जिनसूत्र--(भाग--2)
सूत्र:
जेण तच्चं विवुज्झेज्ज,
जेण चितं
णिरूज्झदि।
जेण अत्ता
विसुज्झेज्ज,
तं णाणं जिणसासणे।।
85।।
जेण रागा विरज्जेज्ज,
जेण सेए
सु रज्जदि।
जेण मित्ती पभावेज्ज,
तं णाणं जिणसासणे।।
86।।
जे
पस्सदि अप्पाणं,
अबद्धपुट्ठं
अणन्नमविसेसं।
अपदेससुत्तमज्झं,
पस्सदि जिणसासणं सव्वं।। 87।।
जो
अप्पाणं
जाणदि,
असुइ—सरीरादु
तच्चदो भिन्नं।
जाणग—रूव—सरूवं,
सो सत्थं
जाणदे सव्वं।। 88।।
एदम्हि रदो णिच्चं,
संतुट्ठो
होहि णिच्चमेदिम्हि।
एदेण होहि तित्तो,
होहिदि तुह उत्तमं
सोक्खं।।
89।।
एक
यहूदी लोककथा
है।
एक
फकीर किसी
बंजारे की
सेवा से बहुत
प्रसन्न हो
गया। और उस
बंजारे को
उसने एक गधा
भेंट किया।
बंजारा बड़ा
प्रसन्न था
गधे के साथ, अब उसे पैदलयात्रा
न करनी पड़ती।
सामान भी अपने
कंधे पर न
ढोना पड़ता। और
गधा बड़ा
स्वामिभक्त
था।
लेकिन
एक यात्रा पर
गधा अचानक
बीमार पड़ा और
मर गया। दुख
में उसने उसकी
कब्र बनायी, और उस कब्र
के पास बैठकर
रो रहा था कि
एक राहगीर
गुजरा।
उस
राहगीर ने
सोचा कि जरूर
किसी महान
आत्मा की
मृत्यु हो
गयी। तो वह भी
झुका कब्र के
पास। इसके
पहले कि
बंजारा कुछ
कहे, उसने कुछ
रुपये कब्र पर
चढ़ाये।
बंजारे को
हंसी भी आयी।
लेकिन तब उस
भले आदमी की
श्रद्धा को
तोड़ना भी ठीक
मालूम न पड़ा।
और फिर उसे यह
भी समझ में
आया कि यह तो
बड़ा उपयोगी व्यवसाय
हो गया।
फिर वह
उसी कब्र के
पास बैठकर
रोता, यही
उसका धंधा हो
गया। लोग आते,
गांव-गांव
खबर फैल गयी
कि किसी महान
आत्मा की
मृत्यु हो गयी;
और गधे की
कब्र किसी
पहुंचे हुए
फकीर की समाधि
बन गयी। ऐसे
वर्ष बीते, वह बंजारा
बहुत धनी हो
गया।
फिर एक
दिन जिस सूफी
साधु ने उसे
यह गधा भेंट किया
था वह भी
यात्रा पर था
और उस गांव के
करीब से
गुजरा। उसे भी
लोगों ने कहा, एक महान
आत्मा की कब्र
है यहां, दर्शन
किये बिना मत
चले जाना। वह
गया। देखा वहां
उसने इस
बंजारे को
बैठा, तो
उसने कहा, अरे!
किसकी कब्र है
यह? और तू
यहां बैठा
क्यों रो रहा
है? उस
बंजारे ने कहा,
अब आप से
क्या छिपाना,
जो गधा आपने
दिया था, उसी
की कब्र है।
जीते जी भी
उसने बड़ा साथ
दिया, मरकर
और भी ज्यादा
साथ दे रहा
है। सुनते ही
फकीर
खिलखिलाकर
हंसने लगा। उस
बंजारे ने
पूछा, आप
हंसे क्यों? फकीर ने कहा,
तुझे पता है,
जिस गांव
में मैं रहता
हूं वहां भी
एक पहुंचे हुए
महात्मा की
कब्र है। उसी
से तो मेरा
काम चलता है।
वह किस
महात्मा की
कब्र है, तुझे
मालूम? उसने
कहा मुझे कैसे
मालूम, आप
बतायें। उसने
कहा, वह
इसी गधे की
मां की कब्र
है।
धर्म
के नाम पर
अंधविश्वासों
का बड़ा
विस्तार है।
धर्म के नाम
पर थोथे, व्यर्थ
के क्रियाकांडों,
यज्ञों, हवनों
का बड़ा
विस्तार है।
फिर जो चल पड़ी
बात, उसे
हटाना
मुश्किल हो जाता
है। जो बात
लोगों के मन
में बैठ गयी, उसे मिटाना
मुश्किल हो
जाता है। और
इसे बिना मिटाये
वास्तविक
धर्म का कोई
जन्म नहीं हो
सकता।
अंधविश्वास न
हटे, तो
धर्म का दीया
जलेगा ही
नहीं।
अंधविश्वास उसे
जलने ही न
देगा।
महावीर
के सामने यह
बड़े से बड़ा
सवाल था। दो
विकल्प थे।
दोनों खतरनाक
थे। सभी
बुद्धिमान
व्यक्तियों
के सामने यही
सवाल है। और
दो ही विकल्प
हैं। एक
विकल्प है
नास्तिकता का, जो
अंधविश्वास
को इनकार कर
देता है। और
अंधविश्वास
के साथ-साथ
धर्म को भी
इनकार कर देता
है। क्योंकि
नास्तिकता
देखती है इस
धर्म के ही कारण
तो
अंधविश्वास
खड़े होते हैं।
तो वह कूड़े-कर्कट
को तो फेंक ही
देती है, साथ
में उस सोने
को भी फेंक
देती है।
क्योंकि इसी
सोने की वजह
से तो कूड़ा-कर्कट
इकट्ठा होता
है। न रहेगा
बांस न बजेगी बांसुरी;
वैसा
नास्तिक का
तर्क है।
नास्तिक
बहुत थे भारत
में जब महावीर
पैदा हुए।
चार्वाक की
बड़ी गहन
परंपरा थी।
चार्वाक शब्द
ही आता है चारुवाक
से। इसका अर्थ
होता है, जो
वचन सभी को
प्रीतिकर
लगते हैं।
चारु वाक। जो
धारणा सभी को
प्रीतिकर
लगती है।
ईश्वर नहीं है,
बहुत गहरे
में सभी को
प्रीतिकर
लगता है। क्योंकि
ईश्वर नहीं है
तो तुम अनुभव
करते हो कि
तुम स्वतंत्र
हो। फिर
तुम्हारे ऊपर
कोई भी नहीं
है। ईश्वर
नहीं है, तो
फिर न कुछ पाप
है, न
पुण्य है। फिर
जो मर्जी हो
करो। चार्वाकों
का दूसरा नाम
है लोकायत।
लोकायत का
अर्थ भी होता
है, जो लोक
को प्रिय है।
जो अधिकतम
लोगों को
प्रिय है।
तो
चाहे तुम्हें
ऊपर से अधिकतम
लोग धार्मिक
मालूम पड़ते
हों, लेकिन
भीतर से जांचने
जाओगे तो
अधिकतम को तुम
नास्तिक
पाओगे। भला मंदिर-मस्जिद
में मिलें वे
तुम्हें, पूजा-प्रार्थना
करते मिलें, लेकिन
अंतर्तम में
वे नास्तिक
हैं। वे जानते
हैं कि ईश्वर
इत्यादि है
नहीं।
क्योंकि ईश्वर
के होने का
अर्थ होता है,
एक महान
उत्तरदायित्व।
फिर एक-एक कदम
सम्हालकर
रखना होगा।
फिर पाप और
पुण्य का
विचार करना
होगा। फिर तुम
जो कर रहे हो, उसका निर्णय
होने को है।
रत्ती-रत्ती
का हिसाब
चुकाना होगा।
ईश्वर की
मौजूदगी घबड़ाती
है। कोई भी तो
नहीं चाहता कि
सिर पर कोई और
हो। ईश्वर के
हटते ही
मनुष्य अपना
खुद मुख्तार
हो जाता है।
सब कुछ अपने
हाथ में आ
जाता है।
चार्वाकों
ने कहा है--ऋणं
कृत्वा घृतं पिवेत।
अगर ऋण
लेकर भी घी
पीना पड़े, कोई फिकिर
नहीं। ले लो
ऋण। देना-लेना
किसको है!
बचता कौन है!
