दिनांक; बुधवार, 18
जुलाई 1979;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—भगवान,
हुआ लुप्त
पावन दर्शन यह
अनुपम
हे
भगवान
पुनः
स्वार्थ से
भरे कीच में रमूं न
मैं
अनजान।
2—भगवान,
गुरु गोविंद दोऊ खड़े
काके लागूं पांय?
3—भगवान,
न होशे
हस्ती न ताबे
मस्ती
कि
तेरा
शुक्रिया अदा
करेंगे।
खिजां
में है अब से
अपना आलम
4—भगवान,
शिक्षा के
क्षेत्र में
गुलामी अपार
है। पूना के वाडिया
कालेज में
दर्शनशास्त्र
के अध्यापक के
रूप में
इंटरव्यू में
चुने जाने पर
भी नियुक्ति
इसलिए नहीं दी
गई, क्योंकि
गेरुआ वस्त्र
और माला न
पहनने की शर्त
को मैंने स्वीकार
नहीं किया। अब
परसों फिर
पूना कालेज में
इंटरव्यू में
चुने जाने पर
भी नियुक्ति
के पहले वे
मुझसे वचन
चाहते हैं कि
मैं गेरुआ
वस्त्र न पहनूं
और माला
ज्यादा से
ज्यादा
वस्त्रों के
भीतर रखूं।
शिक्षक को
इतनी स्वतंत्रता
नहीं कि वह
अपने ढंग से
रह सके! और ऐसा
गुलाम शिक्षक
भविष्य की पीढ़ी
का निर्माण
करने का भार
वहन करता है!
पहला
प्रश्न:
भगवान,
हुआ
लुप्त पावन
दर्शन यह
अनुपम
हे
भगवान
पुनः
स्वार्थ सये
भरे कीच में रमूं न
मैं
अनजान।
चित्तरंजन, जो
क्षणभंगुर है,
उसका कोई भी
मूल्य नहीं।
जो अभी है और
अभी नहीं हो
जाए, वह
पानी का बबूला
है। कितना ही
चमके सूरज की
रोशनी में, हीरा वह
नहीं है। यहां
जो घटित हो
रहा है तुम्हारे
और मेरे बीच, उसके लुप्त
होने की कोई
संभावना
नहीं। वह सच ही
घटित हो रहा
है। तुम्हारे
मन की कल्पना
नहीं है। न ही
तुम्हारा आत्मसम्मोहन
है। न
तुम्हारी
मान्यता है।
तुम्हारे ऊपर
आनंद की एक
वर्षा हो रही
है। तुम्हारा
हृदय—पात्र भर
रहा है।
तुममें पूजा
और प्रार्थना
के स्वर पैदा
हो रहे हैं।
इनके मिटने का
कोई उपाय नहीं
है। तुम चाहो
भी तो इन्हें
मिटा न सकोगे।
तुम आंख
चुराना भी चाहो
तो जो सत्य
तुम्हें एक
बार दिखाई पड़
गए, उन
सत्यों से
बचने का कोई
उपाय नहीं है।
जो जान लिया
गया, जान
लिया गया। उसे
अब झुठलाया
नहीं जा सकता।
दूर जा
सकते हो मुझसे, दूरी स्थान
की होगी, लेकिन
एक और तल है
जहां दूरी
असंभव है।
प्रेम के जगत
में न स्थान
की कोई दूरी
अर्थ रखती है,
न समय की।
प्रेम ऐसे जोड़
देता है कि
टूटने की असंभावना
हो जाती है।
इसलिए चिंता न
करो! चिंता
लगती है, स्वाभाविक;
क्योंकि इस
जीवन में जो
भी हम जानते
हैं वह सब खो
जाता है। इस
जीवन का प्रेम
आज फूल, कल
राख हो जाता
है। इस जीवन
का यश, मान—सम्मान,
सब धूल—धूसरित
हो जाता है।
यह जीवन ही आज
नहीं कल कब्र
में पड़ा होगा।
यह देह मिट्टी
हो जाएगी।
यहां सब कुछ
खो जाता है।
इसलिए
स्वभावतः जब
अनंत की झलकें
मिलनी शुरू
होती हैं, तो
मन में हजार
शंकाएं उठती
हैं—कहीं यह
भी तो खो न
जाएंगी?
शंकाएं
स्वाभाविक
हैं, लेकिन
असत्य हैं, भ्रामक हैं।
शंकाएं
स्वाभाविक
हैं, क्योंकि
अतीत का सारा
अनुभव यही है
कि यहां कुछ
भी टिकता
नहीं।
तो जब
पहली दफा हृदय
में उमंग उठती
है ध्यान की, तो डर लगता
है—छूट तो न
जाएंगी, छिटक
तो न जाएंगी?। कहीं ऐसा
तो न होगा कि
फिर पड़ जाऊं
उसी गैर—ध्यान
की अवस्था में,
जिसमें कल
तक था? जब
पहली दफा किरण
उतरती है तो
भरोसा ही नहीं
आता। क्योंकि
अंधेरे में हम
इतने जीए हैं,
अंधेरा
स्वाभाविक हो
गया है, प्रकाश
झूठ हो गया
है। प्रकाश पर
तो लोग सिर्फ
कामचलाऊ
भरोसा करते
हैं। हिंदू
हैं, मुसलमान
हैं, ईसाई
हैं, मंदिर
भी जाते, मस्जिद
भी जाते, गिरजे
भी जाते, फूल
भी चढ़ाते,
अर्चना भी
करते, मगर
सब झूठी, ऊपर—ऊपर।
भीतर जो जानते
हैं, यह सब
औपचारिकता है,
एक सामाजिक
व्यवहार है।
लेकिन चित्तरंजन, जो यहां
घटित हो रहा
है, वह न तो
औपचारिकता है,
न सामाजिक
व्यवहार है।
औपचारिकता के
कारण तो कोई
मेरे पास आएगा
नहीं। मेरे
पास आना तो
महंगा सौदा है।
औपचारिकता
मात्र के लिए
कौन मेरे पास
आकर झंझट
लेगा! मेरे
साथ जुड़ना
तो बदनाम होना
है। मेरे साथ
खड़े होना तो
सारे समाज से
बगावत है, स्थापित
स्वार्थों से
विद्रोह है।
मेरे नाम के
साथ जुड़ने
के लिए भी
साहस चाहिए।
अदम्य साहस
चाहिए।
मंदिर—मस्जिद
जा सकता है
कोई
औपचारिकता से, क्योंकि
जाने में
प्रतिष्ठा
मिलती है।
हानि क्या है?
लाभ—ही—लाभ
है। अगर होगा
कोई परलोक तो
परलोक भी
सम्हलता; और
यह लोक भी
सम्हलता है।
मंदिर जाने
वाला आदमी, मस्जिद जाने
वाला आदमी
धार्मिक समझा
जाता है, प्रतिष्ठित
समझा जाता है,
सम्मानित
होता है।
अहंकार को
पूजा मिलती
है। अहंकार को
नया—नया
शृंगार मिलता
है। मेरे पास
आओगे तो समाज
कांटों के हार
पहनाएगा।
समाज गालियां
देगा, अपमान
करेगा। हजार
तरह की
कठिनाइयां
जीवन में खड़ी
करेगा। मेरे
पास कोई
औपचारिकता से
तो नहीं आ सकता।
और
मेरे पास किसी
सामाजिक
व्यवहार से
आने का कोई
कारण नहीं है।
सामाजिक
व्यवहार तो
वहां होता है
जहां पुरानी
परंपरा होती
है। हजारों साल
की परंपरा से
सामाजिक
व्यवहार का
जन्म होता है।
यहां
तो सूरज की नई
किरण पैदा हो
रही है, जिसकी
कोई परंपरा
नहीं। यहां तो
कुछ नए का
अवतरण हो रहा
है, जिसका
कोई अतीत
नहीं। यहां तो
कोरी किताब पर
कुछ लिखावट की
जा रही है; वेद
नहीं, कुरान
नहीं, बाइबिल
नहीं। यहां तो
केवल वे थोड़े—से
लोग ही आ
सकेंगे, जिनमें
इतना
दीवानापन है
कि सामान्य
स्वार्थों को,
सुविधाओं
को, सुरक्षाओं को एक तरफ रख
दें। यहां तो
बस परवाने आ
सकेंगे। यहां
तो शमा जली
है। और परवाने
का शमा के पास
आना अपनी मृत्यु
के पास आना
है। मैं
तुम्हें क्या
दे सकता हूं? छीनूंगा। सब छीन
लूंगा।
तुम्हारा
ज्ञान, जो
तुम्हारी बड़ी
संपदा है; तुम्हारे
पक्षपात, तुम्हारे,
शास्त्र, तुम्हारे
संप्रदाय, तुम्हारे
मंदिर—मस्जिद,
तुम्हारे
पूजागृह, तुम्हारी
मूर्तियां, तुम्हारी
प्रार्थनाएं,
सब छीन
लूंगा।
चेष्टा तो यही
है कि तुम ऐसे जलो, ऐसे
भभको कि
तुम्हारा
अहंकार राख हो
जाए। तब जो
शेष रह जाएगा
अग्नि के पार,
वही तुम हो,
वही
तुम्हारा
शाश्वत
स्वरूप है।
तभी तुम जानोगे
तत्वमसि
का अर्थ। वह
तुम ही हो।
तभी तुम
जानोगे अहं ब्रह्मास्मि
का अर्थ; कि
मैं ब्रह्म
हूं। तभी
तुम्हारे
सामने मंसूर
का अनलहक,
कि मैं सत्य
हूं, इसकी
जीवंत
व्याख्या
होगी। अनुभव
से व्याख्या
होगी।
इतने
बड़े सत्य के
करीब, इतने
बड़े अनुभव के
करीब मन बहुत
बार डरेगा। यह
अपने वश में
है? यह
अपनी औकात? यह अपनी
पात्रता? कहीं
ऐसा तो नहीं
है: एक झलक आई
है स्वप्न में
और खो जाएगी?
तुम
कहते हो—
हुआ
लुप्त पावन
दर्शन यह
अनुपम
हे
भगवान
यह
लुप्त होने
वाली बात
नहीं। यह
दर्शन शुरू तो
होता है, समाप्त
नहीं। यह
प्रेम बसंत तो
जानता है, पतझड़
नहीं।
पुरानी
कहानियां
कहती हैं सारी
दुनिया की कि एक
ऐसा समय था
पृथ्वी पर जब
सिर्फ एक ही
ऋतु होती थी—वसंत।
फिर जैसे—जैसे
आदमी पतित हुआ
अपनी
निर्दोषता से, वैसे—वैसे
और—और ऋतुएं
आनी शुरू
हुईं। अब तो
वसंत खो गया
है। आता भी है
तो पता नहीं
चलता। बड़े—बड़े
नगरों में
कहां पता चलता
है—कब पतझड़,
कब वसंत? सीमेंट के
रास्ते, सीमेंट
के बड़े—बड़े
मकान; न
पत्ते झरते
हैं, न फूल
खिलते हैं, न कोयल
कूकती है, न
पपीहा
पुकारता है; ट्रकों, बसों
और कारों के
हार्न सदा
बजते रहते
हैं। न पतझड़
की फिक्र है, न वसंत की
फिक्र है। वही
आपाधापी रोज
चलती है। आकाश
में बदलती होंगी
ऋतुएं, लेकिन कौन
आकाश को देखता
है? किसके
पास समय है, सुविधा है? कौन चांदत्तारों
को देखता है? रास्ते के
किनारे लगे
पोस्टर ही
पढ़ने से फुर्सत
नहीं मिलती, चांदत्तारों को देखे तो
कौन देखे? और
आंखें
तुम्हारी ऐसी धुंधली हो
गई हैं
क्षुद्र और
व्यर्थ को
देखते—देखते
कि चांदत्तारे
भी देखोगे
तो पक्का
भरोसा नहीं
आएगा कि हैं।
सोचोगे कुछ
भ्रम है।
चित्तरंजन, आंख खुलनी
शुरू हुई है।
दर्शन का यही
अर्थ है।
दर्शन का वही
अर्थ नहीं है
जो लोग आमतौर
से समझते हैं।
दर्शन कोई
विचारधारा
नहीं है। मैं
तुम्हें कोई
विचार नहीं दे
रहा हूं। एक
दृष्टि, एक
आंख; ताकि
तुम्हें वह
दिखाई पड़ सके
जो दिखाई पड़ना
बंद हो गया
है। और जब आंख
मिलती है तो
फिर एक ही ऋतु
रह जाती है—वसंत।
फिर पतझड़
आता ही नहीं।
या कि पतझड़
भी वसंत हो
जाता है।
पत्तों का
गिरना भी फूलों
के खिलने
से कम सुंदर
नहीं होता
फिर। दृष्टि
बदली कि सृष्टि
बदली।
तुम
कहते हो—
पुनः
स्वार्थ से
भरे कीच में रमूं न
मैं
अनजान।
कुछ
बातें समझ
लेनी जरूरी
हैं। पहली
बात। सारे
तथाकथित
धर्मों ने
तुम्हें
समझाया है, स्वार्थ छोड़ो;
स्वार्थ
पाप है; परार्थी बनो। और लोग
चेष्टा भी
करते हैं कि
स्वार्थ
छोड़ें, परार्थी बनें।
लेकिन कोई
उनसे पूछे कि परार्थी
क्यों बनना
चाहते हो? तो
वह कहते हैं, स्वर्ग जाना
है। कि पुण्य
कमाना है। कि
मोक्ष पाना
है। मगर यह सब
तो स्वार्थ की
बात हुई। यह तो
तुमने परार्थ
को भी स्वार्थ
की सेवा में
संलग्न कर
लिया। यह
परार्थ कहां
हुआ?
