात्मा है ही नहीं। वह
संकल्प का ठीक वक्तव्य है। क्योंकि अगर है तो फिर संकल्प नहीं चल सकेगा। फिर वह
बीच से बाधा डालेगा। और वह खड़ा रहेगा सामने। फिर शक्ति उसके हाथ में है। इसलिए
महावीर ने कहा,
कोई
परमात्मा नहीं है। बस, तुम्हारा
संकल्प ही परमात्मा है।
भक्त
कहते हैं,
तू ही
है, हम नहीं हैं। साधक कहते हैं, मैं ही हूं, तू नहीं है। साफ कर लो अपने
मन में। अगर संकल्प से जाना हो, तो
परमात्मा की बात ही छोड़ दो। फिर न कोई भक्ति है, न कोई भगवान है, फिर तुम हो अकेले। और
तुम्हारी ही बुद्धि है, जो
तुम्हें करना हो,
करो।
लंबी यात्रा है। कभी-कभी कोई पहुंच भी गया है। नहीं पहुंचा, ऐसा मैं नहीं कहता है। लेकिन
सौ चलते हैं,
एक
पहुंच जाता है। निन्यानबे भटक जाते हैं। रास्ता उपद्रव का है। लेकिन जिनको शौक हो
उपद्रव के रास्ते पर चलने का, उनका
स्वागत है। समर्पण के मार्ग सौ चलते हैं, तो मुश्किल से एक भटक पाता है, निन्यानबे पहुंच जाते हैं।
क्योंकि वह सरल भाव की बात है, वह
प्रेम की बात है। उसमें बहुत आयोजन नहीं है, बहुत साधना नहीं है। इतना ही है, कि तुम पूरा का पूरा परमात्मा
के चरणों में रख दो।
सोच
लो। अगर रखना है,
तो
पूरा रख दो,
फिर
कुछ बचाओ मत। अगर बचाना हो, तो
कृपा करके पूरा बचा लो, फिर
कुछ रखो मत। अगर दोनों के बीच डांवाडोल रहे, तो तुम दो नावों पर सवार हो जाओगे। तुम कहीं
पहुंच न पाओगे। तुम बड़ी दुविधा में जीओगे।
और ऐसी
ही हालत अधिक लोगों की मैं देखता हूं। अहंकार को छोड़ना भी नहीं चाहते; तो अहंकार को बचा लेते हैं, और मुफ्त में पहुंचना भी
चाहते हैं। कुछ करना भी न पड़े। तो जाकर सिर भी टिका देते हैं। मंदिरों में जाओ, गौर से खड़े हो जाओ। आदमी की
खोपड़ी को झुकते पाओगे, अहंकार
को खड़ा हुआ पाओगे।
अगर
किसी दिन फोटोग्राफी और थोड़ी कुशल हो गई, जो हो जाएगी; क्योंकि रूस में एक फोटोग्राफर
किरलियान बड़े अदभुत प्रयोग कर रहा है; उससे तुम्हारे व्यक्ति का आरा, तुम्हारे व्यक्तित्व के
प्रतिभा के चित्र आ जाते हैं। आज नहीं कल हर मंदिर में एक कैमेरा लगाकर जांचा जा
सकेगा कि आदमी सच में झुका? क्योंकि
शरीर तो झुक जाएगा, तुम्हारा
जो आरा है व्यक्तित्व का वह खड़ा रहेगा, अगर अहंकार नहीं झुका है। तुम्हारी भीतरी
प्रतिमा खड़ी रहेगी। तुम्हारा असली प्रकाश-शरीर खड़ा रहेगा। सिर्फ यह मिट्टी की देह
झुकेगी।
इसको
भी क्या झुकाना। इसको तो मौत झुका देगी, मिट्टी में मिला देगी। इसको तुम झुकाकर किसी
पर कोई कृपा नहीं कर रहे हो। अगर झुकाना हो, तो भीतर अंतर्भाव झुके। न झुकाना हो, कोई हर्ज नहीं है। वह भी
रास्ता है,
उससे
भी लोग पहुंचे हैं। मगर साफ हो जाना चाहिए।
झुकना
है, पूरे झुक जाओ। अकड़े रहना है, पूरे अकड़े रहो। समझौता मत
करो। समझौता महंगी बात है।
पांचवां प्रश्न: प्रवचन के समय आपकी कोई कोई ध्वनि सुनकर मैं कांप
जाता हूं,
डर
जाता हूं। भाग खड़े होने को जी चाहता है; ऐसा क्यों? क्या मैं डरपोक, कायर होता जा रहा हूं?
