ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,
अंबरनाथ; रात्रि 10
फरवरी, 1973
वह
देख, ईश्वरीय
प्रज्ञा के
मुमुक्षु, तू
अपनी आंखों के
सामने क्या
देख रहा है?
पदार्थ
के समुद्र पर
अंधकार का
आवरण पड़ा है
और उसके भीतर
ही मैं
संघर्षरत
हूं। मेरी
दृष्टि की
छाया में वह
गहराता है, और आपके
हिलते हाथ की
छाया में वह
विच्छिन्न हो
जाता है। सांप
के फैलते
केंचुल की तरह
एक छाया
गतिवान होती
है यह बढ़ती है,
फूलती-फैलती
है, और
अंधकार में
विलीन हो जाती
है।
यह
मार्ग के बाहर
तेरी ही छाया
है--तेरे ही
पापों के
अंधकार से बनी
है।
हां, प्रभु मैं
तेरे मार्ग को
देखता हूं।
इसका आधार
दलदल में है
और इसका शिखर
निर्वाण के
दिव्य व गौरवमय
प्रकाश से
मंडित है। और
अब मैं ज्ञान
के कठिन और
कंटकाकीर्ण
पथ पर निरंतर
संकीर्ण होते
जाते द्वारों
को भी देखता
हूं।
ओ लानू
(शिष्य) तू ठीक
देखता है। ये
द्वार मुमुक्षु
को नदी के पार
दूसरे किनारे
पर निर्वाण
में पहुंचा
देते हैं।
प्रत्येक
द्वार की एक
स्वर्ण-कुंजी
है, जो उसे
खोलती है। ये
कुंजियां हैं:
१
दान : उदारता व
अमर प्रेम की
कुंजी।
२
शील : वचन और
कर्म की
लयबद्धता की
कुंजी, जो
कारण और कार्य
के नियम को
संतुलित और
कर्म-बंधन का
अंत करती है।
३
क्षांति :
मधुर धैर्य, जिसे कुछ भी
विचलित नहीं
कर सकता। ४
विराग : सुख व
दुख के प्रति
उपेक्षा, भ्रांति
पर विजय, मात्र
सत्य का
दर्शन।
५
वीर्य : वह
अदम्य ऊर्जा
जो सांसारिक
असत्यों के
दलदल से सत्य
के शिखर की ओर
संघर्ष करती
है।
६
ध्यान : जिसका
स्वर्ण-द्वार
एक बार खुल
जाने पर जो नारजोल
(संत या सिद्ध)
को नित्य सत्य
के लोक और
उसके सतत
स्मरण की ओर
ले जाता हैं।
७
प्रज्ञा :
जिसकी कुंजी
मनुष्य को
दिव्य बना
देती है, और बोधिसत्व
भी। बोधिसत्वता
ध्यान की
पुत्री है।
उन
द्वारों की
ऐसी ही स्वर्ण-कुंजियां
हैं।
ओ
अपने मोक्ष के
ताने बुनने
वाले, अंतिम
द्वार को
पहुंचने के
पूर्व तुझे
दुस्तर मार्ग
पर से चल कर
पूर्णता की इन
पारमिताओं
पर—जो लोकोत्तर
गुण छ: और दस की संख्या
में है—अधिकार
करना होगा।
जो
लोकोत्तर गुण
छः अपने भीतर
है--इस बारे
में बहुत-सी
बातें हैं। इन
सूत्रों में
वे कही नहीं गई
हैं। मात्र
उनका इंगित
है। और
बहुत-सी बातों
का इंगित भी
नहीं है। आशा
है बिना इंगित
के ही उन्हें
समझा जा सकेगा।
जैसे, कल रात
मैंने आपको
कहा, इस
बात का निर्णय
ही कि मैं
तत्पर हूं उस
नदी में
प्रवेश के लिए,
जो सागर की
ओर ले जाएगी; छोड़ता हूं
अपने को, बहने
का संकल्प
करता हूं, समर्पित
होता हूं--यह
निर्णय ही
व्यक्ति को स्रोतापन्न
बना देता है।
और इस निर्णय
के साथ ही
व्यक्ति में
परिवर्तन
शुरू हो जाते
हैं। निर्णय
के बाद नहीं, इस निर्णय
के साथ ही।
ऐसा नहीं है
कि निर्णय किया
और फिर
परिवर्तन
होंगे। यह
निर्णय ही परिवर्तनकारी
हो जाता है।
इस निर्णय के
साथ ही आप वही
आदमी नहीं हैं,
जिसने
निर्णय किया
था; आप
दूसरे आदमी
हैं, जो
निर्णय से
गुजर चुका है।
यह निर्णय
आपके भीतर, उस दृष्टि
की पहली झलक
ले आता है, जिसके
बिना मार्ग पर
जाने का कोई
उपाय नहीं है।
हम
जीते हैं
अनिर्णय में।
हमारा मन सदा
होता है डांवांडोल।
यह भी करना
चाहते हैं, वह भी करना
चाहते हैं, विपरीत को
भी साथ ही
करना चाहते
हैं। और हम न मालूम
कितने खंडों
में बंटे होते
हैं। इन खंडों
के बीच कोई
तारतम्य भी
नहीं होता है।
निर्णय के साथ
ही आपके खंड
इकट्ठे हो
जाते हैं।
निर्णय का एक
सूत्र आपको
जोड़ देता है।
आप टुकड़ों
में बंटे हुए
एक भीड़ न होकर,
व्यक्ति बन
जाते हैं।
अगर
आपने कभी कोई
छोटा-मोटा
निर्णय भी
किया है, तो
उस निर्णय के
साथ ही भीतर
जो एकाग्रता
फलित होती है,
उस निर्णय
के साथ भीतर
जो एक हल्कापन
और ताजगी आ
जाती है, उसका
भी अनुभव किया
होगा। साधारण
निर्णय में भी
धुआं छंट जाता
है, बादल
हट जाते हैं, सूर्य का
प्रकाश हो
जाता है।
निर्णय के साथ
ही धुंध के
बाहर हो जाते
हैं। लेकिन
बड़े निर्णय तो
बड़े
क्रांतिकारी
हैं। उनके बाद
आप वही आदमी
नहीं रहते, और फिर
दुबारा लौटना
असंभव हो जाता
है। ऐसा ही
निर्णय है
साधक बनने का
निर्णय। इस
निर्णय के साथ
ही व्यक्ति की
भीतर की आंख
पहली दफा
खुलती है, पलक
पहली दफा उठता
है। तो यह पलक
उठ गया है, और
यह आंख खुली
है, और
गुरु ने शिष्य
को कहा है:
"वह देख, ईश्वरीय
प्रज्ञा के
मुमुक्षु, तू
अपनी आंखों के
सामने क्या
देख रहा है?' --इस
निर्णय के साथ
ही भीतर जो
एकाग्रता
फलित हो रही
है, उस
एकाग्रता में
तुझे क्या
दिखाई पड़ रहा
है? यह
आंख के बाहर
दिखाई पड़नेवाली
दो आंखों की
बात नहीं है।
यह तो निर्णय
के साथ भीतर
जो तीसरी आंख
खुलती है, उसकी
बात है। देख, तेरी आंखों
के सामने क्या
घट रहा है? और
जो दिखाई पड़ा
है साधक को, वह मनुष्य
के मन की बड़ी गहनतम खोज
है।
और जब
आप भी अपने
भीतर प्रवेश
करेंगे, तो
जिससे आपकी
पहली मुलाकात
होगी, वह
आपकी आत्मा
नहीं है।
जिससे आपकी
पहली मुलाकात
होगी, वह
आपकी छाया है,
आपकी आत्मा
नहीं। और अब
तक हम छाया को
ही आत्मा
मानकर जिये
हैं। इसलिए
स्वाभाविक है
कि उससे ही
हमारा पहले
मिलना हो। यह
हमारे भीतर जो
एक छाया
है--जिसको
पीछे मनोविज्ञान
, विशेषकर
गुस्ताव जुंग
ने बड़ा मूल्य
दिया और कहा
कि हर आदमी की
एक शैडो है।
वह छाया, जो
आपको दिखाई
पड़ती है सूरज
की धूप में, वह नहीं है।
जो अपने अपनी
ही भूल और
अपने अज्ञान
से अपने भीतर
निर्मित कर
ली--आपकी
अस्मिता, आपका
अहंकार, वही
छाया आपका
पीछा कर रही
है। सूरज की
धूप भी जब
नहीं होती, तब भी वह
छाया आपका
पीछा
करती है। और
