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गुरुवार, 23 मार्च 2017

सबै सयाने एक मत-(संत दादू दयाल)-प्रवचन-01

बै सयाने एक मत-(दादुु दयाल)
ओशो
दिनांक : 11 सित्‍म्‍बर, सन् 1975,
श्री रजनीश आश्रम,  पूना।

पहला -प्रवचन
तुम बिन कहिं न समाहिं                     

सूत्र

तिल-तिल का अपराधी तेरा, रती-रती का चोर।
पल-पल का मैं गुनही तेरा, बक्सौ औगुन मोर।।

गुनहगार अपराधी तेरा, भाजि कहां हम जाहिं।
दादू देखा सोधि सब, तुम बिन कहिं न समाहिं।।

आदि अंत लौ आई करि, सुकिरत कछू न कीन्ह।
माया मोह मद मंछरा, स्वाद सबै चित दीन्ह।।

दादू बंदीवान है, तू बंदी छोड़ दिवान।
अब जनि राखौं बंदि मैं, मीरा मेहरबान।।


दिन-दिन नौतन भगति दे, दिन-दिन नौतन नांव।
दिन-दिन नौतन नेह दे, मैं बलिहारी जांव।।

साईं सत संतोष दे, भाव भगति बेसास।
सिदक सबूरी सांच दे, मांगे दादू दास।।

आंखें हैं, पर दिखाई नहीं पड़ता। आंखें खुली भी हैं, फिर भी दिखाई नहीं पड़ता। कोई गहरा अंधेरा भीतर छिपा है। होश है, समझ में आता हुआ मालूम पड़ता है, फिर भी जीवन में कोई क्रांति नहीं होती। बीमारी गहरी है; समझ उतनी गहरी नहीं। प्रयास भी करते हैं, दो कदम भी उठा कर चलते हैं परमात्मा के मंदिर की तरफ, लेकिन मंदिर पास आता मालूम नहीं पड़ता। पैर गलत दिशा में जाते हैं। उठते भी हैं तो भी कहीं पहुंचते नहीं।
शायद स्वयं किए कुछ हो भी न सकेगा। अगर अंधेरा गहरा हो, अगर भीतर बेहोशी हो, तो हम जहां भी चलेंगे, जहां भी जाएंगे, वहीं हम अंधेरे को पाएंगे, वहीं हम बेहोशी को पाएंगे। हमारे प्रयास से मंदिर परमात्मा का पास आ भी न सकेगा।
संसार में दो तरह के धर्म हैं। एक धर्म की प्रणाली है जो मानती है कि व्यक्ति के संकल्प से परमात्मा निकट आता है।
दूसरी प्रणाली है जो मानती है कि स्वयं के समर्पण से ही वह निकट आता है। क्योंकि संकल्प तो अज्ञान से भरा हुआ व्यक्ति ही करेगा। संकल्प भी अज्ञान से ही निकलेगा। ज्ञान तक पहुंचना कैसे होगा? तुम्हारी चेष्टा भी तो अंधेरी रात से ही शुरू होगी। उस चेष्टा का जन्म ही अंधकार में है, तो उसका अंत प्रकाशपूर्ण कैसे होगा? तुम जो करोगे, तुम ही करोगे। अहंकार की छाया पड़ेगी उस पर। तुम्हारी छाया से तुम्हारा कृत्य मुक्त न हो सकेगा।
इसलिए दूसरी प्रणाली कहती है, हम केवल अपने को छोड़ सकते हैं उसके हाथों में। करना हमारा सवाल नहीं है, वही करे। हम समर्पण कर सकते हैं। संकल्प हमारे वश के बाहर है। संकल्प सिर्फ परमात्मा ही कर सकता है। हम सोए हुए हैं, उसके चरणों में अपने को छोड़ दें, इतना ही काफी है।
और चरणों में छोड़ने के लिए उसके चरण खोजने की जरूरत नहीं है, सिर्फ चरणों में छोड़ने का भाव काफी है। यह भाव असहाय से असहाय व्यक्ति भी कर सकता है। यह भाव अज्ञानी से अज्ञानी चित्त भी कर सकता है। कितनी ही गहन बेहोशी हो, चलना न हो सके, गिरना तो हो ही सकता है। यात्रा न हो सके, असहाय प्रार्थना और पुकार तो हो ही सकती है। उठने का बल न हो, चलने का बल न हो, तो भी आंखों में आंसू तो भर ही सकते हैं।
तो एक मार्ग है, जो मान कर चलता है कि तुम्हारी शक्ति से तुम पहुंचोगे। उस मार्ग से कभी करोड़ में कोई एकाध व्यक्ति पहुंचता हो, उसे अपवाद समझ लें। वह नियम नहीं है। उस मार्ग पर लाखों चलते हैं, कभी कोई एकाध पहुंचता है। वह भी शायद भूले-भटके ही पहुंच जाता है। वह भी शायद टटोलते-टटोलते ही पहुंच जाता है। शायद वह भी अपने श्रम से नहीं पहुंचता, उसके श्रम की आत्यंतिकता देख कर ही परमात्मा की करुणा उस पर हो जाती है। वह भी शायद अपने संकल्प से नहीं पहुंचता, लेकिन उसके संकल्प का बल देख कर, उसका उठना और गिरना देख कर, हर चेष्टा में उसके चलने की चेष्टा देख कर, खोज देख कर अनंत की करुणा उस पर बरस जाती है, इसलिए वह भी पहुंच जाता है।
लेकिन दूसरा मार्ग, जिसको संतों ने भक्ति का मार्ग कहा है, उस पर जो भी चलता है, पहुंच जाता है। क्योंकि उस पर चलना चलना है ही नहीं; उस पर तो गिरना है। मंजिल भक्त के लिए दूर नहीं है; जहां भक्त गिरा, वहीं मंजिल है। जहां उसने सिर झुकाया, वहीं मंदिर है।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लेना, तो दादू को समझना आसान हो जाएगा।
संकल्पवान परमात्मा को खोजेगा, फिर झुकेगा। पहले उसके चरण खोज लेगा, फिर सिर झुकाएगा। समर्पण से भरा हुआ व्यक्ति, भक्त, सिर झुकाता है; और जहां सिर झुका देता है, वहीं उसके चरण पाता है। गिर पड़ता है, आंखें आंसू से भर जाती हैं। रोता है, चीखता है, पुकारता है, विरह की वेदना उसे घेर लेती है। और जहां उसके विरह का गीत पैदा होता है, वहीं परमात्मा प्रकट हो जाता है।
तुम्हारी मर्जी! जैसे चलना हो। लेकिन दादू दूसरे मार्ग के अनुयायी हैं। उन्हें समझना हो तो एक शब्द है--समर्पण। उसे ही ठीक से समझ लिया तो दादू समझ में आ जाएंगे।
इसलिए दादू कहते हैं, सबै सयाने एकमत।
वह एकमत समर्पण का है। और जिन्होंने भी जाना है उन्होंने वही कहा है। कभी-कभी तो ऐसा हुआ है कि संकल्प से चलने वाले लोगों ने भी अंत में यही कहा है। चले संकल्प से, पहुंचे समर्पण से।
बुद्ध के साथ यही हुआ। क्षत्रिय का खून था, समर्पण आसान नहीं। क्षत्रिय को संकल्प आसान है। लड़ सकता है, मिट सकता है; झुकना उसे नहीं आता। टूट जाना सुगम है, झुकना बड़ा दुर्गम। सारी शिक्षा-दीक्षा, संस्कार क्षत्रिय के--वह भी राजपुत्र के! संघर्ष के। समर्पण के नहीं हो सकते, संघर्ष के ही होंगे।
तो बुद्ध ने छह वर्ष तक अथक तपश्चर्या की। जो-जो कहा है शास्त्रों में, सब पूरा किया। थोड़ा ज्यादा ही पूरा किया। जितना कहा था, उससे भी अति की। क्योंकि कहीं चूक न जाएं, कहीं यात्रा अधूरी न रह जाए। गुरु थक गए। जिन गुरुओं के पास बुद्ध गए, उन्हीं गुरुओं ने कहा कि हम तुमसे अब कुछ भी कह नहीं सकते। क्योंकि जो भी तुमसे हमने कहा करने को, तुमने उसे जरूरत से ज्यादा किया। ऐसा शिष्य पाना दुर्लभ है।
साधारणतः गुरुओं को कठिनाई नहीं आती, क्योंकि शिष्य कभी वह करते ही नहीं जो गुरु कहता है। करते भी हैं, तो उतना नहीं करते, जितना गुरु कहता है। इसलिए सुविधा बनी रहती है गुरु को, कि तुमने किया ही नहीं। अगर नहीं पाया, तो विधि गलत है, यह मत समझना। जब किया ही नहीं तो तुम्हीं गलत हो।
बुद्ध से यह कहना आसान न था। जो कहा था, उसे उन्होंने रत्ती-रत्ती, जरूरत से ज्यादा पूरा किया था। गुरुओं ने हाथ जोड़ लिए। उन्होंने कहा कि इससे ज्यादा अब हमारे पास कुछ है नहीं।
और बुद्ध सस्ते में राजी न थे। छोटी-मोटी उपलब्धि को कोई मूल्य न देते थे। परमात्मा को ही जानना था। और परमात्मा को भी ऐसे नहीं जानना था कि वह दूर खड़ा हो और हम दूर खड़े हों। उसे भी ऐसा जानना था कि वह हमारा अंतरतम हो! तभी तो जानना जानना है। ऐसा देख लिया आंख भर कर, कौन जाने सपना हो! आंख तो सपने को भी सच मान लेती है। उसकी आवाज सुन ली कानों से, कौन जाने सपना हो! क्योंकि सपने में भी तो आवाज सुनी जाती है। नहीं, यह कोई जानना जानना न हुआ, यह तो परमात्मा भी माया का ही हिस्सा हुआ।
जानना है अंतरतम की भांति। बाहर नहीं; इंच भर की दूरी को सुविधा नहीं है। अपने स्वरूप की तरह जानना है, तभी जानने पर भरोसा होगा। जो आंख के पीछे छिपा है और देखने वाला है--देखने वाले की तरह जानना है। दृश्य की तरह नहीं, द्रष्टा की तरह जानना है।
थक गए गुरु, उन्होंने हाथ जोड़ लिए। उन्होंने कहा, तुम अपने मार्ग पर जाओ। अब हम और कुछ कह नहीं सकते।
कुंडलिनी जागरण के अनुभव हुए। बुद्ध ने कहा, इससे क्या होगा? अगर रीढ़ में विद्युत की शृंखला उठने लगी तो इससे क्या होगा? जब शरीर ही छूट जाना है, तो शरीर में जागी कुंडलिनियों का हिसाब रख कर क्या करेंगे? प्रकाश दिखाई पड़े। बुद्ध ने कहा, इनको देख कर भी क्या होगा? बच्चों के खेल-खिलौने हैं। क्योंकि प्रकाश को देखने से भी तो मैं प्रकाश नहीं हो गया। यह भी सब मन का ही खेल है। प्रतिमाएं उठी होंगी परमात्मा की। लेकिन बुद्ध ने कहा कि नहीं, प्रतिमाएं नहीं चाहिए। रूप-आकार नहीं चाहिए। नाम-रूप नहीं चाहिए। वह परम सागर ही जानना है, जिसका न कोई अंत है, न कोई आदि है।
थक गए गुरु। आखिर बुद्ध अकेले विचरण करने लगे। मान-मान कर बहुत से प्रयोग किए थे, अब सोच-सोच कर प्रयोग करने लगे; लेकिन संकल्प की यात्रा जारी रही। छह वर्ष एक पल भी नहीं खोया, हर पल का उपयोग किया; लेकिन कहीं न पहुंचे। थक गए, बुरी तरह थक गए। हताश हो गए, असहाय हो गए। ऐसी गहन हताशा ने पकड़ लिया कि राज्य भी छोड़ा, संसार भी छोड़ा, वह व्यर्थ था। अब यह साधना, तप, योग, यह भी व्यर्थ है, यह भी छोड़ा। छोड़ना उस दिन पूरा हो गया।
उस रात विश्राम किया उन्होंने। वह पहली रात थी जीवन में जब विश्राम किया। जब कुछ करने को ही न बचा, तभी कोई विश्राम कर सकता है। और विश्राम में भक्ति का जन्म है। सोचा भी न था, खयाल में भी न था कि जिसे श्रम करके न पा सके, उसे विश्राम में पा लेंगे। उस रात वे सिर्फ सो गए। कुछ भी न बचा करने को, तो कोई सपना भी न उठा रात। क्योंकि सपने भी तुम्हारे कृत्य के ही अधूरे हिस्से हैं। जो दिन में छूट गया है, नहीं पूरा हो पाया, वही सपने में पूरा होने की कोशिश करता है। जो महल बनाने चाहे थे और नहीं बना पाए, वे ही सपने में बन जाते हैं। जो धन की राशि इकट्ठी करनी चाही थी, नहीं हो पाई, उसे ही सपने में मन अपने को समझा लेता है।
कोई सपना नहीं, कोई विचार की तरंग नहीं। सुबह नींद खुली, आखिरी तारा डूबता था। उस आखिरी तारे को डूबता बुद्ध देखते रहे और परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए।
बाद में जब लोग बुद्ध से पूछते थे कि कैसे पाया? तो बुद्ध कहते, बड़ी मुश्किल है बात। जब तक पाने की कोशिश की, तब तक तो पाया ही नहीं। पाया तब, जब हताशा परिपूर्ण हो गई थी, असहाय हो गए थे।
भक्त कहता है, असहाय होना ही उसके सहारे को पाने का उपाय है। जब तुम्हारी असहाय अवस्था ऐसी हो गई कि तुम जानते हो कि रत्ती भर भी मेरे किए कुछ न होगा...
