काल चक्र का चलना एक नियति हैं, इसकी गति मैं समस्वरता हैं, एक लयवदिता हैं। ये एक माधुर्य समेटे चलता है अपने में। जब वह चलता है तो हमे उसकी परछाई दिखाई देती है। जैसे कि एक छाया दीवार से होकर गुजर रही हो। वह अपने निशान तक नहीं छोडता। जो चारों तरफ फैले जड़ चेतन का भेद किए बिना, सब में एक धारा प्रवाह बहती रहती है। उसके साथ बहना ही आनंद हैं, उत्सव हैं, जीवन की सरसता हैं। उसका अवरोध दु:ख, पीड़ा और संताप ही लाता हैं। लेकिन हम कहां उसे समझ पाते हम तो खोए रहते है अपने मद में, अंहकार में, पर की लोलुपता में। और सच कहूं तो हमारी जाति ने भी मनुष्य के साथ रहने से मन ने कुछ नये आयाम छुएँ है। मन में कुछ हलचल हुई है, कुछ नई तरंगें उठी है। मुझे पहली बार मन का भास इस मनुष्य के साथ रहते हुए हुआ है। कि हमारे पास भी कोई मन है।
ऐसा नहीं है कि मन नहीं होता पशु—पक्षियों में, होता तो है परंतु वो निष्क्रिय होता है। सोया हुआ कुछ—कुछ अलसाया थोड़ सा जगा हुआ। एक कुहासे की तरह, लेकिन मनुष्य में यही मन क्रियाशील या सक्रिय हो जाता है। लेकिन मनुष्य में ये पूर्ण सजग, जागरूक भी हो सकता है। लेकिन पशु उस जागरण हो प्राप्त नहीं कर सकता उसे प्राप्त करने के लिए उसे मनुष्य जन्म चाहिए ही। इसलिए उस की बेचैनी ही उसे धकेलते लिए चली जाती है। मनुष्य केवल मन पर रूक नहीं गया है। शायद अपने नाम को सार्थक करने के लिए ही समझो ‘’मनुष्य‘’ जिससे उसका मान-सम्मान उच्च हो गया है। इस एक मन के कारण उसके पास जो बाकी इंद्रियाँ या अतीन्द्रिय शक्ति कुदरत ने सभी प्राणीयों को दी थी वो तो धीरे—धीरे उनका उपयोग न करने के कारण मृत प्रायः सी होता जा रहा है।
मन और बुद्धि। ये एक प्रकार की संक्रामकता हैं, जो एक दूसरे को भेद कर आपस में विलय हो जाती है। इसलिए मनुष्य में ये दोनो का मिश्रण एक नये आयाम को जन्म देता है। आज मन और बुद्धि के विकास ने मनुष्य को वो गौरव—गरिमा दी है, जो वो पृथ्वी पर उसे सर्वोपरि, सर्वोच्च, सर्वोत्तम बनाए हुआ है। शायद ये वरदान के साथ—साथ अभिश्राप भी कम नहीं है। इसी सब से आज उसकी बेचैनी, तड़प देखते ही बनती है। वो मन से इतना अशान्त है। उसके संग रह कर ही मुझे ये सब अहसास हुआ है। हम जिस के अंग संग रहते है, वो हमारे अंतस में अनायास ही प्रवेश कर अपने में रूपान्तरित करने लग जाता है! इसलिए एक बात सोच समझ लो संगत सोच समझ कर चुननी चाहिए। जैसा संग वैसा रंग वाली कहावत गलत नहीं थी। अगर दूसरे का मन आपके मन से ज्यादा ताकत वर है तो आप उस से के प्रभाव से बच नहीं सकते। इसीलिए तो बुर्जुगों ने कहां था, वो जीवन के अनुभव से कहां गया होगा। ये मात्र कोई थोथ शब्द नहीं होते जीवन का एक निचोड़ होता है। अगर आपको चुनाव करना हो तो अपने से ऊंचे के संग दोस्ती करना। पर ये हम पशुओं पर लागू नहीं हो सकती है। क्योंकि मैं तो पशु हूं, लाचार कुदरत ने ही जिसे बंधन में बंधा हो वो स्वछंद और चुनाव कैसे कर सकता हूं, ये तो