ताओ की अनुपस्थित उपस्थिति—(प्रवचन—छबीसवां)
अध्याय 10 : सूत्र 3
अद्वय की स्वीकृति
(क्रमशः)
ताओ सभी पदार्थों को जन्म देता है और भरण-पोषण करता है;
वह उनका जन्मदाता है, फिर भी अपने मालिक होने का दावा नहीं करता।
वह सब कुछ करता है, फिर भी उसे ऐसा करने का दंभ नहीं है;
वह सभी वस्तुओं का सर्वेसर्वा (अध्यक्ष) है, फिर भी उन्हें नियंत्रित नहीं करता।
इसे ही ताओ की रहस्यमयी विशेषता कहते हैं।
अस्तित्व में जो जितना ही सूक्ष्म है, उतना ही अदृश्य है; जितना स्थूल है, उतना दृश्य है। जो दिखाई पड़ता है, वह उथला है; जो नहीं दिखाई पड़ता, वही गहरा है। इसलिए जो लोग परमात्मा को देखने निकल पड़ते हैं, वे बुनियादी भूल में पड़ जाते हैं। ईश्वर-दर्शन शब्द ही असंगत है। जो दिखाई पड़ सकता है, वह ईश्वर नहीं होगा। जो दिखाई पड़ जाए, वह दिखाई पड़ जाने के कारण ही ईश्वर नहीं रह जाएगा।
आंख जिसे देख सकती है, वह पदार्थ है। हाथ जिसे छू सकते हैं, वह पदार्थ है। कान जिसे सुन सकते हैं, वह पदार्थ है। मन जिसे जान सकता है, वह पदार्थ है। असल में, जिसे भी हम जान लेते हैं, उसकी सीमा, आकार और रूप बंध जाता है। हमारे सारे जानने के पार भी जो सदा शेष रह जाता है; हम जिसे स्पर्श करना भी चाहें, तो भी नहीं कर पाते; हम जिसे देखना भी चाहें, तो भी देख नहीं पाते; और फिर भी हम नहीं कह सकते कि वह नहीं है, उसका नाम ही परमात्मा है।
तीन बातें हैं। एक, जो दिखाई पड़ता है, वह है। इंद्रियां जिसका अनुभव करती हैं, वह है। प्रत्यक्ष का यही अर्थ है कि जो आंखों के सामने है। उसे ही हम कहते हैं वह सत्य है, यथार्थ है। जिसे हम नहीं देख पाते, जिसे हम नहीं छू पाते, स्वभावतः हमारा मन कहता है वह नहीं है। क्योंकि होता, तो हम देख पाते, छू पाते, जान पाते! तो दूसरी कोटि है, जो नहीं है। उसे हम देख भी नहीं पाते, छू भी नहीं पाते, जान भी नहीं पाते।
अगर ये दो ही कोटियां हैं अस्तित्व की, तो परमात्मा की कोई भी जगह नहीं है, तो धर्म का कोई उपाय नहीं है, तो आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है, तो प्रेम की कोई भी संभावना नहीं है और सब प्रार्थनाएं झूठी हैं। लेकिन एक तीसरी कैटेगरी, एक तीसरी कोटि भी है। दो मैंने कहीं। एक, जिसे हम देख पाते, छू पाते, समझ पाते, वह है। जो नहीं है, उसे हम देख नहीं पाते, समझ नहीं पाते, छू नहीं पाते। इन दोनों से अलग एक कोटि और भी है, कि जो है, लेकिन जिसे हम छू नहीं पाते, समझ नहीं पाते, स्पर्श नहीं कर पाते, और फिर भी उसे हम इनकार नहीं कर सकते। यह तीसरी कोटि ही ईश्वर है। लाओत्से इसी तीसरी कोटि को ताओ कहता है।
ताओ का अर्थ है धर्म, ताओ का अर्थ है नियम, ताओ का अर्थ है परम सत्ता का आधार, परम सत्ता, दि अल्टीमेट रियलिटी। यह तीसरा--जिसे ताओ कह रहा है लाओत्से--चाहे ईश्वर कहें, चाहे आत्मा कहें, चाहे सत्य कहें, नाम हमारे दिए हुए हैं, नाम से कोई अंतर नहीं पड़ता। बुद्ध ने इसे निर्वाण कहा है, शून्य कहा है। बुद्ध ने चूंकि इसे शून्य कहा, न समझने वाले लोगों ने समझा कि बुद्ध कह रहे हैं कि वह नहीं है। अगर बुद्ध को यही कहना होता कि वह नहीं है, तो शून्य भी कहने की जरूरत न थी। बुद्ध ने कहा, वह शून्य है। उसके होने को इनकार नहीं किया; नाम उसे शून्य का दिया। क्योंकि बुद्ध ने कहा कि शून्य, दोनों ही बातें समाहित हैं शून्य में। शून्य है भी और नहीं भी है। वह कुछ ऐसा है जैसे कि न हो। उसकी मौजूदगी गैर-मौजूदगी जैसी है। उसके होने में भी वह प्रगाढ़ होकर प्रकट नहीं होता। उसका होना ठोस नहीं है। इसलिए जो बहुत ठोस ढंग से उसे पकड़ना चाहें, वे वंचित रह जाते हैं। और जो इस आशा में घूमते रहते हैं कि हम किसी तरह जैसे और वस्तुओं को जानते हैं, इसी ढंग से उसे भी जान लें, तो वे उसे कभी भी नहीं जान पाते हैं। उसे जानने का ढंग ही बदलना होगा।
इसे हम कुछ तरह से समझें। मैं कहता हूं कि मेरे हृदय में आपके लिए प्रेम है। लेकिन मेरे हृदय को काट कर मेरे प्रेम को किसी भी तरह समझा नहीं जा सकता। और जो मेरे हृदय को काट कर देखने चलेगा, वह इस नतीजे पर पहुंचेगा कि मैं झूठ बोल रहा था। क्योंकि प्रेम कहीं मिलेगा नहीं।
प्रेम कोई वस्तु नहीं है, जिसे हम खोज पाएं। प्रेम कोई पदार्थ नहीं है, जिसे प्रयोगशाला में पकड़ा जा सके और जिसे यंत्र परीक्षा कर लें। और अगर चिकित्सक सब तरह से जांच-पड़ताल करेगा, शरीर-शास्त्री सब तरह खोजेगा, तो और बहुत चीजें हाथ में लगेंगी, जिनका शायद प्रेमी को पता भी नहीं था--हड्डियां लगेंगी, मांस-मज्जा लगेगी, मांस-पेशियां लगेंगी हाथ, फेफड़े लगेंगे, फुफ्फस लगेगा हाथ--सब कुछ लगेगा, प्रेमी को जिसका पता भी नहीं था। जब उसने हृदय पर हाथ रख कर कहा था कि मेरा हृदय प्रेम से भरा है, तो जिस चीज को वह कह रहा है, वही भर शरीर-शास्त्री के हाथ नहीं लगेगी; और बहुत कुछ लगेगा, जिसका उसे पता भी नहीं है। और शरीर-शास्त्री अपनी टेबल पर फैला कर रख देगा सब कुछ। लेकिन उसमें प्रेम कहीं भी नहीं होगा। निश्चित ही शरीर-शास्त्री कहेगा, प्रेम जैसी कोई भी बात नहीं है, यह आदमी या तो झूठ बोलता था या भ्रांति में था। दो ही उपाय हो सकते हैं: कि या तो यह जान कर झूठ बोल रहा था या अनजाने झूठ बोल रहा था, क्योंकि स्वयं भ्रांति में पड़ गया था।
लेकिन एक आश्चर्य की बात है कि शरीर-शास्त्री से अगर हम यह पूछें कि यह भी मान लिया जाए कि प्रेम नहीं था, भ्रांति थी, तो भ्रांति भी तो तुम्हारी पकड़ में कहीं नहीं आती! यह आदमी प्रेम में नहीं था, भ्रांति में था, तो भ्रांति भी तो तुम्हारी टेबल पर कहीं पकड़ में नहीं आती! यह आदमी भ्रांति में नहीं था, असत्य बोल रहा था, तो भी वह असत्य प्रेम जो यह बोल रहा था, जो असत्य इसके भीतर घटित हो रहा था, वह भी तुम्हारी टेबल पर कहीं पकड़ में नहीं आता! असल में, शरीर-शास्त्री को कहना चाहिए कि यह आदमी था ही नहीं जो बोल रहा था, क्योंकि वह आदमी ही कहीं पकड़ में नहीं आता है। और जो पकड़ में आता है, वहां बोलने वाला कोई भी नहीं है। लेकिन यह तो शरीर-शास्त्री भी नहीं कह पाएगा, क्योंकि वह भी बोल रहा है।
तो प्रेम को हमें कहना पड़ेगा कि प्रेम का अस्तित्व है, लेकिन वस्तुओं जैसा अस्तित्व नहीं है। कुछ भिन्न अस्तित्व है। ए डिफरेंट डायमेंशन ऑफ एक्झिस्टेंस! कोई दूसरा ही आयाम है प्रेम का। प्रेम होता है, लेकिन वस्तुओं जैसा नहीं है। इसलिए ध्यान रखें, प्रेम जितना अनुपस्थित होता है, उतना गहन होता है। और जितना उपस्थित हो जाता है, उतना क्षुद्र हो जाता है। जब कोई किसी से कहता है कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, तब वह प्रेम को क्षुद्र किए दे रहा है। क्योंकि इतना कह कर भी हम प्रेम को इंद्रियों की पकड़ में ला देते हैं। कम से कम कान तो सुन लेते हैं।
इसलिए बुद्ध जैसा व्यक्ति तो किसी से यह भी नहीं कहेगा कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। क्योंकि यह कहना भी प्रेम की हत्या है। अगर प्रेम है, तो उसको इतना भी उपस्थित करने की आवश्यकता नहीं है। और अगर वह है, तो वह अनुभव में आएगा। और अगर वह गैर-उपस्थित हुए अनुभव में नहीं आ सकता, तो उसके अनुभव में आने का कोई प्रयोजन भी नहीं है।
लेकिन क्या कभी आपने ऐसा अनुभव किया है, कोई ऐसा प्रेम, जो कहा न गया हो, बोला न गया हो, प्रेमी ने आपका हाथ स्पर्श न किया हो, प्रेमी ने आपको गले से न लगाया हो, प्रेमी ने कोई उपाय ही न किया हो प्रेम के प्रकट करने का और अचानक आपने पाया हो कि किसी गंगा में आप नहा गए हैं! अचानक आपने अनुभव किया हो कि कोई फूलों की वर्षा आप पर हो गई है! अचानक आपने अनुभव किया हो कि कोई संगीत किसी अनजाने कोने से आपके भीतर बज उठा है! अंगुलियां नहीं हैं, लेकिन वीणा को किसी ने छेड़ दिया है! कोई पास नहीं आया, लेकिन कोई बिलकुल अंतरतम में प्रवेश कर गया है! अगर ऐसा प्रेम आपने अनुभव किया हो एक क्षण को भी, तो लाओत्से जो कह रहा है, उसे समझने में आसानी हो जाएगी। क्योंकि परमात्मा का स्वभाव प्रेम जैसा है।
लेकिन अभागे हैं हम, क्योंकि हम प्रेम को ही नहीं जानते। और जो प्रेम को नहीं जानता है, वह परमात्मा को कभी भी नहीं जान पाएगा। क्योंकि प्रेम उसकी ही हलकी किरण का अनुभव है। फिर परमात्मा उन्हीं किरणों का विराट जोड़ है, सूरज है।
लाओत्से का पहला सूत्र है, ताओ सभी को जन्म देता है और सभी का पोषण भी करता, वह सबका जन्मदाता, फिर भी उसकी मालकियत का कोई दावा नहीं करता है। वह कोई मालिक नहीं है।
