प्रश्न
सार:
1—आपको
सुनने के बाद मुझे
व्यवहारिक जीवन
में शिथिलता आती
है। लेकिन जब आप
प्रेम और भक्ति
पर बोलते है तो
मन खिल जाता है।
कृपा कर मुझे मार्ग
दें।
2—मेरे
भीतर स्तब्धता,
सन्नाटा सा लग
रहा है। और साथ
ही अच्छे बुरे
विचारों का आक्रमण
भी। मैं अपने को
बहुत असहाय पा
रही हूं। भय लगता
है।
3—आप
महावीर की अहिंसा
पर, बुद्ध के शून्य
पर, या कुछ भी
बोलते है तो उसमें
अनिवार्यत:
प्रेम जोड़ देते
है। क्या हम संन्यासियों
में प्रेम का
अत्यंत अभाव देखकर
ही प्रेम का पुन:--पुन:
स्मरण कराते है?
4—मुझे
समर्पण में बहुत
आनंद आता है,
ज्ञान से थोड़ा
अहंकार जगता है।
मैं कौन—सा ध्यान
करूं—बताने की
कृपा करें।
पहला
प्रश्न:
आपको
सुनने के बाद
मुझे
व्यवहारिक
जीवन में शिथिलता
और उदासी का
अनुभव होता
है। लेकिन जब
प्रेम और
भक्ति, आनंद
और उत्सव पर
आप बोलते हैं,
तब मन खिल
जाता है और
आनंद से भर
जाता है। कृपापूर्वक
मुझे मेरा
मार्ग दें।
आनंद
कसौटी है।
सत्य की चिंता
छोड़ो।
जहां आनंद है, उसी दिशा
में चल पड़ो।
सत्य मिलेगा
ही। असत्य की
दिशा में आनंद
हो ही नहीं
सकता। इसीलिए
तो हमने आनंद
को ब्रह्म की
परिभाषा
बनाया है।
सच्चिदानंद!
आनंद
कसौटी है।
आनंद पर कभी
संदेह मत
करना। अगर
आनंद न होगा
तो जल्दी ही
पता चल
जायेगा। झूठा
आनंद ज्यादा
देर टिकेगा
नहीं।
डूबो!
जहां से आनंद
की किरण आती
है वहीं सूरज
है सत्य का।
तुम किरण को
पकड़ लो और चल पड़ो। सत्य
की चिंता ही छोड़ो।
किरण पकड़ ली
तो सूरज की
दिशा पर चल
पड़े। और आदमी
के पास दूसरा
कोई उपाय नहीं
है। सत्य से
ही पता चलेगा, क्या ठीक
है। क्योंकि
जो ठीक है, वही
जीवन को संगीत
और आनंद से
भरता है।
और जब
मैं कहता हूं, जो ठीक है, तो मेरा
प्रयोजन
व्यक्ति-व्यक्ति
से है। जो तुम्हें
ठीक है, जरूरी
नहीं कि
तुम्हारे पति
को ठीक हो। जो
तुम्हें ठीक
है, जरूरी
नहीं कि
तुम्हारे
बेटे को ठीक
हो। जो तुम्हें
ठीक है, जरूरी
नहीं कि
तुम्हारे भाई
को ठीक हो, मित्र
को ठीक हो, पड़ोसी
को ठीक हो।
जो
तुम्हारे लिए
ठीक है, उसे
भूलकर भी
दूसरे पर
आरोपित मत
करना। वहीं हिंसा
शुरू हो जाती
है। जो
तुम्हारे लिए
ठीक है, उसे
जीना। और किसी
को भी इतना
अधिकार मत
देना कि वह
तुम्हारे ऊपर
अपने ठीक को
थोप पाये।
क्योंकि वहीं
से गुलामी
शुरू हो जाती
है।
न किसी
को गुलाम
बनाना, न
किसी के गुलाम
बनना--तो ही
तुम धार्मिक
हो सकोगे।
और
कसौटी एक ही
है हाथ में कि
जहां तुम्हें
आनंद की पुलक
मिले, वहां
सरकते जाना।
अगर झूठा होगा
आनंद--उस झूठे
आनंद को ही हम
सुख कहते हैं।
सुख का
अर्थ है:
जिसने धोखा
दिया आनंद का, लेकिन था
नहीं। सुख का
अर्थ है: जाकर
पता चला आनंद
नहीं है। दूर
से ढोल
सुहावना
मालूम पड़ा था।
मृगमरीचिका
थी। दूर से
कुछ और समझे
थे, पास
कुछ और सिद्ध
हुआ। इसलिए
मैं तुमसे सुख
से भी भागने
को नहीं कहता;
क्योंकि
अगर तुम भाग
गये
मृगमरीचिका
को बिना देखे,
तो सुख
तुम्हारा सदा
पीछा करेगा।
मैं
तुमसे कहता
हूं, सुख में
भी जाओ, ताकि
वह दुख हो
जाये। अगर वह
दुख है तो दुख
हो जायेगा; और अगर दुख
नहीं है तो
वहीं से
तुम्हारी
परमात्मा की सीढ़ियां
शुरू होंगी।
लेकिन, मनुष्य के
मन को आनंद के
लिए तैयार
नहीं किया गया
है। इसलिए
प्रश्न उठता
है। इसलिए तुम
अपनी इस
स्वाभाविक
रुझान को भी
समस्या बना
लेते हो।
अगर
वैराग्य की
बातें
तुम्हें रस
नहीं देतीं--छोड़ो!
तुम्हारे लिए
न होंगी। इसका
यह अर्थ नहीं
है कि वे
बातें गलत
हैं। वे किसी
और के लिए
होंगी। कोई
महावीर उस
रास्ते से
चलकर
पहुंचेगा।
कुछ प्रयोजन
नहीं तुम्हें
उनसे।
तुम्हारा
हृदय तुम्हें
प्रतिपल
बताता है कि कौन-सी
भूमि
तुम्हारे फूल
को खिलायेगी।
फिर हर
वृक्ष के लिए
अलग भूमि होती
है। कोई वृक्ष
रेत में ही
खड़ा होता है।
कोई वृक्ष कंकड़-पत्थर
चाहता है। कोई
वृक्ष काली भूमि
चाहता है कि
जरा-भी कंकड़-पत्थर
न हों। जो एक
के लिए अमृत
है, वह दूसरे
के लिए जहर हो
जाता है।
इसलिए
सदा ध्यान
रखना: कोई
वक्तव्य सत्य
के संबंध में
सार्वभौम
नहीं
है--व्यक्ति-सापेक्ष
है।
वैराग्य
की बात किसी
को खिलाती
होगी। असली सवाल
खिल जाना है।
किसी को मरुस्थल
की रेत में ही खिलने का
सौभाग्य होता
होगा। कैक्टस
मरुस्थल में
ही खिलते हैं।
उनका भी अपना
सौंदर्य है।
गुलाब वहां न
खिलेंगे।
गुलाब का अपना
सौंदर्य है।
तो
अपने हृदय से
कभी भी
जबर्दस्ती मत
करना। अगर
व्यक्ति अपने
हृदय की मानकर
चलता रहे, और हृदय के
अतिरिक्त, हृदय
के विपरीत
किसी की न
माने, तो
सत्य से तुम
भटक न सकोगे, पहुंच ही
जाओगे।
जहां
आनंद न होगा
और धोखा खाया, वहां धोखा
कितनी देर
चलेगा? प्यासे
आदमी को कितनी
देर झूठे पानी
से समझाओगे,
बुझाओगे?
कितनी देर
सांत्वना
दोगे? जल्दी
ही उसे समझ
में आ जायेगा:
यहां कोई जलधार
नहीं है। हां,
लेकिन यह हो
सकता है, उसे
तुम इस झूठी
जलधार के पास
ही न पहुंचने
दो, तो कभी
उसके अनुभव
में ही न आ सके
कि मृगमरीचिका
थी, वहां
कुछ था नहीं।
तो शायद उसके
मन में सपना अपने
ताने-बाने
बुनता रहे!
शायद मन कहता
रहे, वहां
सुख था! वहां
सुख था!
ऐसा ही
मैं तुम्हारे
तथाकथित
साधु-संन्यासियों
में देखता
हूं। संसार
में सुख नहीं
है, ऐसा उनका
अनुभव नहीं
है। ऐसा किसी
अनुभवी की बात
को उन्होंने
मान लिया है।
उनका स्वयं का
हृदय तो कह
रहा था, सुख
है। उस हृदय
को तो इनकारा,
अस्वीकार
किया; किसी
और को आरोपित
कर लिया। अपने
प्राणों की
आवाज तो न
सुनी; किसी
और की आवाज पर
चल पड़े। फिर
उनका जीवन बड़े
दुख से भर
जाता है।
क्योंकि जहां
उन्हें सुख दिखाई
पड़ता था, वहां
उन्हें अब भी
दिखाई पड़ेगा।
आंखें
उधार नहीं मिलतीं
और न दर्शन
उधार मिलता है, मेरी आंख से
मैं देख सकता
हूं। मेरी आंख
से तुम न देख
सकोगे। मेरे
लिए मैं जी
सकता हूं, मेरे
लिए तुम न जी
सकोगे। और
मेरे लिए मैं
ही मर सकता
हूं, तुम न
मर सकोगे।
एक की
जगह दूसरे के
खड़े होने का
कोई भी उपाय
नहीं है। मगर
वहीं हम धोखा
देते हैं।
महावीर
ने कहा है तो
ठीक कहा होगा।
ठीक ही कहा है।
लेकिन
तुम्हारे लिए
कहा है, ऐसा
महावीर को
तुम्हारे
हिसाब से
बोलने का कोई
कारण भी न था; तुम महावीर
के सामने भी न
थे। महावीर को
तुम्हारा कोई
पता भी नहीं
है। महावीर ने
तो अपना सत्य
कहा है। इसे
खयाल रखना।
यहां
जो मैं तुमसे
कह रहा हूं वह
जरूरी नहीं है
कि तुम्हारा
सत्य हो। वह मेरा
सत्य है, इतना
जरूरी है। ऐसा
मैंने जाना।
ऐसा तुम भी जानोगे,
इसकी कोई
अनिवार्यता
नहीं है। जान
भी सकते हो, न भी जानो!
मुझसे
मेल खा जाओ, तुम्हारा
व्यक्तित्व
मुझसे मेल
खाता हो, तो
शायद जो मेरा
सत्य है वह
तुम्हारा भी
अनुभव बन
जाये। लेकिन
अगर
व्यक्तित्व
मेल न खाता हो,
तो मेरा
सत्य
तुम्हारे
ऊपर-ऊपर रहेगा,
भीतर-भीतर
तो तुम्हारा
ही सत्य
रहेगा।
सभी
दर्शन
आत्म-कथाएं
हैं, "आटो-बायोग्राफिकल'
हैं। वे
व्यक्ति के
संबंध में
हैं।
जब
महावीर कुछ
कहते हैं, तो वह
महावीर के
संबंध में
सूचनाएं हैं;
जब बुद्ध
कुछ कहते हैं
तो बुद्ध के
संबंध में। जब
मीरा नाचती है
और नाच से कुछ
कहती है, तो
अपने संबंध
में कह रही
है।
सत्य
के संबंध में जिनती उदघोषणाएं
हैं, वह उन
व्यक्तियों
की उदघोषणाएं
हैं
जिन्होंने
सत्य को जाना।
उनके माध्यम
से सत्य आया।
सत्य ने एक
रूप लिया।
जरूरी नहीं है
वही रूप तुम्हारे
लिए ठीक हो।
तुम कैसे
समझोगे?
कुछ
लोग हैं, जो
इसलिए मान
लेते हैं किसी
की बात को, क्योंकि
और लोग उसकी
बात को मानते
हैं। अगर जीसस
को एक अरब
आदमी मानते
हैं तो कुछ तो
इसीलिए मान
लेंगे कि
जिसको एक अरब
मानते हैं, वह गलत कैसे
हो सकता है?
