पिव—पिव लागी प्यास—(दादू
दयाल)
दिनांक 11 जूलाई सन् 1975, प्रातःकाल,
श्री रजनीश आश्रम पूना।
(श्री चरणों में हम अपने
प्रेम और प्रणाम निवेदित करते हैं। संत श्रेष्ठ दादू के कुछ पद हैं यहां)
(दादू) गैब मांहि गुरुदेव
मिल्या पाया हम परसाद।
मस्तक मेरे कर धरया देखा
अगम अगाध।।
(दादू) सत्गुरु यूं सहजै मिला
लीया कंठि लगाई।
दाया भली दयाल की, तब दीपक
दिया जगाई।।
(दादू) सत्गुरु मारे सबद सों
निरखि निरखि निज ठौर।
राम अकेला रहि गया, चीत न आवे
और।।
सबद दूध घृत राम रस कोइ
साध विलोवण हार।
दादू अमृत काढिलै गुरुमुख
गहै विचार।।
देवै किनका दरद का टूटा
जोड़ै तार।
दादू साधै सुरति को सो
गुरु पीर हमार।।
सद्गुरु मिलै तो पाइये
भक्ति मुक्ति भंडार।
भगवान श्री, कृपापूर्वक
हमें इसका मर्म समझा दें।
एक खजाने हो तुम, जिसकी
चाबी खो गई है। या कि एक बीज हो जिसे अपनी भूमि नहीं मिल पाई है। एक ऐसे सम्राट हो,
जिसने अपने को भिखारी समझ रखा है।
और गहरी नींद है। और उस नींद में तुम स्वयं
जाग सकोगे इसकी संभावना नहीं है। तुम चाहो भी, कि तुम अपने ही हाथ से जग जाओ,
तो भी यह घट न सकेगा। घट इसलिए न सकेगा, कि जो
सोया है स्वयं, वह स्वयं को कैसे जगाएगा? जगाने के लिए जागा होना जरूरी है।
और तुम अगर अपने अस्मिता और अहंकार से भरे
हुए सोचते रहे कि क्यों किसी से कहें, कि जगाओ। अपने को ही जगा लेंगे;
तो ज्यादा से ज्यादा इसी बात की संभावना है, कि
तुम एक सपना देखो, जिसमें कि तुम मान लो, कि तुम जाग गए हो। सोया हुआ आदमी जागने का सपना देख सकता है; जाग नहीं सकता; सोए हुए आदमी की ज्यादा से ज्यादा
संभावना यही है कि वह सपने में देख ले, कि जाग गया है। नींद
को तोड़ने के लिए बाहर से कोई—तुमसे बाहर से कोई चाहिए जो तुम्हें चौंका दे।
गुरु का कोई और अर्थ नहीं है; गुरु का
इतना ही अर्थ है, कि जो जागा हुआ है और जो तुम्हारी नींद को
तोड़ सकता है। कुछ और करना भी नहीं है। कुछ पाना नहीं है, क्योंकि
जो भी पाने योग्य है, वह तुम अपने साथ ही लेकर आए हो। कुछ
खोना भी नहीं है सिवाय निद्रा के; सिवाय मूर्च्छा के;
सिवाय एक बेहोशी के।
इसलिए गुरु तुम्हें आचरण नहीं देता और जो
गुरु तुम्हें आचरण दे,
समझना कि वह गुरु नहीं है। गुरु तुम्हें सिर्फ जागरण देता है। और
जागरण के पीछे चला आता है आचरण अपने आप। वह जागे हुए आदमी की जीवन—प्रक्रिया है
आचरण। और सोया हुआ आदमी लाख उपाय करे आचरण को साधने के, साध
भी ले, तो भी सब सपना ही है। सब पानी पर उठा हुआ बबूला है।
उसकी कोई सार्थकता नहीं है।
तुम सपने में साधु भी हो जाओ तो क्या फर्क
पड़ता है? तुम सपने में चोर थे, तुम सपने में साधु हो गए;
पर दोनों ही सपने हैं। जागकर तुम पाओगे, न तो
सपने का चोर सच था, न सपने का साधु सच था।
इसलिए असली सवाल चोर से साधु होने का नहीं
है; न बेईमान से ईमानदार होने का है; न बुरे से भला होने
का है; न पापी से पुण्यात्मा होने का है; असली सवाल जागे हुए होने का है। सोए से जागे हुए होने का है।
आचरण तो शास्त्र से भी मिल सकता है। आचरण तो
समाज भी दे देता है। आखिर समाज भी बिना आचरण के तो जी नहीं सकता। इतने लोग हैं
वहां, बिना आचरण के बहुत कशमकश होगी, बहुत संघर्ष होगा,
बहुत बेचैनी, परेशानी होगी। जीना मुश्किल हो
जाएगा। समाज भी आचरण थोप देता है। परिवार भी आचरण देता है। शास्त्र भी आचरण देते
हैं। गुरु जागरण देता है।
और जब गुरु भी आचरण देने लगें, तो समझना
कि वे समाज के ही हिस्से हो गए हैं। धर्म से उनका नाता टूट गया। जब वे भी तुम्हें
समझाने लगें कि चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, झूठ मत बोलो, तब उनकी उपयोगिता नैतिक हो गई; धार्मिक न रही।
धर्म और नीति में बड़ा भेद है। नीति साधी जा
सकती है; सोए हुए जागना जरूरी नहीं है। सिर्फ सपना बदलना पड़ता है। कठिन है सपने को
बदलना भी; लेकिन बदला जा सकता है। तुम क्रोध कर सकते हो,
तो तुम अक्रोध भी कर सकते हो। तुम हिंसा कर सकते हो; तो तुम अहिंसा का व्रत भी ले सकते हो। तुम कामवासना से भरे हो, तुम ब्रह्मचर्य का आचरण साध सकते हो।
इन सबके लिए जागना जरूरी नहीं है। तुम जैसे
हो वैसे ही रहोगे;
सिर्फ तुम्हारे ऊपर की खोल बदल जाती है। तुम वस्त्र बदल लेते हो;
तुम नहीं बदलते। गुरु का संबंध तुम्हें बदल देने से है। और जब तुम
बदल जाओगे तो एक आचरण पैदा होता है। वह आचरण नैतिक नहीं है, धार्मिक
है।
नैतिक आचरण में सुगंध होती ही नहीं। वह ऐसा
है जैसे प्लास्टिक के फूल ऊपर से लगा दिए गए हैं। धार्मिक आचरण की एक सुगंध है, एक सौरभ
है। जैसे फूल वृक्ष में लगे हों, जैसे फूलों की जड़ें जमीन
में फैली हों और फूल सूरज से रोशनी लेते हों, जमीन से
हरियाली लेते हों, हवाओं से ताजगी लेते हों, जीवित हों। धार्मिक व्यक्ति इस विराट अस्तित्व का एक हिस्सा हो जाता है।
नैतिक व्यक्ति अपने आसपास नीति का आचरण बना लेता है, लेकिन
अस्तित्व का हिस्सा नहीं हो पाता।
इसलिए नैतिक व्यक्ति तो नैतिक हो सकता है
बिना ईश्वर की खोज किए। ईश्वर आवश्यक नहीं है। लेकिन धार्मिक व्यक्ति बिना ईश्वर
की खोज किए धार्मिक नहीं हो सकता। और ऊपर से देखने में कभी—कभी यह भी हो सकता है, कि
प्लास्टिक का फूल दूर से ज्यादा सुंदर मालूम पड़े; असली फूल
से भी ज्यादा सुंदर मालूम पड़े। और यह तो निश्चित ही साफ है कि असली फूल सुबह
खिलेगा, सांझ मुर्झा जाएगा। नकली फूल मुर्झाता ही नहीं;
बड़ा मजबूत है।
आचरण जीवंत हो, तो
प्रतिपल बदलता है। जीवन का लक्षण बदलाहट है। आचरण जड़ हो, प्लास्टिक
का हो, बदलता ही नहीं। एक दफा पकड़ लिया, पकड़ लिया। झूठे आचरण में एक संगति होती है। सच्चे आचरण में एक जीवंत
क्रांति होती है। सच्चा आचरण एक सतत धार है—गंगा की धार। बहती जाती है, प्रतिपल बहती है।
सच्चे आचरण का एक ही लक्षण है, कि वह धार
सदा सागर की तरफ बहती है। घाट बदलते, जमीन बदलती, पहाड़ बदलते, लोग बदलते, लेकिन
धार में एक ही गहरी संगति है। सब बदल जाता है, लेकिन सागर की
तरफ यात्रा नहीं बदलती।
नैतिक आचरण तो पोखर की तरह है, सरोवर की
तरह है। वह बदलता नहीं, वह कहीं जाता नहीं। वह अपने में बंद,
केवल सड़ता है।
अगर तुम नैतिक बनने आए हो, तो तुम
गलत आदमी के पास आ गए। अगर तुम्हें धार्मिक बनने की हिम्मत है, तो तुम्हें अनायास ही मुझसे मिलन हो गया है। तुम किस कारण आए हो, वह मुझे पता नहीं; मैं किस कारण यहां हूं, वह मुझे पता है। इसलिए तुम्हें पहले ही सचेत कर देना जरूरी है, कि मैं कम से राजी नहीं हूं, मैं सिर्फ पूरे से राजी
हूं।
भिखारी जब तक सम्राट ही न हो जाए, तब तक तब
तक कुछ हुआ नहीं। जब तक यह मृतवत जीवन परिपूर्ण अमृत को उपलब्ध न हो जाए, तब तक कुछ हुआ नहीं। जब तक तुम्हें ऐसा खजाना न मिल जाए, जिसे चुकाना संभव नहीं है, जिसे तुम लुटाओ भी तो
बढ़ता चला जाता है, तब तक तुम कुछ छोटी—मोटी संपदा पा भी लो,
तो उसका कोई मूल्य नहीं है।
और यह घटना तो तभी घट सकती है जब कोई आघात
करे तुम्हारी नींद पर। यह घटना तभी घट सकती है, जब कोई तुम्हें मार ही डाले। तभी
तुम्हारे भीतर जो अमृत का स्वर है, वह बजेगा।
दादू इसी अदभुत कहानी की बात कर रहे हैं।
उनका एक—एक शब्द समझने जैसा है।
"दादू गैब मांहि गुरुदेव मिल्या
पाया हम परसाद।'
"यह शब्द "गैब'—पहली बात समझ लेने जैसी है। इसका अर्थ होता है रास्ते में, लेकिन अनायास।
गुरु अनायास ही मिलता है क्योंकि तुम तो उसे
खोजोगे कैसे?
