प्रश्न—सार:
1—इस
जगत में न पकड़ने—योग्य
कुछ है न छोड़ने—योग्य।
लेकिन एक बात पकड़ने
और छोड़ने के बीच
बेचैन कर गयी: प्रेम—वासना—मेरे
जीवन की एक मात्र
समस्या।
2—आह
को चाहिए एक उम्र
असर होने तक
कौन जीता
है तेरे जुल्फ
के सर होने तक
हमने माना
के तगाफुल
न करोगे,
लेकिन
खाक हो जाएंगे
हम तुमको खबर होने
तक।
3—आपने
प्रवचन के समय
बड़ी मीठी और गहरी
नींद आती है। क्या
कारण है?
4—सन्यास
के शुरू के कुछ
साल संन्यासिनी
होने का भ्रम रहा।
लेकिन संन्यास
संन्यास के फूल
की जो आप बात करते
है, आपने को उसके
योग्य नहीं पाती।
जमीन से पैर उखड़ गए है, लेकिन पंख अभी
तक नहीं उगे। यही
कैसी अवस्था है?
पहला
प्रश्न:
इस
जगत में न पकड़नेऱ्योग्य
कुछ है, न छोड़नेऱ्योग्य--ऐसा
आपने कहा। और
मैंने
तटस्थता में
शांति का
अनुभव भी
पाया। लेकिन
एक बात पकड़ने
और छोड़ने के
बीच बेचैन कर
गई--वह है
प्रेम-वासना।
मेरे जीवन का
वही एक प्रश्न
है, समस्या
है।
प्रेम
समस्या नहीं
है--बनाना
चाहो तो
समस्या बन
सकती है।
प्रेम
है जीवन का
समाधान।
लेकिन
तुम्हारे देखने
में कहीं कोई
भूल-चूक हो
रही है। तुमने
प्रेम को
निष्पक्ष भाव
से नहीं देखा।
जिन्होंने
प्रेम के
विपरीत जीवन
का ढांचा
निर्मित किया
है, या जो
जीवन-विरोधी
हैं, तुमने
उनकी आंख से
प्रेम को देखा
है। तुम्हारी
आंखें
किन्हीं खयालों
से भरी हैं, उन खयालों
के कारण प्रेम
समस्या बन
जाता है। फिर
तो कोई भी चीज
समस्या बनाई
जा सकती है।
समस्या ही बनाना
हो तो फिर इस
जगत में ऐसी
कोई बात नहीं,
जो समस्या न
बन जाये। कोई
भोजन को
समस्या बना लेता
है। कोई शरीर
को समस्या बना
लेता है। कोई
वस्त्रों को
समस्या बना
लेता है।
प्रेम को भी
समस्या बनाना
चाहो तो बन
सकता है। यह
तुम पर निर्भर
है। कहीं देखने
में कुछ भूल
हो रही है।
प्रेम
को सदा ही
तथाकथित
धार्मिकों ने
निंदित किया
है। क्योंकि
जीवन के
विधायक को
स्वीकार
करनेवाले धर्म
अब तक पैदा
नहीं हुए; या पैदा भी
हुए तो उनकी
झलकें आईं और
खो गईं। कभी
किसी कृष्ण ने
बांसुरी बजाई;
लेकिन वे
स्वर ज्यादा
दिन तक गूंजते
न रह
सके--क्योंकि
आदमी रुग्ण है,
क्योंकि
आदमी बीमार है;
और आदमी से
कृष्ण की
बांसुरी के
स्वरों का संबंध
नहीं बैठता।
आदमी
दुखी है और
इसलिए दुख के
कारण वह जीवन
के सुख-रूप को
नहीं देख
पाता। वह अपने
दुख को ही
जीवन में
देखता है।
इसलिए जब भी
कोई तुमसे
कहेगा, जीवन
व्यर्थ है, असार है, तुम्हें
तत्क्षण बात
समझ में आ
जायेगी। क्योंकि
तुम्हें भी
ऐसा ही लग रहा
है।
जिन्हें
भी जीने का
ढंग न आया, वे जीवन से
नाराज हो जाते
हैं। अपने से
तो कोई यह
देखने को राजी
नहीं है कि
मेरी शैली गलत,
मेरे जीवन
को पहचानने का
रास्ता गलत, जीवन की तरफ
पहुंचने की
मेरी
व्यवस्था
गलत। ऐसा तो
कोई नहीं
देखता; क्योंकि
उसमें तो फिर
"मैं' गलत
हो जाऊंगा।
हम, अगर अहंकार
और जीवन में
चुनना हो, तो
अहंकार को चुन
लेते हैं, जीवन
को नहीं। मैं
तो गलत कैसे
हो सकता हूं, जीवन ही गलत
होना चाहिए!
मैं तो गलत
कैसे हो सकता
हूं, प्रेम
ही गलत होना
चाहिए!
तो जब
भी हमें चुनना
होता है, हम
"मैं' को
चुन लेते हैं
कि मैं तो ठीक
हूं ही! एक बात
तो सुनिश्चित
है कि मैं ठीक
हूं। और फिर
भी जीवन में दुख
हैं तो कहीं न
कहीं गलती का
सूत्रपात
होता होगा; कहीं न कहीं
भूल के बीज
होंगे। तो हम
चारों तरफ
देखते हैं भूल
के बीज खोजने
को। कोई धन
में देखता है;
धन छोड़कर
भाग जाता है।
लोभ में नहीं
देखता; धन
में देख लेता
है, तो धन
को छोड़कर भाग
जाता है। अपने
भीतर नहीं देखता,
तृष्णा में
नहीं देखता।
लेकिन धन को
छोड़कर कहां
जाओगे? धन
तो बाहर था, बाहर ही
रहेगा। तुम
कहीं भी भाग
जाओ, तुम्हारे
भीतर की
लोभ-दशा कैसे
बदलेगी? कोई
देखता है, पद
में उपद्रव है,
अशांति
है--पद छोड़कर
हट जाता है।
न तो
अशांति पद में
है, न धन में
है।
कोई
देखता है, प्रेम में
उलझाव है।
प्रेम में
उलझाव नहीं है।
उलझाव तो
तुम्हारी
प्रेम न कर
पाने की स्थिति
में है। तुमने
प्रेम के नाम
पर कुछ और
किया है, इसलिए
उलझाव है।
थोड़ा
समझो। इधर मैं
देखता हूं, सैकड़ों लोग अपनी
प्रेम की समस्या
लेकर मेरे पास
आते हैं। तो
पहली बात तो
यह है कि
प्रेम तो
उन्होंने
किया ही नहीं
है, समस्या
है। प्रेम के
नाम पर कुछ और
किया है। प्रेम
के नाम परर्
ईष्या की है।
प्रेम के नाम
पर दूसरे पर
मालकियत
साधनी चाही
है। प्रेम के
नाम पर
राजनीति की
है। प्रेम के
नाम पर किसी
को दबाना चाहा
है, सताना
चाहा है।
प्रेम के नाम
पर किसी के
सिर पर बैठ
जाना चाहा है।
यह नाम प्रेम
का है, भीतर
छिपा कुछ और
है।
तुम
जिस स्त्री से
कहते हो, मैंने
प्रेम किया, तुमने प्रेम
किया? तुम
जिस पुरुष को
कहते हो, मैंने
प्रेम किया, तुमने प्रेम
किया? जिस
बेटे को तुम
कहते हो, मैंने
प्रेम किया, प्रेम किया?
बेटे में
तुमने
महत्वाकांक्षा
की है कि तुम जो
नहीं कर पाये,
बेटा पूरा
करेगा। तुम जो
अधूरा छोड़
जाओगे, बेटा
पूरा करेगा।
बेटे के
माध्यम से
तुमने एक तरह
का अमरत्व
साधना चाहा।
तुम तो मरोगे,
तुम्हारा
अंश तुम्हारे
बेटे में
जीयेगा। चलो
इतना ही सही, पूरे न
बचोगे, एक
अंश बचेगा।
वृक्ष न बचेगा,
लेकिन बीज
तो बचेगा। चलो
यही सही। इतना
तो इंतजाम कर
लें।
कौन
अपने बेटे को
प्रेम करता
है! बेटे के
माध्यम से कुछ
और चीजें हैं, कुछ अहंकार
की एषणाएं
हैं जिन्हें
तुम पूरा करना
चाहते हो। तुम
नहीं बन पाये
प्रधानमंत्री,
बेटा बन
जायेगा। तुम
नहीं हो पाये
बड़े धन कुबेर,
बेटा हो
जायेगा। नाम
तो रहेगा। नाम
तो तुम्हारा
है, बेटा
तो तुम्हारा
है!
इसलिए
दुनिया में
इतने मां-बाप
कहते हैं कि
हम अपने
बच्चों को
प्रेम करते
हैं, लेकिन
दुनिया में
कहीं प्रेम
दिखाई नहीं
पड़ता। सभी
बच्चे तो
मां-बाप से पैदा
होते हैं। अगर
सच में ही
मां-बाप प्रेम
करते हैं तो
सभी बच्चे
प्रेम से पैदा
हों और उनके
जीवन में
प्रेम की
सुगंध हो।
लेकिन वह सुगंध
तो कहीं दिखाई
नहीं पड़ती।
दिखाई तो पड़ती
है घृणा की
दुर्गंध।
दिखाई तो पड़ता
है युद्ध, वैमनस्य,
हत्या, हिंसा,
क्रोध, और
सभी प्रेम के
स्रोत से आते
हैं। तो जरूर
प्रेम के
स्रोत में
कहीं कोई जहर
मिला है।
क्योंकि
अंतिम परिणाम
बताते हैं। फल
से पता चलता
है वृक्ष का।
तो तुम्हारे
बेटे के जीवन
में अगर प्रेम
फले तो ही पता
चलेगा कि
तुमने प्रेम
किया था, तुमने
प्रेम की खाद
डाली थी।
लेकिन किसी
बेटे के जीवन
से पता नहीं
चलता।
पत्नी
है, पति है, एक-दूसरे को
कहते हैं कि
प्रेम करते
हैं। लेकिन
कभी तुमने
देखा, गौर
से समझा--यह
प्रेम है या
कुछ और? प्रेम
के नाम से
धोखा दे रहा
है। फिर
समस्याएं खड़ी
होती हैं।
तुम्हारी
पत्नी किसी
दूसरे की तरफ
गौर से भी देख
ले तो अड़चन
शुरू हो जाती
है। तुम्हारे
अतिरिक्त भी
सौंदर्य है
जगत में।
तुमने कुछ
सौंदर्य की मोनोपाली,
एकाधिकार
नहीं कर लिया
है। तुम्हारे
अतिरिक्त भी
सौंदर्य है
जगत में।
तुममें भी
सौंदर्य है, क्योंकि जगत
में सौंदर्य
है, अन्यथा
तुममें भी न
होता। तो अगर
पत्नी किसी की
तरफ भरनजर
देख लेती है, तुम घबड़ा
क्यों गये हो?
इतने
परेशान क्यों
हो गये हो? घबड़ाहट
है।
प्रेम
कहीं घबड़ाता
है? अगर
प्रेम हो तो
तुम चुपचाप
पूछोगे, "सुंदर
लगा यह
व्यक्ति? मुझे
भी सुंदर लगा।
सुंदर है।' न तो पत्नी को
यह छिपाना
पड़ेगा कि यह
व्यक्ति
सुंदर लगा, न तुम्हें
इसके लिए कोई
संघर्ष करना
पड़ेगा कि तुम
पत्नी को दबाओ,
कि पत्नी की
आंख को हटाओ,
कि पत्नी पर
नियंत्रण
करो। कहां
क्या बुरा हुआ
है?
पति
अगर किसी और
स्त्री से
हंसकर बोल ले, मुस्कुराकर बोल ले तो
पत्नी बेचैन
है, परेशान
है। यह कैसा
प्रेम है? यह
कैसा प्रेम है
जो पति को
मुस्कुराते
नहीं देख सकता?