जिसने
मृत्यु को पार नहीं किया, वह
सिर्फ समझता है,
कि
भयभीत नहीं है;
होता
तो भयभीत ही है। धोखा देता है अपने को, कि मैं अभय हूं। मृत्यु के पार जाकर ही, मृत्यु से गुजरकर ही, मृत्यु के अनुभव से ही, अमृत को पहचानकर ही कोई अभय
को उपलब्ध होता है।
लेकिन
हर आदमी "मैं भयभीत नहीं हूं', इस तरह की आत्मवंचना करता है। इस तरह की खोल
खड़ी कर लेता है,
कि मैं
डरता नहीं हूं। जब तुम मेरे पास आओगे और मैं तुम्हारी पर्तों को उघाड़ने लगूंगा और
तुम्हारे वस्त्र गिरने लगेंगे, तो
तुमने जो भीतर छिपाया है वह प्रगट होना शुरू हो जाएगा।
नहीं, मेरी बात सुनकर तुम्हें भय
पैदा नहीं होता,
मेरी
बात से तुम्हारे भीतर जो भय सदा से था, वह तुम्हें दिखाई पड़ता है। और भाग खड़े होने
का जी चाहता है क्योंकि भाग खड़े होकर फिर तुम अपने कपड़े वगैरह पहन कर, सज-संवरकर खड़े हो जाओगे। फिर
तुम्हारी असलियत तुम्हें भूल जाएगी।
सत्य
को जानना पीड़ादायी है क्योंकि तुमने बहुत से असत्य अपने चारों तरफ बांध रखे हैं।
सत्य को जानना पीड़ादायी है क्योंकि तुमने अपनी प्रतिमा बिलकुल ही असत्य कर रखी है, झूठी कर रखी है।
तुम्हारी
हालत वैसी है जैसे कि चेहरे को पाउडर इत्यादि से पोती हुई स्त्री वर्षा में बाहर
जाने से डरती है। वर्षा हो गई, पाउडर
बह गया। उनका सब सौंदर्य गया। वह सौंदर्य पोता हुआ था। तो स्त्रियों को हैंडबैग
लटका रखना पड़ता है। उसमें सब साज-सामान रखना पड़ता है। वर्षा का क्या भरोसा! धूप का
क्या भरोसा! धूप आ जाए, पसीना
बह जाए,
लकीरें
पड़ जाती हैं सौंदर्य पर। तो जल्दी से निकालकर अपने बैग से आईना वगैरह पोत-पातकर
फिर ठीक-ठाक कर लिया।
लेकिन
जिसके पास अपना सौंदर्य हो, वह
क्या वर्षा से डरेगा? वर्षा
उसके सौंदर्य को और निखार जाएगी। धूल वगैरह जम गई होगी, तो बह जाएगी। और निर्मल
सौंदर्य प्रगट हो जाएगा।
बासा
है, उधार है तुम्हारा सौंदर्य, तो मेरी चर्चा से टूटेगा।
टूटने से तुम्हें लगेगा, मैं
कितना कुरूप हूं। कुरूप होने से भय होगा। लगेगा, भाग खड़े हो। यहां कहां आ गए? हम तो और सुंदर होने की तलाश
में आए थे और यहां कुरूप हुए जा रहे हैं। हो नहीं रहे हो, तुम हो।
भय
तुम्हारे भीतर छिपा है। तुमने अपने को किसी तरह सम्हालकर खड़ा रखा है। तुम भूल ही
गए हो,
कि
तुम्हारी असलियत क्या है। तुम वस्त्रों में खो गए हो। और धीरे-धीरे तुमने मान लिया