लेकिन
ध्यान रखना, यह भी संभव
है कि एक अरब
जिसे मानते
हों वह तुम्हारे
लिए न हो। वह
एक अरब के लिए
भी सही हो और
फिर भी
तुम्हारे लिए
सही न हो।
क्योंकि
परमात्मा एक-एक
व्यक्ति को
अनूठा रचता है,
एक-एक
व्यक्ति को
अद्वितीय
रचता है। यही
तो मनुष्य की
महिमा है।
मनुष्य
की तो छोड़ दो
फिक्र, एक
पत्ते को इस बगीचे से
तुम खोज लो, फिर वैसा
पत्ता तुम
सारी पृथ्वी
पर खोजकर भी दूसरा
न पा सकोगे।
एक कंकड़
उठा लो मार्ग
से, फिर
अनंत-अनंत चांदत्तारों
पर भी खोजते
रहो तो ठीक
वैसा कंकड़
तुम्हें
दुबारा न
मिलेगा।
परमात्मा
कोई फोर्ड-कार
बनानेवाली असेंबली-लाइन
नहीं है कि
एक-सी कारें!
परमात्मा कोई
मैकेनिक नहीं
है, तकनीशियन
नहीं
है--कलाकार
है।
जितना
बड़ा कवि होगा, उतना ही
दुबारा किसी
गीत को नहीं
दोहराता। जितना
बड़ा चित्रकार
होगा, दुबारा
फिर उसी चित्र
को नहीं
बनाता।
दुबारा अगर
बना भी ले
वैसा चित्र तो
आनंद अनुभव
नहीं करता।
ऐसा
हुआ कि एक
आदमी ने पिकासो
का एक चित्र
खरीदा। कई लाख
रुपये का
चित्र था। तो
स्वभावतः वह
पता कर लेना
चाहता था कि
चित्र नकली तो
नहीं है। तो
वह पिकासो
के पास ही उस
चित्र को लेकर
गया। और उसने पिकासो से
कहा कि मैं यह
खरीद रहा हूं, लाखों रुपये
का मामला है, मैं इतना
पूछने आया हूं
कि यह असली है?
तुम्हारा
ही बनाया हुआ
है, किसी
की नकल तो
नहीं?
पिकासो
ने उस चित्र
की तरफ बड़ी
बेरुखी से
देखा और कहा, नकली है, किसी
और का बनाया
है। पिकासो
की प्रेयसी
मौजूद थी और
वह बड़ी चकित
हुई, क्योंकि
यह चित्र उस
प्रेयसी के
सामने ही बनाया
गया था। और पिकासो
ने ही बनाया
था। उसने कहा
कि शायद तुम
भूल रहे हो, शायद
तुम्हारी
स्मृति
तुम्हें धोखा
दे रही है। यह
चित्र तुमने
मेरे सामने
बनाया है। यह
तुम्हारा ही
बनाया हुआ है।
पिकासो
ने कहा, मैंने
बनाया है, लेकिन
फिर भी नकली
है। क्योंकि
इसे मैं पहले
भी बना चुका
हूं। इसको
असली कहना ठीक
नहीं है, आथैंटिक नहीं है। एक
दफा जो बना
चुके, बात
पुरानी हो गई।
अब उसे कोई
दूसरा नकल करे
या मैं खुद ही
उसकी नकल करूं,
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
लेकिन यह
चित्र मैं
पहले भी बना
चुका हूं। यह सिर्फ
प्रतिध्वनि
है, छाया
है; असली
नहीं है।
परमात्मा
दोबारा कोई
चीज बनाता
नहीं। परम कलाकार
है! ऐसा थोड़े
ही है कि जगत
चुक गया है, कि अब उसे
कुछ सूझता
नहीं, कि
फिर महावीर को
बना दे, फिर
राम को बना दे,
फिर कृष्ण
को बना दे।
देखा
तुमने, न
महावीर
दुबारा, न
कृष्ण दुबारा,
न राम
दुबारा! जो एक
बार आता है, फिर दोबारा
पर्दे पर आता
ही नहीं। इसे
स्मरण रखना।
तुम भी
नये हो। सीख
सबसे लेना, मानना अपनी।
सुनना सबकी, अंतिम
निर्णय हृदय
से लेना।
तो अगर
वैराग्य की
बातें सुनकर
शिथिलता और उदासी
आती है; हृदय
का फूल खिलता
नहीं, कुम्हलाता
है; कली
फूल नहीं बनती,
उलटा फूल अपनी
पंखुड़ियां
बंद कर लेता
है--जैसे सांझ
सूरज के डूब
जाने पर बहुत-से
फूल अपनी पंखुड़ियां
बंद कर लेते
हैं--तो समझ
लेना, यह
सत्य
तुम्हारा
सूरज नहीं। यह
होगा सत्य किसी
और का, क्योंकि
कुछ फूल हैं
जो सूरज के
डूबने पर ही खिलते
हैं। रातरानी
है: उसका होगा,
तुम्हारे लिए
नहीं है।
तुम्हारा
रास्ता फिर
बिलकुल साफ
है।
जहां
तुम्हें आनंद
की झलक मिले, साहस करके
वहां जाना।
जरूरी नहीं है
कि हर बार तुम
वहां आनंद
पाओगे, यह
मैं नहीं कह
रहा हूं। बहुत
बार तुम पाओगे
वहां कुछ भी न
था, राख का
ढेर था। लेकिन
तब भी अनुभव
होगा। तब भी जीवन
में प्रौढ़ता
आयेगी। राख का
ढेर देखकर समझ
आयेगी। आगे
राख के ढेर
पहचानने की
कला आयेगी।
दुबारा धोखा
मुश्किल
होगा। तीसरी
बार धोखा
असंभव हो
जायेगा। फिर
एक ऐसी घड़ी आ
जायेगी कि
कितना ही लोभक
दृश्य हो, तुम
दूर से भी
पहचान पाओगे
कि कहां राख
है, कहां
अंगार है; कहां
जीवन है, कहां
सब बुझा-बुझा
है।
भूल-भूल
करके ही आदमी
सीखता है। गलत
को गलत जान
लेना सही की
तरफ जाने का
उपाय है।
भ्रांत को भ्रांत
पहचान लेना, निर्भ्रांत
होने की
व्यवस्था है।
तो मैं
तुमसे कहता
नहीं कि तुम
जल्दी भाग
जाना, मेरी
मानकर भाग
जाना। तुम तो
अपने ही अनुभव
से जाना। होगा
सुख, तो
स्वर्ग का
रास्ता
बनेगा। नहीं
होगा सुख, तो
अनुभव जगेगा।
एडीसन
एक प्रयोग कर
रहा था। उसमें
सात सौ बार हारा।
उसके सारे
साथी-सहयोगी
रुष्ट हो गये, परेशान हो
गये। उसके
विद्यार्थी
तो घबड़ा गये कि
अब यह कब खतम
होगा; क्या
पूरा जीवन यह
एक ही प्रयोग
में करते रहना
है; सात सौ
बार! तीन साल
खराब हो गये!
एक दिन उसके
सब सहयोगियों
ने कहा, "आप
सुनिये! आप तो
रोज सुबह फिर
प्रसन्नचित्त
आ जाते हैं और
फिर काम शुरू
कर देते हैं; लेकिन हमारा
भी सोचिये!
यह जिंदगी इसी
में गंवानी
है? सात सौ
दफे हार चुके;
अब छोड़िये
भी! कुछ और
करिये!'
एडीसन
ने कहा कि
तुमसे किसने
कहा कि मैं
सात सौ बार
हार चुका? मैं तो हर
बार जीत के
करीब आ रहा
हूं। समझो कि
सात सौ एक
दरवाजे हैं
उसके, तो
सात सौ दरवाजे
तो हम खटखटा
चुके; वहां
नहीं था द्वार,
दीवाल थी।
वह दरवाजे
झूठे थे! अब हम
रोज-रोज करीब
असली दरवाजे
के आ रहे हैं।
कितनी देर यह
चलेगा! तो सात
सौ बार हम
असफल हुए, यह
तुमसे किसने
कहा? हर
कदम हमें
सफलता के करीब
लाया है। हर
विफलता सफलता
के करीब लाती
है। सात सौ
बार के अनुभव
ने हमें काफी
प्रौढ़ बना
दिया है।
हमारी परख पैनी
हो गई है। अब
हमें वो सात
सौ मार्ग भटका
नहीं सकते। और
निश्चित ही
ठीक मार्ग के
हम करीब आ रहे
हैं। कितनी
देर होगा, यह
तो कहना
मुश्किल है।
और
कहते हैं, उसके कोई
पंद्रह दिन
बाद ही एडीसन
सफल हो गया।
उसने बिजली का
पहला बल्ब बना
लिया। आज सारी
दुनिया उसकी
वजह से रोशन
है।
जो
बाहर के
प्रकाश की खोज
के संबंध में
सही है, वही
भीतर के
प्रकाश की खोज
के संबंध में
भी सही है।
जहां
सुख
मिले--जाना!
मैं
यहां तुम्हें
डराने को नहीं
हूं। डरकर कभी
कोई जागा? मैं तुम्हें
घबड़ाता
नहीं हूं। मैं
तुमसे कहता
हूं, जाओ!
साहस से, हिम्मत
से! होगा सुख
तो एक कदम और
तुमने प्रभु
की तरफ लिया।
नहीं होगा सुख,
तो भी एक
कदम प्रभु की
ओर लिया। एक
द्वार बंद हुआ!
इस तरफ जाने
में कोई सार
नहीं। एक
रास्ता गलत
हुआ। सही
रास्ते के
करीब आने लगे।
हृदय
की सुनो। तो
अगर भक्ति, प्रेम और
उत्सव की बात
सुनकर
तुम्हारे
हृदय में कोई
धुन बजती है, तुम्हारे हृदय
की वीणा कंपित
होने लगती है,
तो वही
तुम्हारा
मार्ग है। फिर
वैराग्य की बातों
को बीच-बीच
में मत डालना।
क्योंकि फिर
तुम सब विकृत
कर दोगे। एक
बार साफ हो
गया कि प्रेम की
चर्चा
तुम्हें उमंग
से भर देती है
तो फिर तुम विरागियों
की चर्चा की
बात ही छोड़
देना। फिर वह
रास्ता
तुम्हारे लिए
नहीं है। फिर
उनकी बात तुम्हें
झंझट में डाल
देगी। प्रेमी
की बात बड़ी
अलग है।
इश्क
हायल है तेरे
मिलने में
हमसे
ये पर्दा
हटाया न गया।
विरागी
कहता है कि
प्रेम को हटा
लो तो परमात्मा
से मिल जाओ।
प्रेमी कहता
है: इश्क हायल
है तेरे मिलने
में! लोग कहते
हैं कि प्रेम
के कारण हम
तुझसे नहीं मिल
रहे हैं; होगा
यही सही। हमसे
यह पर्दा
हटाया न गया!
लेकिन हम यह
पर्दा न हटा
सकेंगे। हम तो,
अगर प्रेम
के कारण ही तू
चूक रहा है तो
चूके चले
जायेंगे; लेकिन
यह प्रेम हमसे
न हटाया
जायेगा।
भक्त
के लिए तो
प्रेम ही परमात्मा
है। ज्ञानी के
लिए प्रेम
बाधा है। वह
प्रेम को कहता
है, राग! हटाओ!
वैराग्य को
जगाओ! तो ही
सत्य मिलेगा।
प्रेमी
और भक्त कहता
है, पर्दे को
नहीं हटाना, अपने को
मिटा देना है।
प्रेम ही
प्रेम रह जाये,
तुम न बचो!
इश्क
हायल है तेरे
मिलने में
हमसे
यह पर्दा
हटाया न गया।
तुझको
देखा तो सेर
चश्म हुए
तुझको
चाहा तो और
चाह न की।
--आंखों
की सारी भूख
मिट गई तुझे
देखते ही!
तेरी झलक पाते
ही!
तुझको
देखा तो सेर
चश्म हुए
तुझको
चाहा तो और
चाह न की।
विरागी
कहता है, सब
चाह छोड़ो
तो परमात्मा
मिलेगा।
प्रेमी कहता
है, उसकी
चाह आ गई तो सब
चाह अपने से
छूट जाती है; छोड़ने की
झंझट प्रेमी
को नहीं है।
उसकी चाह काफी
है।
तुझको
देखा तो सेर
चश्म हुए
तुझको
चाहा तो और
चाह न की।
फिर
उसको चाहने के
बाद कहीं कोई
और चाह बचती है!