अगर इतनी ही तुम्हारे पास रोशनी होती कि तुम गुरु को खोज लो,
तो उसी रोशनी में तो तुम अपने को ही खोज लेते। गुरु को खोजने की
जरूरत ही न थी। अगर तुम इतने ही जागे हुए होते कि गुरु को पहचान लेते, तो उतने जागरण से तो तुम अपने को ही पहचान लेते, गुरु
को पहचानने का सवाल ही न उठता था। अगर तुम इतने ही समझदार थे, कि तुम परख लेते कि कौन गुरु है और कौन गुरु नहीं है, तो उतना विवेक तो पर्याप्त है। उससे तो तुम्हारे जीवन में क्रांति हो
जाती।
गुरु को तुम खोज नहीं सकते। सोया हुआ आदमी
कैसे उसको खोजेगा,
जो उसे जगाए? और अगर सोया हुआ आदमी उसको खोज
ले जो उसको जगाए, तो जगाने की जरूरत कहां है? वह आदमी जागा ही हुआ है।
इसलिए गुरु अनायास मिलता है। यह बात तो पहली
समझ लेने जैसी है। अनायास का अर्थ है, कि तुम्हें पता भी नहीं होता और
मिल जाता है—आकस्मिक! तुम्हें अनायास लगता है। एक बहुत पुरानी इजिप्त में प्रचलित
लोकोक्ति है, कि जब शिष्य तैयार होता है, तब गुरु उपलब्ध हो जाता है। ऐसा नहीं है, कि शिष्य
उसे खोजता है, गुरु ही उसे खोज लेता है।
ऊपर से देखने पर ऐसा ही लगता हो कि तुम यहां
चले आए हो, भीतर से देखने पर तुम पाओगे, कि मैं तुम्हारे पास
आया हूं। इसके पहले कि तुम यहां आए, मैं तुम्हारे पास पहुंच
गया था, अन्यथा तुम यहां आते कैसे? कोई
दूसरा तो उपाय नहीं है आने का। तुम यहां हो—तुम्हारे कारण नहीं; तुम यहां खींच लिए गए हो। शायद तुम्हें आज साफ भी न हो, लेकिन जब भी तुम्हें थोड़ा सा होश आएगा और आंखें खुलेंगी, तब तुम समझ पाओगे।
दादू उसी क्षण की बात कह रहे हैं।
"दादू गैब मांहि गुरुदेव मिल्या।'
खोजा भी न था। अपने तरफ से खोजने के लिए कोई
क्षमता भी न थी। मिल भी जाता, तो पहचानने का कोई मापदंड न था। सामने भी खड़ा
होता, तो आंखें बंद थीं। गले से भी लगा लेता, तो स्वयं का हृदय तो धड़कता ही न था। पहचानते कैसे? प्रत्यभिज्ञा
कैसे होती, कि यही गुरु है? नहीं,
शिष्य गुरु को नहीं खोजता; गुरु ही शिष्य को
खोजता है। भला गुरु रत्तीभर न चलता हो और शिष्य हजार मील चलकर आया हो, लेकिन गुरु ही शिष्य को खोजता है। शिष्य गुरु को खोज ही नहीं सकता।
शिष्य इतना ही कर सकता है, कि उपलब्ध
रहे; कि जब गुरु पुकारे तो पुकार सुन ले, इतना ही काफी है; कि जब गुरु खींचे तो खिंच जाए,
अड़चन न डाले, इतना ही काफी है। बाधा न खड़ी करे;
जब बुलावा आए, तो बुलावे के अनुसार चल पड़े।
तिब्बत में कहावत है, कि हजार
बुलाए जाते हैं, एक पहुंचता है। वह भी ठीक है। क्योंकि नौ सौ
निन्यानबे तो हर तरह की बाधा डालते हैं। वे आना नहीं चाहते। वे नहीं चाहते कि कोई
उन्हें खींच ले। क्योंकि जब कोई उन्हें खींचता है तो उन्हें लगता है, यह तो हम परवश हुए। यह तो अपनी सामर्थ्य गई। यह तो हम एक तरह की गुलामी
में पड़े, कि कोई खींचे और हम खिंच जाएं; कोई जगाए और हम जग जाएं; कोई उठाए और हम उठ जाएं।
अहंकार बड़ी बाधाएं खड़ी करता है।
बस, शिष्य इतना ही कर सकता है कि
बाधाएं खड़ी न करे। कुछ और करने की जरूरत नहीं है। सिर्फ तुम बहने को राजी हो जाओ।
तो जब भी तुम बहने को राजी हो, अचानक तुम पाओगे, कि गुरु द्वार पर खड़ा है: या तुम गुरु के द्वार पहुंच गए हो।
जीवन बड़े रहस्यपूर्ण नियमों से बना है। जहां
जरूरत होती है,
वहां घटना घट जाती है।
गर्मी पड़ती है, धूप उतरती
है आकाश से, आग जलती है जैसे, फिर
वर्षा आ जाती है। गर्मी के पीछे वर्षा का आना एक नैसर्गिक नियम है। जब इतनी गर्मी
पड़ जाती है, सब उत्तप्त हो जाता है, जल
सूख जाता है, पृथ्वी सूखी हो जाती है, वृक्ष
दीन दिखाई पड़ने लगते हैं, इस उत्तप्त अवस्था के कारण ही
बादलों को निमंत्रण पहुंच जाता है। बादल भागे चले आते हैं।
वैज्ञानिक कहता है कि जब बहुत गर्मी पड़ती है, तो हवा
विरल हो जाती है। जब हवा विरल हो जाती है, तो आसपास की हवाएं
दौड़कर उस गङ्ढे को भरने के लिए आती हैं। उन्हीं हवाओं के साथ बादल भी भागे चले आते
हैं। इसलिए जिस वर्ष जितनी ज्यादा गर्मी पड़ती है, उस वर्ष
उतने ही बादलों का आगमन हो जाता है।
जीवन में एक गहरी व्यवस्था है। यहां कुछ भी
अनियमपूर्ण नहीं है। कुछ भी अराजक नहीं है। जब हृदय उत्तप्त होता है शिष्य का, जलता है,
रोता है, पीड़ित होता है जीवन के दुखों से—अचानक,
कोई बदली चली आती है खिंची हुई। वह बदली ही गुरु है। और मिलन
आकस्मिक है। गुरु की तरफ से नहीं, शिष्य की तरफ से आकस्मिक
है।
"दादू गैब मांहि गुरुदेव मिल्या'—और गैब का दूसरा अर्थ राह भी होता है। एक अर्थ होता है, अनायास आकस्मिक; और दूसरा अर्थ होता है, मार्ग, राह।
यह भी समझ लेने जैसा है, कि जब तक
तुम राह पर नहीं हो, गुरु न मिलेगा। थोड़ा सा तो तुम्हें राह
पर होना ही पड़ेगा। राह का मतलब है कि तुम्हें थोड़ी सी तो खोज करनी ही पड़ेगी;
यह भी जानते हुए, कि तुम्हारी खोज से कुछ होने
वाला नहीं है, तुम पहुंचोगे नहीं। तुम्हारी सब खोज अंधेरे
में टटोलने जैसी है। लेकिन तुम टटोलते रहोगे तो ही गुरु मिलेगा। जिन्होंने टटोला
ही नहीं है, उनको गुरु नहीं मिल सकता।
तुम्हारी थोड़ी सी खोज तो चाहिए। वही तो
तुम्हारी प्यास को प्रकट करेगी। तुम्हारा थोड़ा प्रयत्न तो चाहिए। माना कि तुम नींद
में हो, चल नहीं सकते, करवट तो बदल ही सकते हो। माना कि तुम
नींद में हो, तुम ठीक—ठीक गुरु को पुकार नहीं सकते, लेकिन सपने में भी तो आदमी बुदबुदाता है, अनर्गल
बोलता है। उस अनर्गल बोलने के पीछे भी आकांक्षा तो होगी ही बुलाने की। गहरी से
गहरी नींद में भी अगर तुम गुरु को खोज रहे हो, यह जानते हुए
भलीभांति, कि तुम गुरु को खोज नहीं सकते क्योंकि तुम्हारे
पास कोई कसौटी नहीं है, जिस पर तुम कस लोगे कि कौन सोना है,
कौन सोना नहीं है। लेकिन तुम खोज रहे हो, आकांक्षा
है, अभीप्सा है; तुम्हारी अभीप्सा के
आधार पर ही गुरु का आगमन हो सकता है। इसलिए राह पर तुम्हारा होना जरूरी है।
संसार में करोड़ों लोग हैं, सभी को
गुरु नहीं मिलता। उनकी आकांक्षा ही नहीं है। वे तो हैरान होते हैं। अगर तुम्हें
गुरु मिल जाए, तो वे हैरान होते हैं, कि
तुम किस पागलपन में पड़े हो। भले—चंगे आदमी थे, सब ठीक—ठीक चल
रहा था, यह क्या गड़बड़ में उलझ गए हो। वे तुम्हें बचाने की भी
कोशिश करते हैं।
क्योंकि गुरु के मिलने का अर्थ है, तुम उनकी
भीड़ के हिस्से न रहे। गुरु के मिलने का अर्थ है, कि अब तुम
उस राज—मार्ग पर न चलोगे, जहां सारी दुनिया चल रही है। अब
तुमने एक पगडंडी चुन ली है। तुम खतरनाक हो गए। तुम राह से उतरकर चल रहे हो। तुमने
बीहड़ में प्रवेश किया, तुमने अनजान से प्रेम बना लिया,
तुम अपरिचित के आकर्षण में पड़ गए। तुम दुस्साहस कर रहे हो।
भीड़ तुम्हें कहेगी, मत करो
पागलपन! यहीं चलो, जहां सब चलते हैं। यहां रास्ता साफ—सुथरा
है, सीमेंट से पटा है, आगे—पीछे का सब
पता है, किनारे पर मील के पत्थर लगे हैं, नक्शा उपलब्ध है। कहां हम जा रहे हैं, इसका हमें ठीक—ठीक
बोध है। और फिर सारे लोग साथ हैं, हम अकेले नहीं हैं। तुम
अकेले उतर रहे हो। किसके पीछे जा रहे हो? क्या पक्का है,
कि वह तुम्हें पहुंचाएगा और भटका न देगा?