ध्यान रखना, यह जानना पड़ेगा, कहने की बात नहीं है। ऐसे तो तुम अपने को कह सकते हो कि बिलकुल हताश हो गया हूं। लेकिन भीतर तुम जानते हो, अभी अहंकार जीवित है। अभी भरोसा अपने पर खोया नहीं। अभी अहंकार का सहारा जारी है। अभी तुम जानते हो कि अभी पूरे प्रयास नहीं किए, कुछ और करेंगे तो मिल ही जाएगा। अभी अपने पर भरोसा नहीं खोया है, समर्पण हो नहीं सकता।
लेकिन जब तुम जान ही लोगे, जब यह जानना ऐसे चुभ जाएगा, तीर की तरह हृदय में आर-पार बेध देगा, तब तुम गिरोगे; वही गिरना समर्पण है। तब तुम्हारी आंखों से आंसुओं की धारा बहेगी। वही आंसुओं की धारा प्रार्थना है, पूजा है। बाकी सब धोखा है जो तुम कर रहे हो। मंदिर गए, फूल चढ़ा आए, आंसू न गिरे--पूजा नहीं हुई। रोए नहीं--प्रार्थना नहीं हुई। प्रार्थना शब्दों से नहीं, आंसुओं से। आंसू इसलिए कि उन्हीं आंसुओं में तुम्हारी हताशा प्रकट होगी। उन्हीं आंसुओं में तुम कहोगे कि मैं काफी नहीं हूं। तेरे बिना कुछ भी न होगा। मैं गिरता हूं। और मुझे तेरे चरणों का कोई पता नहीं, मैं यहीं गिरता हूं जहां खड़ा हूं। जाने का कोई उपाय भी नहीं है। सब तरफ भटक कर देख लिया, तेरा मंदिर कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता। अब मैं गिरता हूं।
और जिस दिन तुम ऐसे गिर पड़ोगे, जैसे कोई खाली थैले को छोड़ दे और थैला गिर जाए...ध्यान रखना, खाली थैले को कोई छोड़ दे, तो खाली थैला गिरता भी नहीं, क्योंकि गिरने का भी कोई खाली थैला निर्णय नहीं लेता। कोई संकल्प नहीं करता कि अब मैं गिरूंगा। क्योंकि जब तक तुम निर्णय कर रहे हो मैं गिरूंगा, तब तक गिरना अधूरा होगा। तुम बाकी रहोगे। गिरना धोखा रहेगा। जहां मैं नहीं बचता और थैले का सब सहारा छूट जाता है, कोई पकड़ नहीं रह जाती, थैला गिर जाता है। उसी क्षण, वहीं परमात्मा के चरण हैं। वहीं उसके मंदिर का शिखर प्रकट हो जाएगा।
सबै सयाने एकमत!
इस संबंध में, दादू कहते हैं, जिन्होंने भी जाना उन्होंने यही कहा है कि तुम अपने प्रयास से न पा सकोगे, उसके प्रसाद से मिलता है।
तिल-तिल का अपराधी तेरा, रती-रती का चोर।
पल-पल का मैं गुनही तेरा, बक्सौ औगुन मोर।।
तिल-तिल का अपराधी तेरा, रती-रती का चोर।
दादू कहते हैं, मेरा कुछ भी नहीं है। आता हूं खाली हाथ, जाता हूं खाली हाथ; बीच के थोड़े से क्षणों में कितने मेरे का जाल फैला लेता हूं--मेरा मकान, मेरी जमीन, मेरे बेटे, मेरी पत्नी, मेरा धन, पद, प्रतिष्ठा--फैलता जाता है जाल। जब भी तुम कहते हो किसी चीज को मेरा...तिल-तिल का अपराधी तेरा...तो दादू कहते हैं, तुमने अपराध किया। परमात्मा का है सब। उसको तुमने अपना बताया? रती-रती का चोर। तब तुम चोर हो गए।
तुम किसी की चीज चुरा लाते हो, तब तुम चोर होते हो। किसी और की चीज पर दावा कर देते हो, मेरी है, तब तुम चोर होते हो। दादू कहते हैं, तुमने जब भी दावा किया कि मेरा, तभी तुम चोर हो गए। क्योंकि यहां कुछ भी तुम्हारा नहीं है। तुम भी तुम्हारे नहीं हो।
तुम भी कहां से आते हो? तुम स्वयं को लाए नहीं। तुम स्वयं को जिलाए नहीं हो। तुम स्वयं को ले न जाओगे। श्वास पर भी तुम्हारा बल नहीं, अधिकार नहीं। चलती है, चलती है। रुक जाए, रुक जाए। श्वास रुकेगी तो तुम एक श्वास भी ज्यादा न ले सकोगे। और यदि तुम पैदा न होते, तो कहां शिकायत करते? किसको कहने जाते कि मुझे पैदा क्यों नहीं किया? तुम पैदा न होते तो तुम होते ही नहीं, शिकायत कौन करता? तुम पैदा होते हो, तुम जीते हो, तुम फिर खो जाते हो।
एक लहर उठती है सागर में, नाचती है, झूमती है, आकाश को छूने का अभियान करती है, गिरना शुरू हो जाती है, फिर सागर में खो जाती है। लहर सागर ही है। लहर में ऐसा कुछ भी नहीं है जो सागर में न हो। लहर में एक रत्ती भी कुछ नया नहीं है जो सागर का न हो। लहर सागर की ही अवस्था है। तुममें तुम्हारा कुछ भी नहीं।
कबीर ने कहा है, मेरा मुझमें कुछ नहीं। मैं भी मेरा नहीं हूं। इसलिए कोई भी दावा व्यर्थ है।
तिल-तिल का अपराधी तेरा, रती-रती का चोर।
और जो कुछ भी है मेरे पास, वह सब चोरी है। चोरी उसी दिन मिटती है, जिस दिन तुम्हारा मेरे का भाव मिट जाता है। कानून जिसको चोर कहता है, वह कुछ भी नहीं है बात। धर्म जिसे चोर कहता है, वह बड़ी गहरी बात है। कानून तो चोर कहता है तुम्हें, क्योंकि तुम किसी की चीज चुरा लाते हो। धर्म तुम दोनों को ही चोर कहता है। क्योंकि वह उसकी भी न थी, जिससे तुम चुरा लाए हो। उसने भी दावा किया था, वह भी चोर था। तुम भी दावा कर रहे हो, तुम भी चोर हो।
धर्म की दृष्टि में सांसारिक आदमी चोर है। उसने चोरी की या नहीं, यह सवाल नहीं है। उसने किसी का छीना या नहीं छीना, यह सवाल नहीं है। मेरा है, ऐसा दावा ही चोरी है।
इसलिए ज्ञानियों ने अचौर्य व्रत पर बड़ा बल दिया है। महावीर ने, पतंजलि ने, बुद्ध ने अचौर्य पर बड़ा जोर दिया है। लेकिन अचौर्य का मतलब महावीर के मानने वाले समझे हैं, इसमें संदेह है। क्योंकि महावीर के मानने वाले यही सोचते हैं, किसी दूसरे की चीज न चुराना; बस अचौर्य व्रत हो गया। अचौर्य का अर्थ वह है, जो दादू कह रहे हैं।
जब तक तुम दावा करोगे मेरे का, तुम चोर हो। जिस दिन दावा इस भांति खो जाएगा कि तुम यह भी दावा न करोगे कि मैं भी मेरा हूं, मेरे का भाव ही तिरोहित हो जाएगा। तुम होओगे, मेरे का भाव न होगा, उसी क्षण अचौर्य प्रकट होता है। समस्त परिग्रह चोरी है। परिग्रह का भाव ही चोरी है। परिग्रह के करने वाले में ही सारी चोरी छिपी है।
शायद तुम्हें कभी खयाल आता हो। जब भी तुम कहते हो मेरा, तभी मैं को गति मिलती है, बल मिलता है। जितना मेरे का विस्तार होता है, उतना ही मैं मजबूत होता है। निश्चित ही सम्राट का अहंकार बड़ा होता है भिखारी के अहंकार से। क्योंकि सम्राट के मैं को बहुत सहारे होते हैं। भिखारी के पास सहारा भी क्या है? एक टूटा-फूटा भिक्षा का पात्र है, गुदड़ी है, बस यही उसका सारा राज्य है। तो मैं की भी यही सीमा है। मेरे की सीमा ही मैं की भी सीमा है। जितना तुम्हारा मेरा बढ़ता जाता है, उतना तुम्हारा मैं बढ़ता जाता है। इसीलिए तो हम पागल होते हैं कि वस्तुएं बढ़ती जाएं।
कोई ठीक से सोचता नहीं कि आदमी वस्तुओं को बढ़ाने के लिए इतना पागल क्यों होता है? कुछ गहरा कारण होगा। वस्तुओं को बढ़ाने में किसी की उत्सुकता नहीं है, लेकिन वस्तुओं के बिना बढ़े मैं के बढ़ने की सुविधा नहीं है। तो जितनी बड़ी जमीन होगी, उसके बीच में उतने ही बड़े मैं का सिंहासन होगा। जितने धन की राशि होगी, उतना ही ऊपर मैं का सिंहासन होगा। कोई वस्तुओं के लिए वस्तुओं को प्रेम नहीं करता।
उपनिषदों ने कहा है, कोई धन के लिए धन को प्रेम नहीं करता, मैं के लिए धन को प्रेम करता है। कोई पत्नियों के लिए पत्नियों को प्रेम नहीं करता, मैं के लिए पत्नियों को प्रेम करता है। गहरे में एक ही आकांक्षा है कि मैं कुछ हूं।
अगर सारा मेरे का भाव छिन जाए, गिर जाए, तो मैं बचेगा? बैसाखी अलग हो गई, मैं लंगड़ा जाएगा, वहीं गिर पड़ेगा।
त्याग का अगर कोई अर्थ था तो इतना ही था कि तुम उन सब सहारों को अलग कर लेना, जो मैं को मजबूत करते हैं, बल देते हैं, भोजन देते हैं। सहारे अलग हो जाएंगे, मैं गिर जाएगा।
लेकिन मैं बड़ा कुशल है। वह त्याग को भी अपनी बैसाखी बना लेता है। वह कहता है, मैंने इतना त्याग किया! तब मैं लंगड़ाया नहीं, उसने नये सहारे खोज लिए। मेरे पास लाखों रुपये थे, तब मेरे पास एक बैसाखी थी--लाखों रुपये की। अब मैंने लाखों रुपयों को लात मार दी, अब मेरे पास एक नई बैसाखी है--पुराने से भी ज्यादा मजबूत--कि मैंने लाखों का त्याग कर दिया है। तुम भोग करो तो मैं को बनाते हो, तुम त्याग करो तो मैं को बनाते हो। तुम धन को पकड़ो तो मैं निर्मित होता है, तुम धन को छोड़ो तो मैं निर्मित होता है। और मैं ही असली रोग है, महारोग है। और जब तक मैं है, तब तक तुम चोर हो।
यहूदियों में एक कहावत है कि मैं कहने का अधिकार केवल परमात्मा को है, और किसी को नहीं।
बात ठीक मालूम पड़ती है। क्योंकि जिसका सब है, उसको ही मैं कहने का अधिकार होना चाहिए। हमारा तो कुछ भी नहीं है। अगर यह बात तुम्हें ठीक-ठीक दिखाई पड़ जाए कि मेरा कुछ भी नहीं है, तो ही दादू का वचन साफ होगा:
तिल-तिल का अपराधी तेरा...
