प्रवचन-उन्नीसवां
मेरे
प्रिय आत्मन,
अंधेरी
रात हो तो सुबह की आशा होती है। आदमी भी एक अंधेरी रात है और उसमें भी सुबह की आशा
की जा सकती है। कांटों से भरा हुआ पौधा हो तो उसमें भी फूल लगते हैं। आदमी भी
कांटों से भरा हुआ एक पौधा है, उसमें
भी फूल की आशा की जा सकती है। बीज हो तो अंकुरित हो सकता है, विकसित हो सकता है। आदमी भी
एक बीज है और उसमें भी विकास के सपने देखे जा सकते हैं।
लेकिन
साधारणतः मनुष्य बीज ही रह जाता है और वृक्ष नहीं हो पाता! साधारणतः मनुष्य कांटों
से भरा हुआ एक पौधा ही रह जाता है
और फूल नहीं खिल पाते! साधारणतः मनुष्य बीज ही
रह जाता है और वृक्ष नहीं हो पाता! अंधेरी रात ही रह जाता है और प्रभात कभी नहीं
हो पाता! एक सपना ही रह जाता है और सत्य कभी भी नहीं बन पाता!
इसलिए
प्रत्येक मनुष्य के सामने सवाल है कि मार्ग क्या है? कैसे हम पहुंचे उस तक, जिसे हो जाने के बाद कुछ और हो
जाने की आकांक्षा शेष नहीं रह जायेगी? कैसे उसे पा लें, जिसे पा लेने के बाद फिर कुछ
और पाने को शेष नहीं रह जाता? कैसे
वह मंदिर मिल जायेगा, जहां
हम अपने पूरे स्वरूप को उपलब्ध हो सकेंगे, जो हम होने को पैदा हुए हैं, वह हो सकेंगे? कहां है रास्ता? कौन-सा है रास्ता?
सबसे
बड़ी कठिनाई जो है,
वह यह
है कि जीवन आकाश की तरह है, जमीन
की तरह नहीं। काश! जीवन जमीन की तरह होता तो महावीर चलते हैं, बुद्ध चलते हैं, कृष्ण चलते हैं, क्राइस्ट चलते हैं, रास्ते बन गये होते, उनके पदचिह्न बन गये होते।
लाखों लोग चले हैं और पहुंचे हैं। पगडंडियां बन गयी होतीं। और कोई कारण नहीं था, हम पक्के रास्ते भी बना लेते
उस मंदिर तक!
लेकिन
यह नहीं हो सका,
क्योंकि
जीवन आकाश की तरह है, जिसमें
पक्षी उड़ते हैं और उनके पदचिह्न नहीं बनते। पक्षी उड़ जाता है, पीछे कोई चिह्न नहीं छूट
जाते। पक्षी पहुंच जाते हैं, रास्ता
नहीं बन पाता। और जब दूसरे पक्षी को उड?ना हो तो फिर नये सिरे से शुरुआत करनी होती
है--बंधे हुए रास्ते से नहीं। आकाश फिर खाली का खाली रह जाता है!
यह
दुर्भाग्य भी है और सौभाग्य भी। दुर्भाग्य इसलिए कि बंधा हुआ रास्ता नहीं है।
सौभाग्य इसलिए कि अगर बंधा हुआ रास्ता होता तो उस मंदिर तक पहुंचने का सारा आनंद
नष्ट हो जाता,
क्योंकि
उस मंदिर तक पहुंचने का जो आनंद है, वह पहुंचने में कम, पहुंचने की यात्रा में ज्यादा
है। उस मंदिर का जो सौंदर्य है, वह उस
मंदिर तक पहुंचने की खोज से ही पैदा होता है। उस सत्य की जो उपलब्धि है, वह उस सत्य को जन्म देने की
जो प्रसव पीड़ा है,
उससे
ही मिलती है।
तो
मेरी दृष्टि में तो दुर्भाग्य ही होता, अगर रास्ता बन जाता, क्योंकि बंधे हुए रास्ते रेल
की पटरियों की तरह हमें भी वहां पहुंचा देते--भगवान के द्वार तक, सत्य तक, सौंदर्य तक, प्रेम तक। लेकिन तब वह मंदिर
बासा और उधार होता। उसकी ताजगी और नयापन खो गया होता।
परमात्मा
की बड़ी कृपा है कि जीवन जमीन की तरह नहीं, आकाश की तरह है, जहां कोई पदचिह्न नहीं बनते।
लेकिन
आदमी मार्ग खोजना चाहता है! कैसे पहुंचे? और जैसे ही कोई सोचना शुरू करता है, उसे दिखायी पड़ने लगता है कि
जीवन अर्थहीन है! कोई अर्थ नहीं मालूम पड़ता! सब तरफ अंधेरा है, कोई प्रकाश नहीं दिखाई पड़ता!
क्यों जी रहे हैं?
क्यों
पैदा हुए हैं?
इसके
पीछे भी कोई कारण दिखायी नहीं पड़ता। सब मीनिंगलेस, एब्सर्ड, न कोई अर्थ, न कोई संगति! जो भी सोचता है, उसे ऐसे ही दिखायी पड़ना शुरू
होता है। स्वाभाविक ही है कि वह पूछे कि रास्ता है कोई?
तीन
रास्तों के संबंध में हजारों साल से आदमी ने विचार किया है। उन तीन रास्तों में
दुनिया के सभी रास्ते समाहित हो जाते हैं। उन तीन रास्तों के नाम हमने भी सुन रखे
हैं। तीन ही रास्ते क्यों इतने महत्वपूर्ण हो गये? रास्ते होने के कारण? नहीं, आदमी का मन तीन पर्तों में
बंटा है,
इसलिए
आदमी के मन के तीन केंद्र, तीन
पर्तें हैं,
तीन
वर्तुल हैं।
अगर
आदमी के मन में हम प्रवेश करें तो उसकी पहली परिधि कर्म की है। बिना काम के रहना
बहुत मुश्किल है। मन बिना काम के एक क्षण भी नहीं जीना चाहता! इसलिए अगर कोई काम न
हो तो आदमी बेकार काम खोज लेता है! कभी मैं देखता हूं, सफर में मेरे साथ--एक ही
यात्री मेरे साथ होता है। तो मैं देखता हूं कि जिस अखबार को वह दो दफे पढ़ चुका है, उसे फिर तीसरी बार पढ़ना शुरू
कर दिया! उस अखबार को वह दो बार पढ़ चुका है, वह तीसरी बार उस अखबार को क्यों पढ़ता है? मन बिना काम के एक क्षण नहीं
जी सकता। मन को काम चाहिए।
यद्यपि
हम सभी सोचते हैं कि काम से मुक्ति हो जाये तो कितना अच्छा है। लेकिन अगर काम से
मुक्ति हो जाये तो हम जितनी परेशानी में पड़ेंगे, उतनी परेशानी हमें काम में
कभी भी नहीं थी। फिर निरे, व्यर्थ
काम खोजने पड़ेंगे। आदमी ताश खेलेगा और अगर कोई दूसरा खेलनेवाला न मिले तो आदमी
अकेला भी ताश खेलता है--दोनों तरफ से चलता है! वह विरोधी की तरफ से भी पत्ते चलता
है, अपनी तरफ से भी पत्ते चलता
है! उस विरोधी की तरफ से, जो है
ही नहीं! कोई काम चाहिए।
मन की
पहली जो परिधि है,
वह
कर्म की मांग करती है कि काम दो। इसलिए एक रास्ता कर्म का रास्ता बन गया है। वह मन
की मांग है। तो हमने रिचुअल पैदा किया है, कर्म-कांड पैदा किया है--पूजा है, तपश्चर्या है, आसन है, योग है! हमने पच्चीस तरह के
काम विकसित किये हैं, परमात्मा
तक पहुंचने के लिए! लेकिन कोई काम परमात्मा तक नहीं पहुंचा सकता, क्योंकि सब मन की आकांक्षाओं
की तृप्ति करते हैं--सब काम! और मन के ऊपर उठे बिना कोई सत्य तक नहीं पहुंच सकते, न प्रभु तक पहुंच सकते। मन
कहता है--काम चाहिए!
हमने
कहानियां सुनी हैं कि अगर कोई भूत-प्रेत की दोस्ती बना ले तो वह काम मांगता है।
उसे काम चाहिए। मैंने सुना है एक आदमी ने एक प्रेत को जगा दिया। उस प्रेत ने जगते
समय उससे एक शर्त कर ली थी--मुझे काम चाहिए, मैं बिना काम के न रह सकूंगा। अगर कहीं
प्रेत होते हैं तो जरूर उसने यह शर्त की होगी, क्योंकि प्रेत के पास शरीर नहीं रह जाता, सिर्फ मन ही रह जाता है। उसे
काम चाहिए। विश्राम की उसे जरूरत ही नहीं रही।
शरीर
को विश्राम भी चाहिए, मन को
विश्राम की जरूरत ही नहीं। इसलिए जब शरीर भी सो जाता है रात, तब भी मन सपनों में काम करता
रहता है। सपने मन के काम की दुनिया है। जब शरीर भी थक कर गिर पड़ा है, तब भी मन थकता नहीं! वह तो
सपने देखना शुरू कर देता है। और जो काम दिन में न किये हों, उनको रात सपने में कर लेता
है!
आदमी
के रात के सपने देखकर हम बता सकते हैं कि इस आदमी ने दिन में किन-किन कामों से
अपने को रोका। अगर किसी ने उपवास किया है तो उसके सपने से पता चल जायेगा, क्योंकि रात वह भोजन करेगा।
अगर किसी ने संयम साधा है तो रात वह भोग करेगा। और किसी ने अगर दिन में क्रोध रोका
है तो रात वह क्रोध कर लेगा। जब शरीर विश्राम करेगा, तब मन ने जो-जो मांगें दिन
में की थीं और किन्हीं कारणों से रुक गयी थीं, उन्हें हम पूरा करते हैं।
प्रेत
के पास सिर्फ मन ही है। उसने अगर मांग की हो तो कोई आश्चर्य नहीं! उसने कहा, मुझे काम चाहिए। जिस आदमी ने
जगाया था प्रेत को, उसने
कहा, काम के लिए ही तो हम तुम्हें
जगा रहे हैं,
काम हम
बहुत देंगे। लेकिन काम बहुत जल्दी चुक गये, क्योंकि प्रेत क्षण भर में काम कर लाया!
