दिनांक; 14 जुलाई 1976;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—भगवान,
इन दिनों यहां
रह रहा हूं, बहुत—सी
बातें भीतर घट
रही हैं।
पूछना आता
नहीं। आप सब
जानते हैं।
फिर भी ऐसा
लगता है कि
भीतर बहुत
दबाया है और
बाहर बहुत न
होने दे रहा
हूं। आज सुबह
के प्रवचन में
आपने उतर तो
दे ही दिया है,
फिर भी उचित
समझें तो कुछ
और
मार्गदर्शन
करने की
अनुकंपा
करें। पहले भी
कई बार प्रश्न
पूछने का मन
होता था, लेकिन
डर, संकोच
और कैसे पूछें
यह नहीं आता
था, इसलिए
कभी पूछ नहीं
पाया। आपकी
अनुकंपा अपार है!
2—भगवान,
प्रश्न मैं
हूं। अपनी
सारी कमजोरियों,
सारी
बीमारियों, सभी सीमाओं
सहित। यानी
जैसा अब मैं
हूं फिलहाल एक
प्रश्न हूं।
जवाब
निस्संदेह आप
हैं। फिर यह
प्रश्न गिर
क्यों नहीं
जाता, मिट
क्यों नहीं
जाता? मर्ज
हूं मैं, दवा
हैं आप, फिर
भी मर्ज ज्यों
का त्यों हैं——उलटे
बढ़ता जाता है।
4—भगवान,
मेरी शादी
होने वाली है।
इससे मेरी
सत्य की खोज
कुंठित होगी,
या इससे
सहयोग मिलेगा?
प्रभु, मुझे
मार्गदर्शन
दें!
5—भगवान,
जमाना
एहले—खिरद
तो हो चुका
मायूस
कुछ
अजब नहीं कोई
दीवाना काम कर
जाए...
पहला
प्रश्न:
भगवान, इन दिनों
यहां रह रहा
हूं, बहुत—सी
बातें भीतर घट
रही हैं।
पूछना आता
नहीं। आप सब
जानते हैं।
फिर भी ऐसा
लगता है कि
भीतर बहुत
दबाया है और
बाहर बहुत न
होने दे रहा
हूं। आज सुबह
के प्रवचन में
आपने उत्तर तो
दे ही दिया है,
फिर भी उचित
समझें तो कुछ
और
मार्गदर्शन
करने की अनुकंपा
करें। पहले भी
कई बार प्रश्न
पूछने का मन
होता था, लेकिन
डर, संकोच
और कैसे पूछें
यह नहीं आता
था, इसलिए
कभी पूछ नहीं
पाया। आपकी
अनुकंपा अपार है!
सागर
चैतन्य, एक
शब्द अनुकंपा
को जोर से पकड़
लो! शेष सब फिर
अपने से हो
जाएगा। एक तो
रास्ता है
संकल्प का, संघर्ष का, एक रास्ता
है समर्पण का,
अहंकार—विसर्जन
का। संघर्ष का
रास्ता तो
कंटकाकीर्ण
है। और संघर्ष
के रास्ते पर
खतरा है
अहंकार के
जन्म का।
समर्पण का
रास्ता अति
सुविधा का है,
क्योंकि जो
बड़े—से—बड़ा
खतरा है, अहंकार
के जन्मने
का, समर्पण
के मार्ग पर
उसकी कोई
संभावना
नहीं। समर्पण
करो!
छोटी—छोटी
बातें हैं।
उन्हें छोड़ना
असंभव मालूम होता
है। क्योंकि
वे सारी छोटी—छोटी
बातें अहंकार
का हिस्सा
हैं। क्रोध है, काम है, लोभ
है, इन्हें
तुम छोड़ना
चाहोगे——और
कौन नहीं
छोड़ना चाहता!
क्योंकि क्रोध
से, काम से,
लोभ से
मिलता क्या है
सिवाय पीड़ा के,
सिवाय
विषाद के!
सिवाय नर्क के
और निर्मित
नहीं होता कुछ
इनसे। इसलिए
जिसमें थोड़ी
भी बुद्धि की
किरण है, वह
छोड़ना ही
चाहेगा।
मगर जो
छोड़ना चाहता
है, वह और भी
उलझन में पड़
जाता है। एक
नई उलझन। काम—क्रोध—मोह
तो अपनी जगह
खड़े हैं और एक
छोड़ने का नया
उपद्रव! और
छोड़े छूटते
नहीं! जितना छोड़ो उतना
जोर से पकड़ते,
जकड़ते मालूम पड़ते
हैं। छोड़ने
वाला और भी
अशांत, उद्विग्न
मन हो जाता
है। क्योंकि
मूल भूल हो रही
है। काम—लोभ—क्रोध,
सब अहंकार
की जड़ से पैदा
होते हैं। जड़
को काटोगे नहीं,
पत्तों को छांटोगे, जिंदगियां
ऐसे ही गंवाईं,
जिंदगियां
और गंवाओगे।
पत्ते छांटते
रहो, कलमें
करते रहो, वृक्ष
और घना होता
जाएगा।
कुठाराघात
करना है जड़
पर। एक ही कुल्हाड़ी
में काम हल हो
जाता है, तो
फिर हजार
चोटें क्यों
करनी? सौ
सुनार की एक
लुहार की।
लुहार की ही
चोट करो। एक
ही चोट से काम
हो जाए।
इसीलिए तुमसे
कहता हूं:
अनुकंपा शब्द
को पकड़ लो।
वही तुम्हारा
शास्त्र। वही
तुम्हारा
वेद। कहो कि मेरे
किए तो कुछ
नहीं होता, अब छोड़ता
हूं प्रभु के
हाथों में। और
फिर जैसा चलाए
प्रभु, चलो।
फिर
निस्संकोच
चलो। फिर
निर्भय चलो। पूरब
तो पूरब, पश्चिम
तो पश्चिम।
फिर छोड़ ही दो
यह करने का भाव,
कर्ता का
भाव। और तब
तुम चकित होकर
रह जाओगे, जिसने
समर्पण किया,
उसके जीवन
में धर्म का
अपने—आप अवतरण
होता है।
यामिनी
बीती
रात
सबकी नींद थी, पर जागरण
मेरा
अथिरता
में डगमगाया
था चरण मेरा
तम
विशाल अनीक
छोटी किरन ने
जीती
यामिनी
बीती
उषा
ने दे दी गगन
के भाल, रोली
विश्व
भर की भर गई
आलोक से झोली
भरेगी
कब हृदय की
मेरी कुटी रीती
यामिनी
बीती
मैं
चलूं तिरना
मुझे दुर्लंघ्य
सागर है
कहीं
सागर पार मेरे
राम का घर है
कृपा
उनकी हो अगर
तो मिले मनचीती
यामिनी
बीती
रात
बीत जाए अभी, सुबह हो जाए
अभी, परमात्मा
की अनुकंपा पर
सब छोड़ दो।
यही भक्ति का सारसूत्र
है। नहीं मेरे
किए कुछ होगा,
उसकी मर्जी!
भटकाए तो भटकेंगे।
इतनी भी
हिम्मत होनी
चाहिए
संन्यासी की,
कि
परमात्मा
भटकाए तो भटकेंगे,
कि
परमात्मा
अंधेरी
गलियों में ले
जाए तो जाएंगे।
जब सब उस पर
छोड़ दिया, तो
निर्णय हमारा
नहीं। तो फिर
हम शुभ और
अशुभ का भी
भेद न करेंगे।
फिर जब उसकी
ही छाया बनती है,
तो
समग्ररूपेण
बनेंगे। पहले
तो खतरा मालूम
होता है कि
ऐसे सब छोड़े
देंगे, तो
हमसे तो फिर
भूलें—ही—भूलें
होंगी।
क्योंकि हमसे
तो भूलें होती
हैं, इतनी
होशियारी
रखते हैं तो
भी; इतना
सम्हल कर चले
हैं, फिर
भी गिर—गिर
पड़ते हैं; और
अगर सम्हलना
भी छोड़ दिया, सब उस पर छोड़
दिया, तो
फिर तो गिरने
के सिवाय
हमारी कोई
नियति न होगी।
नहीं, जीवन का
शास्त्र कुछ
और है। तुम
गिरते हो, क्योंकि
सम्हलने
की कोशिश करते
हो। तुम सम्हलने
की कोशिश में
ही गिरते हो। सम्हलने
की कोशिश में
अहंकार
सम्हलता है और
वही गिरना है।
अगर तुम गिरने
को भी राजी हो
जाओ——वह गिराए
तो गिरेंगे,
हम कौन हैं
जो बीच में
आएं; वह
मिटाए तो मिटेंगे;
अगर नर्कों
में ही उसे ले
जाना है, तो
वही हमारे लिए
स्वर्ग है——ऐसी
जिसके मन में
समग्र शरणागति
है, वह
सम्हल गया।
उसके गिरने का
उपाय ही न
रहा। उसे कोई
चीज गिरा नहीं
सकती। अब उसके
लिए गङ्ढे
बचे ही नहीं।
अब भटकाव हो
ही नहीं सकता।
ईसप की
प्रसिद्ध कथा
है सेंटीपीड, शतपदी के
संबंध में।
शतपदी के सौ
पैर होते हैं,
इसलिए नाम
शतपदी, सेंटीपीड। एक शतपदी
जा रहा है——सुबह
सूरज निकला है,
अभी—अभी सोकर
उठा है, रात
भर का ताजा—मस्त,
सुबह की
ताजी हवा और
सूरज की
किरणें, नाश्ते
की तलाश में
निकला है। एक
खरगोश उसे देखता
है। उसके सौ
पैरों को
देखता है, बड़े
गौर से देखता
है, बड़ा किंकर्तव्यविमूढ़
हो जाता है।
पूछता है कि
हे शतपदी, क्या
मेरे एक
प्रश्न का
उत्तर दोगे? शतपदी ने
कहा: क्या
पूछना है? उस
खरगोश ने कहा,
एक विचार जब
भी तुम्हें
देखता हूं
उठता है, कभी
पूछा नहीं, क्योंकि
क्यों अकारण
तुम्हारे
जीवन के संबंध
में कुछ
प्रश्न उठाऊं,
शोभा नहीं
मालूम होता, शिष्ट नहीं
मालूम होता, पर आज रहा
नहीं जाता; बहुत हो गया
दबाते—दबाते,
आज तो पूछूंगा;
तुम सौ पैर
कैसे सम्हाल
पाते हो? कब
पहला उठाना, कब दूसरा, कब तीसरा, कब चौथा, कब
पचासवां, कब
अस्सीवां, कब
निन्यानबेवां,
कब सौवां, कैसे हिसाब
रखते हो? लड़खड़ा
नहीं जाते? उलझ नहीं
जाते? पैर
में पैर नहीं
फंस जाते? चले
जाते हो जैसे
कि कोई
सैनिकों की
कतार जा रही
हो, धड़धड़ाते! कभी
तुम्हें
गिरते नहीं
देखा। शतपदी
ने कहा कि
प्रश्न कठिन
है, मैंने
कभी इस पर
सोचा नहीं।
जन्म से ही सौ
पैर हैं, सो
चलता रहा हूं।
कभी नीचे झांककर
विचार नहीं किया।
अब तुम कहते
हो तो सोचूंगा,
विचारूंगा,
उत्तर
दूंगा।
और जो
होना था वही
हुआ।
पहली
दफा चेष्टापूर्वक
उसने पैर
उठाया कि देखूं
पहले कौन—सा
उठता है? फिर
दूसरा, फिर
तीसरा——सौ
पैरों के
चक्कर में
बुरी तरह खो
गया। वहीं लड़खड़ा
कर गिर गया।
अभी खरगोश गया
भी नहीं था।
खरगोश ने उसे
गिरते देखा, कहा, शतपदी,
कभी
तुम्हें
गिरते नहीं
देखा, यह
क्या हो रहा
है? शतपदी
ने कहा कि
नासमझ, यह
तेरी ही करतूत
है! मैं सदा
चलता रहा, कभी
मैंने स्वयं
चलने की
चेष्टा नहीं
की; तूने
मुझे सचेष्ट
कर दिया, मेरा
अहंकार बीच
में आ गया, सोच—विचार
में पड़ गया, उसी में पैर लड़खड़ा गए।
मैं खुद ही
समझ नहीं पाया
कि कौन—सा
पहले, कौन—सा
पीछे? अब
तक यह सब होता
था निसर्ग से,
आज बीच में
मैं खड़ा हो
गया, निसर्ग
में बाधा पड़
गई।
मेरी
शिक्षा है:
निसर्ग। जीओ।
शरीर की एक
प्रकृति है, उससे अन्यथा
मत जाओ। जाने
की जरूरत
नहीं। चैतन्य
की प्रकृति है——इसी
प्रकृति का और
उच्चतम शिखर।
शरीर अगर बुनियाद
है, तो
आत्मा उसी
मंदिर का
स्वर्ण—शिखर।
दोनों एक ही
प्रकृति के दो
पहलू हैं। इसी
प्रकृति का
नाम परमात्मा
है। परमात्मा
कहीं और नहीं।
प्रकृति को
समर्पण करो। लड़ो मत, झगड़ो मत, सजाओ—संवारो
मत, अहंकार
के आयोजन न
करो——नहीं सिद्धपुरुष
होना है, न
संत, न
महात्मा; सरल
होना है, सहज
होना है, नैसर्गिक
होना है, स्वस्फूर्त होना है। यह
अगर परमात्मा
पर छोड़ सको तो
हो जाए।
बस, अनुकंपा
शब्द को
सम्हालो। वही
तुम्हारी साधना।
और बीत जाएगी
रात। सुबह
सुनिश्चित
है। सुबह है
ही। रात हमने
पैदा की ही।
अस्तित्व तो सदा
सुबह में है।
वहां तो
प्रकाश ही
प्रकाश है।
अंधेरा हमारा
अहंकार है। एक
अहंकार धन
कमाता है, एक
अहंकार पद, एक अहंकार
त्याग करता है,
एक अहंकार
साधना में लग
जाता है——ये सब
अहंकार की ही
अलग—अलग
अभिव्यक्तियां
हैं। समर्पण
भर अहंकार की
अभिव्यक्ति
नहीं है। डाल
दो सब उसके
चरणों में।
कहो, जैसी
तेरी मर्जी!