मनुष्य की चेतना ने हजारों बार हाथ उठा कर आकाश की तरफ उसे धन्यवाद दिया है। मनुष्य की चेतना ने हजारों बार उसके चरणों में सिर रखा है। मनुष्य की चेतना में हजारों बार पुकार उठी है, अनुभव हुआ है, आस्था निर्मित हुई है। लेकिन परमात्मा की तरफ से कोई जवाब कभी नहीं दिया गया। मनुष्य कहता है, तुम हमारे पिता हो। लेकिन उसने कभी नहीं कहा कि तुम हमारे पुत्र हो। मनुष्य कहता है कि तुमने निर्माण किया, तुमने सृजन किया। उसने कभी घोषणा नहीं की कि मैं निर्माता हूं, मैं स्रष्टा हूं। अघोषित, मौन उसका अस्तित्व है।
असल में--इसे थोड़ा समझें--जो भी दावा करता है, वह दावा करके ही कह देता है कि दावेदार नहीं है। अगर एक पिता को अपने बेटे से कहना पड़े कि मैं तुम्हारा पिता हूं, एक प्रेमी को अपनी प्रेयसी से कहना पड़े कि मैं तुम्हारा प्रेमी हूं, एक गुरु को अपने शिष्य से कहना पड़े कि आदर करो मेरा, मैं तुम्हारा गुरु हूं, तो बात ही सब व्यर्थ हो गई। क्योंकि जिस दिन गुरु को कहना पड़े कि मैं तुम्हारा गुरु हूं, आदर करो, चरण छुओ मेरे, उसी दिन गुरुता खो गई। असल में, गुरुता जब खो जाती है या होती ही नहीं, तभी दावा होता है। इसलिए किसी गुरु ने कभी नहीं कहा है कि आदर करो। गुरु हम उसे कहते हैं, जिसे आदर किया ही जाता है। जिसे कहना पड़े कि मुझे आदर करो, वह भी भलीभांति जानता है कि गुरु नहीं है।
एक विश्वविद्यालय में मैं था। और वहां शिक्षकों के एक सम्मेलन में किसी ने मुझे पूछा कि गुरुओं का लोग आदर क्यों नहीं करते हैं? आज का विद्यार्थी गुरु का आदर क्यों नहीं करता है? तो मैंने कहा कि गुरु है कहां? क्योंकि गुरु का अर्थ ही होता है, जिसका लोग आदर करते हैं, जिसे आदर करना ही पड़ता है, जो मांगता नहीं और जिसे आदर मिलता है, जिसकी तरफ आदर ऐसे ही बहता है, जैसे पानी सागर की तरफ बहता है।
किसी दिन सागर अगर कहने लगे कि नदियां अब मेरी तरफ क्यों नहीं बहतीं, तो हमें सागर को कहना होगा कि तुम भ्रांति में हो, तुम कोई तालत्तालाब होओगे, सागर नहीं हो। क्योंकि सागर का मतलब ही इतना होता है कि जिसकी तरफ नदियां बहती हैं, जिसकी तरफ नदियों को बहना ही पड़ता है, अन्यथा कोई गति नहीं है। नदी का अस्तित्व ही सागर की तरफ बहने से निर्मित होता है। नदी बनती ही इसलिए है कि वह सागर की तरफ बहती है। अगर वह सागर की तरफ नहीं बहे, तो वह बन ही नहीं सकती, हो ही नहीं सकती।
तो जिस दिन सागर को कहना पड़े कि नदियो, मेरी तरफ बहो, उस दिन समझना कि सागर नहीं है। सागर को यह कहने की जरूरत नहीं पड़ती है। उसका होना काफी है। गुरु की तरफ आदर बहता है। प्रेमी की तरफ प्रेम बहता है। लेकिन दावा करना पड़ता है, दावा करना ही इसलिए पड़ता है कि दावेदार मौजूद ही नहीं होते। यह उलटा लगेगा, पैराडाक्सिकल लगेगा, लेकिन ऐसा ही है।
तो जब भी आप दावा करें कि मैं प्रेम करता हूं, तब भीतर टटोलना। प्रेम के धुएं की रेखा भी भीतर नहीं मिलेगी। क्योंकि प्रेम अपने आप में काफी दावा है। उसका होना ही उसकी दावेदारी है। और अतिरिक्त दावा सिर्फ नपुंसकता की घोषणा करता है कि भीतर जिसकी हम चेष्टा कर रहे हैं बताने की, वह नहीं है। परमात्मा दावा नहीं करता, क्योंकि वह दावेदार है।
पश्चिम में एक नास्तिक विचारक हुआ, दिदरो। उसने एक सभा में एक दिन अपनी घड़ी ऊंची उठा कर कहा कि अगर परमात्मा कहीं है, तो एक छोटा सा प्रमाण दे दे, तो मैं मान लूं। यह मेरी घड़ी चलती है, इसी वक्त बंद हो जाए। इतना भी परमात्मा कर दे! क्योंकि तुम कहते हो कि उसने जगत को बनाया, और तुम कहते हो वही निर्माता और वही विनाशक, वही बनाने वाला, वही मिटाने वाला। इतना छोटा सा काम कर दे, यह घड़ी आदमी की बनाई हुई है, इसे वह बंद कर दे इसी वक्त, तो मैं सदा के लिए उसके चरणों में गिर जाऊं।
जो आस्तिक थे उस सभा में, उन्होंने आकाश की तरफ प्रार्थना-भरी आंखों से देखा कि बंद कर दे! इतना सा छोटा सा काम है, यह घड़ी बंद कर दे! तेरे हाथ में क्या नहीं! तेरी कृपा हो जाए, तो लंगड़े पहाड़ चढ़ जाते हैं, अंधे देखने लगते हैं, मुर्दे जीवित हो जाते हैं। तेरे हाथ में क्या नहीं है? इतनी सी बात कि यह छोटी सी घड़ी, इसे बंद कर दे!
लेकिन घड़ी बंद नहीं हुई। और दिदरो उन आस्तिकों से जीत गया। इसलिए नहीं कि दिदरो की नास्तिकता सही थी, इसलिए कि उन आस्तिकों की आस्तिकता ही सही नहीं थी। वे परमात्मा से यह कह रहे थे कि तू दिदरो के साथ प्रतिस्पर्धा में उतर जा। वे परमात्मा से यह कह रहे थे कि यह दावे का मौका है, क्यों छोड़ता है! दावेदार हो जा! इतनी सी छोटी सी बात, करके दिखा दे।
लेकिन अगर दिदरो सच में बुद्धिमान होता या वे आस्तिक बुद्धिमान होते, तो वे समझ पाते। मुझे तो लगता है कि अगर परमात्मा जोश में आ जाता उस दिन, तो सदा के लिए, सदा के लिए अप्रमाणित हो जाता। उस दिन अगर दिदरो की बातों में आ जाता और घड़ी बंद कर देता, तो परमात्मा एकदम क्षुद्र हो जाता। असल में, दावा क्षुद्रता से आता है। दिदरो को भी न सह सके परमात्मा, तो बहुत छोटा हो जाता है। इस चुनौती को भी न सह सके, तो बहुत छोटा हो जाता है। कहीं कुछ भी न हुआ, घड़ी चलती रही, और दिदरो जीत गया। और दिदरो जीवन भर यही सोचता रहा कि जो परमात्मा इतना सा प्रमाण नहीं दे सकता, उसका होना कैसे हो सकता है! क्योंकि हम मानते हैं कि प्रमाण ही होने का सबूत है।
लेकिन वस्तुतः जो चीज है, वह कभी प्रमाण नहीं देती। प्रमाण हम जुटाते ही इसीलिए हैं कि संदेह होता है! अन्यथा हम प्रमाण नहीं जुटाते। इसलिए इस जगत में जो परम आस्तिक हुए हैं, उन्होंने ईश्वर के लिए प्रमाण नहीं दिए। और जिन्होंने दिए हैं, वे आस्तिक नहीं थे। जिन्होंने प्रमाण दिए हैं और जिन्होंने कहा है कि इसलिए परमात्मा है, इसलिए परमात्मा है, इसलिए परमात्मा है, जिन्होंने परमात्मा के होने को तर्क की निष्पत्ति, एक सिलोजिज्म बनाया और जिन्होंने कहा जैसे गणित सिद्ध होता है, ऐसे परमात्मा भी सिद्ध होता है, उनमें से कोई भी आस्तिक नहीं था। वे सभी नास्तिक थे, जो किसी तरह प्रमाण जुटा कर अपने को समझाने की कोशिश कर रहे थे कि परमात्मा है। लेकिन अगर उनके प्रमाण गलत हो जाएं, तो उनका परमात्मा भी गलत हो जाता है। जो परमात्मा प्रमाणों पर निर्भर है, ध्यान रहे, प्रमाण उस परमात्मा से बड़े हो जाते हैं।
तरतूलियन ने कहा है कि मैं भरोसा करता हूं तुम में, क्योंकि तुमने कभी प्रमाण नहीं दिए। यह आदमी आस्तिक रहा होगा। तरतूलियन ने कहा है कि मैं विश्वास करता हूं तुम में, क्योंकि तुम बिलकुल असंभव मालूम पड़ते हो। सब तरह से सोचता हूं, पाता हूं कि तुम नहीं हो सकते, इसीलिए भरोसा करता हूं कि तुम हो। क्योंकि अगर मेरे प्रमाणों से तुम हो सको, तो मैं तुमसे बड़ा हो जाता हूं। अगर मेरे प्रमाण से परमात्मा सिद्ध हो जाए, तो मेरे ही प्रमाण से असिद्ध भी हो जाएगा। अगर मेरी बुद्धि निर्णय कर सके कि परमात्मा है, तो फिर मेरी बुद्धि निर्णायक हो जाती है। वह यह भी निर्णय कर सकेगी कि परमात्मा नहीं है। मेरी बुद्धि बड़ी हो जाती है।
लाओत्से कहता है कि वह निर्माता, स्रष्टा, पोषक; लेकिन दावेदार नहीं है। उसने कभी घोषणा नहीं की कि मैं मालिक हूं।
असल में, वह इतना निश्चिंत रूप से मालिक है, इतना आश्वस्त रूप से मालिक है कि घोषणा की जरूरत नहीं पड़ी। आपको मालकियत की घोषणा करनी पड़ती है, क्योंकि आप आश्वस्त नहीं हैं। रोज-रोज घोषणा करते हैं, तो अपने लिए आश्वासन जुटा लेते हैं। कभी आपने खयाल किया कि जिस चीज के संबंध में आप आश्वस्त होते हैं, उस संबंध में आप घोषणा नहीं करते।
रामकृष्ण के पास विवेकानंद गए और विवेकानंद ने उनका हाथ पकड़ कर हिलाया और कहा कि मैं जानना चाहता हूं, ईश्वर है? विवेकानंद और लोगों से भी पूछ चुके थे यह। तर्क देने वाले, विचारशील लोग मिले थे, जिन्होंने तर्क दिए; जिन्होंने कहा, है! मैं सिद्ध करके बता सकता हूं। ज्ञानी मिले, जिन्होंने शास्त्र खोले और विवेकानंद को कहा कि देखो, यह लिखा है कि है। लेकिन विवेकानंद को आश्वासन नहीं मिला। क्योंकि जिसका परमात्मा शास्त्र में छिपा हो, उसे असली परमात्मा का कोई भी पता नहीं है। और जिसका परमात्मा तर्क में छिपा हो, उसका परमात्मा कभी भी खंडित किया जा सकता है। क्योंकि तर्क दुधारी तलवार है। जिसका सहारा तर्क पर हो, तर्क खींचते ही वह बेसहारा होकर जमीन पर गिर जाएगा।
विवेकानंद ने रामकृष्ण से भी पूछा है कि क्या ईश्वर है?