पत्नी कहती
है, मुस्कुराना तो बस मेरे
पास। यह तो
ऐसे हुआ, जैसे
कि तुम कहो कि
सांस लेना तो
बस मेरे पास! बाकी
चौबीस घंटे और
कहीं श्वास मत
लेना।
मुस्कुराहट
भी श्वास है।
प्रेम भी
श्वास है। और
जैसे बिना
भोजन के आदमी
मर जाता है--बिना
प्रेम के आदमी
मर जाता है।
बिना भोजन के
शरीर मरता
है--बिना
प्रेम के
आत्मा मर जाती
है। तो बिना
भोजन के तो
तुम जी भी
लो--थोड़े दिन; बिना प्रेम
के तो तुम क्षणभर
नहीं जी सकते।
क्योंकि
प्रेम ही
तुम्हारी आत्मा
की श्वास है।
जैसे शरीर को
आक्सीजन
चाहिए प्रतिपल,
ऐसे ही
प्राणों को
प्रेम चाहिए
प्रतिपल। लेकिन
तुम घर के
बाहर जाते हो
तो भी डरे हो।
किसी से प्रेम
से बात भी
करते हो तो
भीतर एक भय
खड़ा है कि
कहीं पत्नी को
पता न चल
जाये। यह कैसा
प्रेम हुआ, जो तुम्हारी
प्रसन्नता के
विपरीत आ रहा
है? यह
कैसा प्रेम
हुआ, जो
तुम्हें दुखी
देखना चाहता
है, प्रसन्न
नहीं देखना
चाहता? यह
कैसा प्रेम
हुआ जो
तुम्हें बांधता
है, मुक्त
नहीं करता? नहीं, यह
प्रेम का नाम
है। इसके पीछे
कुछ और
है--मालकियत
है, पजेसिवनेस है, एकाधिकार
है। इसमें
प्रेम कम, अर्थशास्त्र
ज्यादा है।
पत्नी
डरी है कि अगर
कहीं तुम किसी
दूसरे में उत्सुक
हो गये तो
मेरी
व्यवस्था का, धन का, मेरे
बच्चों का, घर का क्या
होगा! तुममें
कोई उत्सुकता
नहीं है--आर्थिक
व्यवस्था का
सवाल है। अर्थ
के नियोजन में
गड़बड़ पड़
जायेगी। न तुम
पत्नी में
उत्सुक हो।
कुछ और बातें
हैं, जिनके
कारण तुम
उत्सुक हो।
प्रतिष्ठा
है। समाज में
आदर-सम्मान
है। लोग कहते
हैं कि ऐसा एक पत्नी-व्रती
कोई दूसरा
देखा नहीं।
राम के बाद बस
तुम्हीं हुए
हो। तो एक रिस्पेक्टेबिलिटी
है, एक
सम्मान है।
अगर यहां-वहां
नजर गई, सम्मान
बिखर जायेगा।
प्रतिष्ठा
दांव पर
लगेगी। बाजार
में नाम नीचा
गिरेगा।
दुकान कम
चलेगी। सब
गड़बड़ हो
जायेगी। हजार
और बातें हैं।
फिर
इन्हीं बातों
के कारण अड़चन
होती है। तो
तुम कहते हो, प्रेम के
कारण समस्या
खड़ी हो रही
है।
अब तक
मैंने ऐसी कोई
घटना नहीं
देखी और
हजारों लोगों
के चित्त के
निरीक्षण से
तुमसे कहता
हूं कि जब
प्रेम ने
समस्या खड़ी की
हो, समस्या
किसी और चीज
ने खड़ी की है।
लेकिन बुनियादी
भूल तो तुम यह
मानकर चलते हो
कि वही प्रेम था।
फिर जब समस्या
खड़ी होती है
तो प्रेम पर
ही दोष थोप
देते हो।
प्रेम ने तो
लोगों को
मुक्त किया
है। प्रेम ने
तो जीवन में
स्वाद दिया है
परमात्मा का। प्रेम
के माध्यम से
ही लोग
धीरे-धीरे
प्रार्थना की
तरफ सरके
हैं, आकर्षित
हुए हैं।
प्रार्थना
में स्वाद
मिला है अनंत
का, अज्ञात
का। प्रेम ने
बल दिया है।
प्रेम ने अभियान
दिया है, साहस
दिया है।
लेकिन प्रेम
ने समस्या कभी
भी नहीं दी।
अगर
प्रेम समस्या
देता होता तो
जीसस कैसे कहते
कि परमात्मा
प्रेम है? तो तो फिर
भक्ति-शास्त्र
का सारा का
सारा आधार गिर
जाता। प्रेम
से तो भक्तों
ने भगवान को
ही खोजा है।
और तुम कहते
हो, प्रेम
में समस्या
है! तो तुम जरा
फिर से विचार करना।
प्रेम में कुछ
और मिश्रित
होगा। उस
मिश्रित के
कारण समस्या
खड़ी होगी। उस
मिश्रित को
गिरा दो।
ईर्ष्या
मत करो प्रेम
के माध्यम से
और
महत्वाकांक्षा
मत करो। और
प्रेम के
माध्यम से
किसी की
मालकियत मत
करो। और प्रेम
के माध्यम से
किसी तरह की गुलामी
मत थोपो।
प्रेम
पर्याप्त है।
प्रेम से कुछ
और मत चाहो।
प्रेम अपने
में साध्य है; उसे साधन मत
बनाओ। फिर तुम
देखोगे
कि जीवन बड़ी
शांति से
विकसित होने
लगा। और शांति
से ही नहीं, क्योंकि
सिर्फ शांति
भी थोड़ी
मुर्दा मालूम
होती है।
मैं
तुम्हें
तुम्हारे
जीवन को
शांति-मात्र का
लक्ष्य नहीं
देता हूं; क्योंकि जिस
शांति में
आनंद की पुलक
न हो, वह
शांति
पर्याप्त
नहीं। जिसमें
आनंद की लहरें
भी उठती हों, वही शांति
ठीक है। नहीं
तो शांति का
अर्थ केवल
इतना होगा कि
अशांति नहीं
है। कुछ होगा
नहीं; कुछ
नहीं है, इस
पर जोर होगा।
फिर तुम्हारी
शांति अहिंसा
जैसी होगी।
फिर तुम्हारी
शांति उपद्रव
का अभाव होगी;
जैसे कि
रास्ता न चलता
हो, रेलगाड़ी
न गुजरती हो, हवाई जहाज न
निकलता हो। या
तुम दूर
हिमालय पर चले
गये तो वहां
एक तरह की
शांति है, सन्नाटा
है। लेकिन उस
सन्नाटे में
बहुत मूल्य
नहीं है; क्योंकि
वह सिर्फ अभाव
है।
फिर एक
और शांति है, जो संगीत की
तरह है:
तुम्हारे
चारों तरफ
वीणा बजने लगे;
बाहर-भीतर
एक नृत्य होने
लगे; शांति
गाये भी नाचे
भी, उमंग
से भरी हो, हर्र्षोन्माद हो तो ही, तो
ही ठीक है।
तो
इतना ही काफी
नहीं कि तुम
शांत हो जाओ।
इसे समझना।
जो लोग
प्रेम के जीवन
को छोड़कर हट
जायेंगे, इस
खयाल से कि
वहां समस्या
थी, वे
शांत तो हो
जायेंगे, लेकिन
आनंदित न हो
पायेंगे।
उनकी आंखों
में चिंता के
बादल तो न
होंगे, लेकिन
आनंद-अश्रुओं
की वर्षा भी न
होगी। उनकी
आंखों में
तनाव, बेचैनी,
परेशानी, चिंता--इसकी
धूल-धवांस
तो न होगी; लेकिन
उनकी आंखों
में तुम किसी
अनंत का नृत्य
न देख पाओगे।
उनकी आंखें
झरोखे न
बनेंगी
परमात्मा की।
उनकी आंखें रूखी-रूखी,
सूखी-सूखी,
मुर्दा-मुर्दा
होंगी।
जीवन
को शांति का
लक्ष्य मत
देना। शांति
जरूरी है, काफी नहीं।
जीवन और बड़े
द्वार खोलता
है आनंद के।
आनंद के पीछे
शांति तो
अनिवार्य होती
है, लेकिन
शांति के साथ
जरूरी रूप से
आनंद नहीं होता।
तुम ऐसा मत
सोचना कि
बीमार न हुए
तो स्वस्थ हो
गये। बीमार न
होना स्वस्थ
होने के लिए
जरूरी है, लेकिन
काफी नहीं।
क्योंकि यह भी
हो सकता है कि
बीमार तुम
नहीं हो, लेकिन
स्वास्थ्य की
कोई पुलक नहीं
है। स्वास्थ्य
बड़ी अलग बात
है। जब कभी
तुम स्वस्थ
हुए हो, तो
तुम्हें पता
है कि वह
बीमारी न होने
का ही नाम
नहीं है, कुछ
विधायक ऊर्जा
तुम्हारे
भीतर तरंगें
लेती है। यह
जरूरी है कि
बीमारी न हो
तो स्वास्थ्य
के उतरने में
सहायता आती
है। लेकिन
जिसने यह समझ
लिया कि
बीमारियों का
अभाव ही
स्वास्थ्य है,
उसने जीवन
के संबंध में
बड़ी भूल कर
ली।
तो मैं
तुमसे कहूंगा, प्रेम पर
फिर से विचार
करना, ध्यान
करना। और
प्रेम से
भयभीत मत
होना। भय है।
उसी भय के
कारण बहुत लोग
भाग गये हैं।
भय है।
और भय
क्या है?
जब भी
तुम किसी
व्यक्ति के
प्रेम में
उतरते हो, दूसरा
व्यक्ति
तुम्हारे लिए
दर्पण बन जाता
है और
तुम्हारा
चेहरा उसमें
दिखाई पड़ने
लगता है।
दर्पण से लोग
डरते हैं; क्योंकि
दर्पण में वे
बातें दिखाई
पड़ने लगती हैं
जो तुम नहीं
देखना चाहते।
अकेले थे तो
क्रोध का पता
न चलता था; किसी
के प्रेम में
पड़े तो क्रोध का
पता चलेगा।
दूसरा दर्पण
बन गया। और
दूसरा चुनौती
बन गया। और
चारों तरफ स्थितियां
खड़ी होंगी, जिनमें
तुम्हारा
क्रोध प्रगट
होने लगेगा, तुम्हारे
धोखे जाहिर
होने लगेंगे।
तुम्हारे
झूठे चेहरे
कभी-कभी खिसक
जायेंगे और
गिर जायेंगे।
कुछ ऐसी स्थितियां
बनने लगेंगी
जिसमें तुम
निर्वस्त्र
हो जाओगे।
तुम्हारे
भीतर की
नग्नता
झांकने
लगेगी। डर
लगता है!
अकेले
में आदमी अपने
को ढांककर
बैठा रहता है।
संबंध बड़े
सूचक होते
हैं। संबंधों
में ही पता
चलता है तुम
कौन हो।
क्योंकि दूसरे
की आंख में
तुम्हारी जो
छवि बनती है, उसी को तो
तुम देख पाते
हो; खुद की
तो कोई छवि
देखने का सीधा
उपाय नहीं है।
तुम सीधे तो
अपने को देख
ही न सकोगे।
देखने के लिए
दर्पण चाहिए।
और दर्पण तो
मुर्दा है--संबंधों
का दर्पण
जीवंत है। जब
दूसरे की आंख
में तुम्हारी
छवि बनती है, तब तुम्हारा
सत्य प्रगट
होने लगता है।
इसे थोड़ा समझो।
जब तुम
अकेले हो तो
तुम बेईमान
नहीं हो सकते, न ईमानदार
हो सकते हो; क्योंकि
अकेले में
क्या बेईमानी
और क्या ईमानदारी!
दूसरा चाहिए।
तो अकेले आदमी
को ऐसा भ्रम
हो सकता है कि
मैं ईमानदार
हूं। इसलिए तो
लोग जंगलों
में भाग गये, गुफाओं में
छिप गये।
अकेले
में बड़ी सुविधा
है; क्योंकि
न बेईमानी है,
तो साफ हो
गया कि
ईमानदार हैं।
लोगों ने अभाव
को परिभाषा
बना लिया।
लेकिन तुम
ईमानदार भी नहीं
हो जब तुम
अकेले में हो।
क्योंकि
अकेले में
किसके साथ
ईमानदारी, कैसी
ईमानदारी?
आओ
वापस संबंधों
में करीब
लोगों के।
वहां तत्क्षण
पता चलेगा, तुम ईमानदार
हो कि बेईमान;
तुम झूठ
बोलते हो कि
सच। यह अकेले
में कैसे पता
चलेगा? किससे
बोलोगे? तुम
करुणावान
हो या कठोर, यह कैसे पता
चलेगा? करीब
आओ! किसी जीवन
को निकट आने
दो।
और
तत्क्षण
तुम्हारे
भीतर कुछ घटने
लगेगा, जिससे
साफ होगा कि
तुम में
कठोरता है या
करुणा है।
अब तुम
देखो, जैन
मुनि हैं!
अहिंसा और
करुणा उनके
जीवन का मूल
आधार होना
चाहिए, लेकिन
है नहीं।
क्योंकि जब
तुम अपने को
जीवन से तोड़
लोगे तो करुणा
का पता कैसे
चलेगा? किस
हिसाब से
तुम्हारे
भीतर करुणा
प्रगट होगी? कोई उपाय
नहीं है। जैन
मुनि रास्ते
से गुजरता हो
तो अगर एक
भिखमंगा उसके
सामने हाथ
फैला दे, तो
उसके पास देने
को भी कुछ
नहीं है। तो
तुम यह तो न
कहोगे, यह
कृपण है। तुम
कहोगे, यह
तो त्यागी है,
इसके पास
कुछ है ही
नहीं; देने
को ही कुछ
नहीं है तो
देने का सवाल
नहीं उठता।
लेकिन क्या
जरूरी है कि
इसके पास देने
को कुछ नहीं
है, लेकिन
यह देना चाहता
था? कैसे
पता चलेगा कि
देना चाहता था?
कहीं ऐसा तो
नहीं है इस
त्याग में
कृपणता ही छिपी
हो?