जहां-जहां मैंने दावा किया, वहीं अपराध हुआ। जहां मैंने कहा मेरा, तिल को भी कहा हो मेरा, वहीं अपराध हुआ।
तिल-तिल का अपराधी तेरा, रती-रती का चोर।
और जो कुछ भी है मेरे पास, सब चोरी है। है सब तेरा और मैं दावा किए चला जाता हूं कि मेरा है।
पल-पल का मैं गुनही तेरा, बक्सौ औगुन मोर।।
और प्रतिपल सिवाय इसके मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। गुनाह कर रहा हूं, पाप कर रहा हूं।
तुम पाप से यह मत समझ लेना कि तुम पुण्य भी कर रहे हो--कुछ पाप, कुछ पुण्य। नहीं; जब तक करने वाला मैं है, तब तक सभी पाप है। तुम दान दो तो पाप; तुम चोरी करो तो पाप; तुम किसी को मार डालो तो पाप और तुम किसी को दवा दो तो पाप। क्योंकि पुण्य तो वहीं घटता है जहां तुम नहीं होते; वह तुम्हारे अभाव में प्रकट होता है। क्योंकि पुण्य का अर्थ है परमात्मा का आविर्भाव। जहां तुम हट जाते हो, जगह खाली कर देते हो और तुम्हारे भीतर परमात्मा आविर्भूत होता है, उस क्षण ही पुण्य है। सब पुण्य परमात्मा का, सब पाप आदमी के। आदमी पुण्य कर ही नहीं सकता।
इसे थोड़ा समझना। क्योंकि तथाकथित धर्म तुम्हें यही समझाए जाते हैं: पाप छोड़ो, पुण्य करो। लेकिन जो जानते हैं, वे कहते हैं कि तुम पाप ही करोगे, तुम पुण्य कर ही नहीं सकते। क्योंकि तुम्हारे होने में ही महापाप छिपा है। तुम ही करोगे न! तुम्हारा मैं ही मजबूत होगा।
तुम एक मंदिर बनाओगे तो उसमें परमात्मा की स्थापना तो गौण है, मंदिर के द्वार पर जो तुम अपने नाम का पत्थर लगाओगे, वही असली बात है। मंदिर तो तुम बनाते हो उस नाम के पत्थर के लिए। प्रतिमा भी रखनी पड़ती है, क्योंकि बिना प्रतिमा के कोई उस मंदिर में आएगा नहीं। प्रतिमा भी तुम्हारे नाम के पत्थर के लिए सहारा है। तुम ऐसा मत सोचना कि मंदिर तुमने बनाया परमात्मा का और अपना पत्थर लगाया है। मंदिर तुमने बनाया अपना और परमात्मा की प्रतिमा वहां रख दी है। वह केवल सजावट है मंदिर की। मंदिर तुम्हारे अहंकार का है।
जिस दिन यह दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा, उस दिन यह बात भी समझ में आ जाएगी कि मेरे रहते पुण्य नहीं हो सकता; कि मैं जो भी करूंगा, उसी पर पाप की छाया पड़ जाएगी। चूंकि मैंने किया, मैं सघनीभूत है, वहीं चारों तरफ पाप फैल जाएगा।
पल-पल का मैं गुनही तेरा, बक्सौ औगुन मोर।
मेरे अपराधों को, मेरे दुर्गुणों को, मेरे अवगुणों को क्षमा कर दो। भक्त क्षमा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कर सकता, क्षमा मांगने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर सकता।
यही फर्क है। भक्त साधक नहीं है। भक्त कहता है, मैं तो साधना भी करूंगा तो पाप हो जाएगा। मैं तो ध्यान भी करने बैठूंगा तो अकड़ आ जाएगी कि मैं ध्यानी। मैं तो दान भी दूंगा तो भी अहंकार ही उससे सजेगा, संवरेगा। वे अहंकार के ही आभूषण सिद्ध होंगे। मैं सिर्फ क्षमा ही मांग सकता हूं, कोई और उपाय नहीं है, असहाय हूं।
साधक का अर्थ ही होता है: वह, जो अभी उपाय में लगा है। जो कहता है, मैं कुछ करूंगा। पाप किया है? कोई फिक्र नहीं, पुण्य करके पाप को काटूंगा। बुरा किया है? कोई फिक्र नहीं, अच्छा करूंगा। चोरी की थी, दान कर दूंगा।
लेकिन करने वाला दोनों के भीतर मौजूद है, एक सा मौजूद है। ऊपर-ऊपर फर्क हो जाएंगे, काले वस्त्रों की जगह सफेद वस्त्र आ जाएंगे, लेकिन हृदय की कालिख न मिटेगी। दुनिया भला कहेगी, सम्मान मिलेगा, कोई अपमान न करेगा। लेकिन भीतर? भीतर अवस्था पहले से भी बुरी हो गई। क्योंकि पहले तो कुछ पीड़ा भी होती थी, स्वयं को भी अनुभव होता था, कांटा चुभता था, कि बुरा कर रहा हूं। अब तो भीतर अकड़ और बढ़ गई कि भला कर रहा हूं। अब तो फूल ही फूल खिल गए, सब कांटे खो गए। अब तो भीतर, संभावना भी थी क्रांति की, वह भी समाप्त हो गई।
इसीलिए कभी-कभी बुरा आदमी भी परमात्मा को पा लेता है, भले आदमी मुश्किल से पाते हैं। दुर्जन भी पहुंच जाते हैं, सज्जन का पहुंचना बड़ा मुश्किल हो जाता है। क्योंकि सज्जन यह मानता ही है कि अगर परमात्मा को मिलना हो तो खुद ही आ जाए। सज्जन तो यह मानता है कि वह परमात्मा पर थोड़ी कृपा ही कर रहा है--इतने पुण्य कर्म कर रहा है!
कभी-कभी पापी भी पहुंच जाते हैं, लेकिन पुण्यात्मा नहीं। क्योंकि पुण्य तो तुम करोगे ही कैसे? तुम जो भी करोगे, पाप होगा।
पाप की परिभाषा समझ लो: अहंकार से जो भी होगा, वह पाप।
पाप का संबंध परिणाम से नहीं है, पाप का संबंध स्रोत से है।
लोग कहते हैं पाप, अगर उसका परिणाम बुरा हो। तुमने किसी को मार डाला; क्योंकि वह मर गया, इसलिए पाप। तुम गए, और एक बीमार आदमी की सेवा की और वह बच गया, इसलिए पुण्य। परिणाम तुम्हारे कृत्य का अगर बुरा हुआ तो पाप, अगर भला हुआ तो पुण्य। यह साधारण नैतिक परिभाषा है। इससे कानून जीता है, अदालत जीती है।
धर्म की परिभाषा बहुत गहरी है। धर्म कहता है कि परिणाम से कोई संबंध नहीं है। क्योंकि कभी-कभी ऐसा होता है, तुम बुरा करना चाहते थे और परिणाम अच्छा हो जाता है। और कभी-कभी ऐसा भी होता है, तुम अच्छा करना चाहते थे और परिणाम बुरा हो जाता है। तुमने दवा बड़ी हितेच्छा से दी थी और मरीज मर गया। और एक आदमी रास्ते पर चला जा रहा था, तुमने क्रोध से पत्थर उठा कर मार दिया, उसकी खोपड़ी में चोट लग गई। उसको मानसिक बीमारी थी, वह चोट लगने से समाप्त हो गई। कभी परिणाम अच्छे हो जाते हैं।
इसलिए परिणाम गौण है, स्रोत! कहां से आता है कृत्य! पाप आता है अहंकार से, पुण्य आता है निरहंकार से। पाप तुम करते हो, पुण्य परमात्मा करता है।
तो पुण्य करने का उपाय क्या है? एक ही उपाय है कि तुम उसे करने दो, तुम कर्ता न रह जाओ। तुम छोड़ दो अपने को उसके हाथों में। वह जहां ले जाए।
कृष्ण की सारी गीता इस एक छोटी सी बात को समझाने के लिए कही गई है। अर्जुन नैतिक परिभाषा से उलझा है। वह कहता है, ये मेरे हैं। इनको मारूंगा, पाप लगेगा। इतने लोगों को मारूंगा, सारे प्रियजन मर जाएंगे, साम्राज्य भी मिल जाएगा तो क्या फायदा है? कौन सुखी होगा उस साम्राज्य को देख कर? मैं बैठ जाऊंगा, मरघट पर सिंहासन रख लूंगा।
लेकिन वह कहता है, ये मेरे हैं। इसलिए मारने से डरता है। अगर ये मेरे न होते, तो अर्जुन को जरा भी चिंता न थी। अगर इनमें प्रियजन न होते, भीष्म न होते, द्रोण न होते, भाई-बंधु न होते, तो अर्जुन को जरा चिंता न होती। उसने घास-पात की तरह इनको काट दिया होता। ये मेरे हैं; इनका मुझसे अहंकार का संबंध है।
और यह बात जरूर सच है कि अगर अपने ही सब जो हैं, वे मर जाएं, तो साम्राज्य तुमने जीत लिया, यह किसको दिखाओगे--झाड़ों को, वृक्षों को? आदमी प्रतिष्ठित होता है तो चाहता है कि परिवार के लोग जान लें, मित्र-प्रियजन पहचान लें। अगर तुम चले जाओ दूर अफ्रीका के किसी एकांत कोने में और वहां तुम्हारी पूजा भी होने लगे, तो भी तुम्हारे मन में आकांक्षा यही होगी कि पूना के लोगों को खबर हो जाए। क्योंकि वहां पूजा का मतलब भी क्या है? जो तुम्हें सदा से जानते हैं, निकट हैं, प्रिय हैं, उनके सामने ही तुम्हारी पूजा हो, तो ही अहंकार को कुछ मजा है। अगर जंगल में तुम चले जाओ और आकाश से फूल भी बरसने लगें, देवी-देवता भी तुम्हारी पूजा करें, तुम्हें कुछ मजा न आएगा। क्योंकि झाड़, वृक्ष, जंगली जानवर देखेंगे, आदमी तो कोई होगा नहीं। आदमी कम से कम देख ले। क्योंकि आदमी से चाहे कितना ही अपरिचय हो, फिर भी आदमी तुम्हारा है, समान-जातीय है, एक-गुणधर्मा है।
अर्जुन कह रहा है, मेरे हैं, इसलिए मारने से डरता हूं, पाप होगा। और कृष्ण उसे यही समझा रहे हैं कि मेरे का खयाल ही पाप है। तू मेरे के खयाल को छोड़ दे, तू निमित्त मात्र हो जा। तू कर्ता मत रह, परमात्मा को करने दे। फिर जो परमात्मा को करना हो। तू बीच में मत आ। फिर जो भी होगा, वह पुण्य होगा।
चूंकि अर्जुन बन सका निमित्त, इसलिए व्यास ने कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहा है। वह युद्ध धर्मयुद्ध हो गया; क्योंकि वह फिर अर्जुन ने नहीं लड़ा, परमात्मा ही अर्जुन के माध्यम से लड़ा। अर्जुन सिर्फ खूंटी हो गया। परमात्मा ने अपने को उस खूंटी पर टांग दिया। अर्जुन कोई भी न रहा, वह बीच में बाधा न बना। वह बांसुरी हो गया, स्वर उसके गूंजने लगे, गीत उसका उतरने लगा।
पल-पल का मैं गुनही तेरा, बक्सौ औगुन मोर।।
पल-पल गुनाह किया है, तिल-तिल अपराध किया है, रत्ती-रत्ती चोरी की है, और मुझे कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता सिवाय इसके कि तुम क्षमा कर दो। मेरे बस में कुछ भी नहीं है कि मैं इसका प्रतिकार करूं। तो मैं जो भी करूंगा, वह फिर इसी में ही जोड़ होगा।
इस घड़ी में भक्ति का जन्म होता है। भक्ति बहुत अनूठा फूल है। साधक होना साधारण बात है, अहंकार का हिस्सा है। भक्त होना बड़ी असाधारण बात है। उससे बड़ी कोई क्रांति नहीं है।
गुनहगार अपराधी तेरा, भाजि कहां हम जाहिं।
कहां भागूं? भाग कर जाऊंगा कहां? कुछ भी करूं, कोई बचाव नहीं है। कहीं भी जाऊं, कोई बचाव नहीं है, क्योंकि मैं तो मैं ही रहूंगा। हिमालय चला जाऊंगा तो भी मैं तो मैं ही रहूंगा। मैं जहां भी रहूंगा वहीं पाप होता रहेगा, वहीं गुनाह होता रहेगा। मेरे होने में ही समाया है।
संसार को छोड़ कर भक्त नहीं भागता। क्योंकि भक्त कहता है, भाग कर जाऊंगा कहां? इसलिए भक्ति के जितने संप्रदाय हैं, वे कोई भी त्यागवादी और भगोड़े नहीं हैं। उन्होंने पलायन नहीं सिखाया है। भक्त कहता है, भाग कर कहां जाऊंगा? भाग कर किससे जाऊंगा? अगर किसी और के कारण पाप हो रहा था, तो भागने से बच जाता। पाप अपने कारण हो रहा है।
तो जंगल में तुम अकेले बैठोगे तो भी तुम विचार तो वही करोगे जो तुम यहां करते थे। हो सकता है करने का भी मौका न मिले, तो सपने देखोगे, सपनों में करोगे। लेकिन धारा तो जारी रहेगी। अनवरत शृंखला वही बहती रहेगी। बाजार जारी रहेगा। तुम भला एकांत में बैठे रहो, भीड़ मौजूद रहेगी। तुम वही करते रहोगे भीतर, जो तुम यहां कर रहे थे। अगर तुम क्रोध यहां कर रहे थे, तो वहां भी तुम क्रोध करोगे। हो सकता है आदमी न मिलेंगे क्रोध करने को, तो कौआ बीट कर देगा वृक्ष के ऊपर से, सिर पर बीट गिर जाएगी, क्रोध आ जाएगा। परिस्थिति तो कुछ न कुछ मौजूद रहेगी। अगर परिस्थिति से तुम आविष्ट हो जाते हो, क्रोध आ जाता है, दुख आ जाता है, पीड़ा आ जाती है, तो परिस्थिति तो मिटेगी नहीं, हिमालय पर भी रहेगी। अगर कोई भी क्रांति होनी है, तो वह मनःस्थिति की है। परिस्थिति की क्रांति से कोई प्रयोजन नहीं है।
गुनहगार अपराधी तेरा, भाजि कहां हम जाहिं।
भाग भी लिया होगा दादू ने। पहले आदमी कोशिश करता है सब। अपने से हो जाए तो अच्छा। जब नहीं होता; जब पाता है, यह होना असंभव है; यह स्वभाव का सिद्धांत ही नहीं; तभी यह बोध उठता है कि भाजि कहां हम जाहिं? भाग कर देख लिया होगा। काशी-काबा भटक लिए होंगे, तीर्थयात्रा कर ली होगी, मंदिर-मस्जिद झांक लिए होंगे, शास्त्रों में प्रवेश कर लिया होगा, एकांत गुफाओं में निवास कर लिया होगा, पाप छोड़ कर पुण्य कर लिया होगा, चोरी छोड़ कर दान कर लिया होगा, गाली-गलौज छोड़ कर प्रार्थना कर ली होगी, लेकिन पाया होगा, कुछ होता नहीं। जिस हृदय से गाली-गलौज उठती थी, उसी से प्रार्थना उठ रही है, तो प्रार्थना में भी कोई मौलिक भेद नहीं हो सकता।
वेदों में इस तरह की प्रार्थनाएं हैं जो मन को घबड़ाती हैं। वेद बहुत ईमानदार शास्त्र हैं। उन्होंने आदमी को वैसा ही चित्रित किया है जैसा आदमी है। और यह अच्छा है, क्योंकि आदमी की सही तस्वीर होनी चाहिए। तो वेदों में ऐसी प्रार्थनाएं हैं जिनको हम प्रार्थना भी नहीं कह सकते। एक किसान प्रार्थना करता है कि हे परमात्मा, हे इंद्र देवता, वर्षा हो तो मेरे खेत में हो, मेरे दुश्मन के खेत में न हो। यह प्रार्थना है! मेरी गाय के थनों में तो दुगुना दूध हो जाए, पड़ोसी की गाय के थन सूख जाएं। यह प्रार्थना है! वेद बहुत ईमानदार शास्त्र हैं। उन्होंने इनको भी संगृहीत किया है। क्योंकि आदमी के हृदय को साफ करने की जरूरत है। आदमी का हृदय ऐसा है। वह गाली बके तो गाली भी वहीं से आती है, प्रार्थना भी वहीं से आती है।
दादू ने प्रार्थना भी कर ली होगी और पाया होगा कि गाली से उस प्रार्थना के गुण में कोई फर्क नहीं पड़ता। वह वही की वही है। शब्द बदल जाते हैं, ज्यादा सौष्ठव, सुसंस्कृत, लेकिन उनका मूल आधार वही है।
गुनहगार अपराधी तेरा, भाजि कहां हम जाहिं।
यह बहुत बड़ी क्रांति का क्षण है जब तुम्हें समझ में आ जाए कि भाजि कहां हम जाहिं? कहां भाग कर जाएंगे? नहीं, कोई शरण नहीं है, कोई बचाव नहीं है, कोई सुरक्षा नहीं है। गिरना ही पड़ेगा। छोड़ना ही पड़ेगा अस्मिता को। वह जो भाग-भाग कर बच रहा है, वह भी अहंकार है। वह आखिरी कोशिश में लगा है कि कोई उपाय खोज लेंगे। पुण्य का आवरण बना लेंगे, प्रार्थना के वस्त्र बना लेंगे, पूजा के आभूषण बना लेंगे। संसार बुरा है, बुराई हो जाती है। मंदिर में छुप कर बैठ रहेंगे, बाहर निकलेंगे ही न।
लेकिन ध्यान रखना, जब तक तुम पलायन करोगे, तब तक तुम रूपांतरित न होओगे। पलायन का अर्थ ही है कि तुम रूपांतरण से बचने की कोशिश कर रहे हो। किसी तरह जैसे हो वैसे ही रह जाओ, परिस्थिति भर बदल जाए। यही तो हर आदमी कर रहा है। गरीब आदमी से पूछो। वह कहता है, मैं दुखी हूं, क्योंकि धन नहीं है। धन की तलाश कर रहा हूं, धन मिलते ही सुखी हो जाऊंगा।
धनी आदमी से पूछो। वह कहता है, धन तो मिल गया, लेकिन मैं सुखी नहीं हूं। मैं पद की तलाश कर रहा हूं। क्योंकि धन से अकेले क्या होगा? जब तक राष्ट्रपति न हो जाऊं, प्रधानमंत्री न हो जाऊं, कुछ भी धन से न होगा। तो लुटा दूंगा सारा धन चाहे चुनाव में, लेकिन प्रधानमंत्री होना है। एक दफा प्रधानमंत्री हो जाऊं, तो सुख ही सुख है।
प्रधानमंत्रियों से पूछो, राष्ट्रपतियों से पूछो। कोई सुख नहीं दिखाई पड़ता। जो जहां है, वहीं दुखी है। लेकिन इस आशा में कि कहीं और सुख होगा, आदमी दुख के मूल को नहीं देख पाता। यह नहीं देख पाता कि मेरे होने के ढंग में दुख है। तो मैं अगर प्रधानमंत्री हो जाऊं तो प्रधानमंत्री होकर दुखी होऊंगा।
गरीब आदमी अपने झोपड़े में दुखी होता है, अमीर आदमी अपने महल में दुखी होता है। दुख में कोई फर्क नहीं पड़ता। गरीब आदमी गरीब ढंग से दुखी होता है, अमीर आदमी अमीर ढंग से दुखी होता है। लेकिन दुख में कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि दुख का कोई संबंध बाहर की किसी स्थिति से नहीं है। दुख पैदा होता है अहंकार के चुभने से, और वह भीतर है।
भाजि कहां हम जाहिं।
फिर ऐसी घड़ी आ जाती है कि संसार भर दुख है, ऐसा भी अनुभव होने लगता है, तो आदमी संसार को छोड़ कर भागता है। फिर भी अहंकार को नहीं छोड़ता, संसार को छोड़ता है। पहले गरीबी को छोड़ता था, अमीरी को पकड़ता था; अब संसार को छोड़ता है, संन्यास को पकड़ता है। लेकिन अभी भी यात्रा बाहर ही होती है। संसार और संन्यास दोनों बाहर हैं। अभी भी वह घड़ी नहीं आई जहां उसको समझ में आ जाए--भाजि कहां हम जाहिं।
जब यह समझ में आ जाता है कि भाग कर कहीं भी नहीं जा सकते। भागने का कोई उपाय ही नहीं है, हम बिलकुल निरुपाय हैं, असहाय हैं।
दादू देखा सोधि सब...