उसने फिर आकर मांग की कि काम दो। सांझ होते-होते वह आदमी घबरा गया, क्योंकि कोई काम बचा नहीं!
हम भी
घबरा जायेंगे,
अगर
कोई काम न बचे।
हम भी
घबरा जायेंगे,
अगर
कोई काम न बचे। प्रेत भी मुश्किल में पड़ गया! उसने कहा, मुझे जगा लिया! मैं सोता था
तो ठीक था,
अब
जागकर मुझे काम चाहिए। अब वह आदमी घबरा गया, क्योंकि उसके पास काम न था।
उसने
कहा ठहरो,
गांव
में एक फकीर है,
मैं
उससे पूछ आता हूं। जब भी मैं मुश्किल में पड़ जाता हूं, उसने मेरी सहायता की है। आज
एक नयी तरह की मुश्किल पड़ गयी। अब तक हमेशा यही मुश्किल थी कि कोई काम कैसे हल हो।
आज यह एक मुसीबत हो गया--बेकाम कैसे रहा जाये?
आज
अमरीका उस हालत में पहुंच रहा है। टेक्नॉलॉजी ने एक प्रेत जगा लिया है, जो आदमी को काम से मुक्त कर दे।
अमरीका का विचारक,
एक ही
परेशानी में है आज, वह यह
कि बीस-पच्चीस साल में टेक्नॉलॉजी हर आदमी को काम से छुटकारा दिला देगी, फिर क्या होगा? आदमी कहेगा, काम दो। काम हमारे पास नहीं
होगा। हम कहेंगे भोजन लो, कपड़े
लो, मकान लो, लेकिन काम मत मांगो! जो आदमी
राजी हो जायेगा कि हम काम नहीं करेंगे, उसको ज्यादा तनख्वाह मिल सकेगी! पच्चीस साल
बाद--बजाय उस आदमी के जो कहेगा, हमको
तो काम चाहिये ही,
उसको
कम तनख्वाह देनी पड़ेगी, क्योंकि
वह काम भी मांगता है और तनख्वाह भी मांगता है! दोनों बातें नहीं दी जा सकतीं।
वही
मुसीबत उस आदमी के सामने खड़ी हो गयी तो वह फकीर के पास गया। उसने फकीर से पूछा कि
मैं बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं। एक प्रेत को सुबह मैंने जगा दिया, सांझ होते-होते सारे काम चुक
गये हैं। अब काम मेरे पास नहीं है और वह मेरी जान लिए लेता है?
उस
फकीर ने कहा,
तुम एक
काम करो। वह सामने एक बर्तन पड़ा है, उसे ले जाओ। उसने कहा, मैं क्या करूंगा? फकीर ने कहा, उस प्रेत को कहना, उसको भरते रहो। उस बर्तन में
पेंदी नहीं थी! वह बाटमलेस था।
उसने
कहा, इस बर्तन में तो पेंदी नहीं
है, वह बेचारा भरेगा कैसे?
तो उस
फकीर ने कहा,
अगर वह
भर लेगा तो फिर मुसीबत शुरू हो जायेगी। तुम उसे भरने दो, यह बर्तन कभी भरेगा नहीं। वह
भरता रहेगा और भरता रहेगा और उसे काम मिलता रहेगा। वह उस बर्तन को ले आया और उस
प्रेत को दे दिया। तब से प्रेत ने दुबारा लौटकर उससे नहीं कहा कि काम चाहिए, क्योंकि वह काम अभी तक पूरा
नहीं हुआ है!
जब
आदमी के पास कोई काम नहीं रह जाता तो वह इस तरह के काम चुन लेता है, जो कभी पूरे नहीं होते! वह इस
तरह के बर्तन भरने लगता है, जो कभी
पूरे नहीं होते!
इसलिए
जैसे ही किसी आदमी के जीवन की सामान्य जरूरतें पूरी हो जायें, उसके सामने सबसे बड़ा सवाल
होता है कि वह कोई ऐसा बर्तन ले आये, जो कभी पूरा न हो। वह पदों की दौड़ में लग
जाये, जो कभी पूरी न हो। वह किसी भी
बड़े पद पर पहुंच जाये, आगे और
पद होगा। उस बर्तन के नीचे पेंदी नहीं है। वह धन की दौड़ में लग जायेगा, वह कितना ही धन कमा ले, तब भी गरीब रहेगा, क्योंकि आगे और धन कमाने को
सदा शेष है।
एंड्रू
कानगी मरा,
अमरीका
का एक अरबपति। मरते वक्त उसके पास दस अरब रुपये थे, लेकिन मरते वक्त वह बहुत उदास
था! तो उसके मित्र ने उससे पूछा कि तुम्हें उदास नहीं होना चाहिए, तुमने तो जीवन में जो चाहा था, वह पा लिया। शायद पृथ्वी के
तुम सबसे बड़े अमीर आदमी हो। दस अरब रुपये तुम छोड़कर जा रहे हो।
एंड्रू
कानगी ने कहा,
मत करो
ये बातें,
मेरे
चित्त को दुखाओ मत। सिर्फ दस अरब से मन बड़ा दुखता है। मेरे इरादे सौ अरब रुपये
छोड़ने के थे! यह तो मौत करीब आ गयी। मैं एक गरीब आदमी मर रहा हूं, क्योंकि सौ मेरी इच्छा थी और
दस ही कुल कमा पाया! नब्बे के हिसाब से गरीब हूं! नब्बे अरब रुपये मेरे पास नहीं
हैं, जो होने चाहिए थे!
और
ध्यान रहे,
उसको
अगर सौ अरब भी मिल जाते तो भी कोई फर्क न होता, क्योंकि संख्या रुक नहीं जाती सौ पर, संख्या आगे बढ़ जाती। हजार अरब
हो जाते,
लाख
अरब हो जाते!
कितना
ही मिल जाये तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। धन और पद और यश की दौड़ आदमी खोज लेता है!
जैसे ही उसकी काम की दुनिया पूरी हुई, फिर वह ऐसे काम चुन लेता है, जिसमें पेंदी नहीं होती। फिर
भरता चला जाता है। फिर वह छोटे मिनिस्टर से बड़ा मिनिस्टर होता है! फिर वह बड़े
मिनिस्टर से दिल्ली की तरफ जाता है! और फिर वह और बड़ा होता जाता है। और वह दौड़
अंतहीन है। उस दौड़ का कोई अंत नहीं है। यह सारी दौड़ आदमी चुनता इसलिए है कि उसके
मन को काम चाहिए।
मन
कहता है,
काम न
मिलेगा तो हम मर जायेंगे। और जिसे सत्य को खोजना हो, उसे सत्य खोजने के लिए मन का
मर जाना जरूरी है। मन मर ही जाये, क्योंकि
जो मर सकता है,
वह
सत्य नहीं हो सकता। मन के मर जाने के बाद भी जो शेष रह जाता है, जो नहीं मरता, वही सत्य है। अमृत भी है
हमारे भीतर।
लेकिन
मरण से भरा हुआ मन अपने को बचाने के लिए काम की मांग करता है!
तो एक
तो मार्ग कर्म का खोजा है लोगों ने। धार्मिक कर्म कहेंगे उसे--रिचुअल है, क्रियाकांड है! एक आदमी हवन
कर रहा है,
एक
आदमी माला फेर रहा है! एक आदमी भगवान के सामने आरती घुमा रहा है! यह पुराना रिचुअल
था, पुराना क्रियाकांड था--यज्ञ
थे, हवन थे, पूजा थी, पाठ था। ये क्रियाएं थीं, जिनसे आदमी सोचता था कि सत्य
को पा लेंगे,
आनंद
को पा लेंगे!
लेकिन
क्रियाओं से कभी सत्य नहीं पाया जा सकता। इन क्रियाओं से सिर्फ मन ही तृप्त होता
है और कुछ तृप्त नहीं होता। यह पुराने कर्म की दुनिया थी। लेकिन पुराने कर्म से
आदमी ऊब जाता है। सब काम ऊबा देते हैं। फिर वह नये कर्म खोजता है! सेवा नया कर्म
है, नया रिचुअल है।
एक
आदमी कहता है,
गरीब
की सेवा करने से सत्य मिल जायेगा! एक आदमी कहता है, कोढ़ी के हाथ-पैर दबाने से
सत्य मिल जायेगा! एक आदमी कहता है, भूखे को रोटी देने से सत्य मिल जायेगा! नहीं, भूखे को रोटी देना अच्छा है, कोढ़ी के पैर दबाना भी बहुत
अच्छा है,
गरीब
की सेवा करना भी बहुत अच्छा है, लेकिन
सत्य नहीं मिल जायेगा। कोढ़ी को ही नहीं मिल गया तो उसके पैर दबाने से आपको कैसे
मिल जायेगा?
नहीं
तो कोढ़ी को तो मिल ही गया होता।
उसने
आपसे बड़ा काम किया है। अच्छा काम है, पुराने रिचुअल से बेहतर है, पुराने क्रियाकांड से बेहतर
है। वह बिलकुल व्यर्थ था। एक पत्थर की मूर्ति के सामने एक आदमी थाली घुमा रहा था!