अकसर
मैंने देखा है, कृपण त्यागी
हो जाते हैं।
त्याग से
बढ़िया उपाय
नहीं है
कृपणता को
छिपाने का।
क्योंकि जब कुछ
है ही नहीं तो
देने का सवाल
ही समाप्त हो
गया। जैन मुनि
से तुम अपेक्षा
तो न रखोगे कि
गरीब को कुछ
दे, भिखमंगे को कुछ दे, बीमार को
कुछ दे। देने
की छोड़ो, तुम यह भी
अपेक्षा नहीं
रखते कि बीमार
का पैर दबा दे
या बीमार को
पानी भरकर ला
दे। क्योंकि जैन
मुनि कहता है,
उसमें तो
राग है।
जैनों
का एक पंथ है--तेरापंथ--आचार्य
तुलसी का पंथ।
वे तो यहां तक
कहते हैं कि
अगर राह के
किनारे कोई मर
रहा हो तो तुम
चुपचाप अपने
राह से चले
जाना।
क्योंकि क्या
पता, तुम उस
प्यासे मरते
आदमी को पानी
पिला दो, और
वह कल हत्यारा
हो जाये, तो
तुमने हत्या
में भाग लिया।
ठीक है, वह
मर जाता अगर
तुम पानी न
पिलाते, मर
जाता तो हत्या
न कर पाता।
तुमने पानी
पिलाया तो वह
जी गया। जी
गया, उसने
कल जाकर हत्या
की, तो तुम
यह मत समझना
कि तुम बच
गये। तुमने ही
तो हाथ दिया।
इसलिए तुम
अपने रास्ते
पर चुपचाप चले
जाना।
अब यह
लगेगा विराग, त्याग! और
ऐसी कठोर
अवस्था में
आदमी अपने
भीतर बंद हो जाता
है खोल के
भीतर। इसकी
पहचान ही
मुश्किल हो
जाती है कि यह
कौन है, क्योंकि
दर्पण तोड़
देता है।
संबंधों
से जो डरता है, वह दर्पण से
डर रहा है। और
प्रेम से बड़ा
स्वच्छ कोई
दर्पण नहीं
है। जितने
तुम्हारे
जीवन में
प्रेम के
संबंध होंगे,
उतनी ही
तुम्हारी
सचाई जगह-जगह
प्रगट
होगी--उठते, बैठते, चलते।
मैं तुमसे
कहता हूं, अपनी
सचाई को जानना
जरूरी है, तो
ही अपनी आत्मा
को रूपांतरित
किया जा सकता
है।
इसलिए घबड़ाओ मत।
और प्रेम को
समस्या मत
बनाओ। इतना डर
क्या है? इतनी
घबड़ाहट
क्या है? अनुभव
से उतरो, गुजरो।
जीवन
जैसा है, अगर
हम उसे वैसा
का वैसा जीने
को राजी हो
जायें और जीवन
जो शिक्षाएं
देता है उन
शिक्षाओं को
सीखने को
तत्पर रहें, तो इस जीवन
में कुछ भी
छोड़ने जैसा
नहीं है। जो छोड़ने
जैसा है, छूट
जायेगा; जो
बचने जैसा है,
बच जायेगा।
न तुम्हें छोड़ना
पड़ेगा, न
तुम्हें
बचाना पड़ेगा।
इसलिए
मैं कहता हूं, न यहां कुछ
छोड़ने योग्य
है, न पकड़ने
योग्य। मेरा
मतलब समझ
लेना। मेरा
मतलब यह है कि
यहां तो तुम
गुजर जाओ जीवन
की गहनता से:
जो छूटने
योग्य है छूट
जायेगा; जो
पकड़ने
योग्य है बच
जायेगा; तुम्हें
न कुछ छोड़ना
है, तुम्हें
न कुछ पकड़ना
है। तुम इस
राह से गुजर
जाओ। लेकिन
राह से भागना
मत, भगोड़े मत बनना।
दो तरह
के लोग हैं।
एक हैं: पकड़नेवाले, जिनको हम
भोगी कहते
हैं। दीवाने
हैं। वे उसको भी
पकड़ लेते हैं,
जो पकड़ने
योग्य न था।
क्योंकि उनका
कुल जोर पकड़ने
पर है; जो
भी मिले पकड़
लो, सम्हालकर
रख लो! कूड़ा-कर्कट
हो तो भी रख लो,
कौन जाने कल
कुछ काम आ
जाये! छोड़ने
की उनकी हिम्मत
नहीं है। फिर
इनके विपरीत
दूसरे लोग हैं,
जिनको हम
त्यागी कहते
हैं। वे
भोगियों जैसे
ही हैं, सिर्फ
शीर्षासन कर
रहे हैं, उलटे
खड़े हो गये
हैं। वे कहते
हैं, सब
छोड़ दो।
सर्वस्व
त्याग! पहला
आदमी भूल कर
रहा था: सब पकड़
लो; यह
दूसरा आदमी
कहता है: सब
छोड़ दो। मैं
तुमसे कहता
हूं: जीवन में
कुछ छोड़ने
योग्य है, वह
अपने से छूट
जाता है; कुछ
पकड़ने
योग्य है, वह
अपने से बच
जाता है। और
ये दोनों
अतियां हैं।
और दोनों
अतियां
खतरनाक हैं।
प्रेम
के नाम से कुछ
चल रहा है, जो छूटना
चाहिए लेकिन
वह प्रेम के
अनुभव से ही छूटेगा।
प्रेम की पीड़ा
से गुजरोगे,
समझोगे
कहां-कहां
कांटे हैं, तो उनको छोड़
दोगे। और
प्रेम में कुछ
है जो बचाने
योग्य है; क्योंकि
प्रेम में
परमात्मा की
झलक है। कहीं पूरा
प्रेम मत छोड़ बैठना,
नहीं तो
तुमने टब के
पानी के साथ
बच्चे को भी फेंक
दिया। तुमने कूड़ा-कर्कट
के साथ सोना
भी फेंक दिया।
तुमने असार के
साथ सार भी
फेंक दिया। यह
तो कुछ
समझदारी न हुई।
यह तो कुछ
विवेक न हुआ।
दो तरह
के अविवेकी
हैं--भोगी और
त्यागी। भोगी का
अविवेक है कि
वह कहता है, कि जो भी है
पकड़ लो, असार
को भी पकड़ लो।
वह बच्चे को
तो बचाता ही
है, गंदे
पानी को भी
बचा लेता है, उसको भी
सम्हालकर रख
लेता है। फिर
त्यागी का अविवेक
है। वह गंदे
पानी को तो
फेंकता ही है,
बच्चे को भी
साथ फेंक देता
है। यह दोनों
असंयम हैं।
मेरे
देखे, संयम
तो ऐसी चित्त
की दशा है, ऐसी
जागरूक दशा, जिसमें जो
बचने योग्य है
बचना चाहिए, बचता है; जो
न बचने योग्य
है, छोड़ने
योग्य है, छूटता
है। इसको ही
हमने
परमहंस-दशा
कहा है। हंस
की भांति, कि
दूध और पानी
को अलग-अलग कर
ले।
मैं
तुमसे कहता
हूं, यहां
पानी बहुत है,
यहां दूध भी
बहुत है। इस
संसार में
पदार्थ भी है,
परमात्मा
भी है। यहां
रोग भी हैं और
स्वास्थ्य भी
है। यहां
समस्याएं भी
हैं और समाधान
भी हैं। तुम
ये दो भूलों
से बचना। सब पकड़ने में
गलत भी बच
रहता है, सब
छोड़ने में सही
भी छूट जाता
है। हंसा तो
मोती चुगे!
कंकड़-कंकड़
छोड़ देना, मोती-मोती
चुन लेना।
प्रेम में बड़े
मोती हैं!
इसलिए
तुमसे फिर-फिर
कहता हूं, उसे समस्या
मत बनाना। हां,
उसमें कुछ कंकड़ पड़े
हैं, उन्हें
निकालना
जरूरी है।
जैसे-जैसे
प्रेम का
अनुभव गहन
होता
है--प्रेम का
गुण बदलता है।
अब भी
दिलकश है तेरा
हुस्न, मगर
क्या कीजे
और भी
दुख हैं जमाने
में मुहब्बत
के सिवा
राहतें
और भी हैं
वस्ल की राहत
के सिवा
मुझसे
पहली सी
मुहब्बत मेरी
महबूब न मांग।
जब कोई
व्यक्ति पहली
दफा प्रेम में
उतरता है, तो प्रेम
होता है एक
स्वप्न जैसा;
जैसे और सब
व्यर्थ हो
जाता है, प्रेम
ही सार्थक हो
जाता है।
लेकिन
जैसे-जैसे
प्रेम का
अनुभव गहन
होता है, प्रेम
की पीड़ा साफ
होती है, और
भी दुख दिखाई
पड़ने शुरू
होते हैं।
और भी
दुख हैं जमाने
में मुहब्बत
के सिवा
राहतें
और भी हैं
वस्ल की राहत
के सिवा
अब भी
दिलकश है तेरा
हुस्न, मगर
क्या कीजे
मुझसे
पहली सी
मुहब्बत मेरी
महबूब न मांग।
और
प्रेम बहुत
कुछ सिखाता
है। प्रेम से
बड़ी कोई
पाठशाला नहीं
है। क्योंकि
प्रेम से
ज्यादा तुम
किसी मनुष्य
के निकट और
किसी ढंग से
आते नहीं हो।
जितने तुम
निकट आते हो, उतने ही
मनुष्य की
अंतरात्मा
प्रगट होने
लगती है। तुम
भी झलकते हो, दूसरा भी
झलकता है। जितने
तुम करीब आते
हो, तुम भी उघड़ते हो, दूसरा भी उघड़ता
है।
एक तो
विज्ञान का
ढंग है--दूर
खड़े होकर देख
लेने का ढंग; बाहर से देख
लेने का ढंग।
फिर एक कवि का
ढंग है: भीतर
गहरे उतरकर,
प्रेम करके
देखने का ढंग।
अब अगर
तुम्हें वृक्ष
को देखना है, चट्टान को
देखना है, तो
शायद बाहर से
भी देख लो।
मैं कहता हूं
शायद; क्योंकि
जिन्होंने
बहुत गहरा
देखा है, वे
तो कहते हैं, चट्टान को
भी बाहर से
देखना अधूरा
देखना है। क्योंकि
चट्टान का भी
अंतस्तल है।
तो बाहर-बाहर
से तुम चट्टान
की परिक्रमा
कर आओगे, देख
लोगे--उस
देखने को तुम
देखना मत मान
लेना।
बर्ट्रेंड
रसेल ने कहा
है, वह
परिचय है--एक्वेंटेंस।
उसे ज्ञान मत
कहना।
फिर एक
ज्ञान है कि
तुम किसी
व्यक्ति के
अंतस्तल में
उतरते हो; हृदय से
हृदय की गांठ बांधते हो,
एक-दूसरे के
लिए अपना
द्वार-दरवाजा
खुला छोड़ते
हो।
प्रेम
का क्या अर्थ
होता है? यही
अर्थ होता है
कि किसी
व्यक्ति के
लिए तुमने अब अपने
जीवन के सब
दरवाजे खुले
छोड़ दिये; और
किसी व्यक्ति
ने तुम्हारे
लिए अपने जीवन
के सब दरवाजे
खुले छोड़
दिये। प्रेम
का यही अर्थ
होता है कि दो
व्यक्तियों
के बीच अब
छुपाने योग्य
कोई राज न
रहा। प्रेम का
यही अर्थ होता
है कि अब दो
व्यक्तियों
के बीच ऐसा
कुछ भी नहीं
है जिसे
छिपाया जाये;
सब उघाड़ा;
दो हृदय
अपने आवरण के
बाहर आये; दो
हृदयों ने
एक-दूसरे को
नग्नता में
देखा; और
दो हृदय
एक-दूसरे में
प्रविष्ट
हुए। और यह प्रेम
के द्वारा ही
संभव है।
अगर
तुम बाहर खड़े
रहो, जैसा कि
वैज्ञानिक
खड़ा रहता है, तटस्थ भाव
से दर्शक की
तरह देखते रहो,
प्रेम में डूबो न, तो
तुम कभी जान
ही न पाओगे।
आत्मा को तो न
जान पाओगे।
इसलिए
विज्ञान
आत्मा को नहीं
जान पाता।
विज्ञान कभी
भी नहीं जान
पायेगा कि
आदमी में
आत्मा है।
क्योंकि
आत्मा का पता
तो प्रेम के अतिरिक्त
और किसी ढंग
से चलता ही
नहीं। यह कोई
चीर-फाड़
करके पता नहीं
चलेगा। यह कोई
डिसेक्शन,
सर्जरी
करके पता नहीं
चलेगा। यह कोई
औजारों
को आदमी के
भीतर ले जाकर
पहचान नहीं हो
सकती कि आत्मा
है। तब तो कुछ
भी न मिलेगा।
हड्डी, मांस-मज्जा
मिलेगी। जो
बाहर-बाहर है,
वही पकड़ में
आयेगा। जो
भीतर-भीतर है,
वह छूट
जायेगा।
तुमने
खयाल किया कि
जिसे तुम
प्रेम करते हो, वह हड्डी, मांस-मज्जा
नहीं रह जाता!