मेरी मजबूरी थी कोई चुनाव थोड़ ही था। ये तो प्रस्थिति के हाथों में पर बस लाचार, विवश था। फिर एक मामले में भाग्य शाली भी था। कि मुझे ऐसे महान मानवों का संग साथ मिला। जिस मानव रूपी वृक्ष का तना तो में देख सकता हूं, परंतु उसकी साखा—प्रशाखा, टहानीयाँ, फूल, पत्तों का सौंदर्य मेरी समझ के बाहर है। मैं ही क्या मनुष्यों में भी करोड़ों में से कोई उस उंचाई को समझ पाने में सामर्थ्य होता होगा। अब मैं उस रहस्य को अपनी बुद्धि से कैसे समझ सकता हूं। ये सब मेरे लिए एक पहेली जैसी ही थी।
मनुष्य तो सामर्थ्यवान है चुनाव कर सकता है, पर हम तो करना भी चाहे तो शायद नहीं कर सकते। अब मुझे ही ले लो क्या मैं यहाँ रहना चाहता था, कौन से हालात मुझे यहां लेकर आए। अब यहां पर कितनी ही सुविधायें क्यो न हो परंतु जीवन में एक सर्वविदता, एक अपने होने की पूर्णता तो नहीं है। यह एक सुंदर कैद जरूर है। पर ये है यहां पर रहने से दुःख के साथ—साथ आनंद भी खूब है। सुविधाओं से लेश ये मनुष्य अनायास ही किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। फिर उस मन का बोझ ढोना भी भारी नहीं लगता। फिर भी हरेक प्राणी की अपनी एक लयबद्धता है, वो जब उस लयबद्धता मैं चलता है तो उसके जीवन में शांति उतरती है। तृप्ति उसे चारों और से घेरे रहती है। और अगर उस लयबद्धता से च्युत होता है तो उस का सारा रसायन बदल जाता है। और उस पर न चल कर कैसा विवादी स्वर पैदा कर लेता हैं। उसकी लयबद्धता कैसे छिन्न—भिन्न हो कर बिखरी सी लगती है। नहीं तो वो समस्वरता उसके अंग—अंग, पौर—पौर को छुए उसे किसी और ही लोक में ही जीने देती है। फिर क्यों हम उसे समझ नहीं पाते, उसे पा नहीं पाते, उसे जी नहीं पाते, यहीं त्रासदी हैं, यही एक जीवन की आधारहीनता है, एक अपूर्णता।
आज जिधर भी देखो चारों तरफ त्राहि—त्राहि मची है, सब प्रकृति के बनाये उन नियम से जाने अनजाने बिछड़ते जा रहे है। कोई चाहा कर कोई अनचाहा कर। शायद इस का सब का उतराधिकारी मनुष्य ही है। उस ने लगभग प्रकृति के हर नियम के साथ खिलवाड़ की है। जंगल, पहाड़, समुन्दर, आसमान सब का शोषण किए जा रहा है। इसी को शायद वह अपनी विजय मान रहा है और उस पर अपनी विजय पताका फेरा रहा है। शायद अपने ही हाथों अपना विनाश किए जा रहा है। आज मनुष्य ने सारी कुदरत के नियमों को तार—तार कर दिया है। परंतु वह ताकत वर है, बुद्धिमान है, उस की समझ में यह अभी नहीं आयेगा। वो विज्ञान को सहारा बना कर जिसे अपना विकास समझ रहा है। वो उसका विनाश है, विकास नहीं। उस के सामने हिंसक से हिंसक पशु पक्षी भी ना कुछ के बराबर है। कई बार तो उसके साथ रह कर मुझ भी भय लगने लग जाता था। कि क्या यही है वो महा मानव वो मनुष्य जिस पर पुरी प्रकृति को नाज था। इन सब बातों का अहसास मुझे मनुष्य के साथ रहते हुए बहुत जल्दी ही महसूस होने लगा था।
