ज्योति से ज्योति जले-(सूंदर दास)
प्रवचन—पांचवां
है दिल
मैं दिलदार सही अंखियां उलटि करि ताहि चितइए।
आब मैं
खाक मैं बाद मैं आतस जान मैं सुंदर जानि जनइए।।
नूर
में नूर है तेज में तेज है ज्योति मैं ज्योति मिलें मिलि जइए।
क्या
कहिए कहते न बनै कछु जो कहिए कहते ही लजइए।।
जासौं
कहूं "सब में वह एक' तौ सो
कहै कैसो है,
आंखि
दिखइए।
जौ
कहूं "रूप न रेख तिसै कछु' तौ सब
झूछ कैं मानें कहइए।।
जौ
कहूं सुंदर "नैननि मांझि' तौ
नैनहूं बैंन गए पुनि हइए।
क्या
कहिए कहते न बनै कछु जो कहिए कहते ही लजइए।।
प्रीति
की रीति नहीं कछु राखत जाति न पांति नहीं कुल गारौ।
प्रेम
कै नेम कहूं नहिं दीसत लाज न कानि लग्यौ सब खारौ।।
लीन
भयौ हरि सौं अभि अंतर आठहुं जाम रहै मतवारौ।
सुंदर
कोऊ न जानि सकै यह "गोकुल गांव कौं पैंडो ही न्यारौ'।।
द्वंद्व
बिना बिचरै बसुधा परि जा घट आतम ज्ञान अपारौ।
काम न
क्रोध न लोभ न मोह न राग न दोष न म्हारौ न थारौ।।
योग न
भोग न त्याग न संग्रह देह दशा न ढक्यौ न उघारौ।
सुंदर
कोऊ न जानि सकै यह "गोकुल गांव को पैंडो ही न्यारौ'।।
सुंदर
सद्गुरु यौं कहया सकल-सिरोमनि नाम।
ताकौं
निसदिन सुमरिए,
सुखसागर
सुखधाम।।
राम
नाम बिन लैन कौं और बस्तु कहि कौन।
सुंदर
जप तप दान व्रत,
लागे
खारे लौन।।
राम-नाम-पीयूष
तजि, बिष पीवै मतिहीन।
सुंदर
डोलै भटकते,
जन जन
आगे दीन।।
सुंदर
सुरति समेटि कैं,
सुमिरन
सौ लैलीन।
मन बच
क्रम करि होत है,
हरि
ताके आधीन।।
सुमिरन
ही मैं शील है,
सुमिरन
मैं संतोष।
सुमिरन
ही तें पाइए सुंदर जीवन-मोष।।
जीवन
की कुटिया में हूं मैं बुझा हुआ सा दीपक।
आशा के
मंदिर में हूं मैं बुझा हुआ सा दीपक।।
बुझा
हुआ सा दीपक हूं मैं, बुझा
हुआ सा दीपक।।
कजराए
दीवट पर धरा हूं यूं कुटिया में हाए।
जैसे
कोयल सीस नवा कर अंबुआ पर सो जाए।।
जैसे
श्यामा गाते-गाते कुहरे में खो जाए।
जैसे
दीपक आग में अपने-आप भस्म हो जाए।।
विरह
में जैसे आंख किसी क्वांरी की पथरा जाए।
बुझा
हुआ सा दीपक हूं मैं बुझा हुआ सा दीपक।।
आतम, हिरदय जीवन, मृत्यु, सतयुग, कलियुग, माया।
हर
रिश्ते पर मैंने अपने नूर का जाल बिछाया।।
चारों
ओर चमक कर अपनी किरनों को दौड़ाया।
जितना
ढूंढा उतना खोया खोकर खाक न पाया।।
बीत गए
जुग लेकिन "सागर' मुझ तक
कोई न आया।
बुझा
हुआ सा दीपक हूं मैं, बुझा
हुआ सा दीपक।।
आदमी
एक अंधेरा है। आदमी है अमावस की रात। और दीवाली तुम बाहर कितनी ही मनाओ, भीतर का अंधेरा बाहर के दीयों
से कटता नहीं,
कटेगा
नहीं। धोखे तुम अपने को कितने ही दो, पछताओगे अंततः। देखते हो, दीवाली हम मनाते हैं अमावस की
रात! वह हमारे धोखे की कथा है। रात है अमावस की, दीयों की पंक्तियां जला लेते
हैं। पर दीए तो होंगे बाहर। दीए तो भीतर नहीं जा सकते। बाहर की कोई प्रकाश की किरण
भीतर प्रवेश नहीं कर सकती। भीतर की अमावस तो भीतर अमावस ही रहती है। बाहर की
पूर्णिमा कितनी ही बनाओ, तुम तो
भीतर जानते ही रहोगे कि बुझे हुए दीपक हो। तुम तो भीतर रोते ही रहोगे। तुम्हारी सब
मुस्कुराहटें भी तुम्हारे आंसुओं को छुपाने में असमर्थ हैं। और छुपा भी लें तो सार
क्या? मिटाने में निश्चित असमर्थ
हैं।
धोखे
छोड़ो! इस सीधे सत्य को स्वीकार करो कि तुम बुझे हुए दीपक हो। होने की जरूरत नहीं
है। होना तुम्हारी नियति भी नहीं है। ऐसा होना ही चाहिए, ऐसा कोई भाग्य का विधान नहीं
है। अपने ही कारण तुम बुझे हुए हो। अपने ही कारण चांद नहीं उगा। अपने ही कारण भीतर
प्रकाश नहीं जगा। कहां भूल हो गई है? कहां चूक हो गई है?
हमारी
सारी जीवन-ऊर्जा बाहर की तरफ यात्रा कर रही है। इस बहिर्यात्रा में ही हम भीतर
अंधेरे में पड़े हैं। यह ऊर्जा भीतर की तरफ लौटे तो यही ऊर्जा प्रकाश बनेगी। यह
ऊर्जा ही प्रकाश है।
तुम्हारा
सारा प्रकाश बाहर पड़ रहा है--वृक्षों पर, पर्वतों पर, पहाड़ों पर, लोगों पर। लेकिन तुम एक अपने
पर अपनी रोशनी नहीं डालते। सबको देख लेते हो अपने प्रति अंधे रह जाते हो। और सबको
देखने से क्या होगा? जिसने
अपने को न देखा,
उसने
कुछ भी न देखा।
आज के
सूत्र तुम्हारे भीतर का दीया कैसे जले, सच्ची दीवाली कैसे पैदा हो, कैसे तुम भीतर चांद बनो, कैसे तुम्हारे भीतर चांदनी का
जन्म हो--उसके सूत्र हैं। बड़े मधु-भरे! सुंदर ने बहुत प्यारे वचन कहे हैं, पर आज के सूत्रों का कोई
मुकाबला नहीं है। बहुत रस-भरे हैं, पीओगे तो जी उठोगे। ध्यान धरोगे इन पर, संभल जाओगे। डुबकी मारोगे
इनमें,
तो तुम
जैसे हो वैसे मिट जाओगे; और
तुम्हें जैसा होना चाहिए वैसे प्रकट हो जाओगे।
है दिल
मैं दिलदार. . .।
जिसको
तुम खोज रहे हो,
तुम्हारे
भीतर बैठा है। तुम्हारी खोज के कारण ही तुम उसे नहीं पा रहे हो। तुम दौड़े चले जाते
हो। सारी दिशाओं में खोजते हो, थकते
हो, गिरते हो। हर बार जीवन कब्र
में समाप्त हो जाता है। जीवन से मिलन नहीं हो पाता। और जिसे तुम खोजने चले हो, जिस मालिक को तुम खोजने चले
हो, उस मालिक ने तुम्हारे घर में
बसेरा किया हुआ है। तुम जिसे खोजने चले हो, वह अतिथि नहीं है, आतिथेय है। खोजनेवाले में ही
छिपा है। वह जो गंतव्य है, कहीं
दूर नहीं,
कहीं
भिन्न नहीं,
गंता
की आंतरिक अवस्था है।
है दिल
मैं दिलदार सही अंखियां उलटि करि ताहि चितइए।
लेकिन
अगर उसे देखना हो,
अगर
उसके प्रति चैतन्य से भरना हो तो आंखें उलटाना सीखना पड़े। आंख उलटाना ही ध्यान है।
ध्यान साधारणतया दृश्य से जुड़ा है। ऐसा मत सोचना कि तुम्हारे पास ध्यान नहीं है।
तुम्हारे पास ध्यान है--उतना ही जितना बुद्धों के पास। रत्ती-भर कम नहीं। परमात्मा
किसी को कम और ज्यादा देता नहीं। उसके बादल सब पर बराबर बरसते हैं। उसका सूरज सबके
लिए उगता है। उसकी आंखों में न कोई छोटा है न कोई बड़ा है। ऐसा मत सोचना कि कृष्ण
को कुछ ज्यादा दिया था, कि
बुद्ध को कुछ ज्यादा दिया था, कि
सुंदरदास को जरूर कुछ ज्यादा दे दिया होगा--कि ये रोशन हुए, कि ये जगमगाए। न खुद जगमगाए, बल्कि इनकी जगमगाहट से और भी
लोग जगमगाए। दीयों से दीए जलते चले गए। ज्योति से ज्योति जले! जरूर इन्हें कुछ
ज्यादा दे दिया होगा छिपा कर; हमें
दिया नहीं,
हम
क्या करें?
नहीं; ऐसा मत सोचना।
परमात्मा
की तरफ से प्रत्येक को बराबर मिला है। रत्तीभर भेद नहीं। फिर हम अंधेरे में क्यों
हैं? फिर कोई बुद्ध रोशन हो जाता
है और हम बुद्धू के बुद्धू क्यों रह जाते हैं। हमें जो मिला है, हमने उसे गलत से जोड़ा है।
जैसे कोई सरिता मरुस्थल में खो जाए, जल तो लाए बहुत हिमालय से और मरुस्थल में खो
जाए--ऐसी हमारी जीवन-ऊर्जा मरुस्थल में खोई जा रही है। बाहर विस्तार है मरुस्थल
का।
ध्यान
तुम्हारे पास उतना ही है जितना मेरे पास। लेकिन तुमने ध्यान वस्तुओं पर लगाया है।
तुमने ध्यान किसी विषय पर लगाया है। तुम्हारा ध्यान हमेशा किसी चीज पर अटका है।
चीजों को गिर जाने दो--चीजों को हट जाने दो। विषय वस्तु से मुत्त हो जाओ, मात्र ध्यान को रह जाने दो, निरालंब! और आंख भीतर मुड़
जाती है।
निरालंब
ध्यान का नाम समाधि। आलंबन से भरे ध्यान का नाम संसार। जब तक आलंबन है तब तक तुम
बाहर जाओगे,
क्योंकि
आलंबन बाहर है। जब आलंबन नहीं तब तुम भीतर आओगे। कोई उपाय ही न बचा तो तुम्हें
भीतर आना ही होगा। ध्यान को कहीं ठहरना ही होगा। बाहर न ठहराओगे तो अपने-आप सहज
सरलता से ध्यान लौट आता है।
पुराने
दिनों में जब समुद्र की लोग यात्रा करते थे और यंत्र नहीं थे जानने के, पहचानने के लिए नक्शे नहीं थे, कि हम भूमि के करीब पहुंच गए
या नहीं। तो वे एक प्रयोग करते थे। हर जहाज पर कबूतर पालकर रखते थे। कबूतरों को
छोड़ देते थे। अगर कबूतर न लौटते तो इसका मतलब, जमीन करीब है। उन्होंने कहीं वृक्ष पा लिए
होंगे,
भूमि
पा ली होगी,
कोई आलंबन
मिल गया होगा,
अब
लौटने की कोई जरूरत नहीं है। अगर कबूतर लौट आते तो उसका अर्थ है कि जमीन करीब नहीं
है, ज़मीन अभी दूर है। कबूतर को
कहीं बैठना तो होगा, कहीं
बसना तो होगा। अगर बाहर कोई सहारा मिल जाएगा तो वह फिकर छोड़ देगा जहाज की। ऐसे थक
गया होगा जहाज पर बैठ-बैठे। पानी और पानी और पानी. . .! मिल गई होगी हरियाली, अटक गया होगा। लेकिन अगर कोई
भूमि न मिले तो क्या करेगा? लौटना
ही होगा,
लौट
आएगा वापिस।
ऐसा ही
हमारा चित्त है। जब तक हम उसे बाहर भूमि दिए जाते हैं, तब तक भीतर नहीं लौटता। किसी
का धन में अटका है, किसी
का प्रतिष्ठा में अटका है, किसी
का वस्तुओं में अटका है, किसी
का संबंधों में अटका है--लेकिन मन जब तक बाहर अटका है तब तक भीतर नहीं लौटेगा।
इसलिए सारे ज्ञानी कहते हैं ः बाहर से तादात्म्य छोड़ो। मन को बाहर मत अटकाओ । बाहर
से सारे सेतु काट दो। और तब अचानक एक प्रकांड ऊर्जा घर की तरफ वापिस लौटती है; जैसे गंगा वापिस लौट पड़े
गंगोत्री में,
ऐसी
आंदोलनकारी घटना घटती है। तुम्हारी ही ऊर्जा जब तुम्हारे ऊपर वापिस लौटती है, रोशन हो जाते हो तुम। इसी से
दूसरी चीजें रोशन हो रही थीं।
तुमने
एक फूल देखा,
कितना
सुंदर! तुम सोचते हो सौंदर्य फूल में है? नहीं, तुम्हारी आंख में है। तुमने अपनी आंख से जो
रोशनी डाली,
उसमें
है। तुमने सुबह उगते देखा सूरज को, जागते देखा, बड़ी सुंदर सुबह, बड़ा प्यारा प्रभात, पक्षियों की
चहचहाहट****)१०श्**ष्ठ**इ२५५)२५५****! सौंदर्य सूरज में है? सौंदर्य पक्षियों की चहचहाहट
में है?