मेरे
देखे, इस
तरह परार्थ हो
ही नहीं सकता।
इसकी मूल प्रेरणा
ही स्वार्थ
है। स्वर्ग
मिले; फिर
कभी आवागमन के
चक्कर में न पड़ना पड़ें;
फिर कभी इस
देह का बंधन न
हो; फिर
कभी गर्भ और
मृत्यु, ये
सब उपद्रव न
हों; फिर
यह संसार का
जाल पुनः न पकड़े—यह
सब स्वार्थ
है। स्वयं के
अर्थ है।
स्वयं के हित
में है। इसलिए
परार्थ करो, सेवा करो, बीमारों के
हाथ—पैर दबाओ,
यह सब करो, लेकिन इस
सबके पीछे जो
हेतु है, वह
स्वार्थ ही
है। इसलिए
दुनिया में
परार्थ की
शिक्षा दी
जाती रही और
स्वार्थ पलता
रहा। और
स्वार्थ छिप—छिपकर
सूक्ष्म रूप
लेता रहा।
स्थूल अर्थों
में परार्थी
हो गए लोग, लेकिन
सूक्ष्म
अर्थों में और
भी स्वार्थी
हो गए। इस लोक
का ही स्वार्थ
नहीं, परलोक
का स्वार्थ भी
उन्हें
ग्रसित कर
लिया।
मैं
तुम्हें कुछ
और सिखाता
हूं। मैं नहीं
कहता स्वार्थ छोड़ो, मैं
तो कहता हूं:
स्व छोड़ो।
स्वार्थ नहीं
छूट सकता, जब
तक स्व न जाए।
स्वार्थ तो
स्व की छाया
है। इसलिए तुम
स्वार्थ छोड़ोगे,
स्व और घना
हो जाएगा।
तुम्हारे
तथाकथित साधु—संन्यासी,
मुनि—त्यागी—व्रती
जितने
अहंकारी होते
हैं उतना कोई
अहंकारी नहीं
होता।
स्वार्थ छोड़
दिया तो वह जो
ऊर्जा
स्वार्थ में
संलग्न थी, वह सारी—की—सारी
ऊर्जा स्व को
और मजबूत करने
लगी। वह जो स्वार्थ
में लगा था
श्रम, वही
श्रम अब
अहंकार को और
भी मजबूत करने
में लग गया।
स्वार्थ क्या
छोड़ते हैं, स्व और सघन
होता है।
मैं
तुमसे दूसरी
ही बात कहता
हूं। मैं कहता
हूं, स्वार्थ
की फिक्र ही न
करो, स्व
जाने दो।
स्वार्थ स्व
की छाया है।
और जहां स्व
गया, स्वार्थ
कैसे बचेगा? छायाओं से
मत लड़ो, मूल को काट
दो। पत्ते मत
काटते रहो, जड़ ही काट
दो।
और स्व
को काटने के
दो ही उपाय
हैं। या तो
प्रेम में ऐसे
लीन हो जाओ
परमात्मा के—और
जब भी मैं
कहता हूं
परमात्मा तो
खयाल रखना, मेरा अर्थ
ब्रह्मा—विष्णु—महेश
से नहीं है, मेरा अर्थ
मंदिर—गिरजों
में पूजी
जाने वाली
प्रतिमाओं से
नहीं है, जब
भी मैं कहता
हूं परमात्मा,
तो मेरा
अर्थ है: यह
विराट
प्रकृति में
छिपा हुआ
रहस्य; इस
विराट
प्रकृति के
भीतर छिपा हुआ
संगीत। यह जो
काव्य
वृक्षों में
है, पक्षियों
की चहचहाट में
है, चांदत्तारों की रोशनी
में है; यह
जो रहस्य, यह
जो अनूठा—जिसका
न कोई और है न
छोर—अस्तित्व
है, इसी का
दूसरा नाम
परमात्मा है।
प्रेम में इसी
को परमात्मा
कहा गया है।
तुम चाहो तो
प्रकृति कहो,
तुम चाहो तो
अस्तित्व
कहो।
लेकिन
परमात्मा
शब्द बड़ा
प्यारा है, उसमें
प्रकृति भी आ
जाती, अस्तित्व
भी आ जाता और
कुछ ज्यादा भी,
जो शब्दों
में नहीं
समाता, वह
भी आ जाता है।
अस्तित्व में
तो वही आता है
जो शब्दों में
समाता है।
प्रकृति में
वही आता है
जिसकी
विज्ञान परख
कर लेता है। जांच
लेता है, माप
कर लेता है।
लेकिन
परमात्मा में
कुछ ज्यादा।
अस्तित्व
और प्रकृति
छोटे शब्द
हैं। परमात्मा
का बहुत कुछ
उनमें आ जाता
है लेकिन बहुत
कुछ शेष रह
जाता है। गद्य
हिस्सा तो आ
जाता है, पद्य
हिस्सा छूट
जाता है। वीणा
तो आ जाती है लेकिन
वीणा से उठने
वाला संगीत
छूट जाता है।
ऊपर—ऊपर जो
दिखाई पड़ता है,
वह तो
सम्मिलित हो
जाता है, लेकिन
भीतर—भीतर जो
छिपा है, अंतर्धारा
जो है—चैतन्य
की—जो न
प्रत्यक्ष है,
न
प्रत्यक्ष हो
सकती है; जिसका
होना ही
परोक्ष है; वह छूट जाता
है।
इसलिए
परमात्मा
शब्द का
प्रयोग करता
हूं।
परमात्मा
का अर्थ है:
चैतन्य
अस्तित्व। अस्तित्व+चैतन्य।
बाह्य—बाह्य
तो प्रकृति है, भीतर—भीतर
जो छिपा है
गहन में, वह
परमात्मा।
एक
रास्ता है कि
परमात्मा में
अपने को डूबा
दो तो स्व मिट
जाए। न रहेगा
बांस न बजेगी
बांसुरी। फिर
छाया न पड़ेगी।
कहानियां
कहती हैं कि
स्वर्ग में
देवता चलते
हैं तो उनकी
छाया नहीं
बनती। ये
कहानियां बड़ी
प्रीतिकर
हैं। जैसे
मैंने तुमसे
कहा कि पुरानी
कहानियां
कहती हैं एक
ऐसा समय था, जब पृथ्वी
पर केवल वसंत
ही होता था—एक
ही ऋतु। वह
कहानी ही है।
ऐसा कोई समय
नहीं था
पृथ्वी पर जब
एक ही ऋतु
होती थी। लेकिन
इस पृथ्वी पर
ऐसे लोग जरूर
हुए हैं जिनके
लिए एक ही ऋतु
होती है—बुद्ध,
कृष्ण, महावीर,
कबीर, नानक,
पलटू। ऐसे
लोग इस पृथ्वी
पर होते रहे
हैं जिनको एक
ही ऋतु का पता
है।
जिन्होंने ऋत
को जान लिया, उनके लिए एक
ही ऋतु रह
जाती है।
जिन्होंने इस जीवन
के शाश्वत रहस्य
को समझ लिया, उनके लिए बस
वसंत ही वसंत
है। पतझड़
भी उनके लिए
वसंत की ही
तैयारी है।
उनके लिए मृत्यु
भी जीवन का
द्वार है, जीवन
का दूसरा पहलू
है। उनके लिए
अंधेरा भी बस
प्रकाश के
प्रकट होने के
लिए एक अवसर
है। उन्हें
अंधेरे से
अंधेरी रात
में भी सुबह
के दर्शन होते
हैं। अमावस की
रात के गर्भ
में भी सूरज
ही छिपा है।
ऐसे
लोग हुए, ऐसे
लोग अब भी हैं,
जिनके लिए
एक ही ऋतु
होती है। मैं
तुमसे कहता हूं
कि मेरे लिए
एक ही ऋतु है—वसंत।
यह जो गैरिक
वस्त्र मैंने
तुम्हारे लिए
चुने हैं, यह
वसंत का रंग
है। यह वासंती
रंग है। यह उस
एक ऋतु की याद
दिलाने को है
कि जल्दी
तुम्हें भी उस
जगह आ जाना है
जहां एक ही
ऋतु रह जाए।
स्व
जाना चाहिए, स्वार्थ की
चिंता ही न
करो। स्व गया
तो स्वार्थ तो
अपने से
जाएगा। तुम ही
चले गए तो
तुम्हारी
छाया भी चली
जाएगी। इसलिए
मैं नहीं
सिखाता परार्थ।
बहुत लोगों को
हैरानी होती
है। मेरे पास
कितने पत्र
आते हैं—सैकड़ों
पत्र—कि आप
अपने
संन्यासियों
को सेवा की
शिक्षा क्यों
नहीं देते? कि वह कुछ
सेवा करें!
थोड़ा उनको
परार्थ
सिखाएं। कहीं
ऐसा न हो कि वे
स्वार्थी रह
जाएं। मैं स्वार्थ
छोड़ने को भी
नहीं कह सकता,
मैं परार्थ
सिखा भी नहीं
सकता। मेरे
देखे हिसाब ही
और है। स्व जाता
है तो स्वार्थ
चला जाता है।
और जब स्वार्थ
चला जाता है, जो शेष रह
जाता है उसका
नाम परार्थ
है। उसको परार्थ
भी नहीं कह
सकते, इसलिए
उस शब्द का
मैं उपयोग
नहीं करता।
जब स्व
ही न रहा तो पर
कौन? एक ही
बचा। वही बचा।
जब स्व ही न
रहा तो सेवा
कौन करे और
किसकी करे? कबीर ने कहा
है: अब तो उठता
हूं, बैठता
हूं—यही पूजा।
खाता हूं, पीता
हूं—यही सेवा।
चलता हूं, फिरता
हूं—यही
परिक्रमा।
फिर तो श्वास
लेना ही मंत्र—पाठ
है। गायत्री
है। ओंमकार
है। नमोकार
है। फिर तो
होना मात्र
सेवा है।
लेकिन सेवा
जैसे छोटे
शब्द का
प्रयोग नहीं किया
जा सकता अब।
होना इतने
प्रेम से
भरपूर है, लबालब,
कि
तुम्हारे
होने के छींटे
दूसरों पर उड़ने
लगते हैं; कि
तुम्हारा
होना बहने
लगता है, ऊपर
से बहने लगता
है—तुम्हारा
पात्र इतना भर
जाता है; कि
दूसरों तक
तुम्हारे आनंद
की झलक
पहुंचने लगती
है; तुम्हारी
गंध उड़ने
लगती है हवाओं
में, दूसरों
के नासापुटों
में भरने लगती
है। मगर इसको
परार्थ नहीं
कहा जा सकता।
स्व ही नहीं
रहा हो तो
परार्थ कौन? एक ही बचा।
वही तुम हो, वही और भी
है।
इसलिए
इस डर में तो पड़ो ही मत, चित्तरंजन,
कि कहीं फिर
तुम स्वार्थ
में तो न गिर
जाओगे! हां, अगर तुमने
पुरानी
शिक्षाओं को
ही याद रखा, तो स्वार्थ
से छूटे ही
नहीं हो, गिरने
का सवाल क्या
उठता है? अगर
मेरी शिक्षा
को समझा, तो
स्व से छूटने
लगोगे। एक
रास्ता प्रेम,
परमात्मा
में डुबकी
मारो; एक
रास्ता ध्यान,
अपने में डुबकी
मारो। डुबकी
लगनी चाहिए, बस। डुबकी
लगी कि स्व
गया।
परमात्मा में
लग जाए तो चला
जाता है, अपने
में लग जाए तो
चला जाता है।
स्व रहता है किनारे
पर चलने वालों
के पास। जो
कहीं भी डूब जाते
हैं, उनका
स्व खो जाता
है। और डूबने
के दो उपाय
हैं। जो सुगम
मालूम पड़े।
और चित्तरंजन, तुम्हें
प्रेम ही सुगम
मालूम पड़ेगा।
तुम्हारी
प्रकृति के
वही अनुकूल
आएगा। डूबो
रहस्य में यह
जो चारों तरफ
सघन होकर खड़ा
है, अनंत—अनंत
रूपों में
प्रकट हो रहा
है! आंदोलित
होओ इसके साथ,
नाचो, गाओ,
डूबो!
