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सोमवार, 13 मार्च 2017

पिव—पिव लागी प्‍यास—(दादू दयाल)-प्रवचन-02


जिज्ञासा-पूर्ति: एक-( प्रवचन--दूसरा)  
दिनांक १२.७.१९७५, प्रातः काल,
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्‍नसार:
1--सदगुरु मिल गए। साधक को इसकी प्रत्यभिज्ञा, पहचान कैसे हो?
2--मोक्ष के पश्चात कभी जन्म नहीं होता, इसकी क्या गारंटी है?
3-- असदगुरु के इर्द-गिर्द अनुयायियों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है?
4--मैं ध्यान से भयभीत हूं। कृपया समझाएं,
5--आपने कहा कि जगत और जीवन अतिशय रहस्य से भरा है।



पहला प्रश्न: सदगुरु मिल गए। साधक को इसकी प्रत्यभिज्ञा, पहचान कैसे हो?

साधक हो, तो क्षणभर की देर नहीं लगती। साधक ही न हो, तो प्रत्यभिज्ञा का कोई उपाय नहीं। प्यासा हो, तो पानी मिल गया--क्या इसे किसी और से पूछने जाना पड़ेगा? प्यास ही प्रत्यभिज्ञा बन जाएगी। कंठ की तृप्ति ही प्रमाण हो जाएगी।
लेकिन प्यास ही न हो, जल का सरोवर भरा रहे और तुम्हारे कंठ ने प्यास न जानी हो, तो जल की पहचान न हो सकेगी। पानी तो प्यास से पहचाना जाता है, शास्त्रों में लिखी परिभाषाओं से नहीं।
अगर साधक है कोई--साधक का अर्थ क्या है? साधक का अर्थ है कि खोजी है, आकांक्षी है, अभीप्सा से भरा है। साधक का अर्थ है, कि प्यासा है सत्य के लिए।
सौ साधकों में निन्यानचे साधक होते नहीं, फिर भी साधन की दुनिया में उतर जाते हैं। इससे सारी उलझन खड़ी होती है।
तुम्हें प्यास न लगी हो और किसी दूसरे ने जिसने प्यास को जानी है, प्यास की पीड़ा जानी है और फिर जल के पीने की तृप्ति जानी है, तुमसे अपनी तृप्ति की बात कही: बात-बात में तुम प्रभावित हो गए। तुम्हारे मन में भी लोभ जगा। तुमने भी सोचा, कि ऐसा आनंद हमें भी मिले, ऐसी तृप्ति हमें भी मिले। तुम यह भूल ही गए, कि बिना प्यास के तृप्ति का कोई आनंद संभव नहीं है।
उस आदमी ने जो तृप्ति जानी है, वह प्यास की पीड़ा के कारण जानी है। जितनी गहरी होती है पीड़ा, उतनी ही गहरी होती है तृप्ति। जितनी छिछली होती है पीड़ा, उतनी ही छिछली होती है तृप्ति। और पीड़ा हो ही न, और तुम लोभ के कारण निकल गए पानी पीने, तो प्यास तो है ही नहीं। पहचानोगे कैसे, कि पानी हैं?
शास्त्र की परिभाषाओं के अनुसार समझ लिया कि पानी होगा, तो हमेशा संदेह बना रहेगा। क्योंकि अपने भीतर तो कोई भी प्रमाण नहीं है। तुम्हारा कोई संसर्ग तो हुआ नहीं जल से। जलधार से तुम्हारे प्राण तो जुड़े नहीं। तुम तो दूर से ही दूर बने रहे हो। और तुम पानी पी भी लो बिना प्यास के और ठीक असली पानी हो, तो भी तो आनंद उपलब्ध न होगा। उलटा भी हो सकता है। कि वमन की इच्छा हो जाए, उलटी हो जाए।
प्यास न हो, तो पानी पीना खतरनाक है। भूख न हो, तो भोजन कर लेना मंहगा पड़ सकता है। सत्य को चाहा ही न हो, तो सदगुरु का मिलना खतरनाक हो सकता है।
सौ में से निन्यानवे लोग तो लोभ के कारण उत्सुक हो जाते हैं। उपनिषद गीत गाते हैं। दादू, कबीर उस परम आनंद की चर्चा करते हैं। सदियों-सदियों में मीरा और नानक, चैतन्य नाचे हैं। उनका नाच तुम्हें छू जाता है। उनके गीत की भनक तुम्हारे कान में पड़ जाती है। उन्हें देखकर तुम्हारा हृदय लोलुप हो उठता है। तुम भी ऐसे होना चाहोगे।
बुद्ध के पास जाकर किसका मन नहीं हो उठता, कि ऐसी शांति हमें भी मिले! लेकिन उतनी अशांति तुमने जानी है, जो बुद्ध ने जानी? वही अशांति तो तुम्हारी शांति का द्वार बनेगी। तुमने उस पीड़ा को झेला है, जो बुद्ध ने झेली? तुम उस मार्ग से गुजरे हो--कंटकाकीर्ण--जिससे बुद्ध गुजरे? तो मंजिल पर आकर जो वे नाच रहे हैं, वह उस मार्ग के सारे के सारे दुख अनुभव के कारण।
तुम सीधे मंजिल पर पहुंच जाते हो; मार्ग का तुम्हें कोई पता नहीं। मंजिल भी मिल जाए, तो मिली हुई नहीं मालूम पड़ती। और संदेह तो बना ही रहेगा।
इसलिए यह तो पूछो ही मत, कि सदगुरु मिल गए, इसकी साधक को प्रत्यभिज्ञा कैसे हो, पहचान कैसे हो?
सदगुरु की फिक्र छोड़ो। पहली फिक्र यह कर लो, कि साधक हो? पहले तो इसकी ही प्रत्यभिज्ञा कर लो, कि साधक हो?
अगर साधक हो, तो जैसे ही गुरु मिलेगा, प्राण जुड़ जाएंगे; तार मिल जाएगा। कोई बताने की जरूरत न पड़ेगी। अगर उजाला आ जाए, तो क्या कोई तुम्हें बताने आएगा, तब तुम पहचानोगे कि यह अंधेरा नहीं, उजाला है? अंधे की आंख खुल जाए, तो क्या अंधे को दूसरों को बताना पड़ेगा, कि अब तेरी आंख खुल गई, अब तू देख सकता है देख। आंख खुल गई, कि अंधा देखने लगता है। रोशनी आ गई कि पहचान ली जाती है, स्वतः प्रमाण है।
सदगुरु का मिलन भी स्वतः प्रमाण है। नहीं तो आखिर में तुम सवाल पूछोगे, कि जब परमात्मा मिलेगा तो कैसे प्रत्यभिज्ञा होगी, कैसे पहचानेंगे कि यही परमात्मा है? कोई जरूरत ही नहीं है।
जब तुम्हारे सिर में दर्द होता है, तब तुम पहचान लेते हो दर्द। और जब दर्द चला जाता है तब भी तुम पहचान लेते हो, कि अब सब ठीक हो गया--स्वस्थ। दोनों तुम पहचान लेते हो। जब प्राणों में पीड़ा होती है, तब भी तुम पहचान लेते हो; जब प्राण तृप्त हो जाते हैं, तब भी पहचान लेते हो।
नहीं, कोई प्रत्यभिज्ञा का शास्त्र नहीं है। जरूरत ही नहीं है।
लेकिन भूल पहली जगह हो जाती है। लोभ के कारण बहुत लोग साधना में प्रविष्ट हो जाते हैं। और अगर लोभ के कारण प्रविष्ट न हों, तो भय के कारण प्रविष्ट हो जाते हैं। वह एक ही बात है। लोभ और भय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कोई इसलिए परमात्मा की प्रार्थना कर रहा है कि डर हुआ है, भयभीत है। कोई इसलिए प्रार्थना कर रहा है कि लोभातुर है। पर दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। दोनों में कोई भी साधक नहीं है।
साधक का तो अर्थ ही यह है, कि जीवन के अनुभव से जाना, कि जीवन व्यर्थ है। जीवन से गुजरकर पहचाना, कि कोई सार नहीं है। हाथ सिवाय राख लगी कुछ भी न लगा। सब जीवन के अनुभव देख लिए और खाली पाए; पानी के बबूले सिद्ध हुए। जब सारा जीवन राख हो जाता है, जो भी तुम चाह सकते थे, जो भी तुम मांग सकते थे, जो भी तुम्हारी वासना थी, सब व्यर्थ हो जाती है, सब इंद्रधनुष टूट जाते हैं, खंडहर रह जाता है जीवन का--उस अनुभूति के क्षण में खोज शुरू होती है, कि फिर सत्य क्या है? सब जीवन तो सपना हो गया। न केवल सपना, बल्कि दुख-सपना हो गया; अब सत्य क्या है?
जब तुम ऐसी उत्कंठा से भरते हो, तब गुरु को पहचानना न पड़ेगा। गुरु के पैरों की आवाज सुनकर तुम्हारे हृदय के घूंघर बज उठेंगे। गुरु की आंख में आंख पड़ते ही सदा के बंद द्वार खुल जाएंगे। गुरु का स्पर्श तुम्हें नचा देगा। उसका एक शब्द--और तुम्हारे भीतर ऐसी ओंकार की ध्वनि गूंजने लगेगी, जो तुमने कभी नहीं जानी थी। तुम एक नई पुलक, एक नए संगीत और नए जीवन से आपूरित हो उठोगे।
नहीं, कोई पहचानने की जरूरत न पड़ेगी। तुम पूछोगे नहीं। और सारी दुनिया भी कहती हो, कि यह आदमी सतगुरु नहीं तो भी कोई तुम्हें फर्क नहीं पड़ेगा तुम्हारे हृदय ने जान लिया। और हृदय की पहचान ही एकमात्र पहचान है।
इसलिए पहले तुम खोज कर लो, कि साधक हो? वहीं भूल हो गई, तो फिर मैं तुम्हें सारा शास्त्र भी बता दूं, कि इस-इस भांति पहचानना गुरु को, कुछ काम न आएगा।
क्योंकि जितने गुरु हैं उतने ही प्रकार के हैं। कोई परिभाषा काम नहीं आ सकती। महावीर अपने ढंग के हैं, बुद्ध अपने ढंग के, कृष्ण अपने ढंग के, क्राइस्ट अपने ढंग के, मुहम्मद की बात ही और है। सब अनूठे हैं। अगर तुमने कोई परिभाषा बनाई तो वह किसी एक ही गुरु के आधार पर बनेगी। और वैसा गुरु दुबारा पैदा होने वाला नहीं है। इसलिए तुम्हारी परिभाषा में कभी कोई गुरु बैठेगा नहीं।
जो गुरु पैदा होंगे, वे तुम्हारी परिभाषा में न बैठेंगे। और जिसकी तुम परिभाषा लेकर चल रहे हो, वह दुबारा पैदा नहीं होता। कहीं दुबारा बुद्ध होते हैं! कहीं दुबारा महावीर होते हैं! नाटक करना एक बात है, दुबारा महावीर होना तो बहुत मुश्किल है। अभिनय और बात है। रामलीला की बात मत उठाओ, राम होना बहुत मुश्किल है।
अगर तुमने किसी की परिभाषा पकड़ ली, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे क्योंकि उस परिभाषा को पूरा करने वाला दुबारा न आएगा। वह आ चुका और जा चुका। और जब वह आया था, तब तुम पहचान न सके क्योंकि तब तुम कोई दूसरी पुरानी परिभाषा लिए बैठे थे।
महावीर जब मौजूद थे, तब तुम्हारे पास कृष्ण की परिभाषा थी। महावीर बिलकुल बैठे न उस परिभाषा में। हिंदू-शास्त्रों ने महावीर का उल्लेख ही नहीं किया। इतना महिमावान पुरुष पैदा हुआ और इस देश का बड़े से बड़ा धर्म, इस देश की बहुसंख्या के शास्त्र उसका उल्लेख भी नहीं करते। क्या बात हो गई होगी? एक बार महावीर का नाम नहीं लेते। पक्ष की तो छोड़ दो, विपक्ष में भी कुछ नहीं कहते। प्रशंसा न करो, कम से कम निंदा तो करते!