रामकृष्ण ने कहा, बेकार की बातें मत पूछो; यह पूछो कि तुम्हें देखना है, जानना है, उससे मिलना है।
यह पहला मौका था कि कोई आश्वस्त आदमी सामने था। उसने यह नहीं कहा कि है, मैं सिद्ध कर दूंगा। मैं तुम्हें बताऊंगा कि है, समझाऊंगा कि है। उसने कहा कि तुम्हें मिलना हो, तो बोलो, हां या न में जवाब दो।
विवेकानंद ने बाद में कहा है कि मैंने प्रश्न पूछ कर दूसरों को झिझक में डाल दिया था। रामकृष्ण ने मुझे ही झिझक में डाल दिया। क्योंकि मैंने अभी खुद भी तय नहीं किया था कि मैं उससे मिलने को राजी हूं या नहीं हूं! मैं तो एक कुतूहलवश पूछने चला आया था। पर विवेकानंद ने कहा कि एक बात तय हो गई कि यह आदमी तर्क से नहीं जानता है, किन्हीं प्रमाणों से नहीं जानता है, बस जानता है; निपट, शुद्ध जानता है। किसी कारण से नहीं, बस जानता है। और जानने में इतना आश्वस्त है कि दूसरे से भी कहता है कि तुम्हें जानना हो, तो बोलो। यह बात इतनी आसान मालूम पड़ रही है इस आदमी को जैसे कोई कहे कि क्या बात करते हो सूरज है या नहीं! मेरा हाथ पकड़ो और चलो, बाहर निकल आओ घर के और सूरज को देख लो। इसकी चर्चा करनी ही फिजूल है कि सूरज है या नहीं; आओ, बाहर आओ और देख लो। इतनी सरलता से जो कह रहा है। पर इस कहने में एक गहन आश्वासन है।
जहां आश्वासन है, वहां दावा नहीं है। जहां आश्वासन नहीं है, वहां दावा है। और अगर परमात्मा भी आश्वस्त न हो, तो कौन आश्वस्त होगा? इसलिए परमात्मा ने अब तक कोई दावा नहीं किया।
लोग कहते हैं कि बाइबिल परमात्मा की किताब है, और कुरान परमात्मा की किताब है, और वेद परमात्मा की किताबें हैं। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, परमात्मा की कोई भी किताब नहीं है। सब किताबें उन आदमियों की हैं, जिन्होंने परमात्मा की झलक पाई। क्योंकि परमात्मा कोई किताब प्रकट करे, तो अपने में बहुत हीन अनुभव करता होगा तभी। और परमात्मा घोषणा करे कि मैं हूं, तो उसे अपने होने पर शक हो तभी।
परमात्मा की कोई किताब नहीं है, क्योंकि परमात्मा का कोई वक्तव्य नहीं है। परमात्मा समझाना भी चाहे, तो किसे? कहना भी चाहे, मालिक भी बनना चाहे, तो किसका? मालिक वह है। यह मालकियत इतनी स्वाभाविक है और इस मालकियत का कोई प्रतियोगी, प्रतिस्पर्धी भी नहीं है कि यह घोषणा पागल परमात्मा ही कर सकता है कि मैं मालिक हूं। क्योंकि ध्यान रहे, मालिक की घोषणा भी तभी करनी होती है, जब प्रतिस्पर्धी का डर होता है।
एक पति अपनी पत्नी से कहता है कि मैं तेरा मालिक हूं। एक पत्नी अपने पति से कहती है कि मैं तेरी मालिक हूं। क्योंकि प्रतिस्पर्धी चारों ओर हैं और मालकियत छीनी जा सकती है। मालिक कोई और भी हो सकता है। एक मकान का आप दावा करते हैं द्वार पर तख्ती लगा कर कि मकान मेरा है, क्योंकि इस मकान का दावा अगर आप चूक जाएं समय पर करने से, कोई और भी कर सकता है। लेकिन परमात्मा दावा भी किसके सामने करे?
इसलिए लाओत्से कहता है, वह अपने मालिक होने का दावा नहीं करता। ताओ या परमात्मा या धर्म दावेदार नहीं है, क्योंकि उसका दावा सुनिश्चित है, स्वाभाविक है। वह है ही।
"वह सब कुछ करता है, फिर भी उसे ऐसा करने का कोई अहंकार नहीं है।'
जब भी हम कुछ करते हैं मजबूरी में, जबर्दस्ती में, चेष्टा से, तभी अहंकार निर्मित होता है। जब हम कुछ करते हैं सहज, स्वभाव से, तो अहंकार निर्मित नहीं होता। बहुत से काम हम भी करते हैं जिनसे अहंकार निर्मित नहीं होता। रात आप सोते हैं, दिन भर आप श्वास लेते हैं, लेकिन इससे अहंकार निर्मित नहीं होता। आप ऐसी घोषणा करके, छाती पीट कर बाजार में खड़े होकर नहीं कहते कि आज मैंने इतनी हजार श्वास लीं। थोड़ी-बहुत नहीं लेते, कई हजार श्वास लेते हैं। जीवन भर में अरबों श्वास लेते हैं। अगर हिसाब लगाएं, तो दावा कर सकते हैं कि मैंने अपने जीवन में इतनी श्वास लीं! बीस साल तो मैं सोया ही रहा साठ साल में! इतनी बार सुबह उठा, इतनी बार सांझ सोया!
नहीं, इनका हम दावा नहीं करते, क्योंकि ये स्वाभाविक क्रियाएं हैं। हालांकि आदमी दावा करता है। एक रुपया भी उसके खीसे में हो, तो दावा करता है। करोड़ हो, तो करता ही है; एक पैसा हो, तो भी करता है। हालांकि एक श्वास के लिए करोड़ों रुपए देने को तैयार हो सकता है, लेकिन श्वास का दावा नहीं करता। अगर मरते हुए आदमी से हम कहें कि एक श्वास और मिल सकती है, सारी संपत्ति दे दो, तो वह सारी संपत्ति दे देगा और एक श्वास ले लेगा। लेकिन बड़ी हैरानी की बात है, उस क्षुद्र संपत्ति का उसने जीवन भर दावा किया और इस श्वास का कभी दावा न किया, और करोड़ों श्वास लीं।
श्वास स्वभाव थी, इसलिए दावा नहीं किया। धन स्वभाव नहीं था, चेष्टा करके पाया गया था, इसलिए दावा किया। जिसमें चेष्टा होती है, वहां अहंकार निर्मित होता है। जिसमें चेष्टा नहीं होती, वहां अहंकार निर्मित नहीं होता। यह परमात्मा संसार को बना रहा है, अगर इसमें चेष्टा हो वैसी ही, जैसे हम धन को बनाते हैं, तो अहंकार निर्मित होगा। लेकिन अगर यह निश्चेष्ट प्रक्रिया हो वैसे ही, जैसे हम श्वास लेते हैं, तो दावे का प्रश्न नहीं, अहंकार का प्रश्न नहीं। इसलिए जो जानते हैं, वे ऐसा कहना पसंद नहीं करते कि परमात्मा ने संसार को बनाया। वे ऐसा ही कहना पसंद करते हैं कि परमात्मा संसार बन गया है। इतना भी फासला नहीं है। वृक्ष उगते हैं, तो परमात्मा इन्हें बनाता, ऐसा नहीं; परमात्मा वृक्षों में निर्मित होता और बनता है। आकाश में बादल चलते हैं, तो परमात्मा इन्हें चलाता, ऐसा नहीं; परमात्मा ही इन बादलों में सरकता और चलता है। आदमी को परमात्मा बनाता है, ऐसा नहीं; परमात्मा ही आदमी बनता है।
इसे हम ऐसा समझें। एक चित्रकार एक चित्र बनाता है। तो बनाते ही चित्र अलग हो जाता है, चित्रकार अलग हो जाता है। परमात्मा ऐसा नहीं है कि अस्तित्व को बनाता है और अलग हो जाता है। क्योंकि उसके अलग होने का कोई उपाय नहीं, उससे अलग होने की कोई जगह नहीं। परमात्मा जगत के साथ इस तरह जुड़ा है, जैसे नर्तक अपने नृत्य से जुड़ा होता है। एक नृत्य करने वाला नाच रहा है। नाच और नर्तक अलग नहीं होते, एक ही हैं। नर्तक रुक जाएगा, तो नृत्य भी रुक जाएगा। आप नर्तक से यह नहीं कह सकते कि तू चला जा और तेरा नृत्य छोड़ जा।
इसलिए हमने परमात्मा की जो मूर्ति बनाई है, वह नर्तक की तरह बनाई है, नटराज की तरह बनाई है। उसका कारण है। क्योंकि नृत्य और नर्तक एक हैं। इसलिए नर्तक के रूप में परमात्मा की बात सर्वाधिक ठीक से समझी जा सकती है। जगत और परमात्मा एक हैं। और जगत में जो भी घटित हो रहा है, वह परमात्मा का सहज स्वभाव है।
इसलिए लाओत्से कहता है कि ताओ सब कुछ करता है, फिर भी उसे ऐसा करने का कोई दंभ नहीं है।
दंभ होता ही उन्हें है, जो जोर-जबर्दस्ती कुछ करते हैं। क्या हमें जीवन में ऐसे किसी कृत्य का पता है, जो हमने बिना दंभ के किया हो? अगर पता हो, तो वैसे कृत्य का नाम ही पुण्य है। यह जरा कठिन मालूम पड़ेगा। क्योंकि हम तो पुण्य भी करते हैं, तो दंभ निर्मित होता है। सच तो यह है कि अगर दंभ निर्मित न करवाया जा सके, तो कोई पुण्य करने को राजी ही नहीं होता है।
अगर मैं आपसे कहूं कि यह मंदिर बनाना है, इसके लिए धन दे दें, तो आप कहते हैं कि मेरी तख्ती कहां लगेगी? और अगर मैं कहूं कि तख्ती इस मंदिर में लगने वाली ही नहीं है, तो आप पक्का मान लें यह मंदिर बनने वाला नहीं है। क्योंकि लोग मंदिर नहीं बनाते, तख्तियां बनाते हैं। और मंदिरों पर तख्तियां लगाते हैं, ऐसा नहीं; तख्तियों पर मंदिर लगाते हैं। तख्तियां महत्वपूर्ण हैं, मंदिर गौण हैं। क्योंकि बिना मंदिर के तख्ती अच्छी नहीं लगेगी, इसलिए मंदिर के साथ लगाते हैं। लेकिन तख्ती ही आधार है। अगर आपसे कहा जाए कि आप यह जो धन दान कर रहे हैं, इससे आपको प्रशंसा नहीं मिलेगी, तो फिर दान असंभव है। इसलिए शास्त्र समझाते हैं कि जो दान करेगा, उसे कितनी प्रशंसा मिलेगी लोक में, परलोक में; कितना पुण्य मिलेगा, कितना फल मिलेगा, कितना सुख, कितना आनंद। यहां एक पैसा दान करो, तो शास्त्र कहते हैं, वहां परलोक में करोड़ गुना उपलब्ध होगा। एक पैसे का दान करवाना हो, तो करोड़ गुना दंभ का आश्वासन देना पड़ता है।
लेकिन पुण्य का अर्थ ही कुछ और है। पुण्य का अर्थ है ऐसा कृत्य जिससे दंभ निर्मित न हो। जिससे दंभ निर्मित हो, वही पाप है। इसलिए परमात्मा ने आज तक कोई पाप नहीं किया, हम कह सकते हैं, क्योंकि उसके कोई दंभ की खबर नहीं मिली। उसने अब तक यह भी नहीं कहा कि मैं हूं। इसलिए उसने जो भी किया है, वह पुण्य है। आप भी जो भी करते हैं, वह पुण्य हो जा सकता है, यदि उससे अहंकार निर्मित न होता हो, यदि पीछे ईगो और मैं सघन न होता हो। कृत्य हो जाता हो और मेरे मैं में कुछ जुड़ता न हो, तो कृत्य पुण्य हो जाता है। और मेरे मैं में कुछ जुड़ जाता हो, तो कृत्य पाप हो जाता है।
इसलिए सवाल यह नहीं है कि कौन सा कृत्य पुण्य है और कौन सा कृत्य पाप है। लोग पूछते हैं, कौन सा काम पुण्य है और कौन सा काम पाप है? गलत ही सवाल पूछते हैं। यह सवाल कृत्य का नहीं है, यह सवाल करने वाले का है। पूछना चाहिए कि किस भांति कृत्य तो हो जाए और करने वाला मजबूत न हो? तो पुण्य हो जाता है। और कृत्य न भी किया जाए और करने वाला मजबूत हो जाए, तो पाप हो जाता है। जरूरी नहीं है करना।
एक आदमी चोरी नहीं कर रहा है, लेकिन सिर्फ सोच रहा है। एक आदमी हत्या नहीं कर रहा है, सिर्फ सोच रहा है। एक आदमी चुनाव नहीं लड़ रहा है, सिर्फ सोच रहा है। और सोचने में ही अहंकार की सीढ़ियां चढ़ता जा रहा है। सब्स्टीटयूट हैं, सभी लोग असली सीढ़ियां नहीं चढ़ पाते। असली सीढ़ियां चढ़ने का अपना कष्ट, अपनी पीड़ा, अपनी मुसीबत है। लेकिन सभी लोग सपने तो देख ही सकते हैं। सभी लोग सम्राट नहीं हो पाते, लेकिन सभी लोग सपनों में तो सम्राट हो ही सकते हैं। तो सपने से हम अपने मन को समझा-बुझा लेते हैं।
लेकिन सपने में भी कभी आपने खयाल किया, आराम-कुर्सी पर बैठ कर अगर सोच रहे हों कि चुनाव जीत गए हैं--न लड़े हैं, न जीते हैं, सिर्फ सोच रहे हों कि जीत गए हैं--तो आपने कभी खयाल किया कि भीतर अहंकार चार सीढ़ियां ऊपर चढ़ जाता है। उसे देर नहीं लगती। वह ठीक थर्मामीटर के पारे की तरह आपकी जांच-परख रखता है; कि जहां भी आपने कृत्य में मजा लिया, वहीं तत्काल पारा ऊपर चढ़ जाता है। नहीं किया हो कृत्य, तो भी। ठीक इससे उलटी घटना भी घटती है। किया हो कृत्य, तो भी अगर अस्मिता निर्मित न हो, अहंकार निर्मित न हो, तो पारा नीचे गिरता जाता है।
"ताओ सब कुछ करता है, फिर भी उसे ऐसा करने का दंभ नहीं; सभी वस्तुओं का सर्वेसर्वा है, फिर भी उन्हें नियंत्रित नहीं करता।'
यह सूत्र बहुत बारीक है।
"सभी वस्तुओं का सर्वेसर्वा है, फिर भी उन्हें नियंत्रित नहीं करता।'
लोग पूछते रहे हैं सदियों से कि यदि परमात्मा है और यदि उसके किए ही सब कुछ होता है, तो एक चोर को चोरी क्यों करने देता है? और एक हत्यारे को हत्या क्यों करने देता है? और एक बेईमान को बेईमानी क्यों करने देता है? और जब किसी निर्बल को कोई सताता है, तो वह खड़ा देखता क्यों रहता है?