नहीं; तुम जो ऊर्जा दे रहे हो, उसमें है।
कभी
ऐसा होता है कि चांद तो निकला होता है आकाश में बड़ा प्यारा, लेकिन तुम्हें सुंदर नहीं
मालूम पड़ता,
तुम आज
ऊर्जा नहीं दे पाते हो। तुम्हारी पत्नी चल बसी। तुम्हारा बेटा बीमार है। तुम्हारा
मन कहीं और उलझा है। आज चांद पर तुम अपने मन को नहीं लगा पाते। आज चांद पर तुम
अपने मन को नहीं बिछा पाते। आज चांद के आसपास अपने नूर का जाल नहीं बुन पाते। चांद
उगा रहता है। चांद चलता रहता है आकाश में, लेकिन आज सुंदर नहीं मालूम होता! अगर तुम
उदास हो तो चांद भी उदास मालूम होता है, यह अनुभव किया है न? अगर तुम उदास हो तो पक्षियों
के गीत भी उदास मालूम पड़ते हैं, जैसे
मातम गाते हों,
जैसे
मर्सिया गाते हों। अगर तुम प्रफुल्लित हो, सारा जगत् प्रफुल्लित हो उठता है। अगर तुम
आनंदमग्न हो तो सारा जगत् नाचता हुआ मालूम पड़ता है। पत्थर-पहाड़ भी बोलते मालूम
पड़ते हैं,
जब
तुम्हारे भीतर गूंज होती है रस की।
तुम जो
बिछाते हो वही पाते हो। तुम जो डालते हो, वही मिलता है। जगत् तो दर्पण है। जब तुम
सुंदर होते हो,
जगत्
सुंदर मालूम होता है। जब तुम कुरूप होते हो, जगत् कुरूप मालूम होता है। इसलिए ठीक कहा है
ज्ञानियों ने,
कि जो
जैसा होता है उसे वैसे ही दूसरे लोग दिखाई पड़ते हैं। इसमें सत्य है। चोर को सब चोर
दिखाई पड़ते हैं। साधु को सब साधु दिखाई पड़ते हैं। हमारी दृष्टि सृष्टि करती है।
हमारी दृष्टि बड़ी सृजनात्मक है। हम जो डालते हैं वही लौट आता है।
इसलिए
फूल भी सभी को एक जैसे सुंदर थोड़े ही दिखाई पड़ते हैं--जो जितना डालता है. . .। कोई
कवि बहुत उंडेल देता है। कोई चित्रकार अपनी पूरी आत्मा रख देता है, तो फूल में आत्मा आ जाती है।
पत्थर भी खिल जाते हैं। तुम्हारे ऊपर निर्भर है।
तुम इस
बाहर के जगत् को जितना सुंदर पा रहे हो, यह सब तुम्हारा ही सृजन है। जवान आदमी शरीर
के सौंदर्य को देख पाता है, बूढ़ा
नहीं देख पाता है। जैसे-जैसे बुढ़ापा आने लगता है वैसे-वैसे शरीर का सौंदर्य दिखाई
पड़ना बंद होने लगता है। जब भीतर ही मौत की आवाज सुनायी पड़ने लगे तो बाहर भी मौत के
कदमों की प्रतिध्वनि होने लगती है। युवा मन अभी भरा होता है--बड़ी वासनाओं से, बड़ी कामनाओं से, बड़े सपने उसमें बसे होते हैं।
उन्हीं वासनाओं को, उन्हीं
सपनों को,
अपने
चारों तरफ फैलाता है। पुरुष स्त्रियों में उलझ जाते हैं, स्त्रियां पुरुषों में उलझ
जाती हैं। लेकिन एक घड़ी आती है जब तुम्हारे भीतर की जीवन-ऊर्जा सिकुड़ने लगती है; जब तुम्हारे पत्ते झड़ने लगते
हैं; जब तुम्हारे चेहरे पर
झुर्रियां पड़ने लगती हैं; जब
तुम्हारे पैर कंपने लगते हैं; जब मौत
दस्तक देने लगती है--तब तुम्हें चारों तरफ जगत् में मौत की ही दस्तक सुनायी पड़ती
है।
इसे
तुम अगर समझ लो तो तुम्हें ध्यान की एक महत्त्वपूर्ण बात समझ में आ जाए। हम अपने
ध्यान से ही अपने चारों तरफ के जगत् को निर्मित करते हैं। हमारी आंख सिर्फ देखती
ही नहीं,
बनाती
है, निर्माण करती है। आंख-आंख में
भेद है। इसलिए एक ही चीज में किसी को कुछ दिखायी पड़ता है, किसी को कुछ और दिखायी पड़ता
है। यही आंख जब बाहर जाती ही नहीं, जब बाहर से सारा रस-संबंध छोड़ देती है तो
अंतर्मुखी होती है। जब तुम्हारे भीतर के जगत् का जन्म होता है। तब खिलता है कमल
आत्मा का।
है दिल
मैं दिलदार सही अंखियां उलटि कर ताहि चितइए।
देखना
हो इस मालिक को तो कहीं और जाने की जरूरत नहीं है--न काशी न काबा, न गिरनार न बोधगया। कहीं जाने
की कोई जरूरत नहीं है। मालिक भीतर बैठा है। बुद्ध को बोधगया में थोड़े ही मिला था; संयोग की बात थी कि बोधगया
में बैठे थे। मिला तो भीतर था। अब कैसा आदमी पागल है! बुद्ध को भीतर मिला था, बोधगया तो संयोगवशात है। कहीं
तो रहते;
बोधगया
में न होते तो कहीं और होते, कहीं
तो होना ही होता! लेकिन आदमी अजीब पागल है! सारी दुनिया से लोग बोधगया जाते हैं।
बुद्ध को मिला भीतर, लोग जा
रहे हैं बोधगया। यहीं चूक हो जाती है।
तुम भी
भीतर चलो। वहीं बोधगया है। वहीं काबा है। वहीं गिरनार है। वहीं काशी है।
है दिल
मैं दिलदार सही अंखियां उलटि कर ताहि चितइए।
और
जैसे ही तुम्हारी आंख बदली, तुम्हारी
आंख भीतर देखने लगी, वैसे
ही जीवन के सारे मूल्य रूपांतरित हो जाते हैं। कल तक जो मूल्यवान मालूम पड़ता था, आज मूल्यहीन मालूम होने लगता
है। कल तक जिस पर कोई ध्यान ही न दिया था, आज अचानक बहुत बहुमूल्य हो जाता है। कल तक
सोचते थे धन सब कुछ है; अब
लगता है प्रेम सब कुछ है। और खयाल रखना, धन और प्रेम का जोड़ नहीं बैठता। इसलिए धनी
आदमी अकसर प्रेम-शून्य हो जाता है। हो जाता है, धन इकट्ठा करने में ही हो जाता है। धन
इकट्ठा करने की कीमिया ही यही है कि उसे प्रेम-शून्य होना ही पड़ेगा। धन इकट्ठा
करना अति कठोरता से ही संभव है। उस कठोरता में ही चूक जाता है ।
प्रेमी
बांटता है। बांटने से कहीं धन इकट्ठा हुआ है! धन तो इकट्ठा करने से इकट्ठा होता
है। धन का गणित और प्रेम का गणित उलटा है। उनके अर्थशास्त्र अलग हैं। धन इकट्ठा
करने से इकट्ठा होता है, बांटने
से कम हो जाता है। प्रेम बांटने से बढ़ता है, इकट्ठा करने से कम हो जाता है। उनका मेल
कैसे होगा?
वे
यात्रापथ अलग हैं।
ऐश से
क्यों खुश हुए,
क्यों
गम से घबराया किए
जिंदगी
क्या जाने क्या थी और क्या समझा किए
जब आंख
उलटेगी,
जब आंख
पलटेगी तो तुम बड़े चौंकोगे. . .। जिंदगी क्या जाने क्या थी और क्या समझा किए! कुछ
का कुछ करते रहे। अपने हाथ से जहर के बीज बोते रहे। अपने हाथ से दुःख की फसल काटते
रहे। रोते भी रहे,
चिल्लाते
भी रहे। सारी दुनिया को दोष भी देते रहे और खुद जुम्मेवार थे। खुद ही बीज बोए, खुद ही फसलें काटीं, खुद ही कांटों से छिदे, खुद ही जहर में डूबे। और
चिल्लाते रहे,
रोते
रहे, जैसे सारी दुनिया सता रही हो।
प्रत्येक
व्यक्ति अपना नरक स्वयं बनाता है--और स्वर्ग भी! तुम जहां हो अपने कारण हो। तुम
जैसे हो अपने कारण हो। भूलकर भी दायित्व किसी और पर मत देना। जिस दिन तुमने
उत्तरदायित्व किसी और को दिया, उसी
दिन तुम धार्मिक होना बंद हो जाते हो! धार्मिक होने की शुरुआत ही इस सत्य से होती
है, कि मैं अपने जीवन का सारा
उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेता हूं। दुःखी हूं तो मैं जिम्मेवार हूं।
इसलिए
मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी अकसर धार्मिक नहीं होते।
साधु-संन्यासी होते होंगे ऊपर-ऊपर, अकसर धार्मिक नहीं होते। अगर धार्मिक हों तो
पति को,
पत्नी
को छोड़कर भागने की कोई जरूरत नहीं है। जब पति पत्नी को छोड़कर भागता है तो वह यह
कहता है कि इसके कारण मैं बंधन में पड़ा हूं। वह यह नहीं कहता कि मेरी वासना के
कारण बंधन में पड़ा हूं। वह कहता है, इस स्त्री के कारण मैं बंधन में पड़ा हूं।
यही अधार्मिक आदमी का लक्षण है। वह सदा कहता है, कोई दूसरा जुम्मेवार है। और
जब दूसरा जुम्मेवार है तो तुम कर क्या सकोगे? तुम गुलाम रहोगे। तुम कभी मुक्त नहीं हो
सकते। क्योंकि दूसरे तो बहुत हैं। तुमने तो अपना मोक्ष असंभव बना दिया। जब ये सब
बदलेंगे;
जब
दुनिया में कोई भी तुम्हें दुःख न देगा, जब दुनिया में कोई तुम्हें रुष्ट न करेगा, जब दुनिया में कोई तुम्हें
कामवासना से न भरेगा, जब
दुनिया में कोई तुम्हें आकर्षित न करेगा, जब यह सारी दुनिया तय ही कर लेगी कि तुम्हें
मुक्त करना है--तभी तुम हो सकोगे। मोक्ष असंभव है फिर। तुमने मोक्ष की संभावना की
जड़ ही काट दी। यह सारी दुनिया बदलेगी तो शायद तुम्हारा मोक्ष होगा।
यह
दुनिया न तो बदलती है, न बदल
सकती है,
न इस
दुनिया को कोई प्रयोजन है तुम्हारे मोक्ष से। तुम्हारा मोक्ष तुम जानो। स्त्रियां
तो सज कर निकलती रहेंगी। सिर्फ इस कारण कि एक सज्जन को मोक्ष की सनक सवार हुई है, स्त्रियां सारी सजना बंद नहीं
कर देंगी। बाजार तो भरे ही रहेंगे। दुकानों पर सजावटें होती ही रहेंगी। नई-नई
चीजें निर्मित होती रहेंगी। आकर्षण के नए-नए द्वार खुलते रहेंगे। सिर्फ इस कारण की
एक सज्जन मोक्ष जाने का इरादा कर रहे हैं, सारी दुनिया की व्यवस्था नहीं रुक सकती।
कोयल गीत गाएगी। पपीहे टेर लगाएंगे। यह सब चलता रहेगा। यह सब ऐसा ही चलता रहेगा।
तुमसे
किसको क्या लेना-देना है!