लौटकर आता कौन
है! मरने के
बाद कोई हिसाब
नहीं है। न
कर्म का, न
पाप का, न
पुण्य का; न
शुभ का, न
अशुभ का। कर
लो जो करना
है। एक ही
खयाल रखो, भोग
लो, छीन-झपट
से सही, चोरी-चपाटी से
सही, लेकिन
एक ही मूल्य
है नास्तिक के
सामने--किसी भी
तरह भोग लो।
चूस लो जीवन
में जो मिला
है। फिर आना
नहीं होगा।
बचोगे भी
नहीं। मिट्टी,
मिट्टी में
गिरेगी और मिट
जायेगी। तो
नास्तिक
अंधविश्वास
से तो बच जाते
हैं, लेकिन
साथ ही धर्म
से भी बच जाते
हैं।
फिर
दूसरा
सामान्य
विकल्प है
तथाकथित
धार्मिक आदमी
का। वह धर्म
को तो पकड़ता
है, लेकिन
धर्म के साथ
इतना कूड़ा-कर्कट
ले आता है कि उस
कूड़े-कर्कट
के कारण धर्म
के हीरे को
खोजना ही मुश्किल
हो जाता है।
महावीर
जब जन्मे, दोनों
विकल्प थे। एक
तरफ आस्तिक
था। धर्म का जाल
था और उस धर्म
में फंसे हुए
लोग थे, जो
केवल
पुरोहित-पंडित
के हाथ में
फंस गये थे।
परमात्मा तक
पहुंचने का
कोई उनके पास
उपाय न था।
पंडित ही बीच
में उन्हें
लूटे ले रहा
था। और दूसरी
तरफ नास्तिक
थे, जिन्होंने
पंडित को
इनकार किया, साथ ही
परमात्मा को
भी फेंक दिया
था।
महावीर
के सामने सवाल
था धर्म बच
जाए और अंधविश्वास
हट जाए। तो
उन्होंने एक
ऐसे धर्म को
जन्म दिया, जिसमें
नास्तिकता भी
है और आस्तिकता
भी। यह उनका
अदभुत समन्वय
था। इसलिए उन्होंने
कहा, ईश्वर
तो नहीं है।
क्योंकि
ईश्वर के साथ
अंधविश्वास
आने शुरू हो
जाते हैं।
ईश्वर किसी की
पकड़ में आता
नहीं। न समझ
में आता।
ईश्वर इतने दूर
का तारा है कि
हमारी आंखें
उसे देख भी
नहीं पातीं।
तो स्वभावतः
इतने दूर की
चीज को समझने
के लिए बीच
में दलाल खड़े
करने होते
हैं। यात्रा
इतनी लंबी है
कि बीच के पड़ाव
बनाने पड़ते
हैं। वे ही पड़ाव
मंदिर और
मस्जिद, गुरुद्वारा
बन जाते हैं।
वे ही पड़ाव
पंडित-पुरोहित
बन जाते हैं।
तो
पुरोहित कहने
लगता है, तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ता, लेकिन
मेरा सीधा
संबंध है।
पुरोहित कहने
लगता है, तुम
फिकिर मत
करो, तुम्हारे
लिए मैं
प्रार्थना कर
दूंगा। तुम चिंता
छोड़ो। यह
तुमसे न हो
सकेगा। तुम
बड़े असहाय, बड़े कमजोर, बड़े सीमित
हो। तो एक
व्यवसाय खड़ा
होता है मनुष्य
और परमात्मा
के बीच में।
परमात्मा तो
नहीं मिलता, परमात्मा के
नाम पर धोखाधड़ी
हाथ में आती
है।
तो
महावीर ने
परमात्मा को
तो इनकार कर
दिया। इसलिए
नहीं कि
परमात्मा
नहीं है।
बल्कि इसलिए कि
परमात्मा के
कारण ही
आस्तिक
आस्तिक नहीं हो
पा रहा है।
महावीर परम
आस्तिक थे
इसलिए परमात्मा
को इनकार कर
दिया।
क्योंकि देखा, यह औषधि तो
बीमारी से भी
महंगी पड़ रही
है। इस औषधि
को लाते ही
चिकित्सक बीच
में खड़ा हो
जाता है। बीच
में दुकानदार
खड़ा हो जाता
है। परमात्मा
को इनकार कर
दिया। लेकिन
परमात्मा को
इस तरह इनकार
नहीं किया
जैसा चार्वाक,
लोकायत और
नास्तिक करते
हैं।
परमात्मा
को बाहर तो इनकार
कर दिया और
भीतर स्थापित
कर दिया। कहा, मनुष्य के
भीतर है
परमात्मा। जो
भीतर है, उसके
लिए पंडित और
पुरोहित की
जरूरत नहीं।
वह इतने पास
है, जगह
कहां कि तुम
अपने बीच और
परमात्मा के
बीच में
पुरोहित को
खड़ा कर लो।
इतनी भी जगह
नहीं। इतना भी
स्थान नहीं।
तुम ही परमात्मा
हो। इसलिए
कहीं दूर का
संदेश नहीं है,
संदेशवाहक
की जरूरत नहीं
है। कहीं
चिट्ठी-पाती
लिखनी नहीं है,
इसलिए
डाकिये की कोई
जरूरत नहीं
है। आंख बंद करो,
जागो, वह मौजूद
है।
इसलिए
महावीर ने
आत्मा को
परमात्मा के
पद पर उठाया।
यह बड़ी अनूठी
दृष्टि थी। इस
तरह नास्तिक
के पास जो
खूबी की बात
थी--अंधविश्वास
नहीं--वह भी
महावीर ने
पूरी कर ली और
आस्तिक के पास
जो खूबी की
बात थी--धर्मभाव, श्रद्धा--वह
भी पूरी कर
ली। ऐसा अदभुत
समन्वय न इसके
पहले कभी हुआ
था, न इसके
बाद हुआ।
कुफ्रो-इलहास
से नफरत है
मुझे
और मज़हब से भी बेज़ार हूं
मैं
नास्तिकता
और अधर्म से
भी नफरत है, और मजहब से
भी बेजार हूं
मैं। और धर्म
के नाम पर जो
चल रहा है, वह
भी मन को बहुत
पीड़ा देता है।
कुफ्रो-इलहास
से नफरत है
मुझे
और मज़हब से भी बेज़ार हूं
मैं
हूरो-गिल्मां
का यहां जिक्र
नहीं
नौए-इंसा
का परस्तार
हूं मैं
और
यहां स्वर्ग
के सुखों की
कोई बात नहीं, मैं तो
सिर्फ आदमी का
उपासक हूं।
महावीर ने आदमी
को, "अत्ता'
को, आत्मा
को
सर्वश्रेष्ठ
स्थान पर रखा।
महावीर ने
मनुष्य को
जैसी महिमा दी,
किसी ने कभी
न दी थी।
इस बात
को खयाल में
लेकर चलें तो
आज के सूत्र साफ
हो सकेंगे।
क्योंकि आज के
सूत्र मनुष्य
की स्तुति में
कहे गये सूत्र
हैं। आज के
सूत्र मनुष्य
की महिमा के
गीत हैं। इस
महिमा की
तुम्हें
जरा-सी भी झलक
मिलनी शुरू हो
जाए तो तुम
क्षुद्र से
अपने-आप मुक्त
होने लगोगे।
तुम्हें
जरा-सी भी याद
आ जाए कि तुम कौन
हो, जैसे
किसी भिखमंगे
को याद आ जाए
कि अरे! मैं
कहां भटक रहा
हूं, मैं
तो राजपुत्र
हूं! जैसे
किसी भिखमंगे
को याद आ जाए
भूला-बिसरा धन,
कि जहां
बैठकर भीख
मांग रहा है, वहीं उसकी तिजोड़ी गड़ी है।
याद आते
ही--अभी तिजोड़ी
खोदी भी नहीं
है--लेकिन याद
आते ही
भिखमंगा भिखमंगा
नहीं रहा, उसके
हाथ का भिक्षापात्र
गिर जाएगा।
मैंने
सुना है, एक
सम्राट अपने
बेटे से नाराज
हो गया तो उसे
निकाल दिया, राज्य के
बाहर। राजा का
बेटा था, कुछ
और करना जानता
भी न था।
मजदूरी कर न
सकता था। कभी
सीखी नहीं कोई
बात। कोई
कला-कौशल न
आता था। तो जब
कभी राजा हट
जाए राज्य से,
तो भिखारी
होने के सिवाय
कोई उपाय नहीं
रह जाता। तो
यह कुछ
आश्चर्यजनक
नहीं कि
महावीर और
बुद्ध दोनों
राजपुत्र थे
और दोनों ने
जब राज्य छोड़ा,
तो दोनों
भीख मांगने
लगे। यह कुछ
आश्चर्य की बात
नहीं।
राजपुत्र और
कुछ जानता
नहीं। या तो वह
सम्राट हो
सकता है, और
या भिखारी हो
सकता है। एक
अति से दूसरी
अति पर ही जा
सकता है। बीच
में कोई जगह
नहीं। वह
राजपुत्र भीख
मांगने लगा
किसी दूर की
राजधानी में।
वर्षों
बीत गये। भूल
ही गया यह बात
धीरे-धीरे।
रोज-रोज भीख
मांगो तो कहां, कैसे याद
रहे कि तुम
सम्राट के
बेटे हो!
कितनी दूर तक
इसे याद
रखोगे!
रोज-रोज भीख
मांगना, भीख
का मिलना
मुश्किल है।
कपड़े उसके
जराजीर्ण हो
गये, पैर
लहूलुहान हो
गये, शरीर
काला हो गया, अपना ही
चेहरा दर्पण
में देखे तो
पहचान न आये, भूल ही गया, फुर्सत कहां
रही? याद
करने की
सुविधा कहां
रही? भीख
मांगने से समय
कहां कि याद
करे, बैठे
सोचे कि
राजमहल...और
फिर वह याद पीड़ादायी
भी हो गयी। और
उस याद से तो
घाव को ही छेड़ना
है। सार भी
क्या है? उससे
कुछ सुख तो
मिलता नहीं, दुख ही
मिलता है।
कांटे चुभाने
से बार-बार
प्रयोजन क्या
है! तो
धीरे-धीरे हम
उन बातों को
भूल जाते हैं,
जिनसे दुख
मिलता है। वह
भूल गया।
उसका
पिता बूढ़ा
हुआ। एक ही
बेटा था।
पछताने लगा
बाप। अब मौत
करीब आती है, अब कौन
मालिक होगा इस
साम्राज्य का?
बुरा-भला
जैसा था, उसने
अपने वजीर
भेजे कि उसे
खोज लाओ। जिस
दिन वजीर उस
गांव में
पहुंचे जहां
वह भिखमंगा
भीख मांग रहा
था, एक
छोटे-से होटल
के सामने जहां
जुआरी ताश खेल
रहे थे वह भीख
मांग रहा था, एक टूटे-से
ठीकरे में।
राजमहल
से आया रथ
रुका। वजीर
नीचे उतरा।
सूरज की
किरणों में
चमकता हुआ
स्वर्ण-रथ! यह
वर्षों का
भिखमंगापन
जैसे एक क्षण
में खो गया।
वजीर उतरा और
उसके पैरों पर
गिर गया, और
कहा कि आप
चलें, पिता
ने याद किया
है। अभी उस भिक्षापात्र
में जो कुछ
थोड़े-से पैसे
पड़े थे--एक-एक
पैसे को मांग
रहा था, उसने
भिक्षापात्र
उसी समय नीचे
गिरा दिया।
उसकी आवाज बदल
गयी। उसने कहा
कि जाओ, मेरे
लिए ठीक
वस्त्रों का
इंतजाम करो।
जाओ, मेरे
लिए ठीक
स्नानगृह का
इंतजाम करो।
अभी मांगता था
भीख, तो
आवाज में बड़ी
दयनीयता थी।
उस आवाज और इस
आवाज में कोई
हिसाब ही न था
लगाना। कोई
पहचान ही न
सकता यह उसी
भिखारी की
आवाज है। और
जब वह बैठ गया
रथ पर, तो
उसकी आंखों की
चमक...एक क्षण
में सारा
भिखमंगापन खो
गया।
तो
तुम्हें याद
भी आ जाए
तुम्हारी
महिमा, तुम्हारे
स्वरूप की
थोड़ी-सी झलक
भी, स्वप्न
ही
सही--अंधेरी
से अंधेरी रात
में भी तुम्हें
सुबह का
स्वप्न भी आ
जाए--तो रात
टूटने लगी।
इसलिए महावीर
ने ये सूत्र
कहे हैं--
"जिससे
तत्व का ज्ञान
होता है, चित्त
का निरोध होता
है, तथा
आत्मा
विशुद्ध होती
है, उसी को
जिन-शासन ने
ज्ञान कहा है।'
जेण तच्चं विवुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि।
जेण
अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे।।
जिससे
आत्मा
विशुद्ध हो, जिससे चित्त
का निरोध हो, जिससे सत्य
का बोध हो, उसे
ही जिन्होंने
जाना
उन्होंने
ज्ञान कहा है।
शास्त्र से
मिल जाए जो
ज्ञान, काम
का नहीं।
आत्मा में
डुबकी लगाकर
मिले, तो
ही काम का है।
शास्त्र से
मिला ज्ञान तो
बड़ा ऊपर-ऊपर
है। उससे तुम
बदलते नहीं, बदलते हुए
मालूम भी नहीं
पड़ते। उससे
तुम्हें बदलने
का धोखा भर
पैदा हो जाता
है--एक
प्रवंचना।
जिस सत्य की
प्रतीति
तुम्हें नहीं
हुई, उस
सत्य को तुम
अगर पूरा भी
करते रहो, तो
भी तुम्हारी
आत्मा से उसका
कोई तालमेल
नहीं होता।
मैंने
सुना है, एक
दिन मुल्ला नसरुद्दीन
को लोगों ने
देखा बीच
बाजार में सिर
के पीछे तकिया
लगाये, दोनों
हाथों से
संभाले चला जा
रहा है।
धीरे-धीरे लोग
इकट्ठे हो
गये। भीड़ जमा
हो गयी। फिर
किसी ने कहा
कि मुल्ला, माजरा क्या
है? यह कर
क्या रहे हो? इस तरह किसी
को चलते नहीं
देखा--तकिया
सिर से लगाये,
दोनों
हाथों से पकड़े,
कर क्या रहे
हो? मुल्ला
ने कहा, करूं
क्या, भाई!
डाक्टर ने कहा
हृदय का दौरा
पड़ा है, तकिये
से सिर मत
उठाना। तो
तकिये से सिर
तो उठा ही
नहीं सकता
हूं!