है, कि तुम्हारे वस्त्र ही तुम
हो। और जब मैं तुम्हारे वस्त्रों को उतार डालूंगा, जो कि उतारना ही पड़ेगा; क्योंकि जब तक तुम अपने निज
सत्य को न जान लो,
तब तक
जीवन से परिचित होने की कोई संभावना नहीं है। घबड़ाओ मत। जो भी है, उसे जानो।
रोज
ऐसा होता है। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, यह बड़ी अजीब बात है। हम तो
शांति की तलाश में आए थे, और
ध्यान करने से और अशांति बढ़ती है।
ध्यान
करने से अशांति बढ़ती नहीं, ध्यान
करने से तुम्हारा होश बढ़ता है। होश बढ़ने से जो अशांति तुम्हें कभी दिखाई नहीं पड़ती
थी, वह दिखाई पड़ने लगती है।
जैसे
एक आदमी घर में सोया है, नशे
में धुत पड़ा है। और घड़े में कूड़ा-करकट भरता जा रहा है। लेकिन नशे में धुत पड़े आदमी
को कुछ पता नहीं चलता। मकड़ियां जाले बुनती हैं, सांप-बिच्छू घर बनाते हैं, कोई मतलब नहीं है उसे; वह मस्त पड़ा है। सब स्वच्छ
है। फिर होश आता है, नींद
टूटी, नशा उतरा, चारों तरफ देखता है। शायद वह
भी यही कहे,
कि यह
होश तो बड़ी बुरी बात है। बेहोशी में तो सब साफ सुथरा था, होश में सब गंदा हुआ जाता है।
बेहोशी में तो सब साफ सुथरा था, होश
में सब गंदा हुआ जाता है।
तुम
भीतर बेहोश पड़े हो। वहां जन्मों-जन्मों में कितने मकड़ियों के जाले भर गए हैं, उसका तुम्हें पता नहीं है।
वहां कितना कूड़ा-कर्कट इकट्ठा हो गया है। शरीर का तो तुम ऊपर से स्नान भी कर लेते
हो, भीतर का स्नान तो तुम्हें पता
ही नहीं। उस स्नान का नाम ही तो ध्यान है। जब तुम भीतर थोड़े जागोगे, तो तुम्हें बहुत सी बातें
दिखाई पड़ने लगेंगी।
तुम आए
तो थे मेरे पास शांति खोजने, लेकिन
पहले तो तुम्हें अपनी अशांति से परिचित होना होगा। क्योंकि अशांति से परिचित होना
शांति की तरफ बुनियादी कदम है। अपने रोग को ठीक से जान लेना आधा निदान है और आधी
चिकित्सा है। और निदान ठीक से हो जाए, कि रोग क्या है, तो चिकित्सा हो ही गई।
चिकित्सा तो गौण बात है। वह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है।
इसलिए
अगर तुम जाओगे,
कोई
निदान करने वाला डाक्टर हो, तो
उसकी फीस बहुत होगी। फिर प्रेस्क्रिप्शन तो कोई भी केमिस्ट दे देता है, उसमें कोई बहुत बड़ा मामला
नहीं है। एक दफा पक्का पता चल जाए; बीमारी क्या है, फिर सब हल हो जाता है। असली
सवाल पक्का पता चलने का है, कि
बीमारी क्या है?