नहीं, उतना भी ध्यान न दिया। परिभाषा में ही न बैठा यह आदमी। परमात्मा की परिभाषा उनकी और थी। उन्होंने देखा था कृष्ण को मोरमुकुट बांधे, यह आदमी नग्न खड़ा था। इससे कहीं मेल नहीं बैठता था। उन्होंने कृष्ण को देखा था बांसुरी बजाते। इस आदमी की अगर कोई बांसुरी थी, तो इतनी अदृश्य थी, कि किसी को दिखाई नहीं पड़ी। यह इस आदमी के पास कोई बांसुरी ही न थी, यह आदमी उनकी भाषा में कहीं आया नहीं। सब पुराने संकेतों, कसौटियों का कसा नहीं जा सका। तब महावीर चूक गए।
महावीर को जिन थोड़े से लोगों ने समझा, जिनकी प्यास थी, जिन्होंने पहचाना, जो बिना परिभाषा के पहचानने को राजी थे, वे वे ही लोग थे, जिनकी प्यास थी। अब वे दूसरी परिभाषा बना गए। अब उनके अनुयायी उस परिभाषा को ढो रहे हैं। अब बहुत अड़चन है। अगर वे मुझे बैठे इस कुर्सी पर देख लें, अड़चन है। महावीर कुर्सी पर कभी बैठे नहीं। यह आदमी गलत है। कपड़ा पहने देख लें, मुश्किल। क्योंकि महावीर तो नग्न थे। दिगंबरत्व तो लक्षण है।
अभी तो मुझे वे ही लोग पहचान सकते हैं, जिनकी प्यास है। और खतरा उनके साथ भी यही रहेगा, कि मेरे जाने के बाद वे कोई परिभाषा बना लेंगे, जो दूसरों को उलझाएगी क्योंकि फिर दुबारा कोई आता नहीं।
मेरी बात ठीक से समझ लो। जब तक तुम परिभाषा बनाते हो, आदमी चला जाता है। जब तुम्हारी परिभाषा बनकर तैयार हो जाती है, बिलकुल सुनिश्चित हो जाती है, तब दुबारा वैसा आदमी पैदा नहीं होता। धर्म की सारी विडंबना यही है। इसलिए तुम कृपा करो, परिभाषाएं मत पूछो। प्यास पूछो। अपनी प्यास टटोलो।
अगर प्यास न हो, धर्म की बात ही छोड़ दो। अभी धर्म का क्षण नहीं आया। अभी थोड़े और भटको। अभी थोड़ा और दुख पाओ। अभी दुख को तुम्हें मांजने दो। अभी दुख तुम्हें और निखारेगा। अभी जल्दी मत करो। अभी बाजार में ही रहो। अभी मंदिर की तरफ पीठ रखो। क्योंकि जब तक तुम ठीक से पीड़ा से न भर जाओ, लाख बार मंदिर आओ, आना न हो पाएगा। हर बार खाली हाथ आओगे, खाली हाथ लौट जाओगे।
मंदिर तो उसी दिन आओगे, जिस दिन बाजार की तरफ पीठ ही हो जाए। तुम जान ही लो कि सब व्यर्थ है। उस दिन तुम बाजार में बैठे-बैठे पाओगे, मंदिर ने तुम्हें घेर लिया। उस दिन तुम्हें गुरु खोजने न जाना पड़ेगा, वह तुम्हारे द्वार पर आकर दस्तक देगा। अपनी प्यास को परख लो।
मगर बड़ा मजा है, लोग प्यास का सवाल ही नहीं उठाते; पूछते हैं, सदगुरु की परीक्षा क्या? तुम अपनी परीक्षा कर लो। तुम तक तुम्हारी परीक्षा काफी है; उससे आगे मत जाओ। तुम्हें प्रयोजन भी क्या है सदगुरु से? तुम अपनी प्यास को पहचान लो। अगर प्यास है, तो तुम जल की खोज कर लोगे--करनी ही पड़ेगी मरुस्थल में भी आदमी जल खोज लेता है, प्यास होनी चाहिए।
और प्यास न हो, तो सरोवर के किनारे बैठा रहता है। जल दिखाई ही नहीं पड़ता। जल के होने से थोड़े ही जल दिखाई पड़ता है! भीतर की प्यास होने से दिखाई पड़ता है।
कभी उपवास करके बाजार गए? उस दिन फिर कपड़े की दूकानें नहीं दिखाई पड़तीं, सोने चांदी की दूकानें नहीं दिखाई पड़तीं, सिर्फ रेस्ट्रां, होटल! उपवास करके बाजार में जाओ, सब तरफ से भोजन की गंध आती मालूम पड़ती है, जो पहले कभी नहीं मालूम पड़ी थी। सब तरफ भोजन ही बनता हुआ दिखाई पड़ता है। वह पहले भी बन रहा था, लेकिन तब तुम भूखे न थे।
भूखे को भोजन दिखाई पड़ता है।
प्यासे को पानी दिखाई पड़ता है।
साधक को सदगुरु दिखाई पड़ जाता है।

दूसरा प्रश्न: मोक्ष के पश्चात कभी जन्म नहीं होता, इसकी क्या गारंटी है?

कोई गारंटी नहीं है। तुम किसी बैंक में आ गए!
इसको मैं कहता हूं, लोभ से भरा हुआ मन। ऐसा मन साधक नहीं हो सकता। गारंटी की बात क्या है? कौन किसको गारंटी देगा? और वह भी मोक्ष के बाद जन्म नहीं होता, इसकी गारंटी? अगर मैं लिखकर भी दे दूं, तो भी किस काम पड़ेगी? फिर तुम मुझे कहां खोजोगे? तुम मेरी लिखी चिट्ठी कहां ले जाओगे?
मोक्ष के बाद दुबारा जन्म नहीं होता इसकी गारंटी चाहिए--क्यों? क्योंकि यदि करोड़ों वर्षों के बाद नई सृष्टि में जन्म लेना होता है, तो इस मोक्ष का फायदा ही क्या?
इसको मैं कहता हूं, लाभ और लोभ की दृष्टि।
साधना का जन्म ही शुरू से गलत हो गया। वह बच्चा मरा ही पैदा हुआ। अब तुम इसको कितना ही सजाओ, संवारो, कितने ही बहुमूल्य वस्त्रों में रखो, दुर्गंध ही आएगी। यह बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ। यह तो गर्भपात हो गया। साधक पैदा ही नहीं हो पाया। तुम दुकानदार ही रहे, बाजार में ही रहे। मंदिर तो बाजार में न आ पाया, तुम बाजार को मंदिर में ले आए। तुम गारंटी पूछते हो; कोई गारंटी नहीं है।
और साधक गारंटी पूछता ही नहीं। साधक असल में कल की बात ही नहीं उठाता। साधक कहता है, आज काफी है। यह क्षण पर्याप्त है। इस क्षण में अगर मैं मुक्त हूं, तो...