जिन्होंने
शास्त्र से
सूचनाएं ली
हैं, उनकी
सूचनाएं ऐसी
ही हैं। वे
तकिया बांध
लेंगे सिर से,
लेकिन
करेंगे तो वही
जो कर सकते
हैं। करेंगे तो
वही जो उनके
अनुभव में सही
मालूम पड़ रहा
है। दूसरे के
अनुभव से हम
ज्यादा से
ज्यादा धोखा खा
सकते, धोखा
दे सकते, लेकिन
दूसरे का
अनुभव हमारा
जीवंत सत्य
नहीं बनता है।
तो
महावीर शास्त्रज्ञान
को ज्ञान नहीं
कहते। जिससे
तत्व का बोध
होता है, जिससे
सत्य की
प्रतीति होती
है। किससे
होती है सत्य
की प्रतीति? सत्य कहीं
लिखा थोड़े ही
है। तुम्हारे
होने का नाम
सत्य है। तुम्हारे
अस्तित्व का
नाम सत्य है।
सत्य कहीं बाहर
पड़ा थोड़े ही
है कि उसे
खोजना है, उघाड़ना
है। तुम लिये
फिर रहे हो।
अपने प्राणों
में लिये फिर
रहे हो। और जब
तक तुम्हारी
आंखें बाहर
भटकती रहेंगी,
तुम वंचित
रहोगे। आंख को
घर लौटाना है।
आंख बंद करनी
है, भीतर
उतरना है सीढ़ी
दर सीढ़ी, एक-एक
सोपान।
तुम्हारे ही
गहन में, तुम्हारी
ही गहराई में
सत्य पड़ा है।
डुबकी लगानी
है। यह हीरा
कहीं खोजने
नहीं जाना है,
यह तो
तुम्हारे ही
अंतर्तम-सागर
में पड़ा है। उस
डुबकी लगाने
का नाम ही है
चित्त का
निरोध।
चित्त
का अर्थ है, जो बाहर ले
जाए। चित्त का
अर्थ है, बहिर्गमन।
चित्त का अर्थ
है ऐसे विचार,
जो बाहर की
तरफ तरंगायित
करें। बैठे
हैं, सोचने
लगे धन का--मिल
जाए खूब
धन...विचार
शुरू हो गये।
बैठे हैं, सोचने
लगे हो जाएं
किसी बड़े पद
पर...यात्रा
शुरू हो गयी।
कितनी बार
नहीं तुमने
अपने मन में सोचा
कि राष्ट्रपति
हो गये! कितनी
बार नहीं
तुमने अपने मन
में सोचा कि
कुबेर हो गये!
कितनी बार
तुमने अपने मन
में ऐसी
योजनाएं नहीं बनायीं!
फिर चौंककर
खुद हंसे हो
अपने मन में
कि यह भी क्या
कर रहा हूं!
क्या सार है? लेकिन फिर
भी चित्त
बार-बार
इन्हीं
योजनाओं में
घूमता है।
चित्त
का अर्थ है, वस्तुओं से
चेतना का
संबंध। और जब
तक चित्त है
तब तक संबंध
बनते चले जाते
हैं। तुम राह
पर चल रहे हो, पास से एक
कार गुजर गयी,
तुम्हारे
ही पीछे
महावीर भी चल
रहे हैं, वह
कार उनके पास
से भी गुजरी।
लेकिन
तुम्हारा चित्त
पैदा कर जाएगी
कार, महावीर
में कुछ पैदा
न होगा। कार
दोनों के पास
से गुजरी। तुम्हारे
पास से गुजरी
इतना ही नहीं,
गुजरते ही
चित्त पैदा
हुआ, तुम
जुड़े, तुम
कार से लगे।
कार तो चली
गयी, तुम्हारा
चित्त पीछा
करने लगा।
तुमने सोचा, ऐसी कार
मेरी हो! कैसे
खरीद लूं? क्या
उपाय करूं? महावीर के
पास से भी वही
कार गुजरी, चित्त पैदा
नहीं हुआ। कार
गुजर गयी, महावीर
गुजर गये, दोनों
के बीच कोई
संबंध न बना।
चित्त का अर्थ
है, वस्तुओं
से संबंध बन
जाना। तुम
प्रतिपल वस्तुओं
से संबंध बना
रहे हो। तुम बहुचित्तवान
हो।
महावीर
पहले मनीषी
हैं, जिन्होंने
इस शब्द का
उपयोग किया, "बहुचित्तवान।' फिर यह
शब्द खो गया।
उसके पहले भी
कभी न था। उसके
पहले भी किसी
ने ऐसा न कहा
था कि आदमी
में बहुत
चित्त हैं।
उसके पहले ऐसी
ही धारणा थी
कि आदमी में
एक चित्त है।
महावीर
ने कहा, एक
से काम न
चलेगा, आदमी
भीड़ है। आदमी
के मन में
जितनी
वस्तुओं से संबंध
बनाने का राग
है, उतने
ही चित्त हैं।
कार से संबंध
बना, एक
चित्त पैदा
हुआ। मकान से
संबंध बना, दूसरा चित्त
पैदा हुआ। धन
से संबंध बना,
तीसरा
चित्त पैदा
हुआ।
अनंत
चित्त हम पैदा
कर रहे हैं।
चित्त प्रतिपल
उठ रहे हैं, तरंगों की
भांति, जैसे
सागर में
लहरें उठ रही
हैं। जैसे
सागर में
लहरें उठती
हैं हवा के थपेड़ों
से, ऐसे ही
वस्तुओं से
उठती हुई
तरंगें हमारे
मन में चित्त
को पैदा कर
जाती हैं।
महावीर
ने कहा, मनुष्य
बहुचित्तवान
है। फिर ढाई
हजार साल तक
इस शब्द का
किसी ने कुछ
चिंतन नहीं
किया। अभी
पश्चिम में
मनोवैज्ञानिक
फिर इस शब्द
को खोज लिये
हैं। उनको
महावीर का कुछ
भी पता नहीं
है। महावीर
बहुत ही
अपरिचित हैं
पश्चिम को।
पश्चिम ने
थोड़े शब्द
पतंजलि के सुने
हैं। बुद्ध के
काफी शब्द
सुने हैं।
उपनिषद और वेद
भी पहुंच गये
हैं। लेकिन
महावीर पश्चिम
के सामने
बिलकुल
अपरिचित हैं।
महावीर का तो
उन्हें पता ही
नहीं है कि
उनके पहले भी
एक मनीषी ने
इस शब्द का
उपयोग किया
है। पश्चिम के
मनोवैज्ञानिक
एक शब्द का
उपयोग करते
हैं जो ठीक
महावीर के बहुचित्तवान
का रूपांतर
है। वे कहते
हैं, मनुष्य
"पोलिसाइकिक'
है। बहुचित्तवान।
जिन्होंने
भी मन को बहुत
गहरे में खोजा
है, उन्हें
यह सत्य मिल
ही जाएगा कि
तुम हजारों चित्त
पैदा कर रहे
हो। चित्त
यानी तरंगें।
तरंगें ही
तरंगें। उन
तरंगों के
कारण तुम बाहर
भागे जाते हो।
उन तरंगों के
कारण तुम घर
नहीं लौट पाते।
रात तुमने कभी
देखा, अगर
बहुत चित्त उठ
रहे हों, बहुत
तरंगें उठ रही
हों, तो
नींद तक संभव
नहीं होती।
अगर तुमने
लाटरी का टिकिट
खरीदा है, तो
उस रात नींद
नहीं आती।
चित्त में
तरंगें उठने
लगीं। अभी
लाटरी मिली
नहीं है।
मैंने
सुना है, एक
अदालत में
मुकदमा था। दो
आदमियों ने
एक-दूसरे का
सिर खोल दिया
था। और
मजिस्ट्रेट
ने पूछा कि हुआ
क्या? किस
बात से तुम
लड़े? और
तुम दोनों
पुराने दोस्त
हो! उन्होंने
कहा, वह भी
ठीक है। हम
दोनों पुराने
दोस्त हैं, लेकिन बात
ही ऐसी आ गयी।
कुछ शरमाने
लगे दोनों बात
बताने में।
मजिस्ट्रेट
ने कहा, तुम
कहो, शरमाओ मत। तो उस
पहले आदमी ने
कहा कि जरा
मामला ऐसा है,
शरमाने जैसा ही है, अब हो गया!
मैंने इससे
कहा कि मैं एक
खेत खरीद रहा
हूं। और यह
बोला कि खरीद
तो मैं भी रहा
हूं, एक
भैंस। मैंने
कहा, देख, भैंस मत
खरीद, अपनी
दोस्ती टिकेगी
नहीं। कहीं
खेत में घुस
जाए, कुछ
से कुछ हो
जाए। अगर
खरीदता ही है
तो सोच-समझकर
खरीदना। तो यह
क्या बोला! यह
बोला कि जाओ
भी भई, भैंस
तो भैंस है।
अब उसके पीछे
कोई चौबीस
घंटे थोड़े ही
लगा रहूंगा।
कभी तुम्हारे
खेत में घुस
भी गयी तो घुस
भी सकती है।
तो मैंने इससे
कहा कि मत
खरीद भैंस, खेत तो
मैंने खरीदने
का पक्का ही
कर लिया है। तो
इसने मुझसे
कहा, तू ही
मत खरीद खेत, भैंस का तो
मैंने बयाना
भी दे दिया
है। बस बात बढ़
गयी।
तो
मैंने कहा अगर
खरीदना ही है
तो खरीद ले, लेकिन ध्यान
रख, मेरे
खेत में न घुसे,
और मैंने
ऐसा रेत पर
खेत खींचकर
बताया कि यह रहा
मेरा खेत।
इसमें कभी
तेरी भैंस न घुसे, इसका
खयाल रखना।
इसने क्या
किया, इसने
एक लकड़ी से
ऐसा इशारा
करके रेत में
निशान बना
दिया और कहा, यह घुस गयी
भैंस, कर
ले क्या करता
है! उसी में, उसी में सिरफुटौअल
हो गयी।
अभी
किसी ने खेत
खरीदा नहीं
है! अभी भैंस
खरीदी नहीं
गयी है! इस
अवस्था का नाम
चित्त है। तुम
जरा खयाल करना, कितना चित्त
तुम्हारे
भीतर है! जो जा
चुका, उसको
तुम संगृहीत
किये बैठे हो,
अब वह कहीं
भी नहीं है।
और जो नहीं
हुआ, उसकी
योजना बना रहे
हो। वह भी अभी
कहीं नहीं है।
इन दो के बीच
तुम दबे हो, तुम्हारी
आत्मा दबी
है--पिस रही
है। दो पाटन के
बीच में साबित
बचा न कोय।
एक
तुम्हारा
अतीत है, जो
जा चुका। किसी
ने कभी गाली
दी थी बीस साल
पहले, वह
अभी भी ताजी
है तुम्हारे
भीतर। शायद वह
आदमी भी जा
चुका हो। वह
गाली तो
निश्चित ही जा
चुकी है। शायद
वह आदमी क्षमा
भी मांग चुका
हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
और उसके मित्र
में कुछ झंझट
हो गयी थी।
वर्षों बीत गये
उस बात को, लेकिन जब भी
मिलना होता है
तो मुल्ला उसे
याद दिलाता है
कि खयाल रखना!