इस छाया में
ही आप जीते
हैं। और उस
छाया को ही
मान लेते हैं
कि यह मैं
हूं। और उस
छाया के आसपास
ही एक संसार
निर्मित करते
हैं। जैसे ही
निर्णय की आंख
खुलती है, पहली
मुलाकात इसी
छाया से, इसी
मनस्-काया
से होती है।
शिष्य
ने कहा :
"पदार्थ के
समुद्र पर
अंधकार का
आवरण देखता हूं
और उसके भीतर
ही मैं
संघर्षरत
हूं। यह भी देखता
हूं, और मेरी
दृष्टि की
छाया में वह
गहराता है, और जैसे मैं
देखता हूं, वह जो
अंधकार है, और गहन हो
जाता है, मेरी
दृष्टि से और
घना मालूम
पड़ता है, और
आपके हिलते
हाथ की छाया
में उसे
विच्छिन्न होते
भी देखता हूं।
सांप के फैलते
केंचुल की तरह
यह छाया
गतिवान होती
है यह बढ़ती है,
फूलती
नहीं
है। लेकिन अंधेरे
में
खोजते-खोजते
एक दिन अंधेरे
की पर्त टूट
जाती है और हम
प्रकाश के लोक
में प्रवेश करते
हैं।
पहली
मुलाकात
वास्तविक
साधक को
अंधेरे से होती
है, झूठे
साधक को
प्रकाश से भी
हो सकती है।
यह साधक कह
रहा है कि
देखता हूं
पदार्थ के
समुद्र पर अंधकार
का आवरण। और देखता
हूं कि उसके
भीतर मैं
संघर्षरत
हूं। उस अंधेरे
में ही मैं
टटोल रहा हूं,
खोज रहा
हूं। उस
अंधेरे में ही
मैं लड़ रहा
हूं। उस
अंधेरे में ही
मेरी वासनाएं
और मेरी कामनाएं
और मेरी
अभीप्साएं
हैं। उस
अंधेरे में ही
मेरा संसार है,
यह भी देखता
हूं। और साथ
ही एक और बड़ी
अदभुत बात
देखता हूं कि
आपके हिलते
हाथ की छाया
में वह
विच्छिन्न हो
जाता है, और
मेरे देखने से
और घना होता
है।
गुरु
आपको प्रकाश
तो नहीं दे
सकता, लेकिन
आपके अंधकार
को छीन सकता
है।
इसे
थोड़ा ठीक से
समझ लें, क्योंकि
हम सोचते हैं
कि दोनों एक
ही बात है। दोनों
एक ही बात
नहीं है। कोई
चिकित्सक
आपको स्वास्थ्य
नहीं दे सकता,
लेकिन आपकी
बीमारी छीन
सकता है। और
बीमारी न हो, तो
स्वास्थ्य के
उपलब्ध होने
की संभावना बढ़
जाती है। फिर
भी जरूरी नहीं
कि आप स्वस्थ
हो जाएं; लेकिन
संभावना बढ़
जाती है। इतना
पक्का है कि बीमारी
के साथ स्वस्थ
होना मुश्किल
है। बीमारी हट
जाए, तो
स्वास्थ्य
प्रगट हो सकता
है। समस्त
चिकित्साशास्त्र
बीमारी को अलग
करने का दावा
करते हैं, स्वास्थ्य
को देने का
नहीं।
स्वास्थ्य
दिया भी नहीं
जा सकता है।
स्वास्थ्य तो
आपकी भीतरी क्षमता
है। बीमारी न
हो, तो
स्वास्थ्य
प्रगट हो जाता
है। जैसे कोई
झरना दबा हो
पत्थरों में,
और हम पत्थर
हटा लें, झरना
प्रगट हो जाए।
लेकिन झरना
पत्थरों के अलग
होने से प्रगट
नहीं होता; झरना तो था
ही, सिर्फ
छिपा था, आवृत्त
था।
तो कोई
गुरु ज्ञान
नहीं दे सकता
है। क्योंकि ज्ञान
तो छिपा ही है, वह है स्वभाव।
लेकिन गुरु
आपके अंधेरे
को
छिन्न-भिन्न
कर सकता है।
और अंधेरा
छिन्न-भिन्न
हो जाए, तो
आपके भीतर बड़ी
घटनाएं घटती
हैं। अंधेरा
छिन्न-भिन्न
होते ही आपका
संसार
छिन्न-भिन्न
हो जाता है।
और कल तक जैसा
आप देखते थे, अब नहीं देख
पाते। और कल
तक जैसा आप
सोचते थे, अब
नहीं सोच
पाते। आप
छिन्न-भिन्न
हो जाते हैं।
आपके अंधेरे
के
छिन्न-भिन्न
होते ही आपकी
जड़ें गिर जाती
हैं। वह जो
आपका झूठा लोक
है, वह सब
तरफ से टूट
जाता है, उसकी
दीवारें गिर
जाती हैं। आप
एक खंडहर हो
जाते हैं।
वह
शिष्य देखता
है कि "आपके
हिलते हाथ की
छाया में वह विच्छिन्न
हो जाता है, टुकड़े-टुकड़े
हो जाता है, दूर हट जाता
है। लेकिन जब
मैं गौर करता
हूं, तो
घना हो जाता
है। जब मैं
देखता हूं, अपनी दृष्टि
उस पर एकाग्र
करता हूं, तो
बहुत घना हो
जाता है। '
ध्यान
रहे, जैसे कि
सुबह से पहले
रात घनी हो
जाती है, अंधेरा
प्रगाढ़
हो जाता है, वैसे ही जब
कोई भीतर
एकाग्र होकर
देखता है, तो
वह जो विराट
अंधकार हमने
जन्मों-जन्मों
में इकट्ठा
किया है, वह
सघन हो जाता
है, इकट्ठा
होने लगता है,
कंडेन्स हो जाता है।
और अगर कोई
ठीक से खोज
करता रहे, तो
ठीक आपकी
प्रतिमूर्ति
अंधेरे में
निर्मित हो
जाती है। आपकी
ही छाया, आपका
ही निगेटिव, आप अपने को
ही खड़ा देख
पाते हैं। और
अगर इसे गौर
से कोई देखता
ही चला जाए, तो वह छाया
सघन होते-होते
छोटी होती चली
जाती है। अंत
में एक बिंदु
मात्र रह जाता
है। और जिस
दिन वह बिंदु
भी विसर्जित
हो जाता है, उसी दिन
प्रकाश का
द्वार खुल
जाता है।
जितनी हो
एकाग्रता इस
अंधकार की मूर्ति
पर, वह
उतनी ही छोटी
होती चली जाती
है, और
जितनी हो
एकाग्रता कम,
उतना ही
अंधकार बड़ा
होता चला जाता
है। इसका अर्थ
हुआ कि जब
ध्यान की
क्षमता बढ़ती
है, तो
अंधकार सीमित
होने लगता है।
और जब ध्यान
की क्षमता
नहीं होती, तो अंधकार
विराट होने
लगता है।
ध्यान के अभाव
में अंधकार का
बड़ा विस्तार
है। और ध्यान
के साथ ही
अंधकार छोटा
होने लगता है।
एक घड़ी आती है कि
अंधकार शून्यवत
हो जाता है, नहीं हो
जाता है। वह
क्षण ही अवसर
है, प्रकाश
के प्रगट होने
का।
तो
ध्यान दो काम
करता है--अंधकार
को छोटा करता
है, और
प्रकाश के
द्वार को
खोलने का उपाय
करता है।
"सांप
के केंचुल की
तरह वह छाया
गतिवान है, बढ़ती है, फूलती-फैलती
है और अंधकार
में विलीन हो
जाती है'
किन्हीं-किन्हीं
क्षणों में वह
साधक कह रहा है
कि मैं उसे
सघन होते भी
देखता हूं।
लेकिन बड़ी परिवर्तनशील
है। जैसे हाथ
में किसी ने
पारे को पकड़ने
की कोशिश की
हो, और
बिखर-बिखर
जाए। कुछ पकड़
में नहीं आती।
फ्कभी
लगती है कि है
और कभी अंधकार
में खो जाती
है।
ऐसा ही
है हमारा
अज्ञान का
लोक। वहां पकड़
में कुछ भी
नहीं आता।
मुट्ठी बांधते-बांधते
पता लगता है
कि जिसे पकड़ते
थे, वह छूट
गया।
कौन-सी
वासना पकड़ में
आती है, कौन-सी
इच्छा पकड़ में
आती है, कौन-सी
कामना पकड़ में
आती है?