वह बिलकुल पागलपन की बात थी। अब कम से कम थाली एक भूखे के सामने आप ले गये हैं।
इसमें कुछ समझदारी है। लेकिन सत्य इससे नहीं मिल जायेगा। क्योंकि मन काम की मांग
कर रहा है,
वह
इससे भी अपनी तृप्ति पा लेगा।
इसलिए
जितने लोग सेवा करते दिखाई पड़ते हैं, अगर इनको सेवा से रोका जाये तो ये पागल हो
जायें। कोई पदयात्रा कर रहा है! उसे अगर रोक लो तो वह मुश्किल में पड़ जाये।
पदयात्रा करके काम करने का जो पागलपन उनके सिर पर सवार है, वह उसको निकाले चला जा रहा
है। अगर दुनिया में कोई गरीब न हो, दुनिया में अगर कोई कोढ़ी न हो तो कुछ लोग
बड़ी मुश्किल में पड़ जायें, क्योंकि
फिर वे किसकी सेवा करें? उनको
बहुत मुश्किल हो जाये, उनको
बहुत कठिनाई हो जाये।
मैंने
सुना है,
एक
आदमी अपने बेटे को समझा रहा था कि भगवान ने तुम्हें इसलिए बनाया है कि तुम सबकी
सेवा करो। उस बेटे ने कहा, यह मैं
समझ गया,
लेकिन
भगवान ने दूसरों को किसलिए बनाया है? मेरी सेवा के लिए? या बस इसलिए बनाया है कि
दूसरे उनकी सेवा करें?
उस
बेटे ने बाप को मुश्किल में डाल दिया। जब तक बेटे सवाल नहीं करते, तभी तक बाप मुश्किल से बाहर
हैं। जब वे सवाल करने लगते हैं, तब
मुश्किल शुरू हो जाने वाली है।
उस
बेटे ने यह पूछा कि यह तो मैं समझ गया कि मुझे इसलिए बनाया है कि मैं दूसरे की
सेवा करूं,
लेकिन
दूसरों को किसलिए बनाया है? मेरी
सेवा के लिए?
और अगर
सबको ही सेवा के लिए बनाया है तो सेवा किसकी की जाये?
और अगर
सेवा करना पुण्य है तो सेवा करवाना पाप हो जाये! और जो पुण्य किसी के पाप करने पर
निर्भर रहता हो,
वह
पुण्य कैसे हो सकता है? पुराने
क्रियाकांड तो समाप्त हुए हैं, नये
क्रियाकांड पैदा हो गये हैं।
लेकिन
कर्म की पकड़ की जो हमारी वृत्ति है, वह वृत्ति मन की एक बहुत गहरी जरूरत से पैदा
होती है। इसलिए एक तरह के मार्ग हैं, जो कर्म पर जोर देते हैं। और हमारे बीच जो
एक्सट्रोवर्ट,
बहिर्मुखी
व्यक्तित्व है,
जो
भीतर की तरफ नहीं देख सकते, बाहर
की तरफ ही देख सकते हैं। जिनकी जिंदगी बाहर की तरफ जीने में ही जा सकती है, उन सारे लोगों के लिए कर्म का
रास्ता बड़ा ही अपीलिंग, बड़ा
आकर्षक प्रतीत होता है!
सेवा
करने वाले लोग,
हवन
करने वाले लोग,
यज्ञ
करने वाले लोग एक्सट्रोवर्ट हैं, बहिर्मुखी
हैं। वे भीतर नहीं देख सकते। उनकी आंखें बाहर की तरफ ही देख सकती हैं, उन्हें बाहर की तरफ कुछ
चाहिए। बाहर कुछ होता रहे तो ठीक है। अगर बाहर कुछ न हो तो बहुत मुश्किल में पड़
जायेंगे,
क्योंकि
भीतर जाने की उनकी वृत्ति नहीं है। जो बहिर्मुखी है, उन्होंने कर्मयोग जैसी धारणाओं
को विकसित किया है!
दूसरे, मन की जो भीतर की--कर्म के
बाद की,
जो
पर्त है,
वह
विचार की पर्त है। आदमी पूरे समय विचार कर रहा है, सोच रहा है, चिंतन कर रहा है। वह भी मन की
एक जरूरत है। मन बिना सोचे जिंदा नहीं रह सकता; विचार चाहिए!
ज्ञानयोग
या ज्ञान का जो मार्ग है, वह मन
की दूसरी जरूरत की पूर्ति है। शास्त्र हैं, वेद हैं, कुरान है, बाइबिल है; गुरु हैं, ज्ञानी हैं। उन सबसे इकट्ठा
करो विचारों को और उनकी जुगाली करो! मन कहता है, पूरे समय जुगाली करते रहो।
कुछ न कुछ सोचते ही रहो, खाली
मत हो जाना,
क्योंकि
मन अगर एक क्षण भी सोचने से मुक्त हो जाये, एक क्षण भी सोचना बंद हो जाये तो वह अंतराल
पैदा हो जाता है,
जहां
से मन के बाहर निकलने का द्वार है। इसलिए मन एक क्षण भी सोचने के बाहर नहीं जाने
देता।
अगर आप
यह भी कहें कि नहीं, मुझे
सोचने से बाहर जाना है। तो वह कहेगा, नहीं, इस संबंध में सोचो कि सोचने के बाहर कैसे
जाया जा सकता है?
लेकिन
सोचते रहो! निर्विचार होना है तो चलो निर्विचार के संबंध में विचार करें! लेकिन
विचार जारी रहे,
विचार
को बंद नहीं करना है!
अगर धन
के संबंध में सोचने से ऊब गये हों तो धर्म के संबंध में सोचो! अगर पृथ्वी अब
आकर्षक नहीं मालूम होती तो स्वर्ग के संबंध में सोचो। अगर आदमी का चेहरा अब बहुत
सोचने जैसा मालूम नहीं पड़ता तो अपने मन के चेहरे बनाओ--भगवान के--कृष्ण के, राम के, बुद्ध के! उनके संबंध में
सोचो! लेकिन सोचना जारी रखो! सोचना मत छोड़ देना। मन कहता है, बिना सोचे रहा ही नहीं जा
सकता।
तो जो
लोग कर्म से बचना चाहें, उनके
लिए मन सोचने का मार्ग देता है। वह कर्म में जितनी हमारी ऊर्जा व्यय होती है, वह सब सोचने में लगा देते
हैं।
इसलिए
कर्म करने वाले लोग बहुत सोचने वाले लोग नहीं होते, बहुत सोचने वाले लोग कर्म
करने वाले लोग नहीं होते।
विचारक
अकसर कर्म की दुनिया का आदमी नहीं होता और कर्म की दुनिया के लोग अकसर विचारक नहीं
होते, क्योंकि ऊर्जा हमारे पास
सीमित है,
एनर्जी
सीमित है। अगर वह कर्म में लग जाये तो विचार की तरफ प्रवाहित नहीं हो पाती। अगर
विचार में प्रवाहित हो जाये तो कर्म की तरफ प्रवाहित नहीं हो पाती। लेकिन मन का
काम पूरा हो जाता है, क्योंकि
विचार भी बहुत सूम अर्थों में कर्म का ही एक रूप है, वह भी काम है, वह भी एक सूम क्रिया है।
आदमी
धन के लिए सोच रहा है, मकान
के लिए सोच रहा है, मित्रों
के लिए सोच रहा है, संबंधियों
के लिए सोच रहा है। फिर इससे ऊब जाता है तो परमात्मा के लिए सोचता है, आत्मा के लिए सोचता है, मोक्ष के लिए सोचता है! सोचना
जारी रहता है!
और
ध्यान रहे,
मन की
इस दूसरी जरूरत को पूरा करने के लिए ज्ञानयोग है। वह कोई मार्ग नहीं है सत्य का।
वह मन का ही भोजन है, वह मन
की ही तृप्ति का एक रास्ता है। उससे भी कभी कोई कहीं नहीं पहुंचा है। हां, मन लंबी यात्रा पर भटका देता
है।
ये जो
मार्ग पैदा हुए हैं, ये
मार्ग कोई सत्य तक पहुंचने से पैदा नहीं हुए हैं। ये हमारे मन की आकांक्षाएं हैं, जिनकी तृप्ति के लिए हमने
इन्हें ईजाद किये हैं।
न तो
कर्म से कभी कोई पहुंचा है, न
ज्ञान से कभी कोई पहुंचा है।
लेकिन
ज्ञान का काफी प्रभाव है। क्योंकि यह तो हमारी समझ में भी आ जाये कि कर्म से कैसे
पहुंचेंगे?
अगर एक
आदमी माला फेर रहा है तो माला फेरने से कैसे पहुंच जायेंगे। कितनी ही फेरे माला, माला फेरने से कैसे पहुंचेगा? और एक आदमी अगर पूजा का थाल
लिए भगवान के सामने आरती कर रहा है तो वह कैसे पहुंचेगा? यह हमारी समझ में भी आ
जायेगा।
लेकिन
यह हमारी समझ में और भी आना कठिन होता है कि विचार से भी नहीं पहुंचेगा। इसे थोड़ा
सोच लेना जरूरी है। विचार कर क्या सकता है? जिसे हम नहीं जानते हैं, विचार उसके संबंध में सोच
नहीं सकता। जिसे हम जानते ही हैं, उसी के
संबंध में सिर्फ सोच सकते हैं।
विचार
नये के संबंध में कुछ भी नहीं सोच सकता। अज्ञात, अननोन के संबंध में विचार की
कोई उड़ान नहीं है। आपने कभी कोई चीज सोची है, जो आप जानते ही नहीं? आप सोच ही नहीं सकते। शायद आप
कहेंगे;
हां, मैं एक ऐसा घोड़ा सोच सकता हूं, जो सोने का बना है, जिसके पंख हैं और जो आकाश में
उड़ता है। सोच सकते हैं, लेकिन
यह कोई नयी बात न हुई। सिर्फ पांच-छह पुरानी बातों का जोड़ हुआ। आपने पंख से उड़ते
हुए पक्षी देखे हैं, सोना
देखा है,
घोड़ा
देखा है,
तीनों
को जोड़ सकते हैं। सोने का घोड़ा बना सकते हैं विचार से। पंख लगा सकते हैं, उड़ा सकते हैं। लेकिन यह तीन
पुरानी बासी चीजों का जोड़ है। इसमें नया कुछ भी नहीं है।
विचार
नये को सोच ही नहीं सकता, विचार
मात्र बासा होता है, बारोड, उधार होता है।
मौलिक
विचार जैसी कोई चीज होती ही नहीं, जिसको
हम कहते हैं ओरिजनल थाट, ऐसी
कोई चीज होती ही नहीं। कोई विचार मौलिक नहीं होता, हो ही नहीं सकता। विचार के
मौलिक होने का कोई उपाय ही नहीं है। विचार सदा बासा होता है, कहीं से लिया होता है। हां, दस-पांच विचारों को तोड़कर आप
नया योग बना सकते हैं। वह नया संयोग आपको सत्य तक ले जाने वाला नहीं है।
सत्य
है अज्ञात,
अनजान, अपरिचित। उसे विचार से कैसे
जान सकेंगे?