यह सवाल संगत है और पूछने जैसा है। और विचारशील मनुष्यों ने पूछा है बार-बार। सच तो यह है कि विचारशील मनुष्यों को परमात्मा के होने पर जो सबसे बड़ा संदेह है, वह यही सवाल है।
बर्ट्रेंड रसेल पूछता है कि एक बच्चा पैदा होते से ही अंधा पैदा हो रहा है, लूला पैदा हो रहा है, लंगड़ा पैदा हो रहा है, कैंसर-सहित पैदा हो रहा है; अगर तुम्हारा परमात्मा है, तो यह कैसे हो रहा है? और तुम कहते हो सभी वही करता है, सर्वेसर्वा है। बर्ट्रेंड रसेल कहता है कि यह सब देख कर शक होता है कि कोई परमात्मा नहीं है। जो हो रहा है, यह देख कर शक होता है कि कोई परमात्मा नहीं है। जीवन जैसा नर्क बना हुआ है, यह देख कर शक होता है कि यहां कोई परमात्मा नहीं हो सकता। और अगर कोई परमात्मा है, तो उसको परमात्मा कहना व्यर्थ है; उसको शैतान कहना बेहतर होगा, क्योंकि जो हो रहा है उसे देख कर।
यह संगत प्रश्न है कि अगर परमात्मा सभी कुछ कर रहा है, तो इस जगत में बुराई क्यों है? ईविल क्यों है?
एक मुसलमान मित्र मुझे मिलने आए थे। उन्होंने कहा कि मुझे सबसे बड़ा सवाल यही है कि संसार में बुराई क्यों है? बुराई होनी ही नहीं चाहिए, अगर परमात्मा है।
तो वे ठीक कह रहे हैं। क्योंकि इन दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं दिखाई पड़ता। इतनी बुराई का इस परमात्मा से कैसे संबंध जोड़ें? मैंने उनसे कहा, एक क्षण को दूसरी तस्वीर पैदा करिए। आप कब मानेंगे कि परमात्मा है? उन्होंने कहा, जब संसार में कोई बुराई न हो। मैंने उनसे कहा कि सारी बुराई संसार से हटा देते हैं; कैसा संसार होगा, आप थोड़ा सोच कर मुझे बताएं। क्योंकि जिस क्षण बुराई हटेगी, उसी क्षण भलाई भी हट जाएगी। भलाई अकेली नहीं जी सकती। भलाई जीती ही इसलिए है कि बुराई है। जिस दिन अंधेरा बिलकुल हट जाएगा, तो प्रकाश नहीं जी सकता। प्रकाश जीता ही इसलिए है कि अंधेरा है।
ऐसा समझें कि जिस दिन हम सारी ठंडक हटा लें जगत से, तो क्या गरमी जी सकेगी? गरमी और ठंडक एक ही चीज की मात्राएं हैं। ऐसा समझ लें कि हम जीवन हटा लें जगत से, मृत्यु हटा लें जगत से, तो क्या दूसरा बच सकेगा? मृत्यु को हटाएंगे, तो जीवन खो जाएगा। जीवन को हटाएंगे, तो मृत्यु खो जाएगी। क्योंकि अगर जगत में जीवन न हो, तो मृत्यु कैसे होगी? या मृत्यु न हो जगत में, तो जीवन कैसे होगा?
जगत जीता है विपरीत, दि पोलर अपोजिट, वह जो ध्रुवीय विपरीत है, उसके सहारे जीता है। जगत के, अस्तित्व के होने का जो ढंग है, वह विपरीत के बीच संगीत है। अगर विपरीत को हटा लें, तो दोनों समाप्त हो जाते हैं। पुरुष को हटा लें जगत से, स्त्री खो जाएगी। स्त्री को हटा लें, पुरुष खो जाएगा। बुढ़ापे को हटा लें, जवानी खो जाएगी। हालांकि जवान का मन होता है कि कुछ ऐसा हो जाए कि बुढ़ापा न हो। उसे पता नहीं कि जवानी और बुढ़ापा इतने संयुक्त हैं कि एक हटा तो दूसरा खो जाएगा। हमारा मन होता है कि जगत में कोई चीज असुंदर न रह जाए। पर हमें पता नहीं कि असुंदर खोया कि सुंदर खो जाता है। ऐसे जगत की कल्पना करें, जहां असुंदर बिलकुल न हो, तो ध्यान रखना, उससे ज्यादा असुंदर जगत नहीं होगा। क्योंकि वहां सुंदर कुछ नहीं होगा। दोनों खो जाएंगे।
तो मैंने उन मित्र से पूछा कि समझ लें बुराई की सख्त मनाही है, कोई बुराई कर ही नहीं सकता। उस दुनिया से भलाई तिरोहित हो जाएगी। और उस दुनिया की शक्ल एक बड़े कारागृह की शक्ल होगी। क्योंकि जहां बुराई करने की स्वतंत्रता न हो, वहां कोई भी स्वतंत्रता नहीं हो सकती।
असल में, स्वतंत्रता में बुराई करने की स्वतंत्रता भी छिपी है। अगर मैं किसी आदमी से कहूं कि तुम्हें सिर्फ अच्छे होने की स्वतंत्रता है, तो इस स्वतंत्रता का कोई अर्थ होगा? किसी आदमी से कहूं कि तुम्हें सिर्फ अच्छे होने की स्वतंत्रता है, तो स्वतंत्रता कहना फिजूल है; कहना चाहिए, तुम्हें अच्छे होने की परतंत्रता है। तब कहना चाहिए, यू आर कंडेम्ड टु बी गुड; नॉट टु बी फ्री टु बी गुड। क्योंकि जब हम कहते हैं कि आप स्वतंत्र हैं अच्छा करने को, तो दूसरी स्वतंत्रता भी भीतर प्रवेश कर जाती है--बुरा करने की।
परमात्मा सर्वेसर्वा है, फिर भी नियंत्रण नहीं करता। इसका मतलब है कि परमात्मा निर्मित करता है, लेकिन स्वतंत्रता निर्मित करता है। परमात्मा बनाता है, लेकिन स्वतंत्रता बनाता है, परतंत्रता नहीं। इसलिए दुनिया में आदमी बुरे से बुरा होने को स्वतंत्र है--परमात्मा के होते हुए। क्योंकि इस बुरे होने की स्वतंत्रता में ही स्वतंत्रता छिपी है। और अगर स्वतंत्रता नहीं है, तो आदमी आदमी नहीं होगा, मशीन होगा। मशीन बुरा करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। हम उससे जो करवाना चाहें, करवा ले सकते हैं। इसीलिए वह मशीन है। आदमी, चैतन्य, चेतना स्वतंत्रता के बिना असंभव है।
लाओत्से कहता है कि बनाने वाला वही है, लेकिन नियंत्रण नहीं करता है। ही इज़ दि क्रिएटर, बट नॉट दि कंट्रोलर। स्रष्टा है, लेकिन जेलर नहीं है। हमारा कारागृह बना कर द्वार पर संतरी की तरह खड़ा हुआ नहीं है।
बर्ट्रेंड रसेल जैसे लोग कहते हैं कि इसी से शक होता है कि परमात्मा नहीं है; और मैं आपसे कहता हूं कि इसी से प्रमाणित होता है कि परमात्मा है। क्योंकि जिस जगत में स्वतंत्रता न हो, उस जगत में परमात्मा नहीं हो सकता। स्वतंत्रता ही परमात्मा के होने का आधारभूत प्रमाण है। वह है, क्योंकि हम इतने स्वतंत्र हैं। वह है...।
इसे हम ऐसा समझें कि सागर है और मछलियां सागर में घूमती हैं। उन्हें पता भी नहीं चलता कि सागर है। लेकिन उस सागर में होने के कारण ही वे हैं। और सागर में जो भी गति हो रही है, जो भी स्वतंत्रता है उन्हें घूमने की, वह भी सागर के कारण है। सागर सूख जाए, और मछलियां शून्य हो जाएंगी, मृत हो जाएंगी। उनकी सारी स्वतंत्रता खो जाएगी। सागर ही उनके लिए जगह है स्वतंत्रता की।
परमात्मा स्वतंत्रता है। इसलिए जिन्होंने गहनतम खोज की, महावीर या बुद्ध ने, तो उन्होंने परमात्मा को मोक्ष ही नाम दिया। महावीर ने तो परमात्मा नाम का उपयोग नहीं किया, ईश्वर नाम का उपयोग नहीं किया, क्योंकि वे कहते थे कि मोक्ष पर्याप्त है। मोक्ष का मतलब होता है, दि फ्रीडम। जगत परिपूर्ण स्वतंत्रता में जी रहा है। और अगर हम गलत कर रहे हैं, तो वह स्वतंत्रता का गलत उपयोग है। और हम चाहें, तो सही कर सकते हैं। लेकिन स्वतंत्रता हमारी नियति है। इसलिए हम पाप की आखिरी सीढ़ी तक उतर सकते हैं और पुण्य के आखिरी शिखर तक चढ़ सकते हैं। नर्क तक जा सकते हैं; स्वर्ग तक जा सकते हैं। अंधेरे के आखिरी गर्त में गिर सकते हैं और प्रकाश के पूर्ण उज्ज्वल लोक में प्रवेश कर सकते हैं। ये दोनों बातें संभव हैं, क्योंकि हमारी आत्मा का आत्यंतिक स्वभाव स्वतंत्रता है।
सार्त्र ने ठीक कहा है, यू कैन नॉट चूज टु बी फ्री, यू आर फ्रीडम! स्वतंत्र होना आप चुन नहीं सकते, आप स्वतंत्र हैं, आप स्वतंत्रता हैं।
लेकिन स्वतंत्रता का मतलब ही यह होता है कि अगर मैं कारागृह पसंद करूं, तो चुन सकूं। अगर इतनी भी तय हो बात कि मुझे कह दिया जाए कि तुम सब कर सकते हो, सिर्फ जेलखाने में नहीं जा सकते हो, तो भी मैं परतंत्र हो गया। तब यह बड़ी दुनिया मेरे लिए एक परतंत्रता हो जाएगी। स्वतंत्रता का अर्थ ही होता है पूर्ण स्वतंत्रता, दोनों तरफ जाने की पूरी सुविधा।
तो परमात्मा नियंता नहीं है, निर्माता है। इससे हमें थोड़ी कठिनाई होती है। क्योंकि हमारा मन यह करता है कि वह नियंता भी हो तो अच्छा। तो हमारे ऊपर जो जिम्मेवारी है, जो उत्तरदायित्व है, जो रिस्पांसबिलिटी है, वह भी न हो। हम सब मशीन होना चाहते हैं। हम सब गुलामी खोजते हैं, क्योंकि स्वतंत्रता का उपयोग करना नहीं जानते। और हमें स्वतंत्रता मिले, तो हम अपना आत्मघात ही कर लेते हैं। हमें स्वतंत्रता जब भी मिलती है, तो हम नर्क की यात्रा कर जाते हैं। तो हम कहते हैं, इससे तो बेहतर था हाथ में जंजीरें होतीं, लेकिन स्वर्ग पहुंच जाते; बेहतर होता कि सब तरफ कारागृह होता, लेकिन स्वर्ग पहुंच जाते। क्योंकि हम स्वतंत्रता में सदा नीचे ही चले जाते हैं। इसलिए हम हमेशा गुलामी खोजते हैं, नए-नए ढंग से खोजते हैं। हमारे गुलामी खोजने के ढंग बहुत अदभुत हैं।
एरिक फ्राम ने एक बहुत अदभुत किताब लिखी है: एस्केप फ्राम फ्रीडम; स्वतंत्रता से पलायन। फ्राम का कहना है, हर आदमी स्वतंत्रता से पलायन कर रहा है। जहां भी स्वतंत्रता दिखती है, भाग कर जल्दी किसी गुलामी में अपने को छिपा लेता है।
दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि हमारी गुलामी की आदतें इतनी पुरानी हैं कि हमें खयाल भी नहीं आता कि यह गुलामी है। हमें खयाल भी नहीं आता कि यह गुलामी है। अगर किसी को सत्य खोजना है, तो वह सत्य खोजने नहीं जाता, तत्काल शास्त्र को खोलता है। उसे पता नहीं कि यह गुलामी है। वह सत्य भी उधार ही चाहता है, कोई उसे दे दे। अगर किसी को सत्य खोजना है, तो वह अपने पैरों पर दो कदम नहीं चलता। वह जल्दी किसी गुरु के चरण पकड़ लेता है और कहता है कि बस, आप ही सब कुछ हो, आप ही मुझे दे दो। मुझ पापी से क्या होगा? हालांकि सब पाप उससे हो रहे हैं। क्योंकि पापी होने के लिए काफी करने की जरूरत पड़ती है। वह कहता है, मुझ पापी से क्या होगा? इतने पाप उससे हो सके हैं कि वह कहता है मैं पापी हूं। लेकिन वह कहता है, मुझ पापी से क्या होगा? वह असल में यह कह रहा है कि किसी तरह मेरी स्वतंत्रता से मुझे बचाओ, सेव मी फ्राम माई फ्रीडम। तुम मेरे जेलर बन जाओ। तो कल अगर मैं नर्क में भी पडूं, तो मैं कह सकूं कि तुम थे मेरे गुरु। और कल मुझे अगर स्वर्ग भी मिल जाए, तो मैं कह सकूं, आखिर मैंने ही तो तुम्हें गुरु चुना था। मैंने ही समर्पण किया था तुम्हारे चरणों में, सब कुछ छोड़ दिया था। तो गुरु पकड़ेगा, शास्त्र पकड़ेगा, नेता को पकड़ेगा।
हिटलर या स्टैलिन या मुसोलिनी या माओ ऐसे ही पैदा नहीं हो जाते, पूरा मुल्क गुलाम होना चाहता है। पूरा मुल्क चाहता है कि कोई जोर से कह दे कि मुझे पता है ठीक क्या है, और हम उसके चरणों में पड़ जाएं। यह झंझट हम पर मत डालो कि ठीक क्या है। साफ-साफ हमें बता दो कि यह करो और यह मत करो।
इसलिए हम नीतिशास्त्रियों के पीछे पड़ते हैं, साधु-महात्माओं के हाथ-पैर जोड़ते हैं कि बताओ ठीक क्या है, गलत क्या है। जिनसे हम पूछ रहे हैं, उन्होंने किसी और से पूछा है। उन्हें भी कुछ पता नहीं है कि ठीक क्या है, गलत क्या है। लेकिन जब हमें पूछते लोग देखते हैं, तो बताने वाले लोग भी मिल जाते हैं। वे हमें बता देंगे कि यह ठीक है और यह गलत है। कोई हमसे बोझ ले ले; स्वतंत्रता बड़ी बोझिल मालूम पड़ती है। होना तो चाहिए उलटा कि स्वतंत्रता पंख बन जाए आकाश में उड़ने के लिए, लेकिन स्वतंत्रता मालूम पड़ती है जंजीरों से भी ज्यादा बोझिल। क्योंकि कुछ सूझता नहीं, क्या करें?