पर ये
दोनों अलग-अलग
मार्ग हैं।
विरागी कहता है, सब चाह छोड़ो--इतना
कि परमात्मा
की चाह भी छूट
जाये। वह भी
एक रास्ता है।
अचाह में झूब
जाओ।
परमात्मा तक
की चाह न
बचे--उतनी भी
चाह की रेखा न
रह जाये भीतर।
परिपूर्ण
अचाह में खड़े
हो जाओ। जरा
भी कंपन न रह
जाये चाह का, वासना का।
उसी घड़ी मिलन!
प्रेमी
कहता है, उसकी
चाह में ऐसे
डूब जाओ कि
तुम न बचो; तुम्हारी
सारी
जीवन-ऊर्जा बस
उसकी चाहत, उसका प्रेम
बन जाये। उसी
घड़ी मिलन!
दोनों
तरफ से मिलन
हुआ है। दोनों
में कौन ठीक और
गलत, इस तरह
कहने की बात
ही नासमझी है।
इतना ही देख लेना,
तुम्हारा
हृदय किसके
साथ खिलता है!
तन
से तो सब
भांति विलग
तुम
लेकिन
मन से दूर
नहीं हो
जुड़े
न पंडित, सजी
न वेदी
वचन
हुए न मंत्र
उचारे
जनम-जनम
को किंतु वधू
यह
हाथ
बिकी बेमोल
तुम्हारे
झूठे-सच्चे, कच्चे-पक्के
रिश्ते
जितने
दुनियाभर के
सबसे
तुम मुक्त, प्रेम
के
वृंदावन से
दूर नहीं हो।
तन
से तो सब
भांति विलग
तुम
लेकिन
मन से दूर
नहीं हो।
और सब
नाते-रिश्ते
होंगे संसार
के, लेकिन
भक्त कहता है,
प्रेम का
नाता संसार का
नहीं है।
प्रेम तो वृंदावन
है। वह कोई
नाता नहीं है।
वह कोई बनने मिटनेवाली
बात नहीं है।
वह कोई संबंध
नहीं है। वह
तो एक आनंद की,
अहोभाव की
दशा है।
वृंदावन है।
झूठे-सच्चे, कच्चे-पक्के
रिश्ते
जितने
दुनियाभर के
सबसे
तुम मुक्त, प्रेम
के
वृंदावन से
दूर नहीं हो।
और सब
होगा बाधा!
प्रेम--और
बाधा! भक्त को
बाधा नहीं
दिखाई पड़ती।
भक्त तो प्रेम
से ही उसके
पास पहुंचता
है। प्रेम में
डूबकर ही
उसमें डूबता
है।
ये
विरागी की और
प्रेमी की
अलग-अलग
भाषाएं हैं।
इनमें जो भाषा
तुम्हारे
हृदय में रम
जाये; जिस
भाषा की वर्षा
में तुम्हारे
भीतर के बीज फूटने
लगें; जिस
भाषा के
संपर्क में
तुम्हारा
व्यक्तित्व
निखार लेने
लगे; रस जगे;
गीत जगे;
नृत्य
उठे--तो फिर
समझना कि हृदय
साफ-साफ इशारा
कर रहा है किस
तरफ चलो। फिर
और सारी
चिंताएं छोड़
देना--किस घर
में पैदा हुए,
किस धर्म
में पैदा हुए,
कौन-सा
सिखावन, कौन-सी
शिक्षा दी गई,
कौन-सा
शास्त्र पकड़ाया
गया, फिर
सब गौण है।
हृदय से
परमात्मा ने
बोल दिया कि
तुम्हारे लिए
जाने का
रास्ता कौन
है।
लेकिन
ऐसा सभी को न
होगा।
यहां
कुछ हैं जिनको
प्रेम की बात
सुनकर बेचैनी
शुरू हो जाती
है, घबड़ाहट शुरू हो
जाती है।
विराग की बात
सुनकर वह शांत
बैठ जाते हैं,
कि अब चलो
ठीक बात हुई।
वह भी गलत
नहीं हैं। उनको
जो रुचता है, उनको जो
पचता है। वे
शायद जीवन में
काफी जले हैं।
और जैसा दूध
का जला छाछ भी
फूंक-फूंककर
पीने लगता है;
प्रेम ने
शायद उन्हें
काफी जलाया
है। यद्यपि जो
प्रेम
उन्होंने अब
तक जाना था, वह बिलकुल
ही क्षुद्र था,
व्यर्थ था,
नाममात्र
को था। लेकिन
उसने इतना जला
दिया है कि अब
तो वह
परमात्मा की
भक्ति की बात
या प्रेम की
बात सुनकर भी
चौंक जाते
हैं। वे छाछ
को भी फूंक-फूंककर
पीते हैं। मगर
ठीक, अगर
विराग से उनके
हृदय का भाव
खुलता है, शांति
मिलती है और
एक सुख की दशा
पैदा होती है,
तो वही ठीक।
उसी से वे
चलें।
और जिस
बात पर मैं
जोर देना
चाहता हूं, वह यह कि कभी
भूलकर भी किसी
को तुम अपनी
भांति चलाने
की चेष्टा मत
करना। यह चेष्टा
हम सबके मन
में पैदा होती
है। यह हमारे
अहंकार का बड़ा
गहरा हिस्सा
है। हम दूसरे
को अपनी प्रतिछवि
में बनाना
चाहते हैं।
बाप अपने बेटे
को ढालना
चाहता है ठीक
अपने जैसा।
मां अपनी बेटी
को ढालना
चाहती है ठीक
अपने जैसी।
मित्र मित्र
को ढालने में
लग जाता है।
हम सब इस
चेष्टा में
होते हैं कि
अगर हमारा बस
चले तो सारी
दुनिया को हम
अपनी प्रतिछवि
में ढाल दें।
इससे अहंकार
को बड़ी तृप्ति
मिलती है।
इससे मैं तो
हो जाता हूं
आदर्श; और
सभी हो जाते
हैं मेरी
छायाएं। इससे
मैं तो हो
जाता हूं सभी
जीवन का
मापदंड। इस
भ्रांति से
थोड़े सजग
होना।
तुम्हें
अपना सत्य
खोजना है। और
सभी सत्य निजी
सत्य हैं।
दूसरे पर
थोपना नहीं
है। तो न तो थोपना
और न किसी को
थोपने देना।
अगर इन दो
बातों से तुम
बच
गये--क्योंकि
बड़ा खतरा यह
है कि जो नहीं
थोपते, वे
दूसरों को थोप
लेने देते
हैं। जो दूसरे
को नहीं थोपने
देते, वे
खुद दूसरों पर
थोप देते हैं।
इस
दुनिया में
वस्तुतः समझपूर्वक
जीना बड़ा कठिन
है। समझ के
दोनों तरफ
नासमझी की
अतियां हैं।
मैक्यावली
ने कहा है, इसके पहले
कि कोई तुम पर
आक्रमण करे, तुम आक्रमण
कर देना।
क्योंकि यही
सुरक्षा का सर्वोत्तम
उपाय है। तो
यहां प्रत्येक
व्यक्ति यही
कोशिश कर रहा
है कि इसके
पहले कि कोई
तुम्हारी
गर्दन पकड़े,
तुम पकड़ लो।
इसके पहले कि
तुम्हें कोई
बदले, तुम
बदल दो। इसके
पहले कि
तुम्हारी कोई
परिभाषा करे,
तुम
परिभाषा कर
दो।
तुमने
देखा, पूरे
जीवन हम
एक-दूसरे को
परिभाषित कर
रहे हैं, हम
हजार-हजार
तरकीबों से
एक-दूसरे की
परिभाषा करते
हैं। पति खड़ा
है, कार
में हार्न बजा
रहा है, पत्नी
देर लगाती
है--वह यह
घोषणा कर रही
है देर लगाकर
कि खड़े रहो; मालिक कौन
है, जाहिर
हो जाना
चाहिए! वह पति
को परिभाषा दे
रही है।
ध्यान
रखना, जो
जिसको
प्रतीक्षा
करवा सकता है,
वह उसकी
परिभाषा कर
देता है। तुम
दफ्तर में गये
किसी से मिलने
तो मैनेजर
तुम्हें बिठा
रखेगा थोड़ी
देर, चाहे
उसको कोई काम
न हो। क्लर्क
भी तुम्हें बड़ी
देर बाद
देखेगा, चाहे
वह कुछ भी न कर
रहा हो। वह
वैसे ही अपने
रजिस्टर
उलटने लगेगा,
क्योंकि वह
तुम्हें
परिभाषा देना चाहता
है कि साफ हो
जाना चाहिए कि
यहां कौन मालिक
है!
मैं
तुमको
प्रतीक्षा
करवा सकता हूं, तो मैं
मालिक हूं!
जो
प्रतीक्षा
करवा सकता है
वह ऊपर है। तो
पति भी सांझ
को क्लब-घर
में देर तक
बैठा ताश
खेलता रहता है, पत्नी को
राह दिखवाता
है कि घर बैठी
रहो, करती
रहो प्रतीक्षा
खाने के लिए!
जरा देर करके
ही आयेगा। वह यह
साफ बता देना
चाहता है कि
कौन मालिक है।
तुमने
देखा, बड़े
नेता सभा में
आयें तो हमेशा
देर से आयेंगे।
बड़ा नेता, और
वक्त पर आ
जाये! यह बात
हो ही नहीं
सकती। जितना
बड़ा नेता, उतनी
देर करके
आयेगा। उतनी
लोगों को
प्रतीक्षा
करवा देगा।
उनको जाहिर
करवा देगा कि
तुम कौन हो, तुम्हें साफ
हो जाना
चाहिए।
जीवनभर
हम एक-दूसरे
को दबाने की
चेष्टा करते हैं--जाने-अनजाने
उपायों से।
बाप बेटे को
बदलना चाहता
है। बदलने की
चेष्टा में
सिर्फ वह यह कहना
चाहता है कि
मालिक मैं
हूं। बेटा भी
बड़ा होकर इस
बूढ़े बाप को
बदलने की
चेष्टा करेगा, क्योंकि तब
बाप कमजोर
होने लगेगा।
तब बेटा इसको
समझाने लगेगा
कि क्या करना
उचित है और
क्या करना
उचित नहीं है,
कि तुम
सठिया गये हो,
कि
तुम्हारी
बुद्धि तुमने
खो दी, कि
तुम्हें इस
दुनिया का पता
नहीं है जो आज
है; तुम
जिस दुनिया की
बातें कर रहे
हो, वह
गई-गुजरी हो
चुकी; अब
तुम मेरी
सुनो!
इस जगत
में इन दोनों
अतियों से
बचना बड़ा कठिन
है। मगर जो बच
जाये वही साधक
है। न तो तुम
दूसरे को
दबाने की
कोशिश करना और
न किसी को
अवसर देना कि
तुम्हें दबा
दे। एक बात
तुम साफ कर
देना कि चाहे
कोई भी कीमत
हो, कितनी ही
जोखिम हो, मैं
अपने हृदय की
मानकर
चलूंगा। चाहे
सब खोना पड़े!
इसी को मैं
संन्यास की
भाव-दशा कहता
हूं।
संन्यास
कोई बाह्य
कृत्य नहीं
है--एक भीतरी अंतर्घोषणा
है कि अब से
मैं अपने हृदय
की मानकर
चलूंगा, चाहे
इसके लिए मुझे
सब गंवाना पड़े;
चाहे इसके
लिए मुझे
दीन-दरिद्र हो
जाना पड़े; चाहे
राह का भिखारी
हो जाना पड़े।
राह के भिखारी
होने की जरूरत
नहीं है; लेकिन
अगर यह भी
होना पड़े तो
मेरी तैयारी
है; लेकिन
अब एक बात
मैंने तय कर
ली कि अपने
हृदय के
अतिरिक्त और
किसी की मानकर
न चलूंगा। अब
मेरा हृदय ही
मेरा वेद होगा।
और मेरा हृदय
ही मेरी भगवदगीता
होगी। हृदय ही
मेरा कुरान और
मेरी बाइबिल
होगी।
और तुम
चकित होओगे कि
जिस दिन तुम
हृदय की सुनने
लगोगे, उस
दिन तुम्हारे
जीवन में गति
आ जायेगी। कुछ
अड़चनें आयेंगी
समाज की तरफ
से, दूसरों
की तरफ से; क्योंकि
कल तक जिनकी
तुमने मानी थी,
अचानक वे
इतने जल्दी
राजी न हो
जायेंगे। वे
इतनी जल्दी
स्वीकार न कर
लेंगे। लेकिन
भीतर तुम पाओगे:
उमंग आ गई!