जिसे तुम
प्रेम नहीं
करते, वह
हड्डी, मांस-मज्जा
रह जाता है।
जिसे तुम
प्रेम नहीं करते,
वह मात्र
शरीर है। जिसे
तुम प्रेम
करते हो, उसमें
पहली दफा
आत्मा का बोध
होना शुरू
होता है।
इसलिए
जिन्होंने
खूब प्रेम
किया, अटूट
प्रेम किया, उन्हें सब
जगह आत्मा
दिखाई पड़ गई।
अगर महावीर को
पत्थरों में
भी दिखाई पड़
गई तो उसका
कारण यह नहीं
है कि वे दूर
खड़े
वैज्ञानिक की
तरह देखते रहे,
वे गहरे में
अंतस्तल में
संबंधित हुए,
उतरे। तो
वृक्ष में भी
आत्मा दिख गई।
तो महावीर
वृक्ष का
पत्ता तोड़ने
में भी चिंता
अनुभव करते
हैं।
यह
चिंता जैन
मुनि की चिंता
नहीं है। जैन
मुनि चिंता
करता है, वृक्ष
का पत्ता नहीं
तोड़ना है, क्योंकि
उसे स्वर्ग
जाना है। पशु
को नहीं मारना
है, क्योंकि
नर्क से बचना
है। यह
दुकानदार का
हिसाब है।
महावीर वृक्ष
को चोट नहीं
पहुंचाते, क्योंकि
उन्हें दिखाई
पड़ा कि वृक्ष
सिर्फ वृक्ष
नहीं है, जीवंत
आत्मा है। न
केवल इतना
दिखाई पड़ा कि
वृक्ष जीवंत
आत्मा है, यह
भी दिखाई पड़ा
कि ठीक मेरे
जैसी ही आत्मा
है--उसी राह पर
जिस पर मैं
हूं, थोड़े
पीछे सही; आज
नहीं कल
मनुष्य हो
जायेगा।
इसलिए
महावीर ने
सारे जीवन को
पांच हिस्सों
में बांट
दिया। एकेंद्रिय
जीव। पृथ्वी
को उन्होंने
कहा, एक-इंद्रिय
जीव। पृथ्वी
भी! महावीर
जमीन पर भी
चलते हैं तो
बहुत क्षमा
मांगते हुए
चलते हैं। वह
भी जीवन है।
एक ही उसकी
इंद्रिय
है--केवल काया,
केवल देह।
जिसको
वैज्ञानिक अब
कहते हैं, अमीबा--महावीर
को उसकी पकड़ आ
गई थी।
वैज्ञानिक
कहते हैं, अमीबा
पहला
प्राण-स्पंदन
है; उसके
पास केवल देह
होती है, न
हड्डी, न
मस्तिष्क, न
आंख, न कान,
कुछ भी नहीं;
कोई
इंद्रिय नहीं,
सिर्फ शरीर
होता है। वह
अपने शरीर को
ही अपने भोजन
के पास ले आता
है। अपने भोजन
के ऊपर बैठ
जाता है और शरीर
और उसका भोजन
मिलकर विलीन
हो जाते हैं, एक-दूसरे
में लीन हो
जाते हैं।
उसके पास कोई
मुंह भी नहीं
है। फिर उसका
शरीर जब बड़ा
होने लगता
है--इतना बड़ा
हो जाता है कि
सम्हालना
मुश्किल हो
जाता है, तो
शरीर दो
हिस्सों में
टूट जाता है
और दो अमीबा
हो जाते हैं।
इसी तरह उसकी
संतति होती
है। लेकिन वह
जीवन का पहला
रूप है।
महावीर
ने कहा, एक-इंद्रिय,
सिर्फ शरीर
जीवन का पहला
रूप है।
मनुष्य है पंचेंद्रिय।
उसके पास पांच
इंद्रियां
हैं। वह सबसे
विकसित रूप
है। लेकिन
वृक्ष, पशु-पौधे,
सब उसी कतार
में हैं; चले
आ रहे हैं
बढ़ते। हम भी
कभी वृक्ष थे
और वृक्ष कभी
हम जैसे हो
जायेंगे।
तो
महावीर ने
जीवन का एक
सागर खोज लिया, जिसमें सभी
जीवन की
घटनाएं हैं।
यह महा प्रेम में
घटा है। यह
कोई तार्किक
विश्लेषण नहीं
है। यह महावीर
को अनुभव हुआ
है। यह
तेजस्विता
जीवन की उनको
प्रतीत हुई।
यह बहुत प्रेम
में ही हो
सकती है।
इसलिए
मैं कहता हूं, अहिंसा का
मौलिक अर्थ
प्रेम है।
तुम घबड़ाना मत!
प्रेम
तुम्हें बहुत
कुछ सिखायेगा।
प्रेम
तुम्हें
तुम्हारे
अहंकार का
नर्क बतायेगा; तुम उसे छोड़
देना। और
प्रेम
तुम्हें
तुम्हारे हृदय
का स्वर्ग भी दिखायेगा;
तो उसे पकड़
लेना।
आजिजी
सीखी, गरीबों
की हिमायत
सीखी
यासी हिरमान के
दुख-दर्द के
मानी सीखे
जेरदस्तों
के मुशाइब
को समझना सीखा
सर्द
आहों के रुखे-जर्द
के मानी सीखे।
प्रेम
तुम्हें बहुत
कुछ सिखायेगा।
प्रेम के
अतिरिक्त कोई
और सिखा ही
नहीं सकता।
इसलिए अगर
प्रेम में कुछ
अड़चन मालूम
होती है तो
उसे प्रेम की
अड़चन मत कहना।
तुमने अभी प्रेम
के पाठ पूरे
नहीं सीखे, इसलिए अड़चन
आ रही है।
जैसे कोई आदमी
नया-नया पानी
में तैरना
शुरू करता है
तो हाथ-पैर तड़फड़ाता
है, घबड़ाता है, बेचैनी
होती है। यह
कोई तैरना
तैरने का
स्वरूप नहीं
है; यह तो न
तैरने की वजह
से हो रहा है।
तुम
अगर मुझसे
पूछो तो मैं
ऐसा कहूंगा, कि प्रेम
में जो समस्या
है, वह
अप्रेम की वजह
से पैदा हो
रही है। जब यह
आदमी तैरना
सीख जायेगा तो
तैरने में एक
प्रसाद आ जाता,
तब कोई
चेष्टा नहीं
करनी होती। तब
ठीक-ठीक तैराक
तो नदी पर छोड़
देता है अपने
को। हाथ-पैर
भी नहीं
चलाता। नदी ही
सम्हाल लेती
है। ऐसी कुशलता
आ जाती है कि
कुछ भी करना
नहीं पड़ता; होना काफी
रहता है और
नदी सम्हाल
लेती है।
प्रेम
भी चैतन्य के
सागर में
तैरना है; दूसरे के
सागर में
डुबकी लगानी
है। पहले-पहले
हाथ-पैर तड़फड़ायेंगे;
घबड़ाहट होगी; सांस
रुंधेगी;
लगेगा मरे,
डूबे; चिल्लाहट
होगी कि बचाओ!
लेकिन जल्दी
ही, इस
बचाव की आवाज
के कारण
निकलकर भाग मत
खड़े होना। यह
तो तुम्हारी
अकुशलता के
कारण है। यह
तो धीरे-धीरे
चली जायेगी।
रफ्ता-रफ्ता,
आहिस्ता-आहिस्ता
अभ्यास गहरा
होता जायेगा।
तो
प्रेम मत छोड़ो; प्रेम में
जागरण को
सम्मिलित
करो। प्रेम मत
छोड़ो; प्रेम
के साथ धर्म
को, ध्यान
को जोड़ो।
प्रेम + ध्यान,
बस इतना करो
और समस्या
विदा हो
जायेगी। और
समस्या की जगह
तुम पाओगे:
प्रेम एक
अदभुत रहस्य है--और
पहला रहस्य
जहां से
परमात्मा की
खबर मिलती है।
शुरू-शुरू में
घबड़ाहट
स्वाभाविक
है।
न
घबरा जवानी की
बेहररवी
से
यह
दरिया बना
लेगा खुद ही
किनारा
वहीं
तक खुदी है, वहीं से
खुदा है
जहां
बेकसी ढूंढ़ती
हो सहारा।
घबड़ाओ
मत। यह आज जो
जवानी का
तूफान है, यह जो राग-मोह
की उठी आंधी
है, यह
अपने से ही
विदा हो
जायेगी। तुम
जरा पैर को सम्हालकर
चलते रहो।
न
घबड़ा जवानी की
बेहररवी
से
यह
दरिया बना
लेगा खुद ही
किनारा।
हां, जल्दी अगर
भाग खड़े हुए
तो मुश्किल
में पड़ जाओगे।
तब न यहां के
रहोगे न वहां
के।
जो
प्रेम से भाग
गया उसके पास
अहंकार के
सिवाय कुछ भी
नहीं बचता।
यद्यपि अगर तुम
बहुत दूर भाग
गये तो
तुम्हें पता
भी न चलेगा
अहंकार का, क्योंकि
उसका पता भी
साथ-संग में
चलता है, समूह
में चलता है।
तुमने
खयाल किया, आदमी का
बच्चा पैदा
होता है, अगर
उसे संग-साथ न
मिले, मां-पिता
परिवार न मिले,
समूह-समाज न
मिले, तो
बच नहीं सकता,
मर जायेगा।
तुम कोई
कल्पना कर
सकते हो कि
आदमी का बच्चा
बच जाये बिना
समूह, संग-साथ
के? हां
कभी-कभी ऐसा
हुआ है कि भेड़िये
आदमी के बच्चे
को ले गये; लेकिन
वह भी समूह था,
संग-साथ था।
भेड़ियों
ने बचा लिया।
लेकिन अकेला
तो आज तक कोई मनुष्य
का बच्चा बचा
नहीं है। जो
मनुष्य के शरीर
के संबंध में
सच है, वही
मैं तुमसे
कहता हूं, आदमी
की आत्मा के
संबंध में भी
सच है। उसका
जन्म भी समूह
में होता
है--संग-साथ
में, परिवार
में। आदमी की
आत्मा भी
अकेले में
नहीं जन्मती।
हां, अकेले
का तुम उपयोग
कर सकते हो।
कभी-कभी अकेले
हो जाने में
भी रस है।
कभी-कभी दूसरे
से दूर हट
जाने में भी
रस है। लेकिन
वह फायदा भी
दूसरे से दूर
हटने के कारण
होता है। खयाल
करना, वह
फायदा भी
अकेले होने के
कारण नहीं
होता, दूसरे
से दूर हटने
के कारण होता
है। उसका लाभ भी
दूसरे में ही
है।
ऐसा समझो
कि एक हजार
रुपये का ढेर
लगा है और एक
दस रुपये की
ढेरी लगी है।
जब हम हजार
रुपये की ढेरी
हटाते हैं, और दस रुपये
की ढेरी हटाते
हैं, तो दस
रुपये का अभाव
भी वैसा ही
मालूम पड़ता है
जैसे हजार
रुपये का अभाव
मालूम पड़ता
है। अब तो न
हजार रुपये
हैं न दस
रुपये हैं।
हजार रुपये का
जब ढेर था, तो
हजार रुपये की
कीमत थी उसकी।
पांच रुपये का
ढेर था, दस
रुपये का ढेर
था, तो दस
रुपये की कीमत
थी; लेकिन
दोनों हटा
लिये तो जो
शून्य पीछे रह
जाता है, वह
तो लगता है एक
ही मूल्य का
है। दस रुपये
का शून्य भी
उतना ही बड़ा
है, हजार
रुपये का
शून्य भी उतना
ही बड़ा है। तो
तुम गलती कर
रहे हो। जीवन
में ऐसा नहीं
है। जो आदमी
जितना गहरा जीया
है, जब वह
एकांत में
जाता है तो
उसके एकांत की
गहराई भी उतनी
ही गहरी होती
है। जो आदमी
समूह में जीया
ही नहीं है, वह एकांत
में चला जाता
है, तो
उसके एकांत की
कोई गहराई ही
नहीं होती।
इसे तुम अनुभव
कर सकते हो कि
जो आदमी जंगल
में ही जीया
है, उसे
जंगल में कोई
सौंदर्य नहीं
होता। जो भीड़
में, समूह
में, बाजार
में बैठा रहा
है, जब कभी
जंगल जाता है
तो जो उसे
जंगल में
दिखाई पड़ता है,
वह जंगल के
आदमी को दिखाई
नहीं पड़ता।
वानगाग
के जीवन में
ऐसा स्मरण है
कि वानगाग
एक समुद्र तट
पर, फ्रांस
के, अपने
चित्र बना रहा
था। वह सूरज
के पीछे दीवाना
था। सूर्योदय,
सूर्यास्त--उन
पर उसने बड़ी
मेहनत की।
समुद्र के
किनारे वह एक
दिन
सूर्यास्त का
चित्र बना रहा
था। उसके
चित्र को देख
रही थी एक
समुद्र के तट
की मछुआ की
औरत। वह गौर
से देखती रही,
गौर से
देखती रही। वह
फिर दूसरे दिन
देखने आई, फिर
तीसरे दिन
देखने आई। और
सातवें दिन
धीरे-धीरे वानगाग
से परिचय भी
हो गया। तो जब
सूरज डूबने के
करीब आया तो
उसने कहा कि
आप रुकना, मैं
जरा अपने पति
को, अपने
बच्चों को भी
ले आऊं। तो वानगाग
ने पूछा, किसलिए? तो उसने कहा
कि वे भी
सूर्यास्त
देख लें। तो उसने
कहा कि वे तो
यहीं रहते ही
हैं इस समुद्र
तट पर, उन्होंने
सूर्यास्त
नहीं देखा? उस स्त्री
ने कहा, नहीं
मैंने भी नहीं
देखा था, जब
तक आप न आये
थे। यह तो
इतना
स्वाभाविक था
हमारे जीवन का
हिस्सा कि
इसका हमें कभी
बोध न हुआ था।
तुम्हारे आने
से हमें पता
चला
सूर्यास्त का
सौंदर्य।
अब यह वानगाग
जहां से आ रहा
है, वहां
सूर्यास्त
मुश्किल है
देखना, सूर्योदय
देखना
मुश्किल; कुहासा
घिरा रहता है।
इसके लिए
सूर्योदय और सूर्यास्त
बड़े
महिमापूर्ण
हैं।
पश्चिम
में संडे, सूर्य का
दिन छुट्टी का
दिन है।
क्योंकि सूर्य
ऐसा प्रगाढ़
होकर दिखाई
नहीं देता
जैसा पूरब में
दिखाई पड़ता है;
ऐसी महिमा
नहीं है सूरज
की; सूरज
ढका-ढका है, छिपा-छिपा
है।
तो
सूरज का दिन
छुट्टी का दिन
होना ही
चाहिए। लोग
उत्सव मनायें:
सूरज निकला है, सूरज का दिन
है।
एकांत
में उतनी ही
गुणवत्ता
होगी जितना
गहरा तुम्हारे
संबंधों का
जगत था। जिस
आदमी ने खूब भरपूर
प्रेम किया है, वह जब
हिमालय पर
जाकर बैठ जाता
है तो उसके
हृदय की गहरई
पूछो मत।
लेकिन जिसने
कभी प्रेम ही
नहीं किया, वह भी
हिमालय की
पहाड़ी पर जाकर
बैठ जाता है; उसका
छिछलापन
छिछलापन ही
रहनेवाला है।
मैं
तुमसे यह कह
रहा हूं कि
तुम्हारे
एकांत का भी
तभी मूल्य है
जब तुम्हारे
संबंधों की
गहराई हो। अगर
हजार रुपये की
गहराई थी तो
तुम्हारा
एकांत हजार
रुपये के
मूल्य का
होगा। अगर दस
रुपये की
गहराई थी तो
दस रुपये के
मूल्य का
होगा।
जीवन
का गणित
मुर्दा गणित
नहीं है। यहां
तुमने कितनी
तीव्रता से, त्वरा से
जीवन को जीया
है, उतनी
ही अनूठी
अनुभूतियां
एकांत में उठेंगी।
इसलिए मैं
कहता हूं: जाओ
प्रेम में, क्योंकि
तुम्हारे
ध्यान की
गहराई भी
तुम्हारे
प्रेम की
गहराई पर
निर्भर होगी।
दूसरे के साथ
तो जीकर देख
लो, ताकि
तुम अपने साथ
जीने का राज
सीख जाओ।
दूसरे
के माध्यम से
हम अपने पास
आते हैं। दूसरा
सेतु है, जिसके
द्वारा हम
अपने पर वापस
आते हैं।
दो
व्यक्तियों
के बीच निकटतम
दूरी का नाम
प्रेम है।
जैसे दो
बिंदुओं के
बीच निकटतम
दूरी का नाम
रेखा, ऐसे दो
व्यक्तियों
के बीच निकटतम
दूरी का नाम
प्रेम है। अगर
थोड़े
इरछे-तिरछे
चलकर जाते हो
तो यह प्रेम
नहीं है।
सीधे-सीधे!