आखिर एक दिन
उसने कहा कि
देखो मुल्ला,
कितनी बार
तुमसे क्षमा
मांग चुका, और कितनी
बार तुम क्षमा
कर चुके, और
कितनी बार तुम
मुझसे कह चुके
कि ठीक है, भुला
दी बात, क्षमा
कर दी, फिर
तुम याद क्यों
दिलाते हो? मुल्ला ने
कहा, मैंने
भुला दी, वह
ठीक है, लेकिन
तुम मत भूल
जाना, इसीलिए
याद दिलाता
हूं।
लेकिन
जब दूसरे को
याद दिलानी
पड़े, तो खुद भी
याद रखनी ही
पड़ती है। भूलोगे
कैसे? अतीत
है, उसे हम
सम्हाले हैं।
अब कहीं भी
नहीं है, सिर्फ
स्मृति में
पड़े रह गये
दाग, सिर्फ
स्मृति पर
खिंची रह गयी
कुछ रेखाएं।
अस्तित्व में
उन रेखाओं की
अब कोई भी जगह
नहीं है।
अस्तित्व
अतीत का कोई
हिसाब ही नहीं
रखता। अस्तित्व
का कोई इतिहास
नहीं है।
अस्तित्व सदा
ताजा और नया
है। वह अतीत
को ढोता ही
नहीं। कल जो
बीत गया, उसका
उसे कुछ पता
ही नहीं।
पूछो
फूलों से, पूछो
वृक्षों से, पूछो बादलों
से, पूछो
छोटे-छोटे
बच्चों से, जो अभी
अस्तित्व के
बहुत करीब
हैं। अभी
नाराज था
बच्चा और कहता
था कभी तुमसे
बोलेंगे न, और क्षणभर
बाद तुम्हारी
गोदी में बैठा
है। भूल ही
गया! याद ही न
रही! बच्चा
अभी निर्मल
है। अभी चित्त
बहुत सघन
नहीं। तो या
तो तुम्हारे
चित्त में
अतीत है, जा
चुका, नहीं
कहीं है अब, बस तुम्हीं
ढो रहे हो, और
या भविष्य है,
जो अभी हुआ
ही नहीं। कहीं
भी नहीं है, बस तुम ही
योजना बना रहे
हो। इन दो
पाटन के बीच, इन दो के
दबाव के बीच
चित्त पैदा
होता है।
चित्त-निरोध
का अर्थ है, इन दोनों
पाटों को हटा
देना। अतीत को
जाने दो; जो
गया, गया।
और जो आया
नहीं, नहीं
आया। तुम बस
वर्तमान में
रह जाओ।
वर्तमान में
चित्त नहीं
होता। इस क्षण
कहां है चित्त?
जरा-सी तरंग
उठी भविष्य की,
आया। जरा-सी
याद आयी अतीत
की, आया।
तो स्मृति में
और कल्पना में
है चित्त। ठीक
वर्तमान के
क्षण में
चित्त नहीं
है। ठीक
वर्तमान के
क्षण में
चित्त का
निरोध है।
महावीर कहते
हैं, जहां
चित्त-निरोध
होता है, वहीं
आत्मा
विशुद्ध होती
है। जब चित्त
नहीं रहा, तो
आत्मा में कोई
अशुद्धि न
रही। चित्त
आत्मा का मैल
है। चित्त
आत्मा की
अशुद्धि है।
"जेण तच्चं
विवुज्झेज्ज'--जिसने तत्व
को जाना। या
जो तत्व को
जानना चाहता
है। "जेण चित्तं णिरुज्झदि'--उसे चित्त
का निरोध करना
पड़ा। उसे
चित्त को त्याग
देना पड़ा।
सत्य को चाहते
हो, तो
चित्त को दांव
पर लगा दो।
शास्त्र पढ़ने
से यह न होगा।
शास्त्र पढ़ने
से तो उल्टा
चित्त और बढ़ेगा।
शास्त्र भी
तुम्हारे
भीतर तरंगें
लेने लगेगा।
संसार तो
तरंगें लेगा
ही, शास्त्र
भी तरंगें
लेने लगेगा। "जेण अत्ता विसुज्झेज्ज'--और जिसने
आत्मा की
विशुद्धि जान
ली चित्त के निरोध
से, "तं णाणं
जिणसासणे'--इसी को जिनों
ने ज्ञान कहा
है।
यह
ज्ञान की बड़ी
अदभुत
व्याख्या
हुई। इस ज्ञान
का, जिसे तुम
ज्ञान कहते हो,
उससे कुछ
संबंध न रहा।
जो विद्यापीठ
में मिल जाता
है, वह
ज्ञान नहीं।
जो आत्मपीठ
में मिलता है
वही ज्ञान। जो
बाहर मिल जाता
है, सूचना
मात्र है। जो
भीतर जगता है,
वही ज्ञान
है। जो दूसरे
से मिल जाता
है, उधार
है, उच्छिष्ट
है। जो
तुम्हारी
आत्मा में ही
निखरता है, वही ज्ञान
है।
महावीर
ने सब भांति
भीतर जाने का, अंतर्यात्रा
का निर्देश
किया है। और
जब तक यह न हो, तब तक तुम
अंधविश्वास
के बाहर न हो
सकोगे।
इक
न इक दर पर जबीने-शौक
घिसती ही रही
आदमीयत
जुल्म की
चक्की में
पिसती ही रही
तुमने
बहुत दरवाजे खोजे।
इक
न इक दर पर जबीने-शौक
घिसती ही रही।
और तुम
अपना माथा न
मालूम कितने दरवाजों
पर घिस चुके
हो। तुमने
अपने प्रेम को
न मालूम कितने
चित्तों
में उलझाया
है। कभी मंदिर, कभी मस्जिद,
कब अपने घर आओगे?
इक
न इक दर पर जबीने-शौक
घिसती ही रही
आदमीयत
जुल्म की
चक्की में
पिसती ही रही
आदमी
पिसता ही
रहेगा, तुम
पिसने की
ही तैयारी कर
रहे हो।
अहले-बातिन
इल्म से सीनों
को गरमाते
रहे
जिहल के
तारीक साये
हाथ फैलाते
रहे
--और
तथाकथित
ब्रह्मज्ञानी
बातों से
लोगों के हृदय
को गरमाते
रहे।
अहले-बातिन
इल्म से सीनों
को गरमाते
रहे
--लेकिन
वह गर्मी
ज्यादा देर
टिकने वाली
नहीं। वह
तुम्हारे
ईंधन से नहीं
आती।
अहले-बातिन
इल्म से सीनों
को गरमाते
रहे
बातें
तो बहुत चलती
रहीं
ब्रह्मज्ञान
की। वेदों की
कोई कमी है? शास्त्रों
की कोई कमी है?
कितने लोग
वेद को
दोहराते रहे
तोतों की
भांति! और
थोड़ी-बहुत
गर्मी भी आ
जाती है
दोहराने से, लेकिन टिकती
नहीं। जब तक
तुम्हारे
भीतर की आग न
जले, जब तक
तुम्हारी
आत्मा
प्रज्वलित न
हो, तब तक
यह उधार गर्मी
काम आने वाली
नहीं।
अहले-बातिन
इल्म से सीनों
को गरमाते
रहे
जिहल के
तारीक साये
हाथ फैलाते
रहे
और
अंधेरा बढ़ता
ही गया, अज्ञान
बढ़ता ही गया।
वेद भी बढ़ते
गये, शास्त्र
भी बढ़ते गये
और अज्ञान भी
बढ़ता गया। चमत्कार
है! आदमी ने
जितना जाना, उतना आदमी
अज्ञानी हो
गया। चमत्कार
है! आज से ज्यादा
गहन अज्ञान
कभी भी न था।
और आज से ज्यादा
ज्ञान कब रहा?
रोज नया
ज्ञान पैदा हो
रहा है, रोज
नये शास्त्र
रचे जा रहे, रोज नयी सूचनायें
अवतरित हो रही
हैं, लेकिन
आदमी का
अंधेरा मिटता
नहीं। जरूर
कहीं भूल हो
रही है।
जिसे
हम ज्ञान
समझते हैं वह
ज्ञान नहीं
है। सूचना
मात्र है। अगर
सूचना की तरह
ही उसे लो, तो खतरा
नहीं है।
ज्ञान की तरह
लिया, तो
खतरा हो
जाएगा। मैं
तुमसे बोल रहा
हूं, जो
मैं तुमसे कह
रहा हूं वह
मेरे लिए
ज्ञान है।
कहते ही
तुम्हारे लिए
सूचना हो गया।
जो मैं कह रहा
हूं, वह
मैंने जाना, लेकिन जो
मैं कह रहा
हूं, वह
तुमने सुना।
इसको ही तुम
सब कुछ मत समझ
लेना। इससे
इशारे लेना
जरूर, इससे
उत्साह लेना
जरूर, इससे
प्रेरणा लेना
जरूर, इससे
प्यास लेना
जरूर, लेकिन
इसी को सब कुछ
मत समझ लेना।
ये इशारे ऐसे
ही हैं जैसे
मील के
पत्थरों पर
निशान बना होता
है तीर का--और
आगे।
मील के
पत्थर को छाती
से लगाकर मत
बैठ जाना। मील
का पत्थर तो
यात्रा पर
बढ़ाने को है, सूचना मात्र
है। मंजिल
नहीं है।
कितना ही प्यारा
मील का पत्थर
मिल जाए, तो
भी उसे सीने
से लगाकर मत
बैठ जाना, उससे
मिली गर्मी
काम न आयेगी।
उससे मिली
गर्मी धोखा हो
जायेगी।
"जिससे
जीव राग-विमुख
होता है, श्रेय
में अनुरक्त
होता है, और
जिससे
मैत्री-भाव
बढ़ता है, उसी
को जिन-शासन
ने ज्ञान कहा
है।'
जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेए सु रज्जदि।
जेण मित्ती पभावेज्ज, तं णाणं जिणसासणे।।
एक-एक
शब्द बहुत
ध्यानपूर्वक
भीतर लेना।
"जिससे
जीव राग-विमुख
होता है...।'
ज्ञान
की कसौटी दे
रहे हैं महावीर।
इसको कसते
रहना। अगर
तुमने बहुत
जान लिया और
वह जाना हुआ
तुम्हें राग
से विमुख नहीं
करता, तो
महावीर कहते
हैं, वह
जाना हुआ थोथा
है, धोखा
है, उधार
है, बासा
है। उसे छोड़
दो। इससे तो
जानना बेहतर
कि तुम नहीं
जानते हो। कम
से कम सचाई तो
होगी। कसौटी
क्या है ज्ञान
की? जिससे
राग-विमुखता
पैदा हो।
राग को
समझें।
राग का
अर्थ होता है, किसी भी
वस्तु, किसी
भी व्यक्ति के
साथ ममत्व का
भाव बांधना; कहना मेरा।
मेरा मकान, तो राग हो
गया। मकान में
रहने में कुछ
अड़चन नहीं है,
"मेरे' में
मत रहना। मकान
में खूब रहना,
कुछ हर्जा
नहीं है। लेकिन
मकान को मकान
रहने देना, तुम तुम
रहना, दोनों
के बीच में
"मेरे' का
सेतु मत
बनाना।
चित्त
का अर्थ है, जो तुम्हारा
नहीं है उसे
अपना बनाने की
अभीप्सा, आकांक्षा।
और राग का
अर्थ है, जो
तुम्हें मिल
गया है, उसे
अपना मान लेने
की स्थिति।
कहा, मेरा
मकान, मेरी
पत्नी, मेरा
पति, मेरा
भाई, मेरी
बहन। जहां
मेरा आया, मम
जहां आया, ममत्व
आया, वहीं
राग निर्मित
हुआ।
राग
बंधन है। जो
जानते हैं वे
तो यह भी न
कहेंगे कि
मेरा शरीर। वे
तो कहेंगे, शरीर पृथ्वी
का है। जल, वायु,
आकाश का है,
मेरा क्या?
मैं नहीं था,
तब भी था।
मैं जब नहीं
रहूंगा, तब
भी होगा। मेरा
क्या है?
वक्त
की
समी-ए-मुसलसल
कारगर होती
गयी
जिंदगी
लहज़ा-ब-लहज़ा
मुख्तसर होती
गयी
सांस
के पर्दों में
बजता ही रहा साजे-हयात
मौत
के कदमों की
आहट तेजतर
होती गयी
यह
शरीर बना
रहेगा, यह
श्वास भी चलती
रहेगी, तुम
जीवन के भ्रम
से भी भरे रहोगे
और मौत रोज
करीब आयी चली
जाती है।
सांस
के पर्दों में
बजता ही रहा साजे-हयात
जिंदगी
का संगीत बजता
ही रहा सांसों
में। और मौत?