सब शोध लिया, सब अनुभव कर लिया।
...तुम बिन कहिं न समाहिं।
और कोई जगह नहीं है, जहां छुटकारा हो सके। तुम बिन कहिं न समाहिं! बस तुम्हीं हो एक, जहां समाना हो सकता है; और कहीं समाएंगे न।
दादू देखा सोधि सब...
जल्दी मत करना। क्योंकि अगर तुमने जल्दी की तो पके नहीं रहोगे तुम। एक तो पके फल का गिरना है। न तो वृक्ष को चोट लगती है, कानों-कान किसी को खबर भी नहीं होती, पका फल चुपचाप गिर जाता है। एक कच्चे फल का गिरना है। पत्थर मारो, लकड़ी से चोट करो, तब भी कच्चा फल प्रतिरोध करता है, रुकने की कोशिश करता है। अभी पका ही नहीं है, गिराने की कोशिश शुरू हो गई। फिर तुम उसे गिरा भी लो, तो वह कच्चा है, किसी योग्यता का नहीं है। फिर उसे तुम गर्मी में रख कर किसी तरह पका भी लो, तो उसमें स्वाद नहीं है, सुगंध नहीं है। वह अपनी नैसर्गिक निष्पत्ति को उपलब्ध नहीं हुआ।
जल्दी मत करना। अगर दादू को भी सब शोध कर देखना पड़ा, तो तुम दादू से ज्यादा कुशल होने की कोशिश मत करना। क्योंकि जब सब शोध कर कोई देख लेता है, जीवन के सब अनुभव जी लेता है, तब एक पकान, एक परिपक्वता आती है। तब तुम गिर पड़ते हो पके फल की भांति।
दादू देखा सोधि सब...
जरा सी भी रेखा नहीं रहती भीतर कोई--कि शायद थोड़ी देर और वृक्ष पर रह जाते तो सुख मिलता; कि शायद इस वर्षा और टिक जाते तो सुख मिलता; कि शायद हवा का एक झोंका आने को था और सुख की वर्षा हो जाती और पहले ही छूट गए। अगर जरा सी भी रेखा आशा की शेष रह गई है, तो तुम गिर भला जाओ, वह गिरना समर्पण न होगा। और अगर समर्पण न होगा, तो परमात्मा के चरण उपलब्ध न होंगे।
इसे ठीक से समझ लो। इसे मैं फिर दोहराता हूं। तुम्हारी परिपक्वता से पैदा हुआ जो समर्पण है, वहीं परमात्मा के चरण प्रकट होते हैं। अगर तुम कच्चे गिर गए, तो न तो तुममें स्वाद होगा, न तुममें सुगंध होगी, न परमात्मा के चरण तुम्हें उपलब्ध होंगे।
अनेक बार अनेक लोग मेरे पास आ जाते हैं। वे कहते हैं, सब छोड़ दिया, अभी तक परमात्मा मिला नहीं।
छोड़ने में कहीं भूल हो गई होगी। छोड़ने के पहले ही भूल हो गई होगी। छोड़ दिया होगा दादुओं को सुन कर। क्योंकि दादू कहते हैं कि सब व्यर्थ। लेकिन यह दादू का अपना परिपक्व अनुभव है, तुम्हारा नहीं। सुन लिया दादू को, बात जंच गई, छोड़ दिया। बात जंची, अनुभव न था। सुगंध न आई, स्वाद न आया, पके नहीं, अधपके रह गए। इससे बेहतर था वृक्ष पर ही रहते। थोड़ी प्रतीक्षा करते, थोड़ा धैर्य रखते।
प्रत्येक व्यक्ति को सारे अनुभवों से गुजरना पड़ता है। यहां कोई शार्टकट, कोई जल्दी पहुंच जाने का मार्ग नहीं है। परमात्मा शार्टकट में भरोसा ही नहीं करता। क्योंकि जितनी जल्दी घटना घट जाए, उतने ही अधपके तुम रह जाओगे।
जैसे कोई बच्चा जल्दी जबरदस्ती मशीन की सहायता से जवान कर दिया जाए। तुम जानते हो कैसी मुसीबत हो जाएगी! हवा भर दी जाए उसके भीतर और उसके शरीर को बड़ा कर दिया जाए। वह रहेगा तो बच्चा ही, दिखने लगेगा जवान। अब और मुश्किल होगी। अगर वह बच्चा ही था, तो लोग उसको माफ भी कर देते, अब लोग उसको माफ भी न कर पाएंगे। अब वह दिखता तो जवान है और भीतर बच्चा है। अगर तुम उसे रास्ते पर खिलौने से खेलते देखोगे, तो हंसोगे। कहोगे, पागल है! छोटा बच्चा था और खिलौने से खेलता, कोई पागल न कहता। वह बिलकुल योग्य था, तालमेल था, गणित सीधा था। अब यह बच्चा है। दिखता जवान है, दाढ़ी-मूंछ उग गई, खेल रहा है खिलौनों से। लोग हंसेंगे। लोग कहेंगे, तुम पागल हो।
अगर किसी को जबरदस्ती बूढ़ा कर दिया जाए, उसकी जिंदगी तो वहीं अटकी रहेगी जहां तक स्वभाव उसे लाया था। तुमने जबरदस्ती उसे बूढ़ा कर दिया, हार्मोन के इंजेक्शन दे दिए और किसी तरह ठोंक-पीट कर उसको बड़ा कर दिया। वह बूढ़ा भी मूलतः तो बच्चा रहेगा और बड़ी बेचैनी में, दुविधा में पड़ जाएगा।
ऐसे मैंने बहुत लोग देखे हैं। संन्यास लेकर बैठ गए, जंगल में कुटी बना ली। मन अभी बाजार में था। मन अभी बच्चे का था। अभी खिलौने और कुछ दिन चाहिए थे। अभी सब शोध कर न देखा था और परमात्मा का लोभ पकड़ गया। यह भी लोभ है, यह समझ नहीं है। क्योंकि परमात्मा की तरफ जब कोई जाता है तो दो तरह से जा सकता है। या तो जीवन के अनुभव ने उसे भेजा, पकाया, पूरा हुआ, वृक्ष छूट गया संसार का। छोड़ा नहीं, छूट गया। फल गिर गया। और एक लोभ के कारण--कि सुना कि संत कहते हैं बड़ा आनंद है; कि परम आनंद है, परमानंद है परमात्मा को पाने में। लोभ जगा; भाग खड़े हुए बाजार से, संसार से; परमात्मा की तलाश में लग गए।
ऐसे आदमियों से परमात्मा भागता है और बचता है। क्योंकि ये अभी योग्यता को अर्जित ही न कर पाए। अभी इनका स्वर्णपात्र तैयार भी न हुआ था और अमृत की खोज में निकल गए। स्वर्णपात्र तैयार हो, तो ही अमृत उस पात्र में गिरेगा। पात्रता न हो, तो अमृत के अवतरण की कोई संभावना नहीं है।
दादू देखा सोधि सब...
ऐसा किसी शास्त्र को पढ़ कर दादू ने नहीं कहा है। ऐसा किन्हीं और संतों को पढ़ कर दादू ने नहीं कहा है। कबीर कहते हैं, लिखा लिखी की है नहीं, देखा देखी बात। ऐसा कुछ पढ़ा, लिखा और जान लिया, ऐसा नहीं है। देखा! देखा देखी बात।
दादू देखा सोधि सब...
सब देखा, अपनी आंख से देखा। अपने प्राणों से परिचय पाया।
तुम बिन कहिं न समाहिं।
और यह अपने में ही अनुभव उठा है। यह किसी शास्त्र का उधार वचन नहीं है। यह अपने ही प्राणों में उठा है स्वर--तुम बिन कहिं न समाहिं। कहीं भी भाग कर जाएं--भाजि कहां हम जाहिं। कहीं कोई भागने की जगह नहीं है। तुम ही हो एकमात्र शरण। तुममें ही गिरने का, खो जाने का उपाय है। तुम्हारे अतिरिक्त कोई तृप्त न करेगा। तुम्हारे अतिरिक्त कोई सुख नहीं। तुम्हारे अतिरिक्त कोई शांति नहीं। तुम्हारे अतिरिक्त कोई धन नहीं, कोई पद नहीं। तुम ही सार-सर्वस्व हो।
तुम बिन कहिं न समाहिं।
और कहीं भी समाने की सुविधा नहीं है। लहर वापस सागर में ही समा सकती है; और कहां समाएगी? कितनी ही उठे आकाश की तरफ, आकाश में न समा सकेगी। हवाओं के साथ थोड़ी देर खेल ले, इठला ले, हवाओं में न समा सकेगी। लहरों का अंतिम गंतव्य सागर ही होगा। क्योंकि जहां से हम आते हैं, वहीं हम समा सकते हैं। स्रोत ही हमें स्वीकार कर सकता है पुनः। और कहीं हम समा नहीं सकते।
जहां से तुम आए हो, वहीं तुम वापस लौटोगे। बाकी यात्रा लंबी हो, छोटी हो, लेकिन उस यात्रा में कहीं भी तुम समा नहीं सकते। और जब तक तुम समा न जाओ, तब तक कैसा सुख! जब तक तुम इतने न समा जाओ कि तुम्हें अपना बोध भी न रह जाए, तब तक कैसी समाधि! तब तक कैसा हर्षोन्माद! नहीं, संभव नहीं। तुम भूल जाओ; इतने भूल जाओ कि तुम्हें यह भी पता न हो कि मैं हूं। सागर ही रह जाए, लहर खो जाए।
तुम बिन कहिं न समाहिं।
आदि अंत लौ आई करि, सुकिरत कछू न कीन्ह।
शुरू से लेकर आज तक कुछ भी पुण्य हमसे न हो सका। अगर तुम्हें थोड़ा भी खयाल हो कि एकाध पुण्य तुमने किया है, तो तुम अभी भक्त न हो सकोगे।
आदि अंत लौ आई करि...