सदा
दूर बनी रहती
है, पास
पहुंचते-पहुंचते
खो जाती है।
कभी लगता है किसी
क्षण में कि
बस अब पा लिया,
और हाथ
खोलकर देखते
हैं तो वहां
सिवाय धुआं के
और कुछ भी
नहीं होता।
जिसे खोजने
चले थे, व
फिर दूर कहीं
आगे दिखाई
पड़ने लगता है।
इन्हीं सारी
वासनाओं के
संघट का नाम
है भीतर की
छाया। और इस
छाया से मुक्त
होना जरूरी
है। इस छाया
से जो मुक्त
नहीं है, वह
अपनी आत्मा को
कभी नहीं जान
पाएगा।
शंकर
ने अस्तित्व
को समझने का, अस्तित्व को
देखने का जो
ढंग दिया है, वह विचारणीय
है। और उससे
इस छाया को
समझना आसान
होगा। शंकर ने
कहा है कि
ब्रह्म है इस
जगत का केंद्र
और यह जो सारा
फैलाव है जगत
का, यह है
माया, यह
है स्वप्न उस
ब्रह्म का।
ठीक
ऐसे ही अगर
आपको हम आत्मा
मानें, तो
आपके आसपास जो
एक छोटा-सा
संसार
वासनाओं का
निर्मित हो
जाता है, वह
आपकी माया है,
आपकी छाया
है। और अगर
प्रत्येक
व्यक्ति ब्रह्म
है, और है, तो उसके पास
भी एक उसकी
माया का
विस्तार है। उस
माया को ही यह
साधक छाया कह
रहा है।
छाया
की कुछ खूबियां
हैं, वह हम समझ
लें, तो
समझने में
बहुत आसानी हो
जाएगी। छाया
की एक खूबी है
कि वह होती
नहीं है और
दिखाई पड़ती
है। जब आप रास्ते
पर चल रहे
होते हैं, और
धूप में आपकी
छाया पड़ती है,
तो वहां
होता क्या है?
छाया में
कोई सत्व, कोई
सब्सटेन्स
तो नहीं होता,
कोई द्रव्य
तो नहीं होता।
छाया सिर्फ
अभाव है।
प्रकाश की
किरणें आप पर
पड़ती हैं और
आप आड़ बन
जाते हैं।
जितने हिस्से
में आप आड़
बन जाते हैं, उतने हिस्से
में पीछे
प्रकाश की
किरणें नहीं पड़
पाती हैं, छाया
निर्मित हो
जाती है। वह
छाया सिर्फ
प्रकाश का
अभाव है, छाया
कुछ है नहीं।
इसलिए छुरी से
उसे हम काट नहीं
सकते, आग
से हम उसे जला
नहीं सकते और
हम उसे मिटाना
चाहें, तो
मिटाने का भी
कोई उपाय नहीं
है। क्योंकि
जो नहीं है, उसे मिटाया
भी नहीं जा
सकता। और छाया
से कोई लड़ेगा
तो हारेगा, जीत भी नहीं
सकता है।
क्योंकि जो
नहीं है, उससे
जीतने का भी
क्या उपाय है?
बहुत
लोग छाया से
लड़ने में लग
जाते हैं और
तब पराजय के
सिवाय उन्हें
कुछ भी हाथ
नहीं लगता। जो
अपनी वासनाओं
से लड़ने में
लग जाएगा, वह पराजित
होगा। जो
संसार से लड़ने
में लग जाएगा,
वह पराजित
होगा। जीतने
का रास्ता
यहां लड़ना नहीं,
जीतने का
रास्ता यहां
समझना है।
जिसने छाया को
समझ लिया, कि
वह नहीं है--वह
जीतता नहीं, उससे मुक्त
हो जाता है।
एक बार जान
लेने पर कि छाया
नहीं है, अभाव
है, ऐबसेंस है, अनुपस्थिति
है किसी की, बात समाप्त
हो जाती है।
आपके
भीतर की
वासनाएं, आपके
भीतर जो छिपी
आत्मा है, उसके
अनुभव का अभाव
है। और जब तक
उसका अनुभव न
हो जाए, छाया
बनेगी। इसका
यह अर्थ हुआ
कि जैसे सूरज
की किरणों का
अभाव हो तो
छाया बनती है।
जब तक आपकी
आत्मा की
किरणें कहीं
आप रोक रहे
हैं, तब तक
आपकी छाया
निर्मित हो
रही है। जब तक
भीतर का
प्रकाश कहीं
रुक रहा है
किसी दीवाल से,
तब तक छाया
निर्मित हो
रही है। छाया
से लड़ना
व्यर्थ है, इस भीतर के
प्रकाश को
विस्तीर्ण कर
लेना सार्थक
है। छाया खो
जाएगी। इसलिए
हमने एक बड़ी
मधुर कथा
निर्मित की
है।
जैन
कहते हैं कि
उनके तीर्थंकरों
की छाया नहीं
बनती है।
महावीर चलते
हैं, तो उनकी
छाया नहीं
बनती। यह बात
तो झूठी है। महावीर
चलें या कोई
भी चले, छाया
तो बनेगी।
लेकिन मतलब
बहुत गहरा है
और साफ है। और
इस तरह के
सत्यों को मैं
कहता हूं "काव्य
सत्य'।
यथार्थ में
महावीर के पास
जाकर देखेंगे,
तो आप
मुश्किल में
पड़ेंगे। छाया
तो उनकी भी बनेगी;
क्योंकि
जहां छाया है,
वहां आड़
बनेगी। लेकिन
यह बात भीतर
की छाया के
लिए है। भीतर
महावीर की कोई
छाया नहीं
बनती। वह जो
शैडो पर्सनाल्टी
है, खो गई।
अब वे अकेले
हैं, अब
उनकी आत्मा ही
है। उसके
आसपास कोई
छाया का आवरण
नहीं है। इस
बात को कहने
के लिए ही यह
कथा है।
लेकिन
बड़ा झगड़ा
लोगों के मनों
में चल जाता
है। फिर इस पर
ही लोग विवाद
करते रहते हैं
कि महावीर की
छाया बनती है
या नहीं बनती।
अगर नहीं बनती, तो वह
तीर्थंकर हैं;
और अगर बनती
है, तो
साधारण आदमी
सब तरफ से टूट
जाता है, उसकी
दीवारें गिर
जाती हैं। आप
एक खंडहर हो
जाते हैं।
वह
शिष्य देखता
है कि "आपके
हिलते हाथ की
छाया में वह
विच्छिन्न हो
जाता है, टुकड़े-टुकड़े
हो जाता है, दूर हट जाता
है। लेकिन जब
मैं गौर करता
हूं, तो
घना हो जाता
है। जब मैं
देखता हके
बाहर तेरी ही
छाया है, तेरे
ही पापों के
अंधकार से
बनी। '
"हां
प्रभु, मैं
मार्ग को
देखता हूं।
इसका आधार
दलदल में है
और इसका शिखर
निर्वाण के
दिव्य गौरवमय
प्रकाश से
मंडित है। और
अब मैं ज्ञान
के कठिन और
कंटकाकीर्ण
पथ पर निरंतर
संकीर्ण होते
जाते द्वारों
को भी देखता
हूं।'
इस
सूत्र में भी
बड़ी कीमत की
बात है कि हां
प्रभु, मैं
मार्ग को
देखता हूं।
इसका आधार
दलदल में है
और इसका शिखर
निर्वाण के
दिव्य गौरव
मंडित प्रकाश
से भरा है।
जैसे कि कभी
आपने कमल को
पैदा होते
देखा हो, तो
उसकी जड़ें तो
होती हैं दलदल
में, मिट्टी
में, और
उसकी पंखुड़ियां
खुलती हैं
सूर्य-मंडित
आलोक के जगत
में। एक तरफ
जुड़ा होता है
पृथ्वी के
दलदल से, और
दूसरी तरफ
जुड़ा होता है
प्रकाश के लोक
से। मनुष्य की
यात्रा कमल की
यात्रा है। और
कमल को अगर
पैदा होना हो,
तो दलदल में
ही पैदा होना
पड़ेगा, गंदी
मिट्टी में ही
पैदा होना
पड़ेगा। बड़ा
रूपांतरण है,
बड़ी अलकेमी
घट गई। कहां
मिट्टी थी सड़ी,
और कहां अब
कमल की कोमल पंखुड़ियां
हैं। सोच भी न
सकते थे कि
मिट्टी से ऐसी
पंखुड़ियां
पैदा होंगी।
कहां थी
मिट्टी पानी
से भरी और कहां
अब कमल की पंखुड़ियां
हैं कि पानी
ऊपर पड़े भी तो
भी स्पर्शित
नहीं होता।
कहां दबा था
यह मिट्टी, कचरे में, और अब उठ गया
आकाश की ओर।
इसकी मिट्टी
को कोई देखता,
तो सौंदर्य