इस बात को थोड़ा समझने की कोशिश करो। अगर इस क्षण में मैं मुक्त हूं, तो दूसरा क्षण पैदा कहां से होगा? इसी क्षण से पैदा होगा। क्षण में से क्षण लगते हैं। जैसे गुलाब पर गुलाब का फूल लगता है, ऐसे मुक्त क्षण में मुक्त का फूल लगता है। गुलाम क्षण में गुलामी का फूल लगता है। तुम अगर आज गुलाम हो, तो कल भी गुलाम रहोगे। आज का दिन तुम्हारी गुलामी को और मजबूत कर जाएगा। कल तुम और ज्यादा गुलाम हो जाओगे, परसों और ज्यादा गुलाम हो जाओगे।
अगर आज तुम मुक्त हो, तो कल आएगा कहां से? कल घड़ी में से थोड़े ही आता है! कल तो तुम्हारे जीवन में से ही आता है। तुम्हारा कल, तुम्हारा कल है: मेरा कल मेरा कल होगा। उतने ही समय हैं, जितने लोग हैं। समय कोई एक थोड़े ही है। मेरे समय में और तुम्हारे समय में क्या नाता है, क्या संबंध है? तुम्हारा समय तुम्हारे भीतर से निकल रहा है।
जो आदमी सुबह क्रोध से भरा था, उसकी दोपहर में क्रोध की छाया होगी। जो आदमी सुबह प्रार्थना किया है, पूजा किया है, अहोभाव से भरा था, उसकी दुपहर पर अहोभाव की भनक, धुन, सुगंध होगी। तुम्हारा क्षण तुम्हारे ही भीतर से उग रहा है। क्षण ऐसे लगता है तुममें, जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं। कल की बात ही क्या करनी है? अगर आज का क्षण मेरा मुक्त है, तो वहीं छिपी है गारंटी! क्योंकि कल का क्षण आएगा कहां से? इसी क्षण से निकलेगा--और भी मुक्त होगा। क्योंकि इतना समय मुक्ति के लिए और भी मिल चुका होगा। फिर परसों उस क्षण से निकलेगा।
इसलिए हम कहते हैं, मोक्ष से कोई वापिस नहीं आता। क्योंकि मोक्ष बड़ा होता जाता है, बढ़ता जाता है; वापिस कैसे लौटोगे? वापिस तो वही लौटता है, जिसकी गुलामी बढ़ती जाती है।
ऐसा हुआ, यूनान में एक बहुत अदभुत फकीर हुआ डायोजनीज। उसने सब त्याग कर दिया था, लेकिन ऐसे वह एक बड़े रईस और कुलीन घराने से आया था। सब छोड़ दिया था, लेकिन कभी अपना काम अपने हाथ से तो किया न था, तो एक गुलाम बचा रखा था। एक नौकर, जो उसकी देखभाल कर देता, सेवा-टहल कर देता। ऐसे वह संन्यासी हो गया था सब छोड़ कर; सिर्फ एक गुलाम बचा लिया था। पुरानी आदत थी, अपना काम कभी किया न था। बिस्तर कौन लगाता, भोजन कौन बनाता? तो एक नौकर रख छोड़ा था।
एक दिन वह नौकर भाग गया। आखिर नौकर को रख छोड़ना आसान मामला नहीं है। जब उस नौकर ने देखा, कि अब यह डायोजनीज बिलकुल फकीर हो गया है, तो वह यह उसको रोक भी कैसे सकेगा? इसके पास कुछ भी रोकने को भी नहीं बचा है। तुम अपने नौकर को रोक पाते हो क्योंकि वहां पुलिस है, कानून है, अदालत है। वे सब रक्षा कर रहे हैं। नहीं तो नौकर भाग जाए, तुम क्या करोगे? अब यह आदमी अकेला जंगल में था, नौकर भाग गया।
दूसरे फकीर जो जंगल में साधना में रत थे, उन्होंने कहा, कि पीछा करो। यह बात ठीक नहीं है। इस नौकर को दंड देना उचित है।
लेकिन डायोजनीज ने कहा, कि मैं सोचता हूं कि अगर नौकर मेरे बिना जी सकता है और मैं उसके बिना नहीं जी सकता, कौन मालिक है, तो कौन नौकर है, यह जरा संदिग्ध हो जाता है। दास मेरे बिना जी सकता है, उसे मेरी कोई जरूरत नहीं और मैं दास के बिना नहीं जी सकता? तो मैं दासानुदास हो गया। नहीं, अब यह भूल मैं न करूंगा। अच्छा हुआ, कि वह भाग गया। अब वह आए भी, तो उसे हाथ जोड़ लूंगा।
यह आदमी मुक्ति की तरफ एक कदम रख रहा है। इसका कल भी तो इसी से निकलेगा।
तब उसके पास सिर्फ एक भिक्षापात्र बचा। एक दिन उसने देखा एक कुत्ते को पानी पीते झरने पर, तो उसने सोचा यह कुत्ता तो मुझसे ज्यादा मुक्त है। यह भिक्षापात्र तो मुझे ढोना पड़ता है और अगर कुत्ता बिना भिक्षापात्र के रह लेता है, तो मैं आदमी होकर न रह सकूं? कुत्ते से गई बीती दशा हो गई। उसने भिक्षापात्र वहीं छोड़ दिया। वह हाथ से ही पानी पीने लगा। वह हाथ में ही भिक्षा लेने लगा। मुक्ति से दूसरा क्षण निकल आया। दृष्टि!
सिकंदर जब भारत आ रहा था, तो इस फकीर को मिला था। तो उस फकीर ने सिकंदर को कहा था, तू व्यर्थ परेशान मत हो। तू किसलिए दुनिया जीतना चाहता है? सिकंदर ने कहा, ताकि मैं आनंद से विश्राम कर सकूं। डायोजनीज हंसने लगा जोर से। वह पहाड़, नदी उसकी हंसी से गूंज उठी होगी। सिकंदर थोड़ा हतप्रभ हुआ। उसने कहा, मैं समझा नहीं; इसमें हंसने की क्या बात है?
डायोजनीज ने कहा, कि हंसने की बात है। मुझे देखो, बिना दुनिया को जीते मैं आराम कर रहा हूं, तो तुम दुनिया को जीतकर आराम करोगे यह मेरी समझ में नहीं आता। अगर आराम ही करना है, तो अभी क्या बिगड़ा है? यह नदी काफी बड़ी है और रेत का घाट बहुत बड़ा है। इस में मेरे लिए भी जगह है, तुम्हारे लिए भी जगह है। सारी दुनिया भी आ जाए, तो विश्राम कर सकती है। तुम लेट जाओ। सुबह कितनी सुंदर है! कहां जाते हो?
डायोजनीज लेटा था नग्न, सुबह धूप ले रहा था। कहते हैं, सिकंदरर् ईष्या से भर गया था डायोजनीज की स्वतंत्रता को देखकर। सिकंदरर् ईष्या से भर जाए, सोचने जैसा है। और सिकंदर ने कहा था, अगर परमात्मा से दुबारा मुझे जन्म लेने का मौका मिला तो मैं कहूंगा इस बार मुझे सिकंदर मत बना, डायोजनीज बना दे। लेकिन अभी तो जाना होगा। अभी तो यात्रा अधूरी है, संसार जीतने को पड़ा है। लेकिन तुम्हारी बात याद रखूंगा। डायोजनीज, तुम्हें भूलूंगा नहीं। तुम्हारे लिए कुछ करना हो, तो मुझे कहो। तुम जो कहोगे करवा दूंगा। मैं खुश हूं।
डायोजनीज ने कहा, ज्यादा से ज्यादा तुम इतना कर सकते हो, कि थोड़ा धूप छोड़कर खड़े हो जाओ। और न कुछ चाहिए, न कोई जरूरत है। सुबह सर्द है और मैं धूप का मजा ले रहा हूं। तुम नाहक बीच में खड़े हो।
और इतना तुमसे कहे देता हूं, कि कोई भी संसार को लौटकर कभी विश्राम नहीं कर पाया। जिसने भी विश्राम किया है, उसने इसी क्षण शुरू किया है। क्योंकि हर क्षण इस क्षण से पैदा होता है।
तुम कहते हो, कल करेंगे। आज तुम कुछ तो करोगे? तुम जो करोगे, उससे तुम्हारा कल पैदा होगा। तुम कहते हो, आज तो दूकान कर लेने दो, फिर कल पूजा कर लेंगे। लेकिन कल आएगा कहां से? आज की दुकानदारी से ही आएगा। फिर पूजा कैसे पैदा होगी? उससे दुकानदारी ही पैदा होगी। एक दिन और बीत गया निद्रा में, निद्रा और मजबूत हो गई।
तुम यह पूछो ही मत, कि मोक्ष के बाद आना होता है? मोक्ष का अर्थ ही यह है, कि जिसमें लौटने का उपाय नहीं रह जाता। मोक्ष का अर्थ क्या है, तुम समझे ही नहीं; इसलिए इस तरह का सवाल उठता है। मोक्ष का अर्थ है, वह व्यक्ति जिसकी अब कोई वासना न रही। लौटता है आदमी वासना के कारण।
थोड़ा समझो: एक बच्चा स्कूल में आता है। और वह स्कूल के प्राचार्य को पूछता है, कि अगर पास हो जाऊंगा, तो मुझे दुबारा तो स्कूल नहीं आना पड़ेगा? तो प्राचार्य कहेगा, कि अगर तुम उत्तीर्ण हो गए तो तुम आना भी चाहो, हम तुम्हें भीतर न घुसने देंगे। क्योंकि इस स्कूल का उपयोग ही इतना है, कि तुम उत्तीर्ण हो गए, बात खत्म हो गई। अगर उत्तीर्ण हुए लोग यहां आने लगें, तो छोटे बच्चों का क्या होगा? वे कहां जाएंगे?
ऐसे ही भीड़-भड़क्का बहुत है। उत्तीर्ण आदमी को तो आने का कोई सवाल नहीं रहा। लेकिन जो असफल हुआ है, उसे वापिस लौटना पड़ता है। संसार एक प्रशिक्षण है परमात्मा को पाने का। जिसने पा लिया, बात खत्म हो गई प्रशिक्षण पूरा हो गया। लौटने का सवाल ही नहीं उठता।
तुम्हारे मन में उठता है, क्योंकि तुम्हारे वह जो कृपण और लोभी मन है, वह हर चीज को पहले से मजबूत और पक्का कर लेना चाहता है; तब कदम उठाओगे तुम। जब तक कि तुम्हें कोई गारंटी न मिल जाए, तब तक तुम ध्यान न करोगे। तुम्हारी इस गारंटी की आकांक्षा ने ही दुनिया में बहुत उपद्रव खड़ा किया है। तब न मालूम कितने तरह के चालाक लोग तुम्हें गारंटी देने के लिए तैयार हो गए हैं। तुम जो मांगते हो, उसको कोई न कोई तो पूर्ति करने के लिए तैयार हो जाएगा।
मैं सूरत में था, तो एक सज्जन ने मुझे आकर कहा, कि उनका धर्मगुरु दऊदी बोहरा लोगों को चिट्ठी लिखकर देता है भगवान के नाम, कि इस आदमी ने एक लाख रुपया दान किया है, यह बड़ा अच्छा आदमी है, इसकी साज-सम्हाल रखना, ढंग से स्वागत वगैरह करवाना। कुछ लिख दी चिट्ठी भगवान के नाम और उस चिट्ठी को वह आदमी जब मरता है, तो उसकी छाती पर रखकर और कब्र में रख दिया जाता है।
तुम गारंटी मांगते हो, देनेवाले मिल जाते हैं। मगर कैसी मूढ़ता है! वह आदमी भी यहीं पड़ा रह जाता है, वह चिट्ठी भी यहीं पड़ी रह जाती है। लेकिन लौटकर इस धर्मगुरु से अदालत में लड़ने का भी तो कोई उपाय नहीं है। कोई कभी लौटता नहीं। कोई कभी शिकायत नहीं करता, कि चिट्ठी काम नहीं आई। यह चिट्ठी बेकार है। न कोई कभी लौट सकता है, न कोई मुकदमा हो सकता है। यह चालाकी और शोषण जारी रहता है।
तुम जब तक मांगोगे, देने वाले मिल जाएंगे। दोष उनका नहीं है, दोष तुम्हारा है।
और तुम पूछते हो, फायदा क्या है अगर फिर लौटना पड़ा? तुम जब भोजन करते हो तब तुम यह नहीं पूछते कि कल फिर भोजन करना पड़ेगा, फायदा क्या है? तुम जब पानी पीते हो तब तुम नहीं पूछते कि फिर पानी पीना पड़ेगा, फायदा क्या है? तुम जब सांस भीतर लेते हो तब तुम नहीं कहते, क्या फायदा? फिर बाहर निकालनी पड़े, फिर भीतर करनी पड़े, फायदा क्या?
जीवन में फायदे की बात ही पूछना नासमझी की है। जीवन कोई धंधा थोड़े ही है! फायदे का दृष्टिकोण ही भूल-भरा है। उससे ही तो तुम भटक रहे हो। जहां जाना चाहिए वहां नहीं पहुंच पाते क्योंकि वहां जाने में कोई फायदा नहीं दिखाई पड़ता। और जहां फायदा दिखाई पड़ता है, वह तुम्हारी नियति नहीं।
मैंने सुना है, कि एक मारवाड़ी सेठ स्टेशन आया। उसने टिकट दफ्तर में खड़े होकर पूछा, कि मुझे रामपुर जाना है, टिकट दे दो। उस टिकट बाबू ने कहा, कि रामपुर तीन है। एक मध्य प्रदेश में, एक उत्तर प्रदेश में, एक बिहार में है, कौन से रामपुर जाना है? सेठ ने कहा, इसमें भी कोई पूछने की बात है? जहां की टिकिट सबसे कम हो!