झेन फकीर हुआ है नान-इन। वह अपने गुरु के पास था। एक दिन रात देर हो गई। अंधेरी रात है, वह वापस लौटने को है। उसने गुरु से कहा कि रास्ता बहुत अंधेरा है। तो गुरु ने कहा कि मैं तुम्हें दीया दिए देता हूं। और गुरु ने दीया जलाया और नान-इन के हाथ में दीया रखा। और जैसे ही नान-इन पहली सीढ़ी पर पैर रख कर नीचे उतरने लगा, गुरु ने दीया फूंक कर बुझा दिया। नान-इन ने कहा, ऐसी कैसी मजाक करते हैं, रास्ता बहुत अंधेरा है। गुरु ने कहा, लेकिन दूसरे के दीए के सहारे जो प्रकाश मिलता है, उससे अपना ही अंधेरा बेहतर है। खोजो रास्ता अंधेरे में। अंधेरे में रास्ता खोजने से तुम्हारे भीतर का दीया जलेगा। रास्ता खोजोगे, खोजने से निखार आता है। टकराओगे, गिरोगे, हाथ-पैर टूटेंगे, कोई फिक्र नहीं; लेकिन आत्मा निर्मित होगी। मेरे दीए के सहारे हाथ-पैर तो बच जाएंगे, लेकिन आत्मा खो जाएगी। इसलिए बुझा देता हूं।
नान-इन ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैं उस आदमी को अब तक नहीं भूल पाया। यद्यपि उसने मेरे हाथ का दीया छीन लिया था और जला हुआ दीया बुझा दिया था; लेकिन वह वही आदमी था जिसने मुझे अंधेरे में धक्का दिया और मेरे भीतर के दीए को जलने की सुविधा बनाई। तो आज जब मेरे भीतर का दीया जल रहा है, तो मैं उसे ही धन्यवाद देता हूं।
स्वतंत्रता! परमात्मा भी आपके हाथ में दीया दे सकता है। और तब आप दीए के सहारे कीड़े-मकोड़ों की तरह जी सकते हैं। कभी न गिरेंगे, कभी न भटकेंगे, नर्क कभी न आएगा, सीधे स्वर्ग में पहुंच जाएंगे। लेकिन जो स्वर्ग दूसरे के सहारे मिलता है, वह नर्क से भी बदतर है। क्योंकि वह स्वर्ग भी परतंत्रता होगी। जो शुभ अपना ही नहीं है, स्वयं का खोजा और जीया हुआ नहीं है, उस शुभ का होना अशुभ से भी अशुभ है।
इसलिए लाओत्से कहता है कि ताओ निर्मित करता है सब, लेकिन नियंत्रण नहीं करता। इशारा नहीं करता कि ऐसे चलो। चलने की शक्ति देता है, चलने के आयाम देता है, लेकिन कहता नहीं कि ऐसे चलो। चलने की शक्ति उसकी, चलने का आकाश उसका, चलने के मार्ग उसके, अंधेरा उसका, प्रकाश उसका, चलने वाला उसका, लेकिन फिर भी इशारा नहीं करता कि बाएं चलो कि दाएं चलो। जीवन देता है, लेकिन मुक्ति जीवन का आधार बना देता है। चाहें तो यही हमारे जीवन का कष्ट हो जाएगा और चाहें तो यही हमारे जीवन का सौभाग्य हो सकता है। इस स्वतंत्रता से हम चाहें तो बड़ा सृजन हो जाए; और हमारे भीतर छिपा जो परम है, वह प्रकट हो जाए। और चाहें तो इस स्वतंत्रता को हम अपना ही अंधेरा बना लें, अपना ही नर्क; और इसमें खो जाएं और विनष्ट हो जाएं।
लेकिन एक बात तय है कि जगत में परम स्वतंत्रता है। और यह परम स्वतंत्रता परमात्मा के अस्तित्व की अघोषित घोषणा है। यह मौन वक्तव्य है उसका कि मैं हूं। लेकिन हम सबको यह स्वतंत्रता का खयाल ही नहीं है। हम डरते हैं, जैसा मैंने कहा, क्योंकि स्वतंत्रता का अर्थ होता है दायित्व, स्वतंत्रता का अर्थ होता है रिस्पांसबिलिटी। स्वतंत्रता का अर्थ होता है कि सभी कृत्यों के लिए अंततः मैं ही जिम्मेवार हो गया। नर्क जाऊंगा, तो किसी को दोष न दे सकूंगा। मैं ही जिम्मेवार हूं। इस जिम्मेवारी से घबड़ाहट होती है। हम सब जिम्मेवारी टालते हैं एक-दूसरे पर। और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि एक-दूसरे की जिम्मेवारी हम एक-दूसरे पर रख देते हैं। पत्नी पति पर रख देती है, पति पत्नी पर रख देता है। दोनों निश्चिंत हो जाते हैं कि कोई और जिम्मेवार है। उन्हें पता नहीं कि वे कैसा खेल खेल रहे हैं।
एरिक बर्न ने एक किताब लिखी है: गेम्स दैट पीपुल प्ले। उसमें सारे खेलों की चर्चा है, जो आदमी खेल रहा है। यह भी एक खेल है कि हम एक-दूसरे पर जिम्मेवारी टाल देते हैं। और जिस पर हम जिम्मेवारी रख रहे हैं, वह भी हम पर जिम्मेवारी रख देता है।
अब मजे की बात यह है कि जो अपनी जिम्मेवारी भी नहीं ढो सका, वह दूसरे की कैसे ढो पाएगा? लेकिन उसे पता ही नहीं है कि आपने जिम्मेवारी उस पर रखी है; आपको पता नहीं है कि उसने आप पर रखी है। इसलिए दोनों जीवन भर एक-दूसरे को दोष देते रहेंगे, बिना यह जाने हुए कि आप दोनों एक से भिखारी हैं और एक-दूसरे के सामने भिक्षा-पात्र फैलाए खड़े हैं। दोनों एक-दूसरे से मांग रहे हैं; देने वाला उनमें कोई भी नहीं है।
स्वतंत्रता से भय होता है। इसलिए हम किसी तरह की गुलामी चाहते हैं। हमारा जो तथाकथित परमात्मा है--लाओत्से का नहीं--हमारा जो तथाकथित परमात्मा है, वह भी गुलामी है। वह भी हमारी गुलामी है। वह भी हम उस पर ही छोड़ देते हैं रात कि अब तू ही सम्हाल। उस पर हम छोड़ना चाहते हैं कि तू ही सम्हाल।
इसलिए बड़े मजे की बात है, जब आदमी सुख में होता है, तो परमात्मा का स्मरण नहीं करता; जब दुख में होता है, तभी करता है। क्योंकि दुख में ही जिम्मेवारी दूसरे पर टालने का सवाल उठता है, सुख में तो हम खुद ही ले सकते हैं। जब सुख आता है, तो हम खुद ही जिम्मेवार होते हैं; हमारे कारण ही आता है। और जब दुख आता है, तब दूसरे के कारण आता है। तब हम परमात्मा की तरफ अंगुली उठाना चाहते हैं कि तेरे रहते और हम ऐसा दुख पा रहे हैं! तेरा रहना ही फिजूल है! तेरा होना बेकार है! तू अगर है, तो सबूत दे कि हमारे दुख को मिटा दे।
एक आदमी मेरे पास आया था, वह कह रहा था कि मुझे परमात्मा पर पक्का भरोसा आ गया; क्योंकि मैंने कहा कि पंद्रह दिन के भीतर अगर मेरे लड़के की नौकरी नहीं लगती है, तो फिर कभी तुझ पर भरोसा नहीं कर सकूंगा; और नौकरी लग गई। मैंने कहा, परमात्मा ने तुमसे बड़ा कच्चा सौदा किया है, किसी भी दिन टूटेगा। मैंने कहा, अब दुबारा ऐसी शर्त कभी मत रखना, नहीं तो बड़ी मुश्किल में पड़ोगे। उसने कहा, क्या कहते हैं आप! अब तो मुझे पक्का भरोसा आ गया कि परमात्मा है। मैंने कहा, यही भरोसा तुझे दिक्कत में और तेरे परमात्मा को भी दिक्कत में डालेगा। क्योंकि यह सिर्फ संयोग की बात है कि तेरे लड़के की नौकरी लग गई। इस अहंकार में मत पड़ कि तेरे लड़के की नौकरी लगाने के लिए परमात्मा को उत्सुकता लेनी पड़ेगी। इस अहंकार में मत पड़। नहीं तो तू ज्यादा महत्वपूर्ण, तेरा लड़का ज्यादा महत्वपूर्ण, तेरे लड़के की नौकरी ज्यादा महत्वपूर्ण। परमात्मा तो एक सेवक की हैसियत का हो जाता है। और अब दुबारा ऐसी सेवा मत लेना, क्योंकि संयोग सदा नहीं लगेगा।
दो महीने बाद वह आदमी आया और कहने लगा, आपने कैसा वचन बोल दिया, सब गड़बड़ हो गया है। मैंने कहा, मैंने कोई वचन नहीं बोला। उसने कहा कि क्या! कैसी आपने बात कह दी! उस दिन से तीन-चार दफे कोशिश कर चुका, हर बार असफलता हाथ लग रही है। परमात्मा ने मुझसे पीठ मोड़ ली है।
न परमात्मा पीठ मोड़ रहा है, न आपकी तरफ चेहरा किए हुए खड़ा है। न उसकी कोई पीठ है, न उसका कोई चेहरा है। न आपकी आवाज, न आपके निवेदन, न आपकी प्रार्थनाएं, न आपके आग्रहों का कोई अर्थ है। आपका मूल्य है। लेकिन आपका मूल्य उसी अर्थ में है, जिस अर्थ में आप अपनी स्वतंत्रता का उपयोग कर पाते हैं सृजनात्मक। हाऊ टु यूज दि फ्रीडम क्रिएटिवली, बस वही आपका मूल्य है।
साधना का यही अर्थ होता है: स्वतंत्रता का सृजनात्मक उपयोग। साधना का यही अर्थ होता है: स्वतंत्रता का सृजनात्मक उपयोग। संसारी आदमी का अर्थ होता है: स्वतंत्रता का विध्वंसात्मक उपयोग। अपनी ही हत्या किए चला जाता है। अपनी ही स्वतंत्रता को अपने ही प्राणों के लिए बाधा बनाए चला जाता है। आखिर में खुद की स्वतंत्रता खुद की सूली बन जाती है।
तो दुख में हम याद करते हैं, क्योंकि दुख में हम जिम्मेवारी डालना चाहते हैं। सुख में हम बिलकुल याद नहीं करते। इसलिए रसेल ने लिखा है कि मैं उस दिन की प्रतीक्षा करूंगा कि परमात्मा सच में है या नहीं और उस दिन की प्रतीक्षा करूंगा कि दुनिया में कोई आस्तिक है या नहीं, जिस दिन दुनिया में कोई दुख न होगा, उस दिन पता चलेगा।
रसेल ठीक कह रहा है। जहां तक हमारी आस्तिकता का संबंध है, हमारी आस्तिकता वर्षा में कच्चे रंगों की तरह बह जाएगी। अगर दुनिया में कोई दुख न हो--थोड?ा सोचें एक क्षण को--दुनिया में कोई दुख न हो, क्या कोई भी आदमी परमात्मा को याद करेगा? क्या मंदिर की घंटियां बजेंगी और चर्च के दीए जलेंगे? क्या नमाज या अजान सुबह उठती हुई मस्जिद से सुनाई पड़ेगी?