का भाव भी न
उठता। और अब
इसे कोई देखता
है, तो
सौंदर्य का यह
प्रतीक हो गया
है। इसलिए हमने
महावीर के, बुद्ध के, विष्णु के
चरणों में कमल
का फूल रखा
है।
कमल का
फूल प्रतीक
है। संसार
दलदल है, लेकिन
उससे दुश्मनी
करने का
कोई
प्रयोजन नहीं
है। क्योंकि
कमल भी अगर
अपनी मिट्टी
से दुश्मनी
करे, तो उठ
नहीं पाएगा।
उठता तो उसी
मिट्टी के
सहारे है। उसी
मिट्टी से
पाता है बल।
वही मिट्टी है
उसका प्राण।
उसी से खींच
लेता है, जो
सार है। उस
मिट्टी में जो
व्यर्थ है, वह छोड़ देता
है और उस
मिट्टी में जो
सार है, उसे
खींच लेता है।
और तब उसी
मिट्टी में से
व प्रगट हो
जाता है, जिसे
हम सौंदर्य की
प्रतिमा
कहें। सब कचरा
हट जाता है, काव्य छन-छन
कर बाहर आ
जाता है, सब
व्यर्थ छूट
जाता है और
सौंदर्य का
पूरा रस, जीवंत
नृत्य प्रगट
हो जाता है।
आदमी
के आसपास भी
मिट्टी है और
दलदल है।
सूत्र यह कह
रहा है कि
साधक ने कहा
कि मैं देखता
हूं यह जो
मार्ग है इसका
प्रारंभ तो दलदल
में है, ठीक
मिट्टी में है,
पृथ्वी में
है और इसका
शिखर निर्वाण
है, प्रकाश-मंडित
है। यह एक छोर
पर जो संसार
है, वही
दूसरे छोर पर
मोक्ष है। और
एक छोर पर जो
शरीर है, वही
दूसरे छोर पर
आत्मा है। और
एक छोर पर
जिसे हम माया
की तरह जानते
हैं, वही
दूसरे छोर पर
ब्रह्म की परम
अनुभूति हो जाती
है। विरोध
नहीं है। जगत
में वस्तुतः
विरोध नहीं
है। और अगर
विरोध दिखता
है, तो इन
दो विराट
छोरों को हम
नहीं जोड़ पाते
हैं, इसलिए
दिखता है। वह
हमारी
अक्षमता है।
हमारी
सीमा है कि
हमारी दृष्टि
छोटी है। जब
हम संसार को
देख पाते हैं, तो हम मोक्ष
को नहीं देख
पाते हैं। और
जब हमारी
आंखें मोक्ष
की तरफ उठती
हैं, तब हम
संसार को नहीं
देख पाते। और
जो पूरे मार्ग
को देख पाएगा,
वह कहेगा कि
एक छोर पर जो
अंधेरा था, वही दूसरे
छोर पर प्रकाश
हो गया और एक
छोर पर जो
जंजीरें थी, वही दूसरे
छोर पर मुक्ति
और
स्वतंत्रता
बन गई। और ऐसा
जब कोई देख
पाता है, तो
ही पूरे मार्ग
को देख पाता
है।
"अब
मैं ज्ञान के
कठिन और
कंटकाकीर्ण
पथ पर निरंतर
संकीर्ण होते
जाते द्वारों
को भी देखता हूं। '
और यह
भी देखता हूं
कि पहला द्वार
तो बहुत बड़ा
है, दूसरा
द्वार और छोटा
है, तीसरा
द्वार और छोटा
है। और द्वार
छोटे होते चले
जाते हैं।
निरंतर
संकीर्ण होते
जाते द्वारों
को देखता हूं।
और अंतिम
द्वार तो
बिलकुल संकीर्ण
हो जाता है।
और जब मैं
कहता हूं
बिलकुल
संकीर्ण, तो
उसका मतलब कि
आप अगर थोड़े
से भी बचे, तो
उसमें से
प्रवेश न हो
सकेगा।
जीसस
ने कहा हैः
ऊंट भी निकल
सकता है सुई
के छेद से, लेकिन वे जो
धनवान हैं, वे मेरे
मोक्ष के
द्वार से न
निकल सकेंगे।
ऊंट भी निकल
सकता है सुई
के छेद से, पर
वे जो धनवान
हैं, वे
मेरे मोक्ष के
द्वार से निकल
न सकेंगे। अति
संकीर्ण है।
और धनवान कौन
नहीं है? आपने
निर्धन आदमी
देखा? जिसके
पास कुछ भी
नहीं है, वह
भी मान कर
चलता है कि
कुछ उसके पास
है। और ऐसे भी
लोग हैं, जो
अपनी
निर्धनता को
भी धन बना
लेते हैं। अगर
कोई आदमी अपने
त्याग का गौरव
करता है, तो
इसका अर्थ हुआ
उसने
निर्धनता को
भी धन बना
लिया। वह भी
मोक्ष के
द्वार पर अकड़कर
खड़ा हो जाएगा
कि मैं कोई
छोटा-मोटा
आदमी नहीं हूं,
मैंने इतना
त्याग किया
है! यह उतना
त्याग भी उसने
बैंक-बैलेंस
बना लिया! वह
उसे साथ ले
आया!
सुना
है मैंने कि
एक सम्राट एक
चर्च में
प्रार्थना कर
रहा था। कोई
धर्म का बड़ा
दिन था और सभी
प्रार्थना को
आए थे। सम्राट
भी आया था। और
फिर
प्रार्थना
करते-करते जोश
में चढ़ गया, जैसा कि हम
सभी चढ़ जाते
हैं। और फिर
वह जरा ज्यादा
बातें कहने
लगा। वह यह तक
बोल गया कि हे
प्रभु, मैं
तेरे चरणों
में क्षुद्र
से क्षुद्र
धूल हूं, मैं
नाकुछ हूं, मैं कुछ भी
नहीं हूं। जब
वह यह कह रहा
था, तब
उसने देखा कि
पास में एक
साधारण आदमी
भी प्रार्थना
कर रहा है और
वह भी प्रभु
से कह रहा है कि
मैं भी कुछ
नहीं हूं, नाकुछ
हूं। उस
सम्राट ने कहा
कि सुन, यह
कौन मुझसे
प्रतियोगिता
कर रहा है? ध्यान
रहे, मेरे
राज्य में मुझ
सा नाकुछ, मुझसे
ज्यादा नाकुछ
और कोई भी
नहीं है।
हम
अपने न-होने
को भी संपत्ति
और धन बना
सकते हैं! यह
सम्राट यह भी
बर्दाश्त
नहीं कर सकता
कि कोई और भी
हो उसके राज्य
में, जो कह सके
कि मैं कुछ भी
नहीं हूं।
उसमें भी सम्राट
ही आगे होगा।
जीसस
का मतलब धनवान
से यह नहीं कि
जिनके पास धन
है। धनवान से
मतलब है कि
जिसके मन में
मैं कुछ हूं, ऐसा भाव है।
ऐसा व्यक्ति
उस द्वार से न
निकल सकेगा।
साधक
कह रहा है कि
देखता हूं कि
हर द्वार और
संकीर्ण होता
चला जाता है।
इसलिए तो
अहंकार को छोड़ना
पड़ता है, वह
जो परिग्रह का
भाव है, उसे
छोड़ना पड़ता
है। वह जो
हमने बोझ
इकट्ठा कर
लिया है, उसे
छोड़ना पड़ता
है। क्योंकि
द्वार
संकीर्ण होते
चले जाते हैं।
और हमें छोटा
होना पड़ता है।
और अंतिम
द्वार शून्य
है। और वहां
से केवल वही
निकल पाता है,
जो शून्य हो
जाता है।
अंतिम द्वार
है ही नहीं, अगर हम ऐसा
कहें; क्योंकि
द्वार में से
तो मतलब ही
होता है कुछ
निकल सके।
अंतिम द्वार
है ही नहीं, अंतिम द्वार
जैसे दीवार है;
इसमें से
वही निकल पाता
है, जो
बिलकुल शून्य
हो; फिर
उसे दीवार भी
नहीं रोक
सकती।
ओ लानू, लानू तिब्बती
भाषा का शब्द
है और उसका
अर्थ है शिष्य;
लेकिन
सिर्फ शिष्य नहीं।
इसलिए
ब्लावट्स्की
ने लानू
का उपयोग किया
है। जैसे
दुनिया की
किसी भाषा में
गुरु जैसा
शब्द नहीं है,
वैसा ही लानू
है। टीचर, मास्टर,
गुरु की
महिमा को
उपलब्ध नहीं
होते। उनसे
पता चलता है, जिससे हमने
कुछ सीखा।
गुरु से पता
चलता है, जिसके
द्वारा हम कुछ
हुए, सीखा
नहीं। गुरु का
अर्थ हैः
जिसके द्वारा
हम कुछ हुए, जिसके
द्वारा हम
बदले; जिससे
हमारा ज्ञान
नहीं बढ़ा, हम
बढ़े। जिससे