फायदे का दृष्टिकोण--कहां जाना है, इससे कुछ लेना-देना ही नहीं। तो यह पहुंचेगा तो रामपुर, लेकिन उस रामपुर पहुंच जाएगा, जहां जाना ही नहीं था। फायदे को पूछकर गए तो तुम जीवन को चूक जाओगे।
क्योंकि यह जो अस्तित्व है, यह खेल है, यह लीला है। यहां फायदे का सवाल नहीं है। यह आनंद उत्सव है। यहां कोई साध्य नहीं है। यहां होने में ही आनंद है। अगर तुमने पूछा, कि क्यों सांस लें, तो आत्महत्या करनी पड़ेगी। क्योंकि कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता, क्यों सांस ले। क्यों पानी पीएं, फायदा क्या है? क्योंकि फिर पीना पड़ेगा। फिर फिर पीना पड़ेगा--मत पीयो!
असली सवाल फायदे का है ही नहीं। असली सवाल तो जीवन के आनंद को अनुभव करने का है। जब कंठ में प्यास होती है और तुम पानी पीते हो, तो एक तृप्ति उतरती है। जब तुम भूखे होते हो और भूख निश्चित जलती है, तुम्हारी जठराग्नि उठती है, तब तुम भोजन करते हो, तब एक गहन तृप्ति होती है। जब तुम भीतर नई श्वास ले जाते हो, तो नया प्राण तुम्हारे जीवन में दौड़ता है। जब तुम ध्यान करते हो, तो एक नई समाधि तुम्हें चारों तरफ से घेर लेती है।
ऐसा नहीं है, कि कल नहीं करनी पड़ेगी, तभी तुम आज करोगे। तब तो तुम कभी भी न करोगे। जीवन का प्रत्येक पल उसकी समग्रता में जीने के लिए है। यहां लक्ष्य तो कुछ भी नहीं है। यह संसार कहीं जा नहीं रहा है। यह संसार वहां है ही, जहां इसे पहुंचना है। इसलिए केवल वे ही लोग सत्य को उपलब्ध हो पाते हैं, जिनके जीवन में साधन ही साध्य हो जाता है। इस सूत्र को तुम जितनी गहराई में उतार सको उतार लो।
केवल वे पहुंच जाते हैं परमात्मा तक, केवल वे ही मुक्त हो पाते हैं, जिनके जीवन में साधन ही साध्य हो जाता है।
इसका मतलब? इसको मतलब, कि मंजिल की वे बात ही नहीं करते। वे कहते हैं, राह पर चलना इतना सुखद है, कौन फिक्र करता मंजिल की! वे इसकी बात ही नहीं करते, कि कल क्या मिलेगा; वे कहते हैं, आज इतना मिला है, कल की बात ही क्यों उठानी? आज इतना आपूर मिला है, कि नाच लें, अनुगृहीत हो लें।
ऐसे व्यक्ति को कल और ज्यादा मिलता है। उसके द्वार बड़े होते जाते हैं। एक दिन सारा आकाश उसके हृदय में समा जाता है। एक दिन अनंत उसकी सीमा में उतर आता है। एक दिन उसकी बूंद में पूरा सागर छलांग ले लेता है।
तुम दुकानदार की नजर से परमात्मा की तरफ मत आना। अच्छा है, तुम दुकानदार ही रहो। अच्छे दुकानदारों की वैसे भी जरूरत है। बुरे साधक होने की बजाए अच्छा दुकानदार होना बेहतर है। लेकिन जब साधक होने आओ, तो समझकर आओ।
साधक की दुनिया का गणित ही उलटा है। वहां साधक इसलिए कुछ नहीं करता, कि इससे मिलेगा। वहां साधक इसलिए कुछ करता है, करने में ही मिलता है। करना और मिलना एक साथ, एक ही क्षण में समा जाते हैं। मंजिल और मार्ग एक साथ। मार्ग ही मंजिल हो जाता है।
तुमने प्रार्थना की--तुम दो तरह से कर सकते हो। एक तो दुकानदार की प्रार्थना है, कि वह कहता है प्रार्थना कर रहा हूं, नारियल चढ़ाया है, खयाल रखना। कहीं ऐसा न हो, कि धोखा दे जाओ। मुकदमा जिता देना। लड़के को पास करा देना। पत्नी बीमार पड़ी है, ठीक कर देना।
पांच आने का सड़ा नारियल ले आए हैं, परमात्मा पर बड़ी कृपा कर रहे हैं! मंदिरों में कोई अच्छा नारियल चढ़ाता ही नहीं। मंदिरों के पास नारियल की विशेष दुकान होती है। उसमें सड़े नारियल ही बिकते हैं। और ऐसे नारियल जो लाखों बार चढ़ाए जा चुके हैं, वे फिर वापिस आ जाते हैं। इसलिए दुनिया में नारियलों के दाम बढ़ते जाते हैं लेकिन मंदिर के पास की दूकान पर दाम वही रहते हैं। कोई जरूरत ही नहीं दाम बढ़ाने की। क्योंकि वे नारियल कोई खा नहीं सकता। कोई काम के नहीं है, किसी मतलब के नहीं हैं। वे सिर्फ चढ़ाने योग्य हैं। परमात्मा का तुम चढ़ाते तब हो, जब वह किसी काम का नहीं होता। वे चढ़ते हैं बार-बार, सुबह फिर बिक जाते हैं दुकान पर। फिर चढ़ जाते हैं, फिर दुकान पर आ जाते हैं।
तुम एक सड़ा नारियल चढ़ा देते हो। तुमने बड़ी परमात्मा पर कृपा की। अब तुम कल घर में बैठकर रास्ता देखोगे, कि परिणाम क्या होता है? तुम समझे ही नहीं प्रार्थना का अर्थ।
जहां तक मांग है, वहां तक प्रार्थना नहीं है। प्रार्थना चढ़ाना मात्र है, मांगना नहीं है। प्रार्थना में फल की आकांक्षा नहीं है। अगर फल की आकांक्षा है, तब वह व्यवसाय है, प्रार्थना नहीं। तुम गए, यह तुम्हारी खुशी थी। यह तुम्हारा आनंद था, कि तुमने चढ़ाया। तुम परमात्मा को थोड़ी भेंट करके आए, इससे तुम यह मत समझना, कि परमात्मा तुम्हारे प्रति अनुगृहीत हुआ। उसने तुम्हें इतना दिया है, उसमें से तुम एक कण जाकर वापिस लौटा आए और तुम सोचते हो परमात्मा अनुगृहीत हो। तुमने चढ़ाया, यह तुम्हारे अनुग्रह की स्वीकृति होनी चाहिए, कि मैं धन्यभागी हूं, कि तूने मुझे इतना दिया। थोड़ा सा चढ़ा जाता हूं, ज्यादा मेरी सामर्थ्य नहीं है।
वास्तविक प्रार्थना करने वाला हमेशा अनुभव करेगा, कि जितना मुझे चढ़ाना था उतना मैं चढ़ा न पाया। जो मुझे देना था, वह मैं दे न पाया। जो मुझे बांटना था, वह मैं बांट न सका। वह हमेशा इस पीड़ा से भरा रहेगा, कि मिला मुझे बहुत, दे मैं कुछ भी न पाया। झूठा प्रार्थी समझेगा, कि मैंने एक नारियल चढ़ाया, अब इसका फल होना चाहिए। अगर फल न हो, तो परमात्मा का होना न होना तुम्हारे सड़े नारियल पर निर्भर है। अगर फल न हुआ, तो तुम कहोगे परमात्मा नहीं है। क्योंकि सड़ा नारियल काम न आया। अगर फल हुआ तो--
एक आदमी मेरे पास आया। उसने कहा, मैं नास्तिक था, लेकिन अब मैं आस्तिक हो गया हूं।
मैंने कहा, इतनी आसानी से कोई नास्तिक से आस्तिक नहीं होता। तू पूरी कहानी बता। जरूर कोई गड़बड़ हो गई। क्योंकि मुश्किल से कभी हजारों साल में कोई नास्तिक, आस्तिक होता है। नास्तिक से आस्तिक होना तो बस, मोक्ष पा लेना है। आस्तिक है कहां? हजारों साल में कभी किसी आस्तिक के दर्शन होते हैं। तब पृथ्वी पर स्वर्ग उतरता है। तू आस्तिक हो गया? जरूर कहीं कुछ भूल हो गई है। क्या मामला है?
उसने कहा, कि मेरे लड़के की नौकरी नहीं लग रही थी, तो मैं जाकर अल्टीमेटम दे आया। अल्टीमेटम! परमात्मा को! कि अगर पंद्रह दिन के भीतर नौकरी न मिली तो समझ ले कि फिर तुझे बिलकुल नहीं मानूंगा। बस यह आखिरी हिसाब है। अगर मिल गई नौकरी, सदा तेरी भक्ति करूंगा।
और नौकरी मिल गई इसलिए वह आदमी आस्तिक हो गया। मैंने उससे कहा, कि अब दुबारा अल्टिमेटम मत देना, नहीं तो नास्तिक हो जाएगा। संयोगवशात यह नौकरी मिल गई है, तेरे अल्टीमेटम के भय के कारण नहीं, कि भगवान को तू डरा आया था तो वे भयभीत होकर कंप गए, कि नहीं देंगे नौकरी, तो तू मानेगा नहीं। ऐसा दीन-हीन भगवान! क्या कोई राजनीतिक नेता है, कि तुम्हारी वोट पर निर्भर है? दो कौड़ी का ऐसा भगवान, जो तुम्हारी अल्टीमेटम से डर जाए। अब तू दुबारा मत देना, तो आस्तिकता तेरी बनी रहेगी। क्योंकि इतनी झीनी चादर है तेरी आस्तिकता की, जरा सी खरोंच में कट जाएगी और नास्तिक बाहर आ जाएगा।
मगर वह न माना, क्योंकि लोभी कैसे मान सकता है? सफल हो गया था। तब पत्नी बीमार हुई, उसने फिर जाकर वही किया। क्योंकि एक दफा कारगर हो गई बात। और पत्नी मर गई, वह ठीक न हुई। कोई दोत्तीन साल बाद यह घटना घटी। वह मेरे पास आया। उसने कहा, आपने ठीक कहा था; मैं महानास्तिक हो गया हूं।
मैंने कहा, तुझे जो होना हो, होता रह; लेकिन यह तेरे मन का ही खेल है। न तू आस्तिक हुआ कभी, न तू कभी नास्तिक हुआ। तेरी नास्तिकता आस्तिकता सब सौदा है। यह तेरी कोई जीवन-दृष्टि नहीं है, तेरा कोई दर्शन नहीं है, तेरी कोई अनुभूति नहीं है। तू नाहक ही आस्तिक हो रहा है, नास्तिक हो रहा है। तू अकेले ही खेल खेल रहा है। इसमें परमात्मा भागीदार नहीं है। अब तू नास्तिक ही रहना। अब दुबारा भूल मत करना। नहीं तो फिर आस्तिक हो जाएगा और ऐसे ही--सुबह होती, शाम होती, ऐसे ही उम्र तमाम होती--और तू कभी कुछ भी न हो पाएगा।
लोभ और लाभ की दृष्टि का परमात्मा से कभी संबंध नहीं जुड़ता। वहां तुम जाना मंदिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे में, लेकिन प्रार्थना ही तुम्हारा अहोभाव हो। प्रार्थना अपने आप में अंत हो। तुम इसलिए प्रार्थना करना, कि प्रार्थना करना ऐसा महासुख है। उसके पीछे जरा सी भी रेखा मांग की न हो, तभी तुम्हें स्वाद लगेगा। तभी तुम्हें पहली दफा पता चलेगा, प्रार्थना क्या है। तभी तुम्हें पहली दफा पता चलेगा, ध्यान क्या है।
मेरे पास लोग आते हैं, निरंतर वे कहते हैं, कि आप ध्यान समझाते हैं, फायदा क्या, लाभ क्या, इससे क्या मिलेगा?