लेकिन
तुम कहते हो,
स्त्री
के कारण मैं बंधन में पड़ा हूं। तो तुम कहां भागकर जाओगे? तुम जहां भी भागकर जाओगे, स्त्री सब जगह मौजूद है।
स्त्री तत्त्व सब जगह मौजूद है। तुम कहां भागकर जाओगे? इस पृथ्वी पर कहीं भी तुम
रहोगे तुम तो तुम ही रहोगे? तुम्हारा
मन तो उन्हीं वासनाओं के जालों से भरा होगा। धन छोड़ दोगे, एक लंगोटी पकड़ लोगे; लेकिन लंगोटी ही उतने जोर से
पकड़ लोगे जितने जोर से लोग साम्राज्य पकड़ते हैं।
तुमने
जनक की कहानी सुनी न!
एक
संन्यासी ने अपने एक शिष्य को जनक के पास भेजा। शिष्य बहुत दिन से जनक की खबरें
सुनता था। अपने गुरु के पास था। कुछ उसे हो भी नहीं रहा था। आखिर गुरु ने कहा कि
तू ऐसा कर,
तू जनक
के पास जा,
शायद
तुझे वहां हो जाए। खबरें उसने बहुत सुनी थीं, सोचा चलो देख ही आएंगे। होने का तो भरोसा
नहीं था। क्योंकि ऐसे सद्गुरु को पाकर नहीं हुआ, सर्वत्यागी को पाकर नहीं हुआ, तो जनक तो भोगी हैं, उसको पाकर क्या होगा? फिर भी, गुरु ने भी कहा, मन में भी बहुत दिन से खबरें
सुनी थीं,
जाने
का भाव भी था,
राजधानी
भी देख आएंगे,
बहुत
दिन से राजधानी भी नहीं गए थे, राजमहल
का भी रंग-रूप देख आएंगे--तो चला गया। जब पहुंचा, सांझ होने को थी। जनक का
दरबार सजा था,
सुंदर
नर्तकियां नाचती थीं। शराब ढाली जा रही थी। वह युवा संन्यासी तो बहुत हैरान हो
गया। वह तो उसी क्षण लौट पड़ना चाहा--उलटे पांव!
जनक ने
कहा कि अब आ ही गए हो तो रात तो कम से कम विश्राम करो, सुबह चले जाना। उसने कहा कि
नहीं, यहां एक क्षण भी रुकना पाप
है। मैं तो ब्रहमज्ञान के लिए आया था और यहां जो देख रहा हूं. . .। मैं तो वैसे ही
झंझटों में पड़ा हूं, और यह
सब देख कर और झंझटों में न पड़ जाऊं। यह शराब का चलना, यह नर्तकियों का नृत्य... यह
सब क्या हो रहा है? और आप
स्वर्ण-सिंहासन पर बैठे हैं? आपको
ज्ञान हो सकता है?
सम्राट्
ने कहाः रात रुको, भोजन करो, विश्राम करो, सुबह बात करेंगे।
रात
रुका संन्यासी,
भोजन
भी किया,
सोया
भी। सुबह जनक उसे लेकर, महल के
पीछे बहती नदी में, स्नान
करने को ले गए। जब दोनों स्नान कर रहे हैं, तभी महल से भयंकर लपटें उठने लगीं। महल में
आग लग गयी। लोग भागे हुए आए। सारा महल धूं-धूं कर जल रहा है। संन्यासी एकदम भागा।
जनक ने पूछा,
कहां
जाते हो?
उसने
कहा कि मेरी लंगोटी महल में ही रखी है। और आप यहां क्या खड़े कर रहे हैं? महल जल रहा है।
जनक ने
कहा ः उसमें मैं क्या कर सकता हूं? मेरा क्या लेना-देना है? महल जल रहा है, मैं देख रहा हूं। लेकिन तेरा
तेरी लंगोटी से बहुत मोह है, बहुत
तादात्म्य है! लंगोटी क्या जल रही है, जैसे तू जल रहा है! महल जल रहा है, सो क्या हुआ? आज नहीं कल हम भी जल जाएंगे!
यह महल सदा तो रहने वाली तो कोई बात नहीं, कभी न कभी गिरेगा, कभी न कभी जलेगा। सो आज जल
रहा है। मैं देख रहा हूं। मैं साक्षी हूं। मैं गवाह हूं। लेकिन मेरा इससे कुछ
तादात्म्य नहीं है।
संन्यासी
को कहा ः यही मेरा संदेश है। इतना ही मेरा सूत्र है कि साक्षी रहो।
तो यह
भी हो सकता है कि महल में रहकर कोई साक्षी हो और झोंपड़े में रहकर कोई साक्षी न
रहे। इसलिए झोंपड़ों और महलों से भेद नहीं पड़ता। चित्त का रूपांतरण...।
जो
आदमी कहता है कि घर को छोड़ूंगा, दुकान
को छोड़ूंगा,
जंगल
जाऊंगा,
तभी
परमात्मा को पाऊंगा, वह
समझा ही नहीं। धर्म की बात अभी उससे बहुत दूर है। वह यह कह रहा है कि दुकान की वजह
से मैं उलझा हूं,
मकान
की वजह से मैं उलझा हूं, इनसे
छूट जाऊंगा तो छूट जाऊंगा। यह बात गलत है। दुकान तुम्हारे मन का विस्तार है; मन तुम्हारी दुकान का विस्तार
नहीं। यही मन लेकर जंगल में बैठ जाओगे, वहां भी किसी तरह का विस्तार कर लेंगे। यही
मन बीज लिए हुए है विस्तार के। यह जहां रहेगा वहीं विस्तार कर लेगा। इससे कुछ भेद
नहीं पड़ेगा। रंग-रूप बदल जाएंगे, ऊपर-ऊपर
की बदलाहट हो जाएगी, वस्त्र
और हो जाएंगे, लेकिन भीतर-भीतर सब वही रहेगा।
मैं
किस व्यक्ति को धार्मिक कहता हूं? मैं उस
व्यक्ति को धार्मिक कहता हूं जिसने इस कठोर बात को स्वीकार कर लिया कि मेरे
अतिरिक्त मेरे जीवन के लिए और कोई जिम्मेवार नहीं है। मेरा उत्तरदायित्व आत्यंतिक
है। इसलिए दुःखी हूं तो मैंने बोया है दुःख, फसल काट रहा हूं। सुखी हूं तो मैंने बोया है
सुख, फसल काट रहा हूं।
भागने
का प्रश्न नहीं है, जागने
का प्रश्न है।
अब
कहां मैं ढूंढने जाऊं सुकूं को ऐ खुदा?
इन
जमीनों में नहीं,
इन
आस्मानों में नहीं।
आदमी
ने सब तरफ खोज ली है शांति, कहां
मिलती है?
न जमीन
पर मिलती है न आसमान पर मिलती है। अब कहां जाएं? अब कहां खोजें? मगर एक जगह आदमी नहीं खोजता ः
भीतर नहीं खोजता। सारी जमीन छान लेता है, सारा आकाश भी छान डालेगा।
अब
कहां मैं ढूंढने जाऊं सुकूं ऐ खुदा?
इन
ज़मीनों में नहीं,
इन
आस्मानों में नहीं।
सुंदरदास
को सुनो--
है दिल
मैं दिलदार सही अंखियां उलटि कर ताहि चितइए
आब मैं
खाक मैं बाद मैं आतस जान मैं सुंदर जानि जनइए।।
और ऐसा
भी नहीं है कि सिर्फ भीतर ही है। मगर भीतर उसका साक्षात्कार पहले हो जाए तो फिर
बाहर सब जगह भी मिलता है। बाहर भी है, मगर बाहर तभी है जब भीतर जान लिया गया हो।
भीतर पहचान न हो तो बाहर पहचान नहीं होती। तुम लाख कहो कि वृक्ष में भी परमात्मा
है, जब तक तुम्हें अपने भीतर
अनुभव नहीं हुआ तुम्हें वृक्ष में परमात्मा का अनुभव नहीं हो सकता। कहना हो तो
कहो। अच्छा लगता हो तो दोहराते रहो। मगर जिसे स्वयं में अनुभव नहीं हुआ उसे कहीं
और अनुभव नहीं हो सकता। अनुभव की पहली चिंगारी स्वयं के भीतर उठनी चाहिए, क्योंकि वहीं से हम निकटतम
हैं परमात्मा के। अगर निकटतम में नहीं मिलता तो दूर में कहां मिलेगा? एक बार भीतर दिख जाए तो फिर
सब तरफ दिखने लगता है। जिसने अपने में पाया उसने फिर सब में पाया। फिर ऐसा ही नहीं
कि फिर मनुष्यों में ही दिखता है, पशु-पक्षियों
में भी दिखने लगता है। ऐसा ही नहीं कि पशु-पक्षियों में दिखता है, वृक्षों में भी दिखने लगता है, पत्थर-पहाड़ों में भी दिखने
लगता है। जैसे-जैसे भीतर पकड़ गहरी होती है, भीतर पहुंच गहरी होती है, वैसे-वैसे सारे अस्तित्व में
भी तुम्हारी आंख गहरी होने लगती है। एक ऐसी घड़ी आती है कि बाहर और भीतर का भेद मिट
जाता है। वही होता है। न कुछ बाहर है, न कुछ भीतर है।
अभी तो
भीतर चलना पड़ेगा। पहली यात्रा भीतर की। फिर सब मंदिर सच हो जाते हैं। फिर सब
मस्जिदें सच हो जाती हैं। फिर सब गुरुद्वारे सच हो जाते हैं। मगर पहले भीतर का
द्वार खुले। नहीं तो पटको सिर मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में, शिवालयों में, सिर भी घिसेगा, पत्थर भी घिसेंगे--और कुछ
परिणाम न होगा। एक बार भीतर का द्वार खोलो, वहां मंदिर खुल जाए तो मंदिर की सुवास सारे
जगत् में व्याप्त हो जाती है।
ये
तेरा तसव्वुर है या तेरी तमन्नाएं।
दिल
में कोई रह-रह के दीपक से जलाए है।।
जिस
सिम्त न दुनिया है, ऐ
दोस्त न उकबा है।
उस
सिम्त मुझे कोई खींचे लिए जाए है।।
भीतर
जाना होगा। वहां न यह दुनिया है न वह दुनिया है। वहां कुछ भी नहीं है। वहां शून्य
है। घबड़ाहट भी लगेगी, भय भी
होगा, क्योंकि बिल्कुल अकेले रह
जाओगे और बिल्कुल एकांत होगा। ऐसा एकांत घने से घने जंगल में नहीं होता। क्योंकि
वृक्ष होते हैं,
पशु-पक्षी
होते हैं,
संग-साथ
होता है। लेकिन अपने भीतर जब तुम जाओगे तब तुम पहली दफा वीरान में गए। वहां कोई भी
नहीं! और मजे की बात तो यह है, जैसे-जैसे
उतरोगे सीढ़ियां वैसे-वैसे पाओगे तुम भी कहां हो--एक शून्य है, एक विराट शून्य है!
