नेति-नेति-(सत्य की खोज)
एक
मित्र ने पूछा है कि यदि मेरे कहे अनुसार प्रत्येक व्यक्ति निष्क्रिय ध्यान में
चला जाये तो दुनिया का काम और क्रियाएं बंद हो जायेंगी और तब बहुत असुविधा होगी?
इस
संबंध में पहली तो बात यह समझ लेनी जरूरी है कि क्रिया उतनी ही सफल और कुशल होती
है, जितना व्यक्ति क्रिया में
होता है। अक्रिया में जाने से क्रिया बंद नहीं होती, सिर्फर् कत्ता मिट जाता है, सिर्फ यह भाव मिट जाता है कि
मैं करने वाला हूं। और इस भाव के मिटने से दुनिया में असुविधा न होगी, बहुत सुविधा होगी। इसी भाव के
कारण दुनिया में बहुत असुविधा है।
प्रत्येक
को खयाल है कि मैं कर रहा हूं! करते हम बहुत कम रहे हैं,र् कत्ता बहुत बड़ा खड़ा कर
लेते हैं! उन कर्ताओं में, उनके
अहंकार में संघर्ष होता है। दुनिया में जितनी असुविधा है, वह अहंकारों के संघर्ष से
पैदा होती है।
दूसरी
बात, जितनी ही भीतर शांति होगी, निष्क्रिय चित्त होगा, मौन आत्मा होगी, उतनी ही वह मौन आत्मा शक्ति
का स्रोत बन जाती है।
जितनी
बेचैन,
अहंकारग्रस्त, द्वंद्व में ग्रस्त, तनाव, अशांति से भरी आत्मा होगी, उतनी ही शक्तिहीन हो जाती है।
हम
शक्ति के पुंज नहीं हैं, क्योंकि
हमारे द्वंद्व में, मन की
चिंता में,
अहंकार
में, हमारी सारी शक्ति व्यय हो
जाती है। अगर कोई व्यक्ति भीतर बिलकुल निष्क्रिय और शांत हो जाये तो शक्ति का जलता
हुआ अंगारा बन जायेगा, शक्ति
का पुंज होगा। इतनी शक्ति होगी उसके पास कि जिसका कोई हिसाब नहीं। और चूंकि उसकेर्
कत्ता का अहंकार मर चुका होगा, इसलिए
परमात्मा की सारी शक्ति उसकी शक्ति हो जायेगी। अब परमात्मा की या विश्व की सारी
शक्ति उससे जुड़ गयी है। इस शक्ति के साथ और समग्ररूपेण समर्पित वह व्यक्ति
परमात्मा के हाथ में क्रिया का स्रोत बन जायेगा।
लेकिन
तब उसको ऐसा नहीं लगेगा कि मैं कर रहा हूं , तब ऐसा ही लगेगा कि परमात्मा कर रहा है। ऐसा
लगेगा कि हो रहा है, मैं कर
नहीं रहा हूं।
बैलगाड़ी
को चलते हुए देखा है हमने। चाक चलता है बैलगाड़ी का, लेकिन बीच में एक कील होती है, जो चलती नहीं है। उस खड़ी हुई
कील पर चलता हुआ चाक घूमता है। वह कील खड़ी है, इसलिए चाक घूम पाता है। अगर वह कील घूम जाये
तो चाक गिर जाता है। वह चाक उतनी कुशलता से घूमता है, जितनी दृढ़ता से कील खड़ी हो।
ये दोनों उलटी बातें मालूम पड़ती हैं--खड़ी हुई कील, घूमता हुआ चाक!
जितना
मनुष्य भीतर निष्क्रिय होता है, उतना
ही उसके जीवन की सक्रियता का चाक कुशलता से घूमने लगता है। भीतर आत्मा की कील खड़ी
होती है और व्यक्तित्व की क्रिया का चाक घूमता है। कील जानती है, चाक घूम रहा है, मैं खड़ी हूं।
ध्यानस्थ
व्यक्ति जानता है,
मैं
ठहरा हुआ हूं। वह जो अंतरतम है, वह
रुका हुआ है,
वह
नहीं चल रहा है,
चलने
का सारा प्रवाह बाहर है--चाक है, परिधि
है। वह जो केंद्र है, वह मौन
और चुप है।
जीवन
में सबसे बड़ी कला यही है कि भीतर निष्क्रियता हो और बाहर सक्रियता हो। और जीवन का
सबसे बड़ा सारसूत्र है कि जीवन विरोधी चीजों से निर्मित हो।
एक
श्वास भीतर जाती है, तत्क्षण
दूसरी श्वास बाहर जाती है। श्वास बाहर गयी नहीं कि फिर भीतर चली गयी है। हम कभी
नहीं कहते कि बाहर श्वास चली गयी, हम
भीतर क्यों ले जायें। जब बाहर निकल ही गयी तो निकल गयी, बार-बार भीतर ले जाने की क्या
जरूरत है। लेकिन श्वास बाहर जाती है और भीतर जाती है और इन दो विरोधी आयामों में
हमारा जीवन बाहर और भीतर चलता रहता है।
दिन-भर
हम जागते हैं,
रात हम
सो जाते हैं। हम नहीं कहते कि अगर हम सो गये तो सोना तो जागने से बिलकुल उलटा है, तो फिर हम जागेंगे कैसे? हम यह भी नहीं कहते कि हम जाग
गये तो हम सोयेंगे कैसे, जागना
तो सोने से बिलकुल उलटा है।
जागना
क्रिया है,
सोना
अक्रिया है।
लेकिन
मजे की बात है,
अगर
रात भर ठीक से न सो पाये तो दूसरे दिन ठीक से जाग न पायेंगे। ठीक से जो सोता है, वह ठीक से जागता है। इसका
मतलब हुआ,
जो ठीक
से निष्क्रिय हो जाता है रात में, दूसरे
दिन सुबह उठते ही सक्रिय हो जाता है। और जो जितना सक्रिय होता है दिन में, उतनी गहरी निष्क्रियता में वह
रात को चला जाता है।
जीवन
विरोधों पर खड़ा है, जीवन
का सारा खेल विरोध पर है। दो विरोधों के मिलन पर जीवन की सारी गति है।
जब यह
कह रहा हूं कि ध्यान की निष्क्रियता में चले जायें तो उसका अर्थ यह नहीं है कि आप
मर जायेंगे,
कि
आपकी क्रिया खो जायेगी। नहीं,र्
कत्ता का अहंकार खो जायेगा। और जितनी गहरे ध्यान में जायेंगे, उतनी ही गहरी क्रिया बाहर हो
जायेगी। जितनी गहरी श्वास भीतर ले जायेंगे, उतनी ही गहरी श्वास बाहर जायेगी। भीतर की
गहराई और बाहर की गहराई, हमेशा
अनुपात में बराबर होती है। जो जितनी निष्क्रियता में जा सकता है, वह उतना ही सक्रिय हो सकता
है।
वृक्ष
हम देखते हैं। ये वृक्ष जितने ऊपर दिखायी पड़ते हैं, उतनी ही गहरी इसकी जड़ें गयी
हुई हैं। जो वृक्ष आकाश की तरफ जितना ऊंचा गया है, उतना ही पाताल की तरफ उसे
नीचे भी जाना पड़ा। आप कहेंगे, नीचे!
नीचे और ऊंचे तो उलटे ही आयाम हैं! अगर नीचे चले जायें तो फिर ऊपर कैसे आयेंगे? वृक्ष अगर कहे कि अगर मैं
जड़ें नीचे ले जाऊंगा तो ऊपर कैसे आऊंगा? मुझे तो ऊपर जाना है तो मैं नीचे नहीं जाता
हूं। तो फिर याद रखना, वह
वृक्ष कभी ऊपर नहीं जा सकेगा। जितना वृक्ष नीचे जाता है, उतना ही ऊपर जा सकता है। जिस
वृक्ष को आकाश छूना हो, उस
वृक्ष को पाताल भी छूना पड़ता है।
जितना
सक्रिय होना है,
उतना
ही निष्क्रिय होना जरूरी है। एक ही फर्क पड़ेगा,र् कत्ता खो जायेगा। जितनी निष्क्रियता
बढ़ेगी,
जितना
ध्यान बढ़ेगा,
जितना
मौन बढ़ेगा,
उतना
हीर् कत्ता मिट जायेगा। क्रिया तो रहेगी,र् कत्ता नहीं रहेगा।
और
अगरर् कत्ता नहीं रहेगा तो यह कहने का कारण न होगा कि मैं कर रहा हूं। तब ऐसा ही
लगेगा कि हो रहा है। जैसे पानी गिरता है, बिजली चमकती है, नदी बहती है, ऐसा ही सब हो रहा है, ऐसा प्रतीत होगा। ऐसी प्रतीति
जिस व्यक्ति को हो जाती है, जानना
कि वह व्यक्ति परमात्मा को समर्पित हो चुका है।
परमात्मा
को समर्पण का इतना ही अर्थ है कि अपना कर्तापन खो गया। अब जो विराट क्रिया का जगत
है, जो विराट सृजन चल रहा है, जो विराट गति चल रही है, उस गति के हम एक भाव और अंश
हो गये हैं,
उससे
हम पृथक नहीं हैं।
इसलिए
यह मत सोचें कि अगर मेरी बात मानकर सब निष्क्रिय हो जायें तो क्या होगा। अगर मेरी
बात मानकर कोई निष्क्रिय हो जाये तो जगत में इतनी क्रिया का जन्म होगा कि जिसका
हमने अब तक अनुभव नहीं किया। भीतर जब मौन डगमगा जाता है तो क्रिया में कुशलता नहीं
होती, क्रिया अकुशल हो जाती है।
एक
खलीफा था उमर। कुछ वर्षों से दुश्मन से युद्ध में लगा हुआ था। सात वर्ष हो गए थे, अनेक लड़ाइयां हुई उनकी। कोई
जीत न हो सकी,
कोई
निर्णय न हो सका था। न उमर जीतता था, न दुश्मन जीतता था। आखिरी लड़ाई चल रही थी और
ऐसा लगता था कि कुछ निर्णायक फैसला हो जायेगा। भरी दोपहरी है, उमर का दांव सफल हो गया है।
दुश्मन का घोड़ा गिर गया और वह जमीन पर गिर पड़ा। उमर ने छलांग लगायी अपने घोड़े से
और उसकी छाती पर सवार हो गया। निकाला भाला, उसकी छाती में छेदने को है कि उस नीचे पड़े
दुश्मन ने--मरता आदमी अंतिम कुछ भी कर सकता है--उमर के मुंह पर थूक दिया!