हमने कुछ और
ज्यादा जान
लिया, कुछ
सूचनाएं
इकट्ठी कर लीं,
ऐसा
नहीं--और
जिसके द्वारा
हमारा
अस्तित्व ही रूपांतरित
हुआ। वह गुरु
है, जिससे
हमें नया जन्म
मिला। गुरु
जैसा शब्द
दुनिया की
किसी भी भाषा
में नहीं, लानू
जैसा शब्द भी
दुनिया की
किसी भाषा में
नहीं है।
लानू
का मतलब शिष्य
तो होता है, वैसे ही
जैसे गुरु का
अर्थ शिक्षक
होता है। लेकिन
जैसे गुरु में
एक महिमा है, एक
विशिष्टता है
अस्तित्व को
रूपांतरित
करने की, वैसे
ही लानू
में है। लानू
का अर्थ है जो
अब मिटने को
राजी है, ऐसा
शिष्य; जो
सीखने नहीं
आया, जो
मिटने आया है।
जो मात्र
ज्ञान इकट्ठा
करने नहीं आया,
जो अपने को
बदलने आया है।
जो हर बात के
लिए राजी है।
उससे गुरु कहे
कि तू उस पहाड़
से कूद जा, तो
वह कूद जाएगा।
वह यह नहीं पूछेगाः
क्यों? शिष्य
पूछ सकता है
क्यों, क्योंकि
वह सीखने आया
है।
लानू
का अर्थ हैः
जिसने अपने को
पूरी तरह
समर्पित कर
दिया। और क्या, क्यों, और
प्रश्न, जिसके
मन में न रहे।
जो निष्प्रश्न
होकर चरणों
में गुरु के आ
गया है। और
गुरु जो कहेगा,
वैसा ही कर
लेगा। उससे
अगर वह नरक
में भी पहुंच
जाए, तो यह
नहीं पूछेगा
क्यों। वह
पूछेगा ही
नहीं। पूछने
की बात ही
जिसने छोड़ दी
है। इसलिए
ब्लावट्स्की
ने तिब्बतन लानू का
उपयोग किया
है।
"ओ लानू, तू
ठीक देखता है,
ये द्वार
मुमुक्षु को
नदी के पार
दूसरे किनारे
पर निर्वाण
में पहुंचा
देते हैं।
प्रत्येक
द्वार की एक
स्वर्ण-कुंजी
है, जो उसे
खोलती है। '
दान का
अर्थ हैः देने
का भाव।
फिर
देने की बात
तो अपने आप
उसमें से निकल
आती है, पर
देने का भाव
मूल में है।
और ध्यान रहे,
देना उतना
जरूरी नहीं, जितना देने
का भाव जरूरी
है। फिर देना
तो उसके पीछे
चला आता है।
और कई बार हम
दे भी देते
हैं, लेकिन
देने का भाव
बिलकुल नहीं
होता है। और
तब दान झूठा
होता है। हम
देते हैं, लेकिन
हम देते ही
तभी हैं, जब
हम कुछ देने
के पीछे चाहते
हैं। उसमें भी
सौदा होता है।
एक आदमी कुछ
दान कर देता
है, तो
सोचता है कि
धर्म या पुण्य
होगा; तो
सोचता है कि
स्वर्ग
मिलेगा, तो
सोचता है कि
परमात्मा
इसके
प्रत्युत्तर
में कुछ देगा।
लेने पर ही
उसकी नजर है।
देना अगर है
भी तो सौदा
है। तो फिर
दान नहीं रहा।
दान का
अर्थ हैः देने
में आनंद।
देना ही
आनंद है, उसके
पास लेने का
कोई भाव नहीं
है। ऐसा नहीं
कि नहीं
मिलेगा, बहुत
मिलेगा। सच तो
यह है कि देने
के भाव से ही जो
देगा, बिना
सौदा से देगा,
उसे अनंत
गुना मिलेगा।
लेकिन यह अनंत
गुना मिलना लय
नहीं होना
चाहिए। यह
दृष्टि नहीं
होनी चाहिए, यह हमारी
वासना नहीं
होनी चाहिए।
यह सहज परिणाम
है, जो
घटित होता है।
सूरज
निकलता है, फूल खिल
जाते हैं।
सूरज कोई
फूलों को
खिलाने के लिए
नहीं निकलता
है। और फूलों
को खिलाने के लिए
किसी दिन
निकले, तो
बहुत संदेह है
कि फूल खिलें।
और सूरज अगर
एक-एक फूल को
पकड़ कर खिलाने
की कोशिश करे,
तो बहुत
मुश्किल में
पड़ जाए, सांझ
होते-होते सदा
के लिए थक
जाए। फूल
खिलते हैं, ये सूरज के
निकलने में ही
खिल जाते हैं।
दान में ही
मिल जाता है
सब कुछ। जो
दिया है वह
ना-कुछ है; जो
मिलता है, वह
बहुत है।
लेकिन मिलने
की धारणा अगर
मन में हो, तो
दान नहीं हो
पाता। देना हो
शुद्ध। और
देना कब होता
है शुद्ध? जब
हमें देने में
ही आनंद मिलता
है।
दान का
अर्थ हैः
उदारता और
प्रेम--देने
का भाव।
दूसरी
कुंजी है शीलः
वचन और कर्म
की लयबद्धता।
वह जो
हम कहें, वह
जो हम सोचें, वही हमारे
व्यक्तित्व
में भी
प्रतिफलित
हो। हमारा
व्यक्तित्व
हमारे विपरीत
न हो, एक लय
हो, एक
संगीत हो। कोई
फिक्र नहीं कि
क्या आप सोचते
हैं। बड़ा सवाल
यह नहीं कि
क्या आप सोचें,
बड़ा सवाल यह
है कि जो आप
सोचें और कहें,
उसकी छाया
आपके
व्यक्तित्व
में भी हो। या
फिर जो आपके
व्यक्तित्व
में हो, वही
आप कहें, वही
आप सोचें।
एक चोर
भी शील को
उपलब्ध हो
सकता है, लेकिन
तब चोरी को
नहीं छिपाएगा।
और तब चोरी ही
उसका विचार भी
हो, चोरी
ही उसका वचन
भी हो और चोरी
ही उसका कृत्य
भी हो। और बड़े
आश्चर्य की यह
बात है कि चोर
इतना लयबद्ध
हो, तो
चोरी अपने आप
असंभव हो जाती
है। क्योंकि
इतने संगीत से
दूसरे को
नुकसान
पहुंचाने की
बात नहीं उठती।
इतनी गहरी
लयबद्धता से
किसी को हानि
पहुंचाने का
खयाल भी नहीं
उठता। तो चोर
से यह नहीं कहा
जाना चाहिए कि
तू चोरी मत
कर। उसे यही
कहा जाना
चाहिए
कि तुझे चोरी
करना हो तो
चोरी कर, लेकिन
फिर चोरी को
ही ठीक मान, चोरी का ही
विचार कर, और
चोरी को छिपा
मत, और
चोरी के साथ
एक-लयबद्ध हो
जा। असंभव हो
जाएगी चोरी।
शील का
मौलिक अर्थ है
कि हमारे भीतर
और बाहर में
एक संगीत हो।
अगर आपके भीतर
जो है, वैसा
आप बाहर
निर्मित न कर
सकें, तो
जैसा आपका
बाहर है, वैसा
आप भीतर
निर्मित कर
लें। और जहां-जहां
आपको लगता हो
कि भीतर विरोध
है, वहां-वहां
विरोध को बदल
दें और एक
लयबद्धता ले
आएं।
लयबद्ध
व्यक्तित्व
ही, साधना के
जगत में
प्रवेश कर
पाता है।
लेकिन
हमारा जो
व्यक्तित्व
है, उसमें
कितने उपद्रव
हैं! ऐसा भी
नहीं कि हम जो सोचते
हैं, वैसा
नहीं करते
हैं। जो हम
सोचते हैं, वह भी पक्का
नहीं कि हम
वैसा सोचते
हैं। उसके भीतर
भी पर्तें हैं,
अचेतन
पर्तें हैं।
हम वैसा सोचते
भी नहीं हैं।
जो हम सोचते
हैं, वैसा
हम कहते नहीं
हैं। ऐसा भी
नहीं है, कि
हम जो कहना
चाहते हैं, वह भी नहीं
कहते हैं। और
बहुत बार हम
ऐसी बातें कहते
हैं, जो हम
कहना ही नहीं
चाहते। और जो
हम करते हैं, वह तो बहुत
दूर है।
एक-एक
आदमी बहुत
आदमियों की
भीड़ है। सुबह
उससे मिलिए, वह कोई और है,
दोपहर उससे
मिलिए वह कोई
और है; सांझ
उससे मिलिए, वह कोई और
है। आप एक ही
आदमी से नहीं
मिलते हैं; चेहरे दिन
भर बदलते चले जाते
हैं। इन
चेहरों की भीड़
में कैसे हो
शांति फलित?