ये
तेरा तसव्वुर है,
या
तेरी तमन्नाएं?
कौन
मुझे खींचे लिए जा रहा है! यह तेरी कल्पना है या तेरी अभीप्सा?
ये
तेरा तसव्वुर है या तेरी तमन्नाएं।
दिल
में कोई रह-रह के दीपक से जलाए है।।
जिस
सिम्त न दुनिया है, ऐ
दोस्त न उकबा है।
उस
सिम्त मुझे कोई खींचे लिए जाए है।।
वहां न
यह लोक न वह लोक,
न जमीन
न आसमान। वहां तो विराट शून्य है। उस तरफ जब तुम खिंचने लगोगे तब समझना जीवन में
धर्म का संस्पर्श हुआ; उस
पारस पत्थर का स्पर्श हुआ, जिसके
स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता है।
आब मैं
खाक मैं बाद मैं आतस जान मैं सुंदर जानि जनइए।
सुंदरदास
कहते हैंः मिट्टी में भी वही है, हवा
में भी वही है,
पानी
में भी वही है,
आग में
भी वही है। एक बार जानो अपने भीतर, फिर तुम जानोगे सब के भीतर वही है। और ऐसा
नहीं है कि तुम ही जानोगे; जिस
दिन तुम जानोगे उस दिन तुम दूसरों को भी जनाने लगोगे। तुम्हारी मौजूदगी जनाने
लगेगी। तुम एक प्रतीक हो जाओगे। तुम एक इशारे बन जाओगे। तुम एक आकर्षण बन जाओगे
लोगों के लिए। तुम्हें देखकर लोग अपने भीतर मुड़ने लगेंगे। तुम्हारे पास बैठकर शांत
होने लगेंगे। तुम्हारे पास बैठकर उनके भीतर भी दीए जगमगाने लगेंगे। दिल में कोई
रह-रह के दीपक से जलाए है।
नूर
मैं नूर है,
तेज
मैं तेज है,
ज्योति
मैं ज्योति मिलें,
मिलि
जइए।
क्या
कहिए कहते न बनै,
कछु जो
कहिए कहते ही लजइए।।
बड़ा
मधुसिक्त वचन है! नूर में नूर है। परमात्मा प्रकाश में प्रकाश है, तेज में तेज है। ज्योति में
ज्योति मिलें,
मिलि
जइए। और जब तुम्हारे भीतर, तुम्हारे
ध्यान की ज्योति उसकी विराट ज्योति में मिलने लगे तो डरना मत, भयभीत मत होना, खोने में संकोच मत कर जाना।
जैसे बूंद सागर में गिरती हो तो घबड़ाती तो होगी, भयभीत तो हो जाती होगी। प्राण
बड़े संकट में तो पड़ते होंगे, चिंता
तो उठती होगी--कि मैं खोयी, कि मैं
खोयी, कि शायद अब मैं कभी जैसी थी
वैसी न हो सकूंगी,
यह
मेरा रूप गया यह मेरा रंग गया, यह
मेरी परिधि गयी,
यह
मेरी परिभाषा गयी,
यह
मेरा नाम गया,
यह
मेरा धाम गया,
यह मैं
गयी।
ठीक
वैसी ही दशा जब भीतर तुम पहुंचोगे, तुम्हारे ध्यान की छोटी-सी ऊर्जा भीतर जाएगी
और उस विराट ऊर्जा का साक्षात्कार होगा, तो घबड़ाहट लगेगी। बहुत घबड़ाकर वापिस लौट आते
हैं। यहां तो रोज यह होता है। पहले लोग ध्यान की बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा करते हैं, बड़ी आकांक्षा से पूछते हैं
तांछते हैं,
साधना
करते हैं,
और जब
घटने के करीब बात आती है तो एकदम घबड़ा जाते हैं। एकदम घबड़ा जाते हैं! एकदम भाग खड़े
होते हैं। रोज उन्हें मैं कंपते देखता हूं, भयभीत देखता हूं, डरते देखता हूं। कहते हैंः अब
क्या करें,
कहीं
विक्षिप्त तो न हो जाएंगे? यह
कहीं मृत्यु तो नहीं हो जाएगी? मृत्यु
जैसी ही मालूम होती है, विक्षिप्तता
जैसी ही मालूम होती है।
यह
रास्ता तो दीवानों का है। यह रास्ता तो मर्दों का है। मरने की जिनकी हिम्मत है
केवल वे ही परम जीवन को पाने के अधिकारी हो पाते हैं।
तो जब
ज्योति विराट ज्योति के करीब पहुंचे और मिलने को आतुर हो जाएं तो भाग मत खड़े होना।
नूर
मैं नूर है तेज मैं तेज है ज्योति मैं ज्योति मिलें, मिलि जइए।
तो मिल
ही जाना--एक झपट्टे में, एक
छलांग में! संकोच न करना रत्ती-भर।
रवींद्रनाथ
की प्रसिद्ध कविता है कि मैं परमात्मा को खोजता था जन्मों-जन्मों से, अनंत-अनंत कालों से। रोता
फिरता था,
गिड़गिड़ाता
था कि प्रभु,
तू
कहां है?
मेरी
आंखें आंसुओं से भरी होती थीं और मेरा हृदय प्रार्थनाओं से। और मेरी आंसुओं से भरी
आंखों में कभी-कभी किसी दूर तारे के पास उसकी झलक मिल जाती थी, तो मैं दीवाना उस तारे की तरफ
चल पड़ता था। लेकिन जब तक मैं पहुंचता तारे तक, तब तक वह दूर निकल गया होता। मिलन नहीं हो
पाता था। फिर एक दिन ऐसा हुआ, वह
सौभाग्य की घड़ी आ गयी। मैं उस द्वार पर पहुंच गया, जो उसका द्वार है, उसकी तख्ती भी लगी थी। आनंद
की सीमा न रही। धन्यभागी था मैं।
.
. . तो आ
गया! तो मिल गयी मंजिल! . . . तो चढ़ा सीढ़ियां नाचता हुआ! हाथ में सांकल ली।
खटखटाने को था कि तभी मन में एक सवाल उठा कि सोच ले, विचार ले, अगर द्वार खुल गया और परमात्मा
मिल गया तो तू मिट जाएगा। तो फिर तू नहीं बचेगा। उसकी विराटता में तेरी क्षुद्रता
लीन हो जाएगी। उसके सागर में तू एक बूंद की तरह खो जाएगा। उसके सूरज में तेरी एक
किरण, कहां पता होगा, कहां ठिकाना होगा? सोच ले, एक बार सोच ले, इसके पहले कि द्वार खटखटा। और
फिर यह भी तो सोच कि परमात्मा मिल जाएगा तो फिर तू क्या करेगा? यही तो तेरा उपक्रम था अब तक
का। यही तो तेरा बहाना था जीने का, हीला-हवाला था। यही तो तेरी खोज थी। इसी खोज
के लिए तो तू जन्मों-जन्मों तक जिया। अगर परमात्मा मिल गया तो फिर क्या करेगा?
ये दो
प्रश्न कठिन थे कि रवींद्रनाथ ने कहा है कि मैंने धीरे से, आहिस्ता से सांकल छोड़ दी कि
कहीं बज ही न जाए। और जूते भी अपने हाथ में ले लिए कि कहीं उतरते वक्त सीढ़ियों पर
छू छरर मरर. . . आवाज न हो जाए, कहीं
पता न चल जाए कि कोई द्वार पर है, मेरे
बिना बजाए ही कहीं द्वार न खोल दिया जाए! और फिर जो मैं भागा हूं तो मैंने पीछे
लौट कर नहीं देखा। अब फिर खोजता हूं, फिर पूछता हूं मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में--परमात्मा
कहां है?
अब फिर
खोजता हूं द्वार-द्वार, दरवाजे-दरवाजे, भटकता हूं, चांदत्तारों पर। और मजा यह है
कि भीतर मुझे मालूम है कि कहां है। बस उस जगह को छोड़ कर सब जगह खोजता हूं।
खयाल
रखना, यह कविता ही नहीं, यह रवींद्रनाथ का आंतरिक
अनुभव है। यह ध्यानियों को होता है। ऐसी कविता सिर्फ कविता नहीं हो सकती। ऐसी
कविता तो जो समाधि के द्वार पर खड़ा हुआ हो, बूंद जिसकी सागर के किनारे जाकर खड़ी हो गयी
हो, उसके ही भीतर उमग सकती है। यह
गहरे अनुभव पर आधारित है।
इसलिए
रवींद्रनाथ साधारण कवि नहीं हैं। वे उसी कोटि के कवि हैं जिस कोटि के कवियों को हम
ऋषि कहते हैं--उपनिषद के ऋषि! उनकी कविताएं कविताएं नहीं हैं, ऋचाएं हैं।
घबड़ाना
मत, सुंदरदास कहते हैं। ज्योति से
ज्योति मिले! यही तो अभीप्सा है जन्मों-जन्मों की। तो जब यह घड़ी आए ज्योति में
ज्योति मिले,
मिलि
जइए!. . . तो मिल ही जाना।
सब तरफ
वही है। तुम में भी वही है, बाहर
भी वही है,
भीतर
भी वही है। इसलिए डरो मत। कौन मिटता है! कौन बनता है! सब बनाव उसका, मिटाव उसका। सब उसकी लहरें
हैं। सब उसकी तरंगें हैं।
रात को
तारों से दिन को ज़र्रा-हाए-खाक से।
कौन है, जिससे नहीं सुनते तेरा अफसाना
हम?
उसकी
ही कहानी है,
उसी की
दास्तान चल रही है। पक्षी उसी का गीत गा रहे हैं। वृक्षों की हरियाली में वही
हरियाली है। नदियों की तरंगों में वही तरंग है। हवाओं के नृत्य में वही नृत्य है।
क्षुद्र से क्षुद्र में भी वही है और विराट से विराट में भी वही है।
कौन है
जिससे नहीं सुनते तेरा अफसाना हम?
क्या
कहिए कहते न बने।
यह
अड़चन तब आती है जब ज्योति से ज्योति मिल जाती है। जब तक ज्योति से ज्योति नहीं
मिली, तब तक तो लोग परमात्मा के
संबंध में बड़ी आसानी से बातें कर लेते हैं। किसी से भी पूछ लो, पान बेचने वाले पंसारी से पूछ
लो--ईश्वर है?