दुख! ये सब मंदिर और मस्जिद, अजान और प्रार्थना और पूजा, ये सब यज्ञ-हवन, यह सब हमारा दुख बोल रहा है। और मजा यह है कि न मस्जिद मिटा सकती है दुख को, न मंदिर, न पूजा, न पाठ। दुख बनाते हम हैं, मिटा हम सकते हैं। दुख हमारी स्वतंत्रता का दुरुपयोग है।
लेकिन स्वतंत्रता से ही हम बचना चाहते हैं। सच में कभी सोचें इसको एक क्षण को, कोई दुख न हो, तो परमात्मा का खयाल भी कहां उठेगा? क्यों उठेगा? परमात्मा तो ठीक वैसे ही है, जैसे बीमारी में दवाई का खयाल उठता है। जब बीमारी ही नहीं है, तो कोई पागल है जिसको दवाई का खयाल उठे? परमात्मा एक दवाई है, एक मेडिसिनल उपयोग है उसका, औषधि की भांति। दुख होता है, परमात्मा की औषधि ले लेते हैं। दुख नहीं होता, औषधि की बोतल को कचरे में फेंक देते हैं। दुख में हम अपना दायित्व किसी के कंधे पर रखना चाहते हैं, सिर्फ इसलिए।
लेकिन परमात्मा के कंधे पर कोई दायित्व नहीं रखा जा सकता, क्योंकि परमात्मा आपको परतंत्र नहीं बनाता है। आप स्वतंत्र हैं। और परमात्मा से ज्यादा स्वतंत्रता का प्रेमी होना बहुत मुश्किल है। स्वतंत्रता इतनी गहन है, इसीलिए इतनी असमानता है।
समाजवादी, साम्यवादी भी परमात्मा के संबंध में जो आलोचना करता है, वह यही करता है कि यदि परमात्मा है तो इतनी असमानता क्यों है? व्हाई दिस इनइक्वालिटी? और उसका तर्क, जिन्होंने कभी सोचने-समझने में मेहनत नहीं की, उन्हें ठीक भी लगता है कि अगर परमात्मा है, तो इतना वैषम्य क्यों है? लोग समान होने चाहिए!
लेकिन ध्यान रहे, स्वतंत्रता और समानता विपरीत स्थितियां हैं। अगर समानता चाहते हैं, तो स्वतंत्रता नहीं रह सकती; अगर स्वतंत्रता चाहते हैं, तो समानता नहीं रह सकती। सभी को समान बनाया जा सकता है, लेकिन तब परतंत्र बनाना पड़ेगा। जेलखाने के अतिरिक्त कहीं भी समानता नहीं हो सकती। और जेलखाने में भी अगर थोड़ी-बहुत सुविधा होगी, तो असमानता पैदा हो जाएगी। सख्त! इतनी सख्ती होनी चाहिए कि असमान होने का जरा भी मौका न मिले किसी को, तो ही समानता हो सकती है। पूर्ण समानता पूर्ण परतंत्रता में ही संभव है। इसलिए अगर कम्युनिज्म कभी दुनिया में पूरी तरह सफल हो जाए, तो पूरी दुनिया एक बड़ा कारागृह हो जाएगी। और अगर पूरी तरह सफल न हो, तो कम्युनिज्म कभी हो नहीं सकता। कारागृह न हो, तो साम्यवाद नहीं हो सकता।
स्वतंत्रता का अर्थ ही है यह कि जो जैसा होना चाहे, होने के लिए स्वतंत्र है। फिर असमानता हो ही जाएगी। फिर असमानता अनिवार्य है। और अगर समानता रखनी हो, तो फिर ठोंक-पीट कर एक-एक आदमी को वहीं रखना पड़ेगा, जहां वह समान रहे।
एक और मजे की बात है। जितनी ज्यादा समानता होगी, उतना चेतना का तल नीचा हो जाएगा। जितनी ज्यादा समानता होगी, उतना चेतना का तल नीचा हो जाएगा।
इसमें खूबियां हैं। समझें एक तीस बच्चों का क्लास है। उसमें जो तीसवें नंबर का बच्चा है, उसको जबर्दस्ती पहले नंबर का नहीं बनाया जा सकता, लेकिन पहले नंबर वाले को जबर्दस्ती तीसवें नंबर का बनाया जा सकता है। तीसवें नंबर के लड़के को जबर्दस्ती पहले नंबर का नहीं बनाया जा सकता, लेकिन पहले नंबर के बच्चे को पहले नंबर तक पहुंचने से रोका जा सकता है और तीसवें की कतार में खड़ा रखा जा सकता है।
अगर वस्तुतः समानता चाहिए, तो निम्नतम तल पर होगी। क्योंकि निम्नतम को आप खींच कर श्रेष्ठ नहीं बना सकते, लेकिन श्रेष्ठ को आप रोक कर निम्न रख सकते हैं। यह आसान नहीं है कि अस्पताल में जो बीमार पड़े हैं, उन सबको स्वस्थ की, श्रेष्ठतम स्वस्थ की कतार में लाया जा सके। लेकिन यह बिलकुल आसान है कि जो स्वस्थ हैं, उनको अस्पताल की खाटों पर लिटाया जा सके। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। पीछे खींचना सदा आसान है, आगे ले जाना सदा कठिन है। इसलिए जितनी बड़ी समानता होगी, उतना नीचे का तल होगा; जितनी बड़ी स्वतंत्रता होगी, उतनी चेतनाएं आकाश को छू सकेंगी। लेकिन स्वतंत्रता का अर्थ ही यह होता है कि जो छूना चाहेगा, वह छुएगा; जो नहीं छूना चाहेगा, वह नहीं छुएगा। जो नहीं उठना चाहेगा, वह बैठा रहेगा अपनी जगह पर। जो चलना चाहेगा, वह दूर की यात्रा पर भी पहुंच जा सकता है।
तो जो लोग कहते हैं कि समानता क्यों नहीं है जगत में, अगर परमात्मा है? क्योंकि माक्र्स ने परमात्मा को इनकार इसीलिए किया कि जगत में इतनी असमानता क्यों है? परमात्मा नहीं हो सकता! और मैं कहता हूं कि परमात्मा के होने का यह भी एक सबूत है कि इतनी असमानता है, क्योंकि इतनी स्वतंत्रता है।
अक्सर लोग स्वतंत्रता-समानता का नारा एक साथ लगाते हैं। बल्कि एक तीसरा नारा और लगाते हैं, जो और भी हैरानी का है। फ्रेंच-क्रांति में जो नारा था, वह था: जस्टिस, फ्रीडम, इक्वालिटी। यह बिलकुल पागलपन का नारा है। न्याय, स्वतंत्रता, समानता। पर खयाल में नहीं आता, क्योंकि हम शब्दों के मोहजाल में पड़ जाते हैं, कभी उनके भीतर नहीं उतर कर देखते। अगर समानता होगी, तो स्वतंत्रता नहीं बचेगी। अगर स्वतंत्रता होगी, तो समानता नहीं बचेगी। और अगर न्याय चाहिए, तो दो में से एक को चुनना पड़ेगा। अगर न्याय चाहिए, तो दोनों को नहीं चुना जा सकता। और जो स्वतंत्रता को चुनेगा, तो न्याय दूसरे ढंग का होगा। और जो समानता को चुनेगा, तो न्याय दूसरे ढंग का होगा। अगर समानता को चुनते हैं, तो असमान होने की कोशिश ही अन्याय होगी। और अगर स्वतंत्रता को चुनते हैं, तो असमान होने की सुविधा ही न्याय होगी। अगर समानता को चुनते हैं, तो प्रत्येक व्यक्ति को बांध कर रखना ही न्याय होगा। अगर स्वतंत्रता को चुनते हैं, तो प्रत्येक व्यक्ति को असमान हो जाने की सुविधा, व्यवस्था, मार्ग देना ही न्याय होगा। कोई किसी के असमान होने में बाधा पड़े, तो अन्याय है। ये तीनों बड़ी उलटी बातें हैं। और स्वतंत्रता और समानता तो भारी सवाल है।
इसलिए माक्र्स ने ईश्वर को इनकार कर दिया। उसे ईश्वर से ऐसे कोई ज्यादा प्रयोजन नहीं था। क्योंकि ईश्वर से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन एक बात उसे समझ में आई और वह यह कि अगर ईश्वर है, तो स्वतंत्रता नष्ट नहीं की जा सकती। अगर ईश्वर है, तो यह जो असमानता है, यह जारी रहेगी। तो अगर हमें असमानता नष्ट करनी हो, स्वतंत्रता नष्ट करनी हो, तो स्वतंत्रता का जो केंद्रीय सिद्धांत है ईश्वर, उसे हमें विदा कर देना चाहिए।
इसलिए कम्युनिज्म अकारण अनीश्वरवादी नहीं है। उसका कारण है, और गहरा कारण है। इसलिए कोई आदमी कम्युनिस्ट और आस्तिक साथ-साथ हो, तो असंभव है। यह नहीं हो सकता। कम्युनिस्ट और आस्तिक साथ-साथ हो, तो असंभव है। यह नहीं हो सकता। नास्तिक होना अनिवार्य है। क्योंकि परमात्मा का अर्थ ही यह होता है कि नियंत्रण नहीं। यह जो लाओत्से कह रहा है, यह तो माक्र्स से ढाई हजार साल पहले कहा है। नियंत्रण नहीं, तो ही स्वतंत्रता हो सकती है। और स्वतंत्रता हो, तो ही विकास की संभावना है।
लेकिन तब दायित्व हमारे ऊपर है। और दायित्व से अगर हम बचना चाहते हैं, तो हम कोई न कोई गुलामी तत्काल चुन लेंगे। अगर परमात्मा न मिले हमें गुलाम बनाने को, गुरु न मिलें, तो हम राज्य को, स्टेट को मालिक बना लेंगे। अंतर नहीं पड़ेगा। कोई चाहिए जो हमारे गले में लगाम डाल दे और हमें जानवरों की तरह चलाए। हम खुद नहीं चल सकते; कोई हमें घसीटे, कोई हमें धक्का दे। तब हम ज्यादा आश्वस्त होते हैं। तब हमें लगता है कि अब ठीक जा रहे हैं। अब भूल का कोई कारण नहीं है।
लेकिन ध्यान रहे, यही बड़ी से बड़ी भूल है। दूसरी और कोई भूल हो नहीं सकती। बड़ी से बड़ी भूल एक है; और वह अपनी स्वतंत्रता को खोकर हम कुछ भी करें, तो भूल हो जाएगी, पाप हो जाएगा, अपराध हो जाएगा।
लाओत्से कहता है, "इसे ही ताओ की रहस्यमयी विशेषता कहते हैं। दिस इज़ दि मोस्ट मिस्टीरियस क्वालिटी ऑफ दि ताओ।'
यही उसकी सबसे रहस्यपूर्ण विशेषता है। है भी, होना उसका है, और फिर वह किसी की परतंत्रता नहीं है। इसे थोड़ा सोचें। अगर परमात्मा यहां खड़ा हो जाए अभी, इसी वक्त, तो आप स्वतंत्र नहीं रह जाएंगे। कुछ करे नहीं, सिर्फ खड़ा हो जाए, सिर्फ परमात्मा यहां मौजूद हो जाए, तो आप सब परतंत्र हो जाएंगे तत्काल। क्यों? क्योंकि उसकी मौजूदगी आपके लिए आत्म-निंदा बन जाएगी। उसकी मौजूदगी में आप घबड़ा जाएंगे, आपके सारे पाप आपके सामने दिखाई पड़ने लगेंगे।
इसलिए धार्मिक आदमी लोगों को समझाते रहे हैं कि वह सब तरफ से देख रहा है, उसकी हजार-हजार आंखें हैं। यह तरकीब है। उसकी आंख बिलकुल नहीं है। इसका यह मतलब नहीं कि वह अंधा है। वह बिना आंख के देख सकता है। लेकिन धार्मिक आदमी समझाता रहा है, वह सब तरफ से देख रहा है। अगर तुम चोरी कर रहे हो, तो ध्यान रखना, भला पुलिस वाला वहां न हो, मजिस्ट्रेट वहां न हो, मकान-मालिक वहां न हो, लेकिन परमात्मा वहां मौजूद है। उसकी मौजूदगी आपमें भय पैदा करवाने के लिए समझाई जाती रही है। इसलिए कहीं भी जाओ, कुछ भी करो, एक तो देख ही रहा है। हजार आंखें आप पर लगी हैं।
तो अगर सच में किसी आदमी को इस पर पक्का भरोसा आ जाए, तो पाप करना मुश्किल हो जाएगा; क्योंकि अगर हजार आंखें, सर्चलाइट की आंखें, परमात्मा की आंखें, एकदम छेद देंगी सब तरफ, एक्सरे की आंखें होंगी, हड्डी-हड्डी तक पार कर जाएंगी। चोरी करिएगा कैसे? एक पैसा उठा रहे हैं और हजार आंखें देख रही हैं! पसीना-पसीना हो जाएगी--शरीर नहीं, आत्मा। आत्मा पसीना-पसीना हो जाएगी। हाथ से पैसा छूट जाएगा, आप भाग खड़े होंगे।
लेकिन इस तरह जो पाप से बचा, वह पाप से बचा नहीं, सिर्फ भय में गिरा। पाप तो हो गया, दोहरा हो गया--चोरी भी हो गई और भय भी हो गया।
मैंने सुना है कि एक कैथोलिक नन बाथरूम में भी पकड़े पहन कर नहाती थी। तो उसकी और साध्वियों ने पूछा, नन्स ने, कि तू पागल हो गई है! बाथरूम में कपड़े पहन कर नहाने की क्या जरूरत है? उसने कहा, क्या तुमने पढ़ा नहीं कि परमात्मा सब जगह मौजूद है। बाथरूम में भी मौजूद है।
पर उस पागल को किसी ने बताया नहीं कि जो बाथरूम में देख सकता है, वह कपड़े के भीतर भी देख ही लेगा। अगर वह सभी जगह मौजूद है, तब तो कहीं भी नग्न होने की सुविधा है, क्योंकि वह देख ही रहा है। अब कोई उपाय नहीं।
लेकिन यह भय, फियर कांप्लेक्स को खड़ा करने की चेष्टा की गई, इसके दुष्परिणाम हुए। आदमी अच्छा नहीं बना, सिर्फ भयभीत बना। और भयभीत आदमी कभी अच्छा नहीं हो सकता। सिर्फ अभय आदमी ही अच्छा हो सकता है। लेकिन ये धर्मगुरुओं ने परमात्मा को मौजूद करने की कोशिश की, जगह-जगह मौजूद करने की कोशिश की। यद्यपि परमात्मा स्वयं बिलकुल गैर-मौजूद है, एब्सेंट है टोटली, बिलकुल गैर-मौजूद है। वह भी उसकी स्वतंत्रता का हिस्सा है। अगर वह मौजूद हो जाए, तो हम स्वतंत्र हो ही नहीं सकते, हम हो ही नहीं सकते। उसके खड़े होते ही हम परतंत्र हो जाएंगे। क्योंकि उसकी मौजूदगी ही हमारे भीतर अंतःकरण के लिए पीड़ा बन जाएगी। उसके सामने कैसे होगी चोरी? उसके सामने कैसे होगा पाप? उसके सामने कैसे होगी हिंसा? वह असंभव हो जाएगा।
इसलिए परमात्मा की अनिवार्य स्वतंत्रता का हिस्सा है उसकी गैर-मौजूदगी, उसकी एब्सेंस। वह ऐसे है, जैसे है ही नहीं। क्लास लगी है और शिक्षक गैर-मौजूद है। तो जिसको जो सूझ रहा है, जिसको जो लग रहा है, वह कर रहा है। स्वतंत्र है प्रत्येक करने को। यह उसकी गहनतम रहस्यमयी विशेषता है कि वह है और गैर-मौजूद है। है और उपस्थित नहीं है। सब जगह है। रत्ती भर जगह उससे खाली नहीं है, इंच भर जगह उससे खाली नहीं है; रोएं-रोएं में, धड़कन-धड़कन में, कण-कण में वही है; और फिर भी गैर-मौजूद है, और फिर भी पता नहीं चलता कि वह है भी। और लोग पूछते हैं कि क्या ईश्वर है? कहां है?
यही उसकी रहस्यमयी विशेषता है: है और हम पूछ सकते हैं कि कहां है? सब जगह है और हम पूछ सकते हैं, कहां है? वही है और हम पूछ सकते हैं कि दिखाई नहीं पड़ता, हम नहीं मान सकते। क्योंकि कहीं होता, तो दिखाई तो पड़ जाता। किसको कब दिखाई पड़ा है? और जो कहता भी है कि मैं जानता हूं, वह भी कहां बता सकता है दूसरों को? हम कह सकते हैं, पागल हो गया, सपने देख रहा है, मस्तिष्क खराब हो गया है, कल्पना में डूब गया है, प्रक्षेप में पड़ गया है। क्योंकि हजार हैं कहने वाले कि दिखाई नहीं पड़ता और कभी कोई एक कहता है कि है। मालूम पड़ता है वह एक इतना अकेला पड़ जाता है। बहुत अकेला पड़ जाता है।
बुद्ध या महावीर या क्राइस्ट या मोहम्मद बहुत अकेले हैं। असल में, इनसे ज्यादा एकाकी आदमी जमीन पर दूसरे नहीं हुए। इतनी बड़ी भीड़ में ये रहते हैं, महावीर को हजारों लोग घेरे रहते हैं, लेकिन बिलकुल अकेले हैं। क्योंकि महावीर जिस बात को कह रहे हैं, इनमें से कोई भी नहीं जानता। और इनमें से कोई भी नहीं मानता। यह लाओत्से जो कह रहा है, इसके पास हजारों की भीड़ लगी रही है, बाकी यह आदमी अकेला है।
यह हैरानी की बात है कि लाखों की भीड़ से घिरे हुए ये लोग नितांत अकेले हैं। क्योंकि ये जो कह रहे हैं, हम सबको शक है कि हो नहीं सकता। दिखाई तो पड़ता नहीं है। पर ये आदमी प्यारे हैं, मैग्नेटिक हैं, इनके प्राणों में कोई चुंबक है कि इनकी बात पर भरोसा भी नहीं आता और फिर भी इनके पीछे हमें चलना पड़ता है। इनमें कुछ जादू है, हिप्नोटिक हैं, पकड़ लेते हैं, फिर छोड़ते नहीं हैं। मानने का मन नहीं होता, इनकार करने की इच्छा होती है। हजार बार भागते हैं, इनके खिलाफ सोचते हैं, इनसे बचने की कोशिश करते हैं। और फिर भी कुछ है कि वापस ये आदमी खींच लेते हैं। पर ये आदमी अकेले हैं! क्योंकि ये उसकी बात कर रहे हैं, जो इन्हें मौजूद मालूम पड़ता है और हमारे लिए बिलकुल गैर-मौजूद है। हमारे लिए बिलकुल गैर-मौजूद है।
रामकृष्ण विवेकानंद से कहते हैं कि सुना है मैंने तू कई दिन से भूखा है। पागल, तो तू जाकर अंदर मां से मांग क्यों नहीं लेता तुझे क्या चाहिए? विवेकानंद बुद्धिमान युवक, सोच-समझ वाला। ये किस तरह की बातें रामकृष्ण करते हैं कि भीतर जाकर मां से मांग क्यों नहीं लेता! कहां है मां? कौन है मां? लेकिन यह रामकृष्ण आदमी इतने भरोसे से कह रहा है कि इसके सामने यह भी हिम्मत नहीं पड़ती कहने की कि कहां है? कौन है?
कर्ज है। पिता मर गए हैं। कर्ज चुकता नहीं है। मां भूखी रहती है। इतना खाना किसी दिन बनता है कि एक ही खा सकता है, या तो मां खा ले या विवेकानंद खा लें। तो विवेकानंद कहते हैं कि फलां मित्र के घर आज मेरा निमंत्रण है, मैं वहां चला जाता हूं। ताकि मां खाना खा ले। क्योंकि एक ही खा सकता है, इतना ही खाना है। घूम कर, रास्तों पर चक्कर भूखे लगा कर हंसते हुए घर लौट आते हैं, पेट पर हाथ फेरते हैं, डकार लेते हैं कि बहुत अच्छा हुआ, मित्र के घर चला गया, अच्छा भोजन मिला, ताकि मां निश्चिंत रहे। रामकृष्ण को पता चलता, तो वे कहते, तू पागल है! कितना है कर्ज तेरा? तू जाकर मां से मांग क्यों नहीं लेता है?
यह पागल है रामकृष्ण! कौन मां? कौन देगा? भरोसा नहीं आता, विश्वास नहीं होता।
रामकृष्ण पुजारी हुए हैं। तो आठ दिन बाद ही जिस समिति ने उनको पुजारी बनाया है, जिस ट्रस्टी मंडल ने पुजारी बनाया है, उसने उन पर मुकदमा चला दिया आठवें दिन ही। बुलाए गए, कहा कि तुम आदमी कैसे हो? क्योंकि हमने सुना है कि तुम भोग लगाने के पहले खुद चख लेते हो! तो भोग पहले लगाना होता है कि पहले खुद चखना होता है? जूठा भोग लगता है?