मौत
के कदमों की
आहट तेजतर
होती गयी
तुम्हारी
श्वास भी
तुम्हारी
नहीं।
तुम्हारी देह
भी तुम्हारी
नहीं।
जैसे-जैसे
गहरे जाओगे, वैसे-वैसे
पाओगे मेरा
कुछ भी नहीं, मेरे
अतिरिक्त
मेरा कुछ भी
नहीं। मन भी
मेरा नहीं है।
वह भी बाहर की
तरंगों से आता
है। देह भी
मेरी नहीं, वह भी बाहर
से बनती है और
बाहर ही खो
जाएगी। आखिर
में बच रहता
है साक्षीभाव,
बस वही मेरा
है।
राग
में बहोगे, तो शरीर
मेरा है; शरीर
से जो जुड़े
हैं, जिनसे
रक्त का संबंध
है, वे
मेरे हैं; जिनसे
प्रेम का, वासना
का संबंध है, वे मेरे हैं;
जिनसे
काम-धंधे का
संबंध है, वे
भी मेरे
हैं--मेरा
नौकर, मेरा
मालिक; जिनसे
किसी और तरह
के संबंध
हैं--मेरा
डाक्टर, मेरा
इंजीनियर; जैसे-जैसे
तुम इस "मेरे'
को बढ़ाते
चले जाते हो, यह बड़ा होता
चला जाता है।
यह सारा संसार
तुम्हें
"मेरा' मालूम
पड़ सकता है।
जितना
तुम्हारा
"मेरे' का
फैलाव होगा, उतने ही गहन
अंधकार में
तुम उतरते
जाओगे। दीया
उतना ही
अंधेरे में खो
जाएगा। ऐसा
समझो, बादल
है "मेरे' का;
सूरज है "साक्षीभाव'
का। जितना
मेरा और मेरे
के बादल
तुम्हारे
चारों तरफ
होंगे, सूरज
उतना ही ओट
में हो जाएगा।
हटाओ
बादलों को।
ज्ञान की
कसौटी महावीर
कहते हैं यही
है--"जेण रागा विरज्जेज्ज।'
जिससे राग
गिरने लगे।
जिससे मेरे की
भ्रांति टूटने
लगे।
अब यह
बड़ा
विरोधाभासी
वक्तव्य है, लेकिन परम
मूल्य का है।
जैसे-जैसे
मेरे का भाव
गिरेगा वैसे
ही वैसे
तुम्हें मैं
का अनुभव होगा
कि मैं कौन
हूं। तुम्हें
अभी इसका कुछ
भी पता नहीं।
तुम्हें
बिलकुल पता है
कि मेरे कौन
हैं। मैं कौन
हूं, इसका
कोई भी पता
नहीं।
तुमसे
अगर कोई पूछे
आप कौन हैं, तो तुम
बताते हो मैं
फलां का बेटा
हूं। यह भी
कोई बात हुई!
वह पूछता है, आप कौन हैं, आप पिता की
बता रहे हैं।
वह पूछता है, आप कौन हैं, आप कहते हैं,
मैं डाक्टर
हूं! डाक्टरी
आपका धंधा
होगी, आप
डाक्टर नहीं
हो सकते। वह
पूछता है, आप
कौन हैं, आप
कहते हैं, मैं
ब्राह्मण हूं,
हिंदू हूं,
मुसलमान
हूं, ईसाई
हूं, जैन
हूं। यह आपकी
पैदाइश का
संयोग होगा, आप नहीं।
कुछ अपनी कहो!
मुश्किल हो
जाएगी। क्योंकि
हमें तो कुछ
पता ही नहीं।
हम तो
जब भी "मैं' की कोई
परिभाषा करते
हैं, तो
मेरे से करते
हैं। मेरे का
हमें पता है।
मैं का हमें
कोई पता नहीं।
और जिसे मैं
का ही पता
नहीं, उसके
मेरे का क्या
भरोसा! जिसे
अपना ही पता
नहीं, उसे
और क्या पता
होगा! यह अपना
ही पता नहीं
जो कि
प्राथमिक
होना चाहिए, तो बाकी तो
सब द्वितीय
है। पहली ही
बुनियाद भ्रांत
हो गयी, तो
सारा भवन
भ्रांत हो
जाता है।
महावीर कहते हैं,
मेरे को छोड़ते-छोड़ते
जब मैं ही
बचता
है--शुद्ध
मैं--उसको ही महावीर
ने आत्मा कहा
है। शुद्धतम
मैं। जहां मेरे
की कोई रेखा
भी नहीं रही।
मेरे की कोई
कालिख न रही।
कोई बादल न
रहा आकाश में।
नीला, खाली,
कोरा, आकाश!
सूरज तब बड़ा
प्रगट होकर, प्रखर होकर
स्पष्ट होता
है।
"और
जिससे श्रेय
में अनुरक्त
होता है।'
जेण सेए सु रज्जदि।
दुनिया
में दो हैं
यात्राएं--प्रेय
और श्रेय। साधारणतः
जो अज्ञान में
डूबा है, वह
प्रेय में
अनुरक्त होता
है। वह कहता
है, जो
प्रिय है, वही
मैं करूंगा।
जिसको ज्ञान
की पहली किरण
उतरने लगी, वह कहता है, जो श्रेय है
वही करूंगा।क्या
फर्क है? प्रेय
तो होता है मन
का विषय और
श्रेय है चैतन्य
का विषय। जो
ठीक है, वही
करूंगा। जो
सत्य है, वही
करूंगा। जो
शुभ है, वही
करूंगा। श्रेयस
ही मेरा जीवन
होगा। यही
साधुता का
लक्षण है।
साधु
का अर्थ नहीं
कि भाग जाओ घर
से। साधु का अर्थ
है, श्रेय को
साधो। प्रेय
से श्रेय को
ऊपर रखो।
कल एक
युवक मेरे पास
आया। उसने कहा, ध्यान करने
आया हूं।
लेकिन ध्यान
मुझे प्रीतिकर
नहीं मालूम
पड़ता। होता ही
नहीं मन करने
का। अच्छा
नहीं लगता
करना। तो अब
सवाल है, अगर
मन को सुनना
है तो फिर
ध्यान न हो
सकेगा। मन
कहता है यह क्या
कर रहे हो? इतनी
देर ताश के
पत्ते ही खेल
लेते, तो
थोड़ा रस आता।
इतनी देर
सिनेमा में ही
बैठ गये होते,
तो थोड़ा रस
आता। इतनी देर
मित्रों से
गपशप ही कर ली
होती। यह भी
क्या! क्या कर
रहे हो यहां, समय क्यों
खो रहे हो? जीवन
भागा जा रहा
है। भोग लो।
मन हमेशा
प्रेय की तरफ
उत्सुक करता
है। वह कहता
है, जो
प्रीतिकर है,
वह करो।
लेकिन मन के
लिए जो
प्रीतिकर है,
वही नर्क
सिद्ध होता है
आत्मा के लिए।
और मन के लिए
जो प्रीतिकर
है, वही
आत्मा के लिए
जहर सिद्ध
होता है।
प्रेय को
मान-मानकर ही
तो हम भटके
हैं इतने
जन्मों तक।
तो
महावीर कहते
हैं ज्ञान की
किरण आयी, इसका प्रमाण
होगा कि श्रेय
ऊपर आने लगा।
अब तुम यह
नहीं कहते कि
मन क्या कहता
है वह करेंगे।
अब तुम कहते
हो, जो
करना चाहिए
वही करेंगे।
प्रारंभ में
तो बड़ा संघर्ष
होगा। मन की
पुरानी आदतें
हैं। जल्दी
पीछा न
छोड़ेगा। मन के
पुराने
संस्कार हैं,
वह बार-बार
तुम्हें
पुरानी ही
धारणाओं में
खींच लेगा।
लेकिन संघर्ष
करना होगा। मन
से ऊपर उठना
होगा। और धन्यभागी
हैं वे जो मन
से थोड़ा ऊपर
उठ जाते हैं।
क्योंकि मन के
ऊपर उठते ही
जीवन का परम
धन है। मन के
ऊपर उठते ही
सौभाग्य है।
मन के ऊपर
उठते ही परम आशीष
की वर्षा हो
जाती है। मन
के साथ अभिशाप
है। मन के
शुरुआत में तो
सभी चीजें
प्रीतिकर
मालूम होती
हैं, अंत
में सभी कड़वी
हो जाती हैं।
महावीर
ने कहा है, जो प्रारंभ
में मीठा हो, जरूरी नहीं
कि अंत में भी
मीठा हो। और
जो प्रारंभ
में कड़वा हो, जरूरी नहीं
कि अंत में भी
कड़वा हो।
बहुत-सी
औषधियां कड़वी
होती हैं
लेकिन
स्वास्थ्य
लाती हैं। और
बहुत-सी
मिठाइयां
मीठी होती हैं
और सिर्फ
रुग्ण करती
हैं। इसलिए
चुनाव श्रेय
का करना।
विवेक से करना,
बोध से
करना। मन की
मानकर मत
करना। मन
उलझाता है।
"जेण रागा
विरज्जेज्ज,
जेण सेए सु रज्जदि।' जिससे श्रेय
सधे, वही
ज्ञान है। "जेण मित्ती
पभावेज्ज।'
और जिससे
मैत्री बढ़े, प्रेम बढ़े, वही ज्ञान
है। निश्चित
ही पंडित का
ज्ञान प्रेम
को बढ़ाता
नहीं।
मुल्ला-मौलवी
का ज्ञान प्रेम
को बढ़ाता
नहीं। घटाता
है। हिंदू
मुसलमान से
घृणा करता है,
मुसलमान
हिंदू से घृणा
करता है। जैन
हिंदुओं से, हिंदू जैनों
से। यह ज्ञान
नहीं हो सकता।
यह शास्त्र
होगा।
शास्त्र लड़वाता
है। ज्ञान जुड़वाता
है। ज्ञान है
परम योग।
शास्त्र में
संघर्ष है।
तुम्हारी
मान्यताएं, तुम्हारे
विश्वास, तुम्हें
दूसरों से
खंड-खंड कर
देते हैं।
तुमने
कभी देखा, तुम किसी आदमी
के पास बैठे
हो। बिलकुल
सटकर बैठे हो,
और तुमने
पूछा, आपका
धर्म? और
उसने कहा, मुसलमान।
तुम जरा सरक
गये। अभी तुम
बिलकुल पास
बैठे थे। तुम
जैन हो, या
हिंदू हो, तुम
जरा सरक गये।
और अगर उसने
कहा कि हिंदू
हूं, जैन
हूं, तो
तुम और जरा
पास आ गये।
आदमी वही है।
अभी तुम पास
बैठे ही थे, लेकिन अगर
उसने कहा
मुसलमान, अगर
कहा हिंदू, अगर कहा
ईसाई, बस
एक दीवाल खड़ी
हो गयी। सत्य
की दीवाल!