जिनसे
यह न हो सके, वे स्वयं
में डूबें।
आंख बंद करें,
भीतर जाएं।
जितने भीतर
जाओगे, उतना
ही अपने को कम
पाओगे।
यह बड़ा
विरोधाभास
है।
लोग
सोचते हैं, भीतर जाएंगे
तो स्वयं को
पाएंगे। जो
ऐसा सोचते हैं,
उन्होंने
शास्त्र पढ़े
हैं, अनुभव
नहीं किया।
उन्होंने
ध्यान के
संबंध में
सुना होगा, स्वाद नहीं
लिया। भीतर
जितने जाओगे,
उतना ही
पाओगे कि तुम
नहीं हो। जिस
दिन अपनी अंतिम
गहराई छू लोगे,
उस दिन
पाओगे—मैं
जैसी कोई चीज
ही नहीं। एक
झूठ था, एक
असत्य था, जो
अपने से
अपरिचित होने
के कारण
निर्मित हो गया
था। जब आत्म—परिचय
होगा, स्व
गया। और स्व
के साथ
स्वार्थ गया।
फिर बजती है धुन,
बजता है
इकतारा!
नहीं, तुम अब डूब न
सकोगे
स्वार्थ में,
क्योंकि
मैं स्व को
तोड़ रहा हूं।
तुम
कहते हो—
पुनः
स्वार्थ से
भरे कीच में रमूं न
मैं
अनजान।
तुम्हारी
प्रार्थना तो
उचित है; तुम्हारा
भय तो उचित है;
तुम्हारे
भय को मैं
समझता...डर
लगता है; इतने
दिन तक स्वार्थ
में जीए हैं; यहां मेरी
छाया में, यहां
मेरी सन्निधि
में, यहां
इतने दीवानों
के साथ भूल
जाता है सब
संसार, भूल
जाता है सब
स्वार्थ; कहीं
घर जाकर वापिस
तो न लौट आएगा?
घर में
बैठकर
प्रतीक्षा तो
न कर रहा होगा
कि आओ घर चित्तरंजन,
फिर
देखेंगे!! कि
घर तो आओ एक
बार!...मेरी बात
समझोगे तो कोई
उपाय स्वार्थ
के लौटने का
नहीं। और मत
कहो उसे कीचड़!
यहां
भी मेरा भेद
है।
अब तक
जो कहा गया है:
संसार कीचड़, वह निंदा के
लिए कहा गया
है। संसार की
निंदा करने के
लिए कीचड़ शब्द
का प्रयोग
किया गया है। मैं
भी कहता हूं
संसार कीचड़, लेकिन निंदा
के लिए नहीं।
मैं कहता हूं
संसार कीचड़, क्योंकि
यहां कमल पैदा
होते हैं। कमल
बिना कीचड़ के
पैदा नहीं
होते। मैं
कीचड़ को भी
सम्मान देता
हूं। क्योंकि
मेरे लिए कीचड़
कमल का ही छिपा
हुआ रूप है—अनभिव्यक्त
कमल है। मत
कहो कीचड़, पुरानी
भाषा का उपयोग
मत करना, पुराने
अर्थों में मत
करना।
क्योंकि कीचड़
शब्द कहते ही
से हमारे मन
में एक निंदा
का भाव पैदा
होता है कि
अरे, कीचड़!
कीचड़ शब्द
कहते ही से मन
होता है, सम्हाल
लो अपने कपड़े
और बच कर निकल
जाओ।
तुम
अगर कीचड़ से
बचे तो कमलों
से बच जाओगे।
और कमलों से
बच गए तो जीवन
अकारथ गया।
कीचड़ कमल बनती
है, तो कीचड़
भी सम्मानित
है। कीचड़ कमल
बनती है, तो
कीचड़ भी
परमात्मा है।
इसलिए
कहीं संसार से
न भागना है, न त्यागना
है। कीचड़ जैसे
शब्दों को भी
बहुत सावधानी
से प्रयोग करो,
क्योंकि
उनमें पुराने
अर्थ इतने
गहरे घुस गए हैं
कि तुम्हें
पता भी न चलेगा,
जब भी तुम
कीचड़ शब्द
कहोगे, अचेतन
में पुराने ही
स्वर गूंजेंगे।
हालांकि मैं
नए अर्थ दे
रहा हूं।
लेकिन पुराने
अर्थ इतने
पुराने हैं, सदियों
पुराने हैं, उनकी खूब
गहरी छाप हो
गई है, आदत
हो गई है। वह
जो पलटू कहते
हैं न कि
बनिया है, कि
डंडी मारता ही
जाता है! आदतवश!
तय भी कर लेता
है कि अब ऐसा
नहीं करूंगा तो
भी किए चला
जाता है। ऐसे
ही हमारे
शब्दों के साथ
संयोग बनते
हैं, अर्थ
बनते हैं।
स्वार्थ
छोड़ना नहीं है, स्व को विदा
करना है। और
स्व को विदा
करना है तो
स्वयं की
ज्योति जगे।
ध्यान की हो
या भजन की हो, मगर ज्योति जगे—स्व
चला जाएगा। और
जहां स्व गया,
वहां सेवा
ही सेवा है।
और वह सेवा
कर्तव्य नहीं
है, वह
सेवा परार्थ
नहीं है, वह
सेवा आनंद है।
और जहां स्व
गया, वहां
कीचड़ में कमल खिलने
लेंगे। वहां
मिट्टी में
अमृत की झलक
आने लगेगी।
वहां मृण्मय
चिन्मय होने
लगता है।
मिट्टी
का दीया बनाते
हैं न दीपावली
को और उसमें
ज्योति जलाते
हैं। वह
प्रतीक है। वह
प्रतीक है इस
बात का कि
मिट्टी के दीए
में अमृत
ज्योति सम्हाली
जा सकती है।
मिट्टी के दीए
में अमृत
ज्योति जल
सकती है।
भारत
में दीवाली
मनाए जाने के
दो कारण हैं।
एक तो हिंदुओं
का कारण है और
एक जैनों का
कारण है।
हिंदुओं का
कारण तो बहुत
बहुमूल्य
नहीं है, लेकिन
जैनों का का
कारण जरूर
बहुमूल्य है।
हिंदू तो
मनाते हैं दीपावली—लक्ष्मी
की पूजा का
त्यौहार; धन
की पूजा का
त्यौहार।
इससे ज्यादा
और भौतिकवाद
क्या होगा? लोग सिक्के,
चांदी के
सिक्के रख कर
उनकी पूजा
करते हैं! और
ये ही भले लोग
दुनिया भर में
घोषणा करते
हैं कि भारत
जैसा धार्मिक
देश नहीं है।
दुनिया के
किसी कोने में
धन की पूजा नहीं
होती, सिवाय
भारत को छोड़
कर, लक्ष्मी
की पूजा कहीं
नहीं होती।
अमरीकन भी, जो डालर का
दीवाना है, वह भी डालर
को रख कर पूजा नहीं
करता। वह भी
इस बात को मूढ़तापूर्ण
समझेगा।
लक्ष्मी की
पूजा इस
पुण्यभूमि
में ही होती
है, इस धर्मभूमि
में ही होती
है! इससे बड़ा
और भौतिकवाद
क्या होगा? इस देश का
सबसे बड़ा
त्यौहार है
दीपावली। और
सबसे बड़ा
त्यौहार
समर्पित है
चांदी के
सिक्कों के
लिए! धन की
पूजा! और
त्याग की
बातें।
जैनों
का कारण
ज्यादा
सार्थक है।
जैन इसलिए दीपावली
मनाते हैं कि
उस रात, अमावस
की रात महावीर
निर्वाण को
उपलब्ध हुए। उस
रात मिट्टी के
दीए में, मृण्मय
दीए में
चिन्मय
ज्योति जगी।
इसलिए दीए
जलाते हैं।
उनकी बात तो
कुछ सार्थक
मालूम पड़ती
है। मगर वह भी
बात है! जैन भी
करते तो हैं
पूजा चांदी के
ही सिक्कों
की। जैन—घरों
में भी
लक्ष्मी की ही
पूजा होती है।
औपचारिक रूप
से दीपावली के
बाद दूसरे दिन
सुबह निर्वाण
लाडू चढ़ा देते
हैं भगवान पर
कि लो, तुम्हारा
भी निपटा देते
हैं! रात तो
पूजा करते हैं
चांदी के सिक्कों
की, सुबह
भगवान पर
निर्वाण के
लाडू चढ़ा देते
हैं। तुम से
भी छुटकारा ले
लिया! चलो तुम
भी ले लो!
मौलिक
अर्थ में तो
बात
महत्वपूर्ण
थी।
इसलिए
भी
महत्वपूर्ण
थी...बुद्ध को
तो ज्ञान हुआ
पूर्णिमा की
रात। समझ में
आता है कि
पूर्णिमा की
रात्रि कोई
पूर्णता को
उपलब्ध हो
जाए। पूरा
चांद आकाश में
हो और भीतर भी
पूरा चांद आ
जाए। महावीर
का निर्वाण
हुआ...अमावस की
रात। यह
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है! इसमें
ज्यादा काव्य
है! और ज्यादा
अर्थवत्ता!
अमावस की रात
पूर्णिमा ऊगे
भीतर, तो
जीवन का जो
विरोधाभास है
वह साफ हो
जाता है।
कितना ही अंधेरा
हो, घबड़ाना मत, अमावस
की रात भी
निर्वाण घटा
है! और कितनी
ही गंदी कीचड़
हो, घबड़ाना मत, कमल
खिले हैं! और
मिट्टी का
दीया हो तो
चिंता मत करना
कि मिट्टी के
दीए में क्या
होगा? ज्योति
जल सकती है।
मिट्टी
पृथ्वी का
हिस्सा है, ज्योति आकाश
का।...इसलिए
ज्योति हमेशा
ऊपर की तरफ
भागती रहती
है। ज्योति
हमेशा ऊर्ध्वगामी
है।
तुम चित्तरंजन, न तो चिंता
करो स्वार्थ
की—क्योंकि
मैं स्व को
काट रहा हूं—न
चिंता करो
कीचड़ की—क्योंकि
कीचड़ कहां है,
कमल—ही—कमल
हैं! कुछ
प्रकट हो गए
हैं, कुछ
प्रकट होने को
हैं। कुछ बीज
में हैं, कुछ
फूल बन गए
हैं। कीचड़ है
कहां? यह
सारा
अस्तित्व—कीचड़
सहित—परमात्मा
से परिपूर्ण
है। वही है।
वह एक ही है।
और उसकी ही
झलकें
तुम्हें
मिलनी शुरू
हुई हैं। अभी
झलकें हैं, इसलिए डर
लगता है।
जल्दी ही
झलकें स्थिर
हो जाएंगी और
डर विदा हो
जाएगा।
जुनूने—इश्क
की रस्मे—अजीब, क्या कहना,
मैं
उनसे दूर वो
मुझसे करीब, क्या कहना।
जो
तुम हो बर्के—नशेमन, तो मैं नशेमने—बर्क,
उलझ
पड़े हैं हमारे
नसीब, क्या
कहना।
हुजूमे—रंग
फरावां
सही, मगर
फिर भी,
बहार, नौहा—ए—सद—अंदलीब,
क्या कहना।
हजार
काफिला—ए—जिंदगी
की तीरा—शबी।
ये
रोशनी—सी उफक
के करीब, क्या कहना।
लरज
गई तेरी लौ
मेरे डगमगाने
से,
चरागे—गोशा—ए—कू—ए—हसीब, क्या कहना।
उस
प्यारे की गली
की क्या बातें
कहें!
लरज
गई तेरी लौ
मेरे डगमगाने
से,
अगर
तुम डगमगाओ
तो परमात्मा
की लौ भी
डगमगाती है
तुम्हारे साथ।
वह तुम्हारे
साथ है। वही
तुम्हारा
जीवन—स्रोत
है!
लरज
गई तेरी लौ
मेरे डगमगाने
से,
चरागे—गोशा—ए—कू—ए—हबीब, क्या कहना।
प्यारे
की गली के इस
दीपक की भी
बात कैसे कहें, किससे कहें?
कि जब मैं डगमगाया, तो दीए की लौ
भी डगमगा गई!
मैंने साथ—साथ
परमात्मा को
नाचते देखा
है।
तुम जब
नाचो, वह भी
नाचता है। तुम
जब गाओ, वह
भी गाता है।
हजार
काफिला—ए—जिंदगी
की तीरा—शबी
रात्रि
का कितना ही
अंधकार हो, घबड़ाना मत! काफिला
कितने ही
अंधेरे से
गुजरता हो, घबड़ाना मत!