एक
क्षण जो उमर का भाला उठा था छाती में जाने को, ठहर गया! उसके थूकते ही ठहर गया! फिर वापस
भाला उसने अपने स्थान पर रख दिया! उठकर खड़ा हो गया और दुश्मन को कहा कि उठ आइए, फिर सुबह कल लड़ेंगे!
उसके
दुश्मन ने कहा,
पागल
हो गये हो! सात बरसों से इसी की खोज में तुम थे, ऐसे अवसर की। और इसी अवसर की
खोज में मैं था। आज तुम्हें मौका मिला है, आज तुम छोड़ते हो मुझे! भाले को घुस जाने दो।
क्या कारण हो गया छोड़ने का?
उमर ने
कहा, छोड़ता हूं, क्योंकि एक संकल्प था, एक भाव था, एक योजना थी, कि जब तक शांत हूं, तभी तक लडूंगा। अशांत हो गया
कि फिर नहीं लडूंगा। तुमने थूक दिया और मैं अशांत हो गया। भीतर डगमगा गया और मन
हुआ कि भौंक दूं,
लेकिन
मुझे लगा कि अब लड़ाई व्यक्तिगत हो गयी। अब "मैं' आ गया। अबर् कत्ता आ गया। अब
तक उसूलों की लड़ाई थी, अब तक
लड़ते थे सत्य के लिए। लड़ते थे, जो ठीक
था उसके लिए। अब तक मैं नहीं लड़ रहा था। अब तक एक विराट योजना का मैं एक अंग था।
लेकिन तुमने थूका और "मैं' मौजूद
हो गया,
वह बात
खत्म हो गयी! अब नहीं लड़ सकता हूं। कल सुबह फिर!
क्या
मतलब हुआ इसका?
फिर
ऐसे आदमी से कोई लड़ता है? वह
दुश्मन तो मित्र हो गया। पैरों पर गिर गया। उसने कहा, मुझे पता भी नहीं कि तुम सात
बरसों से शांति से लड़ते थे! तुम्हारे भीतर क्रोध न था, वैमनस्य नहीं था,र् ईष्या नहीं थी!
यह हम
कल्पना ही नहीं कर सकते कि ऐसा आदमी भी लड़ सकता है। यह हम सोच ही नहीं सकते हैं कि
ऐसा आदमी भी सक्रिय हो सकता है, जो
निष्क्रिय हो। हमारे सोचने-समझने के ढंग बहुत गणित की लकीर पर चलते हैं! और जिंदगी
गणित की लकीर पर नहीं चलती। वहां एकदम सीधा-सीधा कुछ भी नहीं होता। वहां बड़ी उलटी
चीजें होती हैं।
असल
में जिंदगी की पूरी क्रिया, जिंदगी
का पूरा रसायन एक विरोध पर खड़ा है। देखा होगा कि बड़े भवन पर मेहराब बना होता है।
वह मेहराब कैसे संभला होता है, कभी
खयाल किया है?
दोनों
तरफ की विरोधी ईंटें दबाव डालती हैं एक-दूसरे पर और मेहराब संभला रह जाता है! उस
मेहराब को कोई नीचे से खंभा नहीं लगा हुआ है, लेकिन दोनों तरफ नीचे से आने वाली ईंटें
दबाव डाल रही हैं। दोनों में विरोध पैदा किया है। और उस विरोध पर पूरे भवन को खड़ा
किया हुआ है!
जिंदगी
का पूरा भवन विरोध पर खड़ा है। नींद है, जागरण है; रात है, दिन है; क्रिया है, अक्रिया है; जन्म है, मृत्यु है। वह जन्म और मृत्यु
ही जीवन के मेहराब के दो विरोधी छोर हैं, जिनके दबाव से जिंदगी खड़ी है। उधर जन्म है, उधर मौत है। दोनों उलटी चीजें
हैं। हम कभी नहीं पूछते कि जो जन्मता है, वह मर कैसे जाता है! जन्म और मृत्यु तो दो
विपरीत अवस्थायें हैं। लेकिन हम कहते हैं कि जो जन्मता है, वह मरेगा ही! क्योंकि जन्म एक
छोर है तो उससे उलटा छोर भी होना चाहिए, अन्यथा यह मेहराब न बनेगी जिंदगी की
उजाला
अंधेरे पर खड़ा है! अंधेरा न हो तो उजाला नहीं होगा। और रात दिन पर खड़ी है। दिन न
हो तो रात न होगी। स्वास्थ्य बीमारी पर खड़ा है। सारी चीजें बहुत उलटी चीजों पर खड़ी
हैं। सारी जिंदगी उलटे दबाव से बना हुआ मेहराब है। और इसलिए मैं कहता हूं कि जो
निष्क्रिय को जाता है भीतर--वह बाहर बड़ी सक्रियता को उपलब्ध हो जाता है।
लेकिन
हमने ऐसे संन्यासी देखे हैं, जो
निष्क्रिय हो गये और जिंदगी से भाग गये!
मेरा
कहना है,
ध्यान
रखना, वे निष्क्रिय नहीं हुए।
उन्होंने निष्क्रियता को भी ओढ़ा है। वे अगर निष्क्रिय हो गये तो फिर क्रिया से भाग
नहीं जाते। क्रिया से सिर्फ वे ही भागते हैं, जो क्रिया से अधिक डरते हैं। क्रिया से वे
ही भागते हैं,
जिनकी
निष्क्रियता झूठी है। जिनकी निष्क्रियता सच्ची है, उन्हें क्रिया का भय खत्म हो
जाता है। क्रिया का तूफान चलता रहेगा और उनके भीतर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।
लेकिन जो डरते हैं कि क्रिया चली और उनकी निष्क्रियता टूटी, उनकी निष्क्रियता थोथी है, थोपी गयी है, कल्टीवेटेड है। और इस तरह के
संन्यासियों ने दुनिया में एक गलत धारणा पैदा कर दी कि जो लोग शांत हो जाते हैं, वे जिंदगी से भाग जाते हैं!
ध्यान
रहे, शांत आदमी कहीं नहीं भागता, सिर्फ अशांत भागते हैं।
अशांत
डरते हैं,
इसलिए
भागते हैं। शांत आदमी को भागने का कारण नहीं रह जाता। शांत जहां भी खड़ा होगा, वहीं खड़ा रहेगा, क्योंकि शांत को कोई कारण
नहीं है,
जो
अशांत कर सके। अब अशांति के तूफान चलते रहें, बवंडर बाहर और भीतर की शांति अपनी जगह खड़ी
रहेगी।
बल्कि
शांत आदमी ऐसे बवंडरों को आमंत्रण दे देगा, ऐसे बवंडरों को बुलायेगा, बुलावा दे आयेगा कि आना, क्योंकि जब भीतर शांति है और
बाहर तूफान चलते हों तो इन दोनों के विरोध में जो पुलक, जो अनुभूति उपलब्ध होती है, वह और किसी क्षण में उपलब्ध
नहीं होती। इन दोनों के विरोध के बीच में जैसे अंधेरी रात में बिजली चमक जाये तो
वह चमक भरे दिन में चमकी हुई बिजली की चमक बहुत भिन्न है। ठीक वैसे ही शांत चित्त
हो जाये और बाहर की अशांति चारों तरफ हो तो कोई अंतर नहीं पड़ता। बल्कि उस अशांति
के बीच वह शांति घनी और गहरी हो जाती है।
एक
दूसरे मित्र ने भी इसी संबंध में पूछा है। पूछा है, ध्यान में गहरे हो गये, शांत हो गये तो घर गृहस्थी, परिवार, दुकान इन सबका क्या होगा?
उन
सबका अभी क्या हाल है? घर
गृहस्थी का,
पत्नी
का, बच्चों का, दुकान के धंधा--का अभी क्या
हाल है?