गुरु का हाथ पकड़ना इस संसार में सबसे बड़ा
दुस्साहस है। इसलिए थोड़े से हिम्मतवर लोग ही कर पाते हैं। हिमालय पर चढ़ जाना इतना
बड़ा दुस्साहस नहीं है। चांद पर पहुंच जाना इतना बड़ा दुस्साहस नहीं है। क्योंकि
चांद पर पहुंचने के पहले सारी व्यवस्था कर ली गई होती है। खतरे का कम से कम उपाय है।
लेकिन जब तुम गुरु के साथ चलना शुरू करते हो, तब तो वहां श्रद्धा के अतिरिक्त और
कोई सहारा नहीं है। सिर्फ भरोसा है। और भरोसा तो बहुत ही नाजुक चीज है। फिर भरोसा,
भरोसा ही है। वैसा होगा ही, इसका कोई ठिकाना
नहीं है।
तो जब भी कोई किसी गुरु को पा लेता है, तब सारा
समाज उसे खींचने की कोशिश करता है। और तब समाज ने उपाय भी किया है; ऐसे खतरनाक लोगों को खतरे से बचाने के लिए समाज ने झूठे गुरु भी पैदा किए
हैं। वे समाज का हिस्सा हैं। वे पगडंडी पर नहीं ले जाते, वे
राजमार्ग पर ही चलाते हैं। ईसाई पादरी है, पुरोहित है;
हिंदू मंदिर का पुजारी है, पंडित है, जैन साधु है, मुनि है, अब वे
गुरु नहीं हैं। क्योंकि वे भी उसी मार्ग पर चलाते हैं, जिस
मार्ग पर भीड़ चल रही है।
महावीर गुरु थे। जो महावीर के साथ चले, वे
हिम्मतवर लोग रहे होंगे; लेकिन जैन मुनि गुरु नहीं है।
वस्तुतः अगर तुम गौर से देखोगे, तो तुम पाओगे, कि जैन मुनि अपने अनुयायियों के पीछे चलता है; आगे
नहीं चलता। तुम जाकर गौर से निरीक्षण करो—
एक जैन मुनि मुझे मिलने आना चाहते थे।
उन्होंने खबर भेजी,
लेकिन उन्होंने कहा, मैं बड़ी मुसीबत में हूं;
अनुयायी आने नहीं देते। अब यह बड़े मजे की बात है। गुरु आना चाहता है,
शिष्य आने नहीं देते; तब तो शिष्य गुरु है,
और गुरु शिष्य है। वे नहीं आ पाए क्योंकि अनुयायी खिलाफ हैं। वे
कहते हैं, वहां जाने की जरूरत नहीं। गुरु मोहताज है क्योंकि
अगर वह जाए, तो अनुयायी पीछे से हट जाएंगे। वह उनके सहारे जी
रहा है। वह समाज का हिस्सा है।
ध्यान रखना, गुरु समाज का हिस्सा कभी भी
नहीं है। गुरु सदा ही विद्रोही है। वह परमात्मा का हिस्सा है, समाज का नहीं। और समाज परमात्मा—विरोधी है। अन्यथा सभी पहुंच जाते। बहुत
थोड़े पहुंच पाते हैं। विरले पहुंच पाते हैं, कभी—कभी पहुंच
पाते हैं। क्योंकि जाने के लिए अकेला होना जरूरी है।
तो पहले तो गुरु तुम्हें अपने साथ ले लेता
है, एक पगडंडी पर ले चलता है, जो तुम्हारे लिए बिलकुल
अनजानी है; जिसका कोई नक्शा भी तुम्हारे हाथ में नहीं है।
कोई कुंजी, कोई गाइड भी तुम्हारे हाथ में नहीं है। और गुरु
भी कुछ कह नहीं सकता क्योंकि वह बार—बार यही कहता है, कि जो
मैंने जाना है, वह तुम्हें भी जना दूंगा, लेकिन बता नहीं सकता हूं। क्योंकि वह शब्द में आता नहीं है। भरोसे पर तुम
चलते हो। प्रेम का पतला सा धागा ही एकमात्र सहारा है।
और एक घड़ी ऐसी आती है जब गुरु तुम्हें बिलकुल
अकेला भी छोड़ देगा उस बीहड़ में। क्योंकि गुरु भी तो समाज ही है। जब तक दो हैं, तब तक
थोड़ा सा समाज तो है ही। परमात्मा से मिलन तो बिलकुल अकेले में होगा। तो पहले तो
गुरु तुम्हें समाज से छीन लेगा, भीड़ से छीन लेगा, राजपथों से मुक्त कर देगा। और एक दिन तुम पाओगे, कि
वह भी विलीन हो गया है बीहड़ में तुम्हें छोड़कर। वह कहीं दिखाई नहीं पड़ता। उसका भी
हट जाना जरूरी है। तभी तो परमात्मा दिखाई पड़ेगा। अन्यथा गुरु बीच में खड़ा रहे,
तो गुरु की पीठ ही तुम देखते रहोगे। गुरु के हटते ही परमात्मा के
सन्मुख हो जाओगे। बड़े से बड़ा दुस्साहस है।
लेकिन जो राह पर हैं, उन्हीं को
गुरु मिल सकता है। राह का मतलब यह है, कि जिनके मन में
बेचैनी है, खोज की आकांक्षा है, प्यास
है, जो तड़फ रहे हैं, नहीं जानते कहां
जाएं, लेकिन जाना चाहते हैं। नहीं जानते कैसे पैर उठाएं,
लेकिन उठाना चाहते हैं। ऐसे व्यक्ति को ही तो सिखाया जा सकता है।
ऐसे व्यक्ति को ही तो जगाया जा सकता है। क्योंकि अगर तुम किसी की आकांक्षा के
विपरीत उसे जगाना चाहो, तो कैसे जगा पाओगे? अगर वह जगने को राजी ही न हो और नींद के मधुर सपनों में खोया हो और सपनों
में रस ले रहा हो, तुम उसे कैसे जगाओगे? जगाने के लिए बाहर का हाथ चाहिए, लेकिन भीतर वाले का
भी सहारा चाहिए। भीतर वाला भी साथ दे, बाधा न दे।
"गैब मांहि गुरुदेव
मिल्या पाया हम परसाद।'
तो गैब के दो अर्थ है, अनायास
मिलता है गुरु, लेकिन केवल उन्हीं को मिलता है, जो किसी तरह की खोज कर रहे थे। अंधी खोज भला, अनजानी!
गलत जा रहे थे, कुछ भी कर रहे थे जिससे उन्हें कुछ भी पता
नहीं था, कि क्या होगा, क्या नहीं होगा;
लेकिन टटोलते थे। जब भी गुरु का हाथ मिला है किसी को, तो वह तभी मिला है, जब वह टटोल रहा था अंधेरे में।
टटोलते हाथ को ही गुरु का हाथ मिला है। जिसने टटोलना ही शुरू नहीं किया था उसे
गुरु का हाथ कैसे मिल सकता है?
"पाया हम परसाद'—और दादू कहते हैं, कि फिर गुरु ने जो दिया, वह प्रसाद है। वह कोई सौदा नहीं है।
प्रसाद के अर्थ को ठीक से समझ लें। जो
तुम्हें दिया जाता है,
तुम्हारी किसी योग्यता के कारण नहीं, देने
वाले के पास इतना ज्यादा है, इसलिए देता है। तुम योग्य हो
पाने के, इसलिए नहीं।
इस फर्क को ठीक से समझ लेना। अगर तुम्हारी
योग्यता से दिया जाए,
तो वह प्रसाद नहीं है। तुमने उसे अर्जित किया। वह तुम्हारे श्रम का
फल है। तुम उसको पाने के हकदार थे। अगर तुमने अपने ही श्रम से पाया है, तो वह प्रसाद नहीं है। तुम उसके हकदार हो गए थे। तुम्हें धन्यवाद भी देने
की जरूरत नहीं है क्योंकि तुमने श्रम किया था, तुम्हें मिला;
बात खतम हो गई। कोई अनुग्रह का सवाल भी नहीं है।
प्रसाद का अर्थ है, जिसे पाने
की तुम्हारी योग्यता तो न थी, आकांक्षा भला रही हो, श्रम तुमने कुछ भी न किया था क्योंकि तुम्हें पता ही न था कैसे करें। उपाय
तुमने कुछ भी न किया था, यत्न तुमने कुछ भी न किया था,
अभीप्सा गहरी थी, प्यास गहरी थी। बस, वही तुम्हारी योग्यता थी। गुरु देता है अपने आधिक्य से।
जीसस की बड़ी पुरानी कथा है; वह प्रसाद
की कथा है। एक बहुत बड़े बगीचे के मालिक ने कुछ मजदूरों को बुलाने के लिए अपने
मैनेजर को भेजा। सुबह थी, सूरज उगता था, वह कुछ मजदूरों को लेकर आया। लेकिन काम ज्यादा था और मालिक शाम तक काम
पूरा कर लेना चाहता था। तो दोपहर उसने मैनेजर को फिर भेजा। फिर वह और मजदूरों को
लाया, लेकिन फिर भी काम ज्यादा था और मजदूर फिर भी कम थे।
उसने फिर मैनेजर को भेजा। जब तक वह मजदूरों को खोजकर लाया, तब
तक सूरज ढलने के करीब ही हो गया था। दिन जा चुका था।
फिर उस मालिक ने सभी मजदूरों को इकट्ठा किया, जो सुबह
आए थे, जो दोपहर आए थे और जो अभी—अभी आकर खड़े हुए थे,
जिन्होंने कुछ भी न किया था और सभी को समान वेतन दे दिया।
सुबह जो मजदूर आए थे, निश्चित
नाराज हो गए, शिकायत से भर गए। उन्होंने कहा, "यह तो हद अन्याय है। हम सुबह से आए हैं और दिनभर हमने हड्डी तोड़कर श्रम
किया है। खून पसीने की तरह बहाया है और हमें भी उतना ही मिल रहा है। फिर कुछ लोग
दोपहर आए हैं, इन्हें आधा मिलना चाहिए—इनको भी उतना ही मिल
रहा है। और अन्याय की तो सीमा टूट गई, जो लोग अभी—अभी आकर
खड़े हुए हैं; जिन्होंने कुछ किया ही नहीं हैं, सिर्फ आए हैं और जाने का वक्त आ गया है, उनको भी
उतना ही मिल रहा है।'
उस मालिक ने कहा, "तुम
इसकी फिक्र मत करो, कि मैं किसको क्या दे रहा हूं। तुम इसकी
फिक्र करो, कि तुम्हें जो मिल रहा है वह तुम्हारे मजदूरी के
लिए पर्याप्त है या नहीं? तुमने जितना श्रम किया है, उतना तुम्हें मिल गया है?'
उन मजदूरों ने कहा, "उतना हमें मिल गया है।'
तो उसने कहा, "फिर तुम फिक्र छोड़
दो। इनको मैं इनके श्रम करने के कारण नहीं देता, मेरे पास
बहुत ज्यादा है इसलिए देता हूं। मेरे पास इतना ज्यादा है, कि
मैं क्या करूं, इसलिए देता हूं। जो सांझ आए हैं, अभी—अभी आए हैं, उनको भी देता हूं। तुम्हें शिकायत
का कोई कारण न होना चाहिए।'
इसे थोड़ा समझें। प्रसाद तो उनको मिला, जो सांझ
आए थे। जो सुबह आए थे, उन्हें प्रसाद नहीं मिला। उन्होंने तो
श्रम किया, अर्जित किया।
भारत में दो संस्कृतियां हैं। एक संस्कृति
का नाम है—जैन और बौद्धों की जो संस्कृति है, उसका नाम है श्रमण संस्कृति। उसका
जोर है, श्रम करो तो मिलेगा। तुम जितना करोगे, उतना मिलेगा। उनकी जीवन के प्रति दृष्टि गणितज्ञ की दृष्टि है।
फिर उनसे बिलकुल भिन्न हिंदुओं की संस्कृति
है; वह प्रसाद की संस्कृति है। किसी ने कभी उसे प्रसाद नाम दिया नहीं, लेकिन देना चाहिए। जैन और बौद्ध तो अपनी संस्कृति को "श्रमण' कहते हैं। ब्राह्मण की संस्कृति को, हिंदू की
संस्कृति को "प्रसाद' कहना चाहिए। क्योंकि उसका कहना यह
है कि तुम कुछ भी कितनी ही योग्यता अर्जित कर लो, तुम
परमात्मा को पाने के हकदार कभी भी नहीं हो सकते। वह इतना बड़ा है—तुम्हारी योग्यता
सदा छोटी रहेगी। अगर योग्यता से ही उसे पाना है, तो पाने की
बात ही छोड़ दो। फिर यह मिलना होने ही वाला नहीं है। वह तो मिलता प्रसाद से है।
इसका यह अर्थ नहीं है, कि तुम
कुछ मत करो। मिलेगा तो राह पर। तुम कुछ करो; लेकिन तुम्हारे
करने से नहीं मिलता है। तुम्हारे करने से मिलने की संभावना बढ़ती है। जैसे सांझ आए
मजदूर थे, कम से कम आए तो थे। किया कुछ भी न था। तुम राह पर
पाए जाने चाहिए, खोजते हुए तुम मिलने चाहिए, परमात्मा प्रसाद की तरह बरस जाता है। और जिन्होंने भी उसे जाना है,
उन सभी ने यह कहा है, कि अब हम जब देखते हैं
लौटकर पीछे, तो जो हमने किया था, वह तो
नाकुछ था।
क्या किया था? क्या करोगे? रोज सुबह घंटेभर आंख बंद, बैठकर माला फेरी थी। इसको
तुम परमात्मा को पाने का पर्याप्त आधार मानते हो? कि तुमने
राम—राम जपा था रोज घंटेभर बैठ कर, उस राम—राम जपने को तुम
मोक्ष को पाने के लिए पर्याप्त योग्यता मानते हो?
जिस दिन तुम पाओगे, उस दिन
तुम यह भी पाओगे, कि जो किया था, उससे
तो इसका कोई संबंध नहीं मालूम होता। वह जो किया था, वह तो न
किए के बराबर है। करने से तुम्हारी आकांक्षा तो पता चली थी, कोई
योग्यता अर्जित न हुई थी। तुम चाहते थे, कि परमात्मा मिले;
यह प्यास तो पता चली थी, लेकिन तुमने उसे पाने
के लिए कोई संपदा अर्जित कर ली है, ऐसा कुछ भी न हुआ था।
परमात्मा तुम्हारे प्रयत्न से नहीं मिलता
यद्यपि तुम प्रयत्न न करो,
तो भी न मिलेगा। इस जटिलता को तुम ठीक से समझ लेना। तुम प्रयत्न
करोगे तो ही मिलेगा, लेकिन तुम्हारे प्रयत्न से नहीं मिलता।
क्योंकि तुम्हारा प्रयत्न कितना छोटा है! तुम एक चम्मच लेकर सागर को भरने चले हो।
जब सागर तुम्हारे ऊपर बरसेगा, तब तुम क्या कहोगे, कि चम्मच के कारण बरस रहा है? तब तुम फेंक दोगे
चम्मच को। चम्मच से तुम्हारी केवल प्यास का पता चला था। तुमने अपना निवेदन भेज
दिया था उसके चरणों में। उसे खबर मिल गई थी, कि तुम राजी हो।
दादू कहते हैं, "दादू
गैब मांहि गुरुदेव मिल्या पाया हम परसाद।'
गुरु भी जो देता है, वह प्रसाद
है। उसके पास बहुत है। उसे परमात्मा मिल गया है। वह बांटना चाहता है। वस्तुतः वह
बोझिल है। जैसे बादल पानी से भरे हों और बोझिल हैं। और चाहते हैं, कि कोई भूमि मिल जाए, जहां बरस जाएं। कोई अतृप्त,
प्यासी भूमि मिल जाए, जो उन्हें स्वीकार कर
ले। जैसे दीया जलता है, तो चारों तरफ रोशनी बिखरनी शुरू हो
जाती है—बंटना शुरू हो गया। फूल सुगंधित होता है, कली खिलती
है, हवाएं उसकी गंध को लेकर दूर दिगंत में निकल जाती हैं—बांटना
शुरू हो गया।
जब भी तुम्हारे पास कुछ होता है, तो तुम
बांटना चाहते हो। सिर्फ वे ही पकड़ते हैं और कंजूस होते हैं, जिनके
पास कुछ भी नहीं है। इसे भी तुम ठीक से समझ लो। क्योंकि यह बात थोड़ी पहेली सी
मालूम पड़ेगी।
मैं कहता हूं, जिनके पास कुछ भी नहीं है,
वे ही केवल पकड़ते हैं और कंजूस होते हैं। और जिनके पास कुछ है,
वे कभी कृपण नहीं होते और कभी नहीं पकड़ते। क्योंकि जिनके पास कुछ है,
वे यह भी जानते हैं, कि बांटने से बढ़ता है।
जिनके पास कुछ नहीं है, वे डरते हैं क्योंकि बांटने से
घटेगा।
गुरु तुम्हें देता है इसलिए नहीं, कि तुमने
साधना से, श्रम से योग्यता पा ली है—नहीं! गुरु तुम्हें देता
है क्योंकि तुम्हारी आंखों में आंसू हैं। गुरु तुम्हें देता है क्योंकि तुम्हारे
हृदय में प्यास है। गुरु तुम्हें देता है क्योंकि तुम्हारी श्वास—श्वास में एक खोज
है। बस, इतना काफी है। तुम पात्र हो क्योंकि तुम खाली हो।
पात्रता के कारण तुम पात्र नहीं हो।
यह पात्र शब्द बड़ा अच्छा है। उसी से पात्रता
शब्द बनता है। पात्रता से हम अर्थ लेते हैं, योग्यता; लेकिन
अगर ठीक से समझो तो पात्र का इतना ही मतलब होता है, जो खाली
है, जो भरने को राजी है। कोई अगर भरे, तो
वह बाधा न डालेगा। बस, पात्र का इतना ही अर्थ होता है। धर्म
के जगत में इतनी ही पात्रता है, कि तुम खाली हृदय को लेकर
खड़े हो जाओ; गुरु का प्रसाद तुम्हें भर देगा।
"पाया हम परसाद।'
मस्तक मेरे कर धरया देखा
अगम अगाध।'
दादू कहते हैं, मेरे सिर
पर हाथ रख दिया गुरु ने।
किस सिर पर हाथ रखा जा सकता है? जो सिर
झुका हो। अन्यथा हाथ रखा ही नहीं जा सकता। सिर्फ झुके सिर पर हाथ रखा जा सकता है।
सिर्फ झुका सिर ही गुरु के हाथ से मिल सकता है।
जैसे नदी की धार नीचे की तरफ बहती है, गहरी से
गहरी खाई की तरफ बहती है और अंततः सागर में गिर जाती है क्योंकि सागर सबसे बड़ी खाई
है। पैसिफिक महासागर पांच मील गहरा खड्डा है। तो सारे जगत का पानी बहा जा रहा है
सागरों की तरफ। पूरब ने एक पूरा विज्ञान खोजा है। शिष्य झुके, ताकि गुरु दे सके। अगर शिष्य झुकना नहीं जानता, तो
गुरु तैयार भी हो देने को, तो भी देने का कोई उपाय नहीं।
मेरे पास कई बार लोग आते हैं; वे कहते
हैं कि क्या संन्यस्त होना जरूरी है, तभी आप हमारी सहायता
करेंगे?
मैं उनसे कहता हूं, मेरी
सहायता तुम्हें सदा उपलब्ध है। लेकिन संन्यस्त होकर ही तुम उसे पा सकोगे। मेरे तरफ
से उपलब्ध होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारी तरफ से लेने की क्षमता भी तो होनी
चाहिए। संन्यस्त होने का कोई और अर्थ नहीं है। दीक्षित होने का कोई और अर्थ नहीं
है; इतना ही अर्थ है, कि हम झुकते हैं।
बस, इतना ही अर्थ है, कि हम झुकने को
राजी हैं। हमारी तरफ से कोई बाधा नहीं है। अगर आप बरसो, तो
हमारा पात्र सामने रखा है।
कठिन हो जाता है समझना उन्हें क्योंकि वे
सोचते हैं, अगर मैं सहायता करने को तैयार हूं, तो फिर संन्यास,
दीक्षा इस सबका प्रयोजन है? क्यों न बिना
संन्यस्त हुए, बिना दीक्षित हुए उनको सहायता मिल जाए?
शायद उन्हें लगता है, कि मैं थोड़ा
पक्षपातपूर्ण हूं।
वे गलती में हैं। मैं उन्हें भी देना चाहता
हूं, लेकिन वे लेने को राजी नहीं हैं। वह ऐसे ही हैं, जैसे
पहाड़ की चोटी हो; बहती गंगा की धार से कहे, कि क्या तू सागर को ही दिए चली जाएगी? हम भी खड़े
हैं। आखिर हमारी तरफ क्यों नहीं चली आती? तो गंगा कहेगी,
मैं, तो राजी हूं, लेकिन
तुम इतने ऊंचे खड़े हो, कि वहां तक आने का कोई उपाय नहीं है।
जलधार नीचे की तरफ जा रही है। गुरु से शिष्य
की तरफ एक जीवंत धार बहती है। अगर तुम ठीक समझो, तो वही स्वर्ग की गंगा है।
गुरु की तरफ से एक प्रसाद बहता है, लेकिन उसके लिए तुम्हें
झुके हुए होना जरूरी है; तभी तुम उसे झेल पाओगे। अन्यथा वह
बरसेगा भी और तुम खाली के खाली रह जाओगे। अगर तुम पहले से ही भरे हुए हो, तो तुम खाली रह जाओगे। अगर तुम खाली हो, तो भर
जाओगे।
इसीलिए तो धर्म पहेलियां जैसा लगता है।
पहेलियां हैं,
लेकिन सीधी—साफ हैं। जरा सी भी समझ हो, तो
अड़चन नहीं है।
नदी बह रही है, तुम
प्यासे खड़े हो; झुको, अंजलि बनाओ हाथ
की, तो तुम्हारी प्यास बुझ सकती है। लेकिन तुम अकड़े ही खड़े
रहो, जैसे तुम्हारी रीढ़ को लकवा मार गया हो तो नदी बहती
रहेगी तुम्हारे पास और तुम प्यासे खड़े रहोगे। हाथभर की ही दूरी थी, जरा से झुकते, कि सब पा लेते। लेकिन उतने झुकने को
तुम राजी न हुए। और नदी के पास छलांग मारकर तुम्हारी अंजलि में आ जाने का कोई उपाय
नहीं है। और आ भी जाए, अगर अंजलि बंधी न हो, तो भी आने से कोई सार न होगा।
शिष्यत्व का अर्थ है, झुकने की
तैयारी। दीक्षा का अर्थ है, अब मैं झुका ही रहूंगा। वह एक
स्थाई भाव है। ऐसा नहीं है, कि तुम कभी झुके और कभी नहीं
झुके। शिष्यत्व का अर्थ है, अब मैं झुका ही रहूंगा; अब तुम्हारी मर्जी। जब चाहो बरसना, तुम मुझे गैर—झुका
न पाओगे।
"मस्तक मेरे कर धरया देखा अगम
अगाध।'
और जब झुका हुआ सिर हो शिष्य का, तो बड़ी
क्रांतिकारी घटना संभव हो जाती है।
मनुष्य के शरीर में सात चक्र हैं। साधारणतः
तुम पहले ही चक्र से परिचित हो पाते हो, क्योंकि प्रकृति उसी चक्र के साथ
अपना सारा काम चलाती है—वह है, काम—चक्र, मूलाधार। जहां से कामवासना उठती है, जहां से जीवन का
प्रवाह चलता रहता है।
लेकिन वह सबसे नीचा चक्र है। उस चक्र में
जीने का अर्थ है,
जैसे कोई आदमी महल के होते हुए बस, महल के
बाहर पोर्च में ही घर बना ले। पोर्च भी महल का हिस्सा है और सुंदर है। मेरे मन में
कोई निंदा नहीं है किसी बात की। पोर्च में कुछ भी बुरा नहीं है। पोर्च बिलकुल
सुंदर है, उसकी जरूरत है। बाहर से आए तो पोर्च से गुजरना
पड़ेगा। भीतर से गए तो पोर्च से गुजरना पड़ेगा। धूप होगी, वर्षा
होगी, तो पोर्च बचाएगा; लेकिन पोर्च
कोई रहने की जगह नहीं है कि वहीं रहने लगे।
एक यूनान में बहुत बड़ा विचारक हुआ—झेनो।
उसकी विचार—पद्धति का नाम स्टोइक है। ग्रीक भाषा में पोर्च का नाम है "स्टोआ'। वह पोर्च
में ही रहता था झेनो, इसलिए उसके पूरे दर्शन—शास्त्र का नाम
"स्टोइक' हो गया, "स्टोआ'
से। पोर्च में रहने वाला झेनो वह कभी महल के भीतर नहीं गया। वह
पोर्च में ही जीया, पोर्च में मरा। और कोई पूछता, कि तुम इस पोर्च में क्यों जी रहे हो? तो वह बताता
था, कि वह उसकी त्यागपूर्ण दृष्टि है।
लेकिन ऐसा त्याग मूढ़तापूर्ण है। ऐसा ही
त्याग तुम भी कर रहे हो,
कि तुम कामवासना में ही जी रहे हो। वह जीवन का पोर्च है, इससे ज्यादा नहीं। महल बहुत बड़ा है। और उस महल में बड़े अनूठे कक्ष हैं और
उसके अंतर्गृह में स्वयं परमात्मा विराजमान है। तुम पोर्च में बैठे रहो; तुम यूं ही व्यर्थ जीवन को गंवा दोगे।
सात चक्र हैं; पहला चक्र काम है और सातवां
चक्र सहस्रार है। जब शिष्य का सिर झुकता है गुरु के चरणों से, और केवल बाहर का ही सिर नहीं झुकता, भीतर का अहंकार
भी झुक जाता है, जब ऐसी मिलन की घड़ी आती है, कि बाहर सिर के साथ भीतर का अहंकार भी झुक जाता है—ध्यान रखना! क्योंकि
बाहर का सिर झुकाना तो बहुत आसान है। कम से कम भारत में बहुत ही आसान है। लोग
अभ्यस्त हैं, औपचारिक है। सिर झुकाने में उन्हें कुछ लगता ही
नहीं। वह केवल परंपरागत है। लेकिन अगर तुम उनके अहंकार की तस्वीर ले सको, तो भारतीय को तुम झुकते हुए देखोगे, सिर तो झुका हुआ
आएगा तस्वीर में, अहंकार खड़ा हुआ आएगा तस्वीर में। और यह भी
हो सकता है कि सिर झुकाने से भी अहंकार मजबूत हो रहा हो। जीवन जटिल है। एक नई अकड़
पकड़ रही हो, कि मैं तो विनम्र आदमी हूं, देखो कहीं भी सिर झुका देता हूं। देखो मेरी विनम्रता!
जब तुम्हारा सिर भी झुकता है और तुम्हारे
भीतर का सिर भी झुक जाता है—अहंकार, जब ऐसी मिलन की घड़ी आती है,
जब तुम पूरे ही झुके हुए होते हो, तो गुरु का
हाथ अगर उस घड़ी में तुम्हारे सहस्रार पर पड़ जाए, तो उसकी
जीवन—धारा तुममें प्रवाहित हो जाती है। और जो काम तुम अपने ही हाथ से जन्मों में न
कर पाते, वह क्षण में घटित हो जाता है। वह प्रसाद हो जाता
है। तुम्हारी सारी जीवन—ऊर्जा गुरु की जीवन—ऊर्जा के साथ उर्ध्वगामी हो जाती है।
तुम्हारा सातवां चक्र सक्रिय हो जाता है।
और यह जो चक्र सक्रिय हो जाए, तो दादू कहते
हैं, "देखा अगम अगाध'।
इसलिए वे प्रसाद कहते हैं। अपने बस से यह
नहीं हुआ है। अपनी तरफ से कुछ भी न किया था, सिर्फ झुक गए थे। यह भी कोई करता
है। लेकिन गुरु का हाथ पड़ गया सिर पर और क्षणभर में एक क्रांति हो गई। गुरु की
बहती ऊर्जा ने तुम्हारे जीवन के सारे छिन्न—भिन्न तार जोड़ दिए। खंडित वीणा अखंड हो
गई। तो कल तक टूटी धार थी, संयुक्त हो गई। कल तक, क्षणभर पहले तक जिस भीतर के मंदिर का तुम्हें कोई पता न था, उसका कलश दिखाई पड़ने लगा।
इस जीवन को अगर तुमने कामवासना से देखा है, तो यह
संसार है। इसी जीवन को अगर तुमने सहस्रार से, समाधि से देखा
है, तो यही अगम—अगाध है। संसार यही है, कुछ बदलता नहीं; तुम्हारी दृष्टि, तुम्हारे खड़े होने की जगह बदल जाती है।
और जिस दिन तुम समाधि के केंद्र से संसार को
देखते हो, संसार बचता ही नहीं; परमात्मा ही दिखाई पड़ता है। हर
फूल—पत्ते में वही, हर कंकड़—पत्थर में वही; आकाश, चांदत्तारों में वही। लोगों में झांको और तुम
उसी को पाते हो। हवा के झोंके को स्पर्श करो, उसी का स्पर्श
होता है। आंख बंद करो, वही दिखाई पड़ता है। आंख खोलो, वही दिखाई पड़ता है। लेकिन यह जीवन—ऊर्जा जब समाधि के द्वार से देखती है—
"गैब मांहि गुरुदेव मिल्या पाया
हम परसाद।
मस्तक मेरे कर धरया देखा अगम अगाध।
दादू सतगुरु यूं सहजै मिला, लिया कंठ
लगाई।
दाया भली दयाल की तब दीपक दिया जगाई।'
एक—एक शब्द को समझने की कोशिश करना। क्योंकि
दादू जैसे लोग एक शब्द भी व्यर्थ उपयोग नहीं करते हैं। बोलना उनका रस नहीं है। एक—एक
शब्द किसी भीतर के गहरे विज्ञान की तरफ इशारा करता है।
"सतगुरु यूं सहजे मिला'—सतगुरु से मिलने का एक ही उपाय है, कि तुम सहज हो
रहो। जितने तुम असहज होओगे जितने जटिल होओगे, जितने कठिन
होओगे, उतना मिलन मुश्किल हो जाएगा। सतगुरु से तो तुम ऐसे
मिलो, जैसे तुम एक छोटे बच्चे हो। पांडित्य को घर रख जाओ।
जहां जूते उतारते हो, वहीं अपनी सारी खोपड़ी भी उतार दो।
स्नान करके जाओ। शरीर का धूल—धवांस ही नहीं झाड़ दो, भीतर के
विचार भी वहीं छोड़ जाओ। गुरु के पास तो ऐसे जाओ जैसे तुम एक छोटे बच्चे हो,
जिसे कुछ भी पता नहीं; जिसके होने में कहीं भी
कोई आड़ा—तिरछापन नहीं है; जो सीधा सरल है, प्राकृतिक है।
अब यह बड़ी उलझन की बात है। क्योंकि सारी
सभ्यता, समाज, संस्कृति तुम्हें जटिल बना रही है। समाज तुमसे
कहता है, भीतर तुम कुछ भी होओ, बाहर
कुछ और बताओ। भीतर क्रोध है, कोई फिक्र नहीं, सम्हाले रहो; बाहर मुस्कुराओ। आदमी को देखकर तुम्हें
लगता है, कि कहां से इस दुष्ट के दर्शन हो गए! मगर कहो उससे,
कि आपके मिलने से बड़ी प्रसन्नता हुई, बड़ा आनंद
हुआ, बड़े दिनों में दर्शन हुए। कहो यही! मेहमान घर आता है,
तबीयत होती है कि फांसी लगा लो; मगर स्वागत
में पलक—पांवड़े बिछा दो।
सारी जीवन—व्यवस्था झूठ, जटिलता,
पाखंड पर खड़ी है। किसी को सरल होने का उपाय नहीं।
लेकिन गुरु से ऐसे मिलना न होगा। गुरु के
पास अगर तुम ये सब समझदारियां लेकर गए, तो तुम पास पहुंच ही न पाओगे। निकट
पहुंच जाओगे, पास न पहुंच पाओगे। शरीर के पास हो जाओगे,
गुरु के पास न हो पाओगे। गुरु के पास होने का तो एक ही उपाय है—सहजता।
अगर तुम दूर हो गुरु से, तो उसका केवल एक ही कारण होगा,
कि तुम असहज हो, सहज हो जाओ, तत्क्षण तुम पास हो। हजारों मील का फासला हो भला, अगर
तुम सहज हो, गुरु के पास हो—और तुम गुरु के बिलकुल पास बैठे
हो, शरीर से शरीर लगाकर बैठे हो, लेकिन
असहज हो, तो हजारों मील का फासला है।
"सतगुरु यूं सहजै मिला लिया कंठ
लगाई।'
अगर तुम सहज हो, तो गुरु
तुम्हें कंठ लगा लेगा।
कंठ शब्द सोचने जैसा है। क्योंकि ये सब अलग—अलग
चक्रों के नाम हैं। कंठ पर पांचवां चक्र है। और जिसका कंठ का चक्र जाग गया हो, उसका गद्य
भी पद्य हो जाता है। उसके बोलने में एक माधुर्य आ जाता है। उसके शब्दों में एक
शून्य, उसके मौन में भी बड़ी मुखरता होती है। और उसकी मुखरता
में मौन की छाया होती है। जिसके कंठ का पांचवां चक्र सजीव हो गया होता है...।
जब ऊर्जा ऊपर की तरफ जाती है, तो एक—एक
चक्र को पार करती है। पहला चक्र काम—चक्र है। दूसरा चक्र नाभि के नीचे है। दूसरे
चक्र में जब ऊर्जा आती है, तो भय समाप्त हो जाता है, अभय उपलब्ध होता है। क्योंकि दूसरे चक्र से ही मृत्यु का संबंध है। जब
दूसरे चक्र को तुम पार कर लिए, मृत्यु को पार कर लिए।
इसलिए जब भी तुम्हें भय लगता है तब तुमने
सोचा होगा, समझा होगा, कि तत्क्षण तुम्हारे पेट में कुछ गड़बड़
होनी शुरू हो जाती है। बहुत भयभीत अवस्था में तो आदमी का मलमूत्र भी त्याग हो जाता
है। वह इसीलिए हो जाता है, कि भय का चक्र इतना सक्रिय हो
जाता है, कि पेट को खाली करना जरूरी हो जाता है।
भयभीत आदमी के पेट में अलसर हो जाते हैं।
चिंतित आदमी के पेट में अलसर हो जाते हैं। अलसर का कुल इतना ही मतलब है, कि भय का
चक्र इतने जोर से घूम रहा है, कि तुम्हारे शरीर को ही उसने
पचाना शुरू कर दिया। उसने पेट की चमड़ी को पचाना शुरू कर दिया, इसलिए अलसर पैदा होने शुरू हो गए।
जब ऊर्जा भय के चक्र से पार हो जाती है, तुम
निर्भीक हो जाते हो, अभय हो जाते हो, मौत
दिखाई नहीं पड़ती। सभी जगह अमृत प्रतीत होने लगता है।
फिर तीसरा चक्र नाभि के ऊपर है। उस तीसरे
चक्र पर आते ही तुम्हारे जीवन में कुछ अनूठा संतुलन मालूम होने लगता है—एक बैलेंस; अति नहीं
रह जाती। अन्यथा साधारणतः जीवन में अतियां है। या तो तुम एक अति पर जाते हो कि भोग
लो, या त्याग कर लो। या तो बहुत भोजन कर लो, या उपवास कर लो। बस, ऐसे अतियों पर डोलते रहते हो।
कभी ध्यान कर लिया बैठकर चार घंटे, फिर चार छह दिन के लिए
नींद ले ली।
जैसे ही तुम तीसरे चक्र पर आते हो, अति विलीन
हो जाती है। संतुलन पैदा होता है।
जब तुम चौथे चक्र पर आते हो, तो चौथा
चक्र हृदय का चक्र है। तब तुम्हारे जीवन में पहली दफा प्रेम पैदा होता है। उसके
पहले तुम प्रेम की बात करते हो, चर्चा चलाते हो। वह चर्चा और
बातचीत ही है। उसके पहले तुम्हारा सब प्रेम कामवासना का ही छिपा हुआ रूप है। शब्द
के आवरण तुम कुछ भी लपेटो, भीतर कामवासना नंगी खड़ी है। हृदय
पर जब ऊर्जा आती है तभी तुम्हारे जीवन में प्रेम का प्रादुर्भाव होता है, काम विसर्जित हो जाता है।
फिर पांचवां चक्र है, कंठ पर।
कंठ पर आते ही ऊर्जा सत्य को अभिव्यक्ति देने की क्षमता को उपलब्ध होती है। जरूरी
नहीं है कि सुनने वाला समझ पाए। सुनने वाला भी तभी समझ पाएगा, जब उसका भी पांचवां चक्र सक्रिय हो जाए।
तो गुरु जब बोलता है शिष्य से, अगर शिष्य
का भी पांचवां चक्र सक्रिय हो; वही है अर्थ, "लीया कंठ लगाई'—तभी शिष्य समझ पाएगा, जो बोला गया है वही। अन्यथा बोलेगा गुरु कुछ, शिष्य
समझेगा कुछ। तुम समझोगे अपनी समझ के अनुसार।
अगर तुम्हारी ऊर्जा पहले ही चक्र पर है, तो गुरु
कुछ कहेगा, तुम कुछ समझोगे। तुम्हारी सारी समझ में कामवासना
होगी। अगर तुमने भय को पार नहीं किया है, तो तुम्हारी
परमात्मा की तलाश भी भय पर ही आधारित होगी। तुम अगर प्रार्थना भी करने जाओगे तो
तभी जाओगे, जब तुम्हारे प्राण भयभीत होंगे। अन्यथा तुम न
जाओगे।
इसलिए लोग सुख से नहीं जाते, दुख में
जाते हैं। सुख में कौन परमात्मा की याद करता है? क्या लेना—देना
परमात्मा से? जब दुखी होते हैं, तब
जाते हैं; तब भय से कंपते हैं। मरते समय नास्तिक तक आस्तिक
हो जाते हैं। जब आदमी सफल हो रहा होता है, जवान होता है,
स्वस्थ होता है और सब तरफ से जिंदगी जीतती मालूम पड़ती है, तब आस्तिक भी नास्तिक हो जाता है। जब पैर कंपने लगते हैं, जीवन—ऊर्जा बिखरने लगती है, उतार आता है, ज्वार जा चुका और भाटे का क्षण आता है, तब नास्तिक
भी आस्तिक होने लगते हैं। मरते वक्त वे भी ईश्वर की सोचने लगते हैं।
तो अगर तुम्हारी ऊर्जा पांचवें चक्र पर नहीं
है, तो गुरु कुछ कहेगा, तुम समझोगे कुछ। अगर पांचवें
चक्र पर है, तो गुरु कुछ भी न कहे, तो
भी तुम वही समझोगे, जो गुरु कहना चाहता हैं। एक तार जुड़ जाता
है। एक संवाद की संभावना शुरू होती है।
सत्य कहा नहीं जा सकता इसीलिए, क्योंकि
सत्य को सुनने वाला मौजूद नहीं होता। सत्य को सुनने वाला मौजूद हो, सत्य निश्चित कहा जा सकता है। कहने तक की जरूरत नहीं पड़ती; बिना कहे भी कहा जा सकता है। गुरु चुप बैठा रहे और शिष्य चुप बैठा रहे,
तो दोनों के कंठों में एक लेन—देन शुरू हो जाता है।
"सतगुरु यूं सहजे मिला लीया कंठ
लगाइ।
दाया भली दयाल की, तब दीपक
दिया जगाइ'।
और अनुकंपा है गुरु की, कि फिर
उसने दीया जला दिया। दीया है छठवां चक्र; जिसको शिव—नेत्र
कहें, थर्ड आई कहें, जो तुम्हारी दोनों
आंखों की भौंहों के मध्य में है; वह दीया है। क्योंकि वहीं से
रोशनी फिर भीतर भर जाती है।
गुरु समझाता है, गुरु
जताता है, बताता है, इशारे करता है
ताकि तुम्हारी जीवन—ऊर्जा पांचवें से छठवें की तरफ यात्रा कर ले। अगर तुम सुनने
में राजी हो, अगर तुम तत्पर हो, तल्लीन
हो, तो जल्दी ही ऊर्जा दीया बन जाएगी। जिसका भी तीसरा नेत्र
खुल गया उसके भीतर प्रकाश ही प्रकाश हो जाता है। और जिसके भीतर प्रकाश है, उसके बाहर भी अंधकार नहीं। वह जहां भी जाता है, अपने
ही प्रकाश में चलता है। उसके लिए इस संसार में फिर कहीं कोई अंधकार नहीं है।
"दाया भली दयाल की तब दीपक दिया
जगाय।।
सतगुरु मारे सबद सूं, निरखि
निरखि निज ठौर।
राम अकेला रहि गया, चीत न आवे
और।'
और गुरु ने एक—एक शब्द के बाण से ऐसे निशाने
लगाए—"सतगुरु मारे सबद सूं, निरखि निरखि निज ठौर' कि
भीतर जो भीड़ थी विचारों की, वह एक—एक कर मर गई। एक—एक विचार
निष्प्राण हो गया।
और एक ऐसी घड़ी आई सन्नाटे की, कि जब
भीतर देखा तो पता चला—"राम अकेला रहि गया चीत न आवे और।' कोई और दिखाई ही नहीं पड़ता। सिर्फ राम को छोड़कर सब गुरु ने मार डाला।
गुरु बोलता है, शब्द का
उपयोग करता है। ऐसे ही, जैसे पैर में कांटा लग जाए, तो हम दूसरे कांटे से उसको निकालते हैं। कांटा एक लग गया, दूसरा कांटा खोजकर हम पहले कांटे को निकालते हैं। दूसरा कांटा भी पहले
कांटे जैसा ही है। जब पहला कांटा निकल जाए, तो भूलकर भी
दूसरे कांटे को घाव में मत रख लेना, यह सोचकर कि यह बड़ा
अच्छा कांटा है। बड़ी सेवा की इसने मेरी, वक्त पर काम आया।
नहीं, जब पहला कांटा फिंक गया, तो
दूसरे को भी उसी के साथ फेंक देना।
गुरु के शब्द कांटों की तरह है—तुम्हारे
भीतर कुछ कांटे हैं उन्हें खींच लेने के लिए। तीर है—तुम्हारे भीतर विचार है, उन्हें
काट डालने के लिए। विचार विचार से कटेगा। तीर तीर से कटेगा; कांटा
कांटे से निकलेगा। जहर को जहर से मारना पड़ता है।
"सतगुरु मारे सबद सों निरखि
निरखि निज ठौर।'
और अगर तुम घबड़ा गए; क्योंकि
गुरु तुम्हारी धारणाओं को तोड़ेगा, तुम्हारी आस्थाओं को
मिटाएगा, तुम्हारे परिकल्पित विचारों की हत्या कर देगा। अगर
तुम भयभीत हो गए, कि यह तो मेरा धर्म छीन ले रहा है; यह तो मेरे शास्त्र को मिटाए दे रहा है; यह तो मेरे
न मालूम कितने—कितने समय से संजोए हुए सिद्धांतों को नष्ट किए डाल रहा है—और तुम
भाग खड़े हुए, तो तुम चूक जाओगे।
शास्त्र भी छोड़ने होंगे, सिद्धांत
भी छोड़ने होंगे। सिर्फ उसी को बचाना है, जिसको मिटाने का कोई
उपाय नहीं है। बाकी सब मिटा देना है। एक दफा उसकी पहचान आ जाए, फिर कोई भय नहीं है। लेकिन जब तक उसकी पहचान नहीं है, तब तक तुम्हारा राम न मालूम कितने सिद्धांतों, शास्त्रों
की भीड़ में खो गया है। कितने शब्दों की बकवास तुम्हारे भीतर चलती रहती है!
अब तुम राम को खोजना चाहते हो और इतना बड़ा
बाजार है तुम्हारा मन! राम का कहीं पता नहीं चलता। एक—एक को काट डालना होगा। राम
को काटने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि वह कटता ही नहीं। वह तुम्हारे भीतर जो अमृत, तुम्हारे
भीतर जो शाश्वत, सनातन है, अनादि,
अनंत है, वही राम है। गुरु सब गिरा देगा,
अगर तुम राजी रहे। यह बड़े से बड़ा आपरेशन है, जो
दुनिया में हो सकता है।
कोई भी सर्जन इस आपरेशन को नहीं करता।
ज्यादा से ज्यादा तुम्हारे शरीर के सड़े—गले अंगों को काट देता है। गुरु तो
तुम्हारे सड़े—गले मन को पूरा का पूरा काटता है। और तभी तुम्हारी आत्मा निखर पाती
है। अगर तुम मरने को राजी हो—क्योंकि पहले तुम्हें यह मरने जैसा ही लगेगा। इन
विचारों को तो तुमने अपना प्राण समझा है।
अगर हिंदू है कोई और तुम हिंदू धर्म को कुछ
कह दो, तो वह मरने—मारने को उतारू हो जाता है। अगर मुसलमान है कोई और तुम मुसलमान
धर्म को कुछ कह दो, जीवन दांव पर लगा देगा। या तो तुम्हें
मिटाएगा, या खुद मिट जाएगा।
आदमी शब्दों के लिए मरने को राजी है, मारने को
राजी है। शब्दों का मूल्य उन्होंने जीवन से ज्यादा समझा है। कितने लाखों लोग मरे
हैं चर्चों, मस्जिदों, मंदिरों के नाम
पर! आश्चर्यजनक है, कि शब्द का इतना मूल्य है, कि तुम अपना जीवन गंवाने को तैयार हो। कि किसी ने गीता को गाली दे दी,
कि किसी ने कुरान को बुरा कह दिया, बस तुम
पागल हुए। तुम राम को मिटाने को राजी हो, लेकिन शब्दों को
छोड़ने को नहीं।
तो गुरु जब एक—एक करके तुम्हारे सिद्धांतों
को तोड़ने लगेगा और तुम्हारी धारणाओं को नष्ट करने लगेगा, तब
तुम्हें ऐसा ही लगेगा, कि ये तो तुम्हारे प्राण गए। यही वक्त
है, जब हिम्मत और साहस की जरूरत है। यही समय है, जब श्रद्धा का उपाय है, उपयोग है। क्योंकि तब तुम
छोड़ देते हो अपने को गुरु के हाथ में, कि ठीक है।
जैसा तुम सर्जन के हाथ में अपने को छोड़ देते
हो। खतरनाक है छोड़ना,
क्योंकि क्या पता, जब तुम क्लोरोफार्म से
बेहोश पड़े हो, तब वह तुम्हारी गर्दन ही काट दे! लेकिन तुम
सर्जन के हाथ में अपने को छोड़ देते हो। सर्जरी बंद हो जाए बिना श्रद्धा के;
क्योंकि क्या पता है, कि सर्जन क्या करेगा।
तुम तो चाहते थे एपेन्डिक्स निकाले, वह कुछ और निकाल ले।
नहीं, तुम छोड़ देते हो अपने को हाथ में उसके कि ठीक है। एक
भरोसा है।
गुरु के हाथ में तो छोड़ना और भी बड़े भरोसे
की बात है। क्योंकि वह शरीर का ही मामला नहीं है, तुम्हारी चेतना का मामला
है।
"सतगुरु मारै सबद सों निरखि
निरखि निज ठौर।
राम अकेला रह गया चीत न आवे और।
सबद दूध घृत राम रस कोई साध विलोवणहार।
दादू अमृत काढिलै गुरुमुखि गहै विचार।'
"सबद दूध'—गुरु जो बोलता है, वह तो दूध जैसा है। तुम उतने से
ही तृप्त मत हो जाना, जो वह बोलता है। क्योंकि तब तुम दूध ही
पाओगे। अच्छा है, दूध मिले यह भी अच्छा है। लेकिन कुछ और भी
हो सकता है, जो तुम चूक जाओगे।
"सबद दूध, घृत राम रस'—लेकिन अगर उस दूध को तुमने अपने भीतर
मनन किया; अगर उस दूध को तुमने ध्यान बनाया, चिंतन बनाया; अगर उस दूध से तुम रमे और जीए—घृत राम
रस; तो तुम उस घी को उपलब्ध कर लोगे, जो
दूध में छिपा था। वह प्रगट हो जाएगा। यह घृत रामरस है।
"कोई साध विलोवणहार'—दूध तो बहुत लोग ले जाते हैं। लेकिन कोई साधक ही कभी ठीक से जानता है,
कि कैसे दूध को बिलोया जाए, कैसे दूध को मथा
जाए, मंथन—मनन—ध्यान; कैसे दूध को घृत बना
लिया जाए।
और दूध और घृत में बड़ी क्रांतिकारी अंतर हो
जाते हैं। दूध आज ठीक है,
कल खराब हो जाएगा। घी वर्षों तक खराब नहीं होगा। कभी खराब नहीं
होगा। जितना पुराना होगा, उतना मूल्यवान होता जाएगा। दूध आज
ठीक है, कल फेंकने—योग्य हो जाएगा। उसी दूध में कुछ छिपा है
शाश्वत, सनातन—"घृत राम रस।'
शब्द तो आज ताजे हैं, कल बासे
हो जाएंगे। और अगर तुमने शब्दों को सम्हालकर रखा, तो तुम
पागल हो। तुम दूध को सम्हालकर रख रहे हो। वह सड़ जाएगा, उससे
घर में बदबू फैलेगी, वह किसी काम का न रह जाएगा। वह सिर्फ
फेंकने के योग्य होगा।
जिन लोगों ने भी इस शास्त्रों को सम्हालकर
रख लिया है; उन्होंने दूध को सम्हाल के रख लिया है। सब शास्त्र सड़ गए। सभी शास्त्रों
से दुर्गंध उठने लगती है। अगर साधक समझदार हो, तो शब्द को मथ
लेगा, व्यर्थ को फेंक देगा। छाछ बच रहेगी, उसे तो फेंक देगा, घी को सम्हाल लेगा।
हर शब्द में छिपा है गुरु का सत्य। लेकिन
पूरे शब्द को बचाने की कोशिश मत करना। शब्द का जो भाव है, शब्द का
जो इशारा है—शब्द नहीं: तो शब्दों के बीच में जो खाली जगह है वह, दो पंक्तियों के बीच में जो शून्य है वह—वहां छिपा है रामरस।
"सबद दूध घृत राम रस कोई साध विलोवणहार'।
कभी—कभी कोई विरला साधक उसको मथ पाता है।
"दादू अमृत काढ़िलै गुरुमुख गहै
विचार।'
वह जो गुरु कह रहा है, वह कोई
विचार नहीं दे रहा है शब्दों के द्वारा। शब्दों के द्वारा वह निर्विचार देने की
कोशिश कर रहा है, शब्दों के द्वारा वह सिद्धांत नहीं दे रहा
है, शब्दों के द्वारा वह सिद्धि देने की कोशिश कर रहा है।
शब्दों के द्वारा वह मार्ग नहीं दे रहा है, शब्दों के द्वारा
वह मंजिल देने की कोशिश कर रहा है। लेकिन कोई साधक अगर ठीक से मंथन करे, तो ही समझ पाएगा।
"दादू अमृत काढ़िलै'—तो भाव को निकाल लो, शब्द की छाछ को छोड़ दो। शब्द तो
खाली कारतूस है फिर, उसमें कोई सार नहीं है, उसे ढोने का कोई मतलब नहीं है: चल चुकी कारतूस है, उसमें
से भाव निकाल लो।
मुझसे लोग पूछते हैं, कि आप जो
कहते हैं, क्या हम उसे याद रखें? उसे
याद रखने की कोई भी जरूरत नहीं है। उसे समझ लो, बात खतम हो गई।
उसे याद रखोगे—उसे याद रखने का मतलब ही यह हुआ, कि समझे
नहीं। याद रखना पड़ता है उन्हीं चीजों को, जिन्हें हम समझते
नहीं। जिन्हें हम समझ लेते हैं, उन्हें क्या याद रखना पड़ता
है? जिन्हें समझ लिया वे हमारे अंग हो गए, मांस—मज्जा हो गए, हमारे खून में डूब गए। हमारी
हड्डियों में समा हो गए। जो तुम समझ लेते हो, उसे तुम कभी
याद नहीं रखते। जो तुम नहीं समझ पाते हो, उसको तुम याद रखते
हो। जिसको तुमने समझ लिया, वह पच गया। जिसको तुमने नहीं समझा,
वह अनपचा तुम्हारे ऊपर बोझ बना रहता है।
याद रखने की कोई भी जरूरत नहीं है, भाव को
समेट लो। अर्थ को ले लो, व्यर्थ को छोड़ दो। अर्थ बड़ा होता
है। शब्द कितना ही बड़ा हो, अर्थ बड़ा छोटा है। पर अर्थ ही सार
है, वह निचोड़ है। जैसे एक बड़ा गुलाब का वृक्ष—उसमें दस—पांच
फूल लगते हैं, सारे वृक्ष की प्राण—ऊर्जा फूलों में आ जाती
है। फिर फूल का कोई इत्र निकालता है, तो हजारों फूलों से
चम्मचभर इत्र निकलता है।
शब्द तो बहुत हैं; उसमें से
निःशब्द को छांटते जाओ, वही इत्र है। और जिस दिन तुम्हें
निःशब्द या इत्र मिल जाएगा—"दादू अमृत काढ़िलै' उस दिन
तुमने अमृत काढ़ लिया।
"गुरुमुख गहै विचार'—गहन ध्यान से अमृत की उपलब्धि होगी।
देवै किनका दरद का, टूटा जोड़ै
तार।
दादू साधै सुरति को सो गुरु पीर हमार।।
"देवै किनका दरद का'—गुरु अंततः तो आनंद देगा लेकिन शुरू में बड़ा दर्द देगा। जैसे घाव दे देगा
हृदय में एक दर्द का, विरह का, परमात्मा
को पाने की आकांक्षा का। एक संताप जगा देगा। तुम जलोगे, तड़फोगे,
सो न सकोगे, सब चैन खो जाएगा। ऐसी घड़ी आएगी,
कि तुम पछताओगे, कि कहां इस आदमी से मिलना हो
गया।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, अच्छा था,
हम भले थे, बाजार में, दुकान
में डूबे थे। सब ठीक था। अब एक बेचैनी है। अब एक—एक पल जाता लगता है, कि जीवन गया। एक—एक दिन जाता है, लगता है, अभी तक पहुंचे नहीं। अब एक दर्द दे दिया।
निश्चित, ठीक कहते हैं वे। क्योंकि जब तक
उसका दर्द न हो, तब तक खोज गहन न होगी। जब तुम तड़फोगे ऐसे,
जैसे मछली तड़फती है बाहर पानी के फेंक दी गई तट पर, उसको ही भक्तों ने विरह कहा है। उसको ही दादू कह रहे हैं—"दैवे किनका
दरद का टूटा जोड़ै तार।'
लेकिन उस दर्द के ही द्वारा वह उस टूटे तार
को जोड़ता है। अगर वह दर्द न हो, तो टूटा तार भी नहीं जोड़ा जा सकता। क्योंकि तुम
राजी ही न होओगे। तुम मानोगे ही न कि कुछ टूटा है, कि कोई
तार टूटा है। उस दर्द में ही, उस पीड़ा में ही तुम्हें दिखाई
पड़ेगा कि तुम्हारा सागर खो गया है। तुम तट पर तड़फ रहे हो।
पहले तो तुम्हें जगाएगा, ताकि तुम
तड़फो। जिस दिन तुम्हारी तड़फ पूरी हो जाएगी, उसी दिन
"टूटा जोड़ै तार'। उसी दिन तुम्हारी प्यास ही तो
प्रार्थना बन जाती है। और तुम्हारा विरह ही तो योग बन जाता है। और तुम्हारी पुकार
ही। जिसमें तुम्हारी सारी पीड़ा संग्रहीभूत होती है, तुम्हारे
पहुंचने का द्वार बन जाती है।
"टूटा जोड़ै तार'
"दादू साधै सुरति को'—और तब परमात्मा की स्मृति सध जाती है। पहले तो दर्द, फिर तार का जुड़ना, फिर सुरति का सध जाना। सुरति का
अर्थ होता है, स्मृति; सुरति का अर्थ
होता है, उसकी याद।
जैसे कोई प्रेयसी अपने प्रेमी को याद करती
है, ऐसी जब तुम्हारी याद हो जाती है, सब भूल जाता है,
वही याद रहता है—तब इस सुरति में ही तो तार जुड़ जाता है। तुम रहते
यहां हो, यहां के नहीं रह जाते। होते बाजार में हो, बाजार में नहीं होते। खिंचते रहते हो मंदिर की तरफ। बात करते हो किसी से,
संवाद "उसी' से होता रहता है। सोते हो
यहां, लेकिन कहीं और जागे रहते हो। भोजन करते हो, काम करते हो, जीवन की सब व्यवस्था जुटाते रहते हो,
लेकिन भीतर एक धुन बजती रहती है अहर्निश उसके मिलन की।
सुरति का अर्थ है, जिसकी याद
तुम्हारी श्वास—श्वास बन जाए। सुरति का अर्थ है जिसकी याद न करनी पड़े, जिसकी याद होती रहे।
इस फर्क को ठीक से समझ लेना। सुरति का अर्थ
याद करना नहीं है;
सुरति का अर्थ है, याद में रम जाना।
एक फकीर औरत हुई राबिया। उससे किसी दूसरे
फकीर हसन ने पूछा,
कि राबिया, तू कितना समय परमात्मा की याद में
बिताती है? उसने कहा, "हसन,
तू भी पागल है। परमात्मा की याद में कितना समय? याद तो मैं उसकी करती ही नहीं। याद से तो उसकी मैं छूटना चाहती हूं। चौबीस
घंटे, सोते—जागते, श्वास—श्वास में याद
बनी है। जल रही हूं। याद से छूटना है किसी तरह।'
और एक ही उपाय है, याद से
छूटने का, कि आदमी उसमें डूब जाए। परमात्मा जब तक तुम न हो
जाओ, तब तक फिर याद न छूटेगी।
एक तो उपाय है, कि संसार
में खोए रहो ताकि याद ही न आए। फिर बीच की जगह है, जहां याद
आएगी और तुम तड़फोगे, बेचैन होओगे, रोआं—रोआं
तुम्हारा दर्द से भर जाएगा। और फिर एक तीसरी घड़ी है, जब तुम
छलांग लेकर वापिस सागर उतर जाओगे। मछली अपने घर पहुंच गई, सागर
ही हो गई।
परमात्मा ही जब तक तुम न हो जाओ, तब तक
सुरति को—तब तक सुरति का उपयोग है। फिर कोई याद की जरूरत नहीं है। फिर कौन किसकी
याद करता? फिर तुम वही हो गए, जिसकी
याद करते थे। फिर याद करने वाला ही न बचा। फिर याद किया जाने वाला भी न बचा। फिर
एक ही बचा।
"देवै किनका दरद का टूटा जोड़ै
तार।
दादू साधै सुरति को सो गुरु पीर हमार।'
और जो हमारी ऐसी सुरति को सधा दे, वही हमारा
गुरु है, वही हमारा पीर है।