और
इसलिए नहीं कि
दूसरे का हित
होगा, इसलिए
आप अपने वचन
और कर्म को
एक-बद्ध कर
लें। दूसरा
प्रयोजन नहीं
है, आपका
ही हित है। हम
सब आनंद खोजते
हैं। और बिना
एक
मौलिक
लयबद्धता के
आनंद असंभव
है।
रुसो कुसियन एक
साधकों का
गुप्त समूह
है। उन्होंने
तो नाम ही रखा
है साधक का
हारमोनियम।
और जब तक कोई
साधक हारमोनियम
न हो जाए, तब
तक, वे
कहते हैं, आगे
बढ़ने का कोई
उपाय नहीं है।
तीसरी
कुंजी हैः
क्षांति।
क्षांति
बौद्ध शब्द है, उसका अर्थ
हैः धैर्य।
लेकिन धैर्य
से थोड़ा भेद
है। अगर कोई
आपकी हत्या कर
रहा हो, बुद्ध
ने कहा है, तो
धैर्य रखना
बहुत आसान है।
जितना बड़ा
उपद्रव हो, उतना धैर्य
आसान है। कोई
आपकी गर्दन को
फांसी पर लटका
रहा हो, तो
धैर्य रखना
आसान है। और
एक चींटी आपका
पैर काट रही
हो, तो
धैर्य रखना
मुश्किल है।
बुद्ध ने कहा
है कि छोटी
चीजों में
धैर्य रखना
मुश्किल है; बड़ी चीजों
में धैर्य
रखना आसान है।
क्योंकि बड़ी
चीजों में
धैर्य रखने
में अहंकार की
तृप्ति हो
सकती है, छोटी
चीजों में
धैर्य रखने से
अहंकार की कोई
तृप्ति नहीं
होती।
क्षांति
का अर्थ हैः
छोटी बातों
में धैर्य, बहुत
क्षुद्र बातों
में धैर्य।
आपके
ऊपर पहाड़ गिर
पड़े, आप
बर्दाश्त कर
सकते हैं; क्योंकि
यह भी क्या कम
मजा है कि
इतने बड़े पहाड़
ने आपको चुना
गिरने के लिए।
लेकिन कोई एक
मटकी आपके ऊपर
लटका दे और
एक-एक बूंद
पानी टपकता रहे--जैसा
शंकरजी
को लोग सताते
हैं--टप, टप,
टप--आप पागल
हो जाएंगे।
चीन
में वह उपयोग
करते थे लोगों
को सताने
के लिए।
कैदियों के
सिर के ऊपर
मटकी बांध देंगे, उसमें से
एक-एक बूंद
चौबीस घंटे
टपकती रहेगी। गर्दन
काट देने से
ज्यादा
मुश्किल है।
क्योंकि
गर्दन एक क्षण
में कट जाती
है और यह बूंद
टपक सकती है
जीवन भर। और
रात-दिन टप-टप
सिर पर बूंद
टपकती रहे, उस समय भी
धैर्य आप रख
सकें, उसका
नाम है
क्षांति।
छोटी बातों
में धैर्य। क्योंकि
बुद्ध ने कहाः
बड़ी बातों में
धैर्य तो रखा
जा सकता है, अहंकार के
लिए सुलभ है, छोटी बातों
में धैर्य
नहीं रखा जा
सकता। क्योंकि
छोटी बातों से
अहंकार की कोई
तृप्ति ही
नहीं होती है।
क्षांतिः
मधुर धैर्य, जिसे कुछ भी
विचलित नहीं
कर सकता है।
साथ
में एक शर्त
और है क्षांति
में--मधुरता
की। आप कठोर
होकर धैर्य रख
सकते हैं।
लेकिन तब जो
खूबी थी, वह
चली गई। कठोर
होकर धैर्य
रखना आसान है,
क्योंकि
आपने कठोरता
की एक दीवार
खड़ी कर ली
अपने चारों
तरफ, जो
आपकी सुरक्षा
करेगी। लेकिन
मधुर कठोर भी
न हो जाए, सुरक्षा
भी न करे और
धैर्य रहे; और जो हो रहा
है, उसके
प्रति एक प्रीतिपूर्ण
भाव रहे।
जैसे
आपके सर पर
बूंद टपक रही
है, तो आप अकड़
कर बैठ जाएं
और भीतर सख्त
हो जाएं, चट्टान
की तरह हो
जाएं, तो
भी इस बूंद को
सह लेंगे।
लेकिन तब
क्षांति का
मौलिक बिंदु
खो गया। बुद्ध
कहते हैं, बूंद
के प्रति
प्रेम का भाव
भी हो, एक
मधुरता भी हो,
एक मैत्री
भी हो। यह
बूंद सुखद है,
ऐसा भी लगे।
तो बुद्ध उसको
धैर्य कहते
हैं।
चौथी
है--विरागः
सुख व दुख के
प्रति उपेक्षा, भ्रांति पर
विजय और मात्र
सत्य का
दर्शन।
आमतौर
से विराग के
साथ भूल होती
है। विराग के साथ
हम समझते हैं, सुख के
प्रति
उपेक्षा।
लेकिन यह
सूत्र कहता है,
सुख और दुख
दोनों के
प्रति
उपेक्षा। दो
में से एक को
चुनना हमेशा
आसान है, क्योंकि
मन चुनाव पसंद
करता है और एक
अति से दूसरी
अति पर चला
जाता है। आपको
सुख अच्छा
लगता है, तो
दुख बुरा लगता
है। कभी आप
दुख भी चुन
सकते हैं। कई
तपस्वी, तथाकथित
तपस्वी दुख
चुन लेते हैं
तो फिर उन्हें
सुख बुरा लगता
है। लेकिन
उससे कोई फर्क
नहीं पड़ता। एक
बिंदु से आप
दूसरे पर चले
जाते हैं।
लेकिन आपकी
दृष्टि, आपका
ढंग, आपका
होना, पुराना
ही बना रहता
है। एक आदमी
को एक अच्छी गद्दी
पसंद है और एक
आदमी को कांटे
बिछाकर सोना
पसंद है। वह
जो कांटे बिछा
कर सोता है, उसे आप
गद्दी पर सुला
दें, तकलीफ
उतनी ही होगी।
न इस तरफ राग न
उस तरफ राग।
विराग
का अर्थ हैः
सुख और दुख के
प्रति
उपेक्षा।
जो हो
जाए उसकी
स्वीकृति।
जैसा
हो जाए उसकी
स्वीकृति।
और यह
स्वीकृति बड़े
गहरे में ले
जाती है। क्योंकि
ऐसा व्यक्ति
फिर विचलित
नहीं होता।
ऐसे व्यक्ति
को फिर बाहर
से विचलित
किया नहीं जा
सकता और ऐसा
व्यक्ति अपने
भीतर के बिंदु
पर थिर हो
जाता है।
पांचवां
है वीर्यः
वह अदम्य
ऊर्जा, जो
सांसारिक
असत्यों के
दलदल से सत्य
के शिखर की ओर
संघर्ष करती
है।
वीर्य, मनुष्य की
ऊर्जा का नाम
है, जिससे
आपका जन्म
हुआ। आप वीर्य
की एक छलांग
हैं। वीर्य है
जीवन का
पर्याय। आपका
जन्म हुआ है
जिस ऊर्जा से,
और जिस
ऊर्जा से आपके
शरीर का कण-कण
निर्मित है, जो ऊर्जा ही
आपकी देह है, और जो ऊर्जा
आपके भीतर
संगृहीत है और
नई छलांग लेने
को उत्सुक है।
इसलिए
कामवासना की
इतनी पकड़ है।
विवश है आदमी।
और जब काम पकड़ता
है, तो
सारा बोध खो
जाता है।
क्यों
है इतनी
विवशता? क्योंकि
काम आपके जन्म
का स्रोत है।
आप पैदा ही
हुए हैं काम
से। आप वीर्य
की ही एक तरंग
हैं। और इस तरंग
को आप काबू
में नहीं ला
पाते हैं। यह
तरंग छलांग
लगाना चाहती
है। क्योंकि
यह तरंग छलांग
न लगाती तो आप
पैदा न होते।
यह और छलांग
लगाना चाहती
है। आप मिट
जाएंगे, लेकिन
यह तरंग रहना
चाहती है।
तो दो
उपाय हैं।
एक तो
उपाय है इस
तरंग को
जोर-जबर्दस्ती
से रोकें।
जैसे कि
ब्रह्मचर्य
की भ्रांत
धारणा है।
जबर्दस्ती से
रोकने की
कोशिश करती
है। और जबर्दस्ती
की कोशिश में
छलांग रुकती
नहीं है, विकृत
हो जाती है।
जैसे कोई झरना
पच्चीस हिस्सों
में टूट जाए
और मार्ग से
भटक जाए, ऐसी
अवस्था होती
है वीर्य की।
दूसरा
उपाय यह है, छलांग को मत
रोकें, छलांग
की दिशा बदल
दें। छलांग तो
लगने दें। क्योंकि
वीर्य तो
छलांग लगाना
चाहता है। वह
एक नए जीवन
में छलांग
लगाना चाहता
है। या तो
आपका एक पुत्र
पैदा हो या आप