क्या
अभी कोई बहुत अच्छी हालत है? इससे
भी बुरी हालत हो सकती है। लेकिन हम बड़े भयभीत होते हैं। इस नर्क को जो हमने पैदा
कर लिया है,
कोई
उसको परिवार कहता है, कोई
उसको धंधा कहता है! कोई कुछ और कहता है,इस पूरे नर्क को! यह कहीं नर्क ही न मिल
जाये, इससे बड़ी घबराहट होती है।
धंधा
नहीं मिटेगा। न पत्नी मिटेगी, न
परिवार मिटेगा। न बेटे और बेटी मिट जायेंगी। लेकिन जो नर्क हमने खड़ा किया है यह
जरूरत क्या है?
लेकिन
नये रूप प्रगट होते हैं। किसी स्त्री को प्रेम करना एक बात है और पत्नी बनाकर घर
में बांध लेना बिलकुल दूसरी बात है। घर में बांधने की चेष्टा ही इसलिए चलती है कि
प्रेम नहीं है। प्रेम हो तो घर में बांधने की चेष्टा नहीं चल सकती। वह डर है कि
अगर नहीं बांधा तो और तो कोई भीतरी उपाय नहीं है कि जो होने वाला है तो बाहर से
उपाय करने पड़ते हैं। समाज के सामने सात चक्कर लगाने पड़ते हैं और कानूनन अदालत में
जाकर रजिस्ट्री करवानी पड़ती है। क्योंकि भीतर को जोड़ने वाला कुछ भी नहीं है तो
बाहर के जोड़ उत्पन्न करने पड़ते हैं, फिर उनके सहारे जीना पड़ता है।
जिस
दिन दुनिया में प्रेम होगा, उस दिन
पति भी नहीं होगा,
पत्नी
भी नहीं होगी। पति और पत्नी प्रेम के न होने के कारण हैं।
प्रेम
हो तो पति बड़े बेहूदे शब्द हैं, यह
बरदाश्त योग्य नहीं है। इनसे कोई दुनिया अच्छी नहीं हो गयी है, बहुत गंदी हो गयी है। मित्र
होंगे--पति-पत्नि की क्या जरूरत? मित्र
होंगे,
साथ
रहने वाले सहयोगी होंगे, साथी
होंगे--कानून की क्या जरूरत है? अगर
मैं किसी को प्रेम करता हूं तो बीच में कानून की क्या जरूरत है? कानून की जरूरत बताती है कि
प्रेम संदिग्ध है। कानून के सहारे उसको रोकने की कोशिश की जाती है। प्रेम का कोई
भरोसा नहीं है,
इसलिए
कानून का सहारा लेना पड़ता है। जहां प्रेम संदिग्ध नहीं है, वहां कानून की क्या जरूरत है?
हम बड़े
डरते हैं। वह डर ठीक है एक अर्थ में, क्योंकि शांत हो जायेंगे तो बड़ी घबराहट लगती
है कि सब जो नर्क का जाल हमने बुना है, वह टूट जायेगा। अभी जो धंधा कर रहे हैं, दुकान कर रहे हैं, नौकरी कर रहे हैं, वह सब बोझ है। एक आदमी को
जिंदगी भर चालीस साल तक रोज एक दफ्तर में सुबह से सांझ तक जबरदस्ती बैठे रहना पड़ता
है। अगर उसका दिमाग पत्थर हो जाता हो तो कोई आश्चर्य है? एक काम, जो उसका मन नहीं करने का
चालीस साल तक एक आदमी लगातार एक काम को करता है, जो करने का उसका एक क्षण को
मन नहीं है! लेकिन करता है, करना
पड़ता है!
चालीस
साल तक अगर किसी मस्तिष्क पर इस तरह की नासमझी और ज्यादती गुजरे, तो वह आदमी मरने के बहुत पहले
ही मर चुका होगा। उसके मस्तिष्क के कोमल तंतु टूट चुके होंगे। उसके हृदय ने बहुत
पहले पंखुड़ियां बंद कर ली होंगी। उसके प्राण बहुत पहले मशीन हो गये होंगे। वह मशीन
की तरह दफ्तर आता है, जाता
है--वह यह कर रहा है चालीस साल से! जैसे कि एक पटरी पर रेलगाड़ी दौड़ती रहती है, वैसे ही बेचारा दफ्तर से घर, घर से दफ्तर दौड़ता रहता है!
यह शंटिंग उसकी होती रहती है, और
इसको वह कहता है कि धंधा कर रहे हैं! कहीं शांत हो गये तो यह चला न जाये।
शांत
होने से जिंदगी की जरूरत दूसरी होगी। जरूर काम नहीं रह जायेगा, आनंद हो जायेगा। और जब काम
आनंद हो जाता है तो जिंदगी में और तरह के फूल खिलने शुरू होते हैं। लेकिन हम तो
जानते नहीं किसी काम को, जो
आनंद हो! हम तो सब काम जानते हैं! हम काम ही जानते हैं। काम और आनंद में कोई संबंध
नहीं है। आनंद बात ही अलग है, काम
बात ही अलग है।
अभी
यहां हमने जो दुनिया बनायी है, उसमें
काम का आनंद से कोई संबंध नहीं! यह आदमी बरबाद होता चला गया है। आदमी की सारी की
सारी आत्मा विघटित हुई है, पतित
हुई है;
पतित
हो रही है,
होती
चली जायेगी। धीरे-धीरे हम एक मशीन पर आदमी को पहुंचाते हैं।
नहीं, अगर चित्त शांत होगा तो काम
बोझ नहीं रह जायेगा, काम
आनंद हो जायेगा। कबीर कपड़े बुनता है। फिर शांत हो गया है तो कपड़े बुनना बंद नहीं
हो गया है,
कपड़े
बुनना जारी रहा। लेकिन कपड़े की बुनावट बदल गयी है, कपड़े के बुनने का ढंग बदल गया
है। कपड़े को बुनने वाला आदमी बदल गया है, कपड़े को बुनने की वृत्ति बदल गयी है, कपड़े के बुनने के संबंध का
भाव बदल गया है। और कबीर बुनता भी है, नाचता भी है, गीत भी गाता है! उसके मित्रों
ने कहा,
अब तुम
बंद कर दो,
अब
अच्छा नहीं लगता कि तुम जुलाहे का काम करो।
कबीर
ने कहा,
अब जब
मैं काम करने योग्य हुआ हूं, तब तुम
कहते हो बंद कर दो! अब तक तो काम किया ही नहीं था, सिर्फ बोझ ढोया था, अब आनंद हो गया है काम। अब यह
जो बुन रहा हूं,
यह
तुम्हें पता नहीं,
किसके
लिए बुन रहा हूं। यह राम के लिए बुन रहा हूं!
लेकिन
लोगों ने कहा,
राम
आयेंगे कहां बाजार में, उनको
बहुत वक्त हो गया!
कबीर
ने कहा,
अब राम
के सिवाय कोई दिखायी नहीं पड़ता! अब तो जो भी आ जायेगा, वह राम है! और जो भी मेरे
कपड़े पहन लेगा,
मैं
धन्यभागी हुआ। और भगवान की सेवा कैसे करूं?
तो
कबीर बुनता है कपड़ा और भागता है बाजार की तरफ! और लोग पूछते हैं कि कहां जा रहे हो? तो वह कहता है कि राम की तलाश
में जा रहा हूं। कपड़ा बना लिया, बहुत
बढ़िया बनाया है,
राम
पहनेंगे तो खुश होंगे। और वह बाजार में चिल्लाता है कि राम, कपड़े ले आया हूं, कोई राम को जरूरत हो तो ले
जाये, बहुत अच्छा बनाया है।
अब यह
बात और हो गयी,
अब यह
काम और हो गया। अब इस काम को और उस काम को, जिसे हम करते रहे, कोई संबंध नहीं है।
काम
नहीं रुक जायेगा आदमी के शांत होने से--काम रूपांतरित होगा।
काम एक
आनंद हो जायेगा,
जोकि
अभी काम एक नर्क है। अभी काम से किस तरह छूट जायें, इसी की चिंता में हम रहते
हैं! काम से किस तरह हम बच जायें, इसी की
चिंता में रहते हैं! और इसी काम के लिए बड़ी घबराहट भी रहती है। कहीं यह काम-धाम सब
बंद न हो जाये?
वह
घबराहट क्यों है?