और फिर एक बार
जीकर देखो। एक
नया ही रस, एक
नया ही अमृत, एक नया ही
स्वाद जीवन
में उठेगा।
वही समाधि का
स्वाद है।
दूसरा
प्रश्न:
भगवान, प्रश्न मैं
हूं। अपनी
सारी कमजोरियों,
सारी
बीमारियों, सभी सीमाओं
सहित। यानी
जैसा अब मैं
हूं, फिलहाल
एक प्रश्न
हूं। जवाब
निस्संदेह आप
हैं। फिर यह
प्रश्न गिर
क्यों नहीं
जाता, मिट
क्यों नहीं
जाता? मर्ज
हूं मैं, दवा
हैं आप, फिर
भी मर्ज ज्यों
का त्यों है——उल्टे
बढ़ता जाता है।
रणवीर, प्रश्न तुम
हो, जवाब
मैं हूं, तो
प्रश्न हल
कैसे होगा? प्रश्न तुम
हो तो जवाब भी
तुम्हें ही
होना पड़ेगा।
जवाब मैं हूं,
तो मेरा
प्रश्न हल हो
गया। जहां
समस्या है, वहीं समाधान
चाहिए।
समस्या एक जगह,
समाधान
दूसरी जगह है——दोनों
का मिलन ही न
होगा।
यही तो
अड़चन है
सदियों की।
तुम
प्रश्न हो, कृष्ण उत्तर
हैं। तुम
प्रश्न हो, क्राइस्ट
उतर हैं। तुम
प्रश्न हो, मुहम्मद
उत्तर हैं।
रहे आएं
मुहम्मद, कृष्ण
और क्राइस्ट
उत्तर, क्या
होगा? सवाल
है तुम्हारा।
जहां प्रश्न
है, वहीं
खुदाई करो। हर
प्रश्न के
भीतर उत्तर
छिपा है। हर
समस्या की
तलहटी में खोदोगे,
समाधान
पाओगे। अगर
तुमने मुझे
उत्तर माना, तो उलझन
शुरू हुई।
मेरा उत्तर
तुम्हारे लिए
ज्यादा—से—ज्यादा
विश्वास होगा,
ज्ञान नहीं
हो सकता। मेरा
उत्तर
तुम्हारे भरोसे
पर निर्भर
होगा, तुम्हारी
प्रतीति और
साक्षात्कार
पर नहीं। तुम
मुझ पर
श्रद्धा कर
सकते हो, मगर
श्रद्धा ऊपर—ऊपर
ही होगी।
तुम्हारे
प्राणों में
तो कहीं संदेह
बना ही रहेगा।
इसलिए बीमारी
घटेगी नहीं।
और जैसे—जैसे
तुम दवा करोगे,
मर्ज
बढ़ेगा।
क्योंकि पहली
बीमारी थी, वह तो रहेगी
ही, अब
मेरे उत्तरों
को तुम जो पकड़ोगे
उनसे नई
बीमारियां
पैदा होंगी।
पहला प्रश्न तो
अपनी जगह है, मेरा उत्तर
और नए दस
प्रश्न खड़े
करेगा, इससे
बीमारी बढ़ेगी।
नहीं, यह कोई
सुलझने—सुलझाने
का रास्ता
नहीं है। तुम
अपने ही भीतर जाओ,
आत्मदर्शन
करो, अपना
साक्षात्कार
करो।
चलो
सही कि तुम
प्रश्न हो।
परमात्मा
प्रत्येक को
प्रश्न की तरह
ही जन्म देता
है, और आशा
रखता है कि
तुम उत्तर की
तरह मरोगे।
प्रश्न की तरह
भेजता है, उत्तर
की तरह चाहता
है कि तुम
वापिस लौटो।
जगत एक अनुभव,
एक पाठशाला,
जहां
प्रश्न उत्तर
बनते हैं। एक
कसौटी, जहां
कसा जाता है
जीवन अनुभव
में, जहां
पकता है जीवन
अनुभव में।
लेकिन हम हैं
सब कमजोर, कायर।
हम उधार उत्तर
स्वीकार कर
लेते हैं। कौन
खोजे? कौन
खोज की झंझट
में पड़े? खोजनात्तलाशना—जिज्ञासा
तो लंबी
यात्रा है। और
खतरों से भरी।
और हजार
अड़चनों को पार
करना होगा।
लेकिन किसी और
का उत्तर
स्वीकार कर
लेना तो बड़ा
सस्ता है।
तुम्हें कुछ
करना ही नहीं
पड़ता। लेकिन
अगर मेरे
श्वास लेने से
तुम्हें
श्वास नहीं मिलती,
तो मेरे
समाधान होने
से तुम्हारा
समाधान नहीं
होगा। अगर
मेरा जीवन
तुम्हारा
जीवन नहीं बन सकता,
अगर तुम
लंगड़े हो तो
मेरे पैर
तुम्हारे पैर
नहीं बनते, और अगर तुम
अंधे हो तो
मेरी आंखों से
तुम देख न सकोगे,
तुम्हें तुम्हारी
आंखों की
चिकित्सा
करवानी ही
होगी।
मैं
तुम्हें उतर
नहीं दे रहा
हूं। ज्ञान
देने में मेरी
जरा भी
उत्सुकता
नहीं है। मैं
चाहता हूं, या तो तुम
ध्यान लो, या
भक्ति लो।
ध्यान लो या
भक्ति, दोनों
ही स्थिति में
तुम्हें
स्वयं ही
समाधान बनना
होगा। और जिस
दिन कोई स्वयं
समाधान बनता
है, उस दिन
कैसे प्रश्न?
सारे
प्रश्न गिर
जाते हैं।
जैसे दीया जले
और अंधकार
समाप्त हो
जाए। ऐसी
तुम्हारे
भीतर की रोशनी
जलनी
चाहिए।
सारे
प्रश्न सुंदर
हैं। क्योंकि
प्रश्न न होते
तो जिज्ञासा न
होगी।
जिज्ञासा न
होती तो तुम
खोज पर न
निकलते। लेकिन
तुम कर लेते
हो बेईमानी।
प्रश्न तो
सच्चे हैं, उत्तर उधार
ले लेते हो।
इससे
पांडित्य
पैदा भले हो
जाए, मगर
जीवन में
समाधान नहीं
हो सकता।
समाधान तो केवल
समाधि से होता
है। और समाधि
का अर्थ है: स्वयं
के भीतर एक
ऐसे चैतन्य की
दशा, जहां
न कोई विचार
है, न कोई
भाव है, न
कोई स्मृति, न कोई
कल्पना——जहां
चित्त की सारी
लहरें शांत हो
गईं; जहां
चित्त के सारे
व्यापार
निरोध को
उपलब्ध हो गए:
चित्त वृत्ति
निरोध: बस वह
योग की दशा है।
जहां झील
चित्त की
बिलकुल ही
तरंग—शून्य हो
गई। उस तरंग—शून्य
झील में चांद
का प्रतिबिंब
बन जाता है।
ऐसे ही
तुम्हारी
चेतना की शांत
शून्य अवस्था
में परमात्मा
का
साक्षात्कार
हो जाता है।
सत्य का
साक्षात्कार
ज्ञान है।
मेरा
ज्ञान
तुम्हारे लिए
ज्ञान नहीं
है। मेरा सत्य
तुम्हारे लिए
तो झूठ हो
जाएगा। उधार
सत्य झूठ हो
जाते हैं। अगर
उधार सत्य सत्य
हो सकते होते, तो एक बुद्ध
ने पा लिया था,
सब बुद्ध हो
गए होते। एक
कबीर ने पा
लिया, सब
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाते। एक नानक
ने पा लिया, अब सबको
पाने की क्या
जरूरत होती?
यही
भेद है
विज्ञान और
धर्म का।
विज्ञान
में एक
व्यक्ति
उत्तर पा लेता
है, वही
उत्तर सबका
उत्तर हो जाता
है। क्यों? क्योंकि
विज्ञान बाहर
की खोज है। जो
बाहर है, उसे
सब देख सकते
हैं। अगर हम
एक गुलाब के
फूल को रख दें
लाकर, तो
तुम सबको
दिखाई पड़ेगा।
पदार्थ है, विषय है।
विज्ञान पदार्थगत
है। इसलिए
न्यूटन कुछ
खोज ले, एडीसन
कुछ खोज ले, कि अलबर्ट
आइंस्टीन कुछ
खोज ले, फिर
हर आदमी को
बार—बार नहीं
खोजना पड़ेगा।
आइंस्टीन ने
खोज लिया सापेक्षता
का सिद्धांत,
अब सबका हो
गया। अब
तुम्हें भी
उसी खोज से
गुजरने की
जरूरत न रही।
विज्ञान
वस्तुगत है।
वस्तुएं बाहर
हैं। बाहर का
ज्ञान
सार्वजनिक हो
जाता है। बाहर
के ज्ञान की
परंपरा बनती
है। उसे लिया—दिया
जा सकता है; स्कूल—कालेज—विश्वविद्यालय
में पढ़ाया
जा सकता है; शास्त्र से
समझा जा सकता
है, शब्द
में
अभिव्यक्त हो
जाता है।
लेकिन
धर्म है भीतर
की अनुभूति।
गुलाब के फूल को
तो मैं रख
सकता हूं
तुम्हारे
सामने, सबको
दिखाई पड़ेगा,
लेकिन
गुलाब के फूल
में जो सौंदर्य
मुझे दिखाई पड़
रहा है, उसे
मैं तुम्हें
कैसे दिखलाऊं?
गुलाब के
फूल में जो
काव्य मुझे
अनुभव हो रहा है,
उसे कैसे
तुम्हें
अनुभव करवाऊं?
गुलाब के
फूल में जो
परमात्मा
मेरे लिए
प्रगट हो रहा
है, कैसे
तुमसे उसकी
मुलाकात करवाऊं?
अगर कहूं कि
परमात्मा
मौजूद है, देखो!
कि यह रंग, कि
यह ढंग, कि
यह गंध, कि
यह सौंदर्य
परमात्मा का
है, तो तुम
कंधे बिचकाओगे।
तुम कहोगे, गुलाब के
फूल तक तो बात
ठीक है, आगे
हमें कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता; हम
कोई परमात्मा
नहीं दिखाई
पड़ता।
और ऐसा
भी हो सकता है
कि जो बहुत ही पदार्थगत
है, वह तो
पूछे कि सौंदर्य?