स्वयं एक नया
जन्म ले लें।
ये दो
छलांग संभव
हैं--या तो
बाहर की तरफ
वीर्य जाएगा, तो नया जीवन
पैदा होगा। और
या भीतर की
तरफ जाएगा, तो आप नए
होंगे। इस तरह
के व्यक्ति को
हमने द्विज
कहा है--ट्वाइस
बार्न, जिसके
वीर्य ने भीतर
की छलांग
लगानी शुरू कर
दी है।
वीर्य
है अदम्य
ऊर्जा
और इसी
ऊर्जा के
माध्यम से
भीतर जाया जा
सकता है। बाहर
भी कहीं जाना
हो, तो यही
वीर्य-ऊर्जा
काम आती है।
सांसारिक
असत्यों के
दलदल से सत्य
के शिखर की ओर
यही वीर्य की
ऊर्जा संघर्ष
करती है।
दलदल
से कमल तक की
जो यात्रा है, वह इसी
वीर्य-ऊर्जा
के साथ होगी।
तो
बहुत-सी बातें
खयाल में लेनी
जरूरी हैं।
एक तो
इस
वीर्य-ऊर्जा
के साथ संघर्ष
मत करना। इससे
मत लड़ने लग
जाना, क्योंकि
यह आपकी शत्रु
नहीं है। यह
आपकी शक्ति
है। इसको साथ
लेकर संघर्ष
करना, इससे
संघर्ष मत
करना। इसके ही
ऊपर सवार होकर
संघर्ष करना,
इससे ही
संघर्ष मत
करना।
क्योंकि अपनी
शक्ति से जो
लड़ेगा, वह
नष्ट हो
जाएगा। इस
शक्ति को वाहन
बनाना है। और
यह वीर्य
छलांग लेना
चाहता है। यह
छलांग दो तरह
से हो सकती है,
लेकिन
छलांग
अनिवार्य है।
शक्ति उछलना
चाहती है।
झरना फूटना
चाहता है, बीज
टूटना चाहता
है। शक्ति हमेशा
फूटना चाहती
है, टूटना
चाहती है।
विस्फोट
चाहती है।
और दो
तरह के
विस्फोट हैं।
अंग्रेजी में
दो शब्द
हैं--एक्सप्लोजन
और इम्प्लोजन।
बाहर
की तरफ जो
विस्फोट है, वह है
एक्सप्लोजन।
भीतर की तरफ
जो विस्फोट है,
वह है इम्प्लोजन।
अंतरविस्फोट
या बहिर्विस्फोट।
यह जो सारे
जगत में जीवन
का फैलाव है
यह एक्सप्लोजन
है, बहिर्विस्फोट है। और आपको
पता है कि बहिर्विस्फोट
कितना हो सकता
है? एक
आदमी के पास
इतनी
वीर्य-ऊर्जा
है कि पूरी पृथ्वी
पर जितने लोग
हैं, उतने
उससे पैदा हो
सकें। तीन अरब
आदमी हैं जमीन
पर। एक आदमी
तीन अरब आदमियों
को पैदा कर
सकता है। इतनी
वीर्य-ऊर्जा
लेकर एक आदमी
पैदा होता है।
इसलिए
बाइबिल की कथा
बड़ी प्रीतिकर
है कि भगवान
ने एक आदमी
बनाया
आदम।
पूछते हैं लोग
कि दस-पांच
क्यों न बनाए।
कोई जरूरत न
थी; एक काफी
है। इतने बड़े
विस्तार के
लिए एक ही काफी
है। यही सूचक
है उस कथा
में। यह सारा
विस्फोट जो है
जगत का, इसके
लिए एक आदमी
काफी है। एक
संभोग में
आपके इतने वीर्यकण
छलांग लेते
हैं, जिनसे
कोई दस करोड़
आदमी पैदा हो
सकते हैं। और
एक आदमी जीवन
में कम से कम
चार हजार बार
संभोग कर सकता
है। कम से कम।
चार अरब आदमी
एक आदमी पैदा
कर सकता है, अगर उसके
सारे वीर्यकणों
का उपयोग हो
जाए। लेकिन
सारे
वीर्य-कणों का
उपयोग नहीं
होता।
यह जो
विस्फोट है, बहिर्विस्फोट,
यही शक्ति अंतर्विस्फोट,
इम्प्लोजन भी बन सकती
है। यह जो भी
बाहर कूद रही
है आपके केंद्र
से, यह
शक्ति आपके
केंद्र की तरफ
भी कूद सकती
है। और जिस
दिन यह आपके
भीतर की तरफ
कूदती है, उसी
दिन वीर्य
अध्यात्म बन
जाता है। और
उसी दिन आप
बाहर जन्म
नहीं देते हैं;
स्वयं को ही
जन्म दे देते
हैं।
छठवां
है ध्यानः
जिसका
स्वर्ण-द्वार
एक बार खुल
जाने पर, जो नारजोल
(संत या सिद्ध)
को नित्य सत्य
केफ्लोक
उसके सतत
स्मरण की ओर
ले जाता है।
ध्यान
का अर्थ हैः
चित्त की ऐसी
दशा, जहां कोई
विचार न हो।
क्योंकि जब तक
कोई विचार
होता है, तब
तक आप बाहर की
तरफ जाते हैं।
विचार है बाहर
का मार्ग। सब
विचार बाहरी
हैं। भीतर का
कोई विचार
नहीं होता। जब
भी आप सोचते
हैं, आप
बाहर चले गए; और जब आप
नहीं सोचते, तब ही आप
भीतर हैं।
ध्यान
है न-सोचने की
अवस्था।
और
जिसे न-सोचना
आ गया, उसे
सब कुछ आ गया।
हम सब
सिखाते हैं
सोचना। जरूरी
है; क्योंकि
न-सोचना आने
के पहले सोचना
आना जरूरी है।
जो है ही नहीं,
उसे हम छोड़ेंगे
भी कैसे? और
जो हमारे पास
ही नहीं है, उसका त्याग
कैसे होगा? इसलिए जरूरी
है कि हम
सोचें। लेकिन
काफी नहीं।
एक और
कला है, सोचने
के आगे जाती
है--न सोचने की
कला। न सोचें,
सिर्फ हों।
उस क्षण में
सतत स्मरण है।
यह स्मरण फिर
विचार का नहीं,
यह स्मरण
फिर अस्तित्व
का है। सतत
स्मरण बना रहता
है दिव्य का
और नित्य सत्य
के द्वार फिर
खुले दिखाई
पड़ने लगते
हैं। उस शून्य
में ही द्वार
है नित्य सत्य
का। वही है
द्वार।
और
सातवीं है--प्रज्ञाः
जिसकी कुंजी
मनुष्य को
दिव्य बना
देती है।
ध्यान
है उसका दर्शन
और प्रज्ञा है
उसके साथ एकात्म।
वह
दिव्य बना
देती है और
बोधिसत्व भी।
बोधिसत्वता
ध्यान की
पुत्री है। और
ध्यान से ही
कोई प्रज्ञा
को उपलब्ध
होता है।
प्रज्ञा
भी अनूठा शब्द
है। उसका भी
पर्याय खोजना
दुनिया की
दूसरी भाषा
में मुश्किल
है। और जितनी
भी दुनिया की
भाषा में
दूसरे शब्द
हैं, उनका
अर्थ है
ज्ञान।
प्रज्ञा
का अर्थ है
जानना नहीं
सत्य को, सत्य
हो जाना; क्योंकि
जानने से भी
फासला रह जाता
है। जानने का
मतलब भी है कि
जिसे मैं जान
रहा हूं, वह
मुझसे दूर है,
अलग है; उसे
मैं देख रहा
हूं, पहचान
रहा हूं, जान
रहा हूं। सत्य
के साथ एक हो
जाना है। इतना
भी फासला न रह
जाए सब्जेक्ट
या आब्जेक्ट
का। जानने
वाले का, और
जाने-जानेवाले
का भी, फासला
न रह जाए। ऐसी
जहां एकता सध
जाती है, वह
अवस्था है
प्रज्ञा की, जिसकी कुंजी
मनुष्य को
दिव्य बना
देती है।
मनुष्य
दिव्य है, सिर्फ कुंजी
की तलाश है।
दिव्यता जैसे
बंद है और इसे
खोलने भर की
बात है।
और बोधिसत्व
भी।
बोधिसत्व
भी समझने जैसा
शब्द है।
बोधिसत्व का
अर्थ होता है, ऐसा बुद्ध, जो प्रज्ञा
के द्वार पर
खड़ा होकर, जगत
की तरफ मुंह
फेर लेता है।
इसे हम ऐसा
समझें:
बुद्ध
के जीवन में
कथा है कि
बुद्ध परम
अवस्था को
उपलब्ध हुए, बुद्धत्व को
उपलब्ध हुए।
और मीठी कथा है
कि फिर वे
निर्वाण के
द्वार पर
पहुंचे। लेकिन
वे पीठ फेरकर
खड़े हो गए और
द्वारपाल ने
उन्हें
कहा--ये सारे प्रतीक
हैं--द्वारपाल
ने उन्हें कहा,
आप प्रवेश
करें। न मालूम
कितने युगों
से यह द्वार
आपकी
प्रतीक्षा
करता है।