प्रेम सिखायेगा
सरलता। प्रेम सिखायेगा
विनम्रता।
प्रेम सिखायेगा
निरहंकार।
प्रेम सिखायेगा
त्याग।
इसे
तुम खयाल रखना, जिसने कभी
प्रेम नहीं
किया उसका
त्याग कृपण का
त्याग होता है;
वह त्याग
नहीं है। वह
कंजूस है।
इसलिए मैं सुनता
हूं साधुओं को
समझाते कि छोड़
दो धन-दौलत, मौत सब छीन
लेगी। अब यह
जरा सोचने
जैसी बात है कि
मौत छीन लेगी,
इसलिए
छोड़ने को कह
रहे हो। मतलब,
यह डर छीने
जाने का है।
इसलिए बेहतर
है, छोड़ ही
दो। लेकिन
प्रेमी कहता
है, छोड़ो;
क्योंकि
जिसने छोड़ा है
उसीने
भोगा। तेन
त्यक्तेन भुंजीथाः।
जिसने दिया उसीने
पाया। प्रेमी
कहता है, दे
दो; क्योंकि
बिना दिये पा
न सकोगे।
प्रेम
की बड़ी अनूठी
कीमिया है:
तुम्हारे पास
वही होता है
जो तुम दे
देते हो। जो
तुम बचा लेते
हो, वह
तुम्हारे पास
कभी नहीं
होता। दिखता
है तुम्हारे
पास है, लेकिन
तुम उसके
मालिक नहीं
होते। मालिक
तुम उसी के हो
जो तुम दे
देते हो। जो
बांट दिया, उसी के
मालिक हो।
मालकियत कब
घटती है, तुमने
सोचा? जब
तुम्हारे हाथ
से कोई चीज
किसी दूसरे
हाथ में जाती
है, उस क्षण।
जब तुम्हारे
हाथ से हटती
है चीज, तुम
मालिक होते
हो। अगर
तुम्हारी
मुट्ठी में बंद
रहे, तुम
मालिक नहीं
होते, ज्यादा
से ज्यादा
पहरेदार। तिजोड़ी
पर बैठे हैं
लट्ठ लिये, बंदूक
लिये--पर
पहरेदार।
जिस
क्षण तुम देते
हो, देने से
ही पता चलता
है कि
तुम्हारे पास
था। देने से
ही तुम्हें भी
पता चलता है
कि मैं दे सका--मेरा
था! वही है
तुम्हारा जो
तुमने दिया। और
उसी को तुमने
भोगा, जो
तुमने बांटा।
साझेदारी
बढ़ाओ!
प्रेम का अर्थ
इतना ही होता
है: साझेदारी
करो! किसी को
दो! किसी को
बांटो! और
धन्यवाद देना
उसे, जो
तुम्हारे
जीवन में इस
भांति आये कि
तुम उससे कुछ
बांट सको।
धन्यवाद देना!
प्रेम
की बड़ी कुशलता
यह है कि यहां
लेनेवाला भी
कुछ देता है
और देनेवाला
भी कुछ देता
है। जब तुम
किसी को कुछ
देते हो और वह
स्वीकार कर
लेता है तो
उसने भी
तुम्हें कुछ
दिया--उसकी
स्वीकृति से
दिया। उसने
तुम्हें मालिक
बना दिया।
उसने तुम्हें
दाता बना दिया।
अब और क्या
चाहते हो? तुमने जो
दिया वह कुछ
नहीं था। उसने
जो दिया वह
बहुत ज्यादा
है। इसलिए
हिंदुस्तान
में हमारी
व्यवस्था है
कि पहले दान
दो, फिर
दक्षिणा दो।
दक्षिणा का
अर्थ है: उसने
दान स्वीकार
किया, इसका
धन्यवाद भी
दो। अकेले दान
से काम न
चलेगा। पहले
तो दो, लेकिन
यह जरूरी थोड़े
ही है कि वह ले
ले। कोई इनकार
कर दे, फिर?
कोई कह दे
नहीं चाहिए, फिर?
प्रेम
का अर्थ है:
ऐसा भरोसा कि
तुम जिसे देने
जा रहे हो, वह ले लेगा, इनकार न
करेगा।
बहुत-से लोग
इनकार के कारण
ही देने से
डरते हैं कि
हम देने गये
और किसी ने कह
दिया, नहीं;
द्वार बंद
कर लिया, फिर?
रिजेक्शन,
अस्वीकार
पैदा हुआ? तो
बड़ी घबड़ाहट
लगती है!
अनेक
लोग मुझसे आकर
कहते हैं कि
प्रेम में एक ही
डर मालूम पड़ता
है: हम तो
निवेदन करें
और इनकार हो
जाये! हम तो
अपने हृदय के
द्वार खोलें, पलक-पांवड़े
बिछायें
और दूसरा पीठ
किये चला जाये,
न आये; हम
तो स्वागतम
द्वार पर
बांधें, फूल-पत्तियां
लटकायें
और कोई बिना
देखे गुजर
जाये--तो फिर
बड़ी पीड़ा होगी!
इससे तो बेहतर,
अपना
द्वार-दरवाजा
बंद ही रखना।
क्योंकि जैसे
ही तुम किसी
को बुलाते हो,
दूसरे को
तुमने बल दिया,
शक्ति दी, जीवन दिया।
अब दूसरे के
हाथ में उपाय
है, वह
स्वीकार कर ले,
अस्वीकार
कर दे।
प्रेम
का पहला कदम
ही जोखिम से
भरा है। इसलिए
स्त्रियां
कभी
प्रेम-निवेदन
नहीं करतीं।
इतनी जोखिम
स्त्रियां
नहीं उठातीं।
वे राह देखती
हैं--तुम्हीं
प्रेम-निवेदन
करो। वे प्रतीक्षा
करती हैं। कि
कितनी जोखिम
पुरुष उठाता
है। जोखिम बड़ी
है, क्योंकि
दूसरा कह सकता
है, नहीं।
दूसरा द्वार
को बंद कर दे
सकता है, तो
फिर क्या होगा?
फिर बड़ी
पीड़ा और तड़फ
होगी। तुम इस
योग्य न समझे
गये कि
स्वीकार किये
जाओ!
इसलिए
बहुत-से लोग
अपना प्रेम
ऐसी चीजों से
लगाते हैं
जहां से
अस्वीकार हो
ही नहीं सकता।
एक कार खरीद
ली, उसी से
प्रेम करने
लगे। अमरीका
में करीब-करीब
स्त्री के बाद
कार का नंबर
दो है। कार
में एक सुविधा
है; इनकार
नहीं कर सकती;
खरीद लाये
तो तुम्हारी।
इसलिए हजारों
साल तक आदमी
स्त्री को भी
खरीद के लाता
रहा, प्रेम
करके नहीं; क्योंकि
प्रेम में
खतरा था।
इसलिए विवाह
पैदा हुआ।
विवाह
होशियारी है; जोखिम से
बचने की
व्यवस्था है।
मां-बाप इंतजाम
करते हैं, पंडित-पुरोहित
कुंडली
मिलाते हैं।
तुम्हें सीधा
निवेदन नहीं
करना पड़ता।
जैसे तुम किसी
के भाई हो, किसी
की बहन हो--ऐसे
एक दिन किसी
के पति या
पत्नी हो जाते
हो। अचानक तुम
पाते हो--हो
गये। उसके लिए
तुम्हें खोज
नहीं करनी
पड़ती; तुम्हें
पहली जोखिम
नहीं उठानी
पड़ती। लेकिन जब
पहली जोखिम
नहीं उठाई तो
सारा जीवन गलत
हो जाता है।
वह दुस्साहस
जरूरी है।
तो
विवाह ईजाद
हुआ, ताकि
प्रेम से बचा
जा सके। लोग
सोचते हैं, प्रेम के
लिए विवाह है;
प्रेम
वस्तुतः बचने
का उपाय है।
तो लोग पत्नियों
को भी खरीदकर
लाते रहे, दहेज
दे-देकर लाते
रहे। वह भी
खरीद-फरोख्त
थी।
अब यह
मुश्किल होता
जा रहा है, तो लोगों का
ध्यान
वस्तुओं की
तरफ जा रहा है,
या पशुओं की
तरफ जा रहा
है। एक कुत्ता
रख लिया; जब
भी घर आये, वह
पूंछ हिलाता
है। वह कभी भी
ऐसा नहीं कह
सकता कि नहीं हिलायेंगे
पूंछ। तुम जब
भी आये, तभी
तुम्हें गौरव
देता है।
कुत्ते
बड़े
राजनीतिज्ञ
हैं। वे समझ
गये एक राजनीति
कि आदमी पूंछ
हिलाने से बड़ा
प्रसन्न होता
है। उधर उसकी
पूंछ
मुस्कुराने
लगी, इधर तुम
मुस्कुराने
लगे। उसने एक
कला सीख ली। पर
देखा तुमने, कुत्ते भी
देखते हैं!
अगर अजनबी
आदमी आता है तो
भौंकते
भी हैं, पूंछ
भी हिलाते
हैं। यह, यह
राजनीति न हुई,
यह कूटनीति,
डिप्लोमेसी है। वे यह
देख रहे हैं
कि जांच तो कर
लो, आदमी अपनावाला
है कि नहीं है,
पराया है, मित्र है कि
शत्रु है। तो भौंकते भी
हैं कि अगर
शत्रु हुआ तो
पूंछ रोक
लेंगे, भौंकते चले
जायेंगे; अगर
मित्र हुआ तो
भौंकना बंद कर
देंगे, पूंछ
पर पूरी ताकत
लगा
देंगे--असंदिग्ध
जब हो जायेंगे।
अभी संदेह है।
नया-नया आदमी
आ रहा है, पता
नहीं मालिक का
मित्र हो कि
दुश्मन हो।
पश्चिम
में लोग
जानवरों के
पीछे--कुत्ते-बिल्लियां
पालने में लगे
हैं; या
वस्तुओं के
पीछे हैं--कार
है, मकान
है; और
हजार तरह के
उपकरण
विज्ञान ने
खोज दिये हैं,
उनमें अपना
प्रेम लगा रहे
हैं।
यह
वस्तुतः
प्रेम से बचने
का उपाय है, क्योंकि
प्रेम की सबसे
पहली जोखिम यह
है कि जब तुम
दूसरे को देने
जाते हो अपना
हृदय, तो
इनकार भी हो
सकता है। और
अगर दूसरे ने
स्वीकार किया
तो तुमने ही
कुछ नहीं दिया,
दूसरे ने
स्वीकार करके
तुम्हें कुछ
दे दिया। प्रेम
में लेनेवाला
भी देनेवाला
है--देनेवाला
तो देनेवाला
है ही।
प्रेम
की बड़ी अपूर्व
महिमा है।
वहां दोनों दाता
हो जाते हैं।
इससे बड़ा जादू
और कहीं भी
घटित नहीं
होता। सब गणित
के नियम टूट
जाते हैं। क्योंकि
दोनों दाता हो
नहीं सकते
गणित के नियम से; एक दाता
होगा तो एक
लेनेवाला
होगा। एक का
हाथ ऊपर होगा,
दूसरे का
हाथ नीचे
होगा। लेकिन
प्रेम दोनों
हाथों को समान
स्तर पर ला
देता है; दोनों
दाता बन जाते
हैं।
देनेवाला तो
है ही, लेनेवाला
भी दाता बन
जाता है। और
लेनेवाला जो देता
है, वह
देनेवाले से
भी बड़ा है।
इसलिए
प्रेम गणित की
सीमा के बाहर
पड़ता है, हिसाब
के बाहर पड़ता
है, अर्थशास्त्र
के बाहर पड़ता
है, रहस्यमय
है।
घबड़ाना
न! कृपण मत
बनना! कायर मत
बनना! प्रेम
के द्वार पर
दस्तक देना!