उनसे मैं कहता हूं, मिलेगा तो कुछ भी नहीं; बहुत कुछ खो जाएगा। तुम्हारी चिंता, तुम्हारी बेचैनी, तनाव, तुम्हारी दौड़, महत्वाकांक्षा,र् ईष्या, यह सब खो जाएगा और इसके साथ तुम्हारी सारी दुनिया का फैलाव। क्योंकि इसी पर तुम्हारा सारा तंबू तना है--इन्हीं खंभों पर। वह सब गिर जाएगा। मटिया मेट हो जाओगे, अगर ध्यान किया।
ध्यान करने के लिए जुआरी चाहिए, दुकानदार नहीं। वहां दांव पर लगा दिया सब; मांगना क्या है? और यह मैं तुमसे कहता हूं, जो नहीं मांगता, उसे मिलता है, जो मांगता है, वह चूक जाता है। यह उल्टा गणित है। यहां जो मांगेगा, वह खाली हाथ लौट जाएगा। यहां जो बिना मांगे आएगा, उसका प्राण-प्राण, रोआं-रोआं भर जाएगा।

तीसरा प्रश्न: क्या कारण है कि सदगुरु के शिष्य तो थोड़े होते हैं लेकिन असदगुरु के इर्द-गिर्द अनुयायियों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है?

यह बिलकुल स्वाभाविक है। ऐसा होना ही चाहिए। क्योंकि सदगुरु को कितने लोग पहचान सकेंगे? वही--जिनकी प्यास है; जिनके लिए जीवन व्यर्थ हो गया; जिनके लिए जीवन संताप और स्वप्न हो गया।
असदगुरु के पास भीड़ इकट्ठी होगी। क्योंकि असदगुरु भीड़ की आकांक्षाएं तृप्त कर रहा है। ताबीज बांध रहा है, राख राख निकाल रहा है, जादू कर रहा है। मूढ़ बड़ी संख्या में वहां इकट्ठे हो जाएंगे। वही वे चाहते हैं। उनकी आकांक्षाएं जो तृप्त कर रहा है, वहां वे इकट्ठे होंगे।
सदगुरु तो छीन लेगा। सदगुरु तो तुम्हें मिटाएगा। तो जो दादू ने कहा है, वह निशाना लगा-लगाकर तीर छोड़ेगा। वह तुम्हें मिटाएगा, वह तुम्हें मार ही डालेगा। क्योंकि तुम मिटोगे, तभी तुम्हारी राख पर परमात्मा का आविर्भाव है। तुम रोग हो। वह तुम्हें सहारा न देगा, वह तुम्हें गिराएगा। वह तुम्हें जड़ों से खोद डालेगा।
तो सदगुरु के पास तो वही आएगा जो मरने को तैयार है। सदगुरु यानी मृत्यु; मृत्यु से भी बड़ी मृत्यु--महामृत्यु। क्योंकि मृत्यु के बाद तो तुम फिर पैदा हो जाओगे। लेकिन अगर सदगुरु की मृत्यु में तुम डूब गए, तो फिर तुम्हारा लौटना नहीं। फिर दुबारा तुम पैदा न हो सकोगे।
इसलिए बहुत थोड़े से हिम्मतवर लोग वहां इकट्ठे होंगे। सब का वहां काम भी नहीं है। बच्चों की वहां जरूरत भी है। अभी जो खिलौनों से खेल रहे हैं, उनका वहां क्या प्रयोजन?
लोग खिलौनों से ही खेलते रहते हैं जिंदगी भर। बचपन में छोटी सी कार से खेलते हैं, चाबी भरकर चलाते हैं, फिर बड़े हो जाते हैं, तो बड़ी कार पर खेल जारी रहता है। बचपन में छोटे गुड्डे-गुड्डियों की शादी करते हैं, बड़े हो जाते हैं, तो राम-लीला करते हैं, राम-सीता की बारात निकालते हैं, खेल जारी है। छोटे बच्चे होते हैं, कंकड़ पत्थर इकट्ठे करते हैं। बड़े हो जाते हैं, हीरे-जवाहरात इकट्ठे करते हैं--कंकड़ पत्थर ही हैं आखिरी हिसाब में। खेल जारी रहता है। छोटे बच्चे सिगरेट के डब्बे, माचिस के डब्बे, टिकटें इकट्ठी करते रहते हैं। बड़े हो गए, नोट इकट्ठे करते रहते हैं--मामला एक ही है। सारा खेल खिलौनों का है।
सदगुरु के पास तो केवल वही आ सकता है, जो प्रौढ़ हो गया, जिसने सारे खिलौने फेंक दिए और जिसने कहा, बहुत हो चुकी नासमझी। अब जागने का क्षण आ गया। निश्चित, जागने में खतरा है। क्योंकि तुम्हारे सब सपने टूट जाएंगे। सपनों में एक सुरक्षा है। तुम्हारे सपने--उनमें मधुर सपने भी हैं। माना, कि दुखद सपने भी हैं, लेकिन वे सब संयुक्त हैं। अगर दुखद सपने तोड़ने हों, तो सुखद सपने भी टूट जाएंगे। अगर जागना है, तो दुख, सुख दोनों से जागना होगा।
तुम भी चाहते हो जागना, लेकिन चाहते हो, कि सुखद सपना तो बरकरार रहे, सिर्फ दुख टूट जाए। तुम भी चाहते हो जागना, लेकिन बस, दुख छूटे, सुख न छूट जाए। तो तुम असदगुरु के पास इकट्ठे हो जाओगे। वहां भीड़ लगेगी।
लेकिन सदगुरु के पास तो सुख भी छूटेगा, दुख भी छूटेगा; तभी तो शांति का जन्म होता है। जब सारे द्वंद्व मिट जाते हैं, तभी तो निर्द्वंद्व आकाश--तभी तो उस असीम के साथ संबंध जुड़ता है। तभी तो जैसा दादू कहते हैं, तार जुड़ते हैं उसके पहले तो तार नहीं जुड़ते।
स्वभावतः जहां तुम्हारी बीमारी ठीक करने के लिए कोई आश्वासन दिया जा रहा हो, मुकदमे जिताने का कोई भरोसा दिया जा रहा हो, धन पाने की कोई महत्वाकांक्षा को पूरा करने की बात कही जा रही हो, वहां भीड़ इकट्ठी होगी। साधारण से लोगों से लेकर जिनकी, तुम असाधारण कहते हो, वे भी ऐसे लोगों के आसपास इकट्ठे होंगे। आशीर्वाद चाहिए तुम्हारी मूर्खताओं के लिए।
और जिंदगी का नियम ऐसा है, कि अगर तुम भी आंख बंद करके एक झाड़ के नीचे बैठे जाओ; और जो भी आए उसको आशीर्वाद देते जाओ, तो भी पचास प्रतिशत तो आशीर्वाद पूरे होने की वाले हैं। इसलिए तुम्हें कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है। तुम एक गधे को भी बिठाल दो सजाकर और वह भी बस हाथ उठाकर आशीर्वाद देता जाए बिना देखे, कौन आ रहा है, इससे कोई लेना-देना नहीं है।
जितने मरीज आएंगे, उनमें से सीधे गणित में कम से कम पचास प्रतिशत तो ठीक होने वाले हैं, ज्यादा भी ठीक हो जाएंगे। क्योंकि सभी बीमारियां मार तो नहीं डालती हैं। डाक्टर भी इलाज थोड़े ही करता हैं, सिर्फ सहारा देता है। कहावत है पश्चिम में, कि अगर सर्दी-जुकाम हो जाए, तो बिना दवा के सात दिन में ठीक हो जाता है और दवा लो, तो एक सप्ताह में। दवा और न दवा का कोई बड़ा सवाल नहीं है। बीमारी तो सब ठीक हो जाती है। सभी बीमारियों में आदमी मर थोड़े ही जाता है! समय की बात है। बैठे रहो।
मुकदमे भी आखिर दो लोग लड़ेंगे मुकदमा, तो एक तो जीतेगा। और अक्सर ऐसा होता है, कि एक ही असदगुरु के पास दोनों चले आते हैं--हारनेवाला, जीतनेवाला; एक तो जीतेगा ही। और यह खेल जारी रहता है। जो पचास प्रतिशत सफल हो जाते हैं, तुम्हारे आशीर्वाद से, वे दुबारा लौट आते हैं फूलमालाएं लेकर, और प्रचार कर आते हैं और पचास नासमझों को साथ ले आते हैं।
जो हार गए, वे किसी दूसरे गुरु की तलाश करते हैं। वे फिर तुम्हारे पास नहीं आते। वे भी कहीं न कहीं ठहर जाएंगे। कहीं न कहीं, कभी न कभी तो जीतेंगे। वहीं ठहर जाएंगे। इसमें गुरु का कुछ लेना-देना नहीं है। यह सब खेल तुम्हारी नासमझी से चलता है।
लेकिन सदगुरु के पास तुम्हारा कोई खेल नहीं चल सकता। भीड़, वहां इकट्ठी नहीं हो सकती। वहां तो खेल तोड़ने का ही आयोजन है।
इसलिए बहुत थोड़े से चुने हुए लोग, छंटे हुए लोग, जो सच में ही राजी हैं छलांग लेने को, जो उस घड़ी में आ गए हैं, जहां कुछ रूपांतरण आवश्यक हो गया है, अब जिनकी आकांक्षा बाहर की नहीं है; अब जो क्रांति भीतर चाहते हैं, वे थोड़े से लोग ही वहां पहुंच सकते हैं।
और उन थोड़े से लोगों को भी बड़ी हिम्मत रहे, तो ही वहां टिक सकते हैं। अन्यथा वे भी भाग खड़े होंगे। क्योंकि सदगुरु तुम्हें कोई सहारा नहीं देता टिकने का। वह तुम्हारे अहंकार की कोई तृप्ति नहीं करता। जिस अहंकार को मिटाना ही है, उसको किसी तरह का सहारा देना उचित नहीं है। तुम वहां अगर टिके, तो अपनी हिम्मत से ही टिकोगे। वह तो तुम्हारे पैरों के नीचे की जमीन खींचता चला जाता है।
तो थोड़े से दुस्साहसियों का काम है। पर वैसे ही दुस्साहसी जीवन के परम सत्य को उपलब्ध भी होते हैं। वह दुस्साहस करने योग्य है।

चौथा प्रश्न: मैं ध्यान से भयभीत हूं। कृपया समझाएं, कि इसके क्या कारण हो सकते हैं। और इस भय से कैसे छुटकारा हो?