हजार
काफिला—ए—जिंदगी
की तीरा—शबी
ये
रोशनी—सी उफक
के करीब, क्या कहना।
लेकिन
जरा पूरब की
तरफ देखो, क्षितिज की
तरफ देखो, सूरज
ऊगने को है।
यह रोशनी उठने
लगी है। यह बदलियों
में रंग आने
लगा। ये सुबह
की पहली किरणें
फूटने लगी
हैं।
हजार
काफिला—ए—जिंदगी
की तीरा—शबी
ये
रोशनी—सी उफक
के करीब, क्या कहना।
लरज
गई तेरी लौ
मेरे डगमगाने
से,
चरागे—गोशा—ए—कू—ए—हबीब, क्या कहना।
जो तुम
हो बर्के—नशेमन...अगर
तुम नशेमन
की बिजली हो, तो मैं नशेमने—बर्क...तो
मैं बिजली का नशेमन
हूं।
जो
तुम हो बर्के—नशेमन, तो मैं नशेमने—बर्क,
उलझ
पड़े हैं हमारे
नसीब, क्या
कहना।
हमारा
भाग्य
परमात्मा से
उलझा है।
हमारे तारत्तार
उससे उलझे
हैं। सुलझने
का कोई उपाय
नहीं है। वह
हमारे भीतर
समाया है, हम उसके
भीतर समाये
हैं।
जो
तुम हो बर्के—नशेमन तो
मैं नशेमने—बर्क
उलझ
पड़े हैं हमारे
नसीब, क्या
कहना।
हजार
काफिला—ए—जिंदगी
की तीरा—शबी
ये
रोशनी—सी उहक
के करीब, क्या कहना।
लरज
गई तेरी लौ
मेरे डगमगाने
से,
चरागे—गोशा—ए—कू—ए—हबीब, क्या कहना।
जुनूने
इश्क की रस्मे—अजीब, क्या कहना,
यह
प्रेम का ढंग
बड़ा अजीब है।
यह प्रेम की
दुनिया बड़ी
अजीब है। यह
प्रेम की शैली
बड़ी अजीब है; इसके रिवाज
बड़े अजीब हैं।
जुनूने
इश्क की रस्मे—अजीब, क्या कहना,
प्रेम
तो पागल है और
पागलपन के तो
रास्ते अजीब
होंगे ही।
जुनूने—इश्क
की रस्मे—अजीब, क्या कहना,
मैं
उनसे दूर वो
मुझसे करीब, क्या कहना।
तुम
उनसे कितने ही
दूर रहो, वे
तुम्हारे
करीब ही हैं।
तुम कहीं भी
जाओ, वे
तुम्हारे
करीब ही हैं।
चित्तरंजन, तुम्हारा
भाग्य भी
मुझसे उलझ
गया।
जुनूने—इश्क
की रस्मे—अजीब, क्या कहना,
मैं
उनसे दूर वो
मुझसे करीब, क्या कहना।
जो
तुम हो बर्के—नशेमन, तो मैं नशेमने—बर्क,
उलझ
पड़े हैं हमारे
नसीब, क्या
कहना।
हुजूमे—रंग
फरावां
सही, मगर
फिर भी,
बहार, नौहा—ए—सद—अंदलीब,
क्या कहना।
हजार
काफिला—ए—जिंदगी
की तीरा—शबी
ये
रोशनी—सी उफक
के करीब, क्या कहना।
लरज
गई तेरी लौ
मेरे डगमगाने
से,
चरागे—गोशा—ए—कू—ए—हबीब, क्या कहना।
दूसरा
प्रश्न:
भगवान,
गुरु
गोविंद दोऊ
खड़े
काके लागूं पांय?
आनंद
बोधिधर्म, कबीर ने
किसी और अर्थ
में कहा है, तुम किसी और
अर्थ में
समझे। कबीर ने
तो प्रतीक
अर्थ में कहा
है। कबीर ने
कहा है:
गुरु
गोविंद दोई
खड़े, काके लागूं पांय?
अगर
ऐसा हो सकता
हो कि गुरु और
गोविंद दोनों
सामने आ जाएं, तो मैं
किसके पैर
पहले लगूं? गुरु के
पहले लगूं तो
कहीं गोविंद
का अपमान न हो
जाए! और
गोविंद के
पहले लगूं तो
कहीं गुरु का
अपमान न हो
जाए! क्योंकि
गोविंद को
आखिर दिखाया तो
गुरु ने ही।
पहचान तो गुरु
ने करवाई। तो
धन्यवाद पहले
तो गुरु का
होना चाहिए।
लेकिन जब गोविंद
सामने खड़े हों,
तो पहले
गुरु को
धन्यवाद देना,
कहीं
शिष्टाचार
में कोई कमी न
हो जाए! कबीर
ने तो बड़े
प्रतीक अर्थ
में कहा है:
गुरु
गोविंद दोई
खड़े काके लागूं पांय।
बलिहारी
गुरु आपकी
गोविंद दियो
बताय।
इस
दूसरे हिस्से
के दो अर्थ हो
सकते हैं। एक
अर्थ, जो
सामान्यतः
किया जाता है,
वह तो यह है
कि गुरु आपकी
बलिहारी कि
आपने इशारा कर
दिया कि
गोविंद के पैर
लगो! क्या सोच—विचार
में पड़े हो? यह कोई
सोचने—विचारने
की बात है? जब
गोविंद ही सामने
खड़े हों, तो
मुझे भूलो!
गोविंद के पैर
लगो। यह
सामान्य अर्थ
है जो किया
जाता रहा है
सदियों से।
परंपरागत
अर्थ यही है। कबीरपंथी
इसका ऐसा ही
अर्थ करेंगे।
मैं
इसका ऐसा अर्थ
नहीं करता।
मेरे देखे कबीरपंथी
चूक गए। अक्सर
पंथी चूक जाते
हैं, कबीर—पंथियों
का ही क्या
कसूर है।
कबीरपंथ
के जो सबसे
प्रधान
मठाधीश हैं, उनका पत्र
मुझे मिला कि
आप कबीर के
ऐसे—ऐसे अर्थ
कर रहे हैं जो
हमारी परंपरा
के खिलाफ हैं।
मैंने उनको
लिखवा दिया—तो
होंगे खिलाफ,
लेकिन मैं
तो वही अर्थ
करूंगा जो
मुझे दिखाई पड़ता
है। तुम्हें
ठीक लगते हों
तो अपनी
परंपरा में
सुधार कर लेना;
और तुम्हें
ठीक न लगते
हों तो यह
तुम्हारी समस्या
है—यह मेरी
समस्या नहीं—तो
तुम परेशान हो
लेना। मैं तो
जो अर्थ कर
रहा हूं वही
करूंगा।
क्योंकि यह
अर्थ की ही
बात नहीं है, यह दृष्टि
की बात है।
मेरा
अर्थ कुछ और
है। जब कबीर
कहते हैं:
बलिहारी गुरु
आपकी गोविंद दियो बताय, तो मेरा यह
अर्थ है कि
गुरु ने
तत्क्षण
दुविधा में
देख कर शिष्य
को...गुरु की
तरफ शिष्य ने
देखा होगा कि
अब मैं क्या
करूं? उसकी
आंखों में यह
भाव रहा होगा।
उसके पूरे व्यक्तित्व
में एक झिझक
रही होगी—इधर
या उधर? डांवाडोल
रहा होगा।
गुरु ने यह
देख कर, तत्क्षण
गुरु का हाथ
गोविंद की तरफ
उठ गया। लेकिन
शिष्य ने गुरु
के ही पैर पड़े
हैं, गोविंद
के नहीं।
क्योंकि वह
बलिहारी शब्द
इस बात की खबर
दे रहा है।
गुरु
ने तो गोविंद
की तरफ ही
इशारा किया—करेगा
ही। गुरु का
सारा अर्थ यही
है। गुरु है ही
क्या सिवाय
गोविंद की तरफ
एक इशारा। और
क्या है गुरु? एक इशारा
गोविंद की तरफ,
एक तीर
गोविंद की
तरफ। तो शिष्य
को उलझन में देख
कर इशारा किया
है। लेकिन
शिष्य क्या
करे? वह
बलिहारी शब्द
में बात आ गई।
कबीर कहते
हैं: बलिहारी
गुरु आपकी...।
इसका मतलब यह
है कि कबीर ने
तत्क्षण गुरु
के पैर छू लिए
हैं। वह
बलिहारी में
ही पैर छू
लिए। छूने ही
पड़ेंगे। ऐसे
गुरु के पैर न छुओगे तो
क्या करोगे? और इससे कुछ
गोविंद नाराज
नहीं होने
वाले। इससे
गोविंद
आनंदित ही
होंगे।
जो
सम्यक था, वही हुआ।
गुरु ने इशारा
किया गोविंद
की तरफ—यह
गुरु की खूबी,
यह गुरु की
महिमा। शिष्य
ने गुरु के
पैर छुए—फिर
भी—यह शिष्य
की महिमा। और
गोविंद
आनंदित हुए—यह
गोविंद की
महिमा।
तुम
पूछते हो:
गुरु
गोविंद दोई
खड़े काके लागूं पांय?
तो मैं
तो इशारा
करूंगा
गोविंद की
तरफ। मैं तो
इशारा हूं
गोविंद की
तरफ। तुम मुझे
भूलो। तुम
मेरी चिंता ही
न लो। यह
दुविधा ही
नहीं उठनी
चाहिए।
झेन
फकीर कहते हैं
कि अगर रास्ते
में बुद्ध मिल
जाएं तो उठा
कर तलवार
गर्दन काट
देना उनकी। झेन
फकीर—बुद्ध के
भक्त! सुबह से
सांझ तक बुद्धं
शरणं गच्छामि
के वातावरण
में जीते हैं, सारा जीवन
बुद्ध को
समर्पित है और
ऐसी बात कहते
हैं कि अगर
बुद्ध रास्ते
में मिल जाएं—उठा
कर तलवार
गर्दन काट
देना। यह
बुद्ध ने ही कहा
है। ये बुद्ध
के ही शब्द वे
दोहरा रहे हैं।
बड़े सार्थक
शब्द हैं।
बुद्ध ने कहा
है कि मुझे भी
बीच में आड़े
मत आने देना।
जब परम सत्य
के
साक्षात्कार
का क्षण आए तो
मुझे छोड़ आगे
बढ़ जाना। अगर
मैं बीच में
खड़ा होऊं तो
धक्का मार
देना। कि उठा
कर तलवार दो टुकड़े
कर देना।
यह
गुरु की
पराकाष्ठा।
सिर्फ
मिथ्या गुरु
कहेगा कि मुझे
पकड़े
रहो। सदगुरु
तो कहेगा कि
मुझे तभी तक पकड़े रहो
जब तक
परमात्मा पकड़ने
को न मिल जाए।
जैसे ही परमात्मा
का हाथ
तुम्हारे हाथ
में आ जाए, तब फिर
झिझकना मत।
किसी आदत, किसी
संस्कार, किसी
अभ्यास के
कारण मेरे हाथ
को ही मत पकड़े
रहना।
क्योंकि मेरी
कोई अगर प्रयोजनवत्ता
है तो इतनी ही
कि तुम्हें
परमात्मा तक
पहुंचा दूं।
तो मैं
तो तुमसे कहता
हूं कि गुरु
गोविंद दोई
खड़े, अगर ऐसी
घड़ी आ जाए, तो
गुरु को तो
बिलकुल भूल ही
जाना। जैसे है
ही नहीं।
मगर सच
में क्या भक्त
को ऐसी घड़ी
आती है? क्या
शिष्य को ऐसी
घड़ी आती है? इसलिए मैंने
कहा कि कबीर
ने जो कहा है
वह तो केवल
प्रतीक मात्र
है। वह तो
इशारा है उनके
लिए जो अभी उस
ऊंचाई पर नहीं
पहुंचे। उस
ऊंचाई पर कहां
दो!
...अब
तुमसे तो मैं
नहीं कह सकता,
कबीर मिल
जाएं तो उनसे
कहूं कि नाहक
इस तरह की बातें
लिखीं! उस
ऊंचाई पर कहां
दो! कबीर मिल
जाएं तो मेरी
झंझट होनी
निश्चित है!
क्योंकि मैं
उनसे कहूंगा
ही। कहीं—न—कहीं
कभी—न—कभी
मिलना होगा।
तो उनसे मैं
निश्चित ही
कहूंगा कि जब
वह परम घड़ी
आती है जहां
गोविंद के
दर्शन होने का
क्षण आ गया, वहां दो
बचेंगे? वहां
गुरु गोविंद
है, वहां
गोविंद गुरु
है। वहां कैसे
दो?
और
वहां दुविधा
बचेगी? गोविंद
सामने खड़े हों
और दुविधा बचे?
यह तो हद्द
हो गई कि सूरज
निकल आया और
अंधेरा बचे!