उत्तर
देगा। कहेगाः है । या कहेगा नहीं है। राह चलते राहगीर से पूछ लो, उत्तर सुनिश्चित आएंगे। शायद
ही तुम ऐसा आदमी पा सको, जो कहे
मुझे मालूम नहीं। शायद ही। और वही एक ईमानदार है, बाकी सब बेईमान हैं। कोई कह
रहा है ईश्वर है और पता ज़रा भी नहीं है। और कोई कह रहा है ईश्वर नहीं है और पता
ज़रा भी नहीं है।
इसलिए
मैं तुम्हारे नास्तिकों और आस्तिकों में बहुत भेद नहीं करता। वे एक ही जैसे हैं।
वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों खुद धोखा खा रहे हैं, दूसरों को धोखा दे रहे हैं।
धार्मिक व्यक्ति कोई और ही बात है--न आस्तिक न नास्तिक; कोई और ही आयाम है--अनुभव का
आयाम है। विश्वास का नहीं, सिद्धांत
का नहीं! प्रतीति का, साक्षात्
का। साक्षात्कार तो तभी होता है जब ज्योति में ज्योति मिल जाती है।
क्या
कहिए कहते न बने।
फिर
बड़ी मुश्किल होती है।
क्या
कहिए कहते न बने,
कछु जो
कहिए कहते ही लजइए।
फिर
बड़ी मुश्किल हो जाती है। कहते भी नहीं बनता; ना कहो, ऐसे भी नहीं बनता। कहना भी पड़ता है। रुका भी
नहीं जाता। भीतर कोई प्रगाढ़ पुकार उठती है कि कहो। कहो, क्योंकि बहुतों को जरूरत है।
पुकारो,
क्योंकि
बहुत प्यासे हैं। ढालो, क्योंकि
बहुत-से लोग तड़फ रहे हैं। जगाओ क्योंकि बहुत-से लोग सोए हैं।
स्वाभाविक
रूप से आनंद को बांटने की आकांक्षा उठती है। बड़े प्रबल वेग से। तूफान की भांति! जो
संभाली नहीं जा सकती। नहीं कहते भी नहीं बनता, और कहते भी नहीं बनता। क्योंकि जो भी कहो वह
अनुभव के सामने छोटा पड़ता है। ओछा पड़ता है। जो भी कहो, अनुभव के सामने फीका पड़ता है।
जो भी कहो,
झूठा
मालूम पड़ता है। कहां अनुभव और कहां शब्द, कोई तालमेल नहीं मालूम पड़ता। जैसे शिखरों पर
घटी घटना को अंधेरी घाटियों में खींच लाए। जैसे कोई कमल को कीचड़ कहे, ऐसे ही सारे शब्द मालूम होते
हैं।
क्या
कहिए कहते न बने,
कछु जो
कहिए कहते ही लजइए।
इसलिए
जिन्होंने जाना है वे कह-कह कर लजाते रहे। वे कहते हैं और क्षमा मांगते हैं--कि
क्षमा कर देना,
क्योंकि
जो कहना था वह नहीं कहा जा सका, कुछ और
कह गए।
तुमने
देखा, नदी के किनारे जाकर कभी? एक सीधे डंडे को पानी में डाल
कर देखा?
पानी
में डालते ही तिरछा मालूम पड़ता है। बाहर निकालो, सीधा का सीधा। पानी में डालो, तिरछा। तिरछा हो नहीं जाता, दिखायी पड़ता है। ठीक ऐसे ही
सत्य जैसे ही शब्द की दुनिया में प्रवेश करता है, तिरछा हो जाता है। अनुभव की
दुनिया में बिल्कुल सीधा-साफ होता है, शब्द की दुनिया में बहुत तिरछा-आड़ा-टेढ़ा ही
जाता है। क्या है,
कहना
मुश्किल है। फिर जो भी कहो वह सिर्फ एक पहलू होता है।
देख
शमशीर है ये साज है ये जाम है ये।
तू जो
शमशीर उठा ले तो बड़ा काम है ये।।
बहुत
मुश्किल है। यह शमशीर भी है। अगर एक तरफ से देखो तो सत्य तलवार है। ऐसी धार किस
तलवार में होती है? सूक्ष्म
से सूक्ष्म को काट जाता है।
देख
शमशीर है ये,
साज है
ये . . .
और
तलवार की धार ही होती तो कह देते, मगर यह
ऐसा है जैसे वीणा पर किसी ने तार छेड़े हों। यह संगीत नाद है, स्वर है--ऐसा स्वर, जो केवल गहन शांति में ही
सुना जा सकता है। यह निस्तब्धता का स्वर है।. . . जाम है ये। स्वर ही होता तो भी
चल जाता कि चलो कह देते, कि
अनाहद नाद है,
बात
खत्म हो गयी। मगर यह एक मदहोशी भी है--कि जिसने पी, फिर कभी वापिस दुनिया के होश
में न आया,
फिर
वापिस कभी उसे दुनिया न दिखायी पड़ी। जिसने एक बार पी ली कि सदा के लिए बेहोश हो
गया। और अगर इतनी ही बात होती तो भी काम चल जाता, तो उमरखय्याम ने कह दी थी बात
कि शराब है यह। मगर यह शराब भी बड़ी अजीब है। एक तरफ से तो बेहोशी ले आती है और एक
तरफ से बड़ा होश ले आती है। यह एक ऐसी बेहोशी है जिसके केंद्र में होश है। मुश्किल
पर मुश्किल है। जो कहो वही थोड़ा मालूम पड़ता है।
देख शमशीर
है ये,
साज है
ये, जाम है ये।।
तू जो
शमशीर उठा ले तो बड़ा काम है ये।।
मगर
कहीं से तो शुरू करना पड़ेगा। तो कहते हैं, उठा, तलवार ही उठा। पहले अपनी गर्दन को ही गिरा।
कबीर ने कहा है--जो घर बारे आपनो चले हमारे संग। चल, घर को जला! किस बात को घर
कहते हैं?
सूफी
फकीर बायज़ीद ने कहा है ः डर है तो घर है। डर छूटा, घर छूटा! बड़ी गहरी बात कही
है। तुम घर बसाते किसलिए हो? अगर
गौर से खोजोगे तो डर को पाओगे। डर है तो घर है। डर छूटा तो घर छूटा। डर को जला ही
देना होगा।
तू जो
शमशीर उठा ले तो बड़ा काम है ये।
मगर
फिर बहुत और बातें रह गयी हैं बिना कही--देख शमशीर है ये, साज है ये, जाम है ये। और यह भी सब नहीं
है, और हजार बातें हैं। सत्य सब
कुछ है,
क्योंकि
सत्य इस सारे जगत् का केंद्र है। यह सारा जगत् उसी की अभिव्यक्ति है। प्रकाश भी
वही, अंधकार भी वही। पास भी वही, दूर भी वही। पुरुष भी वही
स्त्री भी वही। सुख भी वही दुःख भी वही।स्वर्ग भी वही, नरक भी वही। कैसे कहो उसे?
क्या
कहिए कहते न बने,
कछु जो
कहिए कहते ही लजइए।
तासौं
कहूं सब मैं वह एक तौ सो कहै कैसो है, आंखि दिखइए।।
अगर
मैं कहूं कि वह सब में छिपा हुआ एक है, उस एक का ही विस्तार है, वह एक ही सब के भीतर बैठा
है--तो लोग पूछते हैं कि ज़रा दिखाइए, कहां है? जब सब के ही भीतर बैठा है तो कहीं से भी
दिखा दीजिए।
तासौं
कहूं सब मैं वह एक तौ सो कहे कैसो है आंखि दिखइए।
लोग
कहते हैं ः तो फिर तो आंख से दिखा दो। जब सब में वही एक बैठा है तो ऐसी अड़चन क्या
है? दिखा ही दो, दर्शन करवा दो।
और
दर्शन उसके करवाए नहीं जा सकते!
जौ
कहूं रूप न रेख तिसै कछु तो सब झूठ कैं मानें कहइए।
अगर
मैं लोगों को कहूं कि भई कैसे दिखाऊं , उसका न कोई रूप है न कोई रेख है, तो लोग कहते हैं कि यह भी खूब
झूठी मान्यता फैला रहे हो! पहले कहते हो सब में वही है, सब कुछ वही; वही है, और सब असत्य है--और जब हम
पूछते हैं दिखा दो, तो
कहते हो कि न तो उसका रूप है, न रंग
है, न रेख है, तो तुमको कैसे दिखाई पड़ा? कहते हो सभी आकारों में वही
है और जब हम पूछते हैं दिखा दो आकर, तो कहने लगते हो निराकार है। तो ये सब बातें
तो झूठी मालूम पड़ती हैं। लोग कहते हैं, क्यों झूठी बातें फैलाते हो?
जौ
कहूं सुंदर नैननि मांझि. . . और अगर मैं यह कहूं आंख के बाहर नहीं है, आंख के भीतर है। जौ कहूं
सुंदर नैननि मांझि तो नैनहूं बैन गए पुनि हइए। तो जिनकी आंखें चली जाती हैं, उनमें भी तो मौजूद होता है।
सूरदास में कुछ कम थोड़े ही था कबीरदास से; उतना ही था। आंख के चले जाने पर भी तो वह
पाया जाता है। कान के न होने पर भी तो पाया जाता है। हाथ के टूट जाने पर भी तो
पाया जाता है। देह के गिर जाने पर भी तो पाया जाता है। तो कहां उसे दिखाएं? कैसे उसे समझाएं? क्या कहिए कहते न बने कछु जो
कहिए कहते ही लजइए।
सुंदरदास
कहते हैं,
इसलिए
बड़ी मुसीबत हो गयी है। जब से ज्योति से ज्योति मिली है, तब से कहना कठिन हो गया है।
जो कहते हैं वही गलत मालूम होता है। उसी में उलझनें उठ आती हैं। और फिर बड़ी लज्जा
होती है कि उसकी इतनी कृपा, उसकी
अनुकंपा इतनी विराट और हम उसे कहने में भी असमर्थ! तो बड़ी लज्जा होती है।
प्रीति
की रीति नहीं कछु राखत जाति न पांति नहीं कुल गारो।
और
उससे जो प्रेम की घटना घटती है उसकी कोई रीति नहीं है। लोग कहते हैं, चलो छोड़ो, नहीं बता सकते परमात्मा को तो
कम से कम रीति बता दो, कि हम
उसे कैसे जान लें?
विधि-विधान, कोई तकनीक, कोई उपाय।
प्रीति
की रीति नहीं कछु राखत, जाति न
पांति नहीं कुल गारो।
और
मुश्किल है। प्रेम के पथिक की तो और भी मुश्किल है। क्योंकि प्रेम की कोई रीति
नहीं होती। प्रेम तो सब रीतियों से मुक्त है। और जहां जितनी रीति होती है उतना ही
प्रेम मर जाता है। प्रेम तो रीति-मुक्त है। प्रेम की कोई मर्यादा नहीं है, कोई व्यवस्था नहीं। प्रेम तो
परम स्वतंत्रता है।
प्रीति
की रीति नहीं कछु . . .। इसीलिए तो तुम्हारी सारी प्रार्थनाएं झूठी हो गयी हैं, क्योंकि तुमने उनको रीति बना
लिया है। बैठे परमात्मा के सामने, तुम
तोतों की भांति,
रटे
हुए स्वर दोहराते हो। यह कोई प्रेम हुआ? हृदय के भाव उठने दो। जो आज इस क्षण
तुम्हारे हृदय में उमगा है, भाव
वही चढ़ाओ। कोई बंधी-बंधायी लीक मत पीटो। यह तो तुमने कल भी कहा था। यह तो तुमने
परसों भी कहा था। इस कहने में अब कुछ अर्थ नहीं रहा है। तुमने इसे इतना दोहराया है
कि तुम इसे नींद में भी दोहरा सकते हो। इसमें कोई अर्थ नहीं रहा है। यह अर्थहीन हो
गया है।
ध्यान
रखना, जिस चीज को तुम जितनी बार
दोहरा लेते हो,
उतना
ही अर्थहीन हो जाता है। इसलिए मैं मंत्रों के बहुत पक्ष में नहीं हूं कि लोग बैठे
राम-राम-राम- राम-राम-राम जपते रहते हैं। राम व्यर्थ हो गए। राम में कुछ अर्थ ही
नहीं बचता। इतनी बकवास तुमने राम-राम राम-राम की कर दी कि उसमें अर्थ कैसे रह सकता
है? एक बार भी भाव से कहा जाए तो
पर्याप्त है। बिना भाव के दोहरा रहे हो यंत्रवत, इससे कुछ हल नहीं होगा।
प्रीति
की रीति नहीं कछु राखत न जाति न पांति नहीं कुल गारौ।
न तो
वहां कोई भेद है कि कौन पहुंचेगा, कि
ब्राह्मण पहुंच सकता है कि शूद्र नहीं पहुंच सकता है, कि कुलीन पहुंच सकते हैं, अकुलीन नहीं पहुंच सकते हैं।
न इस बात का भेद है कि चरित्रवान पहुंच सकते हैं और चरित्रहीन नहीं पहुंच सकते। न
इस बात का भेद है कि पुण्यात्मा पहुंच सकते हैं और पापी नहीं पहुंच सकते। पापी भी
पहुंच गए हैं। बाल्या भील पहुंच गया। बड़े-बड़े पुण्यात्माओं को पीछे ढकेल कर पहुंच
गया। और मरा-मरा जप कर पहुंच गया। राम-राम भूल ही गया। सीधा-सादा आदमी था।
बे-पढ़ा-लिखा था। मंत्र उल्टा-सुल्टा हो गया तो भी पहुंच गया। मंत्र से कोई संबंध
ही नहीं है। यही अर्थ है इस कहानी में बाल्या भील की, कि राम-राम की जगह भूल ही
गया। मरा-मरा जपने लगा, उल्टा
कर लिया सब,
विधि उल्टी
हो गयी,
फिर भी
पहुंच गया। क्योंकि विधियों की गिनती नहीं की जाती--प्रेम का सवाल है। और न मालूम
कितने पंडित उन दिनों में राम-राम जपते रहे होंगे और नहीं पहुंचे। यह बाल्या कैसे
पहुंच गया?