आदि से अंत तक--आज तक।
...सुकिरत कछू न कीन्ह।
कोई सुकृत्य हमसे हुआ हो, ऐसा नहीं है। पुण्य हुआ ही नहीं, पाप ही पाप हुआ है।
इससे तुम यह मत समझ लेना कि दादू महापापी रहे होंगे। तुमसे तो बहुत सुकृत हुए हैं। यही पुण्य की शुरुआत है--पाप का बोध। पाप का बोध ही पुण्य का जन्म है। और जिस दिन तुम पाते हो कि अपने से कुछ ठीक हुआ ही नहीं। क्योंकि हम ही ठीक न थे, ठीक होता कैसे? कृत्य तो कर्ता से आता है। तुम ही तिरछे थे, तो तुमसे जो भी हुआ वह तिरछा हुआ। तुम ही अंधकार में थे, तुमसे जो पैदा हुआ वह अंधकार से भरा था। तुम बेहोश थे, तुमसे जो आया उससे बेहोशी और संसार की बढ़ी, घटी नहीं।
एक आदमी शराब पीए रास्ते पर जा रहा है; उससे जो भी होगा, वह गलत ही होगा।
मैंने सुना, अकबर निकलता था एक दिन अपने हाथी पर सवार और एक शराबी ने खड़े होकर अपने छप्पर पर मकान के, उसे गालियां देनी शुरू कर दीं।
सम्राटों को गालियां तो कोई भी देना चाहता है, क्योंकिर् ईष्या पलती है। उन्हीं गालियों को छिपाने के लिए हम सम्राटों की प्रशंसा करते हैं, ताकि किसी को शक न हो जाए कि तुम्हारे भीतर गाली है। जिसके पास ज्यादा धन है, जिसके पास ज्यादा शक्ति है, वह स्वभावतः जिनके पास नहीं है, उनमें गहनर् ईष्या को पैदा करता है। उसर् ईष्या का कहीं पता न चल जाए, कहीं तुम पकड़े न जाओ, इसलिए लोग अतिशय दूसरी तरफ झुक जाते हैं--प्रशंसा करते हैं, खुशामद करते हैं। सम्राटों की जो स्तुति करने वाले लोग हैं, अगर तुम उनके हृदय में खोजो तो स्तुति का कण भी न पाओगे, गालियां ही गालियां पाओगे। उन्हीं गालियों को छिपाने के लिए तो स्तुति चल रही है। वे जो भीतर घाव हैं, उनको छिपाने के लिए सुंदर आभूषण बनाए गए हैं।
यह शराब पीए था। इसे होश ही न रहा कि क्या कर रहा है। दिल की सीधी बात निकल गई। शराब का बड़े से बड़ा खतरा यही है कि तुम साफ होश में नहीं रहते। क्या कहना है, वह भूल जाते हो। जो भीतर था, वही बाहर आ जाता है। लोग जानते हैं अच्छी तरह कि शराब जब कोई पी लेता है, तो कम से कम धोखा नहीं दे सकता; ईमानदार और सच्चा हो जाता है। ईमानदार इस अर्थों में कि जो भी है भीतर, वह बाहर आ जाता है। वह छिपाने वाला, ढांकने वाला मौजूद नहीं है। खूब दिल खोल कर गाली दे रहा था। अकबर ने उसे पकड़वा बुलाया। रात भर जेल में रखा, सुबह उसे दरबार में बुलाया और कहा कि यह क्या बदतमीजी है! इस तरह की गालियां तुमने क्यों दीं?
उसने कहा, मैंने गालियां दी ही नहीं। मैं शराब पीए था। मैं तो सदा आपकी स्तुति करता हूं। वह स्तुति करने लगा। उसने सम्राट की प्रशंसा के गीत बनाए थे, वह गीत गाने लगा। उसने कहा कि मैं तो आपकी ही स्तुति के गीत लिखता हूं। शराब पीए था, उसके लिए मैं जिम्मेवार नहीं हूं।
अकबर को भी बात समझ में आई कि शराब पीए था तो आदमी कैसे जिम्मेवार हो सकता है? बेहोशी में जो किया गया है, वह क्षम्य है। और होश में तो आदमी देखो, स्तुति कर रहा है। माफ कर दिया उस आदमी को।
दादू कहते हैं, सुकिरत कछू न कीन्ह! अब तक जो भी हुआ, सब गलत ही हुआ। होश ही न था। पुण्य करते भी तो कैसे करते? कौन करता पुण्य? पुण्य भी किया तो पाप ही हुआ। सोने को भी छुआ तो मिट्टी हो गई। हम ही गलत थे, हमारे किए ठीक होने का कोई उपाय ही न था।
यह बात जब किसी को समझ में आती है तो विनम्रता का जन्म होता है। तब आदमी अपनी असलियत को देख पाता है। तब झुकना नहीं पड़ता। झुकने का सवाल ही नहीं उठता। अकड़ कर खड़े रहने का उपाय नहीं रह जाता। तब ऐसा नहीं कि झुकना पड़ता है। इसलिए मैंने कहा कि खाली थैले की तरह। जिस दिन बोध आता है, थैला छूट जाता है, गिर जाता है।
आदि अंत लौ आई करि, सुकिरत कछू न कीन्ह।
माया मोह मद मंछरा, स्वाद सबै चित दीन्ह।।
और इन्हीं चीजों का स्वाद लिया है अब तक--माया का, मोह का, मद का, मत्सर का। तेरा तो कोई स्वाद अब तक लिया नहीं।
स्वाद सबै चित दीन्ह।
इसी तरह की गलत चीजों में भटकते रहे। क्योंकि जब तक भीतर अहंकार हो, तब तक माया से, मोह से, मद से, मत्सर से ही संबंध हो सकता है। क्योंकि ये सब साथी हैं, सगे-संबंधी हैं। यह परिवार है। अहंकार केंद्र है; माया, मोह, मत्सर उसकी परिधि।
दादू बंदीवान है, तू बंदी छोड़ दिवान।
अब जनि राखौं बंदि मैं, मीरा मेहरबान।।
दादू कहते हैं, मैं तेरे कारागृह में पड़ा हूं। बंदी हूं, पापी हूं, गुनहगार हूं। तू क्षमा करने वाला है। मैंने सिवाय पापों के कुछ भी नहीं किया है, इसलिए क्षमा मांगने का कोई अधिकार मेरा नहीं।
इस बात को खयाल रखना। क्योंकि तुम अगर अधिकारपूर्वक क्षमा मांगो, तो गलत हो गई। तुम अगर यह कहो कि क्षमा के योग्य हूं इसलिए क्षमा कर, तो बात गलत हो गई। क्षमा तो तभी घट सकती है जब तुम कहो कि मैं क्षमा के योग्य तो नहीं हूं, लेकिन तू क्षमावान है।
इस भेद को ठीक से समझ लेना। तुम अदालत में जाते हो, अगर तुम क्षमा मांगते हो तो तुम्हें सिद्ध करना होता है कि तुम क्षमाऱ्योग्य हो। कहीं भूल-चूक हो गई है कानून की। तुम गलत पकड़े गए हो। लेकिन परमात्मा की अदालत में अगर तुमने यह कोशिश की कि मैं क्षमाऱ्योग्य हूं, तो तुम्हारा अहंकार ही अभी चेष्टा कर रहा है। कि तुमने कहा कि देखो, मैंने कितने व्रत-उपवास किए, कितनी पूजा-प्रार्थना की, कितने करोड़ बार मंत्र-जाप किया, गायत्री पढ़ी, गीता का पाठ किया और फिर भी मुझे क्षमा नहीं किया जा रहा है?
उमर खय्याम ने अपने एक गीत में लिखा है कि गांव का जो मौलवी है वह मुझसे कहता है कि अगर तू शराब पीए ही चला गया तो भगवान तुझे क्षमा न करेगा। और मैं अपने मन में सोचता हूं कि क्या भगवान मुझे तभी क्षमा करेगा जब मैं क्षमा के योग्य होऊंगा? या भगवान इसलिए क्षमा करेगा क्योंकि वह क्षमावान है?
उमर खय्याम ठीक कह रहा है। क्षमा इसलिए नहीं किए जाओगे कि तुम क्षमा के पात्र थे। क्षमा तुम इसलिए किए जाओगे कि तुमने अपनी अपात्रता स्वीकार की। और जिस दिन तुम अपनी अपात्रता स्वीकार करते हो, परमात्मा तुम्हारी तरफ बहना शुरू हो जाता है। वह क्षमावान है। क्षमा उसका स्वभाव है। जैसे पानी गिरता है तो गङ्ढे की तरफ बहता है। पानी का स्वभाव गङ्ढे की तरफ बहना है। अगर तुम पहाड़ बने बैठे हो, पानी तुम्हारी तरफ नहीं बहेगा। कुछ ऐसा भी नहीं है कि पानी तुम्हारे से कुछ विरोध में है; कि तुमसे कोई पानी की दुश्मनी है। लेकिन तुम बाधा किए खड़े हो। तुम पहाड़ बने बैठे हो। पानी तुम्हारी तरफ न बह सकेगा। तुम खाई-खड्ड बन जाओ। वही पानी जो कभी तुम्हारी तरफ न बहा था, बहना शुरू हो जाएगा।
परमात्मा क्षमावान है। लेकिन अगर तुम अहंकारी हो, तो तुम पहाड़ की तरह हो; तुम्हारी तरफ क्षमा बह नहीं सकती। अगर तुम एहसास करते हो कि मैं क्षमाऱ्योग्य भी नहीं। सब गुनाह ही गुनाह मेरे हाथ हैं, पाप ही पाप। प्रारंभ से आज तक बुरा ही बुरा मुझसे हुआ है। बेहोश था, सोया था, ठीक होने का कोई उपाय न था। तुम गङ्ढा बन गए, तुम विनम्र हुए। क्षमा बहनी शुरू हो जाएगी।
बहुत बड़ा विवाद है पंडितों में, धर्मशास्त्रियों में--कि परमात्मा क्षमावान है या न्याययुक्त? बहुत पुराना विवाद है। भक्त कहते हैं, क्षमावान है। साधक कहते हैं, न्याययुक्त है। भक्त और साधक में एक बुनियादी फासला सदा बना रहता है।
साधक कहते हैं, न्याययुक्त है। क्योंकि जिसने ठीक किया है, उसे वह सुख देगा। जिसने गलत किया है, उसे वह दंड देगा। न्याय का अर्थ होता है कि ठीक को ठीक परिणाम मिले, गलत को गलत परिणाम मिले। क्षमावान का अर्थ होता है कि गलत को भी क्षमा मिल सकती है। साधक को वह सहनीय नहीं है। साधक कहता है, इसका तो मतलब हुआ कि हम जो बैठे रहे आसन लगाए, शीर्षासन किया, व्रत-उपवास किए, सब व्यर्थ गए? तुम शराब पीते रहे और क्षमा मिल गई? यह बरदाश्त के बाहर है। साधक का अहंकार इसे स्वीकार नहीं कर पाता।
इसलिए जो असली साधकों का वर्ग रहा है, उसने तो परमात्मा को भी इनकार कर दिया। क्योंकि परमात्मा को मानने की जरूरत ही क्या है? अगर वह न्याययुक्त है, तो न्याय काफी है, परमात्मा के होने की जरूरत क्या है? कानून काफी है।
इसे ऐसा समझो कि परमात्मा पापी को दंड देता है, पुण्यात्मा को पुरस्कार देता है। परमात्मा की जरूरत क्या है अगर इसमें वह कोई फर्क नहीं कर सकता तो? परमात्मा के ऊपर अगर कानून है, तो परमात्मा की जरूरत क्या है? कानून काफी है।
इसलिए जैन, जो कि साधकों का शुद्धतम वर्ग है, वे परमात्मा को स्वीकार नहीं करते। वे कहते हैं, परमात्मा को स्वीकार करने का मतलब यह हुआ कि कानून के ऊपर भी कोई है। तो जो कानून के ऊपर है वह कानून में फर्क कर सकता है। जो कानून के ऊपर है वह कानून के विपरीत भी कर सकता है। और अगर परमात्मा ने ही कानून बनाया है तो वह उसमें तरमीम कर सकता है, सुधार कर सकता है। इसलिए परमात्मा खतरनाक है। जैन कहते हैं, परमात्मा को मानना ही मत--नियम, धम्म। धर्म का अर्थ है कानून। संसार कानून से चल रहा है, परमात्मा से नहीं। क्योंकि परमात्मा में थोड़ी क्षमा की संभावना आ जाती है। शायद दया खा जाए। अगर दया संभव ही नहीं है, करुणा संभव ही नहीं है, तो परमात्मा व्यर्थ है। उसके होने की कोई जरूरत नहीं है।
जैन, साधकों का शुद्ध वर्ग है; संकल्प के यात्रियों का शुद्ध वर्ग है। इसलिए जैन धर्म में प्रार्थना के लिए कोई गुंजाइश नहीं है, पूजा के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। व्रत, तपश्चर्या के लिए गुंजाइश है। अपने को शुद्ध करना है। जिस मात्रा में तुम शुद्ध हो जाओगे, उसी मात्रा में तुम्हें सुख की उपलब्धि हो जाएगी। यह सीधा गणित है। इसलिए जैन शास्त्रों में काव्य बिलकुल नहीं है।
मुझसे बहुत बार लोग आकर कहते हैं, आप कबीर पर बोलते हैं, दादू पर बोलते हैं, कृष्ण पर बोलते हैं, लाओत्सु, न मालूम किन-किन पर बोलते हैं। लेकिन आप जैन शास्त्रों पर क्यों नहीं बोलते--कुंदकुंद, उमास्वाती? उनसे मैं कहता नहीं, वे दुखी होंगे। लेकिन उमास्वाती और कुंदकुंद को पढ़ कर ऐसा लगता है, गणित की कोई किताब पढ़ रहे हैं। काव्य बिलकुल नहीं। और जहां काव्य न हो, वहां बोलने का कोई उपाय नहीं। गणित की किताब कितनी ही साफ-सुथरी हो, बेरस है। सिर्फ तर्क है; प्राण नहीं है, हृदय की धड़कन नहीं है।
दादू कहते हैं: दादू बंदीवान है, तू बंदी छोड़ दिवान।
मैं बंदी हूं, कारागृह में तेरे पड़ा हूं, पापी हूं, गुनहगार हूं, रत्ती-रत्ती का चोर हूं। अब भरोसा इसका नहीं है कि मेरे पुण्यों के कारण मैं छूटूंगा। वह सवाल नहीं है। पुण्य मैंने किए नहीं हैं। आदि से अब तक कुछ याद नहीं पड़ता कि सुकृत मुझसे हुआ हो। उतना होश ही नहीं है। अब तो एक ही भरोसा है: तू बंदी छोड़ दिवान। कि तू क्षमा करने वाला है, कि तू महा करुणावान है। तेरी करुणा का ही भरोसा है, अपने कृत्यों का नहीं।
अब जनि राखौं बंदि मैं, मीरा मेहरबान।।
अब और बंदी रखने की कोई जरूरत नहीं। स्वीकार करता हूं कि मैं पापी हूं। अब और दिखाने की कोई जरूरत नहीं। देख लिया। अहंकार की यात्रा देख ली। अहंकार का फल चख लिया। अब और बंदी रखने की कोई जरूरत नहीं है। अब तू क्षमा कर सकता है। अब मैं क्षमा मांग नहीं रहा हूं कि मेरी कोई योग्यता है। अब सारी योग्यता छोड़ दी। अब और क्या कारण है? अब क्या बाधा है? अब मैं गङ्ढा बनने को तैयार हूं।
अब जनि राखौं बंदि मैं...