वह
इसीलिए है कि काम-धाम हम बंद करना चाहते हैं। वह बंद करने योग्य है। लेकिन मजबूरी
है। रोटी चाहिए,
कपड़े
चाहिए--पत्नी है,
बच्चे
हैं। यह भी सभी मजबूरियां हैं। उनको भी खिलाना है, उनके लिए भी मकान बनाना है।
सब मजबूरियां हैं। पूरी जिंदगी मजबूरी है। वह एक पुलक नहीं, एक नृत्य नहीं।
जरूर
शांत आदमी की जिंदगी और ढंग की होगी। वह भी जीयेगा यहीं, लेकिन दूसरा आदमी हो जायेगा।
वह भी काम करेगा,
लेकिन
उस काम करने में सब कुछ बदल जाएगा। वह काम भी उसका प्रेम हो जायेगा। वह काम भी
उसकी सेवा बन जायेगी। वह काम भी उसकी पूजा और प्रार्थना हो जायेगा।
मुझे
ऐसा नहीं लगता कि शांत आदमी दुनिया में बढ़ेंगे तो दुकानें कम हो जायेंगी, शांत आदमी बढ़ेंगे तो दुकानें
नहीं रह जायेंगी। एक बात जरूर है, दुकानें
तो कम नहीं होंगी,
लेकिन
शांत आदमी बढ़ जायें तो मंदिर, मस्जिद, गुरु, संन्यासी, साधु, ये कम हो जायेंगे। क्योंकि
इनके पास अशांत आदमी जाते हैं। नहीं तो इनके पास शांत आदमी किसलिए जायेगा। गुरुओं
की दुकान बंद हो जायेगी। और कोई दुकान बंद होने के कारण नहीं है। मंदिर-मस्जिद
जरूर बंद हो जायेंगे। उनमें कोई नहीं जायेगा। क्योंकि जब पूरी तरह जिंदगी मंदिर
मालूम पड़ने लगे तो कौन मंदिरों में जायेगा। वह तो पूरी जिंदगी नर्क मालूम पड़ती है
तो वहां लोग मंदिर बनाते हैं।
वह
गांव में मंदिर इस बात का सबूत है कि पूरा गांव मंदिर नहीं बन पाया। हम ऐसा समाज
निर्मित नहीं कर पाये, जहां
पूरा गांव मंदिर होता। वह अपने मन को समझाने के लिए मंदिर बनाया हुआ है। गांव पूरा
नर्क है। नर्क में मंदिर बन सकता है? और नर्क में रहने वाले मंदिर बना सकते हैं? और नर्क में रहने वाले दान
करके मंदिर खड़ा कर सकते हैं?
आखिर
नर्क के रहने वाले जो बनायेंगे, वह
नर्क ही होगा। इसीलिए हमारे मंदिर-मस्जिद भी तो नर्क के स्थान हैं। हमारे तीर्थ सब
नर्क के स्थान हैं। हम बनाते हैं, और हम
जो भी बनाते हैं,
वह
नर्क हो जाता है! हम जो भी छूते हैं, वह नर्क हो जाता है! जब हम अपने घर को भी स्वर्ग
नहीं बना पाये,
जब हम
अपने बच्चे और पत्नी के संबंध को भी स्वर्ग नहीं बना पाये, तो हम इन सब नर्क बनाने वाले
लोग मिलकर एक मंदिर बना लेंगे गांव में? वह बनायेगा कौन? हम ही बनायेंगे न? हमारी काली छाया उसको भी घेर
लेगी।
नहीं, एक दिन ऐसा हो सकता है कि लोग
शांत होते चले जायें तो पूरा गांव मंदिर हो जाये। और जब कोई पूछे उस गांव में आकर
कि मंदिर कहां है,
तो
हमें हैरानी हो जायेगी कि कहां बतायें, क्योंकि पूरा गांव ही मंदिर है।
पूरा
गांव मंदिर हो सकता है, इसलिए
मैं मंदिरों के खिलाफ हूं।
लेकिन
हमें ऐसी बातें समझायी गयी हैं कि जो आदमी शांत हो जायेगा--धंधा छोड़ देगा, पत्नी छोड़ देगा, भाग जायेगा। और भागकर क्या
करेगा फिर?
फिर एक
आश्रम बनायेगा,
फिर
शिष्य इकट्ठे करेगा, बेटे-बेटियां
जोड़ेगा,
फिर एक
नयी दुकान और एक नया घर बनायेगा! यह सब चल रहा है।
आखिर
भागकर जायेगा कहां यह आदमी? जिस
तरह का आदमी है,
यह
करेगा क्या?
एक
दुकान छोड़ेगा,
दूसरी
दुकान बनायेगा। यह आदमी बनायेगा नहीं तो फिर जायेगा कहां? जंगल में जायेगा और वहां भी
दुकान करेगा!
और
हमने स्थान बदलने की चेष्टा की है आज तक! मनुष्य-जाति के इतिहास में हमने स्थान और
परिस्थिति बदलने की फिक्र की है! आदमी नहीं बदलता। वह आदमी फिर जाकर दूसरी जगह, फिर वही स्थिति बना लेता है!
मैंने
सुना है कि एक आदमी ने अपने जीवन में, अमेरिका में आठ विवाह किये। पहला विवाह करने
के छह महीने बाद वह घबरा गया। छह महीने भी लंबा कहते हैं, छह दिन में भी घबराहट शुरू हो
सकती है! छह महीने में वह घबरा गया और परेशान हो गया और उसने कहा, यह कहां से गलत औरत मिल गई!
औरत ने सोचा होगा,
कहां
का गलत आदमी मिल गया!
फिर
उसने तलाक दे दिया। फिर उसने दूसरी बार बहुत खोजबीन कर विवाह किया, बहुत जांच-पड़ताल की। अब वह
पहली ही दृष्टि में प्रेम में नहीं पड़ गया। पहली दफा भूल हो चुकी थी। बहुत अनुभवी
था, बहुत सोच-विचार करके खोजबीन
करके उसने विवाह किया।
लेकिन
दो महीने बाद पाया कि यह औरत भी वैसी ही औरत साबित हुई, जैसी पहली थी! बहुत परेशान
हुआ, उसको भी तलाक दिया!
उसने
आठ बार विवाह किये और आठवीं बार उसे यह समझ में आया कि हर बार विवाह तो मैं ही
करता हूं। हर बार स्त्री तो मैं ही चुनता हूं। हर बार खोज तो मैं ही करता हूं। और
मैं जैसा आदमी हूं--कि मैं फिर वही औरत ढूंढ लाता हूं, जैसी पहली थी! इसकी समझ, इसकी पसंद, इसकी पकड़ वही है! वह तो बदलता
नहीं, वह सिर्फ उसी तरह की औरत को
पकड़कर ले आयेगा!
जहां-जहां, जिन-जिन मुल्कों में तलाक
विकसित हुए हैं,
वहां
एक अदभुत अनुभव हुआ। और वह अनुभव यह है कि हर बार आदमी फिर उसी तरह के संबंध जोड़
लेता है,
जैसे
उसने पहले जोड़ा था! इसलिए आप बहुत चिंतित मत होना कि हमारे यहां तलाक की सुविधा
नहीं। नहीं,
आप कोई
बहुत नुकसान में नहीं हैं। एक-सा मामला है। स्त्री बदल जाती है, आदमी बदल जाता है। लेकिन फिर
उसी तरह का आदमी खोज लाता है! वह आदमी खोजने वाला नहीं बदलता है! असली सवाल तो
खोजने वाले की बदलाहट का है।
लेकिन
हमेशा ऐसा हुआ है। तलाक वालों ने ही ऐसा नहीं किया, संन्यासी भी ऐसा ही करते हैं!
एक घर छोड़कर भाग जाते हैं तो वह कभी नहीं पूछते कि मैं तो आदमी वही हूं, मैं जा रहा हूं, मैं जहां कहीं भी पहुंच
जाऊंगा,
मैं
फिर वही पुरानी चीज खड़ी कर दूंगा, जो
यहां से छोड़कर गया था। नाम बदल जायेगा, लेकिन फिर वही होगा! फिर वही होने वाला है!
वह जो आदमी भागकर जा रहा है, वह जिस
तरह का मस्तिष्क है, जिस
तरह का मन है--उसके पास वही मन फिर अपने चारों तरफ नये संसार रचेगा। अपने से बचना
मुश्किल है,
इसलिए
भागकर जायेगा कहां?
मेरा
कहना है,
अब तक
जो धर्म दुनिया में विकसित हुए हैं, उन्होंने भागना सिखाया है, पलायन सिखाया है, लेकिन परिवर्तन नहीं। और असली
सवाल हैं कि आदमी बदले। और वह बदल ध्यान से आती है, शांति से आती है, भीतर शून्य और मौन से आती है।
वह बदल आ जाये तो जिस घर में आप हैं, वह घर और तरह का घर हो जायेगा, क्योंकि उसको बनाने वाला आदमी
बदल गया है,
उस घर
को और होना ही पड़ेगा।
महावीर
युवा हुए और उन्होंने अपनी मां से और अपने पिता से कहा कि मैं संन्यासी हो जाना
चाहता हूं। महावीर की मां ने कहा कि मेरे जीते जी दोबारा अब यह बात मेरे सामने मत
रखना। यह हमारे सुनने के सामर्थ्य के बाहर है। यह मैं कल्पना ही नहीं कर सकती कि
मेरा बेटा संन्यासी हो जाये। जब मैं मर जाऊं, तब तुम इस तरह की बात सोच सकते हो, इसके पहले नहीं।
महावीर
बड़े अदभुत आदमी रहे होंगे। अगर और संन्यासियों से जाकर पूछें तो उनको हैरानी होगी
कि वे कच्चे संन्यासी रहे होंगे। महावीर राजी हो गये, मां से बोले कि ठीक है।
हमको
भी लगेगा कि आदमी कैसा है! अरे कहीं संन्यास ऐसे छोड़ा जाता है कि मां ने कह दिया
तो कहीं नहीं गये! मां कहेगी, पत्नी
कहेगी,
बेटे
कहेंगे,
बाप
कहेगा कि नहीं-नहीं, मत
जाओ। ऐसे कहीं कोई संन्यासी हो सकता है? पहली तो बात यह कि संन्यासियों को पूछना
नहीं चाहिए,
चुपचाप
भाग जाना चाहिए,
क्योंकि
पूछने का मतलब है,
झंझट
बढ़ेगी। और फिर ऐसा मान लेंगे तो संन्यास हो गया!