तरंग आ गई! एक
ज्वार आ गया
शक्ति का!
भीतर तुम
पाओगे कि अब
तुम
दीन-दरिद्र
नहीं हो; तुम
सम्राट हो
गये।
तो जो
तुम्हें रुचे।
विराग तो
विराग! उससे
भी लोग
परमात्मा तक
पहुंचे हैं।
भक्ति तो
भक्ति!
दूसरा
प्रश्न:
मेरे
भीतर जैसे
स्तब्धता, सन्नाटा-सा
लग रहा है।
खाली-खाली, शून्यता
जैसे छा गई
हो। और साथ ही
अच्छे-बुरे विचारों
का आक्रमण भी
हावी होता
रहता है। मैं क्या
करूं? मैं
बावरी-सी हो
गई हूं। मैं
अपने को बहुत असहाय,
अकेली और
असुरक्षित पा
रही हूं। भय
लगता है।
"सरोज' का प्रश्न
है।
ऐसा
होता है। ऐसा
होना
स्वाभाविक
है। क्योंकि
जैसे ही हम
भीतर जाते हैं, हम अकेले हो
जाते हैं।
इसीलिए तो लोग
भीतर जाने से
डरते हैं।
बाहर
हैं और लोग, भीतर तो कोई
भी नहीं। भीतर
तो तुम हो और
बस तुम हो।
बाहर अनंत लोग
हैं, चहल-पहल
है। भीतर तो
सन्नाटा है।
बाहर बहुत भरावट
है, भीतर
तो शून्य है।
और
जन्मों-जन्मों
तक हम बाहर
जीए, संबंधों
में जीए, औरों
के साथ जीए, भीड़-बाजार, घर-गृहस्थी--हजार
व्यस्तताएं!
तो जब
भीतर चलना
शुरू करोगे तो
अचानक अनुभव
में आना शुरू
हो गया, वह
सब तो दूर छूट
गया और इस
भीतर तो
तुम्हारा निकटतम
प्रियजन भी
नहीं आ सकता।
यह तो तुम्हारा
नितांत एकांत
है। यह तो
इतना निजी है,
इतना
प्राइवेट है
कि तुम अपने
प्रेमी को भी
इसमें
निमंत्रित न
कर सकोगे।
यहां तो बस
तुम हो और तुम
हो।
तो
शुरू-शुरू में
बड़ी
निस्तब्धता, सन्नाटा, सूनापन
नकारात्मक
मालूम होगा।
राह
देखी नहीं और
दूर है मंजिल
मेरी
कोई
साकी नहीं, मैं हूं, मेरी
तन्हाई है।
घबड़ाहट
भी होगी; क्योंकि
राह देखी नहीं,
मंजिल का
कोई पक्का पता
नहीं कहां है,
कहां जा रहे
हैं, क्या
हो रहा है।
मील के पत्थर
भी नहीं हैं
भीतर। कौन लगायेगा
मील का पत्थर?
कोई नक्शा
भी नहीं है
भीतर का। कौन
देगा नक्शा? वहां कोई
हाथ लेकर चलानेवाला
भी नहीं है।
तो अचानक आदमी
असहाय मालूम
होता है।
इस
असहाय अवस्था
से अगर गुजर
गये, अगर इस
असहाय अवस्था
को शांति से
पार कर लिया, तो तुम्हारे
जीवन में पहली
दफा आत्मबल का
जन्म होगा।
लेकिन उसके
पहले असहाय
अवस्था से
गुजर जाना
जरूरी है। जब
झूठी चीजें
हाथ से छूटती
हैं, तो
हाथ खाली हो
जाते हैं।
हाथों का खाली
हो जाना सत्य
के उतरने के
लिए अत्यंत
जरूरी है। लेकिन
व्यर्थ के
जाने और सत्य
के आने के बीच
में थोड़ा
अंतराल है। उस
अंतराल में
बड़ी पीड़ा होती
है। उस अंतराल
को जो पार
नहीं कर पाता,
वह घबड़ाकर
फिर बाहर निकल
आता है।
इसीलिए
"सरोज' ने
पूछा है: "एक
तरफ
खाली-खालीपन
और शून्यता छा
गई है और
दूसरी तरफ
अच्छे-बुरे
विचारों का आक्रमण
भी होता रहता
है।'
वह
आक्रमण
इसीलिए हो रहा
है। वह आक्रमण
हो रहा है, ऐसा नहीं; बल्कि तुम
चेष्टा
कर-करके
अच्छे-बुरे
विचारों को
पकड़ रही हो, ताकि भीतर
जो
निस्तब्धता
है वह एकदम
भयावनी न हो
जाये। कुछ तो
सहारा रहे।
विचार ही सही,
कुछ तो
तरंगें उठती
रहें, तो
कुछ व्यस्तता
बनी रहे।
लोग
खाली होने की
बजाय दुखी
होना भी पसंद
करते हैं, क्योंकि कम
से कम दुख तो
है! कुछ तो है
हाथ में! हाथ
बिलकुल खाली
तो नहीं। कंकड़-पत्थर
सही, न हुए
हीरे-जवाहरात!
लेकिन कोई यह
तो नहीं कह सकता
कि कुछ भी
नहीं है।
अधिक
लोग दुख को भी
नहीं छोड़ते, क्योंकि
उनको डर लगता
है--छोड़ दिया
इतने दिनों का
संग-साथ, तो
अकेले हो
जायेंगे।
तुमने
कभी खयाल किया, बहुत दिन
बीमार रहने के
बाद अगर तुम
बिस्तर से उठो
तो बड़ी बेचैनी
मालूम पड़ती
है: अब कहां
जायें! अब तो
बिस्तर पर
होना जीवन की
शैली हो गयी थी।
अगर दो-चार
साल बिस्तर पर
रह गये, तो
जो आदमी
दो-चार साल
बिस्तर पर रह
जाता है, फिर
वह उठता ही
नहीं; इसलिए
नहीं कि
बीमारी ठीक
नहीं होती, बीमारी ठीक
भी हो जाये तो
अब वह बीमारी
को पकड़ लेता
है। चिकित्सक
इस घटना से
भलीभांति
परिचित हैं कि
अगर बीमारी
ज्यादा दिन रह
जाए तो बीमार
को फिर ठीक
करना मुश्किल
हो जाता है।
क्योंकि उसकी
बीमारी आदत का
हिस्सा हो
जाती है। अब
बीमारी को वह
अपने जीवन के
ढंग में समा
लेता है। अब
इस ढंग को
छोड़ने में
अड़चन होगी।
अगर
तुम एक दुख के
आदी हो गये हो
तो तुम उस दुख
को सम्हाले
रहोगे।
इसलिए
अकसर मैं
देखता हूं कि
लोग दुख की
सीमाएं और
स्थितियों को
भी छोड़ते नहीं।
अगर किसी
पत्नी से
तुम्हारा
जीवन सतत कलह
में गुजर रहा
है तो भी तुम
अलग नहीं
होते। या किसी
पति के साथ
जीवन एक
नारकीय
स्थिति बन गई
है, तो भी अलग
नहीं होते।
क्यों? हजार
बहाने तुम
खोजते हो, लेकिन
वह सब बहाने
हैं। मौलिक
बात यह है कि
अब इस दुख की
भी आदत हो गई है।
और एक
बड़ा अनुभव
पश्चिम में
आना शुरू हुआ
है, जहां कि
लोग काफी पति-पत्नियां
तीव्रता से
बदलते हैं। एक
अनुभव आना
शुरू हुआ है
कि जो आदमी एक
पत्नी को
छोड़कर दूसरी
पत्नी को
खोजता है, वह
फिर करीब-करीब
वैसी ही
स्त्री को खोज
लेता है जैसी
उसने छोड़ी।
उसी तरह की
कर्कशा या उसी
तरह की
उपद्रवी! छोड़ा
नहीं है अभी एक
को, और वह
दूसरी को फिर
वैसा का वैसा
खोज लेता है! क्या
कारण होगा? अब तो उसको
उसी तरह की
स्त्री में रस
आने लगा। तो
अब वह फिर खोज
लेता है। उसकी
चाह का ढंग
रुग्ण हो गया।
अब वह गलत की
तरफ उत्सुक हो
जाता है। वह
फिर वैसी ही व्यक्तित्ववाली
स्त्री को खोज
लायेगा, जो
फिर कहानी को दोहरायेगी।
फिर त्याग
करेगा।
एक
आदमी के बाबत
मनोवैज्ञानिकों
ने अध्ययन किया।
उसने आठ तलाक
किये और हर
बार वैसी ही
पत्नी खोज
लाया।
आदमी
तो वही है--खोजनेवाला
वही है--तो फिर
वही खोज
लायेगा।
तुम
जरा खयाल करना
अपने जीवन में, तुमने
बहुत-से दुख
पकड़ तो नहीं
रखे हैं जो कि
जाना चाहते
हैं, लेकिन
तुम नहीं जाने
दे रहे हो!
तो जब
व्यक्ति को
सन्नाटा होगा
तो वह पुराने
विचारों को
आमंत्रित
करेगा, बुलायेगा। वह आक्रमण
नहीं है, तुम्हारा
बुलावा है।
क्योंकि उस
भांति थोड़ी देर
को भीतर की
रिक्तता भर
जाती है।
उथल-पुथल मच जाती
है।
विचार
है, क्रोध है,
झगड़ा है, कोई
सपना है, कोई
योजना
है--उतनी देर
को तुम अपने
भीतर के आकाश
को भर लेते
हो। उतनी देर
को शून्य भूल
जाता है।
शून्य
में रस लो, तो
धीरे-धीरे ये
विचार समाप्त
हो जायेंगे।
यह शून्य बड़ा
महिमाशाली
है। शून्य को
ही तो ध्यान
कहा है।
सौभाग्य से
मिलता है। अब
मिल गया है तो
इसे खराब मत
करो। अब तो इस
शून्य में डूबो।
यद्यपि
प्राथमिक चरण
पर डूबना ऐसा
ही लगेगा, जैसा
मरे, मौत
हुई।
और एक
अर्थ में ठीक
भी है, तुम
तो मरोगे ही।
तुम जैसे अब
तक रहे हो, इस
शून्य में
डूबोगे, मिट
जाओगे। नये का
जन्म होगा, आविर्भाव
होगा।
"क्या करूं? मैं
बावरी-सी हो
गई हूं।'
पागलपन
जैसा ही
लगेगा। भीतर
जाओ तो
शून्यता; बाहर
आओ तो व्यर्थ
के विचारों का
ऊहापोह है। बाहर
आओ तो कोई सार
नहीं है और
भीतर जाओ तो घबड़ाहट! एक
अनंत शून्य
मुंह-बाए
खड़ा है। तो
पागलपन मालूम
पड़ेगा। यह
पागलपन तभी तक
मालूम होगा जब
तक शून्य से
रस नहीं बैठता।
शून्य
में रस लो, पहचान बनाओ!
शून्य को गुनगुनाओ।
शून्य को
नाचो! जब
शून्य आ जाये
तो अहोभाव अनुभव
करो।
परमात्मा को
धन्यवाद दो।
यह उसकी अनुकंपा
है।
शून्य
इस जगत में परमात्मा
की सबसे बड़ी
देन है, प्रसाद
है। थोड़े-से
सौभाग्यशाली
लोगों को मिलता
है। और जिनको
मिलता है, वे
भी सभी सम्हाल
नहीं पाते।
बहुत-से तो
उसे नष्ट कर
देते हैं।
क्योंकि वह
देन इतनी बड़ी
है कि
तुम्हारी
पात्रता छोटी
पड़ जाती है।
"मैं
अपने को बहुत
असहाय, अकेली,
असुरक्षित
पा रही हूं...।'
कोई
हर्जा नहीं।
मन कहेगा, कोई सुरक्षा
खोज लो। मन
कहेगा, किसी
तरह किसी को
अपने इस एकांत
में ले आओ। वह अगर
भूल की तो
शून्य की
शुद्धता नष्ट
हो जायेगी।
फिर संसार
निर्मित हो
जायेगा। ऐसे
ही तो हम बहुत
बार वापिस
कोल्हू के बैल
बन जाते हैं।
अब यह
एक खिड़की खुली
है, इसे बंद
मत कर देना।
असहाय मालूम
होते हो, असहाय
सही। स्वीकार
करो!