वह पता
न चले,
तो
केमिस्ट की दुकान पर लाखों दवाएं रखी हैं, वे किसी काम की नहीं हैं।
तुम्हें
मैं धीरे-धीरे-धीरे तुम्हारी बीमारी से परिचित कराता हूं। भय है, अशांति है, क्रोध है, लोभ हैं, मोह हैं, सब तुम्हें घेरे हैं। और तुम
उनको दबाकर बैठे हो। उनका दावानल तुम्हारे नीचे जल रहा है। उसको दिखाना पड़ेगा
तुम्हें। जब तुम उसे पूरी तरह देखोगे, तभी तुम छलांग लगाकर उसके बाहर निकलोगे।
शांत
होना हो,
अशांति
जाननी जरूरी है। अभय को उपलब्ध होना हो, भय से परिचित होना जरूरी है। स्वस्थ होना हो, तो स्वस्थ होने का एक ही उपाय
है कि बीमारी से ठीक से परिचित हो जाओ।
और मजा
यह है,
कि
शरीर की बीमारी से परिचित होने पर इलाज की अलग जरूरत पड़ती है। लेकिन मन की बीमारी
कुछ ऐसी बीमारी है, कि
परिचित होना ही इलाज है। जो व्यक्ति ठीक से अपने मन के प्रति जाग गया, इलाज हो गया। वहां निदान और
औषधि दो नहीं हैं। वहां निदान ही औषधि है।
छठवां प्रश्न: आपने कहा है, जब तक मिटना है, खोना है, जीवन का परिवर्तन है, तब तक होना, शाश्वत होना संभव नहीं है।
अभी हम हैं आपके सामने, वह क्या एक लंबा सपना है?
तुम्हारी
तरफ से लंबा सपना है, मेरी
तरफ से नहीं। तुम्हारे लिए सपने से ज्यादा नहीं है। क्योंकि तुम सोए हुए हो। तुम
जागोगे,
तभी
सपना टूटेगा।
तुम
जागकर मुझे देखोगे तो तुम कुछ और ही पाओगे। तुम सोकर मुझे देखते हो, तो कुछ और ही पाते हो। तुम
जागकर मुझे सुनोगे, तुम्हें
कुछ और ही सुनाई पड़ेगा। तुम सोए-सोए मुझे सुनते हो, तुम्हें कुछ और ही सुनाई पड़ता
है। तुम्हारी नींद बीच में खड़ी है एक पर्दे की तरह। और तुम्हारी नींद हर चीज को
विकृत करती है।
तुम्हारे
लिए तो एक सपना है। लेकिन चाहो, और
जागना चाहो,
तो
तुम्हारे लिए भी सत्य हो सकता है।
बुद्ध
ने अपने पिछले जन्मों की कथाएं कही हैं। उसमें उन्होंने कहा है, कि मैं जब अज्ञानी था तब एक
बुद्धपुरुष के पास गया था। मैंने झुककर उनके चरण छुए। मैं उठकर खड़ा भी न हुआ था, कि मैं अचंभे से भर गया
क्योंकि उन्होंने भी झुककर मेरे चरण छुए। मैं घबड़ा भी गया, भयभीत हो गया, कि यह तो पाप है, कि बुद्धपुरुष मुझे अज्ञानी
के चरण छुएं?
मैंने
उनसे कहा,
रुकिए, रुकिए। यह आप क्या करते हैं? लेकिन मैं रोक भी न पाया और
मैंने उनसे पूछा,
कि मैं
अज्ञानी हूं,
आपके
पैर छूता,
समझ
में आती है बात;
आप परम
ज्ञानी--आप मेरे पैर क्यों छूते हैं?