अब और क्या बंदी रखता है? अब तो बात ही खतम हो गई, कोई लड़ाई ही न रही। अपनी तरफ से तो मैं बंदी होने के ही योग्य हूं; वह सवाल नहीं है। अब तेरी क्षमा का सवाल है।
यह भक्त की दृष्टि का भेद है। भक्त दावेदार नहीं है। साधक दावेदार है। भक्त तो केवल प्रार्थना करता है। वह कहता है, प्रसादरूप कुछ मिल जाए तो ठीक। मिल जाए तो धन्यवाद देगा, न मिले तो शिकायत नहीं कर सकता है। साधक, मिल जाए तो धन्यवाद नहीं देगा, क्योंकि मिला अपने सुकृत से; न मिले तो शिकायत करेगा। भक्त की कोई शिकायत नहीं। वह शिकायत-शून्य हृदय है। न मिले तो वह जानता है कि मिलने का कोई कारण ही नहीं है। नहीं मिला, साफ ही है बात, मिलने की मेरी कोई पात्रता न थी। मिल जाए तो वह अहोभाव से नाचता है, धन्यवाद देता है--कि जो नहीं होना था वह हो गया है, प्रसाद उपलब्ध हुआ है।
दिन-दिन नौतन भगति दे, दिन-दिन नौतन नांव।
दिन-दिन नौतन नेह दे, मैं बलिहारी जांव।।
दिन-दिन नौतन भगति दे! रोज-रोज नई भक्ति दे। वह भी मैं नहीं कर सकता हूं। मैं करूंगा तो वह पुरानी भक्ति हो जाएगी।
इसे थोड़ा समझें। यह बारीक है। नाजुक खयाल है। अगर मैं ही करूंगा तो वह पुरानी हो जाएगी, बासी हो जाएगी; क्योंकि मैं ही पुराना और बासा हूं।
अहंकार से ज्यादा बासी कोई चीज संसार में नहीं है। क्यों? क्योंकि अहंकार तुम्हारे अतीत का जोड़ है। तुम जो अब तक थे, जो तुमने किया, जो तुमने जाना, जो तुमने पाया, उस सब का जोड़ तुम्हारा अहंकार है। अहंकार यानी अतीत। अहंकार यानी जो बीत गया, उसका संग्रह। कूड़ा-करकट है अहंकार। ताजा कभी भी नहीं होता अहंकार। अहंकार सदा बासा है। अहंकार सदा मरा हुआ है, जीवित कभी भी नहीं। जीवित तुम हो, अहंकार मुर्दा है। लेकिन तुमने अपने मुर्दे को अपने जीवन पर ओढ़ रखा है। जीवन तो छिप गया है, मुर्दा छा गया है।
तुमसे कोई पूछे कि तुम कौन हो? तो तुम कहां से उत्तर लाओगे? अतीत से उत्तर लाओगे। तुम कहोगे, फलां का बेटा हूं, फलां परिवार से आता हूं, राजघराने से हूं, इतना पढ़ा-लिखा हूं, डाक्टर हूं, इंजीनियर हूं, प्रोफेसर हूं। यह सब अतीत का है। अगर कोई तुमसे पूछे कि अभी और यहां तुम कौन हो? तो तुम्हारे पास कोई भी उत्तर न होगा। अगर तुम पीछे उत्तर न खोजो, तो यहां और अभी तुम एकदम खाली हो जाओगे।
तुम तो नये हो। अहंकार पुराना है, जराजीर्ण है। अहंकार खंडहर है।
इसलिए दादू कहते हैं: दिन-दिन नौतन भगति दे।
नई भक्ति दे रोज-रोज। क्योंकि मैं तो पुराना कर लूंगा।
सभी धार्मिक लोगों ने भक्ति को पुराना कर लिया है। कल भी तुमने बैठ कर घंटी बजाई थी भगवान के सामने। धूप-दीप बाली थी, फूल चढ़ाए थे। आज फिर तुम वही कर रहे हो। कुछ भी नया है उसमें? रत्ती भर भी नया है उसमें? अगर नया नहीं है, तो मुर्दा है। तुम दोहरा रहे हो। तुम बासे को ही खींचे चले जा रहे हो। और जब प्रार्थना भी बासी हो जाए और पूजा भी क्रियाकांड हो जाए, तब व्यर्थ हो गई।
रामकृष्ण के जीवन में ऐसा उल्लेख है। एक शूद्र महिला ने, रानी रासमणि ने मंदिर बनवाया। चूंकि वह शूद्र थी, उसके मंदिर में कोई ब्राह्मण पूजा करने को राजी न हुआ। हालांकि रासमणि खुद भी कभी मंदिर में अंदर नहीं गई थी, क्योंकि कहीं मंदिर अपवित्र न हो जाए! यह तो ब्राह्मण होने का लक्षण हुआ। जो अपने को शूद्र समझे, वह ब्राह्मण। जो अपने को ब्राह्मण समझे, वह शूद्र।
रासमणि कभी मंदिर के पास भी नहीं गई, भीतर भी नहीं गई, बाहर-बाहर से घूम आती थी। दक्षिणेश्वर का विशाल मंदिर उसने बनाया था, लेकिन कोई पुजारी न मिलता था। और रासमणि शूद्र थी, इसलिए वह खुद पूजा न कर सकती थी। मंदिर क्या बिना पूजा के रह जाएगा? वह बड़ी दुखी थी, बड़ी पीड़ित थी। रोती थी, चिल्लाती थी--कि कोई पुजारी भेज दो!
फिर किसी ने खबर दी कि गदाधर नाम का एक ब्राह्मण लड़का है, उसका दिमाग थोड़ा गड़बड़ है, शायद वह राजी हो जाए। क्योंकि यह दुनिया इतनी समझदार है कि इसमें शायद गड़बड़ दिमाग के लोग ही कभी थोड़े से समझदार हों तो हों। यह गदाधर ही बाद में रामकृष्ण बना।
गदाधर को पूछा। उसने कहा कि ठीक है, आ जाएंगे। उसने एक बार भी न कहा कि ब्राह्मण होकर मैं शूद्र के मंदिर में कैसे जाऊं? गदाधर ने कहा, ठीक है। प्रार्थना यहां करते हैं, वहां करेंगे। घर के लोगों ने भी रोका, मित्रों ने भी कहा कि कहीं और नौकरी दिला देंगे। नौकरी के पीछे अपने धर्म को खो रहा है? पर गदाधर ने कहा, नौकरी का सवाल नहीं है; भगवान बिना पूजा के रह जाएं, यह बात जंचती नहीं; करेंगे।
मगर तब खबर रासमणि को मिली कि यह पूजा तो करेगा, लेकिन पूजा में यह दीक्षित नहीं है। इसने कभी पूजा की नहीं है। यह अपने घर ही करता रहा है। इसकी पूजा का कोई शास्त्रीय ढंग, विधि-विधान नहीं है। और इसकी पूजा भी जरा अनूठी है। कभी करता है, कभी नहीं भी करता। कभी दिन भर करता है, कभी महीनों भूल जाता है। और भी इसमें कुछ गड़बड़ हैं; कि यह भी खबर आई है कि यह पूजा करते वक्त पहले खुद भोग लगा लेता है अपने को, फिर भगवान को लगाता है। खुद चख लेता है मिठाई वगैरह हो तो। रासमणि ने कहा, अब आने दो। कम से कम कोई तो आता है।
वह आया, लेकिन ये गड़बड़ें शुरू हो गईं। कभी पूजा होती, कभी मंदिर के द्वार बंद रहते। कभी दिन बीत जाते, घंटा न बजता, दीया न जलता; और कभी ऐसा होता कि सुबह से प्रार्थना चलती तो बारह-बारह घंटे नाचते ही रहते रामकृष्ण।
आखिर रासमणि ने कहा कि यह कैसे होगा? ट्रस्टी हैं मंदिर के, उन्होंने बैठक बुलाई। उन्होंने कहा, यह किस तरह की पूजा है? किस शास्त्र में लिखी है?
रामकृष्ण ने कहा, शास्त्र से पूजा का क्या संबंध है? पूजा प्रेम की है। जब मन ही नहीं होता करने का, तो करना गलत होगा। और वह तो पहचान ही लेगा कि बिना मन के किया जा रहा है। तुम्हारे लिए थोड़े ही पूजा कर रहा हूं। उसको मैं धोखा न दे सकूंगा। जब मन ही करने का नहीं हो रहा, जब भाव ही नहीं उठता, तो झूठे आंसू बहाऊंगा, तो परमात्मा पहचान लेगा। वह तो पूजा न करने से भी बड़ा पाप हो जाएगा कि भगवान को धोखा दे रहा हूं। जब उठता है भाव तो इकट्ठी कर लेता हूं। दोत्तीन सप्ताह की एक दिन में निपटा देता हूं। लेकिन बिना भाव के मैं पूजा न करूंगा।
और उन्होंने कहा, तुम्हारा कुछ विधि-विधान नहीं मालूम पड़ता। कहां से शुरू करते, कहां अंत करते।
रामकृष्ण ने कहा, वह जैसा करवाता है, वैसा हम करते हैं। हम अपना विधि-विधान उस पर थोपते नहीं। यह कोई क्रियाकांड नहीं है, पूजा है। यह प्रेम है। रोज जैसी भाव-दशा होती है, वैसा होता है। कभी पहले फूल चढ़ाते हैं, कभी पहले आरती करते हैं। कभी नाचते हैं, कभी शांत बैठते हैं। कभी घंटा बजाते हैं, कभी नहीं भी बजाते। जैसा आविर्भाव होता है भीतर, जैसा वह करवाता है, वैसा करते हैं। हम कोई करने वाले नहीं।
उन्होंने कहा, यह भी जाने दो। लेकिन यह तो बात गुनाह की है कि तुम पहले खुद चख लेते हो, फिर भगवान को भोग लगाते हो! कहीं दुनिया में ऐसा सुना नहीं। पहले भगवान को भोग लगाओ, फिर प्रसाद ग्रहण करो। तुम भोग खुद को लगाते हो, प्रसाद भगवान को देते हो।
रामकृष्ण ने कहा, यह तो मैं कभी न कर सकूंगा। जैसा मैं करता हूं, वैसा ही करूंगा। मेरी मां भी जब कुछ बनाती थी तो पहले खुद चख लेती थी, फिर मुझे देती थी। पता नहीं, देने योग्य है भी या नहीं। कभी मिठाई में शक्कर ज्यादा होती है, मुझे ही नहीं जंचती, तो मैं उसे नहीं लगाता। कभी शक्कर होती ही नहीं, मुझे ही नहीं जंचती, तो भगवान को कैसे प्रीतिकर लगेगी? जो मेरी मां न कर सकी मेरे लिए, वह मैं परमात्मा के लिए नहीं कर सकता हूं।
ऐसे प्रेम से जो भक्ति उठती है, वह तो रोज-रोज नई होगी। उसका कोई क्रियाकांड नहीं हो सकता। उसका कोई बंधा हुआ ढांचा नहीं हो सकता। प्रेम भी कहीं ढांचे में हुआ है? पूजा का भी कहीं कोई शास्त्र है? प्रार्थना की भी कोई विधि है? वह तो भाव का सहज आवेदन है। भाव की तरंग है।
इसलिए दादू बड़ी मीठी बात कहते हैं: दिन-दिन नौतन भगति दे।
नई भक्ति दे। क्योंकि हम करेंगे तो पुरानी हो जाएगी। अहंकार करेगा तो ढांचा बना लेगा। अहंकार बड़ा यांत्रिक है। वह रोज-रोज व्यवस्था बना लेता है। क्या करना--पहले जाकर मंदिर में झुकना, साष्टांग दंडवत करना, घंटा बजाना, फूल चढ़ाना--एक व्यवस्था है; मंत्र का पाठ करना, घर वापस लौट आना। एक क्रियाकांड है, जो करना है। एक कर्तव्य है, प्रेम नहीं। प्रेम तो रोज-रोज नये मार्ग खोजता है। प्रेम नित नूतन है।
दिन-दिन नौतन भगति दे...