असुरक्षित
मालूम होते हो,
असुरक्षित
सही। स्वीकार
करो! यह जो
तथ्य सामने
प्रगट हो रहा
है, इसे
इनकार मत करो
और बदलने की
चेष्टा मत
करो। इसे
भरपूर नजर
देखो, अहोभाव
से दखो, कृतज्ञता से
देखो। कहो कि
प्रभु ने यही
चाहा कि शून्य
होना है, जरूर
शून्य से ही
जन्म होता
होगा! यह मेरी
राह शून्य के
मंदिर से ही
गुजरती है, तो इससे
गुजर जाना है।
जल्दी
ही इस शून्य
का चेहरा
बदलना शुरू हो
जायेगा। अगर
तुमने इसे
स्वीकार किया
तो इस शून्य में
तुम्हें
सौंदर्य
दिखाई पड़ने
लगेगा। जिसे
हम स्वीकार
करते हैं, उसमें
सौंदर्य
दिखाई पड़ने
लगता है।
इसलिए तो अपनी
मां किसी को
असुंदर नहीं
मालूम होती।
अपना बेटा
किसी को
असुंदर नहीं
मालूम होता।
जिसे हम
स्वीकार करते
हैं, वहां
सौंदर्य का
आविर्भाव हो
जाता है।
सौंदर्य हमारे
स्वीकार से
पैदा होता है।
सौंदर्य
कहीं बाहर कोई
गुण नहीं
है--हमारे स्वीकार
की छाया है।
स्वीकार
करो--और
सौंदर्य पूर्ण
बनने लगेगा।
स्वीकार
करो--और
सौंदर्य में बड़ा
आनंद आने
लगेगा।
स्वीकार
करो--और शून्य
शांति, और
परम शांति का
धाम बन
जायेगा। अगर
अस्वीकार किया
तो दौड़कर
बाहर जाने के
अतिरिक्त कोई
उपाय नहीं है।
और बाहर से ही
तो थककर
भीतर आ रहे थे!
फिर बड़ी
विक्षिप्तता
पैदा होगी।
शून्य
परमात्मा का
पहला अनुभव
है। पूर्ण परमात्मा
का अंतिम
अनुभव है।
शून्य की तरह
परमात्मा आता
है; पूर्ण की
तरह विराजमान
होता है।
शून्य की तरह
आता है, क्योंकि
हमारा मिटना
जरूरी है।
शून्य की तरह आता
है, क्योंकि
हम सिर्फ कूड़ा-कर्कट
का ढेर हैं।
हमें आग देना
जरूरी है, ताकि
हम जल जायें
और वही बचे जो
कुंदन है। सिर्फ
शुद्ध स्वर्ण
बचे और कचरा
जल जाये।
तो जब
सुनार सोने को
आग में डालता
है तो सोना भी घबड़ाता
होगा, चिंतित
होता होगा, बच जाना
चाहता होगा, अंगीठी के
बाहर आ जाना
चाहता होगा।
लेकिन उसे पता
नहीं कि सुनार
की आकांक्षा
क्या है। सुनार
सोने को नहीं
जलाना चाहता।
और सुनार
भलीभांति
जानता है कि
सोना जलता
नहीं। जो जल
जाये वह सोना
नहीं है। वह
डाल ही रहा है
आग में इसलिए
कि जो सोना
नहीं है, उससे
सोना अलग हो
जाये।
शून्य
आग है। और
परमात्मा
उन्हीं को
डालता है जिन
पर उसकी
अनुकंपा है।
पात्रता
से ही शून्य
उत्पन्न होता
है। घबड़ाना
मत! छलांग
लगाकर अंगीठी
के बाहर मत
गिर जाना। नहीं
तो पहले से भी
ज्यादा कूड़ा-कर्कट
संगृहीत हो
जायेगा।
स्वीकार
करना।
भीतर
की यात्रा पर
शून्य
मिला--यह पहली
खबर मिली कि
तुम पात्र
होने लगे। कम
से कम तुम
इतने पात्र
हुए कि
परमात्मा
तुम्हें आग
में डाले। बड़ी
जलन होगी, बड़ी पीड़ा
होगी। उस पीड़ा
के बिना कोई
भी जन्मा नहीं
है। उस पीड़ा
के बिना किसी
को नये जन्म का
आविर्भाव
नहीं हुआ है।
हुए
होश गुम तेरे
आने से पहले
हमीं खो
गये तुझको
पाने से पहले
हुए
तुझ बिन बसर
क्या बताऊं
किसे
होश था तेरे
आने से पहले।
हुए
होश गुम तेरे
आने से पहले।
उसके
आने के पहले
तुम्हारा होश
भी खो जायेगा, तुम भी खो
जाओगे।
क्योंकि
तुमने जिसे अब
तक समझा है
"मैं', वह
सिर्फ कूड़ा-कर्कट
है। वही तो
बाधा है।
हमीं खो
गये तुमको
पाने से पहले!
एक बड़ी
महत्वपूर्ण
बात याद रखना:
आदमी कभी परमात्मा
से मिलता
नहीं। जब तक
आदमी है तब तक
परमात्मा
नहीं। और जब
परमात्मा
प्रगट होता है, आदमी खो
चुका होता है।
आदमी तो
बीमारी है।
मिट जाने पर
उस परम धन्यता
का आविर्भाव
होता है। तुम
जब खाली कर
देते हो
सिंहासन, तभी
परमात्मा उस
पर विराज पाता
है। तुम जब तक बैठे
हो, तब तक
विराज नहीं
पाता।
ये
पंक्तियां
बड़ी मधुर हैं:
हुए
होश गुम तेरे
आने से पहले
हमीं खो
गये तुझको
पाने से पहले
हुए
तुझ बिन बसर
क्या बताऊं
--दिन
तेरे आने के
पहले कैसे
बीते, यह
भी कैसे बताऊं!
किसे
होश था तेरे
आने से पहले!
न तो
तेरे आने के
पहले होश था, क्योंकि हम
बेहोश थे
संसार में; न तेरे आने
के बाद होश
रहा, क्योंकि
हम बेहोश हुए तुझमें।
तो यह
जो इन दोनों बेहोशियों
के बीच--संसार
की बेहोशी और
परमात्मा की
बेहोशी; संसार
की शराब और
परमात्मा की
शराब--इन
दोनों मधुशालाओं
के बीच जो
थोड़ी-सी
यात्रा है
वहीं थोड़ा-सा
होश रहता है।
लोग या तो धन
में खोये हैं,
पद में खोये
हैं, मद से
भरे हैं; और
या फिर लोग
परमात्मा में
खो जाते हैं।
दोनों के बीच
में, दो मधुशालाओं
के बीच में जो
थोड़ा-सा फासला
है, वहीं
थोड़ा-सा होश
रहता है।
"सरोज'
अभी उसी
यात्रा पर
है--दो मधुशालाओं
के बीच में।
अगर भीतर गई
तो भी होश खो
जायेंगे। अगर घबड़ाकर
बाहर आ गई तो
फिर होश खो
जायेंगे। और
जब दो मधुशालाओं
में ही चुनना
हो, जब दो
शराबों में ही
चुनना हो तो
फिर परमात्मा
की ही शराब चुन
लेना। संसार
की तो बहुत
चखी, बहुत
स्वाद
लिया--कुछ
पाया नहीं। अब
इस अपरिचित, अनजान का भी
एक स्वाद ले
लें। हिम्मत
करना! बावलापन
तो उठेगा।
बंगाल
में संतों का
एक संप्रदाय
है, उसका नाम
ही "बाउल' है--बावरे,
पागल! बड़े
अदभुत संत हुए
बाउल। नाचते
हैं--आनंद-मग्न!
उस भीतर की
शराब में मस्त,
मदहोश!
धीरे-धीरे
उनका नाम ही
"बावरा' हो
गया। लेकिन
जिसे तुम
समझदारी कहते
हो, उससे
वह लाख गुना
कीमती है।
तुम्हारी
समझदारी भी
हाथ में क्या
लाती है? कुछ
ठीकरे इकट्ठे
हो जाते हैं, जो मौत छीन लेती
है। कुछ
नाम-धाम हो
जाता है, जो
तुम्हारे
जाते ही पोंछ
दिया जाता है,
दूसरों के
लिए जगह बनानी
पड़ती है।
दुनिया
का होश है न
कुछ अपनी खबर
मुझे
बेखुद
बना दिया है
यूं तेरे जमाल
ने।
उसमें डूबो!
बेखुदी खुदा
को पाने का
उपाय है।
मिटना--होने की
एकमात्र
संभावना।
यह
शून्य डरायेगा, घबड़ायेगा। जैसे कोई
पक्षी अब तक
घोंसले में
रहा हो और आज
अचानक खुले
आकाश में: घबड़ायेगा!
चिंतित होगा,
बेचैन होगा!
लौट-लौट पड़ेगा
मन कि चल पड़ो
अपने घोंसले
की तरफ, कहां
इन तूफानों
में उलझने लगे?
कहां ये हवाएं
और आकाश और
बादल, और
कहां ये सूरज
और ये चांदत्तारे!
और यह कितना
विराट है! भागो!
अपने घोंसले
में छिप जाओ।
ठीक वैसी दशा
है। मन बहुत
करेगा घोंसले
में उतर आने
का।
लेकिन
अब लौटना मत।
अब उसको
पुकारा है तो पुकारे ही
चले जाना। और
अब सुख आये कि
दुख, पीड़ा हो
कि
जलन--अंगीकार
कर लेना, क्योंकि
हमें पता नहीं
है शायद यही
हमारे
जीवन-निर्माण
के लिए जरूरी
है।
छैनी
से जब कोई
पत्थर को
तोड़ने लगता है, तो पत्थर भी
तो रोता होगा।
लेकिन छैनी से
टूट-टूटकर ही
पत्थर
प्रतिमा बनता
है। जो राह के
किनारे पड़ा था,
वह मंदिर के
अंतर्गर्भ
में विराजमान
हो जाता है।
जिसको लोग
सिर्फ पैर की
ठोकरें मारकर
निकल जाते थे,
उसी के
चरणों में लोग
आकर सिर
झुकाने लगते
हैं, फूल चढ़ाने
लगते हैं।
कसम
तुम्हारी
बहुत गम उठा
चुका हूं मैं
गलत
था दावा-ए-सब्रो-शकेब, आ जाओ
करारे-खातिरे
बेताब-थक गया
हूं मैं।
कसम
तुम्हारी
बहुत गम उठा
चुका हूं मैं!
चाहे
कितनी ही पीड़ा
हो, जाना उसी
की तरफ!
कसम
तुम्हारी
बहुत गम उठा
चुका हूं मैं!
कहना
भी हो, शिकायत
भी करनी हो, तो उसी से
करना। बाहर मत
लौटना। यह तो
कसम खा लेना
कि अब बाहर
नहीं लौटना
है। क्योंकि
बाहर को देख
तो चुके बहुत,
पाया क्या?
अब लौटकर भी
क्या पायेंगे?
कसम
तुम्हारी बहुत
गम उठा चुका
हूं मैं
गलत
था दावा-ए-सब्रो-शकेब...
और
मैंने जो
धैर्य और
सहनशक्ति के
बहुत दावे किये
थे, वह सब गलत
थे। तुम उन पर
ज्यादा अब
भरोसा मत करो,
आ जाओ!
आदमी
ने अपने
अहंकार में
बहुत दफा सोचा
है कि मैं
सहनशक्ति
रखता हूं, शांति रखता
हूं, धैर्य
रखता हूं, मेरा
धैर्य अडिग
है!
गलत
था दावा-ए-सब्रो-शकेब...
--वे
सब दावे जो
मैंने किये
थे--आत्मबल के,
धैर्य के, सहनशक्ति
के--सब गलत थे।
क्षमा करो
मुझे!