बस तुम
अलग हो गये।
तुमने पक्का
कर लिया कि यह आदमी
गलत है। ईसाई
कैसे ठीक हो
सकता है, मुसलमान
कैसे ठीक हो
सकता है। मैं
जैन हूं, बस
जैन ही ठीक
है।
तुम्हारा
विश्वास तो
तुम्हें तोड़
रहा है दूसरे
से। यह
विश्वास फिर
ज्ञान नहीं हो
सकता। यह
तुम्हारी
धारणा जोड़
नहीं रही। और
महावीर कहते
हैं ज्ञान की
यह कसौटी है
कि वह जोड़ेगा।
उससे प्रभाव
बढ़ेगा प्रेम
का। उससे
मैत्री सघन
होगी। उससे
तुम बेशर्त
मैत्री में
उतर जाओगे।
तुम्हारी कोई
शर्त न रहेगी
कि तुम कौन
हो। यहां
हिंदू हैं
मेरे पास
संन्यासी, मुसलमान हैं
मेरे पास
संन्यासी, ईसाई
हैं, यहूदी
हैं, पारसी
हैं, जैन
हैं, बौद्ध
हैं, सिक्ख
हैं; दुनिया
का ऐसा कोई
धर्म नहीं है
जिस धर्म से मेरे
पास संन्यासी
न हों। शायद
ऐसा कहीं भी
आज घट नहीं
रहा है। यह
अभूतपूर्व
है। लेकिन यह
घटना चाहिए
सभी जगह।
क्योंकि
ज्ञान की किरण
उतरे और इतना
भी न कर पाये, कि
अंधविश्वासों
की और
विश्वासों की
दीवाल न गिरा
पाये, तो
ऐसे ज्ञान का
क्या करोगे? दो कौड़ी
का है। दीया
पैदा हो जाए
और अंधेरा न
हटे, तो ऐसे
दीये को क्या
करोगे? वह
बुझा है। उसे
फेंको। उसे
व्यर्थ मत ढोओ।
"मैत्रीभाव बढ़े, उसी
को जिन-शासन
ने ज्ञान कहा
है।'
"जो
आत्मा को अबद्धस्पृष्ट,
अनन्य, अविशेष
तथा आदि, मध्य,
और अंतहीन
देखता है, निर्विकल्प
देखता है, वही
समग्र
जिन-शासन को
देखता है।'
जिसने
आत्मा को देख
लिया, उसने
महावीर के
पूरे शास्त्र
को देख लिया।
यह बात थोड़ी
सुनो।
"जे पस्सदि अप्पाणं।'
जिसने अपने
को देख लिया।
जे
पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुट्ठं अणन्नमविसेसं।
अपदेससुत्तमज्झं, पस्सदि जिणसासणं
सव्वं।।
उसने
सारा
जिन-शास्त्र
देख लिया, जिसने स्वयं
को देख लिया।
ऐसी सीधी-साफ,
ऐसी दो-टूक
बात किसने कही
है! महावीर
बहुत स्पष्ट
हैं। तुम
जैन-शास्त्रों
में बैठकर सिर
मत पचाते
रहना। उतरो
अपने में।
महावीर कहते
हैं, एक ही
शास्त्र है
पढ़ने योग्य, वह स्वयं की
चेतना है। एक
ही जगत है
प्रवेश योग्य,
एक ही मंदिर
है जाने योग्य,
वह स्वयं की
आत्मा है।
"जो
आत्मा को अबद्धस्पृष्ट,
देह-कर्मातीत
जानता है।' देह और कर्म,
इन दो के जो
अपने को पार
देख लेता है, वही आत्मा
को जानता है।
"अनन्य।' और
जो जानता है
कि बस मेरा
शुद्ध होना ही,
शुद्धतम साक्षीमात्र
ही स्वरूप है,
स्वभाव है।
"आदि, मध्य,
अंतहीन।' न तो मेरा
कोई प्रारंभ
है, न कोई
अंत है, न
कोई मध्य है।
मैं शाश्वत
हूं।
"अविशेष।' ऐसी
बात को जो
बिलकुल जीवन
का सामान्य
स्वभाव अनुभव
करता है, कोई
विशेष बात
नहीं है यह, यह
स्वाभाविक है,
यह आत्मा का
गुणधर्म है, ऐसा जो देख
लेता है, "निर्विकल्प
देखता है।' उसकी आंखों
में फिर
विकल्प के
बादल नहीं
होते। विचार
के बादल नहीं
होते। "वही समग्ररूप
से जिन-शासन
को देखता है।'
हम तो उलझे
हैं बहुत छोटी
बातों में।
हमने तो बड़े
छोटे-छोटे पड़ाव
बना लिये, उन्हीं
को हम मंजिल
समझ रहे हैं।
मुझे
जाना है इक
दिन तेरी बज्म?-नाज़
से आखिर
अभी
फिर दर्द
टपकेगा मेरी
आवाज से आखिर
अभी
फिर आग उठेगी
शिकस्ता साज
से आखिर
मुझे
जाना है इक
दिन तेरी बज्म?-नाज़
से आखिर
जहां
से जाना है, वहां बहुत
मत पकड़ो।
मुझे
जाना है इक
दिन तेरी बज्म?-नाज से आखिर
यह
महफिल सदा
नहीं चलेगी।
सपने जैसी है।
यहां से उठना
ही होगा। यहां
से सभी को
उठना पड़ा है।
एक न एक दिन, आज नहीं कल, कल नहीं
परसों, विदा
होना पड़ा है।
यहां बहुत राग
की जड़ें मत फैलाओ।
यहां ऐसे रहो
जैसे कोई अतिथिशाला
में ठहरता है।
विश्रामगृह
में रुकता है।
यहां बहुत मोह
के संबंध मत
बनाओ। अन्यथा
जाना कठिन हो
जाएगा। और अगर
न जा सके, तो
वापस-वापस
फेंक दिये
जाओगे। मोह के
बंधन ही
तुम्हें खींच लाएंगे।
मैंने
सुना है...पढ़ता
था मैं एक
ईसाई फकीर का
जीवन। वह
पहाड़ों में
किसी गुफा की
तलाश कर रहा था, एकांत-साधना
के लिए। एक
गुफा के पास
पहुंचा तो
देखकर चकित हो
गया। वहां
उसने एक फकीर
को देखा, जिसने
अपने को गुफा
के भीतर लोहे
की जंजीरों
से बांध रखा
था। उसने पूछा,
मैंने बहुत
तरह के साधक
देखे, तुम
यह क्या किये
हो? यह
तुमने खुद
जंजीरें बांधीं,
कि कोई
तुम्हें बांध
गया! उसने कहा,
मैंने ही
बांधी हैं। किसलिए बांधीं? तो उसने कहा,
इस डर से कि
कहीं किसी
कमजोर क्षण
में संसार में
वापस न लौट
जाऊं। ये
जंजीरें मुझे
जाने नहीं
देतीं। ठोंक
दी हैं दीवाल
से, इनके
खोलने का कोई
उपाय नहीं।
मगर यह
भी कोई संसार
से मुक्ति हुई? अगर लोहे की जंजीरों
के कारण किसी
गुफा में पड़े
रहे, तो यह
कोई संसार से
मुक्ति हुई? यह नये तरह
का बंधन हुआ।
यह मोक्ष न
हुआ। बोध से
मुक्ति होती
है। बोध का
अर्थ है, जहां
से जाना है, वहां से जा
ही चुके। जहां
से जाना है, वहां घर
क्या बसाना।
जहां से जाना
ही होगा, वहां
जड़ें क्या
फैलाना। थोड़ी
देर का
विश्राम है, ठीक है कर
लेंगे। लेकिन
जाने के वक्त
लौटकर न
देखेंगे।
अभी
फिर दर्द
टपकेगा मेरी
आवाज से आखिर
अभी
हंस रहे हो, अभी रोओगे।
तो जब रोना ही
है, तो
हंसी में बहुत
अर्थ नहीं रह
गया।
अभी
फिर आग उट्ठेगी
शिकस्ता साज
से आखिर
अभी
मेरा साज टूट
जाएगा, अभी
वीणा टूटी पड़ी
होगी, अभी
चिता जलेगी।
मुझे
जाना है इक दिन
तेरी बज्म?-नाज़
से आखिर
यह
तेरी महफिल
बड़ी प्यारी है, लेकिन जाना
है। जाना
पड़ेगा। तो
यहां ऐसे रहना
जैसे कमल रहता
है जल में।
रहना, लेकिन
जल को छूने मत
देना। जल में
ही रहना और जल
से अलिप्त
रहना।
"जो
आत्मा को इस
अपवित्र शरीर
से तत्वतः
भिन्न तथा ज्ञायक-स्वरूप
जानता है, वही
समस्त
शास्त्रों को
जानता है।'
जो
अप्पाणं जाणदि, असुइ-सरीरादु तच्चदो भिन्नं।
जाणग-रूव-सरूवं, सो सत्थं
जाणदे सव्वं।।
"आत्मा
को इस शरीर से
तत्वतः भिन्न
और ज्ञायक-स्वरूप
जानता है।'
यह गहनतम
सूत्र है
ध्यान का।
जिसे भी हम
देखने में समर्थ
हो जाते हैं, वह हम से
भिन्न है। तुम
अपने शरीर को
देखने में
समर्थ हो, शरीर
तुमसे भिन्न
है। तुम अपने
विचार को देखने
में समर्थ हो,
विचार
तुमसे भिन्न
है। तुम सिर्फ
अपने साक्षीभाव
को देखने में
समर्थ नहीं हो,
इसलिए साक्षीभाव
से तुम अभिन्न
हो। उससे तुम
अलग नहीं हो
सकते। काटते-काटते,
हटाते-हटाते
जो भिन्न है
उसे
जानते-जानते
आदमी उस अंतिम
पड़ाव पर
पहुंचता है, जहां केवल
वही शेष रह
जाता है।
जिसको अपने से
अलग नहीं किया
जा सकता, वह
तुम्हारा
शुद्ध ज्ञायक-स्वरूप
है। उस शुद्ध
में ही जीने
का नाम धर्म है।
और उस शुद्ध
में ही ठहर
जाने का नाम
मोक्ष है। उस
शुद्ध को
जिन्होंने
जान लिया, वे
ही मुक्त हैं।
और महावीर
कहते हैं, जिसने
उस ज्ञायक-स्वरूप
को जान लिया, वही समस्त
शास्त्रों को
जानता है।
उसने सब जान
लिये कुरान, बाइबिल, वेद,
गीता। फिर
कहीं कुछ और
जानने की
जरूरत न रही।
इसे
थोड़ा समझो।
सभी
रहस्यवादियों
ने--महावीर, कृष्ण, बुद्ध,
सभी
रहस्यवादियों
ने--एक बात पर
जोर दिया है कि
शास्त्र को
जानकर तुम
स्वयं को न
जान सकोगे, लेकिन अगर
स्वयं को जान
लो तो सभी
शास्त्रों को
जान सकोगे।
शास्त्र की
तरफ से जो
स्वयं को जानने
चला, उसने
प्रारंभ से ही
गलत यात्रा
शुरू कर दी।
वह शब्दों में
भटक जाएगा, शब्दों के
बड़े जंगल हैं।
शब्दों का बड़ा
बीहड़
जंगल है। उससे
लौटना
मुश्किल हो
जाएगा। सिद्धांतों
की बड़ी भीड़
है। तुम उसमें
भटक जाओगे। बड़ा
तर्कजाल
है। उससे
छूटना
मुश्किल हो
जाएगा। फिर, शास्त्र से
तुम जो भी
जानोगे, वह
बुद्धि से
जानोगे।
अनुभव से नहीं,
हृदय से
नहीं। बुद्धि
तुम्हारी
भरती जाएगी, और हृदय
खाली का खाली
रह जाएगा।
तुम्हारे जीवन
का संतुलन
डांवांडोल हो
जाएगा। फिर
तुम चाहे
आस्तिक बन जाओ,
चाहे
नास्तिक, कुछ
फर्क नहीं
पड़ता
पश्चिम
में एक बहुत
बड़ा नास्तिक
हुआ--वोल्तेयर।
उसने जिंदगीभर
ईश्वर, आत्मा,
धर्म, इनका
खंडन किया।
फिर वह बीमार
पड़ा, हृदय
का दौरा पड़ा।
तब वह घबड़ा
गया। तब एकदम
उसने अपनी
पत्नी को कहा,
अपने
मित्रों को
कहा कि जल्दी
ही किसी
धर्मगुरु का बुलाओ। पर
उन्होंने कहा,
धर्मगुरु!
क्या तुम भूल
गये अपने
सिद्धांत? उसने
कहा छोड़ो
सिद्धांत, इधर
मैं मर रहा
हूं, तुम्हें
सिद्धांत की
पड़ी है। अभी
तक तो जिंदा था,
तो कभी
मैंने सोचा न
था। लेकिन कौन
जाने, यह
धर्मगुरु ठीक
ही हों! मरते
वक्त मुझे आगे
का इंतजाम कर
लेने दो।
धर्मगुरु
बुलाया गया। संयोग
की बात वह ठीक
हो गया।
जब वह
फिर स्वस्थ हो
गया, तो उसने
फिर अपने
पुराने राग
शुरू कर दिये।
फिर नास्तिकता!