तो तू ही दे तो ही यह हो सकता है। क्योंकि हम तो रहे मुर्दा। और हम तो जो करेंगे वह बासा हो जाएगा।
दिन-दिन नौतन नांव।
और रोज तेरा पुराना नाम क्या लें! रोज-रोज नये दे, सभी नाम तेरे हैं। तो रोज-रोज एक ही नाम क्या जपना! राम-राम जपते-जपते बासा हो जाएगा। कभी अल्लाह भी जप लेंगे। तू ही सुझा देना। क्योंकि हम अगर जपेंगे तो अतीत से आएगा। हिंदू घर में पैदा हुए हैं, राम-राम चलेगा। मुसलमान घर में पैदा हुए हैं, अल्लाह-अल्लाह चलेगा। ईसाई घर में पैदा हुए हैं तो जीसस-जीसस की पुकार उठती रहेगी। जैन घर में पैदा हुए तो नमोकार। लेकिन यह तो अतीत से जुड़ा होगा। सब नाम तेरे हैं, क्योंकि तेरा कोई नाम नहीं। सब रूप तेरे हैं, क्योंकि तेरा कोई रूप नहीं। सब आकारों में तू ही निराकार है।
तो रोज नई-नई झलक देना; रोज नया-नया नाम देना; रोज अपनी नई प्रतिमा दिखाना। कहीं बासी न हो जाए पूजा। बासी, कि व्यर्थ। पुरानी, कि सार्थक नहीं। ऐसा हो, जैसे नई श्वास प्रतिपल ताजी है; सुबह की ओस रोज ताजी है; सुबह का सूरज फिर नया है; रात के तारे फिर उज्ज्वल हैं। बस, ऐसी हो प्रतिपल। वर्तमान में हो, अतीत से न उपजे।
दिन-दिन नौतन भगति दे, दिन-दिन नौतन नांव।
दिन-दिन नौतन नेह दे, मैं बलिहारी जांव।।
मैं तो इतना ही कर सकता हूं कि तुझ पर न्यौछावर होता रहूं। उससे ज्यादा मेरे बस में नहीं।
दिन-दिन नौतन नेह दे...
रोज नये प्रेम से मुझे भर। रोज मुझे उलीच, रोज मुझे भर। रोज प्रेम से भर, ताकि प्रार्थना में मैं अपने को उलीच सकूं और तुझ पर न्यौछावर हो सकूं। मैं एक ही काम जानता हूं कि न्यौछावर होता रहूंगा। तू जो देगा, तुझी को चढ़ाता रहूंगा।
साईं सत संतोष दे, भाव भगति बेसास।
सिदक सबूरी सांच दे, मांगे दादू दास।।
साईं सत संतोष दे! साईं, परमात्मा का नाम है फकीरों का दिया हुआ। साईं का अर्थ होता है स्वामी, मालिक। मालिक! जब तक तुमने परमात्मा को मालिक न जाना, तब तक तुम चोर हो। जिस दिन तुमने परमात्मा को मालिक जाना, बात खतम हो गई। चोरी गई। अब तुम भी उसी के हो।
इसलिए फकीर अपने को दास कहते हैं। दादू दास, कबीर दास, सुंदर दास--सब दास हैं। दास की एक बड़ी अनूठी भाव अवस्था है। दास यह कह रहा है कि मैं तेरा हूं। कुछ भी मेरा नहीं है, मैं भी तेरा हूं।
साईं सत संतोष दे...
सत संतोष दे! समझने जैसा है। क्योंकि संतोष--तुम जिसे संतोष कहते हो--वह झूठ है। वह सत संतोष नहीं है। तुम जिसे संतोष कहते हो, वह सांत्वना है, संतोष नहीं है।
तुम्हारे पास धन नहीं है। तुम कहते हो, क्या रखा है धन में! यह सांत्वना है। अगर अभी कोई धन देने को राजी हो जाए, तो तुम्हें याद भी न रहेगी कि क्षण भर पहले तुम कहते थे, क्या रखा है धन में! तुम कहोगे, ले आओ। तुम भूल ही जाओगे। अगर वह आदमी भी याद दिलाएगा, तुम कहोगे, गलती हो गई, क्षमा करो।
तुम उसी अवस्था में हो, जिसमें ईसप की लोमड़ी। देखा उसने कि अंगूर के झुक्के लटकते हैं वृक्ष से। छलांग लगाई, लेकिन छलांग छोटी पड़ गई, अंगूर पा न सकी। चारों तरफ देखा कि किसी ने देखा तो नहीं है। क्योंकि अहंकार को चोट लगती है कि तुम पा न सके। कोई दिखाई न पड़ता था, तो लोमड़ी अकड़ से चलने लगी। लेकिन एक खरगोश छिपा था। खरगोश सदा ही छिपे हैं। वे देख ही रहे हैं। एक झाड़ी में छिपा बैठा था। उसने कहा, चाची, क्या मामला है? अंगूर दूर पड़ गए? लोमड़ी ने कहा कि नहीं, अंगूर और दूर क्या पड़ेंगे! खट्टे थे। पकने दे, फिर देखेंगे।
जिन अंगूरों को तुम पा नहीं सकते, वे खट्टे हैं। यह सांत्वना है। जिन पद को तुम पा नहीं सकते, वे व्यर्थ! दो कौड़ी के! जिस धन को तुम पा नहीं सके, उसमें कुछ सार ही कहां है! सभी गरीब इसी तरह तो अपने को बचाते हैं। नहीं तो बचाना मुश्किल हो जाए। जीवन बड़ा मुश्किल हो जाए। सांत्वना सुरक्षा बन जाती है।
जो नहीं है--तुम कोशिश सब कर चुके हो, तुमने कोशिश कुछ छोड़ी नहीं है, लेकिन न पा सके। न पा सके, यह बात भी कष्ट देती है। अहंकार को दुख होता है कि छलांग छोटी पड़ गई, अंगूर दूर थे। दूसरों ने पा लिए और तुम न पा सके।
इसलिए गरीब मुल्कों में सांत्वना खूब चलती है। इस मुल्क में, हमारे इस देश में, भारत में--जिसको हम धार्मिक देश कहते हैं, जो धार्मिक बिलकुल नहीं है--संतोष नहीं है, सांत्वना है। लोग इतने दीनऱ्हीन हैं कि बचाव का एक ही उपाय है कि संसार में क्या रखा है!
एक अंग्रेज लेखक ने अपना संस्मरण लिखा है कि वह दिल्ली आया--जार्ज माइक्स उसका नाम है। दिल्ली स्टेशन पर एक सरदार जी ने उसका हाथ पकड़ लिया और जल्दी-जल्दी उसके हाथ की रेखाएं देख कर बोलने लगा भविष्य। जार्ज माइक्स ने कहा कि भाई, मुझे इसमें उत्सुकता नहीं है। मगर वह बोले ही गया। उसने हाथ भी न छोड़ा। शिष्टाचारवश जार्ज माइक्स सुनता रहा। फिर उस सरदार ने कहा, उत्सुकता हो या न हो, लेकिन मैंने तो भविष्यवाणी की; तो दो रुपया फीस। तो उसने दो रुपया फीस दे दी कि चलो झंझट मिटी। लेकिन अभी भी उसने हाथ नहीं छोड़ा, दो रुपया पाकर वह और बोलने लगा। माइक्स ने कहा कि देखो भाई, अब मत बोलो, नहीं तो फिर तुम्हारी फीस हो जाएगी। तो उस सरदार ने कहा, अरे सांसारिक! दो रुपये के पीछे दीवाना हुआ जा रहा है? और फिर वह अपना जारी रखे है बोलना। भौतिकवादी! और बोलना अपना वह जारी रखे है। और बोल कर उसने कहा, दो रुपये फिर फीस हो गई।
अब इसमें भौतिकवादी कौन है?
पूरब पश्चिम को कहता है भौतिकवादी। लेकिन तुम पूरब से ज्यादा भौतिकवादी लोग कहीं भी न पा सकोगे। जैसी धन की पकड़ भारतीयों में है, ऐसी तुम कहीं भी न पा सकोगे। और कारण? कारण साफ है। संतोष होता तो बात दूसरी होती। संतोष नहीं है, सांत्वना है। तुम्हारे पास बड़े मकान नहीं हैं। तुम कहते हो, क्या रखा है मकानों में? जो मजा झोपड़ी में है, वह कहां मकानों में? लेकिन तुम पूरी चेष्टा करते रहते हो कि मकान बड़ा कैसे हो जाए।
बहुत वर्ष हुए, एक जैन साधु के पास मुझे ले जाया गया। वे बड़े जैन मुनि हैं, हजारों उनके शिष्य हैं। उन्होंने एक गीत अपना लिखा हुआ मुझे पढ़ कर सुनाया। गीत का अर्थ था--गीत गुजराती में था--गीत का अर्थ था कि तुम अपने सिंहासनों पर बैठे रहो, मैं अपनी धूल में मस्त हूं। तुम्हारे पद, तुम्हारे महल मेरे लिए व्यर्थ और असार हैं। तुम्हारे हीरे-जवाहरात मेरे लिए कंकड़-पत्थर हैं। तुम्हारा साम्राज्य मेरे लिए सपना है। तुम बैठे रहो अपने सिंहासनों पर, स्वर्ण-सिंहासनों पर, मैं अपनी धूल में मस्त हूं।
जो दस-पचास लोग इकट्ठे हो गए थे हम दोनों का मिलन देखने के लिए, उन सबके सिर हिलने लगे प्रशंसा में।
मैंने उन मुनि को कहा कि अगर आप अपनी धूल में मस्त हैं, तो यह गीत किसी सम्राट को लिखना चाहिए; आप क्यों लिखते हैं? लेकिन कोई सम्राट गीत नहीं लिखता कि रहे आओ तुम मस्त अपनी धूल में, मैं अपने सिंहासन पर मस्त हूं। कोई लिखता ही नहीं यह बात। कि तुम मजे से आनंद लो अपने कंकड़-पत्थरों का, मैं अपने हीरे-जवाहरात में मस्त हूं। कोई सम्राट ऐसा गीत नहीं लिखा कभी, आप क्यों लिखते हैं? जरूर कोई उत्सुकता होगी सोने के सिंहासन में। हीरे-जवाहरातों में कोई छिपा हुआ रस है। धूल में आप मस्त नहीं हैं,र् ईष्या है। धूल में सांत्वना है, संतोष नहीं है। बड़ी कठिन है यह बात पहचाननी, क्योंकि अहंकार के बड़े विपरीत पड़ती है। और ये जो लोग सिर हिला रहे हैं, इनके सिर हिलाने से यह मत समझ लेना कि आपकी कविता कुछ सच है। ये सिर्फ इतना ही कह रहे हैं कि हम भी राजी हैं। यही हालत हमारी भी है। धूल में हम भी पड़े हैं, मगर हम भी दो कौड़ी का समझते हैं सिंहासन को। आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। आप हमारी आवाज हो।
गरीब मुल्कों में त्याग का बड़ा महात्म्य हो जाता है। क्योंकि सब गरीबों को उससे सांत्वना मिलती है।
दादू इसलिए सांत्वना नहीं मांगते हैं, वे कहते हैं: साईं सत संतोष दे।
ऐसा संतोष दे, ऐसा सच्चा संतोष दे, जो सांत्वना न हो। जो मेरे पास है, उसमें मैं आनंदित हो सकूं। जो मेरे पास नहीं है, उसका मुझे खयाल भी न उठे। उसके विरोध में भी खयाल न उठे, क्योंकि विरोध में भी खयाल उठना उत्सुकता है। सत संतोष बड़ी अनूठी बात है। वह ऐसी चित्त की दशा है कि तुम्हारे पास जो है उसमें तुम आनंदित हो।
तुम अगर धूल में हो, तो तुम धूल में आनंदित हो। लेकिन धूल की तुलना तुम सिंहासन से नहीं करते हो। क्योंकि अगर तुम सच में ही धूल में आनंदित हो, तो तुम्हें जो सिंहासन पर है उस पर दया आएगी कि बेचारा, सिंहासन पर फंसा है। तुम्हें क्रोध न आएगा। तुम तुलना करके उसका अपमान न करना चाहोगे। क्योंकि तुम कहोगे कि मैं इतने आनंद में हूं धूल में और इस बेचारे को कुछ पता ही नहीं कि धूल का आनंद कैसा है।
तुम अगर हार गए हो, तो तुम पाओगे, हार में ऐसी शांति है कि जो विजेता हो गए हैं उनको तुमसेर् ईष्या होगी। लेकिन अगर तुम्हें विजेताओं सेर् ईष्या हो रही है और उनकी निंदा करने का तुम्हारे मन में भाव उठता है, तो तुमने अपनी हार में सत संतोष नहीं पाया। तुम समझे ही नहीं बात। अंगूर खट्टे हैं। छलांग छोटी थी।
साईं सत संतोष दे...
दादू ने भी संतोष करके देख लिया है, सांत्वना करके देख ली है, वह किसी मतलब का नहीं है। उससे आकांक्षाएं मिटती नहीं, केवल छिप जाती हैं। उससे रोग समाप्त नहीं होता, केवल आवृत हो जाता है। सच्चा संतोष दे!
क्या है सच्चा संतोष? सच्चा संतोष है अहोभाव। होना ही इतनी बड़ी बात है कि और क्या चाहिए? श्वास चल रही है, यह इतनी बड़ी घटना है कि और क्या मांगें? आंख देखती है फूलों को, आकाश के तारों को, अब और देखने को क्या बचा? कान सुनते हैं पक्षियों के गीत को, हवा की आवाज को वृक्षों से गूंजते हुए, अब और क्या संगीत बचा? इस क्षण में जो घट रहा है, वह परम है, ऐसी अनुभूति दे। कि कोई तुलना न रह जाए, तुलना उठे ही न। इसे तुम सूत्र समझ लो, कसौटी। अगर तुलना उठे, तो तुम संतोष में नहीं हो। संतोष अतुलनीय है, सांत्वना तुलना है।
तथाकथित साधु-संन्यासी लोगों को समझाते हैं,र् ईष्या मत करो। एक साधु के व्याख्यान को मैं एक बार सुनने गया। वे समझा रहे थे किर् ईष्या मत करो,र् ईष्या से बड़ा दुख होगा। कभी मत देखो कि तुमसे आगे कौन है। हमेशा देखो कि तुमसे पीछे कौन है। उससे संतोष होगा।
उनका आप मतलब समझे? तुम्हारे पास दस हजार रुपये हैं। जिसके पास दस लाख हैं, उस तरफ मत देखो। क्योंकि उसको देखने से पीड़ा उठेगी, सांत्वना टूट जाएगी--कि मेरे पास केवल दस हजार और तेरे पास दस लाख! संतुलन खो जाएगा, दौड़ पैदा हो जाएगी, वैमनस्य होगा, जलन होगी। न; अपने से पीछे देखो, जिसके पास दस हजार भी नहीं हैं, भिखारी है। उसे देख कर बड़ा संतोष आएगा कि कोई हर्जा नहीं, दस हजार तो हैं। इसके पास दस रुपये भी नहीं। इसका मतलब हुआ: अगर तुम कनवे हो, तो अंधे को देखो। उसको मत देखो जिसके पास दो आंखें हैं! अगर तुम लंगड़े हो, तो जिसके दोनों पैर टूट गए हैं उसको देखो!