गलत
था दावा-ए-सब्रो-शकेब, आ जाओ
करारे-खातिरे-बेताब
थक गया हूं
मैं।
और
अब तो मैं थक
गया हूं।
"सरोज'
पूछती है कि
असहाय, बेसहारा...।
तो अब
बाहर मत
लौटना। अब उसी
से कहना कि थक
गई हूं बहुत
और अब मुझसे
नहीं सहा
जाता। लेकिन
भीतर की तरफ
से आंख मत
हटाना। कठिन
होंगे ये क्षण।
लेकिन जो गुजर
जाता है इन
क्षणों से, वह एक
बिलकुल नये
अभिनव जीवन को
उपलब्ध हो जाता
है। ये क्षण
क्रांति के क्षण
हैं।
सौ में
से निन्यानबे
लोग तो कभी इस
दशा को पहुंचते
नहीं। फिर जो
सौ लोग
पहुंचते हैं
उनमें से
निन्यानबे
बाहर वापस लौट
आते हैं।
इसलिए शास्त्र
कहते हैं, बड़ा दुर्गम
है मार्ग।
पहुंच-पहुंचकर
छूट जाता है।
हाथ में
आते-आते मंजिल
हजारों कोस के
फासले पर हो
जाती है।
तीसरा
प्रश्न:
आप
महावीर की
अहिंसा पर
बोलते हैं तो
प्रेम जोड़
देते हैं; बुद्ध के
शून्य पर
बोलते हैं तो
प्रेम जोड़ देते
हैं। आप कुछ
भी बोलते हैं
तो प्रेम
उसमें अनिवार्यतः
जोड़ देते हैं।
क्या हम
संन्यासियों
में प्रेम का
अत्यंत अभाव
देखकर ही आप
प्रेम का पुनः
पुनः स्मरण
कराते हैं। कृपाकर
कहें।
जोड़ता
नहीं, उघाड़ता हूं।
अहिंसा नाम की
मंजूषा में
प्रेम का ही धन
छिपा है।
खोलता हूं
मंजूषा को।
तुमसे कहता हूं,
इसके भीतर
तो देखो! यह
मंजूषा बाहर
से भी बड़ी सुंदर
है! बड़ी
नक्काशी है इस
पर! बड़े
कारीगरों ने
मेहनत की है!
लेकिन मंजूषा
कितनी ही
सुंदर हो, मंजूषा
है; भीतर
तो देखो!
अहिंसा
तो शब्द है; सार तो
प्रेम है! और
अगर सार मर
जाये तो फिर
अहिंसा पर तुम
कितनी ही
नक्काशी करते
रहो, फिर
मंजूषा को तुम
ढोते रहो
सदियों-सदियों
तक--उससे जीवन,
उससे अमृत,
उससे आनंद
का आविर्भाव न
होगा। फिर
अहिंसा
तार्किकों के
हाथ में पड़
जायेगी। फिर
वे शब्द की ही
बाल की खाल
निकालते
रहेंगे।
महावीर
ने अहिंसा
शब्द का उपयोग
किया प्रेम के
लिए। मैं कहता
हूं कि अहिंसा
को हटाओ
और भीतर झांककर
देखो। खोलो
इस मंजूषा को!
जोड़ता
नहीं हूं, उघाड़ता हूं।
अहिंसा
हो ही कैसे सकती
है बिना प्रेम
के? दूसरे को
दुख न दो--यह हो
ही कैसे सकता
है जब तक कि
दूसरे के
प्रति प्रेम
का आविर्भाव न
हुआ हो? और
अगर तुमने इसे
नियम और
औपचारिक
व्यवस्था की
तरह मान लिया
कि दूसरे को
दुख नहीं देना
है, क्योंकि
दूसरे को दुख
देने से नर्क
मिलता है--प्रेम
के कारण नहीं,
भय के कारण
दूसरे को दुख
नहीं देना
है--तो तुम्हारी
अहिंसा में
बहुत अहिंसा न
होगी। तुम्हारी
अहिंसा में भी
हिंसा प्रगट
होगी।
तुम्हारी
अहिंसा में
फिर प्रेम के
फूल न
खिलेंगे। तुम्हारी
अहिंसा
निर्जीव
होगी।
ऐसा
हुआ है, जैनों
की अहिंसा
निर्जीव हो गई
है। उसमें से
प्राण तो खो
ही गये हैं, लाश रह गई
है। हां, लाश
को भी ठीक से
रासायनिक
द्रव्य लगाकर
रखो तो सुंदर
मालूम हो सकती
है। लेकिन लाश
लाश है। सुंदरतम
व्यक्ति की भी
लाश लाश है।
प्राण ही खो
गये! प्राण तो
विधायक तत्व
है।
प्रेम
विधायक तत्व
है। प्रेम का
अर्थ है: कुछ
तुम्हारे
भीतर है।
अहिंसा
का तो कुल
इतना ही अर्थ
है कि दूसरे
के साथ बुरा
मत करना।
और यह
मैं तुमसे
कहना चाहता
हूं: जब तक तुम
दूसरे के साथ
भला करने में
न लग जाओ, तुम
बुरा करने से
न बच सकोगे।
तुम कुछ तो
करोगे। जीवन
कृत्य है, कर्म
है। अगर मैं
तुम्हारे
रास्ते पर फूल
न बिछाऊंगा
तो मैं कांटे बिछाऊंगा।
और ऐसा आदमी
तुम न पाओगे
जो कहे कि मैं
सिर्फ कांटे
नहीं बिछाता
तुम्हारे
रास्ते पर, फूल से मुझे
क्या
लेना-देना।
तुम पाओगे कि
यह आदमी या तो
इतना सिकुड़
जायेगा, जैसे
जैन मुनि
सिकुड़ गये हैं
कि फिर यह
डरने लगेगा
जीवन में
उतरने से; क्योंकि
उतरा कि कुछ
कृत्य हुआ, कृत्य हुआ
तो या तो
कांटे बिछाओ
या फूल बिछाओ।
और इसकी सारी
शिक्षण की
व्यवस्था यह
हो गई: कांटे
मत बिछाना।
फूल बिछाने की
तो इसने
हिम्मत खो दी।
फूल बिछाने का
तो खयाल ही
छोड़ दिया। कांटे
नहीं बिछाना
है!
तुम
अगर किसी व्यक्ति
की बीमारियां
भर अलग करना
चाहते हो और
उसके जीवन में
स्वास्थ्य की
आकांक्षा
नहीं करते तो
तुम उसे
स्वास्थ्य न
दे पाओगे और
बीमारियां भी
अलग न कर
पाओगे।
क्योंकि
बीमारी का अलग
होना और उसके
भीतर
स्वास्थ्य का
जन्म होना, एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
दूसरे
को दुख न दूं, यह गौण बात
है। दूसरे को
मेरे जीवन से
सुख मिले--यह
मूल बात है।
प्रेम
का इतना ही
अर्थ है कि
तुम दूसरे की
प्रसन्नता
में प्रसन्न
होने लगे।
क्या है प्रेम
का अर्थ? तुम
कहते हो, मुझे
अपनी पत्नी से
प्रेम है या
बेटे से प्रेम
है या मित्र
से प्रेम
है--क्या मतलब
है? इतना
ही मतलब है कि
जब तुम्हारा
बेटा प्रसन्न होता
है, तब तुम
प्रसन्न होते
हो। जब दूसरे
की प्रसन्नता
तुम्हें
प्रसन्न करने
लगती है, तो
प्रेम। और जब
दूसरे की
प्रसन्नता
तुम्हें अप्रसन्न
करने लगती है,
तो घृणा। जब
दूसरे की
अप्रसन्नता
तुम्हें प्रसन्न
करने लगती है
तो क्रोध, घृणा,
वैमनस्य, शत्रुता, हिंसा। और
जब दूसरे की
प्रफुल्लता
तुम्हें छूने
लगती है और
प्रसन्न करने
लगती है, तो
प्रेम।
अहिंसा
का मेरे लिए
अर्थ है कि
तुम्हें सबकी
प्रसन्नता
प्रसन्न करने
लगे। तो
तुम्हारे ऊपर
कितनी विराट
वर्षा न हो
जायेगी!
धर्म-मेघ-समाधि!
तुम्हारे ऊपर
धर्म के मेघ
बरस उठेंगे।
सब तरफ से
किसी की भी
प्रसन्नता
तुम्हें प्रसन्न
करने लगे! एक
वृक्ष में फूल
खिले और तुम
प्रसन्न हो
जाओ! सुबह
सूरज ऊगे और
तुम प्रसन्न हो
जाओ! एक बच्चा
मुस्कुराये
और तुम
प्रसन्न हो
जाओ! यहां
कहीं भी
मुस्कुराहट
हो और
तुम्हारे
भीतर भी आनंद
प्रविष्ट हो
जाये! तो सारा
जगत तुम्हें
प्रसन्न करने
लगेगा। ऐसी प्रसन्न
दशा का नाम ही
संन्यास है।
और, अगर हर एक की
प्रसन्नता
तुम्हें दुखी
करती है, जैसा
कि संसार में
होता है--उसी
दुख का नाम
संसार है। तुम
किसी को हंसते
नहीं देख
सकते। हंसते
देखते हीर्
ईष्या पैदा
होती है। तुम
किसी का बड़ा
मकान बनते
नहीं देख
सकते। बड़ा
मकान बनते ही
तुम्हारे भीतर
अप्रसन्नता
पैदा होती
है--स्पर्धा, प्रतियोगिता,
हिंसा,र्
ईष्या! तुम
अगर दूसरे की
हंसी में
हंसते भी हो तो
थोथी हंसी
हंसते हो, ऊपर-ऊपर
हंसते हो, लोकचार,
उपचार।
सामाजिक
शिष्टाचार
है।
"अहिंसा'
शब्द ने बड़ा
खतरा किया है।
वह नकारात्मक
है। मैं उसके
भीतर छिपे हुए
अकारात्मक
विधायक प्रेम
को उघाड़ना
चाहता हूं।
जोड़ता नहीं
हूं, उघाड़
रहा हूं।
बुद्ध
ने जिसे शून्य
कहा है, निर्वाण
कहा है; कहा
है कि तुम मिट
जाओ; जब
तुम मिट जाते
हो तो
तुम्हारे
भीतर जो बचता
है, वही
प्रेम है।
जितना अहंकार
होगा उतना ही
प्रेम कम
होगा। जब कोई
अहंकार नहीं
रह जाता तो प्रेम
ही प्रेम, प्रेम
का सागर है!