सौंदर्य
कहां है? फूल
है, यह समझ
में आता है, मगर सौंदर्य
कहां है? दिखाओ।
परीक्षण हो
सके, इस
ढंग से दिखाओ।
प्रयोग हो सके,
इस ढंग से
दिखाओ।
सौंदर्य भी
दिखलाया जा
नहीं सकता। और
जिस काव्य की
मैं बात कर
रहा हूं, उस
काव्य को तो
तुम भी जिस
दिन जान सकोगे,
अनुभव कर
सकोगे, बस
उसी दिन जान
सकोगे, अनुभव
कर सकोगे। हां,
मेरी बात
चाहो तो मान
लो।
और
अक्सर यही
हुआ।
मुझसे
तुम्हें
प्रेम है, मुझसे
तुम्हें लगाव
है, तो मैं
जो कहूंगा, प्रेम की
छाया में तुम
उसे अंगीकार
कर लोगे, तुम
उसे स्वीकार
कर लोगे।
लेकिन यह
स्वीकृति तुम्हारे
जीवन को
रूपांतरित
नहीं कर सकती
है। यह स्वीकृति
बाधा बन
जाएगी। मुझसे
तो प्रेम करो,
लेकिन मैं
जो कहता हूं
उसकी तलाश
करनी होगी। मेरा
प्रेम
तुम्हें, खोजी
बना सके, तो
ही तुमने मुझे
प्रेम किया।
मेरा प्रेम
तुम्हें
विश्वासी बना
दे, तो फिर
तुम हिंदू, मुसलमान, ईसाई जैसे
ही एक और नए
ढंग के
विश्वासी हो
गए! फिर मैं
जिस नयी
धार्मिकता की
बात कर रहा
हूं, वह
पैदा न हुई।
फिर तुम्हें
एक नया
संप्रदाय और
मिल गया।
पुराने
कारागृह से
छूटे, एक
नया कारागृह
मिल गया। और
पुराने से तो
तुम छूटना
चाहते थे, ऊब
गए थे रहते—रहते,
नए से शायद
तुम छूटना भी
न चाहो। शायद
नया प्रीतिकर
लगे। पुराना
तो मां—बाप ने
दे दिया था, नया तुमने
खुद चुना है।
इसलिए पुराने
में तुम्हारा
अहंकार उतना
जुड़ा नहीं था,
जितना नए
में तुम्हारा
अहंकार जुड़ेगा।
अपना चुनाव
है। स्वभावतः
तुम नए से
ज्यादा जकड़
जाओगे।
पुरानी जंजीरें
तो तोड़ी जा
सकती हैं, क्षीण
हो जाती हैं
समय के कारण, लेकिन नई
जंजीरें तो
मजबूत होती
हैं, अभी—अभी
ढल के आती हैं
कारखाने से, अभी तो बहुत
मजबूत होती
हैं।
मेरे
प्रेम में अगर
तुमने मेरी
बातें मान लीं, तो वे बातें
केवल जंजीरें
बनेंगी——और नई
जंजीरें
पुरानी जंजीरों
से भी ज्यादा
खतरनाक हैं।
मेरा प्रेम तो
सिर्फ चांद की
तरफ अंगुली का
इशारा है।
अंगुली मत पकड़
लेना।
झेन
फकीर रिंझाई
कहा करता था:
मेरी अंगुली
मत चाटो, मेरी अंगुली
मत काटो, चांद
की तरफ देखो। डोंट बाइट
माय फिंगर, लुक ऐट द
मून। लेकिन
लोग अंगुली
चूसना ज्यादा पसंद
करते हैं।
जैसे छोटे
बच्चे अंगुली
चूसते हैं, ऐसे ही बड़े
बच्चे...धर्म
के जगत में तो
छोटे ही हैं, वहां तो
बच्चे ही हैं।
धर्म के जगत
में तो तुम अभी
अपने झूले में
ही झूल रहे
हो। धर्म के
जगत में तो
तुम्हारी
स्थिति वही है,
जो छोटे
बच्चे की
जिसको लोरी
सुनाई जा रही
है; जिसे
नींद की
व्यवस्था की
जा रही है कि
जो किसी तरह
सो जाए। छोटे
बच्चे को
सुलाने का
आयोजन किया जा
रहा है।
एक
महिला का
बच्चा रो रहा
था, आधी रात।
घर में कोई
मेहमान ठहरा
था, उसने
कहा कि आप
लोरी गाकर
बच्चे को सुला
क्यों नहीं
देतीं? उस
महिला ने कहा
कि लोरी गाने
पर मेरे पड़ोस
के लोग ऐतराज
करते हैं।
अतिथि ने कहा,
मैं कुछ
समझा नहीं। उस
महिला ने कहा,
पड़ोस के लोग
कहते हैं, तुम्हारी
लोरी से तो
तुम्हारे
बच्चे का रोना
ही अच्छा लगता
है।
लोरियां
सुला दें छोटे
बच्चों को, लेकिन बड़ों
को तो जगाने
का कारण बन
जाएं, उनको
तो नींद तोड़
दे। धर्म के
जगत में अभी
तुम छोटे बच्चों
की तरह हो।
तुम लोरी ही
चाहते हो।
तुम्हारे
गीता, तुम्हारे
कुरान, तुम्हारे
वेद और क्या
हैं? तुमने
उन्हें लोरियों
में बदल लिया
है। तुम उनको
गाते हो और सो
जाते हो। तुम
गुनगुनाते हो
और सो जाते
हो। नींद की शामक
दवाएं हो गईं।
और मुफ्त और
सस्ती। और
अहंकार को भी
बड़ा तृप्त
करने वाली, क्योंकि
धार्मिक भी।
परंपरा से
आदृत भी।
मैं
तुम्हें कोई
लोरी नहीं दे
रहा हूं। मैं
तुम्हें
जगाना चाहता
हूं। चाहे
अप्रीतिकर ही
क्यों न लगे।
छोटा बच्चा
अंगुली चूसने
लगता है, वह
भी उसके सोने
का ढंग है।
अंगुली से वह
अपने को धोखा
देता है, लोरी
से उसकी मां
उसको धोखा
देती है। मां
कहती है: सो जा,
बेटा!
मुन्ना, राजा,
सो जा बेटा!
बार—बार
दोहराती है:
मुन्ना, राजा,
सो जा बेटा!
अब तुम बार—बार
किसी से भी दोहराओ,
बहुत
ज्यादा दोहराओ:
सो जा बेटा, सो जा बेटा, तो बच्चा
क्या बेटे का
बाप भी सो जाए!
उसकी खोपड़ी पर
अगर यही बजाते
रहो कि सो जा
बेटा, सो
जा बेटा, तो
करे भी क्या!
भाग सके नहीं,
भागकर अब
जाए कहां, तो
नींद ही भागने
का एक उपाय
है।
बच्चे
क्यों सो जाते
हैं बार—बार
तुम्हारी
बकवास सुनकर? और कहां
जाएं? मां
बैठी है छाती
पर हाथ रखे, और दोहराए
चली जा रही है:
सो जा बेटा!
पहले बेटा थोड़ा
कुनमुनाता है,
करवट बदलता
है, भाग भी
सकता नहीं, इस अंधेरी
रात में अब
जाए तो जाए भी
कहां, फिर
एक ही भागने
का उपाय बचता
है कि नींद
में भाग जाए।
किसी तरह यह
बकवास सुनना
बंद हो! तो सो जाता
है।
इसी
तरह तुम दोहरा
रहे हो लोरियां।
अगर मां
दोहराने को न
मिले, तो
बच्चा अपना
अंगूठा चूसता
है, अंगुली
चूसता है।
उससे भ्रम
देता है मां
के स्तन का।
खुद को भी
धोखा दे लेता
है।
ऐसे ही
धर्म के जगत
में बड़े बच्चे
हैं। वह शास्त्रों
की अंगुलियां
चूसने लगते
हैं, सदगुरुओं की अंगुलियां
चूसने लगते
हैं। सोचते
हैं पोषण मिल
रहा है। यह
पोषण नहीं है,
जहर है। अंगुलियां
चूसने के लिए
नहीं हैं।
मेरी अंगुली
चांद की तरफ
इशारा कर रही
है। रणवीर, मेरी बातों
को पकड़ो मत!
अन्यथा ज्यों—ज्यों
दवा करोगे, त्यों—त्यों
मरीज हो जाओगे,
त्यों—त्यों
बीमारी बढ़ेगी।
मेरा इशारा
समझो। मैं
क्या कह रहा
हूं, उसको दोहराओ मत,
उसको
बौद्धिक
संपदा मत बनाओ,
मैं क्या कह
रहा हूं, उसे
जीवन का आचरण
बनाओ, उसे
अंतस की
रूपांतरण की
प्रक्रिया
बनाओ; उससे
गुजरो।
मैं रसायन
सिखा रहा हूं।
यहां कोई
दर्शनशास्त्र
नहीं पढ़ाया
जा रहा है।
जीवन को बदलने
की रसायन दी
जा रही है।
तुम
कहते हो, प्रश्न
मैं हूं। अपनी
सारी कमजोरियों,
सारी
बीमारियों और
सभी सीमाओं
सहित। यानी जैसा
अब मैं हूं, फिलहाल एक
प्रश्न हूं।
जवाब
निस्संदेह आप
हैं। फिर यह
प्रश्न गिर
क्यों नहीं
जाता, मिट
क्यों नहीं
जाता? ऐसे
नहीं गिरेगा।
ऐसे नहीं
मिटेगा।
उत्तर भी तुम्हें
ही बनना पड़ेगा,
तो गिरेगा।
अंधेरा तुम हो,
रोशनी भी
तुम्हें ही
होना होगा।
भटके तुम हो, राह पर भी
तुम्हें ही
आना होगा।
आंखें तुमने बंद
की हैं, मेरी
आंखें खुली
हैं, मगर
मेरी खुली
आंखें
तुम्हारी बंद
आंखों से क्या
संबंध? तुम
मुझे मान भी
लो, मुझे
आदर भी दो, सम्मान
भी दो, तुम
कहो कि मेरे
गुरु की आंखें
खुली हैं——तो
गुरु की आंखें
खुली हैं; फिर
भी तुम्हारी
आंखें बंद हैं
सो बंद हैं।
काम तुम्हारी
आंखें
पड़ेंगी। अपने
दीए खुद बनो। सदगुरु
यही सिखाता
है: अपने दीए
खुद बनो।
और क्या
है रास्ता
बनने का?
प्रश्न
के उत्तर मत
खोजो।
क्योंकि
उत्तर कहां खोजोगे? उत्तर तो
बाहर खोजे
जाते हैं——शास्त्र
में, सदगुरुओं से, समाज
में। नहीं, प्रश्न के
उत्तर मत खोजो,
प्रश्न के
साक्षी बनो।
तुम्हारे
भीतर प्रश्न—ही—प्रश्न
हैं, कमजोरियां—ही—कमजोरियां
हैं, बिलकुल
स्वाभाविक
है। ऐसी ही
सबकी दशा है।
यह कुछ
विशिष्ट बात
नहीं। अपने को
नाहक निंदित मत
करना। ऐसी ही
सबकी दशा है।
यही
स्वाभाविक है।
इसे अंगीकार
करो और इसके
साक्षी बनो।
भीतर खड़े होकर
देखो अपनी
सारी
बीमारियां, अपनी सारी
सीमाएं, अपने
सारे प्रश्न,
अपनी सारी
समस्याएं——सिर्फ
देखो, द्रष्टा
बनो; कुछ
और करना मत; छेड़छाड़ नहीं,
रोक—टोक
नहीं, अदल—बदल
नहीं, हस्तक्षेप
नहीं, दूर
खड़े होकर——जितने
दूर खड़े होकर
देख सको उतना
शुभ है। क्योंकि
जितने दूर खड़े
होकर देख सको
उतना परिप्रेक्ष्य
स्पष्ट होता
है। जैसे कोई
पहाड़ पर खड़ा होकर
नीचे के
मैदानों को
देखे। जैसे
विहंगम—दृष्टि
होती है, पक्षी
की, आकाश
में उड़ता
है और नीचे
देखता है, सब
दिखाई पड़ता है,
दूर—दूर तक
दिखाई पड़ता
है।
दूरी
पैदा करो। साक्षीभाव
सीखो। बस
बैठकर घंटे भर
रोज देखो।
सिर्फ देखो।
दर्शन मात्र।
नहीं बदलना
कुछ अभी।
जल्दी मत करना, कि यह
प्रश्न बदला
जाए, कि
इसका उत्तर
चाहिए, कि
यह समस्या
हटाई जाए, समाधान
लाया जाए, कि
यह बीमारी तो
ठीक नहीं, स्वस्थ
होना चाहिए, उपचार कहां
है, औषधि
कहां है? नहीं
इस सबमें मत पड़ना। जो
है, बुरा—भला
जैसा है, बिना
किसी निर्णय
के और बिना
किसी पक्षपात
के, बिना
शुभ—अशुभ की
धारणा को लाए
सिर्फ साक्षी
बनकर देखो। और
तुम चकित हो
जाओगे, चमत्कृत
हो जाओगे।
जैसे—जैसे
तुम्हारी
देखने की
क्षमता प्रगाढ़
होगी, वैसे
ही वैसे दृश्य
विलीन होने
लगेंगे। इधर द्रष्टा
जगेगा, उधर
दृश्य क्षीण
होने लगेंगे।
क्योंकि वही ऊर्जा
जो दृश्य बनती
है, वही
ऊर्जा
द्रष्टा बन
जाती है। जिस
दिन तुम्हारा
द्रष्टा पूरा—का—पूरा
खड़ा हो जाएगा,
उस दिन तुम
पाओगे: न बचे
कोई प्रश्न, न कोई
समस्याएं, न
कोई कमजोरियां,
न कोई
सीमाएं।
अनायास तुम
मुक्त हो गए
हो। आ गई
अपूर्व घड़ी। आ
गया वह अदभुत
क्षण, जहां
व्यक्ति मिट जाता
है और
परमात्मा
शुरू होता है।
जहां सीमा का
अतिक्रमण
होता है, जहां
बुद्धत्व का
जन्म होता है।
समस्या
है तो समाधान
भी है। और
बीमारी है तो
औषधि भी है, लेकिन बाहर
नहीं है
बीमारी, बाहर
औषधि भी नहीं
है। बीमारी
भीतर है, भीतर
ही औषधि है।
जिसने बीमारी
दी है, उसने
औषधि का
इंतजाम पहले
से ही कर दिया
है।
तुमने
कहावत सुनी न, जो चोंच
देता है, वह
चून पहले ही
व्यवस्थित कर
देता है। भूख
देता है, भोजन
पहले बना देता
है। बच्चा
पैदा भी नहीं
होता और मां
के स्तन में
दूध आना शुरू
हो जाता है।
बच्चा पैदा
हुआ कि मां का
स्तन दूध से भर
गया। तुम क्या
सोच रहे हो
बच्चा कुछ
इंतजाम कर रहा
है? इंतजाम
हो रहा है!