फिर ईश्वर, फिर आत्मा
का खंडन!
मित्रों ने
कहा यह तुम
क्या कर रहे
हो? उसने
कहा वह सिर्फ
मौत के भय के
कारण, वह
कोई असली बात
न थी। वह तो
सिर्फ
भावावेश था।
फिर वह अपनी
बुद्धि में
प्रवेश कर
गया--बहुत बड़ा
बुद्धिमान
आदमी था। बहुत
तर्कशील
आदमी था। तो
उसने उसके लिए
भी तर्क खोज
लिया कि वह तो
भय के कारण
जरा कंप गया
था। उसको तुम
कुछ गौर मत
दो।
लेकिन
फिर दस-पंद्रह
साल बाद वह
दौरा पड़ा। तब वह
फिर घबड़ाया।
उसने कहा, बुलाओ धर्मगुरु
को। लेकिन
मित्रों ने
कहा, अब
तुम्हारे भय
के कारण हम
धोखे में न
पड़ेंगे। कहते
हैं मित्र घेरा
बांधकर खड़े हो
गये।
उन्होंने कहा,
न तो हम
धर्मगुरु को
भीतर आने
देंगे, न
तुमको बाहर
जाने देंगे।
अब धोखा न
चलेगा। रोने
लगा वोल्तेयर।
छाती पीटने
लगा कि यह तुम
क्या कर रहे
हो, मैं
मरा जा रहा
हूं। इधर मौत
खड़ी है, तुम्हें
सिद्धांतों
की पड़ी है। छोड़ो
मैंने क्या
कहा था। मैं
क्या कहता हूं
उसे सुनो।
लेकिन
मित्रों ने
कहा कि अब
नहीं। फिर वह ठीक
नहीं हुआ, मर
गया। लेकिन
उसकी अवस्था
को हम थोड़ा
सोचें।
बुद्धि
कहीं भी ले
जाती नहीं। जब
सब ठीक चल रहा
है, तब तो
शायद तुम्हें
परमात्मा की
याद भी नहीं
आती। तब धर्म
की तुम्हें
याद भी नहीं
आती। मंदिर के
पास से तुम
ऐसे गुजर जाते
हो जैसे मंदिर
है ही नहीं।
जब चीजें गड़बड़
हो जाती हैं, हाथ-पैर
डांवांडोल
होने लगते हैं,
मौत करीब
आने लगती है, तब तुम्हें
धर्म की याद
आती है।
लेकिन
यह याद बड़ी
मूल्यवान नहीं
है। अगर तुम
फिर ठीक हो
गये, तो फिर
तुम उसी अकड़
से चलने
लगोगे।
बुद्धि
से आदमी
नास्तिक हो, तो किसी
मतलब का नहीं।
बुद्धि से अगर
आस्तिक हो, तो किसी
मतलब का नहीं।
क्योंकि
बुद्धि तो सिर्फ
यंत्र है, तुम्हारी
आत्मा नहीं।
जब तक आत्मा न
डूब जाए, तन्मय
न हो जाए; जब
तक आत्मा का
पोर-पोर न भीग
जाए, तब तक
कुछ सार नहीं।
बुद्धि में
सिद्धांतों का
होना ऐसे ही
है, जैसे
किसी को भूख
लगी हो, वह
पाकशास्त्र
पढ़ रहा है।
खूब सुंदर
भोजन, स्वादिष्ट
भोजनों का
वर्णन है।
कैसे बनाना, यह भी लिखा
है। एक से एक
व्यंजन, सब
ब्यौरे से
लिखे हैं। भूख
लगी आदमी को, वह
पाकशास्त्र
पढ़ रहा है।
इससे क्या भूख
मिटेगी? इससे
शायद भूख थोड़ी
बढ़ जाए, यह
हो सकता है, लेकिन मिट
तो नहीं सकती।
और जिसने
पाकशास्त्र
को ही भोजन
समझ लिया, उस
अभागे आदमी को
हम क्या कहें,
वह पागल है।
वेद तो
पाकशास्त्र
है।
भीतर
आत्मा के रसायन
में पगना होगा, रंगना होगा।
भोजन पकाना
होगा अपनी ही
आत्मा में। उस
गहनतम
प्रयोगशाला
में उतरना
होगा। महावीर
कहते हैं, तुमने
अगर स्वयं को
जाना, तो
तुम गवाही हो
जाओगे सभी
शास्त्रों
के। तुम कह
सकोगे कि हां,
वे सभी ठीक
हैं। और यह भी
खयाल रख लेना,
जिस
व्यक्ति ने
स्वयं को जाना,
वह कहेगा
सभी ठीक हैं।
वह यह न कहेगा,
कुरान ठीक
है, बाइबिल
गलत है। वह यह
न कहेगा, वेद
सही हैं और
बुद्ध गलत
हैं। उसको तो
दिखायी पड़ गया
अनुभव। अब
शब्दों के भेद
होंगे, रूप-रेखा
अलग होगी, रंग-ढंग
अलग होंगे, लेकिन भीतर
का प्राण तो
उसे समझ में आ गया।
उसे मूलसूत्र
तो पकड़ में आ
गया। अब सभी
ठीक हैं।
इसलिए महावीर
ने एक
सिद्धांत को
जन्म दिया, जिसको
अनेकांतवाद
कहते हैं।
अनेकांतवाद
का अर्थ होता
है, सभी
दृष्टियां
ठीक हैं। कोई
दृष्टि गलत
नहीं। महावीर
ने दर्शन का
बड़ा अनूठा
अर्थ किया है।
दर्शन का अर्थ
है, ऐसी
दृष्टि जहां
सभी
दृष्टियां
ठीक हैं।
दर्शन का अर्थ
है, सभी
दृष्टियों को
ठीक मानकर सभी
दृष्टियों के
ऊपर उठ जाना।
कोई दृष्टि
में बंधा न रह
जाए व्यक्ति।
तो धर्म का
अर्थ तो हुआ, जब व्यक्ति
किसी धर्म में
बंधा न रह
जाए। धार्मिक
व्यक्ति
हिंदू नहीं हो
सकता, मुसलमान
नहीं हो सकता,
जैन नहीं हो
सकता।
धार्मिक होना
काफी है। काफी
से ज्यादा है।
यह विशेषण
बिलकुल
व्यर्थ है।
"अतः
हे भव्य '....अंतिम
सूत्र... "तू इस
ज्ञान में सदा
लीन रह, इसी
में सदा
संतुष्ट रह, इसी में
तृप्त हो, इसी
से तुझे उत्तम
सुख प्राप्त
होगा।'
"एदम्हि रदो णिच्चं।
हे भव्य, तू
इस ज्ञान में
डूब।'
"संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि।
इसी में
संतुष्ट हो।'
"एदेण होहि तित्तो।
इसी में तृप्त
हो।'
"होहिदि तुह उत्तमं
सोक्खं।
और उत्तम सुख
तुझे निश्चित
मिलेगा। तू
उत्तम सुख हो
जाएगा।'
तू महासुख
स्वयं हो
जाएगा।
जिसे
हम संसार समझ
रहे हैं और
जहां हम सुख
खोज रहे हैं, वहां मिलता
किसी को कभी
सुख? वहां
सिर्फ आभास है,
मृगमरीचिका
है, खिलौने
हैं। वही
व्यक्ति
प्रौढ़ है, जिसे
यह दिखायी पड़
गया कि संसार
में सिर्फ खिलौने
हैं। छोटा
बच्चा खेल रहा
है।
गुड्डा-गुड्डी
का विवाह
रचाता है। और
उसी तरह उत्तेजित
होता है जैसे
कि तुम असली
विवाह में उत्तेजित
होते हो। उसको
तो तुम कहते
हो बच्चा है, खिलवाड़ में लगा है।
लेकिन तुम जो
विवाह रचाते
हो, वह खिलवाड़
से कहीं
ज्यादा है? वह भी खिलवाड़
है। थोड़े बड़े
पैमाने पर है।
छोटे बच्चे
बारात
निकालते हैं
अपने गुड्डे
की, तुम
राम की बारात
निकालते हो।
रामलीला करते
हो। उसमें
सम्मिलित
होते हो।
लेकिन सब खेल
है। खेल से कब
जागोगे?
मताए-सोजो-साजे-जिंदगी
पैमाना-ओ-बरबत
मैं
खुद को इन
खिलौनों से भी
अब बहला नहीं
सकता
कब वह
वक्त आएगा, जब तुम
कहोगे--जीवन
के सुख-दुख, शराब और
संगीत...।
मताए-सोजो-साजे-जिंदगी
पैमाना-ओ-बरबत
मैं
खुद को इन
खिलौनों से भी
अब बहला नहीं
सकता
कब वह
वक्त आएगा जब
तुम कहोगे कि
अब इन खिलौनों
से भी बहलाने
का वक्त जा
चुका। अब मैं
इन खिलौनों से
भी अपने को
बहला नहीं
सकता। उसी दिन
तुम प्रौढ़ बनोगे।
उसी दिन
तुम्हारे
भीतर बोध का जन्म
हुआ। उसी दिन
वस्तुतः तुम
जन्मे। उसके
पहले तक तो एक
सपना था।
रुखसत
ऐ हमसफरो! सहरे-निगार
आ ही गया
खुल्द भी
जिस पे हो कुर्बां
वो दियार
आ ही गया
महावीर
कहते हैं, जो इन
खिलौनों से जग
गया, बात
हो गयी। इधर
खिलौनों से
छूटे कि वहां
सत्य हाथ में
आया नहीं। इधर
सपना टूटा कि
वहां आंख खुली
नहीं। आंख का
खुलना और सपने
का टूटना
युगपत है।
एकसाथ है। ऐसा
थोड़े ही है कि
पहले अज्ञान
मिटेगा, फिर
ज्ञान होगा।
अज्ञान मिटा
कि ज्ञान हुआ,
ज्ञान हुआ
कि अज्ञान
मिटा। एक साथ!
एक पल में! रुखसत
ऐ हमसफरो!