और, इसे भी
स्मरण रखना कि
जब मैं बुद्ध
पर बोलता हूं
तो अपने पर ही
बोलूंगा।
बुद्ध तो
खूंटी हो सकते
हैं ज्यादा से
ज्यादा।
महावीर पर
बोलता हूं तो
महावीर खूंटी
हो सकते हैं; टांगूंगा तो मैं अपने
को ही, और
कोई उपाय नहीं
है। और कोई
उपाय हो भी
नहीं सकता। तो
जब मैं महावीर
पर बोल रहा
हूं तो तुम यह
मत समझ लेना
कि मैं सिर्फ
महावीर पर बोल
रहा हूं। मैं
कोई यंत्र
नहीं हूं।
मेरी अपनी
दृष्टि है। तो
महावीर के
शब्द हाथ में
लूंगा, लेकिन
रंग तो मेरा
ही उन पर
पड़ेगा। उनके
शास्त्र को उलटूंगा-पलटूंगा,
लेकिन अर्थ
तो मेरा होगा।
इसे
तुम कभी भूलना
मत। मैं कोई
उनकी
व्याख्या नहीं
कर रहा हूं।
उनके शब्द
प्यारे हैं, पुनरुज्जीवित
करने जैसे हैं।
उन पर धूल जम
गई बहुत, उनकी
धूल झाड़ देने
जैसी है।
लेकिन जो मैं
तुमसे कह रहा
हूं, महावीर
तो उसमें
बहाना हैं; कह तो मैं
तुमसे वही रहा
हूं जो मैं कह
सकता हूं।
ऐसा
मुझे दिखाई
पड़ता है कि
अहिंसा का मूल
प्राण प्रेम
है। ऐसा मुझे
दिखाई पड़ता है
कि जब व्यक्ति
निर्वाण को
उपलब्ध होता
है, सब भांति
अहंकार-शून्य
हो जाता है, तब जो शेष रह
जाता है, वही
प्रेम का
विराट आकाश
है। लेकिन यह
मेरी दृष्टि
है। और अगर
मुझे चुनना हो
महावीर में और
अपने में, तो
मैं अपने को
चुनता हूं, महावीर को
नहीं चुनता।
और मैं तुमसे
भी यही कहता
हूं, तुम्हें
अगर चुनना हो
मुझमें और
अपने में तो अपने
को चुनना, मेरी
चिंता मत
करना।
क्योंकि
आत्यंतिक
चुनाव तो
स्वयं का है।
प्रेम, मेरे लिए
धर्म का सार
है। और मेरे
देखे धर्म नष्ट
हुआ, सड़
गया...जहां-जहां
से प्रेम अलग
हो गया धर्म
से, वहीं-वहीं
धर्म लाश हो
गया।
तुम भी
थोड़ा सोचो, तुम्हारे
जीवन में जब
प्रेम न रह
जाये, तो
तुम जिंदा लाश
होओगे! जब तक
प्रेम है तभी
तक धड़कन है।
चाहे उस प्रेम
का कोई भी रूप
हो, चाहे
वह कामवासना
हो और चाहे
प्रभु-वासना
हो; चाहे
धन का हो, चाहे
धर्म का हो; चाहे देह का
हो, चाहे
आत्मा का हो; क्षुद्र से
क्षुद्र
प्रेम हो या
विराट से
विराट प्रेम
हो--लेकिन
प्रेम के बिना
तुम एकदम खाली
हो जाओगे।
अचानक तुम
पाओगे तुम जी
रहे हो, लेकिन
जीवन बचा
नहीं। निकल
गया! पक्षी उड़
चुका है, पिंजड़ा
पड़ा रह गया
है।
निराले
हैं अंदाज
दुनिया से
अपने
कि तकलीद को
खुदकुशी
जानते हैं
कोई
कैद समझे मगर
हम तो ए दिल
मुहब्बत
को आजादगी
जानते हैं।
निराले
हैं अदांज
दुनिया से
अपने
कि तकलीद को
खुदकुशी
जानते हैं।
दूसरे
के पीछे जो
अंधा होकर चल
रहा है वह
आत्मघात कर
रहा है।
कि तकलीद को
खुदकुशी
जानते हैं
कोई
कैद समझे मगर
हम तो ऐ दिल
मुहब्बत
को आजादगी
जानते हैं।
कोई
कहता हो कि
कैद है...। अगर
प्रेम कैद है
तो वह प्रेम
प्रेम ही
नहीं। कहीं
कुछ भूल हो
रही है। तुमने
कुछ को कुछ
समझ रखा है।
क्योंकि
प्रेम ने तो
सदा मुक्त
किया। प्रेम
ने तो इतना
मुक्त किया कि
तुम्हारा
परमात्मा
पूरा-पूरा
निखार को
उपलब्ध हो
जाता है। जो
प्रेम बांध ले
वह प्रेम नहीं; जो मुक्त
करे, वही
प्रेम है। जो
तुम्हारे
स्वत्व को
प्रगट करे, वही प्रेम
है। जो
तुम्हारे
सत्व को निखारे,
शुद्ध करे,
वही प्रेम
है।
प्रेम
ने कभी किसी
को बांधा
नहीं।
तो जिन
लोगों ने कहा
है कि प्रेम
बंधन है, उन्होंने
प्रेम के कुछ
गलत रूप जाने
होंगे। और
जिन्होंने
सोचा कि प्रेम
को छोड़कर हम
मुक्त हुए, उन्होंने
जिंदगी को
गंवाने को
जीवन समझ लिया
होगा। वे सिकुड़नेवाले
लोग रहे
होंगे।
मेरे
देखे, फैलो
तो ही तुम
परमात्मा तक
पहुंचोगे।
जितने फैलो, जितने
विस्तीर्ण
होने लगो, उतना
शुभ है।
अलम-नसीबों, जिगर-फिगारों
अलम-नसीबों, जिगर-फिगारों
की
सुबह अफलाक
पर नहीं है।
--जो
दुखी हैं, जो
कारागृह में
पड़े हैं, जिनके
हृदय घायल हैं,
उनकी सुबह
कहीं दूर किसी
आकाश पर नहीं
है।
जहां
पे हम तुम खड़े
हैं दोनों
सहर
का रौशन उफक
यहीं है।
--और
जहां हम दोनों
खड़े हैं, ठीक
इसी जगह सुबह
का सूरज ऊगेगा।
जहां हम हैं
वहीं सूरज ऊगेगा।
यहीं
पे गम के शरार
मिलकर
शफक का
गुलजार बन गये
हैं।
यहीं
पे कातिल
दुखों के तेशे
कतार
अंदर कतार
किरनों
के आतिशीं
हार बन गए हैं!
जहां
हम हैं, जैसे
हम हैं, वहीं
ठीक हमारी ही
मौजूदगी और
हमारी आज की
इस स्थिति में,
द्वार खुल
सकता है। वह
द्वार प्रेम
का है।
तुम
परमात्मा को
आकाश में मत
खोजना, अन्यथा
भटकोगे
व्यर्थ। तुम
तो परमात्मा
को हृदय के
प्रेम में
खोजना, तो
द्वार
खुलेगा। और
अगर प्रेम सध
जाये तो सब सध
जाता है। तो
किरणों के
भीतर किरणों
के द्वार
खुलते जाते हैं।
संत
अगस्तीन से
किसी ने पूछा
कि मुझे एक
शब्द में सारा
शास्त्र समझा
दें, ताकि मैं
सदा याद रख
सकूं। तो
अगस्तीन ने
बहुत सोचा और
कहा कि फिर
अगर ऐसा ही
कोई शब्द
चाहते हो, तो
प्रेम। इस एक
शब्द को याद
रखना। इसके
विपरीत मत
जाना। और सदा
इसके अनुकूल
व्यवहार करना;
शेष सब अपने
से सुधर
जायेगा।
तुम
जरा सोचो।
तुम्हारे
जीवन में
प्रेम आ जाये, मंदिर न भी
गये तो तुम
मंदिर पहुंच
जाओगे। तुम्हारे
जीवन में
प्रेम आ जाये
और तुमने
शास्त्र न भी पढ़े तो तुम
शास्त्र पढ़
लोगे। ढाई आखर
प्रेम का पढ़ै
सो पंडित होय!
प्रेम सम्हल
जाये तो कुछ बड़ी
दार्शनिक
चर्चाओं में
पड़ने की जरूरत
नहीं है।
प्रेम
अस्तित्वगत
धर्म है। "एक्ज़ीसटेंशियल'! बाकी सब
बकवास है।
चौथा
प्रश्न:
मुझे
समर्पण में
बहुत आनंद आता
है। मेरी प्रार्थना
शब्दों-शब्द
परमात्मा या
आपके लिए होती
है। ज्ञान का
शब्द अच्छा
लगता है, मगर थोड़ा
अहंकार जगता
है। मेरा
प्रतिपल
ध्यान में जा
रहा है, ऐसा
भाव सदा रहता
है। तो मैं
कौन-सा ध्यान
करूं--यह
बताने की कृपा
करें!
समर्पण
जिसे सध रहा
हो--ध्यान हो
गया। और अन्यथा
ध्यान करने की
कोई भी जरूरत
नहीं है। जिसे
शरणागति
में मजा आ रहो
हो, बस इसी
मजे के सहारे
को पकड़कर
और-और गहरे
मजे में उतरते
जाओ। रोओ, आंसू
बहाओ--आनंद
से, प्रफुल्लता
से।
एक
मित्र परसों
आकर कह रहे थे
कि थोड़ी घबड़ाहट
होती है, क्योंकि
जब भी ध्यान
करने बैठता
हूं, मस्ती
आती है तो
आंसू आने लगते
हैं और शरीर
कंपने लगता है
और रोमांच हो
जाता है। तो
मैंने पूछा, क्या करते
हो? तो
उन्होंने कहा,
मैं रोक
लेता हूं
जबर्दस्ती।
सुशिक्षित
व्यक्ति
हैं--अब रोएं!
और काफी उम्र
हो गई है।
वृद्ध हैं, कोई पैंसठ
के करीब उम्र
हो गई है। जिंदगीभर
कभी रोए
नहीं, आंख
कभी गीली न
की। रोमांच हो
जाता है। शरीर
कंपने लगता
है। कोई
समझेगा कि क्या
पागलपन हो गया
कि बीमारी हो
गई कुछ, तो
रोक लेते हैं।
मैंने
उनको कहा कि
अब यह खतरनाक
कर रहे हो। एक तरफ
तो पैदा कर
रहे
हो--प्रार्थना, पूजा, ध्यान
से--और फिर रोक
रहे हो। यह तो
विरोधाभासी
कृत्य हो
जायेगा। यह तो
तुम्हारी
जीवन-ऊर्जा
में विरोध, संकट पैदा
हो जायेगा। यह
तो खरतनाक
है। प्रसन्न
होओ, आंसुओं
को आनंद से
बहने दो!
आनंद
के लक्षण हैं
आंसू! लेकिन
हमने एक ही
ढंग के आंसू
जाने हैं--वे
दुख के आंसू
हैं।
आदमी
ने कई
महत्वपूर्ण
चीजों के
अनुभव खो दिये; उनमें एक
महत्वपूर्ण
आंसू भी हैं।
आंसू को सीमित
कर लिया है; जब दुखी
होते हैं, तभी
रोते हैं।
आंसू का दुख
से कुछ
लेना-देना नहीं
है। आंसू का
संबंध तो
अतिरेक से है।
दुख ज्यादा हो
जाये तो आंसू
की जरूरत आ
जाती है। आनंद
ज्यादा हो
जाये तो आंसू
की जरूरत आ
जाती है। जो
इतना ज्यादा
हो जाये कि
प्याली के ऊपर
से बहने लगे, तो आंसू आते
हैं। आंसू का
कोई संबंध न
दुख से है न
सुख से है--अतिरेक
से है।
तो तुम
कभी आनंद में रोये या
नहीं? अगर
आनंद में नहीं
रोये तो
तुमने आंसुओं
की जो सबसे
ऊंची चरम
अनुभूति थी वह
चूक गये। तब
तुमने बहुत
साधारण-सी
अनुभूति दुख
की जानी। और
दुख के कारण, लोग कहते
हैं कि हिम्मत
रखो, रोओ
मत! और लोग
कहते हैं, मर्द
बनो, रोओ
मत! यह क्या
बच्चों के
जैसे या
स्त्रियों जैसे
रोने लगे?
आंसू
का जो एक और
अनूठा रूप
है--आनंद का, अहोभाव
का--उससे
मनुष्यता
वंचित ही हो
गई है।
नारद
ने अपने
सूत्रों में
कहा है: भक्त
रोमांचित
होता! आंसुओं
से भर जाता!
गदगद हो जाता!
कंपित होने
लगती उसकी
देह! रोआं-रोआं
पुलकित हो
जाता!
तो
जिसको समर्पण
में, शरणागति में, आनंद
आ रहा है, वह
ध्यान की
फिक्र न करे।
प्रार्थना!
जलाये धूप-दीप!
नाचे। रोये!
पुलकित हो!
थोड़े क्षणों
को पागल होने
की कला सीखे!
थोड़े क्षणों
को भूले
समझदारी और
संसार! थोड़ी
देर को मीरा
बने! लोक-लाज
खोई!
ध्यान
की कोई जरूरत
नहीं
है--प्रार्थना
की जरूरत है।
ध्यान है
संकल्प के
मार्ग पर।
प्रार्थना है
समर्पण के
मार्ग पर।
इसके पहले कि
परमात्मा आये, प्रार्थना
खूब कर लो, आंखों
को खूब निखार
लो, रो लो!
कहीं ऐसा न हो
कि वह आ जाये
और तुम्हारी
आंखें गीली न
हों!
है
खबर गर्म उनके
आने की
आज
ही घर में
बोरिया न हुआ।
बिछाने
को आसन घर में
नहीं है और
उनके आने की खबर
आ गई है!
कोई
फिक्र नहीं, बिना आसन के
चल जायेगा।
लेकिन और भी
कुछ ज्यादा
महत्वपूर्ण
जरूरी चीजें
हैं।
पलकन पग
पोंछूं
आज पिया के
अंसुअन पूछूं हाल
हिया के।
बोरिया
न हुआ, चलेगा।
लेकिन कहीं
ऐसा न हो कि
पैर पोंछने के
लिए पलकें न
हों! कहीं ऐसा
न हो कि हाल
हिया के पूछने
के लिए आंसू न
हों!
पलकन पग
पोंछूं
आज पिया के
अंसुअन पूछूं हाल
हिया के।
उसकी
तैयारी करो!
निमंत्रण भेज
दिया, तो
आता ही होगा।
बुलाया है तो
आयेगा ही। अब
तुम उसके आने
की चिंता न
करके, अपनी
तैयारी करो।
और बड़ी
से बड़ी तैयारी
है कि तुम
हृदय भरकर रो
सको, कि तुम
परिपूर्ण डूबकर
नाच सको, कि
अवाक, आश्चर्यचकित
घड़ियां बीत
जायें और तुम
ठगे-से रह सको!
तुम
मिले, प्राण
में रागिनी छा
गई!
भूलती
सी जवानी नई
हो उठी
जिस
दिवस प्राण
में नेह बंसी
बजी
बालपन
की रवानी नई
हो उठी
कि
रसहीन सारे
बरस रस भरे
हो
गए, जब
तुम्हारी छटा
भा गई
तुम
मिले, प्राण
में रागिनी छा
गई!
भक्त
तो यह मानकर
ही चलता है कि
तुम चल ही पड़े
होओगे! खबर
मिल ही गई
होगी तुम्हें!
वह
तैयारी में
जुट जाता है।
साधक
तो भगवान को
खोजता है; भक्त तो
भगवान को
मानता है।
साधक को तो
अभी तय करना
है कि भगवान
है या नहीं।
भक्त को उतना
तो तय है कि
भगवान है; अब
इतना ही देखना
है कि मेरी
पात्रता है या
नहीं। इस भेद
को स्मरण
रखना।
साधक
सत्य को खोजने
के लिए अपनी
पात्रता
इकट्ठी करता
है। भक्त, सत्य तो है
ही, प्रभु
तो है ही, अब
मैं उसके
योग्य बनूं, इसके लिए
अपनी पात्रता
इकट्ठी करता
है। दोनों की
दिशाओं में
बड़ा फर्क है।
सत्य
का खोजी
विचार-निर्विचार
के पंखों से
चलता है।
भक्त--न विचार, न निर्विचार;
भाव, भक्ति,
पूजा, प्रार्थना!
एक तो तय ही है
बात कि
परमात्मा है,
इसलिए
खोजने का उसके
पास सवाल नहीं
है। वह खोजने
की झंझट में
नहीं पड़ता।
उसे तो अपने
होने की वजह
से इतना
पर्याप्त
प्रमाण मिल
गया है कि जीवन
है, जीवन
का स्रोत भी
है। अपनी किरण
को देखकर ही समझ
गया कि सूरज
भी है, अन्यथा
किरण कैसे
होती? मैं
हूं, इतना
काफी है। तू
भी है! अब कैसे
मैं अपने को
तैयार कर लूं?
तो
अत्यंत प्रेम
से भरकर
प्रतीक्षा
करो! उसकी पग-ध्वनि
सुनो! आता ही
होगा! द्वार
पर कान लगाकर
बैठ जाओ। उसके
विरह में, जब तक नहीं
आया है, उसकी
अनुपस्थिति
में, उसके
अभाव में भी, उसके भाव को
अनुभव करो।
उसका अभाव भी
प्यारा है!
इसे समझना।
संसार
की चीजें मिल
भी जायें तो
कुछ नहीं मिलता; और परमात्मा
न भी मिले, सिर्फ
उसकी याद भी
मिल जाये तो
सब मिल जाता
है!
आखिरी
प्रश्न:
आपको
सुनने के
पूर्व मैं
कालेज की
हंसती-खेलती
छात्रा रही; सुनने के
बाद न जाने
क्या हुआ कि
कहीं भी रुचि
नहीं लगती--सुख-भोग
में भी नहीं।
सत्संग में
आती भी हूं और
आने से कतराती
भी हूं।
कृपापूर्वक
मार्ग-दर्शन
दें।
जो
हंसना-खेलना
इतनी सरलता से
खो जाये, उसका
कोई मूल्य
नहीं। मैं
तुम्हें ऐसा
हंसना-खेलना
सिखाऊंगा जो
फिर खो न सके।
एक तो
बचपन है, जिसमें
बच्चे
प्रसन्न होते
हैं। उस
प्रसन्नता का
कोई बहुत
मूल्य नहीं
है--जिंदगी
उसे नष्ट कर
देगी। फिर एक
और बचपन है, जो जीवन की
चरम प्रौढ़ता
से उपलब्ध
होता है। संत
फिर छोटे
बच्चों जैसे
हो जाते हैं।
फिर एक हंसना
और खेलना पैदा
होता है; उसे
फिर कोई भी न
छीन सकेगा।
तो ऐसा
हुआ होगा।
बहुत
युवक मुझे
सुनने आ जाते
हैं, युवतियां
सुनने आ जाती
हैं। यह शुभ
लक्षण है। क्योंकि
बूढ़े धर्म की
बात सुनने
आयें, यह
अशुभ लक्षण
है। बूढ़े तो
धर्म की बात
सुनने तभी आते
हैं जब जिंदगी
में उनके सब
उपाय व्यर्थ
हो गये, मौत
करीब आने लगी!
मौत के भय से!
और जब बूढ़े ही
मंदिर, मस्जिदों में आने
लगते हैं और
जवान वहां से
खो जाते हैं, तो वे
मंदिर-मस्जिद
भी कब्रों
जैसे हो जाते
हैं, मुर्दा
हो जाते हैं।
शुभ है कि
युवा और
युवतियां भी
धर्म को समझने
की कोशिश करें,
क्योंकि
उनके कारण
धर्म भी युवा
रहता है। जब
भी धर्म जवान
होता है, तब
उसमें वृद्ध
तो आते ही हैं,
युवा भी आते
हैं।
और यह
फर्क समझ
लेना। मुझे तो
जो वृद्ध भी
सुनने आते हैं, वे भी तभी आ
सकते हैं जब
वे किसी गहरे
अर्थ में अभी
भी युवा हों।
और मंदिर-मस्जिदों
में अगर कभी
कोई जवान भी
पहुंच जाता है
तो तभी
पहुंचता है जब
वह किसी गहरे
अर्थ में बूढ़ा
हो चुका; वह
जिंदा नहीं है
अब, रुग्ण
है। क्योंकि
मैं जो कह रहा
हूं, वह
जीवन-विरोधी
नहीं है। मैं
जो कह रहा हूं,
वह महाजीवन
की खोज है।
तो
अनेक बार ऐसा
हो जायेगा कि युवाऱ्युवती
आ जायेंगे
सुनने, सुनकर
उनको कई रूपांतरण
होंगे। जिसे
उन्होंने कल
तक हंसी-खुशी
समझा था, वह
हंसी-खुशी
मालूम न होगी।
अच्छा है, कुछ
बोध जगना शुरू
हुआ। क्योंकि
अब तक जिसे हंसी-खुशी
जाना था, वह
केवल नासमझी
थी, वह
केवल बचपना
था। अभी
खिलौनों से
खेलते रहे थे।
मेरे पास आकर
उनको दिखाई पड़
जायेगा, ये
तो खिलौने
हैं। रस खो
जायेगा।
असली
जीवन की
शुरुआत के
पहले खिलौनों
में रस खो
जाना जरूरी
है।
फिर
आने में डर भी
लगेगा। आने का
मन भी होगा। आने
से बचना भी
संभव नहीं है
और डर भी
लगेगा। डर लगेगा
कि कहीं ऐसा न
हो कि सारा
जीवन का रस खो
जाये! और आने
से रुकना भी
असंभव होगा, क्योंकि कोई
रस पैदा होगा
जो पुकारेगा
और बुलायेगा।
एक दुविधा
पैदा होगी। यह
भी शुभ लक्षण
है। यह
सोच-विचारशील
व्यक्ति का
लक्षण है।
सोच-विचारशील
व्यक्ति को
जीवन में हजार
ऐसे मौके आते
हैं, जहां उसे
तय करना पड़ता
है; जहां
आधा मन कहता
है मत जाओ, आधा
कहता है जाओ।
कायर आदमी उस
आधे मन की मान
लेता है, जो
कहता है मत
जाओ। साहसी
व्यक्ति उस
आधे मन की
मानता है जो
कहता है, करो
अभियान! खोजो
नये को!
अपरिचित राह
को चुनो!
पश्चिम
के एक बहुत
बड़े कवि से
किसी ने पूछा
कि तुम्हारे
जीवन में सबसे
महत्वपूर्ण
बात जिसने
तुम्हारे जीवन
के अर्थ को
निर्णीत किया, कौन-सी थी? तो उसने कहा
कि जब मेरे
पिता मर रहे
थे तो उन्होंने
मुझे पास
बुलाया और कहा
कि सुन, जीवन
के हर कदम पर
दो रास्ते
खुलते हैं। एक
रास्ता
जाना-माना, जिस पर तुम
चलते रहे हो; और एक
रास्ता
अपरिचित
अनजाना, जिस
पर तुम कभी
नहीं चले हो।
मन सदा कहेगा,
जाने-माने
को चुन लो, क्योंकि
मन बहुत आर्थोडाक्स
है। जाने-माने
को कभी मत
चुनना, क्योंकि
जिस पर चलते
ही रहे हो, अब
और चलकर क्या
होगा? अनजाने
को चुन लेना।
और
जिंदगी के हर
रास्ते पर दो
कदम खुलते
हैं। दो
रास्ते खुलते
हैं। सदा
अनजाने को
चुनते रहना।
उस कवि
ने कहा, मैंने
पिता की बात
मान ली। बड़ी
कठिन थी। और
कई बार भूला।
कई बार चूका।
लेकिन फिर भी
उस सूत्र को
सम्हाले रहा।
इसी तरह मेरे
जीवन में
रोज-रोज सत्य
की नयी-नयी
सुबह हुई; सत्य
का नया-नया
सूरज निकला।
अपरिचित, अनजान, अज्ञात--उसे
जो चुनता है, उसने
परमात्मा को
चुना।
तो डर
लगेगा यहां
आने में।
क्योंकि मैं
तुम्हें रोज
अनजान की तरफ, अपरिचित की
तरफ धक्के
दूंगा। मन
कहेगा, रुक
जाओ, मत
जाओ।
इलाहाबाद
में मैं बोल
रहा था कई
वर्षों पहले। जिन
मित्र ने मुझे
बुलाया था, वे हिंदी के
एक कवि और
लेखक हैं। वे
सामने ही बैठे
थे। कोई
दस-पंद्रह
मिनट मैंने
देखा कि उनकी
आंखों से आंसू
गिरते रहे; फिर वे एकदम
से उठे और भवन
के बाहर निकल
गये। उन्होंने
ही मुझे
बुलाया था।
फिर तीन दिन
उनका कोई पता
ही न चला। जब
विदा का दिन
आया तो वह मुझे
स्टेशन छोड़ने
आये। मैंने
पूछा कि कहां
चल दिये! उन्होंने
कहा कि पंद्रह
मिनट तो मैं
सुनता रहा, फिर मैं
डरा। फिर मुझे
लगा कि यह
आदमी खतरे में
ले जायेगा। तो
मैंने कहा कि
इसके पहले कि
कोई झंझट शुरू
हो, यहां
से निकल जाना
चाहिए। तो मैं
निकल गया।
यह
स्थिति सभी के
सामने आयेगी।
मेरे साथ चलना
है तो बहुत
कुछ जो तुम्हारी
जिंदगी में
तुम्हें कल तक
मूल्यवान मालूम
होता रहा, मूल्यहीन हो
जायेगा।
लेकिन मैं
तुमसे कहता हूं,
अज्ञात के
लिए सदा अपने
द्वार खुले
रखना। क्योंकि
वही द्वार है,
जिससे
परमात्मा
प्रवेश करता
है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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