यह
भाव-प्रवण रहा होगा। इसके भीतर एक निर्दोषता रही होगी।
प्रेम
कै नेम कहूं नहिं दीसत, लाज न
कानि लग्यौ सब खारो।
और
प्रेम के कहीं कोई नियम कहीं दिखायी नहीं पड़ते। प्रेम मर्यादा-मुक्त है। प्रेम राम
जैसा नहीं है,
प्रेम
कृष्ण जैसा है। राम व्यवस्था हैं, मर्यादा
हैं, नीति-नियम हैं। कृष्ण मर्यादा
से मुक्ति हैं--प्रेम हैं, ज्वलंत
प्रेम हैं। न कोई नियम है, न कोई
व्यवस्था है। इसलिए हमने हिम्मत की, इस देश ने अकेले हिम्मत की इस बात की, कि कृष्ण को पूर्णावतार कहा, राम को अंशावतार कहा। कितना
ही सुंदर चरित्र हो, कितना
ही पुण्यवान चरित्र हो, अगर
तुमने प्रेम की मर्यादाशून्य अवस्था नहीं पायी, तो तुम अंश-रूप में ही पहुंचे हो, पूरे रूप में नहीं पहुंचे। तो
तुमने छोटा आंगन,
साफ-सुथरा
आंगन पा लिया है,
लेकिन
विराट आकाश नहीं पाया है।
राम
सुंदर हैं। उनके शील में क्या भूल निकाल सकोगे ? कृष्ण में भूलें ही भूलें
हैं। उनमें ठीक खोजने चलोगे तो ज़रा मुश्किल पड़ेगी। लेकिन फिर भी हमने हिम्मत की और
कृष्ण को पूर्णावतार कहा--सिर्फ एक कारण से, कि प्रेम ही पूर्णता में ले जाता है।
क्योंकि प्रेम ही इतनी हिम्मत देता है कि ज्योति में ज्योति मिले, मिलि जाइए।
राम तो
अगर परमात्मा के सामने खड़े होंगे तो भी मर्यादा का ध्यान रखेंगे--कैसे खड़े हों
कैसे बैठें,
क्या
कहें क्या न कहें,
क्या
उचित है क्या अनुचित है। कृष्ण नाचते हुए डूब जाएंगे और शायद कृष्ण को नाचते हुए
डूबना भी न पड़े;
कृष्ण
नाचते रहें,
परमात्मा
उनमें डूब जाए,
परमात्मा
को उनमें डूबना पड़े।
सुंदरदास
कहते हैंः लाज न कानि लग्यो सब खारो।
प्रेम
के जगत् में तो मर्यादा इत्यादि सब खारी बातें हैं, व्यर्थ की बातें हैं, इनमें कुछ मिठास नहीं!
लीन
भयो हरि सौं अभिअंतर आठहुं जाम रहो मतवारौ।
लीन
भयो हरि सौं अभिअंतर आठहुं जाम रहयो मतवारौ।
आठों
पहर जो उसमें डूब गया है, वह
मस्त रहता है,
मस्ती
में रहता है। पियक्कड़ की मस्ती है उसकी। शराबी की मस्ती है उसकी। सूफियों ने इसी
कारण परमात्मा की प्रार्थना को शराब कहा है। सूफियों ने इसी कारण उसके असली
मंदिरों को मधुशाला कहा है।
सहर तक
चांद मेरे सामने रखता है अक्स उनका,
सितारे
शब को मेरे साथ उनका नाम लेते हैं।
ये
सुनकर हमने मैखाने में अपना नाम लिखवाया,
जो
मैकश लड़खड़ाता है वो बाजू थाम लेते हैं।
यह
सुनकर हमने मैखाने में अपना नाम लिखवाया. . . सम्मिलित हो गए मधुशाला में!
यह
सुनकर हमने मैखाने में अपना नाम लिखवाया,
जो
मैकश लड़खड़ाता है वो बाजू थाम लेते हैं।
उसके
प्रेम में जो लड़खड़ाता है, संभाल
लिया जाता है। मर्यादा-व्यवस्था से चलने वाला आदमी लड़खड़ाता ही नहीं, परमात्मा को संभालने का मौका
ही नहीं देता।
इसे
ज़रा खयाल रखना। पुण्यात्मा का एक अहंकार होता है। नीति से चलनेवाले व्यक्ति की एक
अस्मिता होती है। चरित्रवान का एक बड़ा सूक्ष्म अहंभाव होता है। वह परमात्मा को
संभालने का मौका ही नहीं देता! खुद ही संभल कर चलता है। लेकिन उसके प्यारे, जिन्हें उस पर भरोसा है, लड़खड़ाते हैं। सारी मर्यादा, नीतिनियम छोड़कर प्रेम में
डुबकी लगाते हैं।
हदूदे-कूचा-ए-महबूब
है वहीं से शुरू।
जहां
से पड़ने लगें पांव डगमगाए हुए।।
ध्यान
रखना, जब तक पैर डगमगाए न उसके
प्रेम में तब तक समझना कि अभी प्रेमी की गली आई नहीं।
हदूदे-कूचा-ए-महबूब
है वहीं से शुरू।
प्रेमी
की गली वहीं से शुरू होती है--
जहां
से पड़ने लगें पांव डगमगाए हुए।।
--जहां तुम अपने बस में न रहो।
जहां तुम अवश हो जाओ। जहां वह रुलाए तो रोओ, वह जगाए तो जागो, वह सुलाए तो सो जाओ। जहां वह
चलाए तो चलो। वह कराए कुछ तो करो, न कराए
तो न करो। जहां सब उस पर छोड़ दिया जाता है--वहां कैसा नियम, वहां कैसी विधि, वहां कैसी रीति? यह परम रीति है प्रेम की। यह
परम विधि है प्रेम की।
जो इस
परम विधि का साहस नहीं कर पाते हैं उनके लिए फिर छोटी-छोटी विधियां निकाली गयी
हैं--योग इत्यादि,
तंत्र-मंत्र
इत्यादि,
यंत्र.
. .। उनके लिए बहुत विधियां निकाली गयी हैं। लेकिन वे वे ही लोग हैं, जो प्रेम की परम विधि, विधिमुक्त विधि से अपने को
जोड़ने में समर्थ नहीं हैं।
कौन
कौसर मुसाफ़त तै करे।
मैकदा
फिरदौस से नजदीक है।।
कौन
इंतजार करे कि स्वर्ग में शराब के चश्मे बहते हैं और वहां तक की कौन सफ़र करे, उतना लंबा कौन जाए!
कौन
कौसर तक मुसाफ़त तै करे।
मैकदा
फिरदौस से नजदीक है।।
कौन
स्वर्ग की बकवास में पड़े! मधुशाला यहीं है, करीब है। मधुशाला तुम्हारे भीतर है। लड़खड़ाओ
ज़रा। अपने को बहुत संभाले-संभाले जी लिए, अब ज़रा उसको संभालने दो । छोड़ो उस पर।
समर्पण सूत्र है।
मैं
मैकदे की राह से होकर गुज़र गया
वर्ना
सफ़र हयात का काफी तबील था
और जो
उसके प्रेम की मस्ती और उसके प्रेम की शराब को पी लिए, उनके लिए रास्ता बिल्कुल छोटा
हो गया,
शून्य
हो गया,
न हो
गया, रिक्त हो गया, बचा ही नहीं। एक क्षण में
पूरा हो गया। जो उसके प्रेम की मस्ती में न डूबे, उनका रास्ता बड़ा लंबा है। फिर
भी वे कभी पहुंचेंगे, यह
संदिग्ध है। प्रेमी बिना चले पहुंच जाता है। प्रेम-शून्य व्यक्ति चलता ही रहे, चलता ही रहे, तो भी नहीं पहुंचता है।
मुझे
उठाने को आया है वाइजे-जानां
जो उठा
सके तो मेरा सागरे-शराब उठा
किधर
से बर्क चमकती है देखें ऐ वाइज!
मैं
अपना जाम उठाता हूं तू अपनी किताब उठा।
मुझे
उठाने को आया है वाइजे-जानां! वह जो समझदार है, पंडित है, उपदेशक है, धर्मगुरु है, वह मुझे उठाने आया है शराब घर
से कि उठो यहां से। यहां भी आ जाते हैं पंडित शराबियों को उठाने कि उठो यहां से, यहां कहां आ गए!
जो उठा
सके तो मेरा सागरे-शराब उठा
लेकिन
प्रेमी कहता है ः मुझे उठाने के पहले अगर कुछ उठाना ही है तो मेरा यह शराब का
प्याला उठा। तू भी उठा। तू भी चख थोड़ा। मुझसे कुछ कहे, इसके पहले तू भी कुछ चख थोड़ा।
और फिर अगर प्रमाण ही पूछना है तो परमात्मा को प्रमाण देने दे।
किधर
से बर्क़ चमकती है देखें ऐ वाइज़!
ऐ
धर्मगुरु! तो कहां से रोशनी उठती है और कहां से बिजली चमकती है, यह हम देख ही लें।
मैं
अपना जाम उठाता हूं, तू
अपनी किताब उठा।
तू उठा
अपना कुरान,
तू उठा
अपनी गीता। मैं अपना जाम उठाता हूं। मैं अपनी मस्ती से पुकारता हूं। मैं अपने
प्रेम से पुकारता हूं। तू दोहरा अपने रटे हुए पाठ और देखें कहां से बर्क़ चमकती है।
देखें किस ओर से परमात्मा की रोशनी आती है। सदा प्रेमीओं की तरफ से आयी है। उन्हीं
की तरफ से,
जिन्होंने
उसकी मस्ती में पीना सीखा है।
ठीक
कहते हैं सुंदरदास ः
प्रीति
की रीति नहीं कछु राखत जाति न पांति नहीं कुल गारौ।
प्रेम
कै नेम कहूं नहिं दीसत लाज न कानि लग्यो सब खारौ।।
लीन
भयो हरि सौं अभि अंतर आठहुं जाम रहयो मतवारौ।
सुंदर
कोऊ न जान सके यह गोकुल गांव को पैंडो ही न्यारौ।।
यह जो
गोकुल के गांव का रास्ता है, यह बड़ा
न्यारा है। सुंदर कोऊ न जान सके यह. . .। यह जानने की बात नहीं है। यह अनुभव करने
की बात है कि यह गोकुल का रास्ता बड़ा न्यारा है। यहां नियम नहीं, विधि नहीं, व्यवस्था नहीं। यहां वर्ण
नहीं, यहां ब्राह्मण-शूद्र नहीं, यहां पापी-पुण्यात्मा नहीं।
सुंदर
कोऊ न जान सके यह गोकुल गांव को पैंडो ही न्यारौ।
यह
रास्ता ही बहुत न्यारा है। यह मतवालों का है, दीवानों का है।
समझना
तेरा कोई आसां है ज़ालिम!