जिसका
मुझे पता ही नहीं,
उसको
मैं सोचूंगा कैसे?
उसे
सोचने का उपाय नहीं। सत्य को सोचा नहीं जा सकता।
लेकिन
लोग बैठे हैं,
आंखें
बंद करके! वे कहते हैं, हम
सत्य का विचार करते हैं! विचार कर रहे होंगे। सत्य का नहीं हो सकता कोई विचार। जब
सब विचार क्षीण हो जाते हैं, तब जो
शेष रह जाता है,
वह
सत्य है। विचार की दीवार ही सत्य से नहीं जुड़ने देती। चाहे वे विचार हमने किसी
शास्त्र से लिए हों, चाहे
वे विचार किसी गुरु से लिए हों, चाहे
वे विचार हमने अपने जीवन के अनुभव से ही इकट्ठे किये हों। लेकिन विचार की जो पर्त
है, वही हमारे और सत्य के बीच
बुनियादी बाधा है।
लेकिन
ज्ञानी कर्म की निंदा करेंगे। वे कहेंगे, क्या होगा कर्म से? सोचो। सोचना भी कर्म का सूम
रूप है। असल में कर्म में और सोचने में फर्क क्या है? कर्म में शरीर भागीदार होता
है। सोचने में सिर्फ कर्म भागीदार होता है। सोचना मन का कर्म है। एक काम में अगर
आप शरीर का उपयोग करें तो वह कर्म हो जायेगा। और अगर सिर्फ मन का उपयोग करें तो वह
सोचना और विचारना हो जायेगा। मैं भोजन करूं और शरीर का उपयोग करूं तो कर्म हो
जायेगा। और मैं आंख बंद करके भोजन का विचार करूं तो विचार हो जायेगा। वह भी कर्म
है--सिर्फ मानसिक कर्म।
जिसे
हम ज्ञानयोग कहते हैं, वह
कहां ले जा सकता है? कहीं
भी नहीं ले जा सकता। वह मन की गहरी पर्त को तृप्त कर देता है। इसलिए दूसरा रास्ता
ज्ञानयोग का रहा है, लेकिन
वह भी रास्ता नहीं है।
तीसरा
रास्ता है,
भाव
का। वह मन की केंद्रीय ताकत है। इमोशनल, वह सबसे गहरा है।
कर्म
सबसे ऊपर है,
उसके
बाद विचार है,
उसके
बाद भाव है।
भाव
अति सूम है। भाव को पहचानना ही मुश्किल होता है। जब तक वह विचार न बन जाये, हम उसको पहचान भी नहीं पाते।
और जब तक वह कर्म न बन जाये, तब तक
दूसरे नहीं पहचान पाते। भाव जब विचार बनता है तो हम पहचान पाते हैं। और भाव जब
कर्म बन जाता है,
तब
दूसरे पहचान पाते हैं। भाव अति सूम मन है।
तो कुछ
लोग कहते हैं,
यह
विचार से नहीं होगा, तर्क
से नहीं होगा,
सोचने
से नहीं होगा;
वह
भावना से होगा,
भक्ति
से होगा। वे कहते हैं--सोचना भी छोड़ो, कर्म भी छोड़ो, भाव में लीन हो जाओ।
लेकिन
भाव भी मन की ही गहरी पर्त है। चाहे वह भाव प्रेम का हो, चाहे वह भाव क्रोध का हो; चाहे वह भाव मित्रता का हो, चाहे शत्रुता का हो; चाहे वह भाव समर्पण का हो।
भाव भी मेरे मन की भाव-दशा है। मेरा ही मन भाव कर रहा है।
ये जो
भाव हैं,
इनसे
भक्ति का जन्म हुआ कि हम भाव करें। भाव करके हम इल्यूजंस पैदा कर सकते हैं, भाव करके हम बड़े भ्रम पैदा कर
सकते हैं। भाव से हम जो चाहें, वह
सपना भीतर सच मालूम हो सकता है।
भाव की
बड़ी शक्ति है। अगर कोई पूरे मन से भाव करे, तो जो भी भाव करेगा, वही हो जायेगा।
हिप्नोसिस
में, सम्मोहन में यही हो रहा है।
अगर एक आदमी को सम्मोहित करके कहा गया है कि अब तुम आदमी नहीं रहे, तुम कुत्ते हो गये हो!
सम्मोहन की अवस्था में उसका कर्म भी बंद हो गया है, विचार भी बंद हो गया है, सिर्फ भाव रह गया है। विचार
थोड़ी-बहुत बाधा डाल सकता है। विचार कह सकता है कि कौन कहता है कि कुत्ता हो गया
हूं, मैं आदमी हूं। लेकिन विचार भी
सुला दिया गया। अब सिर्फ भाव रह गया है।
भाव
बिलकुल अंधा है। अगर एक आदमी के मन में सिर्फ भाव रह गया है और उसे यह सुझाव दिया
जाये कि तुम कुत्ते हो। और फिर उस आदमी से कहा जाये, बोलो, तो वह बोलेगा नहीं, भौंकना शुरू कर देगा! क्योंकि
उसने पकड़ लिया कि वह कुत्ता है!
अभी एक
युनिवर्सिटी में,
अमरीका
में, एक बहुत अदभुत घटना घट गयी।
और घटना के बाद अमरीका में सम्मोहन के ऊपर कानूनी पाबंदी लगानी पड़ी। चार
विद्यार्थी एक होस्टल में हिप्नोटिज्म पर एक किताब पढ़ रहे थे। सम्मोहन के ऊपर एक
किताब पढ़ रहे थे। किताब में उन्होंने पढ़ा कि जिस तरह का भाव किया जाये, वही हो सकता है। तो उन चार
में से एक ने तय कि यह असंभव है, यह हो
नहीं सकता है। फिर भी प्रयोग करके देखा जाये। एक युवक को उन्होंने कमरे में लिटाकर, दरवाजे बंद करके, तीनों ने उसे सुझाव देने, सजेशन देने शुरू किये कि तुम
बेहोश हो गये,
तुम
बेहोश हो गये। वे आधे घंटे तक उसको सुझाव देते रहे! धीरे-धीरे, उन्होंने देखा कि वह युवक
बेहोश हो गया! मजाक में--एक ने उनमें कहा, ठीक है, बेहोशी तो आ गयी। एक ने मजाक में--उससे कहा
कि तुम मर गये हो! वह युवक वापिस नहीं लौटा! उसकी सांस बंद हो गयी!
वह
मुकदमा चला,
लेकिन
वह अनजाने में अपराध हो गया था, उनमें
से कोई भी उसे मारना नहीं चाहता था। लेकिन अगर पूरा मन जोर से उस बात को पकड़ ले कि
मैं मर गया हूं तो इस दुनिया में कोई ताकत नहीं बचा सकती। भाव अगर इतना तीव्र हो
जाये तो शरीर से तत्काल संबंध छूट जायेगा। भाव की बड़ी शक्ति है, लेकिन भाव मन की शक्ति है। तो
अगर भाव के हम प्रयोग करना चाहें तो बहुत प्रयोग कर सकते हैं।
क्राइस्ट
का भक्त क्राइस्ट को देख सकता है। यूरोप में ईसाई फकीर हैं, आज भी जिंदा हैं, जिनके शरीर पर स्टिगमैटा है।
जीसस को सूली लगी थी तो हाथ में कीलें ठोके गये थे और शुक्रवार के दिन ही ठोके गये
थे। शुक्रवार के दिन आज भी यूरोप में ऐसे फकीर हैं, जो ऐसे हाथ फैलाकर बैठे रहते
हैं! हजारों लोग देखने इकट्ठे होते हैं। जिस समय कीले ठोके गये थे जीसस के हाथ में, उस समय उनके हाथ में अपने आप
छेद हो जाता है,
खून
बहना शुरू हो जाता है! वे इतना तादात्म्य कर लेते हैं, भाव में जीसस के साथ एक हो
जाते हैं और तब वे ऐसा नहीं सोचते कि जीसस को सूली लगी, तब वैसा सोचते हैं कि मुझे
सूली लगी,
और मैं
मरियम का बेटा जीसस हूं! मेरे हाथ में कीले ठोक दिये गये हैं।
और अगर
पूरे भाव से यह बात सोच ली जाये कि हाथ में कीले ठुक गये हैं! लोग अंगारों पर चल
लेते हैं! वह सिर्फ भाव की बात है। अगर भाव ने पूरा पक्का तय कर लिया कि आग नहीं
लगी तो बहुत कठिन है आग का लग जाना।
भाव
अगर तीव्रता से कुछ बात ग्रहण कर ले तो वह संभव है। लेकिन वह हमारा ही पैदा किया
हुआ है,
हमारे
ही मन का प्रोजेक्शन है। वह हमने ही पैदा किया हुआ है।
कृष्ण
के दर्शन हो सकते हैं, बांसुरी
बजाते कृष्ण के साथ खेल भी हो सकता है, लीला भी हो सकती है! नहीं, लेकिन वह कृष्ण, हमारे मन का प्रतिबिंब है, हमारे ही भाव का।
इसलिए
भक्त जो है,
भक्ति
पर चलने वाला जो आदमी है; उस
मार्ग को पकड़ने में जो लगा है, वह
कहेगा,
संदेह
मत करना। क्योंकि संदेह किया तो भाव पूरा न हो सकेगा। वह कहेगा, विचार मत करना, क्योंकि विचार अगर किया तो
विरोधी विचार भी हो सकता है। वह कहेगा, अपने को पूरी तरह समर्पण कर दो भगवान के
लिए!