ध्यान से भय तो स्वाभाविक है--होगा ही।
क्योंकि ध्यान का मतलब है: खोना, विलीन होना। ध्यान का अर्थ है: मिटना। तुम्हारी सारी परिचित भूमि विलीन हो जाएगी। तुम अपरिचित लोक में संचरण करोगे। तुम्हारे विचारों का जगत पीछे छूट जाएगा, जो तुम्हारा घर रहा सदियों से, जन्मों से। तुम अचानक बेघरबार हो जाओगे। विचारों की छाया हट जाएगी, छप्पर टूट जाएगा। तुम शून्य में उतरोगे, निर्विचार में डूबोगे--खतरा है।
सागर में उतरने जैसा है छोटी सी डोंगी लेकर। दूसरा किनारा दिखाई नहीं पड़ता और यह किनारा छोड़ना पड़ रहा है। भय तो लगेगा ही। उत्ताल तरंगें हैं, हाथ में कोई नक्शा भी नहीं है। दूसरी तरफ पहुंचा है कोई, इसका पक्का भरोसा भी नहीं, क्योंकि लौटकर कोई आता नहीं।
ध्यान बड़ी गहन यात्रा है। इसलिए भय तो लगेगा। भय स्वाभाविक है। इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन भय से उठना जरूरी है, अन्यथा यात्रा शुरू न होगी। क्या करें, जिससे भय छूट जाए?
पहली बात, जो तुमने कभी नहीं की है, वह भय को स्वीकार कर लेना। क्योंकि जितना तुम अस्वीकार करोगे, उतने ही तुम भयभीत होने लगोगे। भय को स्वीकार कर लेना है, कि स्वाभाविक है। मिटने जा रहे हैं, भय तो लगेगा। बड़े से बड़े युद्धक्षेत्र में जा रहे हैं, भय तो लगेगा। स्वेच्छा से मृत्यु में उतर रहे हैं। अपने हाथ से सीढ़ियां लगा रहे हैं, भय तो लगेगा।
स्वाभाविक है, स्वीकार कर लेना है। कंपते हुए पैर से जाना है। कंपते हुए पैर से जाएंगे। अगर तुमने स्वीकार कर लिया तो तुम पाओगे, कि जैसे-जैसे तुम स्वीकार करने लगोगे, वैसे-वैसे भय तिरोहित होने लगेगा। अगर तुमने अस्वीकार किया और तुम उससे लड़ने लगे और उसको दबाने लगे, तो तुम ज्यादा से ज्यादा भय को अपनी छाती में भीतर दबा सकते हो। लेकिन जो भीतर दबा है, वह तुम्हें हमेशा कंपाएगा। और जब भी ध्यान समाधि के करीब पहुंचने लगेगा, जब भी ऐसा लगेगा, कि अब मिटे, वह भय उभरकर खड़ा हो जाएगा। फूट पड़ेगा, विस्फोट हो जाएगा। वह तुम्हें भर देगा।
रोज यह घटता है। मेरे पास लोग आते हैं रोज, जो ध्यान ठीक से कर रहे हैं। एक न एक दिन वह घड़ी आती है, जहां उनको भय पकड़ता है। उन्होंने भय को दबा लिया। सुनी नहीं मेरी।
उसे स्वीकार कर लो, दबाओ मत। कंपो, कंपना है तो। किससे छिपाना है? परमात्मा के सामने खड़े हो जाना है नग्न, जैसे हो। अगर भयभीत हो, तो भयभीत। छिपाना किससे है? छिपाओगे कैसे? उससे छिपेगा भी कैसे?
तुम जैसे हो, अपने को वैसा ही प्रगट कर दो। कहो, कि मैं भयभीत हूं। कहो, कि मैं कंप रहा हूं। कहो, कि मैं डर रहा हूं, लेकिन फिर भी आता हूं। बावजूद भय के आता हूं। भय रहेगा साथ-साथ, तो भी आता हूं। डरूंगा, कंपूंगा, पैर कंपेंगे, ठीक पैर न पड़ेंगे, लेकिन आता हूं। इससे आना बंद नहीं करूंगा और भय को दबाऊंगा भी नहीं।
ये दो बातें समझ लेने जैसी हैं। जो लोग भय को नहीं दबाते, वे जाना बंद कर देते हैं। जो लोग जाना चाहते हैं, वे भय को दबा लेते हैं। दोनों चूक जाते हैं। तुम जाना भी और भयभीत होकर जाना। जब भय है, तो क्या कर सकते हो? धीरे-धीरे तुम पाओगे, कि जैसे-जैसे तुमने स्वीकार किया, वैसे-वैसे भय शांत होने लगा।
स्वीकार एक अदभुत कला है। कुछ चीजें स्वीकार करने से विलीन हो जाती हैं। कुछ चीजें अस्वीकार करने से बढ़ती हैं, मिटती नहीं। तुम स्वीकार करके देखो।
तुम अस्वीकार क्यों करना चाहते हो भय को? क्योंकि लगता है कि तुम और भयभीत! तुम्हारे अहंकार को चोट लगती है। तुम्हारी प्रतिमा जो तुमने ही बनाई है, खंडित होती लगती है। तुम बड़े बहादुर! कि अपने नाम के पीछे तुमने सिंह लगा रखा है, कि तुम लायन क्लब के सदस्य हो--शेर बच्चा! पागल हो। एक प्रतिमा बना रखी है, उस प्रतिमा को तुम बचाने की कोशिश कर रहे हो। जब तुम ध्यान के जगत में उतरोगे, तो तुम्हारा शेर कंपेगा। तुम्हारा सिंह एकदम रोने लगेगा, घबड़ाने लगेगा। तब तुम चाहोगे, कि क्या करें?
दो ही उपाय हैं साधारणतः। या तो लौट जाओ वापिस दुनिया में, यह झंझट ही छोड़ो। तो वहां कम से कम तुम सिंह की तरह माने जाते हो। दबदबा है, दादा हो, लोग डरते हैं, कंपते हैं। तुम कभी कंपे? लोगों को कंपा देते हो। लौट जाओ वहीं। और या फिर दूसरा उपाय है, कि दबा लो, बांध लो मुट्ठियां, सिकोड़ लो हृदय को, भींच लो दांत और दबा लो भय को। मत कंपने दो शरीर को।
ये दो साधारण उपाय हैं; दोनों गलत हैं। लौट गए, तो तुम अपरिसीम संपत्ति से वंचित हो गए। घर के करीब आते-आते भटक गए। द्वार करीब था, खुलने के ही करीब था और तुमने मुंह मोड़ लिया।
आना पड़ेगा वापिस। कोई भी मंदिर के बाहर रह नहीं सकता सदा के लिए। क्योंकि बाहर तुम कितने ही भटको, कभी शांत नहीं हो सकते। धर्म अंतिम शरण है। वहां आना ही होगा। वहीं समर्पण है। वहीं शरण है। कितने ही भागो और कितने ही बचो, एक न एक दिन वापिस लौट आना पड़ेगा। तब वही सवाल खड़ा होगा। बेहतर है, आज ही निपट लो। कल पर क्या टालना!
और दूसरा अगर तुमने उपाय किया, कि दबा लिया, तो तुम पाओगे कि जैसे ही ध्यान की गहराई आएगी, वैसे ही तुम्हारा दमन किया हुआ विस्फोट होगा। क्योंकि ध्यान की गहराई में आदमी शिथिल हो जाता है, रिलैक्स हो जाता है। जब तुम शिथिल होओगे, तो जो तुम दबाने के लिए उपाय कर रह थे, वे भी शिथिल हो जाएंगे। उनके शिथिल होते ही जो तुमने दबाया है वह हुंकार के साथ उठेगा। वह तुम्हारे सारे भवन को नष्ट कर देगा। तुम फिर वापिस अपने को बाजार में पाओगे। और पहले से भी दयनीय दशा में पाओगे। क्योंकि अब सिंह होने का खयाल भी नहीं पकड़ सकोगे। अब तो कंप गए, अब तो डर गए।
सूफियों की एक पुरानी कथा है, कि एक फकीर सत्य की खोज में था। उसने अपने गुरु से पूछा, कि सत्य कहां मिलेगा? उसके गुरु ने कहा, सत्य? सत्य वहां मिलेगा, जहां दुनिया का अंत होता है।
तो उस दिन से वह फकीर दुनिया का अंत खोजने निकल गया। कहानी बड़ी मधुर है। वर्षों चलने के बाद, भटकने के बाद, आखिर उस जगह पहुंच गया, जहां आखिरी गांव समाप्त हो जाता था। और उसने गांव के लोगों से पूछा कि दुनिया का अंत कितनी दूर है? उन्होंने कहा, ज्यादा दूर नहीं है। बस यह आखिरी गांव है। थोड़ी ही दूर जाकर वह पत्थर लगा है, जिस पर लिखा है, यहां दुनिया समाप्त होती है। मगर उधर जाओ मत।
 वह फकीर हंसा। उसने कहा, हम उसी की तो खोज में निकले हैं। लोगों ने कहा, वहां बहुत भयभीत हो जाओगे। जहां दुनिया अंत होती है, उस गङ्ढ को तुम देख न सकोगे। मगर फकीर तो उसी की खोज में था, सारा जीवन गंवा दिया था। उसने कहा, हम तो उसी की खोज में हैं और गुरु ने कहा है, जब तक दुनिया के अंत को न पा लोगे, तब तक सत्य न मिलेगा। तो जाना ही पड़ेगा।
कहते हैं, फकीर गया। गांव के लोगों की उसने सुनी नहीं। वह उस जगह पहुंच गया जहां आखिरी तख्ती लगी थी, कि यहां दुनिया समाप्त होती है। उसने एक आंख भरकर उस जगह को देखा, शून्य था वहां। कोई तलहटी न थी उस खड्ड में। आगे कुछ था ही नहीं।
तुम उसकी घबड़ाहट समझ सकते हो। वह जो लौटकर भागा, तो जो यात्रा उसने आगे जनम में पूरी की थी, वह कहते हैं, कि दिनों में पूरी हो गई। वह जो भागा, तो रुका ही नहीं। वह जाकर गुरु के चरणों में ही गिरा। तब भी वह कंप रहा था। तब भी वह बोल नहीं सक रहा था। बामुश्किल, उसको पूछा, कि मामला क्या है? हुआ क्या? वह गूंगे जैसा हो गया था। सिर्फ इशारा करता था पीछे की तरफ। क्योंकि जो देखा था, वह बहुत घबड़ाने वाला था।
गुरु ने कहा, नासमझ! मैं समझता हूं। लगता है, तू दुनिया के अंत पर पहुंच गया। तख्ती मिली थी, जिस पर लिखा था कि यहां दुनिया का अंत है? उसने कहा, कि बिलकुल ठीक! मिली थी। उस तरफ तूने तख्ती के देखा, कि क्या लिखा था? उसने कहा कि उस तरफ? उस तरफ खाली शून्य था। मैं तो देखकर एक आंख और जो भागा हूं, तो रुका ही नहीं कहीं। पानी के लिए नहीं, भूख के लिए नहीं। उस तरफ तो मैंने नहीं देखा।
उसने कहा, बस, वही तो भूल हो गई। अगर तू उस तरफ तख्ती के देख लेता, तो इस तरफ लिखा है, यहां दुनिया का अंत होता है; उस तरफ लिखा है, यहां परमात्मा का प्रारंभ होता है।
एक सीमा पूरी होती है, दूसरी सीमा शुरू होती है। परमात्मा निराकार है। शून्य में उसी निराकार के करीब तुम पहुंचोगे।
यह कहानी बड़ी अच्छी है, बड़ी कीमती है।
ऐसा दुनिया में कहीं है नहीं। निकल मत जाना खोजने, जहां तख्ती लगी हो। यह भीतर की बात है। जहां दुनिया समाप्त होती है, इसका मतलब, जहां तुम्हारा राग-रंग समाप्त होता है, जहां दुनिया समाप्त होती है, इसका मतलब, जहां जीवन का खेल--खिलौने समाप्त होते हैं, आखिरी पड़ाव आ जाता है। देख लिया सब, जान लिया सब, हो गया दो कौड़ी का, कुछ सार न पाया। सब बुदबुदे टूट गए, फूट गए, सब रंग बेरंग हो गए।
दुनिया के अंत होने का अर्थ है, जहां वासना समाप्त हो गई। वासना ही दुनिया है। महत्वाकांक्षा का विस्तार ही संसार है। लेकिन वहां आते ही घबड़ाहट होगी। क्योंकि वहां फिर शून्य साक्षात खड़ा हो जाता है। जहां महत्वाकांक्षा मिटती है, वहां शून्य रह जाता है।
उस शून्य को बुद्ध-पुरुष कहते हैं: निर्वाण, मोक्ष, कैवल्य। लेकिन दूसरी तरफ भी देखने की हिम्मत चाहिए। नहीं तो जो भागोगे, तो लौट नहीं पाओगे फिर। दूसरी तरफ वहीं परमात्मा शुरू होता है, जहां दुनिया समाप्त होती है। इसका मतलब, जहां महत्वाकांक्षा समाप्त होती है, वहीं ध्यान शुरू होता है। जहां वासना की दौड़ छूटती है, वहीं ध्यान का विश्राम शुरू होता है। और वह ध्यान का विश्राम तो शून्य में विश्राम है।
सूफी फकीर उसको फना कहते हैं--मिट जाना, बिलकुल मिट जाना, न हो जाना।  उस न होने में ही सब हो जाना है।
भय तो स्वाभाविक है। तुम क्या करोगे? तुम भय को दबाना मत और भय के कारण लौटना भी मत। भय को स्वीकार कर लेना, भय पर सवारी करना। भय को ही अपना साथी बना लेना, कि ठीक है, तू भी आ; पर हम जा रहे हैं। तू कंपाएगा, हम कंपेंगे। तू डराएगा, हम डरेंगे; लेकिन रुकेंगे नहीं।
मैं कल रात एक यूनानी विचारक निकोस कजानजाकिस की एक किताब पढ़ता था। कजानजाकिस एक उपन्यासकार था, पर बहुत कीमती। और कभी-कभी उपन्यासकार उन ऊंचाइयों को छू लेते हैं, जिनको तुम्हारी साधारण धर्म गुरु समझ भी नहीं सकते। कभी-कभी कलाकार उन गहराइयों को अनुभव कर लेता है, जिनको तुम्हारे मंदिर-मस्जिदों में बैठे हुए पंडित, मुल्ला पकड़ भी नहीं सकते।
कजानजाकिस ने अपनी इस किताब में लिखा है, कि मैंने तीन तरह के लोग देखे और तीन तरह की प्रार्थनाएं करते देखे। पहले तरह के लोग हैं, वे कहते हैं, परमात्मा! हम धनुष हैं, तू हमारी प्रत्यंचा पर तीर को चढ़ा। कहीं ऐसा न हो, कि तू तीर को चढ़ाए ही न, प्रत्यंचा को खींचे ही न और हम जंग खाकर ऐसे ही समाप्त हो जाएं।
दूसरे हैं, दूसरे तरह के लोग और दूसरी तरह के प्रार्थना करने वाले लोग; वे कहते हैं, तू प्रत्यंचा पर तीर को चढ़ा, हम तेरे धनुष हैं परमात्मा; लेकिन जरा खयाल से चढ़ाना। कहीं ज्यादा मत खींच देना, कहीं ऐसा न हो, कि प्रत्यंचा टूट ही जाए।
और तीसरी तरह के लोग हैं और तीसरी तरह की प्रार्थना करने वाले; वे कहते हैं, हे परमात्मा! हम तेरे धनुष हैं, तू अपने तीरों को हमारी प्रत्यंचाओं पर चढ़ा और फिक्र मत करना, कम ज्यादा का हिसाब मत रखना, तेरे हाथ में टूट भी गए, तो इससे बड़ा कुछ और होना नहीं है।
यह जो तीसरी तरह का व्यक्ति है, यही उपलब्ध कर पाएगा।
पहली तरह का व्यक्ति कहता है, कहीं हम ऐसे ही न चले जाएं। उसकी नजर अपने पर ही लगी है अभी। अभी यह दौड़ भी, यह प्रार्थना भी अहंकार की है। हमें सफल बना; कहीं हम असफल ही न चले जाएं। कहीं ऐसा न हो, कि जंग खा जाएं। बिना किसी सफलता के स्वर्ग को जाने, बिना किसी सफलता के सौरभ को उपलब्ध हुए, कहीं हम मिट ही न जाएं। ऐसे ही न खो जाएं। हमें तू सफल बना, चढ़ा अपने तीरों को हमारी प्रत्यंचा पर।
लेकिन न तो परमात्मा से संबंध है प्रार्थना का, न साहस है प्रार्थना का। डर है कि कहीं जंग न खा जाएं। और डर है, कि कहीं असफल न मर जाएं। लोभ की आकांक्षा है, लोभ की प्रार्थना है। भय की प्रार्थना है।
दूसरी तरह के लोग हैं, ज्यादा चालाक हैं, होशियार हैं। परमात्मा के साथ भी सौदा करना चाहते हैं। वहां भी अपना गणित लेकर आते हैं। वहां भी हिसाब-किताब रखते हैं। दुकानदार हैं। परमात्मा से कहते हैं, कि चढ़ा तू अपने तीरों को लेकिन ध्यान रखना, कहीं ज्यादा मत खींच देना, कि प्रत्यंचा टूट जाए।
ऐसे व्यक्ति भी परमात्मा के निकट नहीं पहुंच सकते। ऐसे व्यक्ति भी परमात्मा को भी पूरी स्वतंत्रता नहीं दे रहे हैं। उसको भी नियंत्रण में रख रहे हैं। उसको भी बांधकर चलना चाहते हैं। परमात्मा को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं, परमात्मा के हिसाब से स्वयं नहीं चलना चाहते। और जब तक तुम परमात्मा के साथ चलने को राजी नहीं हो, तब तक तुम उसे उपलब्ध न कर सकोगे। जब तक तुम चाहते हो वह तुम्हारे पीछे चले, तब तक तुम्हारा संबंध ही न जुड़ पाएगा।
तीसरी तरह के लोग हैं, तुम तीसरी तरह के लोग बनना। प्यारी है उनकी प्रार्थना और बड़ी महत्वपूर्ण, कि हम तेरे धनुष हैं। हम तेरे साधन हैं, उपकरण हैं। तू अपने तीरों को चढ़ा। हमारे लक्ष्यों को भेदने को नहीं, तेरे ही लक्ष्यों को भेदने के लिए। हम तो केवल धनुष हैं। तू अपने तीरों को चढ़ा और अपने लक्ष्यों को भेद और इसकी फिक्र ही मत करना, कि हम बचें कि टूटें। तेरे हाथ में टूट ही गए तो इससे बड़ा और क्या होना हो सकता है!
ये समर्पित हैं। इनकी प्रार्थना में न तो भय है, न लोभ है। इनकी प्रार्थना मैं तो सिर्फ एक प्रार्थना है और वह प्रार्थना यह है, कि तू हमें अपना उपकरण बना ले। उस उपकरण बनने में हम मिट जाएं, तो हमारा सौभाग्य है।
भयभीत हो, स्वाभाविक है। हृदय कंपता है, कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। भय के बावजूद जाना है। भय के साथ जाना है। निर्भय तो तुम हो भी न सकोगे, जब तक कि ध्यान न घट जाए। क्योंकि ध्यान के बाद ही तुम्हें अनुभव होता है अमृत का। मृत्यु विलीन हो जाती है, तभी तो अभय उपलब्ध होता है।
इसलिए तुम पहले से ही यह मत सोचना, कि पहले हम अभय को उपलब्ध हों, तब ध्यान कर सकेंगे। तो तुम कभी ध्यान ही न कर पाओगे। क्योंकि अभय तो ध्यान की उत्पत्ति है। वह तो ध्यान में ही लगा हुआ फूल है। वह तो ध्यान की ही सुगंध है।
इसलिए जैसे हो--नग्न, भयभीत, कंपते हुए, अंधकार से भरे, रुग्ण, पूजा में चढ़ाने के योग्य भी नहीं, जानते हुए, कि अपनी कोई पात्रता नहीं है, फिर भी तुम जाना। अगर यह सब जानते हुए तुम गए और विनम्रता से गए और परमात्मा के उपकरण बनने की आकांक्षा से गए, तो तुम्हारी पात्रता तुम्हें मिल गई।
यही पात्रता है। तुम खाली हो, यही तुम्हारी पात्रता है।

आखिरी प्रश्न: आपने कहा कि जगत और जीवन अतिशय रहस्य से भरा है। और उसका जर्रा-जर्रा चमत्कारपूर्ण है। उस रहस्य और चमत्कार के प्रति हमारी आंखें क्यों और कैसे अंधी हो रही हैं? और क्या उस रहस्यबोध को फिर से उपलब्ध हुआ जा सकता है?

आंखें अंधी हो रही हैं? अति-विचार से। रहस्य को समझने के लिए विचार का थिर हो जाना जरूरी है, क्योंकि उसी संधि में से रहस्य दिखाई पड़ता है। आंखें तो तुम्हारी खुली हैं, लेकिन विचार से भरी हैं। उसी कारण खुली आंख भी देख नहीं पा रही है।
देखते हो फूल को, जानते हो गुलाब का फूल है, बहुत बार देखा है, हजार-हजार स्मृतियां हैं गुलाब के फूल की; न मालूम कितनी कविताएं पढ़ी हैं गुलाब के फूल के संबंध में; चित्र और पेंटिंग्स देखी हैं; सब तुम्हारे मन में भरी हैं। जब तुम गुलाब के फूल के करीब जाते हो तब तुम्हारी सारी जानकारी बीच में पर्दे की तरह खड़ी हो जाती है। पर्त दर पर्त तुमने जो जो जाना है, वह बीच में आ जाता है। तुम्हारा जानना ही तुम्हारा अंधापन हो जाता है।
छांटो जानने को थोड़ी देर। थोड़ी देर गुलाब के पास ऐसे हो जाओ जैसे तुम अज्ञानी हो; जैसे न तुमने कभी गुलाब के फूल कभी देखे हैं, न उनके संबंध में कभी कुछ सुना है, न कोई चित्र देखे हैं, न कोई गीत गाए हैं। इस गुलाब को ही अपना गीत गाने दो। तुम्हारे गीतों को बंद करो। इस गुलाब को, जो मौजूद है, इसको ही प्रगट होने दो। तुम्हारे अतीत में देखें गए चित्रों को छोड़ो। वे जा चुके। दर्पण पर जमी धूल से ज्यादा उनका कोई मूल्य नहीं है। आकृतियां हैं सपनों की।
यह वास्तविक है। वास्तविक को तुम छिपा रहे हो अवास्तविक से। अतीत को हटाओ, ताकि थोड़ी सी झलक इस गुलाब की, जो इस क्षण खिला है और फिर कभी दुबारा तुम इसे न मिल सकोगे। इसे जरा देखो, बैठो इसके पास। इस गुलाब को गुनगुनाने दो गीत। इस गुलाब को नाचने दो हवाओं में। इस गुलाब को मौका दो, कि अपनी सुगंध को तुम्हारी नासापुटों तक भेज सके। छुओ इसे, इसकी कोमलता को स्पर्श करो। इसकी पंखुड़ियों पर जमी हुई ओस की बूंदों को देखो, सब मोती फीके हैं।
यह जो गुलाब इस क्षण खिला है, इस क्षण का गुलाब--इसे तुम अपनी आत्मा पर फैलने दो। तुम थोड़ी देर मौन और शांत इसके पास बैठ जाओ। और तुम पाओगे, अचानक आंखें खुल गई। एक रहस्य से तुम भरे जा रहे हो। यह छोटा सा गुलाब एक स्रोत है। इससे अनंत प्रकाश और अनंत सुगंध और अनंत रहस्य की ऊर्जा प्रगट हो रही है। तुम उसमें डूबो, तुम रससिक्त हो जाओ। जानकारी अलग करो, जीना शुरू करो।
बैठे हो नदी के तट पर, इस नदी को होने दो। छोड़ो उन नदियों को, जिन घाटों पर तुम कभी थे। मीठी स्मृतियां, कड़वी, स्मृतियां, जाने दो उन्हें। उनसे अब कुछ लेना-देना न रहा। अब सिवाय तुम्हारी स्मृति में, उनका कोई मूल्य नहीं है, उनकी कोई सत्ता नहीं है। और छोड़ो उन भविष्य की कल्पनाओं को भी उन नदियों के तटों पर जिन पर तुम कभी रहोगे।
इस नदी को थोड़ी देर अवसर दो, तुम्हारे संग-साथ हो ले। तुम इसके संग-साथ हो लो। थोड़ी देर इसके साथ चलो, थोड़ी देर इसके साथ बहो, थोड़ी देर इसमें डुबकी लो। थोड़ी देर इसके साथ एक हो जाओ--और रहस्य का द्वार खुल जाएगा।
सब तरफ रहस्य मौजूद है। तुम्हारी आंखें भी खुली हैं। किसने कहा, कि तुम अंधे हो? और किसने कहा, कि तुम्हारी आंखें बंद हैं? सिर्फ धुंधली है, धुएं से भरी हैं। और धुआं कुछ नहीं, तुम्हारी अतीत की पर्तें है, विचारों की पर्तें हैं। उनको थोड़ा हटाकर देखो। ऐसे देखो, जैसे छोटा बच्चा देखता है। उसके पास कोई जानकारी नहीं होती। अज्ञान से देखता है।
अगर रहस्य को चाहते हो, अज्ञान से देखो। पांडित्य को हटाओ, उतारो, वही तुम्हारा दुश्मन है। पाप के कारण तुम परमात्मा से अलग नहीं हो, पांडित्य के कारण तुम अलग हो। मेरे देखे पांडित्य एक मात्र पाप है। पापी भी पहुंच सकता है, पंडित कभी पहुंचते हुए नहीं सुने गए। तुम्हारी गीता तुम्हारा कुरान, तुम्हारी बाइबिल--हटाओ आंखों से। परमात्मा मौजूद है; तुम उसे क्यों नहीं देखते? तुम अपना वेद-पाठ किए जा रहे हो। द्वार पर परमात्मा खड़ा दस्तक दे रहा है, तुम अपनी पूजा किए चले जा रहे हो।
तुम थोड़े खाली हो जाओ, बस! अज्ञान, नहीं कुछ जानता हूं ऐसी भावदशा ज्ञान की तरफ पहला कदम है। जानता हूं, ऐसी भाव-दशा--तुम सख्त हो गए। तुम्हारी तरलता खो गई। तुम जाम हो गए, जम गए। तुम बर्फ की तरह जम गए, पत्थर हो गए। अब तुममें बहाव न रहा।
प्रतिपल मौका मिल रहा है तुम्हें। सुबह उठे हो, आंखें नहीं खोली है अभी, पक्षियों ने गीत गाए हैं? रास्ते पर धीमे-धीमे लोग चलने लगे हैं, दूधवाले ने आवाज दी है, सुनो। जैसे पहली बार सुन रहे हो। रातभर के बाद मन ताजा है। थोड़ा सुनो, थोड़े पड़े रहो आंख बंद किए ही। थोड़ा सुनो, थोड़े कानों को इस रहस्य का अनुभव करने दो। आंख खोलो, अपने ही घर अजनबी हैं। सभी घर सराएं हैं। आज हो, कल नहीं रहोगे। कल कोई और घर था आज कोई और घर है। कल कोई और मालिक था, कल और मालिक होगा; आंख खोलो।
अपने ही बच्चे को ऐसा देखो, जैसे अतिथि है। और बच्चे अतिथि हैं, मेहमान हैं। कौन जानता है, आज बच्चा है, कल न हो। फिर रोओगे, छाती पीटोगे, तड़पोगे, कि एक बार और आंख भरकर देख लिया होता। लेकिन आंख भरकर देखने का मौका ही नहीं मिला। मौके हजार थे, तुम चूकते ही चले गए। अपनी ही पत्नी को ऐसे देखो, जैसे आज ही उसे लिवा लाए हो, आज ही विवाह कर लाए हो, आज ही भांवर पड़ी है।
चीजों को नए सिरे से देखना शुरू करो, बासी मत होने दो। उधार आंखों से मत देखो, ताजी आंखों से देखो। कल की आंखों से मत देखो, आज की आंखों से देखो। रोज झाड़ते जाओ धूल को, दर्पण को धूल से मत भरने दो। और तुम्हारे जीवन में रहस्य का आविर्भाव होने लगेगा। सब तरफ तुम पाओगे रहस्य। सब तरफ तुम पाओगे उसी की धुन बज रही है।
कोई भी चीज तो तुमने जानी नहीं है। आदमी परमात्मा को जानने की बात करता है, राह पर पड़े हुए पत्थर को भी नहीं जानता। पत्थर भी रहस्य है। और जिस दिन पत्थर रहस्य हो गया, उसी दिन पत्थर भी परमात्मा हो गया। उस दिन उसके सिवाय तुम कुछ भी न पाओगे। पक्षी की गुनगुनाहट में उसी की धुन सुनाई पड़ेगी। हवाओं की थिरकन में, वृक्षों से गुजरते हवा के झोंके में उसी की आवाज, सरसराहट मालूम पड़ेगी। किसी की आंख में झांकोगे और उसी का झरना दिखाई पड़ेगा। किसी का हाथ छुओगे और वही तुम्हारे हाथ में आ जाएगा।
लेकिन इसके लिए एक गहरी क्रांति जरूरी है। उस क्रांति को ही मैं ध्यान कहता हूं। ध्यान का अर्थ है, मन को झाड़ना, मन को स्नान देना; जैसे तुम रोज स्नान कर लेते हो, शरीर गंदा नहीं हो पाता, मन गंदा हो जाता है--क्योंकि मन का स्नान तुम भूल ही गए हो।
ध्यान मन का स्नान है, जितनी बार धो सको।
हिंदू व्यवस्था थी कि सुबह उठकर ध्यान कर लो, ताकि दिनभर के लिए मन ताजा हो जाए। रात सोते वक्त ध्यान कर लो, ताकि दिनभर की धूल फिर झड़ जाए। मुसलमान तो पांच बार प्रार्थना करते रहे हैं, ताकि दिन में बार-बार धूल जमने ही न पाए। जब भी जरा सी धूल जमे, फिर प्रार्थना कर लो, फिर नमाज में उतर जाओ। फिर जरा धो डालो, साफ कर लो, दर्पण साफ रहे। उस दर्पण में ही तो तुम किसी दिन परमात्मा को पकड़ोगे।
बस, इतनी ही कला है। ध्यान कला है रहस्य का द्वार खोलने की। ध्यान में ही घूंघट उठ जाता है। घूंघट परमात्मा के चेहरे पर नहीं है, तुम्हारे मन पर है। तुम्हारी धूल हट गई, परमात्मा सदा से सामने मौजूद था।

आज इतना ही।


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