ये
क्या कम है खुद आश्ना हो गए हम।।
भटक कर
पड़े रहजनों के जो हाथों।
लुटे
इस कदर रहनुमा हो गए हम।।
ज़ुनूने
खुदी का यह ऐनाज़ देखो।
कि जब
मौज़ आयी खुदा हो गए हम।।
मुहब्बत
ने उम्रे-अबद हमको बख्शी।
मगर सब
ये समझे फ़ना हो गए हम।।
लोग तो
समझते हैं कि प्रेमी मिट गया, मर
गया।
मुहब्बत
ने उम्रे-अबद हमको बख्शी।
लेकिन
प्रेम तो अमरता देता है।
प्रेम
की मृत्यु अमरता का द्वार है।
मुहब्बत
ने उम्रे-अबद हमको बख्शी।
मगर सब
ये समझे फ़ना हो गए हम।।
लोग
यही समझे कि बरबाद हो गए कि पागल हो गए, कि दीवाने हो गए। और प्रेमी ने सब पा लिया
जो भी पाने-योग्य है। प्रेमी ही पाता है। प्रेमी धन्यभागी है। उससे बड़ा और
धन्यभागी कोई भी नहीं है।
द्वंद्व
बिना विचरे वसुधा परि जा घट आतम ज्ञान अपारो।
और
जिसको छू लेता है उसका प्रेम, उसके
सारे द्वंद्व मिट जाते हैं
द्वंद्व
बिना विचरे वसुधा परि जा घट आतम ज्ञान अपारो।
और
उसमें आत्मज्ञान की अपारता प्रकट हो जाती है।
हे पवित्र
छू दिया आज तुमने
पवित्र हो गए प्राण
निष्कलुष शब्द
निष्कलुष छंद
निष्कलुश गान अब बने रहें
ऐसा वर दो
मैं कभी नहीं
नीचे उतरूं इन श्रृंगों से
ऐसा कर दो!
एक बार
स्पर्श हो जाता है तो बस फिर एक ही पुकार उठती रहती है।
हे पवित्र
छू दिया आज तुमने
पवित्र हो गए प्राण
निष्कलुश शब्द,
निष्कलुष छंद
निष्कलुष गान अब बने रहें
ऐसा वर दो
मैं कभी नहीं
नीचे उतरूं इन श्रृंगों से
ऐसा कर दो!
पर ऐसा
हो ही जाता है। प्रेमी की सारी अभीप्सा पूरी हो जाती है।
काम न
क्रोध न लोभ न मोह न राग न रोष न म्हारौ न थारौ।
ज्ञानी
छोड़-छोड़ कर नहीं छोड़ पाता और भक्त का यूं चला जाता है, जैसे सुबह सूरज उगे और ओस के
कण विलीन हो जाएं।
द्वंद्व
बिना विचरे वसुधा परि जा घट आतम ज्ञान अपारौ।
काम न
क्रोध न लोभ न मोह न राग न दोष न म्हारौ न थारौ।।
न फिर
कुछ मेरा,
न फिर
कुछ तेरा। न काम न क्रोध न लोभ न मोह. . . ये सब छोड़ने नहीं पड़ते भक्त को। भक्त को
तो सिर्फ एक ही हिम्मत करनी पड़ती हैः ज्योति में ज्योति मिले, मिलि जाइए। बस इतना। इतना कि
उसके इस न्यारे नियम-रहित, विधि-रहित
मार्ग पर चलने का सामर्थ्य। अपने को गंवाने की हिम्मत। इतना किया कि सब अपने से
होता है। इस भेद को खयाल में ले लेना। योग के मार्ग पर यह सब करना पड़ता है तब
परमात्मा मिलता है। भक्ति के मार्ग पर परमात्मा मिलता है और ये सब बातें अपने से
हो जाती हैं।
योग न
भोग न त्याग न संग्रह देहदशा ढक्यो न उघारौ।
भक्त
को यह सब अनायास होता है। इनकी कोई साधना नहीं करनी पड़ती--न योग न भोग, न त्याग न संग्रह--देहदशा न
ढक्यो न उघारौ। न तो उसे विशेष आयोजन करने पड़ते हैं, जीवन की व्यवस्था ढालनी पड़ती
है; न विशेष अनुशासन अपने जीवन पर
लादना पड़ता है। न तो नग्न रहने की जरूरत है उसे।
सुंदर
कोऊ न जान सकै यह गोकुल गांव को पैंडो ही न्यारौ।
कैफे-खुदी
ने मौज को कश्ती बना दिया
फिक्रे-खुदा
है अब न ग़मे-नाखुदा मुझे
कैफे
खुदी ने मौज को कश्ती बना दिया
तूफान
ही कश्ती बन जाती है--एक दफा अपने को विस्मृत करने की क्षमता हो; एक बार अपनी आत्मा को मदमस्त
करने की क्षमता हो।
कैफे-खुदी
ने मौज को कश्ती बना दिया
फिक्रे-खुदा
है अब न ग़मे-नाखुदा मुझे
अब कोई
चिंता नहीं। अब मांझी की कोई जरूरत नहीं। अब परमात्मा की भी कोई जरूरत नहीं , क्योंकि वही है। तूफान की लहर
में भी वही है। अब नाव की भी कोई जरूरत नहीं। अब पार जाने की भी कोई जरूरत नहीं।
डुबा दे जहां,
वहीं
किनारा है। बस एक छोटी-सी चीज भक्त को छोड़नी पड़ती है--छोटी है, लेकिन बड़ी भी बहुत; ऐसे तो नाकुछ, ऐसे वही सब कुछ--अहंकार-भाव।
तसव्वुर
आपका अहसास अपना,
हमरही
दिल की।
मुहब्बत
की इस तक़सीम ने मंजिल से बहकाया।।
यह
ज़रा-सा भी मैं-भाव रह जाए--मेरी प्रार्थना, मेरी पूजा, मेरा परमात्मा--ज़रा-सा भी
मैं-भाव रह जाए,
तो बस
पर्याप्त है उपद्रव के लिए, भटका
रखने के लिए काफी है। कुछ भी न बचे। प्रार्थना भी उसकी। पूजा भी उसकी। आराध्य भी
वही, आराधक भी वही। वही बैठा
मूर्ति में,
वही
नाच रहा भक्त में। नाचते-नाचते रामकृष्ण, भगवान् का भोग लगाते-लगाते खुद को भी भोग
लगा लेते थे। ऐसी मस्ती, ऐसा
एकात्म-भाव! भूल ही जाते कौन कौन है--कौन भक्त कौन भगवान्! जहां ऐसा अपूर्व घटता
है, उस अपूर्व की सूचना दे रहे
हैं सुंदरदास-- सुंदर कोऊ न जानि सकै यह गोकुल गांव को पैंडो ही न्यारौ!
सुंदर
सद्गुरु यौं कहया सकल सिरोमनि नाम।
उसकी
याद करो। उसे पुकारो। बस यही साधना का सबसे ऊंचा शिखर है।
सुंदर
सद्गुरु यौं कहया सकल सिरोमनि नाम।
जैसे
पुकार सको,
जो नाम
प्यारा लगे,
जिस
दिशा में सिर झुकाना हो, जिस
भाषा में पुकारना हो, बोलकर
तो बोलकर,
चुप
रहकर तो चुप रहकर--मगर यही बात एक खयाल रखने की है ः पुकारो!
अंगारिका
आंख का गुलमुहर
रोएंदार
परछाइयों की चपेट
दिया-बातियों
की कातर कुबेला
फोड़कता
यकायक पांखि अकेला. . .
तुम
कहां?
तुम
कहां?
पूछो!
पुकारो! तुम कहां?
तुम
कहां? जैसा पपीहा पुकारता है अपने
प्यारे को--पी कहां!--ऐसे ही तुम पुकारो। बस इतनी ही विधि है, इतना ही नियम है।
ताकौं
निसदिन सुमरिए,
सुखसागर
सुखधाम।
उसका
स्मरण बने,
तुम्हारी
श्वास-श्वास में रम जाए, तुम्हारी
धड़कन-धड़कन में रम जाए। उठो-बैठो, चलो-फिरो, वह न भूले।
रामनाम
बिन लैन को और बस्तु कहि कौन।
राम-नाम
के बिना और इस जगत् में कमाने-योग्य कोई भी वस्तु नहीं है।
सुंदर
जप तप दान व्रत,
लागे
खारे लौन।
बाकी
सब जप,
तप, व्रत सब खारे लगते हैं, जैसे नमक खारा लगता है। मिठास
नहीं है। मैं भी तुमसे यही कहता हूंः माधुर्य नहीं है तुम्हारे तथाकथित जप, तप, व्रत में। मधुरिमा नहीं है, मिठास नहीं है। सब खारा-खारा
है। खारा क्यों है? अहंकार
की अकड़ के कारण--मैंने इतना उपवास किया, इतना व्रत किया। अकड़ आती है। भक्त क्या कहे? आंसू गिराए हैं उसने; और क्या किया है? यह भी कुछ खास तो करना नहीं।
रोया है;
और तो
कुछ नहीं किया। पुकारा है; और तो
कुछ नहीं किया।
भक्त
की आंख से गिरते आंसू धीरे-धीरे उसके अहंकार को गलाकर बहा ले जाते हैं। उसकी पुकार
पुकारते-पुकारते ऐसी सघन हो जाती है कि पहुंच जगत् के अंतस्तल तक, भेद देती है सारे अस्तित्व को, सारे रूप को भेद कर अरूप तक
पहुंच जाती है! आकार को छेद कर तीर की तरह निराकार के केंद्र तक पहुंच जाती है।
रामनाम-पीयुष
तजि, विष पीवै मतिहीन।
खारी
चीजों में उलझे हो, व्यर्थ
की चीजों में उलझे हो। अहंकार का जहर पी रहे हो। नाम चाहे साधना देते हो, तपश्चर्या कहो--मगर अहंकार का
विष पी रहे हो।
रामनाम-पियुष
तजि. . .। जबकि अमृत उपलब्ध है। अमृत सुगम है। सहज है, सरल है। साधो, सहज समाधि भली!
सुंदर
डोले भटकते,
जन जन
आगे दीन।
और इसी
कारण भीख मांगते फिर रहे हो। हर किसी के सामने हाथ फैलाए हो। हाथ ही फैलाने हों तो
उस एक मालिक के सामने फैला दो।
कहानी
मुझे प्रीतिकर है,
मैंने
बहुत बार कही है। फरीद को उसके गांव के लोगों ने कहा, अकबर से प्रार्थना करो कि
गांव में एक मदरसा खोल दे। फरीद के पास अकबर आता था। फरीद एक सूफी फकीर हुआ। फरीद
ने कहा,
ठीक।
फरीद गया राजमहल। सुबह ही सुबह पहुंचा। उसे ले जाया गया महल के भीतर। सम्राट् तब
प्रार्थना कर रहा था। उसके हाथ इबादत में उठे थे। तो फरीद पीछे खड़ा हो कर सुनता
रहा कि क्या प्रार्थना कर रहा है अकबर। अकबर ने प्रार्थना खत्म करते समय कहा ः हे
प्रभु,
हे
परमात्मा,
हे
परवरदिगार! मेरे धन को और बढ़ा, मेरी
दौलत को और बड़ा कर! मेरे राज्य की सीमाओं को विस्तीर्णता दे।
फरीद
उल्टे पांव लौट पड़ा। अकबर की प्रार्थना पूरी करके जैसे ही अकबर उठा, फरीद को उसने सीढ़ियां उतरते
देखा। भागा। फरीद के प्रति उसको बड़ा आदर था। पैर पकड़ लिए। और कहाः आए, पहली दफा आए और कैसे चले? कैसे आना हुआ?