लेकिन बुद्ध
ने कहा कि
मेरे पीछे और
बहुत लोग हैं।
और अगर मैं
प्रविष्ट हो
जाता हूं इस
महाशून्य में,
तो फिर उनकी
मैं कोई
सहायता न कर
सकूंगा। तो मैं
रुकूंगा,
इस द्वार पर
तब तक, जब
तक कि वे सारे
लोग प्रविष्ट
नहीं हो जाते।
मैं अंतिम
प्रविष्ट
होना चाहता
हूं। इस महाकरुणा
का नाम है
बोधिसत्व।
बोधिसत्व
का अर्थ हैः
जो बुद्ध हो
गया; लेकिन
फिर भी अभी
लीन नहीं हो
रहा करुणा के
कारण।
जगत के
प्रति हमारे
दो संबंध हो
सकते हैं--वासना
का और करुणा
का। वासना का
हम सबका संबंध
है। हम जगत
में इसलिए हैं
कि हम जगत से
कुछ चाहते हैं।
कोई बुद्ध
इसलिए भी जगत
में हो सकता
है कि जगत को
कुछ देना
चाहता है। उस
देना चाहने की
जो करुणा है, वह व्यक्ति
को बोधिसत्व
बनाती है।
तो
बुद्ध परंपरा
में दो हिस्से
हैं: हीनयान
और महायान।
हीनयान मानता
है कि बुद्ध लीन
हो गए महानिर्वाण
में। महायान
मानता है कि
बुद्ध रुक गए
और यान बन गए, नाव बन गए।
माझी बन गए कि
जब तक पूरे
संसार को खींच
कर उस पार न कर
दें, तब तक
स्वयं उस पार
न उतरेंगे।
आते रहेंगे इस
किनारे, अपनी
नाव को लेकर, भरते रहेंगे
लोगों को, भेजते
रहेंगे उस पार,
लेकिन खुद न
उतरेंगे।
क्योंकि एक
बार उस तरफ उतर
जाने पर, इस
तरफ आने का
कोई उपाय नहीं
है। एक बार उस
तरफ उतर जाने
पर खो जाना हो
जाता है। इस महाकरुणा
से।
तो
महायान कहता
है कि
बुद्धत्व से
भी बड़ी बात है बोधिसत्वता।
क्योंकि उस
किनारे जाकर
खो जाना तो
स्वाभाविक
है। इस जगत
में वासना के
कारण होना
स्वाभाविक
है। उस जगत
में उतर कर खो
जाना आनंद में
स्वाभाविक है।
लेकिन उस जगत
के आनंद को
छोड़कर, खो
जाने के आनंद
को छोड़कर, जो
इस जगत के
किनारे अपनी
नाव लेकर आता
है, यह अति
दुष्कर है, अति कठिन
है। इसलिए
बुद्धत्व से
भी बड़ा बोधिसत्व
है।
यह
बिलकुल
स्वाभाविक है, कि उस महालोक
में जाकर लीन
होना चाहे कोई;
क्योंकि
उससे बड़ा कोई
सुख नहीं है।
बुद्ध ने कहा,
यह महासुख
है। उस महासुख
से अपने को
कोई रोके अब
और इस जगत की
तरफ आए। ऐसे
जैसे कि आप
कारागृह से
छूट गए हों, मुक्त हो गए
खुले आकाश
में--टूट गईं
जंजीरें, बंधन
छूट गए और फिर
भी उसी
कारागृह में
जिन्हें आप
छोड़ आए हैं, उनके कारण, आप फिर चोरी
करके उस
कारागृह में
पहुंच जाएं, उन्हें भी
छूटने का
मार्ग बता
सकें। जैसा यह
कठिन है, यह
सोचना, इससे
भी ज्यादा
कठिन है बोधिसत्वता।
लेकिन
बोधिसत्व की
घटना भी घटती
है। इस जगत में
अगर कोई
चमत्कार है
मेरी दृष्टि
में, तो एक ही
हैः किसी ऐसे
व्यक्ति का इस
जगत में होना,
जो वासना के
कारण नहीं है।
एक ही मिराकिल
है। ऐसा मिराकिल
घटता है। और
जो अपने कारण
इस जगत में
नहीं है, उसे
समझना बहुत
दूभर हो जाता
है। क्योंकि
हम एक ही भाषा
और जिसका गुरु
से भी
साक्षात्कार
न हो सके, उसका
प्रभुसे
साक्षात्कार
होना बहुत
मुश्किल होगा।
क्योंकि गुरु
इस पार्थिव
जगत में, उसका
संदेशवाहक है,
उसका
प्रतीक है, उसकी ही
किरण है। अगर
वह सूरज है, तो गुरु
उसकी ही किरण
है। और जो अभी
किरणों को भी
नहीं देख पाता
है, वह
सूरज का
साक्षात्कार
कर सकेगा, यह
मुश्किल है।
गुरु
का अर्थ है
ऐसा व्यक्ति, जिसमें आपको
परमात्मा
दिखा।
और अगर
आपको कहीं भी
परमात्मा
नहीं दिखता, तो फिर इस
अदृश्य को देख
पाना आपके लिए
संभव न होगा।
आपकी पहली
पहचान तो
दृश्य में ही
होगी, कहीं
सीमा में, कहीं
इस साकार में,
कहीं
रूपरेखा में
बंधे हुए ही
आपकी पहली
पहचान होगी।
इसलिए नहीं कि
वह रूपरेखा
में और सीमा
में है; बल्कि
इसलिए कि आपकी
आंखें, आपका
ढंग, आपका
सोचना, आपकी
सारी
व्यवस्था अभी
केवल सीमा को
ही पकड़ सकती
है।
और जो
गुरु को भी
नहीं पकड़ पाता
और जो गुरु को
भी नहीं समझ
पाता और जो
गुरु को भी
नहीं देख पाता, उसके लिए
परमात्मा का
देखना अत्यंत
कठिन है।
असंभव है, ऐसा
नहीं कहता
हूं। संभव है।
और कुछ लोगों
ने बिना गुरु
के भी उसे देख
लिया है।
लेकिन तब अत्यंत
दुस्साहस की
जरूरत है। और
जिनको गुरु से
भी
साक्षात्कार
करने का साहस
नहीं है, कैसे
वैसा
दुस्साहस
जुटा पाएंगे?
क्या
है पात्रता
शिष्य होने की?
"अंतिम
द्वार पर
पहुंचने के
पहले तुझे
अपने मन से
अपने शरीर को
अलग करना
सीखना होगा।
छाया को मिटा डालना
है और शाश्वत
में जीना है। '
हम अभी
जी रहे हैं
छाया में। वह
जो
परिवर्तनशील
है, उसमें हम
जी रहे हैं।
जीवन हमारे
पास अभी है, लेकिन
क्षणभंगुर है;
जो अभी है
और नहीं हो
जाएगा। जितनी
देर कहने में
लगती है, उतनी
देर में भी हो
सकता है, नहीं
हो गया। जैसे
कोई रेत के
मकान बनाता हो
या कोई ताश के
घर बनाता हो, ऐसा हमारा
जीवन
है--क्षणभंगुर
से बंधा।
सोचें, जहां-जहां
आप पाते हैं
कि आपका रस है,
वहां-वहां
क्या है? वहां
कुछ है जो
क्षणभंगुर
है। धन को कोई
पकड़ रहा है, बहुत रस है
धन में। कितना
धन पकड़ सकते
हैं? धन का
क्या शाश्वत
मूल्य है? धन
का क्या सनातन
मूल्य है? और
अगर एक
रेगिस्तान
में पड़े हों
और धन का ढेर भी
आपके पास हो, तो एक
चुल्लू पानी
भी उससे नहीं
मिल सकेगा। उसका
कोई वास्तविक
मूल्य भी नहीं
है। उसका
मूल्य
काल्पनिक है,
और समझौते
पर निर्भर है।
सुना
है मैंने एक
फकीर एक
सम्राट से कह
रहा था, तूने
बहुत धन
इकट्ठा कर
लिया, लेकिन
अगर मरुस्थल
में तू प्यासा
मरता हो, तो
एक गिलास पानी
के लिए इसमें
से कितना
मूल्य दे
सकेगा? उस
सम्राट ने कहा,
अगर मर ही
रहा हूं, तो
सारा
साम्राज्य भी
दे दूंगा एक
गिलास पानी के
लिए। तो जिस
साम्राज्य का
मूल्य एक
गिलास पानी
में भी चुकाना
पड़ सकता हो, उसमें मूल्य
भी कितना
होगा!
कोई
रूप के लिए जी
रहा है, सौंदर्य
के लिए जी रहा
है। पानी पर
पड़ी लकीर जैसा
है; अभी है
और अभी नहीं
हो जाएगा। और
जिसे हम सुंदर
पाते हैं आज, कल वह कुरूप
हो जाएगा। और
जिसे हम युवा
पाते हैं।
THANK YOU GURUJI
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