तो उन
बुद्धपुरुष ने मुझसे कहा था, कि यह
तेरी भूल है। यह तेरा सपना है, कि तू
समझता है,
तू
अज्ञानी है। जिस दिन मेरा सपना मेरे लिए टूट गया, उसी दिन मेरे लिए सबका सपना
टूट गया। मैं तो तेरे भीतर उस प्रकाश को देखता हूं, जिसको अज्ञान ने कभी घेरा
नहीं। तू भ्रांति में पड़ा है। लेकिन तेरी भ्रांति तेरी है, मेरी नहीं। किसी दिन तू
जागेगा तब तेरी भ्रांति भी टूट जाएगी। तब तू समझेगा, कि मैंने तेरे चरण क्यों छुए
थे।
निश्चित
ही, जो मैं तुमसे कह रहा हूं, तुम्हारे लिए तो एक सपना है, एक मधुर सपना। सुखद है, सुनना प्रीतिकर है; लेकिन यह जागरण भी बन सकता
है। मैं इसीलिए बोल रहा हूं। इसलिए नहीं, कि तुम्हें एक सुखद सपना चलता रहे। मैं तो
इसीलिए बोल रहा हूं ताकि तुम्हारी नींद में आवाज अगर पहुंच जाए, तो तुम जाग जाओ।
मैं तो
इस तरह बोल रहा हूं, जैसे
अलार्म घड़ी बोलती है। वह तुम्हारी नींद में सपना देने के लिए नहीं। कभी तुमने खयाल
किया? पांच बजे उठना है तुम अलार्म
भरकर सो गए हो,
दो
घटनाएं संभव हैं। एक तो यह घटना है, कि अलार्म घड़ी को तुम सुन लो, जाग जाओ। दूसरी घटना यह है, कि तुम अलार्म घड़ी के आसपास
भी एक सपना बुन लो। और करवट लेकर सो जाओ। अक्सर ऐसा होता है कि जब अलार्म की घंटी
बजती है,
तब तुम
एक सपना देखते हो,
कि
मंदिर में बैठे हैं, घंटा
बज रहा है। तुमने अलार्म घड़ी के बीच, अपने बीच एक सपना खड़ा कर लिया। अब कोई डर न
रहा। अलार्म घड़ी को तुमने गलत कर दिया। अब कोई भय नहीं है। अब वह तुम्हें उठा न
सकेगी। तुमने उसे अपने सपने में ही समाविष्ट कर लिया। अब तुम सपना देख रहे हो कि
मंदिर में घंटा बज रहा है। लोग पूजा कर रहे हैं। जब तक वह घड़ी अलार्म बजती रहेगी, तब तक तुम सपना देखते रहोगे।
फिर घड़ी बंद हो गई, सपना
बंद हुआ। करवट लेकर तुम गहरी नींद में सो गए। तुमने घड़ी को व्यर्थ कर दिया।
मैं तो
ऐसे ही बोल रहा हूं जैसे अलार्म घड़ी। मेरी तरफ से तो कोशिश यही है, कि तुम जागो। तुम्हारी तरफ से
बहुत संभावना यह है, कि तुम
एक सपना देखोगे। तुम मुझे भी अपने सपने में सम्मिलित कर लोगे। तुम मेरे शब्दों को
भी अपने सपने में समाविष्ट कर लोगे। तुम करवट लेकर फिर सो जाओगे।
लेकिन
अगर सौ में से एक भी जाग जाए, तो भी
श्रम सार्थक है।
आखिरी
सवाल: दादू ने दादू होने के बाद कहा है, पिव पिव लागी प्यास? क्या दादू ने दादू होने के
पहले भी कहा था,
पिव-पिव
लागी प्यास?