सूरज निकल आया
और अंधेरा सोच
रहा है कि पैर
पडूं किसके? सूरज निकल
आया, अंधेरा
गया। पैर पड़ने
थोड़े ही पड़ते
हैं, झुकना
हो जाता है, अनायास, चेष्टा
से नहीं। यह
तो बड़ी चेष्टा
हो गई; सोचा,
विचारा—सोचा—विचारा
ही नहीं, प्रतीक्षा
की कि गुरु
इशारा करे; गुरु ने
इशारा किया—इतनी
चिंता बचेगी
वहां? इतनी
दुई बचेगी
वहां? दुई
ही नहीं बल्कि
त्रय थे। गुरु
भी खड़े, गोविंद
भी खड़े, शिष्य
भी खड़ा—तीन
खड़े! उस परम
घड़ी में तीन? वहां एक ही
होता है।
रामकृष्ण
के पास कोई ले
आया था
रामकृष्ण की
ही एक तसवीर।
वे उसी का चरण
छूने लगे। जब
उन्होंने
अपनी तसवीर के
चरण छुए, बड़े
भावविभोर
होकर, उनकी
आंखों से आंसू
बहने लगे, तो
विवेकानंद से
न रहा गया।
पास ही बैठे
थे, विचारशील
आदमी
थे...रामकृष्ण
और विवेकानंद
एक ही ढंग के
आदमी नहीं
हैं। हो भी
नहीं सकते। परिपूरक
हैं। इसलिए जो
काम रामकृष्ण
नहीं कर सके।
रामकृष्ण ने
जाना, विवेकानंद
ने दुंदुभी पीटी सारी
दुनिया में।
वह रामकृष्ण
नहीं कर सके।
वह उनके
व्यक्तित्व
का हिस्सा
नहीं था। जान
तो लिया लेकिन
जना न सके।
विवेकानंद ने
स्वयं तो जाना
नहीं, लेकिन
जनवाया।
इसलिए बड़ी
झंझट हो गई कि
जिसको पता था,
वह बोला
नहीं। कह नहीं
सका। कहने में
समर्थ नहीं
था। और जिसको पता
नहीं था, उसने
कहा, लोगों
को जाकर
समझाया। तो
गड़बड़ तो हो ही
जाएगी।
एक ने
देखा, जिसके
पास आंख थी, लेकिन वह
चुप रह गया।
और जिसके पास
आंख नहीं थी, उसने आंख
वाले से
प्रकाश की
बातें सुनीं
और सारी
दुनिया में
खबर पहुंचाई।
रामकृष्ण
मिशन वस्तुतः
रामकृष्ण
मिशन नहीं, विवेकानंद
मिशन है।
इसमें
रामकृष्ण का
कुछ भी नहीं
है। जो कुछ है
विवेकानंद का
है। विवेकानंद
ने जो
व्याख्याएं
रामकृष्ण पर
आरोपित कर दीं।
लेकिन
अक्सर ऐसा हुआ
है। एक ही
व्यक्ति में
दोनों बातें
बड़ी मुश्किल
से होती हैं।
जब किसी में
होती हैं तो
उसको हम बुद्ध
कहते हैं, तीर्थंकर
कहते हैं।
बहुत—से जानने
वाले लोग पैदा
हुए हैं, लेकिन
कह नहीं पाए।
और बहुत—से
कहने वाले लोग
पैदा हुए हैं,
लेकिन बिना
जाने कहा है।
कभी—कभी ऐसा
होता है कि
कोई व्यक्ति
गौतम बुद्ध या
तीर्थंकर
महावीर के ढंग
का होता है, जिसमें
दोनों बातें
होती हैं। जो
न केवल जान लेता
है बल्कि जनाता
भी है। उसको
ही सदगुरु
कहते हैं।
कबीर
मिल जाएं तो
मैं उनसे
कहूंगा कि यह
क्या बात हुई? शिष्य के
सामने तीन खड़े
होंगे? अगर
शिष्य अभी
इतनी उलझन में
पड़ा है, इतनी
दुविधा में, तो गोविंद
प्रकट नहीं हो
सकते। और अगर
गोविंद प्रकट
हो गए हैं, तो
शिष्य दुविधा
में हो नहीं
सकता।
रामकृष्ण
ने अपनी ही
तसवीर के पैर
पर सिर रख दिया, विवेकानंद
से बर्दाश्त न
हुआ, विवेकानंद
ने कहा—परमहंस
देव, आप यह
क्या करते हैं?
लोग
हंसेंगे कि
अपनी ही तसवीर
की पूजा! रामकृष्ण
ने कहा, अरे,
ठीक समय पर
याद दिलाया।
मैं तो भूल ही
गया था। मैंने
तो यह देखा ही
नहीं कि यह
मेरी तसवीर है।
मुझे तो उसकी
ही तसवीर
दिखाई पड़ी।
मुझे तो समाधि
की तसवीर
दिखाई पड़ी।
...वह रामकृष्ण
की समाधिस्थ
अवस्था में ली
गई तसवीर थी।
वे अलमस्त खड़े
हैं। दोनों
हाथ आकाश की
तरफ उठे हैं।
आनंदमग्न!...उन्हें
दिखाई ही न
पड़ा कि यह
मेरी ही तसवीर
है। कहां मेरी,
कहां तेरी?
उन्होंने
तो देखा कि
समाधि की
तसवीर है।
समाधि के लिए
सिर झुक गया।
जब
अपनी तसवीर के
लिए रामकृष्ण
सिर झुका लिए...और
गोविंद सामने
खड़े होंगे और
शिष्य पूछेगा—गुरु
गोविंद दोई
खड़े काके लागूं पांय!
नहीं, कबीर
प्रतीक की बात
कर रहे हैं! वे
तुम्हें समझाने
के लिए कह रहे
हैं। यह कोई
सत्य नहीं है,
यह सिर्फ
समझाने की एक
विधि है। वे
यह कह रहे हैं
कि अगर ऐसी
घड़ी आ जाए कि
गुरु, गोविंद,
दोनों
सामने खड़े हों
और तुम्हारे
मन में दुविधा
उठे, तो
गुरु की तरफ
देख लेना। वह
इशारा कर देगा,
कि गोविंद
के पैर छू लो।
लेकिन ध्यान
रहे, धन्यवाद
तो गुरु का ही
है। क्योंकि
उसने आखिरी
क्षण में भी
तुम्हारे लिए
इशारा किया।
बुद्ध
ने कहा है:
मुझे हटा देना
रास्ते से। इसका
क्या यह अर्थ
है कि बुद्ध के
भक्तों ने
बुद्ध को
रास्ते से हटा
दिया है? जितने
मंदिर बुद्ध
के बने और
जितनी
प्रतिमाएं
बुद्ध की बनीं,
किसी की भी
नहीं बनीं।
क्यों? क्योंकि
जिसने ऐसी
अदभुत बात कही
कि मुझे रास्ते
से हटा देना, अप्प दीपो भव,
अपने दीए
खुद बनना, उसकी
मूर्ति न बनाएं
तो हम करें क्या?
करें तो
करें क्या? उसकी मूर्ति
बनानी ही
होगी। ऐसे सदगुरु
के चरणों में
सिर न झुकाएं
तो करें क्या?
ऐसे सदगुरु
के प्रति
अपूर्व
कृतज्ञता का
भाव पैदा होगा
ही!
कबीर
ने प्रतीक बात
कही।
लेकिन
आनंद
बोधिधर्म, तुम सोच रहे
हो शाब्दिक
अर्थ। वहां
तुम्हारी चूक
है। जाओ प्रेम
में या जाओ
ध्यान में, जिस दिन
गहराई पर
पहुंचोगे, वहां
न कोई गुरु है,
न कोई शिष्य
है, न कोई
गोविंद है। रह
जाता है एक।
उसको एक भी नहीं
कह सकते, क्योंकि
एक कहते से दो
का खयाल पैदा
होता है। इसलिए
जानने वालों
ने उसे अद्वैत
कहा है। एक भी
नहीं कहा, इतना
ही कहा कि
वहां दो नहीं
होते। अद्वैत
का अर्थ होता
है—दो नहीं।
नहीं तो पागल
नहीं थे, जानने
वाले इतना ही
कह देते कि
वहां एक है।
यह उल्टा
चक्कर, इतने
उल्टे हाथ को
घुमा कर कान पकड़ना, कहना
कि अद्वैत!
सीधा क्यों
नहीं कहते कि
एक है! लेकिन
कारण है। एक
कहने में खतरा
है। एक कहने
से दो का भाव
तत्क्षण पैदा
होता है।
एक की
परिभाषा क्या
करोगे? बिना
दो के एक हो
कैसे सकता है?
एक की सीमा
कैसे खींचोगे?
जिससे सीमा खींचोगे, वह दूसरा हो
जाएगा। तुमने
अपने घर के
आसपास जो बागुड़
लगा ली है, वह
बागुड़
इसीलिए लगा ली
है कि पड़ोसी
रहता है। अगर
तुम्हारे
पड़ोस में कोई
रहता ही न हो, तो बागुड़
का क्या
प्रयोजन? बागुड़
कहां लगाओगे?
सीमा कहां खींचोगे? दूसरा चाहिए
तो सीमा बन
सकती है।
दूसरे से सीमा
बनती है।
अगर
तुम अकेले ही
रह जाओ...समझ लो
कि तीसरा महायुद्ध
हो गया और
संयोगवशात
तुम अकेले बच
गए—सब मर गए, एक अकेले
तुम बच गए—तुम्हारा
क्या नाम होगा?
तुम्हारी
क्या जाति
होगी? क्या
धर्म होगा? तुम काले
होओगे कि गोरे?
तुम भारतीय
होओगे कि
पाकिस्तानी? तुम लंबे
होओगे कि
ठिगने? ये
सारी बातें खो
जाएंगी। तुम
तो होओगे, मगर
न लंबे न
ठिगने।
क्योंकि यह तो
तुलना थी दूसरों
से। न गोरे न
काले, क्योंकि
यह भी तुलना
थी दूसरों से।
अगर तुम बिलकुल
अकेले रह गए, तो तुम
अचानक पाओगे
तुम्हारी
सारी परिभाषा
खो गई। तुम हो
तो जरूर, लेकिन
अब परिभाषा
नहीं है।
लेकिन
तीसरा
महायुद्ध
तुम्हें
कितना ही अकेला
कर दे, बिलकुल
अकेला नहीं
करेगा। झाड़ बच
जाएंगे, कोई
पशु—पक्षी बच
जाएंगे।...
कहानी
है कि तीसरा
महायुद्ध हो
गया। एक बंदर
उदास झाड़ पर
बैठा है। और
पास की गुफा
से एक बंदरिया
बाहर आई और
बंदर से बोली:
भूख तो नहीं
लगी है? बंदर
ने बड़ी उदासी
से बंदरिया की
तरफ देखा, उसके
हाथ की तरफ
देखा—वह एक
सेव लिए हुए है।
और बंदरिया ने
कहा कि यह सेव
खा लो। बंदर ने
सिर पीट लिया;
उसने कहा, तो फिर से
वही कहानी
शुरू होगी!
ईसाइयों
की कहानी है न
कि ईव ने अदम
को सेव खिलाया।
वह सेव था
ज्ञान के
वृक्ष का फल।
उसको खा कर
पतन हुआ संसार
का। उसको खाने
से फिर बच्चे पैदा
हुए, संसार
चला। बंदर ने
सिर ठोंक लिया,
उसने कहा, फिर से शुरू
करें क्या!
उसको याद आ गई
होगी पुरानी
कहानी। अब फिर
वही झंझट!!
किसी तरह तो
शांति हुई
दुनिया में; यह फिर
बंदरिया सेव
लिए खड़ी है!
तो
बंदर—बंदरिया, कोई—न—कोई बच
जाएंगे। झाड़
बचेंगे, पशु—पक्षी
थोड़े—बहुत बच
जाएंगे, एकदम
अकेले तुम
नहीं हो
पाओगे। लेकिन
जो व्यक्ति
ध्यान में
जाएगा, वहां
बिलकुल अकेले
हो जाते हैं, एकदम अकेले
हो जाते हैं।
वहां कोई भी
नहीं होता।
वहां कोई सीमा—रेखा
ही नहीं खींची
जा सकती। वहां
तुम असीम सागर
होते हो, जिसका
कोई कूल—किनारा
नहीं। आकाश
होते हो। वहां
कहां की बातें—गुरु
गोविंद दोई
खड़े काके लागूं पांय!
तुमने
कबीर से यह
वचन ले लिया
और तुम सोचने
लगे कि अब मैं
क्या करूं? अभी तुम उस
अवस्था में
पहुंचे नहीं।
पहुंचे होते
तो यह प्रश्न
न पूछते। वहां
कोई नहीं बचता।
न गोविंद, न
गुरु, न
पांव छूने
वाला, न छुलाने
वाला। वहां एक
पूर्ण शून्य
है। उस शून्य
का ही दूसरा
नाम
सच्चिदानंद
है। सत है
वहां, चित
है वहां, आनंद
है वहां।
लेकिन वहां
कोई दूसरा
नहीं है। वहां
कोई द्वैत
नहीं है, दुई
नहीं है।
तीसरा
प्रश्न:
भगवान,
न होशे
हस्ती न ताबे
मस्ती
कि
तेरा
शुक्रिया अदा
करेंगे।
खिजां में
है जब ये अपना
आलम
बहार
आई तो क्या
करेंगे!
आनंद
कपिल, अगर पतझड़ में
ऐसी मस्ती है,
तो वसंत में
होगी करोड़—करोड़
गुना। भेद
परिणाम का ही
नहीं होगा, गुण का भी
होगा। जब
अंधेरी रात
इतनी रोशन है,
तो सुबह की
रोशनी का क्या
कहना! जब
अंधेरी रात भी
रोशन है, तो
सुबह रोशन
होगी, बहुत
रोशन होगी।
गुणात्मक रूप
से भिन्न होगा
वह प्रकाश।
लेकिन तुम
उसका अनुमान
अभी से न लगा
सकोगे। अनुभव
ही करना होगा,
अनुमान से
काम न चलेगा।
लेकिन
इतना ही काफी
है आस्था के
लिए कि अंधेरे
में भी इतनी
रोशनी हो गई
है; कि पतझड़
में भी इतना
आनंद है। काफी
है इशारा।
समझो तो इशारा
काफी है। देह
में बंधे हुए
भी इतना आनंद
है, तो देहमुक्त
होकर कितना
होगा! संसार
में रहते हुए
इतना आनंद है—बाजार,
दुकान; हजार
उपद्रव, आपाधापी,
फिर भी इतना
आनंद है, तो
इस सब जाल से
पार उठ जाओगे
तो कितना नहीं
होगा!