फरीद
ने कहा,
भूल हो
गयी, व्यर्थ आना हुआ। मैं तो सोचता
था सम्राट् के पास पास जा रहा हूं, लेकिन यहां भी एक भिखमंगा पाया। गांव के
लोगों ने कहा था मदरसा के लिए मांग कर दो, तो मैंने कहा ठीक। आया था मांगने कि गांव
में एक मदरसा खोल दो, मगर अब
क्या मांगू! अभी तो तेरी मांग ही पूरी नहीं हुई है। यह मदरसा थोड़े तेरे साम्राज्य
को और कम कर देगा,
थोड़ा
पैसा तेरा और कम हो जाएगा। नहीं-नहीं, यह मैं न करूंगा। यह बात ख़त्म हो गयी। मुझे
जाने दो।
सम्राट
ने कहा ऐसा न करो। मदरसा खोल दूंगा, एक नहीं दस खोल दूंगा।
लेकिन
फरीद ने कहा,
अब
तुझसे न मांगूंगा। तू जिससे मांग रहा था, अगर मांगना होगा तो हम भी उसी से मांग
लेंगे।
जगह-जगह
हम हाथ फैलाए हैं। उस एक के सामने हाथ फैला दो!
वो खुद
अता करे तो जहन्नुम भी बहिष्त।
मांगी
हुई निज़ात मेरे काम की नहीं।।
और सच
तो यह है कि भक्त उससे भी नहीं मांगता। भक्त मांगता ही नहीं। भक्त तो अपने को
समर्पित कर देता है। निजात उसे मिलती है। स्वर्ग उसे मिलता है। आनंद की उस पर
वर्षा होती है।
वो खुद
अता करे तो जहन्नुम भी बहिष्त।
मांगी
हुई निजात मेरे काम की नहीं।।
मांगकर
भी क्या मांगना! बिना मांगे मिले तो मूल्य है। मांगने में ही बात खत्म हो गयी।
मांगने में ही हम भिखमंगे हो गए, मंगते
हो गए। बिना मांगे मिले तो हम सम्राट्। और परमात्मा देता है, बिना मांगे देता है। पर उसकी
तरफ आंख तो उठाओ! उसके न्यारे रास्ते पर तो थोड़ा चलो!
सुंदर
कोउ न जान सके यह गोकुल गांव को पैंडो ही न्यारौ।
सुंदर
डोले भटकते जन-जन आगे दीन।
सुंदर
सुरति समेट के सुमिरन सौं लवलीन।।
मत
फिरो मांगते। मत फिरो मांगते। मत फिरो संसार में भटकते। इकट्ठा कर लो अपनी स्मृति
को, अपने बोध को, अपने ध्यान को।
सुंदर
सुरति समेट के सुमिरन सौं लवलीन।
सारी
ध्यान की ऊर्जा को इकट्ठा करके उस एक को एक बार पुकार लो। संसार में तो कष्ट ही
क्या है और?
संसार
सभी को भिखमंगा बना देता है।
और
भिखमंगे को झूठा हो जाना पड़ता है, पाखंडी
हो जाना पड़ता है।
जो दिल
का राज बे-आहो-फुगां कहना ही पड़ता है।
तो फिर
अपने क़फ़स को आशियां कहना ही पड़ता है।
तुझे ऐ
तायरे-शाखे-नशेमन! क्या खबर इसकी?
कभी
सय्याद को भी बाग़बां कहना ही पड़ता है।।
ये
दुनिया है यहां हर काम चलता है सलीक़े से।
यहां
पत्थर को भी लाले-गिरां कहना ही पड़ता है।।
ब-फ़ैजे-मसलहत
ऐसा भी होता है ज़माने में।
कि
रहजन को अमीरे-कारवां कहना ही पड़ता है।।
जबानों
पर दिलों की बात जब हम ला नहीं सकते।
जफ़ा को
फिर वफ़ा की दास्तां कहना ही पड़ता है।
न पूछो
क्या गुजरती है दिले खुद्दार पर अकसर।
किसी
बेमेहर की जब मेहरबां कहना ही पड़ता है।।
लेकिन
इस संसार में तो यह चलता है। पापी को पुण्यात्मा कहना पड़ेगा। कंजूस को दानी कहना
पड़ेगा। झूठों को सच्चा कहना पड़ेगा।
न पूछो
क्या गुज़रती है दिले खुद्दार पर अकसर।
किसी
बेमेहर को जब मेहबां कहना ही पड़ता है।।
जो
कठोर हैं,
जिनमें
करुणा का कोई लवलेश भी नहीं, उनको
जब महाकरुणावान कहना पड़ता है, तो दिल
पर क्या गुज़रती है! ऐसे झूठ बोलते-बोलते तुम भी झूठ हो जाते हो। मगर यह संसार का सलीका
है, यह उसकी व्यवस्था है, यह उसकी राजनीति है। जो
दूसरों से मांगने जाएगा कुछ, उसे
झूठे पाखंड में पड़ना ही होगा।
मांगो
मत! एक प्रभु को पुकारो। एक प्रभु के चरणों में सब समर्पित करो। और फिर देखो! सब
आता है,
सब
मिलता है। अनायास! बिना मांगे। और जब बिना मांगे मिलता है तो उसका मजा और। तब वह
भेंट है,
भिक्षा
नहीं। तब प्रसाद है।
सुंदर
सुरति समेट के सुमिरन सौं लवलीन।
मन बंच
क्रम करि होत हैं हरि ताके आधीन।।
तुम मन
से, वचन से, कर्म से उसे पुकारो तो!
भगवान् तुम्हारे आधीन हो जाएगा।
सुमिरन
मैं ही शील है,
सुमिरन
मैं संतोष।
सुमिरन
ही तें पाइए,
सुंदर
जीवन मोश।।
उस एक
परमात्मा के स्मरण में ही सारा चरित्र छिपा है। यह वचन सोचना, गूढ़ है। विचारना, गहन है। भीतर इसे गुनगुनाना।
इसमें बड़ा स्वाद है। एक ही चरित्र है भक्त का--परमात्मा का स्मरण। और उसके स्मरण
से ही उसके जीवन में सब रूपांतरण होने शुरू हो जाते हैं। उसकी एक किरण भी याद की
आनी शुरू होती है,
तो सब
कलुष मिटने लगता है, कल्मष
गिरने लगता है। दीया जला, अंधेरा
गया। फिर अंधेरे को धक्के दे-देकर निकालना थोड़े ही पड़ता है।
सुमिरन
ही मैं शील है,
सुमिरन
मैं संतोष।
और
जिसे उसके नाम में आनंद आने लगा, उसे
फिर संतोष ही संतोष है। फिर उसे किसी चीज में कोई असंतोष नहीं। उसे इतना मिलता है
जितना वह संभाल नहीं पाता। उसे इतना मिलता है जितने का वह अपने को पात्र नहीं
मानता। उसकी पात्रता छोटी पड़ने लगती है। परमात्मा औघड़दानी है।
सुमिरन
ही तें पाइए सुंदर जीवन मोश।
और
मोक्ष पाने के लिए न योग न त्याग, न
तपत्तपश्चर्या,
न विधि
न विधान,
सिर्फ
स्मरण। यह स्मरण का एक छोटा-सा सूत्र, ज़रा-सी चिंगारी पड़ जाए तुम्हारे जीवन में तो
भभक कर विराट अग्नि बन जाती है। इसमें सब जल जाता है जो व्यर्थ है; और जो सार्थक है, निखर कर प्रकट होता है। इसमें
जो-जो कूड़ा-करकट है, जल
जाता है और सोना कुंदन हो जाता है।
मेरा
जो हाल हो सो हो,
बर्के-नज़र
गिराए जा।
मैं
यूं ही नालाकश रहूं तू यूं ही मुस्कराए जा।।
लहज़ा-ब-लहज़ा
दम-ब-दम जलवा-ब-जलवा आए जा।
तश्ना-ए-हुस्ने-ज़ात
हूं तश्नालबी बढ़ाए जा।।
जितनी
भी आज पी सकूं उज्र न कर, पिलाए
जा।
मस्त
नज़र का वास्ता मस्ते-नज़र बनाए जा।।
लुत्फ़
से हो कि कहर से हो होगा कभी तो रू-ब-रू।
उसका
जहां पता चले शोर वहीं मचाए जा।।
पुकारे
चलो। जहां पता चले, पुकारे
चलो। सूरज के उगने में दिखायी पड़े तो पुकारो। चांद की शीतलता में दिखायी पड़े तो
पुकारो। फूलों में मुस्कराए तो पुकारो। हवाओं में लहराए तो पुकारो। लोगों की आंखों
में झलके तो पुकारो। अपने भीतर स्मरण आए तो पुकारो।
लुत्फ़
से हो कि कहर से हो, होगा
कभी तो रू-ब-रू।
उसका
जहां पता चले शोर वहीं मचाए जा।
तश्ना-ए-हुस्ने
ज़ात हूं तश्नालबी बढ़ाए जा।।
उससे
एक ही प्रार्थना करना कि मेरी प्यास को बढ़ा, कि मेरी प्यास को जला, कि मैं प्यास ही प्यास हो
जाऊं, ऐसा कर। और कुछ न मांगना।
जितनी
भी आज पी सकूं,
उज्र न
कर पिलाए जा।
प्यास
बढ़ा और पिला। और इस भांति पिला कि मेरी प्यास तेरे पिलाने से और बढ़ती जाए, इस प्यास और पिलाने का दौर जब
शुरू होता है तो भक्त प्यासा होता है, भगवान् पिलाता है। इसलिए सूफी भगवान् को
साकी कहते हैं,
जो
मदिरा ढाल देती है तुम्हारे प्याले में। तुम्हारी तरफ से बस इतना ही चाहिए कि तुम
एक खाली प्याले बन जाओ, एक खाली
पात्र बन जाओ।
है दिल
मैं दिलदार सही,
अंखियां
उलट कर ताहि चितइए।
आब मैं
खाक मैं बाद मैं आतस जान में सुंदर जानि जनइए।।
नूर
मैं नूर है,
तेज
मैं तेज है,
ज्योति
में ज्योति मिलें मिल जइए।
क्या
कहिए कहते न बनै कछु जो कहिए कहते ही लजइए।।
जासौं
कहूं सब मैं वह एक तौ सौ कहै कैसी है आंखि दिखइए।
जो
कहूं रूप न रेख तिसै कछु तौ सब झूठ तौ सब झूठ के मान कहइए।।
जो
कहूं सुंदर नैनन मांझि, तो
नैंनहुं बैन गए पुनहइए।
क्या
कहिए कहते न बनैं कछु जो कहिए कहते ही लजइए।।
प्रीति
की रीति नहीं कछु राखत, जाति न
पांति नहीं कुल गारौ।
प्रेम
के नेम कहूं नहीं दीसत लाज न कानि लग्यो सब खारो।।
लीन
भयो हरि सौं अभिअंतर आठहूं जाम रहै मतवारौ।
सुंदर
काउ न जानि सकै यह गोकुल गांव को पैंडो ही न्यारौ।।
द्वंद्व
बिना विचरे वसुधा परि जा घट आतम ज्ञान अपारौ।
काम न
क्रोध न लोभ न राग न दोष न म्हारो न थारो।।
योग न
भोग न त्याग न संग्रह देहदशा न ढक्यो न उघारौ।
सुंदर
कोउ न जान सकै यह गोकुल गांव कौ पैंडो ही न्यारौ।।
जाना
तो नहीं जा सकता,
लेकिन
जिया जा सकता है। मैंने तुम्हें इसलिए पुकारा कि इस गोकुल गांव के अनूठे रास्ते पर
तुम चल सको। तुम यहां तक आ गए, और
थोड़े आगे बढ़ो!
सुंदर
कोउ न जान सके यह गोकुल गांव कौ पैंडो ही न्यारौ।
पर
जिया जा सकता है।
और
जीना ही जानना है। और जानने का कोई उपाय नहीं। यहां ढल रही है शराब। तुम प्यास को
जगाओ। यहां उसका स्मरण हो रहा है। तुम ज़रा अपने हृदय को मेरे हृदय की तरंग से
जोड़ो। यह घटेगा। तुम उसके अधिकारी हो। यह प्रत्येक का जन्मसिद्ध अधिकार है। और जब
तक गोकुल के गांव की तरफ न चले, तब तक
सब चलना व्यर्थ है। चलो कितना ही, कहीं
पहुंचोगे नहीं। इस अनूठे रास्ते की पुकार सुनो! इस चुनौती को अंगीकार करो!
आज
इतना ही।
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