और
भगवान कौन?
वह भी
मेरे मन का भाव है। भगवान का ही पता होता, तब तो ठीक था। उसका तो पता नहीं। अपने ही मन
के एक भाव के प्रति पूरा समर्पण कर दो! फिर जैसी हमारी कल्पना होगी, वैसा होना शुरू हो जायेगा।
तुलसी
ने कहा है कि जिसने जैसी उसकी मूर्ति की कल्पना की, वैसे ही उसके दर्शन मिले।
उसके दर्शन नहीं मिले--जिसने उसकी जैसी कल्पना की! अपनी ही कल्पना के दर्शन कर
लिए! हम अपनी ही कल्पना के दर्शन कर सकते हैं। लेकिन कल्पना का दर्शन सत्य तक ले
जाने वाला नहीं है।
इसलिए
जो जितना कल्पना में प्रगाढ़ होगा, उतना
भक्ति के रास्ते पर आसानी हो सकती है। पुरुष के बजाय स्त्री को ज्यादा आसानी हो
सकती है। इसलिए मंदिरों में, भजन-कीर्तन
में पुरुष की बजाय स्त्री की भीड़भाड़ है! उसका कारण है, उसके पास भाव की शक्ति ज्यादा
तीव्र है। इसलिए आज की दुनिया के बजाय दो हजार साल पहले भक्ति ज्यादा आसान थी, क्योंकि भाव ज्यादा सुलभ था
और दस हजार साल पहले और आसान था।
आज से
दस हजार साल पहले देवी-देवताओं को बहुत दूर नहीं रहना पड़ता था, यहीं जमीन पर रह जाते थे! अब
उनको बहुत दूर रहना पड़ता है, क्योंकि
आदमी बहुत सोच-विचार करने लगा है और उनके और आदमी के बीच फासला हो गया है।
देवी-देवता उतरकर,
उनको
चढ़ाया गया भोजन ग्रहण कर लेते थे! बातचीत भी होती थी! तालमेल भी होता था! देवताओं
से आदमियों की स्त्रियों का प्रेम भी हो जाता था, बच्चे भी हो जाते थे, सब होता था!
देवता
बहुत पास थे,
क्योंकि
आदमी के पास तर्क बहुत कम था, भाव
बहुत था। भाव इतना था कि किसी भी तरह के देवता का निर्माण करने की क्षमता आदमी के
पास थी। वह क्षमता चली गयी। नुकसान नहीं हुआ, क्योंकि वे देवता हमारी कल्पनाओं से ज्यादा
न थे। वे देवता दिवा-स्वप्न थे, डे-ड्रीम्स
थे, जो हमने ही देखे थे! इसलिए वे
खो गये। वे हमारे सपने थे। हम जागे तो वे सो गये।
आने
वाली दुनिया में भक्त के बचने की बहुत कम संभावना है, क्योंकि भाव अब बिना तर्क के
जिंदा नहीं रह पाता तर्क बीच में खड़ा हो जाता है। तर्क बीच में खड़ा हो जाता है, तो भाव पूरा नहीं हो पाता है।
कल्पना टूट जाती है। अगर इतना भी शक आ जाये कि कहीं यह मेरी कल्पना तो नहीं है तो
यह सब गया--और बात खत्म हो गयी। इतना शक भी आने से भाव बिदा हो जायेगा।
भाव
पूरी मांग करता है। वह कहता है, पूरा
दे दो अपने को। जरा भी, इंच भर
भी बचाना मत,
पूरा
अपने को दे दो। लेकिन न तो भाव से, न ज्ञान से, न कर्म से आदमी मन के ऊपर उठ
पाता है।
मन के
ऊपर उठना हो तो तीनों बातों के ऊपर उठना पड़ता है। कर्म के ऊपर उठना पड़ता है, ज्ञान के ऊपर उठना पड़ता है, भाव के भी ऊपर उठना पड़ता है।
सब तरह की कल्पना भी छोड़ देनी पड़ती है। सब तरह के विचार भी छोड़ देने पड़ते हैं। सब
तरह की आंतरिक क्रिया भी छोड़ देनी पड़ती है।
इसका
यह मतलब नहीं है कि आदमी कुछ न करेगा। नहीं, करने से वह जानेगा कि करने से सत्य नहीं
मिलने वाला है। करने से वस्तुएं मिल सकती हैं। अगर मैं चलूंगा तो राजकोट आ सकता
हूं, मोक्ष नहीं पहुंच सकता। चलने
से मोक्ष नहीं पहुंच सकता--चलने से राजकोट पहुंच सकता हूं।
इसका
यह मतलब नहीं है कि विचार करना छोड़ देना होगा। विचार से बहुत कुछ जाना जा सकता है।
सारा विज्ञान विचार की खोज है। लेकिन विज्ञान सत्य पर नहीं पहुंच पाता, सदा एप्रोक्सिमेट ट्रुथ पर
होता है,
सदा
"करीब-करीब सत्य' पर
होता है। सत्य पर कभी नहीं होता।
और
ध्यान रहे,
करीब-करीब
सत्य का कोई मतलब ही नहीं होता। करीब-करीब सत्य का कोई मतलब होता है? मैं आपको कहूं, मैं आपसे करीब-करीब प्रेम
करता हूं,
उसका
कोई मतलब होता है?
जब मैं
कहूं, मेरी बात करीब-करीब सत्य
है--उसका मतलब है असत्य। करीब-करीब, एप्रोक्सिमेट ट्रुथ जैसी कोई चीज नहीं होती।
या तो सत्य होता है या असत्य होता है। सत्य के कितने ही करीब हो तो भी असत्य होगा, जब तक कि सत्य नहीं है।
इसलिए
विज्ञान में रोज करीब-करीब होता है। न्यूटन भी करीब-करीब था, आइंस्टीन भी करीब-करीब था।
आगे भी वैज्ञानिक करीब-करीब ही होगा। कभी नहीं कह सकता कि यह रहा सत्य। वह इतना ही
कहेगा कि जितना हम अभी जानते हैं। उससे ऐसा मालूम पड़ता है कि यह सत्य है। कल और
जानना पड़ता है,
तब पता
लगता है कि वह सत्य नहीं है। फिर और जानना पड़ता है, पता लगता है, वह भी सत्य नहीं है। आज तो
विज्ञान की बड़ी किताब लिखना भी मुश्किल हो गया, क्योंकि बड़ी किताब लिखनी हो तो दो साल लग
जाते हैं और दो साल में तो सब सत्य बदल जाते हैं! विज्ञान आगे पहुंच जाता है।
विज्ञान कभी भी सत्य के पास नहीं होता, सदा आसपास होता है! आसपास का कोई मतलब ही
नहीं है। और वह कभी भी पास नहीं पहुंचेगा।
लेकिन
विचार का उपयोग है। विज्ञान की अपनी ताकत है, विज्ञान की अपनी सामर्थ्य है। तो मैं यह
नहीं कहता कि विचार छोड़ देना है। मैं यह कहता हूं, विचार विज्ञान के करीब-करीब
सत्यों तक ले जायेगा, धर्म
के सत्य तक नहीं।
और
कर्म? कर्म परमात्मा के मंदिर तक
नहीं ले जायेगा। हां, आदमी
के मकानों तक जाना हो तो कर्म करना पड़ेगा। और आदमी के मकानों तक जाने का अपना अर्थ
है। इसलिए कर्म छोड़ देने को नहीं कहता हूं। अगर पेट भरना है, रोटी कमानी है तो कर्म करना
पड़ेगा। लेकिन सत्य को अगर आत्मा में लाना है तो कर्म का कोई अर्थ नहीं है। कर्म की
अपनी उपादेयता है,
अपनी
युटिलिटी,
उसका
अपना डायमेंशन,
अपना
आयाम है। वहां कर्म का अर्थ है।
इसलिए
मैं यह नहीं कहता कि कर्म छोड़कर भाग जायें। इतना ही कहता हूं कि कर्म से सत्य तक
जाने की चेष्टा न करें। कर्म जहां ले जा सकता है, वहां जाना हो जाये। विचार
जहां ले जा सकता है, विचार
ले जायेगा। जैसे उदाहरण के लिए अगर मैं आंख से सुनने की कोशिश करूं तो मुश्किल खड़ी
हो जायेगी। आंख सुनने का साधन नहीं। और अगर मैं आपसे कहूं कि आंख से नहीं सुना जा
सकता तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं कह रहा हूं, आंख से देखा नहीं जा सकता। आंख से देखा जा
सकता है। देखना हो तो आंख से देखना। और सुनना हो तो आंख से मत सुनना। सुनना हो तो
कान से सुनना पड़ेगा।
हमारे
पास मन के जो साधन हैं, उनका
उपयोग है;
उनकी
अपनी उपादेयता है। कर्म से मनुष्य बाहर के जगत से संबंधित होता है। बाहर के जगत
में जो भी निर्माण हैं, जो भी
विध्वंस हैं,
वे सब
कर्म हैं। विचार से मनुष्य जगत के जो नियम हैं, जगत के पीछे कार्य-कारण की जो व्यवस्था है, उसको समझने में वह सफल होता
है और उसको समझकर उसके कर्म की शक्ति बढ़ जाती है। इसलिए बेकन ने कहा, नालेज इज पावर। बेकन ने कहा, ज्ञान शक्ति है। और यह ठीक
कहा कि ज्ञान शक्ति है। लेकिन सत्य नहीं। ज्ञान शक्ति है। फिर शक्ति का भी क्या
करियेगा?