तुम्हारा
प्रश्न मैं समझा।
कल्पना करनी
मुश्किल हो
जाती है!
हिसाब लगाना
मुश्किल हो
जाता है! बात
है भी हिसाब
के बाहर।
न होशे
हस्ती न ताबे
मस्ती
कि
तेरा
शुक्रिया अदा
करेंगे।
अदा
करने की कोई
जरूरत ही
नहीं। सबसे
बड़ा धन्यवाद
शिष्य का यही
है कि धन्यवाद
देने वाला न बचे।
हो गया
शुक्रिया अदा!
सबसे बड़ा
शुक्रिया यही
है कि तुम मिट
जाओ। तुम ऐसे मिटो कि
तुम्हारी खोज—खबर
भी न लगे। तुम
ऐसे मिटो, ऐसे लापता
हो जाओ कि
तुम्हारा कोई
पता भी न चले।
यही धन्यवाद
है! क्योंकि
शिक्षा पूरी
कर दी तुमने।
गुरु का उपदेश
पूरा हुआ।
तुमने सुना, गुना, जीए।
खिजां
में है जब ये
अपना आलम
बाहर
आई तो क्या
करेंगे!
कठिनाई
है। रात में
जब इतनी मस्ती
है, तो सुबह
क्या होगा? बस सुबह आने
के करीब है।
मस्ती आ गई तो
सुबह आने के
करीब है।
मस्ती सुबह की
हवाओं के ही
कारण तो है।
सुबह करीब आ
रही है, इसीलिए
तो मस्ती घनी
हो रही है।
सूरज ऊगने के
करीब है, इसीलिए
तो भीतर आनंद
उमग रहा है।
चिंता न करो, जल्दी घटना
घट जाएगी।
घटना घट जाएगी,
तभी जान
सकोगे। मैं उस
संबंध में
तुमसे कुछ भी
न कह सकूंगा।
राजे—सर—बस्ता
मुहब्बत के जबां तक
पहुंचे
बात
बढ़ कर ये खुदा
जाने कहां तक
पहुंचे।
तेरी
मंजिल पे
पहुंचना कोई
आसान न था
सरहदे—अक्ल
से गुजरे तो
यहां तक
पहुंचे।
इब्तिदा
में जिन्हें
हम नंगे—वफा
समझे थे
होते
होते वो
गिले, हुस्ने—बयां तक
पहुंचे।
आह, वो हर्फेत्तमन्ना
कि न लब तक आए
हाय, वो बात कि इक—इक
की जबां
तक पहुंचे।
न
पता संगे—निशां
का न खबर रहबर
की
जुस्तुजू
में तेरे
दीवाने यहां
तक पहुंचे।
साफ
तौहीन है ये दर्दे—मुहब्बत
की हफीज
हुस्न
का राज हो और
मेरी जबां
तक पहुंचे।
नहीं, मैं तुमसे
नहीं कह
सकूंगा। कोई
नहीं कह सका
है।
साफ
तौहीन है ये दर्दे—मुहब्बत
की हफीज
यह तो
तौहीन हो
जाएगी। यह तो
प्रेम के उस
अनुभव का
अपमान हो
जाएगा।
साफ
तौहीन है ये दर्दे—मुहब्बत
की हफीज
हुस्न
का राज हो और
मेरी जबां
तक पहुंचे।
नहीं, शब्दों में
उसे नहीं कहा
जा सकता। शब्द
बहुत छोटे हैं,
बहुत ओछे
हैं, बहुत
संकीर्ण हैं।
अनुभव बहुत
विराट है, बहुत
असीम है, बहुत
अनंत है।
न
पता संगे—निशां
का न खबर रहबर
की
जुस्तुजू
में तेरे
दीवाने यहां
तक पहुंचे।
आएगी
वह मंजिल भी, जहां मील के
पत्थर भी नहीं
बचते। सब
नक्शे व्यर्थ
हो जाते हैं।
सब कही—सुनी
बातें व्यर्थ
हो जाती हैं।
बुद्धों ने जो
कहा है, जाग्रत—पुरुषों
ने जो कहा है, वह भी छूट
जाता है।
क्योंकि जो
नहीं कहा जा सकता,
वैसी मंजिल
के पांव करीब
आने लगते हैं।
न
पता संगे—निशां
का न खबर रहबर
की
वहां
मील के पत्थर
नहीं, नक्शे
नहीं, हिसाब—किताब
नहीं, रास्ते
नहीं—इतना ही
नहीं, जो
अब तक साथ ले
आया था, रहबर,
उसका भी अब
पता नहीं
चलता। गुरु का
भी पता नहीं
चलता।
न
पता संगे—निशां
का न खबर रहबर
की
जुस्तुजू
में तेरे
दीवाने यहां
तक पहुंचे।
जो
खोजता ही चलता
है, जिसकी
खोज ऐसी
दीवानी है कि
पा कर ही
रहूंगा, जो
परवाना है, जो मरने और
मिटने को भी
तैयार है, वह
जरूर एक ऐसी
मंजिल तक भी
पहुंचता है
जहां सब पीछे
छूट जाते हैं—शास्त्र,
सिद्धांत, शब्द, संगी—साथी,
रहबर भी।
व्यक्ति
बिलकुल अकेला
रह जाता है। चैतन्य
मात्र रह जाता
है।
तेरी
मंजिल पे
पहुंचना कोई
आसान न था
सरहदे—अक्ल
से गुजरे तो
यहां तक
पहुंचे।
ऐसी
मंजिल तक
पहुंचने में
एक ही कठिनाई
है, वह है
तुम्हारी
अक्ल, तुम्हारी
बुद्धि, तुम्हारा
सोच—विचार, तुम्हारा
कल्प—विकल्पों
से भरा हुआ
चित्त, तुम्हारे
चित्त की
तरंगें।
तेरी
मंजिल पे
पहुंचना कोई
आसान न था
सरहदे—अक्ल
से गुजरे तो
यहां तक
पहुंचे।
वही
पहुंच पाता है
उस मंजिल तक, जो बुद्धि
की सीमा के
पार चला जाता
है। अब मैं जो
भी कहूंगा, अगर वह उसे
सार्थक बनाना
है, तो वह
बुद्धि की
सीमा में
होगा। तुम जो
भी समझोगे, वह बुद्धि
की सीमा में
होगा। कहा और
सुना बुद्धि
की सीमा में
है और पहुंचना
बुद्धि की
सीमा के पार
है।
तुम्हारा
प्रश्न तो ठीक
है, आनंद
कपिल, कि
अभी ऐसी मस्ती
है, अभी
ऐसी बेहोशी है,
अभी ऐसा रस
बह रहा है, जब
कि अभी पतझड़
है, तो
वसंत में क्या
होगा? जब
मधुमास आ
जाएगा तो क्या
होगा? आने
दो, तो जान
सकोगे। आने दो,
तो ही जान
सकोगे। मैं उस
संबंध में कुछ
भी नहीं कह
सकता हूं।
साफ
तौहीन है ये दर्दे—मुहब्बत
की हफीज
हुस्न
का राज हो और
मेरी जबां
तक पहुंचे।
यह राज
राज ही
रहने दो। यह
रात राज ही
रहेगा। यह
रहस्य टूटता
नहीं, यह
तिलिस्म
टूटता नहीं, यह जादू है।
इसे जादू ही
रहने दो। इसे
खोल कर समझाया
नहीं जा सकता।
हां, तुम्हें
ले चल सकता
हूं उस सीमा
तक, जिसके
पास यह सारा
राज अनुभव में
आता है। तुम्हें
धक्का दे
दूंगा उस सीमा
के पार।
तेरी
मंजिल पे
पहुंचना कोई
आसान न था
सरहदे—अक्ल
से गुजरे तो
यहां तक
पहुंचे।
इसीलिए
तो कह रहा हूं
कि डूबो
संन्यास में।
क्योंकि यह
अक्ल की सरहद
के पार की बात
है। और जो
संन्यासी है, उसको ही मैं
धक्का दे सकता
हूं। क्योंकि
जो इतने दूर
साथ आया, जो
इतना दीवाना
है, वह यह
आखिरी धक्का
भी सह लेगा और
नाराज न होगा।
उसे ही मैं
अक्ल की सरहद
के पार धक्का
दे सकता हूं।
वह धक्का कठिन
है। जब दिया
जाता है तो बहुत
पीड़ा होती है।
क्योंकि हम
समझ को बहुत
जोर से पकड़ते
हैं। जो बात
समझ में न आए, उस तरफ तो हम
देखना ही नहीं
चाहते, उसमें
हमें बेचैनी
होती है। और
परमात्मा ऐसा
ही है जो समझ
में नहीं आ
सकता। इसीलिए
तो लोगों ने
परमात्मा से
पीठ मोड़ ली है,
मुंह मोड़
लिया है। उसकी
तरफ देखते ही
नहीं। उसको
इनकार ही करते
हैं कि है ही
नहीं।
क्योंकि अगर
है तो फिर कभी
देखना पड़े, कभी आमना—सामना
हो जाए। और आमना—सामना
हो जाए तो
बेचैनी होती
है।
न
पता संगे—निशां
का न खबर रहबर
की
जुस्तुजू
में तेरे
दीवाने यहां
तक पहुंचे।
चले
चलो! बुद्ध ने
कहा है:
चरैवेति, चरैवेति।
चले चलो, चले
चलो, चलते
ही चलो! कहीं
रुकना नहीं
है। किसी पड़ाव
पर ठहरना नहीं
है। चले जाना
है बुद्धि की
सीमा के पार। पतझड़
समाप्त हो
जाएंगे।
जानोगे जरूर
ऐसा वसंत जिसका
फिर अंत नहीं
होता। एक दिन
एक ही ऋतु रह
जाएगी—वसंत
की। वही सिद्धावस्था
है। वही
वृद्धावस्था
है। वही
निर्वाण है, मोक्ष है, कैवल्य है।
चौथा
प्रश्न:
भगवान, शिक्षा के
क्षेत्र में
गुलामी अपार
है। पूना के वाडिया
कालेज में
दर्शनशास्त्र
के अध्यापक के
रूप में
इंटरव्यू में
चुने जाने पर
भी नियुक्ति
इसलिए नहीं दी
गई, क्योंकि
गेरुवा
वस्त्र और
माला न पहनने
की शर्त को
मैंने स्वीकार
नहीं किया। अब
परसों फिर
पूना कालेज
में इंटरव्यू
में चुने जाने
पर भी
नियुक्ति के पहले
वे मुझसे वचन
चाहते हैं कि
मैं गेरुवा
वस्त्र न पहनूं
और माला
ज्यादा से
ज्यादा
वस्त्रों के
भीतर रखूं।
शिक्षक को
इतनी
स्वतंत्रता
नहीं कि वह अपने
ढंग से रह सके!
और ऐसा गुलाम
शिक्षक भविष्य
की पीढ़ी
का निर्माण
करने का भार
वहन करता है!
आनंद
सत्य, शिक्षा
तुम्हें
स्वतंत्र
करने को है भी
नहीं। शिक्षा
का सारा
प्रयोजन
तुम्हें
गुलाम बनाए
रखना है। शिक्षा
अतीत की सेवा
में संलग्न
है। उसे
भविष्य से कोई
प्रयोजन नहीं
है। शिक्षा तो
न्यस्त स्वार्थों
की सेविका है।
जो भी शक्ति
में हैं, उनका
गुणगान करती
है।
इस देश
में अंग्रेजों
का राज्य था
तो शिक्षा
अंग्रेजों का
गुणगान करती
थी। यूनियन
जैक स्कूलों
और कालेजों
पर फहराता था।
लांग लिव
द किंग के गीत
गाए जाते थे।
जय हो सम्राट
की! फिर आजादी
आई। यूनियन
जैक की जगह
तिरंगा झंडा
लहराने लगा।
वे ही लोग जो
यूनियन जैक के
लिए नमस्कार
करवाते थे विद्यार्थियों
से, वे ही
उन्हें पढ़ाने
लगे पाठ—झंडा
ऊंचा रहे
हमारा! सारे
जहां से अच्छा
हिंदोस्तां
हमारा! वे ही
लोग जो कल
गोरे साहबों
की नकल करते
थे, अचानक खादीधारी
हो गए। गांधी
टोपियां लगा
लीं। एकदम से
देश—भक्त हो
गए। वे ही
इतिहास लिखने
वाले अध्यापक,
जो शिवाजी
को पहाड़ी चूहा
कहते थे, वे
ही कहने लगे
कि शिवाजी
महान राष्ट्र—भक्त
थे। जो
अट्ठारह सौ
सत्तावन में
हुए विद्रोह
को सिर्फ एक
साधारण—सी
बगावत कहते थे,
वे उसे
महाक्रांति
कहने लगे। ये
शिक्षाशास्त्री
कहां थे
उन्नीस सौ
बयालीस में? अब वे ही
स्वतंत्रता
पर उपदेश देते
हैं। पंद्रह
अगस्त पर झंडा
फहराते हैं।
कल अगर कम्यूनिज्म
आ जाएगा, तो
ये ही लाल
झंडा है
हंसिया—हथौड़ा
वाला फहराने
लगेंगे।
ये तो
गुलाम हैं।
इनका तो धंधा
इतना है कि
जिसकी सत्ता
हो, उसके
गुणगान करें।
ये तो स्तुति
करने वाले लोग
हैं। इनकी कोई
अपनी आत्मा
नहीं। और ऐसा
इस देश में
नहीं है, सारी
दुनिया में
ऐसा है।
शिक्षा
न तो तुम्हें
स्वतंत्रता
देती है, न
तुम्हें
बगावत के स्वर
देती है, न
विद्रोह की
आत्मा देती है,
न तुम्हें
सोच—विचार की
क्षमता देती
है, न
तुम्हें
व्यक्तित्व
देती है।
शिक्षा का तो काम
है...शिक्षा तो
एक कारखाना है,
जिसमें
तुम्हारी
आदमियत को
नष्ट किया
जाता है और
मशीनें ढाली
जाती हैं!