दादू
दादू ही न होते,
अगर
पहले न कहा होता। "पिव पिव लागी प्यास'--यही रटन तो दादू को दादू बना दी। इसी रटन ने, इसी प्यास ने, तो इसी पुकार ने तो परमात्मा
तक पहुंचाया। दादू तो पहले ही कहे हैं, तभी दादू बने हैं। अगर पहले न कहा होता, तो दादू का जन्म ही न होता।
वह तो हमने पीछे सुना है, जब
दादू दादू हो गए।
इसे
थोड़ा समझ लेना। दादू ने तो पहले ही कहा है, हमने पीछे सुना है। दादू ने तो प्यास का
जीवन ही जीया है,
तभी तो
तृप्ति का क्षण आया। रोए, तभी
संतुष्टि। लेकिन हमें तब नहीं सुनाई पड़ा, जब दादू रो रहे थे। वह रोना तो उनका निजी था, एकांत में था। वह तो उनका
अपना था। हमने तो तभी सुना, जब
दादू हो गए;
जब
उनका प्रकाश-स्तंभ प्रगट हुआ।
मैं
तुमसे जो कह रहा हूं, वह
मैंने अपने होने के बहुत पहले बहुत बार अपने से कहा है। उस दिन तुमसे नहीं कहा था, उस दिन तुम सुनते भी नहीं। आज
भी तुम सुन लो,
तो
बहुत है। उस दिन तो तुम सुनते ही कैसे! पर मैंने बहुत बार उसे अपने से कहा है, तभी वह घड़ी आई, जहां जागरण हुआ। और अब मैं
तुमसे कह सकता हूं।
बढ़ने
दो रटन को,
प्यास
को, सागर दूर नहीं है। बस, प्यास की कमी ही एकमात्र दूरी
है। उतरने दो तुम्हारे हृदय में भी इस रटन को--"पिव पिव लागी प्यास--' और मंजिल दूर नहीं है। मंजिल
बिलकुल आंख के सामने है। थोड़ी सी आंख खोलनी है। थोड़ी सी आंख खोलकर देखनी है। फासला
नहीं है,
कि
यात्रा करनी हो। तुम तीर्थ में ही खड़े हो, मगर शराब पीए खड़े हो।
मैंने
सुना है,
एक
शराबी एक रात अपने घर आया। ज्यादा पी गया था। पहचान में नहीं आता था, अपना घर कौन सा है? पुराने अभ्यासवश पहुंच तो गया, पैर चलाकर ले गए, लेकिन द्वार पर खड़े होकर
सोचने लगा यह घर मेरा! समझ में नहीं आता कभी देखा हो। दरवाजा पीटने लगा। उसकी मां
बाहर निकलकर आ गई। उसने उस मां के पैर पकड़ लिए और कहा, कि ऐसा कर; मुझे मेरे घर पहुंचा दे। मेरी
बूढ़ी मां मेरी राह देखती होगी।
पड़ोस
के लोग इकट्ठे हो गए। लोग हंसने लगे। लोग हैरान हुए। लोग उसे समझाने लगे, यही तेरा घर है। जितना लोग
समझाने लगे उतना ही वह शराबी जिद करने लगा, कि अगर यह मेरा ही घर होता, तो किसी को समझाने की जरूरत
ही क्या थी?
मैं
खुद ही समझ लेता। क्या मुझे अपना घर पता नहीं? क्या तुमने मुझे इतना मूढ़ समझा है? मैं पागल हूं?
एक
दूसरा शराबी जो यह सब बात सुन रहा था, वह बैलगाड़ी जौतकर आ गया। और उसने कहा, तू बैठ; मैं तुझे तेरे घर ले चलता
हूं। उसकी मां ने उसके पैर पकड़ लिए कि तू इसकी गाड़ी में मत बैठ, अन्यथा घर से बहुत दूर निकल
जाएगा। और यह भी पीए है। मगर कौन सुने!
तुम घर
के सामने ही खड़े हो। इसलिए जो गुरु तुमसे कहते हों, बैठो हमारी गाड़ी में, हम तुम्हें तीर्थयात्रा पर ले
चलते हैं,
जरा
सम्हलकर बैठना। घर से दूर निकल जाओगे। वे भी पीए बैठे हैं।
मैं
तुम्हें किसी यात्रा पर नहीं ले जा रहा हूं। मैं तुमसे यह कह रहा हूं, तुम जागकर देखो। तुम जहां खड़े
हो, वह तुम्हारा घर है। यह
अस्तित्व तुम्हारा घर है। चारों तरफ परमात्मा ने तुम्हें घेरा है। उसके अतिरिक्त
और तुम्हें कोई भी घेरे हुए नहीं है। उसी की हवाएं हैं, उसी का आकाश है, उसी की पृथ्वी है, उसी के तुम हो। सब उसी का खेल
है।
लेकिन
प्यास जगे,
तो उसी
प्यास में से दर्द, पीड़ा उठेगी।
उसी पीड़ा में से होश आएगा। उसी होश में से सुरति जागेगी। गूंजने दो तुम्हारे हृदय
में यह धुन--
"पिव पिव लागी प्यास!'
आज इतना ही।
(समाप्त)
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