प्रकृति एक
अदभुत लयबद्ध
व्यवस्था है।
साक्षी
बनो। साक्षी
बनने में ही
सत्य है, समाधि
है; सम्यकत्तत्व है।
तीसरा
प्रश्न:
भगवान, क्या
परमात्मा का
अस्तित्व
सिद्ध किया जा
सकता है?
रामेश्वर, परमात्मा
कोई व्यक्ति
नहीं; परमात्मा
का कोई
अस्तित्व
नहीं, क्योंकि
परमात्मा
स्वयं
अस्तित्व है।
और सब चीजों
का अस्तित्व
होता है, परमात्मा
का अस्तित्व
नहीं होता।
परमात्मा तो
अस्तित्व का
ही दूसरा नाम
है। परमात्मा
कहो या
अस्तित्व कहो,
एक ही बात।
मेरा अस्तित्व
है, तुम्हारा
अस्तित्व है,
वृक्षों का,
पहाड़ों का
अस्तित्व है,
परमात्मा
का कोई
अस्तित्व
नहीं है।
वृक्षों का जो
अस्तित्व है,
मेरा जो
अस्तित्व है,
तुम्हारा
जो अस्तित्व
है, पहाड़ों
का जो
अस्तित्व है,
उस
समग्रीभूत
अस्तित्व का
नाम परमात्मा
है।
तो
पहली बात, परमात्मा का
कोई अस्तित्व
नहीं है।
इसलिए सिद्ध
करने की बात
ही नहीं उठती।
इतना तय है कि
अस्तित्व है।
क्या
अस्तित्व को
भी सिद्ध करना
होगा? तुम
हो, इतना
तो पक्का है।
शेष सब होगा
स्वप्न, मगर
एक बात तो
पक्की है कि
सपना देखने
वाला सत्य है।
सपना देखने के
लिए भी कम—से—कम
सपना देखने
वाला तो चाहिए
ही चाहिए।
सपना देखने
वाले के बिना
तो सपना भी
नहीं हो सकता।
तो तुम तो
सत्य हो। और
तुम अगर सत्य
हो तो परमात्मा
सत्य है।
तुम्हारे
होने का नाम
ही परमात्मा
है।
इस
होने की फिर
बहुत ऊंचाइयां
हैं। यह होना
कीचड़ में पड़ा
हो, जैसे कि
कोहिनूर कीचड़
में पड़ा हो, तो संसार।
यह कोहिनूर
कीचड़ से उठ आए,
धुल जाए, निखर जाए, पारखी
के हाथ लग जाए,
जौहरी को
मिल जाए; और
जौहरी इस पर
धार रखे, चमक
दे, इस पर
पहलू उघाड़े,
तो यही
कोहिनूर
मोक्ष बन जाता
है, निर्वाण
बन जाता है।
जब
कोहिनूर हीरा
मिला था तो आज
उसका जितना वजन
है; इससे तीन
गुना ज्यादा
वजन था। मगर
कीमत कुछ भी न
थी। वजन तीन
गुना ज्यादा
था, मगर
कीमत कुछ भी न
थी। दो कौड़ी
का न था।
सदियों में
जौहरी उस पर
मेहनत पर मेहनत
करते रहे, कलाकारों
ने उसे निखारा
और निखारा और
निखारा; इस
निखारने
में, नए—नए
पहलू उघाड़ने
में, कोहिनूर
का वजन तो कम
हो गया, एक
तिहाई बचा, लेकिन आज
कीमत उसकी
अरबों रुपए
है। अकूत है।
इधर वजन कम
हुआ, उधर
कीमत बढ़ी।
स्थूलता कम हो
गई, सूक्ष्मता
बढ़ी।
तुम हो
तो परमात्मा
है। रामेश्वर, तुम्हारा
अस्तित्व
प्रमाण है। और
क्या प्रमाण
चाहते हो?
लेकिन
लोग चाहते हैं
कि परमात्मा
इस तरह सिद्ध
किया जो, जिस
तरह विज्ञान
चीजों को
सिद्ध करता
है। जैसे दो
और दो चार, ऐसे
सिद्ध किया
जाए। कि सौ
डिग्री पर
पानी भाप बनता
है, ऐसे
सिद्ध किया
जाए।
परमात्मा इस
तरह कभी सिद्ध
नहीं होगा। इस
तरह जो सिद्ध
करने चलेंगे,
उनसे सिर्फ
इतना ही होगा
कि परमात्मा
असिद्ध हो
जाएगा। यह तो
ऐसे ही हुआ जैसे
कोई कान से
फूलों की गंध
लेना चाहे, कि आंख से
संगीत सुनना
चाहे, कि
नाक से रोशनी
देखना चाहे।
कान गंध लेने
को नहीं बने
हैं। हां, कान
से संगीत सुना
जा सकता है।
अगर तुम कानों
से पूछोगे
प्रमाण गंध का,
तो कान
कहेंगे: गंध
होती ही नहीं।
अगर नाक से
पूछोगे अस्तित्व
के संबंध में
रंगों के, तो
नाक कहेगी:
रंग? कभी
सुना नहीं।
बाप—दादों ने
भी नहीं
बताया।
शास्त्रों
में भी नहीं
लिखा। रंग
होते ही नहीं।
आंख से पूछो
ध्वनि की बात,
आंख क्या
होगी? आंख
निपट इनकार
करेगी।
इसलिए
विज्ञान इनकार
करता
परमात्मा से।
कारण? कारण
यह नहीं कि
परमात्मा
नहीं है, कारण
यही कि
विज्ञान की जो
विधि है, स्थूल
है। उससे कीचड़
तो पकड़ में आ
जाती है, कमल
छूट जाता है।
बड़ी स्थूल है,
बाह्य है।
परमात्मा के
लिए कोई
वैज्ञानिक प्रमाण
नहीं हो सकता।
इससे
परमात्मा
असिद्ध नहीं
होता, इससे
केवल विज्ञान
की सीमा सिद्ध
होती है। परमात्मा
तो सिद्ध होता
है अंतर अनुभव
में।
इसलिए
तुम यह मत
पूछो कि क्या
परमात्मा का
अस्तित्व
सिद्ध किया जा
सकता है? ज्यादा
अच्छा हो कि
पूछो कि मैं
अपने अस्तित्व
को कैसे जानूं?
पूछो कि
आत्मा को कैसे
जानूं? क्योंकि
जिसने आत्मा
जानी, उसने
परमात्मा
जाना। जिसे
अपने भीतर
आत्मा का
अनुभव हुआ, उसे तत्क्षण
प्रगट हो गया
कि सबके भीतर
यही चैतन्य
विराजमान है।
अलग—अलग रूप, अलग—अलग ढंग,
अलग—अलग
विधा, मगर
एक ही प्रगट
हो रहा है।
जिसने अपने
भीतर पकड़ लिया
उसे, उसने
सबके भीतर पकड़
लिया। और अपने
भीतर ही पहले
पकड़ा जा सकता
है।
लेकिन
लोग अपनी तरफ
तो देखते ही
नहीं, लोग
बाहर खोज रहे
हैं, भाग
रहे हैं कि
परमात्मा
कहां है? काशी
में या काबा
में? कहां
परमात्मा है?
वेद में कि
कुरान में, कि बाइबिल
में, कि
धम्मपद में, कहां
परमात्मा है?
कहां जाएं?
किस मंदिर
में? किस
मस्जिद में? भीतर जाओ, वहीं है
काबा, वहीं
है काशी, वहीं
है कैलाश।
लेकिन भीतर
तुम जाते ही
नहीं। वहां
गहन उदासी छाई
है। वहां
बिलकुल तुम
मुर्दा हो गए
हो। क्योंकि
गए ही कभी
नहीं तो गर्द—गुबार
जम गई है।
सदियों की
गर्द—गुबार
है।
न
पूछो कौन हैं
क्यों राह में
नाचार बैठे
हैं
मुसाफिर
हैं, सफर
करने की
हिम्मत हार
बैठे हैं।
उधर
पहलू से तुम उट्ठे, इधर दुनिया
से हम उट्ठे
चलो, हम भी
तुम्हारे साथ
ही तैयार बैठे
हैं।
किसे
फुरसत, कि फर्जे—खिदमते—उलफत
बजा लाए
न
तुम बेकार
बैठे हो, न हम बेकार
बैठे हैं।
जो उट्ठे हैं
तो गर्मे—जुस्तुजू—ए—दोस्त
उट्ठे
हैं
जो
बैठे हैं तो मह्वे—आरजू—ए—यार
बैठे हैं।
मकामे—दस्तगीरी
है, कि तेरे रहरु—ए—उलफत
हजारों
जुस्तुजूएं
करके हिम्मत
हार बैठे हैं
न
पूछो, कौन
हैं, क्या
मुद्दआ है, कुछ नहीं
बाबा!
गदा
हैं और जेरे—साया—ए—दीवार
बैठे हैं।
ये
हो सकता नहीं, आजाद से
मयखाना खाली
हो
वो
देखो! कौन
बैठा है, वही सरकार
बैठे हैं।
हिम्मत
हार दी है।
लाचार हो गए
हैं। नाचार हो
गए हैं। भीतर
पैर ही नहीं
उठता।
न पूछो, कौन हैं, क्या
मुद्दआ है, कुछ नहीं
बाबा!
गदा
हैं और जेरे—साया—ए—दीवार
बैठे हैं।
मत
पूछो कि कौन
हैं? पता भी
नहीं है खुद
कि कौन हैं।
मत पूछो कि
मुद्दआ क्या
है? जीवन
का लक्ष्य
क्या है? कुछ
नहीं बाबा!