रामकृष्ण ने कहा कि मेरी मां जब मुझे खाना खिलाती थी, तो बना कर पहले खुद चखती थी, फिर मुझे देती थी। तो मैं मां को बिना चखे नहीं दे सकता। पता नहीं, खाने योग्य बना भी हो कि न बना हो।
वह जो मंडल ट्रस्टियों का है, वह अपना सिर ठोंकता है--कैसी मां? मंदिर उनका है, मां की मूर्ति उन्होंने खड़ी की है। इस पुजारी को तो पकड़ लाए हैं, पागल को। अठारह रुपए महीने की कुल जमा इसकी हैसियत है। लाखों का वह मंदिर है, बनाने वाले वे हैं। और यह पुजारी उनसे कह रहा है कि बिना चखे मैं मां को चढ़ा नहीं सकता, क्योंकि पता नहीं, भोजन करने योग्य बना हो, न बना हो। तो नौकरी छोड़ने को राजी हूं; लेकिन भोजन तो पहले चखूंगा, फिर भोग लगाऊंगा। फूल पहले सूंघूंगा, फिर चढ़ाऊंगा। अगर सुगंध ही नहीं है, तो चढ़ाने से फायदा क्या है? ट्रस्टी लोग एक-दूसरे की तरफ देखते हैं, यह आदमी क्या कह रहा है? पागल हो गया है? मंदिर हमने बनवाया, वह मूर्ति हमने खड़ी की। कहां की मां है! कहां का क्या है! सब हमारा खेल है, नाटक है। पुजारी पागल है। भरोसा हमें कभी आता नहीं इन लोगों का। लेकिन रामकृष्ण की आंख में देखते हैं, तो मानना भी पड़ता है कि शायद ठीक ही कहता होगा, शायद इसको दिखाई पड़ता हो। शक तो पूरा है।
ये व्यक्ति अकेले हैं। और इनके अकेले होने का सबसे बड़ा कारण परमात्मा की यह रहस्यमयी विशेषता है कि वह है और अनुपस्थित, एज इफ ही इज़ नाट। ही इज़, एज इफ ही इज़ नाट। पूरी तरह है, पर यह एज इफ, यही उसका रहस्य है कि बिलकुल गैर-मौजूद है। इसलिए जो गैर-मौजूदगी में देखने की कला खोज लेते हैं, वे ही उसे देख पाते हैं। जो बिना आंखों के देखने की कला खोज लेते हैं, वे उसे देख पाते हैं। जो बिना हाथों के उसके आलिंगन में उतर जाते हैं, वे उसके आलिंगन में उतर पाते हैं। यह रहस्यमयी विशेषता न तो नास्तिक मानते हैं, न आस्तिक मानते हैं। इसको समझ लें।
नास्तिक तो कहता है: छोड़ो, बकवास है। जो नहीं है, वह नहीं है। इतना उलटा घूम कर कान को पकड़ने की जरूरत क्या है? सीधा पकड़ लें; नहीं है, नहीं है; है, है। नास्तिक का तर्क सीधा-साफ है, गणित को मानता है, व्यवस्थित है। वह कहता है कान को पकड़ते हैं सीधा, इतना उलटा जाने की क्या जरूरत है कि एज इफ ही इज़ नाट। कहो सीधा, ही इज़ नाट। बात खतम हो गई। यह एज इफ का इतना लंबा चक्कर क्या? जैसे कि! जैसे कि क्या जरूरत है जोड़ने की? नहीं है, तो नहीं है। है, तो है। नास्तिक भी कहता है कि अगर है, तो प्रकट होना चाहिए है के रूप में। तो हम स्वीकार कर लें।
आस्तिक को भी यही दिक्कत है। आस्तिक भी मुश्किल में पड़ता है। उसको भी, एज इफ उसको भी पकड़ में नहीं आता--कि जैसे नहीं है ऐसा है। तो फिर वह तरकीबें खोजता है। उसकी तरकीबें जाहिर हैं। उसकी एक तरकीब तो यह है कि वह प्रतीक बनाता है। इसी को प्रकट करने के लिए, इस रहस्यमयी विशेषता को समाप्त करने के लिए, तर्क सीधा करने के लिए वह प्रतीक बनाता है। एक मूर्ति खड़ी करता है। परमात्मा की बात छोड़ता है, मूर्ति के चरण पकड़ता है। अब मूर्ति कम से कम है। और तब वह कहता है कि अब कुछ है जो हाथ में आता है। कुछ हाथ में आता है। तब किसी राम को, तब किसी बुद्ध को, तब किसी कृष्ण को, उनके चरण पकड़ता है। और कहता है कि छोड़ो, वह रहस्यमयी होगा, वह परम ब्रह्म होगा, जो होगा; तुम हो, और तुम भी काफी हो। मगर यह भी तर्क नास्तिक का ही है। नास्तिक की ही बात है यह भी। नास्तिक से वह जीत नहीं पाता, तो वह कहता है, नहीं होगा परमात्मा, राम तो हैं! राम परमात्मा हैं। कृष्ण तो हैं, कृष्ण परमात्मा हैं।
फिर वह राम और कृष्ण के आस-पास चमत्कारों की कथाएं इकट्ठी करता है। क्योंकि वह नास्तिक कहता है कि अगर राम के पैर में भी कांटा गड़ता है और खून निकलता है, तो हममें और राम में फर्क क्या है? अगर महावीर के भी पैर में कांटा गड़ता है और खून निकलता है, तो महावीर और हममें फर्क क्या है? और अगर गर्दन काटो, और महावीर भी मर जाएं और हम भी मर जाएं, तो कैसे परमात्मा हैं?
तो फिर इस आस्तिक को इनके आस-पास चमत्कार जोड़ने पड़ते हैं। फिर आस्तिक को कहना पड़ता है कि नहीं, तुम काटो महावीर को, तलवार कट जाए, महावीर नहीं कटते। जीसस को मारो, तुम समझ रहे हो कि मार लिया, दूसरे दिन जीसस रिसरेक्ट, फिर पुनरुज्जीवित हो जाते हैं। फिर दिखाई पड़ते हैं, फिर हैं। उनको तुम मार नहीं सकते। तब वह कथाएं जोड़ता चला जाता है। यह सिर्फ हमारी नासमझी का फल है। इस रहस्यमयी विशेषता को न समझने के कारण हमको ये सब उपद्रव जोड़ने पड़ते हैं।
एक मित्र कल ही आए थे। समझदार हैं, विचारशील हैं, मुझे वर्षों से प्रेम करते हैं। वे मुझसे कहने लगे, आप भी कुछ साईंबाबा जैसा क्यों नहीं करते? कोई एकाध चमत्कार! तो अभी लाखों लोग आ जाएं।
पर उन लाखों लोगों को बुला कर क्या करना है? उनको बुला कर भी क्या करिएगा? निश्चित ही, चमत्कार से वे जरूर आ जाते हैं। लेकिन चमत्कार से आते हैं, साईंबाबा से नहीं आते। एक भी आए, साईंबाबा के कारण आए, तो कुछ फल है। चमत्कार से आए, तो कुछ भी फल नहीं है। क्योंकि चमत्कार से जो आता है, वह आस्तिक नहीं है। आस्तिक तो वह है, जो कहता है, इस जगत में सभी कुछ चमत्कार है। इस जगत में ऐसा कुछ है ही नहीं, जो चमत्कार न हो। एक बीज वृक्ष बन रहा है, आकाश में बादल चल रहे हैं, सूरज रोज निकल रहा है, तारे हैं, आदमी हैं, पशु हैं, पक्षी हैं, हर चीज चमत्कार है। जिसको हर चीज चमत्कार नहीं दिखती, वह कहता है, हाथ में से राख निकल रही है, बड़ा चमत्कार हो रहा है! इस जगत में जहां सूरज निकल रहे हैं, चमत्कार नहीं हो रहा इस अंधे को। इसको हाथ में से जरा सी राख निकल रही है, यह कह रहा है, चमत्कार हो रहा है।
यह राख को मानने वाली जो बुद्धि है, यह बुद्धि परमात्मा की तरफ जाने वाली बुद्धि नहीं है। तो यह लाख की भीड़ तो इकट्ठी हो सकती है, लेकिन यह भीड़ मदारी के डमरू को सुन कर इकट्ठी हुई भीड़ है। इसका धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन मुसीबत है। इसलिए महावीर या बुद्ध या कृष्ण या राम या क्राइस्ट या मोहम्मद, इनके आस-पास जो कथाएं गढ़ी जाती हैं, वे सरासर झूठ हैं। वे झूठ इसलिए हैं...।
लेकिन भक्त की मजबूरी है। वह न जोड़े, तो भगवान नहीं मालूम पड़ते हैं। वह अगर न जोड़े, तो साधारण आदमी रह जाते हैं। तो उसे कहना पड़ता है कि मोहम्मद जब चलते हैं, तो कितनी ही सख्त धूप हो, एक बदली उनके ऊपर चलती है। उसे कहना पड़ता है, उसकी मजबूरी है। मजबूरी वही है, क्योंकि तर्क उसका भी नास्तिक का है, बुद्धि उसकी भी नास्तिक की है। हृदय उसके पास भी नहीं है आस्तिक का, जो कहे कि चमत्कार को क्या खोजने जाएं, इस जगत में ऐसी कोई चीज ही नहीं है जो चमत्कार न हो! कोई एकाध चीज ऐसी खोज लाएं जो चमत्कार न हो, तब मैं समझूं। इस जगत में सभी कुछ चमत्कार है।
आप हैं, यह कोई छोटा चमत्कार है! आपके होने का कोई भी तो कारण नहीं है, कोई भी तो वजह नहीं है। आप न होते, तो कोई शिकायत कर सकते थे? पर आप हैं, पूरे हैं। और कभी आपको खयाल नहीं आता कि एक बड़ा चमत्कार घटित हुआ है कि मैं हूं। मेरे होने की कोई जरूरत नहीं है। मैं न होऊं, तो कुछ हर्ज नहीं होता। मैं नहीं था, तब भी दुनिया चलती थी। मेरी बिलकुल जरूरत नहीं है, फिर भी मैं हूं। और मेरा यह होना एक क्षण में अगर टूट जाए, तो मैं शिकायत नहीं कर सकता किसी से कि मुझे नहीं क्यों कर दिया। मैं हूं, तो पता नहीं, कौन कर जाता है! मैं नहीं हो जाता हूं, तो पता नहीं, कौन कर जाता है! इतना बड़ा चमत्कार प्रतिपल घटित हो रहा है आपके होने में ही, और आप जा रहे हैं कि एक हाथ से थोड़ी सी राख गिर रही है, तो भारी चमत्कार हो रहा है।
बुद्धिहीनता ही चमत्कार मालूम पड़ती है। बुद्धि की कमी से ही चमत्कार दिखाई पड़ते हैं। बुद्धि हो, तो सारा जगत ही चमत्कार हो जाता है।
फिर आस्तिक को तरकीबें खोजनी पड़ती हैं सिद्ध करने की कि राम भगवान हैं, कि कृष्ण भगवान हैं।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वे भगवान नहीं हैं। मैं यह कह रहा हूं कि यहां सभी कुछ भगवान है। यहां सभी कुछ भगवत्ता है। यहां ऐसा कुछ भी नहीं है, जो भगवान नहीं है। इसलिए अकारण इसको सिद्ध करने की कोई भी जरूरत नहीं है कि राम भगवान हैं। यह तो व्यर्थ की बकवास है। यहां कुछ है ही नहीं, जो भगवान नहीं है। तो राम तो भगवान होंगे ही। यहां तो होना मात्र ही भगवान का है। लेकिन फिर हमें कोशिश करनी पड़ती है। फिर अकेले सीधे-सादे आदमी से तो भगवान नहीं होता। तो फिर हमें तरकीबें खोजनी पड़ती हैं कि ये-ये कारण हैं, जिनसे वे भगवान हैं। फिर हम उनको सामने खड़ा कर लेते हैं। फिर सामने खड़ा करके हम निश्चिंत हो जाते हैं। फिर यह जो रहस्यमयी विशेषता है परमात्मा की, इसको हमने भुलाया, हमने इसको छुड़ाया, अलग किया अपने से। हमने अपना भगवान खड़ा कर लिया। फिर हम मूर्ति बनाते, अवतार बनाते, तीर्थंकर बनाते और इनके आस-पास हम घूमते। क्योंकि हमारे तर्क में ये तो समझ में आते हैं, यह लाओत्से की मिस्टीरियस क्वालिटी ऑफ दि ताओ, यह रहस्यमयी विशेषता हमारी समझ में नहीं आती।
लेकिन जब तक यह समझ में न आए, तब तक जानना कि धर्म के द्वार पर आपका प्रवेश नहीं हुआ है। जिस दिन इस रहस्यमयी विशेषता को समझ में लाने की आप क्षमता जुटा लें, उसी दिन प्रभु के मंदिर की आपको पहली झलक मिलेगी। उसके पहले कोई भी झलक नहीं मिल सकती। उसके पहले के बनाए गए परमात्मा आपके गृह-उद्योग के फल हैं, होम मेड। उसके पहले निर्मित अवतार, तीर्थंकर आपकी कुशलता, आपकी कला के सबूत हैं।
अगर परमात्मा में प्रवेश करना है, तो इस रहस्यमयी विशेषता को स्मरण रखना। ही इज़ प्रेजेंट, एज इफ ही इज़ नाट; ही इज़ एब्सेंट, यट ही इज़ प्रेजेंट। अनुपस्थित है वह, और मौजूद; और मौजूद है सब जगह, और ऐसे जैसे कि नहीं है। इसे अगर सतत स्मरण रख सकें और यह श्वास-श्वास में प्रवेश कर जाए, तो आपके जीवन में धर्म का उदघाटन, उसका पर्दा उठना शुरू हो जा सकता है।
आज इतना ही। पांच मिनट रुकेंगे; और बैठे न रहें, जब कीर्तन यहां चलता है तो कीर्तन में आप भी ताली बजा कर सम्मिलित हो जाएं। जिन मित्रों को नाचना हो, वे नीचे भी आ जाएं।
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