फिर
कर्म में लगाइयेगा, क्योंकि
शक्ति का एक ही उपयोग है कि कर्म में लगे। इसलिए जितना ज्ञान बढ़ता है, उतना कर्म बढ़ता है।
ज्ञान
का करियेगा क्या?
ज्ञान
का उपयोग है कि कर्म बढ़े। इसलिए पूरब में कर्म कम और पश्चिम में ज्यादा है। इतना
ज्यादा है कि फुरसत ही नहीं खड़े होने की! ज्ञान बढ़ गया, उसने कर्म को बढ़ा दिया। कर्म
इतनी तेजी से घूम रहा है कि आदमी को ठहरने का भी मौका नहीं! अगर वे एक जल-प्रपात
को भी देखने जाते हैं तो कार में से भागते हुए; खिड़की में से झांकते देख लेगा और निकल जाता
है! अगर वह एक मुल्क को देखने जाता है तो हवाई जहाज के ऊपर से देख लेता है कि
मुल्क है! और निकल जाता है! इतना भागा हुआ है! क्योंकि कर्म को ज्ञान ने शक्ति दे
दी। शक्ति कर्म में रूपांतरित होगी, नहीं तो शक्ति जान ले लेगी। शक्ति कहेगी, काम चाहिए। शक्ति कहेगी, मुझे काम दो; नहीं तो मुश्किल हो जायेगी।
तो शक्ति काम मांगती है, कर्म
में बदल जाती है।
भाव का
अपना--अपना उपयोग है। भाव का जिंदगी में अपना अर्थ है। अगर आप अपनी पत्नी से जुड़ते
हैं तो भाव से जुड़ते हैं। लेकिन परमात्मा से नहीं जुड़ सकते भाव से। और अगर अपने
बेटे से जुड़ते हैं तो भाव से जुड़ते हैं। अगर अपने मित्र से जुड़ते हैं तो भाव से
जुड़ते हैं,
परमात्मा
से नहीं। अगर एक कोढ़ी के पैर दबाते हैं तो भाव से दबाते हैं। गरीब की सेवा करते
हैं तो भाव से करते हैं। लेकिन उससे परमात्मा का कोई लेना-देना नहीं। भाव का अपना
अर्थ है।
और वह
आदमी बहुत अधूरा है, जिसमें
भाव न हों। वह आदमी भी बहुत अधूरा है, जिसमें विचार न हो। वह आदमी भी बहुत अधूरा
है, जिसमें कर्म न हो। इन सबके
अपने आयाम हैं,
लेकिन
सत्य इनमें से किसी आयाम से उपलब्ध नहीं होता।
भाव से
भाव का जगत उपलब्ध होता है, विचार
से विचार का,
कर्म
से कर्म का।
और एक
ऐसा भी जगत है,
जो इन
तीनों के पार है,
बियॉन्ड
है, जो तीनों के आगे है। जो
ट्रांसेंड करता है। जहां न भाव रह जाता है, न विचार रह जाता है, न कर्म रह जाता है। जहां
सिर्फ अस्तित्व रह जाता है।
अस्तित्व
की तीन शाखायें हैं। अस्तित्व के बीज में तीन शाखायें निकली हैं--कर्म की, भाव की, विचार की। लेकिन अगर इन
शाखाओं पर हम भटकते रहें तो जो जड़ है अस्तित्व की, उसका हमें पता न लगेगा। इन
शाखाओं से उतरकर जड़ पर आ जाना होगा। परमात्मा या सत्य अस्तित्व है, एक्जिसटेंस है। वहां उतरने के
लिए तीनों को छोड़ देना पड़ेगा।
ये
तीनों मार्ग नहीं हैं, ये
तीनों भटकाव हैं। इन तीनों से हम भटक सकते हैं, पहुंच नहीं सकते हैं। और अगर पहुंचना हो तो
तीनों से हट जाना पड़ेगा। आने वाले तीन दिनों में इस संबंध में बात करूंगा कि ये
भटकाव क्यों है?
एक-एक
के संबंध में गहरी आपसे बात करना चाहूंगा कि भटकाव क्यों है? यह भटकाव कैसे हो जाता है?
निश्चित
ही आप पूछेंगे कि मार्ग? चौथा
कोई मार्ग होगा?
चौथा
भी नहीं,
पांचवां
भी नहीं। असल में मार्ग है ही नहीं। और जो आदमी सब मार्गों से नीचे उतर जाता है, वह वहां पहुंच जाता है, जहां पहुंचना है।
कोई
मार्ग वहां नहीं ले जा सकता, उसके
कारण हैं। कुछ थोड़ी-सी बातें कहूं। पहली तो बात, अगर वह हमसे दूर होता तो हम
किसी रास्ते से उस तक पहुंच जाते। लेकिन वह हमसे दूर नहीं; इसलिए सब रास्ते हमें दूर ले
जायेंगे। अगर मुझे आपके पास पहुंचना हो तो रास्ते चाहिए। लेकिन अगर मुझे अपने ही
पास पहुंचना हो तो रास्ता कैसे होगा? और अगर मैंने अपने ही पास पहुंचने के लिए
कोई रास्ता चुन लिया तो मैं भटका। क्योंकि मेरे पास पहुंचने के लिए रास्ता कैसे
होगा? मैं अपने पास हूं ही। इसलिए
जब तक मैं रास्तों पर रहूंगा, तब तक
मैं अपने को भी दूर सोचता रहूंगा। जिस दिन मैं रास्ते से उतर जाऊंगा, उस दिन मैं पाऊंगा कि मैं तो
वहां था ही।
बुद्ध
को जिस दिन बोध हुआ, लोगों
ने उनसे पूछा,
आप
पहुंच गये?
पा
लिया? बुद्ध ने कहा, अब मत पूछो ऐसी बातें, क्योंकि अब मैं कैसे कहूं कि
पा लिया! क्योंकि जिसे पाया ही हुआ था, आज उसे पहचाना। पा नहीं लिया।
किस
रास्ते से पहुंचे,
लोगों
ने पूछा?
बुद्ध
ने कहा कि कोई रास्ते से नहीं पहुंच सका, क्योंकि सब रास्ते वहां पहुंचाते थे, जहां मैं नहीं था। और मुझे
पहुंचना वहां था,
जहां
मैं था ही! रास्ते वहीं पहुंचा सकते हैं, जहां मैं नहीं हूं। अगर मैं वहां हूं ही तो
रास्ते की क्या जरूरत है! कोई रास्ता नहीं पहुंचने का--हम वहां हैं ही।
जैसे
मैं राजकोट में सो जाऊं और सपना देखूं कि कलकत्ता में हूं, और सपने में परेशान होने लगूं
कि मुझे सुबह तो राजकोट पहुंचना है! बड़ी मुश्किल हो गयी, मैं अब कैसे वापिस लौटूं? रास्ता कहां है? लोगों से पूछने लगूं, रास्ता बताओ, कैसे जाऊं? ट्रेन से जाऊं, प्लेन से जाऊं, बैलगाड़ी पकडूं, पैदल यात्रा करूं? क्या करूं--मुझे राजकोट
पहुंचना है?
और अगर
कोई मुझे रास्ता बता दे और मैं उस रास्ते पर चल पडूं तो क्या आप सोचते हैं, मैं राजकोट पहुंच जाऊंगा? मैं किसी भी रास्ते से चलूं
और किसी भी वाहन का उपयोग करूं, मैं
राजकोट नहीं पहुंचूंगा, क्योंकि
राजकोट में मैं हूं ही। राजकोट कैसे पहुंचूंगा?
सुबह
जब मेरी नींद खुले, जब मैं
नींद खुलते देखूं,
कोई
मुझसे पूछे कि पहुंच गये राजकोट? तो
कहना मुश्किल है कि पहुंच गया। आश्चर्य तो यह है कि वहां होते हुए, कैसे भटक गया था? कहां भटक गया था? कैसे मुझे यह खयाल आ गया था
कि मैं राजकोट से दूर कलकत्ता चला गया!
परमात्मा
वहां है,
जहां
हम हैं। सत्य वहां है, जहां
हम सदा से हैं। सत्य वहां है, जहां
से अलग होने का कोई उपाय नहीं।
लोग
मुझसे पूछते हैं कि परमात्मा को कैसे खोजें? तो मैं उनसे पूछता हूं कि तुमने खोया कैसे? अगर तुम मुझे बता दो कि हमने
इस भांति खोया तो मैं तुम्हें बता दूं कि इस भांति तुम उसे पा लो।
वे
कहते हैं,
खोने
का तो हमें कुछ पता नहीं! कि हमने खोया है, यह पता नहीं! मैंने कहा, जिसे खोया ही नहीं है, जिसके खोने का भी पता नहीं है, उसे खोजने के पागलपन में
क्यों पड़ते हो?
उसे
खोजो ही मत। तुम सब खोज छोड़ दो।
लाओत्से
ने दोत्तीन छोटे-छोटे वचन कहे हैं। उसका एक वचन है सीक एंड यू विल नाट फाइंड, खोजो और तुम नहीं पा सकोगे!
डू नाट सीक एंड फाइंड, खोओ मत
और पा लो!
बड़ी
उलटी बात कह रहा है, लेकिन
आज तक दुनिया में जो भी जानते हैं, उन्होंने अनिवार्य रूप से उलटी बात कही।
क्योंकि अगर सपने में आप मुझसे पूछें कि मैं राजकोट कैसे पहुंचूं? तो मैं आपसे कहूंगा कि
पहुंचना बंद कर दो, तुम
राजकोट में हो। तुम पूछो ही मत रास्ता।
लेकिन
आप कहें,
बिना
गुरु के मैं कैसे पहुंचूंगा? मुझे
कोई गुरु बता दो,
कोई
रास्ता बता दो,
कोई
मार्ग बता दो,
जिससे
मैं पहुंच जाऊं!