मगर चाहे तुम आगे देखो, चाहे तुम पीछे देखो, सांत्वना में हमेशा ही तुलना मौजूद रहेगी। जिसके पास कम है, उसको देख कर थोड़ी राहत मिलेगी। जिसके पास ज्यादा है, उसको देख कर बेचैनी होगी। और तुम चाहे देखो या न देखो, तुम यह कैसे भूल सकते हो कि तुमसे ज्यादा लोगों के पास है? जब तुम पीछे देखते हो और तुम पाते हो कि तुम्हारे पास दस हजार हैं और दूसरे के पास दस रुपये भी नहीं, और तुम्हें राहत मिलती है, तो इसी राहत में वहर् ईष्या भी छिपी है। तुम कैसे भूल सकोगे कि इस दुनिया में बहुत हैं जिनके पास दस हजार से ज्यादा हैं? इसी राहत में बेचैनी भी छिपी है। यह तुम अपने को अंधा कर रहे हो, बात और। लेकिन तुम जागोगे नहीं।
दादू कहते हैं: साईं सत संतोष दे।
तुलना वाला संतोष नहीं--कि कोई अंधा है तो एक आंख में मजा ले रहे हैं, कि कम से कम एक तो है। नहीं, यह संतोष की कोई जरूरत नहीं। सत संतोष दे! जो मेरे पास है, उसे मैं बिना तुलना किए भोग सकूं। जैसे मैं अकेला हूं।
और तुम जैसा कोई है भी नहीं। तुम हो भी अकेले। सब तुलना व्यर्थ है। दूसरे से तौलने में ही भूल है। तौलते ही अहंकार निर्मित होता है। पीछे देखोगे, तो राहत वाला अहंकार; आगे देखोगे, तो बेचैनी वाला अहंकार। पर तुलना से ही अहंकार पैदा होता है। तौलो ही मत। तुम जैसे हो, वहीं परमात्मा के प्रति अहोभाव उठे। तुम्हें जो दिया है, वह किसी तुलना के कारण ज्यादा नहीं, तुम्हारी अपात्रता के कारण अपार है।
इस फर्क को ठीक से समझ लेना! किसी की तुलना के कारण ज्यादा नहीं, तुम्हारी अपात्रता के कारण अपार है। जो तुम्हें मिला है, मिलने की कोई योग्यता न थी, कोई कारण न था। तुम शिकायत न कर सकते थे, फिर भी मिला है। उसने लुटाया है, तुम्हें भर दिया है।
साईं सत संतोष दे...
अगर तुम्हें झूठा संतोष चाहिए तो आगे-पीछे देखो। अगर सच्चा संतोष चाहिए तो ऊपर देखो, परमात्मा की तरफ देखो।
...भाव भगति बेसास।
भाव दे। विचार तो बहुत हैं तुम्हारे पास। भक्त भाव मांगता है। भगति दे, प्रेम दे। बेसास। विश्वास दे, आस्था दे। विचार के साथ संदेह है, संदेह के साथ संघर्ष है; वे एक ही शृंखला के सूत्र हैं। भाव के साथ भक्ति है, भक्ति के साथ विश्वास है; वे एक शृंखला के सूत्र हैं। हृदय विश्वास जानता है, बुद्धि संदेह जानती है। बुद्धि लड़ती है, संघर्ष करती है, संकल्प करती है। हृदय समर्पण करता है, विश्वास करता है।
...भाव भगति बेसास।
पर तुम सोच सकते हो, भाव तो मांगना पड़ेगा। तुम्हारे बस के बाहर है। तुम अपने हृदय को खोल दो और प्रतीक्षा करो। उसके मेघ बरसेंगे, तो तुम भाव और भक्ति और विश्वास से भर जाओगे। नहीं बरसेंगे, तो प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। तुम एक मरुस्थल हो। उसके मेघ आएं, उन्हें पुकारो।
साईं सत संतोष दे, भाव भगति बेसास।
सिदक सबूरी सांच दे...
तुझ पर न्यौछावर हो सकूं, ऐसी हिम्मत दे। सिदक सबूरी--प्रतीक्षा की क्षमता दे। सब्र कर सकूं--सबूरी। क्योंकि मेरे हाथ में तो कुछ भी नहीं है। तू जब देगा, जब देगा। वह "जब' कब आएगा, कहा नहीं जा सकता। आज, कि कल, कि परसों, कि इस जन्म में, कि अगले जन्म में, कि अनंत जन्म प्रतीक्षा करनी पड़ेगी; कुछ कहा नहीं जा सकता। अपने हाथ की बात होती तो जल्दी भी कर लेते। इसलिए भक्त कहता है, सिदक दे! कि तुझ पर अपना सब डाल सकूं; अपने को तुझ पर न्यौछावर कर सकूं। कुछ बच न जाए पीछे। मुझे अपने पर भरोसा नहीं है। कुछ बचा लूं कहीं!
मोहम्मद मरे। मोहम्मद का जीवन एक भक्त का जीवन है। मोहम्मद का नियम था कि रोज सांझ जो भी कुछ घर में बचे, बांट दिया जाए। क्योंकि कल सुबह फिर परमात्मा से प्रार्थना करेंगे। और उसकी मर्जी होगी तो देगा। इसलिए सब पैसा-लत्ता जो भी सांझ को होता--अनाज, चावल, जो भी होता--सांझ सूरज के ढलते वे बांट देते। क्योंकि रात तो अब इसकी कोई जरूरत नहीं। कल सुबह फिर मांग लेंगे। और जिसने आज सुबह दिया था, वह कल फिर देगा।
मरते वक्त मोहम्मद बीमार थे। पत्नी थोड़ी सोच में पड़ गई। सांझ को सब दे डालना है, कहीं रात दवा की जरूरत पड़ जाए, वैद्य को बुलाना पड़े! और मोहम्मद तो करीब-करीब मरणासन्न अवस्था में हैं। तो उसने पांच दीनार, पांच रुपये बचा लिए। सब बांट दिया, लेकिन पांच रुपये बचा लिए। कहते हैं, आधी रात मोहम्मद बार-बार करवट बदलने लगे। आखिर उन्होंने कहा अपनी पत्नी को बुला कर कि सुन, मुझे लगता है, आज, जो कभी नहीं हुआ था, वह इस घर में हुआ है। तूने कुछ बचा लिया। हम सदा सभी न्यौछावर करते रहे। अब मरते वक्त तू मुझे नास्तिक बनाएगी? क्योंकि मैं मर नहीं पा रहा हूं, मेरी सांस अटकी है। लगता है, घर में कुछ बचा है।
पत्नी भी घबरा गई, रोने लगी। उसने कहा कि क्षमा करें, इस भय से कि कहीं रात दवा की जरूरत हो, वैद्य बुलाना पड़े, तो पांच दीनार बचा लिए हैं।
मोहम्मद ने कहा, मैं मर न सकूंगा। और अगर आज मर जाता तो परमात्मा के सामने क्या जवाब देता? थोड़ा सा बचा लिया। उतना अविश्वास रहा। जो रोज देता था, नासमझ, वह आधी रात नहीं दे सकता? उसके लिए दिन और रात का फर्क है? तू जल्दी किसी को बुला, वे पांच रुपये दान कर दे।
पत्नी ने द्वार खोला, एक भिखारी सामने खड़ा था। आधी रात! उसे भी भरोसा न आया। उसने पूछा, क्या चाहते हो? उसने कहा कि बहुत मजबूरी है, पांच रुपये चाहिए।
मोहम्मद हंसे और उन्होंने कहा, देख, जो पांच रुपये मांगने आधी रात आदमी को भेज देता है, वह देने भी भेज देगा। तो ये पांच रुपये उसको दे दे।
जैसे ही रुपये दिए गए, मोहम्मद ने चादर ओढ़ ली और श्वास छोड़ दी।
सिदक सबूरी सांच दे...
तुझ पर पूरा-पूरा न्यौछावर हो जाऊं, कुछ बचा न लूं। क्योंकि मुझे अपने पर भरोसा नहीं है। थोड़ा बचा लूं, कि पता नहीं जरूरत पड़ जाए। तो समर्पण भी हम अधूरा करते हैं। अधूरा समर्पण तो समर्पण नहीं है। जैसे अधूरा व्रत व्रत नहीं है, ऐसा अधूरा समर्पण समर्पण नहीं है। समर्पण या तो होगा तो पूरा, या नहीं होगा।
सिदक--पूरा हो जाए न्यौछावर। सबूरी--और सब्र दे, प्रतीक्षा की क्षमता दे, कि अनंत काल तक तेरी राह देख सकूं। ऐसा न हो कि धैर्य छूट जाए; कहीं ऐसा न हो कि फिर कोशिश में लग जाऊं और फिर अहंकार के सहारे चलने लगूं।
सिदक सबूरी सांच दे...
सच्चा न्यौछावर होने की क्षमता, सच्ची प्रतीक्षा दे। क्योंकि झूठी प्रतीक्षा हो सकती है। तुम बैठ सकते हो आंख बंद करके और थोड़ी-थोड़ी आंख खोल कर देख लो--कि अभी तक आया या नहीं? फिर आंख बंद कर लो। धोखा तुम किसको दे रहे हो?
मेरे पास लोग आते हैं। उनसे मैं कहता हूं, तुम जल्दी मत करो ध्यान की। होगा, तब होगा। तुम प्रयास करो अपना जो कर सको, लेकिन प्रतीक्षा जारी रखो।
वे कहते हैं कुछ दिन बाद आकर, कि दस दिन हो गए ध्यान करते, ऐसी कोई जल्दी नहीं है, मगर अभी तक कुछ हुआ नहीं।
ऐसी कोई जल्दी नहीं है, अभी तक कुछ हुआ नहीं! उन्हें पता ही नहीं, वे क्या कह रहे हैं। अगर जल्दी नहीं है, तो अभी कुछ हुआ नहीं, यह बात कहां से आती है? और दस दिन भी कोई बात हुई--कि दस दिन ध्यान कर लिया, अभी तक परमात्मा के दर्शन नहीं हुए! दस जन्म भी छोटे हैं। यह जल्दी तुम परमात्मा के ऊपर थोपने की कोशिश कर रहे हो। तुम्हारी चेष्टा यह है कि दस दिन हम आंख बंद करके घंटा भर बैठे रहे रोज, तुम अभी तक नहीं आए? तुम्हारी चेष्टा यह है कि तुम उसमें भी अपराध-भाव पैदा कर दो--कि हमने इतना किया और तुम अभी तक नहीं आए? अन्याय हो रहा है।
सिदक सबूरी सांच दे, मांगे दादू दास।।
और मैं तो एक भिखारी हूं, एक दास हूं, सिर्फ मांग सकता हूं। देने को तो मेरे पास कुछ भी नहीं है।
लेकिन दादू जो मांग रहे हैं, वह मांगने जैसा है। मांगते तुम भी हो परमात्मा से जाकर। कभी पत्नी की तबीयत ठीक नहीं है, उसे ठीक कर दे; कभी बेटा पैदा नहीं हुआ, बेटा दे दे; कभी नौकरी नहीं लगी, नौकरी लगवा दे; कभी मुकदमा हारे जा रहे हैं, मुकदमा जितवा दे। मांगते तुम भी हो उससे। लेकिन तुम ऐसी क्षुद्र चीजें मांगते हो कि तुम्हारी क्षुद्र चीजों के कारण ही पता चलता है कि परमात्मा से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। तुम परमात्मा को भी अपनी सेवा में लगाना चाहते हो--कि मुकदमा जिता, पत्नी की तबीयत ठीक कर, बच्चा दे। तुम मालिक बनना चाहते हो, उसको सेवक बनाना चाहते हो। तुम्हारी सब प्रार्थनाएं उसका भी उपयोग कर लेने की चेष्टाएं हैं।
मांगना हो तो दादू जैसा मांगो। दादू इतना ही कह रहे हैं कि प्रतीक्षा दे, संतोष दे। तुझ पर पूरा न्यौछावर हो सकूं बिना कुछ बचाए, ऐसा साहस दे। भाव दे, भक्ति दे, विश्वास दे। दादू यह कह रहे हैं कि उन सब चीजों को दे दे मुझे, जिनके बीच तेरा अवतरण संभव हो जाए।
ये तो खंभे हैं मंदिर के--भक्ति, भाव, विश्वास, प्रतीक्षा, समर्पण, धैर्य--ये तो खंभे हैं मंदिर के। मंदिर बन जाए, ऐसा कर। ताकि फिर तुझे भी निमंत्रण दे सकें। अभी तो तुझे निमंत्रण कैसे भेजें? मंदिर भी तैयार नहीं, तेरा सिंहासन भी तैयार नहीं।
आखिरी प्रार्थना तो परमात्मा को पाने की ही प्रार्थना है। आखिरी प्रार्थना तो परमात्मा में लीन हो जाने की ही प्रार्थना है। परमात्मा को ही मांगना, अगर मांगना ही हो। और अगर देना ही हो कुछ परमात्मा को, तो अपने को पूरा का पूरा दे देना, कुछ बचाना मत। और ये दोनों बातें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिस दिन तुम अपने को पूरा दे दोगे, उसको तुम पूरा पा लोगे। दे देना पाने का उपाय है। बूंद जब सागर में खो जाती है तो सागर हो जाती है।

आज इतना ही।


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