लेकिन
महावीर मान गये! उन्होंने मां से कहा, ठीक है। भाग्य की बात, दो साल बाद मां और पिता दोनों
की मृत्यु हो गयी। पिता को दफनाकर लौट रहे थे तो अपने बड़े भाई से महावीर ने
कहा--रास्ते में ही अभी मरघट से लौटते हैं--रास्ते में कहा, कि अब मैं संन्यासी हो जाऊं? क्योंकि मां और पिता का कहना
था कि जब तक वे हैं, बात न
करूं तो मैंने बात नहीं की।
भाई ने
छाती पीट ली और कहा कि तुम पागल हो गये हो। हमारे ऊपर इतनी मुसीबत पड़ी है कि
मां-बाप चल बसे और तुम्हें संन्यास की आज ही सूझी ! मेरे जिंदा रहते बात मत करना
और महावीर राजी हो गये कि ठीक है!
लेकिन
महावीर अदभुत आदमी थे, राजी
हो गये! एक वर्ष बीता, दो
वर्ष बीते,
फिर
महावीर ने नहीं कहा कि मुझे संन्यास मिले। बात खत्म हो गयी। भाई कहते हैं, जब तक वे हैं, तब तक ठीक है।
लेकिन
दो वर्ष बीतते-बीतते घर के लोगों को ऐसा लगा कि महावीर हैं तो घर में, लेकिन ना के बराबर हैं। वह घर
में नहीं है! वह थे और नहीं थे! और घर के लोगों को लगा कि उनकी मौजूदगी पता पड़नी
ही बंद हो गयी है। महीनों बीत जाते, ऐसा नहीं लगता कि वे घर में हैं! वह न किसी
बात में दखल देते हैं, न कोई
आग्रह करते हैं,
न कोई
मांग करते हैं। वह ऐसे हैं, जैसे
एक छाया की तरह चुपचाप--कब निकल जाते हैं घर के बाहर, कब घर के बाहर आ जाते हैं, कब सो जाते हैं, कब उठ जाते हैं--उनका होना
न-होना कोई सवाल ही नहीं रहा!
घर के
लोगों ने उनके बड़े भाई को कहा कि महावीर तो संन्यासी हो गया। भाई ने कहा, मैं भी हैरान हूं, ऐसा लगता नहीं कि वे घर में
हैं या नहीं। अब उसे रोकने से क्या फायदा? अब कोई मतलब नहीं रोकने का। हम सोचते थे कि
हमने रोक लिया है,
लेकिन
वह तो जा चुका है! घर भर के लोगों ने इकट्ठे होकर महावीर से कहा कि आप तो जा ही
चुके हैं,
अब
हमें रोकने में कोई मतलब नहीं है, अब
आपकी जैसी मर्जी। और महावीर घर से चल पड़े!
यह
महावीर जीवन भर भी न जाते, इससे
कोई फर्क नहीं पड़ता था। यह घर से जाना, न-जाना बिलकुल गौण बात थी, यह तो कोई अर्थ नहीं था। असली
अर्थ अपने रूपांतरण का था, वह हो
गया था। अब यह घर और बाहर बराबर था।
महावीर
को मानने वाले कहते हैं कि महावीर ने घर छोड़ा! सरासर झूठ कहते हैं। महावीर ने घर
कभी छोड़ा ही नहीं। महावीर को घर छोड़ने के पहले, घर और बाहर सब बराबर हो गया था। घर के लोग
कहते थे,
रहो, तो रहे थे। घर के लोगों ने
कहा, चले जाओ तो चले गये! ऐसा हुआ।
महावीर
को न जिद्द थी कि मैं जाऊं, न
जिद्द थी कि मैं रहूं। ऐसे अनाग्रह का नाम ही अहिंसा है। यह भी हिंसा है कि मैं
कहूं कि मैं जाऊंगा। और यह भी हिंसा है कि कहूं कि मैं यहीं रहूंगा। आत्मा जा चुकी
है। क्या फायदा है, अब हम
क्यों बाधा बनें। उन्होंने कहा, ठीक है, आप जायें। तो चल पड़े!
यह है
संन्यास,
यह है
व्यक्ति का रूपांतरण।
अब यह
आदमी कहीं भी चला जाये--अब इसे वेश्या के घर में ठहरा दें तो दिक्कत नहीं है, क्योंकि अब इसे कहीं कठिनाई
ही नहीं रही। यह आदमी ही बदल गया है। यह आदमी स्थान नहीं बदल रहा है, यह आदमी ही बदल गया है!
मैं जो
बात कर रहा हूं शांति की, मौन की, ध्यान की, वह व्यक्ति के रूपांतरण की
कीमिया की बात है,
उससे
सब कुछ बदल जायेगा।
एक
बदले हुए आदमी के आसपास सब बदल जायेगा, क्योंकि उसकी देखने की दृष्टि बदल जायेगी।
वह करेगा काम;
चलेगा, उठेगा, बैठेगा! नहीं, लेकिन अब यह दूसरा आदमी हो
गया। इसलिए उस पुराने आदमी ने जो दुनिया बनायी थी, यह उस दुनिया में नहीं जीयेगा, यह नयी दुनिया बनायेगा। इसकी
मौजूदगी--नयी दुनिया का निर्माण शुरू हो जायेगा। यह आदमी दुकान पर भी बैठ सकता है।
और जब
तक ऐसे आदमी दुकान पर नहीं बैठेंगे, तब तक दुनिया स्वर्ग नहीं बन सकती। यह आदमी
पिता हो सकता है,
यह
आदमी भाई हो सकता है, बेटा
हो सकता है। इस तरह का व्यक्तित्व पत्नी हो सकता है, मां हो सकता है। लेकिन जब तक
इस तरह के लोग मां, बेटे, पत्नी और बाप नहीं बनेंगे, तब तक दुनिया स्वर्ग नहीं हो
सकती।
हमने
काफी उपद्रव मचा रखा है। हम अशांत हैं, इसलिए स्वाभाविक है कि उपद्रव मचायें। अशांत
आदमी दुनिया बसाये हुए हैं! अशांत आदमी विवाह कर रहे हैं! अशांत आदमी अदालतें चला
रहे हैं! अशांत आदमी राष्ट्रों के मालिक बने हैं!
हम
रोगग्रस्त,
अशांत
लोगों ने जो जगत बनाया है, वह जगत
बदल जाये,
उतना
ही अच्छा है। लेकिन वह जगत बदलेगा ही ऐसे कि रोगग्रस्त व्यक्ति बदलें, अन्यथा फिर हम उसी तरह का जगत
बना लेंगे। ऐसा ही हुआ है।
रूस ने
बदलाहट की और कुछ बदलाहट न हुई। ऊपरी बदलाहट हुई, भीतर कोई बदलाहट न हुई, क्योंकि वही रोगग्रस्त
व्यक्तियों ने बदलाहट की! फिर वे ही रोगग्रस्त ऊपर बैठे! फिर वही सबका सब सिलसिला
शुरू हो गया,
जो था!
पुरानी हालत बदली,
गरीब-अमीर
के बीच का फासला कम हुआ, लेकिन
नये फासले खड़े हो गये--सत्ताधिकारियों के और गैर-सत्ताधिकारियों का फासला उतना ही
हो गया,
जितना
फासला गरीब का और अमीर का था। जो कल मालिक था, वह आज मैनेजर हो गया! नाम बदल गये, बात वही रही!
लेकिन
हम नाम बदल लेने को बहुत काम समझ लेते हैं! कोई अपना गृहस्थाश्रम छोड़कर आश्रम बना
लेता है--हम कहते हैं, बदलाहट
हो गयी! नाम सिर्फ बदले हैं, कहीं
कुछ बदला नहीं। घर की जगह आश्रम लिख दिया और बदलाहट हो गयी!
हमारी
बुद्धि ऐसी ही चीजों पर अटकती है! चीजें ऐसे ही हम बदल लेते हैं। एक आदमी सफेद
कपड़े पहने है,
हम
कहते हैं गृहस्थ है! और वह कल गेरुआ वस्त्र पहनेगा तो हम कहेंगे स्वामी है, संन्यासी हो गया है! हम
बिलकुल पागल हैं,
हमें
बुद्धि में थोड़ा भी कुछ नहीं सूझता है कि हम क्या कर रहे हैं, हम क्या खेल किये जा रहे हैं!
एक आदमी ने गेरुआ वस्त्र पहन लिया, वह संन्यासी हो गया!
पहली
तो बात यह है कि जो आदमी वस्त्र बदलने को संन्यास समझता है, वह जड़ है। बुद्धि जैसी कोई
चीज उसके पास नहीं है। क्योंकि बदलना था, तो कपड़े ही बदलने की सूझी उसको! इससे ज्यादा
व्यर्थ बात बदलने की और कुछ नहीं हो सकती। वह तो जड़बुद्धि है। और हम जड़बुद्धि
हैं--तो इसकी सूझ को हम भी नमस्कार करते हैं कि यह बहुत--बहुत बड़ा महान कार्य किया
तुमने--कि गेरुआ वस्त्र पहन लिए! हम चीजें बदल रहे हैं, नाम बदल रहे हैं, स्थान बदल रहे हैं, यह सब हम कर रहे हैं! लेकिन
वह जो व्यक्ति है भीतर, उसे
बदलने की कोई चिंता ही नहीं! उसको बदलने का द्वार ध्यान है।
एक
मित्र ने पूछा है कि ध्यान की क्या कोई विधि नहीं है?
इसको
थोड़ा समझना जरूरी है। ध्यान कोई विधि नहीं है। अभिव्यक्त करने में भाषा की अपनी
सीमा और कठिनाई है, क्योंकि
जो भाषा हमने विकसित की है, वह
बहुत काम-चलाऊ बातों के लिए है, वह
ध्यान जैसी बातों के लिए नहीं है।
विधि
तो हमेशा क्रिया की होती है। जब क्रिया करेंगे तो विधि होती है। अक्रिया की कोई
विधि नहीं हो सकती। क्रियाओं की विधि हो सकती है--ऐसे करो, ऐसे करो। लेकिन जहां न-करने
का सवाल है,
वहां
विधि कैसे होगी! यह ध्यान कोई विधि नहीं है। और इसलिए यह भी मत पूछें कि ध्यान के
कितने प्रकार होते हैं। और यह भी मत पूछें कि फलां गुरु इस तरह की विधि सिखाता है
और फलां गुरु दूसरे तरह की विधि सिखाते हैं। गुरुओं को रहना है तो विधियां सिखानी
पड़ेंगी। उसकी वजह से ध्यान में गति नहीं होती, उसकी वजह से गुरुता मजबूत होती है।
ध्यान
की कोई विधि नहीं है। ध्यान तो विधि-शून्यता है।
इस बात
को चूंकि पीछे भी मैंने कहा--अक्रिया है, नो-एक्शन है। वहां कुछ करना नहीं है, सब करना छोड़ देना है।
इस समय
मुट्ठी बांधे हुए हैं। और कोई मुझसे पूछे कि मुट्ठी खोलने की विधि क्या है? तो पूछता तो ठीक है, लेकिन मैं उससे कहूंगा कि
मुट्ठी बांधने की विधि थी, खोलने
की कोई विधि नहीं होती। वह जो बांधने की विधि कर रहे हैं, वह भर न करें, मुट्ठी खुल जायेगी। बांधना
क्रिया है,
खोलना
क्रिया नहीं है। खुला हुआ है स्वभाव, हाथ अपने आप खुला हुआ है। बांधते हम हैं, बांधना हमारा काम है। खुला
हुआ होना,
हाथ की
स्वाभाविक दशा है।
किसी
वृक्ष की शाखा को हम नीचे पकड़कर खींच लें और फिर मुझसे कोई पूछे कि इसको इसकी जगह
पर वापस पहुंचाने की कोई विधि है? तो
कहेंगे,
कोई
विधि नहीं है। आप कृपा करके जो रोकने की इसकी विधि कर रहे हैं, वह भर न करें। आप छोड़ दें, वह अपनी जगह पहुंच जायेगी
शाखा।
हालांकि
भाषा में छोड़ना भी क्रिया मालूम पड़ती है, लेकिन छोड़ना क्रिया नहीं है। छोड़ने का मतलब
है कि जो पकड़ने की क्रिया आप करते थे, अब नहीं कर रहे हैं। छोड़ना हो गया। छोड़ना
निगेटिव है,
पॉजिटिव
नहीं है। पकड़ना पॉजेटिव है। पकड़ने में आपको कुछ करना पड़ता है। छोड़ने में आपको कुछ
करना नहीं है,
बल्कि
जो आप कर रहे थे,
वह भी
नहीं करना है और शाखा अपनी जगह पहुंच जायेगी। बस एक चीज--अपने स्वभाव में पहुंचने
को आता हो। प्रत्येक चीज अपने स्वभाव में होना चाहती है।
अगर
ध्यान से समझें तो धर्म की जो प्यास है दुनिया में, उसका और कोई कारण नहीं है।
धर्म की प्यास का अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वभाव में जाने को आतुर है। और
जब तक दुनिया अपने स्वभाव में नहीं पहुंचती है, तब तक धर्म की जरूरत बनी रहेगी। जिस दिन लोग
स्वभाव में पहुंच गये, धर्म
बेमानी हो जायेगा। धर्म की जरूरत नहीं रहेगी।
हम
अपने स्वभाव से च्युत हैं, हम
अपने स्वभाव से कहीं इधर-उधर भटक रहे हैं और इसलिए बेचैन हैं। यह जो अशांति है, वह यही कि हम अपने स्वभाव में
नहीं हैं। वह यही कि हम कुछ होने को हैं। हमें कहीं कुछ खींचा, ताना गया है। हम कहीं खिंचे
हुए हैं।
शाखा
को देखें। अपनी जगह होकर कैसी शांत हो गयी। इसे जरा खींचें और बेचैनी इसके सारे
रग-रेशों में दौड़ जायेगी, इसके
स्नायु खिंच जायेंगे। सारे वृक्ष के प्राण कंपकंपाने लगेंगे। दूसरी शाखाएं भी
हिलने लगेंगी,
खिंचेंगी--पूरे
वृक्ष के प्राण कठिनाई में पड़ जायेंगे। जड़ों तक खबर पहुंच जायेगी कि कुछ गड़बड़ हो
गयी है,
कहीं
कुछ खिंचाव,
कहीं
कुछ तनाव है! लेकिन छोड़ दें, शाखा
अपनी जगह पहुंच जायेगी; ठहर
जायेगी,
वृक्ष
निश्चिंत हो जायेगा, मौन हो
जायेगा,
ठहर
जायेगा।
हम सब
खिंचे हुए शाखाओं के लोग हैं, अलग-अलग
तरफ खिंचे जा रहे हैं! लोग एक-दूसरे को खींच रहे हैं! वह जिनको हम संबंधी कहते हैं, उनसे एक ही संबंध है हमारा--
वह कि एक-दूसरे की शाखाएं खींचो! बाप बेटे को खींच रहा है, बेटे बाप को खींच रहे हैं, सब एक-दूसरे को खींच रहे हैं!
यह जो खिंचा हुआ पूरा का पूरा समाज है, वहां हम सब एक-दूसरे को च्युत कर रहे हैं
अपनी-अपनी जगह से! हम खुद भी च्युत हैं और इसलिए इतनी अशांति, इतना तनाव, चिंता है।
ध्यान
से मतलब है अपने स्वभाव में होना, अपने
में होना,
अपने
घर में लौट आना। यह बड़ी कठिनाई की बात है।
मैंने
सुना है,
एक
आदमी एक दिन शराब पी लिया बाजार में जाकर। शराब पीकर लौटा अपने घर। किसी तरह
टटोलता हुआ घर पहुंच गया, लेकिन
नशे में था। घर पहचान में नहीं आता था तो सीढ़ियों पर बैठकर चिल्लाने लगा जोर-जोर
से कि कोई मुझे मेरे घर पहुंचाओ। पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गये, उसे हिलाने लगे, कहने लगे कि क्या हो गया, पागल हो गये, घर में बैठे हो! पर वह आदमी
चिल्लाने लगा--मुझे व्यर्थ मत समझाओ, मुझे घर पहुंचा दो, मेरी मां राह देखती होगी।
नींद खुली मां की आधी रात, दरवाजा
खोलकर बाहर आयी,
उसके
सिर पर हाथ रखकर कहने लगी, बेटा, घर के भीतर चलो, तुझे हो क्या गया है!
गांव
में स्वयंसेवक भी था, वह
गाड़ी ले आया। उसने कहा, बैठ
जाओ इस पर,
हम
पहुंचा देंगे!
पड़ोस
के लोगों ने कहा,
पागल, अगर गाड़ी में बैठा तो घर से
दूर निकल जायेगा;
क्योंकि
तू अपने घर में है, घर पर
मां मौजूद है;
अब
कहीं भी गया तो घर से दूर चला जायेगा। तू कहीं जाना मत, किसी नेता के चक्कर में मत
पड़ना, किसी गुरु के चक्कर में मत
पड़ना, किसी गाड़ी वाले की बातों में
मत आ जाना। क्योंकि गाड़ी में बैठा कि कहीं दूर निकल जायेगा। तू अपने घर पर ही है, तुझे कहीं जाना नहीं है, तुझे सिर्फ होश में आना है।
और होश में आ जायेगा तो पायेगा कि तू अपने घर में है।
हम
खिंचे भी नहीं है वस्तुतः, सिर्फ
बेहोशी में खिंचे हुए का खयाल है। होश आ जाये, हम पायेंगे, हम अपनी जगह हैं। हम वहीं है, जहां हम हैं और जैसे ही यह
पता चलता है कि हम अपने घर में हैं, एक शांति सारे जीवन में छा जाती है।
इस
संबंध में एक मित्र ने पूछा है कि सब अपने स्वभाव के अनुसार करें तो चोर चोरी
करेगा,
हत्यारा
हत्या करेगा,
बेईमान
बेईमानी करेगा! आपकी बात मान लेंगे तो दुनिया में नीति, धर्म, अनुशासन सब गड़बड़ हो जायेगा?
अभी
पता ही नहीं है आपको कि चोर का स्वभाव चोरी करना नहीं है। कभी सोचा भी है कि चोर
चोरी करता है,
स्वभाव
में न होने के कारण। स्वभाव में किसी ने कभी चोरी की है? स्वभाव में ही कोई व्यक्ति
धर्म में जीता है। अगर चोर अपने स्वभाव में चला जाये तो चोरी नहीं कर पायेगा, क्योंकि चोरी करने के लिए
स्वभाव के बाहर जाना जरूरी है। और स्वभाव तो भीतर पुकार-पुकार कर कहता है--मत कर, मत कर।
लेकिन
वह कहता है,
नहीं
करूंगा! चोरी करनी पड़ती है। चोरी कर्म है। चोरी करना है। वहर् कत्ता का भाव है कि
मैं कर रहा हूं।
लेकिन
जैसे ही यह भाव चला गया कि मैं करने वाला नहीं हूं--चोरी कर सकते हैं? जैसे ही यह पता चल गया कि
करने वाला परमात्मा है, फिर
चोरी कर सकते हैं आप? और अगर
फिर चोरी भी की तो मैं कहता हूं कि वह चोरी भी धर्म होगी, क्योंकि फिर चोरी की ही नहीं
जा सकती।
हमें
पता ही नहीं है कि जो भी बुरा होता है बुरे का अर्थ इतना है कि स्वभाव के प्रतिकूल।
बुरे का और कोई अर्थ नहीं होता है--जो मेरे स्वभाव के प्रतिकूल है। और जो स्वभाव
के प्रतिकूल है,
वह दुख
लाता है। इसलिए बुरा दुख लाता है। बुरे का और कोई संबंध नहीं है। क्योंकि मेरे
स्वभाव के प्रतिकूल है, इसलिए
दुख लाता है। मुझे खिंचना पड़ता है।
एक
आदमी चोरी करता है। चोरी जैसे खींचती है। चौबीस घंटे वह खिंचा हुए होता है। चोरी
करके कोई निश्चित हो सकता है? चोरी
करके कोई शांत हो सकता है? हत्या
करके कोई विश्राम कर सकता है? नहीं।
उसका पूरा चित्त तन जाएगा। उसे स्वभाव के बाहर जाना पडेगा।
पाप की
परिभाषा मेरी दृष्टि में इतनी ही है कि जो स्वभाव के बाहर है, विपरीत है, प्रतिकूल है, वही पाप है।
पुण्य
का इतना ही अर्थ है, जो
स्वभाव में रहते हो जाता है, वही
पुण्य है।
जो
स्वभाव के बाहर जाकर करना पड़ता है, वह पाप है। अगर ऐसा भी कोई पुण्य आप करते
हैं, जिसमें स्वभाव के बाहर जाना
पड़ता है तो वह पाप है। अगर एक मंदिर के बनाने में चिंता आती हो चित्त पर तो पाप
है। अगर किसी की सेवा में दमन करना पड़ता हो, जबरदस्त करनी पड़ती हो तो वह पाप है। जो सहज
होता हो,
स्वभाव
से होता हो,
स्वभाव
से होता हो,
वही
पुण्य है।
यह जिन
मित्र ने पूछा है,
ऐसे ठीक
ही पूछा है,
क्योंकि
हम सबके भीतर चोर बैठा हुआ है। उन्होंने पूछा है कि अगर सब अपने स्वभाव के अनुसार
छोड़ दें तो पर-स्त्री को चाहने वाला पर-स्त्री के पीछे पड़ जायेगा!
वे
समझे नहीं,
स्वभाव
का अर्थ कि जहां स्वभाव है, वहां
पर-स्त्री तो दूर,
अपनी
स्त्री के पीछे पड़ना भी मुश्किल है। वहां अपनी स्त्री भी पर-स्त्री के बराबर ही हो
गयी। और ध्यान रहे, जब तक
अपनी स्त्री अपनी मालूम हो रही है, तब तक पर-स्त्री का पीछा करता रहेगा वह--जो
कहता है कि यह मेरी और यह मेरी नहीं!
और
ध्यान रहे,
जो
मेरा नहीं है,
उस पर
अधिकार करने की हमेशा कामना बनी रहेगी। यह हो नहीं सकता कि जो मेरा नहीं है, उसका पता है हमें। और हमारे
मन में उसके एकाधिकार का विचार पैदा न हो। जो मेरा है, उसके एकाधिकार का विचार नहीं
रह जाता है। जो मेरा नहीं है, उसके
एकाधिकार का विचार पुकारता है कि उस पर भी अधिकार कर लो! वह पर-स्त्री इसलिए
पर-स्त्री है कि उधर एक अपनी स्त्री भी है। वह अपनी स्त्री की वजह से पर-स्त्री
है। इस पर अधिकार मिल गया है, इसलिए
अपनी है! उस पर अधिकार नहीं मिला, इसलिए
परायी है!
और जिस
पर अधिकार नहीं मिला है, मन
कहेगा उस पर अधिकार करो। दूसरे की कार दिखायी पड़ती है उस पर, दूसरे का मकान दिखायी पड़ता है
उस पर,
दूसरे
की इज्जत दिखायी पड़ती है उस पर; दूसरे
का पद,
दूसरे
का ज्ञान,
दूसरे
का त्याग दिखायी पड़ता है। इस सब पर अधिकार करो। जो भी दूसरे का है, वह भी मेरा होना चाहिए। ऐसा
कुछ भी न बचे,
जो
मेरा न हो।
लेकिन
वह पर-स्त्री किसी दूसरे की है, वह भी
पहरा दिए हुए खड़ा है! और उसे यह भी डर है कि अगर मैंने दूसरे की स्त्री की तरफ
देखा, तो मेरी स्त्री की तरफ कोई
देखेगा तो फिर मैं क्या करूंगा? ये सब
भाव हैं और इन सब भावों को बांधकर आदमी खड़ा हुआ है और चिल्ला रहा है कि पर-स्त्री
की तरफ देखना पाप है! और क्यों चिल्ला रहा है? और क्यों साधु-संत समझा रहे हैं कि दूसरे की
स्त्री को देखना पाप है? क्योंकि
सबको पता है कि सब दूसरे की स्त्री को देख रहे हैं।
यह
ध्यान रहे,
जब तक
अपनी स्त्री जैसा खयाल है, तब तक
पर-स्त्री पीछा करेगी। जब तक कोई कहता है कि मेरा धन है यह, तब तक वह आदमी चोर रहेगा, क्योंकि मेरे धन के दावे में
चोरी छिपी है।
जीवन
का रूपांतरण बहुत और ही बात है। वहां अपना पराया मिट जाता है, जैसे ही कोई अपने स्वभाव में
आता है।
एक
बहुत अदभुत घटना घटी है। वाचस्पति मिश्र की शादी हुई। शादी ही कहना ठीक है, क्योंकि उसने कुछ की नहीं, घर के लोगों ने कर दी। और कुछ
अदभुत लोग होते हैं। घर के लोगों ने कहा, चलोगे, शादी करोगे? उसने कहा, जैसी मर्जी!
इस
लड़के से आशा थी कि इंकार करेगा। मां-बाप को भी बड़ा मजा आता है, जब बेटे इंकार करते हैं--नहीं
शादी करेंगे! बहुत मजा आता है, समझाते-बुझाते
हैं! लेकिन भीतर मन में बहुत रस आता है कि यह हुआ बेटा अच्छा। कितना यह है
चरित्रवान,
कहता
है नहीं करेंगे!
घर के
लोग डरे हुए थे,
क्योंकि
वह आदमी ऐसा था कि कल को क्या करेगा, क्या नहीं; किसी को नहीं मालूम था, क्योंकि दिन-रात वह किसी और
ही देश में खोया हुआ रहता था।
शादी
हो गयी। पत्नी को ले आया घर पर। फिर बारह साल बीत गये और वाचस्पति अपने काम में
लगे रहे।
शादी
का काम खत्म हो गया, घर
वालों को मजा आ गया। साथ ही वह पत्नी को भूल ही गया कि पत्नी घर में है!
ऐसी
घटना शायद दुनिया में कभी नहीं घटी है। और पत्नी भी अदभुत रही होगी। वह वाचस्पति
से कम मूल्य की नहीं थी। उसने एक बार जाकर उसे छेड़ा भी नहीं कि मैं घर बैठी हूं, मुझे किसलिए ले आये हो! उसने
जाना कि जो इस तरह खोया है किसी दूर अज्ञात में, उसे बाधा दें तो फिर मेरा
प्रेम बहुत कच्चा है। वह प्रतीक्षा करती रही अंधेरे में बैठकर बारह वर्ष तक! जागती
थी वह रातभर,
वाचस्पति
लिखता रहता! वह कुछ किताबें लिख रहे थे, वह कुछ उपनिषदों पर भाष्य लिख रहे थे, ब्रह्मसूत्र की टीका लिख रहे
थे। वह बहुत काम कर रहे थे, वह
खोये थे किसी दूर के लोक में! पत्नी छाया की तरह उनकी सेवा करती थी!
बारह
वर्ष बाद--वाचस्पति ने तय किया था, वह जो किताब लिख रहे थे--ब्रह्मसूत्र का
भाष्य--वह पूरा हो जायेगा जिस दिन, उसी दिन वह घर छोड़ देगा! वह ब्रह्मसूत्र का
भाष्य पूरा होने को है। आखिरी पन्ना वह लिख रहा है कि दीया बुझ गया। उसकी पत्नी तो
छाया की तरह उसकी सेवा करती थी। वह आयी और उसने दीया जलाया। पहली दफा वाचस्पति ने
उस जले हुए दीये में उसका हाथ देखा और उसने कहा, तू कौन है यहां!
वाचस्पति
की पत्नी ने कहा,
धन्यभाग
मेरे कि आज पूछा तो! बारह वर्ष से प्रतीक्षा थी, कभी पूछेंगे तो निवेदन कर
दूंगी कि कौन हूं! बारह वर्ष पहले, शायद आप भूल गये होंगे, विवाह करके मुझे घर ले आये
थे। तब से प्रतीक्षा करती हूं।
वाचस्पति
रोने लगे। उसने कहा, यह तो
बड़ी देर हो गयी। पागल, तूने
बीच में ही क्यों न कहा? क्योंकि
मैंने तो तय किया है कि यह किताब पूरी हो जायेगी--और किताब पूरी हो गयी है और कल
सुबह सूरज उगा और मैं चला जाऊंगा, तूने
क्यों नहीं कहा?
उसकी
पत्नी ने कहा,
लेकिन
कुछ भी देर नहीं है। आपने इतनी चिंता जाहिर की मेरे लिए--कि तूने देर कर दी, और आज सुबह चला जाऊंगा, तो तूने पहले क्यों न
कहा--मुझे सब मिल गया और चाहिए भी क्या था!
उस
पत्नी की याद में किताब का नाम "भामती' रखा। भामती पत्नी का नाम था। भामती का कोई
संबंध नहीं है ब्रह्मसूत्र की टीका से, लेकिन किताब का नाम "भामती' रखा उसकी याद में!
जो
बारह साल पीछे चुप था, अब ऐसे
आदमी को पर-स्त्री दिखायी पड़ सकती है? इधर बारह साल अपनी स्त्री दिखायी नहीं पड़ी!
अपनी स्त्री नहीं,
तो
पर-स्त्री कहां है? ऐसे
आदमी को स्त्री दिखायी पड़ सकती है?
हां, दिखायी तो पड़ेगी, लेकिन , आंख में तस्वीरें बन रही हैं, वही दिखायी पड़ रही हैं। ऐसे
आदमी को क्या दिखायी पड़ता है! ऐसा आदमी अपने स्वभाव में जीता है।
ऐसे ही
रामकृष्ण थे। रामकृष्ण गये--वे नये-नये कपड़े पहने हैं, लड़की को देखने जा रहे हैं!
बहुत सोच-समझकर तैयार हो गए हैं। बार-बार आकर बाहर पूछते हैं, कब चलना है, कितनी देर है! वे बहुत खुश
हैं कि आज नये कपड़े मिल गये हैं और तीन रुपये भी मां ने उनके खीसे में डाल दिये
हैं, वह उनको बार-बार गिनकर अंदर
रख देते हैं! ऐसा कभी नहीं हुआ था। वे बहुत ही खुश हैं।
फिर वे
गये हैं उस लड़की को देखने। फिर वे थाली पर बैठे हैं। वह लड़की परोसने आयी है।
उन्होंने तीन रुपये निकाले, उसके
पैर पर रखे और उसके पैर पड़ लिए!
तो सब
घर के लोग कहने लगे कि पागल, यह
क्या कर लिया?
तो
उन्होंने कहा,
बिलकुल
मेरी मां जैसी है--उतनी ही भोली, उतनी
ही सरल! मेरी मां हो गयी!
उन
लोगों ने कहा,
यह
तेरी पत्नी है,
तेरी
मां नहीं हो सकती।
उन्होंने
कहा, पत्नी का तो मुझे पता नहीं कि
कैसी होती है,
लेकिन
मां का मुझे पता है। मेरी मां तो हो ही गयी अब। अब क्या होगा! फिर वह स्त्री मां
ही रही जिंदगी भर!
अब ऐसे
आदमी की अपनी ही पत्नी नहीं होती तो क्या वह दूसरे की पत्नी देख सकता है? और अपनी पत्नी में जब मां दिख
गयी तो अब किस स्त्री में मां नहीं दिखेगी? ठीक ऐसे ही लोग स्वभाव में जीते हैं।
और वह
मित्र पूछते हैं कि अगर स्वभाव में चले गये और परायी स्त्री की चाह मन में है, तब तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी।
फिर परायी स्त्री के पीछे चले गये! स्वभाव में चले जाइये, फिर किसी के पीछे नहीं
जायेंगे।
स्वभाव
में जाने का मतलब है अपने पीछे चले जाना। और जो अपने पीछे चला जाता है, वह फिर किसी के पीछे नहीं जा
सकता है।
जब तक
हम अपने पीछे नहीं गये हैं, तभी तक
हम दूसरे के पीछे भटकते हैं--छायाओं के पीछे। लगता है कि इसके पीछे जाने से कुछ
मिल जायेगा। उसके पीछे जाने से कुछ नहीं मिलेगा। इसीलिए दूसरे के पीछे भटकते हैं!
और जब
अपने ही पीछे जाकर कोई पा लेता है तो फिर दूसरे के पीछे क्यों जायेगा? वह तो जब तक नहीं मिला है
हमें, तब तक भटकन है। और जब मिल गये, खुद को खुद ही मिल गया, तब इसके पीछे किसको जाना है।
वह सब जाना आना,
वह
सारी दौड़-धूप;
वह
चोरी, पाप, हत्या, और पर-स्त्री ; वे सब के सब विभाव हैं, वे हमारे स्वभाव के बाहर घटने
वाली घटनायें हैं।
इसीलिए
यह मत कहें कि स्वभाव में आ जायें तो कोई अव्यवस्था फैल जायेगी। अव्यवस्था फैली
हुई है। स्वभाव में आ जायेंगे तो व्यवस्था आ जायेगी। लेकिन वह ऐसी व्यवस्था नहीं
होगी, जो ऊपर से आयोजित करनी पड़ती
है। वह कोई ऐसी डिसिप्लिन नहीं होगी, वह कोई ऐसा अनुशासन नहीं होगा, जिसे ऊपर से थोपना पड़ता है।
वह भीतर से आया हुआ होगा। अब रामकृष्ण को ऐसा समझाना नहीं पड़ेगा कि यह मेरी मां है, ऐसा देखो।
हम भी
अपने बच्चे को समझाते हैं कि दूसरे की स्त्री, मां-बहन को अपनी मां-बहन समझना! अब समझने का
मामला कभी सच हो सकता है? जब हम
कहते हैं कि ऐसा समझना तो उसका मतलब साफ है कि जो समझना नहीं है, वह पहले ही समझ चुके हैं और
अब यह समझना पड़ेगा!
कभी आप
नहीं समझाते किसी को कि दूसरे को पत्नी को अपनी पत्नी समझना--वह नहीं समझाते!
क्योंकि वह हम समझते ही हैं। समझाना यह पड़ता है कि मां समझना, क्योंकि जो हम नहीं समझते हैं, वह हमें समझाना पड़ता है। सचाई
औरों से हम समझते हैं, झूठ हम
ऊपर से थोपते हैं कि ऐसा समझना!
और ऐसा
समझाने का जो अनुशासन है, वह
सरासर मिथ्या और झूठा है। और उसी मिथ्या पर खड़ा हुआ समाज है। और उसके ही हम गौरव
गान किये चले जाते हैं कि बड़ी संस्कृति है, बड़ी सभ्यता है! और सब इसी तरह के झूठों पर
खड़ी हुई सभ्यता है।
हम
कहते हैं,
हमारी
सभ्यता बहुत ऊंची है! हम दूसरे की पत्नी को दूसरे की मां-बहन को अपनी मां-बहन
समझते हैं! समझने की बात हमेशा झूठी होती है। दिखायी पड़नी चाहिए। वह किसी के
समझाने का सवाल नहीं होना चाहिए। दिखनी चाहिए। और जब देखते हैं, तब तो एक अनुशासन भीतर से आता
है। उसे पैदा नहीं करना पड़ता है।
स्वभाव
में जीने वाले व्यक्ति का एक अनुशासन होता है, जो आंतरिक होता है। और हम नहीं पहचान पाते
अकसर, क्योंकि हम उसी अनुशासन को
पहचानते हैं,
जो ऊपर
से थोपा जाता है! हम झूठ के इतने आदी हो गये हैं कि हम सत्य को देख भी नहीं पाते, पहचान भी नहीं पाते!
अतः
हमें स्वयं को स्वीकारना है, स्वयं
को पहचानना है। अपनी ही खोज करनी है। अपने को झूठे अपनत्व के तनाव से मुक्त करना
है। और प्रकृति एवं ब्रह्मांड से जुड़ी उस सरल-सहज अक्रिया से एकाकार होना है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें