ज्योति से ज्योति जले-
सुनत नगारै चोट विगसै कंवलमुख
अधिक उछाह फूल्यौ माइहू न तन मैं।
फिरै जब सांगि तब कोऊ नहिं धीर धरै,
काइर कंपायमान होत देखि मन मैं।।
टूटिकै पतंग जैसे परत पावक मांहिं,
ऐसै टूटि परै बहु सावंत के गन मैं।
मारि घमसांण करि सुंदर जुहारै स्याम,
सोई सूरबीर रुपि रहै जाइ रन मैं।।
सूरबीर रिपु कौ निमूनौ देखि चोट करै,
मारै तब ताकि करि तरवारि तीर सौ।
साधु आठौ जाम बैठौ मन ही सौं युद्ध करै,
जाकै मुंह माथौ नहि देखिए शरीर सौं।।
सूरबीर भूमि परै दौर करै दूलिलगैं,
साधु शून्य कौं पकरि राखै धरि धीर सौं।
सुंदर कहत, तहां काहू के न पांव टिकैं,
साधु कौ संग्राम है अधिक सूरबीर सौं।।
धूलि जैसो धन जाकैं सूलि से संसार-सुख,
भूलि जैसो भाग देखै अंत की सी यारी है।
पाप जैसी प्रभुताइ सांप जैसो सनमान,
बड़ाई हू बीछनी सी नागिनी सी नारी है।।
अग्नि जैसो इंद्रलोक विघ्न जैसो विधि लोक,
कीरति कलंक जैसी, सिद्धि सींटि डारी है।
वासना न कोऊ बाकी ऐसी मति सदा जाकी,
सुंदर कहत ताहि वंदना हमारी है।।
सांचौ उपदेश देत, भली भांति सीख देत,
समता सुबुद्धि देत, कुमति हरत है।
मारग दिखाई देत, भावहू भगति देत,
प्रेम की प्रतीति देत, अभरा भरत है।।
ज्ञान देत, ध्यान देत, आत्म-विचार देत,
ब्रह्म कौं बताइ देत ब्रह्म मैं चरत हैं।
सुंदर कहत जग संत कछु देत नांहिं,
संतजन निसिदिन देबौई करत हैं।।
कुछ लिखके सो कुछ पढ़के सो
तू जिस जगह जागा सबेरे
उस जगह से बढ़के सो!
जैसा उठा वैसा गिरा जाकर बिछौने पर
तिफ्ल जैसा प्यार यह जीवन खिलौने पर
बिना समझे बिना बूझे खेलते जाना
एक जिद को जकड़ लेकर ठेलते जाना
गलत है बेसूद है कुछ रचके सो कुछ गढ़के सो
तू जिस जगह जागा सबेरे उस जगह से बढ़के सो
दिन भर इबारत पेड़-पत्ती और पानी की
बंद घर की खुले-फैले खेत धानी की
हवा की बरसात की हर खुश्क की तर की
गुजरती दिनभर रही जो आपकी पर की
उस इबारत के सुनहरे वर्क से मन मढ़के सो
तू जिस जगह जागा सबेरे उस जगह
से बढ़ के सो
लिखा सूरज ने किरन की कलम लेकर जो
नाम लेकर जिसे पंछी ने पुकारा सो
हवा जो कुछ गा गई बरसात जो बरसी
जो इबारत लहर बनकर नदी पर दरसी
उस इबारत की अगरचे सीढ़ियां हैं, चढ़के सो
तू जिस जगह जागा सबेरे उस जगह से बढ़के सो
जीवन एक अविरत विकास है--प्रतिपल एक अनवरत धारा है।
जैसे गंगा बहती है सागर की ओर, और जब तक सागर न हो
जाए, तब तक चैन नहीं। ऐसी बेचैनी चाहिये। मनुष्.य जब तक
परमात्मा न पा ले तब तक चैन न हो।
सुना है तुमने, संतोष रखो। वह ठीक है, लेकिन
आधा ही ठीक है। और आधे सच कभी-कभी झूठ से भी बदतर, झूठ से भी
महंगे पड़ जाते हैं। आधे सच होते हैं, सच जैसे मालूम पड़ते
हैं। इसलिए झूठ से भी खतरनाक होते हैं।
दूसरा पहलू भी समझ लो। जो कहा है संतोष रखो, वह कहा है बाहर के संबंध में। उतना ही बड़ा सत्य, उससे
भी बड़ा सत्य--भीतर की तरफ निरंतर असंतोष चाहिए। संसार से संतुष्ट, अपने से असंतुष्ट--इन दो पंखों से यात्रा होती है।
लेकिन लोग उलटे हैं। लोग अपने से संतुष्ट हैं, संसार से असंतुष्ट हैं। जितना धन है, उससे थोड़ा
ज्यादा हो जाए। जितना पद है, उससे थोड़ा ज्यादा हो जाए। जितनी
प्रतिष्ठा है, उससे थोड़ी ज्यादा हो जाए। ऐसा उनका असंतोष है।
लेकिन जितनी आत्मा है, थोड़ी और बड़ी हो। यह छोटा आंगन,
बड़ा आकाश बने। यह छोटा झरना सागर बने, यह
छोटी-सी बूंद, महासागर हो जाए। ऐसा उनका असंतोष नहीं है।
आदमी उलटा खड़ा है। बाहर से असंतोष जोड़ दिया, भीतर से संतोष जोड़ दिया। इससे बदलो। इसकी बदलाहट ही तुम्हें धार्मिक
बनाएगी।
मंदिर और मस्जिद जाने से तुम धार्मिक नहीं हो जाओगे। वह धोखा तो
हजारों लोग, हजारों सालों से खा रहे हैं। धर्म का इतना सस्ता जन्म
नहीं होता! जीवन की पूरी इबारत बदलनी पड़ती है। और इबारत को बदलने का पहला सूत्र है
कि बाहर से संतुष्ट, भीतर से असंतुष्ट। एक दिव्य असंतोष की
आग जलनी चाहिए कि मैं जैसा जन्मा हूं, वैसा ही न मर
जाऊं--अंधेरे-अंधेरे में, अमावस-अमावस में। पूर्णिमा होकर
मरूं । मृत्यु आए, इसके पहले पूरा चांद उगे। मृत्यु आए,
इसके पहले जान लूं कि मैं कौन हूं, पहचान लूं
कि मैं कौन हूं?
और मजा यह है कि जो जान लेता है कि मैं कौन हूं, उसकी मृत्यु कभी आती नहीं! देह मरती है, रूप मरता है,
रंग मरता है, पर भीतर जो छिपा मालिक है,
वह कभी नहीं मरता। जो पहचान लेता है अपने को, उसी
पहचान में अमृत हो जाता है।
आत्मज्ञान अमृत का द्वार है।
लेकिन जहां असंतोष होता है वहीं संघर्ष होता है। अगर तुम बाहर से
असंतुष्ट हो तो तुम्हारा बाहर संघर्ष होगा। लड़ोगे धन के लिए, दौड़ोगे धन के लिए, आपाधापी होगी। अगर बाहर से
संतुष्ट हो गए तो बाहर कोई संघर्ष नहीं है। फिर संघर्ष की यात्रा भीतर होती है।
फिर काटोगे अंधेरा, उठाओगे तलवार। फिर तोड़ोगे वह सब, जो तुम्हारी मर्ूच्छा है। फिर मिटाओगे उस बस को, जिसने
तुम्हारे जीवन को कचरे से भर दिया है। लगा दोगे आग उसको, जला
दोगे धू-धू करके। फिर जो भी असार है भीतर, उसे घास-पात की
तरह उखाड़ फेंकोगे। तभी तो गुलाब के फूल खिलते हैं।
जब तक तुम्हारे भीतर घास-पात भरा है, तब तक तुम कहने के
लिए ही आदमी हो, नाममात्र के आदमी हो; अभी
तुम्हारे भीतर आत्मा का फूल नहीं खिला है। अभी तो घास-पात ही है। आदमी कम, खेतों में खड़े बिजूके हो!
खेत में बिजूका देखा? खड़ा कर देते हैं। घास-पात भर
देते हैं। ऊपर से खादी कार् कुत्ता पहना देते हैं। और अगर सुविधा हुई तो चूड़ीदार
पाजामा भी पहना देते हैं। नेहरू-कट अचकन, गांधी-टोपी. . . और
बिजूका खड़ा है! पक्षियों को भगाने के काम आ जाता है। पक्षियों को डराने के काम आ
जाता है। लेकिन बिजूके के भीतर कुछ भी नहीं है; घास-पात भरी
है। बिल्कुल नेताजी हैं!
खेत-खेत में खड़े बिजूके कपड़े पहने घास के।
आदमकद बाहर से; लेकिन भीतर से अजहद बौने,
निर्भय चरे जा रहे फसलें हिरनों के नन्हें छौने,
पात्र दया के निपट बिजूके या फिर हैं उपहास के।
भय के सभय प्रतीक इरादों से बिल्कुल शाकाहारी,
उतने ही असहाय कि जितनी अपने युग की बेकारी।
चौतरफा के दृश्य अदेखे, देख न पाते पास के।
फसल कटे, पशुओं ने इन पर ही चौकस हमले बोले,
सावधान की मुद्रा में वह, मुंह कैसे अपना खोले?
धरती के जो हो न सके वो क्या होंगे आकाश के?
खेत-खेत में खड़े बिजूके कपड़े पहने घास के।
आदमी बनो, बिजूकों से काम नहीं चलेगा। और जो आदमी अभी भीतर के
जगत् में असंतुष्ट नहीं, आदमी नहीं है। जिसने अभी भीतर धार
धरनी शुरू नहीं की, वह आदमी नहीं है। जिसने अभी भीतर के
चैतन्य को निखारना शुरू नहीं किया, संवारना नहीं शुरू किया,
वह आदमी नहीं है।
धन कितना ही इकट्ठे करो, कितने ही बड़े पद पर
पहुंच जाओ--बिजूके हो, बिजूके रहोगे! धनी बिजूके हो जाओगे,
लेकिन बिजूका होना नहीं मिटेगा। इसलिए दुनिया में इतने लोग हैं,
मगर आदमी कहां!
मैंने सुना है, डायोजनीज, यूनान का एक बहुत
अद्भुत दार्शनिक, भरी-दुपहरी में भी हाथ में एक जलती लालटेन
लिए रहता था और जो भी मिलता, उसका मुंह देखता लालटेन से। लोग
पूछते, बात क्या है? दिमाग तो दुरुस्त
है आपका? भरी-दुपहरी में लालटेन की जरूरत क्या है? और लालटेन उठा-उठा कर हर आदमी का चेहरा क्या देखते हो?
डायोजनीज कहता है कि मैं आदमी की तलाश में हूं। जिंदगी हो गई, अभी मुझे आदमी नहीं मिला--बस, बिजूके, बिजूके!
जब डायोजनीज मर रहा था तो किसी ने पूछा कि डायोजनीज, (लालटेन उसकी बगल में ही रखी थी) तुम्हारी जिंदगी अब समाप्त होने के करीब आ
गई, एक बात तो कह जाओ कि जिस आदमी को जिंदगीभर भरी-दुपहरी
में लालटेन लेकर तलाशते थे, वह मिला कि नहीं?
डायोजनीज ने आंख खोली और कहा, वह आदमी तो नहीं मिला,
लेकिन यही क्या कम है कि मेरी लालटेन बच गई! लालटेन चुरा ले
जानेवाले भी बहुत थे, जो इसी तलाश में थे कि कब मौका मिल जाए
तो लालटेन ले जाएं। मेरी लालटेन बच गई, यह क्या कम है?
आदमी तो मुझे मिला नहीं।
तुम भी ज़रा तलाशोगे तो आदमी मुश्किल से पाओगे। और बाहर तलाशने मत
जाना। बाहर से क्या लेना-देना है! दूसरा आदमी हो कि बिजूका, तुम्हारा क्या प्रयोजन है? ज़रा भीतर अपने को झांकना,
घास-पात ही तो नहीं भरी है? हीरे-जवाहरात होने
को आए थे, घास-पात ही रहोगे? घास-पात
रहकर ही चले जाओगे? अमृत की पहचान को आना हुआ था, जहर से ही मुलाकात हुई।
जन्म हुआ था कि जीवन को जानेंगे--और जन्म सिर्फ मृत्यु में ले जाता
है। जन्म और मृत्यु के बीच बहुत धन्यभागी थोड़े-से हैं, जो जीवन को जान पाते हैं। और जो जीवन को जान लेते हैं, उनका न तो जन्म है और न उनकी मृत्यु है। जो जीवन को जान लेते हैं, वे यह भी जान लेते हैं कि मैं सदा था, और सदा
रहूंगा। जन्म के पहले था, मृत्यु के बाद रहूंगा।
और ऐसी बातें शास्त्रों से मत सीख लेना; वही तो बिजूकों की
आदत है! उसी से तो आदमी घास-पात से भरा रह जाता है--शास्त्रीय घास-पात!
सुंदर-सुंदर वचन, मगर तुम्हारा अनुभव नहीं। सुंदर-सुंदर वचन,
मगर सुगंध कहां? सुगंध तो अनुभव से आती है।
सत्य को जन्म देना होता है। सत्य को जन्म देने में पीड़ा उठानी पड़ती
है। और सत्य को जन्म देने में साहस की जरूरत है!
पहला साहस तो भीतर की यात्रा है। क्योंकि बाहर की यात्रा सुगम है।
सारी इंद्रियां बाहर की ओर खुलती हैं। याद करो सुंदरदास को, कहा कि सारी इंद्रियां बाहर की तरफ खुलती हैं, सो
बाहर की यात्रा सुगम है। कोई कहे बाहर देखो तो कोई अड़चन नहीं आती; जब कोई कहता है भीतर देखो तो अड़चन शुरू होती है, भीतर
कैसे देखें? आंख तो बाहर देखती है। और भीतर आंख देखती है,
वह तो हमारी अभी खुली नहीं; वह तो हमारी बंद
है। वहां तो हम अभी अंधे हैं।
कान बाहर का संगीत सुन लेते हैं। और जब कोई कहता है सुनो भीतर के
अनहद-नाद को, तो हम भौंचक्के खड़े रह जाते हैं। कैसा अनहद नाद?
भीतर का कान तो अभी सक्रिय नहीं हुआ।
बाहर की यात्रा सुगम है, क्योंकि और सारे लोग
भी उसी यात्रा में संलग्न हैं। भीड़ जा रही, हम भी चल पड़ते
हैं। भीतर की यात्रा में अकेले चलना होगा। वहां न कोई संगी है न कोई साथी। भय
पकड़ता है। एकांत में आदमी कितना डरता है!
अपने ही घर में जिस दिन तुम अकेले होते हो, डर खाने लगता है। लोग-बाग होते हैं, बात-चीत होती है,
शोर-गुल होता, सब ठीक मालूम पड़ता है। सन्नाटा
हो जाए कि भय पकड़ता है। और यह सन्नाटा कुछ भी नहीं है। जब तुम भीतर की तरफ मुड़ोगे,
तब तुम जानोगे पहली बार कि सन्नाटा क्या है! क्योंकि बाहर तो जो
सन्नाटा है वह भी किसी-न-किसी तरह के शोरगुल से भरा होता है। गहरी से गहरी सन्नाटे
से भरी रात में भी आवाजें होती हैं। सन्नाटा भी एक आवाज है, शांति
नहीं है। शायद झींगुर ही बोल रहे हों, लेकिन पूरी रात हजारों
तरह की आवाजों से भरी होती है।
जब तुम भीतर जाओगे तब तुम पहली दफा पाओगे, शून्य क्या है? मौन क्या है? गलने
लगोगे, पिघलने लगोगे, भागने लगोगे।
लौटने लगोगे बाहर कि लौट चलो, जल्दी करो, बाहर निकलो। दम घुटने लगेगा। और दम जिसका घुटता है वह तुम नहीं हो,
तुम्हारा अहंकार है। जो बाहर जी सकता है, भीतर
मरता है। जो बाहर ही जी सकता है--जिसका जीवन बहिर्गमिता में है और जिसकी मृत्यु
अंतर्मुखता में है। इस बात को समझना।
लोग पूछते हैं आकर मुझसे--अहंकार कैसे छूटे? जब तक तुम बाहर की यात्रा पर हो, अहंकार छूट नहीं
सकता। फिर चाहे जाओ काशी और चाहे काबा, क्योंकि अहंकार बाहर
की यात्रा से निर्मित होता है। वही तो अहंकार की आधारशिला है। अहंकार के लिए
दूसरों की जरूरत होती है।
तुमने खयाल किया, तुम अगर अकेले बैठे हो तो तुम
कौन हो? ज्ञानी? --उसके लिए कुछ
अज्ञानी चाहिए। धनी?--उसके लिए कुछ गरीब चाहिए। सुंदर?
--उसके लिए कोई कुरूप चाहिए। अच्छे हो, बुरे
हो, कौन हो, क्या हो? सब अता-पता खोने लगता है। कोई कहे कि आप सज्जन हैं। किसी का मंतव्य चाहिए।
दूसरे के मंतव्यों को जोड़कर ही तो हम अपने अहंकार को निर्मित करते
हैं। इसलिए तो अहंकार ज़रा-सा कोई कुछ गलत कह दे, तो चोट खा जाता है।
लोग कहते रहे, आप बड़े सुंदर हैं, और
किसी ने एक दिन गुस्से में कह दिया कि ज़रा अपनी शकल तो आईने में देखो! घाव लग गया।
यह घाव क्यों लगता है? उसने गिरा दी पूरी की पूरी प्रतिमा।
दूसरों ने बनाई थी, दूसरे गिरा सकते हैं, यह याद रखना!
जो दूसरों पर निर्भर है वह दूसरों का गुलाम है। तुम्हारी सारी
पद-प्रतिष्ठा दूसरों पर निर्भर है। वे जब चाहें तुम्हारे पैर के नीचे की जमीन खींच
लेंगे। जब चाहें तब!
तुम्हारा सारा बोध अपने संबंध में उधार है, इसलिए तुम्हारी आंखें सदा दूसरों पर अटकी रहती हैं--"कौन क्या कह रहा
है? मेरे संबंध में कौन क्या सोच रहा है? तुम थरथर कांप रहे हो कि कहीं कोई मेरे पैर के नीचे की जमीन न खींच ले। इस
मेरी भव्य-प्रतिमा को कोई गिरा न दे! क्योंकि यह भव्य-प्रतिमा तुम्हारी नहीं है,
उन्हीं ने बनाई है। तुम उनके गुलाम हो।
अहंकार दूसरों का गुलाम होता है। अकड़ कितनी ही दिखाए, दूसरों पर निर्भर होता है। दूसरों के ही हाथ के चिह्न होते हैं उस पर,
हस्ताक्षर होते हैं। और अहंकार किसी एक आदमी के द्वारा नहीं बनाया
जाता; वह हजार आदमियों के हाथों से बनता है। उन हजारों के
तुम गुलाम हो जाते हो। स्वभावतः तुम्हें उनकी खुशामद करनी होती है। इस जगत् में
पारस्परिक खुशामद का दौर-दौरा चलता है। तुम उन्हें अच्छा कहते हो, वे तुम्हें अच्छा कहते हैं। तुम उनकी प्रशंसा करते हो, वे तुम्हारी प्रशंसा करते हैं।
झूठ के हम जाल खड़े करते हैं। और इन झूठों के जालों में हम जी लेते हैं, भरमा लेते हैं मन को, कि यही हो गया जीवन। फिर अगर
जीवन में वर्षा नहीं होती आनंद की, तो आश्चर्य क्या है! इस
झूठे जीवन में कैसे आनंद की वर्षा हो? आनंद सत्य की लक्षणा
है। कैसे फूल खिलें? यह सड़ी घास-पात भरी है तुम्हारे भीतर ,
कैसे सुगंध उठे? कैसे वीणा बजे? जीवन में कुछ भी बहुमूल्य नहीं हो पाता, बिजूके ही
रह जाते हैं लोग!
बाहर की खोज अहंकार को भरती है--"और कितने लोगों के दिल जीत लूं?' जब भीतर जाओगे तो अड़चन आएगी, अहंकार की फांसी लगने
लगेगी। वहां कोई दूसरा मिलता नहीं। वहां कोई नहीं कहेगा कि आप सुंदर बहुत, कि आप ज्ञानी बहुत, कि आप साधु बहुत! वहां कोई नहीं
कहेगा। वहां कोई मिलता नहीं। वहां रास्ता सन्नाटा है। वहां तुम अकेले हो। वहां तुम
निपट अकेले हो।
जैसे ही भीतर जाओगे, उतने अकेले होने लगोगे। संसार
छूटेगा, लोग छूटेंगे, विचार छूटेंगे,
संस्कार छूटेंगे; अंततः तुम्हारे हाथ में
रहेगा जो, वह होगा निपट कोरा आकाश. . .। उसे हम समाधि कहते
हैं। उसे हम सबसे बड़ी संपदा कहते हैं। लेकिन उसमें तुम नहीं रहोगे। तुम, जैसा तुमने अपने को जाना, वैसे नहीं रहोगे। वह
अहंकार, तुम्हारी धारणा कि "मैं ऐसा, मैं वैसा' सब चली जाएगी, सब बह
जाएगी . . .। आएगी बाढ़ समाधि की और सब कूड़ा-करकट ले जाएगी। कुछ होगा जो बिल्कुल
नया होगा, अपरिचित होगा, अनजाना होगा,
जिसका तुमने कभी सपना भी नहीं देखा, जिसकी
शास्त्रों में चर्चा भी नहीं हो सकी है। चर्चा हो ही नहीं सकती उसकी। ज्ञानियों ने
कहना चाहा है, हार गए कह-कह कर, नहीं
कह पाए हैं उसको । अनकहा रह गया है। जाना तो जाता है, लेकिन
कहा नहीं जाता है--अनभिव्यक्त, अव्याख्य . . . ।
तो दम घुटने लगता है भीतर जाने में। जल्दी से लौटकर आदमी बाहर आ जाता
है। फिर वही पुराने सरंजाम में लग जाता है।
धार्मिक व्यक्ति कौन है? --जो इस महत् संघर्ष
में उतरता है। जो अपने को बलिदान करता है, जो अपने को कुरबान
करता है। जो कहता है, चाहे मिट जाऊं, मगर
अब कूड़े-करकट से राजी न रहूंगा।
और . . .
दूसरा छोर नहीं मिला!
धूप-छांव की जाली
सरकती रही
खो गयी!
तरल अंधकार
दिन के उजले पृष्ठ पर
फैल गया!
रक्त की बूंदों जैसे
दीए जले--
मन
किसी **१७९**ोम में जड़े चित्र-सा
टंगा रहा
सूनी दीवार पर!
बेजान गुड्डे की तरह
सुबह उठा लिया मुझे सूरज के हाथों ने
और मैं चल दिया
पथरायी राहों पर
चलता रहा
चलता रहा
दूसरा छोर नहीं मिला!
बाहर की यात्रा में दूसरा छोर मिलेगा भी नहीं। दूसरा छोर तो भीतर है।
तो तुम चलते रहो गुड्डों की तरह, यंत्रवत! सुबह सूरज उठा लेता है,
तुम चल पड़ते हो। सांझ थक जाते, गिर जाते।
दिनभर दिवा-स्वप्न देखते, रात फिर स्वप्न देखते, पर बाहर ही बाहर! रात भी बाहर, दिन भी बाहर। तुम
अपने भवन में कब आओगे?
पुकार सुनो! लौटो अपने घर की तरफ, क्योंकि वहां मालिकों
का मालिक बैठा है, शहंशाहों का शहंशाह! वहां तुम्हारी सबसे
बड़ी संपदा छिपी पड़ी है।
तुम निर्धन पैदा नहीं हुए हो। तुम भिखारी पैदा नहीं हुए हो। बादशाहत
तुम्हारा स्वभाव है! परमात्मा के तुम अंश हो! भिखमंगे तुम हो कैसे सकते हो?
लेकिन बाहर की यात्रा सभी को भिखमंगा बना देती है। भिक्षा का पात्र
लिए लोग मांगते चलते जाते हैं। पात्र कभी भरता भी नहीं, पात्र कभी भर भी नहीं सका। भिखारी का मन ऐसा है कि भरने का उसे कोई उपाय
नहीं।
यह परम स्वप्न तुम्हारे भीतर जगे, यह परम अभीप्सा
तुम्हें पकड़े, तो ही तुम समझना कि तुम जन्मे और तुम्हारा
जन्म सार्थक हुआ।
गीत गाना चाहता हूं
एक सपने तक स्वरों के साथ जाना चाहता हूं
चांद पीला पड़ रहा है चांदनी हल्की हुई है
शुक्र तारे की उजेली क्षितिज पर झलकी हुई है
एक सुख सपना समेटे मैं अभी तक सो रहा था
स्वप्न से दूरी अभी दो-चार-छह पल की हुई है
प्राण देकर भी कि यह
दूरी कमाना चाहता हूं
गीत गाना चाहता हूं
मार्ग सपने तक पहुंचने का कठिन है जानता हूं
और मैं अभ्यस्त कुछ वैसा नहीं हूं मानता हूं
किंतु जी की बेकली पर वश नहीं मेरा तुम्हारा
इस तरह की बेबसी को पुण्य मैं पहचानता हूं
आज मैं यह पुण्यमय उत्सव मनाना चाहता हूं
परम सपने तक
स्वरों के साथ जाना चाहता हूं!
जगाओ ऐसी अभीप्सा!
आज मैं यह पुण्यमय उत्सव मनाना चाहता हूं
परम सपने तक
स्वरों के साथ जाना चाहता हूं!
और वह परम स्वप्न, परम सत्य है। अभी स्वप्न है,
क्योंकि अपरिचित है।
परिचित होते ही सत्य हो जाएगा। यह बेकली तुम्हें पकड़ ले, यह असंतोष तुम्हें पकड़ ले।
किंतु जी की बेकली पर वश नहीं मेरा तुम्हारा
इस तरह की बेकली को पुण्य मैं पहचानता हूं
आज मैं यह पुण्यमय उत्सव मनाना चाहता हूं
परम सपने तक
स्वरों के साथ जाना चाहता हूं!
जिन्होंने जाना, उन सबने यही कहा हैः धन्यभागी
हैं वे, जो अंतस् जगत् के लिए असंतुष्ट हो जाते हैं; जिनके भीतर आग जलने लगती है; जो कहते हैं ः भीतर
पहुंचे बिना अब रुकेंगे नहीं। अब भीतर का गंतव्य पाए बिना कोई पड़ाव नहीं है,
कोई ठहराव नहीं।
और एक बार यह अभीप्सा तुम्हें पकड़ ले तो क्रांति निश्चित घटती है।
क्योंकि बीज तो तुम लेकर आए ही हो, भूमि में डालना है; बसंत की प्रतीक्षा करनी है। गीत
उमगेगा। हजार गीत उगेंगे, गीत से गीत उगेंगे।
जीवन आनंद का उत्सव हो सकता है। मगर सब तुम पर निर्भर है। जितनी ऊर्जा
और जितनी शक्ति तुम अपने जीवन को दुःखमय बनाने में लगा रहे हो, उतनी ही ऊर्जा और शक्ति के हृदय की वीणा झंकृत हो सकती है। जितनी यात्राएं
तुम बाहर जाने की कर रहे हो, उतनी ही ऊर्जा से तुम अपने
आत्यंतिक केंद्र पर पहुंच सकते हो। तुम उस शिखर को छू सकते हो, जिसे छू लेने के बाद फिर कहीं आना-जाना नहीं होता; जहां
पहुंचकर परम तृप्ति है। लेकिन परम तृप्ति के पहले परम अतृप्ति के मरुस्थल से
गुजरना पड़ता है। वह कीमत है, जो साधक को चुकानी पड़ती है!
आज के सूत्रः
सुनत नगारै चोट विगसै कवंलमुख,
अधिक उछाह फूल्यौ माइहू न तन मैं।
मैं कर क्या रहा हूं यहां? एक नगाड़ा बजा रहा
हूं। सुंदरदास क्या कर रहे हैं? एक नगाड़ा बजा रहे हैं। यह
युद्ध का नगाड़ा है। यह अंतर-युद्ध के लिए आवाहन है। जो कायर हैं उन्हें तो नगाड़े
की आवाज कंपा देगी, लेकिन जिनके भीतर थोड़ी भी गरिमा है और
जिनके भीतर मनुष्य होने की महिमा का थोड़ा-सा बोध है और जिन्हें इस बात की ज़रा-सी
भी प्रतीति है कि मनुष्य होना अनंत-अनंत यात्रा के बाद संभव हुआ है, उनके भीतर का कमल खुल जाएगा। उनके भीतर की बंद कली अपनी पखुंड़ियों को
खोलने लगेगी।
सुनत नगारै चोट विगसै कंवलमुख।
"कमल' रहस्यवादियों का बड़ा
प्यारा प्रतीक है। कई कारणों से। एक तो, कीचड़ में पैदा होता
है, गंदी कीचड़ में पैदा होता है। कीचड़ से पैदा होता है,
जिसमें संभावना हो भी नहीं सकती थी, मालूम भी
नहीं हो सकती थी, कोई सोच भी नहीं सकता था! अगर पता न होता
तो कीचड़ देखकर कोई यह सोच भी नहीं सकता सपना भी नहीं देख सकता, कल्पना भी नहीं कर सकता कि इससे कमल पैदा होगा! कीचड़ और कमल! कुछ जोड़
मालूम नहीं होता। कहां कमल, कहां कीचड़! कमल तो कीचड़ से
बिल्कुल विपरीत है। कमल तो इस पृथ्वी पर ऐसा है जैसे पार से आया हो, इस पृथ्वी का न हो। जैसे परदेशी है, आकाश से उतरा
है। ऐसा अछूता ऐसा कुंवारा, ऐसा सुंदर, ऐसा कोमल, कीचड़ से कैसे पैदा होगा! इतना कंवारापन तो
आकाश का होता है!
तो कमल में कुछ है जो आकाश का है और कुछ है जो कीचड़ से आया है। तो
इसलिए बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रतीक है कमल।
आदमी भी है तो कीचड़--माटी की मूरत! मगर कमल खिल सकता है। है तो आदमी
मिट्टी का हिस्सा, लेकिन आकाश उतर सकता है। है तो आदमी जमीन पर सरकता
हुआ कीड़ा-मकोड़ा, लेकिन पंख उग सकते हैं। सूरज की तलाश में
आकाश की उड़ान भरी जा सकती है।
जैसा कमल एक विरोधाभास है, ऐसा ही विरोधाभास
मनुष्य है। कीचड़ ही मत रह जाना!
इसलिए हमने इस देश के सद्गुरुओं को, बुद्ध को कमल पर
बिठाया है, कि विष्णु को कमल पर खड़ा किया है। वह प्रतीक है
इस बात का, कि माटी सफल हुई, कि माटी
में कमल खिला, कि माटी आकाश से गर्भित हुई, कि दृश्य का अदृश्य से मिलन हुआ, कि रूप-अरूप
साथ-साथ-नाचे, कि आकार में निराकार समाया, कि निराकार अतिथि बना आकार का। ऐसा अजूबा घटा! इसलिए कमल पर खड़ा किया
बुद्ध को। वह प्रतीक है। इसलिए हमने मनुष्य की जो ऊर्जा की अंतिम अभिव्यक्ति है,
उसको सहस्रदल कमल कहा, सहस्रार।
कामवासना तो कीचड़ है। वह तो मिट्टी का आदान-प्रदान है। वह पहला केंद्र
है मनुष्य की ऊर्जा का और सहस्रार अंतिम केंद्र है। सात चक्र हैं। पहला कामवासना
का चक्र है--मूलाधार। वह तो मिट्टी है। और मूल तो होगा भी मिट्टी में ही। मूल यानी
जड़। जड़ को तो मिट्टी में ही फैलना होगा। और जो अंतिम अभिव्यक्ति है, वह है सहस्रदल कमल--हजार पंखुड़ियों वाला कमल! वह आखिरी ऊंचाई है। जड़ें हैं
कीचड़ में, कमल है आकाश में।
कीचड़ और कमल के बीच आदमी का पूरा विकास छिपा है। अभागे हैं वे जो कीचड़
की तरह ही मर जाएंगे, क्योंकि कमल के बीज लेकर आए थे और उन्हें कभी फूलने
का मौका न दिया! सद्गुरु के पास तुम्हारे भीतर जो कमल का बीज है, वह सुगबुगाने लगता है। उसकी नींद थोड़ी टूटने लगती है। उसका सपना थोड़ा हलका
होने लगता है, झीना होने लगता है। उस पर चोट पड़ने लगती है,
सतत चोट पड़ने से . . . सत्संग का यही अर्थ है--सतत चोट . . . सतत
चोट पड़ने से एक दिन हुंकार भर कर तुम्हारे भीतर का बीज टूट पड़ता है। और जब बीज
टूटता है तो मिट्टी अमृत हो जाती है। तब मिट्टी में छिपी हुई सारी संभावनाएं प्रकट
हो जाती हैं। सारा रंग, सारा रूप, सारी
सुगंध बीज के माध्यम से प्रकट होने लगती है। पृथ्वी प्रार्थना में तल्लीन हो जाती
है।
कमल पृथ्वी की आकाश के प्रति की गई प्रार्थना है।
कमल पृथ्वी की संभावना है, प्रार्थना है,
अभीप्सा है, आकांक्षा है, आत्यंतिक सिद्धि है।
और दूसरी बात कमल के संबंध में, क्यों प्रतीक बन गया
कमल? जल में रहता है और फिर भी अछूता! जल उसे छूता नहीं। यह
परम संन्यास की धारणा है। यह परम वीतरागता का अर्थ है। रहो संसार में, संसार छुए न। रहो संसार में, संसार तुममें न रहे।
बैठो बाजार में और फिर भी बाजार में नहीं।
संसार से जो भागते हैं, वे संन्यास की परम
धारणा नहीं समझे। वह तो ऐसे ही है जैसे कोई कमल जल को छोड़कर भागा, डरा, घबड़ाया कि यहां पानी में रहूंगा तो कहीं पानी
छू न जाए। इस कमल को अभी अपना स्वरूप-बोध नहीं हुआ है। स्वरूप-बोध होता तो कहां
भागना है! होती रहे वर्षा आकाश से बरसते रहें मेघ, कमल को
क्या फिक्र पड़ी है? जल गिरेगा, बहता
रहेगा, कमल अछूता रहेगा। कमल का कुंवारापन नष्ट नहीं होता।
उसका कुंवारापन शाश्वत है।
तो एक तो मिट्टी से पैदा होता है, क्षुद्र से विराट
जन्मता है--यह चमत्कार! और फिर जल में रहकर जल से अछूता होता है। यह संन्यास की
परम धारणा है।
सुंदरदास कहते हैं ः सुनत नगारे चोट . . . ।
सद्गुरु का काम है कि बजाए नगाड़ा, पुकारे उनको जिनके
भीतर बीज है। दे आवाज, उठाए आवाहन कि "कब तक मिट्टी बने
रहोगे? ऐसे भी बहुत देर हो गई, अब
जागो! भोर हो गई, अब जागो! बहुत सो लिए, अब जागो! ' करे चोट करारी! ऐसी कि पोर-पोर भिद जाए,
ऐसी कि आर-पार हो जाए।
सद्गुरु सांत्वना नहीं देता, सद्गुरु सक्रांति
देता है। सांत्वना कूड़ा-कचरा है, लीपा-पोती है। सद्गुरु
सांत्वना नहीं देता, सद्गुरु झकझोरता है, नगाड़े पर चोट देता है। कायर भाग जाते हैं, साहसी जम
जाते हैं।
सुनत नगारे चोट विगसै कंवलमुख
अधिक उछाह फूल्यौ माइहू न तन मैं।
और जिनके भीतर थोड़ी भी धार है, उनके भीतर ऐसा उछाह
पैदा होता है कि शरीर में समाता नहीं। सद्गुरु को पाकर उनके भीतर ऐसा उछाह,
ऐसा उत्साह, ऐसा उत्सव, ऐसी
उमंग, ऐसा अहोभाव जन्मता है कि समाता नहीं। नाचने लगता है
उनका मन। नाचने लगता है उनका तन। बहने लगती है उनके बाहर रस की धार। अधिक उछाह
फूल्यौ . . . फूल पर फूल खिलते चले जाते हैं। . . . माइहू न तन मैं। सामने वाली
बात नहीं है।
शिष्य सद्गुरु को कहां समा पाता है! समाने की चेष्टा में शिष्य भी
विस्तीर्ण हो जाता है, अनंत हो जाता है। आकाश को आंगन कैसे समाएगा? लेकिन अगर समाने की कोशिश की तो एक बात पक्की है कि दीवारें टूट जाएंगी
आंगन की और आंगन भी आकाश हो जाएगा। आकाश को समाना हो तो आकाश ही होना पड़ता है।
इसलिए मैं तुमसे निरंतर कहता हूं, कृष्ण को समझना हो तो
कृष्ण होना पड़ता है। बुद्ध को समझना हो तो बुद्ध होना पड़ता है। इससे कम में न
चलेगा। नानक को समझना हो तो सिक्ख होने से नहीं चलेगा, नानक
होना पड़ेगा।
ये तो हम बहुत होशियार और कुशल लोग हैं। हम कहते हैं, बुद्ध को समझना है तो चलो बौद्ध हो जाएं। बुद्ध तो बौद्ध नहीं थे। और
क्राइस्ट तो क्रिस्चियन नहीं थे। और मुहम्मद तो मुसलमान नहीं थे। और नानक तो सिक्ख
नहीं थे। अब जो सिक्ख हो रहा है वह समझ ले, वह नानक नहीं हो
पाएगा। नानक ही होना, इससे कम में क्या चलेगा! और जिसका नानक
से प्रेम जन्मा है, जिसके मन में नानक के प्रति भाव उठा है,
वह इससे कम पर राजी भी नहीं होगा।
प्रेमी सदा अपनी प्रेयसी से एक हो जाना चाहता है। प्रेयसी अपने प्रेमी
से एक हो जाना चाहती है, तल्लीन हो जाना चाहती है। शिष्य वही है जो अपने गुरु
के साथ एक हो जाना चाहता है, एकात्म हो जाना चाहता है। बड़े
साहस की जरूरत है।
सुंदरदास आगे के वचनों में जो साहस की बात कर रहे हैं, वह खयाल में रखना। कमजोरों का काम नहीं। अपने छोटे-छोटे घरगूले जो बचाने
में लगे हैं, उनका यह काम नहीं। यह उनका काम है जो कहते
हैंः कि ठीक है, सब
दीवारें जाएं तो जाएं, लेकिन अब आकाश से दोस्ती जोड़ी है तो
छोड़ेंगे नहीं।
अधिक उछाह फूल्यौ माइहू न तन मैं।
फिरै जब सांगि तब कोऊ नहिं धीर धरै,
काइर कंपाइमान होते देखि मन मैं।।
और जब युद्ध में भाले चमकते हैं. . . और यह भी युद्ध है--अंतर युद्ध।
इसके भी अपने भाले हैं। बाहर के युद्ध तो भीतर के युद्ध की केवल पीली-पीली छायाएं
मात्र हैं, और कुछ भी नहीं। एक युद्ध तो था जो बाहर हुआ, महाभारत का "धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे'। तो एक
तो कुरूक्षेत्र था, जहां युद्ध हुआ। और एक और युद्ध साथ-साथ
बाहर चल रहा था . . ."धर्मक्षेत्रे' वह भीतर था। एक
युद्ध बाहर चल रहा था, एक भीतर चल रहा था। जो बाहर चल रहा है
वह भीतर के लिए केवल प्रतीक है। भीतर बहुत बड़ा युद्ध चल रहा है। क्योंकि दूसरे से
लड़ना आसान है, अपने से लड़ना कठिन है। दूसरे को काटना आसान है,
अपने को काटना कठिन है। दूसरे को मारना आसान है, अपने को मारना कठिन है।
और धर्म का अर्थ ही यही होता है, अपने को काटना। अपने
को ऐसा पोंछ डालना और मिटा डालना कि नाम और निशान न रह जाए। जब तुम नहीं बचते तभी
परमात्मा तुममें अवतरित होता है। जब तक तुम हो तब तक उससे पहचान न होगी। जब तक
"मैं-भाव' है तब तक "वह' नहीं
उतर पाएगा। तब तक तुम खूब भरे हो अपने भीतर, जगह कहां?
घास-फूस इतना भरा है बिजूकों में कि जगह कहां? अवकाश कहां? परमात्मा आना चाहे तो द्वार कहां?
तुम्हें उतरना होगा सिंहासन से। तुम्हें विदा हो जाना होगा।
आध्यात्मिक जीवन की जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना है वह यह है कि
भक्त और भगवान् का कभी मिलन नहीं होता। सुना हो तुमने तो गलत सुना है। भक्त और
भगवान् का मिलन कभी नहीं होता, क्योंकि जब तक भक्त होता है,
भगवान् नहीं होता; और जब भगवान् होता है तो
भक्त कहां?
कबीर ने कहा हैः हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हिराइ। खोजते-खोजते कबीर
खो गया और तब मिलन हुआ। मिलन तो होता है, लेकिन तब होता है जब
खोजी खो जाता है।
फिर जब सांगि तब कोऊ नहिं धीर धरै,
काइर कंपाइमान होत देखि मन मैं।।
टूटिकैं पतंग जैसे परत पावक मांहि,
ऐसैं टूटि परै बहु सावंत के गन मैं।
लेकिन जो सच में योद्धा हैं वे ऐसे टूट पड़ते हैं युद्ध में, जैसे पतंगा दीवाना हुआ, पागल हुआ, दीप-शिखा पर टूट पड़ता है, या अग्नि में कूद पड़ता है।
पतंगा जब दीप-शिखा पर कूदता है, पतंगा जब आग में उतरता है,
तो ठीक वैसी ही घटना घट रही है जैसा भक्त जब भगवान् में उतरता है।
इसलिए सूफियों ने पतंगे और दीप-शिखा के प्रतीक को बहुत मूल्य दिया है। ऐसे ही
भगवान् को खोजना वस्तुतः मौलिक रूप से अपने को मिटाना है।
टूटिकैं पतंग जैसे परत पावक मांहि,
ऐसैं टूटि परै बहु सावंत के मन मैं।
--जिनके भीतर गरिमा है, गौरव है,
जिनके भीतर मनुष्य होने की अर्थवत्ता का थोड़ा-सा बोध है। जिन्हें यह
पता है कि न मालूम कितनी कोटियों के बाद, न मालूम पशुओं,
पक्षियों, पहाड़ों, वृक्षों
की कितनी यात्राओं के बाद, कितनी योनियों के बाद मनुष्य होने
की क्षमता मिली है। इसे यूं ही नहीं गंवा देना है। इससे कुछ और आगे का कमा लेना
है। यह सीढ़ी ऐसे ही न खो जाए, इससे ऊपर उठ जाना है। यह अवसर
मिला है, इसको ठीक-ठीक भंजा लेना है।
मारि घमसांण करि सुंदर जुहारै स्याम,
सोई सूरबीर रुपि रहै जाइ रन मैं।
और जो युद्ध जीत कर शाम को लौटता है और अपने स्वामी को प्रणाम करता है, वही शूरवीर है।
मारि घमसांण करि सुंदर जुहारै स्याम
सोइ सूरबीर रुपि रहै जाइ रन मैं।
समझना कि वही युद्ध में टिका जो सांझ को सफाया करके लौटता है, अपने मालिक को नमस्कार करता है।
सूरबीर रिपु कौ निमूनौ देखि चोट करै,
मारै तब ताकि करि तरवारि तीर सौ।
वह जो योद्धा है वह देखता है कि कैसी चुनौती है, उस चुनौती के योग्य उत्तर देता है। चुनौती को अंगीकार कर लेता है। देखता
है किस भांति का शत्रु है? कैसे लड़ना होगा? अवसर के अनुकूल अपनी ऊर्जा को आवाहन देता है।
सूरबीर रिपु कौ निमूनौ देखि चोट करै,
मारै तब ताकि करि तरवारि तीर सौ।
और तब एकाग्र हो तलवार से या तीर से निशाना लगाता है। यह तो बाहर के
युद्ध की बात हुई, मगर भीतर के लिए प्रतीक है।
साधु आठौ जाम बैठौ मन ही सौं युद्ध करै।
यह तो बाहर के युद्ध की बात हुई, अब भीतर के युद्ध को
समझें।
साधु आठौ जाम बैठौ मन ही सौं युद्ध करै।
और यह तो बाहर का युद्ध थोड़ी-बहुत देर चलता है। सुबह से शुरू हुआ है, सांझ समाप्त हो जाता है। लेकिन साधु का युद्ध शुरू हुआ तो समाप्त नहीं
होता, जब तक कि साधु ही समाप्त न हो जाए। हेरत-हेरत हे सखी,
रहा कबीर हिराइ! यह युद्ध अनवरत है, अखंड है,
प्रतिपल चलता है। इसमें क्षणभर विश्राम नहीं है। इसमें दिन हो कि
रात, भेद नहीं है। जागने में भी चलता है, सोने में भी चलता है।
आनंद बुद्ध के पास वर्षों रहा। एक बात देख कर चौंकता था बहुत, कि वे रात जैसा होते थे वैसे ही सोए रहते थे, पूरी
रात! जहां पैर रखा वहां पैर, जहां हाथ रखा वहां हाथ, जिस करवट रहे उसी करवट! रात करवट भी न बदलते! हाथ-पैर भी यहां-वहां न
करते। आनंद ने पूछा एक दिन ः भंते! आप कभी करवट नहीं बदलते! आप जहां हाथ रखते वहीं
रखते जहां पैर रखते, वहीं रखते। सुबह भी ठीक वहीं होता है
जहां रात रख कर सोते। इसका राज? सोते हैं कि नहीं सोते?
बुद्ध ने कहा ः अब सोना कैसा? जब जागना ही है तो
सोना कैसा? देह सो जाती है, मैं तो
जागा ही रहता हूं। दिनभर भी जागना है, रातभर भी जागना है।
कृष्ण ने अर्जुन को कहा हैः या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति
संयमी। जब सब सो जाते हैं तब भी साधु जागता है। इसका यह अर्थ नहीं कि साधु बैठा ही
रहता है, कि खड़ा ही रहता है। साधु भी सोता है, लेकिन देह ही सोती है। सोते में भी साधु जागता है, जानता
है कि मैं सो रहा हूं। उसके चैतन्य का दीया जलता रहता है।
साधु आठौ जाम बैठो मन ही सौं युद्ध करै,
जाकै मुंह माथौ नहिं देखिए शरीर सौं।।
और युद्ध ऐसा है, कठिन है, क्योंकि
जिससे हो रहा है, न तो उसका माथा है, न
मुंह है, न उसकी देह है। मन से युद्ध हो रहा है। यह तलवार मन
के खिलाफ उठी है और अपने ही मन के खिलाफ उठी है। और मन को काटे बिना कोई उपाय नहीं
है। जब तक अमन की दशा न आ जाए, अमनी दशा न आ जाए, तब तक कोई उपाय नहीं।
मन के पार जाना है। मन संसार है। बाजार में नहीं है संसार, न पत्नी में, न पति में, न
बच्चों में, न धन में, न मकान में,
न दुकान में। मन में संसार है। मन ही संसार है। ये जो सतत मन में चल
रहे विचार और वासनाएं और ऊहापोह और स्मृतियां और कल्पनाएं , यह
सारा जो जाल है मन का, यही संसार है। इसे काटना है। इसे
समाप्त करना है। इसे भस्मीभूत कर देना है।
आलमे-हुस्न-ओ-इश्क की कौन वह बात है जिसे
भूले अगर तो याद आए याद करें तो भूल जाए।
कश्ती-ए-दिल बचाइए इतना मगर रहे खयाल
डूबे अगर तो पार हो, पार लगे तो डूब जाए।
मिटना है! डूबे अगर तो पार हो. . .। बाहर की दुनिया में डूबे तो डूबे, पार हुए तो पार हुए। भीतर की इबादत और, भीतर का
हिसाब ओर, इबारत और। वहां पार हुए तो तो डूबे, वहां डूबे तो पार हुए। वहां मन बचा तो चूके, वहां मन
गया तो बचे।
जीसस ने कहा हैः धन्य हैं वे जो गंवा देंगे, क्योंकि वे ही पा लेने के अधिकारी हैं। कौन-सी चीज गंवाने की बात हो रही
है?
--हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर
हिराइ।
--मन, मैं-भाव, अहंकार। और यहीं सारी अड़चन है।
आदमी का आदमी होना नहीं आसां "फिराक'
इल्मो-फन इख्लाको मजहब जिससे चाहो पूछ लो।
अड़चन क्या है? अड़चन यही है कि मन को मारो कैसे? अपना है। अपना ही नहीं, हमने तो अब तक यही जाना है
कि यही मैं हूं। तो धर्म तो ऐसा लगता है जैसे आत्मघात कर रहे हैं। इसलिए कायर तो
भाग खड़े होते हैं। उनका कमल नहीं खिलता। उनका तो कमल खिला भी हो तो बंद हो जाता
है। कायर तो भाग खड़े होते हैं। कायर सांत्वना चाहते हैं, संक्रांति
नहीं चाहते। वे कहते हैंः हमारे आंसू पोंछ दो। वे कहते हैं ः हमें कुछ ऐसी बातें
बता दो कि संसार सब ठीक-ठीक चलने लगे। उनका हिसाब-किताब ही गलत है।
सुमित्रा ने कल एक प्रश्न पूछा है। पूछा है कि मेरी जिंदगी दुःख ही
दुःख में गई। और मेरे दोनों बेटे भी दुःखी हैं।
क्या दुःख? यह सुमित्रा को यही फिक्र लगी हुई है, पहले भी मुझे कह गई आकर कि मेरी जिंदगी दुःख ही दुःख में गई। किसकी जिंदगी
सुख में जा रही है? ज़रा आंख उठाकर देख सुमित्रा, किसकी जिंदगी सुख में जा रही है? अपना दुःख दिखाई
पड़ता है दूसरे का दिखाई नहीं पड़ता, इससे भ्रांति में मत
पड़ना! किनके बेटे सुखी हैं? कौन यहां सुखी है?
मैंने एक बहुत पुरानी कहानी सुनी है। एक आदमी भगवान् की प्रार्थना
करता ही रहा, करता ही रहा और प्रार्थना में एक ही बात कहता था कि
मुझे इतना दुःखी क्यों बनाया? सुमित्रा जैसा रहा होगा। सारी
दुनिया सुख से जी रही है और मैं दुःखी! मैं दुःखी! आखिर मेरा कसूर क्या है?
मुझसे भूल क्या हुई?
भगवान् भी थक गया होगा। एक दिन उसने पूछा कि भाई, तू चाहता क्या है? उस आदमी ने कहा कि इतना ही कर दो,
मुझे किसी भी दूसरे का दुःख दे दो और मेरा दुःख किसी और को दे दो।
मैं किसी से भी बदलने को राजी हूं। मैं यह भी नहीं कहता कि मुझे दुःख न दो,
मगर मुझे यह दुःख जो दिया है यह मत दो। मैं बदलने को राजी हूं।
सारी दुनिया खुश दिखाई पड़ती है। लोग दिखाई ही पड़ते हैं खुश। बाजार में
जाओ, इत्र-फुलेल लगाए लोग चले जा रहे हैं। हंस रहे हैं,
बात कर रहे हैं। ऐसा लगता है सारी दुनिया में मजा ही मजा है,
एक हम ही दुःखी ! और यही उन सब को भी है खयाल कि बाकी सारे लोग मजे
में हैं, मैं ही एक दुःख भोग रहा हूं। चूंकि सारी दुनिया में
लोग हंस रहे हैं, प्रसन्न हो रहे हैं, तो
शिष्टाचार कहता हैः मैं भी हंसूं, मैं भी प्रसन्न रहूं। अब
यह दुःख का राग लेकर बैठ जाना क्या! मगर उसे पता नहीं है कि यही सब की हालत है।
पति-पत्नी घर में झगड़ते रहते हैं और जैसे ही कोई द्वार पर दस्तक दे
देता है, एकदम मुस्कुराने लगते हैं। आइए , बैठिए, विराजिए
. . . । और दोनों में ऐसी बातें होने लगती हैं जैसे कि महा प्रेम घट रहा है! और
अभी एक दूसरे की गर्दन के पीछे पड़े थे। अभी एक-दूसरे की जान लेने को उतारू हो रहे
थे। अब स्वभावतः यह मेहमान यह सोचेगा ः अहा, सतयुगी दंपत्ति
! और उसे कुछ पता नहीं कि अभी-अभी क्या हो रहा था। उसके घर भी यही होता है,
मगर उसे अपनी हालत पता है।
तो भगवान ने कहा ः ठीक, ऐसा ही हो जाएगा,
आज रात ऐसा ही हो जाएगा। उस रात वह सोया तो सपना उसे आया कि सारे
लोग अपने-अपने दुःख पोटलियों में बांधकर गांव के चौरस्ते की तरफ जा रहे हैं। और
बड़े जोर से आवाज गूंज रही है कि सब अपने-अपने दुःख पोटलियों में बांधकर ले आओ,
और जिसको जिससे बदलना हो बदल डालो। सभी दुःखी हैं। सब ने अपने-अपने
दुःख बांधे। सब बांध डाले जिसके जितने दुःख थे। बड़ी-बड़ी पोटलियां लिए लोग जा रहे
हैं। इसने भी जल्दी से अपने दुःख बांध लिए यह तो जिंदगीभर से यही हिसाब लगाए बैठा
था, कब मौका मिले। जब यह रास्ते पर निकला तो बड़ा हैरान हुआ।
यह तो सोचता था कि लोग छोटी-मोटी पोटलियां ले जा रहे होंगे, लोग
इससे भी बड़ी-बड़ी पोटलियां लिए जा रहे हैं। छाती इसकी बैठ गई। देखने लगा चारों तरफ,
किससे बदलना है! अपनी पोटली छोटी मालूम पड़ी। थोड़ा डरने लगा कि अब
क्या बदलना ही पड़ेगा?
फिर आज्ञा हुई कि सब अपनी-अपनी पोटलियों को रख दो। पोटलियां रख दी
गईं। फिर आज्ञा हुई कि अब जिसको जो पोटली चुननी हो चुन ले। यह आदमी भागा कि इसकी
पोटली कोई और न चुन ले, अपनी पोटली चुनने के लिए। लेकिन चकित हुआ यह जानकर कि
सब अपनी-अपनी पोटलियों की तरफ भागे। किसी ने किसी और की न चुनी, सब ने अपनी-अपनी चुन ली और बड़े निश्चिंत हुए और बड़े अनुगृहीत और परमात्मा
का बड़ा धन्यवाद किया। पूछने लगे एक-दूसरे से, भाई! सब ने
अपनी-अपनी क्यों चुनी! तो सभी ने कहा कि कम से कम अपने दुःख परिचित तो हैं,
पहचाने हुए हैं। दूसरे की पोटली में पता नहीं कौन सांप-बिच्छू,
कौन-सी झंझट. . .!
सुमित्रा, मैं तुझसे कहता हूं कि तेरे दुःख कम से कम
जाने-पहचाने तो हैं ! किसी से बदलना है? अगर बदलना हो तो आज
रात बदलवा देंगे। अपनी पोटली बांध कर ले आना। मगर खयाल रहे कि पछताएगी बहुत बदलकर!
क्योंकि फिर से अ ब स सीखना पड़ेगा। दूसरे के दुःख . . . ।
अपने-अपने दुःख से आदमी धीरे-धीरे राजी हो जाता है, परिचित हो जाता है, जाने-पहचाने, मित्रता बन जाती है। सच तो यह है कि जब दुःख एकदम से, अचानक तुम्हें छोड़ जाएगा तो बड़ा खालीपन लगेगा। जैसे कोई सगा-संगी चला गया।
दुःख क्या है? सुमित्रा कहती है कि मेरे बेटे-बेटी भी सुखी नहीं
हैं। कौन सुखी है यहां? यहां कोई सुखी हो ही नहीं सकता।
बहिर्यात्रा में सुख होता ही नहीं। बहिर्यात्रा यानी दुःख। बहिर्यात्रा पर्यायवाची
है दुःख का। थोड़े-थोड़े भिन्न होंगे, थोड़े-थोड़े अलग होंगे,
ढंग अलग होंगे, रंग अलग होंगे--मगर बाहर की
यात्रा में सुख नहीं होता। क्या सुमित्रा तू सोचती है सुमित्रा नेपाल से आती है।
बुद्ध भी नेपाल में ही पैदा हुए थे। तू सोचती है बुद्ध की हालत तुझसे बेहतर रही
होगी? नहीं तो घर छोड़कर भागे होते? बुद्ध
की हालत भी तेरे जैसी रही होगी, तुझसे बदतर रही होगी। कम से
कम तू अब तक घर छोड़ कर नहीं भागी है।
बुद्ध का स्मरण करो। सुंदर पत्नी थी, सुंदर बेटा पैदा हुआ
था, राजमहल था, सब था, मगर सुख नहीं था। क्यों छोड़ दिया होगा? सुख बाहर
होता ही नहीं। सुख तो भीतर है। और भीतर सुख तभी जन्मता है जब मन से हम मुक्त हो
जाते हैं। मन का अभाव सुख है, मन का भाव दुःख है। मन की
सघनता नरक है, मन से मुक्ति स्वर्ग है।
साधु आठौ जाम बैठौ मन ही सौं युद्ध करै,
जाके मुंह माथौ नहिं देखिए शरीर सौं।।
उसका युद्ध कठिन है, क्योंकि मन न तो दिखाई पड़ता है,
न उसका मुंह है, न माथा है; लेकिन फिर भी युद्ध करता है और एक दिन इस अदृश्य शत्रु को भी काट डालता है,
छिन्न-भिन्न कर देता है।
सूरबीर भूमि परै, दौर करै, दूरि
लगैं,
साधु शून्य कौं पकरि राखै धरि धीर सौं।
बड़ा प्यारा वचन है! युद्ध के मैदान में तो सुविधा है। सूरबीर भूमि परै, दौर करै दूरि लगैं। सुविधा है, दुश्मन का पीछा कर
सकते हो। भागो, पकड़ो, मारो, उपाय है। साधु के भीतर तो जगह भी नहीं भाग-दौड़ की, बैठना
पड़ता है। साधु का उपक्रम एक ही है, साधना एक ही है--बैठ जाने
की । कहां भागे? कहां दौड़े? कहां जाए?
वहां तो कोई दिशा भी नहीं है भीतर। वहां स्थान भी नहीं है भीतर।
वहां तो रत्ती-भर चलने की सुविधा नहीं है। साधु तो बैठ रहता है। उस बैठ जाने का
नाम ही ध्यान है। बिल्कुल बैठ रहता है, हिलता ही नहीं,
डुलता ही नहीं।
और मैं जब कह रहा हूं, हिलता ही नहीं,
डुलता ही नहीं, तो मेरा मतलब तुम्हारे शरीर से
नहीं है। नहीं तो लोग अजीब झंझटों में पड़ जाते हैं। अब ध्यान में बैठे हैं,
अब शरीर नहीं हिलना चाहिए। अब एक चींटी काट रही है, अब शरीर नहीं हिलना चाहिए। अब फंसे चक्कर में वे! अब वह चींटी काटती ही जा
रही है। और चींटियां भी खूब हैं! ध्यानियों की बिल्कुल दुश्मन हैं। ध्यान न करो तो
उनसे मिलन नहीं होता। मच्छर हैं, वे पुराने दुश्मन हैं ध्यान
के। वैसे तुम्हारे पास न आएं, मगर ध्यान करने बैठो तो सब आ
जाते हैं। सब अपना साज-संगीत छेड़ देते हैं। संगीत तो वे सदा ही छेड़े रहते हैं,
लेकिन तुम इतने उलझे रहते हो विचारों में कि सुनाई नहीं पड़ता। जब
शांत होकर बैठते हो, सुनाई पड़ता है चींटियां तो चढ़ती ही रहती
हैं, उतरती ही रहती हैं, कोई चींटियों
को तुम्हारे ध्यान का पता नहीं है। चींटियों को ध्यान का पता हो जाए तो तुमसे ऊपर
की योनि हो जाए उनकी।
लेकिन तुम जब शांत बैठते हो तब छोटी-छोटी चीज का पता चलता है। ज़रा-सी
चींटी सरक गई, पैर सुन्न हो गया। इन सबकी चिंता में मत पड़ना। शरीर
के हिलने-डुलने का सवाल नहीं है। शरीर तो नाचता भी रह सकता है तो भी ध्यान हो जाता
है। भीतर हिलन-डुलन नहीं होना चाहिए। भीतर कोई वासना न कंपे। भीतर कोई विचार का
कंपन न हो। भीतर कोई हवा न बहे कामना की। बस, बैठने का वही
अर्थ है। वही वस्तुतः सिद्धासन है।
सूरबीर भूमि परै दौर करै दूरि लगैं,
साधु शून्य कौं पकरि राखै धरि धीर सौं।
और साधु की सारी साधना यही है कि शून्य को पकड़ ले और पकड़ कर शून्य को
बैठा रहे। शून्य को खंडित न होने दे। शून्य को ज़रा भी भरने न दे--किसी विचार से, किसी कामना से, किसी स्मृति से, किसी कल्पना से। कोरा मन हो, कोरे कागज जैसा...। कुछ
भी उस पर लिखावट न हो। ऐसा शून्य जैसे-जैसे सधता जाता है वैसे-वैसे ही साधक मिटता
जाता है। जिस दिन शून्य सच में पूर्ण हो जाता है, उसी दिन
साधक सिद्ध हो जाता है। उसी दिन भक्त भगवान् हो जाता है।
ख्वाहिशों को तेरी मुहब्बत में
ख्वाहिशों से बुलंद होना है
वासना को इतना ऊंचाई पर ले जाना है कि वासना न बचे।
ख्वाहिशों को तेरी मुहब्बत में
ख्वाहिशों से बुलंद होना है
वासना बड़ी क्षुद्र है। उसे निर्वासना का रंग देना है।
हजार बार तेरा हुस्न, हुस्न होके रहा
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धूलि जैसो धन जाकैं सूलि से संसार-सुख।
और संसार के सुख ऐसे हैं जैसे कोई सूली पर चढ़ा दे। जिसने भीतर का सुख
जाना, बाहर के सुख सूली जैसे हो ही जाते हैं। जिसने भीतर का
सुख जाना, बाहर के सुख दुःख जैसे हो जाते हैं। जिसने भीतर का
जीवन जाना, बाहर का जीवन मृत्यु से भी बदतर हो जाता है। और
जिसने भीतर की रोशनी जानी, उसे बाहर के सूरज सब अंधेरे हो
जाते हैं।
धूलि जैसो धन जाकैं सूलि से संसार सुख
भूलि जैसो भाग देखै अंत की सी यारी है।
और उसे कितना ही बड़ा भाग्य का क्षण आ जाए तो भी वह उसको भूल ही जैसा
दिखाई पड़ता है। अब बुद्ध को भाग्य का क्षण था--धन था, राज्य था, पद था, प्रतिष्ठा थी,
इकलौते बेटे थे, सुंदर से सुंदर स्त्री थी,
सब था--लेकिन भाग्य भूल जैसा लगा। छोड़कर चले गए।
भूलि जैसी भाग देखै अंत की सी यारी है।
और उसे इस संसार के सारे संबंध अब टूटे तब टूटे ऐसे मालूम होते हैं।
उनका कोई मूल्य नहीं है। आज हैं कल नहीं होंगे। क्षणभर के हैं, क्षणभर बाद नहीं होंगे। अंत की सी यारी है। जैसे कोई मर ही रहा है और उससे
कोई आकर दोस्ती का हाथ बढ़ाता है और कहता है, आओ दोस्ती करें!
अब वह मर ही रहा और वह कहता है अब दोस्ती से भी क्या होगा! अब दोस्ती में सार भी
क्या? अब ये हाथ उठाकर, और हाथ से हाथ
जोड़ने का प्रयोजन भी क्या है? यहां हम प्रतिक्षण ही मर रहे
हैं। यहां सारी दोस्ती अंत की सी यारी है। मगर मन है कि धोखे खाए चला जाता है।
किसी का यूं तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्नो-इश्क तो धोखा है सब मगर फिर भी।।
हजार बार जमाना इधर से गुजरा है।
नई-नई-सी है कुछ तेरी रहगुजर फिर भी।।
मन धोखा खाए जाता है। मन कहता है--फिर भी । ठीक ही कहते होंगे संत
कहते हैं तो, मगर अभी नहीं। मन बड़ा चालबाज है। किंतु -परंतुओं में
अपने को बचाता है।
किसी का यूं तो हुआ है कौन उम्र भर फिर भी ।
ये हुस्नो-इश्क तो धोखा है सब मगर फिर भी।।
हजार बार जमाना इधर से गुजरा है।
नई-नई-सी है कुछ तेरी रहगुजर फिर भी।।
मगर मन है कि कहता हैः गुजरो, देखो, कौन जाने, जो दूसरों को नहीं मिला तुम्हें मिले!
मन की सबसे बड़ी चालबाजी क्या है? एक सूत्र में समझाई
जा सकती है। मन की सबसे बड़ी चालबाजी है कि वह तुमसे कहता है कि तुम अपवाद हो। किसी
को ऐसा नहीं हुआ, लेकिन तुमको होगा। सब मरे हैं, मगर तुम नहीं मरोगे। सबके संबंध टूटे हैं मगर तुम्हारा नहीं टूटेगा। सबने
दुःख पाया है बाहर, लेकिन तुम नहीं पाओगे। सब हारे हैं बाहर,
मगर तुम नहीं हारोगे।
मन की सबसे बड़ी चालबाजी यह है कि वह यह कहता है, तुम अपवाद हो। जो नियम सब पर लागू होता है।
इस चालबाजी से सावधान रहना। जो नियम सब पर लागू होता है वही तुम पर
लागू है। यहां कोई बाहर जीता नहीं, तुम भी नहीं जीतोगे।
यहां किसी ने बाहर सुख पाया नहीं, तुम भी नहीं पाओगे। बाहर
के जगत् में मृत्यु के अतिरिक्त और न कभी कुछ घटा है न घटता है। और वही तुम्हारे
लिए भी घटनेवाला है। लेकिन मन खेल रचाए चला जाता है।
अपनी ही गर्मी से आया इश्क में इक बांकपन
अपनी ही गरमी से घायल हो गया हुस्ने-बुतां
बस अपना ही सब कल्पना का जाल है। अपने ही मनोभाव हैं। हम ही सौंदर्य
निर्मित कर लेते हैं, हम ही प्रेम निर्मित कर लेते हैं, फिर हम ही परेशान होते हैं, फिर हम ही रोते हैं। हम
ही अपेक्षाएं बना लेते हैं और फिर विषाद से भर जाते हैं। हम ही आकांक्षाओं की
यात्राओं पर निकल जाते हैं, फिर वे पूरी नहीं होतीं, तो रोते हैं, जार-जार रोते हैं।
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम।
उस निगाहे-आशना को क्या समझ बैठे थे हम।।
रफ्ता-रफ्ता गैर अपनी ही नजर में हो गए।
वाह री गफलत तुझे अपना समझ बैठे थे हम।।
होश की तौफीक भी कब अहले-दिल को हो सकी।
इश्क में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम।।
बस, सब समझने की बातें हैं, जो चाहो
समझ लो। मगर हर समझ दुःख में ले जाएगी। समझ छोड़ो, समझना
छोड़ो। मन छोड़ो, मनन छोड़ो। शून्य को गहो। और फिर शून्य से एक
प्रज्ञा का जन्म होता है। वह प्रज्ञा तुम्हारी नहीं परमात्मा की है। और वही
मुक्तिदायी है।
पाप जैसी प्रभुताई सांप जैसो सनमान।
सुंदरदास कहते हैं ः यह सारी प्रभुता, यह पद-प्रतिष्ठा . .
. पाप जैसी प्रभुताई सांप जैसो सनमान! यह सांप को दूध पिलाने जैसा है सनमान का जो
खेल है, कब काट लेगा पता नहीं।
बड़ाई हू बीछनी सी नागिनी सी नारी है।
और ये सारी प्रशंसाएं बिच्छुओं जैसी हैं। इन्हें हाथ पर रखो, मगर भरोसा मत करना।
बड़ाई हू बीछनी सी नागिनी सी नारी है।
और खयाल रखना, नारी केवल प्रतीक है, क्योंकि
सुंदरदास पुरुषों से बोल रहे होंगे। जैसे नारी नागिनी-सी है पुरुष के लिए, वैसा ही पुरुष नाग-सा है नारी के लिए। उतना जोड़ लेना। नहीं तो पुरुष सोच
लेता है कि हम पुरुष, और नारी नागिनी-सी! इस मूढ़ता में मत
पड़ना।
संत पुरुष कहते रहे कि नारी नरक का द्वार है। और पुरुष बड़ी अकड़ से इस
बात को संभाल कर रख लेते हैं।
एक संत मेरे पास आकर ठहरे थे। वे कहने लगे, नारी नरक का द्वार है। तो मैंने कहा, इसमें आप झंझट
में पड़ोगे। उन्होंने कहा, कैसी झंझट? मैंने
कहा , फिर कोई नारी नरक न जा सकेगी। फिर पुरुष ही पुरुष नरक
जाएंगे। नारियों के लिए भी तो कोई नरक का द्वार बनाओ, नहीं
तो अकेले पड़ जाओगे नरक में! बड़ा दिल दुःखेगा।
नर भी नारी के लिए नरक का द्वार है। असल में नर-नारी का सवाल नहीं
है--कामवासना । एक ऐसी भीतरी वासना है जो आंखों को अंधा कर देती है; जो कुछ का कुछ दिखलाने लगती है; जो नहीं है, दिखाई पड़ने लगता है; जो है, नहीं
दिखाई पड़ता। ऐसी मर्ूच्छा का नाम है।
अग्नि जैसो इंद्रलोक विघ्न जैसो विधि लोक,
कीरति कलंक जैसी, सिद्धि सींटि डारी है।
और सब तो ठीक ही है। इंद्रलोक में भी सिवाय इंद्रियों की तृप्ति के और
कुछ भी नहीं है।. . . कीरति कलंक जैसी! साधु तो वह है जो सिद्धि को भी ऐसा फेंक
देता है, तुच्छ मानकर।
बाहर के जगत् में उपद्रव हैं, भीतर के जगत् के भी
उपद्रव हैं, उनसे भी सावधान रहना जरूरी है। बाहर जैसे
शक्तिशाली लोग हो जाते हैं--राजनीति है, धन है, पद-प्रतिष्ठा है--वैसे ही भीतर भी क्षमताएं हैं मन की। मन तुम्हें जल्दी
नहीं छोड़ देगा। अगर तुम मन पर मेहनत करते रहोगे तो मन कहेगा ः "लो, यह लो एक शक्ति। तुम दूसरों का मन पढ़ सकते हो। किसी के भीतर कोई विचार चल
सकता है, उसे देख सकते हो।' उलझे। सार
कुछ भी नहीं है, क्योंकि अपने ही विचार देख-देख कर क्या पाया?
दूसरे का देखकर क्या खाक पाओगे! वही पोटली दूसरे की। वहां भी क्या
रखा है?
एक आदमी को मेरे पास लाया गया था। वह दूसरों के विचार पढ़ने में कुशल
है। वह बैठ जाता आंख बंद करके, पांच मिनिट शांति से, एकाग्र होकर और बताने लगता है कि आपके भीतर क्या विचार चल रहे हैं। वह
मेरे सामने भी बैठ गया। वह आधा घंटा बैठा रहा। मैंने कहा, अब
तू कुछ बोल। उसने कहा, क्या खाक बोलें! क्योंकि कुछ चल ही
नहीं रहा है। तो मैंने उससे पूछा, तू कब से इस उपद्रव में
पड़ा है? उसने कहा, तीस साल हो गए।
"सार क्या है? तू दूसरे का
विचार भी पढ़ लेगा, इससे तुझे क्या मिलेगा?'
मगर उसकी बड़ी ख्याति थी! उसके साथ कम से कम पचास तो उसके शिष्य आए थे।
उसकी बड़ी ख्याति थी कि वह दूसरों का विचार पढ़ लेता है। टेलीपैथी, मैंने कहा ः मिलेगा तुझे क्या? वह दूसरे के जो विचार
हैं उसको ही अपने विचारों से कुछ नहीं मिल रहा, तू पढ़ेगा,
तुझे क्या मिलेगा? तू क्यों इस पागलपन में पड़ा
है? क्यों तीस साल गंवाए? इतनी ऊर्जा
से तो आदमी निर्विचार हो जाए।
लेकिन ऐसी घटनाएं मन की घटनी शुरू होती हैं। तुम्हें थोड़ा-सा भविष्य
का दर्शन होने लगे, उलझे! भूल गए सब, कि शून्य में
जाना था। चले बताने दूसरों को कि तुम्हारी मृत्यु होने वाली है दस साल में,
कि तुम्हारा पांच साल में धंधा खराब हो जाएगा। मगर सार क्या है?
साधु सिद्धि को भी डाल देता है, कचरे की तरह
फेंक देता है।
वासना न कोऊ बाकी ऐसी मति सदा जाकी,
सुंदर कहत ताहि वंदना हमारी है।
और ऐसा ही व्यक्ति वंदनीय है।
सांचौ उपदेश देत, भली भली सीख देत,
समता सुबुद्धि देत, कुमति हरत है।
सांचो उपदेश देत! किस उपदेश को "सांचा उपदेश' कहते हैं? जैसा जाना वैसा कहता है। जैसा जिया वैसा
कहता है। जैसा स्वयं का अनुभव है वैसा ही जतलाता है। न शास्त्रों की चिंता है,
न सिद्धांतों की चिंता है, न संप्रदायों की
चिंता है। अपने अनुभव के अतिरिक्त तुम जो भी कहोगे वह झूठ होगा।
सांचो उपदेश देत! और उपदेश ही देता है, आदेश नहीं देता। साधु
आज्ञा नहीं देता कि ऐसा करो। आज्ञा देनेवाला कौन! उपदेश देता है। कहता है, ऐसा मैंने किया, ऐसा मैंने पाया फिर तुम्हारी मर्जी।
साधु आदेश नहीं देता। साधु कोई सेनापति नहीं है--बाएं घूम, दाएं
घूम . . .। साधु कोई आदेश नहीं देता। साधु कोई अनुशासन नहीं देता कि इतने बजे उठना,
इतने बजे सोना, यह खाना, यह मत खाना, ऐसा पीना, वैसा मत
पीना। ये मूढ़ताएं हैं। साधु का इनसे कुछ लेना-देना नहीं है। साधु तो केवल उपदेश
देता है। उपदेश का मतलब यह होता है कि ऐसा मुझे हुआ, निवेदन
करता हूं। रुच जाए, प्रयोग कर लेना। न रुचे, तुम्हारी मर्जी। मानो तुम्हारी मर्जी, न मानो
तुम्हारी मर्जी। तुम्हारे मानने से साधु प्रसन्न नहीं होता, तुम्हारे
न मानने से अप्रसन्न नहीं होता।
सांचो उपदेश देत, भली भली सीख देत,
समता सुबुद्धि देत, कुमति हरत है।
मारग दिखाइ देत, भावहू भगति देत।
बड़ा प्यारा वचन है! रास्ता दिखा देता है, इशारा कर देता है--यह रहा। फिर जिसको चलना हो चले। मारग दिखाइ देत,
भावहू भगति देत। और तुम्हारे भाव को भक्ति की सूझ देता है--कैसे
तुम्हारा भाव भक्ति में परिवर्तित हो जाए; कैसे तुम्हारा
प्रेम प्रार्थना बन जाए; कैसे तुम्हारी बहिर्यात्रा
अंतर्यात्रा में रूपांतरित हो जाए; कैसे तुम्हारा हृदय
गद्गद् हो। नगाड़ा बजा देता है।
सुनत नगारै चोट विगसै कंवल मुख,
अधिक उछाह फूल्यौ माइहू न तन मैं।
मारग दिखाइ देत, भावहू भगति देत,
प्रेम की प्रतीति देत, अभरा भरत है।
और प्रेम का अनुभव देता है।. . . प्रेम कोई सिद्धांत नहीं है। जिसके
पास बैठकर प्रेम की पुलक अनुभव हो, जिसके पास बैठकर
प्रेम की झलक अनुभव हो, जिसकी आंख में झांक कर प्रेम की लपट
अनुभव हो, जिसके स्पर्श से प्रेम का दरस हो, परस हो... सत्संग का अर्थ यही होता है कि जहां प्रेम लहरा रहा है, वहां तुम भी डोलो, तुम भी नाचो, तुम भी गाओ, तुम भी गुनगुनाओ।
उसे ही मानो बहुत
जो कुछ तुम्हारे पास है मन
मत निरर्थक हवा में मारे फिरो
मत कि अपने लोभ से हारे फिरो
मत निरादर करो अपने फूल का
मत किसी मधुमास के द्वारे फिरो
एक ही दल फूल अपने का अखिल मधुमास है मन
यह कि भीतर है तुम्हारे पास चिंतामणि नगीना
यह कि भीतर है तुम्हारे पास
झंकृत एक वीणा
यह नगीना और यह वीणा तुम्हें सब दे सकेंगे।
इन्हीं के बल पर कि तुमसे हो सकेगा ठीक जीना
और बाहर से मिलेगा जो कि सो आभास है मन
जो तुम्हारे पास है उस खरे को खोटा न करना
लाभ का लालच कि पूंजी पर कहीं टोटा न करना
यह कि खींचातान सौदागरी चालाकी बचाना
डालकर बाजार में
इस बड़े को छोटा न करना
यह उठा-पटकी की चल-फिर सब निपट आयास है मन
उसे ही समझो बहुत जो कुछ तुम्हारे पास है मन!
सद्गुरु के सत्संग में, प्रेम के अनुभव में
डूबते-डूबते तुम्हें लगना शुरू होता है-- सब तुम्हारे पास है।
मत किसी मधुमास के द्वारे फिरो!
अब भिक्षा की कोई जरूरत नहीं। भिक्षा पात्र छोड़ो, तोड़ो।
मत किसी मधुमास के द्वारे फिरो।
एक ही दल फूल अपने का अखिल मधुमास है मन।
एक फूल भीतर तुम्हारे खिल जाए, तो आ गया सारा मधुमास,
आ गया सारा बसंत!
यह कि भीतर है तुम्हारे पास चिंतामणि नगीना
यह भीतर है तुम्हारे पास झंकृत एक वीणा
यह नगीना और यह वीणा तुम्हें सब दे सकेंगे
इन्हीं के बल पर कि तुमसे हो सकेगा ठीक जीना
और बाहर से मिलेगा जो कि सो आभास है मन!
प्रेम की प्रतीति, तुम्हारे भीतर सोए प्रेम को
झकझोर कर जगा देगी। प्रेम की झंकार, तुम्हारे भीतर भी प्रेम
की झंकार होगी। प्रेम की पुकार, तुम्हारे भीतर भी प्रेम का
अनिवार्य रूपेण प्रतिध्वनन करेगी, प्रतिध्वनि पैदा होगी।
मारग दिखाइ देत भावहु भगति देत,
प्रेम की प्रतीति देत, अभरा भरत हैं।
और जो खाली हैं वे भर जाते हैं। अभरा भरत है! जो खाली आए थे वे भर
जाते हैं।
क्षमता हो लेने की तो भरो। मेघ घिरे हैं, वर्षा हो रही है। मगर कुछ घड़े ऐसे हैं कि डर के मारे उलटे बैठे हैं! वर्षा
होती रहेगी वे खाली के खाली रहेंगे। झेलो आकाश को! उन्मुख होओ, मेघों की तरफ मुंह करो। इस मुंह करने का नाम ही संन्यास है या शिष्यत्व
है।
गा रही है आज वर्षा जिस तरह
उस तरह से गा चलो मेरे सजन
छा रहे हैं आज बादल जिस तरह
उस तरह से छा चलो मेरे सजन
आज पीपर-पात हर हर डोलते
दूर के स्वर पास मानो बोलते
बादलों की गोद में हंसती हुई
भा रही है आज बिजली जिस तरह
उस तरह से भा चलो मेरे सजन
गा रही है आज वर्षा जिस तरह
उस तरह से गा चलो मेरे सजन
वर्षा हो रही है। तुम भी गाओ। वृक्ष हरे हो रहे हैं, तुम भी हरे हो जाओ। फूल खिले हैं, तुम भी खिलो।
नगाड़ा बजा है, कमल को छिपाए-दबाए न बैठे रहो। साहस करो,
दुस्साहस करो! चुनौती अंगीकार करो!
प्रेम की प्रतीति देत, अभरा भरत हैं।
ज्ञान देत, ध्यान देत, आतम-विचार देत,
ब्रह्म कौं बताइ देत, ब्रह्म में चरत हैं।
ब्रह्म कौं बताइ देत! ब्रह्म-ज्ञान नहीं देता है गुरु--ब्रह्म कौं
बताइ देत! ज्ञान तो पंडित-पुरोहित लेते देते हैं। गुरु तो ब्रह्म को ही लेता-देता
है। अस्तित्व में ही उतार देता है। ज्ञान देत। वह पहली बात--उनके लिए जो अभी ध्यान
न ले सकेंगे।
मैं तुमसे रोज बोलता हूं, वह पहली बात।
जिन्होंने पहली बात समझी . . . ज्ञान देत, ध्यान देत. . .
जिन्होंने पहली बात समझी, उनके लिए दूसरी बात। दूसरी
सीढ़ी--ध्यान देत और जिन्होंने दूसरी बात समझी, उनके लिए
तीसरी घटना घटती है--आत्म-विचार देत! आत्म-बोध, आत्म-अनुभव,
आत्म-साक्षात्कार। और जिन्होंने तीसरी बात समझी, उनको चौथी--ब्रह्म को बताइ देत!
और कैसे ब्रह्म को बताता है? . . . ब्रह्म में चरत
है! क्योंकि ब्रह्म में जीता है। यही ब्रह्मचर्य का अर्थ है। हमने
"ब्रह्मचर्य' शब्द को बहुत छोटा कर लिया। हमने उसे
कामवासना का नियंत्रण मानकर बहुत छोटा कर लिया। बड़ा शब्द है--आकाश जैसा शब्द है।
उससे बड़ा कोई शब्द नहीं हो सकता। ब्रह्मचर्य का अर्थ होता हैः ब्रह्म में आचरण,
ब्रह्म में चरण, ब्रह्म की चर्या, ब्रह्म जैसा जीना, ब्रह्म में जीना।
ब्रह्म कौं बताइ देत, ब्रह्म मैं चरत हैं।
और ऐसे नहीं बता देता , दूर-दूर से। उसका
जीवन, उसका उठना, उसका बैठना, उसका बोलना, उसका न बोलना--सब परमात्मपूर्ण है।
जिनके पास आंखें हैं, वे देख लेते हैं। और जिनके पास हृदय
हैं, वे खाली नहीं जाते। . . . अभरा भरत हैं! ब्रह्म मैं चरत
हैं!
सुंदर कहत जग संत कछु देत नाहिं।
सुंदरदास कहते हैं कि जगत् में लोग कहते हैं कि संतों के पास देने को
क्या है? कुछ है ही नहीं उनके पास। संत तो खाली हैं, वे क्या देंगे?
सुंदर कहत जग संत कछु देत नाहिं,
संतजन निसिदिन देबौई करत हैं।
और सुंदर कहते हैं कि लेकिन ये अंधों की बातें हैं, संत तो प्रतिपल देता ही रहता है। देना उसके लिए वैसा ही नैसर्गिक है जैसे
सूरज से रोशनी का गिरना, जैसे फूल से गंध का उठना, जैसे पृथ्वी से हरियाली का उगना, जैसे आकाश का तारों
से भरना।
लेकिन स्वभावतः, संसार की बात में भी अर्थ है।
क्योंकि संसार जो मांगने आता है, वह संत नहीं देते। अब जैसे
सुमित्रा का प्रश्न है। अब वह चाहती है कि उसके बेटों को मैं सुखी कर दूं; कि बेटे की बहू से नहीं बनती, उसकी बनवा दूं। अब यह
मैं न दे सकूंगा! पहले बेटे की बेटे से तो बन जाए। बहू की बहू से बन जाए। वह मैं
कर सकता हूं। लेकिन बेटे की बहु से बन जाए यह झंझट की बात है। किस, बेटे की किस बहू से कब बनी? लड़ाई- झगड़े का नाम विवाह
है। यह मैं न दे सकूंगा।
तुम कूडा-करकट मांगते हो, नहीं मिलता तो सोचोगे,
संत क्या देंगे? आंखें हों तो दिखाई पड़े। संत
तो ब्रह्म को ही देते हैं, उससे कम कुछ नहीं देते। उससे कम
कुछ देने योग्य है भी नहीं। देना ही तो ब्रह्म देना। लेना ही तो ब्रह्म लेना । दो
ब्रह्म, लो ब्रह्म। बस उतना ही लेन-देन संत के पास हो सकता
है।
संतजन निसिदिन देबौई करत हैं।
आज इतना ही।
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