क्योंकि वही
द्वार एक दिन
परमात्मा का
मंदिर भी
सिद्ध होता
है।
दूसरा
प्रश्न:
आह
को चाहिए एक
उम्र असर होने
तक
कौन
जीता है तेरे
जुल्फ के सर
होने तक
हमने
माना कि तगाफुल
न करोगे, लेकिन
खाक
हो जायेंगे हम
तुमको खबर
होने तक।
प्रेम
का रास्ता ही
मिटने का
रास्ता है।
वहां खाक हो
जाना ही
उपलब्धि है।
वहां खो जाना
ही पा लेना
है। वहां
बचाने की
चेष्टा से ही
बाधा होती है।
वहां तो
धीरे-धीरे
अपने को गलाते
जाना है और एक
ऐसी घड़ी लानी
है, जहां
प्रेमी तो बचे
ही न--बस प्रेम
का ही सागर लहरें
लेता रह जाये।
उसी क्षण
परमात्मा
अवतरित होता
है। जहां तुम
मिटे वहीं
परमात्मा का
प्रवेश है।
इब्तिदा
में ही मर गये
सब यार
कौन
इश्क की
इंतिहा लाया।
प्रेम
के प्रारंभ
में ही लोग मर
जाते हैं। अंत
तक जाने की तो
सुविधा कहां
है, बचता कौन
है? प्रेम
की कोई आज तक
गहराई नहीं छू
सका।
रामकृष्ण
कहते थे, एक
मेला भरा था
और लोग सागर
के तट पर
विचार करते थे
कि सागर की
गहराई कितनी
है। एक नमक का
पुतला भी आया
था।
उसने
कहा, "ठहरो!
ऐसे विचार
करने से क्या
होगा? मैं
डुबकी लगाता
हूं। मैं अभी
पता ला देता
हूं।' उसने
डुबकी लगा ली,
लेकिन लौटा
नहीं, लौटा
नहीं, लौटा
नहीं। सांझ हो
गयी, दूसरा
दिन हो गया, मेला उजड़ने
का वक्त भी आ
गया, लोग
राह देखते रहे,
लेकिन वह
कभी लौटा
नहीं। वह
लौटता कैसे? वह नमक का
पुतला था; सागर
में उतरा तो गलने लगा।
जैसे-जैसे
गहरा गया, वैसे-वैसे
पिघलता गया।
गहरे नहीं गया,
ऐसा नहीं; खूब गहरे
गया। और ऐसा
भी नहीं कि
उसने गहराई न छू
ली; उसने
पूर सागर का
अंतस्तल छू
लिया। लेकिन
तब तक खुद खो
चुका था, लौटनेवाला न बचा था।
नमक का
पुतला जैसा ही
आदमी
है--प्रेम का
पुतला। वह
प्रेम से पैदा
हुआ है, प्रेम
से बना है।
तुम्हारा
रोआं-रोआं, तुम्हारी
रत्ती-रत्ती
प्रेम से बनी
है। तो जब तुम
परमात्मा के
सागर में
डुबकी
लगाओगे...नहीं
कि तुम पता न
लगा लोगे, पता
लगा लोगे; लेकिन
पता लगाने में
खो जाओगे।
इब्तिदा
में ही मर गये
सब यार
कौन
इश्क की
इंतिहा लाया।
इसलिए
खाक होने की
तैयारी रखो।
और माना कि
बहुत बार ऐसा
लगेगा कि बड़ी
देर हुई जा
रही है और बहुत
बार तड़फ
होगी कि अब
जल्दी हो, और बहुत बार
ऐसी शिकायत
उठेगी कि अब
और पीड़ा क्यों;
फिर भी--
क्या
उसके बगैर
जिंदगानी?
माना
वह हजार दिलशिकन
है।
--बहुत
दिल को दुखानेवाला
है, लेकिन
उसके बिना
जिंदगी का कोई
अर्थ भी नहीं।
धन्यभागी
हैं वे जो
परमात्मा के
रास्ते पर
दुखी और पीड़ित
होते हैं।
अभागे हैं वे
जो परमात्मा
के विपरीत
रास्ते पर
सुखी और
प्रसन्न हैं।
क्योंकि परमात्मा
के विपरीत
रास्ते पर सुख
और प्रसन्न भी
राख हो
जायेगा। और
परमात्मा के
रास्ते पर राख
हो जाना भी
स्वर्ण हो
जाने का उपाय, व्यवस्था
है।
एक तर्जेत्तगाफुल
है सो वह उनको
मुबारक
एक अर्जेत्तमन्ना
है सो हम करते
रहेंगे।
--एक
उपेक्षा है सो
परमात्मा को
छोड़ दिया, वह
करता रहे।
एक तर्जेत्तगाफुल
है सो वह उनको
मुबारक
एक अर्जेत्तमन्ना
है सो हम करते
रहेंगे।
--एक
अभीप्सा है, प्रार्थना
है, वह हम
करते रहेंगे।
एक उपेक्षा है,
तू करते
रहना!
भक्त
कहता है, तू
उपेक्षा करना,
हम अभीप्सा
करेंगे; देखें
कौन जीतता है!
एक तर्जेत्तगाफुल
है सो वह उनको
मुबारक
एक अर्जेत्तमन्ना
है सो हम करते
रहेंगे।
परमात्मा
दूर है, ऐसा
तो सोचना ही
नहीं।
क्योंकि जो
दूर हो सकता
है, वह तो
परमात्मा न
होगा।
परमात्मा तो
वही है जिसने
तुम्हें सब
तरफ से घेरा
है, बाहर
और भीतर सब
तरफ से भरा
है। उसके
अतिरिक्त कुछ
भी नहीं है।
परमात्मा
सर्वस्व है।
परमात्मा सब
कुछ का नाम
है। परमात्मा
कोई व्यक्ति
नहीं है, परमात्मा
समष्टि है।
इसलिए उससे
दूर तो हम नहीं
हैं, लेकिन
जरा हम बेहोश
हैं।
अल्ला
रे बेखुदी कि
तेरे पास
बैठकर
तेरा
ही इंतजार
किया है
कभी-कभी।
हम
बेहोश हैं, बस इतनी ही
बात है। और हम
बेहोश तब तक
रहेंगे, जब
तक हम हैं।
हमारा होना
हमारा बेहोश
होना है। तो
खाक तो होना
पड़ेगा। जलना
तो पड़ेगा। राख
तो होना
पड़ेगा। मगर यही
वास्तविक
होने का उपाय
है।
अभी तो
हम नाममात्र
को हैं, कहने
मात्र को हैं।
अभी हमारे
होने में क्या
है? कोई
सत्व नहीं, कोई सार
नहीं।
तो घबड़ाओ मत।
और यह भी माना
कि--
"आह को चाहिए
एक उम्र असर
होने तक
कौन
जीता है तेरे
जुल्फ के सर
होने तक
हमने
माना कि तगाफुल
न करोगे, लेकिन
खाक
हो जायेंगे हम
तुमको खबर
होने तक।'
हो
जाओ!
तमाम
उम्र तेरा
इंतजार कर
लेंगे
मगर
ये रंज रहेगा
कि जिंदगी कम
है।
करो!
उम्र छोटी पड़
जाये, इंतजार
बड़ा हो जाये।
अनेक उम्रें
समा जायें, इंतजार इतना
बड़ा हो जाये।
प्रतीक्षा
ऐसी घनी हो
जाये कि जन्म
और जीवन पलक
के झपने
जैसे बीतने
लगें। लेकिन
इंतजार का
सिलसिला जारी
रहे। शरीर
बदलें, जीवन
बदलें, योनि
बदले, रूप
बदलें, रंग
बदलें, नाम
बदलें, सब
बदलता
जाये--लेकिन
भीतर की
प्रतीक्षा का
एक सूत्र अनस्यूत
रहे, एक
धागा पिरोया
रहे सारे
मनकों में।
घटना
तो इस क्षण भी
घट सकती है, लेकिन
प्रतीक्षा
अनंत चाहिए।
और घटना बहुत
देर होगी घटने
के लिए, अगर
प्रतीक्षा
में थोड़ी कमी
रही।
जल्दबाजी न करना।
नये
युग ने बड़ी
जल्दबाजी की
है। इसलिए
प्रतीक्षा के गहरे
रूप खो गये
हैं। कोई
प्रतीक्षा
करने को राजी
नहीं है।
पश्चिम से एक
बड़ा बुखार
सारे जगत में
फैला है--तेजी, जल्दी, स्पीड!
तो जैसे इंस्टेंट
काफी, ऐसा
सारा जीवन, सभी कुछ अभी
हो जाये, इसी
क्षण हो जाये,
आज ही हो
जाये! तो
मनुष्य के
जीवन की कुछ
गहराइयां खो
ही गयीं, क्योंकि
कुछ चीजें
धीरे-धीरे
होती हैं। कुछ
चीजें मौसमी
फूलों की तरह
होती हैं--आज लगायीं, तीन सप्ताह
में पौधे हो
जायेंगे, छह
सप्ताह में
फूल आ
जायेंगे--लेकिन
आये नहीं कि
गये भी नहीं।
लेकिन देवदार
और चीड़ के
वृक्ष वर्षों
लेंगे, वर्षों
लगेंगे, बड़े
धीरे-धीरे बढ़ेंगे।
और यह तो
परमात्मा की
खोज तो शाश्वत
वृक्ष है; इसको
रोपना अपने
हृदय में, तो
बड़ी अनंत
प्रक्रिया
है। अब यह अभी
इसी क्षण नहीं
हो सकता।
कल मैं
एक किताब पढ़
रहा था। उसमें
एक अमरीकी प्रार्थना
करता है कि हे
प्रभु! सुनते
हैं धीरज की
बड़ी जरूरत है, तो धीरज दे--लेकिन
अभी और यहीं!
धीरज की बड़ी
जरूरत है! तो
दे, धीरज
दे--लेकिन अभी
और यहीं!
जीवन
में कुछ चीजें
समय मांगती
हैं--और जितनी महत्वपूर्ण
हों उतना
ज्यादा समय
मांगती हैं।
अगर किसी
व्यक्ति से
केवल वासना का
संबंध बनाना
हो तो अभी और
यहीं बन सकता
है, प्रेम का
बनाना हो तो
समय लगेगा। और
प्रार्थना का
बनाना हो तो अनंत
काल लग
जायेंगे। और
परमात्मा का
बनाना हो तो
शाश्वतता
चाहिए। इसका
यह मतलब नहीं
है कि तुम्हें
प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी
शाश्वतता तक। क्योंकि
शाश्वतता ने
अभी और यहां
भी तुम तक अपना
हाथ पहुंचाया
है। तुम
शाश्वत के लिए
तैयार हुए कि
अभी और यहीं
भी घट सकता
है। इसमें जरा
विरोधाभास
लगेगा। इसे
स्पष्ट करके
कहूं।
अगर
तुम शाश्वत
प्रतीक्षा
करने को राजी
हो तो अभी और
यहीं घट सकता
है; क्योंकि
शाश्वत
प्रतीक्षा का
अर्थ हुआ अब
कोई जल्दी
नहीं; तुम
शांत हुए; शिथिल
तुमने छोड़ा; तनाव हटा।
अब तुम्हारी
कोई मांग नहीं
है--हो, जब
हो। अब कोई
जल्दी न रही।
बस इस शिथिल
और शांत मन
में अभी और
यहीं घट सकता
है।
तुमने
मांगा अभी और
यहीं घट जाये
तो तुम इतने तन
गये, इतने
परेशान हो गये
कि कहीं न घटा
और समय बीत गया
तो कहीं समय
फिजूल न चला
जाये।
तुम्हारे तनाव
के कारण ही न
घट पायेगा।
मांग में तनाव
है। यही अभीप्सा
शब्द की खूबी
है।
वासना
का अर्थ है:
मांग है, तनावपूर्ण।
अभीप्सा का
अर्थ है: मांग
है, तनावशून्य। मांगते भी
हैं, जल्दी
भी नहीं है; देना, जब
तुझे देना हो!
तेरी मर्जी! न
देना हो, उसके
लिए भी राजी
हैं!
तीसरा
प्रश्न:
आपके
प्रवचन के समय
मैंने
संन्यासियों
के चेहरे का
अवलोकन किया
है। ऐसा लगता
है कि वे गहरी
नींद में
पहुंच गये
हैं। और मेरा
अपना अनुभव भी
यही है कि
जैसी मीठी, गहरी और
लुभावनी नींद
प्रवचन के समय
लगती है वैसी
और कभी अनुभव
में नहीं आती।
क्या कारण है?
अलग-अलग
लोगों के
अलग-अलग कारण
होंगे। एक
कारण तो बताया
नहीं जा सकता, क्योंकि
यहां बहुत लोग
हैं। लेकिन
फिर भी प्रश्न
विचारणीय है।
पहली
बात, कुछ लोग
तो निश्चित ही
सभी
धर्म-सभाओं
में सो जाते
हैं। यह बचने
की एक तरकीब
है। यह मन की
एक बड़ी
सूक्ष्म
व्यवस्था है।
जिससे तुम
बचना चाहते हो
तो बीच में एक
नींद का पर्दा
डाल लेते हो।
सुना ही नहीं,
तो अपने साथ
ही कूटनीतिक
खेल खेल गये।
सुनने भी गये
तो रस भी ले
लिया कि
धार्मिक
व्यक्ति हैं
और सो भी गये
तो सुना भी
नहीं। तो
दुनिया को दिखाई
भी पड़ा कि
धार्मिक हैं
और झंझट भी न
हुई। धार्मिक
होने की झंझट
में भी न पड़े।
तो एक
तो वर्ग ऐसे
लोगों का है, जो धर्म की
बात पड़ी नहीं
उनके कान में
कि उन्हें
नींद आई नहीं।
यह उनके भीतर
करीब-करीब
यांत्रिक हो
गया है।
मंदिरों में,
चर्चों में
तुम उन्हें
सोता हुआ
पाओगे।
एक
पादरी पूछ रहा
था अपने एक
भक्त को; क्योंकि
पादरी देखता
था, जब भी
वह आता है, सोया
ही रहता है
चर्च में।
उसने उससे एक
दिन पूछा कि
क्या रात नींद
ठीक से नहीं
होती? उस
आदमी ने कहा, रात तो नींद
लगती ही नहीं।
हजार चिंताएं
हैं संसार की,
मगर उसकी
कोई चिंता
नहीं। जब आपका
प्रवचन सुनता
हूं तो खूब
गहरी नींद लग
जाती है।
संसार
की तो चिंता
है, परमात्मा
की तो कोई
चिंता है
नहीं। संसार
के तो विचार
हैं, परमात्मा
का तो कोई
विचार है
नहीं। संसार
की तो भाग-दौड़
है, तो
नींद को खलल
डालती है।
परमात्मा की
कोई भाग-दौड़
तो है नहीं।
तो परमात्मा
की बात सुनकर
कोई
महत्वाकांक्षा
तो जगती नहीं
कि पाना है, उठना है, जागना
है। तो जब
जहां कोई
महत्वाकांक्षा
नहीं उठती तो
आदमी सो जाता
है, करेंगे
भी क्या और?