और मैं
आपसे कहूं कि तुम्हें कोई गुरु मिल गया तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। सब गुरु
मुश्किल में डाल देते हैं, क्योंकि
वे रास्ता बता देते हैं! वे कहते हैं, यह रहा रास्ता, ऐसे चले जाओ! बस यहां से
पहुंच जाओ! गुरु कहता है, रास्ता
है।
और जब
कोई गुरु कहता है,
रास्ता
है, तब वह यह कहता है कि जिसे हम
खोज रहे हैं,
वह खो
दिया गया है! तब वह यह कहता है कि जहां हमें पहुंचना है, वहां वह है नहीं! तब वह कहता
है कि जहां हमें पहुंचना है, वहां
हम हैं नहीं! तब वह यह कहता है, परमात्मा
और हमारे बीच फासला है, डिस्टेंस
है, जिसको रास्ते से पूरा करना
है! सब गुरु परमात्मा के दुश्मन हैं, क्योंकि परमात्मा वहां है, जहां हम हैं।
परमात्मा
हमारा स्वभाव है। उसे हम खो नहीं सकते। उसे खोने का कोई रास्ता नहीं। हम कहीं भी
भागें और दौड़ें;
और हम
कहीं भी जायें,
वह
हमारे साथ है। हम ही हैं वह। वही सांस ले रहा है, वही चेतन हुआ है, वही झांक रहा है आंखों से, वही बोल रहा है, वही सुन रहा है। उसे हम खो
नहीं सकते। हम सो जायें तो वही सो रहा है, हम जाग जायें तो वही जाग रहा है।
रास्ते
की संभावना नहीं है। आदमी ने रास्ते बनाये हैं। क्योंकि आदमी का मन--जिसने सारा
भटकाव पैदा किया है, रास्ते
भी बनवा देता है। आदमी का मन--गुरु भी पैदा करवा देता है। आदमी का मन--साधनाएं भी
करवा देता है,
योग भी
सधवा देता है। आदमी का मन--सब कुछ करवा देता है। और आदमी का मन, जब तक करवाता रहता है, तब तक हम सपने में पड़े रहते
हैं। मन सपना है। मन जो है, वह
ड्रीम है। मन जो है, नींद
है। और नींद से जागना हो तो मन को भोजन देना बंद करना पड़ेगा। अगर एक क्षण के लिए
भी मन को भोजन मिलना बंद हो जाये, उसको
फ्यूल मिलना बंद हो जाये तो मन के सारे खेल समाप्त हो जायेंगे!
जैसे
कार है,
आप
फ्यूल दे रहे हैं,
पेट्रोल
दे रहे हैं--वह चल रही है। अगर मैं आपसे कहूं कि एक मिनिट भी कार को पेट्रोल न
मिले! तो आप कहेंगे कि एक मिनिट से क्या फर्क पड़ता है? एक मिनिट से क्या होता है? मैं आपसे कहता हूं, एक मिनिट भी फ्यूल न मिले तो
कार रुक जायेगी। हां, कार
बेचने वालों की बातों में पड़ जायें तो झंझट है।
मैंने
सुना है,
फोर्ड
की एक दुकान पर एक एजेंट फोर्ड की गाड़ियां बेचता था। वह एक आदमी को गाड़ी में लेकर
गया। कोई पांच-सात मील जाकर। गाड़ी दिखाने गया था, पसंद पड़ जाये। पांच-सात मील
जाकर गाड़ी उसकी रुक गयी तो उस आदमी ने पूछा, अरे, नयी गाड़ी और यह क्या होता है? उसने कहा, मालूम होता है, मैं पेट्रोल डालना भूल गया।
उसने देखा तो टंकी खाली है, बिना
पेट्रोल डाले चला आया। उस आदमी ने कहा, बिना पेट्रोल डाले सात मील कैसे चले आये? उसने कहा, इतना तो फोर्ड के नाम पर चल
जाती है! इतने के लिए पेट्रोल की कोई जरूरत नहीं!
एजेंटों
की बात अलग है। जो फ्यूल के बिना चलाते हैं। वे फोर्ड के एजेंट हों, राम के एजेंट हों, महावीर के एजेंट हों, कृष्ण के एजेंट हों, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
दुकानदारों की,
एजेंटों
की बात अलग है। वे चला सकते हैं। वे कहते हैं, रामनाम के सहारे ही चल जायेगी, उसमें क्या है! अगर रामनाम के
सहारे चलती है तो फोर्ड के नाम से क्यों नहीं चल सकती है? इसमें क्या बात है!
लेकिन
एक मिनिट पेट्रोल न हो तो गाड़ी वही खड़ी हो जायेगी। मन के लिए अगर एक मिनिट भी
फ्यूल न मिले तो मन टूट जाता है। एक सेकेंड को भी टूट जाये तो आपको झलक मिल जाती
है मन के बाहर की। एक मिनिट के लिए नींद खुल जाये तो आप दूसरी दुनिया को जान लेते
हैं, जिसको आपने नींद में नहीं
जाना।
तो मैं
नहीं कहता कि आप अपने कर्म को छोड़कर भाग जायें, मैं नहीं कहता कि आप विचार करना बंद कर दें, मैं नहीं कहता कि आप भाव न
करें। मैं यह कहता हूं कि आप इन तीनों की पूरी प्रक्रिया को समझ लें और चौबीस घंटे
में क्षण भर के लिए भी अगर भाव, कर्म
और विचार तीनों शांत हो जायें, तो उस
क्षण में ही आप हैरान होंगे कि किसको खोज रहे हैं? जिसको मैं खोज रहा हूं, वह तो मैं ही हूं! मैं किसकी
तलाश में हूं?
जिसकी
मैं तलाश कर रहा हूं, वह
तलाश करने वाला मैं नहीं हूं! मैं कहां जाना चाहता हूं? जहां मैं जाना चाहता हूं, वहां मैं सदा से खड़ा हूं! एक
क्षण को यह बोध हो जाये, तब आप
बिलकुल दूसरे आदमी हो गये। इसके बाद आप कर्म करिये तो भी आप भीतर जानते हैं कि कुछ
है, जो नहीं कर रहा है! इसके बाद
आप विचार करिये,
फिर भी
आप जानते हैं कि कुछ है, जो
विचार के बाहर है। फिर आप प्रेम करिये और प्रेम के गहरे से गहरे क्षण में भी आप
जानते हैं कि कोई है, जो
प्रेम करने को भी देख रहा है--साक्षी। फिर आप कुछ भी करिये, फिर इस जगत में आप एक अभिनेता
से ज्यादा नहीं।
अभी एक
नया-नया हुआ अभिनेता मेरे पास आया था। उसने मुझे कहा कि मेरी डायरी में कोई एक
वाक्य लिख दें,
जो
मुझे काम पड़ जाये। मैं नया-नया आया हूं अभिनय की दुनिया में। दो फिल्मों में काम
कर रहा हूं,
लेकिन
अभी मेरी कोई समझ नहीं है। आपके पास आया हूं, पता नहीं आप बुरा तो न मानेंगे? क्योंकि मैं अभिनय के संबंध
में सलाह लेने आया हूं।
मैंने
कहा, बुरा मानने की जरूरत नहीं, मैं इसी के संबंध में सभी को
सलाहें दे रहा हूं। मैंने उसकी डायरी में एक वाक्य लिख दिया। वह मैं चाहूंगा, आपकी डायरी में भी आप लिख
लेंगे।
मैंने
उसकी डायरी में लिख दिया कि "अगर ठीक अभिनेता होना हो तो अभिनय ऐसे करना, जैसे कि यह जिंदगी है। और अगर
ठीक जिंदगी पानी हो तो जीना ऐसे जैसे कि यह अभिनय है। '
अगर
अभिनेता इस तरह अभिनय कर पाये कि समझ ले कि यह जिंदगी है तो सफल हो जाता है। और
अगर कोई जिंदगी में इस तरह जी पाये कि देख ले कि यह अभिनय है, तो जिंदगी के रहस्य को और
सत्य को पा जाता है।
मेरे
लिए कोई मार्ग नहीं है--क्योंकि मैं आपको सिर्फ सपने में देखता हूं। कहीं आप भटक
नहीं गये हैं,
सिर्फ
सो गये हैं।
इसलिए
इन तीन दिनों में तीन मार्गों को तोड़ने की कोशिश करूंगा। अगर ये तीनों टूट जायें
तो आप बिना मार्ग के हो जायेंगे। और धन्यभागी हैं वे, जिसके पास कोई मार्ग नहीं, क्योंकि तब उनको जाने का उपाय
न रहा। तब वह खड़ा हो जायेगा। करेगा क्या? रास्ता नहीं है, खड़ा ही होना पड़ेगा। जो खड़ा हो
जाता है,
ठहर
जाता है,
उसे वह
दिखायी पड़ जाता है, जो सदा
से मौजूद है।
लेकिन
हम दौड़ रहे हैं,
हम भाग
रहे हैं,
हम
नये-नये रास्ते खोज रहे हैं। हम उसे देख ही नहीं पाते, जो चारों तरफ मौजूद है!