अलविदा। कहने
लगता है वैसा
व्यक्ति अपने
साथियों से कि
अब विदाई आ
गयी, अब
तुम चलो जिस
रास्ते पर तुम
चल रहे हो, लेकिन
मैं तो विदा
हुआ--
रुखसत
ऐ हमसफरो! सहरे-निगार
आ ही गया
मेरी
मंजिल आ गयी।
खुल्द भी
जिस पे हो कुर्बां
वो दियार
आ ही गया
और
स्वर्ग भी जिस
पर कुर्बान
हो जाएं, वह
खुशी का नगर, वह अंतःपुर
आ गया।
हमने
इस देश में
आत्मा को एक
और नाम दिया
है। वह नाम है
पुरुष। पुरुष
उसी धातु से
बनता है, जिससे
पुर। पुरुष का
अर्थ होता है,
भीतर के नगर
में
रहनेवाला।
रुखसत
ऐ हमसफरो! सहरे-निगार
आ ही गया
खुल्द
भी जिस पे हो कुर्बां
वो दियार
आ ही गया
इधर
खिलौने हाथ से
छूटे नहीं, इधर तुम
खाली हुए
संसार के
उपद्रव से, वहां तुम
भरे नहीं
परमात्मा की
परम शांति से।
"हे
भव्य, तू
इस ज्ञान में
सदा लीन रह।'
किस
ज्ञान में? शास्त्र के
नहीं, शब्द
के नहीं।
स्वयं के, ध्यान
के, अपने
अनुभव के
अंतर-संगीत
में डूब।
"इसी
में सदा
संतुष्ट रह।
इसी में तृप्त
हो। इसी से
तुझे उत्तम
सुख प्राप्त
होगा।'
महावीर
कहते हैं, उत्तम सुख।
जो सुख कभी न छिने, वह
उत्तम। जो आए
तो आए, फिर
जाए न, वह
उत्तम। जो आए
तो सदा के लिए
आ जाए, जो
आए तो शाश्वत
आ जाए, जो
मिले तो फिर
जिससे बिछड़ना
न हो, वह
उत्तम। जिस
सुख में बिछड़ना
हो, वह
केवल दुख का
ही एक चेहरा
है। जिस हंसी
में आंसू छिपे
हों, वह
रोने का ही एक
ढंग है। जहां
से हट जाना
पड़े, वहां
रहना केवल
हटने की
तैयारी है।
जिस योग में
वियोग संभव हो,
वह योग ही
नहीं। वह केवल
योग का धोखा
है। वह शराब
है, नशा
है। बोध नहीं,
जागरण नहीं।
डूबो, अपने
में।
देखना
ही है जो
इंसान में
भगवान
तुम्हें
आदमी
को ही आदमी की
नज़र से देखो
चल
रहे हैं जो
उन्हें चल के
डगर से देखो
तैरनेवाले
को तट से न, लहर से देखो
डूबना
पड़े। यह जो
डूब गये, उनकी
बातें हैं। जो
खो गये परम
सागर में, उनके
वचन हैं।
चल
रहे हैं जो उन्हें
चल के डगर से
देखो
ऐसे
किनारे बैठकर
मत देखते
रहना।
तुम्हें पता न
चलेगा उनका
आनंद। दौड़नेवाले
का आनंद बैठनेवाले
को कैसे पता
चलेगा! कभी
तुम दौड़े हो
सुबह के सूरज
में, सुबह की
ताजी हवाओं
में, जब
मलय-बहार सब
तरफ घेर लेती
है, सुबह
की नयी सुगंध?
तुम दौड़े हो
हवाओं में, तुमने किया
है संघर्ष? नहीं तो
तुम्हें पता
नहीं चलेगा, वह जो पुलक, वह जो ताजगी
उस क्षण घेर
लेती है दौड़नेवाले
को। तुम बैठे
किनारे से
देखते रहोगे,
दौड़नेवाला भी दिखायी
पड़ता है, हवा
के झपेड़े
भी दिखायी
पड़ते हैं
क्योंकि उसके
वस्त्र उड़े
जा रहे हैं, उसके बाल उड़े
जा रहे हैं, और यह भी
दिखायी पड़ता
है कि बड़ा
ताजा और बड़ा
प्रसन्न है, लेकिन भीतर
उसके जो घट
रहा है, वह
तो तुम कैसे
जानोगे, कैसे
देखोगे?
चल
रहे हैं जो
उन्हें चल के
डगर से देखो
तैरनेवाले
को तट से न, लहर से देखो
तैरनेवाले
का कुछ मजा
है। वह तैरनेवाला
ही जानता है।
वह तुम्हें
बताना भी चाहे
तो नहीं बता
सकता। "गूंगे
केरी सरकरा।' उसने स्वाद
तो लिया है, लेकिन कैसे
कहे? कहने
को कुछ उपाय
नहीं है।
गूंगा ज्यादा
से ज्यादा
तुम्हारा हाथ पकड़कर
खींच सकता है
कि आओ, तुम
भी रस ले लो, तुम भी चखो
इस स्वाद को। तैरनेवाले
से तुम पूछो
कि क्या है
मजा? यह
पानी के थपेड़ों
में उलझना
तेरा, यह
पानी के साथ
नाच, यह
नृत्य लहरों
में, क्या
है मजा? तो
वह कहेगा, आओ,
खींचेगा
तुम्हारा
हाथ। वही
महावीर कर रहे
हैं। वही सदा
सत्पुरुषों
ने किया है।
खींचते हैं
तुम्हारा हाथ
कि आओ। तुम
कहते हो, पहले
समझाओ। तुम
कहते हो, पहले
हमें पक्का
भरोसा आ जाए
कि कुछ सार है,
तो
उतरेंगे।
यहीं अड़चन है।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
तैरना सीखने
नदी पर गया
था। पैर फिसल
गया, काई
जमी थी घाट पर,
गिर पड़ा।
भागा वहां से।
जो सिखाने उसे
ले गया था
उसने कहा, कहां
जा रहे हो? नसरुद्दीन ने कहा, हो
गया। अब जब तक
तैरना सीख न
लूं, नदी
के पास भी न फटकूंगा।
यह तो खतरनाक
मामला है, अभी
पैर फिसल गया,
अगर पानी
में चले गये
होते तो गये।
अब आनेवाला
नहीं हूं। अब तैरकर, सीखकर ही आऊंगा।
लेकिन उस आदमी
ने कहा, तुम
तैरना सीखोगे
कहां? कोई गद्देत्तकियों
पर तो आदमी
तैरना सीखता
नहीं। कितने
ही हाथ-पैर तड़फाओ
गद्देत्तकियों
पर, उससे
तैरना न आएगा।
सुविधापूर्ण
है वैसा तैरना,
खतरा
बिलकुल नहीं
है--अपने गद्देत्तकियों
पर हाथ-पैर
फेंक रहे हैं,
कौन क्या
करेगा? डूबने
का कोई डर
नहीं है।
लेकिन डूबने
का जहां डर न
हो, वहां तैरना
आता ही नहीं।
जितनी बड़ी जोखम,
उतनी ही बड़ी
आत्मा का जन्म
होता है। वह
डूबने से ही
तैरने की कला
आती है। डूबने
की संभावना से
ही तैरने का
सत्य पकड़ में
आता है।
अन्यथा
तुम ऊपर-ऊपर
रह जाओगे। दौड़नेवाले
को किनारे से
बैठकर देख
लोगे, तैरनेवाले को किनारे
से बैठकर देख
लोगे। महावीर
को ऐसे ही तो
देखा तुमने।
ऐसे ही तो तुम
मुझ को भी देख
रहे हो।
चमन
को देख तो फिर
फूल-पात को न
देख...
चमन
को देख तो फिर
फूल-पात को न
देख
यानी
पहचान खिलाड़ी
को बस बिसात न
देख
मेरी
डोली की गरीबी
पे ओ हंसनेवाले!
मेरी
दुल्हन को देख, लौटती बारात
न देख
लेकिन
दुल्हन बड़ी
भीतर है। डोली
ही दिखायी पड़ती
है, बारात
दिखायी पड़ती
है। दुल्हन तो
डोली में छिपी
है। डोली कभी
बहुत सजी-संवरी
हो, अमीर
की हो, तो
भी जरूरी नहीं
कि दुल्हन
भीतर हो ही।
डोली गरीब की
भी हो, रंग-रोगन
सब उड़ गया हो, तो भी
दुल्हन हो
सकती है।
चमन
को देख तो फिर
फूल-पात को न
देख
तुमने
अगर मेरे
शब्द-शब्द
चुने, तो
तुमने फूल-पात
चुना। तो
तुमने चमन को
न देखा। तो यह
बहार जो आयी
थी तुम्हारे
पास, ऐसे
ही गुजर गयी।
तुमने खंड-खंड
चुने, तुमने
समग्र को न
देखा।
चमन
को देख तो फिर
फूल-पात को न
देख!
वसंत
को जिसने देख
लिया, फिर
एक-एक कली और
एक-एक फूल को
थोड़े ही गिनता
फिरता है। आ
गया वसंत।
वसंत को पूरा
जिसने देख लिया,
सब फूल समा
गये उसमें।
ध्यान रहे, खंडों का
जोड़ नहीं है
पूर्ण। खंडों
के जोड़ से बहुत
ज्यादा है
पूर्ण। वसंत
सभी फूलों और
कलियों का जोड़
नहीं है, वसंत
कलियों और
फूलों के जोड़
से ज्यादा है।
वसंत बहुत
विराट है।
कलियों और
फूलों में तो
थोड़ी-थोड़ी झलक
पड़ी है, थोड़ी
प्रतिछवि
आयी है।
कलियों और
फूलों में तो
थोड़ा-सा प्रतिबिंब
बना है, थोड़ी
लहर गूंजी
है।
चमन
को देख तो फिर
फूल-पात को न
देख
यानी
पहचान खिलाड़ी
को बस बिसात न
देख
महावीर
हैं, बुद्ध
हैं, बड़ी
उनकी बिसात
है। शतरंज के
मोहरे बिछाकर
बैठे हैं। तुम
मोहरों को ही
मत देखते रहना,
खिलाड़ी को देख।
उनके शब्द तो
मोहरे हैं
शतरंज के। उनके
सिद्धांत भी
मोहरे हैं।
उसी में मत
उलझ जाना।
यानी
पहचान खिलाड़ी
को बस बिसात न
देख
मेरी
डोली की गरीबी
पे ओ हंसनेवाले!
मेरी
दुल्हन को देख, लौटती बारात
न देख
बहुत
कम लोग हैं
जिन्होंने
महावीर की
दुल्हन देखी।
लौटती बारात
देखी। तो
जैन-शास्त्रों
में बड़ा
उल्लेख है कि
महावीर ने
कितना त्याग
किया--कितने
घोड़े, कितने
हाथी, कितने
हीरे, कितने
जवाहरात! बड़ी
लंबी संख्याएं
हैं। बड़े शून्यों
पर शून्य रखे
हैं। त्याग तो
दिखा उन्हें,
इसलिए बड़ा
वर्णन किया
है। लेकिन यह
लौटती बारात
है। इसको तो
महावीर छोड़कर
चले गये।
इसमें तो
उन्हें कुछ भी
न दिखा।
जिसको
महावीर ने छोड़
दिया, उसको
जैनियों ने
बड़े विस्तार
से लिखा है।
इनको जरूर कुछ
दिखता होगा, अन्यथा कौन
कागज खराब
करता है। यह
लौटती बारात
है। यह देख
रहे हैं कि
कौन-कौन आए
थे। प्रधानमंत्री
थे बारात में,
राष्ट्रपति
थे, गर्वनर
थे, यह
लौटती बारात
देख रहे हैं, यह दूल्हे
को भूल ही गये
हैं! दुल्हन
की तो बात ही
दूर, दुल्हन
तो दूर छिपी
है घूंघट में,
डोली में।
महावीर के
त्याग को तो
देखा, महावीर
के भोग को
देखा? महावीर
की दुल्हन
देखी? महावीर
ने जो छोड़ा, वह तो तुमने
गिन लिया!
महावीर ने जो
पाया, उसको
गिना? वह
तो बिलकुल चूक
गया।
तो
महावीर की बड़ी
अधूरी तस्वीर
लोगों के हाथ
में है--और
अधूरी ही नहीं, गलत तस्वीर
हाथ में है।
लोग कहते हैं,
महावीर
महात्यागी।
मैं तुमसे
कहता हूं, इतने
बड़े महाभोगी
कभी-कभी होते
हैं।
उन्होंने परमसत्य
को भोगा। परमसत्ता
को भोगा।
जो
अप्पाणं जाणदि, असुइ-सरीरादु तच्चदो भिन्नं।
जाणग-रूव-सरूवं, सो सत्थं
जाणदे सव्वं।।
एदम्हि रदो णिच्चं, संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि।
एदेण होहि तित्तो, होहिदि तुह उत्तमं
सोक्खं।।
किसने
उनके उत्तम
सुख को देखा? किसने देखा
उनके स्वर्ग
को? लेकिन
वह देखा भी
नहीं जा सकता
बाहर से। बाहर
से तो लौटती
बारात दिखायी
पड़ती है।
शतरंज के मोहरे
दिखायी पड़ते
हैं। खिलाड़ी
तो भीतर छिपा
है। दुल्हन तो
डोली में है।
चल
रहे हैं जो
उन्हें चल के
डगर से देखो
तैरनेवाले
को तट से न, लहर से
देखो।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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