गदा
हैं...भिखारी
हैं...और जेरे—साया—ए—दीवार
बैठे हैं। और
बस दीवाल की
छाया मिल गई तो
उसके किनारे
बैठे हैं।
पूछो ही मत कि
कौन हैं, क्या
हैं? यह
जिंदगी, ऐसी
जिंदगी
परमात्मा के
अस्तित्व को
नहीं पा सकती।
लेकिन
परमात्मा के
अस्तित्व को
पाया जा सकता
है। जरा, तुम्हें
बदलना पड़े।
तुम्हें थोड़े
अपने जीवन को
नया चंग, नया
रंग, नई
शैली देना
पड़े।
जो उट्ठे हैं
तो गर्मे—जुस्तुजू—ए—दोस्त
उट्ठे
हैं
जो
बैठे हैं तो मह्वे—आरजू—ए—यार
बैठे हैं।
इस तरह
उठो कि उसकी
तलाश के लिए
उठ रहे हो। इस
तरह बैठो कि
उसी की याद
में डूबे बैठे
हो।
जो उट्ठे हैं
तो गर्मे—जुस्तुजू—ए—दोस्त
उट्ठे
हैं
दोस्त
की खोज के लिए
उठो।
जो
बैठे हैं तो मह्वे—आरजू—ए—यार
बैठे हैं।
तो
तल्लीन हैं, उसकी ही याद
में, ऐसे
बैठो। यही
प्रार्थना, यही पूजा, यही अर्चना।
तो जरूर मिल
जाएगा उसका
प्रमाण। लेकिन
प्रमाण भीतर
मिलेगा।
बौद्धिक नहीं
होगा प्रमाण,
अस्तित्वगत
होगा। और एक
बार भीतर
दिखाई पड़ जाए,
तो सारा
संसार उसी का
सागर हो जाता
है।
नजर
में, रूह
में, दिल
में समाए
जाते हैं,
हर एक
आलमे—इसकां
पे छाए जाते
हैं।
जो
उठ सके थे न
खुद हुस्न के
उठाए से
वो
पर्दा—हाय—दुई
अब उठाए जाते
हैं।
छिपा—छिपा
के जिन्हें
मसलहत ने
रक्खा था,
वो
जलवे अब सरे—महफिल
दिखाए जाते
हैं।
ये कस्रे—हुस्न
है आतश—कदा
मुहब्बत का,
बजाए शमा, यहां दिल जलाए
जाते हैं।
तमाम
आलमे—महसूस
कांप उठता है,
जब
आंख से कहीं
आंसू बहाए
जाते हैं।
हमारा
हाल तो देखा, हमारा जर्फ
भी देख,
निगाह
उठती नहीं, गम उठाए
जाते हैं।
तलाश
लाजिमा—ए—आशिकी
नहीं सागर
न
ढूंढने पे भी
वो हम में पाए
जाते हैं।
जो
अपने भीतर झांककर
देखता है, उसे चकित
होकर यह सत्य
पता चलता है:
तलाश लाजिमा—ए—आशिकी
नहीं सागर, सच्चे
प्रेमी को
उसकी तलाश में
कहीं जाने की
जरूरत ही नहीं
है।
तलाश
लाजिमा—ए—आशिकी
नहीं सागर
न
ढूंढने पे भी
वो हम में पाए
जाते हैं।
जो
अपने भीतर
बैठता है, वह चकित
होकर देखता
है: न ढूंढने
पे भी वो हम में
पाए जाते हैं।
फिर तुम ढूंढो
या न ढूंढो,
पाओगे ही, पाओगे ही
पाओगे, बच
नहीं सकते।
चलो
भीतर!
रामेश्वर, उसके प्रमाण
न पूछो। उसकी
राह पूछो।
मार्ग पूछो।
और मार्ग बाहर
की तरफ नहीं
जाता। बाहर की
तरफ संसार का
विस्तार है।
माना कि उसमें
भी परमात्मा
छिपा है, मगर
तुम से पहचान
न पाओगे अभी।
पहली पहचान
भीतर। पहली
मुलाकात
भीतर। पहले
अपने से संबंध
जोड़ लो, फिर
ऐसी कोई जगह
नहीं है जहां
वह तुम्हें
दिखाई न पड़े।
पहले भीतर का
दीया जलाओ, तो तुम्हें
अंधेरे में भी
दिखाई पड़ने
लगे।
ये कस्रे—हुस्न
है आतश—कदा
मुहब्बत का...
यह
प्रेम मंदिर
है, यह अग्नि
का मंदिर है...
बजाय
शमा, यहां
दिल जलाए
जाते हैं।
और दिल
को जलाने की
कला सीखो।
भीतर की मशाल
जलाओ। भक्त की
जलती, ध्यानी
की जलती, प्रेमी
की जलती, दीवानों
की जलती।
बुद्धिमान
यही पूछते
रहते हैं:
क्या
परमात्मा का
अस्तित्व
सिद्ध किया जा
सकता है?
और बुद्धिमानों
से ज्यादा
बुद्धू इस
संसार में कोई
दूसरा नहीं
है। वे यही
पूछते रहते
हैं और यूं ही
समय गंवाते
रहते हैं। न
अस्तित्व
सिद्ध होता ह, न वे खोज पर
निकलते हैं।
उनका तर्क भी
ठीक है। वे
कहते हैं, जब
तक अस्तित्व
सिद्ध न हो
जाए, तब तक
हम खोज पर
कैसे निकलें?
और जिन्होंने
खोजा है, उनका
कहना है: जब तक
तुम खोजो न, तब तक
अस्तित्व
सिद्ध कैसे हो?
बड़ी
मुश्किल है।
इन दो में से
कुछ तुम्हें
एक तय करना
पड़े।
मुल्ला
नसरुद्दीन
नदी के किनारे
गया था तैरना
सीखने। जो
उस्ताद उसे
तैरना सिखाने
को थे, वह तो
एकदम चौंके,
क्योंकि
मुल्ला जैसे
ही तट पर गया
नदी के, पत्थर
पर पैर फिसल
गया——काई जमी
होगी——भड़ाम
से गिरा, एक
पैर तो पानी
में भी पड़ गया,
कपड़े भी
भींग गए, एकदम
उठा और घर की
तरफ भागा।
उस्ताद ने कहा
कि बड़े मियां,
कहां जाते
हो? मुल्ला
ने कहा कि अब
जब तक तैरना न
सीख लूं, नदी
के पास पैर न
रखूंगा। यह तो
खतरनाक धंधा
है! यह तो उसकी
दुआ कहो, यह
तो उसकी कृपा
कहो। अगर जरा
और फिसलकर
अंदर चला गया
होता, तो
उस्ताद, तुम
तो खड़े थे
बाहर, तुम
तो देखते ही
रहे, हम
काम से गए थे!
अब तो तैरना
सीख लूंगा, तभी पानी के
पास फटकूंगा।
अगर अब
तैरना कहां सीखोगे? कोई गद्देत्तकिए
बिछा कर तैरना
सीखा जाता है।
और गद्देत्तकिए
बिछाकर तुम
कितना ही
तैरने का
अभ्यास कर लो,
पानी में
काम न आएगा, खयाल रखना।
हाथ—पैर पटकना
सीख लोगे गद्देत्तकिए
पर, लेकिन
पानी में सब
बेकाम हो
जाएगा।
नहीं, तैरना सीखने
के लिए भी
पानी के पास
जाना ही पड़ता
है। परमात्मा
का अस्तित्व
कैसे सिद्ध
करोगे? तर्क
से? विचार
से? तो तो
तुम उल्टे काम
में लग गए।
परमात्मा को
जाना है लोगों
ने निर्विचार
से। परमात्मा
को जाना है
लोगों ने हृदय
से। और तुम
सिद्ध करने
लगे बुद्धि
से। नहीं
सिद्ध होगा, तो आज नहीं
कल तुम कहोगे:
है ही नहीं। और
एक बार
तुम्हारे मन
में यह बात
गहरी बैठ गई कि
है ही नहीं, तो बस अटक
गए। तो
तुम्हारा
विकास
अवरुद्ध हुआ।
गलत
प्रश्न न
पूछो! पूछो कि
क्या मैं हूं? पूछो कि
कैसे मैं
जानूं कि मैं
कौन हूं? परमात्मा
को छोड़ो!
परमात्मा से
लेना—देना
क्या है? पहले
पानी की बूंद
तो पहचान लो, फिर सागर को
पहचान लेना।
अभी बूंद से
भी पहचान नहीं
और सागर के
संबंध में
प्रश्न उठाए।
वे प्रश्न
व्यर्थ हैं।
उनके उत्तर
सिर्फ नासमझ देने
वाले
मिलेंगे। हां,
किताबों
में इस तरह के
प्रमाण दिए
हुए हैं, बड़े—बड़े
प्रमाण दिए
हुए हैं, बड़े
पंडित, शास्त्री
प्रमाण देते
हैं ईश्वर के
होने का। और
उनके प्रमाण
सब बचकाने,
दो कौड़ी
के! क्योंकि
प्रमाण कोई
दिया ही नहीं
जा सकता।
क्या
प्रमाण हैं
उनके?
इस तरह
के प्रमाण कि
जैसे कुम्हार
घड़ा बनाता है।
बिना कुम्हार
के घड़ा कैसे
बनेगा? इसी
तरह परमात्मा
ने जगत को
बनाया, वह कुम्भकार है
कुम्हार
है।...कर दिया
शूद्र उसको
भी!...अब जरा कोई
इन बुद्धिमानों
से पूछे कि
अगर घड़े
को बनाने के
लिए कुम्हार
की जरूरत है, तो कुम्हार
को बनाने के
लिए भी तो
किसी की जरूरत
है! वह कहते
हैं, हां, परमात्मा ने
कुम्हार को
बनाया। फिर
तुम्हारी
दलील का क्या
होगा? परमात्मा
ने संसार
बनाया, फिर
परमात्मा को
किसने बनाया?
यही तो
बुद्ध ने पूछा, महावीर ने
पूछा——और
पंडितों की
बोलती बंद हो
गई। पंडित तो
नाराज हो गए।
इसको वह अतिप्रश्न
कहते हैं। तुम
पूछे कि संसार
किसने बनाया,
तो सम्यक
प्रश्न। और
कोई पूछे कि
भई, जब
बिना बनाए कोई
चीज बनती ही
नहीं, तो
परमात्मा को
किसने बनाया?
तो अतिप्रश्न।
तो जबान काट
ली जाएगी। यह
न्याय हुआ? तुम्हारा ही
तर्क जरा आगे
खींचा गया।
और फिर
इसका अंत कहां
होगा? अगर
तुम कहो कि
हां, परमात्मा
को फिर और
किसी बड़े
परमात्मा ने
बनाया, और
उसको फिर किसी
और बड़े परमात्मा
ने बनाया, तो
इसका अंत कहां
होगा? यह
तो अंतहीन
शृंखला हो
जाएगी, व्यर्थ
शृंखला हो
जाएगी। नहीं,
ऐसे
प्रमाणों से
कुछ सिद्ध
नहीं होता।
ऐसे प्रमाणों
से सिर्फ
प्रमाण देने
वालों की
नासमझी, बुद्धिहीनता,
असंवेदनशीलता
सिद्ध होती है
और कुछ भी
सिद्ध नहीं
होता। परमात्मा
सिद्ध नहीं
होता, सिर्फ
प्रमाण देने
वालों का
बुद्धूपन
सिद्ध होता
है।
बुद्ध
परमात्मा का
प्रमाण नहीं
देते। बुद्ध परमात्मा
का प्रमाण
बनते हैं।
भेद को
समझ लेना।
बुद्ध प्रमाण
बनते हैं परमात्मा
का, बुद्ध
प्रमाण होते
हैं परमात्मा
का। मैं तुमसे
कहूंगा, तुम
भी प्रमाण
बनो। तुम भी
प्रमाण बन
सकते हो, क्योंकि
तुम्हारे
भीतर भी
बुद्धत्व
छिपा पड़ा है।
झरने को तोड़ने
की जरूरत है।
जरा चट्टान हटाओ
विचारों की और
फूटने दो भाव
का झरना! नाचो,
गाओ जीवन के
उत्सव को
अनुभव करो! और
तुम्हें पता
चल जाएगा कि
परमात्मा है।
जिस दिन तुम
जानोगे कि
जीवन एक रास
है; एक
महोत्सव है, राग से, रंग
से भरा; एक
इंद्रधनुष है,
सतरंगा; एक
संगीत है, अदभुत
स्वरों से
पूर्ण, उस
दिन परमात्मा
का प्रमाण मिल
गया। हालांकि तुम
वह प्रमाण
किसी और को भी
न दे सकोगे।
गूंगे का गुड़
हो जाता है वह
अनुभव।
मगर
धन्य हैं वे, जिन्हें कुछ
ऐसा अनुभव मिल
जाता है जिसे
वह कह नहीं
पाते। इस जगत
में सर्वाधिक
धन्य वे ही
हैं, जिन्हें
गूंगे का गुड़
मिल जाता है।
चौथा
प्रश्न:
भगवान, मेरी शादी
होने वाली है।
इससे मेरी
सत्य की खोज
कुंठित होगी,
या इससे
सहयोग मिलेगा?
प्रभु, मुझे
मार्गदर्शन
दें!