क्लर्क बनाए
जाते हैं, डिप्टी
कलेक्टर बनाए
जाते हैं, स्टेशन
मास्टर बनाए
जाते हैं; पटवारी
और तहसीलदार,
पुलिसवाले—इनको
ढालने का
कारखाना है
शिक्षा। अभी
यहां आदमी
नहीं पैदा
होते। और अभी
यहां आत्मा की
तो बात ही मत
उठाओ। संन्यासी
को कैसे
बर्दाश्त
करेंगे? क्योंकि
संन्यासी तो उदघोषणा
है बगावत की, विद्रोह की।
संन्यासी का
लक्ष्य अतीत
नहीं है, भविष्य
है। और
संन्यासी तो
चाहता है
व्यक्ति की
तरह जिए, भेड़ की
तरह नहीं। और शिक्षाशास्त्र
भेड़ें
बनाता है।
इसका प्रयोजन
ही यही है।
इसलिए
तो सरकार इतना
खर्च करती है
स्कूलों पर, कालेजों पर। तुम
सोचते हो
तुम्हें
शिक्षित करने
को? तो तुम
गलती में हो।
तुम्हें
मशीनों में
ढालने को इतना
खर्च किया
जाता है; कि
तुम जब
विश्वविद्यालय
से निकलो तो
एक कुशल यंत्र
की तरह उपयोगी
हो जाओ। तुमसे
यह अपेक्षा
नहीं की जाती कि
तुम खुद अपने
ढंग से सोचने—विचारने
लगो। राजनेता
यह न चाहेंगे
कि लोग सोचें।
लोग सोचेंगे
तो इन बुद्धू
राजनेताओं को कौन
राजनेता
बनाएगा?
काश, तुम सोच सको
तो तुम्हें
देखकर हैरानी
होगी कि दिल्ली
में जो खेल
चलते हैं, वे
इतने बचकाने
हैं, इतने मूढ़तापूर्ण
हैं...और ये
भाग्य
निर्माता हैं
देश के! और
इनकी सारी
आकांक्षा बस
किसी तरह पद
पर होने की
है। न
सिद्धांत का
कोई सवाल है, न राष्ट्र
का कोई सवाल
है, न
लोकहित का कोई
सवाल है—हां, बातें करते
हैं लोकहित
की। क्योंकि
लोकहित की बातें
न करें तो वोट
नहीं मिलता।
सबको चिंता
अपनी—अपनी है।
मैं कैसे पद
पर रहूं, इसके
लिए जो भी
करना पड़े वह
सब करने को
राजी हैं। सब
तरह के समझौते
करने को राजी
हैं, मगर
पद चाहिए।
अपने—अपने
अहंकार की
प्रतिष्ठा
में लगे हुए
ये लोग, तुम
इनका सम्मान
करते हो, सत्कार
करते हो? जरूर
तुम्हारे पास
सोचने—विचारने
की कोई क्षमता
नहीं है। नहीं
तो इतनी साधारण
जड़बुद्धि
के लोगों के
हाथ में देश
नहीं जा सकता।
इसलिए
राजनेता नहीं
चाहता कि
विश्वविद्यालय
से सोच—विचारशील
लोग निकलें।
वह चाहता है
कि
विश्वविद्यालय
की प्रक्रिया
में तुम्हारा
सोच—विचार खतम
हो जाए।
सम्मान
विश्वविद्यालय
में मिलता भी
नहीं सोच—विचार
करने वाले को।
मुझे
एक कालेज से
निकाल दिया
गया था!
विद्यार्थी
था तभी। मेरा
कसूर? कसूर
मेरा इतना था
कि मैं ऐसे
प्रश्न पूछता
जो शिक्षक
उत्तर नहीं दे
पाते थे। अब
इसमें मेरा
क्या कसूर? शिक्षक को
उत्तर देने
में क्षमता
ग्रहण करनी
चाहिए। और अगर
न दे सके तो कम—से—कम
इतनी
विनम्रता
होनी चाहिए कि
कहे कि क्षमा करें,
मुझे इसका
उत्तर मालूम
नहीं है। न
उतनी विनम्रता,
न उतनी
पात्रता। तो
बेचैनी खड़ी हो
गई।
दर्शनशास्त्र
का मैं
विद्यार्थी
था, हालात
ऐसे हो गए कि
अगर
दर्शनशास्त्र
के प्रोफेसर
मुझे देख लें
कि मैं कक्षा
में हूं, तो
बाहर के बाहर
लौट जाएं। तो
मुझे भी तरकीब
करनी पड़ती थी।
मैं पहले से
कक्षा में न
आऊं। जब वे
कक्षा में
प्रवेश कर
जाएं, तब
भीतर से मैं
प्रवेश करूं।
क्योंकि फिर
उनका भागना
मुश्किल। वे
मुझे देखते से
ही पसीना—पसीना
हो जाएं। और
उनसे मैं कोई
ऐसे सवाल नहीं
पूछ रहा था जो
नहीं पूछने
चाहिए।
दर्शनशास्त्र
तो सवालों का
ही शास्त्र
है! उसमें तो
जीवन की परम
पहेलियों का
ही सवाल है।
मैं जानता था कि
वे हनुमान जी
के भक्त हैं।
तो मैं हर सवा
पूछने के बाद
उनसे कहता कि
छाती पर रख कर
हाथ अनुमान जी
की कसम खा कर
कहो—तुम्हें
ईश्वर का
अनुभव हुआ है?
वे हनुमान
जी की कसम खा
नहीं सकते थे,
क्योंकि
उनके प्राण
निकलते थे! तो
अब वे कैसे कहें
कि मुझे ईश्वर
का अनुभव हुआ
है? और अगर
ईश्वर का
अनुभव नहीं
हुआ है, तो
मैं पूछता: आप
जवाब कैसे दे
रहे हैं?
वह
हनुमान
चालीसा अपने
खीसे में रखते
थे। मैं कहता
कि निकालो
हनुमान
चालीसा, रखो
हाथ में! फिर
मुझसे मत कहना
कुछ—न—कुछ हो
जाए तो! मगर
उत्तर मैं वह मानूंगा, जिसका
तुम्हें
अनुभव हुआ हो।
आखिर
उन्होंने
इस्तीफा लिख
कर दे दिया और
कहा कि या तो
मैं शिक्षक
रहूंगा या यह
विद्यार्थी
रहेगा। हम
दोनों एक साथ
नहीं रह सकते।
प्रिंसिपल ने
मुझसे बुलाया
और कहा कि मैं
जानता हूं, तुम्हारा
कोई कसूर नहीं
है। लेकिन मैं
यह भी जानता
हूं कि उनकी
जगह अगर मैं
भी होता, तो
यही मुझे भी
करना पड़ता।
क्योंकि उनकी
सारी कथा
मैंने सुनी है।
विद्यार्थियों
से भी पता
लगाया, उनसे
भी पूछा, तो
तुम उनको अड़चन
दे रहे हो। और
मैं यह भी
नहीं कह सकता
कि तुम गलत कर
रहे हो।
दर्शनशास्त्र
का प्रयोजन
वस्तुतः लिखा
तो यही है
किताबों में
कि प्रश्नों
की छानबीन की
जाए, खोजबीन
की जाए, जिज्ञासा
की जाए। मगर
हमें इन बातों
से मतलब नहीं
है। हमारा
प्रयोजन है कि
विद्यार्थी
किसी तरह पास
हों। नौ महीने
खराब हो गए, तुम उनको एक
इंच आगे नहीं
बढ़ने देते, हर चीज में
हनुमान, हनुमान
चालीसा! और वे
भी एक हैं कि
वे हनुमान चालीसा
को हाथ में ले
सकते नहीं।
तुम उन्हें जवाब
देने नहीं
देते। तो ये
सारे
विद्यार्थी...इनका
क्या होगा? और वे हमारे
पुराने
शिक्षक हैं, अच्छे
शिक्षक हैं; उनके कई
विद्यार्थियों
ने गोल्ड मेडल
पाए हैं, हमारे
कालेज की
प्रतिष्ठा
हैं, हम
उनको छोड़ भी
नहीं सकते। तो
हमारी तुम से
प्रार्थना है
कि तुम्हीं
छोड़ दो कालेज।
उन्होंने मुझ
से हाथ जोड़ कर
कहा कि मेरी
प्रार्थना
है। क्योंकि
हम तुम्हें
निकाल भी नहीं
सकते, क्योंकि
तुमने कोई
कसूर किया भी
नहीं है।
मैंने
वह कालेज
छोड़ा। दूसरा
कोई कालेज
मुझे लेने को
राजी नहीं, क्योंकि खबर
पहुंच गई। खबर
तो पहुंच ही
रही थी नौ
महीने से कि
एक मुश्किल खड़ी
हो गई है। जिस
कालेज में
जाऊं, वे
कहें कि नहीं
भाई, जगह
ही नहीं है! एक
प्रिंसिपल ने
कहा कि जगह तो है—जगह
सब कालेज में
है, जहां—जहां
तुम गए हो—लेकिन
एक शर्त पर हम
तुम्हें रख
सकते हैं कि तुम
प्रश्न नहीं
पूछोगे। इस
शर्त पर मुझे
कालेज में
भर्ती किया।
परीक्षा करीब
आ रही थी, तो
मुझे कहीं—न—कहीं
भर्ती होना
था। तो मैंने
कहा कि ठीक है,
मैं इस शर्त
पर भर्ती होता
हूं, लेकिन
मेरी भी एक
शर्त है कि
मैं क्लास में
मौजूद नहीं
होऊंगा।
क्योंकि वह
जरा अड़चन बात
है। कि मेरे
सामने शिक्षक
खड़ा हो, अंट—शंट
बातें कर रहा
हो, तो मैं
प्रश्न न पूछूं...मैं
भूल ही जाऊंगा
यह शर्त! तो आप
कृपा करके
इतना और कर
दें कि मेरी
अनुपस्थिति
में भी मुझे
हाजिरी मिलनी
चाहिए। वे
इसके लिए भी
राजी हो गए।
तो मैं कालेज
गया ही नहीं।
और मुझे
हाजिरी मिलती
रही। इस तरह रास्ता
बनाना पड़ा।
उन्होंने कहा,
यह ठीक है, इतना हम कर
लेंगे।
हाजिरी
तुम्हें दे
देंगे। मगर
तुम जाना ही
मत। क्योंकि
अगर तुम्हें
यह अड़चन है कि
तुम रुक ही
नहीं सकते
बिना पूछे...!
तुम्हारे
तथाकथित
कालेज, विश्वविद्यालय
लोगों की
चेतना को
मारने का काम
करते हैं, जिलाने
का नहीं। उनकी
चेतना पर धार
नहीं रखते हैं,
बोथला करते हैं।
उनके दर्पण को
साफ नहीं करते—और
धूल जमा देते
हैं। यह बहुत
मुश्किल
मामला है
विश्वविद्यालय
से अपनी
बुद्धि को बचा
कर निकल आना।
कठिन मामला
है। बहुत थोड़े
लोग बच कर निकल
पाते हैं।
आश्चर्यजनक
है जब कभी कोई
विश्वविद्यालय
से अपनी
बुद्धि बचा कर
निकल आता है।
विश्वविद्यालय
के कुछ शिक्षक
मुझे प्रेम करते
थे। उनको लगता
था कि मेरे
साथ ज्यादती
की जा रही है।
लेकिन उनके भी
मुंह बंद थे।
क्योंकि उनकी
भी नौकरी का
सवाल था। वे
यह भी नहीं कह
सकते कि मेरे
साथ ज्यादती
की जा रही है।
क्योंकि जो
मेरे साथ खड़ा
होगा, शायद
उसको भी
मजबूरी खड़ी हो,
उसको भी
छोड़ना पड़े।
मेरी
आखिरी
प्रतीक्षा
थी। सारे पेपर
हो गए थे, मुखाग्र
परीक्षा थी, एम.ए.की। मेरे जो
प्रधान थे, उनका मुझ पर
बड़ा स्नेह था।
उन्होंने
मुझे घर बुला
कर कहा कि
देखो, अलीगढ़
विश्वविद्यालय
के अध्यक्ष
मुखाग्र
परीक्षा के
लिए आ रहे
हैं। उनको तुम
जैसे
विद्यार्थी
का कोई अनुभव
नहीं होगा! हम
तो धीरे—धीरे
तुमसे राजी हो
गए हैं! तुम
उनसे कुछ ऐसी
बात कर देना, बिगाड़ मत कर
लेना खड़ा। वे
कुछ भी पूछें,
तुम्हें
उलटा प्रश्न
नहीं पूछना है—जो
तुम्हारी आदत
है। तुम उनकी
परीक्षा नहीं
ले रहे हो, यह
खयाल रखना। और
मैं बिलकुल
मौजूद रहूंगा,
मैं भी
मौजूद रहूंगा,
और अगर
तुमने जरा भी
गड़बड़ की तो
मैं पैर में
पैर मारूं
तो तुम समझ
जाना।
क्योंकि
तुम्हें मैं
जानता हूं, तुम्हारा
कुछ पक्का
नहीं है। तुम
अभी हां कह दो
और वहां भूल
जाओ। तो मैं
पैर में पैर मारूं तो
सम्हल जाना कि
तुम गड़बड़ कर
रहे हो!