तुमने
देखा, जब
तुम्हारे पास
कुछ भी करने
को नहीं होता,
तब तुम सो
जाते हो।
करोगे क्या और?
जब तक कुछ
करने को होता
है, तब तक
तुम करते रहते
हो। और तुमने
यह भी देखा
होगा जब
तुम्हारे पास
करने को इतना
कुछ होता है
कि तुम बिस्तर
पर भी पड़ जाते
हो, लेकिन
मन में काम
जारी रहता है,
तो नींद
नहीं आती। तो
जहां काम है
वहां नींद में
बाधा है।
परमात्मा
तुम्हारा कोई
काम तो है नहीं।
वहां कुछ करने
को तो है
नहीं। तुम्हारे
भीतर कोई
अभीप्सा तो है
नहीं; उसे
पाने की कोई
आकांक्षा तो
है नहीं। सुन
लिया, नींद
आ गयी।
तो एक
तो ऐसे लोग
हैं। दूसरे
ऐसे लोग हैं
जो वस्तुतः
नींद में चले
जाते हैं
आकांक्षा के
रहते भी।
परमात्मा को
पाने की प्यास
भी है, किसी
को धोखा देने
नहीं आये हैं;
लेकिन फिर
भी नींद में
चले जाते हैं।
अपने को भी
धोखा नहीं दे
रहे हैं, लेकिन
नींद बरबस पकड़
लेती है। उसका
कारण है--जन्मों-जन्मों
की मन की आदत।
जिस दिशा में
मन कभी गया
नहीं है, उस
दिशा में जाने
से मन इनकार
करता है, जिस
दिशा में मन
को कभी ले
नहीं गये हो
पहले, अनभ्यस्त
है, रास्ता
अपरिचित है, वह वहां
जाने से
बिलकुल इनकार
कर देता है।
वह जमीन पर ही
बैठ जाता है।
वह आंख ही बंद
कर लेता है।
वह कहता है, हम सो ही
जायेंगे। यह
मन का इनकार
है।
तो
दूसरा वर्ग है
जो
निष्ठापूर्वक
समझना चाहता
है; लेकिन
उसका मन इनकार
कर रहा है।
फिर एक
तीसरा वर्ग है, जिसकी नींद
बड़े और कारण
से पैदा हो
रही है। अगर
तुम हृदयपूर्वक
मेरी बातों को
सुन रहे हो तो
एक तरह की
तंद्रा उतर ही
आयेगी। पर वह
नींद नहीं है।
उसको योग अलग
नाम देता
है--तंद्रा।
वह नींद जैसी
है, निद्रा
जैसी है, लेकिन
निद्रा नहीं
है। वह तंद्रा
है। तंद्रा का
अर्थ है: जब
तुम कोई मधुर
संगीत सुनते
हो तो एक ताल
बंध जाती है
भीतर, एक
सुर बंध जाता
है, एक
सन्नाटा खिंच
जाता है, विचार
शांत हो जाते
हैं। एक बड़ी
झपकी, जिसको
तुम जागना भी
नहीं कह सकते,
सोना भी
नहीं कह सकते;
जो दोनों के
मध्य
है--तंद्रा--ऐसी
घड़ी आ जाती
है। न बाहर न
भीतर, देहली
पर खड़े हो
जाते हो, मध्य
में खड़े हो
जाते हो। तुम
यह भी नहीं कह
सकते कि सो
गये थे, क्योंकि
तुम मेरी बात
पूरी तरह
सुनते रहोगे। और
तुम यह भी
नहीं कह सकते
कि तुम जागे
हुए थे; क्योंकि
एक बड़ी राहत, जैसी कि
नींद में भी
नहीं मिलती, एक बड़ी
विश्रांति, तुम्हें उस
तंद्रा से मिल
जाएगी।
तो
तीसरा वर्ग है, जिसकी
निद्रा
तंद्रा के
जैसी है।
इसमें
पहले वर्ग में
अगर तुम हो तो
अच्छा हो, आना बंद कर
देना। अगर
दूसरे वर्ग
में तुम हो तो
संघर्ष करना;
क्योंकि वह
निद्रा
तुम्हारे मन
की पुरानी आदत
है, उसे
तोड़ना पड़ेगा।
अगर तीसरे
वर्ग में तुम
हो तो सौभाग्यशाली
समझना और इस
तंद्रा से
लड़ना मत; इस
तंद्रा में
चुपचाप अपने
को छोड़ देना।
क्योंकि जो भी
मैं कह रहा
हूं, तंद्रा
में कुछ भी चूकेगा
नहीं; वह
तुम्हारे पास
पहुंच ही
जायेगा। यह हो
सकता है कि
शायद तुम बाद
में याद न रख
सको, क्योंकि
याद बहुत
ऊपर-ऊपर है; वह और भी
गहरे पहुंच
जायेगा।
तंद्रा में
अगर तुमने
सुना तो वह
सुनना बड़ा
गहरा है। वह
तुम्हारे
प्राण-प्राण
में उतर
जायेगा। अगर
तुम्हारी
तंद्रा की
स्थिति हो तो
उसे तोड़ने की
कोशिश मत
करना। तब तो
आंख बंद करके
शांति से
उसमें डूब
जाना।
क्योंकि मैं
तुमसे जो कह
रहा हूं, वह
सिर्फ वचन ही
नहीं हैं; मैं
तुमसे जो कह
रहा हूं, उन
वचनों में कुछ
तुम्हें दे भी
रहा हूं। कुछ ऊर्जा
का संचरण हो
रहा है। कोई
ऊर्जा का
संवाद हो रहा
है। अगर तुम
जागे रहे तो
तुम्हारे मन के
विचार चलते
रहेंगे। अगर
तुम सो गये तो
तुम सुन न
सकोगे। अगर
तंद्रा में रहे
तो जागने के
विचार भी न
चलेंगे और
नींद भी न होगी।
बीच में खड़े
देहली पर तुम
मेरे बहुत
करीब आ जाओगे।
तुम्हारा
हृदय मेरे
हृदय के बहुत
करीब धड़कने
लगेगा।
तो सोच
लेना, तुम्हारी
जैसी दशा हो...।
अगर तीसरी हो
तो बड़ी सौभाग्य
की। तंद्रा तो
ध्यान की
अवस्था है।
इसी को तो
सूफियों ने
मस्ती कहा है।
एक नशा चढ़
जाता है। एक
नशे जैसा है।
और लगता है, जिसने पूछा
है, उसकी
स्थिति
तंद्रा की ही
होगी; क्योंकि
मेरा अपना
अनुभव यही है,
उसने कहा है,
कि जैसी
मीठी, गहरी
और लुभावनी...।
तंद्रा
की स्थिति
मीठी है, गहरी
है, लुभावनी
है। लेकिन
तुम्हारे लिए
नयी होगी, इसलिए
तुम उसे
निद्रा समझ
रहे हो। थोड़ी
उसके साथ और
पहचान बढ़ेगी
तो तुम
साफ-साफ देख
लोगे कि जागरण
अलग, निद्रा
अलग, तंद्रा
बिलकुल अलग
है। तंद्रा तो
एक मादक स्थिति
है।
नमाजे-इश्क
का आता भी है, जो होश कभी
तो
बेखुदी मेरी
बढ़कर इमाम
होती है।
--कभी-कभी
जब प्रार्थना
में डूबने की
इच्छा भी होती
है तो तत्क्षण
तल्लीनता
मेरा नेतृत्व
करने लगती है।
नमाजे-इश्क
का आता भी है, जो होश कभी
तो
बेखुदी मेरी
बढ़कर इमाम
होती है।
--तो
तत्क्षण मेरी
तल्लीनता आगे
आ जाती है और
मार्गदर्शक
हो जाती है।
यह तंद्रा वही
तल्लीनता है
जो
मार्गदर्शक
बन जाती है।
फिर फिक्र मत
करना। अगर
तीसरी तरह की
तंद्रा हो तो
यह भी मत
सोचना कि लोग
क्या कहेंगे।
यह भी मत
सोचना कि यह
कहीं कोई नियम
का उल्लंघन तो
नहीं हो रहा
है। यह भी मत
सोचना कि यह
कहीं बुरा तो
नहीं है कि
मैं बोल रहा
हूं, और
तुम सो रहे
हो। नहीं, यह
नींद है ही
नहीं। यह तो
प्रेम की एक
बड़ी गहरी दशा
है। मेरे शब्द
तुम्हारे लिए
एक गहरा संगीत
लेकर आ रहे
हैं। तुमने
शब्दों को ही
नहीं सुना है,
संगीत को भी
पीना शुरू कर
दिया है।
मोहब्बत
में नियाज़
और हुस्ने-महवे-नाज
क्या मानी
मैं
इस दस्तूर को
तरमीम के
काबिल समझता
हूं।
और
जहां प्रेम है, वहां
नियम-उल्लंघन
हो सकता है।
क्योंकि प्रेम
इतना परम नियम
है कि फिर
किसी और नियम
की कोई जरूरत
नहीं है। तो
तुम केवल
शिष्टाचार के
कारण
सम्हालकर और
आंख खोलकर मत
बैठे रहना।
अगर तंद्रा
तुम्हें
अनुभव होती हो
तो...
मोहब्बत
में नियाज़
और हुस्ने-महवे-नाज
क्या मानी?
तो फिर
प्रेम में
नम्रता और
अहंकार तक का
कोई मूल्य
नहीं।
मैं
इस दस्तूर को
तरमीम के
काबिल समझता
हूं।
फिर तो
सभी दस्तूर
तरमीम के
काबिल हैं।
फिर तो
शिष्टाचार की
फिक्र छोड़ो।
प्रेमी के लिए
कोई नियम नहीं
है। मगर बहुत
गौर से देखना।
कहीं ऐसा न हो
कि नींद पहले
तरह की हो! अगर
पहले तरह की
हो तो अपने को
सम्हालना। या
तो आना बंद
करो...।
एक
चर्च में ऐसा
हुआ एक बूढ़ा
आदमी, लेकिन
करोड़पति,
सामने ही
बैठता था। और
जब पादरी
बोलता तो न केवल
वह सोता, बल्कि
घुर्राता भी।
तो उससे और
चर्च के लोगों
को भी अड़चन
होती। उससे
कुछ कहा भी
नहीं जा सकता
था, क्योंकि
वह करोड़पति
था और उसके
दान पर चर्च
चलता था। उसे
यह भी नहीं
बताया जा सकता
कि तुम
घुर्राते हो।
तो
पादरी ने एक
तरकीब खोज ली।
उसके साथ एक
छोटा बच्चा भी
आता था, उसका
वह नाती-पोता।
उसने छोटे
बच्चे को एक
दिन बुलाया और
कहा कि देख तू
अपने दादा को
जब वे घुर्राने
लगें, हिला
दिया कर। मैं
तुझे चार आने
दिया करूंगा रोज।
उसने कहा, ठीक!
तो वह बच्चा, जब भी उसका
दादा घुर्राने
लगता, उसको
तो बच्चे को
कोई मतलब भी
नहीं था
प्रवचन से, वह अपने
दादा ही पर
नजर रखता, उनको
हिला देता।
ऐसा दोत्तीन
दिन तो चला, लेकिन चौथे
दिन देखा कि
बच्चे ने
हिलाया नहीं।
तो, पादरी
ने उसे बुलाया
कि क्यों, क्या
हुआ? उसने
कहा, मेरे
दादा ने कहा
कि देख, अगर
तू मुझे नहीं
हिलायेगा तो
मैं एक
रुपया...। अब आप
सोच लो उसने
कहा, रुपया
मिल रहा है!
अगर
पहली, ऐसी
दशा हो तो कोई
जरूरत नहीं
है। कोई
प्रयोजन नहीं
है। जाना
क्यों ऐसी जगह
जहां नींद आती
हो? घर ही
सोया जा सकता
है, सुगमता
से, सुविधा
से। यहां
बैठकर सख्त
पत्थर पर, नींद
भी मुश्किल
होती होगी।
तुम तो कष्ट
दोगे, पाप
मुझको भी
लगेगा।
अगर
दूसरी तरह की
नींद हो तो
फिर कोई फिक्र
नहीं। फिर
अपने को जगाने
की कोशिश
करना। अगर दूसरी
तरह की नींद
हो कि मन की
पुरानी आदत के
कारण आ जाती
हो, तो मन की
आदतें तो तोड़नी
हैं, उनसे
तो संघर्ष
करना होगा। और
जब पहली और
दूसरी तरह की
नींद विदा हो
जायेगी तो
तीसरी तरह की
नींद की
संभावना शुरू
होती है। और
जब तीसरी आ
जाये तो डरना
मत; फिर
उसमें लीन
होना, डूबना।
आखिरी
प्रश्न:
संन्यास
के शुरू के
कुछ साल इस
भ्रम में जीती
रही कि मैं
संन्यासिनी
हूं। वे बड़े
सुख और आनंद
के दिन थे।
किंतु अब जो
आप संन्यास के
फूल की बात
करते हैं तो
मैं अपने को
बहुत अयोग्य
पाती हूं।
जमीन से पैर
उखड़ गये, लेकिन पंख
अभी तक नहीं
उगे। यह कैसी
अवस्था है कि
एक ओर कीर्तन,
नाच और
भक्ति में लीन
होती हूं, तो
दूसरी ओर
ध्यान और होश
भी पकड़ता
है। और यह
संसार... उफ...कब
तक चलेगा?