सत्यानंद
भारती, सब
तुम पर निर्भर
है। इस जगत की
कोई
परिस्थिति
निर्णायक
नहीं होती, निर्णायक
होती है
तुम्हारी
मनःस्थिति।
समझदार तो
नर्क में भी
परमात्मा को
खोज लेते, और
नासमझ स्वर्ग
में भी उसे
भूल जाते। सब
तुम पर निर्भर
है।
सुकरात
को किसी ने
पूछा था कि
मैं क्या करूं, शादी करूं
या न करूं? और
आपसे पूछने
आया हूं और
बड़ी दूर से
पूछने आया
हूं। क्योंकि
सुकरात
निश्चित ही
अनुभवी था।
शादी जिस
स्त्री से हुई
थी, पहुंची
हुई स्त्री
थी! सुकरात को
ऐसा सताया! और
कुछ—न—कुछ
कारण तो
सुकरात भी था।
आखिर
दार्शनिक पति के
साथ रहना कोई
आसान खेल नहीं
है। सुकरात तो
खोया रहता
जीवन के रहस्यों
में, पत्नी
का उसे होश
कहां था! तो
पत्नी कुढ़ती
होगी, नाराज
होती होगी, परेशान होती
होगी। पत्नीर्
ईष्या करती
होगी इस
दर्शनशास्त्र
से। दर्शनशास्त्र
तो उसे सौतेली
पत्नी जैसा ही
मालूम होता
होगा कि
सुकरात
दर्शनशास्त्र
में ज्यादा
उत्सुक है, मुझमें कम।
बैठता भी होगा
पत्नी के पास
तो सोचता तो
होगा आकाश की।
तो एकदम पत्नी
का ही कसूर था,
ऐसा कहना भी
ठीक नहीं।
लेकिन
पत्नी भी
पहुंची हुई
थी! सुकरात
जैसे अदभुत
व्यक्ति को भी
उसने बहुत
सताया। एक बार
तो लाकर उबलती
हुई केतली चाय
की भरी सुकरात
के ऊपर उंडेल
दी। क्योंकि
वह अपने
शिष्यों से
बात कर रहा था, चाय बनकर
तैयार थी और
वह तीन बार
बुला चुकी थी कि
अब आ भी जाओ, चाय पी भी लो,
ठंडी हुई जा
रही है। जब
सुकरात अपने
शिष्यों से
बातचीत में
लगा ही रहा और
आया ही नहीं, आया ही नहीं,
तो फिर उसने
चाय ठंडी नहीं
होने दी! फिर
गर्म ही चाय
लाकर उसके ऊपर
उंडेल दी। कि
अब ऐसे नहीं
पीते, तो
ऐसे पीओ।
सुकरात का
चेहरा सदा के
लिए आधा जल
गया सो आधा
जला रहा, काला
हो गया था।
लेकिन सुकरात
चुपचाप, कुछ
बोला नहीं।
पत्नी तो चली
गई, क्रोध
में, चाय
उंडेल कर, सुकरात
ने जहां बात
टूट गई थी, वहीं
से बात शुरू
कर दी। एक
शिष्य ने पूछा,
आप कुछ
कहेंगे नहीं,
यह पत्नी ने
जो दर्ुव्यवहार
किया? सुकरात
ने कहा, उसका
कृत्य, वह
जाने। वह
सोचे। मेरा
क्या लेना—देना
है? और आधा
चेहरा काला हो
गया, इससे
मेरी खोज में
कुछ फर्क नहीं
पड़ेगा। और परमात्मा
मुझे कुछ इस
कारण इनकार
नहीं कर देगा।
गौण है, विचारणीय
नहीं है।
मगर
तुम खयाल रखना, जो पति इतना
ज्यादा
निरपेक्ष हो
कि पत्नी उस पर
चाय भी उंडेल
दे और वह कुछ न
बोले, तो
पत्नी और
आगबबूला न हो
जाए तो क्या
करे? असहाय!
तो उस
युवक ने कहा
कि आपसे पूछने
आया हूं, आप
अनुभवी हैं, शादी करूं
या नहीं? सुकरात
ने कहा, करो
तो अच्छा! उस
युवक ने कहा, आप कहते हैं
करो तो अच्छा!
मैं तो इस आशा
में आया था कि
आप निश्चित
कहेंगे कि मत
करो। मैं करना
नहीं चाहता, सिर्फ आपका
प्रमाणपत्र
लेने आया था
कि अपने मां—बाप
को कह सकूं।
आप क्या कहते
हैं! सुकरात
ने कहा, इसलिए,
कि अगर
पत्नी अच्छी
मिली, तो
जीवन में सुख
जानोगे, संगीत
जानोगे, प्रेम
जानोगे, रस
जानोगे। और रस,
प्रेम, संगीत,
उत्सव जीवन
की गहराइयों
में जाने के
द्वार हैं। और
अगर मेरे जैसी
पत्नी मिल गई——मेरी
पत्नी अदभुत
है——अगर मेरी
जैसी पत्नी
मिल गई तो
वैराग्य का
उदय होगा।
वैराग्य भी परमात्मा
को पाने का एक
उपाय है। राग
से भी उसी तरफ
जाते लोग——राग
में डुबकी मार
लेते, परमात्मा
को पाने का वह
भी एक मार्ग
है——और
वैराग्य से भी
लोग जाते हैं।
पत्नी बुरी मिली
तो भी अच्छा, अच्छी मिली
तो भी अच्छा।
सत्यानंद, तुम पर
निर्भर है।
बिना पत्नी के
भी लोग परेशान
हैं। पत्नी के
साथ भी लोग
परेशान हैं।
पत्नी हो, तो
भी नहीं चलता,
पत्नी न हो,
तो भी नहीं
चलता। लोगों
के चित्त ऐसे
हैं कि जो हो, वही व्यर्थ
मालूम होता
है। इसलिए
शादीशुदा सोचता
है, धन्य
हैं वे जिनकी
शादी नहीं
हुई। और गैर—शादीशुदा
सोचता है, कब
सौभाग्य
मिलेगा कि
शादी हो जाए!
यह दुनिया बड़ी
अदभुत है!
यहां हर आदमी
सोच रहा है कि
दूसरा मजा कर
रहा है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
की बीबी गुलजान
ने एक दिन
बताया कि
हमारे पड़ोसी
पंडित मटकानाथ
ब्रह्मचारी
ने नर्कों
की भौगोलिक
स्थिति, जलवायु,
शासन—व्यवस्था
और नर्कों
के प्रकार, कोटियां तथा
दंड—विधान
इत्यादि
विषयों पर एक
विवरणात्मक
सचित्र किताब
लिखी है। नसरुद्दीन
ने कहा, सब
झूठ है, बकवास
है। गुलजान
बोली, एकदम
से तुम यह
कैसे कह सकते
हो? हो
सकता है सच ही
हो। फिर तुमने
किताब भी नहीं
पढ़ी। मुल्ला
बोला, कभी
सच नहीं हो
सकता! अरे, उस
कायर ने शादी
तक नहीं की, नर्कों के बारे में
वह क्या जाने—समझे!
कायरता
के कारण अगर
शादी से बचे, तो बच न
पाओगे। शादी
कहीं पीछे के
दरवाजे से आ जाएगी।
कायर तो बच ही
नहीं सकता।
समझ बचा सकती
है। लेकिन समझ
कहां से लाओगे?
मैं तो कह
दूं कि न करो
शादी, लेकिन
वह मेरी समझ
हुई।
तुम्हारी समझ
कैसे बनेगी? और मैं ऐसी
भूल न करूंगा
कि तुमसे
कहूं: न करो शादी;
क्योंकि
तुम जिंदगी भर
फिर मुझे गाली
दोगे! कि अहा, प्रत्येक
व्यक्ति मजा
लूट रहा है, एक हम मूढ़
ब्रह्मचारी
हुए बैठे हैं!
किस अशुभ घड़ी में
प्रश्न पूछ
बैठे!
अगर
मैं कहूं, कर लो शादी, तो भी
मुश्किल।
क्योंकि तब भी
तुम जिंदगी भर
मुझे गाली
दोगे। जब भी
पत्नी को देखोगे,
तभी मेरी
याद आएगी। कि
न पूछा होता
प्रश्न, न फंसते इस
झंझट में।
तुमने
मुझे मुश्किल
में डाल दिया।
शादी का मामला
ही ऐसा है।
करने वाले तो
ठीक, इस संबंध
में उत्तर तक
देना बड़ी झंझट
का काम है!
नसरुद्दीन
की पत्नी मरणशय्या
पर थी। नसरुद्दीन
छाती पीट—पीटकर
कह रहा था, ऐ गुलजान,
तेरे मरते
ही मैं पागल
हो जाऊंगा।
सच कहता हूं, बिलकुल पागल
हो जाऊंगा।
गुलजान
ने आंखें खोलीं,
वह बोली, मैं तुम्हें
अच्छी तरह
जानती हूं, मैं आज मरी
और कल तुम
दूसरी शादी कर
लोगे; क्यों
झूठ बोलते हो?
मुल्ला ने
तैश में आकर
कहा, क्या
बात कहती हो, गुलजान?
मैं पागल
जरूर हो जाऊंगा,
मगर इतना
नहीं कि दूसरी
शादी कर लूं!
अच्छा
हो तुम खुद ही
सोचो—विचारो।
पत्नियों के
लाभ भी हैं, नुकसान भी
हैं। पतियों
के लाभ भी हैं,
नुकसान भी
हैं। इस
जिंदगी में
कोई
परिस्थिति ऐसी
नहीं है जो एक
पहलू वाली हो।
अमरीका
के एक करोड़पति
एन्ड्रु कारनेगी
से किसी ने
पूछा कि आप
इतने करोड़पति
कैसे हो सके? गरीब घर में
पैदा हुए और
दुनिया के
सबसे बड़े धनपति
होकर मरे एन्ड्रु
कारनेगी।
मरे तो दस अरब
नगद रुपए छोड़
गए थे बैंक
में। किसी ने
पूछा कि आप को
ऐसी कौन—सी
बात थी, जिसने
पागल की तरह
धन की दौड़ में
लगा दिया? एन्ड्रु कारनेगी
ने कहा कि
मैंने किसी को
यह बात बताई
नहीं, लेकिन
अब मरने के
करीब मैं बता
सकता हूं——अब
डर भी क्या? मगर तुम से
मेरा एक
निवेदन है कि
मेरे मरने के
बाद ही लोगों
को बताना। कम—से—कम
मेरी पत्नी को
खबर न हो। वह
आदमी बोला, मामला क्या
है? वह पास
सरक आया, उसने
कहा कि मेरे
कान में कहें,
बिलकुल
सम्हाल कर
रखूंगा, जब
आप चले जाएंगे
तभी प्रगट
करूंगा। उसके
कान में फुसफुसाकर
एन्ड्रु कारनेगी
ने कहा कि मैं
असल में धन की
दौड़ में इसलिए
पड़ा कि मैं
देखना चाहता
था कि क्या
ऐसी भी कोई धन
की अवस्था हो
सकती है, जिससे
मेरी पत्नी
तृप्त हो जाए?
मगर नहीं, इतना धन है
मगर मैं पत्नी
को तृप्त नहीं
कर पाया। यह
सिर्फ एक
जानकारी के
लिए मैं कोशिश
में लगा था कि
क्या ऐसा कुछ
हो सकता है, इतना धन भी
हो सकता है
क्या कि मेरी
पत्नी तृप्त
हो जाए? मगर
मैं हार गया।
पत्नी तृप्त
नहीं हुई सो
नहीं हुई। मगर
एक फायदा रहा
कि मैं दुनिया
का सबसे बड़ा अरबपति हो
गया।
फिर
पत्नियों पत्नियों
में भी भेद
है।
सुना
है, ढब्बू जी की पत्नी
ने उन्हें
शादी के एक
साल अंदर ही
लखपति बना
दिया। अच्छा,
यह ढब्बू
जी कौन है, भाई?
बड़े
सौभाग्यशाली
हैं! क्या
उन्हें बहुत
ज्यादा दहेज
मिला था? नहीं,
दहेज तो कुछ
नहीं मिला। तो
क्या उनकी
बीबी के नाम
कोई लाटरी फंस
गई? नहीं।
अच्छा तो फिर
मैं समझा, शायद
उनकी बीबी का
कोई
रिश्तेदार
मरते समय उनके
नाम वसीयत लिख
गया होगा! अरे,
नहीं भाई, ढब्बू जी की बीबी
ने स्वयं ही
खून—पसीना एक
करके उन्हें
एक साल में
लखपति बना दिया;
एक साल पहले
वह करोड़पति
थे।
पत्नियों—पत्नियों
में भी भेद
है।
इसलिए
पता नहीं, सत्यानंद,
कैसी पत्नी
की तुम तलाश
कर रहे हो——कैसी
पत्नी
तुम्हारी
तलाश कर रही
है? किस
जाल में
फंसोगे, कुछ
साफ नहीं है।
मगर इतना मैं
तुमसे कहूंगा,
कि पूछते हो
प्रश्न, इसलिए
मन में कहीं—न—कहीं
आकांक्षा
होगी। नहीं तो
पूछते ही
नहीं।
मैं
रायपुर में था, एक युवक ने
आकर मुझसे
पूछा——ठीक वही
सुकरात वाली
कहानी घटी——उसने
मुझसे पूछा——थोड़ा—सा
फर्क था
प्रसंग में, संदर्भ में——उसने
पूछा कि मैं
शादी करूं या
नहीं? मैंने
कहा, तुम
जरूर करो!
उसने कहा, मैं
तो आपके पास
आया था इसलिए
कि आप निश्चित
कहेंगे कि मत
करो। अगर शादी
करना ठीक है
तो आपने क्यों
नहीं की? तो
मैंने उससे
कहा कि मैं
कभी किसी से
पूछने नहीं
गया——उलटे लोग
मुझे समझाने
आते थे, कि
कर लो!
एक
वकील तो मेरे
इतने पीछे पड़
गए थे, कि
उन्होंने
अपनी सारी
वकालत की
समझदारी ही एक
काम में लगा
दी, जैसे
उनकी जिंदगी
में यही एक
कर्तव्य था जो
उन्हें पूरा
करना था। सुबह—सांझ,
बस आकर बैठ
जाएं, घंटों।
मैंने उनसे
कहा भी कि यह
कोई आपके जीवन
का लक्ष्य है,
कि मेरी
शादी? आखिर
मैंने आपका
क्या बिगाड़ा?
किन जन्मों
का फल चुका
रहे हो? क्यों
इतना समय जाया
करते हो? मैं
कोई आपका
मुवक्कल हूं,
क्या हूं, मामला क्या
है? सुबह—शाम
आपको चैन ही
नहीं पड़ती। आप
शादी करके कोई
मुसीबत में पड़
गए हो——बात
क्या है? मुझे
भी फंसाना है!
क्योंकि
अक्सर ऐसा हो
जाता है, जिसकी
पूंछ कट जाती
है, वह
दूसरे की
कटवाना...मामला
क्या है? एकाध
दफे कह दिया, चलो समझ में
आ जाता है, मगर
यह नियमित
क्रम बन गया
कि सुबह मैं
उठा नहीं कि
आप मौजूद हैं!
शाम मैं कालेज
से लौटा नहीं
कि आप पहले से
ही आकर बैठे
हैं! अदालत
वगैरह जाते
हैं कि नहीं? और भी कोई
धंधा करते हैं
कि बस यही
धंधा है? मगर
उनने जिद्द
बांध रखी थी।
उनके
अहंकार...वह
बड़ी—बड़ी
दलीलें खोजकर
लाते थे:
क्यों शादी
करनी? शादी
करने में क्या
फायदा? क्या
लाभ? क्या—क्या
परिणाम?
मैंने
उनसे कहा कि
देखें; आप
वकील हैं, आप
समझ सकते हैं।
एक
मजिस्ट्रेट
को और कल बुला
लाएं, एक
दफा इसका
निपटारा हो
जाए। तो
उन्होंने कहा,
मजिस्ट्रेट
इसमें क्या
करेगा? मैंने
कहा, मजिस्ट्रेट
इसमें यह
करेगा, कि
उसे निर्णय
देना होगा कि
कौन जीता? आप
शादी के पक्ष
में दलीलें
दें, मैं
विपक्ष में
दलीलें
दूंगा। और
मजिस्ट्रेट
जो निर्णय दे दे! अगर
उसने कह दिया
कि शादी करनी
उचित, तो
मैं शादी
करूंगा। अगर
उसने कह दिया
शादी करनी
उचित नहीं, तो तुम्हें
तलाक देना
पड़ेगा। बस उस
दिन से वह जो
नदारद हुए, तो फिर मैं
सुबह—शाम उनके
घर जाने लगा!
आखिर उनकी
पत्नी ने कहा,
मैं हाथ
जोड़ती हूं, वह आपकी वजह
से सुबह—शाम
घर नहीं आते!
आखिर क्यों
मेरे पति के
पीछे पड़े हैं?
उन्होंने
आपका क्या बिगाड़ा
है? आपको
कोई दूसरा काम
नहीं है? वह
एकदम सुबह
जल्दी से उठ
कर घर से
निकलने लगते
हैं, कि वह
आते ही होंगे!
और शाम को भी
बाहर से आकर
देख लेते हैं
कि आप बैठे तो
नहीं, नहीं
तो आगे बढ़
जाते हैं।
क्यों हमारा जीवनत्तहस—नहस
किए दे रहे
हैं?
तो
मैंने उस युवक
को कहा कि मैं
तो किसी से
पूछने कभी गया
नहीं। तुम
मुझसे पूछने
आए हो, पूछना
ही बताता है
कि अच्छा यही
होगा कि तुम
अनुभव से गुजरो।
अनुभव के
अतिरिक्त और
कोई उत्तर
नहीं है।
सत्यानंद, तुम पूछते
हो: मेरी शादी
होने वाली है।
मामला लगता है
तय ही हो गया
है। ऐसे भी
बहुत देर हो
चुकी। इससे
मेरी सत्य की
खोज कुंठित
होगी या इससे
सहयोग मिलेगा?
तुम पर
निर्भर है।
सत्य की खोज
कुंठित भी हो
सकती है, सहयोग
भी मिल सकता
है। मगर तुम
शादी करो। कम—से—कम
मुझे एक
संन्यासिनी
मिलेगी, और
जो होगा हो!
तुम अपनी
फिक्र करो, मैं अपनी
फिक्र करता
हूं!
पांचवां
प्रश्न:
भगवान,
जमाना
एहले—खिरद
तो हो चुका
मायूस
कुछ
अजब नहीं कोई
दीवाना काम कर
जाए...
देवेंद्र
भारती, दीवानों
ने ही सदा काम
किया है।
बुद्धिमान तो सोचते
ही रहते हैं, विचारते ही
रहते हैं।
बुद्धि में
उलझे लोगों ने
कभी कुछ किया
नहीं। बुद्धि
में उलझे हुए
लोग तो बिलकुल
अकर्मण्य
सिद्ध हुए
हैं। यहां तो जो
भी होता है, दीवानों के
द्वारा होता
है। अच्छा भी,
बुरा भी।
अच्छा भी
दीवाने करते
हैं, बुरा
भी दीवाने
करते हैं।
बुद्धिमान न
तो अच्छा करते,
न बुरा
करते। वह तो
तय ही नहीं कर
पाते कि क्या अच्छा
है क्या बुरा
है? वह तो
इसी उपद्रव
में लगे रहते
हैं कि क्या
अच्छा, क्या
बुरा?
पश्चिम
के एक बहुत
बड़े विचारक
जी. ई. मूर ने
किताब लिखी है——प्रिंसपिया
इथिका।
इस सदी में
लिखी गई दस—पांच
किताबों में
महत्वपूर्ण
किताब है। उसमें
विचार किया
है: क्या
अच्छा, क्या
बुरा? क्या
शुभ, क्या
अशुभ? और
दो—ढाई सौ
पृष्ठों की
कठिन तर्क, उलझी हुई
प्रक्रिया के
बाद नतीजा
निकाला है कि
शुभ और अशुभ
की व्याख्या
नहीं हो सकती।
नतीजा यह है
कि शुभ और
अशुभ की व्याख्या
नहीं हो सकती!
लेकिन ढाई सौ
पृष्ठों के घने
तर्कजाल
से गुजरने के
बाद, नतीजा
इस पर आते हैं
कि शुभ और
अशुभ की कोई
व्याख्या
नहीं हो सकती।
अव्याख्य है।
बुद्धिमान
तो किसी की भी
व्याख्या
नहीं कर पाए।
क्योंकि
व्याख्या
होती है कृत्य
से, जीवन से।
तुम पूछते हो,
जमाना एहले—खिरद तो हो
चुका मायूस।
निश्चित है यह
बात। आज की ही
बात नहीं है, पुरानी है, सदा की है। बुद्धिमानों
से तो दुनिया
सदा से उदास
रही है, हताश
रही है। इनसे
तो कुछ हुआ ही
नहीं। ये तो
बस राख बटोरते
रहते हैं सिद्धांतों
की। ये तो सड़े—गले
शास्त्रों को
इकट्ठा करते
रहते हैं। उन
पर शोधकार्य
करते रहते
हैं।
यह बड़े
मजे की बात
है। कबीर
जिंदा, तो
वहां एक पंडित
नहीं
पहुंचेगा।
काशी के सारे
पंडित कबीर के
खिलाफ थे।
कबीर का जीना
दूभर कर दिया
था। और कबीर
के मर जाने के
बाद? जितना
शोधकार्य
कबीर पर होता
है, उतना
किसी पर नहीं
होता——यह बड़ी
हैरानी की
बात! खास काशी
विश्वविद्यालय
में भी कबीर
पर ग्रंथ—पर—ग्रंथ
लिख जाते हैं।
भारत का कोई
विश्वविद्यालय
नहीं है जहां
कबीर पर कोई
शोधकार्य न
चलता हो। सैकड़ों
पीएच.डी.
के शोधग्रंथ
कबीर पर लिखे
गए हैं। और
इनमें से एक
भी कबीर के
पास नहीं
जाता...अगर
कबीर जिंदा
होते। गए ही नहीं
कोई। यही काशी
थी, यही
पंडित थे। मगर
अब? अब
कबीर की
किताबों
में...किताबों
के कीड़े हैं ये!
दीमकें
हैं ये! ये
किताबें खाती
हैं, ये
किताबों पर
जीती हैं।
इनकी खोपड़ी
में सिवाय
कचरे के और
कुछ भी नहीं
है। इनसे
संसार में कभी
कुछ नहीं हुआ।
यहां तो पागल
ही कुछ कर गुजरें
तो कर गुजरें।
अच्छा भी करते
हैं वही, बुरा
भी करते हैं
वही।
इसलिए
पागलपन भी दो
प्रकार का है।
एक
पागलपन है:
बुद्धि से
नीचे गिर
जाना। जैसे
एडोल्फ हिटलर, चंगेजखान,
तैमूरलंग,
जोसेफ स्टेलिन,
माओत्से तुंग। और एक
पागलपन है:
बुद्धि के पार
उठ जाना——गौतम
बुद्ध, कृष्ण,
क्राइस्ट, जरथुस्त्र,
लाओत्सू,
कबीर, पलटू।
दोनों ही एक
अर्थों में
पागल हैं। एक
बुद्धि से
नीचे गिर गया,
एक बुद्धि
के पार उठ
गया। उठो
बुद्धि के
पार। यहां
पागलों की ही
जमात मैं
इकट्ठी कर रहा
हूं। दीवानों
की, प्रेमियों
की, परवानों
की। मरने—मिटने
की हिम्मत
होनी चाहिए।
दांव पर लगाने
का जीवन को
साहस होना
चाहिए। जुआरी
ही कुछ पा सकते
हैं। शराबी ही
कुछ पा सकते
हैं, इधर
लोग पानी छान—छानकर पी रहे
हैं, इनसे
क्या कुछ खाक
होगा! जीवन के
रस को बिन—छाने
पी जाओ। जीवन
के रस को आंख
बंद करके पी
जाओ। क्योंकि
जीवन के रस
में ही छिपे
हैं सारे
रहस्य।
बुद्धिमान तो
सोचते ही रहते
हैं।
स्वर्ग
में एक दिन
घटना घटी। एक कैफे में
बुद्ध, लाओत्सू और कनफ्यूसियस,
तीनों बैठे
गपशप कर रहे
हैं। अब
स्वर्ग में और
करो भी क्या!
गपशप के सिवाय
स्वर्ग में
कोई दूसरा काम
भी नहीं है।
गपशप करो या
चरखा कातो!
कुछ, बस
इसी तरह का
कुछ, ताश
खेलो, कि
शतरंज के मोहर
चलाओ! स्वर्ग
में करोगे
क्या? जैसे
गांव देहात
में लोग बरसात
के दिन में
कुछ नहीं पाते,
आल्हा—ऊदल
पढ़ते हैं। ऐसे
स्वर्ग में
आल्हा—ऊदल
पढ़ो; और
क्या करोगे?
बैठे
तीनों गपशप कर
रहे हैं। समय
की तो कोई कमी
ही नहीं है।
अनंत काल! तभी
एक अप्सरा——शायद
उर्वशी होगी।
क्योंकि इससे
छोटी अप्सरा
बुद्ध और लाओत्सू
और कनफ्यूसियस
जैसे लोगों की
सेवा के लिए
तत्पर नहीं
होती——उर्वशी
एक सुराही
लेकर आई, जो जीवनरस से
भरी है। और
उसने बुद्ध को
पूछा। बुद्ध
ने तत्काल
आंखें बंद कर
लीं। कहा, हटाओ, हटाओ, दूर
हटाओ! मैं
त्यागी—व्रती।
जीवन सिवाय
दुख के और कुछ
भी नहीं है। जन्म
भी दुख, जरा
भी दुख, मरण
भी दुख——जीवन
दुख—ही—दुख
है। यह रस
नहीं है, यह
जहर है। हटाओ,
हटाओ! कनफ्यूसियस
ने आधी आंख
खुली रखी, आधी
बंद रखी। या
समझो कि एक
आंख बंद रखी
और एक खुली
रखी। क्योंकि कनफ्यूसियस
मानते हैं:
मध्य का नियम।
अति नहीं।
बुद्ध जरा अति
पर चले गए।
दोनों आंखें
बंद कर लीं!
इतना जल्दी
निर्णय नहीं
लेना चाहिए।
पहले जीवनरस
चखो तो! तो कनफ्यूसियस
ने कहा कि एक
घूंट चखूंगा,
फिर तय
करूंगा। एक
घूंट चखा और
कहा कि बुद्ध
ठीक कहते हैं।
कड़वा है, तिक्त
है और दुख
लाएगा। ऊपर से
सुवासित
मालूम होता है,
सुगंधित
मालूम होता है,
लेकिन भीतर
खतरनाक है। लाओत्सू
ने पूरी
सुराही ले ली
और गटागट पी
गया। पूरी
सुराही! और जब
पूरी सुराही
गटागट पी गया,
तो बुद्ध भी
देखते रहे——आंख
खोलकर देखा
होगा कि यह
क्या मामला हो
रहा है, जब
गटागट की आवाज
सुनी——कनफ्यूसियस
ने भी दोनों
आंखें खोल दीं,
दोनों को
सदमा भी लगा, और जब गटागट
पूरी सुराही
पी गया लाओत्सू,
तो वह खड़ा
होकर नाचने
लगा। ठुमक—ठुमक!
ता थई, ता
थई! और उसने
कहा कि आंख
बंद करने से
कोई सार नहीं,
और एक घूंट
से कुछ पता
नहीं चलता, यह तो पूरा
जो पीता है
उसी को मालूम
होता है। समग्रता
लाओत्सू
का संदेश है।
जीवन
को जीओ
उसकी समग्रता
में। तो ही
जान सकोगे।
बुद्ध ने सोच—विचार
कर कहा कि
जीवन व्यर्थ
है; कनफ्यूसियस भी
विचारशील है,
मध्यमार्गी
है, स्वर्ण—नियम
मानता है
विचार का, कि
अतिशय पर न
जाओ, बीच
में रहो, जैसे
तराजू का
कांटा बीच में,
समतुल; लाओत्सू दीवाना है।
लेकिन लाओत्सू
ने जिस गहराई
से जीवन को
जाना है, उस
गहराई से किसी
ने भी नहीं
जाना।
देवेंद्र, तुम ठीक
कहते हो——
जमाना एहले—खिरद
तो हो चुका
मायूस
कुछ
अजब नहीं कोई
दीवाना काम कर
जाए...
इसीलिए
तो दीवानों को
इकट्ठा कर रहा
हूं। एकाध
दीवाने से काम
नहीं होगा।
जमाना बहुत
दीवाने चाहता
है। दीवानों
की बस्तियां
चाहता है। दीवानों
के समुदाय
चाहता है।
सारी पृथ्वी
को दीवानों से
भर देना है।
जगह—जगह जीवनरस
को समग्रता से
पीने वाले लोग, जो सुराही
को गटागट पी
जाएं, और
जो नाच सकें, और जा गा
सकें, और
जिनका नाच और
गाना
संक्रामक
होता जाए, और
सारी पृथ्वी
को जो एक
महोत्सव से भर
दें, ऐसे
लोगों से ही
संभावना है इस
मनुष्य—जाति
के बचने की।
अन्यथा
बुद्धिमान तो
काफी सता
चुके। और अब
भी छाती पर
सवार हैं!
तूफानों
से टक्कर ली
थी यह तो
किनारा जाने
है
साहिल
पर हम डूब रहे
हैं, क्या
यह धारा जाने
हैं?
नाम
हमारा जब आता
है, चुप रह कर
खुश होते हो
कहने
को ये राज है, लेकिन पआलम
सारा जाने है।
ये
दुनिया है
दीवानों से, बज्म सजी है
परवानों से
शमा
हो तुम, ये
बात न मानो, दिल तो
तुम्हारा
जाने है।
शहरों
शहरों, मुल्कों—मुल्कों,
आवारा हम
फिरते हैं
राहे—वफा
का जर्रा—जर्रा
नाम हमारा
जाने है।
दिल
की जीतें, दिल की
मातें, जादूगर
की सारी बातें
शाम
का तारा, जाने न जाने,
सुब्ह का तारा
जाने है।
कच्चे
धागे टूट चुके
हैं, कितने
साथी छूट चुके
हैं
जाने
क्यों दिल अब
तक तुमको अपना
सहारा जाने है।
मीर
हुए थे कल
दीवाने, आज
हुए हैं हम
दीवाने
फरजानों
की ये दुनिया
अंजाम हमारा
जाने है।
बाकर
कब तक खूं थूकोगे, मरने की तदबीरें
सोचो
दिल
की खातिर जीते
हो, ये दिल ही
तुम्हारा
जाने है।
मीर
हुए थे कल
दीवाने, महाकवि
मीर की तरफ
इशारा है...
मीर
हुए थे कल
दीवाने, आज
हुए हैं हम
दीवाने
फरजानों
की ये दुनिया
अंजाम हमारा
जाने है।
बुद्धिमानों
की यह दुनिया
भलीभांति
जानती है कि
दीवानों का
क्या परिणाम
होता है।
इसलिए
बुद्धिमान तो
डरते हैं, झिझकते हैं।
दीवानों का
क्या परिणाम
होता है? दीवानों
का पहला
परिणाम तो यह
होता है कि वह
अपने को
समर्पित कर
देते हैं
अस्तित्व की
महा अग्नि
में। वे अपने
को मिटा डालते
हैं, पोंछ
डालते हैं। वे
अपने को बचाते
नहीं। वे गल
जाते हैं।
जैसे बर्फ गल
जाए सुबह क
धूप में, बर्फ
पिघल जाए सुबह
की धूप में, ऐसे वे
परमात्मा की
उष्णता में, उसके प्रेम
में पिघल जाते
हैं, गल
जाते हैं, विसर्जित
हो जाते हैं।
दिल
की जीतें, दिल की
मातें, जादूगर
की सारी बातें
शाम
का तारा, जाने न जाने,
सुबह का
तारा जाने है।
दीवाने
तो सुबह के
तारे हैं, जिन्होंने
पूरी रात देख
ली है, रात
के सब राज देख
लिए हैं, जिन्होंने
अंधेरा पहचान
लिया और जिनकी
सुबह से पहचान
हो गई है, जो
अब सुबह के
ऊगते हुए सूरज
को भी देख रहे
हैं। लेकिन
सुबह के तारे
को एक खतरा
उठाना पड़ता
है: इधर सूरज
ऊगा, उधर
तारा मिटा।
उसे मिटने की
तैयारी रखनी
होती है।
ये
दुनिया है
दीवानों से, बज्म सजी है
परवानों से
शमा
हो तुम, ये
बात न मानो, दिल तो
तुम्हारा
जाने है।
परमात्मा
शमा है, और
यह दुनिया है
दीवानों से, बज्म सजी है परवानों
से; परमात्मा
एक दीए की
ज्योति है और
जो उसमें परवानों
की तरह डूब
जाए, मिट
जाए, खो
जाए, एक हो
जाए, तदाकार
हो जाए, वही
उपलब्ध हो
पाता है।
देवेंद्र, तुम ठीक
कहते हो। मगर
कहते ही न रहो,
दीवाने बनो!
कहीं ऐसा न हो
कि यह बात भी
बस बुद्धिमानी
की हो। मनुष्य
की बुद्धि बड़ी
चालाक है।
बुद्धि के
खिलाफ भी बातें
कर लेती है, इतनी चालाक
है।
ये
दौरे—मसर्रत, ये तेवर
तुम्हारे
उभरने
से पहले न डूबें
सितारे।
भंवर
से लड़ो, तुंद लहरों
से उलझो
कहां
तक चलोगे
किनारे—किनारे।
अजब
चीज है ये
मुहब्बत की
बाजी
जो
हारे वो जीते, जो जीते वो
हारे।
सियह
नागिनें बनके
डसती हैं
किरनें
कहां
कोई ये रोजे—रोशन
गुजारे।
सफीने
वहां डूब कर
ही रहे हैं
जहां
हौसले नाखु
दाओं ने
हारे।
कई इन्कलाबात
आए जहां में
मगर
आज तक दिन न
बदले हमारे।
रजा
सैले—नौ
की खबर दे रहे
हैं
उफक
को ये दूते
हुए तेज धारे।
सोचते
ही मत रहो।
ऐसा सोचने से
कुछ भी न
होगा।
बुद्धिमान
दीवानी की बात
भी सोच लेता
है, उसका भी
सिद्धांत बना
लेता है; परवाने
की बात भी सोच
लेता है, उसका
भी सिद्धांत
बना लेता है, मगर स्वयं
परवाना नहीं
बनता।
भंवर
से लड़ो, तुंदर लहरों से उलझो
कहां
तक चलोगे
किनारे—किनारे।
होशियार
आदमी तो
किनारे—किनारे
चलता है।
देखता है
तूफान, आंधी,
दूसरा
किनारा तो
दिखाई भी नहीं
पड़ता और नाव
छोटी है, हाथ
छोटे, पतवार
छोटी——कौन
उतरे इस खतरे
में? और
ध्यान रखना, अगर डरते—डरते,
भयभीत—भयभीत
कोई उतर भी
गया, आधे—आधे
मन, तो
पहुंच नहीं
पाता।
सफीने
वहां डूब कर
ही रहे हैं
जहां
हौसले नाखुदाओं
ने हारे।
अगर
माझी में
हौसला ही न हो, अगर माझी
नाव को उतारने
के पहले ही
पस्त—हिम्मत
हो——सफीने
वहां डूब कर
ही रहे हैं——तो
फिर नौकाएं
डूब जाती हैं।
सफीने
वहां डूब कर
ही रहे हैं
जहां
हौसले नाखदाओं
ने हारे।
रजा
सैले—नौ
की खबर दे रहे
हैं
नई
सुबह होने को
है, नई किरण
फूटने को है, रात टूटने
को है, क्योंकि
आदमी जी चुका
अंधेरे में
बहुत, पांडित्य
का जाल सड़
चुका है, यह
भवन गिरने को
है, जरा
धक्का देने की
जरूरत है।
रजा
सैले—नौ
की खबर दे रहे
हैं
उफका
को ये छूते
हुए तेज धारे।
जरा
देखो आंख
खोलकर, जिंदगी
नई होने को
उतावली है; जिंदगी
पुराने जालों
से छूट जाना
चाहती है; पुरानी
सीमाएं
जिंदगी की
कब्र न रही
हैं; पुराने
ढंग, पुराने
पक्षपात
पैरों में
जंजीरें बन गए
हैं, कारागृह
बन गए हैं।
मुक्त करो
मनुष्य को!
लेकिन मुक्त
करो स्वयं को
तो ही मनुष्य
को मुक्त कर
सकोगे।
बात तो
तुमने पते की
कही है, लेकिन
बात ही न रह
जाए! जीवन
बने। दीवाने
बनो! परवाने
बनो! किनारे—किनारे
बहुत चल चुके,
अब नाव छोड़नी
है! तूफान हैं
जरूर, मगर
तूफान
सौभाग्य है!
क्योंकि जो
तूफान से टक्कर
लेता है, वही
निखर
पाता है, वही
प्रखर होता है।
तूफान
चुनौती है।
तूफान के पीछे
ही छिपा है दूसरा
किनारा।
जिन्होंने
अनुभव किया है, वे तो कहते
हैं, तूफान
ही है दूसरा
किनारा।
मझधार में
डूबे तो मिल
गया दूसरा
किनारा।
मगर
डूबने का एक
ढंग है।
एक तो
डूबता है वह, जिसने हौसला
छोड़ दिया।
पस्त—हिम्मत।
कायर। वह तो
किनारे पर ही
डूब जाता है।
उसके लिए कोई
मझधार तक जाने
की जरूरत होती
है! वह तो
किनारे पर ही डूब
मरता है। उसके
लिए तो चुल्लू
भर पानी भी मर
जाने के लिए
काफी है, डूब
जाने के लिए
काफी है। कायर
तो चुल्लू भर
पानी में डूब
मरते हैं।
लेकिन साहसी
उतरते हैं, सब बुद्धिमत्ता
को एक तरफ
हटाकर प्रेम
के एक पागलपन
में कूद पड़ते
हैं तूफानों
में; फिर
अगर मझधार में
भी डूब जाएं
तो उन्हें
किनारा मिल
जाता है।
क्योंकि जीवन
का गणित बड़ा
अजीब है——
अजब
चीज है ये
मुहब्बत की
बाजी
जो
हारे वो जीते, जो जीते वो
हारे।
भंवर
से लड़ो, तुंद लहरों
से उलझो
कहां
तक चलोगे
किनारे—किनारे।
आज
इतना ही।
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