क्योंकि उसे देखने के लिए क्षण भर तो कम से कम खड़ा होना जरूरी है।
अगर
मार्ग की भाषा में ही पूछना हो तो मैं कहूंगा कि मार्गों को छोड़ देना मार्ग है, दौड़ बंद कर देना मार्ग है, रुक जाना मार्ग है, ठहर जाना मार्ग है। लेकिन
निश्चित ही कोई मार्ग ठहरने के लिए नहीं होता। मार्ग चलने के लिए होता है।
मार्ग
कहता है,
चलो।
और
धर्म कहता है,
ठहरो।
इसलिए धर्म का कोई मार्ग नहीं हो सकता।
मार्ग
कहता है,
चलो।
मार्ग कहता है,
दौड़ो।
मार्ग कहता है,
तेजी
से दौड़ो। मार्ग कहता है, दूसरे
मार्ग पर मत चले जाना, नहीं
तो भटक जाओगे। यह मेरा मार्ग ठीक है। इसलिए सब मार्गी भटकाते हैं, सब पंथी भटकाते हैं।
धर्म
का कोई मार्ग नहीं है, कोई
पंथ नहीं है। धर्म कहता है, ठहरो।
धर्म कहता है,
रुक
जाओ। धर्म कहता है, दौड़ो
मत।
लेकिन
"दौड़ो मत'
के लिए
भी कोई मार्ग होता है? ठहरने
के लिए भी कोई मार्ग होता है? रुक
जाने का भी कोई मार्ग होता है? नहीं, रुक जाने का तो मतलब ही यह
होता है कि कोई मार्ग नहीं है। और जब आपको पता चलेगा कि कोई मार्ग नहीं, तभी आप रुक सकते हैं, नहीं तो आप दौड़ते ही रहेंगे।
एक
मार्ग से ऊब जायेंगे तो दूसरा मार्ग पकड़ लेंगे! ईसाई हिंदू हो जाता है! हिंदू ईसाई
हो रहे हैं! कोई कुरान बदलकर गीता पकड़ लेता है! गीता बदलकर कोई कुरान पकड़ लेता है!
कोई इस गुरु को छोड़कर उस गुरु के पास चला जाता है! इस गुरु से उस गुरु के पास चला
जाता है!
कब वे
दिन आयेंगे,
जब आप
कहेंगे,
कोई
गुरु नहीं,
कोई
मार्ग नहीं,
कोई
शास्त्र नहीं?
जिस
दिन यह क्षण आ जायेगा, उस दिन
चलने का उपाय नहीं रहेगा--आप खड़े हो जायेंगे। जिस दिन आप, जिस क्षण आप खड़े हो जाते हैं, उसी क्षण, वहीं क्रांति घटित हो जाती है, जिसका नाम धर्म है।
इन तीन
दिनों में,
तीनों
मार्गों को तोड़ने की कोशिश करूंगा और आशा रखूंगा कि चार दिन के बाद, जब मैं जाऊं तो आपके पास कोई
मार्ग न हो,
आप खड़े
रह जायें।
ध्यान
रहे कि परमात्मा आपको बहुत खोज रहा है, लेकिन आप मिलते नहीं! आप इतने भागे रहते हैं
कि जब तक वह पहुंचता है, तब तक
आप आगे निकल जाते हैं! कितना ही दौड़ें, आप उससे तेज दौड़ लगाते हैं, आप आगे निकल जाते हैं! जब तक
वह पता लगाकर पहुंचता है, तब तक
पाता है कि आप कहीं और, किसी
और मार्ग पर चले गये हैं!
आदमी
को भगवान को नहीं खोजना है, भगवान
निरंतर आदमी को खोज रहा है। लेकिन आदमी घर पर तो मिल जाये कम से कम। वह जब भी आता
है, दरवाजा खटखटाता है, पता चलता है, और कहीं है! जब तक वहां
पहुंचता है,
तब पता
लगता है,
वह और
कहीं चले गये! इससे मुलाकात नहीं हो पाती। एक छोटी-सी कहानी, और यह बात मैं पूरी करूंगा।
मैंने
सुना है,
एक
बहुत शक्की आदमी था। ऐसे तो सभी आदमी शक्की होते हैं। वह अपने घर में ताला भी
लगाता था,
तो वह
उसे चार बार हिलाकर लौट-लौट कर देख जाता था! पता नहीं लगाया कि नहीं लगाया! कहीं
भूल न हो गयी हो। वह एक दिन सुबह-सुबह एक दुकान पर बाल बनवाने गया। नाई ने उसके
बाल बना दिये तो उसने रुपया दिया। नाई से कहा आठ आने हुए। लेकिन बाकी आठ आने मेरे
पास अभी हैं नहीं,
कल ले
जाना।
उसने
सोचा, कल पता नहीं यह आदमी बदल
जाये। और इतने जोर से बदलाहट हो रही है दुनिया में। किसी का कोई भरोसा ही नहीं, कौन कब कहां हो? आज नाई है, कल ब्राह्मण हो जाये; कुछ पक्का पता नहीं! आज यह
दुकान कर रहा है,
कल
दुकान बदल दे! कुछ पक्का है ही नहीं, चीजें इतनी जोर से बदल रही हैं। किसी का कोई
ठिकाना नहीं कि कोई कल वहीं मिलेगा, जहां कल सुबह आपने उसे पाया था।
उसने
सोचा, कुछ पक्का कर लेना चाहिए, नहीं तो आदमी बदल जाये। उसने
सोचा, बोर्ड ठीक से पढ़ लूं। उसने
कहा, बोर्ड का क्या भरोसा, दो मिनिट में बदल जाता है।
कांग्रेसी है,
कम्युनिस्ट
हो जाता है! कम्युनिस्ट, कांग्रेसी
हो जाता है! कुछ पक्का पता नहीं, इस बोर्ड
का क्या है। उसने सोचा आदमी की शक्ल-सूरत देखूं। लेकिन शक्ल-सूरत का क्या भरोसा
है। गृहस्थ संन्यासी हो जाता है। सब शक्ल-सूरत बदल देता है। रात भर में क्या, क्षण में सब हो जाता है! उसने
सोचा, कुछ ऐसा इंतजाम करूं कि इसको
पता ही न हो,
जिसको
वह बदल न सके। आखिर वह इंतजाम करके चला गया।
वह
दूसरे दिन सुबह आया और उसने जाकर अंदर दुकान में गरदन पकड़ ली! उसने कहा, यही तो मैंने सोचा था!
वहां
एक भैंस बैठी थी बाहर, उसको
देखकर चला गया। उसने कहा, इस
भैंस का क्या पता होगा इसको कि भैंस बाहर बैठी है। जहां कल भैंस होगी, वहीं उसको पकड़ लेंगे। भैंस
रात भर में चली गयी। भैंस का कोई भरोसा है क्या? आदमी का भरोसा नहीं, तो भैंस का भरोसा तो बहुत
मुश्किल है। भैंस चली गयी!
दूसरे
दिन वह सुबह पहुंचा तो एक मिठाई वाले की दुकान के सामने बैठी थी। उसने जाकर मिठाई
वाले की गरदन पकड़ ली! और उसने कहा, धन्य हो, हद कर दी, आठ आने के पीछे इतनी बदलाहट!
कह देते कि नहीं देना। इतनी परेशानी उठायी और सब काम ही बदल दिये! मगर हम भी
इंतजाम पक्का करके गये थे। वह भैंस बाहर छोड़ गये थे। वह वहीं बैठी है, जहां हम छोड़ गये थे! सब बदल
गया, लेकिन भैंस वहीं है!
परमात्मा
हमें खोज भी रहा हो तो कैसे खोज पायेगा? सब तो बदल जाता है रोज । जो कल सुबह हम थे, वह आज सांझ नहीं है। जो आज
सांझ हैं,
वे कल
सुबह नहीं होंगे। सब बदल जाता है। उस जगह नहीं होते, जहां थे। सब भाग जाता है, सब दौड़ जाता है! और तेजी से
भाग रहे हैं!
एक
क्षण को भी अगर हम खड़े हो जायें तो उससे मिलने में बाधा नहीं है। वह है ही सब जगह
मौजूद। सिर्फ हमारे खड़े होने की प्रतीक्षा है। परमात्मा प्रतीक्षा में है उसकी, जो खड़ा हो जाता है। जो खड़ा हो
जाता है,
वह उसे
उपलब्ध हो जाता है।
रास्ता
नहीं है,
मार्ग
नहीं है,
पंथ
नहीं है। कोई गुरु नहीं है। आप हैं और परमात्मा है।
और आप
भी दौड़ रहे हैं,
इसलिए
"हैं',
अगर
ठहर जायें आप तो फौरन मिट जायेंगे और परमात्मा ही रह जायेगा।
जब तक
दौड़ रहे हैं,
तब तक
आप हैं और परमात्मा है, क्योंकि
दौड़ आपको भ्रम पैदा कर रही है कि "मैं' हूं। दौड़ गयी, फ्यूल न मिला, कि आप भी गये, आपका मन भी गया; जो शेष रह जाता है, वह परमात्मा ही है। परमात्मा
करीब है। हम मिट जायें और वही रह जाये, जो है। हमारा होना नितांत झूठ है। लेकिन इस
झूठ को यह खयाल पैदा हो गया कि हम सत्य को मिलकर रहेंगे! अब यह झूठ सत्य से कैसे
मिलेगा?
हम
कहते हैं कि मुझे दर्शन करने हैं--परमात्मा के। मैं और दर्शन करूंगा? मैं कैसे उसके दर्शन करूंगा? "मैं' ही तो झूठ हूं। "मैं' न रह जाऊं तो उसके दर्शन हो
जायें। लेकिन मैं कहता हूं, "मैं' दर्शन
करूंगा। "मैं' मिलकर
रहूंगा,
"मैं'' उसको खोजकर रहूंगा! और
"मैं'
इस सब
खोज और मिलने और दौड़ने में मजबूत होता चला जाता है और बाधा बन जाता है।
एक-एक--कल
ज्ञान पर,
फिर
भक्ति पर,
फिर
कर्म पर,
तीनों
पर बात करूंगा। एक दम निषेधात्मक, विध्वंसक, तोड़ देने वाली। रास्ते टूट
जायें तो वह द्वार पर खड़ा है।
मेरी
बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे
परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे
प्रमाण स्वीकार करें।
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