"संन्यास
के शुरू के
कुछ साल इस
भ्रम में जीती
रही कि मैं
संन्यासिनी हूं।
वे बड़े सुख और
आनंद के दिन
थे।'
भ्रम
के दिन सदा ही
सुख और आनंद
के दिन होते
हैं। लेकिन
भ्रम के साथ
एक ही खतरा है
कि वह सदा नहीं
चल सकता; वह
एक दिन टूटता
ही है। और जब
टूटता है तो
पीड़ा होती है।
लेकिन उसका
टूट जाना शुभ
है। और अब जब
मैं कह रहा
हूं कि
संन्यास केवल
लेने की बात
नहीं है...लेने
से तो शुरुआत
होती है, अंत
नहीं।
संन्यासी
बनने का जब
तुम निर्णय करते
हो, संकल्प
करते हो, समर्पण
करते हो, तो
वह तो यात्रा
का पहला कदम
है। वहीं
बैठकर प्रसन्न
मत होते रहना।
नहीं तो मंजिल
कभी घर न
आयेगी; तुम
कभी मंजिल तक
न पहुंचोगे।
उचित है कि
पहला कदम भी
उठाया। यह भी
सौभाग्य था।
इसके लिए गुनगुनाना,
गीत गाना, नाच लेना, प्रसन्न
होना; लेकिन
यात्रा जारी
रखनी है। आगे
जाना है! रोज आगे
जाना है! और
जितने तुम आगे
जाने लगोगे, उतने मैं
तुम्हें और
आगे की यात्रा
के इशारे देने
लगूंगा।
तो
पहले तुमसे
कहता हूं, संन्यास
सिर्फ एक
भाव-भंगिमा
है। वह तो
तुम्हें
फुसलाने के
लिए। वह तो
तुम्हें राजी
कर लेने के
लिए। तुमसे
कहता हूं, यहीं
पास रहा, दो
कदम जाना है।
जब तुम दो कदम
उठा लेते हो, तब मैं कहता
हूं कि अब दो
कदम और। ऐसे
दो-दो कदम
तुम्हें बढ़ाकर
हजारों कदम उठवाये जा
सकते हैं। अगर
मैं तुमसे
कहूं हजार कदम
पहले से, तो
शायद तुम पहला
कदम भी न
उठाओ।
तुमने
हिम्मत इतनी
खो दी है, आत्मविश्वास
इतना खो दिया
है। तुम बड़ी
क्षुद्र
बातों से
प्रभावित
होते हो। हजार
कदम, तो
शायद हजार कदम
की बात रुकावट
ही बन जाये।
इसलिए मैंने
संन्यास को
इतना सरल बना
दिया है जितना
सरल हो सकता
है। सिर्फ
संन्यास लेने
की आकांक्षा को
मैं कहता हूं
काफी है, बस,
और कोई
पात्रता
नहीं। लेकिन
एक बार तुम
संन्यासी
होने का पहला
कदम उठाये, तो यात्रा
शुरू हुई। फिर
मैं पात्रता
की बात भी
करूंगा। फिर
कैसे जीवन के
फूल खिलें,
उनकी दिशा
में तुम्हें
संलग्न भी
करूंगा। और एक
बार तुम मेरे
साथ आ गये, चल
पड़े, तो
मैं जानता हूं
वापस लौटना
आसान नहीं। एक
बार इतनी भी
हिम्मत कर ली
कि मेरे रंग
में रंगे, कि
गैरिक
वस्त्रों में
डूबे, कि फिर
तुम भाग न
सकोगे।
अंगुली पकड़ ली
तो फिर पहुंचा
भी पकड़ लूंगा।
एक बार अंगुली
हाथ में लेता
हूं, तुम
सोचते हो, क्या
हर्जा है, अंगुली
ही तो है कोई; जब चाहेंगे
तब छुड़ा
लेंगे। तुमसे
मैं कहता हूं,
अंगुली
काफी है; इतने
से काम हो
जायेगा। इतने
से काम न
होगा। इतने से
काम शुरू होता
है।
तो
स्वभावतः
देर-अबेर
प्रत्येक को
ऐसा लगेगा कि
यह तो बड?ी
मुश्किल हुई।
हम तो सोचे थे
सरल है; यह
तो कठिन होने
लगी बात। यह
तो मार्ग
ऊंचाइयों पर चढ़ने लगा।
हम तो सोचे थे,
समतल है। हम
तो सोचे थे, राजपथ है; ये तो
पगडंडियां
फूटने लगीं, और जंगल में
अकेले की
यात्रा होने
लगी।
लेकिन
उस तक पहुंचने
के लिए बहुत
कुछ चुकाना पड़ता
है। अपने पूरे
जीवन की ही
आहुति देनी
पड़ती है। तो
अड़चन से घबड़ाना
मत।
और
अयोग्यता का
बोध पैदा हो
रहा हो तो इसे
शुभ मानना; क्योंकि
अयोग्यता का
बोध केवल
उन्हीं को होता
है, जिनके
भीतर थोड़ी
बुद्धिमत्ता
है। मूढ़
तो अपने को
योग्य ही
समझते हैं।
उन्हें अयोग्यता
का तो पता ही
नहीं चलता।
अज्ञानी तो
अपने को
ज्ञानी ही
मानते हैं। यह
तो सिर्फ
ज्ञानियों को
पता चलता है
कि हम अज्ञानी
हैं। इसलिए अगर
अयोग्यता का
बोध हो रहा है
तो दुखी मत
होना। यह तो
पहली सूरज की
किरण फूटी। यह
तो पहला दीया
जला। अब इसी
दीये से
योग्यता पैदा
होगी।
अयोग्यता का
पता चल गया तो
अयोग्यता से
मुक्त हो जाना
बहुत आसान है।
अयोग्यता का
पता ही न चलता
हो तो फिर कैसे
मुक्त हो
सकोगे?
"जमीन
से पैर उखड़
गये हैं, लेकिन
पंख अभी तक
नहीं उगे
हैं...।'
ठीक
है। जहां तुम
जा रहे थे
वहां से
तुम्हें खींच
लिया है। वह
दिशा समाप्त
हुई। उस तरफ
रस बंद हुआ।
लेकिन जहां
तुम्हें ले
जाना है, उस
दिशा में
लगाने के लिए
तुम्हारे
भीतर पात्रता
लानी होगी।
पुराने
रास्ते पर
चलने की तुम्हारे
पास कुशलता
है। पुराना
रास्ता तो हटा
दिया, नये
रास्ते पर
तुम्हें लगा
दिया; लेकिन
नये रास्ते की
कुशलता सीखनी
होगी। जड़ें तो
टूट गयीं, ठीक
हुआ; जमीन
से पैर उखड़
गये, ठीक
हुआ। यह पहला
कदम तो हुआ
आकाश में उड़ने
का; लेकिन
पंख पैदा करने
होंगे। या
होंगे मौजूद तो
जन्मों-जन्मों
से उनका उपयोग
नहीं किया; उनका उपयोग
सीखना पड़ेगा।
लेकिन शुभ है
कि कम से कम
आधा तो हुआ।
जमीन से पैर
तो उखड़ गये।
अब जमीन पर
खड़े होने की
तो जगह न रही।
अब तो पंख
खोजने ही
पड़ेंगे।
और
ध्यान रखना, जब तक कि
जीवन संकट में
न पड़ जाये, जीवन
नये की खोज
नहीं करता।
नये की खोज
संकट में होती
है। जब इतना
संकट आ जाता
है कि कुछ
करना ही होगा,
तभी नये की
खोज होती है; अन्यथा मन
बड़ा आलसी है।
तो अगर
तुम्हारी
जमीन मैंने
छीन ली तो अब
तुम तड़फड़ाओगे, फेंकोगे
हाथ-पैर।
उन्हीं
हाथ-पैर के
फेंकने से
पंखों का जन्म
होगा। पंख तो
हैं, तुम
भूल ही गये हो;
तुम्हें
याद ही न रही।
शुरू-शुरू
में तड़फड़ाहट
करोगे तो एकदम
से उड़ना न
आ जायेगा। उड़ने
के लिए बड़ी
कुशलता
चाहिए। वह
कुशलता
धीरे-धीरे
पैदा होगी।
लेकिन तुम उड़
सकोगे।
क्योंकि आकाश
ही, अनंत
आकाश ही--कहो
उसे परमात्मा,
मोक्ष, निर्वाण--तुम्हारी
नियति है। और
जो पक्षी उस आकाश
में नहीं उड़ा,
घोंसले में
ही बैठा रह
गया, उसके
अभाग्य को
क्या कहें!
पैदा हुआ था
कि उड़े
आकाश में।
लेकिन पैदा तो
घोंसले में
होना पड़ता है;
आकाश में तो
कोई भी पक्षी
का अंडा रखा
नहीं जा सकता।
अंडा तो रखना
पड़ता है
घोंसले में।
लेकिन अंडा
फूट जाये और
पक्षी वहीं
बैठा रहे घोंसले
में और डरे...और
डर उसका
स्वाभाविक है,
कभी उड़ा
नहीं पहले...।
तो
मैंने तुमसे
तुम्हारा
घोंसला तो छीन
लिया; अब
बैठने की तो
कोई जगह नहीं
है। उड़ना
ही पड़ेगा! और
तुम उड़ोगे।
तुमने
देखा, जो
लोग तैरना
सिखाते हैं, वे करते
क्या हैं? वे
नये व्यक्ति
को पानी में
फेंक देते
हैं। और कुछ
भी नहीं करते।
लेकिन पानी
में गिरकर कोई
भी हाथ-पैर फेंकेगा
ही, अपने
को बचाने के
लिए फेंकेगा।
वही तैरने का
पहला चरण है।
फिर धीरे-धीरे
कुशलता आ जाती
है। फिर वह
देखता है, कैसे
ढंग से फेंकना;
कैसे कम
शक्ति लगे और
फेंकना। फिर
धीरे-धीरे तो
बिना फेंके भी
तैरने लगता
है।
ऐसा ही
आत्मिक जगत भी
है। और इसमें
ध्यान रखना, ऐसा एक बार
होगा, ऐसा
नहीं; बहुत
बार होगा।
क्योंकि फिर
तुम एक ऊंचाई
पर अपना घर
बना लोगे, फिर
मैं उसे उखाड़
दूंगा, ताकि
नयी ऊंचाई पर
तुम उठो।
गुरु
का काम ही
इतना है कि वह
उस समय तक
तुम्हें धक्का
दिये चला जाये, जब तक तुम
वहां न पहुंच
जाओ, जिसके
आगे फिर कोई
ऊंचाई नहीं।
परमात्मा तक जब
तक तुम्हें न
पहुंचा दे, तब तक
तुम्हारे
पीछे लगा ही
रहे; तब तक
तुम्हें
परेशान करता
ही रहे; तब
तक जैसे भी
हो--कभी
तुम्हें सुख
देकर, कभी
तुम्हें दुख
देकर; कभी
तुम्हारी पीठ थपथपाकर
और कभी
तुम्हारी
लानत-मनामत
करके; कभी
तुम पर क्रोध
जाहिर करके और
कभी तुम पर प्रेम
जाहिर
करके--लेकिन
तुम्हें
धकाता ही रहे।
क्योंकि
तुम्हारा मन
तो कहेगा, बस
यहीं रुक
जायें। तुम तो
हर जगह रुक
जाने को तत्पर
हो; क्योंकि
रुक जाने में
विश्राम है।
चलने में श्रम
है।
लेकिन
मैं तुम्हें
उस क्षण तक
चलाता रहूंगा, जब तक कि परम
विश्राम न आ
जाये। परम
विश्राम यानी
परमात्मा।
परम विश्राम
यानी मोक्ष।
जिससे फिर
पीछे गिरना
नहीं होता और
जिसके पार फिर
कुछ और शेष
नहीं है--ऐसे
परम सत्य को
पाने के पहले
बहुत बार तुम
मुझसे नाराज
भी होने
लगोगे।
क्योंकि तुम
सस्ता चाहते
हो। क्योंकि
तुम सदा चाहते
हो कि मुफ्त
में मिल जाये।
तुम सदा चाहते
हो कि
तुम्हारे
बिना कुछ किये
मिल जाये। तो
तुम भाग ही न
जाओ, इसलिए
मैं कभी-कभी
ऐसा भी कहता
हूं; बिना
किये कुछ मिल
जायेगा। तो
तुम रुके भी
रहते हो कि
शायद अब मिलता
हो। लेकिन
बिना किये कुछ
भी नहीं
मिलता। तो
तुम्हें
रोकने के लिए
कह देता हूं, बिना किये
भी मिल जायेगा,
प्रभु के
प्रसाद से भी
मिल जायेगा।
तो तुम रुके
रहते हो आशा
में। और यहां
तुम्हारे साथ
मैं चेष्टा
में लगा रहता
हूं कि तुम
कुछ करने लगो।
क्योंकि उसका
प्रसाद भी
उन्हीं को
मिलता है जो
कुछ करते हैं।
तो घबड़ाना
मत, बेचैन मत
होना। यह शुभ
है कि
अयोग्यता
दिखाई पड़ी। यह
शुभ है कि वह
सस्ती
प्रसन्नता जो
संन्यास लेने
से ही आ गयी थी,
खो गयी। अब
असली
संन्यासी
बनना!
थोड़ा
सोचो! मात्र
वस्त्र बदलने
से प्रसन्न हो
गये थे; जिस
दिन आत्मा
बदलेगी तो
क्या होगा!
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
जवाब देंहटाएंOsho Naman
जवाब देंहटाएंधन्य धन्य सद्गुरू ओशो
जवाब देंहटाएं