सृष्टि कैसे अनछुई सी चेतना के उस धारा—प्रवाह मैं कैसे अपना विकास करती रहती हैं। कृति को भी ’पर’ का भास तो क्या, उसे सुग—पुगाहट तक नहीं होने देती। किस जतन—प्रयत्न से जड़—चेतन क्या स्थूल—सूक्ष्म तक को उसमें पिरोए हुये चलती है। फिर इसका विस्तार देखिये कैसे उस अनन्त के सूक्ष्म—सूक्ष्म छौर को भी एक धूल के कण को उन मंदाकिनीय से जोड़े हुए हैं। कैसे निष्प्रयोजन कार्य एक सुनियोजित तरीके से चल रहा है। क्या कोई इस का आयोजन कर सकता है। नहीं। इसलिए हिंदू ने इसे कर्ता न कह कर लीला नाम दिया है।
केवल एक खेल चक्र जो चल रहा है, कोई चलाने वाला हो तो ये एक काम हो जाए। या रूक जाएगा क्योंकि कर्ता पीछे है। इसलिए हिन्दुओं ने होना शब्द का इस्तेमाल किया है। वो केवल है जैसे सूर्य की किरणें है, उसके होने मात्र से रंग, भर जाएँगे, फूल खिलने लगेंगे। किरणें कुछ कर नहीं रही। बस जीवन भी ऐसे ही है। इसकी एक—एक चीज एक रचना को देखिये कैसे अनायास ही सम्हली—सहजी सी दिखाई देती हैं। एक अल्हड़ चंचल बालक की तरह, अपनी ही निर्मित लहलहाती सुन्दरता को सुदूर हाथों से कैसे वो क्षण मैं विशिष्ठ कर देता हैं। मानो ये उसका खेल है, उसकी लीला है। इसकी विशालता, इसकी अदृश्यता पर विषमय होता हैं। इसकी लयवदिता से च्युत होना विशिष्ठ है, ये कठोरत्म सत्य मैं भी प्रेम की सरसता हैं, और जीवन एक माधुर्य से सराबोर हैं।
मेरी दिन चर्या लगभग एक जैसी हो गई थी, सच कहूँ तो मेरे अन्दर एक ऊब सी भरने लगी थी। मनुष्य के लिये तो वो सब ठीक हैं, ये उसकी दिन चर्या में समाहित है, क्योंकि वो इसका आदि हो गया हैं। उसने अपनी सुखसुविधा के अनुसार इसे बनाया हैं। परन्तु प्रत्येक पाणी इसमें ढ़ल के खुश नहीं रह सकता। रात को मुझे माँ जी कपड़े मैं लपेट कर अपने से चिपटा कर सुलाती थी, रात जरा सा कपड़ा शरीर से हट जाये फटा—फट ढक देती। जरा सा कुनमुनाता समझ जाती मुझे सू..सू आदि आया होगा, गोद मैं बहार आंगन मैं खड़ा कर देती थी। तब पता चलता की बाहर कितनी ठड़ हैं। थोड़ी देर मैं ही मैं ठंड के कारण अन्दर तक कांप जाता था। तब बिस्तर बहुत कीमती लगता था। फिर मैं घंटों बिस्तरे से मुंह नहीं निकालता था।
वैसे तो मम्मी जी ने मेरी अपनी माँ से भी अधिक लाड़ प्यार मुझे दिया था। मेरी हर छोटी बड़ी जरूरत को समझा दूसरे बच्चो की तरह ही मुझे भी अपना बच्चा ही समझा था। परंतु जाति व शरीर संरचना भेद का क्या किया जा सकता है। वो न तो मम्मी के बस था न ही मेरे ही बस वह तो कुदरत का एक खल था, जो मुझे खेलने को मिला। मम्मी जी के साथ सोता जरूर परंतु अंदर कही मुझे अपनी मां की ख़ुशबू की याद आती थी। मम्मी के साथ सोने में एक अलग ही अनुभूति का अहसास मुझे हुआ था। उन से संग सोने से ऐसा लगता कि मैं हूं ही नहीं। मेरी धड़कन उस धड़कन में मिल जाती थी। उसकी तन मेरा तन हो जाता था। न होने का सुख कितना वैभवपूर्ण था। इसका हल्का सा स्वाद मैंने जीवन में पहली झलक मम्मी के संग-साथ महसूस हुई थी। जो अनुभव बाद तक मेरे अचेतन का एक हिस्सा बना जीवन भर मेरे साथ चलता रहा। शायद इसी में कहीं पूरी प्रकृति का विकास छुपा है। अब मुझे मां की कमी कहीं महसूस नहीं हो रही थी। लेकिन हो सकता है मेरी और प्रकृति की जरूरत में जरूर कोई भेद होगा। मेरा तन मन इस तरह से नहीं बना था कि मैं उच्च संगत में जी सकूं। वैसे तो प्रत्येक प्राणी अपने समान में जी कर ही विकास करता है। परंतु क्रांति के लिए तो वो पैमाना कम है कुदरत या प्रकृति तो केवल विकास ही जानती है। यह क्रांति तो मानव की खोज है। जो मुझे जीवन भर सालती रही कचोटती रही धक्के मारती रही। मुझे रूकने नहीं दिया। शायद इस तरह से ये मनुष्य में भी दिखाई देती है। लेकिन एक बात जरूर है वो एक चुम्बकिय आकर्षण मुझे खींचे लिए चला जाता था। सच कहुं मैं पूर्ण रूप से कभी अपनी मां जैसा नहीं हो सका। क्योंकि मैं दो आयामों बंट गया था, न पशु की पूर्णता न मनुष्य के गुण ही।
जैसे ही मनुष्य के संग आया उसकी लयवदिता में बह गया। अब विकास क्रम में इतना फर्क इतनी सीढ़ियाँ को मैं कैसे एक साथ पार कर सकता था। करोड़ों सालों का प्रकृति का विकास में क्षण में कैसे भेद सकता था। मैं पिद्दा सा, उस अनंत आकाश को इन नन्हें पंखों से कैसे पार कर सकता था। क्या ये बातें मनुष्य के संग नहीं होती। मनुष्य बनने पर क्या उसकी चेतना का विकास रूक जाता है। ठहर जाता है, शायद नहीं। वो गति मान ही रहता है। इसलिए प्रत्येक प्राणी का अंतस ही उसकी पूर्ण संसार होता है। यहीं शायद धीरे—धीरे उसके चारों तरफ एक मैं कि एक अहंकार की पर्त निर्मित कर देता है।
वह इसी मैं छटपटाता रहता है। मानो आपको एक तेज गति से चलती गाड़ी के पीछे बांध दिया गया हो। आप कहा तक दौड़ सकते है, आखिर आपका रूकना या थकना तो पड़ता ही है। उस गति से आप केवल घसीट सकते है। यहीं पीड़ा मुझे जीवन भर भेदती रही। जिस के संग रहना है उस की इंद्रियाँ उसके अंग विकसित थे। हाथ और उसकी ऊँगलियों ने तो मानो क्रांति ही कर दी थी। चार उंगलियों के बिच में जो खाली पन मनुष्य के हाथों में है। उस ने तो मानो चमत्कार ही कर दिया। पकड़ना, चलना। सही मायने में अगर देखा जाए तो मनुष्य ने आज जो भी दूसरों जीवों से ज्यादा श्रेष्ठता की उस ऊँचाई पर खड़ा हुआ था। उस में उसके हाथों का बहुत बड़ा योगदान था। और कोई प्राणी अपने अंगूठे का इतना सही और ज्यादा उपयोग नहीं कर पाया जितना की मनुष्य ने किया था। चलो खैर हमें इससे जलन, ईशा-डाह या चिड़ नहीं होनी चाहिए। इससे हमें भी कहीं न कहीं उन सब बातों का सहयोग सुविधा मिली थी। अब देखिए अन्न का उपयोग जो मानव ने किया है उससे हम कितना सुस्वाद भोजन खा सकते है। क्या कोई और प्राणी ये चमत्कार कर सकता था। सच मानव तेरे हाथ जगन्नाथ है। सच में तो उन्हें सोने के हाथ ही कहूँगा जिस किसी चीज को भी वो छू देता है वहीं स्वर्ण हो जाती है। गजब का विकास मनुष्य ने किया था। पीढ़ी दर पीढ़ी के रहस्य को हस्तांतरित करके।
भू.....भ्रू.....भू......
आज इतना ही।
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