तो गुरु कौन है, इसकी
परिभाषा कर रहे हैं वे। जो तुम्हारी याद को जगा दे परमात्मा की तरफ, वही गुरु है। जो तुम्हें तड़फा दे, वही गुरु है—देवे
दर्द; वही गुरु है। जो तुम्हारे मीठे सपनों को तोड़ दे,
क्योंकि मीठे सपने बड़े जहरीले हैं, झूठे हैं।
जितना समय गया उसमें, व्यर्थ ही गया। जितना जाएगा, वह भी व्यर्थ जाएगा। सपनों से चलते रहने से यात्रा नहीं होती। जो तुम्हें
जगा दे, दर्द से भर दे, प्यास से भर दे,
वही गुरु है।
"दादू साधे सुरति को सो गुरु
पीर हमार।
सदगुरु मिलै तो पाइए, भक्ति
मुक्ति भंडार।
दादू सहजै देखिए साहिब का दीदार।'
"सदगुरु मिलै तो पाइए'—कोई और उपाय नहीं है। सदगुरु मिल जाए, तो ही पाना हो
सकता है। और जो भी इससे अन्यथा कोशिश में लगे हों, वे कभी भी
पा न सकेंगे। और अगर कभी किन्हीं ने पा भी लिया हो, तो तुम
यही समझना कि तुम्हें पता न हो लेकिन उनको सदगुरु कभी न कभी मिल गया होगा।
कृष्णमूर्ति निरंतर कहते हैं, कि गुरु
की कोई जरूरत नहीं। लेकिन जन्मों—जन्मों से न मालूम कितने गुरुओं ने साधा है। इस
जन्म में भी एनीबीसेंट और लीडबीटर जैसे गुरु ने कृष्णमूर्ति को उठाया है और सुरति
को साधा है। जो पहुंच गए हैं, उनमें से कई लोगों ने कई बार
कहा है, कि गुरु की कोई जरूरत नहीं। उनका कहना ठीक है। पा
लेने के बाद ऐसा लगता है, कि जरूरत ही किसकी थी? यह तो हम पाए ही हुए थे।
मैंने सुना है, कि एक
बहुत बड़ी फैक्टरी, जहां सभी स्वचालित यंत्र थे, अचानक एक दिन बंद हो गई। बड़ी खोजबीन की गई, आधा दिन
बीत गया, दिन बीत गया, कुछ पता न चला,
कहां गड़बड़ है। इंजीनियर थक गए। फिर विशेषज्ञ को विदेश से बुलाना
पड़ा। सात दिन फैक्टरी बंद रही, तो लाखों का नुकसान हुआ।
विशेषज्ञ आया, उसने अपने खीसे से एक छोटा सा
स्क्रू"ड्राइवर निकाला, जाकर एक ढीले पेंच को कस दिया,
फैक्टरी चल पड़ी।
मालिक ने उससे बिल पूछा, उसने दस
हजार रुपए का बिल दिया। मालिक ने कहा, "यह जरा ज्यादा
है। एक छोटे से स्क्रू को कसने का दस हजार रुपया! यह तो हम ही कर लेते। यह तो कोई
भी बच्चा कर देता।'
तो उस विशेषज्ञ ने कहा, "फिर
कर ही लिया होता। अब मेरे कर दिए जाने के बाद तो बात बिलकुल सरल है। यह तो बच्चा
भी कर सकता है, कोई भी कर सकता है। और ये दस हजार जो तुमसे
ले रहा हूं, उसमें एक रुपया स्क्रू कसने के हैं। नौ हजार नौ
सौ निन्यानबे रुपए जानने के हैं, कि स्क्रू कौन सा कसना?
तो करोड़ों स्क्रू हैं। तुम बिल को दो हिस्सों से बांट लो। एक रुपया
कसने के हैं, नौ हजार नौ सौ निन्यानबे रुपए जानने के,
कि कहां कसना है! कस देने के बाद तो सब सरल हो जाता है।'
बहुतों को लगता है पहुंचने के बाद, कि क्या
जरूरत थी किसी के सहारे की? अपना ही खजाना था, अपने को ही पाना था। पाया ही हुआ था। कभी खोया न था; सिर्फ जरा याद भूल गई थी। यादभर लाने के लिए किसके चरणों में जाने की
जरूरत थी?
निश्चित यह बात सच है। जानकर ऐसा ही पता
चलता है, किसी के पास जाने की जरूरत न थी। लेकिन जो नहीं पहुंचे हैं, उन्हें यह मत कहना। क्योंकि अगर उनके दिमाग में यह फितूर सवार हो गया,
कि कहीं जाने की जरूरत नहीं, तो वे कभी भी न
पहुंचेंगे। और उसके दिमाग में यह फितूर सवार हो जाना बहुत आसान है, क्योंकि यह अहंकार के बड़े पक्ष में है, कि किसी के
पास जाने की कोई जरूरत नहीं है। कोई गुरु नहीं है। अहंकार स्वयं ही गुरु बनना
चाहता है, कहीं झुकना नहीं चाहता।
इसलिए कृष्णमूर्ति बात तो ठीक कहते हैं, लेकिन
जिन्होंने सुना है उनको हानि हुई है, लाभ नहीं हुआ। वे चुप
रहते और कुछ नहीं कहते, तो शायद ज्यादा लोगों को लाभ होता।
और जो कह रहे हैं, बिलकुल ही ठीक कह रहे हैं। उसमें रत्तीभर
गलती नहीं है। सौ प्रतिशत सही है। कुछ भी जरूरत नहीं है किसी को बताने की। मगर अगर
तुम अपने से ही पा सके होते, तो तुमने कभी का पा लिया होता।
कितने जन्मों से तुम भटक रहे हो!
सारे धर्म एक बात कहते हैं कि प्रथम धर्म का
जो आविष्कार है,
वह परमात्मा ने ही किया होगा। जैसे हिंदू कहते हैं, वेद उसने ही रचे। मुसलमान कहते हैं कुरान उसने ही उतारी। ईसाई कहते हैं,
बाइबिल उसके ही माध्यम, ईसा के माध्यम से आए
उसके ही शब्द है। यहूदी कहते हैं, मोजेज़ को उसी ने सूत्र दिए
हैं।
इन सारी कहानियों में एक बात बड़े अर्थ की है
और वह यह; और मैं मानता हूं, कि उसमें बड़ा रहस्य है। ऐसा होना
ही चाहिए, क्योंकि वही पहला गुरु हो सकता है। जब सभी लोग सोए
थे, तो वही जागा था। उसने एक को जगा दिया होगा, फिर शृंखला शुरू हो गई। अन्यथा आदमी अपनी तरफ से कैसे जागता? इसलिए वेद उसने बनाए, कि नहीं, मुझे प्रयोजन नहीं है; लेकिन बात में सार है। पहला
उदघोष, पहली उदभावना, पहला जागरण,
पहला हाथ का इशारा सोए आदमी को उसने ही दिया होगा।
परमात्मा का अर्थ है, जो जागा
हुआ है, चैतन्य है, उसने ही पहले आदमी
को जगाया होगा। फिर पहले ने दूसरे को, फिर दूसरे ने तीसरे को,
फिर अनंत शृंखला है।
इसलिए भारत में हिंदुओं के सारे शास्त्र ऐसे
ही शुरू होते हैं,
कि पहले ब्रह्मा ने उसको दिया ज्ञान, फिर उसने
उस ऋषि को दिया, फिर उस ऋषि ने उस ऋषि को दिया, फिर ऐसा चलते—चलते—चलते कृष्ण भी वही कहते हैं।
इसका एक ही अर्थ है, कि जागा
हुआ ही सोए हुए को जगा सकता है। इसलिए पहली किरण जागरण की परमात्मा से ही उतरनी
चाहिए। सीधे तुम जाग न सकोगे। जागकर तुम पाओगे कोई अड़चन न थी, जाग सकते थे। लेकिन सीधे तुम जाग न सकोगे।
"सदगुरु मिलै तो पाइए भक्ति
मुक्ति भंडार'।
और दादू कहते हैं, भक्ति पा
ली, तो मुक्ति पा ली। भक्त के लिए, प्रेमी
के लिए मुक्ति की कोई आकांक्षा ही नहीं है। वह कहता है, प्रेम
मिल गया परमात्मा का। बरस गया उसका मेघ ऊपर। हो गए उसके स्नेह से सिक्त—पा लिया सब—भक्ति
मुक्ति भंडार। भक्त मोक्ष की आकांक्षा नहीं करता।
और उसमें थोड़ी बात सोचने जैसी है, क्योंकि
मोक्ष की आकांक्षा में कहीं न कहीं अहंकार छिपा रह सकता है। "मैं मुक्त हो
जाऊं', इसमें कहीं मैं बच सकता है। मैं सबसे मुक्त हो जाऊं,
मैं बिलकुल स्वतंत्र हो जाऊं, इसमें मैं का
स्वर बच सकता है। भक्त कहता है, हमें कोई मुक्ति नहीं चाहिए।
हमें तो भक्ति चाहिए। तेरा प्रेम चाहिए। तेरे चरण मिल जाएं, काफी
है। तेरी आंख प्रेम से भरकर हमें देख ले, हमें काफी है।
लेकिन यही तो मुक्ति है। जिसको उसके चरण मिल
गए, वह मुक्त हो गया।
"दादू सहजै देखिए साहिब का
दीदार'।
दादू कहते हैं, कोई
मुक्ति की जरूरत नहीं। बस, इतना काफी है, कि तेरे दर्शन हो जाए। आंखें तुझे देख लें, बस! हृदय
तुझे पहचान लें, बस! चरण तेरे नृत्य से भर जाएं, बस!
और मैं कहता हूं, इतना हो
गया तो कुछ और होने को बचता नहीं। इस परम घड़ी में उत्सव की, जब
उसका दीदार हो जाता है, जब तुम देख लेते हो सब जगह उसे छिपा
हुआ; जब वह कहीं भी छिप नहीं पाता और तुम सब जगह उसे देखते
हो; जब ऐसी कोई जगह नहीं रह जाती, जहां
वह नहीं दिखाई पड़ता, तुम मुक्त हो गए, क्योंकि
वही बचा।
तुम अपने भीतर भी उसी को देखते हो, बाहर भी
उसी को देखते हो। मित्र में भी वही, शत्रु में भी वही। जीवन
में भी वही, मृत्यु भी वही। जब वही बचा तो किसको मुक्त होना
है और किससे मुक्त होना है? सारे बंधन गिर गए। फिर तो बंधन
भी मुक्ति है। फिर तो बंधन में भी मोक्ष है। अगर परमात्मा ही बांध रहा है, तो जल्दी भी क्या है छूटने की? अगर वही बंधन बना है,
तो धन्यभाग!
भक्त की यात्रा बड़ी अनूठी है। वह प्रेम की
यात्रा है। और प्रेम ही मोक्ष है। जिसने प्रेम के अतिरिक्त मोक्ष मांगा, वह अहंकार
की ही मांग कर रहा है। और जिसने प्रेम में ही मोक्ष को जाना, उसने ही मोक्ष को जाना है।
आज इतना ही।
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