और जो
किताब में
लिखा है बस
वही तुम्हें
उत्तर देना
है। उससे इंच
भर इधर—उधर
नहीं जाना है।
किताब गलत या
सही, इसकी तुम
चिंता ही न
करो। तुम्हें
परीक्षा पास
करनी है कि
तुम्हीं
किताब के गलत
या सही होने
की फिक्र करनी
है? मैंने
भी सोचा कि अब
सब निपट ही
गया है, यह
आखिरी उपद्रव
है, बस
इसके बाद खतम
हो जाएगा
मामला, मैंने
उनसे कहा, ठीक!
मगर
मैं भूल गया।
उन सज्जन का
चेहरा ही देख
कर मुझे ऐसा
लगा कि इन
महानुभाव को
ऐसे छोड़ देना ठीक
नहीं है। उनकी
अकड़ ऐसी थी
जैसे कि वे
जानते हों।
उन्होंने
मुझसे पूछा कि
भारतीय दर्शन
और पाश्चात्य
दर्शन में
क्या भेद है? मैंने उनसे
पूछा, दर्शन
भी दो होते
हैं? भारतीय
आंख में और
पाश्चात्य
आंख में क्या
भेद है? आंख
आंख है।
यह क्या बकवास
लगा रखी है!
मेरे शिक्षक
एकदम जोर से
पैर में पैर
मारने लगे; मैंने उनसे
कहा, तुम
अपनी टांग
अपनी जगह रखो!
आप बीच में मत पड़ो। मैं
इनसे निपट
लूंगा अकेला,
आप बिलकुल
बीच में न पड़ो!
दर्शन तो एक
है—क्या
भारतीय? क्या
अभारतीय? कोई
दर्शन
राजनीति है? अभारतीय
दर्शन का क्या
मतलब होता है?
दर्शन का
अर्थ है, सत्य
का अनुभव, सत्य
का
साक्षात्कार!
इसमें क्या भारतीय,
क्या
अभारतीय? जीसस
को सत्य का
साक्षात्कार
हुआ—अभारतीय
हो गया! और
महावीर को हुआ
तो भारतीय हो
गया! सत्य तो
सत्य है। आंख आंख है।
रोशनी रोशनी
है। न रोशनी
पूरब की होती
है, न
पश्चिम की
होती है। न
आंख पूरब की
होती है, न
पश्चिम की
होती है।
वे तो
ऐसे सकते में
आ गए कि वे भूल
ही गए कि
परीक्षा लेने
आए हैं। और
मेरी तो तुम
आदत जानते हो, फिर मैं
बोलता ही रहा!
जब पूरा डेढ़
घंटा बोल चुका,
तब मैंने
उन्हें छोड़ा!
मेरे
शिक्षक बाहर
आकर मुझसे
कहने लगे, सब तुमने
कचरा कर दिया!
अब पता नहीं
वह आदमी क्या
सोचेगा, क्या
नहीं सोचेगा,
क्या करेगा,
क्या नहीं
करेगा। मगर वे
आदमी भले थे।
उन्होंने
मुझे सौ में
से निन्यानबे
अंक दिए। और
मुझे अलग से
बुला कर कहा
कि क्षमा करना
कि मैं सौ ही नहीं
दे रहा हूं; क्योंकि
उसमें कहीं
ज्यादती न
मालूम पड़े कि
मैंने
पक्षपात किया
है, इसलिए
सिर्फ
निन्यानबे दे रहा
हूं। देना
मुझे सौ ही थे,
क्योंकि
तुम पहले
विद्यार्थी
हो जिसने विद्यार्थी
की तरह
व्यवहार किया
है। नहीं तो
मुर्दा, किताबों
को दोहराते
हैं! हालांकि
तुमने मुझे नाराज
बहुत किया, कई बार मुझे
गुस्सा आने
लगा था, मगर
बात तुम्हारी
सच थी। बात
तुम ठीक ही कह
रहे थे। तो
हालांकि मेरे
अहंकार को चोट
लग रही थी लेकिन
मेरी आत्मा
गवाही दे रही
थी कि तुम बात
ठीक कह रहे
हो।
यह
शिक्षा की
व्यवस्था, आनंद सत्य, तुम्हें
अड़चन देगी।
तुम्हें अगर
शिक्षक होना
हो तो तुम्हें
कुछ समझौते
करने होंगे।
अगर तुम्हें
समझौते न करने
हों—और मैं तो कहूंगा
कि मत करो
समझौते; क्योंकि
क्या मिलेगा
समझौता करने
से? रोटी—रोजी
मिल जाएगी।
रोटी—रोजी और
तरह से भी पाई
जा सकती है।
रोटी—रोजी के
लिए आत्मा
नहीं बेचनी
होती। लेकिन
ये अड़चनें
तुम्हें
आएंगी। दोनों
हाथों लड्डू
नहीं हो सकते।
या तो तुम
आत्मवान हो
सकते हो और या
फिर तुम्हें
थोड़े—बहुत
समझौते करने
पड़ेंगे।
मैं
नहीं कहता
क्या करो। मैं
तो सिर्फ साफ
कर देता हूं
बात। इतनी साफ
है कि अगर तुम
चाहते हो कि
किसी
विद्यालय में, किसी
महाविद्यालय
में प्रोफेसर
होना है, तो
तुम्हें
समझौते करने
पड़ेंगे। माला
भीतर कर लो!
अभी धीरे—धीरे
सफेद कपड़े
पहनने लगो, फिर उनको
आहिस्ता—आहिस्ता
रंगने लगना, थोड़ा—थोड़ा।
एक दहा नौकरी
में प्रवेश कर
जाओ, फिर
साल—छह महीने
में ठीक—ठीक
रंग पर पहुंच
जाना। फिर एक
दिन माला बाहर
निकाल लेना!
फिर भी झंझट
तो होगी। अगर
तुम्हें अपना
जीवन अपने ढंग
से जीना है, तो झंझटें
स्वीकार करनी
होंगी।
मैं तो
विश्वविद्यालय
लुंगी पहन कर पढ़ाने
जाता था। मेरे
प्रिंसिपल
थोड़े डरते थे।
क्योंकि कई
घटनाएं घट
चुकी थीं
जिनमें लोग
मुझसे झंझट
में पड़ चुके
थे और अड़चन
खड़ी होती थी।
वे नए—नए आए
थे। और डाक्टर
राधाकृष्ण का
उसी वर्ष जन्म
दिन शिक्षक
दिवस की तरह
घोषित किया
गया था। और
उन्होंने
व्याख्यान
दिया।
उन्होंने कहा
कि यह परम
सौभाग्य है कि
एक शिक्षक
राष्ट्रपति
हो गया। मुझसे
न रहा गया।
मैं खड़ा हो
गया। मैंने
कहा, थोड़ा
रुकिए। इसमें
कौन—सी खूबी
की बात हो गई
कि एक शिक्षक
राष्ट्रपति
हो गया! और ऐसे
अगर शिक्षक
दिवस मनाओगे,
तब तो बड़ी
मुश्किल हो
जाएगी। कल जगजीवनराम
राष्ट्रपति
हो जाएं तो
चमार दिवस
मनाओ! एक चमार...!
अब चौधरी चरण
सिंह कुछ हो
जाएं, तो
किसान दिव
मनाओ। फिर तो
बड़ी मुश्किल
हो जाएगी। कोई
नाई हो गया, कोई धोबी हो
गया...तीन सौ
पैंसठ दिन तो
यूं चले जाएंगे।
वैसे
ही साल में छह
महीने छुट्टी
रहती है।
और
मैंने कहा, मेरी समझ
में नहीं आता
कि शिक्षक
राष्ट्रपति हो
जो, इसमें
शिक्षक का
सम्मान क्या
है? सम्मान
तो शिक्षक का
तब हो जब कोई
राष्ट्रपति शिक्षक
हो जाए। छोड़
दे
राष्ट्रपति
के पद को और
शिक्षक हो जाए
और कहे कि दो कौड़ी का है
राष्ट्रपति
का पद, शिक्षक
के आगे क्या!
तो शिक्षक
दिवस मनाना।
तो मुझे पता
है
राधाकृष्णन
कितनी खुशामद
कर—कर के
राष्ट्रपति
हुए हैं। यह
शिक्षक का कोई
सम्मान नहीं
है। कितने
समझौते करके,
कितनी
खुशामद करके,
राजनीतिज्ञों
की कितनी
मालिश कर—कर
के
राष्ट्रपति
हो पाए हैं, वह मुझे पता
है। यह कोई
शिक्षक का
सम्मान नहीं
है।
तो वे
उसी दिन से
मुझसे डरे हुए
थे। और जब मैं
लुंगी पहन कर
कालेज पढ़ाने
जाने लगा और
एक चादर ओढ़ कर
तो
उन्होंने...बड़ा
मुश्किल हुआ, जगह—जगह से
लोगों ने, प्रोफेसरों ने कहा कि यह
रोकना चाहिए।
अगर इस तरह चला
तो बड़ा
मुश्किल हो
जाएगा मामला।
न बांधो
टाई, चलेगा;
न पहनो कोट—पतलून,
चलो वह भी
ठीक है; मगर
लुंगी, और
चादर! और मैं खड़ाऊं भी
पहनता था। तो
मेरा प्रवेश
होता तो पूरे
विद्यालय में
पता चल जाता—खट,
खट, खट, खट। किसी को
भी चैन से
रहने का मौका
नहीं था।
आखिर
उन्होंने
मुझे बुलाया
और कहा कि
क्षमा करना, मजबूरी है, कई लोग आकर
कहते हैं, तो
मैंने उनको
कहा कि यह
मेरा
इस्तीफा...खीसे
में से निकाल
कर मैंने उनको
दिया। वे भी
बड़े हैरान
हुए।
उन्होंने कहा,
इस्तीफा
क्या लिखा ही
रखे हुए हैं!
मैंने कहा वह
लिखा ही हुआ
रखता हूं।
क्योंकि कौन
लिखने की झंझट
करे! वह हमेशा
मैं खीसे में
ही रखता हूं।
जिस दिन कोई
बात हो, उसी
वक्त, एक
क्षण की भी
देरी नहीं, यह इस्तीफा।
बात खतम हो गई!
मेरे रहने—सहने
के ढंग को
दूसरा कोई
निर्णय नहीं
कर सकता। मैं
तुम्हारे
पाजामे पर कोई
एतराज नहीं
उठा रहा हूं, तुम कौन हो
मेरी लुंगी पर
एतराज उठाने
वाले? तुम
समझ रहे हो कि
तुम अपने चूड़ीदार
पाजामे में
बहुत सुंदर
मालूम पड़ रहे
हो? बुत
मालूम पड़ते
हो!
मगर
फिर तुम्हें
अड़चन होगी।
अड़चन का भी
अपना मजा है।
मैं तो कहूंगा, अड़चनों से
डरो मत। मेरी
सलाह मानो तो अड़चनें
झेलो, ठीक
है। नहीं
मिलेगी
विश्वविद्यालय
में, कालेज
में नौकरी तो
नहीं मिलेगी।
कोई और छोटा—मोटा
काम कर लेना।
मगर इज्जत से,
सम्मान से।
अपमान से, झुक
कर, गुलाम
होना उचित
नहीं है।
महंगा सौदा
है। रोटी ही
सब कुछ नहीं
है।
लेकिन
मेरी बात मान
कर कुछ मत
करना। खुद
सोचना, विचारना।
नहीं तो तुम
मुझे दोषी ठहराओगे।
मैं कुछ भी
नहीं कह रहा
हूं। मैंने तो
सिर्फ स्थिति
स्पष्ट कर दी।
अगर चाहते हो
कालेज में प्रोफेसर
होना, तो
कुछ समझौते
करने पड़ेंगे।
मैं कालेज में
प्रोफेसर रहा
हूं, जानता
हूं। समझौते
नहीं करने का
परिणाम मैं जानता
हूं! हजार झंझटें
होंगी।
समझौता कर लो,
तो सुविधा
में रहोगे।
समझौता कर लोगे, बाहर सुविधा
होगी, भीतर
आत्मा मरने
लगेगी और सड़ने
लगेगी।
समझौता नहीं
किया, बाहर
असुविधा होगी,
असुरक्षा
होगी, लेकिन
भीतर आत्मा
में बड़े फूल खिलने
लगेंगे। अब
तुम्हें जो
चुनना हो।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें